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महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकता

महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकताडा. सुभाष चन्द्र,एसोशिएट प्रोफेसर,
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र


आधुनिक भारत पर साम्प्रदायिकता की काली छाया लगातार मंडराती रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं,लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है।
महात्मा गांधी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान निरन्तर साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे। वे साम्प्रदायिकता के घातक परिणामों को जानते थे। उनका मानना था कि यदि हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी झगड़ा रहा, वे एक दूसरे पर अविश्वास और संदेह करते रहे तो न तो भारत को कभी गुलामी से ही मुक्ति मिल पाएगी और न ही भारत एक सुखी और समृद्ध समाज बन पाएगा, इसलिए वे हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता के सूत्र हमेशा खोजते रहे। हिन्दू मुस्लिम एकता एकता की चिन्ता उनके चिन्तन का जरूरी पहलू है। पुनः पुनः उन्होंने इस पर विचार किया है ‘‘हिन्दू और मुस्लिम एकता किस बात में निहित है और उसको बढाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? उतर सीधा-सादा। वह इस बात में निहित है कि हमारा एक समान उद्देश्य हो,एक समान लक्ष्य हो,और समान सुख-दुख हों।और इस समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक-दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना, इस एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है।’’(यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
महात्मा गांधी स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति थे जो स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। लेकिन महात्मा गांधी साम्प्रदायिक नहीं थे, सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे,धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए गांधी जी ने अपनी जान तक दे दी। साम्प्रदायिक कट्टर व्यक्ति एवं संगठन द्वारा उनकी हत्या के कारण व्यक्तिगत नहीं थे, बल्कि भारतीय इतिहास व संस्कृति में निहित मूलभूत धार्मिक सहिष्णुता,साम्प्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र जैसे सांस्कृतिक-राजनीतिक मूल्य थे, जिनके प्रति गांधी जी दृढता से मैदान में डटे थे।
साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने भारत की शासन सत्ता संभाली तो राजनीति और आर्थिक व्यवस्था प्रतिस्पर्धत्मक हो गई। अंग्रेजी शासन में हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के कारण ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता और धार्मिक व्यक्ति कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे धार्मिक थे जो अपने अपने धर्मों में,उनकी मान्यताओं,पूजा पद्धतियों,परम्पराओं व मान्यताओं में विश्वास रखते थे और साथ ही धर्म को व्यक्ति निजी मामला समझते थे, दूसरे धर्मों का आदर करते थे, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र व मूल्यों में विश्वास करते थे और इन्हें स्थापित करने के लिए जी जान से संघर्ष करते थे। दूसरी ओर इसके विपरीत हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक नेता थे जो खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार व, विश्वास-व्यवहार कहीं से भी धार्मिक नहीं थे,उनका धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था और उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट बनाने के लिए लाखों लोगों को हिंसा का शिकार बनाया।
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का मूल कारण नहीं है, हां धर्म का सहारा जरूर लिया जाता है। चूंकि धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंध्ति होता है, धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं। महात्मा गांधी का कहना था कि ‘‘मैं किसी भी हिन्दू या मुसलमान से अपने धार्मिक सिद्धांत को रंच-मात्र भी छोड़ने को नहीं कहता,बशर्ते उसे इस बात का इत्मीनान हो कि जिसे वह धार्मिक सिद्धांत कह रहा है वह सचमुच धार्मिक सिद्धांत ही है। लेकिन यह तो मैं हर हिन्दू और मुसलमान से कहता हूं कि वह भौतिक लाभ के लिए आपस में न लड़े। ’’ (यंग इण्डिया, 25-9-1924, अंग्रेजी से)
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंधविश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं।
भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नही होती। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार)टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।
साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से,धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। गांधी का मानना था कि धर्म की पहचान इन बाहरी ढकोसलों में नहीं होती ‘‘सच्चे हिन्दू की पहचान तिलक नहीं है, मंत्रों का सही उच्चारण नहीं है, तीर्थाटन नहीं है और न जाति-पाति के नियमों को बन्धनों का सूक्ष्म पालन ही।’’ (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से)
गांधी जी धर्म की रक्षा के नाम पर गुण्डागर्दी के खिलाफ थे,उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘‘यदि संगठन का मतलब अखाड़े खोलना और अखाड़ों के द्वारा हिन्दू गुण्डों को तैयार करना हो तो यह हाल मुझे तो दयाजनक ही मालूम होता है। गुण्डों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी, अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ।’’(यंग इण्डिया, 14-9-1924, अंग्रेजी से) साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं,जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। गोरक्षा के माध्यम से महात्मा गांधी ने कहा कि हमें अपने धर्म की रक्षा आत्मत्याग से करें न कि उसके नाम पर मानवता पर चोट करके,उन्होंने कहा कि ‘‘गोरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना। गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिन्दू धर्म और अहिंसा धर्म के विमुख होना है। हिन्दुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्म-शुद्धि द्वारा और आत्महुति द्वारा गोरक्षा का विधान है लेकिन आजकल की गोरक्षा का विधान बिगड़ गया है। उसके नाम पर हम बराबर मुसलमानों के साथ झगड़ा-फसाद करते रहते हैं,जबकि गोरक्षा का मतलब है मुसलमानों को अपने प्यार से जीतना। (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से) कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।
यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में सच्चा विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। सहिष्णुता को गांधी जी समाज की शांति के लिए आवश्यक मानते थे ‘‘यदि मुसलमानों की ईश्वर-पूजा की पद्धति को,उनके तौर-तरीकों और रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगें या अगर हिन्दुओं की मूर्ति पूजा और गो-भक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखायेंगें तो हम शांति से नहीं रह सकते। सहिष्णुता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं जो कुछ सहन करता हूं उसे पसन्द भी करूं। मैं शराब पीना, मांस खाना और तम्बाकू पीना बहुत नापसन्द करता हूं, किन्तु मैं हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों सभी के बीच इन्हें सहन करता हूं - वैसे ही जैसे उनसे अपेक्षा रखता हूं कि इन चीजों से मेरा परहेज रखना उन्हें भले ही पसन्द न हो,लेकिन वे इसे सहन अवश्य करें। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सारे झगड़े की जड़ यही बात है कि दोनों एक दूसरे पर अपने विचार लादना चाहते हैं’’ (यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते।
धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालो से साथ-साथ रह रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में,राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है,बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। इस संबंध में गांधी जी का कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां- स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं,भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।
साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया।
धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है, धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार, आत्मा-परमात्मा, परलोक, पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।
संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं।
यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का,भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का,भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन,न भाषा-बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में। इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।
एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।
भाषा संस्कृति का महत्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं। भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते -रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रूचियों -स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी,इसका अनुमान लगाया जा सकता है। गांधी जी उस भाषा को अपनाने के हिमायती थे,जिसमें जनता अपने भावों-विचारों की तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करती थी। इसलिए न तो उन्होंने फारसी निष्ठ उर्दू को और न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को, बल्कि जन सामान्य की भाषा यानी ‘हिन्दुस्तानी’को आदर्श भाषा कहा। भाषा का यह रूप धर्मोन्मुखी नहीं, बल्कि जनोन्मुखी थी और यह लोगों में भेद पैदा करने वाली नहीं, बल्कि एकता पैदा करने वाली थी।
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है,जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले,अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं,विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है,जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है। गांधी जी पूरे जीवन धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता व साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्षरत रहे। उनका जीवन आदर्शों व विचारों को अपनाकर भारत को साम्प्रदायिक वैमनस्य के विष से मुक्ति मिल सकती है।