नवोदित रचनाकार : सरोकार और संकल्प के बीच
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जब कोई युवा कविता के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो उसके मन में कुछ जोश होता है और कुछ करने की लगन उसके मन में अवश्य होती है, उसके मन में कुछ सपने होते हैं, उसके ये भाव ही कविता का रूप धारण करते हैं। इस स्थिति में कई बार कविता सच्चाई से दूर हटकर मन की ही अभिव्यक्ति बन जाती है। उसके मन में उठने वाले ये भाव ही उसके भावी कवि की नींव का काम करती है।
एक बात गौर करने की यह भी है कि जब कोई युवा अपना शौक पूरा करने के लिए या कुछ विशेष मकसद के लिए कविता लिखता है और जब वह प्रतियोगिता में भाग लेता है उस में अन्तर होता है। प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए वह उन विषयों को चुनता है जो समाज में चर्चित हैं। वही विषय कविता में छाये रहते हैं, जो प्रतियोगिताओं में अकसर छाए रहते हैं जैसे आजकल कन्या भ्रूण हत्या पर समाज में खूब चर्चा है तो अधिकांश कविता का विषय भी वही है। वह सामाजिक समस्या के प्रति भावुक रूझान को कैश करने के लिए चुनता है। इसीलिए आमतौर पर प्रतियोगिताओं में देश प्रेम की भावुकतापूर्ण कविताएं अधिक मिलती हैं। इन कविताओं में देश-प्रेम भी सीमा की रक्षा तक ही सीमित होता है, इसलिए देश-प्रेम के नाम पर मरने कटने और जान दे देने की ही बात की जाती है।
नवोदित रचनाकार समाज का जागरूक नागरिक और युवा बुद्धिजीवी भी है जो समाज की बदलती दिशा को देखता है। उसमें आ रही विकृतियों पर नजर रखता है और उससे सामाजिक संतुलन पर पड़ रहे प्रभाव को भी आलोचनात्मक ढंग से देखता है। जब वह दृष्टि डालता है तो उसे स्पष्ट नजर आता है कि पूंजीप्रधान समाज में बाजार मानवीय रिश्तों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित कर रहा है। रोजगार की तलाश में आबादियां इधर से उधर जा रही हैं। अपनी जड़ों से कटकर प्रवासी जीवन जीने पर विवश हैं। एक तरफ तो बूढे माता पिता अपने बुढापे का सहारा खो रहे हैं, दूसरी ओर बच्चों में वह संवेदना ही गायब हो रही है। धन एकत्रित करने में जीवन कहीं गायब हो गया है। डालर से ही उनका रिश्ता रह गया है। इसी से अपने समस्त कर्तव्यों की इतिश्री मान रहे हैं। आखिरकार धन तो जीवन जीने के लिए ही है, न कि जीवन धन एकत्रित करने के लिए। लेकिन वह हमारे जीवन को ही नियंत्रित कर रहा है। बाजार हमारे रिश्तों पर हावी हो रहा है। साधन ही जब साध्य बन जाए और जीवन की लय बिगाड़ दे तो युवा कवि इसे इन शब्दों में व्यक्त करेगा ही
मंडी से जो रिश्ते साधे
दुनिया को बाजार समझ
चले गए सब बरसों पहले
रिश्तों को बेकार समझ
अपने खून को खुद न देखे
ऐसी भी लाचारी क्या,
दौलत खटना ठीक है
लेकिन
दौलत बने लाचारी क्या। (बाजार और रिश्ते, पर्व वसिष्ठ, महाविद्यालय,) युवा कवि की आकांक्षाएं होती हैं, कुछ करने का जोश होता है, समाज को बेहतर बना देने की ललक और अति उत्साह होता है। इस मानसिकता से वह अपने आस पास पर नजर डालता है तो उसको बहुत कुछ अट पटा दिखाई देता है, जिसे वह दुरूस्त करना चाहता है। असल में यहीं से वह अपने को एक आधार प्रदान करता है। उसकी नजर कितनी तीखी और पैनी है इस पर उसकी कविताओं की सार्थकता निर्भर करती है। उसका मन हमेशा एक कांट-छांट में लगा रहता है कि वह क्या लिखे और क्या न लिखे। 'क्या लिखूं (क्या लिखूं, प्रीति शर्मा, महाविद्यालय,) की जद्दोजहद ही उसकी दिशा को तय करती है। क्या लिखूं की तलाश में जब वह रचना में उतरता है तो उसे समाज दिखाई देता है। वह अपने बाहर की दुनिया से जुड़ाव महसूस करता है वह अपने सीमित संसार से बाहर निकलता है। फिर उसे किसी की भूख भी नजर आती है और किसी की चीख भी सुनाई देती है। कविता उसके लिए समाज की अभिव्यक्ति का जरिया बन जाती है।
युवा कवि समाज के कमजोर व शोषित वर्गों की दुदर्शा के ऐतिहासिक कारणों को समझने के प्रयास में स्वयं भी संवेदनशील होता है और उसके साथ ही पाठक की संवेदना को झकझोरता है। पाठक के समक्ष संवेदना का एक ऐसा संसार प्रस्तुत करके वह उसकी चेतना पर जमी गर्द को झाडऩे में मदद करता है। बात सिर्फ कमजोर वर्गों के शोषण की नहीं है, बल्कि शोषण के प्रति उस नजरिये की है जो शोषित वर्ग ने भी अपनाया हुआ है। शोषण की प्रक्रिया एक तरफा नहीं है और न ही वह मात्र स्थूल रूप में मौजूद है। शोषण के सूक्ष्म पक्षों को व विभिन्न परतों को उद्घाटित करना उसे चुनौती पेश करने में कारगर हथियार बनता है। 'नारी संवेदना' में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि
हर युग के इस जीवन में
बदलती मेरी छाया रही।
पर फिर इस नए पड़ाव में भी
ये पुराने अन्धड़ सहती रही।
हर समाज के पहले पहलू में
मेरा महत्व गाया गया।
मेरे भाव-कणों के गुंजन को
फिर भी क्यों ठुकराया गया। (नारी संवेदना, रजनी देवी, महाविद्यालय, )
नारी जीवन संबंधी बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें नारी के विविध पक्षों को उदघाटित किया है। कहीं नारी अपनी 'पहचान' के लिए संघर्ष कर रही है। नारी की रूढ़ छवि उसे स्वीकार नहीं है। उसकी रूढ़ छवि में या तो पुरूष से रिश्तों के तौर पर उसकी पहचान है। मां, पत्नी, बेटी, बहन के घरेलू छवि के साथ ही वह जी रही है, इससे भी आगे बढ़कर कभी उसे मात्र एक मादा के रूप में ही देखा जाता है जो उसे किसी भी रूप में स्वीकार नहीं है। वह इन सबसे ऊपर अपनी मानवी छवि के लिए बेताब है और इसी को पाने में ही अपनी मुक्ति समझती है। मात्र लाचार और पुरूष पर आश्रिता व सुरक्षा की गुहार लगाती, दया की भीख मांगती अबला के रूप में नहीं, बल्कि एक मुकम्मल इन्सान के रूप में वह अपनी पहचान बनाना चाहती है। वह अपनी शक्ति को भी पहचान रही है।
अब तो
पहचानो
बहुत कुछ हूं मैं।
आप के अस्तित्व की
पहचान हूं मैं।
बस, नारी नहीं
बहुत कुछ हूं मैं
हां
बहुत कुछ हूं मैं।(पहचान, रूचि, महाविद्यालय, )
'क्या है एक लड़की का जीवन?' (साक्षी छपोला, महाविद्यालय, ), 'मैं मजबूर हूं (रूचिका, महाविद्यालय, ) ,'कन्या भ्रूण हत्या और भारतीय नारी की विवशता' (बबीता जांगड़ा, महाविद्यालय, ), 'कठपुतली' (सिम्पल दत्ता, महाविद्यालय, ), ' मैं नारी हूं' (अंजना, महाविद्यालय, ), 'लड़की के प्रश्न (प्रमिला, महाविद्यालय, ), 'बलि , (रूबी शर्मा, महाविद्यालय,) 'कब तक (आस्था भाटिया, महाविद्यालय, ) कविताएं स्त्री जीवन को बहुत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत करती हैं। समाज में कहीं मां न चाहते हुए भी अपनी बेटी का गर्भपात करवाने को विवश है। स्त्री का जीवन एक ढर्रे में बंधा है, जो किसी भी रूप में स्वीकार नहीं है। पितृसत्तात्मक विचारधारा विशेषकर स्त्री और संपूर्ण समाज के विकास में बाधक है। स्त्री को मानव गरिमा प्रदान करने का संघर्ष ही उसकी मुक्ति का रास्ता है, इसी संदर्भ से जुड़ी कविताएं एक विचार को स्थापित करती हैं। एक संतुलित विचार यहां है, जो स्त्री-स्वतंत्रता का अर्थ पुरूष-विरोध में नहीं मानता, बल्कि स्त्री व पुरूष समानता में ही समस्त समाज का विकास देखता है। समाज में असमानता की मार सबसे भंयकर है, यही मनुष्य के शोषण का कारण बनती है, इस बात को पहचानती व समानता स्थापित करने का विचार स्थापित करती कविताएं स्त्री मुक्ति भी समानता व बराबरी के अवसरों में देखती है।
'तलाश' है अपने यौवन की जो कि बेरोजगारी के भयावह मैदान में बरबाद होती जा रही है और पूंजीवादी शोषण की चक्की में बचपन पिसता ही जा रहा है, जिसमें जवानी नाम की चीज का कोई अहसास ही नहीं होता। अभावों भरे जीवन में व्यक्ति बचपन से सीधा बुढापे में ही कदम रखता है। और इस में अपने यौवन को तलाशता युवा रचनाकार असल में जीवन को तलाश रहा है।
मुझे तो
अपने यौवन की तलाश है
जो इन लोहे की बनी
मशीनों में,
धरा के गर्भ में,
खदानों में,
गगन चुम्बी मकानों में
घिस घिस कर
तिल तिल मर कर
कण कण टूटकर
बूंद बूंद बिखर कर
कहीं खो गया। (निशा दुआ, महाविद्यालय, )
युवा कवि जीवन में विपरीत परिस्थितियों को देखकर हार नहीं गया, बल्कि 'संघर्ष करने के लिए कमर कसे हुए है, उसके लिए 'जीवन नाम है संघर्ष का (किरण गुप्ता, महाविद्यालय, )। वह भाग्य के हाल पर स्वयं को छोड़ देने को तैयार नहीं है।
'साम्प्रदायिकता' (शिल्पी, महाविद्यालय,) हमारे समय का सबसे बड़ा नासूर है। ईश्वर के नाम पर अपने स्वार्थों की लड़ाई लडऩे वालों ने लोगों का जीना मुहाल किया है। युवा कवि इस बात की ओर तो संकेत करता है, लेकिन इसके पीछे छुपी स्वार्थों की राजनीति और षडयन्त्रों को नहीं देख पाता। वह सिर्फ उतना ही देख रहा है जितना कि सब को दिख रहा है। ईश्वर का नाम लेकर लोगों को लड़वाने वाले और साम्प्रदायिक दंगें करवाने वालों का ईश्वर और धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है। दिख रही सच्चाई के पीछे छिपी सच्चाई को उदघाटित करने का दायित्व रचनाकार का ही है।
