कहानियों के बीच बोलता : तारा पांचाल


कहानियों के बीच बोलता : तारा पांचाल
सुभाष चन्द्र, हिंदी विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
हरियाणा के छोटे से पिछड़े कस्बे नरवाना (बकौल तारा पांचाल नरवाना कंट्री)में जन्मे तारा पांचाल एक कहानीकार के तौर पर पूरे देश में प्रतिष्ठित हुए। इनका जन्म 28 मई, सन् 1950 में हुआ। अभी वे अठावन वर्ष के हुए थे कि जानलेवा बीमारी ने उनके नाजुक से शरीर पर धावा बोल दिया। 20 जून, 2009 को वे साहित्य जगत के लिए दुखद समाचार में तब्दील हो गए। तारा पांचाल की पारिवारिक पृष्ठभूमि में साहित्य व लेखन तो क्या सामान्य शिक्षा भी प्रवेश नहीं कर पाई थी, लेकिन उनका रुझान अपनी प्रारंभिक अवस्था से ही साहित्य पाठन व लेखन की ओर हो गया था। श्रमशील परिवार से उन्हें लोहे को आग की भट्टी में तपाकर मनोवांछित शक्ल में ढालने तथा समाज के लिए उपयोगी बनाने की अद्भुत सृजनकारी विरासत मिली। अपने जीवन अनुभवों की भट्टी में से समाज को समझने और बेहतर बनाने के लिए साहित्य-सृजन करते रहे। कहावत है कि 'लुहार छोटा और बढ़ई बड़ा' मतलब कि लुहार हमेशा नाप से कम लोहा लेता है और उसे अपनी अनुभव की चोट से पूरा करता है। छोटे कस्बे में रहकर अनुभवों के विस्तार, कहानियों के सुगठन व कसावट का रहस्य यहीं कहीं है। क्या मजाल कि सूत भर का भी फर्क रह जाए?
किशोरावस्था में ही अखबारों में उनकी लघुकथाएं व कहानियां प्रकाशित होने लगी थी। 'सारिका', 'हंस', 'कथन', 'वर्तमान साहित्य', 'पल-प्रतिपल', 'बया', 'गंगा', 'अथ', 'सशर्त', 'जतन', 'अध्यापक समाज', 'हरकारा' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में पाठक उनकी कहानियों से निरन्तर परिचित होते रहे हैं। 'गिरा हुआ वोट' संग्रह की दस कहानियों समेत तारा पांचाल की कुल चालीस के आसपास कहानियां हैं, जिनमें कुछ अप्रकाशित हैं। तारा पांचाल पर उस संकीर्ण परम्परा का प्रभाव नहीं था, जो कि ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखती है। अपनी युवावस्था में हरियाणा के कहानीकारों की कहानियों का संग्रह 'बणछटी' का संपादन-प्रकाशन किया, जिसकी उस समय काफी सराहना हुई थी। तारा पांचाल लगातार अपने साथी रचनाकारों तथा नव-रचनाकारों को प्रोत्साहित करते रहे हैं। बेहद विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने 'जतन' पत्रिका के संपादन की मुख्य जिम्मेवारी निभाई। उनका छोटा सा घर साहित्यिक-गोष्ठियों और विमर्श का अड्डा था। तारा पांचाल कई वर्षों तक हरियाणा के जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष रहे। जोड़-तोड़ करके पुरस्कार हथियाना तथा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ रचनाकार की घोषणा के लिए हिन्दी के कथित आलोचकों व पत्रिकाओं के संपादकों के आगे-पीछे करना उनकी फितरत का हिस्सा नहीं था। सामाजिक सरोकारों व कलात्मकता की अपेक्षा व्यावसायिकता व सत्तासीन वर्ग की स्तुति-प्रशस्ति की प्रवृत्ति को रचनाकार का नैतिक पतन व सांस्कृतिक अवमूल्यन मानते थे। इस विषय पर 'गरुड़Ó तथा 'गवैयाÓ कहानियां भी लिखी हैं। चाहे देर से ही सही, लेकिन हरियाणा की साहित्य अकादमी ने भी वर्ष 2007-08 का बाबू बालमुकुन्द गुप्त सम्मान प्रदान करके तारा पांचाल की रचनात्मक प्रतिभा का सम्मान किया।
तारा पांचाल के नाम से पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां छपती थी। प्रथमत: उनको लेखिका समझा जाता था और 'सुश्री तारा पांचाल' नाम से उनकी कहानियों के प्रशसंकों के पत्र आते थे। तारा पांचाल अपने जीवन में जितने चुप्पा थे अपनी कहानियों में उतने ही मुखर। किसी सौभाग्यशाली ने ही उन्हें मंच से बोलते सुना होगा। मंच-संकोची, आत्म-प्रदर्शन से दूर व सार्वजनिक कार्यक्रमों में चुपचाप रहने वाला व्यक्ति कहानियों में अपनी अभिव्यक्ति की पूरी कसर निकाल लेता था। अपने जीवन में विनम्र और शिष्टाचारी कहानियों में ऐसी-ऐसी कटुक्तियां और व्यंग्य कसता है कि प्रतिपक्ष तिलमिलाकर रह जाए।
