नवजागरण के अग्रदूत : हाली
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। 'हाली' उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। 1856 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा। दिल्ली निवास (1854-1856) के दौरान हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली ने जब गालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि 'यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शे'र नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे'।
1863 में नवाब मुहमद मुस्तफा खां शेफ्रता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ। 1874 में 'बरखा रुत' शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरूआत थी। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
हाली ने अपनी शायरी के जरिये ताउम्र अपने वतन के लोगों के दुख तकलीफों को व्यक्त करके उनकी सेवा की। वे शिक्षा व ज्ञान को तरक्की की कुंजी मानते थे। उन्होंने अपने लोगों की तरक्की के लिए पानीपत में स्कूल तथा पुस्तकालय का निर्माण करवाया। पानीपत में आज जो स्कूल आर्य सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के नाम से जाना जाता है पहले यह 'हाली मुस्लिम हाई स्कूल' था, जो देश के विभाजन के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को क्लेम में सौंप दिया गया था। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1907 में कराची में 'आल इण्डिया मोहम्डन एजुकेशनल कान्फ्रेंस' में हाली को प्रधान चुना गया। हाली की विद्वता को देखते हुए 1904 ई. में 'शमशुल-उलेमा' की प्रतिष्ठित उपाधि दी गई, यह हजारों में से किसी एक को ही हासिल होती थी। आखिर के वर्षों में हाली की आंख में पानी उतर आया, जिसकी वजह से उनके लेखन-पाठन कार्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 31 दिसम्बर,1914 ई. को हाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। शाह कलन्दर की दरगाह में हाली को दफना दिया गया।
हाली ने कविताओं के अलावा आलोचना की पुस्तक 'मुकद्दमा-ए-शेरो शायरी', कवि सादी की जीवनी 'हयाते सादी', सर सैयद की जीवनी 'हयाते जावेद' तथा गालिब की जीवनी 'यादगारे गालिब' की रचना की। कविताओं में 'मुनाजाते बेवा', 'बरखा रुत', 'हुब्बे वतन', तथा 'मुसद्दस-ए- हाली' बहुत लोकप्रिय हैं।
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
अल्ताफ हुसैन को 'हाली' इसलिए कहा जाता है कि वे अपनी रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे, इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए 'हाली' तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुडऩे की इच्छा को दर्शाता है।
वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?
हाली ने अपने समय की समस्याओं को न केवल पहचाना व अपनी रचनाओं में विश्वसनीयतापूर्ण ढंग से व्यक्त किया, बल्कि उनके माकूल हल की ओर भी संकेत किया। जीवन के छोटे-छोटे से दिखने-लगने वाले पक्षों पर उन्होंने कविताएं लिखी और उनमें व्यावहारिक-नैतिक शिक्षा मौजूद है। मनुष्य के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं इस बात पर विचार करते हुए उन्होंने अपनी बेबाक राय दी है। फिर विषय चाहे साहित्य में छन्दों-अंलकारों के प्रयोग का हो या जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ा हो। 'चण्डूबाजी के अंजाम', 'कर्ज लेकर हज को न जाने की जरूरत', 'बेटियों की निस्बत', 'बड़ों का हुक्म मानो', 'फलसफाए तरक्की', 'हकूके औलाद' आदि बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें हाली की सीख उन्हें अपने पाठक का सलाहकार दोस्त बना देती है।
हाली हिन्दुस्तान के उन शायरों में से हैं जिन्होंने साहित्य में आधुनिक मूल्यों, विचारों को अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया। अभी तक उर्दू कविता में स्त्री को पुरूष की दृष्टि से ही स्थान मिला था। स्त्री कविता में कामुक व विलासी पुरूष के खेलने की वस्तु के तौर पर आती थी। उसकी जुल्फें , उसकी शोख अदायें, पुरूष को घायल कर देने वाली बांकी चितवन, सौतिया-डाह में जलती व पुरूष को लुभाने व अपने इशारों पर नचानेवाली कामिनी स्त्री ही कविता में छाई हुई थी। इन कविताओं को देखकर तो ऐसा लगता है कि समाज में स्त्री का एक यही रूप था। न उसके जीवन में कोई कष्ट था, न उसकी इच्छाएं-आकाक्षांए थी। सत्तावादी पुरूषों के बहलाव का साधन बनी चन्द स्त्रियों की छवि के तले अधिकांश स्त्रियों का जीवन-संघर्ष दब कर रह जाता था। यह कुछ उसी तरह था जिस तरह आज मुख्यधारा का मीडिय़ा स्त्री की छवि पेश करता है। या तो अर्धनग्न वस्त्रों में रेम्प पर चलने वाली अतिआधुनिक स्त्री या फिर अपने अंग-प्रत्यंग को कपड़े में लपेटे परम्परागत छवि वाली औरत। असल में दोनों ही छवियां अधिकांश स्त्री-समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हाली ने रिश्तों में बराबरी की वकालत की। नवजागरण का यह आधारभूत मूल्य था, जिसे स्थापित करने के लिए समाज में एक लहर की जरूरत थी। हाली ने अपनी कविताओं में पितृप्रधान समाज में महिला पर अत्याचारों को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया।
जि़न्दा सदा जलतीं रहीं तुम मुर्दा ख़ाविन्दों के साथ
और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता
ब्याहा तुम्हें याँ बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा
मौलाना हाली ने इस बात को पहचाना कि स्त्री को अपनी गुलाम बनाने के लिए पितृसत्तावादी व वर्चस्वी वर्ग ने उसको शक्ति के स्रोत ज्ञान, संपति व बल से दूर कर किया। स्त्री को इनसे वंचित करके ही पुरूष उस पर अपना शासन कायम कर सका है, इसलिए पुरूष ने स्त्री को ज्ञान से दूर रखने के लिए इस बात का आक्रामक प्रचार किया कि वह इसे प्राप्त करने के काबिल ही नहीं है। इस संबंध में हमारी लोक-कहावतों, लोक-विश्वासों व लोक-मान्यताओं में इस तरह उदाहरण भरे पड़े हैं। समाज की सोच की बनावट ही ऐसी बन गई है कि स्त्री को पुरूष के मुकाबले दोयम दर्जे का प्राणी मान लिया जाता है। सबसे बड़ी विड़म्बना यह रही कि स्त्री भी पुरूषों द्वारा बनाई आचार-संहिता को बिना सोचे मानती चली गई और पुरूष के सभी अत्याचारों को सहन करती गई। स्त्री पर हो रहे घोर अत्याचारों को देखकर उसके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं हुई। यह स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक सोच के अन्याय की पराकाष्ठा है कि स्त्री के मामले में पुरूष की संवेदना को सांप सूंघ जाता है। हाली ने लिखा:
दुनिया के दाना और हकीम इस ख़ौफ से लरज़ां थे सब
तुम पर मुवादा इल्म की पड़ जाए परछायीं कहीं
ऐसा न हो मर्द और औरत में रहे बाक़ी न फर्क
तालीम पाकर आदमी बनना तुम्हें ज़ेबा नहीं
याँ तक तुम्हारी हज़्व के गाए गए दुनिया में राग
तुम को भी दुनिय की कुहन का आ गया आखिऱ यकीं
इल्मो हुनर से रफता रफता हो गयीं मायूस तुम
समझा लिया दिल को के हम खुद इल्म के क़ाबिल नहीं
हाली ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया कि स्त्री के शोषण व अत्याचार के बारे में सब पुरूषों में सर्वसम्मति है, फिर चाहे वह बाप हो, बेटा हो, भाई हो या फिर पति हो। पुरूष चाहे अन्यथा कितने ही अच्छे हों, लेकिन स्त्री के मामले में उनकी 'अच्छाई' गायब हो जाती है। हाली ने इस बात को जोर देकर कहा कि जो बर्बर और हिंसक हैं उनकी तो बात ही क्या करनी लेकिन जिन्हें नेक दिल कहा जाता है वे भी स्त्रियों के बारे में नेक नहीं रहे। असल में समाज में पितृसत्ता की सोच इतने गहरे में पैठ गई है कि स्त्री को समाज की हर उपलब्धि से वंचित किया गया। पितृसत्तात्मक सोच की बर्बरता ही है कि जो दुनिया में पुरूष के लिए जरूरी व उसका आभूषण माना गया उसे स्त्री के लिए पाप मानकर मनाही की गई। स्त्री के प्रति यह पक्षपात लगातार होता रहा है और आज भी जारी है।
जो संग दिल फफ़ाक प्यासे थे तुम्हारे खून के
उन की हैं बे रहमियाँ मशहूर आलम में मगर
तुम ने तो चैन अपने खरीदारों से भी पाया न कुछ
शौहर हूँ उस में या पिदर, या हूँ बिरादर या पिसर
जब तक जिओ तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
आई हो जैसी बे ख़बर वैसी ही जाओ बे ख़बर
जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
हाली के समय में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न पर समाज की विभिन्न शक्तियों में संघर्ष था। प्रगतिशील विचारों के लोग स्त्री-मुक्ति के पक्ष में थे तो प्रतिक्रियावादी शक्तियां विरोध में थी। प्रतिक्रियावादी शक्तियां अपनी पुरजोर कोशिश में थी कि परम्परा से चले आ रहे स्त्री-विरोधी विचार समाज में अपनी जगह बनाए रहें, लेकिन प्रगतिशील शक्तियां भी मानवीय विवेक के साथ इनसे जूझ रही थी। हाली ने बड़े आशाजनक ढंग से इसे व्यक्त किया कि इसमें जीत तो स्त्री के पक्ष की होनी है क्योंकि यही सच्चाई है। उन्होंने कहा कि विश्व इतिहास इस बात का गवाह है कि समाज में जीत अन्तत: प्रगतिशील शक्तियों की होती रही है। स्त्री की मुक्ति समाज के विकास के लिए बहुत जरूरी है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं कि जिस समाज ने स्त्री को शिक्षा दी और सामाजिक बन्धनों से आजाद किया है उस समाज ने बहुत तेजी से तरक्की की है।
नौबत तुम्हारी हक़ रसी की बाद मुद्दत आई है
इंसाफ ने धुंदली सी एक अपनी झलक दिखलाई है
ऐ बे ज़बानों की ज़बानों, बे बसों के बाज़ुओं
तालीमे निस्वाँ की मुहिम जो तुम को अब पेश आयी है
ये मरहला आया है तुम से पहले जिन क़ोमों को पेश
मंजिल पे गाड़ी उनकी इसतक़बाल ने पहुँचाई है
ये जीत भी क्या कम है खुद हक़ है तुम्हारी पुश्त पर
जो हक़ पे मुंह आया है आखिऱ उसने मुँह की खाई है
हाली ने अपनी रचनाओं में समाज के विकास में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हुए उसके श्रम के वास्तविक मूल्य को पहचाना। स्त्री बच्चों का पालन-पोषण करके उसे इंसान कहलाने लायक बनाती है। हाली ने स्त्री के श्रम को गरिमा प्रदान करते हुए कहा कि यह स्त्री का हुनर ही है कि वह मांस के लोथड़े को इतना ताकतवर बना देती है कि वह संसार के समस्त संकटों का सामना करने के लिए तैयार रहता है। मां की गोद सीढ़ी की तरह है जिसके माध्यम से व्यक्ति इतनी बुलन्दी तक पहुंच सके हैं। जहां यह बात सच है कि संसार में जितने भी महान लोग हुए हैं उनके महान बनने में स्त्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है वहीं यह बात भी सच है कि समाज में जिस भी स्त्री ने आगे बढऩे की बात सोची है उसे पहले अपने परिवार व रिश्तेदारों से ही संघर्ष करना पड़ा है। यह बातचीत का आम मुहावरा है कि 'हर फल पुरूष के पीछे किसी स्त्री का त्याग होता है', लेकिन यह बात बिल्कुल सही नहीं है कि हर फल स्त्री के पीछे किसी पुरूष का त्याग होता है।
लेतीं ख़बर औलाद की माएँ न गर छुटपन में याँ
खाली कभी का नस्ल से आदम की हो जाता जहाँ
ये गोश्त का एक लोथड़ा परवान चढ़ता किस तरह
छाती से लिपटाए न हर दम रखती गर बच्चे को माँ
क्या सुफिय़ाने बा सफ़ा, क्या आरिफ़ाने वा खुदा
क्या औलिया क्या अम्बिया, क्या ग़ौस क्या क़ुतबे ज़माँ
सरकार से मालिक की जितने पाक बन्दे हैं बढ़े
वो माँओं की गोदों के जीने से हैं सब ऊपर चढ़े
हाली ने स्त्री को बोझ मानने वाले पितृसत्तात्मक समाज के विचार को मानने से इन्कार किया तथा स्त्री के महत्त्व को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि यह संसार सुन्दर है तो स्त्री के कारण है। स्त्री के कारण ही दुनिया में ईमान बचा हुआ है। यदि संसार में कहीं सत्यता बची है तो वह स्त्रियों में है। स्त्री बीमार की आशा है, बेकार का हौंसला है। हाली ने स्त्री को जीवन का पर्याय कहा है जो हर स्थिति में पुरूष की सहयोगी है न कि उस पर बोझ। इस विचार को स्थापित करने के लिए हाली ने विभिन्न तुलनाएं करके जीवन में उसकी भूमिका को रेखांकित किया है।
ऐ माओं, बहनों, बेटियो, दुनिया की ज़ीनत तुमसे है
मुल्कों की बस्ती हो तुम्ही, क़ौमों की इज्ज़त तुमसे है
तुम हो तो ग़ुरबत है वतन, तुम बिन है वीराना चमन
हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
मोनिस हो ख़ाविन्दों की तुम, ग़म ख्वार फऱजन्दों की तुम
तुम बिन है घर वीरान सब, घर भर की बरकत तुम से है
तुम आस हो बीमार की, ढारस हो तुम बेकार की
दौलत हो तुम नादार की, उसरत में इशरत तुम से है
रोजगार के लिए हाली को अपने वतन से दूर रहना पड़ा। उस समय उन्हें वतन से बिछुडऩे का अहसास हुआ और प्रवासी जीवन के अपने दर्द को रचनाओं का विषय बनाया। हाली की इस पीड़ा में उन हजारों-लाखों की पीड़ा भी शामिल हो गई, जो किसी कारण से अपना वतन छोड़कर दूर रहते हैं। 'हुब्बे वतन' में हाली ने व्यक्त किया।
तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले,
लूं न हरगिज अगर बहिश्त मिले
जान जब तक न हो वतन से जुदा,
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा
हाली के लिए देश-प्रेम कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है। उनके देश-प्रेम की परिभाषा इतनी व्यापक है कि उसमें अपने वतन के पेड़ पौधे, पशु-पक्षी, व वनस्पति सब कुछ के प्रति प्रेम शामिल है। देश-प्रेम केवल देश की सीमाओं की रक्षा करने तक सीमित नहीं होता। देश-सेवा को उसकी सीमा की रक्षा तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। हाली के लिए देश-प्रेम व देश-सेवा का अर्थ देश की जनता के जीवन में आ रही कठिनाइयों को दूर करने से था। हाली ने उसे देश प्रेमी कहा है जो अपनी पूरी कौम के दुख को देखकर दुखी हो, उसे दूर करने में अपनी ऊर्जा लगाए, देश के लोगों की खुशी में खुश हो और उनका दुख देखकर दुखी हो। देश के लोगों पर आए संकट को टालने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहने वाला तथा जनता के काम में अपने को पूरी तरह झोंक देने वाला ही सच्चा वतन प्रेमी है। हाली मात्र कल्पना में छलांग लगाने वाले शायर नहीं थे, और न ही वे कोई ऐसा यूटोपिया रच रहे थे जो संभव न हो।
क़ौम पर कोई ज़द न देख सके,
क़ौम का हाले बद न देख सके
क़ौम से जान तक अज़ीज़ न हो,
क़ौम से बढ़ के कोई चीज़ न हो
समझे उन की खुशी ओ राहते ज़ाँ,
वाँ जो नौरोज़ हो तो ईद यहाँ
रंज को उनके समझे मायाएग़म,
वाँ अगर सोग़ हो तो याँ मातम
भूल जाए सब अपनी क़द्रे ज़लील,
देख कर भाईयों को ख्वारो ज़लील
जब पड़े उन पे गरदिशे अफ़लाक,
अपनी आसाइशों पे डाल दे ख़ाक
भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, फारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मो को मानने वाले व विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोग रहते है। धर्मों के लोग रहते हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की विशेषता है, भारत की एकता व अखंड़ता के लिए धर्मनिरपेक्षता निहायत जरूरी है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। हाली ने चेतावनी दी कि यदि अपने राष्ट्र का भला चाहते हो तो इसमें रहने वाले सभी लोगों को अपना समझना जरूरी है। यदि जाति, धर्म, भाषा, नस्ल या इलाके के आधार पर लोगों में भेदभाव किया जाता है तो देश में असंतोष पनपने की संभावना है, जो देश के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीे है। सबको मीठी नजर से देखने पर ही शान्त व न्यायपूर्ण देश बन सकता है। हाली के देश प्रेम में संकीर्णता लेश मात्र भी नहीं थी। वे धर्म के आधार पर अपने देश के नागरिकों में किसी प्रकार के भेदभाव के हिमायती नहीं थे।
तुम अगर चाहते हो मुलक की ख़ैर
न किसी हम वतन को समझो गैऱ
हो मुसलमान उसमें या हिन्दू
बौद्ध मज़हब हो या के हो ब्रहमू
जापफ़री होवे या के हो हनाफ़ी
जैन मत होवे या के हो वैष्नवी
सब को मीठी निगाह से देखो
समझो आँखों की पुतलियाँ सबको
हाली समस्या या किसी विचार को मात्र वर्तमान में नहीं देखते थे, बल्कि वे इस पर ऐतिहासिक संदर्भों में विचार करते थे। हाली समाज में बराबरी कायम करना चाहते थे। वे समाज में मौजूद ऊंच-नीच को पहचान रहे थे। वे समानता को मानव समाज की आदिम प्रवृति या विशेषता मानते थे और विषमता को शक्तिशाली मनुष्यों का कमजोरों पर शोषण। हाली आदिम साम्यवादी युग में समानता को व्यक्त करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बाद में शक्तिशालियों ने कमजोरों को अपना गुलाम बनाया और उन्हें अपनी सेवा का पाठ पढ़ाया। एक बेहतरीन कवि की यही पहचान होती है कि जिन विचारों से वह अपना जुड़ाव महसूस करता है उनको उभारने के लिए जहां से भी संदर्भ मिलता है उसे अपनी रचना का हिस्सा बना लेता है। ऐसे समाज में जिसमें अक्सर यह बात दोहराई जाती हो कि समाज में समानता न तो कभी रही है और न कभी स्थापित हो सकती है। वहां मानव समाज के इतिहास में किसी समय पर समानता कायम थी इसके उदाहरण पेश करना हाली की समानता के प्रति प्रतिबद्धता को ही दर्शाती है। जो समाज में असमानता को बनाए रखना चाहता है वह वर्तमान में मौजूद व्यवस्था को ही अन्तिम मान कर चलता है। और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बदलाव को झुठलाता है। बदलाव को झुठलाने के लिए वह इतिहास और भविष्य दोनों को ही नकारता है। हाली ने समानता के समाज का चित्र खींचा और बताया कि समान समाज में कोई मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं था। सब एक समान थे और आपस में कोई झगड़ा भी नहीं था। असल में असमानता की उत्पति कोई प्रकृति की देन नहीं है,बल्कि यह समाज की एक विशेष अवस्था में पैदा हुई है। इसकी ओर हाली ने संकेत किया है कि समाज में जब कमजोर और शक्तिशाली की श्रेणियां बनीं तो असमानता का बीज समाज में बोया गया। जाहिर है किसी बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए उसके कारणों को दूर किया जाता है। यानी कि समाज से श्रेणियों को समाप्त करके ही समानता की स्थापना की जा सकती है।
एक ज़माना था के हम वज्न थे सब ख़र्दों कलाँ
लहलहाती थी बनी नो की खेती यकसाँ
एक उसलूब पे थी ग़र्दिशे परकारे जमाँ
शहरो वीरानाओ आबाद में था एक समाँ
एक से एक न कम था न ज़्यादा सरे यू
सब थे हम एक तराई के दर$खते खुदरौ
दस्ते कुदरत के सिवा सर पे कोई हाथ न था
एक किबला था कोई किबलए हाज़ात न था
ना गहां जोरो तग़ल्लुब का एक उठा तूफाँ
जिसके ख़दमें से हुई ज़ेरो ज़गर नज्में जहाँ
अकबिया हाथ जईफो पे लग करने खाँ
बकरियों को न रही भेडिय़ों से जाए अमाँ
हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वेे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरूष हुए हैं वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आम तौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।
हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
उन से कह दो, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की खि़दमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का
हाली समाज में आ रही गिरावटों से चिंतित थे। वे मजहब के नाम पर होने वाली गिरावट से सबसे ज्यादा परेशान थे। असल में मजहब का लोगों की चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव था। लेकिन उसमें लगातार गिरावट आ रही थी। दुनिया में जो धर्म पैदा हुए हैं वे अपने समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हुए हैं। उन्होंने अपने समय के पिछड़ेपन के विरूद्ध आवाज उठाई। लेकिन ये उनके लिए चिंता की बात थी कि जो धर्म इतनी क्रांतिकारिता के साथ दुनिया में आए थे वे उन्हीं चीजों को शरण देने लगे हैं जिनके कि वे खिलाफ खड़े हुए थे। अपने समय में धर्म नामक संस्था में आई गिरावट को 'अर्जे हाल' कविता में बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया है। इस्लाम जब दुनिया में आया तो वह प्रगतिशील धर्म था। शांति, भाईचारे व प्रेम का संदेश देने वाला था। इस विचार के कारण ही वह दुनिया के हर हिस्से में बहुत जल्द पहुंच गया था। उसमें एक से एक चिंतक हुए। लेकिन अब वह स्वयं इन समस्याओं से ग्रस्त हो गया है। 'अर्जे हाल' कविता में हाली ने लिखा
जो दीन बड़ी शान से निकला था वतन से
परदेश में वो आज गरीबुल गुरबा है
जो तपफ़रीके अक़वाम के आया था मिटाने
उस दीन में ख़ुद तफ़रिका अब आके पड़ा है
जिस दीन ने थे ग़ेरों के दिल आके मिलाए
उस दीन में खुद भाई से अब भाई जुदा है
छोटों मे इताअत है, न शफ़कत है बड़ों में
प्यारों में मुहब्बत है, न यारों में वफ़ा है
याँ निकले हैं सौदे को दिरम ले के पुराने
और सिक्का रवां शहर में मुद्दत में नया है
हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृति से गुजर रहा था। अंग्रेजों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे वे मानते थे कि अंग्रेजों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेजों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृति को पहचाना। 'देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो' कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह देकर पूरे समाज को निराशा से बाहर निकलने में मदद की।
पेशा सीखें कोई फऩ सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलगऱज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें
हाली के न्यायपूर्ण समाज की परिकल्पना आम जनता की भावनाओं को कुचलती तत्कालीन शोषणकारी-व्यवस्था से निकली है। हाली अपने समाज के तंत्र को बड़ी गहराई से देख रहे थे कि व्यवस्था पूरी तरह उच्च वर्गों के लोगों के हाथों में है और वे पूरी तरह से आम जनता का शोषण करते हैं। न्याय के संस्थान कहे जाने वाली जगहों पर भ्रष्टाचार व रिश्वत का पूरा बोल बाला है। इंसाफ और फरियादी के बीच में दलाल व्यवस्था पनप रही है जो इंसाफ की बोली अदालतों से बाहर ही लगा देते हैं। हाली ने अंग्रेजों की न्याय-व्यवस्था की पोल खोली है जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी व न्यायप्रियता का ढोल पीटते नहीं थकते थे। असल में अंग्रेजों की रहनुमाई में एक ऐसा भ्रष्ट तंत्र भारत में विकसित हुआ, जिसने उसी उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की जो देश की लूट में उसका सहयोगी था। हाली आरम्भ में ही इसकी ओर संकेत कर गए थे, लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह भ्रष्टता का तंत्र लगातार फलता-फूलता रहा और अभी भी जारी है।
अहलकारों का कचहरी में जो देखो ब्योहार
समझे दीवाने अदालत को के है एक बाज़ार
पेट पकड़े हुए वाँ फिरते हैं हाज़त वाले
रवा मुँह खोले हुए बैठे हैं अदालत वाले
नहीं हाकि़म की मुरव्वत से उन्हें ख़ौफे मआल
''बोल क्या लाया है"? इज़हार का पहला है सवाल
हर तरफ बीच में दलाल हैं कुछ छूट रहे
दोनों हाथों से गरज़ मन्दों को लूट रहे
हाली ने 1857 का संग्राम अपनी आंखों से देखा। दिल्ली और उसके आस पास का इलाका इस संग्राम का केन्द्र था और हाली का इस क्षेत्र से गहरा ताल्लुक था। 1857 के संग्राम की शुरूआत सिपाहियों ने की थीं, परन्तु असल में यह किसान-विद्रोह था। अंग्रेजों ने इसे कुचलने के लिए नागरिकों पर कहर ढ़ाया। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों लोग उजड़े। अंग्रेजों की वहशत से पूरी दिल्ली आंतकित थी। हाली ने 'मरसिया जनाब हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में 'देहलवी' के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करते हुए इस स्थिति को व्यक्त करता एक पद लिखा।
वो जमाना जब के था दिल्ली में एक महशर बपा
नफ़सी-नफ़सी का था जब चारों तरफ़ ग़ुल पड़ रहा
अपने-अपने हाल में छोटा बड़ा था मुबतला
बाप से फऱजन्द और भाई से भाई था जुदा
मौजे-ज़न था जब के दरचाए इताबे ज़ुलजलाल
बागिय़ों के ज़ुल्म का दुनिया पै नाजि़ ाल था वबाल
अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह से खाली करवा लिया था। सारी आबादी शहर से बाहर खदेड़ दी थी। डेढ़-दो साल के बाद ही लोगों को शहर में आने की अनुमति दी। हाली ने 'मरहूम-ए-दिल्ली' में दिल्ली पर अंग्रेजी कहर का वर्णन किया है।
तज़किरा देहली-ए-मरहूम का अय दोस्त न छेड़
न सुना जायेगा हम से यह फसाना हर्गिज़
मिट गये तेरे मिटाने के निशां भी अब तो
अय फलक इससे ज्यादा न मिटानां हर्गिज़
हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही मौसम की मार पड़ती है, उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।
होंगें मजदूर और कमेरे उनके अब कायम मुक़ाम
फिरते हैं बेकार जिनके को दको पीरो जवाँ
वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। 'नंगे खिदमत' कविता में हाली ने लिखा।
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गैऱ के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आजाद से हम धो बैठे
एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने
देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है। हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। 'मरसिया हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा कि:
सुनते हैं 'हाली' सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुखऩवर के लिए चारों तरपफ़ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इशक की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह गज़़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफि़ल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेडऩे पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा
हाली उस समय की कथित मुख्यधारा से अलग हटकर साहित्य की रचना इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास नए विचार व प्रगतिशील दृष्टि थी, वे समाज मे हो रहे परिवर्तन को देख रहे थे। जनता में हो रहे बदलाव की इच्छा को वाणी दे पा रहे थे। जनता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही वे साहित्य के नए सौंदर्य-शास्त्र की रचना कर सके। उन्होंने तत्कालीन चाटुकार साहित्य-संस्कृति की अवास्तविकता को छोड़कर समाज की सच्चाइयों से विषयों को चुना।
शायरों के हैं सब अन्दाज़े-सुखऩ देखे हुए
दर्दमन्दों का टुकड़ा और बयां सबसे अलग
माल है नायाब पर गाहक हैं अक्सर बेख़बर
शहर में खोली है 'हाली' ने दुकां सबसे अलग
हाली ने तत्कालीन साहित्य की प्रमुख धारा की आलोचना की। हाली ने सचेत तौर पर पुरानी परम्परा से पीछा छुड़ाया। हाली ने लिखा कि ''शायरी की बदौलत चन्द रोज झूठा आशिक बनना पड़ा, एक ख्याली माशूक की चाह में बरसों दशते-जूनू की वह खाक उड़ाई, कैस व फरहाद को गर्द कर दिया। कभी नालय नीमशबी से रबेमसकन को हिला डाला, कभी चश्मे-दरियावार से तमाम आलम को डुबो दिया। आहोफुंगा के जोर से कर्रोवया के कान बहरे हो गये। शिकायतों की बौछार से जमाना चीख उठा। तानों की मार से आसमान छलनी हो गया। जब रश्क का तलातुम हुआ तो सारी खुदाई को रकीब समझा। यहां तक आप अपने से बदनुमा न हो गये। बारहा तेगेअब्रू से शहीद हुए और बारहा एक ठोकर से जी उठे। गोया जिन्दगी एक पैहरन था कि जब चाहा उतार दिया और जब चाहा पहन लिया। मैदाने कयामत में अक्सर गुजर हुआ। बहिश्त व दोजख की अक्सर सैर की। बादानोशी पर तो खुम-के-खुम लुढ़का दिये और फिर भी सैर न हुए।
कुफ्र से मानूस और ईमान से बेजार रहे, खुदा से शोखियां की, बीस बरस की उम्र से चालीस बरस तक तेली के बैल की तरह इसी चक्कर में फिरते रहे और अपने नजदीक सारा जहां तय कर चुके। जब आंख खुली मालूम हुआ, कि जहां से चले थे, अब तक वहीं हैं।
निगाह उठाकर देखा तो दांए-बांए, आगे-पीछे एक मैदाने-वसीअ नजर आया, जिनमें बेशुमार राहें चारों तरफ खुली हुई थी और ख्याल के लिए कहीं रास्ता तंग न था। जी में आया कि कदम बढ़ायें और उस मैदान की सैर करें। मगर जो कदम बीस बरस से एक चाल से दूसरी चाल न चले हों और जिनकी दौड़ गज-दो-गज जमीन में महदूद रही हो, उनसे इस वसीअ-मैदान में काम लेना आसान नहीं था। इसके सिवा बीस बरस बेकार और निकम्मी गर्दिश में हाथ-पांव चूर हो गए थे और ताकते-रफ़तार जवाब दे चुकी थी, लेकिन पांव में चक्कर था, इसलिए बैठना दुश्वार था। जमाने का नया ठाठ देखकर पुरानी शायरी से दिल सैर हो गया था और झूठे ढकोसले बांधने से शर्म आने लगी थी। न यारों के उभारों से दिल बढ़ता थ न साथियों के रोष से कुछ जोश आता था।" जनता के जीवन से जुडऩे की इस बेचैनी ने ही हाली के लिए नए नए विषयों के द्वार खोल दिए। साहित्य की एक ऐसी परम्परा की शुरूआत कर गए कि बाद में रचनाकारों को इस पर कदम रखने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई, यह नींव इतनी पुख्ता थी कि जनता से दूर रहकर साहित्य लिखने वाले शर्मिन्दा होने लगे। जिनकी जनता से कोई हमदर्दी भी नहीं थी, वे भी अपने को जनता का सच्चा हमदर्द बताने व सिद्ध करने में जमीन आसमान एक कर देते थे। हाली इस बात को पहचान रहे थे कि बुरी कविता का न केवल समाज की रूचियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि भाषा व साहित्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वे कविता को समाज के हित के लिए उसके विकास में बाधक चीजों को दूर करने के लिए प्रयोग करना चाहते थे।
हाली ने जन-भाषा में रचनाएं की तो उनकी बहुत आलोचना हुई। गौर करने की बात है कि यह साहित्य में पहली बार नहीं हो रहा था। कभी तुलसीदास को तत्कालीन पोंगा-पंडि़तों ने ब्राह्मण-जाति से इसलिए बहिष्कृत कर दिया था कि उन्होंने कथित 'देववाणी' को छोड़कर राम की कथा को लोक बोली में लिखा था। भाषा ही वह जरिया है, जिस पर अधिकार करके वर्चस्वी वर्ग अपना प्रभुत्व कायम करते हैं। कथित गूढ़ व शिष्ट भाषा के तत्कालीन साहित्यकारों ने हाली पर व्यंग्य कसे। वे साहित्य को उच्च वर्ग के मनोरंजन का ही साधन बनाए रखना चाहते थे। साहित्य में आम लोगों की भाषा उनके इस वर्चस्व को एक झटके में तार तार करने जा रही थी। हाली ने इन आरोपों की परवाह न करते हुए लगातार इसका प्रयोग किया। उन्होंने लिखा:
क्या पूछते हो क्योंकर सब नुक्ताचीं हुए चुप
सब कुछ कहा उन्होंने पर हमने दम न मारा
मौलाना हाली की कविता 'मुनाजाते बेवा' की भाषा से प्रभावित होकर ही महात्मा गांधी ने कहा था कि ''अगर हिन्दुस्तानी जुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज्म 'मुनाजाते बेवा' का है।" हाली की रचनाओं में खेती से जुड़े शब्द इस तरह दाखिल हो जाते हैं मानो कि ये शब्द उनकी कविता के लिए ही बने हों। कविता के लिए यह शब्दावली बिल्कुल नई थी। कविता में जीवन की विभिन्न स्थितियों को व्यक्त करने के लिए हाली ने खेती से जुड़ी शब्दावली का सटीक प्रयोग किया है। आम तौर पर खेती में बहुत ही स्थूल किस्म की शब्दावली का प्रयोग होता है लेकिन हाली ने उनका संदर्भ में इस तरह से प्रयोग किया है कि जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव भी व्यक्त करने में सक्षम हैं ।
हाली ने रूढ़ व बंधी-बंधाई उपमाओं का प्रयोग न करके उन उपमाओं का प्रयोग जो अभी तक कविता के लिए अछूती थी। परम्परागत तौर पर प्रयोग हो रहे बिम्बों का प्रयोग करने की बजाए हाली ने अभिव्यक्ति का खतरा उठाया और कविता के लिए नयी जमीन तोड़ी। किसान जीवन से कविता के लिए औजार लिए। यहीं से बिम्ब लिए, यहीं से उपमाएं लीं। यद्यपि किसान जीवन से जुड़े शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं को कविता में प्रयोग करने की कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं रही। हाली के पास एकदम नए औजार थे, जिनके स्पर्श से कविता भी खिल उठी। यह बात भी सही है कि यदि हाली पुराने औजारों व सामग्री से ही कविता रचना करते तो वे उस बात को उतने प्रभावशाली ढंग से कहने में फल नहीं हो पाते, जिसके लिए उनको अब याद किया जाता है। उन्होंने कविता की भाषा का नए शब्दों से व नए जीवन से परिचय करवाया। उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा से यह साबित किया कि आम बोल चाल की भाषा में समस्त भावों को बड़े कलात्मक व मार्मिक ढंग से व्यक्त करने की क्षमता है। हाली ने कविता की भाषा और आम जन की भाषा का अन्तर ही मिटा दिया। गर्मी की भयावहता का प्रयोग करने के लिए हाली ने 'बरखा-रुत' कविता में एक से बढ़कर एक ढंग अपनाया है। एक उदाहरण देखने लायक है जिससे उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है।
आरे थे बदन पै लू के चलते
शौले थे जमीन से निकलते
हाली ने इस बात को झूठला दिया कि आम बोलचाल की भाषा में सूक्ष्म-भावों व मनोवैज्ञानिक बातों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। उन्होंने स्थापित किया कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार भी यह अनगढ़ भाषा व्यक्त करने में सक्षम है। जिस तरह संत कबीर ने भाषा को अपने ढंग से प्रयोग किया, उसी तरह हाली ने भी भाषा की सीमा को अपनी सीमा नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी अभिव्यक्ति में आड़े आ रही भाषा को पलट कर प्रयोग किया।
गड़रिए का वो हुक्म बरदार कुत्ता,
कि भेड़ों की हरदम है रखवाली करता।
जो रेवड़ में होता है पत्ते का खड़का,
तो वो शेर की तरह फिरता है बिफरा।
भाषा का यह प्रयोग एकदम नया तो है ही एकदम विशिष्ट भी है। किसी समाज की वस्तुस्थिति व उसकी मिथ्या अकड़ को व्यक्त करने के लिए इससे अच्छा प्रयोग क्या हो सकता है। असल में जो है तो कुत्ता लेकिन वह इस तरह बिफरा है मानो कि शेर हो। अब कुत्ते में शेर की तरह की अकड़, उसका बिफरना यानी उसकी घंमडी चाल, उसको अपनी शक्ति का मिथ्या आभास होना सच्चाई के तमाम सूक्ष्म पहलुओं को व्यक्त करने में सक्षम है। यह समाज में सत्ता व शक्ति का जो पद-सोपान है उसको भी उजागर करता है। इतनी गहरी व गूढ सच्चाई को इतनी सरलता से व्यक्त कर देना उसी कवि के बस की बात है जो कि जन जीवन की गहरी समझ रखता हो।
भाषा सिर्फ अपनी बात कहने-समझने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह किसी वर्ग की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी है। भाषा के वर्चस्व ही वर्गों के वर्चस्व को वैधता देने लगते हैं। इसीलिए आम लोगों की भाषा में अभिव्यक्ति करने के कारण हाली पर 'प्रचारवादी' होने के आरोप लगाकर बदनाम करने की कोशिश की गई। उन्हें को इस बात का कोई मलाल नहीं था। वे इन आघातों को सहन करते हुए जन पक्ष का निर्माण करते जा रहे थे।
सच यह है के जब शेर हों सरकार के ऐसे
क्यों आप लगे मानने हाली के सुखऩ को
हाली को तो बदनाम किया उसके वतन ने
पर आपने बदनाम किया अपने वतन को
हाली की कविताओं की भाषा पर सपाटता का आरोप लगाया जाता है। यह आरोप न तो नया है और न ही अप्रत्याशित यह आरोप उन सभी साहित्यकारों पर लगातार लगता रहा है जिन्होंनें अपनी कविताओं में जनता की समस्याओं को व्यक्त किया और जन-सामान्य की भाषा अपनाई। यह आरोप असल में भाषा मात्र का आरोप नहीं है, बल्कि पूरे साहित्य दृष्टि पर ही प्रश्न-चिह्न लगाने के लिए भली-भांति सोचा गया विचार है। यह विचार साहित्य को मात्र एक वर्ग-विशेष तक सीमित करने का ही हामी है। मनोरंजन तक ही साहित्य की भूमिका सीमित करने का पक्षधर है। यह साहित्य को समाज की बौद्धिक जरूरत के लिए आवश्यक नहीं समझता और न ही साहित्य की कोई सामाजिक उपयोगिता ही समझता है।
हाली कविता को मात्र विद्वानों व कथित 'सहृदयों' के वाग्विलास की चीज नहीं मानते थे, कविता उनके लिए आम जनता की बेहतरी का साधन थी। हाली को जनता में जितनी ख्याति मिली है उसके पीछे भाषा भी एक कारण है। हाली ने समाज के विभिन्न पक्षों पर लोगों को शिक्षित करने के लिए कविताएं लिखी हैं, वे उन तक इस भाषा के कारण ही पहुंच सकी हैं। हाली की कविताओं में कहीं विधवा की पीड़ा है तो कहीं एक ऐसे बाप की, जिसका बेटा बिगड़ गया है। इनकी कविताओं से लोग अपनी पीड़ा को इसीलिए महसूस कर सके कि ये उसी जुबान में थी जिसमें जनता अपनी पीड़ा का अहसास करती थी। पीडि़त जनता हाली की कविताओं से रिश्ता बनाती थी इसके बारे में उर्दू की प्रसिद्ध शायरा पदम श्री बेगम मुम्ताज मिर्जा ने लिखा है कि ''मुझे याद है कि अब से तीस-चालीस बरस पहले हमारी पुरानी औरतें हाली की इस नज्म (मुनाजाते बेवा) को पढ़ पढ़कर राहत महसूस करती थी। बुजुर्गों से सुना है कि इस नज़्म ने हजारों औरतों को रूलाया भी है"। हाली की कविताओं की भाषा व आम लोगों की भाषा की एकता ही है जिसके माध्यम से वे अपने दर्द को इन कविताओं में व्यक्त दर्द के साथ मिलाकर राहत महसूस करते थे।
मुहावरे और कहावतें भाषा का श्रृंगार मात्र नहीं हैं, बल्कि ये सामूहिक चेतना को समझने व प्रभावी ढंग से उसे व्यक्त करने के लिए अनिवार्य हैं। इनके प्रयोग से भाषा न केवल रोचक बनती है, बल्कि सम्प्रेषणीय भी बनती है। मुहावरे और कहावतें समाज की जिस सामूहिक चेतना से बनते हैं, इनमें वह सामूहिक चेतना विद्यमान रहती है। जिस रचनाकार का समाज से जितना गहरा जुड़ाव व सामूहिक चेतना की जितनी गहरी समझ है, अपनी रचनात्मक भाषा में वह इनका उतना ही प्रभावी प्रयोग कर सकता है। सामूहिक चेतना हाली की चेतना का महत्त्वपूर्ण अंग है। उनकी सोच पर सामूहिक विवेक का गहरा प्रभाव है, लेकिन यह बात गौर करने की है कि सामूहिक चेतना के पिछड़ेपन को पहचानते हुए उन्होंने इसे अपनी चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया। असल में तो हाली की कविता रचना का कारण ही सामूहिक चेतना में जमे पिछड़ेपन को दूर करना था। हाली की सामाजिक जीवन पर गहरी पकड़ थी, इसलिए उनकी कविताओं की भाषा में लोक के मुहावरे वे कहावतें सहज ढंग से आ जाती हैं। इसके लिए उनको कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। ये मुहावरे और कहावतें कविता को उसके पाठकों से जीवन्त सम्पर्क बनाने में कारगर भूमिका निभाते हैं। 'रहगीर की लकड़ी', 'परबत को राई', 'लेने को यां पड़ गए देने, 'ओसों प्यास बुझाऊं क्योंकर', 'नाक रहे कुन्बे की सलामत', 'दाई से पेट छुपाना', 'नाखुन गोश्त से छुड़ाना'। ये मुहावरे प्रस्तुत भाव-स्थिति के साथ मिलकर उसकी अभिव्यक्ति को सर्वग्राह्य बना देते हैं।
