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हाशिये के लोगों की औपन्यासिकता का विमर्श

हाशिये के लोगों की औपन्यासिकता का विमर्श
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर,हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

वीरेन्द्र यादव रचित 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' पुस्तक हिन्दी आलोचना और विशेषकर उपन्यास आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक काल के अन्तर्द्वन्द्वों को उपन्यास ने मुख्यत: व्यक्त किया है। अपने समय के विमर्शें को भी स्थान दिया है। यद्यपि आधुनिक काल में जन सामान्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं को साहित्य में प्रमुखता से स्थान मिला है और वही कृति कालजयी हो पाई है जिसमें जन सामान्य के जीवन संघर्ष के विश्वसनीय चित्र दिए हैं। सृजनात्मक लेखन के साथ साथ आलोचना भी जनपक्षधरता लिए रही है। विरेन्द्र यादव ने 'वर्चस्व की सत्ता' को विश्लेषित करने के लिए पिछले वर्षों में चर्चा में रहे हिन्दी व अंग्रेजी के उपन्यासों को अपना आधार बनाया है। उपन्यासों के साथ उपन्यास पठन व आलोचना के बारे में उनका ज्ञान उनकी विद्वता को तो दर्शाता ही है, उसमें से अपना नया रास्ता भी बनाया है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' दलित और स्त्री विमर्श के युग में नए ' कैनन फारमेशन' निर्मित करने के संकल्प से उपजी है। इसलिए इसमें एक पक्ष अपने विविध तर्कों के साथ प्रस्तुत है।

दो सौ साठ पृष्ठों की पुस्तक में कुल ग्यारह अध्याय है 'हिन्दी उपन्यास : एक सबाल्टर्न प्रस्तावना'; 'औपनिवेशिकता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय किसान: संदर्भ 'गोदान'; 'राष्ट्रवाद, मुस्लिम अलगाववाद और नारी प्रश्र : संदर्भ 'झूठा सच'; 'विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान : संदर्भ 'आधा गांव'; 'क्षुद्रताओं के महावृत्तान्त से महानताओं की क्षुद्रता तक : संन्दर्भ 'राग दरबारी'; 'एक बेदखल इतिहास का 'पाहीघर'; 'उपन्यास का जनतन्त्र और हाशिए का समाज'; 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी'; 'महज 'उन्माद' नहीं है फासीवाद'; 'घेरबन्दी के समय में 'आखिर कलाम'; 'दि इंडियन इंग्लिश नॉवेल और भारतीय यथार्थ'। इन अध्यायों के शीर्षकों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह उपन्यासों का समाजार्थिक अध्ययन है। उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ के जरिये राष्ट्रवाद, अलगाववाद, जनतन्त्र, फासीवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, ग्रामीण विकास पर विचार किया है। उपन्यासों के आधार पर समाज-राजनीति के सवालों पर विचार उपन्यास को ठोस आधार प्रदान करता है तो इस विमर्श को उपन्यास को विश्वसनीय आधार प्रदान करते हैं। विभिन्न समस्याओं व सवालो की जडें पहचानने के लिए सामाजिक जीवन में झांकना जरूरी है और उपन्यास जीवन को व्यक्त करता है। बिना जीवन अनुभवों के विमर्श शब्दों की जुगाली मात्र है तो बिना दृष्टि के अनुभव वर्णन अनुभववाद और प्रकृतवाद का शिकार होता है। उपन्यासकारों के लिए तथा उनके पाठकों के लिए उपन्यास में व्यक्त सवालों के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना निहायत जरूरी है। विरेन्द्र यादव की यह पुस्तक दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण साबित होगी।

हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों का पुनर्पाठ भी कहा जा सकता है। और यह पुर्नपाठ मात्र फिर से पढऩा नहीं है, बल्कि नए दृष्टिकोण से इन्हें देखा है। वीरेन्द्र यादव की दृष्टि उपेक्षितों की दृष्टि है। हिन्दी आलोचना और साहित्य अभी आभिजात्यता से ही जकड़ा हुआ है। साहित्य में उपेक्षितों के सवाल अथवा जीवन व्यक्त भी होता है तो वह आलोचना की नजर से छूट जाता है और विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। यदि कहीं उसका जिक्र होता भी है तो मात्र इसलिए कि लेखक की दृष्टि में विस्तार है और समाज का कोई छूटा नहीं है। लेकिन उसकी विचारधारात्मक कमजोरी अथवा कलात्मकता पर विचार नहीं होता। वीरेन्द्र यादव ने न तो दृष्टि से इसे ओझल होने दिया।

पिछले कई दशकों से भारतीय समाज और राजनीति में परम्परागत तौर पर हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों का समाज व राजनीति में दखल जोरदार ढंग से बढ़ा है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में प्रभावी हस्तक्षेप का ही परिणाम है कि साहित्य में भी इन वर्गों का स्वर प्रमुखता से उभरा है। इस साहित्य की सैद्धांतिकी भी निर्मित हो रही है। उपेक्षितों की दृष्टि से साहित्य का पाठ हो रहा है, साहित्य की पड़ताल हो रही है, जिससे साहित्य के अनछुये पक्षों की ओर ध्यान जा रहा है तथा साहित्य पाठ की सीमाएं भी इसके साथ ही रेखांकित हो रही हैं। वीरेन्द्र यादव की आलोचना-दृष्टि इसी परिवेश व इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द बनी है। पिछले दशकों में भारतीय राजनीति ने मुख्यत: साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, दलित, पिछड़ों व स्त्रियों की मुक्ति व भागीदारी के सवालों तथा वैश्वीकरण व विकास की विभिन्न धारणाओं, निम्र वर्ग तथा उच्च वर्ग के हितों की टकराहट के बीच ही अपना स्वरूप ग्रहण किया है। साहित्य में भी इन सवालों की अभिव्यक्ति हुई है, विशेषतौर पर उपन्यासों में तो हुई ही है।

प्रेमचन्द का लेखन विशेष तौर उनके उपन्यास किसी भी उपन्यास आलोचक के लिए प्रस्थान बिन्दू हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों के पाठ की भी विभिन्न व्याख्याएं सामने आई हैं। किसान जीवन के दस्तावेज के तौर पर भी पढ़ा गया और स्वतन्त्रता आन्दोलन के सवालों को व्यक्त करने के तौर भी, गांधीवाद की नजर से भी और माक्र्सवाद की नजर से भी। लेकिन सभी किस्म के आलोचकों की व्याख्याएं अपने समय की सीमाओं को नहीं लांघ पाई। विरेन्द्र यादव ने नए डा. रामविलास शर्मा तथा निर्मल वर्मा की दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित करते हुए 'गोदान' को नए संदर्भों में समझने की कोशिश की है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेतृत्व की दृष्टि, औपनिवेशिक शोषण तथा स्त्री सवालों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशि श की है। प्रेमचन्द के लेखन को लेकर पिछले दिनों कुछ दलित चिन्तकों व कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाए। विरेन्द्र यादव ने 'गोदान' पर विचार करते हुए इसका जबाब तलाशने की कोशिश की है और प्रेमचन्द को दलित के संबंध न केवल संवेदनशील पाया, बल्कि रेडिकल चित्र दिए हैं। दलित प्रसंग में ऐसी व्याख्याएं बहुत से भ्रमों को दूर करती है।

पिछले कुछ समय से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में नारी-विमर्श की खूब चर्चा है। नारी मुक्ति के सवालों को केन्द्र लाने वाली साहित्यिक रचनाएं आई हैं, जिसने नारी विमर्श को पुख्तगी दी है। नारी अनुभवों की विशिष्टता को उभारते हुए मानव-मुक्ति के संघर्ष के साथ जोड़कर देखा है। नारी विमर्श भी वर्ग-स्वार्थों से अछूता नहीं है, उसमें कोई एकरूपता नहीं है, बल्कि सामाजिक वर्गों के स्वार्थों को व्यक्त करने वाली दृष्टियां यहां मौजूद हैं। नारी विमर्श ने उच्च वर्ग तथा उच्च मध्यवर्ग की स्त्रियों के सवालों को लांघकर ग्रामीण और निम्र वर्गों की स्त्रियों के सवालों को तक अपना विस्तार किया है। पहले जहां कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही साहित्य के क्षेत्र में थी, लेकिन नारी-विमर्श व चेतना ने इस क्षेत्र को खोल दिया है और महिला लेखकों की एक पूरी जमात है जो नारी जीवन के विशिष्ट अनुभवों से लेकर समाज के बृहत्तर सवालों पर अपनी लेखनी चला रही हैं। विरेन्द्र यादव ने इस क्षमता को पहचानते हुए 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी' में पांच लेखिकाओं के गीताजंलि श्री के 'तिरोहित', अलका सरावगी के 'शेष कादम्बरी', अनामिका के 'अवान्तर कथा', मैत्रेयी पुष्पा के 'विजन', मधु कांकरिया के 'खुले गगन के लाल सितारे' उपन्यासों पर चर्चा में स्त्री सवालों को केन्द्र रखते हुए उनकी विशिष्टता को रेखांकित किया है। उनकी पूरी रचनाशीलता में नारी सवाल के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करते हुए नारी-विमर्श को केन्द्र में रखा है। ''नारी अस्मिता के भिन्न धरातलों की पड़ताल करते ये उपन्यास भारतीय समाज में स्त्री-प्रश्र का कोलाज-सा रचते हैं। जहां 'तिरोहित 'स्त्री-सच का बेबाक बयान है। वहीं 'शेष कादम्बरी' का कथा-वृतान्त स्त्री-अस्मिता के पार जाकर अपने होने का अर्थ ढूंढता है। 'अवान्तर कथा 'यदि भावनात्मक खालीपन को भरने का रूमानी उपक्रम है, तो 'विजन' पुरुष सत्ता से टकराती कैरियर वुमेन का साहस-भरा पराक्रम। 'खुले गगन के लाल सितारे' की मणि के रूमान से रूमान तक के सफर की सार्थकता उपन्यास के उस स्त्री-विमर्श में है, जो धर्म की पुरुष-केन्द्रित सत्ता-संरचना का विखण्डन करती है।" पृ.-177

वीरेन्द्र यादव वर्तमान में मानवता के समक्ष चुनौती बनी समस्याओं की पड़ताल करते हैं। वे उन्हीं उपन्यासों को अपने विमर्श में शामिल करते हैं जिनमें अपने समाज के अन्तर्द्वन्द्वों तथा व्यापक सवालों को समेटा है। पिछले दशकों में दलित, स्त्री और साम्प्रदायिकता के सवाल मुख्यत: चर्चा के विषय रहे हैं। इनको केन्द्रित करते हुए रचनाएं भी प्रकाश में आई हैं। भारतीय जनतन्त्र व विकास की भेड़चाल के चलते हाशिये पर ढकेल दिए जाने को अभिशप्त समाज उपन्यास में केन्द्रीयता प्राप्त कर रहा है। भगवानदास मोरवाल का 'काला पहाड़', संजीव का 'जंगल जहां शुरू होता है', श्रीप्रकाश का 'जहां बांस फूलते हैं', तेजिन्दर का 'काला पादरी' की यहां विशेष चर्चा की गई है। आंचलिकता की रूढ़ आलोचना जो क्षेत्र विशेष की बोली और प्रकृति के वर्णन में ही अपनी पूरी ताकत लगा देती है उससे बाहर निकालकर जनता के बुनियादी सवालों को केन्द्र में लाने व उनके आधार पर इन उपन्यासों के पाठ की संकल्पना को स्थापित करती है, जो उपन्यास आलोचना को नए संदर्भ प्रदान करेगी। आंचलिक उपन्यासों की आलोचना से उस क्षेत्र विशेष के विकास के सवाल अनदेखे रहते रहे हैं और उनकी भाषा व प्रकृति के बारे में ही अधिकांश चर्चा होती रही है।

समाज की समस्याओं से काटकर किसी उपन्यास को पढऩा उसके महत्त्व को कम करता है और वह महज एक रचना तक ही सीमित रह जाती है। कमलाकान्त त्रिपाठी ने अपने 'पाहीघर' और 'बेदखल' उपन्यासों में अवध के जीवन को व्यक्त किया है। इतिहास दृष्टि जन-इतिहास को केन्द्र में लाती है। 1857 की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस आन्दोलन पर फिर से विचार विमर्श हुआ। 'पाहीघर' ने उसे एक नया आयाम प्रदान किया था। 'पाहीघर' उन गिने चुने उपन्यासों में हैं, जिसमें 1857 को अपना विषय वस्तु बनाया गया है। जन इतिहास को केन्द्र में लाने वाले इस उपन्यास पर मुख्य धारा की आलोचना ने अनदेखा ही किया है। विरेन्द्र यादव ने इसके विश्लेषण के जरिये जन इतिहास की ओर ध्यान खींचने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतिहास और उपन्यास के संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश करके उसकी सैद्धांतिकी की ओर भी दृष्टि दी है।

