उच्च शिक्षा : अपेक्षाएं और चुनौतियां
डा. सुभाष चन्द्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र
शिक्षा सांस्कृतिक प्रक्रिया है, समाजीकरण का माध्यम, शक्ति का स्रोत और शोषण से मुक्ति का मार्ग है। शिक्षा का व्यक्ति और समाज के विकास से गहरा रिश्ता है, विशेषकर आज की ज्ञान केन्द्रित व नियन्त्रित दौर में। समाज के विकास और बदलाव के साथ साथ शिक्षा व ज्ञान का चरित्र भी बदला है। शिक्षा-विमर्श के मुद्दे भी बदले हैं। राजा मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, जोतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, आम्बेडकर, रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी के शिक्षा-दर्शन व स्वतन्त्रता-आन्दोलन के संकल्पों से निसृत अपेक्षाओं के अनुरूप शिक्षा के ढांचे व मूल्यों की जो शुरूआत हुई थी, वह पूर्णत: पलट गई है। शिक्षा अब विरोधाभासों और अन्तर्विरोधों का क्षेत्र है।
शिक्षण संस्थाओं के नाम विश्वविद्यालयों, डिग्री कालेजों, इंजीनियरिंग कालेजों, पोल-टेक्नीक कालेजों, प्रबंधन कालेजों, फार्मेसी कालेजों, बी.एड. कालेजों का विशाल जाल है, जिससे शिक्षा-तंत्र के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। संस्थाओं में वृद्धि शिक्षा की प्राप्त करने की प्रबल-इच्छा को दर्शाती है, लेकिन इनकी पचास हजार रुपए सालाना फीस अधिकांश की इच्छा को समाप्त कर देती है। शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों की संख्या में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस सब के बावजूद भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने योग्य युवाओं का बहुत बड़ा हिस्सा शिक्षण संस्थाओं से बाहर है। पिछले वर्षों में निजी संस्थाओं की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सरकारी संस्थाओं में अपेक्षा के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है। निजी संस्थाओं में वृद्धि शिक्षा के विकास के लिए नहीं, बल्कि चांदी काटने के लिए हो रही है। शिक्षा में सरकारी निवेश लगातार घट रहा है, बजट का अधिकांश वेतन-भत्तों में ही समाप्त हो जाता है, नए विकास के लिए कम ही गुंजाइश रहती है।
स्वतंत्रता के बाद कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना के अन्तर्गत शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे का जिस गति से विस्तार हुआ था, वैश्वीकरण के दौर में राज्य अपनी कल्याणकारिता की केंचुली को उतारने की प्रक्रिया में वह गति अब न केवल थम गई है, बल्कि मौजूदा ढांचे की देखरेख-संभाल के प्रति नकारात्मक रुख है। शिक्षा की व्यक्ति के विकास में भूमिका के महत्त्व को रेखांकित किया है, लेकिन सामुदायिक स्तर पर जिस तरह की पहलकदमियां करके संस्थाओं का निर्माण किया जाता था, वह जोश समाप्त प्राय: है। इसका एक कारण यह भी सामुदायिक प्रयासों से बनी संस्थाओं से विद्या प्राप्त करके निकले विद्यार्थियों का प्रतिदान समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। शिक्षा व्यक्तिगत उन्नति और रोजगार प्राप्त करने का साधन मात्र बनी समाज उत्थान और विकास का नहीं। शिक्षण संस्थाएं भी अपनी उपलब्धियों में उन्हीं को दर्ज करती रही, जो शिक्षा ग्रहण करके व्यवस्था में उच्च पदों पर सुशोभित होते रहे। कामरेड पृथ्वीसिंह की तरह शिक्षा ग्रहण करके समाज के लिए अपनी जिन्दगी लगाने वाले लोगों के नाम किसी विश्वविद्यालय-महाविद्यालय की सूची में नहीं मिलेंगे।