युवा कवि जब कविता के क्षेत्र में कदम रखता है तो उसकी कविता से भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं, इसलिए वह 'कविता क्या है?' (ऋतु मोहन, महाविद्यालय,) और 'कवि और कविता (हेमलता बंसल, महाविद्यालय, ) जैसे विषयों पर भी कविता लिखता है। कविता को परिभाषित करते हुए वह काफी कुछ रोमानी हो जाता है। कविता को जीवन और संसार का विकल्प तक मानने की गलती कर बैठता है। परिवारों में आपसी प्रेम और स्नेह गायब होते जा रहे हैं। रिश्तों में एक अजीब किस्म का ठण्डापन भरता जा रहा है, जो जीवन्त समाज के लिए खतरे की घण्टी है।
रचनाओं का कला पक्ष उसके विषयवस्तु के साथ ही आकार ग्रहण करता है। नवोदित रचनाकारों की कविताओं में समाज की सच्चाईयों को सीधे सीधे व्यक्त करने की ललक होती है, वे स्थिति के विडम्बनात्मक पहलुओं को उसकी समग्रता में व्यक्त करने के लिए जिस तरह के शब्दों के चुनाव और रचनात्मक धैर्य की जरूरत है उसको साध नहीं पाते, इसलिए उनकी रचनाएं भी सपाट नजर आती हैं। नवोदित रचनाकार सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करके समाज को बेहतर बनाने की बेचैनी लिए है, इसलिए वह अपनी बात को कहने के लिए किसी प्रतीक या बिम्ब की रचना करने में अपना समय बरबाद करना समझता है और यहीं आकर उसकी कविता एक सामान्य बात बन जाती है। कविता का प्रभाव भी उतना ही हो जाता है, जितना कि सामान्य बात का।
जब वह संघर्ष की बात करता है तो उसके पास संघर्ष शब्द होता है और युवोचित संकल्प होता है, वह स्थिति ओझल हो जाती है, जिससे संघर्ष करना है। यथार्थ प्रस्तुत करने के आग्रह में अतिरंजना का प्रयोग न करना भी कविता के प्रभाव को समाप्त करता है। अतिरंजना का उचित प्रयोग जो सच्चाई को दबाए नही, बल्कि उसे उभार दे, यह रचना को रोचक भी बनाएगी और मारक भी। रचना में सामाजिक सच्चाई से बड़ी सच्चाई ही प्रभावशाली होती है और रचनात्मक सच्चाई की रचना के लिए यथार्थ को जस का तस प्रस्तुत करने की बजाए उससे छेड़छाड़ करना उसमें जोडऩा-घटाना, कई सच्चाइयों को एक सूत्र में पिरो देना, कई अनुभवों को एक अनुभव में समा देने के लिए जो रचनात्मक पीड़ा से गुजरना पड़ता है उसको सहन करके ही प्रभावी रचना सामने आती है। समाज में घटित सच्चाइयों को शब्दबद्ध करने मात्र से प्रभावशाली कविता नहीं बनती। समाज के यथार्थ और रचना के यथार्थ के भेद को समझना रचनाकार के लिए जरूरी है।
नवोदित रचनाकारों के लिए अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने के लिए व्यंग्य भी महत्त्वपूर्ण ढंग है। सच्चाई के साथ मिलकर व्यंग्य चमत्कारिक प्रभाव पैदा करने की क्षमता रखता है। व्यंग्य पाठक या श्रोता की एकरसता या लय को तोडऩे के लिए उसको चिकोटी काटने का काम करता है। युवा मन पर जो अध्ययन संस्कार होता है उसकी झलक भी उनकी कविताओं से मिलती है। आज समाज में हास्य कविता या व्यंग्य नजर आता है। इसलिए गुदगुदाने वाली बातों को कविता की शक्ल देने का प्रयास रहता है।
चिन्ता की बात है कि युवा कवि अपने समाज में उसके आस पास या उसके स्वयं के साथ घट रही बात को कविता में नहीं उतार रहा। या तो कविता बिल्कुल ही निजी अनुभव को व्यक्त करने लगती है या फिर वह पूर्णत: कल्पित या किताबी विचार हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में कविता को खामियाजा भुगतना पड़ता है। कविता न तो व्यक्तिगत अनुभव मात्र है और न ही उससे दूर कोई नीरस स्टेटमेंट। कविता कहीं इनमें ही मौजूद है। अपने अनुभव को विचार पर कसना और विचार को अपने और बृहतर अनुभव के साथ देखना। जीवन और अपने समाज से विषय न लेकर कहीं ओर से विषय उठाने शुरू कर दे तो उनमें कोई ताजगी नहीं होती। जब वह प्रकृति की बात करता है तो ऐसी जिसका उसका कोई अनुभव नहीं है और वह वर्णन बिल्कुल बासी लगने लगता है। चांद, सितारे, बादल, बारिस व घटाओं के ऐसे फिल्मी चित्र वह खींचता है जो उसके अनुभव के अंश नहीं हैं।
कोई भी रचनाकार अपने अनुभव को विचार की कसौटी पर कसकर उसमें छुपी विडम्वना को उजागर करने के लिए उपयुक्त शब्द, बिम्ब, प्रतीकों का प्रयोग करके ही प्रभावी अभिव्यक्ति कर सकता है। लगातार के अध्ययन और अभ्यास से यह कला आती है। न तो पूरी तरह किताबी तोता बनकर वह रचनाकार का दायित्व निभा सकता है और न ही अपनी साहित्य परम्परा से अलग थलग होकर। यदि रचनाकार के लिए कविता का कोई सामाजिक दायित्व व महत्व है तो समाज को समझना, उसमें हो रहे परिवर्तनों की दिशा को पहचानने की जिम्मेदारी उसपर आ जाती है और उसे एक समाजशास्त्री की नजर विकसित करनी होगी और समाज को दिशा देने के लिए उसे एक दार्शनिक की सी दृष्टि विकसित करनी होगी। समाजशास्त्री और दार्शनिक का तत्त्व ग्रहण करके वह कलाकार के सौन्दर्य के साथ उसे व्यक्त करना होगा। रचनाकार को प्रेमचन्द की बात याद रखने की जरूरत है कि वह मात्र समाज की सच्चाई का चितेरा नहीं हैं, बल्कि उसे दिशा देने वाला होता है।
मानवीय अभिव्यक्ति के लिए मौलिक जमीन तलाशती कविताएं
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
हरियाणा साहित्य अकादमी ने कालेजों के छात्र-छात्राओं यानी युवाओं की साहित्यिक प्रतिभा को प्रोत्साहित करने के लिए कविता प्रतियोगिता का आयोजन करके सराहनीय कार्य किया है। इस रचनात्मक प्रयास से सिर्फ पुरस्कार के रूप में ही प्रोत्साहन नहीं मिलेगा, बल्कि नवोदित लेखकों की रचनाएं प्रकाशित करना और उन पर बातचीत करवाना और भी महत्त्वपूर्ण है। रचनाएं छपना किसी भी रचनाकार के लिए सुखद अनुभव होता है, लेकिन पहले-पहल छपना तो रोमांचकारी होता है। प्रस्तुत कविताएं लगभग 190 कविताओं में से ये रचनाएं चुनी गई हैं, कविताओं की विषयवस्तु व रचनाकौशल इनके चयन के आधार हैं। उल्लेखनीय बात है कि इन रचनाओं में नवोदित रचनाकार का सा भोलापन तो स्वाभाविक है लेकिन प्रौढ़ रचनाकार सा गाम्भीर्य भी है जो इन रचनाकारों को शौकिया व नवोदित लेखन की श्रेणी से गम्भीर रचनाकर्म का दायित्व संभालने का आधार तैयार करता है। यह कहते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है कि इन कविताओं में विषयों की बहुलता-विविधता है। युवा के स्वभावानुकूल देश-भक्ति की कविताएं भी हैं, समस्याओं-संकटों से घिरे समाज का चित्रण भी है, प्रेम की कविताएं भी हैं, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता जैसी राजनीतिक समस्याएं भी कविताओं का विषय हैं तो नारी की स्थिति को व्यक्त करती कविताएं भी हैं। समस्या का सतही प्रस्तुतिकरण है तो समस्या की तह में जाने की जद्दोजहद भी है। इन कविताओं से यह तसल्ली तो होती है कि कविता के माध्यम से व्यक्त करने का कौशल अर्जित करने का संघर्ष है। आमतौर पर स्कूलों-कालेजों के विद्यार्थी अपने शिक्षकों के प्रोत्साहन से, अतिरिक्त दबाव से या फिर प्रतियोगिता में भाग लेने की इच्छा से रचना करते हैं। आमतौर पर प्रतियोगिताओं की प्रक्रिया इतनी नीरस व एक तरफा होती है कि ये युवाओं को चिरकाल के रचना से जोड़ नहीं पाती और प्रतिभाएं विकसित होने से पहले ही समाप्त हो जाती हैं। शिक्षण संस्थाएं या समाज में अपने शौक से कविता के जरिये अपनी भावनाओं व विचारों को व्यक्त करने वाले नवांकुरित कवियों को विश्वसनीय पाठक-श्रोता नहीं मिल पाते, बल्कि कई बार तो तो अपने इस रचनात्मक प्रयास के कारण वे मजाक के पात्र भी बन जाते हैं। परिणामस्वरूप या तो वे अपनी रचनाओं को किसी को सुनाते दिखाते नहीं या फिर महत्वहीन व अनुपयोगी मानकर कूड़ेदान को सुपुर्द कर देते हैं और भावी रचनाकार की भू्रण-हत्या हो जाती है।
रचनाकार जब कविता में प्रवेश करता है, तो उसके कविता से कुछ अपेक्षाएं होती हैं, कुछ आदर्श होते हैं, कुछ संकल्प होते हैं और कुछ अभिव्यक्ति की तड़प होती है। आमतौर पर रचनाकार अपने आदर्शोंं-संकल्पों को कविता की विषयवस्तु बनाते हैं। इस दौरान वे अपने रचना-माध्यम की यानी कविता की शक्ति भी परख रहे होते हैं और अपने संकल्पों को भी दुहरा रहे होते हैं और कविता के जरिये सार्वजनिक कर रहे होते हैं। 'मैं कविता लिखूंगी , 'क्या लिखूं ?', 'तुम मुझे शब्द दो', 'कविता' कविताओं में व्यक्त संकल्पों से कविता से अपेक्षा को समझा जा सकता है। ये कविताएं आज के दौर के युवा कवियों के रचना-संकल्प का प्रतिनिधित्व करती हैं। 'मैं कविता लिखूंगी' कविता में आशावाद है, लेकिन कटु यथार्थ से भी मुंह नहीं मोड़ा गया। कविता यहां सिर्फ अपने निजी उद्गारों को व्यक्त करने का जरिया मात्र नहीं रहती, न ही आत्मकेन्द्रित रहती है। यहां अपने बच्चों के लिए खटती संघर्ष करती मां भी है और सड़क पर भटकते बच्चों के सपने भी हैं।
मैं कविता लिखूंगी
उस मां पर
जो मर जाने तक
मरती रहती है
अपने बच्चों की खुशी के लिए
मैं कविता लिखंूगी
उन शब्दों पर
जो किसी हृदयहीन में भी
तडप जगाते हैं
मैं कविता लिखूंगी
उन बच्चों पर
जिनके सपने
सड़कों पर भटकते
भूख की आग में भस्म हो जाते है