तारा पंाचाल बेशक हरियाणा की मिट्टी से उपजे तथा उसकी भीतरी सच्चाइयों को व्यक्त करने वाले रचनाकार माक्र्सवादी रचनाकार माने जाते रहे हैं, लेकिन उनकी समझ माक्र्सवाद के आधिकारिक पोथे पढ़कर नहीं बनी थी। उनकी समझ लोक-चेतना व लोक-संस्कृति के प्रगतिशील व प्रतिक्रियावादी तत्त्वों की टकराहट की पहचान से बनी थी। उन्होंने हरियाणा की लोक-संस्कृति व समाज को मोहग्रस्त होकर नहीं, बल्कि तार्किक ढंग से देखा-समझा। माक्र्सवादी विचारधारा ने उनके तर्क को आधार जरूर दिया। परम्परा व संस्कृति के नाम पर रूढिय़ों के अंधानुकरण की अपेक्षा उससे तर्कपूर्ण मानवीय संबंध बनाने की जरूरत महसूस करते थे। इसीलिए बाबू बालमुकुन्द गुप्त सम्मान के अवसर पर उन्होंने तार्किकता पर जोर देने के लिए कहा था कि ''हरियाणा में कहावत है कि 'मां की ना कहिए न्या की कहिए'। यानी हमारी लोक संस्कृति में भी चीजों को वस्तुपरकता की कसौटी पर कसने की हिदायत है न कि अनुराग या मोह के वशीभूत होकर। ... किसी भी राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक समृद्धि उसके तर्कों के पैनेपन और गहराई से ही मापी जा सकती है। तर्कों के मरने का अर्थ है राष्ट्र की आत्मा का सड़ जाना। ... किसी भी संस्कृति की धड़कनों को, हरारत को या उत्कृष्टता को मापने का सबसे कारगर मापदण्ड है उस संस्कृति में विद्यमान तर्कों की ऊंचाई और गहराई और बोदे-बीमार तर्कों के स्थान पर नये तर्कों के बनने की प्रक्रियायें और गुंजाइश। इस दृष्टि से हरियाणा को देखें-परखें तो गर्व के स्थान पर परेशानी ही होती है। मनुष्य और मनुष्यता की सुरक्षा किसी भी स्वस्थ संस्कृति का पहला सर्वोच्च तर्क होता है, लेकिन हरियाणा में कई बार ऐसा लगता रहा है जैसे मनुष्य और मनुष्यता की सुरक्षा वाला यह तर्क अभी अपनी शैशवावस्था में है और कुतर्कों की अंगुली पकड़कर चलना सीख रहा है। ... दलितों-वंचितों का गांव से पलायन मात्र उनका पलायन नहीं है अपितु यह कुतर्कों द्वारा उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का देश-निकाला है। युवकों-युवतियों का बाहों में बाहें डालकर रेल के आगे कूदना या जहर खाकर आत्महत्या करना कुतर्कों के हाथों एक सुंदर लेकिन विवश तर्क की हत्या नहीं तो और क्या है? ऐसी तमाम हत्याओं पर हर बार संवेदनशील कुतर्क गण्डासी या जेली पर अपनी जीत के झण्डे फहराता हुआ चौपाल के चबुतरे पर रावण के 'हमी-हम' वाला ठहाका लगाता हुआ देखा जा सकता है।''
''यहां मैं एक बात और कहना चाहता हूं - आज कुकरमुत्तों की तरह जगह-जगह श्री श्री गुरु जी, श्री श्री माता जी, श्री श्री बहन जी, श्री श्री भाई जी, श्री श्री बापू जी और इनके डेरे-संगठन उग रहे हैं। ये सब भी समाज की तर्कहीनता के ही कड़वे फल हैं। ये भी अपने-अपने हितों के पोषण के लिए भक्ति के रस में डुबो कर अलग तरह के कुतर्क हमारे समाज में फैला रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में लेखकों-बुद्धिजीवियों का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है जिसे शौकिया या पार्ट-टाइम लेखन के जरिए पूरा नहीं किया जा सकता। आज हरियाणा में एक बड़े नवजागरण की जरूरत है जिसमें लेखक अपने लेखन की सार्थकता सिद्ध करते हुए अग्रणी और बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।''(सं. देश निर्मोही, साहित्य उत्सव: वार्षिकी 2008, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, पृ.-34)