शिक्षा अब दान की वस्तु नहीं, बल्कि व्यापार की वस्तु हो गई है। इसीलिए यह अब बुद्धिजीवियों के ही सोचने का विषय नहीं रह गया है, बल्कि बड़ी-बड़ी कम्पनियों और कारपोरेट घरानों की गिद्ध दृष्टि इस पर है। पूंजी का स्वाभाविक चरित्र है लाभ का विस्तार। लाभ की रक्षा व बढोतरी के लिए एक संगठित शिक्षा-माफिया पनप रहा है। शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे के अभाव में इसकी शक्ति की दाब-धौंस में नौनिहालों से लेकर विज्ञान-तकनीक, मेडिकल-इंजीनियरिंग व प्रबंधन की उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्र-अभिभावक लाचार महसूस करते हैं। इसके संपर्क सूत्र ब्यूरोक्रेसी, सरकारें तथा न्यायालय तक भी हैं। निजी क्षेत्र का यह विशाल तंत्र अपने व्यापारिक लोभ वृति के लिए मोटी-मोटी फीसें वसूल करके छात्रों का तथा नियमों से अत्यधिक कम वेतन देकर शिक्षकों के शोषण के लिए तो अपने जन्म से ही बदनाम है, लेकिन अब इसकी गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। इसके अधिकांश स्नात्तक अयोग्य पाए जा रहे हैं, इनके आधार पर महाशक्ति बनाने का सपना देखने वाले एक दिन औंधे मुंह गिरेंगे और अपनी अयोग्यता को छुपाने के लिए फिर एक स्वप्न जाल का निर्माण करने में जुट जायेंगे।
युनेस्को की 'लर्निंग : दी ट्रेजर विद इन ' रिपोर्ट शिक्षा पद्धति व उसके उत्पाद यानी छात्र का व्यक्तित्व व ज्ञान की कसौटी
बन सकती है। इसमें शिक्षा को व्यक्तिगत व सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए सक्षम बनाने का माध्यम माना है और ज्ञान अर्जन के चार स्तम्भ चिन्हित किए हैं। जिनमें (क) ज्ञान बोध - बृहद सामान्य ज्ञान और कुछ विषयों में विशेषज्ञता हासिल करने के अवसरों से ज्ञान सीखा जा सकता है। ज्ञान के तरीके सीखना ताकि जीवन पर्यन्त सीखने के मौकों का लाभ उठाया जा सके। (ख) कार्यबोध - इसमें व्यवसायगत कुशलता प्राप्त करने के साथ साथ विभिन्न परिस्थितियों का मुकाबला करना सीखना तथा कार्यों का सामूहिक तौर पर निपटारा करना सीखना शामिल है। (ग) सह-अस्तित्व बोध - दूसरों को समझकर और परस्पर निर्भरता का अहसास करते हुए साथ-साथ जीना सीखना। विविधता, परस्पर समझ और शान्ति के प्रति सम्मान के मनोभाव से मिलजुलकर कार्य पूरे करना और द्वन्द्व की परिस्थितियों से निपटना सीखना। (घ) अस्मिता बोध - अपने अस्तित्व का विकास करना सीखना और उत्तरोत्तर स्वायत्तता, आत्म निर्णय और व्यक्तिगत जिम्मेदारी के साथ काम करना सीखना। इस संदर्भ में व्यक्ति की शारीरिक क्षमता, संचार कौशल, सौन्दर्यबोध, तार्किक क्षमता व स्मरण शक्ति आदि की अनदेखी नही की जानी चाहिए।
महाविद्यालय-विश्वविद्यालय आदि उच्च शिक्षा के संस्थानों की त्रि-आयामी भूमिका को रेखांकित किया गया। शिक्षण, शोध और विस्तार और इनकी परस्पर पूरकता। लेकिन इसे अपनी सच्ची भावना में लागू करने के गंभीर प्रयास नहीं हुए। उच्च शिक्षा के संस्थानों की लकवाग्रस्त व्यक्ति की सी एकायामी भूमिका ही रही। जहां शिक्षण है वहां शोध नहीं, जहां शोध है वहां उसका विस्तार नहीं। जहां ज्ञान विस्तार है वहां अन्य दोनों पहलू नहीं। उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए यह आदर्श वाक्य ही बने रहे। शिक्षण संस्थाओं के