'तुम मुझे शब्द दो' का कवि जब गूंगे समाज की आवाज, गरीबों की पुकार, क्रंतिकारियों का जीवन, गरीब भोले किसान व खेतीहर मजदूर की पसीने की बूंद, गरीबों के स्वप्न को रौंदती अवसरवादी' राजनीति, धर्मोन्माद की शिकार जनता के अंधिवश्वास व धर्म के ठेकेदारों के हाथों लूटती अस्मिता को व्यक्त करने के लिए शब्द मांगता है तो उसके संकल्प से आश्वस्ति जरूर मिलती है। सही है कि अपने समाज से जुड़े बिना कोई रचनाकार बड़ा नहीं हो सकता। समस्याओं और संकटों से जूझ रहे समाज के मुख्य अन्तर्विरोधों को पहचानना, सामाजिक शक्तियों की टकराहट को समझना और उनको व्यक्त करके ही रचनाकार अपनी कविता के औजारों को नित नए कर सकता है और इसी संघर्ष में उसका लेखन निखरता है। अपने सामाजिक सरोकारों की जमीन तलाशता युवा रचनाकार एक आशावाद लिए हुए है। रचनाकार का आशावाद साहित्य व समाज की पूंजी होती है। उसके मन में भविष्य के प्रति आशावादी दृष्टिकोण होता है, उनका आशावाद बेहतर समाज के निर्माण में विश्वास पैदा करता है, इसीलिए प्रेमचन्द ने एक युवा लेखक को पत्र लिखा कि ''एक युवा लेखक को आशावादी मन:स्थिति में रचनाएं करनी चाहिएं। उसका यह आशावाद संक्रामक होना चाहिए। उसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि वह उसी तरह की भावनाएं दूसरों में भी उत्पन्न कर सके। मेरे विचार से साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य है पाठक को ऊपर उठाना या उच्चतर भावभूमि पर ले जाना। हमारे यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी इस तथ्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं चाहूंगा कि तुम ऐसे चरित्रों का निर्माण करो जो ईमानदार, बहादुर और स्वतंत्रचेता हों, जो नई दिशाओं में साहस करके चलने वाले और ऊंचे आदर्श वाले हों। वक्त का यही तकाज़ा है।" (उत्तरगाथा ;त्रैमासिक, मथुरा पृ. 26,)
संवेदनशील स्वभाव व मानवीय दृष्टि किसी युवा को कविता की ओर खींचती है। वह अपने आस पास की अमानवीय घटनाओं, स्थितियों को देखता है और उनको बदलने का प्रयास करता है और इसी प्रयास में कवि-हृदय व कविता का अंकुर फूटता है। कविता ने समाज की दुख-पीड़ा को हमेशा ही अपने में समेटा है। उल्लेखनीय है कि इन कवियों ने समस्याओं से जूझ रहे अपने समाज को अपनी कविताओं का विषय बनाया है। गरीबी-बेरोजगारी वर्तमान समाज के अभिशाप हैं, जिनके कारण मनुष्य को गैर इन्सानी परिस्थितियों में रहना पड़ता है और गैर-मानवीय समझौते करने पड़ते हैं। निश्चित रूप से इन स्थितियों को समाप्त करके ही सुसंस्कृत व मानवीय समाज बनाया जा सकता है। इन रचनाओं में समस्याओं की ओर ध्यान तो दिलाया ही गया है। इनके लिए जिम्मेवार सामाजिक-व्यवस्था के चरित्र को भी उदघाटित किया है। 'पेट की आग', 'कोसी के कहर की करूण कहानी', 'विषमता', 'सुबह समाचार पत्र के समय', 'गरीबी-एक समस्या', 'मिट्टी', बालश्रम' कविताएं समाज के वंचित-शोषित वर्गों की दशा का बहुत ही मार्मिक वर्णन करती हैं। कविताओं की विशेष बात यह है कि इनमें 'मैं और मैं' की कविताएं नहीं, बल्कि अपने बाहर निकलकर समाज को देखा गया है और कविता के सामाजिक सरोकारों का संकल्प यहां हैं। स्थितियों व संकटों से जूझते लोगों के संघर्ष कथा इन कविताओं में है। तसल्ली देने वाली बात यह है कि यहां समस्याओं से ग्रस्त, असहाय व लाचार लोगों के भावुक चित्र नहीं हैं, बल्कि अपनी जीवन की बेहतरी के लिए संघर्ष करते जीवट वाले लोगों के चित्र हैं, चाहे 'कोसी के कहर' सी प्राकृतिक विपदा के सताए हुए लोग हो या फिर 'पेट की आग' को बुझाने के लिए कड़ा संघर्ष करती स्त्री हो।
आज के साहित्यिक व दार्शनिक बहस में सर्वाधिक चर्चित विषय है - स्त्री। स्त्री की नजर से आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक ताने-बाने को विश्लेषित किया जा रहा है। परम्परा की भेदभावपरक मूल्य-व्यवस्था की आलोचना करते हुए समतामूलक नैतिक-बोध को विश्वदृष्टि का हिस्सा बनाने का प्रयास हो रहा है। स्त्री के बारे में बहुत सी कविताएं हैं। स्त्री की मेहनत को रेखांकित करती 'स्त्री' कविता विभिन्न रूपों में उसकी भूमिका को प्रस्तुत करती है तो 'औरत' कविता स्त्री के संघर्षों को ऐतिहासिक व पौराणिक स्त्री चरित्रों से इतिहास व परम्परा में स्त्री-विरोधी मानसिकता को उद्घाटित करते हुए उसकी शक्ति व योगदान को रेखांकित करती है। मनुष्य के जीवन में मां की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, न केवल जन्म देने में, बल्कि उसको संसार में जीने लायक बनाने में भी। मां कविताओं का विषय बनती रही है। मां यहां एक स्त्री के तौर पर भी है और मां के तौर पर भी। स्त्री के रूप में जो संघर्ष उसको करना पड़ता है तथा एक मां के तौर पर जो संघर्ष उसे करना पड़ता है बखूबी व्यक्त किया है। 'मां', 'मां की नींद' कविता विशेषतौर पर उल्लेखनीय है। 'मां की नींद' कविता बहुत रोचक ढंग से एक स्त्री का संघर्ष व्यक्त करती है।
मैं किताबों में भी देख लेती हूं उसे
वह चलती रहती है 'अक्षर' बनकर
किताबों से बड़ी हो गई है मां
सावधान कराती रहती है मुझे हर रोज
जैसे हर सुबह उसने बैठना है
'इम्तहान' में
उसे ही हल कराने हैं तमाम सवाल
मेरे आने वाले भविष्य के बारे में
मुझसे बेहतर जानती है मां।
लिंगानुपात में असंतुलन आज एक सामाजिक समस्या के तौर पर सामने है। जिसे लेकर काफी चिन्ता भी व्यक्त की जा रही है। सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर इसके प्रति जागरूक भी किया जा रहा है, लेकिन यह भी सही है कि आम तौर पर समस्या को सिर्फ कन्या-भ्रूण हत्या तक ही सीमित कर दिया जाता है और एक पुरूष के लिए स्त्री की जरूरत के तौर पर ही कन्या-भ्रूण हत्या समस्या दिखाई देती है, स्त्री को संपूर्ण मानव इकाई के तौर पर स्थापित करने का विचार पीछे छूट जाता है। स्त्री-समस्या के पीछे मौजूद सामंती व पितृसत्तात्मक सोच पर कोई प्रहार नहीं होता। कन्या-भ्रूण हत्या को केन्द्रित करके 'बेटी की पुकार', 'बेटियां', 'एक अजन्मी बेटी की मां से पुकार', 'कन्या भ्रूण हत्या', 'मादा भ्रूण की पुकार' कविताएं लिखी हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर लिखी गई कविताएं समाज की कन्या शिशु के प्रति अमानवीयता को तो दर्शाती है। लेकिन यह असल में स्त्री-समस्या को सम्पूर्णता में नहीं देख पाती। पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाये बिना कन्या भ्रूण-हत्या को समस्त परिस्थितियों से काटकर अलग से प्रस्तुत करने से समझ में इजाफा नहीं करता, बल्कि वह भावुक अपील मात्र बनकर रह जाती है। दरअसल कन्या-भ्रूण हत्या किसी समस्या का कारण नहीं है, बल्कि वह किन्हीं और समस्याओं का नतीजा है। स्थिति या विचार के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने के लिए दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत विषय का एकांगी ट्रीटमेंट इन कविताओं की मुख्य सीमा है। आतंकवाद हो या साम्प्रदायिकता या फिर शहीदों के प्रति सोच ही क्यों न हो। विषयों को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करना, उसके विभिन्न पहलुओं व स्तरों की अभिव्यक्ति ही कविता की विश्वसनीयता पैदा करती है और पाठक की चेतना का विस्तार करती है। दृष्टि अलग से कोई चीज नहीं है, बल्कि चीजों के प्रति हमारा रवैया ही तो है यानी हमारा जीवन विवेक। यह जीवन-विवेक ही दरअसल कविता-विवेक होता है। इसी से ही लेखक विषयवस्तु का चयन करता है, अनुभवों को एक तरतीब देने का काम भी इसी से संपन्न होता है। दृष्टि-विकास के संघर्ष में ही रचनाकार पिछड़े, दकियानूसी विचारों का त्याग करता है और प्रगतिशील मूल्यों को धारण करता है। सामाजिक शक्तियों की पहचान भी इसी से होती है और शासक-शोषक वर्गों का उत्पीडऩ-अत्याचार भी दृष्टि विकास की प्रक्रिया में ही स्पष्ट होता है। लेखकों के लिए और विशेषकर नव लेखकों के लिए दृष्टि का विकास करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। दृष्टि के निरन्तर विकास के अभाव में लेखक अपने को दोहराने लगता है और नव लेखक में एकांगिता रह सकती है। विश्वदृष्टि जितनी परिपक्व होगी उसकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रभावशाली होगी।
आतंकवाद से न केवल भारत बल्कि पूरा विश्व त्रस्त है और विडम्बना यह है कि यह धर्म के लबादे में आकर अपनी वैधता ठहराता है। तालिबानी आतंक हो या हिन्दू कट्टरतावादी सभी तो धार्मिक शब्दावली और धार्मिक चिन्हों का सहारा लेकर अपने वास्तविक मंतव्यों को छुपा लेते हैं। आतंकवाद की जड़ किसी धर्म विशेष में नहीं है, बल्कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक कारणों है। आतंकवाद मात्र कानून और व्यवस्था का प्रश्न भी नही है, मानव-मूल्यों व संस्कृति को अपदस्थ करने योजना का हिस्सा है, इसीलिए आतंकवाद से संघर्ष मानवीय दृष्टिकोण विकसित करने के संघर्ष का हिस्सा है। साम्प्रदायिकता और आतंकवाद जहां मनुष्य को संवेदनहीन, बर्बर, क्रूर व हिंसक बनाती हैं, वहीं कविता काम पहला काम मनुष्य को संवेदनशील बनाना है। आतंकवाद पर चुटकी लेकर धर्म विशेष के लोगों के प्रति नफरत पफैलाने व उनके खिलाफ उन्माद पैदा करने में भी कुछ कवि अपनी प्रतिभा का दुरूपयोग करते हैं। मानवीय दृष्टि के विकास के दौरान ही ऐसी विभ्रम पैदा करने वाले विचारों की सच्चाई को समझा जा सकता है। 'आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता', 'असर', 'किसके लिए लड़ें' कविताओं में इस पर गम्भीरता से विचार किया है। धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक पक्षों को मानवीय दृष्टि से उठाया है। धर्म के नाम पर लडऩे वालों के आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थों को उद्घाटित करने की कोशिश की है। धर्म के चिह्नों पर नफरत व हिंसा फैलाने वालों के इरादों को भी बताया है।