ये विचार तारा पांचाल के सृजन, सृजन-प्रक्रिया तथा उसके सरोकारों को समझने की कुंजी कहे जा सकते हैं। मनुष्य की मनुष्यता को फलने-फूलने के पूरे अवसरों वाले समाज के निर्माण के लिए तारा पांचाल कटु सच्चाइयों को व्यक्त करते हैं। जहां भी मनुष्यता पर संकट मंडराता दिखाई देता है, वहीं उनकी लेखनी को पंख लग जाते हैं। अपनी लेखनी के फावड़े से वे समाज की सोच पर जमे कुतर्कों के मलबे को हटाकर तर्कपूर्ण मानवीय समाज बनाना चाहते हैं।
किसी भी रचनाकार का निजी जीवन विशेषकर कथाकार का जीवन किसी न किसी रूप में उसकी रचनाओं के कथ्य का तो हिस्सा बनता ही है, बल्कि उसकी रचनाओं के रूप-संरचना को भी गहरे से प्रभावित करता है। तारा पांचाल की कहानियों में उनके आसपास का जीवन मौजूद है। सन् 2007 में हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक श्री देश निर्मोही ने नवोदित लेखकों की कविता तथा कहानी प्रतियोगिता करवाई, जिसके कहानी वर्ग के निणायक तारा पांचाल थे। पुरस्कार वितरण के अवसर पर नवोदित लेखकों को दिए गए संदेश में उनके अपने संकल्पों और सरोकारों से निसृत है। ''सभी नवोदित रचनाकार साथियों से मेरा आग्रह है कि वे अपने आसपास के यथार्थ को समझें, देश की वर्तमान व्यवस्था और उसकी नीयत को समझें और इस व्यवस्था में अपने पात्रों की सम्भावित भूमिका को ठीक से रेखांकित करें। यथार्थ को पकडऩे के लिए आप सुनी-सुनायी या बनी-बनायी फोर्रेशन्स अपनी रचनाओं का आधार न बनायें। इसके लिए स्वयं आपका घर है। अड़ौस-पड़ौस है। गाम-गुहांड है। आपका अपना परिवेश है, जहां असमानता है, दो जून की रोटी के लिए जद्दो-जहद है, बेरोजगारी है, महिलाओं के साथ भेदभाव है, किसानों-गरीबों के कर्जे हैं, उनकी आत्महत्याएं हैं, अपने लक्ष्यों से भटकी ओछी राजनीति है, जातिवाद है, तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों द्वारा हमारे सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पंहुचाने के उद्देश्य से फैलायी जा रही साम्प्रदायिक घृणा है, शोषण है, आम आदमी की पंहुच से दूर की जा रही मंहगी शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। कितने-कितने विषय हैं जिनके लिए न तो आपको भाषा गढऩे की जरूरत है और न ही शिल्प के पीछे भागने की। हर विषय अपनी भाषा और शिल्प स्वयं लेकर आपके पास आयेगा। आप अपनी सहज-स्वाभाविक भाषा में पूरी प्रतिबद्धता के साथ इन विषयों को अपनी रचनाओं में मुद्दों के रूप में प्रस्तुत करें। आपका समाज परिवर्तन का यह नया रोल आपके सामने नयी-नयी चुनौतियां खोलेगा और आप इन चुनौतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के आगे खोलेंगे।'' (सं. तारा पांचाल व सुभाष चन्द्र, दस्तक: नवोदित लेखकों की रचनाओं का संकलन, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, पृ.-9)
तारा पांचाल कर्मचारी थे और सरकारी खजाने से वेतन प्राप्त करते थे। यदि फाकाकशी की नौबत नहीं भी थी तो उनका जीवन आर्थिक तंगी से भरा था। कर्ज और आर्थिक दबाव उनके जीवन में स्थायी थे। विश्वविद्यालय से जितने भी तरह के ऋण मिल सकते हैं वे सब लेने के बाद भी बाजार से मंहगी दर पर ऋण लेकर भी उनका काम नहीं चलता था। जब जेब में बहुत कम पैसे हों, मन में खरीदने की प्रबल आंकाक्षा हो और बाजार सजा हो तो उसमें अपने नगण्य सी पूंजी को टटोलते-संभालते व्यक्ति का मनोविज्ञान तारा पांचाल बेहतर समझते थे। 'पीपल' का रामराज, 'बिल्ली' का हुजूर सिंह, 'फोटोग्राफर' का पाली 'रामदेव का घर' का रामदेव, 'त्राहि माम त्राहिमाम' का धरणीधर मूलत: एक ही चरित्र है, जो विभिन्न शक्लों में रचनाओं में उपस्थित होता है। निम्रमध्यवर्ग के अभावग्रस्त जीवन तथा महत्त्वाकांक्षा के बीच गहरी खाई में डूबता-उतराता जीवन। अपने अभावग्रस्त जीवन के सूत्र को न पकड़पाने के कारण 'बिल्ली' का हुजूरसिंह पत्नी को पीटकर खीझ उतारता है तो अपनी पिटाई का कारण बिल्ली को मानकर उसकी पत्नी उसे मार देती है। 'पीपल' का रामराज का खीझ का शिकार भी भिखारी होता है।