हाली के दौर से पहले रीतिकाल की कविता का व उसके सौन्दर्य-शास्त्र का बोलबाला था। अत्यधिक अंलकारों के प्रयोग से कविता दब कर रह गई थी। हाली अत्यधिक अंलकारों को कविता के लिए हानिकर समझते थे। ''शब्दालंकारों से हमारी कविता, अपितु हमारे समस्त साहित्य को अत्यधिक हानि पहुंची है, ... हमारे साहित्य में शब्दांलकारों के प्रति इतनी रुचि बढ़ी कि अंत में केवल शब्दों का मोह रह गया और अर्थ की ओर कोई ध्यान न रहा।" (मुकद्मा-ए-शे'रो-शायरी, पृ. 130 )
हाली की कविता-भाषा का विशेष गुण है - उसके संवाद। संवादों ने हाली की भाषा को नाटकीय रूप दिया है। पाठक से अपना जीवन्त संवाद कायम करने में इस टेकनीक ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई है। संवादों से कविता में एक चुस्ती आ गई है। कविता के ये संवाद न तो कविता को कहीं सुस्त या मंद होने देते है हैं और न ही पाठक को। संवादों की इस श्रृखंला के कारण ही हाली अपनी कविता को लक्षित मंतव्य तक पहुंचा सके हैं। हाली की कविता में जो रवानी आई है वह भी उसकी चुस्त संवाद प्रणाली के कारण है। दो पक्षों के बीच में संवाद होते जाते हैं और विषय परत दर परत खुलता जाता है। हाली की कविताओं में आम तौर पर दो पात्रों या पक्षों की किसी न किसी रूप में उपस्थिति रहती है। हाली किसी न किसी को अपनी कविता में इस सम्बोधन के लिए निर्मित कर लेते हैं। यदि यह कहा जाए कि इनकी कविताएं किसी मुद्दे पर आम जनता को सम्बोधित हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कमाल की बात यह है कि इस प्रयास में कविता कहीं पीछे नहीं छूट गई है, बल्कि निखर कर उसकी धार तीखी व नुकीली हो गई है। हाली की कविताओं के संवाद एक बहस को जन्म देते हैं, संवाद के दो पक्ष ही कविता को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। हाली ने विषय के जितने बारीक पहलुओं का वर्णन किया है वह भी इस संवाद पद्धति की वजह से ही संभव हो सका है। इस पद्धति में किसी पक्ष के किसी पहलू के छूटने की गुंजाइश कम हो जाती है। हाली ने जितने मुनाजरे (शास्त्रार्थ) लिखे हैं, वे सब इसी वजह से रोचक बने हैं। चाहे ''हकूके औलाद', 'बाप की नसीहत' व 'बेटे का जबाव" में बाप और बेटे के संवाद हों। चाहे 'दौलत और वक्त का मुनाजरा' हो, चाहे 'फूट और ऐके का मुनाजरा हो', चाहे 'मुनजरए रहमो इन्साफ' हो या फिर 'मुनाजरए वाइजो शायर' हो इन सबमें अपने अपने पक्ष में जो तर्क दिए उन्होंनें संवादों का रूप धारण कर लिया। हाली ने एक वकील की तरह से हरेक पक्ष की कमजोरियों और खूबियों को उद्घाटित किया है। इसमें वे जरा भी नहीं चूके। संवाद में जब वे एक पक्ष की ओर से तर्क देते हैं, उस पक्ष की स्थिति स्पष्ट करते हैं तो वे बिल्कुल निष्पक्ष होकर देते हैं, पूरी ईमानदारी से उसके सबसे विश्वसनीय व मजबूत तर्क को रखते हैं, लेकिन वे इस बहस में तटस्थ नहीं रहते अपना झुकाव व विचार भी इस बारे में स्पष्ट करते हैं। हाली की भाषा कवि का माधुर्य, दार्शनिक की गम्भीरता व तर्क, समाज परिवर्तन के लिए सक्रिय कार्यकत्र्ता का जोश और शिक्षक की विनम्रता लिए है। हाली की कविताओं में कबीर की सी समाज सुधार के लिए तीखी कसमसाहट के दर्शन होते हैं।
हाली ने साहित्यकारों को झूठ और अतिश्योक्ति से बचने की सलाह दी। उनका मानना था कि इससे कविता का ही हृास होता है। ''समय की मांग यही है कि झूठ, अतिश्योक्ति, दोषारोपण, डींग, चापलूसी, व्यर्थ की बातों, अनुचित आत्मश्लाघा, निराधार आरोप, अनुचित शिकायतों और इसी प्रकार की दूसरी बातों से, जो सत्य और वास्तविकता की विरोधी हैं और जो हमारे काव्य का अभिन्न अंग बन गई हैं, यथासंभव बचा जाए। यह सच है कि हमारे काव्य में अब्बासिया खलीफों के युग से लेकर आज तक झूठ और अतिश्योक्ति को बराबर प्रोत्साहन मिलता रहा है और कवि के लिए झूठ बोलना उचित ही नहीं समझा गया, वरन् उसे उसके काव्य का अलंकार माना गया है, परन्तु इसमें भी संदेह नहीं कि जब से हमारे काव्य में झूठ और अतिश्योक्ति का प्रवेश हुआ उसी समय से उसकी अवनति आरम्भ हो गई।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी,पृ. 70 ) 'बुरी कविता से साहित्य और भाषा को क्या आघात पहुंचता है?"इस बारे में हाली ने लिखा कि ''सबसे बड़ी क्षति जो कविता के बिगड़ जाने से अथवा उसके संकीर्ण हो जाने से देश को पहुंचती है, वह उसके साहित्य और भाषा का विनाश करती है। जब झूठ और अतिश्योक्ति का कवि-समाज में प्रचलन हो जाता है तो उसका प्रभाव लेखकों की रचनाओं, वक्ताओं के भाषणों और देश के विशिष्ट वर्ग की नित्य की बोलचाल तक पहुंचता है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का मुख्य और महत्त्वपूर्ण भाग वे ही शब्द और मुहावरे और उक्तियां समझी जाती है। जो कवियों के प्रयोग में आ जाती हैं। अतएव जो व्यक्ति देश-भाषा में लेख, भाषण अथवा बोलचाल में नाम पाना चाहता है उसे कवियों की भाषा का अवश्य अनुसरण करना पड़ता है और इस प्रकार अतिश्योक्ति साहित्य और भाषा के अंग-अंग में समा जाती है। कवियों की फक्कड़बाजी से भाषा में अनेक अशिष्टतापूर्ण और अश्लील शब्द समाविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि कोश में वे ही शब्द प्रामाणिक और टकसाली समझे जाते हैं, जिनका औचित्य और प्रामाणिकता कवियों की वाणी से सिद्ध हो। अत: जो व्यक्ति देशी भाषा का कोश लिखने बैठता है उसे सबसे पहले कवियों के काव्य-संग्रह टटोलने पड़ते हैं। फिर जब कविता कुछ विषयों में पहले सीमित हो जाती है और उसका आधार केवल प्रचलित शैली का अनुकरण रह जाता है तब भाषा, बजाय इसके कि उसका क्षेत्र विस्तृत हो, अपना पहले का विस्तार भी खो बैठती है।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी, पृ. 23 )
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया। जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी, समाज इनको सिर्फ इसलिए ढ़ोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की 'मुनाजाते बेवा' कविता जिस तरह लोकप्रिय हुई उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीडि़त-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया है वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थी, समाज सुधारक भी, दुख दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
हाली ने कविताओं के माध्यम से और साहित्यिक सिद्धांतों के माध्यम से साहित्य का नया सौन्दर्य-शास्त्र रचने की कोशिश की। साहित्य को आम जनता से जोडऩे के लिए संघर्ष किया और आने वाले साहित्यकारों के लिए जमीन तैयार की जो बाद में साहित्य की मुख्यधारा के तौर पर विकसित हुई। हाली की रचनाएं आज के समाज के लिए व साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम करती हैं। हाली ने साहित्य में जन-पक्षधरता की जिस परम्परा की शुरूआत की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।
मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' की कविताएं आज के संदर्भ में निहायत प्रासंगिक हैं। आज जिस दौर से भारतीय समाज गुजर रहा है, उसमें हाली की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। हाली ने आम जनता की जिन समस्याओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया था वे अभी समाज से समाप्त नहीं हुई हैं, बल्कि कई मामलों में तो वे और भी गम्भीर रूप धारण कर रही हैं। हाली ने किसान जीवन को, पितृसत्तात्मक विचारधारा, जनता के भाईचारे को, बराबरी के न्यायपूर्ण समाज की स्थापना को मुख्य तौर पर अपनी कविताओं का विषय बनाया।
आज साम्राज्यवाद जिस तरह से अपना शिकंजा कस रहा है, उसने पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया है। किसानों का जीवन दूभर हो गया है। वे कर्ज के बोझ से इस कदर दब गए हैं कि आत्महत्या के अलावा उनको अपने जीवन का कोई हल नजर नहीं आता। रोजगार के लिए दर दर भटकने व हर दफ़तर में रोजगार पाने वाले चित्रों का जो वर्णन किया है वह स्थिति अभी दूर नहीं हुई है।
पितृसत्ता की विचारधारा समाज में अभी अपनी जगह बनाए हुए है, जो समाज व परिवार में समानता व जनतंत्र स्थापित होने में बाधा बनकर खड़ी है। जब समाज की आधी आबादी समान अधिकार और विकास के समान अवसरों से वंचित रहेगी, तब समाज में न्याय व शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती।
सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नहीं है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र व भाषायी संकीर्णताओं को देश के लिए घातक मानते हुए इनको दूर करने के लिए वातावरण निर्मित किया था। जनता की एकता व भाईचारे को तार तार करने वाली शक्तियां समाज में खुला खेल खेल रही हैं। धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव समाज में जारी है। साम्प्रदायिकता ने एक दार्शनिक आधार गढ़ लिया है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं।
हाली ने धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वास को समाज के पिछड़ेपन का जिम्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से दूर करने की आवाज उठाई थी, लेकिन आज ये शक्तियां खूब फल फूल रही हैं। धर्म के नाम पर जनता में संकीर्णता, अंधिवश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता को लाद रही हैं। बाहरी आडम्बरों व कर्मकाण्डों को ही धर्म के रूप में स्थापित करती है। धर्म को उसकी नैतिक व मानवीय शिक्षाओं से अलग करके नमाज पढना, दाढ़ी-चोटी रखना, जनेऊ-तिलक धरण करना या अन्य धार्मिक पहचान के चिन्हों को ही धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर रही हैं। धर्म को व्यक्ति के आचरण से न पहचानकर मात्र रामनामी चादर ओढने या गेरूए रंग के पटके डालने और लम्बा तिलक लगाने जैसे बाहरी कर्मकाण्डों से पहचान रही हैं। इन बाहरी आडम्बरों की आड़ में अपराधिक कार्यों में लिप्त कथित बाबा, संन्यासी-आतंकी धर्म की शरण ले रहे हैं। हाली का मानना था कि धर्म कुछ मूल्यों-आदर्शों का समुच्चय है, जिन्हें व्यक्ति को आचरण में उतारना है।
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। 'हाली' उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। 1856 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा। दिल्ली निवास (1854-1856) के दौरान हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली ने जब गालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि 'यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शे'र नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे'।
1863 में नवाब मुहमद मुस्तफा खां शेफ्रता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ। 1874 में 'बरखा रुत' शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरूआत थी। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
हाली ने अपनी शायरी के जरिये ताउम्र अपने वतन के लोगों के दुख तकलीफों को व्यक्त करके उनकी सेवा की। वे शिक्षा व ज्ञान को तरक्की की कुंजी मानते थे। उन्होंने अपने लोगों की तरक्की के लिए पानीपत में स्कूल तथा पुस्तकालय का निर्माण करवाया। पानीपत में आज जो स्कूल आर्य सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के नाम से जाना जाता है पहले यह 'हाली मुस्लिम हाई स्कूल' था, जो देश के विभाजन के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को क्लेम में सौंप दिया गया था। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1907 में कराची में 'आल इण्डिया मोहम्डन एजुकेशनल कान्फ्रेंस' में हाली को प्रधान चुना गया। हाली की विद्वता को देखते हुए 1904 ई. में 'शमशुल-उलेमा' की प्रतिष्ठित उपाधि दी गई, यह हजारों में से किसी एक को ही हासिल होती थी। आखिर के वर्षों में हाली की आंख में पानी उतर आया, जिसकी वजह से उनके लेखन-पाठन कार्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 31 दिसम्बर,1914 ई. को हाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। शाह कलन्दर की दरगाह में हाली को दफना दिया गया।
हाली ने कविताओं के अलावा आलोचना की पुस्तक 'मुकद्दमा-ए-शेरो शायरी', कवि सादी की जीवनी 'हयाते सादी', सर सैयद की जीवनी 'हयाते जावेद' तथा गालिब की जीवनी 'यादगारे गालिब' की रचना की। कविताओं में 'मुनाजाते बेवा', 'बरखा रुत', 'हुब्बे वतन', तथा 'मुसद्दस-ए- हाली' बहुत लोकप्रिय हैं।
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
अल्ताफ हुसैन को 'हाली' इसलिए कहा जाता है कि वे अपनी रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे, इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए 'हाली' तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुडऩे की इच्छा को दर्शाता है।
वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?