दीपावली की खुशियां ये
विस्फोट कर मनाते हैं।
ईद के पावन पर्व पर
कई मासूमों का लहू बहाते हैं।
न बच्चों की परवाह,
न बुजुर्गों पर तरस दिखाते हैं।
न अपनों, न परायों को,
मारने में हिचकिचाते हैं।
कई मासूम चीखों से भी
हृदय इनका नर्म नहीं होता,
न हिन्दू, न मुस्लिम ये,
इन आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।
साम्प्रदायिक हिंसा कभी धर्म के नाम पर तो कभी राष्ट-भक्ति के नाम पर लोगों में फूट व नफरत पैदा करती है। धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक शक्तियां समाज में पूफट डालकर देश की एकता-अखंडता, भाईचारे को समाप्त करके धर्म की शिक्षाओं के विपरीत तथा देश के हितों के विपरीत कार्य करती है। कवि की भेदक दृष्टि से धर्म और देश-भक्ति की भावुक शब्दावली के पीछे छुपे संकीर्ण राजनीतिक मकसद ओझल नहीं हो सकते। वतन का मतलब वतन के लोग ही तो होते हैं, लोगों के बिना किसी वतन की कल्पना नहीं की जा सकती। वतन के लोगों को धर्म, जाति, क्षेत्रीय, भाषायी, नस्ली संकीर्णताओं के आधर पर फूट डालने से वतन कभी मजबूत नहीं होता।
चांद तारों से बड़ा अपना गगन होता है।
मजहब धर्मों से बड़ा अपना वतन होता है।।
होके बेदर्द ये लाशों के कफन मत बेचो।
फूल खिलने दो अमन के चमन मत बेचो।।
प्रकृति प्रारम्भ से ही कविताओं का प्रिय विषय रहा है। प्रकृति के अनेक रूपों से मनुष्य का सामना होता है, बहुत ही रोमांसकारी भी व विनाशकारी भी। कवियों ने प्रकृति के विभिन्न रूपों को कविताओं में अभिव्यक्त किया है। मध्यकाल के कवियों में यह बारहमासा के वर्णन करने में देखने में आया तो आधुनिक काल के कवियों में इसके रूमानी रूप में। मौजूदा जीवन प्रकृति से दूर होता जा रहा है। पेड़-पौधों को, घास-पात व पक्षियों आदि को जानने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है, वह कम ही दिखाई देती है। गौर करने की बात है कि प्रकृति के प्रति अब सोच में परिवर्तन है। सामाजिक-व्यवस्था की विकृतियों ने प्रकृति के समक्ष संकट पैदा करके मानव अस्तित्व के समक्ष संकट खड़ा कर दिया है। प्रकृति के सौन्दर्य पक्ष की बजाए पर्यावरण की स्वच्छता-शुद्धता की नजर से प्रकृति को देखा जा रहा है। इन कविताओं में प्रकृति के इसी पक्ष पर जोर दिया गया है। 'पर्यावरण भगवान का दूसरा नामÓ कविता को देखा जा सकता है। पूरा जोर पर्यावरण के उन्हीं रूपों का है, जिनकी अक्सर भाषणों में या फिर आयोजनों में चर्चा होती है। कवि की पैनी नजर प्रचलित बहस में कुछ नया आयाम जोडऩे में सक्षम हो तभी वह कुछ नया दे पाती है और ध्यान आर्कषित कर पाती है। प्रचलित बहस को ही कविता में ढाल देना महत्त्वपूर्ण तो है पर नाकाफी है। असल में विषयों को चुनने व प्रस्तुतिकरण में प्रचार-तंत्र का काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। यहीं से अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों व प्रचार किस तरह से न केवल हमारे समक्ष अपना एजेंडा प्रस्तुत करता है, बल्कि हमारी सोच को भी किसी विशेष बिन्दु पर केन्द्रित करके नियंत्रित करता है। हमें वही महत्त्वपूर्ण लगता है जो प्रचारित किया जा रहा होता है और उसकी ओट में आस-पास पड़ी महत्त्वपूर्ण चीजें ओझल हो जाती हैं।
'मेरी पुस्तक कविता' पुस्तक के महत्व को रेखांकित करती हुई गुम हो रही पुस्तक-संस्कृति की ओर संकेत करती है, तो 'उबलते सवाल' रिश्तों में आ रहे तनाव की ओर संकेत करती है और जीवन में आ रही विसंगतियों की ओर भी इशारा करती है। 'झूठ का पुलिंदा' कविता झूठ की बुनियाद पर टिके मौजूदा पूंजीवादी समाज में झूठ की संस्कृति को पनपने में बढ़ावा देती है। है। 'मानव का नंगा नाच' कविता इन्सानियत के समक्ष उत्पन्न संकट की और संकेत करती है। 'पैसा' कविता पूंजी प्रधान समाज में पनप रहे मूल्यों के आधार को उद्घाटित करती है
देखो यारो पैसों का कमाल
इसने बदल दी दुनिया की चाल
भिखारी से लेकर अधिकारी तक सब पैसों के हैं गुलाम
पैसों के बिना किसी को भी नहीं है आराम
'उबलते सवाल', 'झूठ का पुलिंदा', 'मानव का नंगा नाच', 'पैसा' कविताएं मौजूदा सामाजिक ढांचे को समझने में मदद करती हैं। पूंजीवादी समाज की चिल्ल-पों व आपाधापी से दूर 'सुकुन' प्राप्त करने के लिए कवि इससे दूर जाना चाहता है, लेकिन संसार से दूर जाकर किसी तरह की शांति नहीं मिल सकती। दुनिया से पलायन वास्तविक रास्ता नहीं है, बल्कि दुनिया को इस लायक बनाना कि मनुष्य अपनी मानवीय गरिमा के साथ जी सके, ऐसी परिस्थितियों के लिए संघर्ष चेतना तैयार करना ही साहित्यकार का दायित्व है, जो इन कविताओं में किसी न किसी रूप में मौजूद है। 'मेरी कविता उसकी पहचान' में कविता जीवन का विकल्प नहीं हो सकती, बल्कि जीवन को बेहतर बनाने व व्याख्यायित करने का संकल्प है। 'अपने आंगन में कैद हुए' व्यक्ति को विस्तार प्रदान करने और अभावों के बावजूद जीवन में आस्था को पुख्ता करती है।
बाल कविताएं लिखना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। अभी तक होली-दिवाली, खेल-खिलौनों पर आधारित बाल कविताओं का ही बोल बाला है। समय के साथ न केवल होली-दिवाली के त्यौहारों के स्वरूप बदले हैं, बल्कि बच्चों की रूचियों में भी बहुत अन्तर आया है, लेकिन साहित्य में विशेषकर कविताओं में इनको अभिव्यक्त करने की चुनौती अभी बनी हुई है। बच्चों द्वारा लिखी कविताओं में तो भाषा के स्तर पर भी व विषयवस्तु के तौर पर बदलाव देखा जा सकता है, लेकिन बच्चों के लिए लिखी गई कविताएं अभी पुराने उपदेशवादी-नैतिकतावादी कोरस पर ही कवायद कर रही हैं, जो बच्चों को बहुत आर्कषित नहीं कर रहा। यहां 'कलयुगी पंडित हंसपाल' महत्वपूर्ण कविता का जिक्र विशेषतौर पर किया जा सकता है, जिसमें चित्र खींचा गया है और बाल सुलभ ज्ञान के स्तर को देखते हुए ही कविता में नाटकीयता और तनाव पैदा किया गया है। आख्यानपरकता, नाटकीयता, व्यंग्य व तनाव ने कथ्य को संप्रेष्य व रोचक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक थे पंडित हंसपाल,
सब कहते थे हंसलाल।
चलते थे दुलकी चाल,
'बचपन की यादें', और 'स्वादां का चस्का' हरियाणवी बोली में दो कविताएं यहां हैं। इन कविताओं में बचपन की याद के बहाने से पूरा लोकजीवन उदघाटित हो जाता है
मां पै चून ले रोटी बणाणा, मामा कै जाण की जिद लगाणा,
तफरीयां पाछे स्कूल मैं जाणा, बेबे धौरे स्कूल का काम कराणा,
बाबू धौरे चीज मंगाणा, दादा के सहारे बैठ कै खाणा,
मेरा ढ़ब्बी लत्ते कई ले आया, मेरी बुरसट नई सिमाइयो।
'स्वादां का चस्का' में लोकजीवन की विसंगतियां भी सामने आ जाती हैं।
बालकां का मामा कै जाण का, गुड़ गैल रोटी खाण का,
गाल मैं सौ का नोट पाण का,
बिना न्यौते जीमण का न्यारा ए स्वाद सै।
लोकजीवन को व्यक्त करते हुए आम तौर पर जो बात देखने में आई है वह है लोकजीवन के हर पक्ष को महिमामंडित करने और उसे सहेज कर रखने की मानसिकता, जो अन्तत: अतीत मोह और रूढि़वाद में तब्दील होती है। लोक की हर बात आदर्श लगती है यही मानसिकता वहां के जीवन को आलोचनात्मक ढंग से देखने में बाधक भी बनती है। लोकजीवन को अभिव्यक्ति देने वाले रचनाकार अक्सर ही लोकवाद के शिकार होते हैं, जो है उससे इतर उन्हें कुछ अच्छा दिखाई नहीं देता और कवि जिस वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण का पक्षधर होता है उससे वंचित होने का खतरा हमेशा बना रहता है।
किसी भी साहित्यिक रचना का शिल्प उसके कथ्य के साथ ही अस्तित्व में आता है, अलग से नहीं होता। जिस तरह से इन रचनाओं की अभिव्यक्ति निहायत स्पष्ट है और सहज है उसी तरह इनका शिल्प भी सहज है। साफ व सीधी बात कहने के लिए कविता का शिल्प भी साफ व सीधा ही चाहिए। प्रतीकों की और भारी-भरकम बिम्बों की यहां गुंजाइश भी नहीं है और कवियों ने उनको महत्त्व भी नहीं दिया है। यहां कविता की कारीगरी नहीं है, बल्कि अपने भावों-विचारों की अभिव्यक्ति पर जोर है।
कवियों के लिए आमतौर पर नवोदित कवियों के लिए विशेषतौर पर मुक्तिबोध ने कविता के तीन क्षणों की जो चर्चा की है उस पर ध्यान देना निहायत आवश्यक है। नव रचनाकारों को पूरी साहित्यिक विरासत से जुडऩे की जरूरत है। अपनी विरासत को आत्मसात करके ही कोई रचनाकार कुछ नया दे सकता है। एक अच्छे लेखक के लिए एक अच्छा पाठक होना पहली शर्त है। विश्व की महान रचनाओं को पढऩा और उनमें मौजूद अन्तर्विरोधों को समझना निहायत जरूरी है। अपनी विरासत को आत्मसात करते हुए तथा वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकार करके ही रचनाकार अपने पाठक की जानकारियों, ज्ञान व मनोरंजन में वृद्धि कर सकता है। संघर्षशीलता जीवन के लिए अनिवार्य है, चाहे प्रकृति हो या समाज उसमें वह निरन्तर जारी रहता है .
