मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकाल हिन्दी साहित्य के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण समय था। समाज में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हो रहे थे। उस समय में अमीर खुसरो, फरीद, कबीर, नानक, दादू, रैदास, जायसी, रहीम, रसखान आदि रचनाएं कर रहे थे। समय व क्षेत्र की दृष्टि से हिन्दी में भक्तिकाव्य से अभिहित किए जाने वाले साहित्य का फलक व्यापक है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का 'स्वर्ण युग' कहा है। इसकी उत्पति के कारणों को तलाशने की कोशिश की है। ''किसी ने उसे मुसलमानों के आक्रमण और अत्याचार की प्रतिक्रिया माना है, तो किसी ने ईसाइयत की देन, किसी को उसमें निराश और हतदर्प जाति की कुंठाग्रस्त और अन्तर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति दिखाई दी तो किसी को वह तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक असंतोष की उपज प्रतीत हुआ, किसी ने उसके मूल में यौगिक और तांत्रिक प्रवृतियों का प्रसार देखा और किसी ने लोकमत के शास्त्रीय आवरण की प्राप्ति।"1
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस विचार को हिन्दी में काफी मान्यता मिली कि भक्ति साहित्य की उत्पति का कारण मुसलमानों का हिन्दुओं पर अत्याचार था और भक्ति के माध्यम से हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए भक्ति को अपनाया। यद्यपि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के मत को अपने तर्कों से तथ्यहीन साबित किया। उन्होंने कहा कि भक्ति आन्दोलन की उत्पति मुसलमानों के अत्याचारों के कारण नहीं हुई, क्योंकि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत में हुआ और दक्षिण में न तो मुसलमानों के आक्रमण हुए थे और न ही तब तक मुसलमान दक्षिण तक गए थे। प्रसिद्घ है कि 'द्राविड़ भक्ति उपजी, लाए रामानन्द'। तथ्यहीन व तर्कपूर्ण न होने पर भी आचार्य शुक्ल का मत अधिकांश हिन्दी के शोधार्थियों व अध्यापकों की मानसिकता का हिस्सा बना रहा है। इसका कारण हिन्दी क्षेत्र में साम्प्रदायिक इतिहास चेतना है, जो वर्तमान राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इतिहास का साम्प्रदायिकरण करती रही है। अपने समय के छ:-सात सौ साल के बाद भी प्रासंगिक भक्तिकाल का जीवन्त साहित्य मात्र प्रतिक्रिया में नहीं रचा जा सकता और 'पराजित व निराश मन' की उपज तो कतई नहीं हो सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुसलमानों के आगमन को एक अनिवार्य बुराई की तरह से देखा, उनके आने से यहां के जीवन में क्या अन्तर आया, इसे देखने में वे चूक गए और परिस्थितियों पर समग्रता से विचार किये बिना बहुत सरलीकृत ढंग से भक्तिकाल के साहित्य की उत्पति को साम्प्रदायिक रंग दे दिया।
भारत में सम्प्रदाय के आधर पर हिन्दू और मुसलमान के बीच वैमनस्य व दंगे-फसाद अंग्रेजी शासन के दौरान आरम्भ हुए। अपने शासन को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासकों ने जनता में फूट डालने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसाना-भड़काना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने मध्यकाल इतिहास को तोड़-मरोड़कर हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के तौर पर पेश किया। इतिहास का काल-विभाजन व नामकरण धर्म के आधार पर 'हिन्दू काल' व 'मुस्लिम काल' के तौर पर किया, जबकि अपने शासन को ईसाई काल न कहकर अंग्रेजी शासन काल ही कहा। ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालने पर ऐसा कोई काल नजर नहीं आता, कि जिसमें किसी धर्म विशेष के लोगों का शासन हो और दूसरे धर्म के लोग उनके शासित हों। शासक अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के शासक हों, वे अपने धर्म के आधर पर शासन नहीं करते, लेकिन अंग्रेजी शासकों ने शासकों की लड़ाइयों को हिन्दू व मुसलमान की लड़ाई के तौर पर पेश किया, जबकि एक हिन्दू शासक दूसरे हिन्दू शासक ने लडऩे तथा मुसलमान शासकों के दूसरे मुसलमान शासकों से लडऩे तथा हिन्दू व मुसलमान शासकों के मिलकर किसी शासक से लडऩे के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।2
हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने बहु प्रचारित किया कि मुसलमानों ने हिन्दुओं के मंदिरों को ध्वस्त करके हिन्दुओं का अपमान किया। राजाओं की लड़ाइयों के कारण, धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक थे, उसी तरह धर्म-स्थलों के गिराने के कारण भी धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक व आर्थिक थे। महमूद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को लूटा तो उसका कारण धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक था।3
अंग्रेजों ने हिन्दुओं व मुसलमानों में विद्वेष पैदा करने के लिए धर्मान्तरण को भी तूल दिया और इस झूठ को जोर-शोर से प्रचारित किया कि तलवार के जोर पर इस्लाम का विस्तार हुआ, जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। इस्लाम के प्रसार का कारण मुसलमान शासकों के अत्याचार नहीं थे, बल्कि वर्ण-व्यवस्था थी, जिसमें समाज की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को मानव का दर्जा ही नहीं दिया गया। इस्लाम में इस तरह के भेदभाव नहीं थे, इसलिए अपनी मानवीय गरिमा को हासिल करने के लिए हिन्दू धर्म में निम्न कही जाने वाली जातियों ने धर्म परिवर्तन किया। धर्मपरिवर्तन में सूफियों के विचारों की भूमिका है, न कि मुस्लिम शासकों की क्रूरता व कट्टरता की।4
भक्तिकाव्य के प्रति साम्प्रदायिक रुख अख्तियार करने के कारण ही इसकी मत-मतान्तरिक, ब्रह्म, जीव, जगत, व माया के दार्शनिक-तात्विक पक्ष, भक्ति के तात्विक पक्ष, साधना के विविध पक्षों की व्याख्याएं की और मूल्यांकन में एकांगी रुख अपनाए जाने के कारण इस साहित्य के सामाजिक आधार की अनदेखी हुई।
मुसलमानों के यहां आने से समाज में हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों ने समाज को प्रभावित किया उसके सकारात्मक पक्षों का ही परिणाम है - भक्ति आन्दोलन का काव्य। ''तुर्क शासन के बाद भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आरम्भ हुए। सिंचाई में रहट का व्यापक रूप से प्रयोग आरम्भ हुआ जिससे नदियों के किनारे विशेष रूप से पंजाब और दोआब के क्षेत्र में कपास और अन्य फसलों की पैदावार में बहुत वृद्घि हुई। सूत कातने के लिए तकली के स्थान पर चरखे का व्यापक प्रयोग होने लगा। इसी तरह रुई धुनने में तांत का प्रयोग जन साधारण के लिए महत्त्वपूर्ण बन गया था। कपास ओटने में चरखी का भी प्रयोग शुरू हुआ। तेरहवीं सदी में करघा के प्रयोग से बुनकरों और वस्त्र उद्योग की स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। कपड़े की रंगाई और छपाई की भी इसी बीच व्यापक उन्नति हुई। मध्य एशिया के सीधे सम्पर्क के कारण भारत के व्यापार का भी बहुत प्रसार हुआ। इन नई परिस्थितियों ने व्यापारियों और कारीगरों का सीधा सम्बन्ध और गहरा करने में सहयोग दिया। वे व्यापारी कला और संस्कृति के आदान-प्रदान में भी महत्त्वपूर्ण संवाहक सिद्घ हुए।"5
