प्रथम स्वतंत्रता संग्राम : हिन्दी साहित्य की प्रेरणा व अभिव्यक्ति
1857 का संग्राम भारतीय समाज के लिए निर्णायक घटना है, जिसने भारतीय समाज को कई तरह से प्रभावित किया। इसके प्रभाव स्वरूप समाज आधुनिक विचार और चेतना की शुरूआत हुई। ''हिन्दुस्तानी बग़ावत बड़ी होशियारी से तैयार की गई किसी साजिश का नतीजा नहीं थी और न ही इसके पीछे किन्हीं होशियार रणनीतिकारों का दिमाग था। दरअसल, हुआ यह कि सौ बरस के दरमियान कंपनी के निजाम से हिन्दुस्तानी अवाम की दूरी बन गई थी और धीरे धीरे उन्हें अहसास हो गया था कि एक विदेशी कौम ने मुल्क पर कब्जा जमा लिया है। जैसे ही इस अहसास ने फैलाव हासिल कर लिया, बगावत के पूफट पडऩे के हालात तैयार हो गये। ऐसा कुछ इन्सानों के द्वारा रची गई साजिश के तहत नहीं बल्कि सारे अवाम की नाराजगी के नतीजे के तौर पर होना ही था।ÓÓ1 इस संग्राम में समाज के सभी वर्ग शामिल थे, इसमें राजे रजवाड़े भी थे, किसान भी, सैनिक भी, कारीगर भी, दलित भी और स्त्री भी। इसमें लाखों लोगों की जानें गईं। स्वाभाविक है कि जिन लोगों ने इस महासंग्राम में भाग लिया, वे समाजार्थिक कारणों से इसमें भाग ले रहे थे। 1857 के महासंग्राम में इतने बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी और बहादुरीपूर्ण संघर्ष व इसके महानायकों के चमत्कारिक व्यक्तित्व की चकाचौंध में इसकी विचारधारा अक्सर विमर्श से गायब हो जाती है। इस संग्राम की विचारधारा पर विचार करना महत्त्वपूर्ण है। 1857 का स्वाधीनता संग्राम साम्राज्यवाद विरोध, साम्प्रदायिक सद्भाव, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की प्रेरणा रहा, स्त्रियों की भागीदारी ने उनकी परम्परागत छवि को तोड़कर मुक्ति के द्वार खोल दिए। अपनी इस विचारधारा के कारण ही 1857 का स्वतंत्रता-संग्राम पूरे स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान प्रेरणा का स्रोत बना रहा। वरन् कुर्बानी और बहादुरी के भीषण युद्ध के उदाहरण तो इतिहास में भरे पड़े हैं।
प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम का वर्ग चरित्र और संभ्रात की चुप्पी
असल में 1857 के संग्राम में किसानों, दस्तकारों और सिपाहियों ने (जो किसान ही थे) बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। अंग्रेजी नीतियों की सर्वाधिक मार भी इन्हीं वर्गों पर पड़ी थी। राजे-रजवाड़े भी अपने अपने कारणों से इनके साथ संघर्ष में कूद पड़े थे। जिस तरह से किसानों ने महाजनों की बहियों को पूफंका व सरकारी संपति का लूटा उससे साफ जाहिर है कि यह शोषितों का शोषक शासकों के प्रति आक्रेाश था जो संगठित सेना का आसरा पाकर पूफट पड़ा था।
1857 के संग्राम के वर्ग-चरित्र को जानने के लिए इसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति से भी अनुमान लगाया जा सकता है। ''हमारी हिन्दी भाषा के लिखित साहित्य में इस घटना का कहीं कोई नामोनिशान नहीं मिलता।ÓÓ2 लोक गीतों में और लोकस्मृति में तो 1857 के नायकों के और घटनाओं के चित्र भरे पड़े हैं। चाहे वे कुंवरसिंह के बारे में हों या रानी लक्ष्मीबाई के बारे में, लेकिन तत्कालीन शिक्षित व संभ्रांत साहित्यकारों ने इस पर रचनाएं नहीं लिखी और इस पर उन्होंने कुछ लिखा भी तो जन-विद्रोह के पक्ष में नहीं, बल्कि अंग्रेजों के पक्ष में लिखा और विद्रोहियों के विरूद्ध। जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी के बावजूद उन्नीसवीं सदी के हिन्दी-उर्दू साहित्य में विद्रोह की घटनाओं के राष्टीय परिप्रेक्ष्य को केन्द्र में रखकर न तो कोई कहानी लिखी गई और न कोई उपन्यास।भद्र साहित्यकार इसके प्रति उदासीन ही रहे। उन्नीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों के रवैये को असद जैदी ने '1857: सामान की तलाशÓ3 कविता में सही शब्दों में व्यक्त किया है:
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चन्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सतावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रों, ईश्वरचन्द्रों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सतर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई।
राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्दÓ हों या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सभी ने अपनी रचनाओं में अंग्रेजी शासन के गुण गाए। राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्दÓ ने '1857 का बलवा इतिहास तिमिरनाशक, दूसरा खंडÓ में गदर में शामिल लोगों को बदमाश करार दिया और महारानी विक्टोरिया के शासन के कसीदे पढ़े। उन्होंने लिखा कि ''देखो, प्लासी की लड़ाई से इस सौ बरस के अन्दर सर्कार कंपनी बहादुर ने क्या क्या काम कर दिखलाए और हमारे हिन्दुस्तान के मुल्क को कहां से कहां पहुंचा दिया! जिस जमीन में लोग गाय भी नहीं चराते थे वहां अब सुन्दर खेतियां होती हैं, जहां जमींदार नित बाकी मालगुजारी की इल्लत में पकड़े बांधे जाते थे वहां अब पक्के बन्दोबस्त की बदौलत किस्त ब किस्त मालगुजारी अदा कर के पांव फैलाये सोते हैं, जिन रास्तों में बकरी का गुजर न था वहां बग्गियां दौड़ती हैं, जहां अशरफियों को बहली मयस्सर न थी वहां आनों पर रेलगाडिय़ां हाजिर हैं, जहां कासिद नहीं चल सकता था वहां तार की डाक लग गई, जहां काफिलों की हिम्मत नहीं पड़ती थी वहां अब एक बुढिय़ा सोना उछालती चली जाती है, जहां हजारों की तिजारत होती थी वहां करोड़ों की नौबत पंहुच गई, जिन्हें दिन भर मजदूरी करने पर भी पाव भर सतू या चना मिलना कठिन था उनकी उजरत अब चार आने आठ आने रोज से कम नहीं, जिन किसानों की कमर में लंगोटी दिखलाई नहीं देती थी उन की घरवालियां गहने झमकाती फिरती हैं। क्या पुल और क्या नहर, क्या मुसाफिरखाने और क्या दारूशिपग, क्या पुलिस और क्या कचहरी, क्या इंसाफ और क्या कानून, क्या इल्म और क्या हुनर, क्या जिन्दगानी का जरूरी असबाब और क्या ऐश का सामान, जो कुछ इस कंपनी के राज में देखा गया, न पहले किसी के ख्याल में आया था न आज तक कहीं सुना गया, मानो जंगल पहाड़ झाड़ झंखाड़ से इस देश को बाग हमेश: बहार बना दिया। क्या महिमा है अपरम्पार सर्वशक्तिमान जगदीशवर की कि इंगलिस्तान के जिन सौदागरों ने और दुकानदारों ने कंपनी बनकर अपने बादशाह के हिन्दुस्तान में तिजारत करने की सनद हासिल की, आज उन्होंने इस सारे हिन्दुस्तान ''जन्नत निशानÓÓ खुलासे जहान की निष्कंटक सल्तनत अपने बादशाह श्रीमती इंगलैंडश्वरी क्वीन विक्टोरिया को (ईश्वर दिन दिन बढावे प्रताप उसका) नजर की। ..... हे पाठक जनों! ईश्वर से यही प्रार्थना करो कि हमारी मलिक: क्वीन विक्टोरिया का राज चिरस्थायी हो, सदा ईश्वर ऐसी प्रजापालक मलिक: को हम लोगों के सिर पर बना रहे।ÓÓ4
प्रतापनारायण मिश्र और बदरीनारायन चैधरी 'प्रेमघनÓ ने भी अपनी कविताओं में इस विद्रेाह के बारे में नकारात्मक संकेत दिये हैं। वे इसको अराजक तत्वों की करतूत मानते हैं।
प्रतापनारायण मिश्र लिखते हैं - 'जब 1857 में सेना के एक हिस्से ने विद्रोह किया तब आम जन मजबूती से सत्ता के पक्ष थे/रहे।
प्रेमघनÓ भी इसीप्रकार लिखते हैं -
पूरब मय में डूबा था, आदमी आंतक ग्रस्त थे,
जो यह सोचते थे कि जाति और धर्म संकट में हैं
उन लोगों ने कुछ मूर्ख सिपाहियों को और शैतान लोगों को
अपने साथ किया और भारी तबाही मचाई।
अपनी ही बर्बादी के बीज बोये।ÓÓ5
