आम आदमी के दु:खदर्द का कवि : शिव रमन
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
शिव रमन की कविताओं के केन्द्र में हाशिये पर जी रहे दबे-कुचले, वंचित-पीडि़त-शोषित लोग हैं। कविताओं में मौजूद ये लोग हमारे आस पास ही होते हैं। आमतौर पर ये भद्रजन की घृणा ही पाते हैं, लेकिन शिव रमन का कवि इनकी मानवीयता को इस तरह से उदघाटित करता है कि ये पाठक की सहानुभूति पाते हैं। सरल सी दिखने वाली कविताओं में मौजूद समाज के अन्तर्विरोध व जटिल यथार्थ को पाठक की पैनी नजर आसानी से पकड़ सकती है।
शिव रमन की कविता में परम्परा का और वर्तमान, नवीन और प्राचीन का द्वन्द्व उदघाटित हुआ है। यद्यपि कवि अतीत के प्रति संवेदनशील व जुड़ाव महसूस करते हैं, अतीत में जी रहे के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी स्वयं अतीत मोह का शिकार नहीं हुए, इसीलिए न तो नवीन को अपनाने वाले को गरियाते हैं और न ही पुरातन को उपेक्षित करते हैं। नवीन और प्राचीन की इस बहस में कवि तर्कसंगत व विवेकपरक रुख अपनाते हैं। 'रामू काका' और 'मनसा पुजारी' के माध्यम से इस सवाल की विभिन्न परतों को उद्घाटित किया है। पुराना चाहे कितना ही मोहक क्यों न हो, लेकिन अन्तत: नवीन को अपनाना ही पड़ता है और जो पुराने से ही चिपटे रहते हैं उनकी हालत 'रामू काका' सी होती है, जो जीवन की मुख्यधरा से कटकर अपनी प्रासंगिकता खो गया है, जिस पर दया की जा सकती है, भिखारी समझा जा सकता है।
रामू काका अब चौपाल पर
नहीं बैठता
उसकी कर्कश आवाज
और हुक्के पर ठहाके व राज
सुनने वाले नहीं रहे
रामू अब गांव के बाहर
मंदिर की गिरी दीवार के पास
बरगद के नीचे बैठता है
अकेला बिल्कुल अकेला
एक बूढ़ा कुत्ता
जिसे रामू ने ही पाला है
उसका हम प्याला
हम निवाला है
दिन में कोई दो चार बार
राम-राम की दुआ सत्कार
सुनता-सुनाता गिनता रहता
तीज त्यौहार
रामू काका चौपड़ों में पिटे मोहरे सा
गिरे मकान के नोहरे सा
अपने बूढ़े बोझ को
लाठी पर झुकाये
कभी-कभार चेहरे पर
आधी मुस्कान लाए
अब रेल के स्टेशन पर
हर रोज चला जाता है
ऊंची आवाज में कभी कबीर का दोहा
तो कभी रामायण की चौपाई गाता है
कोई एक दो सवारी
उसे कागज का रूपया देती
तो साफ मना कर
लाठी ठोकता
वापिस अपने नोहरे पर
लौट जाता है
'मनसा पुजारी' बदलते वक्त की नब्ज पहचानने की कोशिश करता है। उसके साथ चलने का प्रयास करता है। इसलिए 'हर नई चीज में मीन मेख निकालते हुए भी, शहर की खबर लाने वाले को गौर से देखते, बातों में कुरेदते, पहेलियों में टटोलते'। और जब मौका मिला तो उसने मंदिर के पुजारी के पेशे को छोड़कर शहर की कलाकार मंडली के साथ ढोल बजाने लगता है। मंदिर के पुजारी की बजाए शहर की कमाई के अवसर उसे लुभाते रहे हैं, वह जान चुका है कि परम्परागत पेशों में अब कोई गुजार व सम्मान नहीं है।
नए पेशे को अपना लिया।
गांव की दहलीज को पीछे धकेला
फिर चल दिया अकेला
और आज
शहर के थिरकने की लय पर
गुनगुनाता है
वाह-वाह लूट कर
सीटियां बजाता है
शायद शहर की बढ़ती भीड़ का
यह कोई अलग नूतन चेहरा है
नया और नवेला है
लेकिन इतनी भीड़ में
फिर भी अकेला है
फिर भी अकेला है
शिव रमन के कवि की पैनी नजर यह भी देख पाती है कि मनसा पुजारी खूब मस्ती भरे माहौल में रहते हुए भी अकेलेपन का शिकार है। मनसा पुजारी व रामू काका जैसे हाशिये पर जी रहे लोगों का अकेलापन व्यवस्थाजन्य है। वे दोनों तरह से ठगे जा रहे हैं। एक व्यवस्था में उनके लिए गुजारे का संकट है और स्वयं ही अप्रासंगिक हो रही है, तो दूसरी उनका उपयोग कर रही है। जिस जीवन को मनसा पुजारी अपनाता है, वहां गुजारा तो है, लेकिन व्यावसायिकता में उसे अधिमान नहीं देती। पूंजीवादी व्यवस्था में जी रहे व खूब मेहनत कर रहे लोग भी असंतुष्टि की स्थितियों में जी रहे हैं।