मुसलमानों के आगमन से यहां के लोगों के जीवन में नई दृष्टि का संचार हुआ। नई नई वस्तुओं से वाकिफ हुए। खेती की व्यवस्था में परिवर्तन से जीवन में मूलभूत परिवर्तन हुआ। सड़कों व नहरों के निर्माण से सामाजिक जीवन में तुलनात्मक रूप से समृद्घि आई। विशेष तौर पर समाज के वे वर्ग अच्छी हालत में पहुंचे, जो कारीगर व श्रमिक थे। इसी वर्ग की आकांक्षाएं कबीर, नानक, रविदास व अन्य संतों की कविताओं में नजर आती हैं।
कबीर, नानक, रैदास, दादू आदि संतों का तेजस्वी काव्य सांस्कृतिक समन्वय की स्थितियों से उपजा काव्य है, न कि साम्प्रदायिक द्वेष व घृणा से, जैसा कि साम्राज्यवादी व साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करती है। भारत का समाज दूसरे समाज के सम्पर्क में आया, विचारों का आदान-प्रदान हुआ, व्यापार के नए क्षेत्र खुले, जिसने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित किया। भक्ति काल के संतों ने परम्परागत तौर पर प्रचलित संस्थागत हिन्दू धर्म और इस्लाम की संरचनाओं के स्थान पर नई प्रणालियों को विकसित किया। वे दोनों धर्मों के धार्मिक आडम्बरों और पाखण्डों का विरोध करते थे। वे धर्म के दायरे में रहते हुए भी उसको नई तरह से व्याख्यायित करने की जद्दोजहद की अभिव्यक्ति संत साहित्य में होती है।
जिन निम्न जातियों के लोगों को मुख्य सड़कों पर चलने का अधिकार भी नहीं था, शिक्षा का अधिकार नहीं था। उन वर्गों से संबंधित रचनाकार अब सरेआम वर्चस्वी वर्ग के लोगों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते हैं, आखिर इस तरह के आत्मविश्वास का कारण, इनका सामाजिक-सांस्कृतिक अभ्युदय और तत्कालीन समाज में इनकी हैसियत के अलावा और क्या हो सकता है। निम्न जातियों से इतने संतों का आना और कबीर-रैदास का आत्मविश्वास इन वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की ओर भी संकेत करता है। परम्परागत तौर पर प्रचलित वर्चस्वी विचारों को चुनौती पेश करने वाली सामाजिक शक्तियां जो नए विचारों व परिवेश का स्पर्श पाकर विकसित हो उठी थीं, उन्हीं की आंकाक्षाओं को संतों की कविताएं वाणी प्रदान करती हैं।
दिल्ली में तुर्क सल्तनत की स्थापना के समय से ही सुल्तानों ने अपना शासन शरीयत (धार्मिक कानून) के आधार पर नहीं चलाया। ''शरीयत की जगह राजनीतिक और सामरिक जरूरतों को ध्यान में रखा गया था। सुल्तान इल्तुमिश के बारे में यह प्रचलित है कि उसके लिए यह हर्गिज जरूरी नहीं था कि वह विश्वास को केन्द्र में रखे। उसके लिए इतना ही काफी था कि उसका अपना विश्वास बना रहे। बलबन के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वह एक कदम और आगे चला गया था। उसने सुल्तान से यह भी अपेक्षा नहीं की कि उसका कोई विश्वास हो ही और न ही उसे किसी धर्म या मत को संरक्षण देने की जरूरत है। उसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था कि वह न्यायकारी हो सके। अलाउद्दीन खिलजी ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण वक्तव्य दिया कि उसने कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसके निर्णय शरीयत के मुताबिक हैं या नहीं। उसने जो कुछ भी राज्य के हित में उचित समझा, उसी का पालन किया। मुहम्मद-बिन-तुगलक ने धर्म विशारदों और धार्मिक कानून के संरक्षकों को शासन के ऊपर हावी नहीं होने दिया, बल्कि वह हमेशा ही दार्शनिकों और तर्कशास्त्रियों की संगत पसंद करता था।"6 शासक अपने धार्मिक कानून के अनुसार राजनीतिक निर्णय नहीं लेते थे, बल्कि राजनीति के अनुसार वे अपने राज्य के फैसले करते थे। उलेमा और राजाओं के दृष्टिकोण में अन्तर था।
बाबर पहला मुगल सम्राट था, जिसने 1526 ई. में, पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी की सेना को हराकर मुगल शासन की नींव रखी थी। बाबर साहित्यिक और सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति था। वह हिन्दुस्तान को बहुत प्यार करने लगा था, उसकी आत्मकथा 'तुजके बाबरी' के अध्ययन से पता चलता है कि वह यहां स्थायी रूप से रहने के लिए नहीं आया था, लेकिन यहां की जलवायु तथा मौसम को देखकर उसने यहां रहने का निश्चय किया। उसके भारत आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। बाबर यहां अपनी मर्जी से नहीं आया था, बल्कि उसे यहां के चार राजाओं ने बुलाया था। दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हराने के लिए उसे यहां बुलाया गया था।
बाबर धार्मिक मामले में कट्टर नहीं था, इसका अनुमान बाबर और गुरुनानक के प्रसंग से लगाया जा सकता है। घूमते घूमते गुरुनानक और उनका शिष्य मरदाना सैदपुर पहुचे। इन्हीं दिनों बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की थी। बाबर के सैनिक भी जा पहुंचे। मुगल सिपाहियों ने शहर के अन्य लोगों के साथ गुरुनानक को भी कैद कर लिया और अन्य कैदियों की तरह इनको भी काम पर लगा दिया। गुरुनानक यहां मस्ती से ईश्वर के भजन गाते थे। जब बाबर के सेनापति मीरखान को इस बात का पता लगा तो उसने इस बात की सूचना बाबर को दी। बाबर ने ऐसे फकीर से मिलने की इच्छा जाहिर की। गुरुनानक को जब बाबर के सामने लाया गया तो बाबर का सिर झुक गया और क्षमा मांगते हुए कहा ''मेरे सिपाहियों ने अनजाने ही आप जैसे फकीर को दुख पहुचाया है। मैं शर्मिन्दा हूं। आप आजाद हैं।" गुरुनानक ने सभी कैदियों को छोडऩे के लिए कहा तो बाबर ने सारे कैदियों को रिहा कर दिया।7
यद्यपि बाबर ने अपने प्रारंभिक दिनों में तो यहां की अधिक तारीफ नहीं की, लेकिन जब उसने यहां के जन-जीवन को गहराई से देखा तो भारत की जलवायु व लोगों की तारीफ की। उसने यहां के लोगों की नब्ज को अच्छी तरह से जान लिया था। धार्मिक सहिष्णुता और अमनपसन्दी को जाना। इसीलिए उसने अपने बेटे हुमायूं को वसीयत में लिखा कि ''बेटा, इस हिन्दुस्तान में बहुत से धर्म हैं। यहां अपनी बादशाहत के लिए हम अल्लाह के शुक्रगुजार हैं। हमें अपने दिल से सभी तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहिए और हरेक समुदाय को उसके रिवाजों के अनुसार न्याय देना चाहिए। इस देश के लोगों को जीतने लिए गौ-हत्या से बचो और प्रशासन में लोगों को शामिल करो। हमारे राज्य की सीमाओं में स्थित इबादत की जगहों और मंदिरों को नुक्सान न पहुंचाओ। शासन का ऐसा तरीका ढूंढो जिससे लोग हुकूमत से खुश हों और बादशाह से लोग खुश हों। इस्लाम अच्छे कार्यों द्वारा फैल सकता है, दहशत से नहीं। शिया और सुन्नी के भेदों की उपेक्षा करो क्योंकि यह इस्लाम की कमजोरी है। विभिन्न रिवाजों को अपनाने वाले लोगों को एकजुट करके रखो ताकि इस बादशाहत का कोई हिस्सा बीमार न हो।"8 (राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे मूल का रूपान्तरण) बाबर की हुमायुं के नाम यह वसीयत भारत के राज्य की धर्मनिरपेक्ष परम्परा का ज्वलंत उदाहरण है।