विभाग परीक्षा उत्तीर्ण करवाने के केन्द्र बनकर रह गए। समाज कार्य विभागों में कार्यरत शिक्षकों में कोई समाज सेवी नहीं हैं, पर्यावरण के विभागों में कोई पर्यावरणविद् नहीं है। जिस समाज में उन्होंने कार्य करना उस समाज में कार्य करने के तरीके विकसित करने की अपेक्षा वे विदेशी पुस्तकों के पन्नों को विद्यार्थियों के भेजे में ठूंस रहे हैं। अनालोचनात्मक ढंग से पुस्तकों के इन उपभोक्ताओं को पता भी नहीं चलता कि वे कब वे अपने विद्यार्थियों को औपनिवेशिक विचार का शिकार बना लेते हैं। विभिन्न विषयों की पाठ्य सामग्री पर एक नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि बेशक राजनीतिक आजादी मिल गई हो, लेकिन ज्ञान पर अभी भी पश्चिम का ही वर्चस्व है जो हमारी मेधा का स्वतंत्र ढंग से पनपने ही नहीं देता।
विद्यार्थी कैसे सीखता है, विषय पर शिक्षकों से संवाद करते हुए स्वामी रंगनाथ संस्कृत साहित्य से एक प्रसंग की चर्चा करते थे 'आचार्यात पादमाधते, पाद: शिष्य: स्वमेधया। पाद संब्रह्मचारिभ्य: पाद कालक्रमेण च।' यानी विद्यार्थी आचार्य 25 प्रतिशत, अपनी मेधा से 25 प्रतिशत, अपने सहपाठियों से 25 प्रतिशत तथा अपने युग-काल से 25 प्रतिशत ज्ञान हासिल करता है। आज की शिक्षा पद्धति में ज्ञान के इन स्रोतों का संतुलन नहीं है। विशेषतौर पर सहपाठियों से संवाद, विचार-विमर्श, चर्चा-परिचर्चा तथा अपने युग-काल की परिस्थितियों से जुड़ाव में अत्यधिक कमी है। जिससे ज्ञान-शिक्षा समाज व युग निरपेक्ष होकर एकायामी हो गई है। ज्ञान के आभिजात्य चरित्र का ही संस्थाओं में वर्चस्व है, लोक ज्ञान को अभी ज्ञान की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता। यह बिल्कुल संभव है कि विद्यार्थी भूगोल विषय में प्रथम हो और उसे अपनी तहसील के बारे में कोई ज्ञान न हो, प्राणीशास्त्र में प्रथम हो और अपने आस पास के पक्षियों के बारे में बिल्कुल कोरा हो, भौतिकी का अपूर्व ज्ञान हो और विभिन्न तारों की पहचान न हो।
शिक्षण संस्थाएं और इसमें कार्यरत कथित बुद्धिजीवियों का बृहतर समाज से नाभि-नाल का रिश्ता नहीं बना। इसके अभाव में वे बुद्धिजीवी से तैयार ज्ञान को परोसने वाले अध्यापक बन गए और वर्तमान के विश्लेषण व बेहतर भविष्य की कल्पना के अभाव में अध्यापक से वेतनभोगी शिक्षक-कर्मचारी तक सिकुड़कर रह गए। शिक्षकों का काम अब सोचना नहीं, सिर्फ करना रह गया है, सोचने काम या तो नौकरशाहों ने ले लिया है, या सैम पित्रोदाओं ने ले लिया है या फिर बिरला-अंबानियों ने। उच्च शिक्षा संस्थानों की भूमिका तात्कालिक जरूरतें पूरी करने के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की सी हो गई है। जो युवाओं को वेतनभोगी या स्वरोजगार से जीविका अर्जित करने में तों कुछ हद तक सक्षम बनाते हैं, जिससे नियोक्ताओं को भी लाभ होता है, लेकिन शिक्षा जगत के दीर्घकालिक हित में नहीं है। बाजार की तात्कालिक जरूरतें पूरी करने वाले पाठ्यक्रम तो फल-फूल रहे हैं और सैद्धांतिक व शोध नजरंदाज हो रहे हैं, विज्ञान पर तकनीक हावी है। भविष्य की जरूरतों को नियंत्रित करना असंभव है, इसलिए पाठ्यक्रमों में नव-क्षमताओं-संभावनाओं को विकसित करने की गुंजाइश रहनी चाहिए। रचनात्मक, आलोचनात्मक और संवादात्मक क्षमताएं विकसित करने वाले पाठ्यक्रम अपनाने से ही संभव है।