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वर्ग चरित्र को देखने के लिए उसके प्रति आभिजात्य का नजरिया मिर्जा गालिब के 'दस्तम्बूÓ में स्पष्ट है। मिर्जा गालिब के शब्दों से इन सिपाहियों के लिए टपक रही नफरत असल में निम्न वर्ग के प्रति थी। उन्होने लिखा कि 'जो लोग जमीन से मिट्टी खोदकर और उसे बेचकर अपना पेट पालते थे, आज उन्होंने उस मिट्टी से सोना पा लिया है...वे प्रतिष्ठित जन, जो इन युवतियों को श्र(ा और स्नेह की सेज पर बिठाते थे, उनका स्थान अब इन तुच्छ व्यक्तियों ने ग्रहण कर लिया है। ये नए-नवेले तुच्छ अमीर इस प्रकार अपना अभिमान प्रदर्शित करते हैं कि जैसे अथाह पानी पर घास तैर रही हो।...कठोर व्यवस्था और कानून में विश्वास करने वालो! तुम्हीं बताओ, यह अराजकता और अशासनिक व्यवस्था मातम करने योग्य नहीं है क्या? खुदा की दी हुई दौलत पर लूटमार, डाक-व्यवस्था की खराबी और दोस्तों तथा रिश्तेदारों की खबर ना मिलना, क्या इन सब पर रोना उचित नहीं है? ... सिपाही आज बादशाह और भिखारी दोनों पर एक तरह से हुकूमत कर रहे हैं....ÓÓ6 मिर्जा गालिब की सिपाहियों व बागियों के लिए गाली गलौच की भाषा पर उतर आते हैं तो इस लिए कि वे कथित जाहिलों, गंवारों का शासन सहन नहीं कर सकते थे। वे अपने आभिजात्य दृष्टिकोण के कारण 1857 के स्वाधीनता संग्राम को देख रहे थे। वे अपने घर में दुबके बैठे थे और स्वतंत्रता के लड़ाकों पर अपनी नफरत बरसा रहे थे।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रति साहित्यकारों के इस रुख को पहचानकर ही रविन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े दुखी मन से लिखा कि ''उस दिन मैने 1857 के महान विप्लव के क्रान्तिकारी दृश्यों के बीच झांक कर देखा और ऐसे अनेक बहादुर लोगों की कल्पना की जो पूरे जोश के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अराजकता के बीच प्रयास करते हुए संघर्ष की कार्रवाई में उतरे थे। यह माना गया कि इस सिपाही-युद्ध के दौरान कई नायकों ने अपनी उफर्जा का उपयोग एक गैर जरूरी बहादुरी के बिन्दु तक किया। यदि इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी यह जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि ये सिपाही वास्तव में बहादुर थे। उनका नामोल्लेख विश्व के महानतम वीरों में किया जाना चाहिए। इस देश का कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे वीरों के जीवन-वृतांत हमें विदेशियों द्वारा लिखे गए पक्षपाती इतिहास के पन्नों से जुटाने पड़ते हैं। इस सिपाही विद्रोह काल में हम ऐसे अनेक वीर यो(ाओं को चिह्नित कर सकते हैं जो यदि यूरोप में पैदा हुए होते तो उन्हें इतिहास के पन्नों में ही नहीं, कवियों के गीतों, मार्बल की प्रतिमाओं और उफंचे स्मारकों में अमर बनाने के प्रयास अवश्य होते।ÓÓ7
''1860 के बाद हिन्दी-उर्दू के पत्रकार ही नहीं, साहित्यकार, पेशेवर शिक्षित मधयवर्ग, दुकानदार, व्यापारी को यदि सामूहिक रूप से देखें तो पता चलता है कि अधिकांश लोग महारानी विक्टोरिया द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज खत्म कर सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन हिन्दुस्तान का अधिग्रहण करने की घोषणा के साथ तमाम तरह के आशावादी सपने देखने लगे थे। अंग्रेजी राज की विजय-दुदुंभी में अपना सुर भी मिला रहे थे। बगावत को जंगे आजादी न कहकर सिपाहियों और बदमाशों का उपद्रव बताने वाले औपनिवेशिक प्रचारतंत्र के समर्थक और पुर्जा बनने में ही अपना और देश का हित सोचते थे।ÓÓ8
भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की घटनाओं के बिम्ब उस राजनीति और भावना के अनुकूल हिन्दी में नहीं मिलते, जिस राजनीति और भावना से ओतप्रोत होकर बागी सिपाही और जनसाधरण लड़े थे। हिन्दी के किसी पत्रकार या संपादक के साथ विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की बर्बरता की निर्भीक रिपोर्टिंग के लिए बर्बर सलूक के उदाहरण नहीं हैं, जबकि 'देहली उर्दू अखबारÓ के मालिक व संपादक मौलाना मुहम्मद बाकर को इसी कारण फंासी पर लटका दिया गया था।
साम्राज्यवाद विरोध और साम्प्रदायिक सद्भाव की प्रेरणा
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम की विचारधारा का ही प्रभाव था कि विदेशों में बसे भारतीयों ने अपने देश को आजाद करवाने के लिए जो संगठन बनाया और अखबार निकाला उसका नाम 'गदरÓ इसी की प्रेरणा था। गदर पार्टी के संस्थापकों ने अपने संगठन को धर्मनिरपेक्ष रखने की प्रेरणा भी इसी संग्राम से ली। जब भारत में अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर लड़ाने के लिए साम्प्रदायिक जहर का बीज बोना शुरू किया और अपने इस कुत्सित मकसद में सफल होने लगे तो क्रांतिकारियों ने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अपने पेंफलेट की शुरूआत ही यहीं से की कि 'हे 1857 के शहीदों! हमें बताओ कि तुम्हारे पास कौन सा जादू था कि तुम हिन्दू और मुसलमानों को इक_े रखने में कामयाब हुए।Ó अपना शासन सुरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करोÓ की नीति को अपनाया था, उन्होंने जनता की एकता को तोडऩे के लिए भाषा व धर्म की आड़ लेकर साम्प्रदायिकता को पैदा किया, जिसने अंग्रेजों के लिए शासन का रास्ता साफ कर दिया। पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान साहित्यकारों, राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी नेताओं को इस समस्या का सामना करना पड़ा। उन्होंने जनता को इसके प्रति बार बार आगाह किया। मुंशी प्रेमचन्द ने कितने ही लेख व संपादकीय इस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर लिखे और अपने उपन्यासों में इसे उठाया। शहीद भगतसिंह व उनके साथियों ने 'साम्प्रदायिक दंगे व इनका इलाजÓ तथा 'धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्रामÓ नामक लेख लिखकर इस पर विचार किया। अशफाक उल्ला खान तथा रामप्रसाद बिस्मिल ने इसे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए एकता स्थापित करने की बात कही। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने आखिरी संदेश में लिखा कि 'अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करें - यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।ÓÓ9 1857 में हिन्दू और मुसलमान एक होकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े थे। साम्प्रदायिक एकता की यह अद्भुत मिसाल है जो भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को एक दिशा देता रहा है। यद्यपि 1857 के दौरान व इसके तुरन्त बाद के साहित्य में साम्प्रदायिक वैमनस्य के चित्र दिखाई देते हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के चरित्रों व पात्रों को धेखेबाज, बदमाश के तौर पर प्रस्तुत किया गया, जिसका मुख्य कारण भद्र साहित्यकारों का जनक्रांति के प्रति उलझाव भरा दृष्टिकोण ही है। लेकिन बाद के साहित्यकारों ने, जिन्होंने 1857 को अपने साहित्य का आधार बनाया, उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के चित्रों के माध्यम से संघर्ष की साझी विरासत को रेखांकित किया। हिन्दू व मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखने वाले नायक इस संग्राम में इक_े थे। इस संघर्ष की इतनी पक्की नींव के कारण ही अंग्रेजों की लाख कोशिश करने के बाबजूद भी पूरे स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान साम्प्रदायिक राजनीति को आम जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया।
जिस भी नेता या संगठन ने सशस्त्र संघर्ष को अपने विरोध के तरीकों में रखा, 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम प्रेरणा रहा है। चाहे सावरकर हों, भगतसिंह या फिर सुभाष चन्द्र बोस सभी ने इसके शहीदों को याद किया। 'उस दौर के असली इतिहास की प्रतिध्वनियां स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान सुनाई देती हैं। 1944 में, रंगून में बहादुरशाह जफर के मकबरे पर आयोजित एक कार्यक्र्रम में, आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों ने भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी से आजाद कराने की कसम खायी थी। सुभाष चन्द्र बोस ने आजादी के लिए हथियार उठाने का जो आह्वान किया उसमें 1857 के शहीदों का नारा एक बार फिर गूंजा - दिल्ली का रास्ता, हमारी आजादी का रास्ता है।ÓÓ10