साम्प्रदायिकता की समस्या स्वतन्त्र भारत की विशेष तौर पर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर की प्रमुख समस्या है। इस समस्या को लेखकों ने अपनी सृजना का आधर बनाया है। विभाजन को आधार बनाकर कुछ बहुत ही बेहतरीन उपन्यासों की रचना हुई थी। साम्प्रदायिकता को केन्द्रित करने वाले कई उपन्यासों पर इस पुस्तक में विचार-चर्चा की गई है जो साम्प्रदायिकता को समझने की लेखक की तड़प को ही दर्शाता है। राही मासूम रजा का 'आधा गांव' सांझी संस्कृति को साम्प्रदायिक एकता का आधार दिखाया है। यहां हिन्दू और मुसलमान के उस तरह के दंगे नहीं, बल्कि चेतना को उद्घाटित किया है और इस चेतना के वर्गीय चरित्र को भी उद्घाटित किया है। मनुष्यविरोधी ब्राह्मणवादी संरचना को बेपर्दा करने तथा धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के उस पोले आधार को उजागर करते दूधनाथ सिंह के 'आखिरी कलाम' को भी विरेन्द्र यादव ने विचार का विषय बनाया है और साम्प्रदायिक चेतना के स्रोतों को समझने की कोशिश की है। ''आखिरी कलाम जहां धर्मोन्मादी फासीवाद की निर्माण प्रक्रिया से साक्षात् कराता है वहीं इसके मूल उत्स पर प्रहार का भी आवाहन करता है।" भगवान सिंह का 'उन्माद' अन्यथा हिन्दी में विशेष चर्चित नहीं हुआ, लेकिन वह एक ऐसी समस्या से जुड़ा है जो समकालीन भारत में सत्ता और संस्कृति के चरित्र तय कर रहा है। इसलिए वीरेन्द्र यादव ने उसकी पड़ताल करना उचित समझा। साम्प्रदायिकता और फासीवाद को ठोस स्वार्थों की पूर्ति करने राजनीतिक विचारधारा की अपेक्षा महज मानवीय मनोविकार तक सीमित करना समस्या को अलग ही परिप्रेक्ष्य में पेश करता है। ''भगवान सिंह साम्प्रदायिकता को निश्चित सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण का परिणाम न मानकर इसे मनोविकार व दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणतियों के रूप में प्रस्तुत करते हैं।" समस्या की गम्भीरता को समझते हुए तथा उपन्यास में उसके प्रस्तुतिकरण पर टिप्पणी सही है कि ''फासीवाद व साम्प्रदायिक दंगों की सरलीकृत व्याख्या से न तो साम्प्रदायिकता के उभार को समझा जा सकता है और न हिन्दुत्व के एजेंडे की पड़ताल। उपन्यासकार साम्प्रदायिकता को संकीर्ण राजनीतिक हितों से विछिन्न मानकर इसे मॉब बिहैवियर के रूप में विश्लेषित करता है।" साम्प्रदायिकता को समझने के लिए जीवन को समझना जरुरी है। जीवन में साम्प्रदायिक चेतना को आधार प्रदान करने वाले तत्त्वों की पहचान के बिना सरलीकरण करके इसे नहीं समझा जा सकता।



अंग्रेजी के भारतीय उपन्यासकारों की आभिजात्य व औपनिवेशिक दृष्टि का खुलासा करता लेख 'दि इंडियन इंग्लिश नावेल और भारतीय यथार्थ' लेख विशेषतौर पर इस पुस्तक की उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य आलोचना की पुस्तकों में अंग्रेजी के प्रति अनभिज्ञता ही है। बाजारवाद व उपभोक्ता संस्कृति ने ऐसे साहित्य को अपने विस्तार व जरुरत के लिए पैदा किया है। जिसमें समाज की वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है। इन उपन्यासों के माध्यम से ही भारतीय समाज और साहित्य की छवि पूरी दुनिया में बन रही है। भारत की वास्तविक जमीन से उपजा साहित्य अनदेखा हो रहा है। पिछले वर्षों में चर्चित भारतीय अंग्रेजी उपन्यास सलमान रुश्दी का 'मिडनाइट चिल्ड्रेन', पंकज मिश्रा का 'दि रोमांटिक्स', अरुधंती राय का 'दि गॉड ऑफ स्माल थिंग्स', विक्रम सेठ का 'ए सूटेबल ब्वाय', राजकमल झा का 'दि ब्लू बेडस्प्रेड' विशेषतौर पर चर्चित हुए।
''दरअसल सच यह है कि भारतीय अंग्रेजी औपन्यासिक लेखन की बाजारोन्मुखता उसे देशज यथार्थ से विमुख करती है, जो अभी तक हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में सुरक्षित है। अंग्रेजी के इस बाजारवाद की आहट अब हिन्दी साहित्य की दहलीज पर भी दस्तक देने लगी है। ... यह वास्तव में गम्भीर चिन्ता का विषय है कि भारतीय अंग्रेजी लेखन की सेक्स और मिथकीय रूढिय़ां एवं अन्य नकारात्मक प्रवृतियों का प्रवेश हिन्दी साहित्य में अब होने लगा है, लेकिन हिन्दी के बेहतर और श्रेष्ठ साहित्य के कोई लक्षण भारतीय अंग्रेजी उपन्यासकारों के बहुसंख्यक वर्ग पर नहीं दीखते। आखिर क्यों भारतीय विकास की जो पारम्परिक अवधारणा 'डूब'और 'इदम्नमम्'उपन्यासों के विमर्श के माध्यम से प्रश्रों के घेरे में है, वह अंग्रेजी उपन्यासों की चिन्ता का विषय नहीं बनती?" पृ.- 259
हिन्दी फिल्मों की तरह हिन्दी उपन्यास और कहानियां भी पश्चिम से नकल करते रहे हैं। जिनमें भारतीय समाज की सच्चाइयों से कोई लेना देना नहीं होता और बाजार की मेहरबानी से रातो-रात प्रतिष्ठित साहित्यकार व बेस्ट सेलर की श्रेणी में आ जाते हैं। जयदेव ने अपने अध्ययन में इसका काफी पहले खुलासा किया था। विरेन्द्र यादव ने भी इस ओर कुछ संकेत दिए हैं।

वीरेन्द्र यादव की विशेषता यह है कि वे जब एक उपन्यास का विश्लेषण करते हैं तो उनकी नजर में उपन्यास में आई मुख्य समस्या पर केन्द्रित अन्य उपन्यास ओझल नहीं होते। एक दूसरे की तुलना में विश्लेषण उपन्यास की विशिष्टता को उभारता है। जिन उपन्यासों के संदर्भ से विचार किया है वे निरपेक्ष रूप से वहां मौजूद नहीं हैं, बल्कि उस तरह के दूसरे उपन्यासों का जिक्र करते हुए उस उपन्यास की विशिष्टता को रेखांकित किया है। साम्प्रदायिकता के सवाल पर जहां 'झूठा सच' का विश्लेषण है, वहीं 'तमस' और 'आधा गांव' के साथ उसे जोड़कर देखा गया है। जब वे 'उन्माद' पर बात करते हैं तो यशपाल का 'झूठा सच', राही का 'आधा गांव', मंजूर एहतेशाम का 'सूखा बरगद', अब्दुल बिस्मिल्लाह का 'मुखड़ा क्या देखे' सामने रहते हैं। जब झूठा सच पर बात करते हैं तो राही का 'आधा गांव' और भीष्म साहनी का 'तमस' और जब वे 'आधा गांव' पर बात करते हैं तो 'राग दरबारी' उनकी नजरों से ओझल नहीं होता।

वीरेन्द्र यादव आलोचकों से भी टकराते हैं और उनकी दृष्टि की कमजोरियों को भी रेखांकित करते चलते हैं। और इस ढंग में वे उपन्यास के विमर्श को पलटते चलते हैं और जो महत्त्वपूर्ण पक्ष जाने-अनजाने आलोचकों की नजर से छूट गए या कि वे पकड़ नहीं पाए उनको रेखांकित करते चलते हैं। वीरेन्द्र यादव अध्यापकीय आलोचना की कमजोरी से पूर्णत: मुक्त हैं और अति बौद्धिकता से भी जो उपन्यास पर विचार करते करते यह भूल जाते हैं कि वे किसी उपन्यास पर बात कर रहें हैं। उसमें बहुत से अन्य उपन्यासों का जिक्र होगा बहुत से महान चिन्तकों का जिक्र भी होगा और साहित्यिक अपेक्षाओं-दायित्वों का जिक्र भी होगा, विचारधाराओं का जिक्र भी होगा जो पाठक पर आलोचक के ज्ञान की धाक तो जमा देगा, लेकिन उसमें जिस उपन्यास पर बात होगी उसका जिक्र सबसे कम होगा और एक समान्य समझ तो बढ़ेगी, लेकिन उपन्यास के बारे में कोई विशेष अध्ययन नहीं होगा। वीरेन्द्र यादव ने अपनी पूरी विचारधारात्मक समझ को केन्द्र में रखते हुए उपन्यास पर ही मूलत: केन्द्रित किया है। जो किसी उपन्यास के बारे में समग्र विचार रखता है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' में हिन्दी के सैंकड़ों उपन्यासों का जिक्र किया है, जिससे यह हिन्दी उपन्यास आलोचना की महत्त्वपूर्ण पुस्तक बनी है और उपेक्षितों-वंचितों के पक्ष को फोकस में लाती है। हिन्दी उपन्यास आलोचना को यह पुस्तक नए आयाम प्रदान करेगी।

दलित शोषण का औजार : भक्ति

दलित शोषण का औजार : भक्ति
('भक्ति और जन' के बहाने )
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