बाबर के बाद उसका बेटा हुमायं भारत का शासक बना था। हुमायूं बहुत कम समय ही शासक रहा और उसका अधिकतर समय अपने राज्य को स्थापित करने में ही बीता, लेकिन उसके जीवन से जुड़ी हुई कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो हमारी साझा संस्कृति एवं जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गई हैं। हुमायूं की लड़ाई मुख्य रूप से शेरशाह सूरी से थी। हुमायूं शेरशाह के हमले से बचने के लिए भागा तो ब्रह्मजीत गौड़ उसका पीछा कर रहा था। उस समय अटेल के हिन्दू राजा वीरभान ने हुमायूं को नदी पार करवाकर उसकी जान बचाई थी।9
हुमायूं जब अमरकोट पहुंचा, तो वहां के राजपूतों व जाटों की सेना ने उसे भरपूर मदद पंहुचाई थी। हुमांयू जब अमरकोट पहुंचा तो उसकी बेगम हमीदा बानो गर्भवती थी और पूरे दिन से थी। इसलिए बेगम को उसने वहीं राजपूत स्त्रियों के पास छोड़ दिया। हुमायूं के जाने के तीन दिन बाद यहीं पर अकबर का जन्म हुआ था। अमरकोट के राजा ने हुमायूं की बेगम की अपनी बेटी की तरह देखभाल की थी। यह विशुद्घ मानवीय प्रेम था, जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अपेक्षा है, यहां कोई धार्मिक विद्वेष नहीं था। हिन्दुओं में रक्षा-बन्धन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है, इसमें भाई बहन की रक्षा का वचन देता है। रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजी थी।
अकबर ने मुगल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया। अकबर ने ऐसी नीतियां अपनायी जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग सामाजिक स्तर पर एक-दूसरे के करीब आए। अकबर सभी धर्मों की शिक्षाओं का आदर करता था। उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना बनवाया था, जिसमें वह सभी धर्मों के महापुरुषों से उपदेश सुनता था सभी धर्मों की अच्छाइयों को जानने के लिए वह धर्म सभाएं बुलाता था। इबादत खाने में पहले शिया, सुन्नी और सूफी लोग ही धर्म-विवेचन करते थे बाद में अन्य धर्मों के विद्वान भी अपने धर्म का विवेचन करते थे। हिन्दू पंडितों के व्याख्यानों को सुनकर अकबर पुनर्जन्म के सिद्घान्त को मानने लगा और उसका यह विश्वास हो गया कि संसार के प्रत्येक धर्म में पुनर्जन्म के सिद्घान्त को किसी न किसी रूप में माना जाता है। हरिविजय सूरी, विजयसेन सूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय उस समय के प्रसिद्घ जैन विद्वान थे। हरिविजय सूरि के सम्पर्क से अकबर ने विशेष दिनों पर जीवों का वध निषिद्घ कर दिया था और सिद्घान्त चन्द्र नामक जैन विद्वान से मिलने पर उसने जैनियों के लिए कई रियायतें जारी कर दी थीं और जैन तीर्थों पर कर लगाना बन्द कर दिया था। दस्तूर महदजी राणा पारसी विद्वान था। उससे पारसी धर्म का विवेचन सुनकर अकबर सूर्य और अग्नि की पूजा करने लगा। अकबर ने गोआ से ईसाई विद्वानों को आंमत्रित किया और उनके द्वारा ईसाई धर्मों के मूल सिद्घान्तों का परिचय प्राप्त किया। ईसाई विद्वानों में एक्वानिंवा और मोन्सिरेट विशेष उल्लेख के योग्य हैं। प्रत्येक धर्म की व्याख्या को अकबर ऐसी गम्भीरता से सुनता था कि व्याख्याताओं को यह भ्रम हुआ करता था कि उसने उसके धर्म को स्वीकार कर लिया। वास्तव में अकबर ने कोई धर्म स्वीकार नहीं किया। वह धर्मों में व्याप्त कट्टरता से परेशान था। धार्मिक कट्टरता को दूर करने के लिए अकबर ने 'दीन-ए-इलाहीÓ नामक नया धर्म चलाया। इसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं को शामिल किया गया था। यह ऐसा धर्म था जिसमें कोई भी शामिल हो सकता था। यह मिला जुला धर्म था, जिसमें सभी मतों के विश्वासों को शामिल किया गया था।
अकबर के मन में असाम्प्रदायिक राज्य की अवधारणा पूर्णत: स्पष्ट थी। वह राज कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। इससे संबंधित पत्र परशिया के शाह अब्बास फवी को लिखा ''विभिन्न धार्मिक समुदाय हमें ईश्वर द्वारा सौंपे गये दैवी खजाने हैं और हमें उसी तरह से उनसे प्रेम करना चाहिए। यह हमारा दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रत्येक धर्म उनके आशीर्वाद से है और हमारा सच्चा प्रयत्न यह होना चाहिए कि सार्वलौकिक सहनशीलता के सदा हरे रहने वाले उद्यान से स्वर्गीय सुख का आनंद प्राप्त करें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर सभी मनुष्यों पर बिना किसी भेदभाव के अपनी कृपा बरसाता है। राजाओं द्वारा जो ईश्वर की छाया है, यह सिद्घान्त कभी भी नहीं छोड़़ा जाना चाहिए।ÓÓ10
अकबर हिन्दू धर्म का अत्यधिक आदर करता था, इसके कई उदाहरण हैं। हिन्दू-प्रजा की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए अकबर ने अपने शासन काल में 'गौ-हत्याÓ पर पाबंदी लगाई थी। हिन्दू गंगा को पवित्र नदी मानते हैं। अकबर गंगा नदी का ही पानी पीता था, वह अपने लिए हरिद्वार से पानीे मंगाता था। अकबर के समय में महाभारत, रामायण और योग वसिष्ठ आदि पुुस्तकों का अरबी-फारसी में अनुवाद हुआ। तुलसीदास, सूरदास, नाभा जी, केशव, नंददास आदि हिन्दी कवियों ने अकबर के समय में ही उत्कृष्ट साहित्य की रचना की। अबुल फजल ने महाभारत की प्रस्तावना लिखी और पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद किया। अबुल फजल नीतिशास्त्र रचयिताओं की श्रेणी में आते हैं। आइने अकबरी नामक उनकी पुस्तक का विषय अकबर का जीवन या इतिहास नहीं, बल्कि उसमें राजा के गुणों व कार्यों का निरूपण है। राजा के कर्तव्यों के बारे में अबुल फजल ने जो लिखा है उससे तत्कालीन मुगलशासन के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। उन्होंने लिखा कि राजा को सभी मतभेदों से ऊपर रहना चाहिए और यह ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक निर्णय कर्तव्य के मार्ग में बाधक न बनें, जिसके लिए प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समुदाय के प्रति ऋणी है। उसकी आत्मीयता पूर्ण सहायता से प्रत्येक को सुख और शांति प्राप्त होनी चाहिए जिससे ईश्वर की छाया द्वारा प्रदत्त लाभ सार्वलौकिक बने। 11
अकबर के नवरत्नों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। बीरबल, टोडरमल, तानसेन, राजा मानसिंह नवरत्नों में थे। अकबर की सेना में बहुत संख्या में हिन्दू राजपूत थे, अकबर उन पर पूरा विश्वास करते थे, राजा मानसिंह अकबर की सेना के सेनापति थे।