तारा पांचाल की कहानियों में वे स्वयं कई बार साफ देखे जा सकते हैं। रामदेव का घर अपने घर का ही दृश्य है।
तारा पांचाल को महफिलें सजाने और दोस्तों से गप्पें लड़ाने में खूब आनन्द आता था और यदि साथ में 'शराब की चुस्की' भी हो जाए तो वे चहकने लगते थे। असल में असली तारा पांचाल के दर्शन तो इसी तरह की बैठकों में ही होते थे। जब उनका दन्तविहीन पोपला मुंह चलता था और वे खाने के सामान में से नर्म चीजें ढूंढते हुए बीड़ी का दम लगाते थे और अपनी बात पर अड़ जाते थे। अपनी पसन्द नापसन्द पर दृढ़ता के दर्शन 'फोटोग्राफर' के पाली तथा 'मुनादियों के पीछे' के हीरो उर्फ राणा के चरित्र में होते हैं।
तारा पांचाल बातों में अत्यधिक रस लेते थे। उनकी कहानियों में आपस में बात करते तथा तरह-तरह की योजनाएं बनाते दोस्त मिल जायेंगे। बतरस की इस शैली से अपनी कहानियों में जीवंत प्रसंग दिए हैं।
तारा पांचाल की कहानियों में चुस्त संवाद भरे पड़े हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये कहानियां छोटी छोटी-छोटी नाटिकाओं के कथान्तरण है। यह सब उनके बातूनी व्यक्तित्व का प्रभाव है। चाहे वे 'दीक्षा' के गुरु व चेले में संवाद हो या फिर 'निक्कल' के गुप्ता और शर्मा के बीच संवाद हो।
जाति का सवाल तारा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जाति का जहर सामाजिक-संरचना में गहरे तक घुला है। जाति को तोड़े बिना लोकतांत्रिक समाज की कल्पना संभव नहीं है, इसीलिए उनकी कहानियों में वह बार-बार आ जाता है। 'निर्माता', 'कलगी', 'निक्कल' में विशेषतौर पर आता है। ग्रामीण समाज की सत्ता संरचना में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ठेंगा दिखाते हुए जाति किस तरह महत्त्वपूर्ण हो जाती है, 'कलगी' कहानी इसे व्यक्त करती है। ''सब जानते हैं कि पंचायत में जब कोई बात चमेला कहेगा तो वह बात आने-दो आने या मुश्किल से चार आने की होगी। जब वही बात कोई बामण कहेगा तो कम से कम बारह आने जरूर हो होगी। और अगर वही या उससे भी हल्की बात चौधरी या चौधरी की जात का कोई आदमी कहेगा तो वह सवा सोलह आने सही मानी जायेगी। सारा जमाना जानता है कि पंचायतों में वजन कही गई बात का नहीं - कहने वाले की जात का होता है'' ऐसी सामाजिक स्थिति में किसी दलित की भागीदारी को आसानी से समझा जा सकता है।''
जातिगत पूर्वाग्रहों को आधुनिक शिक्षा भी दूर नहीं कर पाई। 'निक्कल' कहानी के शर्मा और गुप्ता जी की बातचीत इसका खुलासा करती है। चन्दर अनुसूचित जाति से संबंधित है। अपनी प्रतिभा के बल पर सामान्य श्रेणी में उसका चयन होता है। शर्मा जी चन्दर की प्रतिभा-कर्मठता-ईमानदारी के कायल भी हैं, लेकिन उसकी जाति का पता चलते ही चन्दर की प्रतिभा-योग्यता जातिगत पूर्वाग्रहों के सामने धरे के धरे रह जाते हैं। उसके अपमान और उत्पीडऩ की योजना बन जाती है।
अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण समाज का सत्तासीन वर्ग जातिगत सभाओं व संगठनों के उभार की प्रेरक राजनीति तथा इसके वर्गीय चरित्र को 'निर्माता' कहानी में उद्घाटित किया है। कथित पिछड़ी व अछूत जातियों में भी ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच व्याप्त है। सभी जातियों का सामाजिक-आर्थिक शोषण होता है। शोषण का विरोध करने के लिए एकत्रित भी होते हैं, लेकिन सामाजिक एकता के अभाव में यह प्रभावी शक्ति नहीं बन पाता। आर्थिक-शोषण के विरुद्ध एकता का आधार सामाजिक एकता के बिना एकदम दरक जाता है।