'भक्ति और जन' डा. सेवासिंह की आलोचनात्मक कृति है जो भारतीय प्रत्ययवाद की दार्शनिक परम्परा का विश्लेषण करके उसके प्रति आलोचनात्मक समझ पैदा करती है। कई महत्त्वपूर्ण प्रस्थापनाओं को अंजाम देती यह कृति भारतीय दर्शन, मत-मतान्तरों, धर्मशास्त्रों, पुराणों-मिथकों, पूजा-उपासना की विधियों-पद्धतियों में रूचि रखने वाले व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सामान्य ज्ञान चेतना व आम बातचीत में भक्ति को ईश्वर की उपासना का ढंग, पद्धति, प्रणाली के रूप में ही समझा जाता है। डा. सेवा सिंह ने भक्ति को मात्र उपासना-पद्धति, प्रणाली या कर्मकाण्ड बताने वाली नहीं माना। भक्ति एक विचारधारा है और विचारधारा में कुछ मूल्य-मान्यताएं, स्थापनाएं एवं निष्कर्ष होते हैं। विचारधारा हमेशा वर्गों की होती है, व्यक्तियों की नहीं। व्यक्ति तो केवल उसको ग्रहण करते हैं, उसके वाहक बनते हैं, उसमें अपने अनुभव व तर्क सम्मिलित करते हैं, उसका औचित्य सिद्ध करते हैं। यह भी विवाद का विषय नहीं है कि वर्ग-विभाजित समाज में विचारधारा भी वर्गीय होती है। जब समाज में परस्पर विरोधी प्रकृति के वर्ग हैं तो किसी विचारधारा का एक वर्ग को लाभ होता है तो दूसरे वर्ग को नुक्सान।
भक्ति की विचारधारा उच्च वर्ग की विचारधारा रही है एवं विशेष समय पर उच्च वर्ग ने इसका आविष्कार किया है इस आविष्कार के पीछे ऐतिहासिक कारण भी रहे और उच्च वर्ग की जरूरतें भी। तमाम मत-मतान्तरों, उपासना-विधियों (वैष्णव, शैव, तन्त्र, आलवार आदि) में भक्ति का केन्द्रीय तत्त्व 'दासता' और 'समर्पण' अवश्य मौजूद है। ऊपरी तौर पर भाषा का, प्रतीकों का, देव-कल्पनाओं का ही अन्तर है। डा. सेवासिंह की चिन्ता और चिन्तन का मुख्य बिन्दु भी यही है कि ब्राह्मणवाद 'भक्ति' के सहारे अन्य जन-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले मतों-सम्प्रदायों पर आक्रांता की तरह छा गया है, उसने इनकी विशिष्टता ही गायब कर दी। 'भक्ति' की विचारधारा ने उनको इस तरह आत्मसात किया कि इन मतों के मूल्य-सिद्धांत कई बार तो अपने मूल स्वरूप के विपरीत हो गए और 'भक्ति' के अनुकूल होकर शोषणकारी व वर्चस्ववादी विचारधारा का अंग बन गए। मातृसत्ता के गुण-मूल्य लिए मतों पर पितृसत्ता के गुण हावी हो गए। इनका जन जुड़ाव मात्र उच्च वर्ग के वर्चस्व को जन में स्वीकृति के निर्माण करने का हथियार बनकर रह गया, भक्ति की विचारधारा जन को नियंत्रित करने का प्रमुख कारक बन गई। परस्पर विरोधी मतों को एक ही रूप दे देना और अपने वर्चस्व के लिए प्रयोग कर लेना चालाकी को दर्शाता है।
विचारधारा के तौर पर बेशक ये विभिन्न मत एक ही वर्ग की सेवा करते हैं तो भी इनके बीच हुए विवाद व मतभेद भारत के बहुलता प्रधान चरित्र को उद्घाटित करते हैं। विभिन्न मतों के मतभेदों को उभारना व सांस्कृतिक बहुलता के चरित्र को रेखांकित करना आज के समय में महत्वपूर्ण है। आस्तिक-नास्तिक या भक्तिपरकता के आधार पर दो श्रेणियां बनाकर इनकी विशिष्टता को अनदेखा करके सबको एक ही खाते में डाल देना खतरनाक है। विशेष तौर पर जबकि फासीवादी ताकतें सांस्कृतिक एकरूपता का इतिहास रचने व परम्परा को समरस सिद्ध करने की कुचेष्टा कर रही हों। किस वर्ग या समुदाय के लोगों ने कौन सा मत अपनाया और इस मत में उस समुदाय के कौन से हित सुरक्षित थे। शैवों और वैष्णवों के बीच विवाद की सघनता व खून-खराबा मात्र उनके सैद्धान्तिक-दार्शनिक या आध्यात्मिक विवाद की सूचना नहीं देता, बल्कि इसके पीछे निहित भौतिक, सांसारिक व ठोस वास्तविक स्वार्थ काम रहे होंगे क्योंकि किसी समुदाय के उच्च वर्ग के पास न तो इतनी फुर्सत है और न ही वे इतने भोले होते हैं कि वे किसी ख्याली बात के लिए लड़ते रहें। आध्यात्मिक परतों के नीचे दबी इन सच्चाइयों को उद्घाटित करना व वर्गीय संरचनाओं को समझना शोधकर्ता का काम है। डा. सेवासिंह ने इसको अपने अध्ययन में अनदेखा नहीं होने दिया। भक्ति में यद्यपि अद्भुत समन्वय है पर शिव और विष्णु की भक्तियों की दो धाराएं समानान्तर बनी रही हैं। शिव की भक्ति स्थापना के लिए एक और 'शिव-पुराणÓ की रचना हुई है तो दूसरी ओर वैष्णवों ने 'विष्णु पुराण' की रचना की है। हम देख चुके हैं कि भक्ति में विष्णु का सर्वोच्च महत्व अन्तत्वोगत्वा स्वीकार कर लिया गया था, पर 'शिव-भक्ति' किसी स्तर पर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही। शिव और विष्णु की प्रतिस्पर्धा की भरपूर सूचनाओं को दर्ज करते हुए भी प्रयत्न यह रहा प्रतीत होता है कि किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ से शिव और विष्णु का समायोजन कर लिया जाए पर कहीं भी शिव के संदर्भ में विष्णु का वर्चस्व स्थापित नहीं किया जा सका। यह स्थिति शायद उपासकों के दो वर्गों को सूचित करती है जो समान रूप से प्रभुत्वशाली बने रहे हैं, परस्पर टकराते रहे हैं, दोनों का समान अस्तित्व मानने के लिए बाध्यता बनी रही और उन्हें भक्ति में समायोजित करने की कोशिश निरन्तर बनी रही है।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा के अद्भुत आविष्कार 'भक्ति' से माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों-मतों को अपने में आत्मसात करने या फिर उनमें मौजूद ब्राह्मणवाद विरोधी तत्वों को शिथिल कर देने की ये तरकीबें असल में एक जनजाति या समुदाय विशेष की संस्कृति की स्वतंत्र पहचान समाप्त करते हुए उन पर अपना वर्चस्व बनाए रखने की बृहतर योजना का हिस्सा है, चंूकि वर्चस्ववादी शक्तियां आज भी इसे अंजाम दे रही हैं और इसी बिन्दु पर आकर डा. सेवासिंह के अध्ययन की प्रासंगिकता उजागर हो उठती है। फासीवादी राजनीति के पुरोधा लालकृष्ण आडवानी की सन् 1992 में 'सोमनाथ से अयोध्या' की खूनी यात्रा शैव पृष्ठभूमि से जुड़े सोमनाथ व वैष्णव पृष्ठभूमि से जुड़ी अयोध्या की सांस्कृतिक परम्पराओं को व धार्मिक साम्प्रदायिक मतभेदों को मिटाकर यानी उनकी स्वतंत्र पहचान मिटाकर एक ब्राह्मणवादी छतरी के नीचे लाने के डिजाइन का ही हिस्सा थी। इस यात्रा का मार्ग कोई अचानक तो नहीं ही बना होगा, बल्कि बहुत सुविचारित व कई साल के मंथन ये यह निकला होगा। 'विश्व हिन्दू परिषदÓ के संतों की यात्राओं के मार्ग भी इस तरह के रहे हैं जो विभिन्न मतों को एक जगह लाने का काम कर सकें।
आज ब्राह्मणवादी फासीवाद में आदिवासी संस्कृतियों को अपने अन्दर समायोजित करने की ललक है। उनके स्थानीय सांस्कृतिक उत्सवों को धार्मिक रंग में रंगने की कोशिश, उनके टोने-टोटके व स्थानीय देवी-देवताओं की ब्राह्मणवादी व्याख्या करके अपना अंग बनाया जा रहा है। उनके पेड़ों पर लाल रंग लगाकर, पत्थरों पर सिंदूर लगाकर उनके स्थानीय देवता को हनुमान और आदिवासियों को हनुमान का भक्त करार देना, उनकी मातृ देवियों को काली व दुर्गा के रूप में व्याख्यायित करना यही दर्शाता है कि उनकी संस्कृति पर ब्राह्मणवादी तत्व थोपे जा रहे हैं और उनको एक नई पहचान दी जा रही है। ब्राह्मणवाद के जुनियर देवताओं को उनका इष्ट बताकर बड़ी चालाकी से उनको अपना सेवक बनने के विचार की स्वीकृति-सहमति उनसे ली जा रही है। हनुमान को आदिवासियों का मुख्य देव घोषित करना व स्थापित करना इसी राजनीति का हिस्सा है कि हनुमान हमेशा राम का सेवक-दास, आज्ञाकारी व वफादार ही रहा है अपने पूज्य इष्ट के आदर्श ही इन समुदायों के आदर्श हो सकते हैं। स्त्री-पुरूष समानता को समाप्त करके पुरूष प्रधानता व पितृसत्त के मूल्यों का डंका बजाया जा रहा है। पत्नी का ब्राह्मणवादी आदर्श उनमें स्थापित करके वर्चस्व के मूल्यों को वैधता देने का आग्रह इसमें शामिल है।
भक्ति की विचारधारा ने निम्न वर्गों तथा जनजातियों में अपनी पैठ बनाने के लिए उनकी सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों-मान्यताओं में ब्राह्मणवादी मान्यताएं इस तरह ठूंस दी कि उनका मूल चरित्र ही उलट दिया। 'नारायण' जैसे अवैदिक देवताओं को विष्णु के साथ जोड़कर तथा वराह व नरसिंह आदि को अवतार घोषित करके अपने खोल में समा लिया। ''गौर तलब है कि अवतार की धारणा, वैदिक देवता विष्णु के वर्चस्व में, विभिन्न क्षेत्रीय और परस्पर विरोधी और जनजातीय उपास्य देवों, मातृदेवियों का ब्राह्मणिक आत्मसातीकरण है जो मोर्योत्तर काल की उथल-पुथल भरपूर सामाजिक चुनौतियों के मद्देनजर अप्रवासी समुदायों और जनजातियों की नयी शमुलितों का पुरूषसत्तात्मक और वर्णभेद मूलक समाज में समाहित करने का एक सांस्कृतिक प्रयास था।''(पृ.-78)
राम और कृष्ण के चरित्र भी जनजातियों की संस्कृति के साथ इस तरह वर्णित किए गए कि वे भी इस सांस्कृतिक आत्मसातीकरण का काम करने लगे। वैदिक देवता इन्द्र से कृष्ण की शत्रुता थी, लेकिन उसको भी समाहित करके उससे जुड़े कबीलों को अपना अनुयायी बना लिया। असुरों की वैदिक विश्वासों व कर्मकाण्डों में कोई आस्था नहीं थी लेकिन उनको भी ब्राह्मणवादी संरक्षण में ले लिया।
बुद्ध स्वयं नास्तिक थे उनको भी एक अवतार घोषित कर दिया और उसकी विचारधारा-मूल्यों-मान्यताओं को भी सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप अनुकूलित कर लिया। डा. सेवा सिंह की टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ''बुद्ध धर्म को सामन्तवादी-पोषण ने नितान्त अपनी विपरीत अवस्था में खड़ा कर दिया था। परिवर्तनशीलता का प्रतीत्यसमुत्पाद, शून्यता में रूपान्तरित हो गया था। बुद्ध, पूजा और उपासना के पात्र हो गए थे। ब्राह्मण धर्म एवं बुद्ध धर्म में कोई अन्तर नहीं था। साम्प्रदायिक भेद बनाए रखते हुए केवल पारिभाषिकी के भिन्न-भिन्न प्रयोग होते थे, बात घूम-फिर कर लाकोत्तरता, भक्ति एवं मुक्ति पर केन्द्रित थी। अब बुद्ध की करूणा में किसी भौतिक दु:ख को दूर करने से दूर तक का भी वास्ता नहीं था, बल्कि यह करूणा शून्यता से सम्बद्ध होकर पारमार्थिक निर्वाण तक सीमित थी। यह निर्वाण मानवीय दुखों से छुटकारा पाने का साधन नहीं था बल्कि इसमें किन्हीं काल्पनिक दु:खों की ऐसी दुरूह जटिलता थी, जो मृत्यु में ही निर्वाण को साध्य मानती थी।" (पृ.-83)