मुगल सम्राट शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा दारा शिकोह (1613--1658) अरबी, फारसी और संस्कृत का विद्वान था, जिसमें धार्मिक कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी। दारा शिकोह ने बनारस में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डितों की सहायता से उपनिषदों का अध्ययन किया। दारा शिकोह ने 'मजमा-उल-बहरीनÓ यानि दो महासागरों का मिलन नामक पुस्तक लिखी, जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के मेल पर आधारित है। इस पुस्तक में लिखा कि बड़ी वेदना के साथ फकीर मुहम्मद दारा शिकोह कहता है कि हकीकतों की हकीकत जानने के बाद और सूफियों के आदर्शों की बारीकियों को समझने के बाद तथा इस अंतिम सत्य को प्राप्त कर लेने के बाद मुझे भारत के धार्मिक विचारकों के सिद्धांतों को जानने-समझने की जिज्ञासा हुई। भारत के विद्वानों के साथ निरंतर विचार-विमर्श और उनके सत्संग के बाद जिन्होंने धार्मिक विषयों में पूर्णता प्राप्त कर ली थी, धर्म की आत्मा तक जिनकी पहुंच हो गई थी और ईश्वर की सत्ता का रहस्य जान लिया था, मुझे दारा शिकोह शाब्दिक अंतर के अलावा सत्य से साक्षात्कार के उनके मार्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई दिया। इसलिए दोनों वादियों के विचारों को संगृहित करके और दोनों के नुक्तों को एकत्र करके, एक सत्य के जिज्ञासु के लिए जिनकी जानकारी बहुत जरूरी और उपयोगी है, मैने एक पुस्तक की रचना की और इसका नाम मजमा-उल-बहरीन रखा, क्योंकि ये दोनों समुदायों के ब्रह्मज्ञानियों के विचारों का सार-संग्रह है।12
उन्होंनेेेेेे दोनों धर्मों की तुलना की है और यह दर्शाने की कोशिश की है दोनों में काफी हद तक समानता है। 'तत्वों पर विमर्शÓ अध्याय (अनासीर) में वे कहते हैं कि 'पांच तत्व हैं और ये पाचों तत्व एक ही ईश्वर की रचना हैं--पहला, 'परम तत्वÓ (अंसूर-ए-आजम), जो मनुष्य की आस्था है , शर जिसे 'अरस-ए-अकबरÓ या 'महान आत्माÓ कहा जाता है दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौैथा जल और पांचवां मिट्टी।ÓÓ और भारतीय भाषाओं में इसे पंचभूत कहा जाता है इनके नाम हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इस तरह दारा शिकोह ने दो धर्मों की अवधारणाओं और शब्दावली में तुलना की।13
दारा शिकोह ने संस्कृत और फारसी-अरबी के ग्रन्थों के अध्ययन और चिंतन-मनन के बाद यह निष्कर्ष दिया कि कुरान शरीफ में जो गुप्त सूचक का उल्लेख है वह उपनिषद ही है। 'सिर्रे-अकबरÓ की भूमिका में दारा ने स्वयं स्पष्ट किया कि उपनिषद के अध्ययन से 'अज्ञातÓ ज्ञात हो गया ओर 'न समझा हुआÓ समझा हुआ हो गया। इस पुस्तक की भूमिका में उसने लिखा कि कुरान शरीफ से पता चलता है कि फव इममन उम्मतिन इल्ला खला फीहा नजीरून।Ó(:24)Ó लकद अर्सलना रुसुलजना बिल्बय्यिनाति व अन्जलना मअहुल-किताब वल्मीजान (:24) यानि कोई जाति ऐसी नहीं है जो निग्र्रन्थ और निर्दूत हो। महान परमेश्वर किसी जाति को दंडित नहीं करता जब तक उस जाति में अपना दूत वह नियुक्त नहीं कर देता। और कोई जाति ऐसी नहीं है जिसमें उसका दूत नियुक्त न हो। वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद का सार एक ही ईश्वर की भक्ति और साधना का निरूपण है। इस प्रकार दारा ने कुरान और वेद व उपनिषदों में समानता खोजी, दोनों के ज्ञान को ही ईश्वरीय ज्ञान माना और आदर किया।
दारा शिकोह हिन्दोस्तानी संस्कृति में इस तरह रच बस गए थे कि उनको हिन्दू व मुस्लिम में कोई अन्तर नजर नहीं आता था, इसका बहुत ही ज्वलंत उदाहरण है कि उनकी पुस्तक 'शिर्रे-अकबरÓ 'अेाम श्री गणेशाय नम:Ó से प्रारम्भ होती है। दारा ने अपने हाथ में एक अंगूठी पहन रखी थी जिस पर देवनागरी में 'प्रभुÓ अंकित था।14
दारा शिकोह अनेक तत्वज्ञानियों, ब्राह्मणों और संन्यासियों के पास गया। उसने धर्म के बाहरी आडम्बरों को परमात्मा की प्राप्ति बाधक माना,आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया। उन्होंनेेेेेे कहा कि:-
'बहिश्त आंजा कि मुल्ला-ए न बाशद
जि मुल्ला शोरो गोगा-ए न बाशदÓ
इसका अर्थ है कि स्वर्ग वहां है जहां मुल्ला नहीं होता, जहां मुल्ला का कोलाहल सुनाई नहीं पडता।
दारा शिकोह ने भारत के ज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना व जरूरी समझा। इसका अरबी में अनुवाद किया और वहां के लोगों को इससे परिचित करवाया।
अंग्रेज इतिहासकारों ने व साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को एक कट्टर, धर्मांंध मुसलमान के रूप में चित्रित किया है। उसे शुष्क हृदय बताते हुए कहा गया कि उसने अपने दरबार से संगीतकारों, कलाकारों, ज्योतिषियों और कवियों को निकाल दिया था।15 औरंगजेब न तो आदर्श मुसलमान था और न ही हिन्दू विरोधी था, न उसे किसी विशेष धर्म से लगाव था और न ही किसी धर्म से नफरत थी, वह सिर्फ एक शासक था अपनी राज गद्दी को सुरक्षित रखने के लिए तथा उसे विस्तार देने के लिए उसने हर काम किया, उसके शासन में जो भी बाधा बना उसने उसे उतनी ही मुस्तैदी से दूर किया, जितनी कि कोई भी राजा करता।
औरंगजेब एक शासक था, शासक का कोई धर्म नहीं होता, उसका धर्म केवल और केवल अपनी गद्दी होता है। वह वही फैसले लेता है जो उसके शासन सत्ता के अनुकूल हों। औरंगजेब शासकीय निर्णय लेते समय वह हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं करता था।
जब शाहजहां सम्राट था और औरंगजेब के पास कुछ सूबों का शासन होता था, तो उसके पास जो हिन्दू अधिकारी थे उसने उनके लिए उसने समय समय पर उन्नति तथा वेतन वृद्घि के लिए शाहजहां से सिफारिश की और उनको जागीरें भी दीं।16
1--औरंगजेब ने सूबा एजलपुर की दीवानी के लिए रायकरण राजपूत की सिफारिश बादशाह से की, किन्तु बादशाह ने इसे अस्वीकार कर दिया। औरंगजेब इससे काफी निराश हुआ, परन्तु उसने बादशाह की अनदेखी करते हुए उसकी उन्नति की ।
2--नरसिंह दास ,जो असीरगढ के किले का किलेदार था, उसकी सेवाओं की प्रशंसा की और उसके वेतन में वृद्घि की सिफारिश बादशाह से की ।
3--औरंगजेब जब स्वयं शासक हुआ तो उसने हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया और समय -समय पर उनकी पदोन्नति की। कुछ नाम ये हैं--राजा भीमसिंह, महाराणा जयसिंह का भाई, इन्द्रसिंह, (महाराणा जयसिंह का भाइ) राजा मानसिंह , राजा रूपसिंह का पुत्र इत्यादि ।
4--औरंगजेब के शासन काल में हिन्दू मनसबदारों (अफसर) की संख्या सबसे अधिक थी। अकबर के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या केवल 32 थी, जहांगीर के समय में यह 56 हो गई। औरंगजेब के समय में यह बढकर 104 हो गई। इससे स्पष्ट है कि वह प्रशासनिक कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि औरंगजेब के शासन में कुल मनसबदारों का 34 प्रतिशत हिन्दू थे, जो कि इससे पहले अधिक से अधिक 22 प्रतिशत थे और अकबर के समय में ये 12 प्रतिशत थे।