हाली ने अपने समय की समस्याओं को न केवल पहचाना व अपनी रचनाओं में विश्वसनीयतापूर्ण ढंग से व्यक्त किया, बल्कि उनके माकूल हल की ओर भी संकेत किया। जीवन के छोटे-छोटे से दिखने-लगने वाले पक्षों पर उन्होंने कविताएं लिखी और उनमें व्यावहारिक-नैतिक शिक्षा मौजूद है। मनुष्य के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं इस बात पर विचार करते हुए उन्होंने अपनी बेबाक राय दी है। फिर विषय चाहे साहित्य में छन्दों-अंलकारों के प्रयोग का हो या जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ा हो। 'चण्डूबाजी के अंजाम', 'कर्ज लेकर हज को न जाने की जरूरत', 'बेटियों की निस्बत', 'बड़ों का हुक्म मानो', 'फलसफाए तरक्की', 'हकूके औलाद' आदि बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें हाली की सीख उन्हें अपने पाठक का सलाहकार दोस्त बना देती है।
हाली हिन्दुस्तान के उन शायरों में से हैं जिन्होंने साहित्य में आधुनिक मूल्यों, विचारों को अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया। अभी तक उर्दू कविता में स्त्री को पुरूष की दृष्टि से ही स्थान मिला था। स्त्री कविता में कामुक व विलासी पुरूष के खेलने की वस्तु के तौर पर आती थी। उसकी जुल्फें , उसकी शोख अदायें, पुरूष को घायल कर देने वाली बांकी चितवन, सौतिया-डाह में जलती व पुरूष को लुभाने व अपने इशारों पर नचानेवाली कामिनी स्त्री ही कविता में छाई हुई थी। इन कविताओं को देखकर तो ऐसा लगता है कि समाज में स्त्री का एक यही रूप था। न उसके जीवन में कोई कष्ट था, न उसकी इच्छाएं-आकाक्षांए थी। सत्तावादी पुरूषों के बहलाव का साधन बनी चन्द स्त्रियों की छवि के तले अधिकांश स्त्रियों का जीवन-संघर्ष दब कर रह जाता था। यह कुछ उसी तरह था जिस तरह आज मुख्यधारा का मीडिय़ा स्त्री की छवि पेश करता है। या तो अर्धनग्न वस्त्रों में रेम्प पर चलने वाली अतिआधुनिक स्त्री या फिर अपने अंग-प्रत्यंग को कपड़े में लपेटे परम्परागत छवि वाली औरत। असल में दोनों ही छवियां अधिकांश स्त्री-समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हाली ने रिश्तों में बराबरी की वकालत की। नवजागरण का यह आधारभूत मूल्य था, जिसे स्थापित करने के लिए समाज में एक लहर की जरूरत थी। हाली ने अपनी कविताओं में पितृप्रधान समाज में महिला पर अत्याचारों को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया।
जि़न्दा सदा जलतीं रहीं तुम मुर्दा ख़ाविन्दों के साथ
और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता
ब्याहा तुम्हें याँ बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा
मौलाना हाली ने इस बात को पहचाना कि स्त्री को अपनी गुलाम बनाने के लिए पितृसत्तावादी व वर्चस्वी वर्ग ने उसको शक्ति के स्रोत ज्ञान, संपति व बल से दूर कर किया। स्त्री को इनसे वंचित करके ही पुरूष उस पर अपना शासन कायम कर सका है, इसलिए पुरूष ने स्त्री को ज्ञान से दूर रखने के लिए इस बात का आक्रामक प्रचार किया कि वह इसे प्राप्त करने के काबिल ही नहीं है। इस संबंध में हमारी लोक-कहावतों, लोक-विश्वासों व लोक-मान्यताओं में इस तरह उदाहरण भरे पड़े हैं। समाज की सोच की बनावट ही ऐसी बन गई है कि स्त्री को पुरूष के मुकाबले दोयम दर्जे का प्राणी मान लिया जाता है। सबसे बड़ी विड़म्बना यह रही कि स्त्री भी पुरूषों द्वारा बनाई आचार-संहिता को बिना सोचे मानती चली गई और पुरूष के सभी अत्याचारों को सहन करती गई। स्त्री पर हो रहे घोर अत्याचारों को देखकर उसके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं हुई। यह स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक सोच के अन्याय की पराकाष्ठा है कि स्त्री के मामले में पुरूष की संवेदना को सांप सूंघ जाता है। हाली ने लिखा:
दुनिया के दाना और हकीम इस ख़ौफ से लरज़ां थे सब
तुम पर मुवादा इल्म की पड़ जाए परछायीं कहीं
ऐसा न हो मर्द और औरत में रहे बाक़ी न फर्क
तालीम पाकर आदमी बनना तुम्हें ज़ेबा नहीं
याँ तक तुम्हारी हज़्व के गाए गए दुनिया में राग
तुम को भी दुनिय की कुहन का आ गया आखिऱ यकीं
इल्मो हुनर से रफता रफता हो गयीं मायूस तुम
समझा लिया दिल को के हम खुद इल्म के क़ाबिल नहीं
हाली ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया कि स्त्री के शोषण व अत्याचार के बारे में सब पुरूषों में सर्वसम्मति है, फिर चाहे वह बाप हो, बेटा हो, भाई हो या फिर पति हो। पुरूष चाहे अन्यथा कितने ही अच्छे हों, लेकिन स्त्री के मामले में उनकी 'अच्छाई' गायब हो जाती है। हाली ने इस बात को जोर देकर कहा कि जो बर्बर और हिंसक हैं उनकी तो बात ही क्या करनी लेकिन जिन्हें नेक दिल कहा जाता है वे भी स्त्रियों के बारे में नेक नहीं रहे। असल में समाज में पितृसत्ता की सोच इतने गहरे में पैठ गई है कि स्त्री को समाज की हर उपलब्धि से वंचित किया गया। पितृसत्तात्मक सोच की बर्बरता ही है कि जो दुनिया में पुरूष के लिए जरूरी व उसका आभूषण माना गया उसे स्त्री के लिए पाप मानकर मनाही की गई। स्त्री के प्रति यह पक्षपात लगातार होता रहा है और आज भी जारी है।
जो संग दिल फफ़ाक प्यासे थे तुम्हारे खून के
उन की हैं बे रहमियाँ मशहूर आलम में मगर
तुम ने तो चैन अपने खरीदारों से भी पाया न कुछ
शौहर हूँ उस में या पिदर, या हूँ बिरादर या पिसर
जब तक जिओ तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
आई हो जैसी बे ख़बर वैसी ही जाओ बे ख़बर
जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
हाली के समय में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न पर समाज की विभिन्न शक्तियों में संघर्ष था। प्रगतिशील विचारों के लोग स्त्री-मुक्ति के पक्ष में थे तो प्रतिक्रियावादी शक्तियां विरोध में थी। प्रतिक्रियावादी शक्तियां अपनी पुरजोर कोशिश में थी कि परम्परा से चले आ रहे स्त्री-विरोधी विचार समाज में अपनी जगह बनाए रहें, लेकिन प्रगतिशील शक्तियां भी मानवीय विवेक के साथ इनसे जूझ रही थी। हाली ने बड़े आशाजनक ढंग से इसे व्यक्त किया कि इसमें जीत तो स्त्री के पक्ष की होनी है क्योंकि यही सच्चाई है। उन्होंने कहा कि विश्व इतिहास इस बात का गवाह है कि समाज में जीत अन्तत: प्रगतिशील शक्तियों की होती रही है। स्त्री की मुक्ति समाज के विकास के लिए बहुत जरूरी है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं कि जिस समाज ने स्त्री को शिक्षा दी और सामाजिक बन्धनों से आजाद किया है उस समाज ने बहुत तेजी से तरक्की की है।
नौबत तुम्हारी हक़ रसी की बाद मुद्दत आई है
इंसाफ ने धुंदली सी एक अपनी झलक दिखलाई है
ऐ बे ज़बानों की ज़बानों, बे बसों के बाज़ुओं
तालीमे निस्वाँ की मुहिम जो तुम को अब पेश आयी है
ये मरहला आया है तुम से पहले जिन क़ोमों को पेश
मंजिल पे गाड़ी उनकी इसतक़बाल ने पहुँचाई है
ये जीत भी क्या कम है खुद हक़ है तुम्हारी पुश्त पर
जो हक़ पे मुंह आया है आखिऱ उसने मुँह की खाई है
हाली ने अपनी रचनाओं में समाज के विकास में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हुए उसके श्रम के वास्तविक मूल्य को पहचाना। स्त्री बच्चों का पालन-पोषण करके उसे इंसान कहलाने लायक बनाती है। हाली ने स्त्री के श्रम को गरिमा प्रदान करते हुए कहा कि यह स्त्री का हुनर ही है कि वह मांस के लोथड़े को इतना ताकतवर बना देती है कि वह संसार के समस्त संकटों का सामना करने के लिए तैयार रहता है। मां की गोद सीढ़ी की तरह है जिसके माध्यम से व्यक्ति इतनी बुलन्दी तक पहुंच सके हैं। जहां यह बात सच है कि संसार में जितने भी महान लोग हुए हैं उनके महान बनने में स्त्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है वहीं यह बात भी सच है कि समाज में जिस भी स्त्री ने आगे बढऩे की बात सोची है उसे पहले अपने परिवार व रिश्तेदारों से ही संघर्ष करना पड़ा है। यह बातचीत का आम मुहावरा है कि 'हर फल पुरूष के पीछे किसी स्त्री का त्याग होता है', लेकिन यह बात बिल्कुल सही नहीं है कि हर फल स्त्री के पीछे किसी पुरूष का त्याग होता है।
लेतीं ख़बर औलाद की माएँ न गर छुटपन में याँ
खाली कभी का नस्ल से आदम की हो जाता जहाँ
ये गोश्त का एक लोथड़ा परवान चढ़ता किस तरह
छाती से लिपटाए न हर दम रखती गर बच्चे को माँ
क्या सुफिय़ाने बा सफ़ा, क्या आरिफ़ाने वा खुदा
क्या औलिया क्या अम्बिया, क्या ग़ौस क्या क़ुतबे ज़माँ
सरकार से मालिक की जितने पाक बन्दे हैं बढ़े
वो माँओं की गोदों के जीने से हैं सब ऊपर चढ़े
हाली ने स्त्री को बोझ मानने वाले पितृसत्तात्मक समाज के विचार को मानने से इन्कार किया तथा स्त्री के महत्त्व को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि यह संसार सुन्दर है तो स्त्री के कारण है। स्त्री के कारण ही दुनिया में ईमान बचा हुआ है। यदि संसार में कहीं सत्यता बची है तो वह स्त्रियों में है। स्त्री बीमार की आशा है, बेकार का हौंसला है। हाली ने स्त्री को जीवन का पर्याय कहा है जो हर स्थिति में पुरूष की सहयोगी है न कि उस पर बोझ। इस विचार को स्थापित करने के लिए हाली ने विभिन्न तुलनाएं करके जीवन में उसकी भूमिका को रेखांकित किया है।
ऐ माओं, बहनों, बेटियो, दुनिया की ज़ीनत तुमसे है
मुल्कों की बस्ती हो तुम्ही, क़ौमों की इज्ज़त तुमसे है
तुम हो तो ग़ुरबत है वतन, तुम बिन है वीराना चमन
हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
मोनिस हो ख़ाविन्दों की तुम, ग़म ख्वार फऱजन्दों की तुम
तुम बिन है घर वीरान सब, घर भर की बरकत तुम से है
तुम आस हो बीमार की, ढारस हो तुम बेकार की
दौलत हो तुम नादार की, उसरत में इशरत तुम से है
रोजगार के लिए हाली को अपने वतन से दूर रहना पड़ा। उस समय उन्हें वतन से बिछुडऩे का अहसास हुआ और प्रवासी जीवन के अपने दर्द को रचनाओं का विषय बनाया। हाली की इस पीड़ा में उन हजारों-लाखों की पीड़ा भी शामिल हो गई, जो किसी कारण से अपना वतन छोड़कर दूर रहते हैं। 'हुब्बे वतन' में हाली ने व्यक्त किया।
तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले,
लूं न हरगिज अगर बहिश्त मिले
जान जब तक न हो वतन से जुदा,
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा
हाली के लिए देश-प्रेम कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है। उनके देश-प्रेम की परिभाषा इतनी व्यापक है कि उसमें अपने वतन के पेड़ पौधे, पशु-पक्षी, व वनस्पति सब कुछ के प्रति प्रेम शामिल है। देश-प्रेम केवल देश की सीमाओं की रक्षा करने तक सीमित नहीं होता। देश-सेवा को उसकी सीमा की रक्षा तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। हाली के लिए देश-प्रेम व देश-सेवा का अर्थ देश की जनता के जीवन में आ रही कठिनाइयों को दूर करने से था। हाली ने उसे देश प्रेमी कहा है जो अपनी पूरी कौम के दुख को देखकर दुखी हो, उसे दूर करने में अपनी ऊर्जा लगाए, देश के लोगों की खुशी में खुश हो और उनका दुख देखकर दुखी हो। देश के लोगों पर आए संकट को टालने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहने वाला तथा जनता के काम में अपने को पूरी तरह झोंक देने वाला ही सच्चा वतन प्रेमी है। हाली मात्र कल्पना में छलांग लगाने वाले शायर नहीं थे, और न ही वे कोई ऐसा यूटोपिया रच रहे थे जो संभव न हो।
क़ौम पर कोई ज़द न देख सके,