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जब कोई युवा कविता के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो उसके मन में कुछ जोश होता है और कुछ करने की लगन उसके मन में अवश्य होती है, उसके मन में कुछ सपने होते हैं, उसके ये भाव ही कविता का रूप धारण करते हैं। इस स्थिति में कई बार कविता सच्चाई से दूर हटकर मन की ही अभिव्यक्ति बन जाती है। उसके मन में उठने वाले ये भाव ही उसके भावी कवि की नींव का काम करती है।
एक बात गौर करने की यह भी है कि जब कोई युवा अपना शौक पूरा करने के लिए या कुछ विशेष मकसद के लिए कविता लिखता है और जब वह प्रतियोगिता में भाग लेता है उस में अन्तर होता है। प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए वह उन विषयों को चुनता है जो समाज में चर्चित हैं। वही विषय कविता में छाये रहते हैं, जो प्रतियोगिताओं में अकसर छाए रहते हैं जैसे आजकल कन्या भ्रूण हत्या पर समाज में खूब चर्चा है तो अधिकांश कविता का विषय भी वही है। वह सामाजिक समस्या के प्रति भावुक रूझान को कैश करने के लिए चुनता है। इसीलिए आमतौर पर प्रतियोगिताओं में देश प्रेम की भावुकतापूर्ण कविताएं अधिक मिलती हैं। इन कविताओं में देश-प्रेम भी सीमा की रक्षा तक ही सीमित होता है, इसलिए देश-प्रेम के नाम पर मरने कटने और जान दे देने की ही बात की जाती है।
नवोदित रचनाकार समाज का जागरूक नागरिक और युवा बुद्धिजीवी भी है जो समाज की बदलती दिशा को देखता है। उसमें आ रही विकृतियों पर नजर रखता है और उससे सामाजिक संतुलन पर पड़ रहे प्रभाव को भी आलोचनात्मक ढंग से देखता है। जब वह दृष्टि डालता है तो उसे स्पष्ट नजर आता है कि पूंजीप्रधान समाज में बाजार मानवीय रिश्तों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित कर रहा है। रोजगार की तलाश में आबादियां इधर से उधर जा रही हैं। अपनी जड़ों से कटकर प्रवासी जीवन जीने पर विवश हैं। एक तरफ तो बूढे माता पिता अपने बुढापे का सहारा खो रहे हैं, दूसरी ओर बच्चों में वह संवेदना ही गायब हो रही है। धन एकत्रित करने में जीवन कहीं गायब हो गया है। डालर से ही उनका रिश्ता रह गया है। इसी से अपने समस्त कर्तव्यों की इतिश्री मान रहे हैं। आखिरकार धन तो जीवन जीने के लिए ही है, न कि जीवन धन एकत्रित करने के लिए। लेकिन वह हमारे जीवन को ही नियंत्रित कर रहा है। बाजार हमारे रिश्तों पर हावी हो रहा है। साधन ही जब साध्य बन जाए और जीवन की लय बिगाड़ दे तो युवा कवि इसे इन शब्दों में व्यक्त करेगा ही
मंडी से जो रिश्ते साधे
दुनिया को बाजार समझ
चले गए सब बरसों पहले
रिश्तों को बेकार समझ
अपने खून को खुद न देखे
ऐसी भी लाचारी क्या,
दौलत खटना ठीक है
लेकिन
दौलत बने लाचारी क्या। (बाजार और रिश्ते, पर्व वसिष्ठ, महाविद्यालय,) युवा कवि की आकांक्षाएं होती हैं, कुछ करने का जोश होता है, समाज को बेहतर बना देने की ललक और अति उत्साह होता है। इस मानसिकता से वह अपने आस पास पर नजर डालता है तो उसको बहुत कुछ अट पटा दिखाई देता है, जिसे वह दुरूस्त करना चाहता है। असल में यहीं से वह अपने को एक आधार प्रदान करता है। उसकी नजर कितनी तीखी और पैनी है इस पर उसकी कविताओं की सार्थकता निर्भर करती है। उसका मन हमेशा एक कांट-छांट में लगा रहता है कि वह क्या लिखे और क्या न लिखे। 'क्या लिखूं (क्या लिखूं, प्रीति शर्मा, महाविद्यालय,) की जद्दोजहद ही उसकी दिशा को तय करती है। क्या लिखूं की तलाश में जब वह रचना में उतरता है तो उसे समाज दिखाई देता है। वह अपने बाहर की दुनिया से जुड़ाव महसूस करता है वह अपने सीमित संसार से बाहर निकलता है। फिर उसे किसी की भूख भी नजर आती है और किसी की चीख भी सुनाई देती है। कविता उसके लिए समाज की अभिव्यक्ति का जरिया बन जाती है।
युवा कवि समाज के कमजोर व शोषित वर्गों की दुदर्शा के ऐतिहासिक कारणों को समझने के प्रयास में स्वयं भी संवेदनशील होता है और उसके साथ ही पाठक की संवेदना को झकझोरता है। पाठक के समक्ष संवेदना का एक ऐसा संसार प्रस्तुत करके वह उसकी चेतना पर जमी गर्द को झाडऩे में मदद करता है। बात सिर्फ कमजोर वर्गों के शोषण की नहीं है, बल्कि शोषण के प्रति उस नजरिये की है जो शोषित वर्ग ने भी अपनाया हुआ है। शोषण की प्रक्रिया एक तरफा नहीं है और न ही वह मात्र स्थूल रूप में मौजूद है। शोषण के सूक्ष्म पक्षों को व विभिन्न परतों को उद्घाटित करना उसे चुनौती पेश करने में कारगर हथियार बनता है। 'नारी संवेदना' में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि
हर युग के इस जीवन में
बदलती मेरी छाया रही।
पर फिर इस नए पड़ाव में भी
ये पुराने अन्धड़ सहती रही।
हर समाज के पहले पहलू में
मेरा महत्व गाया गया।
मेरे भाव-कणों के गुंजन को
फिर भी क्यों ठुकराया गया। (नारी संवेदना, रजनी देवी, महाविद्यालय, )
नारी जीवन संबंधी बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें नारी के विविध पक्षों को उदघाटित किया है। कहीं नारी अपनी 'पहचान' के लिए संघर्ष कर रही है। नारी की रूढ़ छवि उसे स्वीकार नहीं है। उसकी रूढ़ छवि में या तो पुरूष से रिश्तों के तौर पर उसकी पहचान है। मां, पत्नी, बेटी, बहन के घरेलू छवि के साथ ही वह जी रही है, इससे भी आगे बढ़कर कभी उसे मात्र एक मादा के रूप में ही देखा जाता है जो उसे किसी भी रूप में स्वीकार नहीं है। वह इन सबसे ऊपर अपनी मानवी छवि के लिए बेताब है और इसी को पाने में ही अपनी मुक्ति समझती है। मात्र लाचार और पुरूष पर आश्रिता व सुरक्षा की गुहार लगाती, दया की भीख मांगती अबला के रूप में नहीं, बल्कि एक मुकम्मल इन्सान के रूप में वह अपनी पहचान बनाना चाहती है। वह अपनी शक्ति को भी पहचान रही है।
अब तो
पहचानो
बहुत कुछ हूं मैं।
आप के अस्तित्व की
पहचान हूं मैं।
बस, नारी नहीं
बहुत कुछ हूं मैं
हां
बहुत कुछ हूं मैं।(पहचान, रूचि, महाविद्यालय, )
'क्या है एक लड़की का जीवन?' (साक्षी छपोला, महाविद्यालय, ), 'मैं मजबूर हूं (रूचिका, महाविद्यालय, ) ,'कन्या भ्रूण हत्या और भारतीय नारी की विवशता' (बबीता जांगड़ा, महाविद्यालय, ), 'कठपुतली' (सिम्पल दत्ता, महाविद्यालय, ), ' मैं नारी हूं' (अंजना, महाविद्यालय, ), 'लड़की के प्रश्न (प्रमिला, महाविद्यालय, ), 'बलि , (रूबी शर्मा, महाविद्यालय,) 'कब तक (आस्था भाटिया, महाविद्यालय, ) कविताएं स्त्री जीवन को बहुत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत करती हैं। समाज में कहीं मां न चाहते हुए भी अपनी बेटी का गर्भपात करवाने को विवश है। स्त्री का जीवन एक ढर्रे में बंधा है, जो किसी भी रूप में स्वीकार नहीं है। पितृसत्तात्मक विचारधारा विशेषकर स्त्री और संपूर्ण समाज के विकास में बाधक है। स्त्री को मानव गरिमा प्रदान करने का संघर्ष ही उसकी मुक्ति का रास्ता है, इसी संदर्भ से जुड़ी कविताएं एक विचार को स्थापित करती हैं। एक संतुलित विचार यहां है, जो स्त्री-स्वतंत्रता का अर्थ पुरूष-विरोध में नहीं मानता, बल्कि स्त्री व पुरूष समानता में ही समस्त समाज का विकास देखता है। समाज में असमानता की मार सबसे भंयकर है, यही मनुष्य के शोषण का कारण बनती है, इस बात को पहचानती व समानता स्थापित करने का विचार स्थापित करती कविताएं स्त्री मुक्ति भी समानता व बराबरी के अवसरों में देखती है।
'तलाश' है अपने यौवन की जो कि बेरोजगारी के भयावह मैदान में बरबाद होती जा रही है और पूंजीवादी शोषण की चक्की में बचपन पिसता ही जा रहा है, जिसमें जवानी नाम की चीज का कोई अहसास ही नहीं होता। अभावों भरे जीवन में व्यक्ति बचपन से सीधा बुढापे में ही कदम रखता है। और इस में अपने यौवन को तलाशता युवा रचनाकार असल में जीवन को तलाश रहा है।
मुझे तो
अपने यौवन की तलाश है
जो इन लोहे की बनी
मशीनों में,
धरा के गर्भ में,
खदानों में,
गगन चुम्बी मकानों में
घिस घिस कर
तिल तिल मर कर
कण कण टूटकर
बूंद बूंद बिखर कर
कहीं खो गया। (निशा दुआ, महाविद्यालय, )
युवा कवि जीवन में विपरीत परिस्थितियों को देखकर हार नहीं गया, बल्कि 'संघर्ष करने के लिए कमर कसे हुए है, उसके लिए 'जीवन नाम है संघर्ष का (किरण गुप्ता, महाविद्यालय, )। वह भाग्य के हाल पर स्वयं को छोड़ देने को तैयार नहीं है।
'साम्प्रदायिकता' (शिल्पी, महाविद्यालय,) हमारे समय का सबसे बड़ा नासूर है। ईश्वर के नाम पर अपने स्वार्थों की लड़ाई लडऩे वालों ने लोगों का जीना मुहाल किया है। युवा कवि इस बात की ओर तो संकेत करता है, लेकिन इसके पीछे छुपी स्वार्थों की राजनीति और षडयन्त्रों को नहीं देख पाता। वह सिर्फ उतना ही देख रहा है जितना कि सब को दिख रहा है। ईश्वर का नाम लेकर लोगों को लड़वाने वाले और साम्प्रदायिक दंगें करवाने वालों का ईश्वर और धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है। दिख रही सच्चाई के पीछे छिपी सच्चाई को उदघाटित करने का दायित्व रचनाकार का ही है।