5--औरंगजेब की सेना का सेनापति जयसिंह था, जो शिवाजी के विरुद्घ लड़ा था। औरंगजेब ने राजा जयसिह को मिजा की उपाधि दी थी। औरंगजेब की सेना में हिन्दू सैनिकों की संख्या मुसलमानों से कहीं अधिक थी। औरंगजेब और शिवाजी की लड़ाई कभी भी हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं रही। यह मुगलों और मराठों की लड़ाई भी नहीं थी। बहुत से इज्जतदार मराठा सरदार हमेशा मुगलों की सेना में रहे। सिंद खेड के जाधव राव के अलावा कान्होजी शिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचंद्र और बहीर जी पंढेर आदि मराठा सरदार मुगलों के साथ रहे।
औरंगजेब ने राजनीतिक कारणों से न केवल मंदिरों का बल्कि मस्जिदों को भी गिरवाया।18 ध्यान देने की बात यह भी है कि औरगजेब ने राजनीतिक कारणों से मंदिरों को दान में जागीरें और जमीनें भी दीं।
औरगंजेब ने बनारस के गवर्नर के नाम एक फर्मान जारी किया था, जिस पर नजर डालने से दूसरे धर्मों के प्रति उसके रवैये का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है:
कई लोग गुमराही के रास्ते पर चलकर बनारस और उसके आस पड़ोस के कुछ मकानों में रहने वाले हिंदुओं के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार करते हैं और उस क्षेत्र के मंदिरों के सेवक और पुजारी ब्राह्मणों की गतिविधियों में रोड़े अटकाते हैं। जबकि इन मंदिरों और पुजारियों का इन देवालयों से बहुत पुराना संबंध चला आ रहा है। वे लोग चाहते हैं कि इन्हें देवालयों की सेवा के कार्यों से वंचित कर दें, जो सेवा यह पुरोहित वर्ग एक लंबे समय से करता आ रहा है। इस क्रूरता के कारण यह वर्ग काफी परेशान हो गया है। लिहाजा यह हुक्म दिया जाता है कि इस नेक फर्मान के पंहुचने के बाद यह बात सुनिश्चित कर दी जाए कि कोई भी आदमी इस क्षेत्र के बसने वाले ब्राह्मणों और हिंदुओं की दुख-तकलीफ का कारण नहीं बनेगा ताकि वे लोग प्राचीन विधि-विधान के अनुसार अपनी जगहों और ओहदों पर रहकर माबदौलत की मजहबी जि़दगी के लिए दुआएं करें और हम्द-ए-इलाही में मशगूल रहें। इस बारे में जमा-दी-उल-सानिया, 1059 हिजरी में यह फर्मान लिखा गया।19क
औरगंजेब ने उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट में बालाजी मंदिर, गुवाहटी में उमानन्द मंदिर, शत्रुंजय में जैन मंदिर और उत्तरी भारत में फैले गुरुद्वारों को अनुदान दिए। अहमदाबाद के जैन मंदिर के न्यासियों के पास आज भी औरंगजेब का रूक्का है, जो उस समय एक जैन मुनि को दिया गया था। इस मंदिर के निर्माण का श्रेय औरंगजेब को ही है। इलाहाबाद नगरपालिका में सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर के लिए जागीर और नकद उपहार दिए और साथ में यह हिदायत दी कि 'यह जागीर देवता की पूजा और भोग के लिए दी जा रही हैÓ।18
गौर करने की बात है कि औरंगजेब ने जो मंदिर तोड़े या गिराये उनमें से अधिकतर उसके राज्य की सीमा से बाहर थे। उसके अपने राज्य की सीमा में तोड़े जाने वाले मंदिरों की संख्या बहुत कम है। यदि औरंगजेब धार्मिक नफरत के कारण मंदिर तोड़ता तो उसके लिए सबसे आसान बात तो यही थी कि वह अपने राज्य में बिना किसी रोक टोक के मंदिर तोड़ सकता था। इससे साफपता चलता है कि मंदिर तोडऩे का कारण धार्मिक तो कतई नहीं था, और यह राजनीतिक था ।
असल में, मध्यकाल में विशेष पूजा स्थल सत्ता का चिन्ह था। जब कोई राजा दूसरे राजा पर हमला करता था तो वह उसकी सत्ता के सारे चिन्हों को मिटा देना चाहता था। अधिकतर पूजा स्थलों के टूटने की यही वजह है।19
साम्प्रदायिक लोग औरंगजेब के बारे में कहते हैं कि उसने धार्मिक घृणा के कारण मंदिरों को गिराया, जबकि ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही सच्चाई बताते हैं। वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर औरंगजेब ने क्यों गिराया इसके बारे में डा. पट्टाभि सीतारमैया ने दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर अपनी पुस्तक 'दि ्रफैदर्स एंड दि स्टोन्सÓ में इस तथ्य का वर्णन निम्न प्रकार से किया है:-
विश्वनाथ मंदिर के बारे में कहानी यह है कि एक बार जब औरंगजेब बंगाल जाने के लिए वाराणसी से गुजर रहा था तो उसके साथी हिन्दू राजाओं ने अनुरोध किया कि यदि वहां एक दिन विश्राम कर लिया जाए तो उनकी रानियां गंगा में स्नान करके भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर सकती हैं। रानियों ने पालकियों में यात्रा की। उन्होंनेेेेेे गंगा में स्नान किया और पूजा के लिए विश्वनाथ मंदिर गर्इं। पूजा के बाद सभी रानियां वापस लौट आर्इं, लेकिन कच्छ की रानी वापस नहीं आई। पूरे मंदिर में तलाश की गई लेकिन रानी कहीं नहीं मिली। जब औरंगजेब को इसका पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने रानी की खोज करने के लिए बड़े अधिकारियों को भेजा। अन्तत: उन्हें पता चला कि दीवार में जड़ी गणेश की मूर्ति को इधर उधर सरकाया जा सकता था। जब मूर्ति को हटाया गया तो उन्हें तहखाने जाने वाली सीढिय़ां मिलीं। वहां रानी को रोते हुए पाया उसकी इज्जत लूटी जा चुकी थी। तहखाना ठीक भगवान की मूर्ति के नीचे था। राजाओं ने इस जघन्य अपराध के लिए कड़ी सजा की मांग की। औरंगजेब ने आदेश दिया कि पवित्र स्थान को अपवित्र कर दिया गया है। भगवान विश्वनाथ को किसी दूसरे स्थान पर ले जाया जाए और महंत को गिरफ्तार करके सजा दी जाए।20
औरंगजेब बहुत सादा जीवन व्यतीत करता था वह अपने हाथों से टोपी सिलकर उसी की आमदनी से अपना खर्च चलाता था। वह मुख्यत: जौ की रोटी, शाक और मिठाई खाता था। 'रूक्कात-ए-आलमगीरÓ के नाम से औरंगजेब के पत्रों का संकलन हुआ है, जिसमें उसके व्यक्तित्व के दिलचस्प पहलुओं का पता चलता है। औरंगजेब भारतीय संस्कृति का प्रेमी था। उसने होली पर कविता लिखी, होली के त्यौहार को वह आदर की भावना से देखता था और होली खेलता था।21
अनगिन आनंद बसंत मुबारक, साहिनि साहि औरंगजेब जू
तुम ऐसे ही अनगिन बरस लौ, हम मंगल मुखिनि संग खेलो धमधार ।।
औरंगजेब कई भाषाओं का विद्वान था। अरबी, तुर्की के साथ हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञाता था। उसने हिन्दी में कविताएं भी लिखी हैं-
चरण धर- धर मेरे गृह लालन भए खाए आए मेरे।
तन के दुख सब दूर गए सुख आए मेरे नेरै।।
मृदंग बजावहु मंगल गाबहु भागन हो पाए
कर रही प्रथम ही जतन बहुतेरे।
साह औरंगजेब प्रीतम अब मैं धन जनम कर
मानत जब आखिन मन हेरे।
$
पाक परवरदिगार, करीम रहीम बन्दे निवाज।
जित देखूं तू ही तू भर रहो, तेरी कुदरत को काउ न पावै राजौ नियाज
$$
आचार्य चतुरसेन ने औरंगजेब के साहित्य संरक्षण के बारे में लिखा है--''हिन्दी का वह प्रेमी था। उसने हिन्दी में काव्य रचना भी की तथा हिन्दी कवियों का सत्कार भी किया। वृंद कवि को औरंगजेब दस रुपया रोज देता था ।ÓÓ