1857 का स्वाधीनता संग्राम जनता के मुक्ति के संघर्षों से सहानुभूति रखने वाले और उनके संघर्षों को वाणी देने वाले लेखकों की प्रेरणा रही है। 1857 से प्रेरणा लेकर लिखी 'क्रांति कथाÓ कविता की भूमिका में राही मासूम रजा ने लिखा कि ''मैं इस सवाल का जवाब दे सकता हूं कि मैने 1857 का इन्तखाब क्यों किया? मैंने आखिर 100 साल के बाद पलटकर उसे 'शिकस्त खुरदाÓ इन्कलाब की तरफ देखने की जरूरत क्यों महसूस की? 19वीं सदी की इस लड़ाई से 20वीं सदी में क्या नतीजे अक्स करना चाहता हूं? आखिर कहना क्या चाहता हूं? मैं कहना चाहता हूं कि अच्छे इंसानों की जीत हुई है, जीत हमेशा होगी। यह नजम मैं 15 अगस्त 1947 से पहले नहीं लिख सकता था। मगर उस दिन वह लड़ाई खत्म हो गई जो 9 मई 1857 को शिद्दत की एक मखसूस मंजिल तक पहुंच गई थी। मैं कहना चाहता हूं कि 1857 के बाद जिन लोगों ने ज़ेहनी शिकस्त तस्लीम कर ली वे गुमराह लोग थे और जिन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ किसी न किसी शक्ल में लड़ाई जारी रखी वे लोग दूरबीन थे और मैं जोर इस बात पर देना चाहता हूं कि अगर आज किसी लड़ाई में हम हार जाएं तो इसके माने यह नहीं है कि हम जंग हार गए। झांसी हारी है लड़ाई तो नहीं हारी है -
मरहले और भी हैं अबलापा और भी हैं।
सुन यह मुज़दा कई मैदाने बेग़ा और भी हैं।।
लड़ाई तो उस वक्त खत्म होगी जब हम जीत जायेंगे। हम न मैदान से हटे चाहें तो सदियां हट जाएं।
इस बात को वाजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से कोई बेहतर मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 इस नज़म का मौजूं नहीं है। इसका मौजूं कोई सन् नहीं है इसका मौजूं इन्सान है। जो कभी नहीं हारता। इन्सान के न हारने का यकीन मुझे इन्सान की तवील की तवारीख ने दिलाया है। मेरे नजदीक तवारीख मसवत काम यही है कि वह इन्सानियत पर हमारे यकीन को मोहकम करती रहती है। सुकरात जहर पी सकता है, इब्ने मरियम को मसलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवरेस्ट की तलाश में कई कारवां गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रहता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है।ÓÓ11
लोकसत्ता में विश्वास
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरोध का संघर्ष कई पड़ावों से गुजरा। गौर करने की बात है कि 1857 को साहित्य में तभी संदर्भ के तौर पर प्रयोग हुआ, जब कि स्वाधीनता-आन्दोलन संभ्रांत वर्ग के दायरे से निकल कर जनता के बीच आ गया। जब स्वाधीनता संघर्ष में जनता की सीधी भागीदारी होने लगी, तभी जनभागीदारी के उदाहरणों को रचनात्मक साहित्य का विषय बनाया गया। प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के जननायक रचनाओं का केन्द्र बने। लोकस्मृति में 1857 के प्रतिध्वनियां गंूज रहीं थीं, जिसे बाद के रचनाकारों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ उसे जोडऩे के लिए बखूबी प्रयोग किया। ''बीसवीं सदी के तीसरे दशक के बाद ही ट्टषभचरण जैन (गदर), प्रतापनारायण श्रीवास्तव (बेकसी का मजार), वंृदावन लाल वर्मा (झांसी की रानी), कमलाकांत त्रिपाठी (पाहीघर), राजीव सक्सेना (रमैनी), मोहनदास नैमिषराय (झलकारी बाई), और रवीन्द्र वर्मा ( मैं झांसी नहीं दूंगी) के उपन्यासों के द्वारा औपन्यासिक लेखन के क्षेत्र में बगावत की लोकस्मृति को प्रेरणादायक आह्वान का रूप दिया है।ÓÓ12
वृंदावनलाल वर्मा ने 'झांसी की रानीÓ उपन्यास का सार इन शब्दों में प्रस्तुत किया 'रानी स्वराज्य के लिए लड़ी, स्वराज्य के लिए मरी, और अपने आपको स्वराज्य की एक नींव का एक पत्थर बना दिया।Ó वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास की विषयवस्तु लोक से ली। सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी कविता में लिखा कि 'बुन्दले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह झांसी वाली रानी थी।Ó सुभद्रा कुमारी चौहान के बुन्दले-हरबोले लोकगायक ही तो हैं, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को जनता के बीच जिलाए रखा और हर पीढ़ी की स्मृति का हिस्सा बनाए रखा। कमलाकांत त्रिपाठी का 'पाही घरÓ भी लोक प्रचलित किस्सों व घटनाओं से अपनी रचना की सामग्री जुटाते हैं। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में एक गांव से दूसरे गांव तक 'चपातीÓ पहुंचाने का जिक्र किया है। जन मानस में इस समय की स्मृतियां अभी मौजूद हैं। जनता में 1857 के शहीदों के प्रति गहरा सम्मान व श्र(ा थी, इस श्र(ा को स्वतंत्रता की चेतना में तब्दील करनेे की आकांक्षा के परिणाम तौर पर ही सुभद्राकुमारी चौहान ने 'झांसी की रानीÓ कविता लिखी, लेकिन वह केवल रानी लक्ष्मीबाई को ही स्वतंत्रता संग्राम में स्थापित नहीं करती, बल्कि उनकी नजर में पूरा स्वतंत्रता आन्दोलन है। वे लिखती हैं:
छिनी राजधनी देहली की, लिया लखनउफ बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजोर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध,पंजाब,ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र निपात,
बंगाले,मद्रास आदि की
भी तो यही कहानी थी।
बुन्देले हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसीवाली रानी थी।
इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुधूपंत, तांतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगें जिनके नाम,
लेकिन आज जुर्म कहलाती,
उनकी कुरबानी थी।
बुंदेले-हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसीवाली रानी थी।13
पुरुषवादी स्त्री-बिम्ब को चुनौती
सुभद्रा कुमारी चौहान और वृंदावनलाल वर्मा ने इतिहास और लोक-मानस में रची-बसी रानी लक्ष्मीबाई को एक जीवंत, सक्रिय और नेतृत्व-क्षमता में प्रवीण रानी का चित्र प्रस्तुत किया है। रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का ऐसा चित्र खींचा है कि उसने स्त्री की 'अबलाÓ, 'बेचारीÓ, 'पुरुषाश्रितÓ, 'नाजुकÓ, 'कमजोरÓ व 'घरेलूÓ छवि की चिन्दी चिन्दी कर दी। महारानी लक्ष्मीबाई के अलावा 1857 में सक्रिय भाग लेने वाली बेगम हजरत महल, झलकारी बाई, अजीजुन बाई व सब्जपोश जैसी अज्ञात महिलाएं स्त्रियों की नेतृत्व-क्षमता में प्रवीण, बहादुर, साहसी ताकतवर स्त्री की छवि का निर्माण करती हंै। 1857 के महासंग्राम में स्त्रियों की भागीदारी स्त्री को भोग्या के रूप से बाहर निकालकर भारतीय स्त्री के विमर्श में एक नया अधयाय जोड़ती है। गौर करने की बात है कि बेगम हजरत महल और रानी लक्ष्मीबाई दोनों राजपरिवार में आने से पहले साधरण परिवारों से ही संबंध रखती थी। उन्होंने पतनशील सांमतवाद की संस्कृति को नहीं अपनाया था। वे जनता का सहयोग लेने के लिए उनके बीच आ गई। रानी लक्ष्मीबाई तो स्वाधीनता संग्राम से तीन साल पहले ही विधवा हुई थी, उन्होंने भारतीय विधवा के लिए 'आदर्श संहिताÓ को मानने से इन्कार करते हुए अपने बालों को काटने से साफ इन्कार ही नहीं किया था, बल्कि अपने बालों को कई तरह से बांधना शुरू किया था। लक्ष्मीबाई ने समाज के सबसे निचले वर्ग की झलकारी बाई कोली और अवन्ती बाई लोधी को अपनी सहयोगी बनाया। इनके सहयोग के कारण ही वे किले में ही शहीद होने से बचीं। बेगम हजरत महल भी लखनउफ की लड़ाई हारने के बाद देहात में चली गई और समाज के सबसे निचले वर्ग की उफदा देवी और बिजली पासी का सहयोग लिया।
बेगम हजरत महल जिस साहस व समझ बूझ से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी, वह अद्भुत मिसाल है। उन्होंने महारानी विक्टोरिया की घोषणा को भी मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपनी जनता और सेना का विश्वास हासिल किया। वे लोगों के बीच जाकर उन्हें संग्राम में शामिल करती थी। ''उनकी जो सफलता सबसे ज्यादा उतेजित करती है तथा जिसकी उपलब्धियां भी पराजय के बावजूद सर्वाधिक मूल्यवान मानी जा सकती हैं वो है अवधा के विभिन्न क्षेत्रों में उनका भ्रमण, राजाओं, ताल्लुकेदारों से उनका सम्पर्क व संवाद तथा पर्दे की ओट से जोशीली तकरीरें करना दुरूह बीहड़ जंगलों से युद्ध का संचालन करना। गौर से देखें तो यह सब एक आधुनिक स्त्री का विमर्श रचता हुआ महसूस होता है। नियति भी कैसी विडम्बनाओं से बंधी होती है। घोर पुरुषवादी समय में एक स्त्री संघर्ष कर रही थी - न्याय के लिए स्वाभिमान व अस्मिता की रक्षा के लिये। जिसमें राजसता की वापसी अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित थी, और जिसकी अन्तिम परिणति जीत व हार दोनों स्थितियों में पुरुष सता की मजबूती के रूप में ही सामने आने वाली थी। फिर भी यह क्या कम है कि रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल तथा अजीजन बाई इत्यादि ने तथा अन्य वीरांगनाओं ने अपने संघर्ष से जहां एक ओर बहुत सी पशोपेश में फंसी स्त्रियों को संघर्ष के मैदान में उतरने की प्रेरणा दी वहीं इस शिला लेख को भी संभव बनाया कि स्त्री लड़ सकती है, पुरुषों के समान उससे बेहतर भी। 1857 के संग्राम में बेगम हजरत महल की भूमिका वस्तुत: खूब लड़ी मर्दानी की पुरुषवादी अवधारणा को धवस्त करती है। उनके रणकौशल में उनके स्त्री होने का बड़ा योगदान है।ÓÓ14