युवा कवि जब कविता के क्षेत्र में कदम रखता है तो उसकी कविता से भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं, इसलिए वह 'कविता क्या है?' (ऋतु मोहन, महाविद्यालय,) और 'कवि और कविता (हेमलता बंसल, महाविद्यालय, ) जैसे विषयों पर भी कविता लिखता है। कविता को परिभाषित करते हुए वह काफी कुछ रोमानी हो जाता है। कविता को जीवन और संसार का विकल्प तक मानने की गलती कर बैठता है। परिवारों में आपसी प्रेम और स्नेह गायब होते जा रहे हैं। रिश्तों में एक अजीब किस्म का ठण्डापन भरता जा रहा है, जो जीवन्त समाज के लिए खतरे की घण्टी है।
रचनाओं का कला पक्ष उसके विषयवस्तु के साथ ही आकार ग्रहण करता है। नवोदित रचनाकारों की कविताओं में समाज की सच्चाईयों को सीधे सीधे व्यक्त करने की ललक होती है, वे स्थिति के विडम्बनात्मक पहलुओं को उसकी समग्रता में व्यक्त करने के लिए जिस तरह के शब्दों के चुनाव और रचनात्मक धैर्य की जरूरत है उसको साध नहीं पाते, इसलिए उनकी रचनाएं भी सपाट नजर आती हैं। नवोदित रचनाकार सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करके समाज को बेहतर बनाने की बेचैनी लिए है, इसलिए वह अपनी बात को कहने के लिए किसी प्रतीक या बिम्ब की रचना करने में अपना समय बरबाद करना समझता है और यहीं आकर उसकी कविता एक सामान्य बात बन जाती है। कविता का प्रभाव भी उतना ही हो जाता है, जितना कि सामान्य बात का।
जब वह संघर्ष की बात करता है तो उसके पास संघर्ष शब्द होता है और युवोचित संकल्प होता है, वह स्थिति ओझल हो जाती है, जिससे संघर्ष करना है। यथार्थ प्रस्तुत करने के आग्रह में अतिरंजना का प्रयोग न करना भी कविता के प्रभाव को समाप्त करता है। अतिरंजना का उचित प्रयोग जो सच्चाई को दबाए नही, बल्कि उसे उभार दे, यह रचना को रोचक भी बनाएगी और मारक भी। रचना में सामाजिक सच्चाई से बड़ी सच्चाई ही प्रभावशाली होती है और रचनात्मक सच्चाई की रचना के लिए यथार्थ को जस का तस प्रस्तुत करने की बजाए उससे छेड़छाड़ करना उसमें जोडऩा-घटाना, कई सच्चाइयों को एक सूत्र में पिरो देना, कई अनुभवों को एक अनुभव में समा देने के लिए जो रचनात्मक पीड़ा से गुजरना पड़ता है उसको सहन करके ही प्रभावी रचना सामने आती है। समाज में घटित सच्चाइयों को शब्दबद्ध करने मात्र से प्रभावशाली कविता नहीं बनती। समाज के यथार्थ और रचना के यथार्थ के भेद को समझना रचनाकार के लिए जरूरी है।
नवोदित रचनाकारों के लिए अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने के लिए व्यंग्य भी महत्त्वपूर्ण ढंग है। सच्चाई के साथ मिलकर व्यंग्य चमत्कारिक प्रभाव पैदा करने की क्षमता रखता है। व्यंग्य पाठक या श्रोता की एकरसता या लय को तोडऩे के लिए उसको चिकोटी काटने का काम करता है। युवा मन पर जो अध्ययन संस्कार होता है उसकी झलक भी उनकी कविताओं से मिलती है। आज समाज में हास्य कविता या व्यंग्य नजर आता है। इसलिए गुदगुदाने वाली बातों को कविता की शक्ल देने का प्रयास रहता है।
चिन्ता की बात है कि युवा कवि अपने समाज में उसके आस पास या उसके स्वयं के साथ घट रही बात को कविता में नहीं उतार रहा। या तो कविता बिल्कुल ही निजी अनुभव को व्यक्त करने लगती है या फिर वह पूर्णत: कल्पित या किताबी विचार हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में कविता को खामियाजा भुगतना पड़ता है। कविता न तो व्यक्तिगत अनुभव मात्र है और न ही उससे दूर कोई नीरस स्टेटमेंट। कविता कहीं इनमें ही मौजूद है। अपने अनुभव को विचार पर कसना और विचार को अपने और बृहतर अनुभव के साथ देखना। जीवन और अपने समाज से विषय न लेकर कहीं ओर से विषय उठाने शुरू कर दे तो उनमें कोई ताजगी नहीं होती। जब वह प्रकृति की बात करता है तो ऐसी जिसका उसका कोई अनुभव नहीं है और वह वर्णन बिल्कुल बासी लगने लगता है। चांद, सितारे, बादल, बारिस व घटाओं के ऐसे फिल्मी चित्र वह खींचता है जो उसके अनुभव के अंश नहीं हैं।
कोई भी रचनाकार अपने अनुभव को विचार की कसौटी पर कसकर उसमें छुपी विडम्वना को उजागर करने के लिए उपयुक्त शब्द, बिम्ब, प्रतीकों का प्रयोग करके ही प्रभावी अभिव्यक्ति कर सकता है। लगातार के अध्ययन और अभ्यास से यह कला आती है। न तो पूरी तरह किताबी तोता बनकर वह रचनाकार का दायित्व निभा सकता है और न ही अपनी साहित्य परम्परा से अलग थलग होकर। यदि रचनाकार के लिए कविता का कोई सामाजिक दायित्व व महत्व है तो समाज को समझना, उसमें हो रहे परिवर्तनों की दिशा को पहचानने की जिम्मेदारी उसपर आ जाती है और उसे एक समाजशास्त्री की नजर विकसित करनी होगी और समाज को दिशा देने के लिए उसे एक दार्शनिक की सी दृष्टि विकसित करनी होगी। समाजशास्त्री और दार्शनिक का तत्त्व ग्रहण करके वह कलाकार के सौन्दर्य के साथ उसे व्यक्त करना होगा। रचनाकार को प्रेमचन्द की बात याद रखने की जरूरत है कि वह मात्र समाज की सच्चाई का चितेरा नहीं हैं, बल्कि उसे दिशा देने वाला होता है।
मानवीय अभिव्यक्ति के लिए मौलिक जमीन तलाशती कविताएं
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
हरियाणा साहित्य अकादमी ने कालेजों के छात्र-छात्राओं यानी युवाओं की साहित्यिक प्रतिभा को प्रोत्साहित करने के लिए कविता प्रतियोगिता का आयोजन करके सराहनीय कार्य किया है। इस रचनात्मक प्रयास से सिर्फ पुरस्कार के रूप में ही प्रोत्साहन नहीं मिलेगा, बल्कि नवोदित लेखकों की रचनाएं प्रकाशित करना और उन पर बातचीत करवाना और भी महत्त्वपूर्ण है। रचनाएं छपना किसी भी रचनाकार के लिए सुखद अनुभव होता है, लेकिन पहले-पहल छपना तो रोमांचकारी होता है। प्रस्तुत कविताएं लगभग 190 कविताओं में से ये रचनाएं चुनी गई हैं, कविताओं की विषयवस्तु व रचनाकौशल इनके चयन के आधार हैं। उल्लेखनीय बात है कि इन रचनाओं में नवोदित रचनाकार का सा भोलापन तो स्वाभाविक है लेकिन प्रौढ़ रचनाकार सा गाम्भीर्य भी है जो इन रचनाकारों को शौकिया व नवोदित लेखन की श्रेणी से गम्भीर रचनाकर्म का दायित्व संभालने का आधार तैयार करता है। यह कहते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है कि इन कविताओं में विषयों की बहुलता-विविधता है। युवा के स्वभावानुकूल देश-भक्ति की कविताएं भी हैं, समस्याओं-संकटों से घिरे समाज का चित्रण भी है, प्रेम की कविताएं भी हैं, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता जैसी राजनीतिक समस्याएं भी कविताओं का विषय हैं तो नारी की स्थिति को व्यक्त करती कविताएं भी हैं। समस्या का सतही प्रस्तुतिकरण है तो समस्या की तह में जाने की जद्दोजहद भी है। इन कविताओं से यह तसल्ली तो होती है कि कविता के माध्यम से व्यक्त करने का कौशल अर्जित करने का संघर्ष है। आमतौर पर स्कूलों-कालेजों के विद्यार्थी अपने शिक्षकों के प्रोत्साहन से, अतिरिक्त दबाव से या फिर प्रतियोगिता में भाग लेने की इच्छा से रचना करते हैं। आमतौर पर प्रतियोगिताओं की प्रक्रिया इतनी नीरस व एक तरफा होती है कि ये युवाओं को चिरकाल के रचना से जोड़ नहीं पाती और प्रतिभाएं विकसित होने से पहले ही समाप्त हो जाती हैं। शिक्षण संस्थाएं या समाज में अपने शौक से कविता के जरिये अपनी भावनाओं व विचारों को व्यक्त करने वाले नवांकुरित कवियों को विश्वसनीय पाठक-श्रोता नहीं मिल पाते, बल्कि कई बार तो तो अपने इस रचनात्मक प्रयास के कारण वे मजाक के पात्र भी बन जाते हैं। परिणामस्वरूप या तो वे अपनी रचनाओं को किसी को सुनाते दिखाते नहीं या फिर महत्वहीन व अनुपयोगी मानकर कूड़ेदान को सुपुर्द कर देते हैं और भावी रचनाकार की भू्रण-हत्या हो जाती है।
रचनाकार जब कविता में प्रवेश करता है, तो उसके कविता से कुछ अपेक्षाएं होती हैं, कुछ आदर्श होते हैं, कुछ संकल्प होते हैं और कुछ अभिव्यक्ति की तड़प होती है। आमतौर पर रचनाकार अपने आदर्शोंं-संकल्पों को कविता की विषयवस्तु बनाते हैं। इस दौरान वे अपने रचना-माध्यम की यानी कविता की शक्ति भी परख रहे होते हैं और अपने संकल्पों को भी दुहरा रहे होते हैं और कविता के जरिये सार्वजनिक कर रहे होते हैं। 'मैं कविता लिखूंगी , 'क्या लिखूं ?', 'तुम मुझे शब्द दो', 'कविता' कविताओं में व्यक्त संकल्पों से कविता से अपेक्षा को समझा जा सकता है। ये कविताएं आज के दौर के युवा कवियों के रचना-संकल्प का प्रतिनिधित्व करती हैं। 'मैं कविता लिखूंगी' कविता में आशावाद है, लेकिन कटु यथार्थ से भी मुंह नहीं मोड़ा गया। कविता यहां सिर्फ अपने निजी उद्गारों को व्यक्त करने का जरिया मात्र नहीं रहती, न ही आत्मकेन्द्रित रहती है। यहां अपने बच्चों के लिए खटती संघर्ष करती मां भी है और सड़क पर भटकते बच्चों के सपने भी हैं।
मैं कविता लिखूंगी
उस मां पर
जो मर जाने तक
मरती रहती है
अपने बच्चों की खुशी के लिए
मैं कविता लिखंूगी
उन शब्दों पर
जो किसी हृदयहीन में भी
तडप जगाते हैं
मैं कविता लिखूंगी
उन बच्चों पर
जिनके सपने
सड़कों पर भटकते
भूख की आग में भस्म हो जाते है
