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रसखान

रसखान
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

रसखान 16वीं शती के हिन्दी भाषा के प्रमुख कवि थे। इनका बचपन का नाम इब्राहिम खान था। ये वर्तमान उतरप्रदेश के हरदोई जिले के पिहानी गांव में पठान परिवार में पैदा हुए। रसखान ने कृष्ण भक्ति से संबंधित कविताएं लिखीं। इनकी 'प्रेम वाटिका' और 'सुजान रसखान' रचनाएं प्रसिद्घ हैं। वे कृष्ण भक्त कैसे बने इसके बारे में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन चाहे जिस भी कारण से वह कृष्ण भक्ति शाखा में आए हों, लेकिन वे इस सम्प्रदाय में अच्छी तरह रच बस गए। कृष्ण भक्ति कवियों में उनका नाम आदर से लिया जाता है। रसखान ने एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेकर हिन्दुओं के परम पूजनीय देवता की भक्ति की। वे हिन्दू और मुसलमानों को जोडने वाली कड़ी बने।
रसखान ने अपनी कविताओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का, गौ चारण लीलाओं का, कुंज लीलाओं का, रास लीलाओं का, पनघट लीलाओं का और कृष्ण की मुरली का वर्णन किया है। वे श्रीकृष्ण की भक्ति में इतने लीन थे और उनके व्यक्तित्व से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि यदि उन्हें अगला जन्म मिले तो ब्रज में ही पैदा हों और कृष्ण के ही भक्त बनें। यदि पशु की योनि में जन्म मिले तो वे नन्द की गायों में ही चरें। यदि पत्थर बनूं तो उसी पहाड़ पर जाऊं, जिसे श्रीकृष्ण ने धारण किया है, यदि पक्षी बनूं तो यमुना के किनारे बसेरा करूं।
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहु सिधि नवै निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
ए रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन-बाग निहारौं।
कोटिकहुं कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर बारौं।।
रसखान वृदांवन की एक- एक चीज से प्यार करते थे। वे वहां के फूल, पत्ते, पेड़ पौधे आदि प्रकृति की सभी चीजों से प्रेम करते थे। वे श्रीकृष्ण की लाठी और कम्बली पर स्वर्ग को न्यौछावर कर सकते हैं, नंद की गाय चराने का सुख प्राप्त करने के लिए आठों सिद्धि और नवों निधियों को न्यौछावर कर सकते हैं। ब्रज के बाग-बगीचों के दर्शन के लिए करोड़ों स्वर्गों को न्योछावर कर सकते हैं। इस तरह की दृढ़ आस्था व विश्वास वही मनुष्य कर सकता है, जो उसे पूर्णत: उसके रंग में रच बस गया हो।
रसखान ने ब्रजभाषा में बहुत सी रचनाएं लिखी। प्रेम-वाटिका इनकी प्रसिद्घ रचना है। इनमें 53 पद हैं। ये पद अधिकतर आध्यात्मिक प्रेम से संबंधित हैं, कृष्ण और राधा के पे्रम को परमात्मा के प्रेम का प्रतीक माना है।
रसखान को कृष्ण पर इतना विश्वास है कि वे उसको सब संकटों को टालने वाला मानते हैं। उनकी भक्ति में अटूट आस्था है, उनका मानना है कि विपति के समय विष्णु भगवान अपने भक्तों की मदद करते हैं, और श्रीकृष्ण उसी के अवतार हैं अत: किसी प्रकार की चिन्ता करने की कोई बात नहीं है। जैसे द्रौपदी की लाज रखी और अपने अन्य भक्तों को संकट के समय मदद की, उसी तरह हमारी भी मदद करेंगे।
द्रौपदी और गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।
गौतम गोहिनी कैसी तरी प्रहलाद को कैसे हर्यो दुख भारो।।
काहे कौं सोच करै रसखानि कहा करिहैं रविनंद विचारो।
ता खन जा खन राखिए माखन चाखन हारो सो राखनहारो।।
रीति-रिवाज व त्योहार लोक संस्कृति में ऐसे रच बस गए थे, कि यह पहचान करना मुश्किल था कि कौन सा त्यौहार हिन्दुओं का है और कौन सा मुसलमानों का। रसखान ने होली का बड़ा ही मोहक वर्णन किया है। बंसत का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। हिन्दुओं में ही नहीं दिवाली मुसलमानों में भी उतने ही चाव से मनाई जाती थी। ये हिन्दू और मुसलमान दोनों के साझे त्योहार हो गए थे। रसखान ने दिवाली का जैसा वर्णन किया है नफरत करने वाला व्यक्ति वैसा वर्णन नहीं कर सकता। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे से लड़ते झगड़ते नहीं थे बल्कि एक दूसरे से घुलमिल कर रहते थे।
वृषभानु के गेह दिवारी के द्यौस अहीर अहीरिनी भोर भई
जित ही तितही धुनि गोधन की सब ही कुज ह्वै रह्यौ राग मई।
मानव-जीवन के विकास में नदियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नदियों के प्रति आदर एवं पूजा-भाव इसकी महत्ता का ही परिणाम है। हिन्दू गंगा नदी को पवित्र एवं पूजनीय मानते हैं। रसखान ने गंगा की महिमा का बहुत सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है:-
एरी सुधामई भागीरथी नित पथ्य-अपथ्य बने तोहिं पोसें।
आक धूतरौ चबात फिरै, विष खात फिरै सिव तेरे भरोसें।।
''रसखान ने पंरपरा का निर्वाह करते हुए हरिशंकरी, शिव की स्तुति और गंगा-गरिमा का भी एक-एक सवैये में जो वर्णन किया है उसमें मात्र पंरपरा का निर्वाह ही नहीं, वर्णन की स्वछन्दता, वाणी की मधुरिमा और भक्त-हृदय की मिठास है"1
सामन्ती बंधनों को तोडऩे के लिए रचनाकारों ने प्रेम का सहारा लिया। प्रेम के संबंधें में बराबरी की कल्पना मौजूद है। रसखान ने प्रेम का वर्णन किया है
बिनु गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुध, कामना तें रहित, प्रेम सकल रसखानि।।
प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम-सरूप।
एक होइ द्वै यों लसै, ज्यौं सूरज औ धूप।।