शिव रमन को 'एक सफल नागरिक' और 'एक बहुमुखी प्राणी' का जीवन-दर्शन स्वीकार नहीं, जिसके पास दूसरों के लिए कोई स्थान नहीं है, जो न दूसरों को बोलने की छूट देता है और न मुंह खोलने की। दूसरों के विकास के अवसर व मानवीय अधिकारों को छीन कर बने विशालकाय मानव से मानवता को खतरे का अहसास इनकी कविता में है। ये विशालकाय दानव हमारे समाज के हर पक्ष पर छाए हुए हैं, जो राजनीति में तानाशाह के रूप में नजर आयेगा, राष्ट्रों को लीलता साम्राज्यशाह, अर्थ-जगत को अपने पेट में समाते बहु-राष्ट्रीय कारपोरेट। 'एक बहुमुखी प्राणी' की विकराल व विराट शक्ति मानवता को लील रही है, लेकिन यह भी सही है कि अपनी विशालता के बावजूद यह कितना खोखला है कि यदि जरा सा भी प्रतिरोध हो तो यह अपने अन्दर सिकुडऩे लगता है।
एक बहुमुखी प्राणी
सहस्र हाथ हैं उसके
और पर भी
सहस्र पैर हैं उसके
और सर भी
जाल फैला रहा है अपना
टपकती लार से
अब हर ओर इसकी पकड़ है
ध्रुव से ध्रुव तक इसकी जकड़ है
यह कैसा विचित्र प्राणी
हिलोर से कलोल करता
अब उधम मचा रहा है
सब ओर
सामने ये मानवीय कंकाल
जिन्होंने नाच-नाच कर
अपनी मशालों को ही बुझा
लिया है
र$फता-र$फता
यह काला जाल
घुप्प अंधेरे में सरकता-सरकता
उनकी आंखों में आया है घिर
और फिर
इसके बोझ तले दबी
टूट बिखरेगी मानवता क्या?
आधुनिक समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि है जनतंत्र और विकास व शासन में सबकी भागीदारी। राजनीति हो या अर्थतंत्र या फिर धार्मिक ही क्यों न हो सबसे बड़ी टकराहट व अन्तर्विरोध यही है कि जनता में अपने अधिकारों को प्राप्त करने के प्रति चाह बढ़ी है तो डायनासोर की तरह सबको अपने पेट में समा रहा शोषक वर्ग उसे वंचित करना चाहता है। इसीलिए वह शिव रमन की नजर में मनुष्य से 'एक प्राणी' मात्र बन जाता है। मनुष्य से 'प्राणी' मात्र में तबदील हो गए 'सफल' लोगों की कथित फलता का रहस्य उनकी पाश्विक वृत्तियों का ही परिणाम है, जो दूसरे को खाकर ही फल-फूल सकते हैं। मानवता हमेशा परस्पर सहयोग में विकसित हुई है। मानवीय मूल्यों के प्रति न केवल चिंता यहां मौजूद है, जो कभी सीधे-सीधे कविताओं का विषय बन जाती है और कभी उसके संदर्भ से निकल कर आती है, बल्कि उसको खतरा कहां से है इसकी ओर भी हल्का सा संकेत कर जाती है।
एक सफल नागरिक ने
एक दिन
धीरे से
जीवन का रहस्य मुझे समझाया
जो मुंह खोले
उसकरा मुंह तोड़ दो
और जो बोले
उसे गूंगा कर दो
कुछ ले लो
कुछ दे दो
फिर देखो उसने कहा
माटी कैसे सोना उगलती है
एक स्वर्णमयी जीवन का
एक स्वर्णमयी सपना
साकार हो
दुनिया बदल देगा तुम्हारी।
कहता गया वो
सुनता गया मैं
मैंने उसे गौर से देखा
भावनाएं उसकी
चेहरे पर
कैसी-कैसी
आकृतियों के साथ
नाचती गईं।
उसकी सफल दुनिया का अनहद
बजता गया
मेरे कानों में।
जनतंत्र के लिए तड़प शिव रमन की कविता की बुनावट में है। कवि जब समाज की बुनावट को देखते हुए सम्बन्धों पर नजर डालता है तो वहां तनाव पाता है। आधुनिक समाज में किसी भी संस्था के सुचारू रूप से संचालन का आधर जनतान्त्रिक ढंग ही हो सकता है, लेकिन परिवार में जनतंत्र लगभग गायब है। स्त्री-पुरूष संबंन्धों में आपसी स्नेह व विश्वास नहीं है, जो परिवार की एकता का या सुखमय दाम्पत्य-जीवन का आधार हो सकता है, लेकिन हमारे समाज में हर स्तर पर सत्ता पर विराजमान लोगों की अभी जनतांत्रिक मानसिकता नहीं बनी है। पारिवारिक मूल्य सामाजिक मूल्यों से अलग नहीं होते, बल्कि जो परिवार में होता है वही समाज में होता है। इनके अभाव में समाज में असंगतियां पनप रही हैं तो इसके अभाव में घर-परिवार 'एक सराय' में परिवर्तित हो रहे हैं जो मानव के विकास की दिशा पर ही प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। घरों में पनप रहे इस तरह के सम्बन्ध तभी उजागर हो पातेे हैं जब कि कोई बड़ा विस्फोट हो जाता है। परिवार के बन रहे इस स्वरूप को मात्र पश्चिमी संस्कृति का हमला कहकर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता, बल्कि शिव रमन की कविता इस पर गंभीर चिंतन की जरूरत महसूस करती है।