क़ौम का हाले बद न देख सके
क़ौम से जान तक अज़ीज़ न हो,
क़ौम से बढ़ के कोई चीज़ न हो
समझे उन की खुशी ओ राहते ज़ाँ,
वाँ जो नौरोज़ हो तो ईद यहाँ
रंज को उनके समझे मायाएग़म,
वाँ अगर सोग़ हो तो याँ मातम
भूल जाए सब अपनी क़द्रे ज़लील,
देख कर भाईयों को ख्वारो ज़लील
जब पड़े उन पे गरदिशे अफ़लाक,
अपनी आसाइशों पे डाल दे ख़ाक
भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, फारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मो को मानने वाले व विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोग रहते है। धर्मों के लोग रहते हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की विशेषता है, भारत की एकता व अखंड़ता के लिए धर्मनिरपेक्षता निहायत जरूरी है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। हाली ने चेतावनी दी कि यदि अपने राष्ट्र का भला चाहते हो तो इसमें रहने वाले सभी लोगों को अपना समझना जरूरी है। यदि जाति, धर्म, भाषा, नस्ल या इलाके के आधार पर लोगों में भेदभाव किया जाता है तो देश में असंतोष पनपने की संभावना है, जो देश के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीे है। सबको मीठी नजर से देखने पर ही शान्त व न्यायपूर्ण देश बन सकता है। हाली के देश प्रेम में संकीर्णता लेश मात्र भी नहीं थी। वे धर्म के आधार पर अपने देश के नागरिकों में किसी प्रकार के भेदभाव के हिमायती नहीं थे।
तुम अगर चाहते हो मुलक की ख़ैर
न किसी हम वतन को समझो गैऱ
हो मुसलमान उसमें या हिन्दू
बौद्ध मज़हब हो या के हो ब्रहमू
जापफ़री होवे या के हो हनाफ़ी
जैन मत होवे या के हो वैष्नवी
सब को मीठी निगाह से देखो
समझो आँखों की पुतलियाँ सबको
हाली समस्या या किसी विचार को मात्र वर्तमान में नहीं देखते थे, बल्कि वे इस पर ऐतिहासिक संदर्भों में विचार करते थे। हाली समाज में बराबरी कायम करना चाहते थे। वे समाज में मौजूद ऊंच-नीच को पहचान रहे थे। वे समानता को मानव समाज की आदिम प्रवृति या विशेषता मानते थे और विषमता को शक्तिशाली मनुष्यों का कमजोरों पर शोषण। हाली आदिम साम्यवादी युग में समानता को व्यक्त करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बाद में शक्तिशालियों ने कमजोरों को अपना गुलाम बनाया और उन्हें अपनी सेवा का पाठ पढ़ाया। एक बेहतरीन कवि की यही पहचान होती है कि जिन विचारों से वह अपना जुड़ाव महसूस करता है उनको उभारने के लिए जहां से भी संदर्भ मिलता है उसे अपनी रचना का हिस्सा बना लेता है। ऐसे समाज में जिसमें अक्सर यह बात दोहराई जाती हो कि समाज में समानता न तो कभी रही है और न कभी स्थापित हो सकती है। वहां मानव समाज के इतिहास में किसी समय पर समानता कायम थी इसके उदाहरण पेश करना हाली की समानता के प्रति प्रतिबद्धता को ही दर्शाती है। जो समाज में असमानता को बनाए रखना चाहता है वह वर्तमान में मौजूद व्यवस्था को ही अन्तिम मान कर चलता है। और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बदलाव को झुठलाता है। बदलाव को झुठलाने के लिए वह इतिहास और भविष्य दोनों को ही नकारता है। हाली ने समानता के समाज का चित्र खींचा और बताया कि समान समाज में कोई मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं था। सब एक समान थे और आपस में कोई झगड़ा भी नहीं था। असल में असमानता की उत्पति कोई प्रकृति की देन नहीं है,बल्कि यह समाज की एक विशेष अवस्था में पैदा हुई है। इसकी ओर हाली ने संकेत किया है कि समाज में जब कमजोर और शक्तिशाली की श्रेणियां बनीं तो असमानता का बीज समाज में बोया गया। जाहिर है किसी बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए उसके कारणों को दूर किया जाता है। यानी कि समाज से श्रेणियों को समाप्त करके ही समानता की स्थापना की जा सकती है।
एक ज़माना था के हम वज्न थे सब ख़र्दों कलाँ
लहलहाती थी बनी नो की खेती यकसाँ
एक उसलूब पे थी ग़र्दिशे परकारे जमाँ
शहरो वीरानाओ आबाद में था एक समाँ
एक से एक न कम था न ज़्यादा सरे यू
सब थे हम एक तराई के दर$खते खुदरौ
दस्ते कुदरत के सिवा सर पे कोई हाथ न था
एक किबला था कोई किबलए हाज़ात न था
ना गहां जोरो तग़ल्लुब का एक उठा तूफाँ
जिसके ख़दमें से हुई ज़ेरो ज़गर नज्में जहाँ
अकबिया हाथ जईफो पे लग करने खाँ
बकरियों को न रही भेडिय़ों से जाए अमाँ
हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वेे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरूष हुए हैं वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आम तौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।
हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
उन से कह दो, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की खि़दमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का
हाली समाज में आ रही गिरावटों से चिंतित थे। वे मजहब के नाम पर होने वाली गिरावट से सबसे ज्यादा परेशान थे। असल में मजहब का लोगों की चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव था। लेकिन उसमें लगातार गिरावट आ रही थी। दुनिया में जो धर्म पैदा हुए हैं वे अपने समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हुए हैं। उन्होंने अपने समय के पिछड़ेपन के विरूद्ध आवाज उठाई। लेकिन ये उनके लिए चिंता की बात थी कि जो धर्म इतनी क्रांतिकारिता के साथ दुनिया में आए थे वे उन्हीं चीजों को शरण देने लगे हैं जिनके कि वे खिलाफ खड़े हुए थे। अपने समय में धर्म नामक संस्था में आई गिरावट को 'अर्जे हाल' कविता में बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया है। इस्लाम जब दुनिया में आया तो वह प्रगतिशील धर्म था। शांति, भाईचारे व प्रेम का संदेश देने वाला था। इस विचार के कारण ही वह दुनिया के हर हिस्से में बहुत जल्द पहुंच गया था। उसमें एक से एक चिंतक हुए। लेकिन अब वह स्वयं इन समस्याओं से ग्रस्त हो गया है। 'अर्जे हाल' कविता में हाली ने लिखा
जो दीन बड़ी शान से निकला था वतन से
परदेश में वो आज गरीबुल गुरबा है
जो तपफ़रीके अक़वाम के आया था मिटाने
उस दीन में ख़ुद तफ़रिका अब आके पड़ा है
जिस दीन ने थे ग़ेरों के दिल आके मिलाए
उस दीन में खुद भाई से अब भाई जुदा है
छोटों मे इताअत है, न शफ़कत है बड़ों में
प्यारों में मुहब्बत है, न यारों में वफ़ा है
याँ निकले हैं सौदे को दिरम ले के पुराने
और सिक्का रवां शहर में मुद्दत में नया है
हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृति से गुजर रहा था। अंग्रेजों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे वे मानते थे कि अंग्रेजों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेजों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृति को पहचाना। 'देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो' कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह देकर पूरे समाज को निराशा से बाहर निकलने में मदद की।
पेशा सीखें कोई फऩ सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलगऱज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें
हाली के न्यायपूर्ण समाज की परिकल्पना आम जनता की भावनाओं को कुचलती तत्कालीन शोषणकारी-व्यवस्था से निकली है। हाली अपने समाज के तंत्र को बड़ी गहराई से देख रहे थे कि व्यवस्था पूरी तरह उच्च वर्गों के लोगों के हाथों में है और वे पूरी तरह से आम जनता का शोषण करते हैं। न्याय के संस्थान कहे जाने वाली जगहों पर भ्रष्टाचार व रिश्वत का पूरा बोल बाला है। इंसाफ और फरियादी के बीच में दलाल व्यवस्था पनप रही है जो इंसाफ की बोली अदालतों से बाहर ही लगा देते हैं। हाली ने अंग्रेजों की न्याय-व्यवस्था की पोल खोली है जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी व न्यायप्रियता का ढोल पीटते नहीं थकते थे। असल में अंग्रेजों की रहनुमाई में एक ऐसा भ्रष्ट तंत्र भारत में विकसित हुआ, जिसने उसी उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की जो देश की लूट में उसका सहयोगी था। हाली आरम्भ में ही इसकी ओर संकेत कर गए थे, लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह भ्रष्टता का तंत्र लगातार फलता-फूलता रहा और अभी भी जारी है।
अहलकारों का कचहरी में जो देखो ब्योहार
समझे दीवाने अदालत को के है एक बाज़ार
पेट पकड़े हुए वाँ फिरते हैं हाज़त वाले
रवा मुँह खोले हुए बैठे हैं अदालत वाले
नहीं हाकि़म की मुरव्वत से उन्हें ख़ौफे मआल
''बोल क्या लाया है"? इज़हार का पहला है सवाल
हर तरफ बीच में दलाल हैं कुछ छूट रहे
दोनों हाथों से गरज़ मन्दों को लूट रहे
हाली ने 1857 का संग्राम अपनी आंखों से देखा। दिल्ली और उसके आस पास का इलाका इस संग्राम का केन्द्र था और हाली का इस क्षेत्र से गहरा ताल्लुक था। 1857 के संग्राम की शुरूआत सिपाहियों ने की थीं, परन्तु असल में यह किसान-विद्रोह था। अंग्रेजों ने इसे कुचलने के लिए नागरिकों पर कहर ढ़ाया। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों लोग उजड़े। अंग्रेजों की वहशत से पूरी दिल्ली आंतकित थी। हाली ने 'मरसिया जनाब हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में 'देहलवी' के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करते हुए इस स्थिति को व्यक्त करता एक पद लिखा।
वो जमाना जब के था दिल्ली में एक महशर बपा
नफ़सी-नफ़सी का था जब चारों तरफ़ ग़ुल पड़ रहा
अपने-अपने हाल में छोटा बड़ा था मुबतला
बाप से फऱजन्द और भाई से भाई था जुदा
मौजे-ज़न था जब के दरचाए इताबे ज़ुलजलाल
बागिय़ों के ज़ुल्म का दुनिया पै नाजि़ ाल था वबाल
अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह से खाली करवा लिया था। सारी आबादी शहर से बाहर खदेड़ दी थी। डेढ़-दो साल के बाद ही लोगों को शहर में आने की अनुमति दी। हाली ने 'मरहूम-ए-दिल्ली' में दिल्ली पर अंग्रेजी कहर का वर्णन किया है।
तज़किरा देहली-ए-मरहूम का अय दोस्त न छेड़
न सुना जायेगा हम से यह फसाना हर्गिज़
मिट गये तेरे मिटाने के निशां भी अब तो
अय फलक इससे ज्यादा न मिटानां हर्गिज़
हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही मौसम की मार पड़ती है, उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।
होंगें मजदूर और कमेरे उनके अब कायम मुक़ाम
फिरते हैं बेकार जिनके को दको पीरो जवाँ
वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। 'नंगे खिदमत' कविता में हाली ने लिखा।
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गैऱ के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आजाद से हम धो बैठे
एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने
देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है। हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। 'मरसिया हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा कि:
सुनते हैं 'हाली' सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुखऩवर के लिए चारों तरपफ़ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इशक की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह गज़़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफि़ल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेडऩे पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा
हाली उस समय की कथित मुख्यधारा से अलग हटकर साहित्य की रचना इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास नए विचार व प्रगतिशील दृष्टि थी, वे समाज मे हो रहे परिवर्तन को देख रहे थे। जनता में हो रहे बदलाव की इच्छा को वाणी दे पा रहे थे। जनता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही वे साहित्य के नए सौंदर्य-शास्त्र की रचना कर सके। उन्होंने तत्कालीन चाटुकार साहित्य-संस्कृति की अवास्तविकता को छोड़कर समाज की सच्चाइयों से विषयों को चुना।
शायरों के हैं सब अन्दाज़े-सुखऩ देखे हुए
दर्दमन्दों का टुकड़ा और बयां सबसे अलग
माल है नायाब पर गाहक हैं अक्सर बेख़बर
शहर में खोली है 'हाली' ने दुकां सबसे अलग
हाली ने तत्कालीन साहित्य की प्रमुख धारा की आलोचना की। हाली ने सचेत तौर पर पुरानी परम्परा से पीछा छुड़ाया। हाली ने लिखा कि ''शायरी की बदौलत चन्द रोज झूठा आशिक बनना पड़ा, एक ख्याली माशूक की चाह में बरसों दशते-जूनू की वह खाक उड़ाई, कैस व फरहाद को गर्द कर दिया। कभी नालय नीमशबी से रबेमसकन को हिला डाला, कभी चश्मे-दरियावार से तमाम आलम को डुबो दिया। आहोफुंगा के जोर से कर्रोवया के कान बहरे हो गये। शिकायतों की बौछार से जमाना चीख उठा। तानों की मार से आसमान छलनी हो गया। जब रश्क का तलातुम हुआ तो सारी खुदाई को रकीब समझा। यहां तक आप अपने से बदनुमा न हो गये। बारहा तेगेअब्रू से शहीद हुए और बारहा एक ठोकर से जी उठे। गोया जिन्दगी एक पैहरन था कि जब चाहा उतार दिया और जब चाहा पहन लिया। मैदाने कयामत में अक्सर गुजर हुआ। बहिश्त व दोजख की अक्सर सैर की। बादानोशी पर तो खुम-के-खुम लुढ़का दिये और फिर भी सैर न हुए।
कुफ्र से मानूस और ईमान से बेजार रहे, खुदा से शोखियां की, बीस बरस की उम्र से चालीस बरस तक तेली के बैल की तरह इसी चक्कर में फिरते रहे और अपने नजदीक सारा जहां तय कर चुके। जब आंख खुली मालूम हुआ, कि जहां से चले थे, अब तक वहीं हैं।
निगाह उठाकर देखा तो दांए-बांए, आगे-पीछे एक मैदाने-वसीअ नजर आया, जिनमें बेशुमार राहें चारों तरफ खुली हुई थी और ख्याल के लिए कहीं रास्ता तंग न था। जी में आया कि कदम बढ़ायें और उस मैदान की सैर करें। मगर जो कदम बीस बरस से एक चाल से दूसरी चाल न चले हों और जिनकी दौड़ गज-दो-गज जमीन में महदूद रही हो, उनसे इस वसीअ-मैदान में काम लेना आसान नहीं था। इसके सिवा बीस बरस बेकार और निकम्मी गर्दिश में हाथ-पांव चूर हो गए थे और ताकते-रफ़तार जवाब दे चुकी थी, लेकिन पांव में चक्कर था, इसलिए बैठना दुश्वार था। जमाने का नया ठाठ देखकर पुरानी शायरी से दिल सैर हो गया था और झूठे ढकोसले बांधने से शर्म आने लगी थी। न यारों के उभारों से दिल बढ़ता थ न साथियों के रोष से कुछ जोश आता था।" जनता के जीवन से जुडऩे की इस बेचैनी ने ही हाली के लिए नए नए विषयों के द्वार खोल दिए। साहित्य की एक ऐसी परम्परा की शुरूआत कर गए कि बाद में रचनाकारों को इस पर कदम रखने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई, यह नींव इतनी पुख्ता थी कि जनता से दूर रहकर साहित्य लिखने वाले शर्मिन्दा होने लगे। जिनकी जनता से कोई हमदर्दी भी नहीं थी, वे भी अपने को जनता का सच्चा हमदर्द बताने व सिद्ध करने में जमीन आसमान एक कर देते थे। हाली इस बात को पहचान रहे थे कि बुरी कविता का न केवल समाज की रूचियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि भाषा व साहित्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वे कविता को समाज के हित के लिए उसके विकास में बाधक चीजों को दूर करने के लिए प्रयोग करना चाहते थे।
हाली ने जन-भाषा में रचनाएं की तो उनकी बहुत आलोचना हुई। गौर करने की बात है कि यह साहित्य में पहली बार नहीं हो रहा था। कभी तुलसीदास को तत्कालीन पोंगा-पंडि़तों ने ब्राह्मण-जाति से इसलिए बहिष्कृत कर दिया था कि उन्होंने कथित 'देववाणी' को छोड़कर राम की कथा को लोक बोली में लिखा था। भाषा ही वह जरिया है, जिस पर अधिकार करके वर्चस्वी वर्ग अपना प्रभुत्व कायम करते हैं। कथित गूढ़ व शिष्ट भाषा के तत्कालीन साहित्यकारों ने हाली पर व्यंग्य कसे। वे साहित्य को उच्च वर्ग के मनोरंजन का ही साधन बनाए रखना चाहते थे। साहित्य में आम लोगों की भाषा उनके इस वर्चस्व को एक झटके में तार तार करने जा रही थी। हाली ने इन आरोपों की परवाह न करते हुए लगातार इसका प्रयोग किया। उन्होंने लिखा:
क्या पूछते हो क्योंकर सब नुक्ताचीं हुए चुप
सब कुछ कहा उन्होंने पर हमने दम न मारा
मौलाना हाली की कविता 'मुनाजाते बेवा' की भाषा से प्रभावित होकर ही महात्मा गांधी ने कहा था कि ''अगर हिन्दुस्तानी जुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज्म 'मुनाजाते बेवा' का है।" हाली की रचनाओं में खेती से जुड़े शब्द इस तरह दाखिल हो जाते हैं मानो कि ये शब्द उनकी कविता के लिए ही बने हों। कविता के लिए यह शब्दावली बिल्कुल नई थी। कविता में जीवन की विभिन्न स्थितियों को व्यक्त करने के लिए हाली ने खेती से जुड़ी शब्दावली का सटीक प्रयोग किया है। आम तौर पर खेती में बहुत ही स्थूल किस्म की शब्दावली का प्रयोग होता है लेकिन हाली ने उनका संदर्भ में इस तरह से प्रयोग किया है कि जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव भी व्यक्त करने में सक्षम हैं ।
हाली ने रूढ़ व बंधी-बंधाई उपमाओं का प्रयोग न करके उन उपमाओं का प्रयोग जो अभी तक कविता के लिए अछूती थी। परम्परागत तौर पर प्रयोग हो रहे बिम्बों का प्रयोग करने की बजाए हाली ने अभिव्यक्ति का खतरा उठाया और कविता के लिए नयी जमीन तोड़ी। किसान जीवन से कविता के लिए औजार लिए। यहीं से बिम्ब लिए, यहीं से उपमाएं लीं। यद्यपि किसान जीवन से जुड़े शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं को कविता में प्रयोग करने की कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं रही। हाली के पास एकदम नए औजार थे, जिनके स्पर्श से कविता भी खिल उठी। यह बात भी सही है कि यदि हाली पुराने औजारों व सामग्री से ही कविता रचना करते तो वे उस बात को उतने प्रभावशाली ढंग से कहने में फल नहीं हो पाते, जिसके लिए उनको अब याद किया जाता है। उन्होंने कविता की भाषा का नए शब्दों से व नए जीवन से परिचय करवाया। उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा से यह साबित किया कि आम बोल चाल की भाषा में समस्त भावों को बड़े कलात्मक व मार्मिक ढंग से व्यक्त करने की क्षमता है। हाली ने कविता की भाषा और आम जन की भाषा का अन्तर ही मिटा दिया। गर्मी की भयावहता का प्रयोग करने के लिए हाली ने 'बरखा-रुत' कविता में एक से बढ़कर एक ढंग अपनाया है। एक उदाहरण देखने लायक है जिससे उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है।
आरे थे बदन पै लू के चलते
शौले थे जमीन से निकलते
हाली ने इस बात को झूठला दिया कि आम बोलचाल की भाषा में सूक्ष्म-भावों व मनोवैज्ञानिक बातों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। उन्होंने स्थापित किया कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार भी यह अनगढ़ भाषा व्यक्त करने में सक्षम है। जिस तरह संत कबीर ने भाषा को अपने ढंग से प्रयोग किया, उसी तरह हाली ने भी भाषा की सीमा को अपनी सीमा नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी अभिव्यक्ति में आड़े आ रही भाषा को पलट कर प्रयोग किया।
गड़रिए का वो हुक्म बरदार कुत्ता,
कि भेड़ों की हरदम है रखवाली करता।
जो रेवड़ में होता है पत्ते का खड़का,
तो वो शेर की तरह फिरता है बिफरा।
भाषा का यह प्रयोग एकदम नया तो है ही एकदम विशिष्ट भी है। किसी समाज की वस्तुस्थिति व उसकी मिथ्या अकड़ को व्यक्त करने के लिए इससे अच्छा प्रयोग क्या हो सकता है। असल में जो है तो कुत्ता लेकिन वह इस तरह बिफरा है मानो कि शेर हो। अब कुत्ते में शेर की तरह की अकड़, उसका बिफरना यानी उसकी घंमडी चाल, उसको अपनी शक्ति का मिथ्या आभास होना सच्चाई के तमाम सूक्ष्म पहलुओं को व्यक्त करने में सक्षम है। यह समाज में सत्ता व शक्ति का जो पद-सोपान है उसको भी उजागर करता है। इतनी गहरी व गूढ सच्चाई को इतनी सरलता से व्यक्त कर देना उसी कवि के बस की बात है जो कि जन जीवन की गहरी समझ रखता हो।
भाषा सिर्फ अपनी बात कहने-समझने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह किसी वर्ग की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी है। भाषा के वर्चस्व ही वर्गों के वर्चस्व को वैधता देने लगते हैं। इसीलिए आम लोगों की भाषा में अभिव्यक्ति करने के कारण हाली पर 'प्रचारवादी' होने के आरोप लगाकर बदनाम करने की कोशिश की गई। उन्हें को इस बात का कोई मलाल नहीं था। वे इन आघातों को सहन करते हुए जन पक्ष का निर्माण करते जा रहे थे।
सच यह है के जब शेर हों सरकार के ऐसे
क्यों आप लगे मानने हाली के सुखऩ को
हाली को तो बदनाम किया उसके वतन ने
पर आपने बदनाम किया अपने वतन को
हाली की कविताओं की भाषा पर सपाटता का आरोप लगाया जाता है। यह आरोप न तो नया है और न ही अप्रत्याशित यह आरोप उन सभी साहित्यकारों पर लगातार लगता रहा है जिन्होंनें अपनी कविताओं में जनता की समस्याओं को व्यक्त किया और जन-सामान्य की भाषा अपनाई। यह आरोप असल में भाषा मात्र का आरोप नहीं है, बल्कि पूरे साहित्य दृष्टि पर ही प्रश्न-चिह्न लगाने के लिए भली-भांति सोचा गया विचार है। यह विचार साहित्य को मात्र एक वर्ग-विशेष तक सीमित करने का ही हामी है। मनोरंजन तक ही साहित्य की भूमिका सीमित करने का पक्षधर है। यह साहित्य को समाज की बौद्धिक जरूरत के लिए आवश्यक नहीं समझता और न ही साहित्य की कोई सामाजिक उपयोगिता ही समझता है।
हाली कविता को मात्र विद्वानों व कथित 'सहृदयों' के वाग्विलास की चीज नहीं मानते थे, कविता उनके लिए आम जनता की बेहतरी का साधन थी। हाली को जनता में जितनी ख्याति मिली है उसके पीछे भाषा भी एक कारण है। हाली ने समाज के विभिन्न पक्षों पर लोगों को शिक्षित करने के लिए कविताएं लिखी हैं, वे उन तक इस भाषा के कारण ही पहुंच सकी हैं। हाली की कविताओं में कहीं विधवा की पीड़ा है तो कहीं एक ऐसे बाप की, जिसका बेटा बिगड़ गया है। इनकी कविताओं से लोग अपनी पीड़ा को इसीलिए महसूस कर सके कि ये उसी जुबान में थी जिसमें जनता अपनी पीड़ा का अहसास करती थी। पीडि़त जनता हाली की कविताओं से रिश्ता बनाती थी इसके बारे में उर्दू की प्रसिद्ध शायरा पदम श्री बेगम मुम्ताज मिर्जा ने लिखा है कि ''मुझे याद है कि अब से तीस-चालीस बरस पहले हमारी पुरानी औरतें हाली की इस नज्म (मुनाजाते बेवा) को पढ़ पढ़कर राहत महसूस करती थी। बुजुर्गों से सुना है कि इस नज़्म ने हजारों औरतों को रूलाया भी है"। हाली की कविताओं की भाषा व आम लोगों की भाषा की एकता ही है जिसके माध्यम से वे अपने दर्द को इन कविताओं में व्यक्त दर्द के साथ मिलाकर राहत महसूस करते थे।
