बाहर कर दिए गए आदमी के पक्ष के कवि : जयपाल
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जयपाल हमारे समय के बहुत जरूरी कवि हैं, जिनकी कविताओं का संग्रह 'दरवाजों के बाहर' नाम से प्रकाशित है। जयपाल की सीधी-सरल कविताएं मुख्यत: समाज के उपेक्षित, पीडि़त, वंचित वर्ग पर केन्द्रित है। इनकी कविता में बार बार 'बाहर रह गया आदमी' 'बाहर एक आदमी खड़ा है चुपचाप' आता है। कभी यह आदमी ऐन कविता के बीच में मौजूद होता है तो कभी कविता के परिप्रेक्ष्य में। विकास की प्रक्रियाओं से बाहर रह गया आदमी आज चर्चा-विमर्श से, नीति-योजनाओं से, मीडिय़ा से लगभग गायब है। जयपाल की कविताएं इस 'बाहर रह गए आदमी' को पूरी सहानुभूति व संवेदना के साथ पाठक के समक्ष पेश कर देती हैं।
हर कवि की अपने कविता कर्म से कुछ अपेक्षाएं होती हैं, संकल्प होते हैं। ये अपेक्षाएं और संकल्प ही उसकी कविता की विषय वस्तु को तय करता है और शिल्प को प्रभावित-निर्धारित करता है। लगभग हर कवि अपने मंतव्य को 'कविता' में स्पष्ट करता है। जयपाल के लिए कविता न तो अपने शौक को पूरा करने का जरिया है और न ही अपनी निजी किस्म की भावनाओं-विचारों की व्यक्त करने का टाइम काटू साधन। कविता से उनकी कुछ अपेक्षाएं हैं, कविता उनके लिए संघर्ष में हथियार की तरह है।
कविता खोजती है हमारे आकाश के नए रास्ते
कविता तोड़ती है हमारे रास्तों की सीमाएं
कविता सौंपती है हमें हमारे पंख
कविता बोलती है धीरे-धीरे चुपचाप
कविता देख लेती है हमारी आंखों में दूर-दूर तक बिखरे स्वप्न
कविता तलाश लेती है गुमशुदा चीजों के टूटे हुए रिश्ते
कविता सुन लेती है दरवाजे के बाहर खड़े समय की पदचाप
कविता लड़ती है विचारों के अंधकूप से
कविता लड़ती है भावनाओं की बंद गुफाओं से
कविता तोड़ती है बर्बरता की आदिम प्रतिमाएं
कविता चलती है समय के साथ
रहती है समय से आगे
वर्ग-विभाजित समाज में साहित्य-संस्कृति भी किसी न किसी वर्ग की पक्षधर होती है, कहीं रचनाकार सचेत तौर पर पक्षधर होता है तो कहीं सचेत न होते हुए भी किसी न किसी वर्ग के हित साध रहा होता है। जयपाल ने 'कविता' से जो अपेक्षाएं की हैं, उनको हासिल करने के लिए कविता में जद्दोजहद करते हैं। जयपाल सचेत तौर पर शोषित-वंचित वर्ग के पक्ष का निर्माण करते हैं। अपनी कविताओं में वंचित वर्ग को मजबूत करने के लिए स्पेस तलाशते हैं और शोषक वर्ग की विचारधारात्मक चालाकियों को उजागर करते हैं, समाज-परिवर्तन में सामाजिक-शक्तियों के बीच मौजूद संघर्ष में शोषित वर्ग के पक्षधर हैं, इसीलिए वे अपनी कविताओं को जुझारू व संघर्षशील वर्गों को 'समर्पण' करते हैं।
ये कविताएं समर्पित हैं
उन हाथों के लिए
जो जंजीरों में जकड़े हैं
लेकिन प्रतिरोध में उठते हैं
उन पैरों के लिए
जो महाजन के पास गिरवी हैं
लेकिन जुलूस में शामिल हैं
उन आंखों के लिए
जो फोड़ दी गई हैं
लेकिन सपने देखती हैं
उस जुबान के लिए
जो काट दी गई है
लेकिन बेजुबान नहीं हुई
उन होठों के लिए
जो सिल दिए गए हैं
लेकिन फडफ़ड़ाना नहीं भूले
जयपाल की कविताएं हिम्मत हार चुके हताश-निराश व्यक्ति की नहीं हैं, इसीलिए इनकी कविता में वंचित-शोषक वर्ग के विगलित करने वाले कारूणिक चित्र भी नहीं हैं। अभावों में जी रही आबादियों की व्यथा व्यक्त करने के लिए जयपाल की कविता को कोई अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती। यह केवल चौंकाने के लिए गढा गया आंकड़ा नहीं, बल्कि कटु सत्य है कि हिन्दुस्तान की 80 करोड़ जनता 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना जीवन निर्वाह करती है, विश्वसनीय सर्वेक्षण व रिपोर्टें भी बता रही हैं। 'एक रूपये का सिक्का' उनके जीवन को व अभावों में बन रहे संबंधों को सहज ही बता जाता है। अभावों भरा जीवन कविता में एकदम सजीव हो उठता है। 'एक घर था ऐसा वैसा' कविता में सामान की सूची इसकी खबर दे जाती है। अभावमय जीवन की तकलीफों को विश्वसनीयता से व्यक्त करने के लिए जयपाल दो वर्गों को आमने सामने रख देते हैं। एक ही घटना का समाज के गरीब वर्ग तथा अमीर वर्ग पर क्या प्रभाव पडऩे वाला है इसके चित्र देकर वे सहज ही वर्गों की मौजूदगी और उनमें अत्यधिक अन्तर को सामने रख देते हैं। 'सर्दी आ रही है' कविता में सर्दी से बचने की तैयारी के लिए वंचित वर्ग तो अपने फटे पुराने कपड़ों को देखते हैं, मजदूर पुरानी रजाई को सिर्फ निहार कर आपस में टकरा जाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ रईसजादे सर्दी का आनन्द लेने के लिए घूमने का कार्यक्रम बना रहे होते हैं। सर्दी के अर्थ दोनों वर्गों के लिए अलग-अलग हैं। इसके साथ व्यवस्था की पोल भी खुल जाती है, उसमें प्राकृतिक घटनाओं से अपना बचाव करने के लिए भी जरूरी सामान नहीं है। सर्दी से या लू से लोगों के मरने की खबरें समाचार-पत्रों में अक्सर पढऩे को मिलती हंै। जयपाल की कविता इस तरह की दृष्टिहीनता को समाप्त करके हमारे सामने सच्चाई को सही परिप्रेक्ष्य में रखती है कि असल में लोग लू या सर्दी से नहीं मारे जाते, बल्कि कपड़ों या फिर मौसम के अनुकूल कपड़े, घर या पर्याप्त भोजन के अभाव में शारीरिक ताकत की कमी में मारे जाते हैं और अपने नागरिकों को जीने के लिए समस्त चीजें मुहैया करवाना व्यवस्था और राज्य का ही काम है। राज्य और व्यवस्था की अफलता का जिम्मा मौसम पर नहीं डाला जा सकता इसका अहसास जयपाल की कविता देती है। वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी वर्ग इसी तरह से भ्रम पैदा करते हैं और क्रूर व बर्बर व्यवस्था को छुपा लेते हैं।
सर्दी आ रही है
कहा बूढ़े आदमी ने अपने आप से
एक हवा का झौंका आया
बच्चे ने फटाक से खिड़की बंद कर दी
उधर दादी अम्मा ने दो-तीन बार सन्दूक खोला है
उसे फिर से बंद कर दिया है
नौकर रामदीन इस हपफ्ते कुछ ज्यादा ही खांस गया है
उसने दवा की शीशियां भी सहेज कर रख ली हैं
दुकान के बाहर रखी रजाइयों को मुड़ मुड़कर देखते हुए
दो मजदूर एक दूसरे से टकरा गए
रेस्तरां में बैठे दो रईसजादे सोच रहे थे
इस बार जब सर्दियों में बर्फ गिरेगी
दोस्तों के साथ कुफरी चलेंगे
बड़ा मजा आयेगा।
जीवन चाहे कितना ही अभावमय, दरिद्र हो, लेकिन उसमें कुछ न कुछ सकारात्मक होता है, जो मनुष्य की जीवन में कुछ आशा बनाए रखता है, जयपाल इस जीवन-सूत्र को बखूबी पकड़ते हैं। ग्रामीण जीवन के अभावों का चित्र खींचते हुए वे उसकी सामूहिकता को नजरअंदाज नहीं करते। उनकी दृष्टि में सारतत्त्व व थोथे में अन्तर करने की क्षमता है। कवि का यह आलोचनात्मक विवेक ही पाठक में प्रबोधन पैदा करता है। शासक-शोषित वर्ग आम जनता की एकता को तोड़कर, विभिन्न आधारों पर विभाजन करके ही अपना शासन व शोषण जारी रखता है। वह समाज की संरचना को भी इस तरह का आकार व दिशा प्रदान करता है कि जनता एकत्रित व एकजुट न हो, बल्कि उसमें उसमें परस्पर वैमनस्य, संदेह व अविश्वास पनपता रहे। लेकिन सच्चाई यह है कि बुनियादी तौर पर मनुष्य सामाजिक प्राणी है और एकजुट व सामूहिक संघर्षों से ही उसने मानवता की विकास यात्रा तय की है। प्राकृतिक शक्तियों पर व वर्चस्वी सामाजिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करने में समाज की सामूहिकता कारगर व निर्णायक रही है। जयपाल की कविता सामूहिकता के चित्र देकर मनुष्य में इस अहसास को तीखा करती हैं। 'एक घर था ऐसा वैसा' में पूरा गांव अपनी तमाम विद्रुपताओं, अन्तर्विरोधों व पिछड़ेपन के बावजूद एक ईकाई है और उसके टूटने व बिखरने की गहरी चिन्ता यहां मौजूद है।
सारा गांव एक ही टाब्बर
एक सी चाल एक सी ढाल
बीच में सबके एक सी तार
इसी तार पर खतरा भारी
रल मिल सोचो जनता सारी।
'सबके बीच में एक सी तार पर खतरा भारी है' इसका अहसास जयपाल की कविता पारिवारिक संरचनाओं व रिश्तों पर आधारित समस्त कविताओं में मौजूद है। 'पिता जी', 'दादा जी', 'माता जी', 'आधुनिक नगर' के बीच से मानवीय सामूहिकता ही गायब है। 'पिता जी' का पिता सामुदायिकता को ढूंढता है, जो उसे न तो गांव में मिलती है और न शहर में। 'आधुनिक नगर' जयपाल को सामूहिकता के अभाव में ही 'श्मशान' दिखाई देता है,
जहां गलियां सुनसान
मकान बेजान
दरवाजे बंद
खिड़की परेशान
एक आधुनिक नगर में
कितने श्मशान।
पूंजीवादी व्यवस्था की सामाजिक पारिवारिक संरचना सामुदायिकता पर प्रहार करती है, लेकिन जयपाल की पैनी दृष्टि इन संरचनाओं को तोडऩे वाली शक्तियों को भी देख लेती हैं, जहां पूंजीवादी मूल्य स्वयं को लाचार व असहाय महसूस करते हैं। लोकप्रिय मुहावरा है कि इंसान का सबसे उज्ज्वल पक्ष बच्चों में नजर आता है, जिस पर व्यवस्था की परिपाटियों व विचारों के विषाणुओं का असर नहीं हुआ। 'कहां मानते हैं बच्चे' कविता इसे उदघाटित करती है।
बच्चे तो बच्चे होते हैं
कहां मानते हैं बच्चे
सामने वाले घर में जायेंगे तो कूदते हुए
आएंगे तो फुदकते हुए
कभी उनके बच्चों के साथ कुछ खा आएंगे
कभी उनको कुछ खिला आएंगे
वैसे बच्चे उनके भी कम नहीं हैं
जबसे गर्मी की छुट्टियां हुई हैं
हमारे घर को ही नानी का घर समझ रखा है
अब इसमें हम भी क्या करें
वो भी क्या करें
कितना ही समझाओ
कितना ही सिखाओ
कहां मानते हैं बच्चे!