अजीजुन बाई एक तवायफ थी, गाना-बजाना उसका काम था। सैंकेंड कैवेलरी के सिपाही शम्शुदीन खान के साथ अजीजुन के घनिष्ठ संबंध थे। उसके घर विद्रोहियों की बैठक हुआ करती थी। अजीजुन ने औरतों का एक दल भी बनाया था जो हिम्मत के साथ हथियारबन्द सिपाहियों को बढ़ावा देता हुआ घूमता था, उनके घावों की मरहम पट्टी करता था और उनके बीच हथियार व गोली-बारूद बांटता था। अजीजुन पुरुषों का वेश बनाकर घोड़े पर सवार होकर तमगों से सजकर और पिस्तौलों से लैस होकर निकलती थी। अजीजुन बाई का नाम अभी लोक स्मृति में दर्ज है, पिछले ही दिनों कानपुर में लोगों ने एक सड़क का नाम अजीजुन के नाम पर रखने की मांग की। अजीजुन परम्परागत भारतीय आदर्श व सम्मानित नारी की छवि में फिट नहीं होती है, लेकिन हाशिये पर पड़े समाज जिसे आमतौर पर सभ्य समाज पर 'कलंकÓ और 'नैतिक रूप से पतितÓ माना जाता है, उसके बारे में पुनर्विचार करने पर मजबूर करती है।15
ख्वाजा हसन निजामी ने 'बेगमात के आंसूÓ में 1857 में मुगलिया बेगमों पर गुजरे अत्याचार की कहानियां लिखी हैं। '1857 की कहानियांÓ लिखते हुए उन्होंने एक सब्जपोश की कहानी बताई है, जो स्त्री की वीरता व साहस को नयी परिभाषा देती है और स्त्री के बारे में प्रचलित मिथों को झुठला देती है। ख्वाजा ने लिखा कि ''दिल्ली के वे बूढ़े जो सन् 1857 के गदर में जवान थे आमतौर पर यह कहानी सुनाते हैं कि जिस जमाने में अंग्रेजी फौज ने पहाड़ी पर मोर्चे बनाए थे और कश्मीरी दरवाजे की तरफ से दिल्ली शहर पर गोलाबारी की जाती थी एक बुढिया मुसलमान औरत सब्ज लिबास पहने हुए शहर के बाजारों में आती और उफंची गरजदार आवाज में कहती, ' आओ चलो, खुदा ने तुमको जन्नत में बुलाया है।Ó
शहर के वासी यह आवाज सुनकर उसके आसपास इक_े हो जाते थे और यह उन सबको लेकर कश्मीरी दरवाजे पर हमला करती और शहरियों को सवेरे से शाम तक खूब लड़ाती।
कुछ लोग, जिन्होंने यह सब कुछ अपनी आंखों से देखा है, कहते हैं कि वह औरत बहादुर और दिलेर थी। उसको मौत का बिल्कुल डर नहीं था। वह गोलों और गोलियों की बौछार में बहादुर सिपाहियों की तरह आगे बढ़ी चली जाती थी। कभी उसको पैदल देखा जाता था और कभी घोड़े पर सवार। उसके पास तलवार और बंदूक और एक झंडा होता था। वह बंदूक बहुत अच्छी चलाती थी। जो लोग उसके साथ पहाड़ी के मोर्चे तक गए थे उनमें से एक व्यक्ति ने कहा कि वह तलवार चलाने में निपुण थी। और कई बार देखा गया कि उसने सामने वाली फौज से आमने-सामने तलवार से लड़ाई लड़ी।
उस औरत की दिलेरी और हिम्मत को देखकर शहर की जनता में बहुत जोश पैदा हो जाता था और वे बढ़-चढ़कर हमले करते थे। क्योंकि उन्हें लड़ाई का अभ्यास नहीं था इसलिए प्राय: उन्हें भागना पड़ता था। और जब वे भागते थे तो यह औरत उनको बहुत रोकती और आखिर मजबूर होकर खुद भी वापस चली आती। लेकिन वापस आने के बाद फिर किसी को यह पता न होता कि वह कहां चली जाती है और फिर कहां से आती है।
आखिर इसी तरह एक दिन ऐसा हुआ कि वह जोश से भरी हुई हमला करती, बंदूक से गोलियां दागती और तलवार चलाती मोर्चे तक पहुंच गई और वहां जख्मी होकर घोड़े से गिर गई। अंग्रेजी फौज ने उसे गिरप्फतार कर लिया। फिर किसी को मालूम नहीं हो सका कि वह कहां गई और उसका अंत क्या हुआ।ÓÓ16
सब्जपोश औरत का न तो किसी को नाम मालूम है और न ही वह किसी राज घराने से ताल्लुक रखती है, लेकिन उस साधरण औरत जिस भी कारण से लड़ रही थी, लेकिन उसकी निडरता यह तो सिद्ध कर देती है कि स्त्री पुरुष से किसी क्षेत्र में कम नहीं है।
हडसन ने इस औरत के बारे में फारसाइथ को जो लिखा वह स्त्री के बारे में बनी धारणा को टूक टूक कर देती है। उन्होंने लिखा कि ''मैं तुम्हारे पास एक बुढिय़ा मुसलमान औरत को भेज रहा हूं। यह विचित्र प्रकार की औरत है। यह सब्ज लिबास पहनकर शहर के लोगों को विद्रोह के लिए उकसाती थी और खुद हथियार लेकर उनकी कमान करती हुई हमारे मोर्चे पर हमले करती थी।
जिन सिपाहियों से इसका सामना हुआ है वे कहते हैं कि इसने कई बार बहुत दिलेरी और पौरूष से हमले किये और बहुत मुस्तैदी से हथियार चलाए और इसमें पांच पुरुषों के बराबर शक्ति है।ÓÓ17
1857 का स्वतंत्रता संग्राम मुक्ति के संघर्ष की जीवन्त घटना है, जो हर समय के साहित्यकारों और आजादी के लड़ाकों को प्रेरणा देती रही है और जब भी इन्सानियत के मूल्यों को स्थापित करने के लिए मानव इतिहास की ओर देखेगा तो उसे यह मिसाल जरूर याद आयेगी। जिस तरह से साम्राज्यवादी शोषण व लूट का शिकंजा कसता जा रहा है, साम्प्रदायिकता फासीवाद का सबसे विश्वसनीय औजार बनने लगी है, पितृसता व वर्णव्यवस्था के रास्ते ब्राह्मणवाद घर कर रहा है तो ऐसे में 150 वर्ष के बाद भारत के पहले स्वतंत्रता-संग्राम की संघर्ष चेतना व मूल्य अधिक प्रासंगिक हो गये हैं। इसीलिए 1857 का संदर्भ लेते हुए एक से एक बढिय़ा नाटक, कविताएं व कहानियां प्रकाश में आ रही हैं, साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाशित हो रहे हैं। वर्तमान को अभिव्यक्त करती ये रचनाएं मानवता के संघर्ष में परिवर्तनकारी निरन्तरता समेटे हुए हैं।
संदर्भ:
1 - नया पथ (मई 2007, मौलाना अबुल कलाम आजाद का इंडियन हिस्टारिकल रिकार्डस कमीशन की 31वीं बैठक, मैसूर, 25 जनवरी 1955 में दिया गया अधयक्षीय भाषण); सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान, 8 वि_लभाई पटेल हाउफस, नई दिल्ली; पृ.-7
2 - नया पथ (मई 2007, देवेन्द्र राज अंकुर का लेख नाटक और रंगमंच के आईने में 1857); सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान, 8 वि_लभाई पटेल हाउफस, नई दिल्ली;पृ.-97
3 - उदभावना (अप्रैल-जून 2007);सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-7
4 - राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्दÓ : प्रतिनिधि संकलन; सं. वीर भारत तलवार;नेशनल बुक टस्ट, इण्डिया; प्र. सं. 2004; पृ.-41
5 - उदभावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-460
6 - उदभावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; 33 से 35
7 - उद्भावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-2
8 - स्वाधीनता (शारदीय विशेषांक, 2007, मुरली मनाहर प्रसाद सिंह का लेख '1857: जंगे आजादी और तत्कालीन हिन्दी साहित्यÓ); सं. रामआह्लाद चैधरी, 31, अलीमुद्दीन स्ट्रीट, कोलकाता;पृ.-134
9 - याद कर लेना कभी (शहीदों के खत); प्रकाशन विभाग, भारत सरकार; 1999; पृ.-27
10 - लोकलहर (साप्ताहिक); 2 सितम्बर,2007; (मधुप्रसाद का लेख)
11 - वर्तमान साहित्य; (नवम्बर-दिसम्बर 2006); सं. कंवरपाल सिंह व नमिता सिंह; 28, एम आई जी, अवन्तिका-1, रामघाट रोड़, अलीगढ़; पृ.-61
12 - स्वाधीनता (शारदीय विशेषांक, 2007, मुरली मनाहर प्रसाद सिंह का लेख '1857: जंगे आजादी और तत्कालीन हिन्दी साहित्यÓ); सं. रामआह्लाद चैधरी, 31, अलीमुद्दीन स्ट्रीट, कोलकाता; पृ.-141
13 - सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; सं. चन्द्रा सदायत; नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, 2006; पृ.-124 से 126
14 - उदभावना (अप्रैल-जून 2007, शकील सिद्दकी का लेख, बेगम हजरत महल: घोर पुरुषवादी समय में एक स्त्री का लडऩा); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ. 361
15 - इकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली ( 10-16 मई, 2007); लता शर्मा
16 - ख्वाजा हसन निजामी; 1857 की कहांनियां; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 2005; पृ.-44
17 - ख्वाजा हसन निजामी; 1857 की कहांनियां;नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 2005; पृ.-44