मुहावरे और कहावतें भाषा का श्रृंगार मात्र नहीं हैं, बल्कि ये सामूहिक चेतना को समझने व प्रभावी ढंग से उसे व्यक्त करने के लिए अनिवार्य हैं। इनके प्रयोग से भाषा न केवल रोचक बनती है, बल्कि सम्प्रेषणीय भी बनती है। मुहावरे और कहावतें समाज की जिस सामूहिक चेतना से बनते हैं, इनमें वह सामूहिक चेतना विद्यमान रहती है। जिस रचनाकार का समाज से जितना गहरा जुड़ाव व सामूहिक चेतना की जितनी गहरी समझ है, अपनी रचनात्मक भाषा में वह इनका उतना ही प्रभावी प्रयोग कर सकता है। सामूहिक चेतना हाली की चेतना का महत्त्वपूर्ण अंग है। उनकी सोच पर सामूहिक विवेक का गहरा प्रभाव है, लेकिन यह बात गौर करने की है कि सामूहिक चेतना के पिछड़ेपन को पहचानते हुए उन्होंने इसे अपनी चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया। असल में तो हाली की कविता रचना का कारण ही सामूहिक चेतना में जमे पिछड़ेपन को दूर करना था। हाली की सामाजिक जीवन पर गहरी पकड़ थी, इसलिए उनकी कविताओं की भाषा में लोक के मुहावरे वे कहावतें सहज ढंग से आ जाती हैं। इसके लिए उनको कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। ये मुहावरे और कहावतें कविता को उसके पाठकों से जीवन्त सम्पर्क बनाने में कारगर भूमिका निभाते हैं। 'रहगीर की लकड़ी', 'परबत को राई', 'लेने को यां पड़ गए देने, 'ओसों प्यास बुझाऊं क्योंकर', 'नाक रहे कुन्बे की सलामत', 'दाई से पेट छुपाना', 'नाखुन गोश्त से छुड़ाना'। ये मुहावरे प्रस्तुत भाव-स्थिति के साथ मिलकर उसकी अभिव्यक्ति को सर्वग्राह्य बना देते हैं।
हाली के दौर से पहले रीतिकाल की कविता का व उसके सौन्दर्य-शास्त्र का बोलबाला था। अत्यधिक अंलकारों के प्रयोग से कविता दब कर रह गई थी। हाली अत्यधिक अंलकारों को कविता के लिए हानिकर समझते थे। ''शब्दालंकारों से हमारी कविता, अपितु हमारे समस्त साहित्य को अत्यधिक हानि पहुंची है, ... हमारे साहित्य में शब्दांलकारों के प्रति इतनी रुचि बढ़ी कि अंत में केवल शब्दों का मोह रह गया और अर्थ की ओर कोई ध्यान न रहा।" (मुकद्मा-ए-शे'रो-शायरी, पृ. 130 )
हाली की कविता-भाषा का विशेष गुण है - उसके संवाद। संवादों ने हाली की भाषा को नाटकीय रूप दिया है। पाठक से अपना जीवन्त संवाद कायम करने में इस टेकनीक ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई है। संवादों से कविता में एक चुस्ती आ गई है। कविता के ये संवाद न तो कविता को कहीं सुस्त या मंद होने देते है हैं और न ही पाठक को। संवादों की इस श्रृखंला के कारण ही हाली अपनी कविता को लक्षित मंतव्य तक पहुंचा सके हैं। हाली की कविता में जो रवानी आई है वह भी उसकी चुस्त संवाद प्रणाली के कारण है। दो पक्षों के बीच में संवाद होते जाते हैं और विषय परत दर परत खुलता जाता है। हाली की कविताओं में आम तौर पर दो पात्रों या पक्षों की किसी न किसी रूप में उपस्थिति रहती है। हाली किसी न किसी को अपनी कविता में इस सम्बोधन के लिए निर्मित कर लेते हैं। यदि यह कहा जाए कि इनकी कविताएं किसी मुद्दे पर आम जनता को सम्बोधित हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कमाल की बात यह है कि इस प्रयास में कविता कहीं पीछे नहीं छूट गई है, बल्कि निखर कर उसकी धार तीखी व नुकीली हो गई है। हाली की कविताओं के संवाद एक बहस को जन्म देते हैं, संवाद के दो पक्ष ही कविता को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। हाली ने विषय के जितने बारीक पहलुओं का वर्णन किया है वह भी इस संवाद पद्धति की वजह से ही संभव हो सका है। इस पद्धति में किसी पक्ष के किसी पहलू के छूटने की गुंजाइश कम हो जाती है। हाली ने जितने मुनाजरे (शास्त्रार्थ) लिखे हैं, वे सब इसी वजह से रोचक बने हैं। चाहे ''हकूके औलाद', 'बाप की नसीहत' व 'बेटे का जबाव" में बाप और बेटे के संवाद हों। चाहे 'दौलत और वक्त का मुनाजरा' हो, चाहे 'फूट और ऐके का मुनाजरा हो', चाहे 'मुनजरए रहमो इन्साफ' हो या फिर 'मुनाजरए वाइजो शायर' हो इन सबमें अपने अपने पक्ष में जो तर्क दिए उन्होंनें संवादों का रूप धारण कर लिया। हाली ने एक वकील की तरह से हरेक पक्ष की कमजोरियों और खूबियों को उद्घाटित किया है। इसमें वे जरा भी नहीं चूके। संवाद में जब वे एक पक्ष की ओर से तर्क देते हैं, उस पक्ष की स्थिति स्पष्ट करते हैं तो वे बिल्कुल निष्पक्ष होकर देते हैं, पूरी ईमानदारी से उसके सबसे विश्वसनीय व मजबूत तर्क को रखते हैं, लेकिन वे इस बहस में तटस्थ नहीं रहते अपना झुकाव व विचार भी इस बारे में स्पष्ट करते हैं। हाली की भाषा कवि का माधुर्य, दार्शनिक की गम्भीरता व तर्क, समाज परिवर्तन के लिए सक्रिय कार्यकत्र्ता का जोश और शिक्षक की विनम्रता लिए है। हाली की कविताओं में कबीर की सी समाज सुधार के लिए तीखी कसमसाहट के दर्शन होते हैं।
हाली ने साहित्यकारों को झूठ और अतिश्योक्ति से बचने की सलाह दी। उनका मानना था कि इससे कविता का ही हृास होता है। ''समय की मांग यही है कि झूठ, अतिश्योक्ति, दोषारोपण, डींग, चापलूसी, व्यर्थ की बातों, अनुचित आत्मश्लाघा, निराधार आरोप, अनुचित शिकायतों और इसी प्रकार की दूसरी बातों से, जो सत्य और वास्तविकता की विरोधी हैं और जो हमारे काव्य का अभिन्न अंग बन गई हैं, यथासंभव बचा जाए। यह सच है कि हमारे काव्य में अब्बासिया खलीफों के युग से लेकर आज तक झूठ और अतिश्योक्ति को बराबर प्रोत्साहन मिलता रहा है और कवि के लिए झूठ बोलना उचित ही नहीं समझा गया, वरन् उसे उसके काव्य का अलंकार माना गया है, परन्तु इसमें भी संदेह नहीं कि जब से हमारे काव्य में झूठ और अतिश्योक्ति का प्रवेश हुआ उसी समय से उसकी अवनति आरम्भ हो गई।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी,पृ. 70 ) 'बुरी कविता से साहित्य और भाषा को क्या आघात पहुंचता है?"इस बारे में हाली ने लिखा कि ''सबसे बड़ी क्षति जो कविता के बिगड़ जाने से अथवा उसके संकीर्ण हो जाने से देश को पहुंचती है, वह उसके साहित्य और भाषा का विनाश करती है। जब झूठ और अतिश्योक्ति का कवि-समाज में प्रचलन हो जाता है तो उसका प्रभाव लेखकों की रचनाओं, वक्ताओं के भाषणों और देश के विशिष्ट वर्ग की नित्य की बोलचाल तक पहुंचता है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का मुख्य और महत्त्वपूर्ण भाग वे ही शब्द और मुहावरे और उक्तियां समझी जाती है। जो कवियों के प्रयोग में आ जाती हैं। अतएव जो व्यक्ति देश-भाषा में लेख, भाषण अथवा बोलचाल में नाम पाना चाहता है उसे कवियों की भाषा का अवश्य अनुसरण करना पड़ता है और इस प्रकार अतिश्योक्ति साहित्य और भाषा के अंग-अंग में समा जाती है। कवियों की फक्कड़बाजी से भाषा में अनेक अशिष्टतापूर्ण और अश्लील शब्द समाविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि कोश में वे ही शब्द प्रामाणिक और टकसाली समझे जाते हैं, जिनका औचित्य और प्रामाणिकता कवियों की वाणी से सिद्ध हो। अत: जो व्यक्ति देशी भाषा का कोश लिखने बैठता है उसे सबसे पहले कवियों के काव्य-संग्रह टटोलने पड़ते हैं। फिर जब कविता कुछ विषयों में पहले सीमित हो जाती है और उसका आधार केवल प्रचलित शैली का अनुकरण रह जाता है तब भाषा, बजाय इसके कि उसका क्षेत्र विस्तृत हो, अपना पहले का विस्तार भी खो बैठती है।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी, पृ. 23 )
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया। जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी, समाज इनको सिर्फ इसलिए ढ़ोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की 'मुनाजाते बेवा' कविता जिस तरह लोकप्रिय हुई उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीडि़त-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया है वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थी, समाज सुधारक भी, दुख दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
हाली ने कविताओं के माध्यम से और साहित्यिक सिद्धांतों के माध्यम से साहित्य का नया सौन्दर्य-शास्त्र रचने की कोशिश की। साहित्य को आम जनता से जोडऩे के लिए संघर्ष किया और आने वाले साहित्यकारों के लिए जमीन तैयार की जो बाद में साहित्य की मुख्यधारा के तौर पर विकसित हुई। हाली की रचनाएं आज के समाज के लिए व साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम करती हैं। हाली ने साहित्य में जन-पक्षधरता की जिस परम्परा की शुरूआत की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।
मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' की कविताएं आज के संदर्भ में निहायत प्रासंगिक हैं। आज जिस दौर से भारतीय समाज गुजर रहा है, उसमें हाली की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। हाली ने आम जनता की जिन समस्याओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया था वे अभी समाज से समाप्त नहीं हुई हैं, बल्कि कई मामलों में तो वे और भी गम्भीर रूप धारण कर रही हैं। हाली ने किसान जीवन को, पितृसत्तात्मक विचारधारा, जनता के भाईचारे को, बराबरी के न्यायपूर्ण समाज की स्थापना को मुख्य तौर पर अपनी कविताओं का विषय बनाया।
आज साम्राज्यवाद जिस तरह से अपना शिकंजा कस रहा है, उसने पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया है। किसानों का जीवन दूभर हो गया है। वे कर्ज के बोझ से इस कदर दब गए हैं कि आत्महत्या के अलावा उनको अपने जीवन का कोई हल नजर नहीं आता। रोजगार के लिए दर दर भटकने व हर दफ़तर में रोजगार पाने वाले चित्रों का जो वर्णन किया है वह स्थिति अभी दूर नहीं हुई है।
पितृसत्ता की विचारधारा समाज में अभी अपनी जगह बनाए हुए है, जो समाज व परिवार में समानता व जनतंत्र स्थापित होने में बाधा बनकर खड़ी है। जब समाज की आधी आबादी समान अधिकार और विकास के समान अवसरों से वंचित रहेगी, तब समाज में न्याय व शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती।
सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नहीं है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र व भाषायी संकीर्णताओं को देश के लिए घातक मानते हुए इनको दूर करने के लिए वातावरण निर्मित किया था। जनता की एकता व भाईचारे को तार तार करने वाली शक्तियां समाज में खुला खेल खेल रही हैं। धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव समाज में जारी है। साम्प्रदायिकता ने एक दार्शनिक आधार गढ़ लिया है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं।
हाली ने धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वास को समाज के पिछड़ेपन का जिम्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से दूर करने की आवाज उठाई थी, लेकिन आज ये शक्तियां खूब फल फूल रही हैं। धर्म के नाम पर जनता में संकीर्णता, अंधिवश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता को लाद रही हैं। बाहरी आडम्बरों व कर्मकाण्डों को ही धर्म के रूप में स्थापित करती है। धर्म को उसकी नैतिक व मानवीय शिक्षाओं से अलग करके नमाज पढना, दाढ़ी-चोटी रखना, जनेऊ-तिलक धरण करना या अन्य धार्मिक पहचान के चिन्हों को ही धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर रही हैं। धर्म को व्यक्ति के आचरण से न पहचानकर मात्र रामनामी चादर ओढने या गेरूए रंग के पटके डालने और लम्बा तिलक लगाने जैसे बाहरी कर्मकाण्डों से पहचान रही हैं। इन बाहरी आडम्बरों की आड़ में अपराधिक कार्यों में लिप्त कथित बाबा, संन्यासी-आतंकी धर्म की शरण ले रहे हैं। हाली का मानना था कि धर्म कुछ मूल्यों-आदर्शों का समुच्चय है, जिन्हें व्यक्ति को आचरण में उतारना है।