संस्कृतियों में संघर्ष था और ब्राह्मण संस्कृति में समाहित होने के प्रति भी शंकालु थे। शैवों का विशेष रूप से जिक्र किया है लेकिन जो संस्कृतियां अपनी विशिष्टता व पहचान को समाप्त करके इसमें विलीन होने को तैयार नहीं थी उनके प्रति अलग रणनीति अपनाई गई ''शिव का ब्राह्मणवादीकरण नहीं किया जा सका, बल्कि शिव पर अनेक ब्राह्मणिक तरीके आरोपित किये गए। लगता है कि शिव के उपासकों को ब्राह्मणिक घेरे में नहीं लाया जा सका। वे वेद-विरोधी रुख बनाए रहे। यहां सांख्य था, योग था। इसलिए शिव अवतारों की श्रेणी में नहीं है। वे समता का स्थान रखते हैं, विष्णु के साथ।" (पृ.-110)
यह विवाद-बहस का विषय हो सकता है कि इसे संस्कृतियों का मिलन कहा जाए या फिर आत्मसातीकरण। संस्कृतियों के सम्मिलन में या समन्वय में संस्कृतियों में संवाद होता है, दोनों को अपना थोड़ा-थोड़ा मूल स्वरूप त्यागने के लिए तैयार रहना पड़ता है और आत्मसातीकरण या समायोजन में वर्चस्वी वर्गों की संस्कृति स्थानीय संस्कृति को अपने में जगह दे देती है या फिर उसकी इस तरह से व्याख्या करती है कि वह उसका ही हिस्सा नजर आने लगती है। डा. सेवा सिंह का विचार इसमें आत्मसातीकरण वाला है। इसके वे बहुत से ग्रंथों से उद्धरण देते हैं। उनका कहना है कि भक्ति के माध्यम से 'वर्णमूलक व पितृसत्तात्मक' मूल्यों का प्रसार किया गया है। वर्ण-व्यवस्था को बिना कोई नुक्सान पहुंचाए, समाज के वर्चस्वी वर्ग की सत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसका प्रचार किया है। भक्ति ने सिर्फ इतना काम किया है कि जो समाज के तबके ब्राह्मणिक विचारधारा से बाहर थे या जिनका इससे मतभेद था उनके लिए उसी अवस्था में रहते हुए 'ईश्वर-भजन' के द्वार खोल दिए। गीता ने स्त्री और शूद्र को पाप-योनि रहते हुए भी भक्ति का उपदेश दिया, अधिकार दिया और इसके माध्यम से उनमें वर्णधर्म को बिल्कुल पक्का कर दिया। इस तरह वर्ण धर्म के विरूद्ध किसी भी चुनौती की संभावना को ही समाप्त कर दिया। उत्पीड़क सामाजिक स्थिति से मुक्ति की बजाए काल्पनिक मुक्ति का सिद्धांत भी गढ़ा। इस पर जोर देकर डा. सेवा सिंह ने बार-बार कहा ''शुद्ध ज्ञान का सरोकार उस परजीवी वर्ग से था जो श्रमजन्य कर्मों से मुक्त था। गीता का निष्काम कर्मयोग भी इसी विशिष्ट सुविधा सम्पन्न श्रेणी की समझ में आ सकता था, जो श्रमिकों के अतिरिक्त उत्पादन की लूट से इस प्रकार के विचारवादी दर्शन की परिकल्पना में सक्षम भी थी और अपनी इस लूट की न्यायोचितता बनाये रखने के लिए उसे इसकी जरूरत भी थी। इस ज्ञान को वायवी, सूक्ष्म, पारलौकिक और अस्तित्व रहित मोक्ष से जोड़ दिया गया। वर्ण धर्म का पालन भी इसी मोक्ष से सम्बद्ध है। शूद्रों की इस ज्ञान तक पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार से मूल रूप में ही वंचित कर दिया गया था।" (पृ.-2)
विचारधारा के तौर पर भक्ति वर्ण-धर्म को ही वास्तविक व आदर्श धर्म स्वीकारती है और दावा करती है कि अपने वर्ण-धर्म का पालन करने से ही मुक्ति मिल सकती है। वर्ण-धर्म का पालन ही मुक्ति का पर्याय बन गया। आम जन के लिए या शूद्र को अपने खोल में लेकर अन्य रास्ते ही बंद कर दिए। यदि कोई अन्य पद्धति द्वारा योग, व्रत, ज्ञान-चर्चा, तीर्थ-यात्रा आदि करता तो शायद वर्णों की सीमा लांघकर व्रती, योगी, ज्ञानी, यात्री की संज्ञा पा सकता था, लेकिन यदि सेवा-कर्म में ही अपनी मुक्ति ढूंढने लगे और जितनी वफादारी और निष्ठा से सेवा, उतना ही मुक्ति की गांरटी ज्यादा। दिलचस्प बात है कि भक्ति को या वर्ण धर्म के पालन को मोक्ष का नाम देकर इस तरह प्रचारित किया गया जैसे कि आज मंदी के दौर में बाजार में एक चीज के साथ दूसरी मुफ्त दी जाती है। मुक्ति, मोक्ष तो वर्ण-धर्म पालन के साथ बोनस के रूप में मिलता था। यह स्थिति भक्ति की विचारधारा को मानने वाले आत्मवादियों व अनात्मवादियों की गलाकाट प्रतियोगिता में उसकी पतली हालत की ओर संकेत करती है। कष्ट, तपस्या की दुरूहता के बरक्स 'हरिकीर्तन' द्वारा मुक्ति का सरलता से हासिल होना अधिक से अधिक प्रसार की आकांक्षा को ही दर्शाता है। भक्ति की विचारधारा में शरणागति यानी वर्ण-धर्म की स्वीकृति ही मुख्य है। धर्म ने नैतिक सत्ता का दामन छोड़ दिया और तमाम बुराइयों के साथ वर्ण-धर्म ही यानी भक्ति को अपनाने को ही धर्म रूप में मान्यता दे दी गई। ईश्वर-प्राप्ति, मुक्ति, मोक्ष के लिए किसी नैतिकता की, मूल्यों के पालन की, आचरण शुद्ध करने की अपेक्षा नहीं थी, बल्कि पाप व बुरे काम करते हुए महापातकी भी नाम लेने मात्र से मुक्ति प्राप्त कर जाते हैं। एक तरह से भक्ति की विचारधारा ने अनैतिकता, बुरे आचरण व बुराइयों को संस्थागत रूप दे दिया। ''चोर, शराबी, मित्र द्रोही, ब्रह्मघाती, गुरू पत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, कोई जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिए यही, इतना ही बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान के नामों का उच्चारण किया जाए, क्योंकि इनके उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान के प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।"(पृ.-34) भक्ति को इस हद तक प्रचारित किया कि शिशुपाल, पूतना, अजामिल आदि जो भगवान के शत्रु थे उनको भी नाम मात्र से, स्पर्श से ही मुक्ति देने की बात कहकर किसी न किसी तरह का सम्बन्ध स्थापित करने पर जोर दिया।
अध्ययन का दिलचस्प बिन्दु यह भी है कि शूद्रों को, पापियों को सबको भक्ति में शामिल करने की इस होड़ के पीछे भौतिक आधार क्या था? भक्ति में शूद्रों को जिस तरह आकर्षित किया जा रहा था, बहलाया-फुसलाया जा रहा था उनको आत्मसात किया जा रहा था और मनु राजा को कठोर दण्ड देने, शूद्र बहुल प्रदेश में न रहने का विधान दे रहा था।
''देखने की बात है कि एक ओर निचले तबकों के लिए सब प्रकार की मानवीय धार्मिक सुलभताओं का निषेध है जबकि दूसरी ओर भक्ति के प्रचार-प्रसार द्वारा वैदिक मिथ, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग, दान तीर्थ, अदृष्ट की भयावहता, पुनर्जन्म, दैवी वर्ण-विधान और अन्य अनेक अंधविश्वासों को, निचले तबकों की मनोंग्रंथि में गहरे तक बैठा दिया गया है। भक्ति के उद्भव और विकास में, भक्ति का यह लक्ष्यीभूत प्रयोजन स्पष्ट होता देखा जा सकता है।" (पृ.-71)
भक्ति का जो लक्ष्य व प्रयोजन समाज में सामन्ती-व्यवस्था की असमानता व लूट-शोषण को तथा इस शोषण को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले दमन का औचित्य ठहराने के लिए था। इसी मंतव्य को पूरा करने के लिए इसका स्वरूप भी सामन्ती-व्यवस्था के अनुरूप रहा। ''परवर्ती सामन्तीय सम्बन्धों के अन्तर्गत इन उपास्य देवों की भूमिका उलट कर वर्ग भेदमूलक व्यवस्था को मजबूत करने लगती है। परवर्ती अर्थों में भक्ति और भगवान का सम्बन्ध, सामन्तीय सम्बन्धों का प्रतीक है और साथ में इन सम्बन्धों की दैवी आधिकारिता के बल पर सामन्तीय दमन को वैधता और लोक चेतना के स्तर पर आत्मस्वीकृति भी प्रदान करता है।" (पृ.-71)
धर्म, ईश्वर भाववादी चिन्तन का केन्द्रीय तत्त्व है, इस चिन्तन के इस अद्भुत आविष्कार ने और बदलती परिस्थितियों के साथ स्वयं को बदल लेने की क्षमता ने राजाओं की सत्ता व शोषण टिकाने में मदद की है। विवाद का विषय नहीं है कि कोई भी सत्ता चाहे वह किसी भी लोकतन्त्र हो वह जनता की सहमति स्वीकृति या उसमें लोकप्रिय हुए बिना लम्बे समय तक टिक नहीं सकती। केवल पुलिस, सेना के बल पर कोई शासन नहीं कर सकता। इसके लिए तो हर एक नागरिक के पीछे एक-एक पुलिसमैन लगाना पड़ेगा, फिर सर्वविदित है कि सेना में भी बगावत हो जाती है और हुई है। इस भक्ति की विचारधारा ने जन के लिए सेना-पुलिस का ही काम किया है जिसके साथ शोषण को स्वीकृति मिली है और इसको धारण करके जन स्वयं ही शासन के अनुकूल नियंत्रित रहने लगे हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस विचारधारा की विश्वसनीयता पर लगातार प्रश्नचिह्न भी जन की दृष्टि से लगे हैं, लेकिन सत्ता का संरक्षण पाकर व जन को तर्क से, ज्ञान से वंचित करके इसका वर्चस्व लगातार बना रहा है। इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तरह-तरह की कल्पनाएं की हैं। पुरस्कार व दंड, स्वर्ग व नरक, मोक्ष व बंधन, कलियुग व सतयुग आदि की कल्पनाएं की हैं।
डा. सेवा सिंह ने महाभारत, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, स्कन्द पुराण से बहुत से उद्धरण देकर 'कलियुग' की धारणा जिसे 'युगान्त' की संज्ञा दी है, का भक्ति से सम्बन्ध दर्शाया है। ''युगांत का पुराणों ने विस्तार सहित वर्णन किया है। पुराणों में बताया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की प्रवृति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋत-सम-यजुरूप त्रयी धर्म का सम्पादन करने वाली होती है। उस समय धर्म, विवाह, गुरू-शिष्य सम्बन्ध की स्थिति, दाम्पत्य कर्म और अग्नि में देवयज्ञ क्रिया का कर्म भी नहीं रहता।" (पृ.-38) वर्णधर्म की पकड़ समाज में ढीली पड़ी, क्योंकि कई संस्कृतियों के लोग यहां आए जिनका असर यहां की संस्कृति पर पड़ा, नई चर्चा की शुरूआत हुई और इसका मतलब है वर्ण-धर्म के पालन में कमी। आज भी कलियुग की यह लोकप्रिय धारणा लोक चेतना का अंग है। भक्ति को कलियुग के लिए सबसे कारगर तरीका माना है। कलियुग में भक्ति की महिमा का अत्यधिक बखान किया गया। वर्ण धर्म की समाज पर पकड़ बनाने के लिए संहिताओं-स्मृतियों की रचनाएं की गई। डा. सेवा सिंह पुराणों की कथाओं का विवेचन करके बताया है कि असल में इस साहित्य की रचना ब्राह्मणवादी मूल्यों व तंत्र का औचित्य सिद्ध करने के लिए की गई है। इनकी कथाओं और गाथाओं के 'माहात्म्यÓ वर्ण-धर्म की व्यवस्था को आधार भूमि प्रदान करते हैं।