1857 का संग्राम भारतीय समाज के लिए निर्णायक घटना है, जिसने भारतीय समाज को कई तरह से प्रभावित किया। इसके प्रभाव स्वरूप समाज आधुनिक विचार और चेतना की शुरूआत हुई। ''हिन्दुस्तानी बग़ावत बड़ी होशियारी से तैयार की गई किसी साजिश का नतीजा नहीं थी और न ही इसके पीछे किन्हीं होशियार रणनीतिकारों का दिमाग था। दरअसल, हुआ यह कि सौ बरस के दरमियान कंपनी के निजाम से हिन्दुस्तानी अवाम की दूरी बन गई थी और धीरे धीरे उन्हें अहसास हो गया था कि एक विदेशी कौम ने मुल्क पर कब्जा जमा लिया है। जैसे ही इस अहसास ने फैलाव हासिल कर लिया, बगावत के पूफट पडऩे के हालात तैयार हो गये। ऐसा कुछ इन्सानों के द्वारा रची गई साजिश के तहत नहीं बल्कि सारे अवाम की नाराजगी के नतीजे के तौर पर होना ही था।ÓÓ1 इस संग्राम में समाज के सभी वर्ग शामिल थे, इसमें राजे रजवाड़े भी थे, किसान भी, सैनिक भी, कारीगर भी, दलित भी और स्त्री भी। इसमें लाखों लोगों की जानें गईं। स्वाभाविक है कि जिन लोगों ने इस महासंग्राम में भाग लिया, वे समाजार्थिक कारणों से इसमें भाग ले रहे थे। 1857 के महासंग्राम में इतने बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी और बहादुरीपूर्ण संघर्ष व इसके महानायकों के चमत्कारिक व्यक्तित्व की चकाचौंध में इसकी विचारधारा अक्सर विमर्श से गायब हो जाती है। इस संग्राम की विचारधारा पर विचार करना महत्त्वपूर्ण है। 1857 का स्वाधीनता संग्राम साम्राज्यवाद विरोध, साम्प्रदायिक सद्भाव, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की प्रेरणा रहा, स्त्रियों की भागीदारी ने उनकी परम्परागत छवि को तोड़कर मुक्ति के द्वार खोल दिए। अपनी इस विचारधारा के कारण ही 1857 का स्वतंत्रता-संग्राम पूरे स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान प्रेरणा का स्रोत बना रहा। वरन् कुर्बानी और बहादुरी के भीषण युद्ध के उदाहरण तो इतिहास में भरे पड़े हैं।
प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम का वर्ग चरित्र और संभ्रात की चुप्पी
असल में 1857 के संग्राम में किसानों, दस्तकारों और सिपाहियों ने (जो किसान ही थे) बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। अंग्रेजी नीतियों की सर्वाधिक मार भी इन्हीं वर्गों पर पड़ी थी। राजे-रजवाड़े भी अपने अपने कारणों से इनके साथ संघर्ष में कूद पड़े थे। जिस तरह से किसानों ने महाजनों की बहियों को पूफंका व सरकारी संपति का लूटा उससे साफ जाहिर है कि यह शोषितों का शोषक शासकों के प्रति आक्रेाश था जो संगठित सेना का आसरा पाकर पूफट पड़ा था।
1857 के संग्राम के वर्ग-चरित्र को जानने के लिए इसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति से भी अनुमान लगाया जा सकता है। ''हमारी हिन्दी भाषा के लिखित साहित्य में इस घटना का कहीं कोई नामोनिशान नहीं मिलता।ÓÓ2 लोक गीतों में और लोकस्मृति में तो 1857 के नायकों के और घटनाओं के चित्र भरे पड़े हैं। चाहे वे कुंवरसिंह के बारे में हों या रानी लक्ष्मीबाई के बारे में, लेकिन तत्कालीन शिक्षित व संभ्रांत साहित्यकारों ने इस पर रचनाएं नहीं लिखी और इस पर उन्होंने कुछ लिखा भी तो जन-विद्रोह के पक्ष में नहीं, बल्कि अंग्रेजों के पक्ष में लिखा और विद्रोहियों के विरूद्ध। जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी के बावजूद उन्नीसवीं सदी के हिन्दी-उर्दू साहित्य में विद्रोह की घटनाओं के राष्टीय परिप्रेक्ष्य को केन्द्र में रखकर न तो कोई कहानी लिखी गई और न कोई उपन्यास।भद्र साहित्यकार इसके प्रति उदासीन ही रहे। उन्नीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों के रवैये को असद जैदी ने '1857: सामान की तलाशÓ3 कविता में सही शब्दों में व्यक्त किया है:
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चन्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सतावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रों, ईश्वरचन्द्रों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सतर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई।
राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्दÓ हों या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सभी ने अपनी रचनाओं में अंग्रेजी शासन के गुण गाए। राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्दÓ ने '1857 का बलवा इतिहास तिमिरनाशक, दूसरा खंडÓ में गदर में शामिल लोगों को बदमाश करार दिया और महारानी विक्टोरिया के शासन के कसीदे पढ़े। उन्होंने लिखा कि ''देखो, प्लासी की लड़ाई से इस सौ बरस के अन्दर सर्कार कंपनी बहादुर ने क्या क्या काम कर दिखलाए और हमारे हिन्दुस्तान के मुल्क को कहां से कहां पहुंचा दिया! जिस जमीन में लोग गाय भी नहीं चराते थे वहां अब सुन्दर खेतियां होती हैं, जहां जमींदार नित बाकी मालगुजारी की इल्लत में पकड़े बांधे जाते थे वहां अब पक्के बन्दोबस्त की बदौलत किस्त ब किस्त मालगुजारी अदा कर के पांव फैलाये सोते हैं, जिन रास्तों में बकरी का गुजर न था वहां बग्गियां दौड़ती हैं, जहां अशरफियों को बहली मयस्सर न थी वहां आनों पर रेलगाडिय़ां हाजिर हैं, जहां कासिद नहीं चल सकता था वहां तार की डाक लग गई, जहां काफिलों की हिम्मत नहीं पड़ती थी वहां अब एक बुढिय़ा सोना उछालती चली जाती है, जहां हजारों की तिजारत होती थी वहां करोड़ों की नौबत पंहुच गई, जिन्हें दिन भर मजदूरी करने पर भी पाव भर सतू या चना मिलना कठिन था उनकी उजरत अब चार आने आठ आने रोज से कम नहीं, जिन किसानों की कमर में लंगोटी दिखलाई नहीं देती थी उन की घरवालियां गहने झमकाती फिरती हैं। क्या पुल और क्या नहर, क्या मुसाफिरखाने और क्या दारूशिपग, क्या पुलिस और क्या कचहरी, क्या इंसाफ और क्या कानून, क्या इल्म और क्या हुनर, क्या जिन्दगानी का जरूरी असबाब और क्या ऐश का सामान, जो कुछ इस कंपनी के राज में देखा गया, न पहले किसी के ख्याल में आया था न आज तक कहीं सुना गया, मानो जंगल पहाड़ झाड़ झंखाड़ से इस देश को बाग हमेश: बहार बना दिया। क्या महिमा है अपरम्पार सर्वशक्तिमान जगदीशवर की कि इंगलिस्तान के जिन सौदागरों ने और दुकानदारों ने कंपनी बनकर अपने बादशाह के हिन्दुस्तान में तिजारत करने की सनद हासिल की, आज उन्होंने इस सारे हिन्दुस्तान ''जन्नत निशानÓÓ खुलासे जहान की निष्कंटक सल्तनत अपने बादशाह श्रीमती इंगलैंडश्वरी क्वीन विक्टोरिया को (ईश्वर दिन दिन बढावे प्रताप उसका) नजर की। ..... हे पाठक जनों! ईश्वर से यही प्रार्थना करो कि हमारी मलिक: क्वीन विक्टोरिया का राज चिरस्थायी हो, सदा ईश्वर ऐसी प्रजापालक मलिक: को हम लोगों के सिर पर बना रहे।ÓÓ4
प्रतापनारायण मिश्र और बदरीनारायन चैधरी 'प्रेमघनÓ ने भी अपनी कविताओं में इस विद्रेाह के बारे में नकारात्मक संकेत दिये हैं। वे इसको अराजक तत्वों की करतूत मानते हैं।
प्रतापनारायण मिश्र लिखते हैं - 'जब 1857 में सेना के एक हिस्से ने विद्रोह किया तब आम जन मजबूती से सत्ता के पक्ष थे/रहे।
प्रेमघनÓ भी इसीप्रकार लिखते हैं -
पूरब मय में डूबा था, आदमी आंतक ग्रस्त थे,
जो यह सोचते थे कि जाति और धर्म संकट में हैं
उन लोगों ने कुछ मूर्ख सिपाहियों को और शैतान लोगों को
अपने साथ किया और भारी तबाही मचाई।
अपनी ही बर्बादी के बीज बोये।ÓÓ5