उच्च शिक्षा नीति व शिक्षा के चरित्र को शिक्षा की मात्रा, गुणवत्ता और समता की त्रयी की परस्पर पूरकता में ही समझा जा सकता है। इनमें संतुलन भारतीय लोकतंत्र व समाज के विकास का आधार है। गुणवत्ता के बिना शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं है, मात्रा के बिना इसका चरित्र आभिजात्य हो जाएगा और असमानता की अवस्था पूरी व्यवस्था के लिए विनाशकारी है। लेकिन शिक्षा में निजीकरण व व्यापारीकरण की नीतियों ने इस विचार को ही नष्ट कर दिया है, तीनों में संतुलन की बात तो बहुत दूर हो गई, इन तीनों को ही त्याग दिया है। उनका ध्यान केवल अकूत मुनाफे पर है। पांच सितारा सुविधा सम्पन्न भवन तो धुर जंगल व खेतों में दिखाई देते हैं, लेकिन उनमें पंहुच के लिए जितना भारी जेब की जरूरत है, उसके लिए सरकारी कर्मचारी तो अपनी भविष्य निधि को वर्तमान में ही भुना रहे हैं और आम लोगों को तो उनके दर्शन मात्र से ही अपनी तृप्ति करनी पड़ती है। उनके लिए बच गई है परम्परागत शिक्षा जिसे अप्रासंगिक मान लिया गया है और उसके सुधार, विकास व युगानुरूप बनाने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। साहित्य, समाज, इतिहास, दर्शन, संगीत, भाषा आदि की शिक्षा जो मनुष्यता को निखारती है, उसे बोझ माना जा रहा है।
शिक्षा का परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य पूरी तरह बदला है, जनोन्मुखी दृष्टि व जन अपेक्षाएं प्रभावी शिक्षा-चिन्तन से ही गायब हो रही है। इस परिदृश्य के प्रति चिन्ता व रोष तो है लेकिन शिक्षा व ज्ञान की दिशा को जनोन्मुखी करने के लिए जिस सशक्त जन आन्दोलन की आवश्यकता है, वह समाज में दिखाई नहीं दे रहा है। लोगों की नजर में शायद अभी पाप का घड़ा पूर्णत: नहीं भरा है।
डा. सुभाष चन्द्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र
शिक्षा सांस्कृतिक प्रक्रिया है, समाजीकरण का माध्यम, शक्ति का स्रोत और शोषण से मुक्ति का मार्ग है। शिक्षा का व्यक्ति और समाज के विकास से गहरा रिश्ता है, विशेषकर आज की ज्ञान केन्द्रित व नियन्त्रित दौर में। समाज के विकास और बदलाव के साथ साथ शिक्षा व ज्ञान का चरित्र भी बदला है। शिक्षा-विमर्श के मुद्दे भी बदले हैं। राजा मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, जोतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, आम्बेडकर, रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी के शिक्षा-दर्शन व स्वतन्त्रता-आन्दोलन के संकल्पों से निसृत अपेक्षाओं के अनुरूप शिक्षा के ढांचे व मूल्यों की जो शुरूआत हुई थी, वह पूर्णत: पलट गई है। शिक्षा अब विरोधाभासों और अन्तर्विरोधों का क्षेत्र है।
शिक्षण संस्थाओं के नाम विश्वविद्यालयों, डिग्री कालेजों, इंजीनियरिंग कालेजों, पोल-टेक्नीक कालेजों, प्रबंधन कालेजों, फार्मेसी कालेजों, बी.एड. कालेजों का विशाल जाल है, जिससे शिक्षा-तंत्र के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। संस्थाओं में वृद्धि शिक्षा की प्राप्त करने की प्रबल-इच्छा को दर्शाती है, लेकिन इनकी पचास हजार रुपए सालाना फीस अधिकांश की इच्छा को समाप्त कर देती है। शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों की संख्या में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस सब के बावजूद भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने योग्य युवाओं का बहुत बड़ा हिस्सा