दलित शोषण का औजार : भक्ति
('भक्ति और जन' के बहाने )
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
'भक्ति और जन' डा. सेवासिंह की आलोचनात्मक कृति है जो भारतीय प्रत्ययवाद की दार्शनिक परम्परा का विश्लेषण करके उसके प्रति आलोचनात्मक समझ पैदा करती है। कई महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाओं को अंजाम देती यह कृति भारतीय दर्शन, मत-मतान्तरों, धर्मशास्त्रों, पुराणों-मिथकों, पूजा-उपासना की विधियों-पद्धतियों में रूचि रखने वाले व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सामान्य ज्ञान चेतना व आम बातचीत में भक्ति को ईश्वर की उपासना का ढंग, पद्धति, प्रणाली के रूप में ही समझा जाता है। डा. सेवा सिंह ने भक्ति को मात्र उपासना-पद्धति, प्रणाली या कर्मकाण्ड बताने वाली नहीं माना। भक्ति एक विचारधारा है और विचारधारा में कुछ मूल्य-मान्यताएं, स्थापनाएं एवं निष्कर्ष होते हैं। विचारधारा हमेशा वर्गों की होती है, व्यक्तियों की नहीं। व्यक्ति तो केवल उसको ग्रहण करते हैं, उसके वाहक बनते हैं, उसमें अपने अनुभव व तर्क सम्मिलित करते हैं, उसका औचित्य सिद्ध करते हैं। यह भी विवाद का विषय नहीं है कि वर्ग-विभाजित समाज में विचारधारा भी वर्गीय होती है। जब समाज में परस्पर विरोधी प्रकृति के वर्ग हैं तो किसी विचारधारा का एक वर्ग को लाभ होता है तो दूसरे वर्ग को नुक्सान।
भक्ति की विचारधारा उच्च वर्ग की विचारधारा रही है एवं विशेष समय पर उच्च वर्ग ने इसका आविष्कार किया है इस आविष्कार के पीछे ऐतिहासिक कारण भी रहे और उच्च वर्ग की जरूरतें भी। तमाम मत-मतान्तरों, उपासना-विधियों (वैष्णव, शैव, तन्त्र, आलवार आदि) में भक्ति का केन्द्रीय तत्त्व 'दासता' और 'समर्पण' अवश्य मौजूद है। ऊपरी तौर पर भाषा का, प्रतीकों का, देव-कल्पनाओं का ही अन्तर है। डा. सेवासिंह की चिन्ता और चिन्तन का मुख्य बिन्दु भी यही है कि ब्राह्मणवाद 'भक्ति' के सहारे अन्य जन-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले मतों-सम्प्रदायों पर आक्रांता की तरह छा गया है, उसने इनकी विशिष्टता ही गायब कर दी। 'भक्ति' की विचारधारा ने उनको इस तरह आत्मसात किया कि इन मतों के मूल्य-सिद्धांत कई बार तो अपने मूल स्वरूप के विपरीत हो गए और 'भक्ति' के अनुकूल होकर शोषणकारी व वर्चस्ववादी विचारधारा का अंग बन गए। मातृसत्ता के गुण-मूल्य लिए मतों पर पितृसत्ता के गुण हावी हो गए। इनका जन जुड़ाव मात्र उच्च वर्ग के वर्चस्व को जन में स्वीकृति के निर्माण करने का हथियार बनकर रह गया, भक्ति की विचारधारा जन को नियंत्रित करने का प्रमुख कारक बन गई। परस्पर विरोधी मतों को एक ही रूप दे देना और अपने वर्चस्व के लिए प्रयोग कर लेना चालाकी को दर्शाता है।
विचारधारा के तौर पर बेशक ये विभिन्न मत एक ही वर्ग की सेवा करते हैं तो भी इनके बीच हुए विवाद व मतभेद भारत के बहुलता प्रधान चरित्र को उद्घाटित करते हैं। विभिन्न मतों के मतभेदों को उभारना व सांस्कृतिक बहुलता के चरित्र को रेखांकित करना आज के समय में महत्वपूर्ण है। आस्तिक-नास्तिक या भक्तिपरकता के आधार पर दो श्रेणियां बनाकर इनकी विशिष्टता को अनदेखा करके सबको एक ही खाते में डाल देना खतरनाक है। विशेष तौर पर जबकि फासीवादी ताकतें सांस्कृतिक एकरूपता का इतिहास रचने व परम्परा को समरस सिद्ध करने की कुचेष्टा कर रही हों। किस वर्ग या समुदाय के लोगों ने कौन सा मत अपनाया और इस मत में उस समुदाय के कौन से हित सुरक्षित थे। शैवों और वैष्णवों के बीच विवाद की सघनता व खून-खराबा मात्र उनके सैद्धान्तिक-दार्शनिक या आध्यात्मिक विवाद की सूचना नहीं देता, बल्कि इसके पीछे निहित भौतिक, सांसारिक व ठोस वास्तविक स्वार्थ काम रहे होंगे क्योंकि किसी समुदाय के उच्च वर्ग के पास न तो इतनी फुर्सत है और न ही वे इतने भोले होते हैं कि वे किसी ख्याली बात के लिए लड़ते रहें। आध्यात्मिक परतों के नीचे दबी इन सच्चाइयों को उद्घाटित करना व वर्गीय संरचनाओं को समझना शोधकर्ता का काम है। डा. सेवासिंह ने इसको अपने अध्ययन में अनदेखा नहीं होने दिया। भक्ति में यद्यपि अद्भुत समन्वय है पर शिव और विष्णु की भक्तियों की दो धाराएं समानान्तर बनी रही हैं। शिव की भक्ति स्थापना के लिए एक और 'शिव-पुराणÓ की रचना हुई है तो दूसरी ओर वैष्णवों ने 'विष्णु पुराण' की रचना की है। हम देख चुके हैं कि भक्ति में विष्णु का सर्वोच्च महत्व अन्तत्वोगत्वा स्वीकार कर लिया गया था, पर 'शिव-भक्ति' किसी स्तर पर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही। शिव और विष्णु की प्रतिस्पर्धा की भरपूर सूचनाओं को दर्ज करते हुए भी प्रयत्न यह रहा प्रतीत होता है कि किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ से शिव और विष्णु का समायोजन कर लिया जाए पर कहीं भी शिव के संदर्भ में विष्णु का वर्चस्व स्थापित नहीं किया जा सका। यह स्थिति शायद उपासकों के दो वर्गों को सूचित करती है जो समान रूप से प्रभुत्वशाली बने रहे हैं, परस्पर टकराते रहे हैं, दोनों का समान अस्तित्व मानने के लिए बाध्यता बनी रही और उन्हें भक्ति में समायोजित करने की कोशिश निरन्तर बनी रही है।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा के अद्भुत आविष्कार 'भक्ति' से माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों-मतों को अपने में आत्मसात करने या फिर उनमें मौजूद ब्राह्मणवाद विरोधी तत्वों को शिथिल कर देने की ये तरकीबें असल में एक जनजाति या समुदाय विशेष की संस्कृति की स्वतंत्र पहचान समाप्त करते हुए उन पर अपना वर्चस्व बनाए रखने की बृहतर योजना का हिस्सा है, चंूकि वर्चस्ववादी शक्तियां आज भी इसे अंजाम दे रही हैं और इसी बिन्दु पर आकर डा. सेवासिंह के अध्ययन की प्रासंगिकता उजागर हो उठती है। फासीवादी राजनीति के पुरोधा लालकृष्ण आडवानी की सन् 1992 में 'सोमनाथ से अयोध्या' की खूनी यात्रा शैव पृष्ठभूमि से जुड़े सोमनाथ व वैष्णव पृष्ठभूमि से जुड़ी अयोध्या की सांस्कृतिक परम्पराओं को व धार्मिक साम्प्रदायिक मतभेदों को मिटाकर यानी उनकी स्वतंत्र पहचान मिटाकर एक ब्राह्मणवादी छतरी के नीचे लाने के डिजाइन का ही हिस्सा थी। इस यात्रा का मार्ग कोई अचानक तो नहीं ही बना होगा, बल्कि बहुत सुविचारित व कई साल के मंथन ये यह निकला होगा। 'विश्व हिन्दू परिषदÓ के संतों की यात्राओं के मार्ग भी इस तरह के रहे हैं जो विभिन्न मतों को एक जगह लाने का काम कर सकें।
आज ब्राह्मणवादी फासीवाद में आदिवासी संस्कृतियों को अपने अन्दर समायोजित करने की ललक है। उनके स्थानीय सांस्कृतिक उत्सवों को धार्मिक रंग में रंगने की कोशिश, उनके टोने-टोटके व स्थानीय देवी-देवताओं की ब्राह्मणवादी व्याख्या करके अपना अंग बनाया जा रहा है। उनके पेड़ों पर लाल रंग लगाकर, पत्थरों पर सिंदूर लगाकर उनके स्थानीय देवता को हनुमान और आदिवासियों को हनुमान का भक्त करार देना, उनकी मातृ देवियों को काली व दुर्गा के रूप में व्याख्यायित करना यही दर्शाता है कि उनकी संस्कृति पर ब्राह्मणवादी तत्व थोपे जा रहे हैं और उनको एक नई पहचान दी जा रही है। ब्राह्मणवाद के जुनियर देवताओं को उनका इष्ट बताकर बड़ी चालाकी से उनको अपना सेवक बनने के विचार की स्वीकृति-सहमति उनसे ली जा रही है। हनुमान को आदिवासियों का मुख्य देव घोषित करना व स्थापित करना इसी राजनीति का हिस्सा है कि हनुमान हमेशा राम का सेवक-दास, आज्ञाकारी व वफादार ही रहा है अपने पूज्य इष्ट के आदर्श ही इन समुदायों के आदर्श हो सकते हैं। स्त्री-पुरूष समानता को समाप्त करके पुरूष प्रधानता व पितृसत्त के मूल्यों का डंका बजाया जा रहा है। पत्नी का ब्राह्मणवादी आदर्श उनमें स्थापित करके वर्चस्व के मूल्यों को वैधता देने का आग्रह इसमें शामिल है।