दीवाली पर
हमारे बच्चे उनके घर पटाखे बजा आए
होली पर
उनके बच्चे हमारे घर रंग डाल गए
ना हमारी चली
ना उनकी
'बच्चा' कविता मालिक-सेवक, शोषक-शोषित के रिश्तों को उजागर करती है।
तमाशा दिखाता है बच्चा
न सांप से डरता है न नेवले से
न बंदर से न भालू से
न शेर से न हाथी से
रस्सी पर चलता है बच्चा
गिरने से नहीं डरता
आग में कूदता है बच्चा
जलने से नहीं डरता
हवा में उछलता है बच्चा
मरने से नहीं डरता
मालिक की तरफ देखता है बच्चा
सहम जाता है बच्चा
जयपाल की कविता में यथार्थ सीधा-सपाट नहीं, बल्कि अपनी पूरी जटिलता के साथ आता है। वे वास्तविकता को कई पहलुओं से कविता में प्रस्तुत करते हैं और पाठक को उसके अनछुए पहलुओं से अवगत कराते हैं। जयपाल की कविताओं की बुनावट में ही समाज का वर्गीय स्वरूप स्पष्ट है, उन्हें इसके लिए अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इनकी कविताओं में 'बड़े दरवाजे' के साथ अनिवार्य तौर पर 'छोटा दरवाजा' भी है, शातिर बगुला है तो उसकी चालाकियों से अनजान भोली मच्छली भी है, अपने वाचाल शब्दजाल के नीचे सामाजिक भेदभाव को छुपाने की कोशिश करता सवर्ण मानसिकता धारण किए चालाक व्यक्ति है तो उनकी इस 'चतुराई' को समझने वाला सचेत दलित भी है। लोकतांत्रिक-प्रणाली से लाभ पाया हुआ आजादी का पाखण्डपूर्ण जश्न मनाता वर्ग है तो उसका विरोध भी दर्ज है। जयपाल की कविताओं की विशेष बात यह है कि इनके चित्र बहुत जाने-पहचाने होते हैं, लोगों का इससे हररोज ही वास्ता पड़ता है जब कविता इस रोज वास्ता पडऩे वाली साधारण सी वस्तुओं को असाधारण व ऐतिहासिक अर्थ देने वाले चित्रों व प्रतीकों में बदलती है तो ये इस चेतना के स्थायी वाहक बन जाते हैं और स्वत: ही पाठक की जीवन-दृष्टि को प्रभावित करने लगती है। अपनी कविता में जनजीवन के चित्रों-बिम्बों-प्रतीकों-शब्दों को नए अर्थ देती कविताओं की शक्ति इसीलिए अधिक होती है। इनकी स्मृति स्थायी होती है। इसके विपरीत जो बिम्ब-प्रतीक जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं होते और कवि उनसे कविताएं निर्मित करता है वे लक्षित-इच्छित अर्थ देने में तो सक्षम होते हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी दूज के चांद की तरह होता है जो एक बार प्रकाशमान होकर ओझल हो जाता है। सामाजिक शक्तियों में व्याप्त अन्तर्विरोधों व संघर्षों को जयपाल की कविता स्पष्ट करती है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था में कई स्तरों पर संघर्ष चलता है, जिसे शोषक वर्ग कभी नजरअंदाज नहीं करता, लेकिन शोषित वर्ग इस जटिल प्रक्रिया को नहीं समझ पाता। 'बगुला और मछली' के माध्यम से शोषक-शासक व वर्चस्वी वर्ग के घाघपन व चालाकियों को उद्घाटित किया है और उनके आपसी द्वन्द्वों, संघर्षों को भी दर्शाया है। बगुला और मछली का ऐसा बिम्ब दिया है जो पाठक पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है।
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
पानी को भी देखता है
कितने पानी में है मछली
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
साथ घूम रही दूसरी मछलियों को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
अपने साथी दूसरे बगुलों को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
वह अपने आप को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
किनारे खेलते बच्चों को भी देखता है
जिनके हाथों में रोड़े पत्थर हैं
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
वह और भी देखता है बहुत कुछ
जो शायद मछली नहीं देखती
मध्यवर्ग समाज का बहुत बड़ा वर्ग है, जिसने समाज को नेतृत्व प्रदान किया है और विश्व की महान क्रांतियों और बुनियादी बदलावों में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मध्यवर्ग पिछले समय से निहायत अवसरवादी व आत्मकेंद्रित हो गया है और वह सिकुड़कर अपने में घुस गया है। वह उपभोक्तावाद का शिकार है और अपने ऐतिहासिक दायित्व को भूल गया है। जयपाल 'मध्यवर्ग के कारनामे' में उसके जीवन व सोच को, इसकी रूचियों व मंतव्यों को उद्घाटित किया है। जो मध्यवर्ग की स्थिति को व्यक्त करते हैं । जयपाल की कविताओं की विशेषता है कि वे तथ्यों व स्थितियों को समझने में निष्पक्ष हैं और मंतव्य में प्रतिबद्ध। चूँकि बदलाव के लिए तैयार करना व माहौल बनाना उनका मंतव्य है इसलिए वे किसी वर्ग को दुत्कारते नहीं, बल्कि उसके विडम्बनात्मक व्यवहार को सामने रख देते हैं।
भारतीय समाज में दलित वर्ग आर्थिक तौर पर व सामाजिक तौर पर सर्वाधिक शोषित है। सामाजिक स्थिति उसके आर्थिक शोषण को वैध ठहराती है तो आर्थिक शोषण उसे समाज के निचले पायदान पर रखता है। समाज के इस वर्ग के हिस्से में दूसरों के लिए काम करना ही आया है और उनकी मेहनत का फल कोई दूसरा भोगता है। स्त्री, दलित तथा सर्वहारा होने के कारण दलित-स्त्री तिहरे शोषण को झेलती है। मैला ढोती-उठाती, सड़कों-नालियों को साफ करती औरतों के बिना मौजूदा शहरी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन कथित 'सभ्य-सुसंस्कृत' समाज की संवेदना-सहानुभूति को नहीं जगा पाई हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय गांवों को दलित-उत्पीडऩ के यातना-शिविरों की संज्ञा देते हुए शहरों में बसने की सलाह भी दी थी। लेकिन भारतीय शहर भी दलितों को कोई राहत नहीं दे पाए। 'बहिष्कृत औरत' न केवल घरेलू काम व शहर को साफ-सुथरा रखने में 'कामवालियां' नए शहरी जीवन की सच्चाई है।
शहर से बाहर से
एक औरत शहर के अंदर आती है
घरों पर से मिट्टी झाड़ती है
फर्श चमकाती है
गलियों को बुहारती है
पी जाती है नालियों की सारी दुर्गंध
गली-मुहल्लों को सजा देती है अपनी-अपनी जगह
इस तरह -
जब सारा शहर रहने लायक हो जाता है
यह औरत शहर से बाहर चली जाती है
'एक चुप्पी' कविता में भी स्त्री का जीवन्त चित्र देखने को मिलता है
सवेरे-सवेरे
एक हाथ में टोकरी
दूसरे में झाडू
वह निकल पड़ती है घर से
जाती है एक घर से दूसरे घर
एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले
कुछ दौड़ती है
कुछ भागती है
कुछ हंसती है
कुछ रोती है
करती है मजाक तरह तरह के
सुनाती है किस्से यहां-वहां के
लगता है सब कुछ कह जाती है
लगता है सब कुछ सुन जाती है
फिर भी एक खास तरह की चुप्पी
उसके चारों तरफ हमेशा मौजूद रहती है
इसी चुप्पी में मौजूद रहता है
उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य
जयपाल समाज के उपेक्षित, शोषित वर्ग की दृष्टि से चीजों को देखते हैं. अपनी मिट्टी, वतन, गांव या फिर जन्मभूमि से मनुष्य का स्वाभाविक तौर पर भावनात्मक लगाव हो जाता है, लेकिन जिस व्यक्ति के लिए 'उसका गांव' यातना-गृह की तरह रहा हो, उसमें उसके प्रति लगाव की भावना कैसे पैदा हो सकती है। मातृभूमि-प्रेम जैसे विचारों को एक दलित की दृष्टि से देखने पर अलग ही तस्वीर नजर आती है। गांव सदियों से दलित-उत्पीडऩ के केन्द्र रहे हैं। गांव से बाहर प्रतिष्ठा के साथ जीने वाला 'मास्टर चन्द्रप्रकाश' गांव में प्रवेश करते ही 'चंदा चमार' हो जाता है।
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था अभिशाप है, जो उच्च वर्ण के मनुष्य में अहंकार व श्रेष्ठता का दंभ पैदा करके उसकी मानवता को समाप्त करती है, तो दूसरी ओर निम्न वर्ग को मानव का दर्जा ही नहीं देती। सवर्णों की जिस हिकारत व नफरत का दलित को सामना करना पड़ता है, वह कितना पीड़ादायक है इसका अहसास जयपाल की कविताएं करवाती हैं और उसके लिए सहानुभूति बटोरती हैं। बदल रही परिस्थितियों ने जाति-व्यवस्था के समक्ष चुनौती पेश की है जयपाल की कविता इसे व्यक्त करती है। अन्तर्जातीय विवाह को डा. आम्बेडकर ने जाति-प्रथा को समाप्त करने के लिए कारगर तरीका बताया था। अन्तर्जातीय विवाह हो भी रहे हैं, लेकिन इसमें ब्राह्मणवाद अपना बचाव करता है और दलित के साथ इस तरह के संबंध को सहज स्वीकार नहीं करता। वह अपनी शर्तों पर इसे स्वीकार करना चाहता है। सच्ची घटना पर आधारित 'आम्बेडकर और रविदास' कविता इस पर प्रकाश डालती है।
अधिकारी महोदय
तुम चाहे जिस भी जाति से हों
हम अपनी बेटी की शादी तुम्हारे बेटे से कर सकते हैं