तारा पांचाल कहानी में किसी न किसी चरित्र के माध्यम से प्रवेश करके सीधे-सीधे अपनी बात कहने का ढंग निकाल लेते हैं। 'कलगीÓ कहानी में दस्तकारों की बैठक में और सभी उत्साह व जोश में है, सब अपने-अपने पेशे के संकटों व मजदूरी बढ़ाने की जरूरत पर बात करते हैं। तारा पांचाल अबने नाई के लड़के के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ''अबने नाई का लड़का जीवन जो कि शहर में दुकान करता है - कुछ हिचकता हुआ मगर जोश में खड़ा हुआ और बोला, 'बुजुर्गो और भाइयो, इस तरह अपनी-अपनी कहने से बात नहीं बनेगी। हमें आज पूरी गम्भीरता से सब कुछ सोचना चाहिए। आप सब मेरी एक अर्ज सुनें सिर्फ दो मिन्ट चुप हो जाओ ...' सब चुप होने लगे लेकिन अपनी-अपनी कहने को सभी कसमसा रहे थे। 'आप सब मेरे से बड़े हो - कोई गलत बात कही जाये तो सौ जूत मारना पर समाई से मेरी बात सुन लो।' जीवन के कहने का सब पर असर हुआ और वे चुप हो गए। 'यहां सब जात के लोग जमा हैं। कुम्हार, लुहार, नाई, बढ़ई, खाती सब जात के। मेरा बाप, मेरा दादा तुम सबके ब्याह-मुकलावों में नाई-पणा करते रहे हैं। यानी नाई सब का सीर का होता है। तुम सब हमारे जजमान हो। तो जजमानों, जब नाई सब का सीर का हो सकता है तो तुम्हारा हुक्का सीर का क्यूं नहीं हो सकता। आज हम मिलकर लड़ाई लडऩे की बात कर रहे हैं - पर कैसे? कुम्हार अपना हुक्का अलग गुडग़ुड़ा रहे हैं, लुहारों की चिलम अलग बज रही है। बढ़ई अलग और नाई अलग। हम सब एक-दूसरे से बड़ा बनने और दिखाने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन चौधरी के पास जाकर सब म्याऊं बन जाते हैं। किसलिए? इसीलिए ना कि आप सब उसकी ड्योढ़ी में अपना-अपना स्वार्थ लेकर जाते हो और जी-हजूरी करते हो। हाँ एक बात और हमारी लड़ाई सिर्फ चौधरी से है - उसकी जात के सब लोगों से नहीं। वे तो बिरादरी के नाम पर उसका साथ देते हैं - नहीं तो उनमें से काफी हमीं जैसे हैं। इसलिए जजमानो ...' खुसर-फुसर शुरू हो चुकी थी। लगता था जीवन की बात सबको जँची है पर बीच-बीच में विरोध भी बढ़ रहा था।''
कहानी के वे अंश सबसे प्रखर हो जाते हैं, जहां तारा पांचाल अपने विचार प्रकट करते हैं। यह सुविचारित निष्कर्ष पाठक की चेतना में मुद्दे को स्पष्ट कर जाता है। 'निर्माता' में बलिन्दर के माध्यम से जाति सभाओं पर टिप्पणी कर जाते हैं तो 'गरुड़' में कवि की पत्नी के रूप में उसकी रचना की निरर्थकता पर व्यंग्य कर जाते हैं और 'खाली लौटते हुए' में बूढ़े के माध्यम से पूरी चिकित्सा-व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी कर जाते हैं।
तारा पांचाल अपनी कहानियों के प्लॉट की खोज में कस्बे तथा गांव के उपेक्षित हिस्सों में कई-कई दिनों तक चुपचाप भटकते थे और इसी कूड़े समझे जाने हिस्सों से मोती चुनकर लाते थे। लकड़ी के टुकड़ों की विभिन्न आकृतियां, पक्षियों के घोंसले व पंख तथा पत्थर के टुकड़े उनके कमरे की शोभा भी बढ़ाते थे। 'फोटोग्राफर' के पाली की तरह उनको भी मनवांछित स्थिति नहीं मिलती तो वे उपलब्ध स्थिति को अपनी कल्पना से मेनीपुलेट करते और अनुकूल नतीजे पर बच्चे की तरह चहकते थे।
कहानी के प्लॉट की तलाश के लिए संघर्ष का नतीजा ही है कि हर कहानी एक मुकम्मल संसार को प्रस्तुत कर देती है। एक ऐसा संसार जो आमतौर पर सामान्य व्यक्ति की नजर से ओझल होता है। 'दीक्षा' कहानी का विशेष तौर पर जिक्र किया जा सकता है। सन्तों के जीवन के बारे में आमतौर पर कोई जानकारी नहीं होती। मंदिरों के बारे में आम धारणा यही है कि यह बहुत ही पवित्र स्थान है और व्यवस्थापक धर्मनिष्ठ व पवित्र आत्मा। तारा पांचाल की पैनी दृष्टि मंदिरों के गर्भ गृह के षडय़न्त्रों को पाठक के सामने रख देते हैं। खोजी पत्रकार की तरह पाठक के समक्ष रहस्य को उद्घाटित करते जाते हैं।