भक्ति की विचारधारा ने निम्न वर्गों तथा जनजातियों में अपनी पैठ बनाने के लिए उनकी सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों-मान्यताओं में ब्राह्मणवादी मान्यताएं इस तरह ठूंस दी कि उनका मूल चरित्र ही उलट दिया। 'नारायण' जैसे अवैदिक देवताओं को विष्णु के साथ जोड़कर तथा वराह व नरसिंह आदि को अवतार घोषित करके अपने खोल में समा लिया। ''गौर तलब है कि अवतार की धारणा, वैदिक देवता विष्णु के वर्चस्व में, विभिन्न क्षेत्रीय और परस्पर विरोधी और जनजातीय उपास्य देवों, मातृदेवियों का ब्राह्मणिक आत्मसातीकरण है जो मोर्योत्तर काल की उथल-पुथल भरपूर सामाजिक चुनौतियों के मद्देनजर अप्रवासी समुदायों और जनजातियों की नयी शमुलितों का पुरूषसत्तात्मक और वर्णभेद मूलक समाज में समाहित करने का एक सांस्कृतिक प्रयास था।''(पृ.-78)
राम और कृष्ण के चरित्र भी जनजातियों की संस्कृति के साथ इस तरह वर्णित किए गए कि वे भी इस सांस्कृतिक आत्मसातीकरण का काम करने लगे। वैदिक देवता इन्द्र से कृष्ण की शत्रुता थी, लेकिन उसको भी समाहित करके उससे जुड़े कबीलों को अपना अनुयायी बना लिया। असुरों की वैदिक विश्वासों व कर्मकाण्डों में कोई आस्था नहीं थी लेकिन उनको भी ब्राह्मणवादी संरक्षण में ले लिया।
बुद्ध स्वयं नास्तिक थे उनको भी एक अवतार घोषित कर दिया और उसकी विचारधारा-मूल्यों-मान्यताओं को भी सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप अनुकूलित कर लिया। डा. सेवा सिंह की टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ''बुद्ध धर्म को सामन्तवादी-पोषण ने नितान्त अपनी विपरीत अवस्था में खड़ा कर दिया था। परिवर्तनशीलता का प्रतीत्यसमुत्पाद, शून्यता में रूपान्तरित हो गया था। बुद्ध, पूजा और उपासना के पात्र हो गए थे। ब्राह्मण धर्म एवं बुद्ध धर्म में कोई अन्तर नहीं था। साम्प्रदायिक भेद बनाए रखते हुए केवल पारिभाषिकी के भिन्न-भिन्न प्रयोग होते थे, बात घूम-फिर कर लाकोत्तरता, भक्ति एवं मुक्ति पर केन्द्रित थी। अब बुद्ध की करूणा में किसी भौतिक दु:ख को दूर करने से दूर तक का भी वास्ता नहीं था, बल्कि यह करूणा शून्यता से सम्बद्ध होकर पारमार्थिक निर्वाण तक सीमित थी। यह निर्वाण मानवीय दुखों से छुटकारा पाने का साधन नहीं था बल्कि इसमें किन्हीं काल्पनिक दु:खों की ऐसी दुरूह जटिलता थी, जो मृत्यु में ही निर्वाण को साध्य मानती थी।" (पृ.-83)
संस्कृतियों में संघर्ष था और ब्राह्मण संस्कृति में समाहित होने के प्रति भी शंकालु थे। शैवों का विशेष रूप से जिक्र किया है लेकिन जो संस्कृतियां अपनी विशिष्टता व पहचान को समाप्त करके इसमें विलीन होने को तैयार नहीं थी उनके प्रति अलग रणनीति अपनाई गई ''शिव का ब्राह्मणवादीकरण नहीं किया जा सका, बल्कि शिव पर अनेक ब्राह्मणिक तरीके आरोपित किये गए। लगता है कि शिव के उपासकों को ब्राह्मणिक घेरे में नहीं लाया जा सका। वे वेद-विरोधी रुख बनाए रहे। यहां सांख्य था, योग था। इसलिए शिव अवतारों की श्रेणी में नहीं है। वे समता का स्थान रखते हैं, विष्णु के साथ।" (पृ.-110)
यह विवाद-बहस का विषय हो सकता है कि इसे संस्कृतियों का मिलन कहा जाए या फिर आत्मसातीकरण। संस्कृतियों के सम्मिलन में या समन्वय में संस्कृतियों में संवाद होता है, दोनों को अपना थोड़ा-थोड़ा मूल स्वरूप त्यागने के लिए तैयार रहना पड़ता है और आत्मसातीकरण या समायोजन में वर्चस्वी वर्गों की संस्कृति स्थानीय संस्कृति को अपने में जगह दे देती है या फिर उसकी इस तरह से व्याख्या करती है कि वह उसका ही हिस्सा नजर आने लगती है। डा. सेवा सिंह का विचार इसमें आत्मसातीकरण वाला है। इसके वे बहुत से ग्रंथों से उद्धरण देते हैं। उनका कहना है कि भक्ति के माध्यम से 'वर्णमूलक व पितृसत्तात्मक' मूल्यों का प्रसार किया गया है। वर्ण-व्यवस्था को बिना कोई नुक्सान पहुंचाए, समाज के वर्चस्वी वर्ग की सत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसका प्रचार किया है। भक्ति ने सिर्फ इतना काम किया है कि जो समाज के तबके ब्राह्मणिक विचारधारा से बाहर थे या जिनका इससे मतभेद था उनके लिए उसी अवस्था में रहते हुए 'ईश्वर-भजन' के द्वार खोल दिए। गीता ने स्त्री और शूद्र को पाप-योनि रहते हुए भी भक्ति का उपदेश दिया, अधिकार दिया और इसके माध्यम से उनमें वर्णधर्म को बिल्कुल पक्का कर दिया। इस तरह वर्ण धर्म के विरूद्ध किसी भी चुनौती की संभावना को ही समाप्त कर दिया। उत्पीड़क सामाजिक स्थिति से मुक्ति की बजाए काल्पनिक मुक्ति का सिद्धांत भी गढ़ा। इस पर जोर देकर डा. सेवा सिंह ने बार-बार कहा ''शुद्ध ज्ञान का सरोकार उस परजीवी वर्ग से था जो श्रमजन्य कर्मों से मुक्त था। गीता का निष्काम कर्मयोग भी इसी विशिष्ट सुविधा सम्पन्न श्रेणी की समझ में आ सकता था, जो श्रमिकों के अतिरिक्त उत्पादन की लूट से इस प्रकार के विचारवादी दर्शन की परिकल्पना में सक्षम भी थी और अपनी इस लूट की न्यायोचितता बनाये रखने के लिए उसे इसकी जरूरत भी थी। इस ज्ञान को वायवी, सूक्ष्म, पारलौकिक और अस्तित्व रहित मोक्ष से जोड़ दिया गया। वर्ण धर्म का पालन भी इसी मोक्ष से सम्बद्ध है। शूद्रों की इस ज्ञान तक पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार से मूल रूप में ही वंचित कर दिया गया था।" (पृ.-2)
विचारधारा के तौर पर भक्ति वर्ण-धर्म को ही वास्तविक व आदर्श धर्म स्वीकारती है और दावा करती है कि अपने वर्ण-धर्म का पालन करने से ही मुक्ति मिल सकती है। वर्ण-धर्म का पालन ही मुक्ति का पर्याय बन गया। आम जन के लिए या शूद्र को अपने खोल में लेकर अन्य रास्ते ही बंद कर दिए। यदि कोई अन्य पद्धति द्वारा योग, व्रत, ज्ञान-चर्चा, तीर्थ-यात्रा आदि करता तो शायद वर्णों की सीमा लांघकर व्रती, योगी, ज्ञानी, यात्री की संज्ञा पा सकता था, लेकिन यदि सेवा-कर्म में ही अपनी मुक्ति ढूंढने लगे और जितनी वफादारी और निष्ठा से सेवा, उतना ही मुक्ति की गांरटी ज्यादा। दिलचस्प बात है कि भक्ति को या वर्ण धर्म के पालन को मोक्ष का नाम देकर इस तरह प्रचारित किया गया जैसे कि आज मंदी के दौर में बाजार में एक चीज के साथ दूसरी मुफ्त दी जाती है। मुक्ति, मोक्ष तो वर्ण-धर्म पालन के साथ बोनस के रूप में मिलता था। यह स्थिति भक्ति की विचारधारा को मानने वाले आत्मवादियों व अनात्मवादियों की गलाकाट प्रतियोगिता में उसकी पतली हालत की ओर संकेत करती है। कष्ट, तपस्या की दुरूहता के बरक्स 'हरिकीर्तन' द्वारा मुक्ति का सरलता से हासिल होना अधिक से अधिक प्रसार की आकांक्षा को ही दर्शाता है। भक्ति की विचारधारा में शरणागति यानी वर्ण-धर्म की स्वीकृति ही मुख्य है। धर्म ने नैतिक सत्ता का दामन छोड़ दिया और तमाम बुराइयों के साथ वर्ण-धर्म ही यानी भक्ति को अपनाने को ही धर्म रूप में मान्यता दे दी गई। ईश्वर-प्राप्ति, मुक्ति, मोक्ष के लिए किसी नैतिकता की, मूल्यों के पालन की, आचरण शुद्ध करने की अपेक्षा नहीं थी, बल्कि पाप व बुरे काम करते हुए महापातकी भी नाम लेने मात्र से मुक्ति प्राप्त कर जाते हैं। एक तरह से भक्ति की विचारधारा ने अनैतिकता, बुरे आचरण व बुराइयों को संस्थागत रूप दे दिया। ''चोर, शराबी, मित्र द्रोही, ब्रह्मघाती, गुरू पत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, कोई जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिए यही, इतना ही बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान के नामों का उच्चारण किया जाए, क्योंकि इनके उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान के प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।"