शिक्षण संस्थाओं से बाहर है। पिछले वर्षों में निजी संस्थाओं की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सरकारी संस्थाओं में अपेक्षा के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है। निजी संस्थाओं में वृद्धि शिक्षा के विकास के लिए नहीं, बल्कि चांदी काटने के लिए हो रही है। शिक्षा में सरकारी निवेश लगातार घट रहा है, बजट का अधिकांश वेतन-भत्तों में ही समाप्त हो जाता है, नए विकास के लिए कम ही गुंजाइश रहती है।
स्वतंत्रता के बाद कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना के अन्तर्गत शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे का जिस गति से विस्तार हुआ था, वैश्वीकरण के दौर में राज्य अपनी कल्याणकारिता की केंचुली को उतारने की प्रक्रिया में वह गति अब न केवल थम गई है, बल्कि मौजूदा ढांचे की देखरेख-संभाल के प्रति नकारात्मक रुख है। शिक्षा की व्यक्ति के विकास में भूमिका के महत्त्व को रेखांकित किया है, लेकिन सामुदायिक स्तर पर जिस तरह की पहलकदमियां करके संस्थाओं का निर्माण किया जाता था, वह जोश समाप्त प्राय: है। इसका एक कारण यह भी सामुदायिक प्रयासों से बनी संस्थाओं से विद्या प्राप्त करके निकले विद्यार्थियों का प्रतिदान समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। शिक्षा व्यक्तिगत उन्नति और रोजगार प्राप्त करने का साधन मात्र बनी समाज उत्थान और विकास का नहीं। शिक्षण संस्थाएं भी अपनी उपलब्धियों में उन्हीं को दर्ज करती रही, जो शिक्षा ग्रहण करके व्यवस्था में उच्च पदों पर सुशोभित होते रहे। कामरेड पृथ्वीसिंह की तरह शिक्षा ग्रहण करके समाज के लिए अपनी जिन्दगी लगाने वाले लोगों के नाम किसी विश्वविद्यालय-महाविद्यालय की सूची में नहीं मिलेंगे।
शिक्षा अब दान की वस्तु नहीं, बल्कि व्यापार की वस्तु हो गई है। इसीलिए यह अब बुद्धिजीवियों के ही सोचने का विषय नहीं रह गया है, बल्कि बड़ी-बड़ी कम्पनियों और कारपोरेट घरानों की गिद्ध दृष्टि इस पर है। पूंजी का स्वाभाविक चरित्र है लाभ का विस्तार। लाभ की रक्षा व बढोतरी के लिए एक संगठित शिक्षा-माफिया पनप रहा है। शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे के अभाव में इसकी शक्ति की दाब-धौंस में नौनिहालों से लेकर विज्ञान-तकनीक, मेडिकल-इंजीनियरिंग व प्रबंधन की उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्र-अभिभावक लाचार महसूस करते हैं। इसके संपर्क सूत्र ब्यूरोक्रेसी, सरकारें तथा न्यायालय तक भी हैं। निजी क्षेत्र का यह विशाल तंत्र अपने व्यापारिक लोभ वृति के लिए मोटी-मोटी फीसें वसूल करके छात्रों का तथा नियमों से अत्यधिक कम वेतन देकर शिक्षकों के शोषण के लिए तो अपने जन्म से ही बदनाम है, लेकिन अब इसकी गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। इसके अधिकांश स्नात्तक अयोग्य पाए जा रहे हैं, इनके आधार पर महाशक्ति बनाने का सपना देखने वाले एक दिन औंधे मुंह गिरेंगे और अपनी अयोग्यता को छुपाने के लिए फिर एक स्वप्न जाल का निर्माण करने में जुट जायेंगे।
युनेस्को की 'लर्निंग : दी ट्रेजर विद इन ' रिपोर्ट शिक्षा पद्धति व उसके उत्पाद यानी छात्र का व्यक्तित्व व ज्ञान की कसौटी