तारा पांचाल की कहानियों में दो स्थितियां या दो वर्ग मौजूद होते हैं, जिस कारण विभिन्न वर्गों व स्थितियों का अन्तर बहुत ही तीखेपन के साथ उद्घाटित होता है। 'दरअसल' कहानी में एक तरफ विज्ञान का कार्यक्रम है, तो दूसरा हनुमान मंदिर के उद्घाटन का। मंत्री निर्धारित विज्ञान-कार्यक्रम की बजाए आकस्मिक निमन्त्रण पर हनुमान मंदिर के उद्घाटन पर जाना पसन्द करता है। इससे उसके राजनीतिक संस्कृति, पिछड़ी सोच व सराकारों को आसानी से पता चल जाता है। 'पीपल' कहानी में एक तरफ तो ऐसा वर्ग है, पूरे दिन बाजार में घूमने के बाद भी खाने-पकाने के बर्तन तथा तन ढकने के लिए कपड़ा जैसे निहायत आवश्यक खरीदने की हिम्मत नहीं कर पाते। दूसरी तरफ समाज का वह वर्ग है, जो बिना मोल भाव किए अपनी सनक पूरी करने के लिए सामान खरीदता है। दोनों वर्गों के रहन-सहन, सोच-विचार व आर्थिक हालत के अन्तर को बताने के लिए यह बहुत ही कारगर टेक्रीक साबित हुई है। ये तभी संभव है जब कि रचनाकार को समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन की गहरी समझ हो। विभिन्न वर्गों के परस्पर विपरीत व्यवहार को उद्घाटित करने के लिए समानान्तर रूप से दो वर्गों का वर्णन भीष्म साहनी की याद दिला जाता है।
तारा पांचाल की सहानुभूति निम्रवर्ग के साथ स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। वे तटस्थता की उदासीन मुद्रा नहीं अपनाते और न ही पाठक के विवेक पर पक्षधरता का निर्णय छोड़ते हैं। स्थिति का प्रतिपक्ष या तो उसके अन्दर से ही खड़ा करते हैं जैसे 'निक्कल' कहानी के शर्मा जी और गुप्ता जी अपने जातिगत पूर्वाग्रह को बहुत खुलकर नहीं कहते, बल्कि संकेतों व इशारों में ही बतियाते हैं। अपने विचारों को शब्दों में अभिव्यक्त न करना उनकी मंशा पर स्वत: ही प्रश्रचिन्ह लगाता है। यदि अन्दर इसकी गुंजाइश न हो तो उसके बिल्कुल निकट ही एक आलोचक खड़ा कर देते हैं जैसे 'गरुड़' कहानी में कवि की पत्नी।
तारा पांचाल की कहानियों में भाषा के कई स्तर हैं। 'त्राहि माम त्राहि माम' की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा 'बिल्ली' की पंजाबी के अलावा अधिकतर कहानियों में आम बोलचाल की हिन्दी तथा ठेठ हरियाणवी है। तारा पांचाल प्रतीकों के अर्थ-विस्तार की संभावना तथा प्रभाव को समझते थे और उनका बखूबी प्रयोग करते थे। कहानियों के शीर्षक प्रतीकात्मक रखने की भरसक कोशिश करते थे। मुझे याद है कि उन्होंने शिक्षा के सवालों पर आधारित कहानी का नाम रखा था 'पर्यावरण'। लेकिन 'अध्यापक समाज' पत्रिका ने उसे 'मास्टर जी' नाम से प्रकाशित किया तो वे इसे अन्त तक भी स्वीकार नहीं कर पाए थे। तारा के प्रतीक स्थिति को व्यक्त करने में सक्षम हैं।
'निक्कल' कहानी में गुप्ता जी सिगरेट जलाने के लाइटर पर लगी निक्कल को खुरच देते हैं और उसके नीचे जंग लगा लोहा निकल आता है। उसी तरह गुप्ता और शर्मा की सोच पर जो आधुनिकता का, निष्पक्षता, प्रतिभा का निक्कल भी उघड़ जाता है और जंग लगी सोच उजागर हो जाती है। 'कलगी' दलितों को सत्ता में वास्तविक भागीदारी की बजाए प्रतीकात्मक तौर पर ही भागीदारी को व्यक्त करने में सक्षम है।
विभिन्न पेशों व वर्गों से जुड़े चरित्रों के मनोविज्ञान तथा उनके व्यवहार की तारा पांचाल की अद्भुत समझ थी। वे जिस भी चरित्र का निर्माण करते, उसके अन्दर घुस जाते थे। चरित्रों की यह समझ ही उनकी कहानी की सर्वाधिक ताकतवर चीज है। तारा पांचाल की कहानियों के चरित्र बिल्कुल मकैनिकल नहीं होते। अपनी सोच को वे चरित्रों पर कभी इस हद तक हावी नहीं होने देते कि वे यथार्थ से कोसों दूर चले जाएं या फिर मनमर्जी के कार्य उनसे करवा दें। इसीलिए तारा पांचाल की कहानियों के चरित्र एकदम विश्वसनीय लगते हैं।
सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों के संघर्षशील तेजस्वी चरित्र जो पाठक को ऊर्जा देते है, वे यहां गायब हैं। तारा पांचाल की कहानियों के चरित्रों में परिवर्तन की छटपटाहट नहीं है, वे अपनी स्थितियों को भोगने व सहन करने को अभिशप्त हैं। वे संघर्ष करते दिखाई नहीं देते, बल्कि एक स्थिति का शिकार हैं। अधिकांश पात्र अपनी नियति को झेलने को विवश हैं। कहानियों के पात्र त्रासदी का शिकार हैं।
तारा पांचाल का प्रखर व्यंग्य स्थिति की विडम्बना तथा दोगले चरित्र की परतों को उद्घाटित करने में सक्षम है। व्यंग्य का प्रयोग खिल्ली उड़ाकर उसमें रस लेने के लिए नहीं, बल्कि पाठक को अपने मंतव्य तक ले जाने में मदद करता है, इसलिए कहानियों की संरचना का अनिवार्य हिस्सा है। 'दरअसल' व 'गिरा हुआ वोट' के राजनीतिक संस्कृति व व्यवहार, 'गरुड़' में लेखक की भांडगिरी, 'निक्कल' में जातिगत पूर्वाग्रहों को उद्घाटित करने के लिए व्यंग्य का इतना रचनात्मक प्रयोग लेखक की भाषा व सामाजिक जीवन पर पकड़ को ही दर्शाता है।
पाठकों की संवेदनाओं बने बनाये सांचों-ढांचों को तोडऩे की जद्दोजहद में ही कोई लेखक कुछ सृजनात्मक दे पाता है। लेखक की संवेदनाओं के भी ढांचे बन जाते हैं, जिन्हें तोड़कर ही कोई लेखक दोहराव से बच सकता है। 'गिरा हुआ वोट' संग्रह के प्रकाशन के बाद उनकी रचनाधर्मिता में एक नया मोड़ आया। कथ्य के साथ कथा-शैलियों व कथा-युक्तियों में भी परिवर्तन देखा जा सकता है। 'रामदेव का घर' पत्र-शैली, 'फोटो में बच्चा' में अद्भुत वर्णन क्षमता तथा 'त्राहि माम त्राहि माम' में जीवंत किस्सागोई को देखा जा सकता है। तारा पांचाल ने यथार्थ को व्यक्त करने की कई नई तकनीकों को अपनाया। विशेषतौर पर जादुई यथार्थ की तकनीक को। 'त्राहि माम त्राहि माम' में न केवल भाषा के स्तर पर भारी बदलाव है, बल्कि पुराकथाओं का भी आधुनिक संदर्भों को समझने के लिए सृजनात्मक व्याख्या की गई है। वर्तमान को समझते हुए पूरी परम्परा की व्याख्या की छटपटाहट बड़ी महत्त्वपूर्ण है। यह प्रसिद्ध कवि व व्यंग्यकार इब्ने इंशा की याद ताजा कर देती है, जिन्होंने प्राचीन नीति कथाओं को लगभग नए ढंग से लिखा और वर्तमान को समझने के लिए उनका बहुत ही सृजनात्मक प्रयोग किया है।
पहले की कहानियों में एक पंडि़त, एक सेठ, एक राजनेता की मिलीभगत तथा अभावों से जूझते निम्र वर्गीय पति-पत्नी होते थे, लेकिन बाद की कहानियों के रूप-आकार में ही बढ़ोतरी नहीं हुई, बल्कि विषयवस्तु में भी गुणात्मक परिवर्तन हुआ। 'फोटो में बच्चा' अथवा 'त्राहि माम त्राहि माम', 'मुनादियों के पीछे', 'झूठे', 'मैं मंदिर के गर्भ गृह से बोल रहा हूं' आदि कहानियों में इसे देखा जा सकता है।
वैश्वीकरण के युग के परिवर्तनों को समग्रता मे पकडऩे व व्यक्त करने की जद्दोजहद यहां दिखाई देती है। पहले की कहानियों में पंडित निहायत दयनीय और याचक की सी भूमिका में आता था और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और सेठों के जुनियर पार्टनर के तौर पर ही प्रस्तुत होता था। लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के उभार से वह केन्द्र में आ गया। आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा के वातावरण में धार्मिक कर्मकाण्ड भी बढ़ रहे हैं और इससे उसकी भूमिका बदल गई है। 'दरअसल' कहानी का पंडित जो किसी मंत्री की कृपा पाने को आतुर था वह अब 'मैं मंदिर के गर्भ गृह से बोल रहा हूं' के देवीशरण के रूप में विभिन्न संस्थाओं का संचालक बनकर शक्तिशाली हो गया है। ''पंडित देवीप्रसाद मिश्र, प्रधान पुजारी एवं मालिक प्राचीन श्री देवीमाता मंदिर, प्रधान श्री देवीशरण माता कांवड सेवा समिति, प्रधान श्री देवीमाता वृद्धाश्रम, श्री देवीमाता गऊशाला, धर्मशाला, धर्मार्थ औषधालय, मानव सेवा समिति, एंबूलेंस सेवा समिति, राज्य स्तरीय मंदिर-निर्माण परिषद्, रामायण प्रचार समिति, दशहरा कमेटी और प्रधान श्री देवीमाता धर्म प्रचार परिषद् आदि आदि''