(पृ.-34) भक्ति को इस हद तक प्रचारित किया कि शिशुपाल, पूतना, अजामिल आदि जो भगवान के शत्रु थे उनको भी नाम मात्र से, स्पर्श से ही मुक्ति देने की बात कहकर किसी न किसी तरह का सम्बन्ध स्थापित करने पर जोर दिया।
अध्ययन का दिलचस्प बिन्दु यह भी है कि शूद्रों को, पापियों को सबको भक्ति में शामिल करने की इस होड़ के पीछे भौतिक आधार क्या था? भक्ति में शूद्रों को जिस तरह आकर्षित किया जा रहा था, बहलाया-फुसलाया जा रहा था उनको आत्मसात किया जा रहा था और मनु राजा को कठोर दण्ड देने, शूद्र बहुल प्रदेश में न रहने का विधान दे रहा था।
''देखने की बात है कि एक ओर निचले तबकों के लिए सब प्रकार की मानवीय धार्मिक सुलभताओं का निषेध है जबकि दूसरी ओर भक्ति के प्रचार-प्रसार द्वारा वैदिक मिथ, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग, दान तीर्थ, अदृष्ट की भयावहता, पुनर्जन्म, दैवी वर्ण-विधान और अन्य अनेक अंधविश्वासों को, निचले तबकों की मनोंग्रंथि में गहरे तक बैठा दिया गया है। भक्ति के उद्भव और विकास में, भक्ति का यह लक्ष्यीभूत प्रयोजन स्पष्ट होता देखा जा सकता है।" (पृ.-71)
भक्ति का जो लक्ष्य व प्रयोजन समाज में सामन्ती-व्यवस्था की असमानता व लूट-शोषण को तथा इस शोषण को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले दमन का औचित्य ठहराने के लिए था। इसी मंतव्य को पूरा करने के लिए इसका स्वरूप भी सामन्ती-व्यवस्था के अनुरूप रहा। ''परवर्ती सामन्तीय सम्बन्धों के अन्तर्गत इन उपास्य देवों की भूमिका उलट कर वर्ग भेदमूलक व्यवस्था को मजबूत करने लगती है। परवर्ती अर्थों में भक्ति और भगवान का सम्बन्ध, सामन्तीय सम्बन्धों का प्रतीक है और साथ में इन सम्बन्धों की दैवी आधिकारिता के बल पर सामन्तीय दमन को वैधता और लोक चेतना के स्तर पर आत्मस्वीकृति भी प्रदान करता है।" (पृ.-71)
धर्म, ईश्वर भाववादी चिन्तन का केन्द्रीय तत्त्व है, इस चिन्तन के इस अद्भुत आविष्कार ने और बदलती परिस्थितियों के साथ स्वयं को बदल लेने की क्षमता ने राजाओं की सत्ता व शोषण टिकाने में मदद की है। विवाद का विषय नहीं है कि कोई भी सत्ता चाहे वह किसी भी लोकतन्त्र हो वह जनता की सहमति स्वीकृति या उसमें लोकप्रिय हुए बिना लम्बे समय तक टिक नहीं सकती। केवल पुलिस, सेना के बल पर कोई शासन नहीं कर सकता। इसके लिए तो हर एक नागरिक के पीछे एक-एक पुलिसमैन लगाना पड़ेगा, फिर सर्वविदित है कि सेना में भी बगावत हो जाती है और हुई है। इस भक्ति की विचारधारा ने जन के लिए सेना-पुलिस का ही काम किया है जिसके साथ शोषण को स्वीकृति मिली है और इसको धारण करके जन स्वयं ही शासन के अनुकूल नियंत्रित रहने लगे हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस विचारधारा की विश्वसनीयता पर लगातार प्रश्नचिह्न भी जन की दृष्टि से लगे हैं, लेकिन सत्ता का संरक्षण पाकर व जन को तर्क से, ज्ञान से वंचित करके इसका वर्चस्व लगातार बना रहा है। इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तरह-तरह की कल्पनाएं की हैं। पुरस्कार व दंड, स्वर्ग व नरक, मोक्ष व बंधन, कलियुग व सतयुग आदि की कल्पनाएं की हैं।
डा. सेवा सिंह ने महाभारत, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, स्कन्द पुराण से बहुत से उद्धरण देकर 'कलियुग' की धारणा जिसे 'युगान्त' की संज्ञा दी है, का भक्ति से सम्बन्ध दर्शाया है। ''युगांत का पुराणों ने विस्तार सहित वर्णन किया है। पुराणों में बताया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की प्रवृति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋत-सम-यजुरूप त्रयी धर्म का सम्पादन करने वाली होती है। उस समय धर्म, विवाह, गुरू-शिष्य सम्बन्ध की स्थिति, दाम्पत्य कर्म और अग्नि में देवयज्ञ क्रिया का कर्म भी नहीं रहता।" (पृ.-38) वर्णधर्म की पकड़ समाज में ढीली पड़ी, क्योंकि कई संस्कृतियों के लोग यहां आए जिनका असर यहां की संस्कृति पर पड़ा, नई चर्चा की शुरूआत हुई और इसका मतलब है वर्ण-धर्म के पालन में कमी। आज भी कलियुग की यह लोकप्रिय धारणा लोक चेतना का अंग है। भक्ति को कलियुग के लिए सबसे कारगर तरीका माना है। कलियुग में भक्ति की महिमा का अत्यधिक बखान किया गया। वर्ण धर्म की समाज पर पकड़ बनाने के लिए संहिताओं-स्मृतियों की रचनाएं की गई। डा. सेवा सिंह पुराणों की कथाओं का विवेचन करके बताया है कि असल में इस साहित्य की रचना ब्राह्मणवादी मूल्यों व तंत्र का औचित्य सिद्ध करने के लिए की गई है। इनकी कथाओं और गाथाओं के 'माहात्म्यÓ वर्ण-धर्म की व्यवस्था को आधार भूमि प्रदान करते हैं।
सामन्तवादी-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। ब्राह्मणों को राजाओं का संरक्षण मिला, राजाओं ने उनको जमीनें दान में दी और अपराधियों के प्रायश्चित के बदले बहुत सी भौतिक वस्तुएं मिलीं। इससे उनकी स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया। धार्मिक कर्मकाण्ड की बजाए जमीन उनकी आमदनी का मुख्य साधन बनी। दान-पुण्य का महिमामंडन किया गया, मंदिरों, तीर्थों, मठों की संख्या में बढोतरी हुई और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता भी स्वीकृत थी और राज्य से इसका खुला समर्थन था। राज्य के इस संरक्षण के बदले में ब्राह्मणों ने सामन्तवाद का महिमामंडन करने के सिद्धांत गढ़े। गुह्यसूत्रों, मनुस्मृति व कौटिल्य आदि ने राजा को धर्म-प्रवर्तक कहा और वर्ण धर्म को लागू करना राजा का परम कर्तव्य बताया। जाहिर ही है कि वर्ण धर्म को ब्राह्मणों ने ब्रह्म, ईश्वर या दैवीय उत्पति कहा है तो राजा को दैवीय हुक्म को लागू करने वाला और इस दैवीय सिद्धांत में राजा का प्रजा पर अत्याचार, दमन, लूट व शोषण सब कुछ जायज व दैवीय व्यवस्था बन जाती थी। डा. सेवा सिंह ने इस बारे में लिखा कि ''पूर्व मध्यकाल की बाजार पर आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था में व्याप्त शोषण से केवल अनुषंगी लाभ उठाने वाले ब्राह्मण, मध्यकाल की कृषि-आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था के दौर में प्रत्यक्ष शोषक वर्ग में परिवर्तित हो गए। मध्यकालीनीकरण की मुख्य लाक्षणिकताएं थीं : नगर-सभ्यता का हृास और ग्राम आधारित निर्वाह-व्यवस्था की संवृद्धि, जाति-व्यवस्थाकी कठोरता और समाज जातियों, उपजातियों में बंटते जाना, वर्ण संकर संतानों का आधिपत्य, आवश्यक और उपयोगी कलाओं के काम में लगे दस्तकारों को 'अपवित्र' और 'अस्पृश्य' घोषित कर उनकी भत्र्सना करना, नगरवासी ब्राह्मणों के एक महत्वपूर्ण अंश का गांवों में बसना, सामाजिक सुरक्षा और राजनीतिक अराजकता। मंदिर केन्द्रित उपासना या पूजा पद्धति पर आधारित इस मध्यकालीनीकरण का रक्षा कवच था अंधविश्वास। जैसा कि कहा गया है, जिस समाज में अनगिनत श्रम जीवियों को पराधीनता जीवन अपनाए रहने को विवश किया जाता हो, जिसमें राष्ट्र की सम्पति का उत्पादन करते हुए लोगों को केवल जिन्दा रहने के लिए जरूरी वस्तुओं पर गुजर करने को विवश किया जाता हो, उस समाज को कायम रखने के लिए हिंसात्मक उपायों के अलावा एक और चीज की अत्यधिक आवश्यकता होती है। वह चीज है - सचमुच बड़े पैमाने पर अंधविश्वास।" (पृ.