बन सकती है। इसमें शिक्षा को व्यक्तिगत व सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए सक्षम बनाने का माध्यम माना है और ज्ञान अर्जन के चार स्तम्भ चिन्हित किए हैं। जिनमें (क) ज्ञान बोध - बृहद सामान्य ज्ञान और कुछ विषयों में विशेषज्ञता हासिल करने के अवसरों से ज्ञान सीखा जा सकता है। ज्ञान के तरीके सीखना ताकि जीवन पर्यन्त सीखने के मौकों का लाभ उठाया जा सके। (ख) कार्यबोध - इसमें व्यवसायगत कुशलता प्राप्त करने के साथ साथ विभिन्न परिस्थितियों का मुकाबला करना सीखना तथा कार्यों का सामूहिक तौर पर निपटारा करना सीखना शामिल है। (ग) सह-अस्तित्व बोध - दूसरों को समझकर और परस्पर निर्भरता का अहसास करते हुए साथ-साथ जीना सीखना। विविधता, परस्पर समझ और शान्ति के प्रति सम्मान के मनोभाव से मिलजुलकर कार्य पूरे करना और द्वन्द्व की परिस्थितियों से निपटना सीखना। (घ) अस्मिता बोध - अपने अस्तित्व का विकास करना सीखना और उत्तरोत्तर स्वायत्तता, आत्म निर्णय और व्यक्तिगत जिम्मेदारी के साथ काम करना सीखना। इस संदर्भ में व्यक्ति की शारीरिक क्षमता, संचार कौशल, सौन्दर्यबोध, तार्किक क्षमता व स्मरण शक्ति आदि की अनदेखी नही की जानी चाहिए।
महाविद्यालय-विश्वविद्यालय आदि उच्च शिक्षा के संस्थानों की त्रि-आयामी भूमिका को रेखांकित किया गया। शिक्षण, शोध और विस्तार और इनकी परस्पर पूरकता। लेकिन इसे अपनी सच्ची भावना में लागू करने के गंभीर प्रयास नहीं हुए। उच्च शिक्षा के संस्थानों की लकवाग्रस्त व्यक्ति की सी एकायामी भूमिका ही रही। जहां शिक्षण है वहां शोध नहीं, जहां शोध है वहां उसका विस्तार नहीं। जहां ज्ञान विस्तार है वहां अन्य दोनों पहलू नहीं। उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए यह आदर्श वाक्य ही बने रहे। शिक्षण संस्थाओं के विभाग परीक्षा उत्तीर्ण करवाने के केन्द्र बनकर रह गए। समाज कार्य विभागों में कार्यरत शिक्षकों में कोई समाज सेवी नहीं हैं, पर्यावरण के विभागों में कोई पर्यावरणविद् नहीं है। जिस समाज में उन्होंने कार्य करना उस समाज में कार्य करने के तरीके विकसित करने की अपेक्षा वे विदेशी पुस्तकों के पन्नों को विद्यार्थियों के भेजे में ठूंस रहे हैं। अनालोचनात्मक ढंग से पुस्तकों के इन उपभोक्ताओं को पता भी नहीं चलता कि वे कब वे अपने विद्यार्थियों को औपनिवेशिक विचार का शिकार बना लेते हैं। विभिन्न विषयों की पाठ्य सामग्री पर एक नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि बेशक राजनीतिक आजादी मिल गई हो, लेकिन ज्ञान पर अभी भी पश्चिम का ही वर्चस्व है जो हमारी मेधा का स्वतंत्र ढंग से पनपने ही नहीं देता।
विद्यार्थी कैसे सीखता है, विषय पर शिक्षकों से संवाद करते हुए स्वामी रंगनाथ संस्कृत साहित्य से एक प्रसंग की चर्चा करते थे 'आचार्यात पादमाधते, पाद: शिष्य: स्वमेधया। पाद संब्रह्मचारिभ्य: पाद कालक्रमेण च।' यानी विद्यार्थी आचार्य 25 प्रतिशत, अपनी मेधा से 25 प्रतिशत, अपने सहपाठियों से 25 प्रतिशत तथा अपने युग-काल से 25 प्रतिशत ज्ञान हासिल करता है। आज की शिक्षा पद्धति में ज्ञान के इन स्रोतों का संतुलन नहीं है। विशेषतौर पर सहपाठियों से संवाद, विचार-विमर्श, चर्चा-परिचर्चा तथा अपने युग-काल की परिस्थितियों से जुड़ाव में अत्यधिक कमी है। जिससे ज्ञान-शिक्षा समाज व युग निरपेक्ष होकर एकायामी हो गई है। ज्ञान के आभिजात्य चरित्र का ही संस्थाओं में वर्चस्व है, लोक ज्ञान को अभी ज्ञान की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता। यह बिल्कुल संभव है कि विद्यार्थी भूगोल विषय में प्रथम हो और उसे अपनी तहसील के बारे में कोई ज्ञान न हो, प्राणीशास्त्र में प्रथम हो और अपने आस पास के पक्षियों के बारे में बिल्कुल कोरा हो, भौतिकी का अपूर्व ज्ञान हो और विभिन्न तारों की पहचान न हो।