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वर्ग चरित्र को देखने के लिए उसके प्रति आभिजात्य का नजरिया मिर्जा गालिब के 'दस्तम्बूÓ में स्पष्ट है। मिर्जा गालिब के शब्दों से इन सिपाहियों के लिए टपक रही नफरत असल में निम्न वर्ग के प्रति थी। उन्होने लिखा कि 'जो लोग जमीन से मिट्टी खोदकर और उसे बेचकर अपना पेट पालते थे, आज उन्होंने उस मिट्टी से सोना पा लिया है...वे प्रतिष्ठित जन, जो इन युवतियों को श्र(ा और स्नेह की सेज पर बिठाते थे, उनका स्थान अब इन तुच्छ व्यक्तियों ने ग्रहण कर लिया है। ये नए-नवेले तुच्छ अमीर इस प्रकार अपना अभिमान प्रदर्शित करते हैं कि जैसे अथाह पानी पर घास तैर रही हो।...कठोर व्यवस्था और कानून में विश्वास करने वालो! तुम्हीं बताओ, यह अराजकता और अशासनिक व्यवस्था मातम करने योग्य नहीं है क्या? खुदा की दी हुई दौलत पर लूटमार, डाक-व्यवस्था की खराबी और दोस्तों तथा रिश्तेदारों की खबर ना मिलना, क्या इन सब पर रोना उचित नहीं है? ... सिपाही आज बादशाह और भिखारी दोनों पर एक तरह से हुकूमत कर रहे हैं....ÓÓ6 मिर्जा गालिब की सिपाहियों व बागियों के लिए गाली गलौच की भाषा पर उतर आते हैं तो इस लिए कि वे कथित जाहिलों, गंवारों का शासन सहन नहीं कर सकते थे। वे अपने आभिजात्य दृष्टिकोण के कारण 1857 के स्वाधीनता संग्राम को देख रहे थे। वे अपने घर में दुबके बैठे थे और स्वतंत्रता के लड़ाकों पर अपनी नफरत बरसा रहे थे।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रति साहित्यकारों के इस रुख को पहचानकर ही रविन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े दुखी मन से लिखा कि ''उस दिन मैने 1857 के महान विप्लव के क्रान्तिकारी दृश्यों के बीच झांक कर देखा और ऐसे अनेक बहादुर लोगों की कल्पना की जो पूरे जोश के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अराजकता के बीच प्रयास करते हुए संघर्ष की कार्रवाई में उतरे थे। यह माना गया कि इस सिपाही-युद्ध के दौरान कई नायकों ने अपनी उफर्जा का उपयोग एक गैर जरूरी बहादुरी के बिन्दु तक किया। यदि इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी यह जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि ये सिपाही वास्तव में बहादुर थे। उनका नामोल्लेख विश्व के महानतम वीरों में किया जाना चाहिए। इस देश का कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे वीरों के जीवन-वृतांत हमें विदेशियों द्वारा लिखे गए पक्षपाती इतिहास के पन्नों से जुटाने पड़ते हैं। इस सिपाही विद्रोह काल में हम ऐसे अनेक वीर यो(ाओं को चिह्नित कर सकते हैं जो यदि यूरोप में पैदा हुए होते तो उन्हें इतिहास के पन्नों में ही नहीं, कवियों के गीतों, मार्बल की प्रतिमाओं और उफंचे स्मारकों में अमर बनाने के प्रयास अवश्य होते।ÓÓ7
''1860 के बाद हिन्दी-उर्दू के पत्रकार ही नहीं, साहित्यकार, पेशेवर शिक्षित मधयवर्ग, दुकानदार, व्यापारी को यदि सामूहिक रूप से देखें तो पता चलता है कि अधिकांश लोग महारानी विक्टोरिया द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज खत्म कर सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन हिन्दुस्तान का अधिग्रहण करने की घोषणा के साथ तमाम तरह के आशावादी सपने देखने लगे थे। अंग्रेजी राज की विजय-दुदुंभी में अपना सुर भी मिला रहे थे। बगावत को जंगे आजादी न कहकर सिपाहियों और बदमाशों का उपद्रव बताने वाले औपनिवेशिक प्रचारतंत्र के समर्थक और पुर्जा बनने में ही अपना और देश का हित सोचते थे।ÓÓ8
भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की घटनाओं के बिम्ब उस राजनीति और भावना के अनुकूल हिन्दी में नहीं मिलते, जिस राजनीति और भावना से ओतप्रोत होकर बागी सिपाही और जनसाधरण लड़े थे। हिन्दी के किसी पत्रकार या संपादक के साथ विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की बर्बरता की निर्भीक रिपोर्टिंग के लिए बर्बर सलूक के उदाहरण नहीं हैं, जबकि 'देहली उर्दू अखबारÓ के मालिक व संपादक मौलाना मुहम्मद बाकर को इसी कारण फंासी पर लटका दिया गया था।
साम्राज्यवाद विरोध और साम्प्रदायिक सद्भाव की प्रेरणा
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम की विचारधारा का ही प्रभाव था कि विदेशों में बसे भारतीयों ने अपने देश को आजाद करवाने के लिए जो संगठन बनाया और अखबार निकाला उसका नाम 'गदरÓ इसी की प्रेरणा था। गदर पार्टी के संस्थापकों ने अपने संगठन को धर्मनिरपेक्ष रखने की प्रेरणा भी इसी संग्राम से ली। जब भारत में अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर लड़ाने के लिए साम्प्रदायिक जहर का बीज बोना शुरू किया और अपने इस कुत्सित मकसद में सफल होने लगे तो क्रांतिकारियों ने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अपने पेंफलेट की शुरूआत ही यहीं से की कि 'हे 1857 के शहीदों! हमें बताओ कि तुम्हारे पास कौन सा जादू था कि तुम हिन्दू और मुसलमानों को इक_े रखने में कामयाब हुए।Ó अपना शासन सुरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करोÓ की नीति को अपनाया था, उन्होंने जनता की एकता को तोडऩे के लिए भाषा व धर्म की आड़ लेकर साम्प्रदायिकता को पैदा किया, जिसने अंग्रेजों के लिए शासन का रास्ता साफ कर दिया। पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान साहित्यकारों, राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी नेताओं को इस समस्या का सामना करना पड़ा। उन्होंने जनता को इसके प्रति बार बार आगाह किया। मुंशी प्रेमचन्द ने कितने ही लेख व संपादकीय इस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर लिखे और अपने उपन्यासों में इसे उठाया। शहीद भगतसिंह व उनके साथियों ने 'साम्प्रदायिक दंगे व इनका इलाजÓ तथा 'धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्रामÓ नामक लेख लिखकर इस पर विचार किया। अशफाक उल्ला खान तथा रामप्रसाद बिस्मिल ने इसे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए एकता स्थापित करने की बात कही। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने आखिरी संदेश में लिखा कि 'अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करें - यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।ÓÓ9 1857 में हिन्दू और मुसलमान एक होकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े थे। साम्प्रदायिक एकता की यह अद्भुत मिसाल है जो भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को एक दिशा देता रहा है। यद्यपि 1857 के दौरान व इसके तुरन्त बाद के साहित्य में साम्प्रदायिक वैमनस्य के चित्र दिखाई देते हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के चरित्रों व पात्रों को धेखेबाज, बदमाश के तौर पर प्रस्तुत किया गया, जिसका मुख्य कारण भद्र साहित्यकारों का जनक्रांति के प्रति उलझाव भरा दृष्टिकोण ही है। लेकिन बाद के साहित्यकारों ने, जिन्होंने 1857 को अपने साहित्य का आधार बनाया, उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के चित्रों के माध्यम से संघर्ष की साझी विरासत को रेखांकित किया। हिन्दू व मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखने वाले नायक इस संग्राम में इक_े थे। इस संघर्ष की इतनी पक्की नींव के कारण ही अंग्रेजों की लाख कोशिश करने के बाबजूद भी पूरे स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान साम्प्रदायिक राजनीति को आम जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया।
जिस भी नेता या संगठन ने सशस्त्र संघर्ष को अपने विरोध के तरीकों में रखा, 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम प्रेरणा रहा है। चाहे सावरकर हों, भगतसिंह या फिर सुभाष चन्द्र बोस सभी ने इसके शहीदों को याद किया। 'उस दौर के असली इतिहास की प्रतिध्वनियां स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान सुनाई देती हैं। 1944 में, रंगून में बहादुरशाह जफर के मकबरे पर आयोजित एक कार्यक्र्रम में, आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों ने भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी से आजाद कराने की कसम खायी थी। सुभाष चन्द्र बोस ने आजादी के लिए हथियार उठाने का जो आह्वान किया उसमें 1857 के शहीदों का नारा एक बार फिर गूंजा - दिल्ली का रास्ता, हमारी आजादी का रास्ता है।ÓÓ10