शिव रमन की कविता में बड़े ही स्वत: स्फूर्त ढंग से समाज की प्रक्रियाएं निहित रहती हैं। चीजों के घटने के कारणों को वे सहज ही परिचित करवा देती हैं। 'रामू काका' 'ऊंची आवाज में कभी कबीर का दोहा, तो कभी रामायण की चैपाई गाता है' तो यह उसकी धार्मिक आस्था का नतीजा नहीं, बल्कि जीवन के खालीपन का परिणाम है। सामूहिक व सामुदायिक जीवन का अभाव व अकेलापन ही व्यक्ति को इस ओर धकेलता है। आज के दौर में धार्मिक-आस्था को भुनाते 'गुरूओं-बापुओं-बाबाओं' विस्फोट और उनका अरबों का कारोबार व इलेक्टोनिक मीडिया पर धार्मिक दर्शकों की संख्या के सामाजिक आधर को उदघाटित कर जाती हैं और इस ओर भी संकेत कर जाती हैं सामाजिक जीवन में ज्यों-ज्यों खालीपन बढ़ेगा, त्यों-त्यों इस ओर लोगों का रूझान बढऩा भी तय है। यह 'धार्मिक आस्था' आध्यात्मिक भूख से उपजी आन्तरिक जरूरत नहीं है, बल्कि परिस्थितिगत दबावों की उत्पति है। अपने जीवन के अकेलेपन को दूर करने व सामुदायिक भावना को प्रकट करने के लिए यहां आ रहे हैं। शिव रमन का कवि समाजशास्त्री की तरह से अपने पाठक को समाज में घटित हो रही प्रक्रियाओं के कारणों की इशारा कर जाता है और कविता प्रबोधन का कार्य करने लगती है।
शिव रमन गौड़ की कविता के 'मनसा पुजारी' व 'मस्जिद के मुल्ला' रहमत अली की दोस्ती हिन्दुस्तान की सांझी संस्कृति व जीवन को उदघाटित कर जाती है। जिस पर सर्वाधिक खतरा पिछले कुछ सालों में मंडरा रहा है। साम्प्रदायिक व धार्मिक कट्टरता की शक्तियां जीवन के साझेपन व इससे उपजे मूल्यों को कभी संस्कृति की रक्षा के नाम पर, कहीं राष्टवाद की छद्म शब्दावली प्रयोग करके समाप्त कर रही हैं । शिव रमन की कविता साम्प्रदायिक राजनीति व कथित शुद्ध संस्कृति के बरक्स मनसा पुजारी व रहमत की दोस्ती व जीवन की समस्याओं पर विचार-विमर्श से साम्प्रदायिक सद्भाव का जो विश्वसनीय चित्र अंकित करते हैं, वह पाठक के मन में अपनी छाप छोड़ता है।
रहमत मस्जि़द का मुल्ला
उसका पक्का दोस्त था
मदरसे की काँध पर
कभी वो दो मिल उठ बैठते
तो इधर-उधर की हाँक कर
धर्म व शरीयत के
उधड़ते धागों को कोसते
हर नई चीज़ में मीन मेख निकालते...
गांव के बाहर
पुरानी हवेली के खण्डहर में
कभी रात को
मनसा व रहमत
ख्याली पुलाव पकाते (मनसा पुजारी)
शिव रमन की कविता का बहुत ही जरूरी पक्ष है कि उनकी कविता में 'रहमत' और 'हैदर' जगह पाते हैं। कविता में आस पास मंडराते शोषित जन चुपचाप आ बैठते हैं और जीवित मनुष्य की तरह पाठक से रिश्ता कायम कर लेते हैं। 'रामू काका', 'राजपथ का भिखारी', 'हैदर', मनसा पुजारी', 'शरीफ आदमी' की जो छवि पाठक के दिमाग पर बनती है, वह इन व्यवस्था के सताये शोषित-पीडि़त आम लोगों प्रति सहानुभूति अर्जित करती है। पाठक की संवेदना को झकझोर कर इस ओर ध्यान खींचती है। इनके माध्यम से व्यवस्था के विकास व समृद्धि के दावों की पोल भी खुलती जाती है कि जब 'हैदर' अपनी पूरी मेहनत के बावजूद भी तांगा नहीं नहीं खरीद सकता, तो इसका शोषण के अलावा क्या कारण हो सकता है। शिव रमन का कवि इन वंचित-पीडि़त लोगों के सपनों में भी झांक आता है, जो उनके जीने का एकमात्र सहारा हैं। 'ख्याली पुलाव पकाते' रहमत व मनसा तथा हैदर के तांगा खरीदने व अपनी मेहनत आसान करने के खोखले सपने भी उनकी पैनी नजर से कविता का हिस्सा बन गए हैं। 'आम लोगों' की बदहाली भरे जीवन का कारण प्राकृतिक अयोग्यता या उनका निकम्मापन नहीं है, बल्कि शोषण है।
इस मानवीय जीवन के
कुछ बेहतरीन रंग
हीरे से तराशे और
जड़ दिए गए
राजाओं के तख्तो-ताजों में
और गुरबत में पली ये
आधी दुनिया अपने सपनों पर ही
जीती रही।
इतिहास के पन्नें बोलते हैं
ये आम लोग कई बार दाव पर लगाए गए
और कई बार हार दिए गये
होते रहे वे बार-बार कुर्बान
दबती रही हर बार ज़ुबान
फिर भी तैरते रहे वे टूटे जीर्ण पत्तों पर....