-64) ब्राह्मणवादियों ने जनजीवन में तो अत्यधिक अंधविश्वासों और मिथ्या धारणाओं को बढ़ावा दिया ही बल्कि अंधविश्वास का दार्शनिकीकरण भी किया गया।
बुद्धि व तर्क को नकारने के लिए तरह तरह के अंधविश्वास गढ़े, साथ ही बुद्धि व तर्क का प्रयोग करने वालों को अपमानित भी किया गया। शंकर जैसे आत्मवादी दार्शनिकों व भक्ति की विचारधारा के प्रचारकों ने दर्शन के आधार तर्क को ही नकार कर बुद्धिवाद का विकास अवरूद्ध कर दिया। बड़े सुविधाजनक ढंग से तर्क सामाजिक परम्पराओं-रूढिय़ों व रीति-रिवाजों को ही तर्क के रूप में पेश करने लगे। बड़े ही चालाकीपूर्ण ढंग से तर्क को इस तरह पुनर्परिभाषित किया। तर्क का काम सत्य की परख करना नहीं, बल्कि शास्त्र-वचनों की पुष्टि करना मात्र रह गया। केवल उसी को तर्क की संज्ञा दी गई जो भक्ति की विचारधारा को स्थापित करने वाले शास्त्रों का समर्थन करें। इससे शूद्रों के ज्ञान को ही आघात नहीं पहुंचा, बल्कि विज्ञान व तर्क आधारित विद्याओं को भी निकृष्टता की श्रेणी में डाल दिया गया। तर्क के स्थान पर विश्वास, आस्था व समर्पण को प्रतिष्ठापित करना भारतीय मेहनतकश जन के साथ सबसे बड़ा बौद्धिक छल था।
''विषम एवं अन्यायपूर्ण समाजार्थिक परिवेश में रूप ग्रहण कर रहे सामाजिक विधि-विधान जिनकी चर्चा स्मृति आदि ग्रंथों में की गई है, ऐसे दर्शन का अभिन्न अंग थे। इन्हीं की एकसुरता में दार्शनिक ने अपने दर्शन के घातक पक्ष को तिलांजलि देने के प्रयोजन से श्रुति संज्ञक ग्रंथों को आप्तवचन एवं अपौरूषेय कहकर अंतिम सत्य प्रमाणित कर दिया था। जबकि जन समुदाय को इन आप्तवचनों को पढऩे, सुनने, जानने का कठोर निषेध लागू करवा दिया गया था तो फिर दार्शनिक की ऐसी घोषणाओं और दावों को परखने की गुंजाइश ही कहां थी? इस प्रकार के अंधविश्वासपूर्ण परिवेश में ही शोषण का दमनचक्र उन्मुक्त रूप से जारी रखा जा सकता था, अन्यथा अत्यन्त अमानवीय स्तर पर जीवन-यापन के लिए विवश किये जा रहे जन समुदाय द्वारा विद्रोह किये जाने की संभावना बनी रह सकती थी।" (पृ.-108) समझ में आने वाली बात है कि स्वतंत्र चिन्तन व तार्किक ज्ञान को शोषणकारी व्यवस्थाएं अपना शत्रु नम्बर एक समझती हैं इसलिए किसी भी शोषक सत्ता का पहला निशाना वही बनते हैं तथा इनको रोकने के लिए अपने भाड़े के कथावाचकों को दार्शनिक का रूप देकर इस संभावना को समाप्त करती हैं। आज जिस तरह गुरूओं की बाढ़ आ गई है, सप्ताह के दिन लोगों के रेले के रेले सत्संगों में इस दर्शन की जूठन का भोग लगा रहे हैं, नाम-दान लेने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, नई-नई 'माताएं व बापू' पैदा हो रहे हैं, सारा दिन टेलीविजन पर भ्रमों व अंधविश्वासों का प्रसाद बांटा जा रहा है, राष्ट्रीय चैनलों पर तिलकधारी, कहीं मुल्ला, कहीं योगी अपनी वाक्-पटुता व जुबान की कलाबाजियों से लोगों को भरमा रहे हें और अति आधुनिक कहे जाने वाले लोगों को उनसे आशीर्वाद लेने जिस तरह प्रदर्शित किया जा रहा है, इस आक्रामक अंधविश्वास व गुरुडम के पीछे भी क्या व्यवस्था का क्रूर चेहरा छुपाकर इसमें पिसते लोगों को काल्पनिक सुख देने का प्रपंच नहीं नजर आता? व्यवस्था का क्रूरता जन्य उत्पीडऩ को मापने का एक पैमाना यह भी है कि धर्म की आड़ लेकर कितने लोग लोगों को समझाने पर तुले हुए हैं, धर्म-स्थलों की भव्यता और बढ़ती संख्या भी उसकी क्रूरता में बढ़ोतरी को ही दर्शाती है, न कि लोगों की धर्म या ईश्वर में बढ़ती आस्था को। यह भी आत्मसातीकरण ही है कि लोगों को उनकी जरूरतों, उनके मुद्दों-चिंताओं से हटाकर व्यवस्था की जरूरतों-चिंताओं में शामिल कर देना और उनको पूरी करने में उनका इस्तेमाल करना।
प्रत्ययवाद, भाववाद या अध्यात्म का पिछड़ापन व रूढि़वाद हमेशा शासक वर्ग के संरक्षण में फला-फूला और इसने उसी वर्ग की सेवा भी की है। शब्दों का जितना ही बारीक जाल अध्यात्मवाद बुनता है, मान लो भौतिकवाद की चुनौती भी उतनी ही गम्भीर है। अध्यात्मवाद भी समय-परिस्थिति निरपेक्ष नहीं होता। डा. सेवा सिंह ने भारतीय भाववाद, प्रत्ययवाद के दर्शन के विकास को व उसके सामाजिक आधार को भी समझने की कोशिश की है। समाज की बदली परिस्थितियों से इस दर्शन को जो नई-नई चुनौतियां मिली हैं उनको भी साथ ही दर्शाने की कोशिश की है। इस दर्शन के मुख्य पड़ावों को रेखांकित किया है कि ''उपनिषदों का आत्मवाद, महायानी बौद्धों का शूनयवाद और विज्ञानवाद एवं शंकराचार्य का मायावाद भारतीय प्रत्ययवाद के विकास के चरण हैं। ऐतिहासिक कालखण्डों के समाजार्थिक परिवर्तनों के अन्तर्गत इन विचारधाराओं का अध्ययन हमें असंदिग्ध रूप से प्रत्ययवादी दर्शन के वर्ग विद्वेषमूलक, परजीवी तथा निहित स्वाथपूर्ण चरित्र को स्पष्ट करता है।" (पृ.-172)
यद्यपि डा. सेवा सिंह ने भक्ति की विचारधारा अपनाए अध्यात्म को ऐतिहासिक संदर्भ में समझा है, लेकिन अध्यात्म के इस घटाटोप के नीचे छिपे भौतिकवाद की विचारधारा की भी शिनाख्त होती तो अध्यात्म, ईश्वर, भक्ति, धर्म के नाम की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को बचाने वाले स्वार्थी कथित 'दार्शनिकों के मनघड़न्त किस्से-कहानियों, भ्रामक विचारों का खोखलापन स्पष्ट तौर पर उजागर होता। मिथ्यावादी दार्शनिक चाहे नैतिक संसार को कितना भी मिथ्या साबित करने की कुचेष्टा करें, लेकिन यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि उनका यह कुत्सित खेल दुनिया के भौतिक सुख-ऐश्वर्य पर अधिकार जमाए रखने का ही ढंग है।
भाववादियों के मोक्ष, स्वर्ग में बिना कुछ परिश्रम किए सुख-ऐश्वर्य की वस्तुएं पाने के अलावा और क्या है? कल्पित सुखों के लिए वास्तविक सुखों को छोड़ देने का आग्रह मेहनतकश जन को उल्लू बनाना नहीं तो क्या है? डा. सेवा सिंह ने ठीक ही पहचाना है कि अरचनात्मक लोगों का ज्ञान भी और दर्शन भी अरचनात्मक ही होगा। जो वर्ग परिश्रम से नहीं जुड़ा और केवल परिश्रमी लोगों द्वारा बनाई चीजों को चुराने व भोग करने की नई-नई तरकीबें सोचा करता है, उसके दर्शन में मिथ्या, अंधविश्वास व अतार्किकता के अलावा और कुछ की अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?