शिवाजी की सेना में बहुत अधिक पठान मुसलमान थे। उनका व्यक्तिगत सचिव मौलवी हैदर अली खान था, जो कि औरंगजेब और मुगल अधिकारियों के साथ शिवाजी के गोपनीय पत्राचार को देखता था। शिवाजी का मुख्य तोपची भी इब्राहिम गर्दी खान था। शिवाजी के सेनापति दौलतखान और सिद्दीक मिसरी थे, दोनों मुसलमान थे। औरंगजेब ने जब शिवाजी को आगरा की जेल में कैद कर लिया था, तो उनको वहां से निकालने वाला व्यक्ति मदारी मेहतर नाम का मुसलमान था।22 हिन्दू और मुस्लिम राजा के बीच कलह था तो उसका कारण राजनीतिक था न कि धार्मिक। ''वे जब आगरा गए तो उनके साथ मदारी मेहतर नाम का मुसलमान युवक था। शिवाजी महाराज के अपने डेरे से निकल जाने के बाद अंत में वही उनके डेरे से बाहर निकला। अफजल खां से मिलने के समय महाराज के साथ इने गिने दस आदमियों में सिद्दी इब्राहीम था। महाराज का पहला सरनोबत अर्थात सेनापति नूरखां बेग था। ई. सन 1673 में जब बहलोलखां पर प्रतापराव गूजर ने हमला किया, उस समय सिद्दी हिलाल नामक सरदार अपने पांचों बेटों सहित बहलोल से लड़ रहा था। जंजिरे के सिद्दी को मार भगाने वाला दौलतखां महाराज के जहाजी बेड़े का सरदार था।ÓÓ23
शिवाजी दूसरे धर्म के लोगों का तथा दूसरे धर्म की शिक्षाओं, विश्वासों व पूजा पद्घतियों का सम्मान करते थे। शिवाजी ने अपने जगदीशपुर महल के सामने मस्जिद बनवाई थी, जिसमें वह हर रोज पूजा के लिए जाता था। शिवाजी दूसरे धर्मों के संतों और फकीरों का आदर करते थे। 'हजरत बाबा याकूत बहुत थोरवालेÓ को उन्होंनेेेेे जीवन पेंशन दे रखी थी। गुजरात के फादर एम्ब्रोस जिनका चर्च खतरे में था उनकी भी शिवाजी ने मदद की थी।
शिवाजी ने अपने सिपाहियों को सख्त आदेश दे रखे थे कि लड़ाई या लूट के माल में मस्जिद, कुरान और नारी का अपमान नहीं होना चाहिए।24 एक बार उन्होंनेेेेेे लूट के माल में कुरान की प्रति देखी तो वे अपने सिपाहियों पर नाराज हो गए। आखिरकार कुरान की प्रति उसके घर पहुंचा दी गई जिसके घर से लेकर आए थे। उनके मन में स्त्रियों के प्रति बहुत सम्मान था। एक बार उनके सिपाही कल्याण के सूबेदार का घर लूटकर, लूट के माल के साथ उसकी बेटी भी ले आए। शिवाजी को इस पर बहुत पछतावा हुआ और उस युवती को उन्होंने इज्जत के साथ डोली में बिठाकर उसके घर भेज दिया। जैसे एक भाई बहन की विदाई में उपहार देता है उसी तरह शिवाजी ने युवती को उपहार में दो गांव दिए।
शिवाजी ने समर्थ रामदास स्वामी को अपना गुरु धारण किया। स्वामी रामदास ने मराठी भाषा के प्रसिद्घ कवि व सूफी शेख मोहम्मद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा कि ''शेख मोहम्मद तुम महान हो। तुमने संसार के रहस्य को ऐसे ढंग से और ऐसी भाषा में उद्घाटित किया है जो कि सामान्य व्यक्ति की समझ से परे है। तुमने समस्त संसार की मूलभूत एकता और पहचान को सच्चे अर्थों में ग्रहण किया है। तुमने हमारे ऊपर अहसान किया है, हम आपके ऋणी हैं और इस ऋण को अपने शरीर और आत्मा को आपके चरणों में अर्पित करके भी नहीं चुका सकते। मैं आपके पैरों की पवित्र धूल अपने सिर पर लूं। शिवाजी के विचारों और जीवन पर ऐसे महान संत का प्रभाव था।
शिवाजी के पूर्वज सभी धर्मों के महान संतों का सम्मान करते थे। जिसका असर उनके जीवन पर था। प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा की पत्नी मौलीजी ने महाराष्ट्र के खुलदाबाद के सूफी संत शाह शरीफजी से आशीर्वाद लिया और उनके आश्रम में रही। यह भी प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा के कोई संतान नहीं थी, और शाह शरीफ जी के आशीर्वाद से उनको दो पुत्र हुए। कहा जाता है कि शाह शरीफ जी को सम्मान देने के लिए ही शिवाजी के पिता का नाम शाहजी रखा गया था।
सिक्ख धर्म के सिद्धांत व पूजा विधान साझी संस्कृति की अद्भुत मिसाल है। ''गुरु अर्जुन देव ने हरिमंदिर की नींव, जिसे बाद में स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा, लाहौर के एक मुसलमान फकीर मियां मीर के हाथों रखवाई।ÓÓ24क गुरु अर्जुनदेव ने सिक्खों की पवित्र-पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहब का संकलन किया, जिसमें उन्होंने बिना किसी भेदभाव के हिंदू और मुस्लिम संतों की वाणी को स्थान दिया। ''गुरु ग्रंथ साहब में संकलित वाणी सिख गुरुओं की ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों, जाति आदि के 36 अन्य संत-फकीरों की रचनाएं भी संग्रहीत हैं। इनमें बंगाल के जयदेव, अवध के गुरुदास, महाराष्ट्र के नामदेव, त्रिलोचन व परमानंद, उत्तरप्रदेश के बेनी, रामानंद, पीपा, सेन, कबीर, रविदास और भीखन, राजस्थान के धन्ना और पंजाब के जिला मुलतान से फरीद जी हैं। इतना ही नहीं, इनमें से कुछेक तथाकथित नीच जाति के थे। कबीर एक जुलाहा थे, नामदेव दर्जी, सदना कसाई, सेन नाई तथा रविदास चमार थे। ग्रंथ साहेब के संकलनकत्र्ता ने जाति अथवा धर्म को रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया। धन्ना एक जाट था। फरीद साहेब एक मुस्लिम फकीर थे तो भीका जी इस्लाम धर्म के विद्वान थे। जयदेव एक हिंदू रहस्यवादी कवि थे।
जिस समय एक सिक्ख गुरु ग्रंथ साहेब के सामने अपना सिर झुकाकर मार्गदर्शन की याचना करता है, वह सुप्रसिद्ध मुस्लिम सूफी संत फरीद और कृष्ण भक्त जयदेव के प्रति वैसी ही भक्ति भावना प्रकट कर रहा होता है।ÓÓ24ख
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने ही खालसा पंथ की नींव रखी। वे धार्मिक कट्टरता व अंधविश्वासों के विरुद्घ थे। सढौरा के सैयद बुधूशाह, जो अपने संत स्वभाव के कारण प्रसिद्घ थे, उन्होंनेेेेेे गुरु की सेवा के लिए पांच सौ पठानों को भी भेजा था, लेकिन वे धन के लालच में गुरु का साथ छोड़़ गए। जब बुधूशाह को इस बात का पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ और अपने चार बेटों, एक भाई और सात सौ सिपाहियों के साथ गुरु की सेवा में हाजिर हो गया। भंगानी नामक स्थान पर पहाड़ी राजाओं औैर गुरु गोबिन्द सिंह के बीच घमासान युद्घ हुआ। इस लड़ाई में बुधूशाह के रिश्तेदारों ने और सैनिकों ने बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। गुरु के रिश्ते का भाई संगाशाह और पीर बुधूशाह के दो पुत्र मारे गए। गुरु ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए पीर बुधूशाह को कृपाण, कंघा, अपने कुछ टूटे हुए केश और पगड़ी भेंट की। नाभा में ये वस्तुएं आज भी पवित्र स्मृति चिन्हों के रूप में संजो कर रखी हुई हैं।
गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन से जुड़ी हुई कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो साझा संस्कृति की अद्भुत मिसाल हंै। चमकौर की घमासान लड़ाई के बाद गुरु की जान बचाने के लिए उनके बचे हुए पांच शिष्यों ने आदेश दिया कि वे वहां से चल जाएं। भारी मन से इस बात को स्वीकार किया गया और रोपड़ और लुधियाना के बीच माछीवाड़ा के जंगल में वे पहुंच गये। पैदल चलने के कारण गुरु के पैरों में छाले पड़ गए थे, और उनसे चला नहीं जा रहा था। यहां पहले से निर्धारित योजना के तहत उन्हें तीन सिक्ख मिले। जहां वे ठहरे थे वहां उनकी मुलाकात दो पठानों से हुई, उनमें से एक के घर वे रुके। मुगल सेना गुरु की तलाश में वहां पहुची, सेना ने पूरे घर की तलाशी ली, मगर गुरु को नहीं पा सकी। इन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह को छिपा लिया था। वहां से सुरक्षित निकालने के लिए दो पठानों और तीन सिक्खों ने गुरु को चारपाई पर लिटाया और यह कहकर मुगल सेनाओं के बीच से निकाला कि यह हमारा पीर है, यह हाल ही में हज करके लौटे हैं और आज कल इनका व्रत चल रहा है।
गुरु गोबिन्द सिंह ने सभी धर्मों को समान समझा। वे धार्मिक आधार पर भेदभाव को अनुचित समझते थे। उन्होंनेेेेेे अपने अनुयायियों से कहा कि दूसरे धर्मोंं का आदर करो । सभी मनुष्यों को एक समान मानने के लिए कहा।
मानस की जाति सबै एक पहचानबो
गुरु गोबिन्द सिंह ने इशर््वर और अल्लाह में कोई अन्तर नहीं किया। उनका मानना है कि सभी धार्मिक ग्रन्थों में एक जैसी शिक्षाएं हैं चाहे वह कुरान हो जिसे मुसलमान पवित्र मानते हैं चाहे वह वेद या पुराण हों जिसे हिन्दू पूज्य मानते हैं। इनमें मूलभूत एकता है इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्मों के बीच व्याप्त एकता के सुत्रों को ढूंढा। उनका मानना था कि गंगा को पूज्य मानने वाले लोगों और मक्का को पवित्र मानने वाले लोगों में कोई्र अन्तर नहीं है।

देहुरा मसीत सोइ,
पूजा और निमाज ओइ।
$$
करता करीम सोई
राजक रहीम ओई
दूसरो न भेद कोइ।
$$
पुरान और कुरान ओई।
$$
केते गंगबासी केते मदीना मका निवासी।
$$
बेद पुरान कतेब कुरान अभेद।
$$
हैदरअली के बाद टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष किया। टीपू सुल्तान को अकबर के बाद सबसे उदार शासक माना जाता है, जिसने जनता में धार्मिक भेदभाव मिटाने के लिए कदम उठाए। उन्होंनेेेेेे दक्षिण भारत के बहुत से मंदिरों को जागीरें दान दे रखी थी, ताकि उनका रख रखाव और देखभाल एवं पूजा आदि ठीक ढंग से हो सके। एक बार मराठा सेना ने टीपू सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया, परन्तु उनको हार का मुंह देखना पड़ा तो उन्होंनेेेेे वापस हटते हुए बस्तियों को तहस नहस किया और शहर के पास कावेरी नदी पर स्थित श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और उसको क्षति पहुचाई तो टीपू सुल्तान ने बिना किसी भेदभाव के उसकी मुरम्मत करवाई और उसका पुनर्निमाण करवाया।25
टीपू सुल्तान के मन में हिन्दू-धर्म के प्रति कितना आदर था तथा हिन्दुओं का टीपू सुल्तान पर कितना विश्वास था इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वह जब भी किसी अभियान पर निकलता था तो वह श्रृंगेरी में स्थित हिन्दुओं के मठ के शंकराचार्य से आशीर्वाद लेकर निकलता था। उसने इस मठ में शारदा की मूर्ति के निर्माण के लिए धन दिया। श्री रंगनाथ का प्रसिद्घ मंदिर उनके महल से केवल 100 गज की दूरी पर था।
बहादुर शाह जफर अन्तिम मुगल सम्राट थे। 1857 भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम इनके नेतृत्व में लड़ा गया। इस लड़ाई में हिन्दू और मुसलमानों ने मिलकर भाग लिया। बहादुरशाह जफर ने अपने जीवन के आखिरी दम तक में भारत देश के प्रति वफादारी दिखाई। उन्होंनेेेेेे अपनी रचना में लिखा
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्त लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की 26
वे भारत की मिट्टी से इतना प्यार करते थे कि जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों ने उनके जवान बेटों के सिर काट कर उनके सामने पेश किए तो उन्होंनेेेेेे उफ् तक नहीं की। उनको इस देश से कितना प्यार था उसका अन्दाजा इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है:--
कितना बदनसीब है जफर दफन के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कूए यार में
बहादुरशाह जफर हिन्दुस्तान में दफन होना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह भी नसीब नहीं हुआ। उनको रंगून जेल में भेज दिया गया था। बहादुर शाह जफर की रचनाओं में साम्प्रदायिक सद्भाव के दर्शन होते हैं। इनकी नजर में हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं था। हिन्दुओं के त्यौहारों को उतने ही उल्लास के साथ मनाते थे, जितने कि मुसलमानों के त्यौहारों को। इन्होंने दशहरा, होली और दीपावली को उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से इनकी होली नामक कविता अत्यंत स्वाभाविक तथा मनमोहक है:--
क्यों मोपर रंग की मारी पिचकारी देखो कुंवर जी दूंगी गारी।
''अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डालने से भी यह सच्चाई सामने आ जाती है कि भारत में अंग्रेजी राज के कायम होने से पहले मुसलमानों और हिंदुओं के मधुर संबंध थे और भावनात्मक एकता अपने चरम बिन्दु पर पहुंच चुकी थी। उनके जीवन के हर क्षेत्र में आत्मीयता, एकता, समता और भाईचारे की भावना दिखाई देती है। दोनों के सामाजिक आदर्शों में समझौते का भाव पाया जाता है और विभिन्न धार्मिक आस्थाओं में एक ऐसा मेल-जोल नजर आता है जो विगत शताब्दियों की स्वस्थ और पवित्र परंपराओं का एक मिला जुला नतीजा था।
हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता और समता पैदा करने के प्रयासों का परिणाम एक समन्वित संस्कृति के रूप में दिखाई दिया जो न तो विशुद्ध मुस्लिम संस्कृति थी और न उसे विशुद्ध हिन्दू संस्कृति ही कहा जा सकता है बल्कि यह मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम संस्कृति थी। दोनों जातियों के जीवन के हर क्षेत्र में यह संस्कृति बहुत गहरे में प्रवेश कर गई थी। हिंदू और मुसलमान कवियों और लेखकों के लिखने और कहने का ढंग एक जैसा ही था। हिंदू रचनाकार अपनी कृतियों को उसी ढंग से शुरू करते थे जिस तरह मुसलमान।ÓÓ27

मुसलमान व हिन्दू कवियों के मिले-जुले स्वर को देखकर ही आधुुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है:
अलीखान पठान सुता सह ब्रज रसवारे।
सेख नबी रसखान मीर अहमद हरि प्यारे।।
निरमल दास कबीर ताज खां बेगम बारी।
तानसेन कृष्णदास बिजापुर नृपति दुलारी।
पिरजादी बीबी रास्तो पदरज नित सिर धरिए।
इन मुसलमान हरिजन पै कोटिन हिन्दुन वारिए।।

संदर्भ:
1- कुंवरपाल सिंह; भक्ति आन्दोलन:इतिहास और संस्कृति भक्ति आन्दोलन: प्रेरणा स्रोत एवं वैशिष्ट्य, वासुदेव सिंह का लेख; पृ.185
2- भारत में बाबर आया तो वह मुस्लिम शासक इब्राहिम लोधी से लड़ा, हुंमायू और शेरशाह सूरी के बीच घमासान लड़ाई हुई और दोनों मुसलमान थे। महाराणा प्रताप और अकबर की लड़ाई में अकबर का सेनापति हिन्दू राजपूत मानसिंह था, तो महाराणा प्रताप का सेनापति मुसलमान पठान हकीम सूर खान था। गुरु गोबिन्द सिंह की मुगल शासक औरंगजेब के साथ लड़ाई थी तो उनका कितने ही मुसलमानों ने साथ दिया था। शासकों की इन लड़ाइयों के कारण राजनीतिक थे, लेकिन अंग्रेजों ने इनको धार्मिक लड़ाइयों की तरह से प्रस्तुत किया।