ये आम लोग
नए दरख़्त से उग पड़े
शिखा शिखा बढ़े
और झुरमुट में उमड़ पड़े
अब ये सब दरख़्त तरूण हैं
सब हरे हैं
और उस राजसी चिलकती
धूप से परे हैं। (आम लोग)
शिव रमन को इस बात की आशा है कि कभी न कभी ये आम लोग अपनी शक्ति व शोषकों के षडय़न्त्र को जरूर समझेंगे और अपने को मुक्त करेंगे। बदलाव का आकांक्षी कवि इसीलिए 'मुझे बुरा लगता है' के बाल-भिखारी के बारे में कहता है कि 'बस उसके हाथ में सिक्का थमा, एक अहसान मत करो, उसे कहीं बो दो, पेड़ बनेगा वो एक दिन, छाया करेगा, फल देगा'। आम लोगों के जीवन के प्रति जो हिकारत भरी औपनिवेशिक दृष्टि आम तौर पर नौकरशाहों व सत्ता के उच्च स्तरों पर विराजमान लोगों में पाई जाती है, वह शिव रमन की कविता में नहीं है, बल्कि वे 'राजसी चिलकती धूप से परे' आम जन के जीवन में मानवीय सार देखते हैं।
दनदनाती कारों के
चीखते पहियों से
दुबक कर एक ओर
जो डरा सा खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
हाई फाई स्पीकरों की
चिल-चिलाती आवाज़ों से
चुप हुआ एक ओर
जो मौन सा खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
दो पहियों पर सवार
नीला धुंआ छोड़ते
आधे-अधूरे सवारों के चक्रव्यूह में
उलझा सा जो एक ओर खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
और फिर
भागती जि़दगी की
दौड़धूप में पिछड़ा
यतीम सा जो एक ओर खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
और सशक्त समाज के
दाव पेंचों, तीर तेवड़ों
के मलबे में कुचला
दबा सा जो पड़ा है।
वह शरीफ आदमी है।
शिव रमन की कविताएं उनकी भावनाओं व मानसिक उद्गारों को व्यक्त करती हैं , इसीलिए उनकी कविताओं में संघर्ष करते आमजन नहीं आते, बल्कि पस्त व अपनी स्थितियों के मारे हुए आम जन आते हैं। कविता चूंकि उनके संघर्षों के बीच से नहीं उगी है, इसलिए इनमें न तो आम जन का खुरदरापन है और न ही उस जीवन के विरोधाभास। कोई व्यक्ति और विशेषतौर पर संवेदनशील कवि को अपने जीवन में अपने काम के दौरान ऐसे मौकों का अहसास अवश्य होता है, जब व्यवस्था की जरूरत और मानवीय सरोकार एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े होते हैं और यही अवसर होते हैं जब व्यवस्था के अमानवीय चेहरे को पहचान रहा होता है। शिव रमन के जीवन में ऐसे पल तो जरूर ही रहे होंगें, लेकिन वे द्वन्द्व, विसंगतियां व विरोधाभास पता नहीं क्यों उनके कवि व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाए। भारतीय नौकरशाही की लोकतांत्रिक की बजाए औपनिवेशिक मानसिकता और जनता की बजाए राजसत्ता के प्रति जबावदेही के बीच में कार्य कर रहे मानवीय सरोकारों के संवेदनशील कवि से उसके पाठक इस सच्चाई को व्यक्त करने की अपेक्षा अवश्य करते हैं।
शिव रमन की कविता में कहानी मौजूद रहती है, जिससे कविता आगे बढ़ती है। कविता में मौजूद आख्यान उसे सरलीकृत भी करता है और सतह पर भी रखता है। पाठक को कविता में प्रवेश करने में यह बाधा भी बनता है। वह कहानी की तरह से पढ़ता-सुनता है और कविता जिस स्तर पर पाठक में संवेदना जगाती है और उसकी मूल्य चेतना को खदबदाती है, उस स्तर पर पाठक को ले जाने में रूकावट पैदा करती है। शिव रमन के कवि को इस आसान ढर्रे को भेदने की जरूरत है जो कवि के लिए भी आसान रास्ता बनाती है और पाठक को भी पाठकीय-मशक्कत करने से दूर करती है।
ऐसे समय में जब कि समस्त मीडिया व सत्ता तंत्र इस करोड़ों-करोड़ आम जन की अनदेखी कर रहा है, प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में तथा सरकारी नीति-योजनाओं में इसके लिए कोई स्थान नहीं है। आम जन को अपनी कविताओं के केन्द्र में रखकर आम जन में आशा का संचार करने वाले शिव रमन हमारे समय के जरूरी कवि हैं।