कहा जा सकता है कि डा. सेवा सिंह का यह कार्य केवल अकादमिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि मेहनतकश जन की रचनात्मक दृष्टि व दर्शन को समृद्ध करने वाला है। मेहनतकश को आगाह भी करता है कि इतिहास में किन तरकीबों (भक्ति) का सहारा लेकर उसका शोषण किया गया है, उसको वंचित किया और भविष्य का रास्ता भी दिखाता है कि वह इस मिथ्या दर्शन के जाल को काटकर ही आगे बढ़ सकता है। भाववादी दर्शन, अध्यात्म, प्रत्ययवाद अपने आप में कुछ नहीं हैं, बल्कि विशेष वर्गों द्वारा संसार के भौतिक संसाधनों पर अधिकार बनाए रखने और समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए गढ़ी गई तरकीबें हैं। सामाजिक विकास के साथ साथ ही अध्यात्म का भी रूप बदला है। भक्ति की विचारधारा कर मेहनतकश जन से संबंध उद्घाटित करती 'भक्ति और जन' नामक पुस्तक दलित-वंचित-पीडि़त समाज की मुक्ति-संघर्ष की महत्वपूर्ण कृति है।
('भक्ति और जन' के बहाने )
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
'भक्ति और जन' डा. सेवासिंह की आलोचनात्मक कृति है जो भारतीय प्रत्ययवाद की दार्शनिक परम्परा का विश्लेषण करके उसके प्रति आलोचनात्मक समझ पैदा करती है। कई महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाओं को अंजाम देती यह कृति भारतीय दर्शन, मत-मतान्तरों, धर्मशास्त्रों, पुराणों-मिथकों, पूजा-उपासना की विधियों-पद्धतियों में रूचि रखने वाले व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सामान्य ज्ञान चेतना व आम बातचीत में भक्ति को ईश्वर की उपासना का ढंग, पद्धति, प्रणाली के रूप में ही समझा जाता है। डा. सेवा सिंह ने भक्ति को मात्र उपासना-पद्धति, प्रणाली या कर्मकाण्ड बताने वाली नहीं माना। भक्ति एक विचारधारा है और विचारधारा में कुछ मूल्य-मान्यताएं, स्थापनाएं एवं निष्कर्ष होते हैं। विचारधारा हमेशा वर्गों की होती है, व्यक्तियों की नहीं। व्यक्ति तो केवल उसको ग्रहण करते हैं, उसके वाहक बनते हैं, उसमें अपने अनुभव व तर्क सम्मिलित करते हैं, उसका औचित्य सिद्ध करते हैं। यह भी विवाद का विषय नहीं है कि वर्ग-विभाजित समाज में विचारधारा भी वर्गीय होती है। जब समाज में परस्पर विरोधी प्रकृति के वर्ग हैं तो किसी विचारधारा का एक वर्ग को लाभ होता है तो दूसरे वर्ग को नुक्सान।
भक्ति की विचारधारा उच्च वर्ग की विचारधारा रही है एवं विशेष समय पर उच्च वर्ग ने इसका आविष्कार किया है इस आविष्कार के पीछे ऐतिहासिक कारण भी रहे और उच्च वर्ग की जरूरतें भी। तमाम मत-मतान्तरों, उपासना-विधियों (वैष्णव, शैव, तन्त्र, आलवार आदि) में भक्ति का केन्द्रीय तत्त्व 'दासता' और 'समर्पण' अवश्य मौजूद है। ऊपरी तौर पर भाषा का, प्रतीकों का, देव-कल्पनाओं का ही अन्तर है। डा. सेवासिंह की चिन्ता और चिन्तन का मुख्य बिन्दु भी यही है कि ब्राह्मणवाद 'भक्ति' के सहारे अन्य जन-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले मतों-सम्प्रदायों पर आक्रांता की तरह छा गया है, उसने इनकी विशिष्टता ही गायब कर दी। 'भक्ति' की विचारधारा ने उनको इस तरह आत्मसात किया कि इन मतों के मूल्य-सिद्धांत कई बार तो अपने मूल स्वरूप के विपरीत हो गए और 'भक्ति' के अनुकूल होकर शोषणकारी व वर्चस्ववादी विचारधारा का अंग बन गए। मातृसत्ता के गुण-मूल्य लिए मतों पर पितृसत्ता के गुण हावी हो गए। इनका जन जुड़ाव मात्र उच्च वर्ग के वर्चस्व को जन में स्वीकृति के निर्माण करने का हथियार बनकर रह गया, भक्ति की विचारधारा जन को नियंत्रित करने का प्रमुख कारक बन गई। परस्पर विरोधी मतों को एक ही रूप दे देना और अपने वर्चस्व के लिए प्रयोग कर लेना चालाकी को दर्शाता है।
विचारधारा के तौर पर बेशक ये विभिन्न मत एक ही वर्ग की सेवा करते हैं तो भी इनके बीच हुए विवाद व मतभेद भारत के बहुलता प्रधान चरित्र को उद्घाटित करते हैं। विभिन्न मतों के मतभेदों को उभारना व सांस्कृतिक बहुलता के चरित्र को रेखांकित करना आज के समय में महत्वपूर्ण है। आस्तिक-नास्तिक या भक्तिपरकता के आधार पर दो श्रेणियां बनाकर इनकी विशिष्टता को अनदेखा करके सबको एक ही खाते में डाल देना खतरनाक है। विशेष तौर पर जबकि फासीवादी ताकतें सांस्कृतिक एकरूपता का इतिहास रचने व परम्परा को समरस सिद्ध करने की कुचेष्टा कर रही हों। किस वर्ग या समुदाय के लोगों ने कौन सा मत अपनाया और इस मत में उस समुदाय के कौन से हित सुरक्षित थे। शैवों और वैष्णवों के बीच विवाद की सघनता व खून-खराबा मात्र उनके सैद्धान्तिक-दार्शनिक या आध्यात्मिक विवाद की सूचना नहीं देता, बल्कि इसके पीछे निहित भौतिक, सांसारिक व ठोस वास्तविक स्वार्थ काम रहे होंगे क्योंकि किसी समुदाय के उच्च वर्ग के पास न तो इतनी फुर्सत है और न ही वे इतने भोले होते हैं कि वे किसी ख्याली बात के लिए लड़ते रहें। आध्यात्मिक परतों के नीचे दबी इन सच्चाइयों को उद्घाटित करना व वर्गीय संरचनाओं को समझना शोधकर्ता का काम है। डा. सेवासिंह ने इसको अपने अध्ययन में अनदेखा नहीं होने दिया। भक्ति में यद्यपि अद्भुत समन्वय है पर शिव और विष्णु की भक्तियों की दो धाराएं समानान्तर बनी रही हैं। शिव की भक्ति स्थापना के लिए एक और 'शिव-पुराणÓ की रचना हुई है तो दूसरी ओर वैष्णवों ने 'विष्णु पुराण' की रचना की है। हम देख चुके हैं कि भक्ति में विष्णु का सर्वोच्च महत्व अन्तत्वोगत्वा स्वीकार कर लिया गया था, पर 'शिव-भक्ति' किसी स्तर पर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही। शिव और विष्णु की प्रतिस्पर्धा की भरपूर सूचनाओं को दर्ज करते हुए भी प्रयत्न यह रहा प्रतीत होता है कि किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ से शिव और विष्णु का समायोजन कर लिया जाए पर कहीं भी शिव के संदर्भ में विष्णु का वर्चस्व स्थापित नहीं किया जा सका। यह स्थिति शायद उपासकों के दो वर्गों को सूचित करती है जो समान रूप से प्रभुत्वशाली बने रहे हैं, परस्पर टकराते रहे हैं, दोनों का समान अस्तित्व मानने के लिए बाध्यता बनी रही और उन्हें भक्ति में समायोजित करने की कोशिश निरन्तर बनी रही है।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा के अद्भुत आविष्कार 'भक्ति' से माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों-मतों को अपने में आत्मसात करने या फिर उनमें मौजूद ब्राह्मणवाद विरोधी तत्वों को शिथिल कर देने की ये तरकीबें असल में एक जनजाति या समुदाय विशेष की संस्कृति की स्वतंत्र पहचान समाप्त करते हुए उन पर अपना वर्चस्व बनाए रखने की बृहतर योजना का हिस्सा है, चंूकि वर्चस्ववादी शक्तियां आज भी इसे अंजाम दे रही हैं और इसी बिन्दु पर आकर डा. सेवासिंह के अध्ययन की प्रासंगिकता उजागर हो उठती है। फासीवादी राजनीति के पुरोधा लालकृष्ण आडवानी की सन् 1992 में 'सोमनाथ से अयोध्या' की खूनी यात्रा शैव पृष्ठभूमि से जुड़े सोमनाथ व वैष्णव पृष्ठभूमि से जुड़ी अयोध्या की सांस्कृतिक परम्पराओं को व धार्मिक साम्प्रदायिक मतभेदों को मिटाकर यानी उनकी स्वतंत्र पहचान मिटाकर एक ब्राह्मणवादी छतरी के नीचे लाने के डिजाइन का ही हिस्सा थी। इस यात्रा का मार्ग कोई अचानक तो नहीं ही बना होगा, बल्कि बहुत सुविचारित व कई साल के मंथन ये यह निकला होगा। 'विश्व हिन्दू परिषदÓ के संतों की यात्राओं के मार्ग भी इस तरह के रहे हैं जो विभिन्न मतों को एक जगह लाने का काम कर सकें।