'तुम मुझे शब्द दो' का कवि जब गूंगे समाज की आवाज, गरीबों की पुकार, क्रंतिकारियों का जीवन, गरीब भोले किसान व खेतीहर मजदूर की पसीने की बूंद, गरीबों के स्वप्न को रौंदती अवसरवादी' राजनीति, धर्मोन्माद की शिकार जनता के अंधिवश्वास व धर्म के ठेकेदारों के हाथों लूटती अस्मिता को व्यक्त करने के लिए शब्द मांगता है तो उसके संकल्प से आश्वस्ति जरूर मिलती है। सही है कि अपने समाज से जुड़े बिना कोई रचनाकार बड़ा नहीं हो सकता। समस्याओं और संकटों से जूझ रहे समाज के मुख्य अन्तर्विरोधों को पहचानना, सामाजिक शक्तियों की टकराहट को समझना और उनको व्यक्त करके ही रचनाकार अपनी कविता के औजारों को नित नए कर सकता है और इसी संघर्ष में उसका लेखन निखरता है। अपने सामाजिक सरोकारों की जमीन तलाशता युवा रचनाकार एक आशावाद लिए हुए है। रचनाकार का आशावाद साहित्य व समाज की पूंजी होती है। उसके मन में भविष्य के प्रति आशावादी दृष्टिकोण होता है, उनका आशावाद बेहतर समाज के निर्माण में विश्वास पैदा करता है, इसीलिए प्रेमचन्द ने एक युवा लेखक को पत्र लिखा कि ''एक युवा लेखक को आशावादी मन:स्थिति में रचनाएं करनी चाहिएं। उसका यह आशावाद संक्रामक होना चाहिए। उसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि वह उसी तरह की भावनाएं दूसरों में भी उत्पन्न कर सके। मेरे विचार से साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य है पाठक को ऊपर उठाना या उच्चतर भावभूमि पर ले जाना। हमारे यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी इस तथ्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं चाहूंगा कि तुम ऐसे चरित्रों का निर्माण करो जो ईमानदार, बहादुर और स्वतंत्रचेता हों, जो नई दिशाओं में साहस करके चलने वाले और ऊंचे आदर्श वाले हों। वक्त का यही तकाज़ा है।" (उत्तरगाथा ;त्रैमासिक, मथुरा पृ. 26,)
संवेदनशील स्वभाव व मानवीय दृष्टि किसी युवा को कविता की ओर खींचती है। वह अपने आस पास की अमानवीय घटनाओं, स्थितियों को देखता है और उनको बदलने का प्रयास करता है और इसी प्रयास में कवि-हृदय व कविता का अंकुर फूटता है। कविता ने समाज की दुख-पीड़ा को हमेशा ही अपने में समेटा है। उल्लेखनीय है कि इन कवियों ने समस्याओं से जूझ रहे अपने समाज को अपनी कविताओं का विषय बनाया है। गरीबी-बेरोजगारी वर्तमान समाज के अभिशाप हैं, जिनके कारण मनुष्य को गैर इन्सानी परिस्थितियों में रहना पड़ता है और गैर-मानवीय समझौते करने पड़ते हैं। निश्चित रूप से इन स्थितियों को समाप्त करके ही सुसंस्कृत व मानवीय समाज बनाया जा सकता है। इन रचनाओं में समस्याओं की ओर ध्यान तो दिलाया ही गया है। इनके लिए जिम्मेवार सामाजिक-व्यवस्था के चरित्र को भी उदघाटित किया है। 'पेट की आग', 'कोसी के कहर की करूण कहानी', 'विषमता', 'सुबह समाचार पत्र के समय', 'गरीबी-एक समस्या', 'मिट्टी', बालश्रम' कविताएं समाज के वंचित-शोषित वर्गों की दशा का बहुत ही मार्मिक वर्णन करती हैं। कविताओं की विशेष बात यह है कि इनमें 'मैं और मैं' की कविताएं नहीं, बल्कि अपने बाहर निकलकर समाज को देखा गया है और कविता के सामाजिक सरोकारों का संकल्प यहां हैं। स्थितियों व संकटों से जूझते लोगों के संघर्ष कथा इन कविताओं में है। तसल्ली देने वाली बात यह है कि यहां समस्याओं से ग्रस्त, असहाय व लाचार लोगों के भावुक चित्र नहीं हैं, बल्कि अपनी जीवन की बेहतरी के लिए संघर्ष करते जीवट वाले लोगों के चित्र हैं, चाहे 'कोसी के कहर' सी प्राकृतिक विपदा के सताए हुए लोग हो या फिर 'पेट की आग' को बुझाने के लिए कड़ा संघर्ष करती स्त्री हो।
आज के साहित्यिक व दार्शनिक बहस में सर्वाधिक चर्चित विषय है - स्त्री। स्त्री की नजर से आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक ताने-बाने को विश्लेषित किया जा रहा है। परम्परा की भेदभावपरक मूल्य-व्यवस्था की आलोचना करते हुए समतामूलक नैतिक-बोध को विश्वदृष्टि का हिस्सा बनाने का प्रयास हो रहा है। स्त्री के बारे में बहुत सी कविताएं हैं। स्त्री की मेहनत को रेखांकित करती 'स्त्री' कविता विभिन्न रूपों में उसकी भूमिका को प्रस्तुत करती है तो 'औरत' कविता स्त्री के संघर्षों को ऐतिहासिक व पौराणिक स्त्री चरित्रों से इतिहास व परम्परा में स्त्री-विरोधी मानसिकता को उद्घाटित करते हुए उसकी शक्ति व योगदान को रेखांकित करती है। मनुष्य के जीवन में मां की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, न केवल जन्म देने में, बल्कि उसको संसार में जीने लायक बनाने में भी। मां कविताओं का विषय बनती रही है। मां यहां एक स्त्री के तौर पर भी है और मां के तौर पर भी। स्त्री के रूप में जो संघर्ष उसको करना पड़ता है तथा एक मां के तौर पर जो संघर्ष उसे करना पड़ता है बखूबी व्यक्त किया है। 'मां', 'मां की नींद' कविता विशेषतौर पर उल्लेखनीय है। 'मां की नींद' कविता बहुत रोचक ढंग से एक स्त्री का संघर्ष व्यक्त करती है।
मैं किताबों में भी देख लेती हूं उसे
वह चलती रहती है 'अक्षर' बनकर
किताबों से बड़ी हो गई है मां
सावधान कराती रहती है मुझे हर रोज
जैसे हर सुबह उसने बैठना है
'इम्तहान' में
उसे ही हल कराने हैं तमाम सवाल
मेरे आने वाले भविष्य के बारे में
मुझसे बेहतर जानती है मां।
लिंगानुपात में असंतुलन आज एक सामाजिक समस्या के तौर पर सामने है। जिसे लेकर काफी चिन्ता भी व्यक्त की जा रही है। सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर इसके प्रति जागरूक भी किया जा रहा है, लेकिन यह भी सही है कि आम तौर पर समस्या को सिर्फ कन्या-भ्रूण हत्या तक ही सीमित कर दिया जाता है और एक पुरूष के लिए स्त्री की जरूरत के तौर पर ही कन्या-भ्रूण हत्या समस्या दिखाई देती है, स्त्री को संपूर्ण मानव इकाई के तौर पर स्थापित करने का विचार पीछे छूट जाता है। स्त्री-समस्या के पीछे मौजूद सामंती व पितृसत्तात्मक सोच पर कोई प्रहार नहीं होता। कन्या-भ्रूण हत्या को केन्द्रित करके 'बेटी की पुकार', 'बेटियां', 'एक अजन्मी बेटी की मां से पुकार', 'कन्या भ्रूण हत्या', 'मादा भ्रूण की पुकार' कविताएं लिखी हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर लिखी गई कविताएं समाज की कन्या शिशु के प्रति अमानवीयता को तो दर्शाती है। लेकिन यह असल में स्त्री-समस्या को सम्पूर्णता में नहीं देख पाती। पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाये बिना कन्या भ्रूण-हत्या को समस्त परिस्थितियों से काटकर अलग से प्रस्तुत करने से समझ में इजाफा नहीं करता, बल्कि वह भावुक अपील मात्र बनकर रह जाती है। दरअसल कन्या-भ्रूण हत्या किसी समस्या का कारण नहीं है, बल्कि वह किन्हीं और समस्याओं का नतीजा है। स्थिति या विचार के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने के लिए दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत विषय का एकांगी ट्रीटमेंट इन कविताओं की मुख्य सीमा है। आतंकवाद हो या साम्प्रदायिकता या फिर शहीदों के प्रति सोच ही क्यों न हो। विषयों को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करना, उसके विभिन्न पहलुओं व स्तरों की अभिव्यक्ति ही कविता की विश्वसनीयता पैदा करती है और पाठक की चेतना का विस्तार करती है। दृष्टि अलग से कोई चीज नहीं है, बल्कि चीजों के प्रति हमारा रवैया ही तो है यानी हमारा जीवन विवेक। यह जीवन-विवेक ही दरअसल कविता-विवेक होता है। इसी से ही लेखक विषयवस्तु का चयन करता है, अनुभवों को एक तरतीब देने का काम भी इसी से संपन्न होता है। दृष्टि-विकास के संघर्ष में ही रचनाकार पिछड़े, दकियानूसी विचारों का त्याग करता है और प्रगतिशील मूल्यों को धारण करता है। सामाजिक शक्तियों की पहचान भी इसी से होती है और शासक-शोषक वर्गों का उत्पीडऩ-अत्याचार भी दृष्टि विकास की प्रक्रिया में ही स्पष्ट होता है। लेखकों के लिए और विशेषकर नव लेखकों के लिए दृष्टि का विकास करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। दृष्टि के निरन्तर विकास के अभाव में लेखक अपने को दोहराने लगता है और नव लेखक में एकांगिता रह सकती है। विश्वदृष्टि जितनी परिपक्व होगी उसकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रभावशाली होगी।
आतंकवाद से न केवल भारत बल्कि पूरा विश्व त्रस्त है और विडम्बना यह है कि यह धर्म के लबादे में आकर अपनी वैधता ठहराता है। तालिबानी आतंक हो या हिन्दू कट्टरतावादी सभी तो धार्मिक शब्दावली और धार्मिक चिन्हों का सहारा लेकर अपने वास्तविक मंतव्यों को छुपा लेते हैं। आतंकवाद की जड़ किसी धर्म विशेष में नहीं है, बल्कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक कारणों है। आतंकवाद मात्र कानून और व्यवस्था का प्रश्न भी नही है, मानव-मूल्यों व संस्कृति को अपदस्थ करने योजना का हिस्सा है, इसीलिए आतंकवाद से संघर्ष मानवीय दृष्टिकोण विकसित करने के संघर्ष का हिस्सा है। साम्प्रदायिकता और आतंकवाद जहां मनुष्य को संवेदनहीन, बर्बर, क्रूर व हिंसक बनाती हैं, वहीं कविता काम पहला काम मनुष्य को संवेदनशील बनाना है। आतंकवाद पर चुटकी लेकर धर्म विशेष के लोगों के प्रति नफरत पफैलाने व उनके खिलाफ उन्माद पैदा करने में भी कुछ कवि अपनी प्रतिभा का दुरूपयोग करते हैं। मानवीय दृष्टि के विकास के दौरान ही ऐसी विभ्रम पैदा करने वाले विचारों की सच्चाई को समझा जा सकता है। 'आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता', 'असर', 'किसके लिए लड़ें' कविताओं में इस पर गम्भीरता से विचार किया है। धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक पक्षों को मानवीय दृष्टि से उठाया है। धर्म के नाम पर लडऩे वालों के आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थों को उद्घाटित करने की कोशिश की है। धर्म के चिह्नों पर नफरत व हिंसा फैलाने वालों के इरादों को भी बताया है।