1857 का स्वाधीनता संग्राम जनता के मुक्ति के संघर्षों से सहानुभूति रखने वाले और उनके संघर्षों को वाणी देने वाले लेखकों की प्रेरणा रही है। 1857 से प्रेरणा लेकर लिखी 'क्रांति कथाÓ कविता की भूमिका में राही मासूम रजा ने लिखा कि ''मैं इस सवाल का जवाब दे सकता हूं कि मैने 1857 का इन्तखाब क्यों किया? मैंने आखिर 100 साल के बाद पलटकर उसे 'शिकस्त खुरदाÓ इन्कलाब की तरफ देखने की जरूरत क्यों महसूस की? 19वीं सदी की इस लड़ाई से 20वीं सदी में क्या नतीजे अक्स करना चाहता हूं? आखिर कहना क्या चाहता हूं? मैं कहना चाहता हूं कि अच्छे इंसानों की जीत हुई है, जीत हमेशा होगी। यह नजम मैं 15 अगस्त 1947 से पहले नहीं लिख सकता था। मगर उस दिन वह लड़ाई खत्म हो गई जो 9 मई 1857 को शिद्दत की एक मखसूस मंजिल तक पहुंच गई थी। मैं कहना चाहता हूं कि 1857 के बाद जिन लोगों ने ज़ेहनी शिकस्त तस्लीम कर ली वे गुमराह लोग थे और जिन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ किसी न किसी शक्ल में लड़ाई जारी रखी वे लोग दूरबीन थे और मैं जोर इस बात पर देना चाहता हूं कि अगर आज किसी लड़ाई में हम हार जाएं तो इसके माने यह नहीं है कि हम जंग हार गए। झांसी हारी है लड़ाई तो नहीं हारी है -
मरहले और भी हैं अबलापा और भी हैं।
सुन यह मुज़दा कई मैदाने बेग़ा और भी हैं।।
लड़ाई तो उस वक्त खत्म होगी जब हम जीत जायेंगे। हम न मैदान से हटे चाहें तो सदियां हट जाएं।
इस बात को वाजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से कोई बेहतर मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 इस नज़म का मौजूं नहीं है। इसका मौजूं कोई सन् नहीं है इसका मौजूं इन्सान है। जो कभी नहीं हारता। इन्सान के न हारने का यकीन मुझे इन्सान की तवील की तवारीख ने दिलाया है। मेरे नजदीक तवारीख मसवत काम यही है कि वह इन्सानियत पर हमारे यकीन को मोहकम करती रहती है। सुकरात जहर पी सकता है, इब्ने मरियम को मसलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवरेस्ट की तलाश में कई कारवां गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रहता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है।ÓÓ11
लोकसत्ता में विश्वास
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरोध का संघर्ष कई पड़ावों से गुजरा। गौर करने की बात है कि 1857 को साहित्य में तभी संदर्भ के तौर पर प्रयोग हुआ, जब कि स्वाधीनता-आन्दोलन संभ्रांत वर्ग के दायरे से निकल कर जनता के बीच आ गया। जब स्वाधीनता संघर्ष में जनता की सीधी भागीदारी होने लगी, तभी जनभागीदारी के उदाहरणों को रचनात्मक साहित्य का विषय बनाया गया। प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के जननायक रचनाओं का केन्द्र बने। लोकस्मृति में 1857 के प्रतिध्वनियां गंूज रहीं थीं, जिसे बाद के रचनाकारों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ उसे जोडऩे के लिए बखूबी प्रयोग किया। ''बीसवीं सदी के तीसरे दशक के बाद ही ट्टषभचरण जैन (गदर), प्रतापनारायण श्रीवास्तव (बेकसी का मजार), वंृदावन लाल वर्मा (झांसी की रानी), कमलाकांत त्रिपाठी (पाहीघर), राजीव सक्सेना (रमैनी), मोहनदास नैमिषराय (झलकारी बाई), और रवीन्द्र वर्मा ( मैं झांसी नहीं दूंगी) के उपन्यासों के द्वारा औपन्यासिक लेखन के क्षेत्र में बगावत की लोकस्मृति को प्रेरणादायक आह्वान का रूप दिया है।ÓÓ12
वृंदावनलाल वर्मा ने 'झांसी की रानीÓ उपन्यास का सार इन शब्दों में प्रस्तुत किया 'रानी स्वराज्य के लिए लड़ी, स्वराज्य के लिए मरी, और अपने आपको स्वराज्य की एक नींव का एक पत्थर बना दिया।Ó वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास की विषयवस्तु लोक से ली। सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी कविता में लिखा कि 'बुन्दले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह झांसी वाली रानी थी।Ó सुभद्रा कुमारी चौहान के बुन्दले-हरबोले लोकगायक ही तो हैं, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को जनता के बीच जिलाए रखा और हर पीढ़ी की स्मृति का हिस्सा बनाए रखा। कमलाकांत त्रिपाठी का 'पाही घरÓ भी लोक प्रचलित किस्सों व घटनाओं से अपनी रचना की सामग्री जुटाते हैं। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में एक गांव से दूसरे गांव तक 'चपातीÓ पहुंचाने का जिक्र किया है। जन मानस में इस समय की स्मृतियां अभी मौजूद हैं। जनता में 1857 के शहीदों के प्रति गहरा सम्मान व श्र(ा थी, इस श्र(ा को स्वतंत्रता की चेतना में तब्दील करनेे की आकांक्षा के परिणाम तौर पर ही सुभद्राकुमारी चौहान ने 'झांसी की रानीÓ कविता लिखी, लेकिन वह केवल रानी लक्ष्मीबाई को ही स्वतंत्रता संग्राम में स्थापित नहीं करती, बल्कि उनकी नजर में पूरा स्वतंत्रता आन्दोलन है। वे लिखती हैं:
छिनी राजधनी देहली की, लिया लखनउफ बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजोर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध,पंजाब,ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र निपात,
बंगाले,मद्रास आदि की
भी तो यही कहानी थी।
बुन्देले हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसीवाली रानी थी।
इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुधूपंत, तांतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगें जिनके नाम,
लेकिन आज जुर्म कहलाती,
उनकी कुरबानी थी।
बुंदेले-हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसीवाली रानी थी।13
पुरुषवादी स्त्री-बिम्ब को चुनौती
सुभद्रा कुमारी चौहान और वृंदावनलाल वर्मा ने इतिहास और लोक-मानस में रची-बसी रानी लक्ष्मीबाई को एक जीवंत, सक्रिय और नेतृत्व-क्षमता में प्रवीण रानी का चित्र प्रस्तुत किया है। रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का ऐसा चित्र खींचा है कि उसने स्त्री की 'अबलाÓ, 'बेचारीÓ, 'पुरुषाश्रितÓ, 'नाजुकÓ, 'कमजोरÓ व 'घरेलूÓ छवि की चिन्दी चिन्दी कर दी। महारानी लक्ष्मीबाई के अलावा 1857 में सक्रिय भाग लेने वाली बेगम हजरत महल, झलकारी बाई, अजीजुन बाई व सब्जपोश जैसी अज्ञात महिलाएं स्त्रियों की नेतृत्व-क्षमता में प्रवीण, बहादुर, साहसी ताकतवर स्त्री की छवि का निर्माण करती हंै। 1857 के महासंग्राम में स्त्रियों की भागीदारी स्त्री को भोग्या के रूप से बाहर निकालकर भारतीय स्त्री के विमर्श में एक नया अधयाय जोड़ती है। गौर करने की बात है कि बेगम हजरत महल और रानी लक्ष्मीबाई दोनों राजपरिवार में आने से पहले साधरण परिवारों से ही संबंध रखती थी। उन्होंने पतनशील सांमतवाद की संस्कृति को नहीं अपनाया था। वे जनता का सहयोग लेने के लिए उनके बीच आ गई। रानी लक्ष्मीबाई तो स्वाधीनता संग्राम से तीन साल पहले ही विधवा हुई थी, उन्होंने भारतीय विधवा के लिए 'आदर्श संहिताÓ को मानने से इन्कार करते हुए अपने बालों को काटने से साफ इन्कार ही नहीं किया था, बल्कि अपने बालों को कई तरह से बांधना शुरू किया था। लक्ष्मीबाई ने समाज के सबसे निचले वर्ग की झलकारी बाई कोली और अवन्ती बाई लोधी को अपनी सहयोगी बनाया। इनके सहयोग के कारण ही वे किले में ही शहीद होने से बचीं। बेगम हजरत महल भी लखनउफ की लड़ाई हारने के बाद देहात में चली गई और समाज के सबसे निचले वर्ग की उफदा देवी और बिजली पासी का सहयोग लिया।
बेगम हजरत महल जिस साहस व समझ बूझ से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी, वह अद्भुत मिसाल है। उन्होंने महारानी विक्टोरिया की घोषणा को भी मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपनी जनता और सेना का विश्वास हासिल किया। वे लोगों के बीच जाकर उन्हें संग्राम में शामिल करती थी। ''उनकी जो सफलता सबसे ज्यादा उतेजित करती है तथा जिसकी उपलब्धियां भी पराजय के बावजूद सर्वाधिक मूल्यवान मानी जा सकती हैं वो है अवधा के विभिन्न क्षेत्रों में उनका भ्रमण, राजाओं, ताल्लुकेदारों से उनका सम्पर्क व संवाद तथा पर्दे की ओट से जोशीली तकरीरें करना दुरूह बीहड़ जंगलों से युद्ध का संचालन करना। गौर से देखें तो यह सब एक आधुनिक स्त्री का विमर्श रचता हुआ महसूस होता है। नियति भी कैसी विडम्बनाओं से बंधी होती है। घोर पुरुषवादी समय में एक स्त्री संघर्ष कर रही थी - न्याय के लिए स्वाभिमान व अस्मिता की रक्षा के लिये। जिसमें राजसता की वापसी अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित थी, और जिसकी अन्तिम परिणति जीत व हार दोनों स्थितियों में पुरुष सता की मजबूती के रूप में ही सामने आने वाली थी। फिर भी यह क्या कम है कि रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल तथा अजीजन बाई इत्यादि ने तथा अन्य वीरांगनाओं ने अपने संघर्ष से जहां एक ओर बहुत सी पशोपेश में फंसी स्त्रियों को संघर्ष के मैदान में उतरने की प्रेरणा दी वहीं इस शिला लेख को भी संभव बनाया कि स्त्री लड़ सकती है, पुरुषों के समान उससे बेहतर भी। 1857 के संग्राम में बेगम हजरत महल की भूमिका वस्तुत: खूब लड़ी मर्दानी की पुरुषवादी अवधारणा को धवस्त करती है। उनके रणकौशल में उनके स्त्री होने का बड़ा योगदान है।ÓÓ14