शिव रमन की कविताओं के केन्द्र में हाशिये पर जी रहे दबे-कुचले, वंचित-पीडि़त-शोषित लोग हैं। कविताओं में मौजूद ये लोग हमारे आस पास ही होते हैं। आमतौर पर ये भद्रजन की घृणा ही पाते हैं, लेकिन शिव रमन का कवि इनकी मानवीयता को इस तरह से उदघाटित करता है कि ये पाठक की सहानुभूति पाते हैं। सरल सी दिखने वाली कविताओं में मौजूद समाज के अन्तर्विरोध व जटिल यथार्थ को पाठक की पैनी नजर आसानी से पकड़ सकती है।
शिव रमन की कविता में परम्परा का और वर्तमान, नवीन और प्राचीन का द्वन्द्व उदघाटित हुआ है। यद्यपि कवि अतीत के प्रति संवेदनशील व जुड़ाव महसूस करते हैं, अतीत में जी रहे के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी स्वयं अतीत मोह का शिकार नहीं हुए, इसीलिए न तो नवीन को अपनाने वाले को गरियाते हैं और न ही पुरातन को उपेक्षित करते हैं। नवीन और प्राचीन की इस बहस में कवि तर्कसंगत व विवेकपरक रुख अपनाते हैं। 'रामू काका' और 'मनसा पुजारी' के माध्यम से इस सवाल की विभिन्न परतों को उद्घाटित किया है। पुराना चाहे कितना ही मोहक क्यों न हो, लेकिन अन्तत: नवीन को अपनाना ही पड़ता है और जो पुराने से ही चिपटे रहते हैं उनकी हालत 'रामू काका' सी होती है, जो जीवन की मुख्यधरा से कटकर अपनी प्रासंगिकता खो गया है, जिस पर दया की जा सकती है, भिखारी समझा जा सकता है।
रामू काका अब चौपाल पर
नहीं बैठता
उसकी कर्कश आवाज
और हुक्के पर ठहाके व राज
सुनने वाले नहीं रहे
रामू अब गांव के बाहर
मंदिर की गिरी दीवार के पास
बरगद के नीचे बैठता है
अकेला बिल्कुल अकेला
एक बूढ़ा कुत्ता
जिसे रामू ने ही पाला है
उसका हम प्याला
हम निवाला है
दिन में कोई दो चार बार
राम-राम की दुआ सत्कार
सुनता-सुनाता गिनता रहता
तीज त्यौहार
रामू काका चौपड़ों में पिटे मोहरे सा
गिरे मकान के नोहरे सा
अपने बूढ़े बोझ को
लाठी पर झुकाये
कभी-कभार चेहरे पर
आधी मुस्कान लाए
अब रेल के स्टेशन पर
हर रोज चला जाता है
ऊंची आवाज में कभी कबीर का दोहा
तो कभी रामायण की चौपाई गाता है
कोई एक दो सवारी
उसे कागज का रूपया देती
तो साफ मना कर
लाठी ठोकता
वापिस अपने नोहरे पर
लौट जाता है
'मनसा पुजारी' बदलते वक्त की नब्ज पहचानने की कोशिश करता है। उसके साथ चलने का प्रयास करता है। इसलिए 'हर नई चीज में मीन मेख निकालते हुए भी, शहर की खबर लाने वाले को गौर से देखते, बातों में कुरेदते, पहेलियों में टटोलते'। और जब मौका मिला तो उसने मंदिर के पुजारी के पेशे को छोड़कर शहर की कलाकार मंडली के साथ ढोल बजाने लगता है। मंदिर के पुजारी की बजाए शहर की कमाई के अवसर उसे लुभाते रहे हैं, वह जान चुका है कि परम्परागत पेशों में अब कोई गुजार व सम्मान नहीं है।
नए पेशे को अपना लिया।
गांव की दहलीज को पीछे धकेला
फिर चल दिया अकेला
और आज
शहर के थिरकने की लय पर
गुनगुनाता है
वाह-वाह लूट कर
सीटियां बजाता है
शायद शहर की बढ़ती भीड़ का
यह कोई अलग नूतन चेहरा है
नया और नवेला है
लेकिन इतनी भीड़ में
फिर भी अकेला है
फिर भी अकेला है
शिव रमन के कवि की पैनी नजर यह भी देख पाती है कि मनसा पुजारी खूब मस्ती भरे माहौल में रहते हुए भी अकेलेपन का शिकार है। मनसा पुजारी व रामू काका जैसे हाशिये पर जी रहे लोगों का अकेलापन व्यवस्थाजन्य है। वे दोनों तरह से ठगे जा रहे हैं। एक व्यवस्था में उनके लिए गुजारे का संकट है और स्वयं ही अप्रासंगिक हो रही है, तो दूसरी उनका उपयोग कर रही है। जिस जीवन को मनसा पुजारी अपनाता है, वहां गुजारा तो है, लेकिन व्यावसायिकता में उसे अधिमान नहीं देती। पूंजीवादी व्यवस्था में जी रहे व खूब मेहनत कर रहे लोग भी असंतुष्टि की स्थितियों में जी रहे हैं।