सामन्तवादी-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। ब्राह्मणों को राजाओं का संरक्षण मिला, राजाओं ने उनको जमीनें दान में दी और अपराधियों के प्रायश्चित के बदले बहुत सी भौतिक वस्तुएं मिलीं। इससे उनकी स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया। धार्मिक कर्मकाण्ड की बजाए जमीन उनकी आमदनी का मुख्य साधन बनी। दान-पुण्य का महिमामंडन किया गया, मंदिरों, तीर्थों, मठों की संख्या में बढोतरी हुई और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता भी स्वीकृत थी और राज्य से इसका खुला समर्थन था। राज्य के इस संरक्षण के बदले में ब्राह्मणों ने सामन्तवाद का महिमामंडन करने के सिद्धांत गढ़े। गुह्यसूत्रों, मनुस्मृति व कौटिल्य आदि ने राजा को धर्म-प्रवर्तक कहा और वर्ण धर्म को लागू करना राजा का परम कर्तव्य बताया। जाहिर ही है कि वर्ण धर्म को ब्राह्मणों ने ब्रह्म, ईश्वर या दैवीय उत्पति कहा है तो राजा को दैवीय हुक्म को लागू करने वाला और इस दैवीय सिद्धांत में राजा का प्रजा पर अत्याचार, दमन, लूट व शोषण सब कुछ जायज व दैवीय व्यवस्था बन जाती थी। डा. सेवा सिंह ने इस बारे में लिखा कि ''पूर्व मध्यकाल की बाजार पर आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था में व्याप्त शोषण से केवल अनुषंगी लाभ उठाने वाले ब्राह्मण, मध्यकाल की कृषि-आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था के दौर में प्रत्यक्ष शोषक वर्ग में परिवर्तित हो गए। मध्यकालीनीकरण की मुख्य लाक्षणिकताएं थीं : नगर-सभ्यता का हृास और ग्राम आधारित निर्वाह-व्यवस्था की संवृद्धि, जाति-व्यवस्थाकी कठोरता और समाज जातियों, उपजातियों में बंटते जाना, वर्ण संकर संतानों का आधिपत्य, आवश्यक और उपयोगी कलाओं के काम में लगे दस्तकारों को 'अपवित्र' और 'अस्पृश्य' घोषित कर उनकी भत्र्सना करना, नगरवासी ब्राह्मणों के एक महत्वपूर्ण अंश का गांवों में बसना, सामाजिक सुरक्षा और राजनीतिक अराजकता। मंदिर केन्द्रित उपासना या पूजा पद्धति पर आधारित इस मध्यकालीनीकरण का रक्षा कवच था अंधविश्वास। जैसा कि कहा गया है, जिस समाज में अनगिनत श्रम जीवियों को पराधीनता जीवन अपनाए रहने को विवश किया जाता हो, जिसमें राष्ट्र की सम्पति का उत्पादन करते हुए लोगों को केवल जिन्दा रहने के लिए जरूरी वस्तुओं पर गुजर करने को विवश किया जाता हो, उस समाज को कायम रखने के लिए हिंसात्मक उपायों के अलावा एक और चीज की अत्यधिक आवश्यकता होती है। वह चीज है - सचमुच बड़े पैमाने पर अंधविश्वास।" (पृ.-64) ब्राह्मणवादियों ने जनजीवन में तो अत्यधिक अंधविश्वासों और मिथ्या धारणाओं को बढ़ावा दिया ही बल्कि अंधविश्वास का दार्शनिकीकरण भी किया गया।
बुद्धि व तर्क को नकारने के लिए तरह तरह के अंधविश्वास गढ़े, साथ ही बुद्धि व तर्क का प्रयोग करने वालों को अपमानित भी किया गया। शंकर जैसे आत्मवादी दार्शनिकों व भक्ति की विचारधारा के प्रचारकों ने दर्शन के आधार तर्क को ही नकार कर बुद्धिवाद का विकास अवरूद्ध कर दिया। बड़े सुविधाजनक ढंग से तर्क सामाजिक परम्पराओं-रूढिय़ों व रीति-रिवाजों को ही तर्क के रूप में पेश करने लगे। बड़े ही चालाकीपूर्ण ढंग से तर्क को इस तरह पुनर्परिभाषित किया। तर्क का काम सत्य की परख करना नहीं, बल्कि शास्त्र-वचनों की पुष्टि करना मात्र रह गया। केवल उसी को तर्क की संज्ञा दी गई जो भक्ति की विचारधारा को स्थापित करने वाले शास्त्रों का समर्थन करें। इससे शूद्रों के ज्ञान को ही आघात नहीं पहुंचा, बल्कि विज्ञान व तर्क आधारित विद्याओं को भी निकृष्टता की श्रेणी में डाल दिया गया। तर्क के स्थान पर विश्वास, आस्था व समर्पण को प्रतिष्ठापित करना भारतीय मेहनतकश जन के साथ सबसे बड़ा बौद्धिक छल था।
''विषम एवं अन्यायपूर्ण समाजार्थिक परिवेश में रूप ग्रहण कर रहे सामाजिक विधि-विधान जिनकी चर्चा स्मृति आदि ग्रंथों में की गई है, ऐसे दर्शन का अभिन्न अंग थे। इन्हीं की एकसुरता में दार्शनिक ने अपने दर्शन के घातक पक्ष को तिलांजलि देने के प्रयोजन से श्रुति संज्ञक ग्रंथों को आप्तवचन एवं अपौरूषेय कहकर अंतिम सत्य प्रमाणित कर दिया था। जबकि जन समुदाय को इन आप्तवचनों को पढऩे, सुनने, जानने का कठोर निषेध लागू करवा दिया गया था तो फिर दार्शनिक की ऐसी घोषणाओं और दावों को परखने की गुंजाइश ही कहां थी? इस प्रकार के अंधविश्वासपूर्ण परिवेश में ही शोषण का दमनचक्र उन्मुक्त रूप से जारी रखा जा सकता था, अन्यथा अत्यन्त अमानवीय स्तर पर जीवन-यापन के लिए विवश किये जा रहे जन समुदाय द्वारा विद्रोह किये जाने की संभावना बनी रह सकती थी।" (पृ.-108) समझ में आने वाली बात है कि स्वतंत्र चिन्तन व तार्किक ज्ञान को शोषणकारी व्यवस्थाएं अपना शत्रु नम्बर एक समझती हैं इसलिए किसी भी शोषक सत्ता का पहला निशाना वही बनते हैं तथा इनको रोकने के लिए अपने भाड़े के कथावाचकों को दार्शनिक का रूप देकर इस संभावना को समाप्त करती हैं। आज जिस तरह गुरूओं की बाढ़ आ गई है, सप्ताह के दिन लोगों के रेले के रेले सत्संगों में इस दर्शन की जूठन का भोग लगा रहे हैं, नाम-दान लेने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, नई-नई 'माताएं व बापू' पैदा हो रहे हैं, सारा दिन टेलीविजन पर भ्रमों व अंधविश्वासों का प्रसाद बांटा जा रहा है, राष्ट्रीय चैनलों पर तिलकधारी, कहीं मुल्ला, कहीं योगी अपनी वाक्-पटुता व जुबान की कलाबाजियों से लोगों को भरमा रहे हें और अति आधुनिक कहे जाने वाले लोगों को उनसे आशीर्वाद लेने जिस तरह प्रदर्शित किया जा रहा है, इस आक्रामक अंधविश्वास व गुरुडम के पीछे भी क्या व्यवस्था का क्रूर चेहरा छुपाकर इसमें पिसते लोगों को काल्पनिक सुख देने का प्रपंच नहीं नजर आता? व्यवस्था का क्रूरता जन्य उत्पीडऩ को मापने का एक पैमाना यह भी है कि धर्म की आड़ लेकर कितने लोग लोगों को समझाने पर तुले हुए हैं, धर्म-स्थलों की भव्यता और बढ़ती संख्या भी उसकी क्रूरता में बढ़ोतरी को ही दर्शाती है, न कि लोगों की धर्म या ईश्वर में बढ़ती आस्था को। यह भी आत्मसातीकरण ही है कि लोगों को उनकी जरूरतों, उनके मुद्दों-चिंताओं से हटाकर व्यवस्था की जरूरतों-चिंताओं में शामिल कर देना और उनको पूरी करने में उनका इस्तेमाल करना।
प्रत्ययवाद, भाववाद या अध्यात्म का पिछड़ापन व रूढि़वाद हमेशा शासक वर्ग के संरक्षण में फला-फूला और इसने उसी वर्ग की सेवा भी की है। शब्दों का जितना ही बारीक जाल अध्यात्मवाद बुनता है, मान लो भौतिकवाद की चुनौती भी उतनी ही गम्भीर है। अध्यात्मवाद भी समय-परिस्थिति निरपेक्ष नहीं होता। डा. सेवा सिंह ने भारतीय भाववाद, प्रत्ययवाद के दर्शन के विकास को व उसके सामाजिक आधार को भी समझने की कोशिश की है। समाज की बदली परिस्थितियों से इस दर्शन को जो नई-नई चुनौतियां मिली हैं उनको भी साथ ही दर्शाने की कोशिश की है। इस दर्शन के मुख्य पड़ावों को रेखांकित किया है कि ''उपनिषदों का आत्मवाद, महायानी बौद्धों का शूनयवाद और विज्ञानवाद एवं शंकराचार्य का मायावाद भारतीय प्रत्ययवाद के विकास के चरण हैं। ऐतिहासिक कालखण्डों के समाजार्थिक परिवर्तनों के अन्तर्गत इन विचारधाराओं का अध्ययन हमें असंदिग्ध रूप से प्रत्ययवादी दर्शन के वर्ग विद्वेषमूलक, परजीवी तथा निहित स्वाथपूर्ण चरित्र को स्पष्ट करता है।" (पृ.-172)
यद्यपि डा. सेवा सिंह ने भक्ति की विचारधारा अपनाए अध्यात्म को ऐतिहासिक संदर्भ में समझा है, लेकिन अध्यात्म के इस घटाटोप के नीचे छिपे भौतिकवाद की विचारधारा की भी शिनाख्त होती तो अध्यात्म, ईश्वर, भक्ति, धर्म के नाम की आड़ लेकर शोषणकारी व्यवस्था को बचाने वाले स्वार्थी कथित 'दार्शनिकों के मनघड़न्त किस्से-कहानियों, भ्रामक विचारों का खोखलापन स्पष्ट तौर पर उजागर होता। मिथ्यावादी दार्शनिक चाहे नैतिक संसार को कितना भी मिथ्या साबित करने की कुचेष्टा करें, लेकिन यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि उनका यह कुत्सित खेल दुनिया के भौतिक सुख-ऐश्वर्य पर अधिकार जमाए रखने का ही ढंग है।
भाववादियों के मोक्ष, स्वर्ग में बिना कुछ परिश्रम किए सुख-ऐश्वर्य की वस्तुएं पाने के अलावा और क्या है? कल्पित सुखों के लिए वास्तविक सुखों को छोड़ देने का आग्रह मेहनतकश जन को उल्लू बनाना नहीं तो क्या है? डा. सेवा सिंह ने ठीक ही पहचाना है कि अरचनात्मक लोगों का ज्ञान भी और दर्शन भी अरचनात्मक ही होगा। जो वर्ग परिश्रम से नहीं जुड़ा और केवल परिश्रमी लोगों द्वारा बनाई चीजों को चुराने व भोग करने की नई-नई तरकीबें सोचा करता है, उसके दर्शन में मिथ्या, अंधविश्वास व अतार्किकता के अलावा और कुछ की अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?
कहा जा सकता है कि डा. सेवा सिंह का यह कार्य केवल अकादमिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि मेहनतकश जन की रचनात्मक दृष्टि व दर्शन को समृद्ध करने वाला है। मेहनतकश को आगाह भी करता है कि इतिहास में किन तरकीबों (भक्ति) का सहारा लेकर उसका शोषण किया गया है, उसको वंचित किया और भविष्य का रास्ता भी दिखाता है कि वह इस मिथ्या दर्शन के जाल को काटकर ही आगे बढ़ सकता है। भाववादी दर्शन, अध्यात्म, प्रत्ययवाद अपने आप में कुछ नहीं हैं, बल्कि विशेष वर्गों द्वारा संसार के भौतिक संसाधनों पर अधिकार बनाए रखने और समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए गढ़ी गई तरकीबें हैं। सामाजिक विकास के साथ साथ ही अध्यात्म का भी रूप बदला है। भक्ति की विचारधारा कर मेहनतकश जन से संबंध उद्घाटित करती 'भक्ति और जन' नामक पुस्तक दलित-वंचित-पीडि़त समाज की मुक्ति-संघर्ष की महत्वपूर्ण कृति है।