पर हमारी भी एक प्रार्थना है
सगाई से पूर्व तुम्हें अपने घर से
रविदास और आम्बेडकर के चित्र हटाने होंगे
कल को हम रिश्तेदार बनेंगे
तो आना जाना तो होगा ही
कैसे हम तुम्हारे घर ठहरेंगे
कैसे खाना खाएंगे
और कैसे दो बात करेंगे
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
रात को सोते वक्त आंख खुल गई
तब दोबारा नींद कैसे आएगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
अम्बाला में मेरे कई उच्च अधिकारी मित्र हैं
कई रिश्तेदार भी ऊंचे पदों पर हैं
हालांकि ऊंचे पद पर तो आप भी हैं
पर बात तो तब बिगड़ेगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
हमारी बेटी अभी नादान है
सारी बातें नहीं समझती
शादी के बाद
दो-चार दिन तो कहीं बाहर भी कट जायेंगे
पर बाकी के दिन कैसे कटेंगे
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
हमारी बेटी पूजा-पाठ करती है
वह भगवान शंकर का ध्यान कैसे लगाएगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
बोलो अधिकारी महोदय
कैसे कटेगी यह पहाड़ सी जिंदगी
कैसे निभेगी यह पहाड़ सी रिश्तेदारी
जयपाल की कविता का दलित पस्त व हारा हुआ नहीं है और न ही आक्रोशित है, बल्कि बहुत ही संयमित व गम्भीर है। दलित की गम्भीरता ही उसका पक्ष निर्माण करती है। वह बेचारा नहीं है, लेकिन अपनी स्थिति को भलि-भांति समझता है, बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा करता है, उसमें हीनता-बोध नहीं है और सवाल करने की हिम्मत करता है। 'उनका सवाल' कविता दलित-जीवन की त्रासदी व सवर्ण के अंहकार को सामने रख देती है।
वे पूछते हैं -
आज भी उनके सिर पर गंदगी का टोकरा क्यों रखा है
उनकी बस्ती शहर या गांवों से बाहर ही क्यों होती है
उनके मंदिरों-गुरुद्वारों में दूसरे लोग क्यों नहीं आते
अनपढ़ता बेकारी और गरीबी उनकी बस्ती में क्यों रहती है
उनकी बहु बेटियों को लोग खाने पीने की चीजें क्यों समझते हैं
उनके महापुरुष दूसरों के लिए उपहास पुरुष क्यों होते हैं
स्कूल में अध्यापक उन्हीं की जाति को क्यों याद रखता है
अन्तर्जातीय विवाह से उनकी जाति अभी तक बाहर क्यों है
उन्हें किराएदार रखने में मालिक-मकान को क्या परेशानी है
अपनी जाति बताना उनकी सबसे बड़ी विकट समस्या क्यों है
उनकी जाति को गाली में क्यों बदल दिया गया है
अंत में वे एक सवाल और पूछते हैं -
उनके सवाल को आखिर सवाल क्यों नहीं माना जाता
जयपाल की कविताओं का दलित कुछ भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा के लिए लड़ रहा है। मानव गरिमा हासिल करने के लिए जिस तरह से वह सवाल उठाता है उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। 'दलित विद्यार्थी' के लिए भारतीय समाज में जिस तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, उसे दलित साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाओं में व्यक्त किया है। शिक्षकों से उन्हें ज्ञान व स्नेह की अपेक्षा नफरत मिलती है।
दरअसल तुम जैसे छात्रों को
बचपन में बचपने जैसी कोई हरकत नहीं करनी चाहिए
तुम्हें हमेशा याद रखना चाहिए
तुम केवल एक स्कूल के विद्यार्थी ही नही हो
एक दलित बाप के दलित बेटे भी हो
दलित उत्पीडऩ की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं हरियाणा में पिछले दिनों घटित हुई हैं। दुलीना, हरसौला, गोहाना, जाटू लुहारी जैसे काण्ड मानवीय व्यवहार पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं, वे भेदभाव की प्रणालियों को खोल कर रख देते हैं। सवाल यही है कि आखिर इतने बर्बर व क्रूर अमानवीय व्यवहार के लिए वैधता कहां से मिलती है। जयपाल ने घटनाओं का विवरण न देते हुए इसके आधार को पहचानने की कोशिश की है। वे दलित उत्पीडऩ के दार्शनिक आधार की ओर संकेत करते हैं और धार्मिक संरचनाओं में इसकी जड़ों को तलाशते हैं। 'बंद दरवाजे' कविता दलित उत्पीडऩ के कारणों की संकेत करती है। दलितों की ओर से दिमाग के विवेक के दरवाजे बंद कर रखे हैं।
निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में जनता को ठगने के लिए शब्दों का जितना दुरूपयोग किया है उतना शायद इतिहास के किसी भी दौर में नहीं हुआ होगा। शासन व सत्ता अपना शोषण जारी रखने के लिए तरह तरह मिथ्या प्रचार व झूठ का सहारा लेते रहे हैं, लेकिन इस मामले वे इतने बेशर्म कभी नहीं हुए होंगे कि भाषा को बिल्कुल विपरीत कार्यों के लिए प्रयोग करें। एक सचेत कवि की तरह से जयपाल की कविताएं शब्दों के नीचे छुपे शासकों के मंतव्यों को समझाती हैं और मेहनतकश जनता को इस भाषायी पाखण्ड से आगाह भी करती हैं। साम्राज्यवादी नीतियों की शब्दावली के मकसद बिल्कुल उलट हैं, जब वे विकास की बात करते हैं तो विनाश कर रहे होते हैं। जब वे शान्ति की बात करते हैं तो युद्ध का ऐलान कर रहे होते हैं और जब वे लोकतंत्र व आजादी की बात करते हैं तो तानाशाही और गुलाम बना रहे होते हैं।
वे आर्थिक सुधार करेंगे
मरने को मजबूर कर देंगे
वे रोजगार की बात करेंगे
रोटी छीन लेंगे
वे शिक्षा की बात करेंगे
व्यापार के केन्द्र खोल देंगे
वे शान्ति की अपील करेंगे
जंग का ऐलान कर देंगे
वे लोकतंत्र की बात करेंगे
लोगों पर बम बरसा देंगे
इस तरह
वे हमारे आंसू पोछेंगे
और दृष्टि छीन लेंगे। (पाखण्डी)
जयपाल की कविता जन मानस के समक्ष मौजूद वास्तविकता की सही तस्वीर रखने के लिए जद्दोजहद करती है। समाज के वर्चस्वशाली शोषक वर्ग अपने शोषण व लूट को जारी रखने के लिए तथा समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तरह के गैर इंसानी व गैर कानूनी तरीकों को इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जनता के समक्ष अपनी लोक लुभावनी व लोक हितैषी की तस्वीर भी प्रस्तुत करते हैं। इससे ही वे अपने पक्ष में जन समर्थन जुटाते हैं। शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए समाज में मिथ्या चेतना व झूठ को सहारा लेता है। वह तरह तरह के झूठ को प्रसारित करता है। राजसत्ता का यह हथकण्डा बहुत प्राचीन है। चाणक्य ने राजाओं को शासन करने के जो गुर सिखाए हैं उसमें अंधविश्वासों को फैलाने पर विशेष जोर दिया गया है। हर समय की राजसत्ता जनता को भ्रमित करने के लिए इस तरह के प्रचार करती है। जन हितैषी व जन प्रतिबद्ध रचनाकारों व बुद्धिजीवियों का ही काम है कि राजसत्ताओं के इन मिथकों की फाई करके सच्चाई की सही तस्वीर पेश करे। जयपाल की कविता इस उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लेती है और उसका बखूबी निर्वहन करती है। जयपाल एक सचेत तौर पर देखते हैं कि शासक वर्ग 'जाले' बुनता है, जनता को फंसाने के लिए और परिवर्तनकामी शक्तियों को ये जाले साफ करने पड़ते हैं, परिवर्तन के लिए। हर युग का शासक वर्ग अपने जाले बुनता है। जाले हर युग में होते हैं
जाले हर युग के होते हैं
हर युग बुन लेता है अपने जाले
हर युग चुन लेता है अपने जाले
धूल मिट्टी से सने प्राचीन जाले
मोती से चमकते नवीन जाले
समय इन जालों से टकराता है
जाले समय से टकराते हैं
युग परिवर्तन चलता रहता है
अंधविश्वास या मिथक केवल प्राचीन समय के ही नहीं हैं, बल्कि हमारे समय के शासक वर्ग जिस तरह के विकास की तस्वीर व आंकड़े पेश करते हैं जनता को भरमाने के लिए नए नए सिद्धांत खोजकर लाते हैं और उन्हीं में उनको उलझाए रचाते हैं, वे भी उसी तरह के ही अंधविश्वास का काम करने लगते हैं, जैसे भाग्यवाद और नियतिवाद के अंधविश्वास। ये इतने नवीन व उज्ज्वल पक्ष पेश करते हैं कि आम चेतना इनके भीतर छुपे शासकीय सोच को नहीं पकड़ पाती।
जयपाल की कविताएं समाज में हो रहे परिवर्तनों को अपने अन्दर समेटे हैं। असमान विकास व नई तकनीक के अपनाने से समाज के साधनहीन तबकों को अपना गुजारा मात्र करने के लिए या तो विस्थापन की मार झेलनी पड़ती है या फिर हर रोज शहरों में काम की तलाश में आने वाली ग्रामीणों की बड़ी संख्या है, जो रोजगार के लिए यहां आते हैं। बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक में लेबर चौंक पर खड़ी भीड़ से इस सच्चाई का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वे यहां अपने जीवन को बेहतर बनाने के सपने लेकर आते हैं, लेकिन 'खाली हाथ' लौटते हैं.