दंपति-सुख अरू बिषय-रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन तें परे बखानियै, सुद्ध प्रेम रसखानि।।
प्रेम सब धर्मों से ऊपर, परम धर्म है। कोई धर्म उसकी समता नहीं कर सकता। ज्ञान, कर्म और उपासना - सभी के मूल में अहंकार है। अनुकूल प्रेम के बिना निश्चयात्मक बुद्धि का उदय नहीं होता। शास्त्र का पठन-पाठन भले ही पंडित बना दे, कुरान का पाठ मौलवी बना दे, परन्तु प्रेम से परिचित हुए बिना सब व्यर्थ है।
''रसखान जिस रसखानि यानी श्रीकृष्ण पर रीझे थे, उसकी लीलाओं का गान करते समय उनके बोल, बुद्धि की ऊंचाई से नहीं, हृदय की गहराई से उभरे थे और भारतीय कृष्ण काव्य की इस महती देन को प्रस्तुत करने में जिन भक्त कवियों का योगदान रहा, उनमें रसखान का नाम आदर के साथ लिया जाता है।
स्वछन्द काव्य-धारा के कवियों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी रही है कि वे 'लीक' को छोड़कर अपना मार्ग अपने ढंग से बनाते हैं। रस में उन्मुक्त हुए, फक्कड़पन और भावुकता के साथ इस 'तलवार की धार' वाली डगर पर चले हैं बिना डगमगाये, बिना समर्पण भाव के साथ। रसखान इसी तरह के प्रेम-पथिक हैं और आगे आने वाले स्वछन्द कवियों के लिए उन्होंने दिशा निर्देशक का काम किया है।2
रसखान को कृष्ण भक्ति के कवियों में उच्च कोटि का कवि माना जाता है। उन्होंने कृष्ण भक्ति के प्रति जो निष्ठा दिखाई वह किसी भी कृष्ण भक्ति के कवि से कम नहीं है। मुसलमान होने के बावजूद श्रीकृष्ण को केन्द्रित करके ब्रज भाषा में कविताएं करना इस बात का सूचक है कि मध्यकाल के लोग एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों का बहुत आदर करते थे। उनके मन में एक दूसरे के प्रति कोई आशंका नहीं थी। वे एक दूसरे की संस्कृति को जानने के इच्छुक थे।

संदर्भ:
1-श्याम सुन्दर व्यास; रसखान; साहित्य अकादमी; दिल्ली; 1998; पृ. 22
2-वही, पृ. 38