शिव रमन को 'एक सफल नागरिक' और 'एक बहुमुखी प्राणी' का जीवन-दर्शन स्वीकार नहीं, जिसके पास दूसरों के लिए कोई स्थान नहीं है, जो न दूसरों को बोलने की छूट देता है और न मुंह खोलने की। दूसरों के विकास के अवसर व मानवीय अधिकारों को छीन कर बने विशालकाय मानव से मानवता को खतरे का अहसास इनकी कविता में है। ये विशालकाय दानव हमारे समाज के हर पक्ष पर छाए हुए हैं, जो राजनीति में तानाशाह के रूप में नजर आयेगा, राष्ट्रों को लीलता साम्राज्यशाह, अर्थ-जगत को अपने पेट में समाते बहु-राष्ट्रीय कारपोरेट। 'एक बहुमुखी प्राणी' की विकराल व विराट शक्ति मानवता को लील रही है, लेकिन यह भी सही है कि अपनी विशालता के बावजूद यह कितना खोखला है कि यदि जरा सा भी प्रतिरोध हो तो यह अपने अन्दर सिकुडऩे लगता है।
एक बहुमुखी प्राणी
सहस्र हाथ हैं उसके
और पर भी
सहस्र पैर हैं उसके
और सर भी
जाल फैला रहा है अपना
टपकती लार से
अब हर ओर इसकी पकड़ है
ध्रुव से ध्रुव तक इसकी जकड़ है
यह कैसा विचित्र प्राणी
हिलोर से कलोल करता
अब उधम मचा रहा है
सब ओर
सामने ये मानवीय कंकाल
जिन्होंने नाच-नाच कर
अपनी मशालों को ही बुझा
लिया है
र$फता-र$फता
यह काला जाल
घुप्प अंधेरे में सरकता-सरकता
उनकी आंखों में आया है घिर
और फिर
इसके बोझ तले दबी
टूट बिखरेगी मानवता क्या?
आधुनिक समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि है जनतंत्र और विकास व शासन में सबकी भागीदारी। राजनीति हो या अर्थतंत्र या फिर धार्मिक ही क्यों न हो सबसे बड़ी टकराहट व अन्तर्विरोध यही है कि जनता में अपने अधिकारों को प्राप्त करने के प्रति चाह बढ़ी है तो डायनासोर की तरह सबको अपने पेट में समा रहा शोषक वर्ग उसे वंचित करना चाहता है। इसीलिए वह शिव रमन की नजर में मनुष्य से 'एक प्राणी' मात्र बन जाता है। मनुष्य से 'प्राणी' मात्र में तबदील हो गए 'सफल' लोगों की कथित फलता का रहस्य उनकी पाश्विक वृत्तियों का ही परिणाम है, जो दूसरे को खाकर ही फल-फूल सकते हैं। मानवता हमेशा परस्पर सहयोग में विकसित हुई है। मानवीय मूल्यों के प्रति न केवल चिंता यहां मौजूद है, जो कभी सीधे-सीधे कविताओं का विषय बन जाती है और कभी उसके संदर्भ से निकल कर आती है, बल्कि उसको खतरा कहां से है इसकी ओर भी हल्का सा संकेत कर जाती है।
एक सफल नागरिक ने
एक दिन
धीरे से
जीवन का रहस्य मुझे समझाया
जो मुंह खोले
उसकरा मुंह तोड़ दो
और जो बोले
उसे गूंगा कर दो
कुछ ले लो
कुछ दे दो
फिर देखो उसने कहा
माटी कैसे सोना उगलती है
एक स्वर्णमयी जीवन का
एक स्वर्णमयी सपना
साकार हो
दुनिया बदल देगा तुम्हारी।
कहता गया वो
सुनता गया मैं
मैंने उसे गौर से देखा
भावनाएं उसकी
चेहरे पर
कैसी-कैसी
आकृतियों के साथ
नाचती गईं।
उसकी सफल दुनिया का अनहद
बजता गया
मेरे कानों में।
जनतंत्र के लिए तड़प शिव रमन की कविता की बुनावट में है। कवि जब समाज की बुनावट को देखते हुए सम्बन्धों पर नजर डालता है तो वहां तनाव पाता है। आधुनिक समाज में किसी भी संस्था के सुचारू रूप से संचालन का आधर जनतान्त्रिक ढंग ही हो सकता है, लेकिन परिवार में जनतंत्र लगभग गायब है। स्त्री-पुरूष संबंन्धों में आपसी स्नेह व विश्वास नहीं है, जो परिवार की एकता का या सुखमय दाम्पत्य-जीवन का आधार हो सकता है, लेकिन हमारे समाज में हर स्तर पर सत्ता पर विराजमान लोगों की अभी जनतांत्रिक मानसिकता नहीं बनी है। पारिवारिक मूल्य सामाजिक मूल्यों से अलग नहीं होते, बल्कि जो परिवार में होता है वही समाज में होता है। इनके अभाव में समाज में असंगतियां पनप रही हैं तो इसके अभाव में घर-परिवार 'एक सराय' में परिवर्तित हो रहे हैं जो मानव के विकास की दिशा पर ही प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। घरों में पनप रहे इस तरह के सम्बन्ध तभी उजागर हो पातेे हैं जब कि कोई बड़ा विस्फोट हो जाता है। परिवार के बन रहे इस स्वरूप को मात्र पश्चिमी संस्कृति का हमला कहकर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता, बल्कि शिव रमन की कविता इस पर गंभीर चिंतन की जरूरत महसूस करती है।