वे दिन भर शहर की सूरत संवारते हैं
और अपनी सूरत बिगाड़ते हैं
दिन ढलने पर
सिर नीचा कर
मुंह लटकाए
चल पड़ते हैं वापिस
अपने घरों की तरफ
हताश-निराश
जैसे शमशान से लौटते हैं लोग
खाली हाथ
जयपाल की कविता सामूहिक अनुभव व सामूहिक सवालों पर आधारित हैं, जिसमें निजी रूचियों की कोई गुंजाइश नहीं है, सामूहिकता में ही लेखक की निजता की शमूलियत है। इसीलिए उनकी कविता में टाइप विषय आते हैं। 'गांव', 'किसान', 'बच्चे', 'खाली हाथ', 'मेज, कुर्सी और आदमी', 'मजदूर औरत', 'एक घर था ऐसा वैसा' आदि कोई भी कविता लें सभी कविताएं एक बड़ी आबादी से संबंधित हैं। यहां किसी व्यक्ति का जिक्र नहीं है, न ही किसी निजी घटना का संबोधन है।
जयपाल की कविताएं चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से पाठक से संबोधित हों, वे सामाजिक व्यवस्था का एक क्रिटीक पेश करती हैं। न केवल बृहद सामाजिक परिघटनाओं पर, बल्कि पारिवारिक संरचनाओं में भी वे व्यवस्था का चरित्र देख लेते हैं। असल में यह उस बृहद सामाजिक-व्यवस्था का ही रूप होता है। इसी पैनी व आलोचनात्मक दृष्टि के कारण ही वे 'घर' के अन्दर की गैर बराबरी को देख पाते हैं। घर में मौजूद शक्ति संरचना सामाजिक-व्यवस्था के दर्शन करवा जाती है। छोटी-छोटी कविताएं लोक अनुभव को समेटे होती हैं। लोक अनुभव एक विश्वसनीयता को दर्शाता है। 'पत्नी' कविता भारतीय स्त्री की स्थिति को सहज ही उद्घाटित कर देती है।
पत्नी का लौट आता है बचपन
जब दूर पार से मिलने आते हैं पिता जी
पत्नी की आंखों में उतर आता है संमदर
जब अचानक आकर मां सिर पर रखती है हाथ
पत्नी को याद आने लगती है मुट्ठी में बंद तितलियां
जब बहनों के आने का समाचार मिलता है
पत्नी भूल जाती है ससुराल के पाठ
जब भाई आकर घर में कदम रखता है
इस तरह
घर में खुल जाती है एक प्रतिबंधित किताब
जयपाल की कविताएं हमारे समय की वास्तविकताओं को परत दर परत खोलती हैं। वे घटनाओं का वर्णन-विवरण नहीं देते, लेकिन घटनाएं उनकी कविता में चिपकी होती हैं, वे अपने कथ्य से इसे इस तरह संयोजित करते हैं कि घटनाएं न रहकर पूरा परिदृश्य उद्घाटित करने लगती हैं। 'मेज, कुर्सी और आदमी' कविता वर्तमान राज्य-व्यवस्था की कार्य प्रणाली को उजागर करती है कि सरकारें चाहे जो भी आएं लेकिन उनकी चाल व चरित्र एक सा रहता है।
एक जमाने से
एक मेज रखी है साहित्य अकादमी के दफतर में
दूरदर्शन, आकाशवाणी और अखबार के सम्पादकीय विभाग में
स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय की पाठ्यक्रम समिति में
यह मेज न हिलती है, न डुलती है
न देखती है, न सुनती है
एक जमाने से यह मेज एक जगह स्थिर है
इसके आगे एक कुर्सी रखी है
यह कुर्सी भी बेजान है
बड़ी रहस्यपूर्ण और सुनसान है
इस कुर्सी पर एक आदमी बैठा है
उसके आंख और कान सिरे से गायब हैं
शरीर के बाकी अंगों पर लकवे का असर है
एक जमाने से
इस आदमी की यही पहचान है
सरकारें आती हैं
चली जाती हैं
लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं
कि-
मेज, कुर्सी और आदमी
तीनों अपना काम बड़ी जिम्मेवारी से निभा रहे हैं।
साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करके भारत ने आजादी प्राप्त की। लाखों लोगों ने बलिदान दिए। जनता की स्वतन्त्रता से कुछ अपेक्षाएं थी, लेकिन आजादी के बाद पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया गया। जिसमें कुछ लोगों का तो खूब विकास हुआ, लेकिन अधिकांश आबादी आजादी के फलों से वंचित रही। आजादी के नाम पर उनको केवल आजादी दिवस मिला, जिस पर वे स्वर्णिम संघर्ष को याद कर लेते थे। लेकिन जनता की आशाओं पर खरा न उतरने वाली सरकारों ने दमन का रास्ता अपनाया और जनता की ओर से मुह मोड़ लिया। अब आजादी सिर्फ शासक-शोषक वर्गों को है और राज्य तंत्र उनके शोषण व दमन का जरिया बन चुका है। 'पन्द्रह अगस्त की तैयारी' कविता इसे बखूबी उजागर करती है।
दो दिन बाद पन्द्रह अगस्त है
शहर में झंडा फहराने मंत्री जी आ रहे हैं
मैदान के सामने एक झुग्गी बस्ती है
बस्ती के सामने एक विशाल शामियाना लगा दिया गया है
अब मंच से यह बस्ती दिखाई नहीं देती
मैदान के बांई तरफ एक गंदा नाला है
यहां भूखे-नंगे बच्चे फटेहाल घूमते रहते हैं
नाले को लकड़ी के फट्टों से ढक दिया गया है
बच्चों को कहा गया है कि वे शहर के दूसरी तरफ चले जांए
मैदान के दांई तरफ एक मजदूर-बस्ती है
पिछले दिनों इस बस्ती के एक घर में
एक मजदूर की भूख के कारण मर गया था
उस घर के आगे पुलिस बिठा दी गई है
साहित्यकर्मियों और जन संगठनों को कहा गया है
वे पन्द्रह अगस्त तक इधर से ना गुजरें
संतो-महन्तों, स्थानीय नेताओं और राजकवियों को
निमन्त्रण पत्र भेज दिए गए हैं
शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यक्तियों को
स्वागत समिति में रखा गया है
आयोजकों का कहना है
पन्द्रह अगस्त की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं।
हमारे समय की मानवता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदायिकता के माध्यम से प्रकट हुई है। जिससे लोग अपनी मानवीयता खो देते हैं अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए आबादियों को बेघर कर देते हैं। साम्प्रदायिकता से मरने वाले, घायल व बेघर हुए लोगों की संख्या दोनों विश्वयुद्धों में मारे गये लोगों से भी अधिक है। साम्प्रदायिकता की मानसिकता व राजनीति को साहित्यकारों और कवियों ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। लगभग हर रचनाकार ने इस दर्द को अपनी रचना में उतारा है। जयपाल की कविता 'लक्कड़-बग्घा' गुजरात के नरसंहार व फासीवादी राजनीति को व्यक्त करते हुए इसकी बहुत सी परतों को उभारा है। जयपाल की चिन्ता में घटनाओं व समस्याओं के प्रभाव आते हैं, जो लोकचेतना का हिस्सा बन चुके होते हैं। वे उनमें मौजूद अमानवीयता को व्यक्त करके हमारी मानवीय नैतिकता व विवेक को जगाते हैं। इसमें जयपाल का ध्यान साम्प्रदायिक दंगों को तफसील से व्यक्त करने में नही है, बल्कि उससे जो सोच व असर पड़ता है उसे व्यक्त करते हैं। जयपाल की चिन्ता यह है कि साम्प्रदायिकता को अब साम्प्रदायिकता भी नहीं माना जाता, बल्कि अब उसको धार्मिकता की श्रेणी में डाल दिया है। अब साम्प्रदायिक शक्तियां छुपकर व अपराध बोध के साथ नहीं, बल्कि गर्व के साथ व शहीदों की तरह से स्वयं को पेश करती है। अपराध को वह धार्मिक कृत्यों की श्रेणी में डाल रही है। वह चुन चुनकर अपनी जनता को मार रहा है और देश भक्ति का तमगा पा रहा है। अब वह समाज में सम्मानजनक स्थान पाने लगा है और अपने कुकृत्यों पर शर्माता नहीं, बल्कि उसका जश्न मनाता है। वह इतना शक्तिशाली हो गया है कि राजनीतिक तंत्र, न्याय तंत्र सबसे शक्तिशाली है वह सब इसके समक्ष अपने को लाचार व असहाय पाते हैं। साम्प्रदायिक फासीवाद तमाम संस्थाओं-प्रणालियों को अपने गिरफ्त में ले रहा है। अब यह कुर्सी हथियाने का चुनावी स्टंट मात्र नहीं है, बल्कि एक दृष्टि के तौर पर लोगों की चेतना का हिस्सा बन रही है। देश-भक्ति, राष्ट्रवाद, संस्कृति से लेकर विकास तक के सवालों को परिभाषित कर रही है। साम्प्रदायिकता का यह 'लक्कड़-बग्घा':
किसी की पकड़ में नहीं आता
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट - सब इससे डरते हैं
यह सारा काम योजनाबद्ध ढंग से करता है
यह लक्कड़बग्घा जानवर का मांस नहीं खाता
आदमी का मांस खाता है
इसलिए शाकाहारी कहलाता है
दूसरे धर्मों को मिटाता है
इसलिए धार्मिक कहलाता है
मां के गांव का लक्कड़ बग्घा जाकर खेतों में छिप जाता था
लेकिन यह लक्कड़-बग्घा गौरव यात्रा निकालता है
और सिंहासन पर सज जाता है
धर्मस्थल इसके सुरक्षित खेत हैं,
यह राष्ट्र की बात करता है
राष्ट्रवासियों पर हमला कर देता है
धर्म की बात करता है
और दंगों में शामिल हो जाता है
धर्मस्थलों का रक्षक बनता है
और धर्मस्थल गिरा देता है
संतों का चोला पहनता है
और लक्कड़-बग्घा हो जाता है
जयपाल की चिन्ता 'लक्कड़ बग्घा' की चतुराई, घाघपन, खुंखारपन है, लेकिन उससे भी अधिक उसकी प्रतिष्ठा की है और लोगों का उसके प्रति बदल रहा नजरिया है। अब वह समाज में अलग-थलग नहीं पड़ता, बल्कि लोगों को नेतृत्व प्रदान करता है, लोग उसे महात्मा समझते हैं। साम्प्रदायिकों की 'रथ-यात्राओं', 'गौरव-यात्राओं' में उमड़ती भीड़ उनके बढ़ रहे समर्थन की ओर संकेत है।
मारने खाने के बाद
गांव जाकर सरपंच तो नहीं बन जाता था
लो उसे महात्मा तो नहीं कहते थे
पुलिस खोजकर उसे पकड़ती थी
सुरक्षा तो नहीं देती थी
कम से कम लोग उसे अपना दुश्मन तो समझते थे
चार आदमियों में उसे गाली दी जाती थी
मंच नहीं बिठाया जाता था
गांव में घुसने पर लाठी से उसका स्वागत होता था
गले में हार नहीं डाले जाते थे
गांव का लक्कड़बग्घा
कम से कम रथ पर सवार होकर तो नहीं निकलता था
सबसे बड़ी बात यह -
कि लोग लक्कड़बग्घे को लक्कड़बग्घा तो कहते थे।
जयपाल की कविताएं बहुत ही सरल हैं। जिसमें न तो जटिल प्रतीक हैं, न ही शब्दों की घुमावदार सीढिय़ां हैं और न ही विचारधारा की महीन कताई है। जयपाल की कविता सहज है, जो परिप्रेक्ष्य उद्घाटित कर देती है। सच्चाई उनकी कविता की विश्वसनीयता का आधार है। यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं है। सच्चाई को कविता का रूप देने में सृजनात्मक कल्पना का सहारा लिया गया है। जयपाल की कविता की शक्ति शब्दों के चुनाव में है। शब्द चयन ही कविता की वक्रता लाता है, उसी से व्यंग्य और गम्भीरता आती है। बिना कुछ अतिरिक्त प्रयास के शब्द से समस्त कार्य साधते हैं। जयपाल का शब्द चयन पाठक को एक विशेष जगह ले जाता है। पाठक को यहां मनोवांछित अर्थ ग्रहण करने की छूट नही देती। अपने लक्षित अर्थ तक पाठक को ले जाना कवि की फलता कही जा सकती है।