मुक्ति-पथ'ः दलित-वाम एका पथ

'मुक्ति-पथ'
दलित-वाम एका पथ

अभय मोर्य का 'मुक्ति-पथ' उपन्यास समाज में विभिन्न शक्तियों के बीच बहुस्तरीय टकराहट अन्तविर्रोधों को अभिव्यक्त करते हुए समाज में सक्रिय विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों की पहचान कराता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने आए चार नवयुवकों के माध्यम से शहरी उच्चवर्ग और ग्रामीण जीवन के बीच मौजूद भारी अन्तर दर्शाने के माध्यम से सांस्कृतिक अन्तर को भी रेखांकित करता है। दलित राजनीति की अवसरवादी और मुक्तिकामी धाराओं के बीच जारी टकराहट को तथा धर्म के नाम राजनीति करने वाले कथित 'शुद्धतावादियों' के छद्म को उद्घाटित किया है।
भारतीय समाज मुख्यत: दो वर्गों में बंटा है एक जो पूरी तरह भोग-विलास, ऐश्वर्य मौज-मस्ती में संलिप्त है, दूसरी ओर ऐसे लोगों की बहुतायत है जिनके पास पेट भरने के लिए पर्याप्त भोजन, पहनने के लिए आवश्यक कपड़े पीने के लिए स्वच्छ पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हंै। जन्म लेते ही जिन्दा रहने का संघर्ष शुरू हो जाता है। विजय के बचपन के वर्णन से इसको काफी विस्तार दिया गया है। जिससे ग्रामीण जीवन की सच्ची तस्वीर उभरती है और गांव का रोमांचकारी मिथ भी टूटता है। दूसरी तरफ मधु का बचपन है जिसे कभी किसी चीज की कमी का अहसास ही नहीं होता, उसके लिए तमाम सुविधाएं हाजिर हंै।
मधु और विजय की जीवन-शैलियों में भारी अन्तर वास्तव में दो वर्गों के बीच दूरी ही दर्शाता है। इसीलिए मधु को विजय का बचपन अति रोमांचकारी साहसिक कथा के नायक की तरह लगता है, जबकि विजय जैसी पृष्ठभूमि के हरेक व्यक्ति का जीवन ऐसा ही बीतता है जैसे लेखक ने वर्णन किया है। मधु का विजय की कहानी सुनकर आश्चर्य व्यक्त करना असल में उसकी भारतीय जीवन की सच्चाइयों से अनभिज्ञता ही है। दोनों के बीच मौजूद असमानता की चैड़ी गहरी खाई दोनों को एक दूसरे के प्रति सहज नहीं होने देती। विजय में गांव का गरीब होने पर हीनता-बोध है तो मधु उसकी मण्डली के लिए वह 'दूसरे ग्रह का जानवरÓ, 'गंवारÓ, 'पहेलीÓ है। समाज के ये दोनों वर्ग एक दूसरे के सह-अस्तित्त्व में नहीं रह रहे, बल्कि एक की कीमत पर दूसरे का विकास हो रहा है। इसने समाज में ऐसा असंतुलन पैदा कर दिया है एक वर्ग तो अपने अभावों से ग्रस्त होकर विकास नहीं कर पाता और दूसरा बहुतायत के कारण विकृतियों का शिकार हो जाता है। पूंजीवादी-सामन्ती सामाजिक संरचना की निर्मिति वर्ग-व्यवस्था इसी तरह के असामान्य मानव पैदा कर रही है। मधु और विजय का बचपन स्पष्ट तौर पर दो श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करता हंै। एक 'इंडियाÓ का निवासी है तो दूसरा 'भारतÓ का। 'इंडियाÓ के लोग 'भारतÓ के बारे में सोचते ही नहीं।विडम्बना यही है कि 'इंडियाÓ के लोगों के हाथ में ही 'भारतÓ के लोगों का भविष्य है। वही नीति-निर्माता हैं, इन्हीं के पास साधन हैं और इन्हीं के पास वास्तविक राजनीतिक शक्ति है। इस शक्ति को प्रयोग करके ये अपने वर्ग के लिए समस्त नियामतें सुरक्षित करते जाते हैं। इसीलिए यह वर्ग तो खूब फलफूल रहा है, अपने बैंक-बैलेंस गिन रहा है, शेयर खरीदनें की होड़ लगी है।इस वर्ग को सूझ नहीं रहा कि वह कहां कहां अपनी धन-सम्पति को निवेश करे, दूसरी ओर किसान हैं जो अभावों के कारण आत्महत्याएं कर रहे हैं। उच्च वर्ग उपभोक्तावाद की ग्लोबल ऐयाशी में मस्त है। विजय और मधु की बातचीत में इस वर्ग की सच्चाई सामने जाती हैै।
''मुझे लगता है कि तुमने हिन्दुस्तान में हो रही बहुत सारी बातों के बारे में कभी सोचा ही नहीं होगा?ÓÓ
''तुम यही कहना चाहते हो कि मैं असली भारत को जानती ही नहीं, पहचानती ही नहींÓÓ
''हां, यह सच नहीं है क्या? मेरा भारत और तुम्हारा इंडिया अलग-अलग देश नहीें है क्या?ÓÓ
''हो सकता है, पर इसमें मेरा क्या कसूर है? हमें वैसे ही पाला-पोषा जाता है, जैसे विदेशों में होता है, उसी तरह के तौर-तरीके सिखाए जाते है, वैसे ही संस्कार हमें दिये जाते है।ÓÓ
शायद तुम्हारे वर्ग ने तुम्हारे जैसे गिने-चुने लोगों को ही असली भारत मान लिया है। और यही भारत झलकता है तुम्हारे बड़बोले-से नारे में 'मेरा भारत महान।Ó सच्चाई में कितनी दूर है यह नारा! कितना खोखलापन है इसमें! कितना धोखा है इसमें ''(पृ. 40-41)
भट्ट, सुरजीत, मोना और मेहश की भोगलिप्सा ही उच्च वर्गीय जीवन का सार है। एकमात्र धन ही इनके जीवन को परिचालित करता है। इसके लिए मोना अपने पिता की उम्र के बूढे भट्ट से विवाह कर सकती है, देह को बेच सकती है। इसी धन के लिए विजय की हत्या का षडयन्त्र रचते है। जो इस वर्ग के तौर-तरीके नहीं अपनाता उसके लिए इसमें कोई जगह नहीं है। विजय के प्रति भट्ट की नफरत को कारण यही है कि उसने उसकी बेटी को नशे सैक्स के गलीजपने से बाहर निकाल दिया है ''मधु हमारी जमात का शत्रु बन गई है। और इसके लिए वह मिट्टी का माधो विजय जिम्मेदार है। उसका तो कोई परिवार है, उसके कोई तहजीब उच्च वर्ग के लोगों के तौर-तरीके। मधु पूरी तरह से भटक गई है, वह हमारे वर्ग की शत्रु बन गई है।ÓÓ (पृ.-263)
इस वर्ग के 'तौर-तरीकेÓ 'तहजीबÓ का मॉडल रूप मोना हैै। इस वर्ग के 'तौर-तरीकेÓ 'तहजीबÓ सुरजीत में है जो हमेशा दूसरों का चरित्र हनन करता है 'इस्तेमाल करो और फेंक दोÓ की संस्कृति में गहरा विश्वास रखता है। स्वाभाविक ही है कि विजय जैसा स्वस्थ संस्कृति का प्रगतिशील व्यक्ति इनमें नहीं खप सकता है।
'मुुुक्ति-पथÓ उपन्यास में दलित-राजनीति को बहुत ही दिलचस्प ढंग से उठाया गया है। उपन्यास के प्रमुख पात्रों में से दो दलित हैं- महेश और नफे सिंह - दोनों की राजनीतिक-सामाजिक मान्यताएं कार्य केवल भिन्न हैं बल्कि परस्पर विरोधी हैं। इनके माध्यम से दलित राजनीति के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया है। महेश दलित राजनीति की अवसरवादिता, जातिवादिता और स्वार्थीपन का प्रतिनिधि है नफे सिंह जातिवाद को समाप्त करके जातिविहीन-शोषणमुक्त समाज के लिए संघर्ष करने वाला। महेश दलितों को जाति के आधार पर गोलबंद करके उनको बृहतर संघर्षों से काटने वाली राजनीति का चैंपीयन है तो नफे सिंह दलितों को समाज के अन्य उत्पीडि़त एवं संघर्षशील वर्गों से एकता स्थापित करने वाला। लेखक ने दलित राजनीति धाराओं को पहचानकर महत्वपूर्ण काम किया है। अक्सर दलित राजनीति या दलित सवाल पर बात करते हुए ऐसी श्रेणियां बनाने से चिंतक-विचारक बचते हैं। ऐसा मान लिया जाता है कि जैसे दलितों में कोई मतभेद नहीं हैं। एक ऐसे वर्ग के तौर पर उस की गिनती कर ली जाती है जैसे कि एक जैसा है (होमोजिनियस) और इस एक जैसा मान लेने के बहुत गम्भीर खतरे होते हंैं। इसमें जो वर्चस्वी धारा होती है उसी पर चर्चा होती है, उसी को प्रतिनिधि मान लिया जाता है और अन्य धाराएं उपेक्षित हो जाती हैं और इसका अर्थ है जिनको कि शासन सत्ताएं चर्चा में लाना चाहती हैं उनको तो चर्चा में ले आती हैं उनके विचारों और मंतव्यों को तो प्रचारित-प्रसारित करती हैं और जिस धारा को दबाना चाहती हैं उसको दबा देती हैं। अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों के साथ यही हुआ कि उसे एक ऐसा समुदाय मान लिया गया, जिसमें कोई मतभेद नहीं हैं, और वही छवि प्रसारित की गई जो कि शासन-सत्ताओं को रूचती थीं,यानी उनकी छवि दकियानूसी समुदाय के रूप में, धार्मिक-कट्टर समुदाय के रूप में और अशान्ति फैलाने वाले हिंसक-क्रूर समुदाय के रूप में प्रचारित किया गया। इसके भंयकर नुक्सान मुसलमानों में मौजूद धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील वर्ग को हुआ, उनकी आवाज दबकर रह गई, उन्हें उनका वास्तविक प्रतिनिधि नहीं माना गया और मुसलमान भी अपने नेता के रूप में बहुप्रचारित कट्टर को ही मानने लगे। उनकी स्वार्थभरी संकीर्ण व्याख्याओं को ही इस्लाम का प्रामाणिक पाठ माना गया। दलित-वर्ग और उसकी राजनीति के साथ भी अभी तक यही हो रहा है कि उसे एकरस एकरूप माना जा रहा है, उसमें मौजूद विविधताओं को कभी रेखांकित नहीं किया जाता। जो सत्ता को रास आती है उसको दलित राजनीति कह दिया जाता है और उसके अनुकूल नहीं बैठती उसे किसी दूसरे खाते में डाल दिया जाता है। इस उपन्यास के लेखक ने नफेसिंह की राजनीति और महेश की राजनीति में स्पष्ट अन्तर करते हुए दलित राजनीति में मौजूद विभिन्नताओं को उद्घाटित करते हुए उसके वर्गीय चरित्र को उद्घाटित किया है।
उपन्यासकार ने महेश को सवर्ण-जमींदार रणजीत सिंह की अवैध संतान के तौर पर निर्मित किया है, जो जमींदार के धन पर ही गुलछर्रे उड़ाता है और आगे बढ़ता है। असल में तो महेश ही जमींदार का 'असलीÓ बेटा साबित होता है जो उसकी सामन्ती-पिछड़ी मान्यताओं का संवाहक बनता है। महेश की मात्र भौतिक उत्पत्ति ही जमींदार द्वारा नहीं बल्कि कहना चाहिए कि महेश की अवसरवादी-विचारधारा राजनीति भी जमींदारों-पंूजीपतियों की नाजायज संतान है, जो पैदा तो दलितों के यहां हुई है लेकिन जिसका स्रोत वर्चस्वी लोगों और पैसे वालों के यहां है। वही उसकी जातिवादी राजनीति के 'फाइनेंसरÓ हैं। दलित-मुक्ति का नकाब ओढ़कर महेश जैसे घोर स्वार्थी लोग असल में अपने लिए पद, पैसा और प्रतिष्ठा हासिल कर रहे हैं। दलित-मुक्ति का ढोंग रचाकर दलितों को जाति के आधार पर एकत्रित करके उनकी वोटों का सौदा कर रहे हैं और बदले में स्वयं को प्रतिष्ठापित कर रहे हैं। अपनी काली करतूतों, आपराधिक, अमानवीय अनैतिक कार्यों को बड़ी चालाकी से दलित-मुक्ति की संज्ञा देकर अपने स्वार्थ हल करते जाते हैं। महेश ''अक्सर नई-नई लड़कियों के साथ घूमता नजर आता। सभी लड़कियां रंग में एक से बढ़कर एक गोरी होतीं। वे अक्सर सवर्ण कन्याएं होती थी। एक बार जब महेश नफेसिंह को रास्ते में मिल गया, तो उसने महेश से पूछ लिया, ''तुम इतनी लड़कियों की जिंदगी के साथ क्यों खिलवाड़ कर रहे हो?ÓÓ
महेश ने तपाक से जवाब दिया, ''मैं तो सवर्ण-जातियों द्वारा दलितों पर सदियों से किए गए अत्याचार का बदला ले रहा हूं।ÓÓ
नफेसिंह दंग रह गया। महेश अपने बड़े से बड़े अपराध के औचित्य का भी आधार ढंूढ लेता था।ÓÓ (पृ.-207) उपन्यासकार ने सही ही उजागर किया है कि बदले की कार्रवाई को किसी भी तरह से दलित-मुक्ति का कार्य नहीं कहा जा सकता। सदियों तक जो सवर्णों ने दलितों पर किया, शक्ति हासिल करने पर दलित वही सवर्णों के साथ करेगें की मान्यता किसी भी तरह से तो उचित है और इसे दलित-मुक्ति की संज्ञा देना तो कतई उचित नहीं है। ऐसा कहने-करने वाले लोग असल में कुंठाग्रस्त मानसिक तौर पर बीमार हैं, जो अपने अनैतिक कार्यों को वैध ठहराने की कोशिश इस रूप में करते हैं। समझने की बात यह है कि दलित-मुक्ति एक सकारात्मक एजेंडा है, नकारात्मक नहीं। यह किसी प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं उपजा, बल्कि इसका जो अपना मानवीय-दार्शनिक आधार है, उसी पर चलकर ही इसे हासिल किया जा सकता है। फिर यह भी देखने की बात है कि दलित-मुक्ति का प्रश्न अकेले दलितों से नहीं जुड़ा। केवल दलितों को ही मुक्त नहीं होना है, बल्कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के अहं एवं श्रेष्ठता-बोध से ग्रसित सवर्ण को भी इस अमानवीय विचार से मुक्ति पानी है। ब्राह्मणवादी विचारधारा से जहां दलित को दोयम दर्जे का माना जाता है, वहीं सवर्ण को भी यह कभी सामान्य नहीं होने देतीं, इस संस्कार से ग्रस्त होकर वह मानव गरिमा का भी सम्मान नहीं कर पाता।
महेश की दलित-मुक्ति के एजेंडे की पोल उसी समय खुल जाती है जब वे 'मनु-स्मृतिÓ को संविधान के तौर पर अपनाने की वकालत करने वाले घोर मनुवादी-साम्प्रदायिक शक्तियों से गलबहियां करते हैं। आम्बेडकर का नाम लेकर राजनीति करने वाले महेश जैसे भ्रष्ट स्वार्थी दलित-नेताओं बुद्धिजीवियों ने ही आम्बेडकर के सिद्धान्तों दलित-मुक्ति की राजनीति का गला घोंटा है। हां, इस अवसरवाद के चलते दलित नेतृत्व में सरकारें भी रह चुकी हैं, जिसका दलितों को तो कोई लाभ शायद ही हुआ हो लेकिन घोर भ्रष्टाचार सामन्ती रुख के किस्से राजनीति में जरा भी रुचि रखने वाला हर व्यक्ति जानता है। समाज-परिवर्तन में रुचि रखकर सत्ता की राजनीति करने वाले दलित-नेतृत्व का यही तर्क फार्मूले को लेखक नफेसिंह महेश की बातचीत में स्पष्ट किया है, महेश कहता है कि ''हम बाबा साहेब आम्बेडकर द्वारा दशाये गए रास्ते पर चलेंगे। हम मनुवादी पार्टियों में से एक के साथ होने का दिखावा करेंगे और उसे दूसरी मुख्य मनुवादी पार्टी पर धावा बोलने के लिए उकसाएंगे। उनमें फूट डालेंगे और अपना राज कायम करेंगे। (पृ.-213) ध्यान देने की बात है कि डा. भीमराव आम्बेडकर ने मात्र सत्ता-प्राप्ति को कभी तो अपना मकसद बनाया और ही सत्ता की राजनीति के वे कायल थे। वे राजनीतिक सत्ता अपना राज कायम करने के लिए नहीं, समाज सुधार दलितों को शोषण से मुक्ति के लिए प्राप्त करना चाहते थे। बिना समाज परिवर्तन सुधार की राजनीति के आलोचक थे। उनकी लड़ाई का मकसद सत्ता प्राप्ति नहीं था, बल्कि समाज में आमूल चूल परिवर्तन था, इसलिए वे प्रतिक्रियावादी शक्तियों से कभी समझौता करने की सोच ही नहीं सकते थे। वे इस बात को बार बार रेखांकित करते थे कि जिन शक्तियों से सामाजिक तौर पर स्पष्ट संघर्ष है उनसे राजनीतिक मित्रता कैसे हो सकती है। सही भी है कि जिन लोगों की मदद से सत्ता हासिल की जायेगी, उनके विरूद्ध संघर्ष कैसे किया जा सकता है। असल में यह आम दलितों को अपने पीछे लगाए रखने के लिए गढा गया तर्क है और अपने स्वार्थ वर्ग-समझौते को छिपाए रखने का शब्दजाल, जिसका कोई तो दार्शनिक आधार है और ही किसी दलित चिंतक ने इस विचार को स्थापित किया है।