वैश्वीकरण ने समाज के विभिन्न वर्गों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया है। तारा पांचाल ने जीवन पर वैश्वीकरण के पडऩे वाले प्रभावों को व्यक्त किया है। 'फूली' तथा 'त्राहि माम त्राहि माम' कहानी का विशेषतौर पर जिक्र किया जा सकता है। वैश्वीकरण की नीतियों से जहां सामान्य जन के के समक्ष संकट बढ़ गया है, तो एक वर्ग को माला माल भी किया है। वैश्वीकरण से संपन्न वर्गों की संपन्नता में इजाफा हुआ है। वैश्वीकरण में दो वर्गों के बीच की खाई ओर गहरी हुई है। एक तरफ विकास ही विकास है तो दूसरी तरफ अभाव ही अभाव।

''यह भूमंडलीकरण का समय है। यह निष्कर्षों पर पहुंचने का नहीं अपितु दत्त-निष्कर्षों पर पैनी व सचेत दृष्टि रखने का समय है। सत्ता-तंत्र के लोग स्वयं उचित-अनुचित का भेद करने में अक्षम दिखने लगे हैं। ऐसा लगता है कि जैसे कि वे किसी राजा की तरह सोच रहे हों - सुनो, सुनो, सुनो! नगरवासियों सुनो। कल हम अपनी प्रजा को उपहार बाटेंगे। हर व्यक्ति उपहार डलवाने के लिए अपना पात्र स्वयं लेकर आए। जिस व्यक्ति का जैसा पात्र होगा उसे वैसा ही उपहार दिया जाएगा। स्वर्ण-पात्र में स्वर्ण-मुद्राएं, रजत-पात्र में रजत-मुद्राएं, ताम्र-पीतल के पात्रों में छोटे सिक्के तथा मिट्टी या अन्य धातु के पात्रों में दाल-भात हम स्वयं अपने हाथों से बांटेंगे।''

''कैसा समय है यह! पूरा नगर चौंधियाने वाले प्रकाश से चमक रहा है और मानव के चारों ओर अंधकार घिरता जा रहा है। दिन भर नगर के चौड़े-चिकने मार्गों पर क्रयऽ-क्रयऽ, विक्रयऽ विक्रयऽ, लाऽऽभ-लाऽऽभ .....निवेऽऽऽश - निवेऽऽऽश सुनाई देता है। इधर तंग गलियों की भूख की बातें, रोटी की बातें तंग होकर दम तोड़ रही हैं - कैसा समय है यह?'' ....स्व: चालित यंत्र हैं। यंत्र चालित मानव हैं। संवेदनहीन मानव प्रयासरत हैं यंत्रों को अधिकाधिक संवेदनशील बनाने को। कैसा समय है यह? कलियुग से भी बड़ा बनकर भूमंडलीकरण खड़ा है। कलियुग की पीठ पर धर्म और धर्म की पीठ पर भूमंडलीकरण चढ़ा है। धर्म के पीछे लगाया जा रहा है लोगों को और धर्म लगा है बाघ की तरह लोगों के पीछे। कैसा समय है यह? न कोई शासन है न प्रशासन है और न ही कोई दिखता है राज्य। चारों दिशाओं में धर्म की जय जयकार है। हुकार है। और धर्म के मारे हाहाकार है। पूरी स्वतंत्रता से फल फूल रही है धनिकों-बनिकों-राज्य धर्म की मंडलियां। कैसा समय है यह?''
''कैसा समय है यह जब अमेरिका में जा रहने के सपने, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, कनाडा के सपने रखे जा रहे हैं कोष्ठकों में और कोष्ठकों से बाहर रखे जा रहे हैं ऋणात्मक स्वप्र ..... लिगों और माताओं की यात्राओं के स्वप्र, कांवडिय़ा बनने के स्वप्र, भण्डारों में सेवा के स्वप्र, पौधशाला में उगाए जा रहे गुरुओं-माताओं के शिष्य बनने के स्वप्र। और इन तमाम स्वप्रों के साथ-साथ चलते हैं आकाश में उडऩे के स्वप्र। आत्महत्या के स्वप्र और ... और ... मैं...मैं यहां कक्षा में बैठा अपने बाल नोंच रहा हूं ... नहीं ... कोई मेरे बाल नोंच रहा है ... नहीं...नहीं। ये हाथ उसके नहीं हैं जो बाल नोंच रहा है ... फिर किसके हैं ये हाथ जो बाल नोंच रहा है ... कैसा समय है यह?''