जयपाल के पास कविता की बहुत गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, उसमें एक मुकम्मल विचार, स्थिति, भावना का वर्णन करती है। इस सूत्र के सहारे ही वह व्यक्त होती है। यदि यह सूत्र ढीला पड़ता है, निश्चित रूप से कविता के रूप में भी ढीलापन आएगा, जो कविता की संप्रेषणीयता व प्रभावशीलता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। जयपाल की कविता कसावट लिए है, ऐसा यहां कुछ भी नहीं, जो कविता के कलेवर में न समाता हो। एक विचार सूत्र को विभिन्न कोणों से देखते हुए न तो कसावट से डोरी टूटती है और न ही ढीली होती है। कविता की उचित कसावट पर कवि की मेहनत उल्लेखनीय है। ये कविताएं किसी स्वत:स्फूर्त भावोच्छ्वास की कविताएं नहीं, बल्कि अपने स्वरूप में जितनी सीधी-सरल हैं उतनी ही इनकी ठुकाई-पिटाई की गई है। जयपाल की कविताएं सचेत निर्मितियां हैं।
जयपाल अपनी कविताओं में हमारे समय के यथार्थ के विभिन्न पक्षों को बहुत विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक-शक्तियों के बीच चल रहे संघर्षों का वर्णन करती ये कविताएं जनता के पक्ष को मजबूत करने के लिए समाज में मौजूद प्रचलित धारणाओं को तोड़ती हैं। जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कविताओं में सीधे तौर पर मौजूद है। जनता के संघर्ष व आन्दोलन कविताओं का विषय नहीं है, लेकिन विचाराधारात्मक परिप्रेक्ष्य शोषित-वंचित वर्ग का है।
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जयपाल हमारे समय के बहुत जरूरी कवि हैं, जिनकी कविताओं का संग्रह 'दरवाजों के बाहर' नाम से प्रकाशित है। जयपाल की सीधी-सरल कविताएं मुख्यत: समाज के उपेक्षित, पीडि़त, वंचित वर्ग पर केन्द्रित है। इनकी कविता में बार बार 'बाहर रह गया आदमी' 'बाहर एक आदमी खड़ा है चुपचाप' आता है। कभी यह आदमी ऐन कविता के बीच में मौजूद होता है तो कभी कविता के परिप्रेक्ष्य में। विकास की प्रक्रियाओं से बाहर रह गया आदमी आज चर्चा-विमर्श से, नीति-योजनाओं से, मीडिय़ा से लगभग गायब है। जयपाल की कविताएं इस 'बाहर रह गए आदमी' को पूरी सहानुभूति व संवेदना के साथ पाठक के समक्ष पेश कर देती हैं।
हर कवि की अपने कविता कर्म से कुछ अपेक्षाएं होती हैं, संकल्प होते हैं। ये अपेक्षाएं और संकल्प ही उसकी कविता की विषय वस्तु को तय करता है और शिल्प को प्रभावित-निर्धारित करता है। लगभग हर कवि अपने मंतव्य को 'कविता' में स्पष्ट करता है। जयपाल के लिए कविता न तो अपने शौक को पूरा करने का जरिया है और न ही अपनी निजी किस्म की भावनाओं-विचारों की व्यक्त करने का टाइम काटू साधन। कविता से उनकी कुछ अपेक्षाएं हैं, कविता उनके लिए संघर्ष में हथियार की तरह है।
कविता खोजती है हमारे आकाश के नए रास्ते
कविता तोड़ती है हमारे रास्तों की सीमाएं
कविता सौंपती है हमें हमारे पंख
कविता बोलती है धीरे-धीरे चुपचाप
कविता देख लेती है हमारी आंखों में दूर-दूर तक बिखरे स्वप्न
कविता तलाश लेती है गुमशुदा चीजों के टूटे हुए रिश्ते
कविता सुन लेती है दरवाजे के बाहर खड़े समय की पदचाप
कविता लड़ती है विचारों के अंधकूप से
कविता लड़ती है भावनाओं की बंद गुफाओं से
कविता तोड़ती है बर्बरता की आदिम प्रतिमाएं
कविता चलती है समय के साथ
रहती है समय से आगे
वर्ग-विभाजित समाज में साहित्य-संस्कृति भी किसी न किसी वर्ग की पक्षधर होती है, कहीं रचनाकार सचेत तौर पर पक्षधर होता है तो कहीं सचेत न होते हुए भी किसी न किसी वर्ग के हित साध रहा होता है। जयपाल ने 'कविता' से जो अपेक्षाएं की हैं, उनको हासिल करने के लिए कविता में जद्दोजहद करते हैं। जयपाल सचेत तौर पर शोषित-वंचित वर्ग के पक्ष का निर्माण करते हैं। अपनी कविताओं में वंचित वर्ग को मजबूत करने के लिए स्पेस तलाशते हैं और शोषक वर्ग की विचारधारात्मक चालाकियों को उजागर करते हैं, समाज-परिवर्तन में सामाजिक-शक्तियों के बीच मौजूद संघर्ष में शोषित वर्ग के पक्षधर हैं, इसीलिए वे अपनी कविताओं को जुझारू व संघर्षशील वर्गों को 'समर्पण' करते हैं।
ये कविताएं समर्पित हैं
उन हाथों के लिए
जो जंजीरों में जकड़े हैं
लेकिन प्रतिरोध में उठते हैं
उन पैरों के लिए
जो महाजन के पास गिरवी हैं
लेकिन जुलूस में शामिल हैं
उन आंखों के लिए
जो फोड़ दी गई हैं
लेकिन सपने देखती हैं
उस जुबान के लिए
जो काट दी गई है
लेकिन बेजुबान नहीं हुई
उन होठों के लिए
जो सिल दिए गए हैं
लेकिन फडफ़ड़ाना नहीं भूले
जयपाल की कविताएं हिम्मत हार चुके हताश-निराश व्यक्ति की नहीं हैं, इसीलिए इनकी कविता में वंचित-शोषक वर्ग के विगलित करने वाले कारूणिक चित्र भी नहीं हैं। अभावों में जी रही आबादियों की व्यथा व्यक्त करने के लिए जयपाल की कविता को कोई अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती। यह केवल चौंकाने के लिए गढा गया आंकड़ा नहीं, बल्कि कटु सत्य है कि हिन्दुस्तान की 80 करोड़ जनता 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना जीवन निर्वाह करती है, विश्वसनीय सर्वेक्षण व रिपोर्टें भी बता रही हैं। 'एक रूपये का सिक्का' उनके जीवन को व अभावों में बन रहे संबंधों को सहज ही बता जाता है। अभावों भरा जीवन कविता में एकदम सजीव हो उठता है। 'एक घर था ऐसा वैसा' कविता में सामान की सूची इसकी खबर दे जाती है। अभावमय जीवन की तकलीफों को विश्वसनीयता से व्यक्त करने के लिए जयपाल दो वर्गों को आमने सामने रख देते हैं। एक ही घटना का समाज के गरीब वर्ग तथा अमीर वर्ग पर क्या प्रभाव पडऩे वाला है इसके चित्र देकर वे सहज ही वर्गों की मौजूदगी और उनमें अत्यधिक अन्तर को सामने रख देते हैं। 'सर्दी आ रही है' कविता में सर्दी से बचने की तैयारी के लिए वंचित वर्ग तो अपने फटे पुराने कपड़ों को देखते हैं, मजदूर पुरानी रजाई को सिर्फ निहार कर आपस में टकरा जाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ रईसजादे सर्दी का आनन्द लेने के लिए घूमने का कार्यक्रम बना रहे होते हैं। सर्दी के अर्थ दोनों वर्गों के लिए अलग-अलग हैं। इसके साथ व्यवस्था की पोल भी खुल जाती है, उसमें प्राकृतिक घटनाओं से अपना बचाव करने के लिए भी जरूरी सामान नहीं है। सर्दी से या लू से लोगों के मरने की खबरें समाचार-पत्रों में अक्सर पढऩे को मिलती हंै। जयपाल की कविता इस तरह की दृष्टिहीनता को समाप्त करके हमारे सामने सच्चाई को सही परिप्रेक्ष्य में रखती है कि असल में लोग लू या सर्दी से नहीं मारे जाते, बल्कि कपड़ों या फिर मौसम के अनुकूल कपड़े, घर या पर्याप्त भोजन के अभाव में शारीरिक ताकत की कमी में मारे जाते हैं और अपने नागरिकों को जीने के लिए समस्त चीजें मुहैया करवाना व्यवस्था और राज्य का ही काम है। राज्य और व्यवस्था की अफलता का जिम्मा मौसम पर नहीं डाला जा सकता इसका अहसास जयपाल की कविता देती है। वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी वर्ग इसी तरह से भ्रम पैदा करते हैं और क्रूर व बर्बर व्यवस्था को छुपा लेते हैं।
सर्दी आ रही है
कहा बूढ़े आदमी ने अपने आप से
एक हवा का झौंका आया
बच्चे ने फटाक से खिड़की बंद कर दी
उधर दादी अम्मा ने दो-तीन बार सन्दूक खोला है
उसे फिर से बंद कर दिया है
नौकर रामदीन इस हपफ्ते कुछ ज्यादा ही खांस गया है
उसने दवा की शीशियां भी सहेज कर रख ली हैं
दुकान के बाहर रखी रजाइयों को मुड़ मुड़कर देखते हुए
दो मजदूर एक दूसरे से टकरा गए
रेस्तरां में बैठे दो रईसजादे सोच रहे थे
इस बार जब सर्दियों में बर्फ गिरेगी
दोस्तों के साथ कुफरी चलेंगे
बड़ा मजा आयेगा।
जीवन चाहे कितना ही अभावमय, दरिद्र हो, लेकिन उसमें कुछ न कुछ सकारात्मक होता है, जो मनुष्य की जीवन में कुछ आशा बनाए रखता है, जयपाल इस जीवन-सूत्र को बखूबी पकड़ते हैं। ग्रामीण जीवन के अभावों का चित्र खींचते हुए वे उसकी सामूहिकता को नजरअंदाज नहीं करते। उनकी दृष्टि में सारतत्त्व व थोथे में अन्तर करने की क्षमता है। कवि का यह आलोचनात्मक विवेक ही पाठक में प्रबोधन पैदा करता है। शासक-शोषित वर्ग आम जनता की एकता को तोड़कर, विभिन्न आधारों पर विभाजन करके ही अपना शासन व शोषण जारी रखता है। वह समाज की संरचना को भी इस तरह का आकार व दिशा प्रदान करता है कि जनता एकत्रित व एकजुट न हो, बल्कि उसमें उसमें परस्पर वैमनस्य, संदेह व अविश्वास पनपता रहे। लेकिन सच्चाई यह है कि बुनियादी तौर पर मनुष्य सामाजिक प्राणी है और एकजुट व सामूहिक संघर्षों से ही उसने मानवता की विकास यात्रा तय की है। प्राकृतिक शक्तियों पर व वर्चस्वी सामाजिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करने में समाज की सामूहिकता कारगर व निर्णायक रही है। जयपाल की कविता सामूहिकता के चित्र देकर मनुष्य में इस अहसास को तीखा करती हैं। 'एक घर था ऐसा वैसा' में पूरा गांव अपनी तमाम विद्रुपताओं, अन्तर्विरोधों व पिछड़ेपन के बावजूद एक ईकाई है और उसके टूटने व बिखरने की गहरी चिन्ता यहां मौजूद है।
सारा गांव एक ही टाब्बर
एक सी चाल एक सी ढाल
बीच में सबके एक सी तार
इसी तार पर खतरा भारी
रल मिल सोचो जनता सारी।
'सबके बीच में एक सी तार पर खतरा भारी है' इसका अहसास जयपाल की कविता पारिवारिक संरचनाओं व रिश्तों पर आधारित समस्त कविताओं में मौजूद है। 'पिता जी', 'दादा जी', 'माता जी', 'आधुनिक नगर' के बीच से मानवीय सामूहिकता ही गायब है। 'पिता जी' का पिता सामुदायिकता को ढूंढता है, जो उसे न तो गांव में मिलती है और न शहर में। 'आधुनिक नगर' जयपाल को सामूहिकता के अभाव में ही 'श्मशान' दिखाई देता है,
जहां गलियां सुनसान
मकान बेजान
दरवाजे बंद
खिड़की परेशान
एक आधुनिक नगर में
कितने श्मशान।
पूंजीवादी व्यवस्था की सामाजिक पारिवारिक संरचना सामुदायिकता पर प्रहार करती है, लेकिन जयपाल की पैनी दृष्टि इन संरचनाओं को तोडऩे वाली शक्तियों को भी देख लेती हैं, जहां पूंजीवादी मूल्य स्वयं को लाचार व असहाय महसूस करते हैं। लोकप्रिय मुहावरा है कि इंसान का सबसे उज्ज्वल पक्ष बच्चों में नजर आता है, जिस पर व्यवस्था की परिपाटियों व विचारों के विषाणुओं का असर नहीं हुआ। 'कहां मानते हैं बच्चे' कविता इसे उदघाटित करती है।
बच्चे तो बच्चे होते हैं
कहां मानते हैं बच्चे
सामने वाले घर में जायेंगे तो कूदते हुए
आएंगे तो फुदकते हुए
कभी उनके बच्चों के साथ कुछ खा आएंगे
कभी उनको कुछ खिला आएंगे
वैसे बच्चे उनके भी कम नहीं हैं
जबसे गर्मी की छुट्टियां हुई हैं
हमारे घर को ही नानी का घर समझ रखा है
अब इसमें हम भी क्या करें
वो भी क्या करें
कितना ही समझाओ
कितना ही सिखाओ
कहां मानते हैं बच्चे!