3-यदि वह धार्मिक कारण से ऐसा करता तो उसके हजारों मील के सफर में सैंकड़ों मन्दिर आए, लेकिन उसने किसी को भी नहीं छुआ। गौर करने की बात यह है कि उसकी सेना में बहुत बड़ी संख्या हिन्दू सिपाहियों की थी, उसके बारह सेनापतियों में पांच हिन्दू थे।
4-जिन क्षेत्रों में मुस्लिम शासकों की राजधानी थी, वहां धर्मान्तरण कम हुआ आज भी दिल्ली व आगरा के आसपास मुसलमानों की संख्या दस प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, लेकिन जो आज पाकिस्तान है वहां जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा मुसलमान बना था, जबकि मुस्लिम सत्ता का केन्द्र दिल्ली-आगरा रहा। विख्यात पाकिस्तानी इतिहासकार एस.एम. इकराम ने टिप्पणी की है: ''अगर मुसलमानों की आबादी के फैलाव के लिए मुसलमान सुल्तानों की ताकतें ज्यादा जिम्मेदार हैं तो फिर यह अपेक्षा बनती है कि मुसलमानों की अधिकतम आबादी, उन क्षेत्रों में होनी चाहिए, जो मुस्लिम राजनीतिक शक्ति के केन्द्र रहे हैं। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद, अहमदनगर और बीजापुर, यहां तक कि मैसूर में भी, जहां कि कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने जबरन लोगों को इस्लाम में धर्मान्तरित करवाया, मुसलमानों का प्रतिशत बहुत कम है। राजकीय धर्मान्तरण के परिणामों को इसी तथ्य से नापा जा सकता है कि मैसूर राज्य में मुसलमान बमुश्किल पूरी आबादी पांच प्रतिशत हैं। दूसरी ओर, जबकि मालाबार में इस्लाम कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं रहा, लेकिन आज भी मुसलमान कुल आबादी के करीब तीस प्रतिशत हैं। उन दो प्रदेशों में जहां मुसलमानों की सघनतम आबादी है - यानी आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान मेें - इस बात के साफ-स्पष्ट सबूत हैं कि धर्मान्तरण उन रहस्यवादी सूफी सन्तों की वजह से हुआ जो सल्तनत के दौरान हिन्दुस्तान आते रहे। पश्चिमी क्षेत्र में तेहरवीं सदी में यह प्रक्रिया उन हजारों धर्मवेत्ताओं, सन्तों, धर्म प्रचारकों की वजह से ज्यादा सुकर बनी जो मंगोलों के आतंक से पलायन कर भारत आए।ÓÓ
5- कुंवर पाल सिंह; पृ. 269 प्रो. नूरुल हसन का लेख भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता से
6-
7-डा. महीप सिंह; गुरुनानक; सरस्वती विहार,दिल्ली; 1989; पृ.39
8- डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़14
9-
10- एस.आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृृ. 81
11-एस आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृ. 81
12-मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ. 15
13- असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया: ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ. 19,
14- रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ. 346
15- हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के बारे फैलाया कि वह हर रोज लाखों हिन्दुओं के जनेऊ काटकर दोपहर का खाना खाता था, उसने इस्लाम को प्रचारित करने के लिए तलवार का सहारा लिया, वह हिन्दू धर्म से इतनी नफरत करता था कि उसने हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिए मंदिरों को तोड़ा और मूर्तियों को नष्ट किया। दूसरी और मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे कि वह इस्लाम को प्रसारित करने के लिए अवतार हुआ हो और उसने सारे काम शरीयत के अनुसार किए। दोनों सम्प्रदायों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के व्यक्तित्व को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया बल्कि अपने राजनीतिक हितों के लिए उसे तोड़ा मरोड़ा । दोनों धर्मों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए औरंगजेब का इस्तेमाल किया। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायिक तत्वों ने हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने के लिए इसका प्रयोग किया, तो मुसलमान साम्प्रदायिक शक्तियों ने इसके चरित्र को महिमा मंडित किया, उसे इस्लाम के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करके उसे आदर्श मुस्लिम शासक ठहराया।
16- डॉ इकबाल; अहमद सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली; 1993; पृ. 15
17 गोलकुण्डा के विख्यात तानाशाह ने राज्य की जनता से कर वसूल लिया, लेकिन उसने दिल्ली का हिस्सा नहीं दिया। उसने खजाने को धरती में गाड़ दिया और उस पर मस्जिद बना दी। जब औरंगजेब को इस बात का पता चला तो उसने मस्जिद को गिराने का हुक्म दिया।
18-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली; 1995; पृ. 12
19- इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें हिन्दू राजाओं ने दूसरे राजा की सीमा में आने वाले मंदिरों को तोड़ा। परमार राजा हिन्दू धर्म से संबंधित थे, लेकिन उन्होंनेेेेेे जैन मंदिरों को तोड़ा। कश्मीर के राजा हर्षदेव ने मूर्तियों को मंदिरों से हटाया, उसने तो मूर्तियां हटाने के लिए 'देवोतपत्नायकÓ नामक अधिकारी नियुक्त कर दिया था। मराठों ने टीपू सुल्तान के राज्य में पडऩे वाले श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और नष्ट किया, और टीपू सुल्तान ने उसकी मुरम्मत करवाई। अंग्रेज शासकों ने भारत की जनता की एकता को तोडऩे के लिए इतिहास को इस ढंग से प्रस्तुत किया था और उन्हीं का सहयोग करने वाली तथा लोगों के भाईचारे व एकता को तोडऩे वाली साम्प्रदायिक शक्तियों ने हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए इसे प्रयोग किया, जबकि यह मध्यकाल के शासकों की सामान्य विशेषता है। सभी शासक चाहे वह हिन्दू था या मुसलमान पूजा स्थलों को तोड़ते थे।
19क- मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ.10
20-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ.-14
21- डॉ इकबाल अहमद; सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली;1993; पृ.16
22-गो.प.नेने;छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस,दिल्ली;1974; पृ.41
23-गो.प.नेने; छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस, दिल्ली; पृ.93
24-रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.346
24क-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.15
24ख-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.39
25 डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़39
26 के.एल.जौहर; स्वतन्त्रता संग्राम के अमर शहीद; स्नेह प्रकाशन,नोयडा; पृ. 113
27-मुहम्मद उमर, भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1996, पृ.13