आज ब्राह्मणवादी फासीवाद में आदिवासी संस्कृतियों को अपने अन्दर समायोजित करने की ललक है। उनके स्थानीय सांस्कृतिक उत्सवों को धार्मिक रंग में रंगने की कोशिश, उनके टोने-टोटके व स्थानीय देवी-देवताओं की ब्राह्मणवादी व्याख्या करके अपना अंग बनाया जा रहा है। उनके पेड़ों पर लाल रंग लगाकर, पत्थरों पर सिंदूर लगाकर उनके स्थानीय देवता को हनुमान और आदिवासियों को हनुमान का भक्त करार देना, उनकी मातृ देवियों को काली व दुर्गा के रूप में व्याख्यायित करना यही दर्शाता है कि उनकी संस्कृति पर ब्राह्मणवादी तत्व थोपे जा रहे हैं और उनको एक नई पहचान दी जा रही है। ब्राह्मणवाद के जुनियर देवताओं को उनका इष्ट बताकर बड़ी चालाकी से उनको अपना सेवक बनने के विचार की स्वीकृति-सहमति उनसे ली जा रही है। हनुमान को आदिवासियों का मुख्य देव घोषित करना व स्थापित करना इसी राजनीति का हिस्सा है कि हनुमान हमेशा राम का सेवक-दास, आज्ञाकारी व वफादार ही रहा है अपने पूज्य इष्ट के आदर्श ही इन समुदायों के आदर्श हो सकते हैं। स्त्री-पुरूष समानता को समाप्त करके पुरूष प्रधानता व पितृसत्त के मूल्यों का डंका बजाया जा रहा है। पत्नी का ब्राह्मणवादी आदर्श उनमें स्थापित करके वर्चस्व के मूल्यों को वैधता देने का आग्रह इसमें शामिल है।
भक्ति की विचारधारा ने निम्न वर्गों तथा जनजातियों में अपनी पैठ बनाने के लिए उनकी सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों-मान्यताओं में ब्राह्मणवादी मान्यताएं इस तरह ठूंस दी कि उनका मूल चरित्र ही उलट दिया। 'नारायण' जैसे अवैदिक देवताओं को विष्णु के साथ जोड़कर तथा वराह व नरसिंह आदि को अवतार घोषित करके अपने खोल में समा लिया। ''गौर तलब है कि अवतार की धारणा, वैदिक देवता विष्णु के वर्चस्व में, विभिन्न क्षेत्रीय और परस्पर विरोधी और जनजातीय उपास्य देवों, मातृदेवियों का ब्राह्मणिक आत्मसातीकरण है जो मोर्योत्तर काल की उथल-पुथल भरपूर सामाजिक चुनौतियों के मद्देनजर अप्रवासी समुदायों और जनजातियों की नयी शमुलितों का पुरूषसत्तात्मक और वर्णभेद मूलक समाज में समाहित करने का एक सांस्कृतिक प्रयास था।''(पृ.-78)
राम और कृष्ण के चरित्र भी जनजातियों की संस्कृति के साथ इस तरह वर्णित किए गए कि वे भी इस सांस्कृतिक आत्मसातीकरण का काम करने लगे। वैदिक देवता इन्द्र से कृष्ण की शत्रुता थी, लेकिन उसको भी समाहित करके उससे जुड़े कबीलों को अपना अनुयायी बना लिया। असुरों की वैदिक विश्वासों व कर्मकाण्डों में कोई आस्था नहीं थी लेकिन उनको भी ब्राह्मणवादी संरक्षण में ले लिया।
बुद्ध स्वयं नास्तिक थे उनको भी एक अवतार घोषित कर दिया और उसकी विचारधारा-मूल्यों-मान्यताओं को भी सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप अनुकूलित कर लिया। डा. सेवा सिंह की टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ''बुद्ध धर्म को सामन्तवादी-पोषण ने नितान्त अपनी विपरीत अवस्था में खड़ा कर दिया था। परिवर्तनशीलता का प्रतीत्यसमुत्पाद, शून्यता में रूपान्तरित हो गया था। बुद्ध, पूजा और उपासना के पात्र हो गए थे। ब्राह्मण धर्म एवं बुद्ध धर्म में कोई अन्तर नहीं था। साम्प्रदायिक भेद बनाए रखते हुए केवल पारिभाषिकी के भिन्न-भिन्न प्रयोग होते थे, बात घूम-फिर कर लाकोत्तरता, भक्ति एवं मुक्ति पर केन्द्रित थी। अब बुद्ध की करूणा में किसी भौतिक दु:ख को दूर करने से दूर तक का भी वास्ता नहीं था, बल्कि यह करूणा शून्यता से सम्बद्ध होकर पारमार्थिक निर्वाण तक सीमित थी। यह निर्वाण मानवीय दुखों से छुटकारा पाने का साधन नहीं था बल्कि इसमें किन्हीं काल्पनिक दु:खों की ऐसी दुरूह जटिलता थी, जो मृत्यु में ही निर्वाण को साध्य मानती थी।" (पृ.-83)
संस्कृतियों में संघर्ष था और ब्राह्मण संस्कृति में समाहित होने के प्रति भी शंकालु थे। शैवों का विशेष रूप से जिक्र किया है लेकिन जो संस्कृतियां अपनी विशिष्टता व पहचान को समाप्त करके इसमें विलीन होने को तैयार नहीं थी उनके प्रति अलग रणनीति अपनाई गई ''शिव का ब्राह्मणवादीकरण नहीं किया जा सका, बल्कि शिव पर अनेक ब्राह्मणिक तरीके आरोपित किये गए। लगता है कि शिव के उपासकों को ब्राह्मणिक घेरे में नहीं लाया जा सका। वे वेद-विरोधी रुख बनाए रहे। यहां सांख्य था, योग था। इसलिए शिव अवतारों की श्रेणी में नहीं है। वे समता का स्थान रखते हैं, विष्णु के साथ।" (पृ.-110)
यह विवाद-बहस का विषय हो सकता है कि इसे संस्कृतियों का मिलन कहा जाए या फिर आत्मसातीकरण। संस्कृतियों के सम्मिलन में या समन्वय में संस्कृतियों में संवाद होता है, दोनों को अपना थोड़ा-थोड़ा मूल स्वरूप त्यागने के लिए तैयार रहना पड़ता है और आत्मसातीकरण या समायोजन में वर्चस्वी वर्गों की संस्कृति स्थानीय संस्कृति को अपने में जगह दे देती है या फिर उसकी इस तरह से व्याख्या करती है कि वह उसका ही हिस्सा नजर आने लगती है। डा. सेवा सिंह का विचार इसमें आत्मसातीकरण वाला है। इसके वे बहुत से ग्रंथों से उद्धरण देते हैं। उनका कहना है कि भक्ति के माध्यम से 'वर्णमूलक व पितृसत्तात्मक' मूल्यों का प्रसार किया गया है। वर्ण-व्यवस्था को बिना कोई नुक्सान पहुंचाए, समाज के वर्चस्वी वर्ग की सत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसका प्रचार किया है। भक्ति ने सिर्फ इतना काम किया है कि जो समाज के तबके ब्राह्मणिक विचारधारा से बाहर थे या जिनका इससे मतभेद था उनके लिए उसी अवस्था में रहते हुए 'ईश्वर-भजन' के द्वार खोल दिए। गीता ने स्त्री और शूद्र को पाप-योनि रहते हुए भी भक्ति का उपदेश दिया, अधिकार दिया और इसके माध्यम से उनमें वर्णधर्म को बिल्कुल पक्का कर दिया। इस तरह वर्ण धर्म के विरूद्ध किसी भी चुनौती की संभावना को ही समाप्त कर दिया। उत्पीड़क सामाजिक स्थिति से मुक्ति की बजाए काल्पनिक मुक्ति का सिद्धांत भी गढ़ा। इस पर जोर देकर डा. सेवा सिंह ने बार-बार कहा ''शुद्ध ज्ञान का सरोकार उस परजीवी वर्ग से था जो श्रमजन्य कर्मों से मुक्त था। गीता का निष्काम कर्मयोग भी इसी विशिष्ट सुविधा सम्पन्न श्रेणी की समझ में आ सकता था, जो श्रमिकों के अतिरिक्त उत्पादन की लूट से इस प्रकार के विचारवादी दर्शन की परिकल्पना में सक्षम भी थी और अपनी इस लूट की न्यायोचितता बनाये रखने के लिए उसे इसकी जरूरत भी थी। इस ज्ञान को वायवी, सूक्ष्म, पारलौकिक और अस्तित्व रहित मोक्ष से जोड़ दिया गया। वर्ण धर्म का पालन भी इसी मोक्ष से सम्बद्ध है। शूद्रों की इस ज्ञान तक पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार से मूल रूप में ही वंचित कर दिया गया था।" (पृ.-2)
विचारधारा के तौर पर भक्ति वर्ण-धर्म को ही वास्तविक व आदर्श धर्म स्वीकारती है और दावा करती है कि अपने वर्ण-धर्म का पालन करने से ही मुक्ति मिल सकती है। वर्ण-धर्म का पालन ही मुक्ति का पर्याय बन गया। आम जन के लिए या शूद्र को अपने खोल में लेकर अन्य रास्ते ही बंद कर दिए। यदि कोई अन्य पद्धति द्वारा योग, व्रत, ज्ञान-चर्चा, तीर्थ-यात्रा आदि करता तो शायद वर्णों की सीमा लांघकर व्रती, योगी, ज्ञानी, यात्री की संज्ञा पा सकता था, लेकिन यदि सेवा-कर्म में ही अपनी मुक्ति ढूंढने लगे और जितनी वफादारी और निष्ठा से सेवा, उतना ही मुक्ति की गांरटी ज्यादा। दिलचस्प बात है कि भक्ति को या वर्ण धर्म के पालन को मोक्ष का नाम देकर इस तरह प्रचारित किया गया जैसे कि आज मंदी के दौर में बाजार में एक चीज के साथ दूसरी मुफ्त दी जाती है। मुक्ति, मोक्ष तो वर्ण-धर्म पालन के साथ बोनस के रूप में मिलता था। यह स्थिति भक्ति की विचारधारा को मानने वाले आत्मवादियों व अनात्मवादियों की गलाकाट प्रतियोगिता में उसकी पतली हालत की ओर संकेत करती है। कष्ट, तपस्या की दुरूहता के बरक्स 'हरिकीर्तन' द्वारा मुक्ति का सरलता से हासिल होना अधिक से अधिक प्रसार की आकांक्षा को ही दर्शाता है। भक्ति की विचारधारा में शरणागति यानी वर्ण-धर्म की स्वीकृति ही मुख्य है। धर्म ने नैतिक सत्ता का दामन छोड़ दिया और तमाम बुराइयों के साथ वर्ण-धर्म ही यानी भक्ति को अपनाने को ही धर्म रूप में मान्यता दे दी गई। ईश्वर-प्राप्ति, मुक्ति, मोक्ष के लिए किसी नैतिकता की, मूल्यों के पालन की, आचरण शुद्ध करने की अपेक्षा नहीं थी, बल्कि पाप व बुरे काम करते हुए महापातकी भी नाम लेने मात्र से मुक्ति प्राप्त कर जाते हैं। एक तरह से भक्ति की विचारधारा ने अनैतिकता, बुरे आचरण व बुराइयों को संस्थागत रूप दे दिया। ''चोर, शराबी, मित्र द्रोही, ब्रह्मघाती, गुरू पत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, कोई जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिए यही, इतना ही बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान के नामों का उच्चारण किया जाए, क्योंकि इनके उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान के प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।"