दीवाली पर
हमारे बच्चे उनके घर पटाखे बजा आए
होली पर
उनके बच्चे हमारे घर रंग डाल गए
ना हमारी चली
ना उनकी
'बच्चा' कविता मालिक-सेवक, शोषक-शोषित के रिश्तों को उजागर करती है।
तमाशा दिखाता है बच्चा
न सांप से डरता है न नेवले से
न बंदर से न भालू से
न शेर से न हाथी से
रस्सी पर चलता है बच्चा
गिरने से नहीं डरता
आग में कूदता है बच्चा
जलने से नहीं डरता
हवा में उछलता है बच्चा
मरने से नहीं डरता
मालिक की तरफ देखता है बच्चा
सहम जाता है बच्चा
जयपाल की कविता में यथार्थ सीधा-सपाट नहीं, बल्कि अपनी पूरी जटिलता के साथ आता है। वे वास्तविकता को कई पहलुओं से कविता में प्रस्तुत करते हैं और पाठक को उसके अनछुए पहलुओं से अवगत कराते हैं। जयपाल की कविताओं की बुनावट में ही समाज का वर्गीय स्वरूप स्पष्ट है, उन्हें इसके लिए अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इनकी कविताओं में 'बड़े दरवाजे' के साथ अनिवार्य तौर पर 'छोटा दरवाजा' भी है, शातिर बगुला है तो उसकी चालाकियों से अनजान भोली मच्छली भी है, अपने वाचाल शब्दजाल के नीचे सामाजिक भेदभाव को छुपाने की कोशिश करता सवर्ण मानसिकता धारण किए चालाक व्यक्ति है तो उनकी इस 'चतुराई' को समझने वाला सचेत दलित भी है। लोकतांत्रिक-प्रणाली से लाभ पाया हुआ आजादी का पाखण्डपूर्ण जश्न मनाता वर्ग है तो उसका विरोध भी दर्ज है। जयपाल की कविताओं की विशेष बात यह है कि इनके चित्र बहुत जाने-पहचाने होते हैं, लोगों का इससे हररोज ही वास्ता पड़ता है जब कविता इस रोज वास्ता पडऩे वाली साधारण सी वस्तुओं को असाधारण व ऐतिहासिक अर्थ देने वाले चित्रों व प्रतीकों में बदलती है तो ये इस चेतना के स्थायी वाहक बन जाते हैं और स्वत: ही पाठक की जीवन-दृष्टि को प्रभावित करने लगती है। अपनी कविता में जनजीवन के चित्रों-बिम्बों-प्रतीकों-शब्दों को नए अर्थ देती कविताओं की शक्ति इसीलिए अधिक होती है। इनकी स्मृति स्थायी होती है। इसके विपरीत जो बिम्ब-प्रतीक जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं होते और कवि उनसे कविताएं निर्मित करता है वे लक्षित-इच्छित अर्थ देने में तो सक्षम होते हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी दूज के चांद की तरह होता है जो एक बार प्रकाशमान होकर ओझल हो जाता है। सामाजिक शक्तियों में व्याप्त अन्तर्विरोधों व संघर्षों को जयपाल की कविता स्पष्ट करती है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था में कई स्तरों पर संघर्ष चलता है, जिसे शोषक वर्ग कभी नजरअंदाज नहीं करता, लेकिन शोषित वर्ग इस जटिल प्रक्रिया को नहीं समझ पाता। 'बगुला और मछली' के माध्यम से शोषक-शासक व वर्चस्वी वर्ग के घाघपन व चालाकियों को उद्घाटित किया है और उनके आपसी द्वन्द्वों, संघर्षों को भी दर्शाया है। बगुला और मछली का ऐसा बिम्ब दिया है जो पाठक पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है।
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
पानी को भी देखता है
कितने पानी में है मछली
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
साथ घूम रही दूसरी मछलियों को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
अपने साथी दूसरे बगुलों को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
वह अपने आप को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
किनारे खेलते बच्चों को भी देखता है
जिनके हाथों में रोड़े पत्थर हैं
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
वह और भी देखता है बहुत कुछ
जो शायद मछली नहीं देखती
मध्यवर्ग समाज का बहुत बड़ा वर्ग है, जिसने समाज को नेतृत्व प्रदान किया है और विश्व की महान क्रांतियों और बुनियादी बदलावों में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मध्यवर्ग पिछले समय से निहायत अवसरवादी व आत्मकेंद्रित हो गया है और वह सिकुड़कर अपने में घुस गया है। वह उपभोक्तावाद का शिकार है और अपने ऐतिहासिक दायित्व को भूल गया है। जयपाल 'मध्यवर्ग के कारनामे' में उसके जीवन व सोच को, इसकी रूचियों व मंतव्यों को उद्घाटित किया है। जो मध्यवर्ग की स्थिति को व्यक्त करते हैं । जयपाल की कविताओं की विशेषता है कि वे तथ्यों व स्थितियों को समझने में निष्पक्ष हैं और मंतव्य में प्रतिबद्ध। चूँकि बदलाव के लिए तैयार करना व माहौल बनाना उनका मंतव्य है इसलिए वे किसी वर्ग को दुत्कारते नहीं, बल्कि उसके विडम्बनात्मक व्यवहार को सामने रख देते हैं।
भारतीय समाज में दलित वर्ग आर्थिक तौर पर व सामाजिक तौर पर सर्वाधिक शोषित है। सामाजिक स्थिति उसके आर्थिक शोषण को वैध ठहराती है तो आर्थिक शोषण उसे समाज के निचले पायदान पर रखता है। समाज के इस वर्ग के हिस्से में दूसरों के लिए काम करना ही आया है और उनकी मेहनत का फल कोई दूसरा भोगता है। स्त्री, दलित तथा सर्वहारा होने के कारण दलित-स्त्री तिहरे शोषण को झेलती है। मैला ढोती-उठाती, सड़कों-नालियों को साफ करती औरतों के बिना मौजूदा शहरी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन कथित 'सभ्य-सुसंस्कृत' समाज की संवेदना-सहानुभूति को नहीं जगा पाई हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय गांवों को दलित-उत्पीडऩ के यातना-शिविरों की संज्ञा देते हुए शहरों में बसने की सलाह भी दी थी। लेकिन भारतीय शहर भी दलितों को कोई राहत नहीं दे पाए। 'बहिष्कृत औरत' न केवल घरेलू काम व शहर को साफ-सुथरा रखने में 'कामवालियां' नए शहरी जीवन की सच्चाई है।
शहर से बाहर से
एक औरत शहर के अंदर आती है
घरों पर से मिट्टी झाड़ती है
फर्श चमकाती है
गलियों को बुहारती है
पी जाती है नालियों की सारी दुर्गंध
गली-मुहल्लों को सजा देती है अपनी-अपनी जगह
इस तरह -
जब सारा शहर रहने लायक हो जाता है
यह औरत शहर से बाहर चली जाती है
'एक चुप्पी' कविता में भी स्त्री का जीवन्त चित्र देखने को मिलता है
सवेरे-सवेरे
एक हाथ में टोकरी
दूसरे में झाडू
वह निकल पड़ती है घर से
जाती है एक घर से दूसरे घर
एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले
कुछ दौड़ती है
कुछ भागती है
कुछ हंसती है
कुछ रोती है
करती है मजाक तरह तरह के
सुनाती है किस्से यहां-वहां के
लगता है सब कुछ कह जाती है
लगता है सब कुछ सुन जाती है
फिर भी एक खास तरह की चुप्पी
उसके चारों तरफ हमेशा मौजूद रहती है
इसी चुप्पी में मौजूद रहता है
उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य
जयपाल समाज के उपेक्षित, शोषित वर्ग की दृष्टि से चीजों को देखते हैं. अपनी मिट्टी, वतन, गांव या फिर जन्मभूमि से मनुष्य का स्वाभाविक तौर पर भावनात्मक लगाव हो जाता है, लेकिन जिस व्यक्ति के लिए 'उसका गांव' यातना-गृह की तरह रहा हो, उसमें उसके प्रति लगाव की भावना कैसे पैदा हो सकती है। मातृभूमि-प्रेम जैसे विचारों को एक दलित की दृष्टि से देखने पर अलग ही तस्वीर नजर आती है। गांव सदियों से दलित-उत्पीडऩ के केन्द्र रहे हैं। गांव से बाहर प्रतिष्ठा के साथ जीने वाला 'मास्टर चन्द्रप्रकाश' गांव में प्रवेश करते ही 'चंदा चमार' हो जाता है।
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था अभिशाप है, जो उच्च वर्ण के मनुष्य में अहंकार व श्रेष्ठता का दंभ पैदा करके उसकी मानवता को समाप्त करती है, तो दूसरी ओर निम्न वर्ग को मानव का दर्जा ही नहीं देती। सवर्णों की जिस हिकारत व नफरत का दलित को सामना करना पड़ता है, वह कितना पीड़ादायक है इसका अहसास जयपाल की कविताएं करवाती हैं और उसके लिए सहानुभूति बटोरती हैं। बदल रही परिस्थितियों ने जाति-व्यवस्था के समक्ष चुनौती पेश की है जयपाल की कविता इसे व्यक्त करती है। अन्तर्जातीय विवाह को डा. आम्बेडकर ने जाति-प्रथा को समाप्त करने के लिए कारगर तरीका बताया था। अन्तर्जातीय विवाह हो भी रहे हैं, लेकिन इसमें ब्राह्मणवाद अपना बचाव करता है और दलित के साथ इस तरह के संबंध को सहज स्वीकार नहीं करता। वह अपनी शर्तों पर इसे स्वीकार करना चाहता है। सच्ची घटना पर आधारित 'आम्बेडकर और रविदास' कविता इस पर प्रकाश डालती है।
अधिकारी महोदय
तुम चाहे जिस भी जाति से हों
हम अपनी बेटी की शादी तुम्हारे बेटे से कर सकते हैं