अजीजुन बाई एक तवायफ थी, गाना-बजाना उसका काम था। सैंकेंड कैवेलरी के सिपाही शम्शुदीन खान के साथ अजीजुन के घनिष्ठ संबंध थे। उसके घर विद्रोहियों की बैठक हुआ करती थी। अजीजुन ने औरतों का एक दल भी बनाया था जो हिम्मत के साथ हथियारबन्द सिपाहियों को बढ़ावा देता हुआ घूमता था, उनके घावों की मरहम पट्टी करता था और उनके बीच हथियार व गोली-बारूद बांटता था। अजीजुन पुरुषों का वेश बनाकर घोड़े पर सवार होकर तमगों से सजकर और पिस्तौलों से लैस होकर निकलती थी। अजीजुन बाई का नाम अभी लोक स्मृति में दर्ज है, पिछले ही दिनों कानपुर में लोगों ने एक सड़क का नाम अजीजुन के नाम पर रखने की मांग की। अजीजुन परम्परागत भारतीय आदर्श व सम्मानित नारी की छवि में फिट नहीं होती है, लेकिन हाशिये पर पड़े समाज जिसे आमतौर पर सभ्य समाज पर 'कलंकÓ और 'नैतिक रूप से पतितÓ माना जाता है, उसके बारे में पुनर्विचार करने पर मजबूर करती है।15
ख्वाजा हसन निजामी ने 'बेगमात के आंसूÓ में 1857 में मुगलिया बेगमों पर गुजरे अत्याचार की कहानियां लिखी हैं। '1857 की कहानियांÓ लिखते हुए उन्होंने एक सब्जपोश की कहानी बताई है, जो स्त्री की वीरता व साहस को नयी परिभाषा देती है और स्त्री के बारे में प्रचलित मिथों को झुठला देती है। ख्वाजा ने लिखा कि ''दिल्ली के वे बूढ़े जो सन् 1857 के गदर में जवान थे आमतौर पर यह कहानी सुनाते हैं कि जिस जमाने में अंग्रेजी फौज ने पहाड़ी पर मोर्चे बनाए थे और कश्मीरी दरवाजे की तरफ से दिल्ली शहर पर गोलाबारी की जाती थी एक बुढिया मुसलमान औरत सब्ज लिबास पहने हुए शहर के बाजारों में आती और उफंची गरजदार आवाज में कहती, ' आओ चलो, खुदा ने तुमको जन्नत में बुलाया है।Ó
शहर के वासी यह आवाज सुनकर उसके आसपास इक_े हो जाते थे और यह उन सबको लेकर कश्मीरी दरवाजे पर हमला करती और शहरियों को सवेरे से शाम तक खूब लड़ाती।
कुछ लोग, जिन्होंने यह सब कुछ अपनी आंखों से देखा है, कहते हैं कि वह औरत बहादुर और दिलेर थी। उसको मौत का बिल्कुल डर नहीं था। वह गोलों और गोलियों की बौछार में बहादुर सिपाहियों की तरह आगे बढ़ी चली जाती थी। कभी उसको पैदल देखा जाता था और कभी घोड़े पर सवार। उसके पास तलवार और बंदूक और एक झंडा होता था। वह बंदूक बहुत अच्छी चलाती थी। जो लोग उसके साथ पहाड़ी के मोर्चे तक गए थे उनमें से एक व्यक्ति ने कहा कि वह तलवार चलाने में निपुण थी। और कई बार देखा गया कि उसने सामने वाली फौज से आमने-सामने तलवार से लड़ाई लड़ी।
उस औरत की दिलेरी और हिम्मत को देखकर शहर की जनता में बहुत जोश पैदा हो जाता था और वे बढ़-चढ़कर हमले करते थे। क्योंकि उन्हें लड़ाई का अभ्यास नहीं था इसलिए प्राय: उन्हें भागना पड़ता था। और जब वे भागते थे तो यह औरत उनको बहुत रोकती और आखिर मजबूर होकर खुद भी वापस चली आती। लेकिन वापस आने के बाद फिर किसी को यह पता न होता कि वह कहां चली जाती है और फिर कहां से आती है।
आखिर इसी तरह एक दिन ऐसा हुआ कि वह जोश से भरी हुई हमला करती, बंदूक से गोलियां दागती और तलवार चलाती मोर्चे तक पहुंच गई और वहां जख्मी होकर घोड़े से गिर गई। अंग्रेजी फौज ने उसे गिरप्फतार कर लिया। फिर किसी को मालूम नहीं हो सका कि वह कहां गई और उसका अंत क्या हुआ।ÓÓ16
सब्जपोश औरत का न तो किसी को नाम मालूम है और न ही वह किसी राज घराने से ताल्लुक रखती है, लेकिन उस साधरण औरत जिस भी कारण से लड़ रही थी, लेकिन उसकी निडरता यह तो सिद्ध कर देती है कि स्त्री पुरुष से किसी क्षेत्र में कम नहीं है।
हडसन ने इस औरत के बारे में फारसाइथ को जो लिखा वह स्त्री के बारे में बनी धारणा को टूक टूक कर देती है। उन्होंने लिखा कि ''मैं तुम्हारे पास एक बुढिय़ा मुसलमान औरत को भेज रहा हूं। यह विचित्र प्रकार की औरत है। यह सब्ज लिबास पहनकर शहर के लोगों को विद्रोह के लिए उकसाती थी और खुद हथियार लेकर उनकी कमान करती हुई हमारे मोर्चे पर हमले करती थी।
जिन सिपाहियों से इसका सामना हुआ है वे कहते हैं कि इसने कई बार बहुत दिलेरी और पौरूष से हमले किये और बहुत मुस्तैदी से हथियार चलाए और इसमें पांच पुरुषों के बराबर शक्ति है।ÓÓ17
1857 का स्वतंत्रता संग्राम मुक्ति के संघर्ष की जीवन्त घटना है, जो हर समय के साहित्यकारों और आजादी के लड़ाकों को प्रेरणा देती रही है और जब भी इन्सानियत के मूल्यों को स्थापित करने के लिए मानव इतिहास की ओर देखेगा तो उसे यह मिसाल जरूर याद आयेगी। जिस तरह से साम्राज्यवादी शोषण व लूट का शिकंजा कसता जा रहा है, साम्प्रदायिकता फासीवाद का सबसे विश्वसनीय औजार बनने लगी है, पितृसता व वर्णव्यवस्था के रास्ते ब्राह्मणवाद घर कर रहा है तो ऐसे में 150 वर्ष के बाद भारत के पहले स्वतंत्रता-संग्राम की संघर्ष चेतना व मूल्य अधिक प्रासंगिक हो गये हैं। इसीलिए 1857 का संदर्भ लेते हुए एक से एक बढिय़ा नाटक, कविताएं व कहानियां प्रकाश में आ रही हैं, साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाशित हो रहे हैं। वर्तमान को अभिव्यक्त करती ये रचनाएं मानवता के संघर्ष में परिवर्तनकारी निरन्तरता समेटे हुए हैं।
संदर्भ:
1 - नया पथ (मई 2007, मौलाना अबुल कलाम आजाद का इंडियन हिस्टारिकल रिकार्डस कमीशन की 31वीं बैठक, मैसूर, 25 जनवरी 1955 में दिया गया अधयक्षीय भाषण); सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान, 8 वि_लभाई पटेल हाउफस, नई दिल्ली; पृ.-7
2 - नया पथ (मई 2007, देवेन्द्र राज अंकुर का लेख नाटक और रंगमंच के आईने में 1857); सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान, 8 वि_लभाई पटेल हाउफस, नई दिल्ली;पृ.-97
3 - उदभावना (अप्रैल-जून 2007);सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-7
4 - राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्दÓ : प्रतिनिधि संकलन; सं. वीर भारत तलवार;नेशनल बुक टस्ट, इण्डिया; प्र. सं. 2004; पृ.-41
5 - उदभावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-460
6 - उदभावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; 33 से 35
7 - उद्भावना(अप्रैल-जून 2007); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ.-2
8 - स्वाधीनता (शारदीय विशेषांक, 2007, मुरली मनाहर प्रसाद सिंह का लेख '1857: जंगे आजादी और तत्कालीन हिन्दी साहित्यÓ); सं. रामआह्लाद चैधरी, 31, अलीमुद्दीन स्ट्रीट, कोलकाता;पृ.-134
9 - याद कर लेना कभी (शहीदों के खत); प्रकाशन विभाग, भारत सरकार; 1999; पृ.-27
10 - लोकलहर (साप्ताहिक); 2 सितम्बर,2007; (मधुप्रसाद का लेख)
11 - वर्तमान साहित्य; (नवम्बर-दिसम्बर 2006); सं. कंवरपाल सिंह व नमिता सिंह; 28, एम आई जी, अवन्तिका-1, रामघाट रोड़, अलीगढ़; पृ.-61
12 - स्वाधीनता (शारदीय विशेषांक, 2007, मुरली मनाहर प्रसाद सिंह का लेख '1857: जंगे आजादी और तत्कालीन हिन्दी साहित्यÓ); सं. रामआह्लाद चैधरी, 31, अलीमुद्दीन स्ट्रीट, कोलकाता; पृ.-141
13 - सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; सं. चन्द्रा सदायत; नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, 2006; पृ.-124 से 126
14 - उदभावना (अप्रैल-जून 2007, शकील सिद्दकी का लेख, बेगम हजरत महल: घोर पुरुषवादी समय में एक स्त्री का लडऩा); सं. अजेय कुमार; एच-55, सेक्टर-23, राजनगर गाजियबाद; पृ. 361
15 - इकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली ( 10-16 मई, 2007); लता शर्मा
16 - ख्वाजा हसन निजामी; 1857 की कहांनियां; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 2005; पृ.-44
17 - ख्वाजा हसन निजामी; 1857 की कहांनियां;नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 2005; पृ.-44