असल में यह भी भ्रम ही है कि मनुवादियों को आपस में लड़ाकर दलित सत्ता हासिल कर लेंगे, फिर यदि कोई दलित राजगद्दी पर बैठ भी जाता है और दलितों को सामाजिक-न्याय सम्मान नहीं मिलता, सामाजिक सम्पत्ति में हिस्सा नहीं मिलता तो उससे 'मनुवादियोंÓ को क्या फर्क पड़ता है। मनुवादियों की नीति और सत्ता तो नीतियों के माध्यम से ही कायम रहती है। विडम्बना ही है कि दलित नेतृत्व में सरकार घोर-मनुवादी राजनीतिक पार्टी की मदद से ही बनी है। दलित अवसरवाद को महेश के माध्यम से उपन्यासकार ने व्यक्त किया है।
दक्षिणपंथी शक्तियां महेश को दलितों का जाति के नाम पर संगठन खड़ा करने तथा उसको वामपंथियों के विरुद्ध करने के लिए खूब धन देते हैं। वे दलित और वामपंथियों में एकता नहीं होने देना चाहते क्योंकि वे अच्छी तरह पहचानते हैं कि दलितों का वामपंथियों से जुड़ाव मनुवादी-पंूजीवादी-सामंतवादी के वर्चस्व को चुनौती होगा इसलिए नफेसिंह और विजय के संघर्ष के बाद दक्षिणपंथियों की मंत्रणा इस पक्ष को सही ही उद्घाटित करती है।
''दलितों और वामपंथियों का एक होना हमारे लिए बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो सकता है। हमें यह ठीक से समझ लेना चाहिए कि वामपंथियों का शोषितों का पक्षधर होना, उनके हित में आवाज उठाना कभी कभी दलितों को उनके करीब ला सकता है। यदि बहुत सारे अछूतों के मन में यह बात घर कर गई कि वामपंथी ही उनके असली हितैषी हैं, उनकी विचारधारा में ही दलितों का संपूर्ण उद्धार निहित है, उसी में उनके अंतिम उद्धार की मंजिल छिपी है, धर्म को राजनीति से अलग करने और उसके साथ-साथ जात-पात के चलन को सामाजिक जीवन पूर्णत: मिटाने से ही दलित लोग समाज में बराबरी का स्थान पा सकेंगे, तो दलितों को वामपंथियों के समीप आने से कोई नहीं रोक सकता। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि वामपंथी वास्तव में ऐसा ही चाहते हैं, उनकी विचारधारा में धार्मिक क्रिया-कलापों और जात-पात के लिए कोई स्थान नहीं। यदि दलितों को यह बात समझ में गई तो सारे देश में वामपंथियों का 12-14 प्रतिशत और 15-17 प्रतिशत दलित वोट मिलकर एक भयावह समीकरण को जन्म दे सकता है। इतनी बड़ी शक्ति के रूप में उभरकर शीघ्र ही 50 प्रतिशत से भी अधिक हो जाएंगे। तब हमारे खात्मे को कोई नहीं टाल सकता। ऐसा होने पर समाज में हमारा एकाधिपत्य, हमारा दबदबा हमेशा के लिए मिट जाएगा, हमारे प्रेरणास्रोत और धनाधार सदा के लिए सूख जायेंगें, हमारे दानवीर कुबेर, जो हमारे तमाम तामझाम के लिए हम पर धन वर्षा करते हैं, इस से मुंह फेर-लेंगे। जाहिर है कि हमारा भला इसी में है कि हम दलितों को वामपंथियों से दूर रखने की हर संभव कोशिश करें, साम, दाम, दंड, भेद, आदि सभी हथकंडों का प्रयोग करके दलितों को उलझाए रखें, उन्हें वोट बैंक की राजनीति की दलदल में धकेल दें, उनके कुछ चुनिंदा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को इतनी हवा दें कि वे वामपंथियों को अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के रूप में देखते रहें, उन्हें अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते रहें। यही नीति हमें काफी अर्से तक बचा सकती है।ÓÓ(पृ.-107-108) दक्षिणपंथी राजनीति की मंशा को बहुत ही सही ढंग से उजागर किया है। दलित राजनीति और घोर-दक्षिणपंथी राजनीति के गठजोड़ के अन्त: सूत्र भी इससे खुलते हैं। इस रहस्य से भी पर्दा उठ जाता है कि बड़े-बड़े धन्ना सेठ, पंूजीपति जमींदार जो आम दलित से घृणा करते हैं, दलित राजनीति से भी घृणा करते हैं वे दलित नेताओं को इतना धन क्यों देते हैं और जातिवादी राजनीति को बढ़ावा देने के लिए क्यों तत्पर रहते हैं। असल में जातिवादी राजनीतिक गोलबंदी चाहे वह दलितों की हो या सवर्णों की हमेशा समाज के उच्चवर्ग को ही लाभ पहुंचाती है। सामाजिक परिवर्तन की राजनीति करके मात्र सत्ता हासिल करने और उसे बनाए रखने की राजनीति तो असल में उच्चवर्गीय यथास्थितिवादी राजनीति का ही रूप है। यह बात भी इसी से समझ में जाती है कि दलितों के बड़े नेता ऐसा क्यों कहते रहे कि 'यदि एक कमरे में कम्युनिस्ट और सांप हों तो पहले कम्युनिस्ट को मारोÓ उनकी यह टिप्पणी पंूजीवाद के समर्थन में रहती है। यह बात भी अच्छी तरह इस उपन्यास का लेखक उद्घाटित करता है कि आंबेडकर और माक्र्स यानी दलितों वामपंथियों के प्रेरणा-स्रोत के बीच व्याप्त मतभेदों को एक दूसरे के विपरीत क्यों खड़ा कर दिया जाता है और उनमें मौजूद समानता का जिक्र भी नहीं किया जाता है। वर्ग बनाम वर्ण का विवाद खड़ा करके ऐसा बना दिया जाता है मानो कि दोनों एक-दूसरे विपरीत हों। जबकि जाति-व्यवस्था या वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज में असमानता शोषण को वैध-ठहराने का काम ही तो करती रही है। शोषणकारी व्यवस्थाओं और वर्गों ने अपने शोषण को जारी रखने के लिए समाज में तरह-तरह की संरचनाएं निर्मित की हैं। भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था ऐसी व्यवस्था है जिसमें अधिकांश आबादी को ज्ञान, सत्ता शक्ति सम्पत्ति से वंचित करके उसका शोषण किया है। वर्ण-व्यवस्था या जाति-व्यवस्था की समाप्ति के बिना किसी वर्ग-विहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और बिना वर्ग-विहीन समाज के निर्माण का मकसद लिए वर्ण-व्यवस्था समाप्त नहीं की जा सकती। वर्ण-व्यवस्था को समाप्त करने और वर्ग-व्यवस्था को समाप्त करने का संघर्ष एक-दूसरे के विपरीत नहीं है बल्कि ऐसे दूसरे का पूरक है। इसमें पहले किसे समाप्त किया या पहले किससे संघर्ष किया जाए, यह प्रश्न बेमानी है, चंूकि दलित को तो दोनों ही तरह के शोषण से गुजरना पड़ता है।
'मुक्ति-पथÓ में दलित के आर्थिक-शोषण और सामाजिक शोषण को एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह से रेखांकित किया है। आर्थिक स्थिति व्यक्ति के सामाजिक दर्जे को परिभाषित करती है, तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके आर्थिक शोषण का आधार तैयार करती है। किसके प्रति संघर्ष हो या फिर पहले किससे हो यह सवाल तो असल में दलितों में भ्रम पैदा करने और उनके संघर्ष को कुंद करने का ही हथियार है। जमींदार रणजीत सिंह महेश के पिता बारु का आर्थिक शोषण करता है। भारी भरकम ब्याज घर के खर्चे के कारण बारु की हालत बंधुआ मजदूर की है। वह पूरी तरह जमींदार के नीचे दबा हुआ है। उसकी पत्नी धन्नो का जमींदार यौन-शोषण करता है और वह उसका विरोध नहीं कर पाती। जमींदार उस पर डोरे डालने की कोशिश करता है तो वह बचने के लिए छूत का वास्ता देती है। जमींदार सबको बराबर समझने की बात करता है तो ब्याज माफ करने की बात करती है लेकिन जमींदार रणजीत कहता है कि ''देख धन्नो, मैं जमींदार जरूर संू, लेकिन जे तौं ईसे तरां म्हारै तै बात करदी रैगी, तो सब ठीक-ठाक हो जैगा। (पृ.-21) धन्नो अपनी स्थिति समझती है और जमींदार भी उसकी स्थिति को बहुत अच्छी तरह समझता है इसलिए वह बेधड़क होकर उसका शारीरिक शोषण करता है। यह बात कोई चोरी छुपे नहीं थी बल्कि इस बात का धन्नों के पति बारु को भी अच्छी तरह पता था, वह भी इसका विरोध नहीं करता। इस शोषण की जड़ में उसका आर्थिक शोषण ही है जो उसको चुप रखता है वरन् भारतीय पुरुष प्रधान समाज में कोई भी पुरुष अपनी पत्नी से किसी अन्य व्यक्ति से संबंधों को किसी भी तरह से सहन नहीं कर सकता। यदि धन्नों और बारु आर्थिक रूप से जमींदार रणजीत सिंह पर निर्भर हों तो उनका सामाजिक शोषण संभव नहीं है। दलित-मुक्ति की प्रगतिशील राजनीति के संवाहक नफेसिंह की दृष्टि से सामाजिक शोषण की जड़ में बैठी आर्थिक स्थिति कभी ओझल नहीं होती। इसलिए वामपंथी राजनीति में भूमि-सुधार का मुद्दा इतने जोरदार ढंग से उठाया जाता है। गांव में जमीन का मालिकाना एक तरह से सामाजिक सम्मान की गारंटी है। दलित मुक्ति की लड़ाई में जरूरत है दलितों और वामपंथियों में एकता के आधार बिन्दुओं को पुख्ता करने की कि उनमें वैमनस्य पैदा करने वाले फूट डालने वाले बिन्दुओं को हवा देने की। इस उपन्यास के लेखक ने दलित-मुक्ति और वामपंथी राजनीति को परस्पर पूरक के रूप मे देखा है। नफेसिंह की राजनीतिक चेतना समझ इस बात को बार-बार रेखांकित करती है कि वामपंथी विचारधारा अपनाकर ही दलित-मुक्ति के उद्देश्य को हासिल किया जा सकता है। अपने विद्यार्थी जीवन के और अध्यापक बनने के बाद के संघर्षों में तथा गांव में जाति-पंचायत के उत्पीडऩ के दौरान वामपंथी राजनीति में उसका विश्वास पक्का हुआ है।
नफेसिंह दलितों के सामाजिक सम्मान मानवीय गरिमा की लड़ाई को आर्थिक स्वतन्त्रता की लड़ाई के साथ जोड़कर देख रहा है। उसकी तार्किक विश्लेषणात्मक समझ ने इस बात को पहचान लिया है कि दलितों मसीहाओं के नाम पर पार्क बनवाने, सड़कों के नाम रखने से, विश्वविद्यालय के नाम रखने से, चैक पर उनकी बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं स्थापित करने से दलितों का उद्धार नहीं हो सकता। दलितों में से कुछ अफसर, मंत्री, बनने धन बटोरने से भी दलितों का उद्धार नहीं हो सकता, जातीय-उत्पीडऩ समाप्त नहीं हो सकता। क्योंकि जिन पार्कों-विश्वविद्यालयों का नाम दलित-मसीहाओं के नाम पर रखा जाता है उनमें घूमने पढऩे की फुरसत कूवत दलितों में नहीं है। दलित-मुक्ति के लिए उसका मानना है कि ''हमें भारतीय समाज से लोगों को दलित बनानेवाले कारणों को उखाड़ फंकना है, रोग को जड़ से खत्म करना है और यह तभी हो सकता है जब भारत में एक वर्ग रहित और धार्मिक जंजाल से मुक्त यानि जाति-पाति के जंजाल से मुक्त समाज कायम होगा, राजनीति का ढांचा बनेगा।ÓÓ ... ''हां, साम्यवादी, समाजवादी दलितों के स्वाभाविक साथी हैं। उनके साथ मिलकर तो चलना ही चाहिए। यहां किसी को एक दूसरे का आधार छीनने का या खोने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बात तो सांझे लक्ष्य को प्राप्त करने की है, गरीबी, बेरोजगारी, जातीय उत्पीडऩ से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करने की बात है, संपूर्ण उद्धार की ओर बढऩे की बात है, दलितों की संपूर्ण मुक्ति का सवाल है। हमारी बीमारी एक समान है, हमारे दुखदर्द एक जैसे हैं, हमारा उत्पीडऩ एक जैसा है और यदि आप ध्यान से देखें तो हमारे उत्पीड़क, हम पर अत्याचार करने वाले एक ही वर्ग के लोग हैं, एक ही तरह की जमात हैं। और वह जमात है भारत के सरमायदारों की, जमींदारों की, उनके नाना प्रकार के एजेंटों की, जिनमें तुम भी शामिल हो रहे हो, महेश भैया। इसलिए मुझे अपने रास्ते से हटाने की बजाए तुम मेरे साथ चलना शुरू करो, तुम मेरे साथ आओ। हमारा लक्ष्य एक है, और दुश्मन भी एक ही है, यानि मनुवादी सरमायदार और जमींदारÓÓ, नफेसिंह ने महेश की ओर देखते हुए कहा।ÓÓ (पृ.-216) नफेसिंह के विचार संघर्ष की दिशा स्पष्ट है जो दलितों का सही मुक्ति पथ है जिसपर चलकर ही दलित-मुक्ति का उद्देश्य संभव है। विडम्बना यही है कि दलित आन्दोलन की प्रभावशाली धारा अभी महेश उस जेसे ही स्वार्थी, संकीर्ण जोड़-तोड़ करके अपनी नेतागिरी चमकाने वाले पंूजीपतियों-जमींदारों के नाजायज धन पर पलने-पनपने वालों के हाथ में है और नफेसिंह जैसे निस्वार्थ, संघर्षशील नवयुवक इनका कोपभाजन बन जाते हैं। वे इन ईमानदार लोगों को कोसते रहते हैं, गद्दार कहकर बदनाम करते हैं।