पर हमारी भी एक प्रार्थना है
सगाई से पूर्व तुम्हें अपने घर से
रविदास और आम्बेडकर के चित्र हटाने होंगे
कल को हम रिश्तेदार बनेंगे
तो आना जाना तो होगा ही
कैसे हम तुम्हारे घर ठहरेंगे
कैसे खाना खाएंगे
और कैसे दो बात करेंगे
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
रात को सोते वक्त आंख खुल गई
तब दोबारा नींद कैसे आएगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
अम्बाला में मेरे कई उच्च अधिकारी मित्र हैं
कई रिश्तेदार भी ऊंचे पदों पर हैं
हालांकि ऊंचे पद पर तो आप भी हैं
पर बात तो तब बिगड़ेगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
हमारी बेटी अभी नादान है
सारी बातें नहीं समझती
शादी के बाद
दो-चार दिन तो कहीं बाहर भी कट जायेंगे
पर बाकी के दिन कैसे कटेंगे
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
हमारी बेटी पूजा-पाठ करती है
वह भगवान शंकर का ध्यान कैसे लगाएगी
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
बोलो अधिकारी महोदय
कैसे कटेगी यह पहाड़ सी जिंदगी
कैसे निभेगी यह पहाड़ सी रिश्तेदारी
जयपाल की कविता का दलित पस्त व हारा हुआ नहीं है और न ही आक्रोशित है, बल्कि बहुत ही संयमित व गम्भीर है। दलित की गम्भीरता ही उसका पक्ष निर्माण करती है। वह बेचारा नहीं है, लेकिन अपनी स्थिति को भलि-भांति समझता है, बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा करता है, उसमें हीनता-बोध नहीं है और सवाल करने की हिम्मत करता है। 'उनका सवाल' कविता दलित-जीवन की त्रासदी व सवर्ण के अंहकार को सामने रख देती है।
वे पूछते हैं -
आज भी उनके सिर पर गंदगी का टोकरा क्यों रखा है
उनकी बस्ती शहर या गांवों से बाहर ही क्यों होती है
उनके मंदिरों-गुरुद्वारों में दूसरे लोग क्यों नहीं आते
अनपढ़ता बेकारी और गरीबी उनकी बस्ती में क्यों रहती है
उनकी बहु बेटियों को लोग खाने पीने की चीजें क्यों समझते हैं
उनके महापुरुष दूसरों के लिए उपहास पुरुष क्यों होते हैं
स्कूल में अध्यापक उन्हीं की जाति को क्यों याद रखता है
अन्तर्जातीय विवाह से उनकी जाति अभी तक बाहर क्यों है
उन्हें किराएदार रखने में मालिक-मकान को क्या परेशानी है
अपनी जाति बताना उनकी सबसे बड़ी विकट समस्या क्यों है
उनकी जाति को गाली में क्यों बदल दिया गया है
अंत में वे एक सवाल और पूछते हैं -
उनके सवाल को आखिर सवाल क्यों नहीं माना जाता
जयपाल की कविताओं का दलित कुछ भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा के लिए लड़ रहा है। मानव गरिमा हासिल करने के लिए जिस तरह से वह सवाल उठाता है उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। 'दलित विद्यार्थी' के लिए भारतीय समाज में जिस तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, उसे दलित साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाओं में व्यक्त किया है। शिक्षकों से उन्हें ज्ञान व स्नेह की अपेक्षा नफरत मिलती है।
दरअसल तुम जैसे छात्रों को
बचपन में बचपने जैसी कोई हरकत नहीं करनी चाहिए
तुम्हें हमेशा याद रखना चाहिए
तुम केवल एक स्कूल के विद्यार्थी ही नही हो
एक दलित बाप के दलित बेटे भी हो
दलित उत्पीडऩ की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं हरियाणा में पिछले दिनों घटित हुई हैं। दुलीना, हरसौला, गोहाना, जाटू लुहारी जैसे काण्ड मानवीय व्यवहार पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं, वे भेदभाव की प्रणालियों को खोल कर रख देते हैं। सवाल यही है कि आखिर इतने बर्बर व क्रूर अमानवीय व्यवहार के लिए वैधता कहां से मिलती है। जयपाल ने घटनाओं का विवरण न देते हुए इसके आधार को पहचानने की कोशिश की है। वे दलित उत्पीडऩ के दार्शनिक आधार की ओर संकेत करते हैं और धार्मिक संरचनाओं में इसकी जड़ों को तलाशते हैं। 'बंद दरवाजे' कविता दलित उत्पीडऩ के कारणों की संकेत करती है। दलितों की ओर से दिमाग के विवेक के दरवाजे बंद कर रखे हैं।
निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में जनता को ठगने के लिए शब्दों का जितना दुरूपयोग किया है उतना शायद इतिहास के किसी भी दौर में नहीं हुआ होगा। शासन व सत्ता अपना शोषण जारी रखने के लिए तरह तरह मिथ्या प्रचार व झूठ का सहारा लेते रहे हैं, लेकिन इस मामले वे इतने बेशर्म कभी नहीं हुए होंगे कि भाषा को बिल्कुल विपरीत कार्यों के लिए प्रयोग करें। एक सचेत कवि की तरह से जयपाल की कविताएं शब्दों के नीचे छुपे शासकों के मंतव्यों को समझाती हैं और मेहनतकश जनता को इस भाषायी पाखण्ड से आगाह भी करती हैं। साम्राज्यवादी नीतियों की शब्दावली के मकसद बिल्कुल उलट हैं, जब वे विकास की बात करते हैं तो विनाश कर रहे होते हैं। जब वे शान्ति की बात करते हैं तो युद्ध का ऐलान कर रहे होते हैं और जब वे लोकतंत्र व आजादी की बात करते हैं तो तानाशाही और गुलाम बना रहे होते हैं।
वे आर्थिक सुधार करेंगे
मरने को मजबूर कर देंगे
वे रोजगार की बात करेंगे
रोटी छीन लेंगे
वे शिक्षा की बात करेंगे
व्यापार के केन्द्र खोल देंगे
वे शान्ति की अपील करेंगे
जंग का ऐलान कर देंगे
वे लोकतंत्र की बात करेंगे
लोगों पर बम बरसा देंगे
इस तरह
वे हमारे आंसू पोछेंगे
और दृष्टि छीन लेंगे। (पाखण्डी)
जयपाल की कविता जन मानस के समक्ष मौजूद वास्तविकता की सही तस्वीर रखने के लिए जद्दोजहद करती है। समाज के वर्चस्वशाली शोषक वर्ग अपने शोषण व लूट को जारी रखने के लिए तथा समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तरह के गैर इंसानी व गैर कानूनी तरीकों को इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जनता के समक्ष अपनी लोक लुभावनी व लोक हितैषी की तस्वीर भी प्रस्तुत करते हैं। इससे ही वे अपने पक्ष में जन समर्थन जुटाते हैं। शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए समाज में मिथ्या चेतना व झूठ को सहारा लेता है। वह तरह तरह के झूठ को प्रसारित करता है। राजसत्ता का यह हथकण्डा बहुत प्राचीन है। चाणक्य ने राजाओं को शासन करने के जो गुर सिखाए हैं उसमें अंधविश्वासों को फैलाने पर विशेष जोर दिया गया है। हर समय की राजसत्ता जनता को भ्रमित करने के लिए इस तरह के प्रचार करती है। जन हितैषी व जन प्रतिबद्ध रचनाकारों व बुद्धिजीवियों का ही काम है कि राजसत्ताओं के इन मिथकों की फाई करके सच्चाई की सही तस्वीर पेश करे। जयपाल की कविता इस उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लेती है और उसका बखूबी निर्वहन करती है। जयपाल एक सचेत तौर पर देखते हैं कि शासक वर्ग 'जाले' बुनता है, जनता को फंसाने के लिए और परिवर्तनकामी शक्तियों को ये जाले साफ करने पड़ते हैं, परिवर्तन के लिए। हर युग का शासक वर्ग अपने जाले बुनता है। जाले हर युग में होते हैं
जाले हर युग के होते हैं
हर युग बुन लेता है अपने जाले
हर युग चुन लेता है अपने जाले
धूल मिट्टी से सने प्राचीन जाले
मोती से चमकते नवीन जाले
समय इन जालों से टकराता है
जाले समय से टकराते हैं
युग परिवर्तन चलता रहता है
अंधविश्वास या मिथक केवल प्राचीन समय के ही नहीं हैं, बल्कि हमारे समय के शासक वर्ग जिस तरह के विकास की तस्वीर व आंकड़े पेश करते हैं जनता को भरमाने के लिए नए नए सिद्धांत खोजकर लाते हैं और उन्हीं में उनको उलझाए रचाते हैं, वे भी उसी तरह के ही अंधविश्वास का काम करने लगते हैं, जैसे भाग्यवाद और नियतिवाद के अंधविश्वास। ये इतने नवीन व उज्ज्वल पक्ष पेश करते हैं कि आम चेतना इनके भीतर छुपे शासकीय सोच को नहीं पकड़ पाती।
जयपाल की कविताएं समाज में हो रहे परिवर्तनों को अपने अन्दर समेटे हैं। असमान विकास व नई तकनीक के अपनाने से समाज के साधनहीन तबकों को अपना गुजारा मात्र करने के लिए या तो विस्थापन की मार झेलनी पड़ती है या फिर हर रोज शहरों में काम की तलाश में आने वाली ग्रामीणों की बड़ी संख्या है, जो रोजगार के लिए यहां आते हैं। बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक में लेबर चौंक पर खड़ी भीड़ से इस सच्चाई का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वे यहां अपने जीवन को बेहतर बनाने के सपने लेकर आते हैं, लेकिन 'खाली हाथ' लौटते हैं.