शिव रमन की कविता में बड़े ही स्वत: स्फूर्त ढंग से समाज की प्रक्रियाएं निहित रहती हैं। चीजों के घटने के कारणों को वे सहज ही परिचित करवा देती हैं। 'रामू काका' 'ऊंची आवाज में कभी कबीर का दोहा, तो कभी रामायण की चैपाई गाता है' तो यह उसकी धार्मिक आस्था का नतीजा नहीं, बल्कि जीवन के खालीपन का परिणाम है। सामूहिक व सामुदायिक जीवन का अभाव व अकेलापन ही व्यक्ति को इस ओर धकेलता है। आज के दौर में धार्मिक-आस्था को भुनाते 'गुरूओं-बापुओं-बाबाओं' विस्फोट और उनका अरबों का कारोबार व इलेक्टोनिक मीडिया पर धार्मिक दर्शकों की संख्या के सामाजिक आधर को उदघाटित कर जाती हैं और इस ओर भी संकेत कर जाती हैं सामाजिक जीवन में ज्यों-ज्यों खालीपन बढ़ेगा, त्यों-त्यों इस ओर लोगों का रूझान बढऩा भी तय है। यह 'धार्मिक आस्था' आध्यात्मिक भूख से उपजी आन्तरिक जरूरत नहीं है, बल्कि परिस्थितिगत दबावों की उत्पति है। अपने जीवन के अकेलेपन को दूर करने व सामुदायिक भावना को प्रकट करने के लिए यहां आ रहे हैं। शिव रमन का कवि समाजशास्त्री की तरह से अपने पाठक को समाज में घटित हो रही प्रक्रियाओं के कारणों की इशारा कर जाता है और कविता प्रबोधन का कार्य करने लगती है।
शिव रमन गौड़ की कविता के 'मनसा पुजारी' व 'मस्जिद के मुल्ला' रहमत अली की दोस्ती हिन्दुस्तान की सांझी संस्कृति व जीवन को उदघाटित कर जाती है। जिस पर सर्वाधिक खतरा पिछले कुछ सालों में मंडरा रहा है। साम्प्रदायिक व धार्मिक कट्टरता की शक्तियां जीवन के साझेपन व इससे उपजे मूल्यों को कभी संस्कृति की रक्षा के नाम पर, कहीं राष्टवाद की छद्म शब्दावली प्रयोग करके समाप्त कर रही हैं । शिव रमन की कविता साम्प्रदायिक राजनीति व कथित शुद्ध संस्कृति के बरक्स मनसा पुजारी व रहमत की दोस्ती व जीवन की समस्याओं पर विचार-विमर्श से साम्प्रदायिक सद्भाव का जो विश्वसनीय चित्र अंकित करते हैं, वह पाठक के मन में अपनी छाप छोड़ता है।
रहमत मस्जि़द का मुल्ला
उसका पक्का दोस्त था
मदरसे की काँध पर
कभी वो दो मिल उठ बैठते
तो इधर-उधर की हाँक कर
धर्म व शरीयत के
उधड़ते धागों को कोसते
हर नई चीज़ में मीन मेख निकालते...
गांव के बाहर
पुरानी हवेली के खण्डहर में
कभी रात को
मनसा व रहमत
ख्याली पुलाव पकाते (मनसा पुजारी)
शिव रमन की कविता का बहुत ही जरूरी पक्ष है कि उनकी कविता में 'रहमत' और 'हैदर' जगह पाते हैं। कविता में आस पास मंडराते शोषित जन चुपचाप आ बैठते हैं और जीवित मनुष्य की तरह पाठक से रिश्ता कायम कर लेते हैं। 'रामू काका', 'राजपथ का भिखारी', 'हैदर', मनसा पुजारी', 'शरीफ आदमी' की जो छवि पाठक के दिमाग पर बनती है, वह इन व्यवस्था के सताये शोषित-पीडि़त आम लोगों प्रति सहानुभूति अर्जित करती है। पाठक की संवेदना को झकझोर कर इस ओर ध्यान खींचती है। इनके माध्यम से व्यवस्था के विकास व समृद्धि के दावों की पोल भी खुलती जाती है कि जब 'हैदर' अपनी पूरी मेहनत के बावजूद भी तांगा नहीं नहीं खरीद सकता, तो इसका शोषण के अलावा क्या कारण हो सकता है। शिव रमन का कवि इन वंचित-पीडि़त लोगों के सपनों में भी झांक आता है, जो उनके जीने का एकमात्र सहारा हैं। 'ख्याली पुलाव पकाते' रहमत व मनसा तथा हैदर के तांगा खरीदने व अपनी मेहनत आसान करने के खोखले सपने भी उनकी पैनी नजर से कविता का हिस्सा बन गए हैं। 'आम लोगों' की बदहाली भरे जीवन का कारण प्राकृतिक अयोग्यता या उनका निकम्मापन नहीं है, बल्कि शोषण है।
इस मानवीय जीवन के
कुछ बेहतरीन रंग
हीरे से तराशे और
जड़ दिए गए
राजाओं के तख्तो-ताजों में
और गुरबत में पली ये
आधी दुनिया अपने सपनों पर ही
जीती रही।
इतिहास के पन्नें बोलते हैं
ये आम लोग कई बार दाव पर लगाए गए
और कई बार हार दिए गये
होते रहे वे बार-बार कुर्बान
दबती रही हर बार ज़ुबान
फिर भी तैरते रहे वे टूटे जीर्ण पत्तों पर....