'मुक्ति-पथÓ उपन्यास के लेखक की शैली में खास बात यह है कि वह पर्दे के पीछे की सोच को एकदम सामने ले आते हैं। दक्षिणपंथी राजनीति अवसरवादी दलित राजनीति को उनके ही मुंह से उद्घाटित करते हैं जिससे साफ पता चलता है कि समाज में जो शक्तियां सक्रिय हैं वे अनजाने में नहीं चल रहीं बल्कि उसके पीछे वर्ग-स्वार्थ हैं, वर्गों की योजनाएं हैं। वामपंथ और दलित राजनीति पर महेश उसके साथी तथा नफेसिंह के बीच हुई बहस के दौरान का प्रसंग उद्धृत करना प्रासंगिक रहेगा। ''और फिर लाल झण्डे वालों से तुम्हें परहेज क्यों है वे तो शोषितों और दलितों के स्वाभाविक समर्थक हैं, साथी हैं। उन्हें क्यों आप अपना दुश्मन समझते हैं? नफेसिंह ने पूछा।
''नहीं! तुम बहुत बड़ी भूल कर रहे हो! स्वाभाविक साथी होने के कारण ही लाल झण्डेवाले हमारे लिए खतरनाक हैं। उनके नेता और कार्यकत्र्ता बड़े ही ईमानदार, समझदार, निष्ठावान और कर्मठ होते हैं। तुम्हारी तरह वे भी बहुत नेक और नि:स्वार्थी होते हैं, अपने लक्ष्य और विचारधारा के प्रति पूर्णतया समर्पित होते हैं। ऐसे लोगों के संपर्क में आकर हमारे कार्यकत्र्ता उनसे प्रभावित हो सकते हैं। तब हम अपने समर्थकों को आंख मंूदकर अपने पीछे चलनेवाले हथियार बनाकर उपयोग कर पायेंगे। लाल झण्डेवाले अवश्य हमारे लोगों को प्रभावित कर लेंगे। वे हमारे वोट-बैंक में सेंध लगा सकते हैं। हमारे काडर, कार्यकत्र्ता और हमारे समर्थक अगर उनके संपर्क में आए, तो वे उनकी तरफ जा सकते हैं, जैसा कि तुम्हारे साथ हो रहा है। इसलिए लाल झंडे वाले हमारे दुश्मन नंबर एक हैं।ÓÓ छुटभैये ने थूकते हुए कहा। (पृ.-212)
दलित आन्दोलन अभी अपनी प्राथमिक अवस्था में है जिसमें विचार-विमर्श लगातार जारी है। जिस तरह 'मुक्ति-पथÓ उपन्यास के लेखक ने दलित राजनीति के अवसरवादी तत्वों को पहचाना है, उनके मंतव्यों को स्पष्ट किया है उसी तरह दलित-चिन्तक दलित-कार्यकत्र्ता भी दलित राजनीति की दिशा को पहचान रहे हैं और इस अवसरवादी नेतृत्व को छोड़कर 'जेनुइनÓ नेतृत्व की ओर जा रहे हैं। वे इस बात को भी पहचान रहे हैं कि उनको वास्तविक नेतृत्व कौन दे रहा है उनके राजेमर्रा के दु: तकलीफों में कौन साथ हैं और उच्च वर्ग द्वारा प्रायोजित नेता कौन से हैं जो केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही दलितों का नाम लेते हैं।
'मुक्ति-पथÓ लेखक ने वामपंथी राजनीति की ओर भी संकेत किया है कि उसका विस्तार प्रसार दलितों के जुड़ाव से ही संभव है। भारत के असली सर्वहारा तो दलित ही हैं वही इस पंूजीवादी-सामन्ती व्यवस्था के पीडि़त हैं। वर्तमान समाज में आर्थिक सामाजिक दृष्टि से दलित ही सबसे निचले पायदान पर हैं, इसलिए उन्हें ही व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की सर्वाधिक जरूरत है और वही सबसे अधिक लडऩे की क्षमता भी रखते हैं। दलितों के आर्थिक शोषण के साथ उनके सामाजिक शोषण के सवालों को जोड़कर संघर्ष करने से ही वर्ण-वर्गविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना संभव है।व्यवस्था परिवर्तन के इस महासंघर्ष में जाहिर है कि बहुत बड़ी जन-शक्ति की जरूरत होगी। कोई भी वर्ग अकेले अकेले मुक्ति के संघर्ष को नहीं चला सकता और प्रख्यात कवि मुक्तिबोध ने सच ही कहा था कि अकेले अकेले मुक्ति संभव नहीं है, मुक्ति होगी तो समस्त शोषित वर्ग की एक साथ ही होगी। इसलिए जो मुक्ति के संघर्ष में शामिल हैं उनको अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान करनी निहायत जरूरी हो जाती है। नफेसिंह के माध्यम से लेखक ने सही ही कहा है कि ''यह बात अब और भी साफ नजर रही है कि दलित-मुक्ति के लिए संघर्ष को आसानी से फलता नहीं मिलेगी। कांटों से भरा है दलित-उेार का रास्ता। यह भी स्पष्ट है कि दलित-मक्ति के पथ पर चलते हुए हमें अपने दोस्तों और दुश्मनों की ठीक से पहचान करनी होगी। विधायक महोदय का दल और दूसरी मनुवादी शक्तियां इसलिए हम पर हावी पड़ती हैं, क्योंकि सवर्ण शासक वर्ग का सभी धर्मों के सरमाएदारों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गठजोड़ है। उनके हाथ में साधन भी हैं और साधक भी। जरूरत पडऩे पर उन्हें भाड़े के साधक भी पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं, नाना प्रकार की स्वार्थी ताकतें उनकी सेवा में रत हंै। इसीलिए यह बात तय है कि हम अकेले दलित-उेार की लड़ाई नहीं जीत सकते। हमें अधिक से अधिक मित्रों और सहयोगियों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। जाहिर है समाज की सभी जातियों और धर्मों के शोषित और दलित लोग हमारे स्वाभाविक साथी हैं, हमराही हैं, सहभागी हैं। इसलिए हमें दलित अस्मिता को वर्ग चेतना से जोडऩा है। संघर्ष करते हुए हमें असली दोस्तों के साथ तालमेल बैठाकर आगे बढऩा है।ÓÓ (पृ.-294)
घोर-प्रतिक्रियावादी अवसरवादी-राजनीति की संस्कृति और वर्गीय चरित्र को इस राजनीति का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल के विधायक के चरित्र के माध्यम से संकेत किया है। यह विधायक अपने दोस्त अपनी पार्टी के समर्थक की पत्नी से अवैध सम्बन्ध बनाता है। उसकी सम्पति हड़पने के लिए मुक्तसिंह (नफेसिंह का बेटा) को अगवा करने की कोशिश करता है और जद्दोजहद में अपने दोस्त लाला को गोली मारकर हत्या कर देता है। धर्म संस्कृति की राजनीति करने वाले और 'चाल, चरित्र चेहरेÓ से अलग होने का दावा करने वाली कथित शुद्ध राजनीति के दावा करने वाले दल की सच्चाई को लेखक ने लाला और एम. एल. . की बातचीत के माध्यम से उद्घाटित किया है। ''वो सब तो ठीक है। पर तुम्हारा हिंदू धर्म, जिसकी तुम इतनी डफली बजाते हो, क्या यही शिक्षा देता है कि दूसरों की बीवी के साथ दुष्कर्म करो? हिंदू नेता होकर क्या तुम्हें ऐसे काम करना शोभा देता है?ÓÓ लाला ने मरी आवाज में कहा।
''छोड़ो ये भाषणबाजी, राजनीति में सब कुछ चलता है। और तो और हमारे शीर्षस्थ नेता भी यही करते हैं। वे कुंवारे हैं, पर ब्रह्मचारी नहीं। दूसरों की बीवीयों को अपनी पत्नी बनाकर पति के जीते जी अपने घर में रखतें हैं। हमें क्या ताना देते हो तुम। अब इस तांत्रिक को जाने दो। यदि यह बात उजागर हो गई तो लोग सांचेंगें कि सभी 'बाबाÓ, सभी 'स्वामीÓ ऐसे ही लंपट और उचक्के होतें होंगे। तब हिंदू धर्म और संस्कृति पर भी आंच आयेगी। और हां, रेखा को को जिससे उसका मन आये शादी करने दो। रही तुम्हारी पत्नी? उसे भी मैं बुला दूंगा। पर मेरे तुम्हारे यहां आने जाने पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए,ÓÓ नेता ने तेज तर्रार आवाज में कहा।(पृ.-240) धर्म, शुचिता और शुद्धता की राजनीति का ढोंग करने वालों की असलियत उजागर करते हुए लेखक ने इस शब्दावली के नीचे की असली राजनीति को सामने रखा है।
खाप पंचायतों के तुगलकी फतवों से हरियाणा का संवेदनशील विवेकशील नागरिक त्रस्त है। पिछले वर्षों में ये पंचायतें गोत्र के नाम पर कई शादियां तुड़वा चुकी हैं, कई पति-पत्नी के जोड़े को भाई-बहन बना चुकी हैं। गैर-जाति में शादी करने के कारण कई नवयुवक युवतियां मौत के घाट उतारे जा चुके हैं, कईयों को गांव से निकाला जा चुका है। तमाम प्रतिक्रियावादी, सामन्ती पंूजीवादी शक्तियां इनमें सक्रिय होकर मानव-अधिकारों नागरिक अधिकारों को कुचल रही हैं। इस उपन्यास के लेखक ने पंचायतों की इन कारगुजारियों की एक झलक प्रस्तुत की है। यद्यपि यहां रणवीर सिंह किसी गैर-जाति लड़की से विवाह नहीं करता, लेकिन जमींदार पिता संबंधियों को उसका अपनी इच्छा से अपना जीवन-साथी चुनना भी सामन्ती आचार-संहिता का उल्लंघन ही नजर आता है। गौर करने की बात है इस पंचायत की नजरों में महेश जैसा लम्पट तो सम्माननीय है जो लड़कियों से छेड़छाड़ करता है लेकिन विजय, नफेसिंह और रणबीर सिंह का अपमान एवं प्रताडऩा की जाती है। इन गैर कानूनी पंचायतों के लिए सही-गलत, उचित-अनुचित की कोई आधुनिक कसौटी नहीं है। केवल अनपढ़ समाज या पंचायतों की बात नहीं बल्कि अधिकांश शिक्षित हरियाणवियों में भी आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के लिए कोई आदर स्थान नहीं है। जब विजय और नफेसिंह रणबीर के होने वाले साले के पास विश्वविद्यालय में जाकर वस्तुस्थिति बताते हैं तो उनकी बात को समझने की बजाए वह अपने दोस्तों से उनकी पिटाई करवा देता है।
पंचायतों के मामले में प्रशासन भी कोई दिलचस्पी नहीं लेता। असंवेदनशील प्रशासनिक ढांचा इसे कानून व्यवस्था की समस्या ही नहीं मानता, बल्कि सामाजिक समस्या मानकर मूक-दर्शक बन जाता है और कानून तोडऩे वालों को अपनी मनमर्जी करने की छूट मिल जाती है। नफेसिंह, विजय मधु जब एफ.आई.आर. दर्ज करवाते हैं तो वहां के पुलिस इंचार्ज का रवैया यही उद्घाटित करता हैं यद्यपि मधु के उच्चवर्गीय रूप-रचना को देखकर रिपोर्ट तो लिख लेता है लेकिन यह एक तरह का चमत्कार ही था इससे पुलिस का यह चरित्र भी स्पष्ट होता है कि वह उच्चवर्ग के लोगों को देखकर केवल दबाव में जाती है बल्कि उनकी चापलूसी भी करने लगती है, जैसे कि वे उन्हीं के सेवक हों और निम्नवर्ग के लोगों पर डंडा-परेड़ करती है, गालियां देकर अपमान करती हैं जैसे कि उनको खदेडऩा-भगाना-पीटना ही उनका मुख्य काम हो।
उपन्यासकार की नजर समाज में परिवर्तनकारी अन्याय को सहने वाली शक्तियों भी है चाहे ये शक्तियां कमजोर हों लेकिन समाज में मौजूद हैं जो इन प्रतिक्रियावादी शक्तियों का विरोध करती हैं। नफेसिंह, विजय एवं मधु के साथ इस संघर्ष में वे कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। यही शक्तियां ही भविष्य को निर्माणकारी शक्तियां हैं। लेखक ने इस सच्चाई की ओर भी संकेत किया है कि कथित पंचायती इतने ताकतवर नहीं हैं कि उनको हराया नहीं जा सकता बल्कि यदि कोई प्रतिरोध उनको नजर आए तो वे तुरन्त ही बचाव की मुद्रा भी अख्तियार कर लेती हैं।
जब पंचायतियों को पुलिस गिरपफ्तार करके हवालात में बंद कर देती है तो जमींदार रणजीत सिंह अपने बचाव के लिए रिरियाने-गिड़गिड़ाने लग जाता है और अपने बचाव के लिए अपने बेटे के पैर पकडऩे के लिए भी तैयार है जिसकी अपनी इच्छा से विवाह करना भी उसे स्वीकार नहीं था। लेखक ने बहुत ही साहसिकता दिखाई है कि रणबीर सिंह अपने पिता के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवाता है। असल में इसी तरह के काम की आवश्यकता भी है जब समाज खूनी-रिश्तों के आधार पर नहीं बल्कि मानवीय आधार पर व्यवहार करना शुरू करेगा तभी कोई गुणात्मक बदलाव संभव है।
'मुक्ति-पथÓ उपन्यास की पृष्ठभूमि हरियाणा का एक गांव है, लेकिन लेखक का कोई मकसद नहीं है कि वह वहां के सांस्कृतिक अभिव्यक्ति करे। वह तो र्फि राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों को व्यक्त करने में ही रूचि रखते हैं, परन्तु ग्रामीण जीवन की ठेठ शब्दावली हरियाणवी जीवन को चित्र अवश्य दे जाते हैं। उपन्यास को जीवन्त विश्वसनीय बनाने में हरियाणा के गांव में बोले जाने वाले शब्दों के प्रयोग की विशेष भूमिका है। मसलन बिशाला, बक्सूई, ढिंढरे, लेट, सूड़, बिलौनी, नौरे, आहरा, कढोणी, बाखड़ी, आले, गैरे, भरोटा आदि ऐसे शब्द हैं जिनमें एक चित्र अंकित है। गांव से लम्बे समय तक दूर रहने के बावजूद भी लेखक की चेतना से गांव की स्मृतियां गायब नहीं हुई हैं और जैसा कि अक्सर होता है कि स्मृतियों को व्यक्ति महिमामंडित करने लगता है। लेकिन इस उपन्यास के लेखक ने तो स्मृतियों को महिमामंडित किया है और ही ग्रामीण जीवन को रोमांचकारी, आदर्श के रूप में ही वर्णित किया है, बल्कि ग्रामीण यथार्थ के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टि रखते हुए उसकी अभिव्यक्ति की है।
'मुक्ति-पथÓ का विषयवस्तु इतना प्रासंगिक है कि उपन्यास की पाठकीयता हमेशा बनी रहती है। लेखक स्वयं ही कथा का वर्णन करता है जिससे उपन्यास के चरित्रों का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाया और कोई पात्र यादगारी पात्र नहीं बन पाया। जब जो चीज लेखक ने अपने चरित्रों से करवानी चाही वो करवा ली, जो कहलवाना चाहा वो कहलवा लिया और जिस तरह से उसको मोडऩा चाहा उस तरह से मोड़ दिया। जहां-जहां उपन्यास के चरित्र लेखक से स्वतंत्र हुए हैं वहां-वहां वे बहुत ही पावरफुल बनकर भी उभरे हैं। कई चरित्र हैं जिनकी उपन्यास में उपस्थिति तो है, लेकिन वे उतना उनका विकास नहीं हुआ जितना कि संभव था और उपन्यास के लिए जरूरी था। विशेष तौर पर मधु की मां और सुरजीत की पत्नी में बहुत संभावनाएं छुपी हैं।
हिन्दी उपन्यास की परम्परा में 'मुक्ति-पथÓ को यशपाल की परम्परा में रखा जा सकता है। 'मुक्ति-पथÓ उपन्यास को समाज के गम्भीर सवालों पर एक मुकम्मल बहस है, जो एक पक्ष का निर्माण करती है। समाज में सक्रिय प्रगतिशील प्रतिगामी शक्तियों की पहचान करवाने में मदद करती है।