वे दिन भर शहर की सूरत संवारते हैं
और अपनी सूरत बिगाड़ते हैं
दिन ढलने पर
सिर नीचा कर
मुंह लटकाए
चल पड़ते हैं वापिस
अपने घरों की तरफ
हताश-निराश
जैसे शमशान से लौटते हैं लोग
खाली हाथ
जयपाल की कविता सामूहिक अनुभव व सामूहिक सवालों पर आधारित हैं, जिसमें निजी रूचियों की कोई गुंजाइश नहीं है, सामूहिकता में ही लेखक की निजता की शमूलियत है। इसीलिए उनकी कविता में टाइप विषय आते हैं। 'गांव', 'किसान', 'बच्चे', 'खाली हाथ', 'मेज, कुर्सी और आदमी', 'मजदूर औरत', 'एक घर था ऐसा वैसा' आदि कोई भी कविता लें सभी कविताएं एक बड़ी आबादी से संबंधित हैं। यहां किसी व्यक्ति का जिक्र नहीं है, न ही किसी निजी घटना का संबोधन है।
जयपाल की कविताएं चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से पाठक से संबोधित हों, वे सामाजिक व्यवस्था का एक क्रिटीक पेश करती हैं। न केवल बृहद सामाजिक परिघटनाओं पर, बल्कि पारिवारिक संरचनाओं में भी वे व्यवस्था का चरित्र देख लेते हैं। असल में यह उस बृहद सामाजिक-व्यवस्था का ही रूप होता है। इसी पैनी व आलोचनात्मक दृष्टि के कारण ही वे 'घर' के अन्दर की गैर बराबरी को देख पाते हैं। घर में मौजूद शक्ति संरचना सामाजिक-व्यवस्था के दर्शन करवा जाती है। छोटी-छोटी कविताएं लोक अनुभव को समेटे होती हैं। लोक अनुभव एक विश्वसनीयता को दर्शाता है। 'पत्नी' कविता भारतीय स्त्री की स्थिति को सहज ही उद्घाटित कर देती है।
पत्नी का लौट आता है बचपन
जब दूर पार से मिलने आते हैं पिता जी
पत्नी की आंखों में उतर आता है संमदर
जब अचानक आकर मां सिर पर रखती है हाथ
पत्नी को याद आने लगती है मुट्ठी में बंद तितलियां
जब बहनों के आने का समाचार मिलता है
पत्नी भूल जाती है ससुराल के पाठ
जब भाई आकर घर में कदम रखता है
इस तरह
घर में खुल जाती है एक प्रतिबंधित किताब
जयपाल की कविताएं हमारे समय की वास्तविकताओं को परत दर परत खोलती हैं। वे घटनाओं का वर्णन-विवरण नहीं देते, लेकिन घटनाएं उनकी कविता में चिपकी होती हैं, वे अपने कथ्य से इसे इस तरह संयोजित करते हैं कि घटनाएं न रहकर पूरा परिदृश्य उद्घाटित करने लगती हैं। 'मेज, कुर्सी और आदमी' कविता वर्तमान राज्य-व्यवस्था की कार्य प्रणाली को उजागर करती है कि सरकारें चाहे जो भी आएं लेकिन उनकी चाल व चरित्र एक सा रहता है।
एक जमाने से
एक मेज रखी है साहित्य अकादमी के दफतर में
दूरदर्शन, आकाशवाणी और अखबार के सम्पादकीय विभाग में
स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय की पाठ्यक्रम समिति में
यह मेज न हिलती है, न डुलती है
न देखती है, न सुनती है
एक जमाने से यह मेज एक जगह स्थिर है
इसके आगे एक कुर्सी रखी है
यह कुर्सी भी बेजान है
बड़ी रहस्यपूर्ण और सुनसान है
इस कुर्सी पर एक आदमी बैठा है
उसके आंख और कान सिरे से गायब हैं
शरीर के बाकी अंगों पर लकवे का असर है
एक जमाने से
इस आदमी की यही पहचान है
सरकारें आती हैं
चली जाती हैं
लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं
कि-
मेज, कुर्सी और आदमी
तीनों अपना काम बड़ी जिम्मेवारी से निभा रहे हैं।
साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करके भारत ने आजादी प्राप्त की। लाखों लोगों ने बलिदान दिए। जनता की स्वतन्त्रता से कुछ अपेक्षाएं थी, लेकिन आजादी के बाद पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया गया। जिसमें कुछ लोगों का तो खूब विकास हुआ, लेकिन अधिकांश आबादी आजादी के फलों से वंचित रही। आजादी के नाम पर उनको केवल आजादी दिवस मिला, जिस पर वे स्वर्णिम संघर्ष को याद कर लेते थे। लेकिन जनता की आशाओं पर खरा न उतरने वाली सरकारों ने दमन का रास्ता अपनाया और जनता की ओर से मुह मोड़ लिया। अब आजादी सिर्फ शासक-शोषक वर्गों को है और राज्य तंत्र उनके शोषण व दमन का जरिया बन चुका है। 'पन्द्रह अगस्त की तैयारी' कविता इसे बखूबी उजागर करती है।
दो दिन बाद पन्द्रह अगस्त है
शहर में झंडा फहराने मंत्री जी आ रहे हैं
मैदान के सामने एक झुग्गी बस्ती है
बस्ती के सामने एक विशाल शामियाना लगा दिया गया है
अब मंच से यह बस्ती दिखाई नहीं देती
मैदान के बांई तरफ एक गंदा नाला है
यहां भूखे-नंगे बच्चे फटेहाल घूमते रहते हैं
नाले को लकड़ी के फट्टों से ढक दिया गया है
बच्चों को कहा गया है कि वे शहर के दूसरी तरफ चले जांए
मैदान के दांई तरफ एक मजदूर-बस्ती है
पिछले दिनों इस बस्ती के एक घर में
एक मजदूर की भूख के कारण मर गया था
उस घर के आगे पुलिस बिठा दी गई है
साहित्यकर्मियों और जन संगठनों को कहा गया है
वे पन्द्रह अगस्त तक इधर से ना गुजरें
संतो-महन्तों, स्थानीय नेताओं और राजकवियों को
निमन्त्रण पत्र भेज दिए गए हैं
शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यक्तियों को
स्वागत समिति में रखा गया है
आयोजकों का कहना है
पन्द्रह अगस्त की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं।
हमारे समय की मानवता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदायिकता के माध्यम से प्रकट हुई है। जिससे लोग अपनी मानवीयता खो देते हैं अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए आबादियों को बेघर कर देते हैं। साम्प्रदायिकता से मरने वाले, घायल व बेघर हुए लोगों की संख्या दोनों विश्वयुद्धों में मारे गये लोगों से भी अधिक है। साम्प्रदायिकता की मानसिकता व राजनीति को साहित्यकारों और कवियों ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। लगभग हर रचनाकार ने इस दर्द को अपनी रचना में उतारा है। जयपाल की कविता 'लक्कड़-बग्घा' गुजरात के नरसंहार व फासीवादी राजनीति को व्यक्त करते हुए इसकी बहुत सी परतों को उभारा है। जयपाल की चिन्ता में घटनाओं व समस्याओं के प्रभाव आते हैं, जो लोकचेतना का हिस्सा बन चुके होते हैं। वे उनमें मौजूद अमानवीयता को व्यक्त करके हमारी मानवीय नैतिकता व विवेक को जगाते हैं। इसमें जयपाल का ध्यान साम्प्रदायिक दंगों को तफसील से व्यक्त करने में नही है, बल्कि उससे जो सोच व असर पड़ता है उसे व्यक्त करते हैं। जयपाल की चिन्ता यह है कि साम्प्रदायिकता को अब साम्प्रदायिकता भी नहीं माना जाता, बल्कि अब उसको धार्मिकता की श्रेणी में डाल दिया है। अब साम्प्रदायिक शक्तियां छुपकर व अपराध बोध के साथ नहीं, बल्कि गर्व के साथ व शहीदों की तरह से स्वयं को पेश करती है। अपराध को वह धार्मिक कृत्यों की श्रेणी में डाल रही है। वह चुन चुनकर अपनी जनता को मार रहा है और देश भक्ति का तमगा पा रहा है। अब वह समाज में सम्मानजनक स्थान पाने लगा है और अपने कुकृत्यों पर शर्माता नहीं, बल्कि उसका जश्न मनाता है। वह इतना शक्तिशाली हो गया है कि राजनीतिक तंत्र, न्याय तंत्र सबसे शक्तिशाली है वह सब इसके समक्ष अपने को लाचार व असहाय पाते हैं। साम्प्रदायिक फासीवाद तमाम संस्थाओं-प्रणालियों को अपने गिरफ्त में ले रहा है। अब यह कुर्सी हथियाने का चुनावी स्टंट मात्र नहीं है, बल्कि एक दृष्टि के तौर पर लोगों की चेतना का हिस्सा बन रही है। देश-भक्ति, राष्ट्रवाद, संस्कृति से लेकर विकास तक के सवालों को परिभाषित कर रही है। साम्प्रदायिकता का यह 'लक्कड़-बग्घा':
किसी की पकड़ में नहीं आता
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट - सब इससे डरते हैं
यह सारा काम योजनाबद्ध ढंग से करता है
यह लक्कड़बग्घा जानवर का मांस नहीं खाता
आदमी का मांस खाता है
इसलिए शाकाहारी कहलाता है
दूसरे धर्मों को मिटाता है
इसलिए धार्मिक कहलाता है
मां के गांव का लक्कड़ बग्घा जाकर खेतों में छिप जाता था
लेकिन यह लक्कड़-बग्घा गौरव यात्रा निकालता है
और सिंहासन पर सज जाता है
धर्मस्थल इसके सुरक्षित खेत हैं,
यह राष्ट्र की बात करता है
राष्ट्रवासियों पर हमला कर देता है
धर्म की बात करता है
और दंगों में शामिल हो जाता है
धर्मस्थलों का रक्षक बनता है
और धर्मस्थल गिरा देता है
संतों का चोला पहनता है
और लक्कड़-बग्घा हो जाता है
जयपाल की चिन्ता 'लक्कड़ बग्घा' की चतुराई, घाघपन, खुंखारपन है, लेकिन उससे भी अधिक उसकी प्रतिष्ठा की है और लोगों का उसके प्रति बदल रहा नजरिया है। अब वह समाज में अलग-थलग नहीं पड़ता, बल्कि लोगों को नेतृत्व प्रदान करता है, लोग उसे महात्मा समझते हैं। साम्प्रदायिकों की 'रथ-यात्राओं', 'गौरव-यात्राओं' में उमड़ती भीड़ उनके बढ़ रहे समर्थन की ओर संकेत है।
मारने खाने के बाद
गांव जाकर सरपंच तो नहीं बन जाता था
लो उसे महात्मा तो नहीं कहते थे
पुलिस खोजकर उसे पकड़ती थी
सुरक्षा तो नहीं देती थी
कम से कम लोग उसे अपना दुश्मन तो समझते थे
चार आदमियों में उसे गाली दी जाती थी
मंच नहीं बिठाया जाता था
गांव में घुसने पर लाठी से उसका स्वागत होता था
गले में हार नहीं डाले जाते थे
गांव का लक्कड़बग्घा
कम से कम रथ पर सवार होकर तो नहीं निकलता था
सबसे बड़ी बात यह -
कि लोग लक्कड़बग्घे को लक्कड़बग्घा तो कहते थे।
जयपाल की कविताएं बहुत ही सरल हैं। जिसमें न तो जटिल प्रतीक हैं, न ही शब्दों की घुमावदार सीढिय़ां हैं और न ही विचारधारा की महीन कताई है। जयपाल की कविता सहज है, जो परिप्रेक्ष्य उद्घाटित कर देती है। सच्चाई उनकी कविता की विश्वसनीयता का आधार है। यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं है। सच्चाई को कविता का रूप देने में सृजनात्मक कल्पना का सहारा लिया गया है। जयपाल की कविता की शक्ति शब्दों के चुनाव में है। शब्द चयन ही कविता की वक्रता लाता है, उसी से व्यंग्य और गम्भीरता आती है। बिना कुछ अतिरिक्त प्रयास के शब्द से समस्त कार्य साधते हैं। जयपाल का शब्द चयन पाठक को एक विशेष जगह ले जाता है। पाठक को यहां मनोवांछित अर्थ ग्रहण करने की छूट नही देती। अपने लक्षित अर्थ तक पाठक को ले जाना कवि की फलता कही जा सकती है।
जयपाल के पास कविता की बहुत गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, उसमें एक मुकम्मल विचार, स्थिति, भावना का वर्णन करती है। इस सूत्र के सहारे ही वह व्यक्त होती है। यदि यह सूत्र ढीला पड़ता है, निश्चित रूप से कविता के रूप में भी ढीलापन आएगा, जो कविता की संप्रेषणीयता व प्रभावशीलता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। जयपाल की कविता कसावट लिए है, ऐसा यहां कुछ भी नहीं, जो कविता के कलेवर में न समाता हो। एक विचार सूत्र को विभिन्न कोणों से देखते हुए न तो कसावट से डोरी टूटती है और न ही ढीली होती है। कविता की उचित कसावट पर कवि की मेहनत उल्लेखनीय है। ये कविताएं किसी स्वत:स्फूर्त भावोच्छ्वास की कविताएं नहीं, बल्कि अपने स्वरूप में जितनी सीधी-सरल हैं उतनी ही इनकी ठुकाई-पिटाई की गई है। जयपाल की कविताएं सचेत निर्मितियां हैं।
जयपाल अपनी कविताओं में हमारे समय के यथार्थ के विभिन्न पक्षों को बहुत विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक-शक्तियों के बीच चल रहे संघर्षों का वर्णन करती ये कविताएं जनता के पक्ष को मजबूत करने के लिए समाज में मौजूद प्रचलित धारणाओं को तोड़ती हैं। जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कविताओं में सीधे तौर पर मौजूद है। जनता के संघर्ष व आन्दोलन कविताओं का विषय नहीं है, लेकिन विचाराधारात्मक परिप्रेक्ष्य शोषित-वंचित वर्ग का है।