ये आम लोग
नए दरख़्त से उग पड़े
शिखा शिखा बढ़े
और झुरमुट में उमड़ पड़े
अब ये सब दरख़्त तरूण हैं
सब हरे हैं
और उस राजसी चिलकती
धूप से परे हैं। (आम लोग)
शिव रमन को इस बात की आशा है कि कभी न कभी ये आम लोग अपनी शक्ति व शोषकों के षडय़न्त्र को जरूर समझेंगे और अपने को मुक्त करेंगे। बदलाव का आकांक्षी कवि इसीलिए 'मुझे बुरा लगता है' के बाल-भिखारी के बारे में कहता है कि 'बस उसके हाथ में सिक्का थमा, एक अहसान मत करो, उसे कहीं बो दो, पेड़ बनेगा वो एक दिन, छाया करेगा, फल देगा'। आम लोगों के जीवन के प्रति जो हिकारत भरी औपनिवेशिक दृष्टि आम तौर पर नौकरशाहों व सत्ता के उच्च स्तरों पर विराजमान लोगों में पाई जाती है, वह शिव रमन की कविता में नहीं है, बल्कि वे 'राजसी चिलकती धूप से परे' आम जन के जीवन में मानवीय सार देखते हैं।
दनदनाती कारों के
चीखते पहियों से
दुबक कर एक ओर
जो डरा सा खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
हाई फाई स्पीकरों की
चिल-चिलाती आवाज़ों से
चुप हुआ एक ओर
जो मौन सा खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
दो पहियों पर सवार
नीला धुंआ छोड़ते
आधे-अधूरे सवारों के चक्रव्यूह में
उलझा सा जो एक ओर खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
और फिर
भागती जि़दगी की
दौड़धूप में पिछड़ा
यतीम सा जो एक ओर खड़ा है
वह शरीफ आदमी है।
और सशक्त समाज के
दाव पेंचों, तीर तेवड़ों
के मलबे में कुचला
दबा सा जो पड़ा है।
वह शरीफ आदमी है।
शिव रमन की कविताएं उनकी भावनाओं व मानसिक उद्गारों को व्यक्त करती हैं , इसीलिए उनकी कविताओं में संघर्ष करते आमजन नहीं आते, बल्कि पस्त व अपनी स्थितियों के मारे हुए आम जन आते हैं। कविता चूंकि उनके संघर्षों के बीच से नहीं उगी है, इसलिए इनमें न तो आम जन का खुरदरापन है और न ही उस जीवन के विरोधाभास। कोई व्यक्ति और विशेषतौर पर संवेदनशील कवि को अपने जीवन में अपने काम के दौरान ऐसे मौकों का अहसास अवश्य होता है, जब व्यवस्था की जरूरत और मानवीय सरोकार एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े होते हैं और यही अवसर होते हैं जब व्यवस्था के अमानवीय चेहरे को पहचान रहा होता है। शिव रमन के जीवन में ऐसे पल तो जरूर ही रहे होंगें, लेकिन वे द्वन्द्व, विसंगतियां व विरोधाभास पता नहीं क्यों उनके कवि व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाए। भारतीय नौकरशाही की लोकतांत्रिक की बजाए औपनिवेशिक मानसिकता और जनता की बजाए राजसत्ता के प्रति जबावदेही के बीच में कार्य कर रहे मानवीय सरोकारों के संवेदनशील कवि से उसके पाठक इस सच्चाई को व्यक्त करने की अपेक्षा अवश्य करते हैं।
शिव रमन की कविता में कहानी मौजूद रहती है, जिससे कविता आगे बढ़ती है। कविता में मौजूद आख्यान उसे सरलीकृत भी करता है और सतह पर भी रखता है। पाठक को कविता में प्रवेश करने में यह बाधा भी बनता है। वह कहानी की तरह से पढ़ता-सुनता है और कविता जिस स्तर पर पाठक में संवेदना जगाती है और उसकी मूल्य चेतना को खदबदाती है, उस स्तर पर पाठक को ले जाने में रूकावट पैदा करती है। शिव रमन के कवि को इस आसान ढर्रे को भेदने की जरूरत है जो कवि के लिए भी आसान रास्ता बनाती है और पाठक को भी पाठकीय-मशक्कत करने से दूर करती है।
ऐसे समय में जब कि समस्त मीडिया व सत्ता तंत्र इस करोड़ों-करोड़ आम जन की अनदेखी कर रहा है, प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में तथा सरकारी नीति-योजनाओं में इसके लिए कोई स्थान नहीं है। आम जन को अपनी कविताओं के केन्द्र में रखकर आम जन में आशा का संचार करने वाले शिव रमन हमारे समय के जरूरी कवि हैं।
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