दीपावली की खुशियां ये
विस्फोट कर मनाते हैं।
ईद के पावन पर्व पर
कई मासूमों का लहू बहाते हैं।
न बच्चों की परवाह,
न बुजुर्गों पर तरस दिखाते हैं।
न अपनों, न परायों को,
मारने में हिचकिचाते हैं।
कई मासूम चीखों से भी
हृदय इनका नर्म नहीं होता,
न हिन्दू, न मुस्लिम ये,
इन आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।
साम्प्रदायिक हिंसा कभी धर्म के नाम पर तो कभी राष्ट-भक्ति के नाम पर लोगों में फूट व नफरत पैदा करती है। धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक शक्तियां समाज में पूफट डालकर देश की एकता-अखंडता, भाईचारे को समाप्त करके धर्म की शिक्षाओं के विपरीत तथा देश के हितों के विपरीत कार्य करती है। कवि की भेदक दृष्टि से धर्म और देश-भक्ति की भावुक शब्दावली के पीछे छुपे संकीर्ण राजनीतिक मकसद ओझल नहीं हो सकते। वतन का मतलब वतन के लोग ही तो होते हैं, लोगों के बिना किसी वतन की कल्पना नहीं की जा सकती। वतन के लोगों को धर्म, जाति, क्षेत्रीय, भाषायी, नस्ली संकीर्णताओं के आधर पर फूट डालने से वतन कभी मजबूत नहीं होता।
चांद तारों से बड़ा अपना गगन होता है।
मजहब धर्मों से बड़ा अपना वतन होता है।।
होके बेदर्द ये लाशों के कफन मत बेचो।
फूल खिलने दो अमन के चमन मत बेचो।।
प्रकृति प्रारम्भ से ही कविताओं का प्रिय विषय रहा है। प्रकृति के अनेक रूपों से मनुष्य का सामना होता है, बहुत ही रोमांसकारी भी व विनाशकारी भी। कवियों ने प्रकृति के विभिन्न रूपों को कविताओं में अभिव्यक्त किया है। मध्यकाल के कवियों में यह बारहमासा के वर्णन करने में देखने में आया तो आधुनिक काल के कवियों में इसके रूमानी रूप में। मौजूदा जीवन प्रकृति से दूर होता जा रहा है। पेड़-पौधों को, घास-पात व पक्षियों आदि को जानने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है, वह कम ही दिखाई देती है। गौर करने की बात है कि प्रकृति के प्रति अब सोच में परिवर्तन है। सामाजिक-व्यवस्था की विकृतियों ने प्रकृति के समक्ष संकट पैदा करके मानव अस्तित्व के समक्ष संकट खड़ा कर दिया है। प्रकृति के सौन्दर्य पक्ष की बजाए पर्यावरण की स्वच्छता-शुद्धता की नजर से प्रकृति को देखा जा रहा है। इन कविताओं में प्रकृति के इसी पक्ष पर जोर दिया गया है। 'पर्यावरण भगवान का दूसरा नामÓ कविता को देखा जा सकता है। पूरा जोर पर्यावरण के उन्हीं रूपों का है, जिनकी अक्सर भाषणों में या फिर आयोजनों में चर्चा होती है। कवि की पैनी नजर प्रचलित बहस में कुछ नया आयाम जोडऩे में सक्षम हो तभी वह कुछ नया दे पाती है और ध्यान आर्कषित कर पाती है। प्रचलित बहस को ही कविता में ढाल देना महत्त्वपूर्ण तो है पर नाकाफी है। असल में विषयों को चुनने व प्रस्तुतिकरण में प्रचार-तंत्र का काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। यहीं से अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों व प्रचार किस तरह से न केवल हमारे समक्ष अपना एजेंडा प्रस्तुत करता है, बल्कि हमारी सोच को भी किसी विशेष बिन्दु पर केन्द्रित करके नियंत्रित करता है। हमें वही महत्त्वपूर्ण लगता है जो प्रचारित किया जा रहा होता है और उसकी ओट में आस-पास पड़ी महत्त्वपूर्ण चीजें ओझल हो जाती हैं।
'मेरी पुस्तक कविता' पुस्तक के महत्व को रेखांकित करती हुई गुम हो रही पुस्तक-संस्कृति की ओर संकेत करती है, तो 'उबलते सवाल' रिश्तों में आ रहे तनाव की ओर संकेत करती है और जीवन में आ रही विसंगतियों की ओर भी इशारा करती है। 'झूठ का पुलिंदा' कविता झूठ की बुनियाद पर टिके मौजूदा पूंजीवादी समाज में झूठ की संस्कृति को पनपने में बढ़ावा देती है। है। 'मानव का नंगा नाच' कविता इन्सानियत के समक्ष उत्पन्न संकट की और संकेत करती है। 'पैसा' कविता पूंजी प्रधान समाज में पनप रहे मूल्यों के आधार को उद्घाटित करती है
देखो यारो पैसों का कमाल
इसने बदल दी दुनिया की चाल
भिखारी से लेकर अधिकारी तक सब पैसों के हैं गुलाम
पैसों के बिना किसी को भी नहीं है आराम
'उबलते सवाल', 'झूठ का पुलिंदा', 'मानव का नंगा नाच', 'पैसा' कविताएं मौजूदा सामाजिक ढांचे को समझने में मदद करती हैं। पूंजीवादी समाज की चिल्ल-पों व आपाधापी से दूर 'सुकुन' प्राप्त करने के लिए कवि इससे दूर जाना चाहता है, लेकिन संसार से दूर जाकर किसी तरह की शांति नहीं मिल सकती। दुनिया से पलायन वास्तविक रास्ता नहीं है, बल्कि दुनिया को इस लायक बनाना कि मनुष्य अपनी मानवीय गरिमा के साथ जी सके, ऐसी परिस्थितियों के लिए संघर्ष चेतना तैयार करना ही साहित्यकार का दायित्व है, जो इन कविताओं में किसी न किसी रूप में मौजूद है। 'मेरी कविता उसकी पहचान' में कविता जीवन का विकल्प नहीं हो सकती, बल्कि जीवन को बेहतर बनाने व व्याख्यायित करने का संकल्प है। 'अपने आंगन में कैद हुए' व्यक्ति को विस्तार प्रदान करने और अभावों के बावजूद जीवन में आस्था को पुख्ता करती है।
बाल कविताएं लिखना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। अभी तक होली-दिवाली, खेल-खिलौनों पर आधारित बाल कविताओं का ही बोल बाला है। समय के साथ न केवल होली-दिवाली के त्यौहारों के स्वरूप बदले हैं, बल्कि बच्चों की रूचियों में भी बहुत अन्तर आया है, लेकिन साहित्य में विशेषकर कविताओं में इनको अभिव्यक्त करने की चुनौती अभी बनी हुई है। बच्चों द्वारा लिखी कविताओं में तो भाषा के स्तर पर भी व विषयवस्तु के तौर पर बदलाव देखा जा सकता है, लेकिन बच्चों के लिए लिखी गई कविताएं अभी पुराने उपदेशवादी-नैतिकतावादी कोरस पर ही कवायद कर रही हैं, जो बच्चों को बहुत आर्कषित नहीं कर रहा। यहां 'कलयुगी पंडित हंसपाल' महत्वपूर्ण कविता का जिक्र विशेषतौर पर किया जा सकता है, जिसमें चित्र खींचा गया है और बाल सुलभ ज्ञान के स्तर को देखते हुए ही कविता में नाटकीयता और तनाव पैदा किया गया है। आख्यानपरकता, नाटकीयता, व्यंग्य व तनाव ने कथ्य को संप्रेष्य व रोचक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक थे पंडित हंसपाल,
सब कहते थे हंसलाल।
चलते थे दुलकी चाल,
'बचपन की यादें', और 'स्वादां का चस्का' हरियाणवी बोली में दो कविताएं यहां हैं। इन कविताओं में बचपन की याद के बहाने से पूरा लोकजीवन उदघाटित हो जाता है
मां पै चून ले रोटी बणाणा, मामा कै जाण की जिद लगाणा,
तफरीयां पाछे स्कूल मैं जाणा, बेबे धौरे स्कूल का काम कराणा,
बाबू धौरे चीज मंगाणा, दादा के सहारे बैठ कै खाणा,
मेरा ढ़ब्बी लत्ते कई ले आया, मेरी बुरसट नई सिमाइयो।
'स्वादां का चस्का' में लोकजीवन की विसंगतियां भी सामने आ जाती हैं।
बालकां का मामा कै जाण का, गुड़ गैल रोटी खाण का,
गाल मैं सौ का नोट पाण का,
बिना न्यौते जीमण का न्यारा ए स्वाद सै।
लोकजीवन को व्यक्त करते हुए आम तौर पर जो बात देखने में आई है वह है लोकजीवन के हर पक्ष को महिमामंडित करने और उसे सहेज कर रखने की मानसिकता, जो अन्तत: अतीत मोह और रूढि़वाद में तब्दील होती है। लोक की हर बात आदर्श लगती है यही मानसिकता वहां के जीवन को आलोचनात्मक ढंग से देखने में बाधक भी बनती है। लोकजीवन को अभिव्यक्ति देने वाले रचनाकार अक्सर ही लोकवाद के शिकार होते हैं, जो है उससे इतर उन्हें कुछ अच्छा दिखाई नहीं देता और कवि जिस वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण का पक्षधर होता है उससे वंचित होने का खतरा हमेशा बना रहता है।
किसी भी साहित्यिक रचना का शिल्प उसके कथ्य के साथ ही अस्तित्व में आता है, अलग से नहीं होता। जिस तरह से इन रचनाओं की अभिव्यक्ति निहायत स्पष्ट है और सहज है उसी तरह इनका शिल्प भी सहज है। साफ व सीधी बात कहने के लिए कविता का शिल्प भी साफ व सीधा ही चाहिए। प्रतीकों की और भारी-भरकम बिम्बों की यहां गुंजाइश भी नहीं है और कवियों ने उनको महत्त्व भी नहीं दिया है। यहां कविता की कारीगरी नहीं है, बल्कि अपने भावों-विचारों की अभिव्यक्ति पर जोर है।
कवियों के लिए आमतौर पर नवोदित कवियों के लिए विशेषतौर पर मुक्तिबोध ने कविता के तीन क्षणों की जो चर्चा की है उस पर ध्यान देना निहायत आवश्यक है। नव रचनाकारों को पूरी साहित्यिक विरासत से जुडऩे की जरूरत है। अपनी विरासत को आत्मसात करके ही कोई रचनाकार कुछ नया दे सकता है। एक अच्छे लेखक के लिए एक अच्छा पाठक होना पहली शर्त है। विश्व की महान रचनाओं को पढऩा और उनमें मौजूद अन्तर्विरोधों को समझना निहायत जरूरी है। अपनी विरासत को आत्मसात करते हुए तथा वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकार करके ही रचनाकार अपने पाठक की जानकारियों, ज्ञान व मनोरंजन में वृद्धि कर सकता है। संघर्षशीलता जीवन के लिए अनिवार्य है, चाहे प्रकृति हो या समाज उसमें वह निरन्तर जारी रहता है .