शिक्षण संस्थाएं और इसमें कार्यरत कथित बुद्धिजीवियों का बृहतर समाज से नाभि-नाल का रिश्ता नहीं बना। इसके अभाव में वे बुद्धिजीवी से तैयार ज्ञान को परोसने वाले अध्यापक बन गए और वर्तमान के विश्लेषण व बेहतर भविष्य की कल्पना के अभाव में अध्यापक से वेतनभोगी शिक्षक-कर्मचारी तक सिकुड़कर रह गए। शिक्षकों का काम अब सोचना नहीं, सिर्फ करना रह गया है, सोचने काम या तो नौकरशाहों ने ले लिया है, या सैम पित्रोदाओं ने ले लिया है या फिर बिरला-अंबानियों ने। उच्च शिक्षा संस्थानों की भूमिका तात्कालिक जरूरतें पूरी करने के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की सी हो गई है। जो युवाओं को वेतनभोगी या स्वरोजगार से जीविका अर्जित करने में तों कुछ हद तक सक्षम बनाते हैं, जिससे नियोक्ताओं को भी लाभ होता है, लेकिन शिक्षा जगत के दीर्घकालिक हित में नहीं है। बाजार की तात्कालिक जरूरतें पूरी करने वाले पाठ्यक्रम तो फल-फूल रहे हैं और सैद्धांतिक व शोध नजरंदाज हो रहे हैं, विज्ञान पर तकनीक हावी है। भविष्य की जरूरतों को नियंत्रित करना असंभव है, इसलिए पाठ्यक्रमों में नव-क्षमताओं-संभावनाओं को विकसित करने की गुंजाइश रहनी चाहिए। रचनात्मक, आलोचनात्मक और संवादात्मक क्षमताएं विकसित करने वाले पाठ्यक्रम अपनाने से ही संभव है।
उच्च शिक्षा नीति व शिक्षा के चरित्र को शिक्षा की मात्रा, गुणवत्ता और समता की त्रयी की परस्पर पूरकता में ही समझा जा सकता है। इनमें संतुलन भारतीय लोकतंत्र व समाज के विकास का आधार है। गुणवत्ता के बिना शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं है, मात्रा के बिना इसका चरित्र आभिजात्य हो जाएगा और असमानता की अवस्था पूरी व्यवस्था के लिए विनाशकारी है। लेकिन शिक्षा में निजीकरण व व्यापारीकरण की नीतियों ने इस विचार को ही नष्ट कर दिया है, तीनों में संतुलन की बात तो बहुत दूर हो गई, इन तीनों को ही त्याग दिया है। उनका ध्यान केवल अकूत मुनाफे पर है। पांच सितारा सुविधा सम्पन्न भवन तो धुर जंगल व खेतों में दिखाई देते हैं, लेकिन उनमें पंहुच के लिए जितना भारी जेब की जरूरत है, उसके लिए सरकारी कर्मचारी तो अपनी भविष्य निधि को वर्तमान में ही भुना रहे हैं और आम लोगों को तो उनके दर्शन मात्र से ही अपनी तृप्ति करनी पड़ती है। उनके लिए बच गई है परम्परागत शिक्षा जिसे अप्रासंगिक मान लिया गया है और उसके सुधार, विकास व युगानुरूप बनाने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। साहित्य, समाज, इतिहास, दर्शन, संगीत, भाषा आदि की शिक्षा जो मनुष्यता को निखारती है, उसे बोझ माना जा रहा है।
शिक्षा का परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य पूरी तरह बदला है, जनोन्मुखी दृष्टि व जन अपेक्षाएं प्रभावी शिक्षा-चिन्तन से ही गायब हो रही है। इस परिदृश्य के प्रति चिन्ता व रोष तो है लेकिन शिक्षा व ज्ञान की दिशा को जनोन्मुखी करने के लिए जिस सशक्त जन आन्दोलन की आवश्यकता है, वह समाज में दिखाई नहीं दे रहा है। लोगों की नजर में शायद अभी पाप का घड़ा पूर्णत: नहीं भरा है।