(पृ.-34) भक्ति को इस हद तक प्रचारित किया कि शिशुपाल, पूतना, अजामिल आदि जो भगवान के शत्रु थे उनको भी नाम मात्र से, स्पर्श से ही मुक्ति देने की बात कहकर किसी न किसी तरह का सम्बन्ध स्थापित करने पर जोर दिया।
अध्ययन का दिलचस्प बिन्दु यह भी है कि शूद्रों को, पापियों को सबको भक्ति में शामिल करने की इस होड़ के पीछे भौतिक आधार क्या था? भक्ति में शूद्रों को जिस तरह आकर्षित किया जा रहा था, बहलाया-फुसलाया जा रहा था उनको आत्मसात किया जा रहा था और मनु राजा को कठोर दण्ड देने, शूद्र बहुल प्रदेश में न रहने का विधान दे रहा था।
''देखने की बात है कि एक ओर निचले तबकों के लिए सब प्रकार की मानवीय धार्मिक सुलभताओं का निषेध है जबकि दूसरी ओर भक्ति के प्रचार-प्रसार द्वारा वैदिक मिथ, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग, दान तीर्थ, अदृष्ट की भयावहता, पुनर्जन्म, दैवी वर्ण-विधान और अन्य अनेक अंधविश्वासों को, निचले तबकों की मनोंग्रंथि में गहरे तक बैठा दिया गया है। भक्ति के उद्भव और विकास में, भक्ति का यह लक्ष्यीभूत प्रयोजन स्पष्ट होता देखा जा सकता है।" (पृ.-71)
भक्ति का जो लक्ष्य व प्रयोजन समाज में सामन्ती-व्यवस्था की असमानता व लूट-शोषण को तथा इस शोषण को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले दमन का औचित्य ठहराने के लिए था। इसी मंतव्य को पूरा करने के लिए इसका स्वरूप भी सामन्ती-व्यवस्था के अनुरूप रहा। ''परवर्ती सामन्तीय सम्बन्धों के अन्तर्गत इन उपास्य देवों की भूमिका उलट कर वर्ग भेदमूलक व्यवस्था को मजबूत करने लगती है। परवर्ती अर्थों में भक्ति और भगवान का सम्बन्ध, सामन्तीय सम्बन्धों का प्रतीक है और साथ में इन सम्बन्धों की दैवी आधिकारिता के बल पर सामन्तीय दमन को वैधता और लोक चेतना के स्तर पर आत्मस्वीकृति भी प्रदान करता है।" (पृ.-71)
धर्म, ईश्वर भाववादी चिन्तन का केन्द्रीय तत्त्व है, इस चिन्तन के इस अद्भुत आविष्कार ने और बदलती परिस्थितियों के साथ स्वयं को बदल लेने की क्षमता ने राजाओं की सत्ता व शोषण टिकाने में मदद की है। विवाद का विषय नहीं है कि कोई भी सत्ता चाहे वह किसी भी लोकतन्त्र हो वह जनता की सहमति स्वीकृति या उसमें लोकप्रिय हुए बिना लम्बे समय तक टिक नहीं सकती। केवल पुलिस, सेना के बल पर कोई शासन नहीं कर सकता। इसके लिए तो हर एक नागरिक के पीछे एक-एक पुलिसमैन लगाना पड़ेगा, फिर सर्वविदित है कि सेना में भी बगावत हो जाती है और हुई है। इस भक्ति की विचारधारा ने जन के लिए सेना-पुलिस का ही काम किया है जिसके साथ शोषण को स्वीकृति मिली है और इसको धारण करके जन स्वयं ही शासन के अनुकूल नियंत्रित रहने लगे हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस विचारधारा की विश्वसनीयता पर लगातार प्रश्नचिह्न भी जन की दृष्टि से लगे हैं, लेकिन सत्ता का संरक्षण पाकर व जन को तर्क से, ज्ञान से वंचित करके इसका वर्चस्व लगातार बना रहा है। इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तरह-तरह की कल्पनाएं की हैं। पुरस्कार व दंड, स्वर्ग व नरक, मोक्ष व बंधन, कलियुग व सतयुग आदि की कल्पनाएं की हैं।
डा. सेवा सिंह ने महाभारत, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, स्कन्द पुराण से बहुत से उद्धरण देकर 'कलियुग' की धारणा जिसे 'युगान्त' की संज्ञा दी है, का भक्ति से सम्बन्ध दर्शाया है। ''युगांत का पुराणों ने विस्तार सहित वर्णन किया है। पुराणों में बताया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की प्रवृति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋत-सम-यजुरूप त्रयी धर्म का सम्पादन करने वाली होती है। उस समय धर्म, विवाह, गुरू-शिष्य सम्बन्ध की स्थिति, दाम्पत्य कर्म और अग्नि में देवयज्ञ क्रिया का कर्म भी नहीं रहता।" (पृ.-38) वर्णधर्म की पकड़ समाज में ढीली पड़ी, क्योंकि कई संस्कृतियों के लोग यहां आए जिनका असर यहां की संस्कृति पर पड़ा, नई चर्चा की शुरूआत हुई और इसका मतलब है वर्ण-धर्म के पालन में कमी। आज भी कलियुग की यह लोकप्रिय धारणा लोक चेतना का अंग है। भक्ति को कलियुग के लिए सबसे कारगर तरीका माना है। कलियुग में भक्ति की महिमा का अत्यधिक बखान किया गया। वर्ण धर्म की समाज पर पकड़ बनाने के लिए संहिताओं-स्मृतियों की रचनाएं की गई। डा. सेवा सिंह पुराणों की कथाओं का विवेचन करके बताया है कि असल में इस साहित्य की रचना ब्राह्मणवादी मूल्यों व तंत्र का औचित्य सिद्ध करने के लिए की गई है। इनकी कथाओं और गाथाओं के 'माहात्म्यÓ वर्ण-धर्म की व्यवस्था को आधार भूमि प्रदान करते हैं।
सामन्तवादी-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। ब्राह्मणों को राजाओं का संरक्षण मिला, राजाओं ने उनको जमीनें दान में दी और अपराधियों के प्रायश्चित के बदले बहुत सी भौतिक वस्तुएं मिलीं। इससे उनकी स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया। धार्मिक कर्मकाण्ड की बजाए जमीन उनकी आमदनी का मुख्य साधन बनी। दान-पुण्य का महिमामंडन किया गया, मंदिरों, तीर्थों, मठों की संख्या में बढोतरी हुई और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता भी स्वीकृत थी और राज्य से इसका खुला समर्थन था। राज्य के इस संरक्षण के बदले में ब्राह्मणों ने सामन्तवाद का महिमामंडन करने के सिद्धांत गढ़े। गुह्यसूत्रों, मनुस्मृति व कौटिल्य आदि ने राजा को धर्म-प्रवर्तक कहा और वर्ण धर्म को लागू करना राजा का परम कर्तव्य बताया। जाहिर ही है कि वर्ण धर्म को ब्राह्मणों ने ब्रह्म, ईश्वर या दैवीय उत्पति कहा है तो राजा को दैवीय हुक्म को लागू करने वाला और इस दैवीय सिद्धांत में राजा का प्रजा पर अत्याचार, दमन, लूट व शोषण सब कुछ जायज व दैवीय व्यवस्था बन जाती थी। डा. सेवा सिंह ने इस बारे में लिखा कि ''पूर्व मध्यकाल की बाजार पर आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था में व्याप्त शोषण से केवल अनुषंगी लाभ उठाने वाले ब्राह्मण, मध्यकाल की कृषि-आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था के दौर में प्रत्यक्ष शोषक वर्ग में परिवर्तित हो गए। मध्यकालीनीकरण की मुख्य लाक्षणिकताएं थीं : नगर-सभ्यता का हृास और ग्राम आधारित निर्वाह-व्यवस्था की संवृद्धि, जाति-व्यवस्थाकी कठोरता और समाज जातियों, उपजातियों में बंटते जाना, वर्ण संकर संतानों का आधिपत्य, आवश्यक और उपयोगी कलाओं के काम में लगे दस्तकारों को 'अपवित्र' और 'अस्पृश्य' घोषित कर उनकी भत्र्सना करना, नगरवासी ब्राह्मणों के एक महत्वपूर्ण अंश का गांवों में बसना, सामाजिक सुरक्षा और राजनीतिक अराजकता। मंदिर केन्द्रित उपासना या पूजा पद्धति पर आधारित इस मध्यकालीनीकरण का रक्षा कवच था अंधविश्वास। जैसा कि कहा गया है, जिस समाज में अनगिनत श्रम जीवियों को पराधीनता जीवन अपनाए रहने को विवश किया जाता हो, जिसमें राष्ट्र की सम्पति का उत्पादन करते हुए लोगों को केवल जिन्दा रहने के लिए जरूरी वस्तुओं पर गुजर करने को विवश किया जाता हो, उस समाज को कायम रखने के लिए हिंसात्मक उपायों के अलावा एक और चीज की अत्यधिक आवश्यकता होती है। वह चीज है - सचमुच बड़े पैमाने पर अंधविश्वास।" (पृ.-64) ब्राह्मणवादियों ने जनजीवन में तो अत्यधिक अंधविश्वासों और मिथ्या धारणाओं को बढ़ावा दिया ही बल्कि अंधविश्वास का दार्शनिकीकरण भी किया गया।
बुद्धि व तर्क को नकारने के लिए तरह तरह के अंधविश्वास गढ़े, साथ ही बुद्धि व तर्क का प्रयोग करने वालों को अपमानित भी किया गया। शंकर जैसे आत्मवादी दार्शनिकों व भक्ति की विचारधारा के प्रचारकों ने दर्शन के आधार तर्क को ही नकार कर बुद्धिवाद का विकास अवरूद्ध कर दिया। बड़े सुविधाजनक ढंग से तर्क सामाजिक परम्पराओं-रूढिय़ों व रीति-रिवाजों को ही तर्क के रूप में पेश करने लगे। बड़े ही चालाकीपूर्ण ढंग से तर्क को इस तरह पुनर्परिभाषित किया। तर्क का काम सत्य की परख करना नहीं, बल्कि शास्त्र-वचनों की पुष्टि करना मात्र रह गया। केवल उसी को तर्क की संज्ञा दी गई जो भक्ति की विचारधारा को स्थापित करने वाले शास्त्रों का समर्थन करें। इससे शूद्रों के ज्ञान को ही आघात नहीं पहुंचा, बल्कि विज्ञान व तर्क आधारित विद्याओं को भी निकृष्टता की श्रेणी में डाल दिया गया। तर्क के स्थान पर विश्वास, आस्था व समर्पण को प्रतिष्ठापित करना भारतीय मेहनतकश जन के साथ सबसे बड़ा बौद्धिक छल था।
''विषम एवं अन्यायपूर्ण समाजार्थिक परिवेश में रूप ग्रहण कर रहे सामाजिक विधि-विधान जिनकी चर्चा स्मृति आदि ग्रंथों में की गई है, ऐसे दर्शन का अभिन्न अंग थे। इन्हीं की एकसुरता में दार्शनिक ने अपने दर्शन के घातक पक्ष को तिलांजलि देने के प्रयोजन से श्रुति संज्ञक ग्रंथों को आप्तवचन एवं अपौरूषेय कहकर अंतिम सत्य प्रमाणित कर दिया था। जबकि जन समुदाय को इन आप्तवचनों को पढऩे, सुनने, जानने का कठोर निषेध लागू करवा दिया गया था तो फिर दार्शनिक की ऐसी घोषणाओं और दावों को परखने की गुंजाइश ही कहां थी? इस प्रकार के अंधविश्वासपूर्ण परिवेश में ही शोषण का दमनचक्र उन्मुक्त रूप से जारी रखा जा सकता था, अन्यथा अत्यन्त अमानवीय स्तर पर जीवन-यापन के लिए विवश किये जा रहे जन समुदाय द्वारा विद्रोह किये जाने की संभावना बनी रह सकती थी।" (पृ.-108) समझ में आने वाली बात है कि स्वतंत्र चिन्तन व तार्किक ज्ञान को शोषणकारी व्यवस्थाएं अपना शत्रु नम्बर एक समझती हैं इसलिए किसी भी शोषक सत्ता का पहला निशाना वही बनते हैं तथा इनको रोकने के लिए अपने भाड़े के कथावाचकों को दार्शनिक का रूप देकर इस संभावना को समाप्त करती हैं। आज जिस तरह गुरूओं की बाढ़ आ गई है, सप्ताह के दिन लोगों के रेले के रेले सत्संगों में इस दर्शन की जूठन का भोग लगा रहे हैं, नाम-दान लेने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, नई-नई 'माताएं व बापू' पैदा हो रहे हैं, सारा दिन टेलीविजन पर भ्रमों व अंधविश्वासों का प्रसाद बांटा जा रहा है, राष्ट्रीय चैनलों पर तिलकधारी, कहीं मुल्ला, कहीं योगी अपनी वाक्-पटुता व जुबान की कलाबाजियों से लोगों को भरमा रहे हें और अति आधुनिक कहे जाने वाले लोगों को उनसे आशीर्वाद लेने जिस तरह प्रदर्शित किया जा रहा है, इस आक्रामक अंधविश्वास व गुरुडम के पीछे भी क्या व्यवस्था का क्रूर चेहरा छुपाकर इसमें पिसते लोगों को काल्पनिक सुख देने का प्रपंच नहीं नजर आता? व्यवस्था का क्रूरता जन्य उत्पीडऩ को मापने का एक पैमाना यह भी है कि धर्म की आड़ लेकर कितने लोग लोगों को समझाने पर तुले हुए हैं, धर्म-स्थलों की भव्यता और बढ़ती संख्या भी उसकी क्रूरता में बढ़ोतरी को ही दर्शाती है, न कि लोगों की धर्म या ईश्वर में बढ़ती आस्था को। यह भी आत्मसातीकरण ही है कि लोगों को उनकी जरूरतों, उनके मुद्दों-चिंताओं से हटाकर व्यवस्था की जरूरतों-चिंताओं में शामिल कर देना और उनको पूरी करने में उनका इस्तेमाल करना।
प्रत्ययवाद, भाववाद या अध्यात्म का पिछड़ापन व रूढि़वाद हमेशा शासक वर्ग के संरक्षण में फला-फूला और इसने उसी वर्ग की सेवा भी की है। शब्दों का जितना ही बारीक जाल अध्यात्मवाद बुनता है, मान लो भौतिकवाद की चुनौती भी उतनी ही गम्भीर है। अध्यात्मवाद भी समय-परिस्थिति निरपेक्ष नहीं होता। डा. सेवा सिंह ने भारतीय भाववाद, प्रत्ययवाद के दर्शन के विकास को व उसके सामाजिक आधार को भी समझने की कोशिश की है। समाज की बदली परिस्थितियों से इस दर्शन को जो नई-नई चुनौतियां मिली हैं उनको भी साथ ही दर्शाने की कोशिश की है। इस दर्शन के मुख्य पड़ावों को रेखांकित किया है कि ''उपनिषदों का आत्मवाद, महायानी बौद्धों का शूनयवाद और विज्ञानवाद एवं शंकराचार्य का मायावाद भारतीय प्रत्ययवाद के विकास के चरण हैं। ऐतिहासिक कालखण्डों के समाजार्थिक परिवर्तनों के अन्तर्गत इन विचारधाराओं का अध्ययन हमें असंदिग्ध रूप से प्रत्ययवादी दर्शन के वर्ग विद्वेषमूलक, परजीवी तथा निहित स्वाथपूर्ण चरित्र को स्पष्ट करता है।" (पृ.-172)
यद्यपि डा. सेवा सिंह ने भक्ति की विचारधारा अपनाए अध्यात्म को ऐतिहासिक संदर्भ में समझा है, लेकिन अध्यात्म के इस घटाटोप के नीचे छिपे भौतिकवाद की विचारधारा की भी शिनाख्त होती तो अध्यात्म, ईश्वर, भक्ति, धर्म के नाम की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को बचाने वाले स्वार्थी कथित 'दार्शनिकों के मनघड़न्त किस्से-कहानियों, भ्रामक विचारों का खोखलापन स्पष्ट तौर पर उजागर होता। मिथ्यावादी दार्शनिक चाहे नैतिक संसार को कितना भी मिथ्या साबित करने की कुचेष्टा करें, लेकिन यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि उनका यह कुत्सित खेल दुनिया के भौतिक सुख-ऐश्वर्य पर अधिकार जमाए रखने का ही ढंग है।
भाववादियों के मोक्ष, स्वर्ग में बिना कुछ परिश्रम किए सुख-ऐश्वर्य की वस्तुएं पाने के अलावा और क्या है? कल्पित सुखों के लिए वास्तविक सुखों को छोड़ देने का आग्रह मेहनतकश जन को उल्लू बनाना नहीं तो क्या है? डा. सेवा सिंह ने ठीक ही पहचाना है कि अरचनात्मक लोगों का ज्ञान भी और दर्शन भी अरचनात्मक ही होगा। जो वर्ग परिश्रम से नहीं जुड़ा और केवल परिश्रमी लोगों द्वारा बनाई चीजों को चुराने व भोग करने की नई-नई तरकीबें सोचा करता है, उसके दर्शन में मिथ्या, अंधविश्वास व अतार्किकता के अलावा और कुछ की अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?
कहा जा सकता है कि डा. सेवा सिंह का यह कार्य केवल अकादमिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि मेहनतकश जन की रचनात्मक दृष्टि व दर्शन को समृद्ध करने वाला है। मेहनतकश को आगाह भी करता है कि इतिहास में किन तरकीबों (भक्ति) का सहारा लेकर उसका शोषण किया गया है, उसको वंचित किया और भविष्य का रास्ता भी दिखाता है कि वह इस मिथ्या दर्शन के जाल को काटकर ही आगे बढ़ सकता है। भाववादी दर्शन, अध्यात्म, प्रत्ययवाद अपने आप में कुछ नहीं हैं, बल्कि विशेष वर्गों द्वारा संसार के भौतिक संसाधनों पर अधिकार बनाए रखने और समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए गढ़ी गई तरकीबें हैं। सामाजिक विकास के साथ साथ ही अध्यात्म का भी रूप बदला है। भक्ति की विचारधारा कर मेहनतकश जन से संबंध उद्घाटित करती 'भक्ति और जन' नामक पुस्तक दलित-वंचित-पीडि़त समाज की मुक्ति-संघर्ष की महत्वपूर्ण कृति है।