कबीर
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
''पूरब दिशा हरि को बासा
पश्चिम अलह मुकामा।"1
'कबीर पोंगडा अलह राम का
सो गुरु पीर हमारा।"2
कबीर दास मध्यकालीन भारत के प्रसिद्घ संत हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया तथा ब्राह्मणवादी धार्मिक आडम्बरों की आलोचना की। इनकी प्रसिद्घ रचनाएं 'बीजक' में संकलित 'साखी', 'सबद', और 'रमैनी' हैं।
कबीरदास के जन्म के बारे में समाज में कई तरह की बातें प्रचलित हैं। माना जाता है कि कबीरदास एक विधवा ब्राह्मणी के घर पैदा हुए, जिसने लोकलाज के डर से उसे तालाब के किनारे छोड़ दिया वहां से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उसका पालन-पोषण किया। इस लोक प्रचलित मान्यता से लगता है कि कबीर का जीवन सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसके अनुसार उनका जन्म एक ब्राह्मणी के यहां हुआ और उनका लालन पालन मुसलमान परिवार में हुआ, इस तरह कबीर दोनों की परम्पराएं लिए हुए थे। कबीर की कविता और उनका जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। कबीर अपने विचारों में क्रान्तिकारी रहे, उन्होंने अपना यह स्वभाव मरते समय भी नहीं छोड़ा।3 कबीर दास का अपना कहना है कि वे बनारस में पैदा हुए और मगहर में उनकी मृत्यु हुई।
''सकल जन्म शिवपुरी गंवाया ,मरती बेर मगहर उठ धाया।"
इसमें महत्त्व की बात यह है जिस तरह कबीरदास मनुष्यों के बीच कोई भेद स्वीकार नहीं करते थे उसी प्रकार वे शहरों और जगहों की ऊंच नीच को भी स्वीकार नहीं करते थे। हिन्दुओं में मान्यता है कि बनारस में मरने वाले को मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाले को फिर से गधे का जन्म मिलता है। इस अंधविश्वास को तोडऩे के लिए ही कबीर ने बनारस शहर छोड़ दिया और हेय समझे जाने वाले शहर मगहर में आकर बस गए।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा।।
अर्थात काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हुए हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा अहसान है? इसलिए कबीर जो जन्म भर काशी में रहे और बादशाहों की व पण्डों व मुल्लाओं की संकीर्णता औैर नफरत काशी से बाहर नहीं निकाल सकी मरने से पहले अपनी इच्छा से मगहर वासी हो गए।
कबीर की मृत्यु के बारे में जो किंवदन्ती है, वह कबीर के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि है। कहा जाता है कि कबीर की मृत्यु पर हिन्दुओं और मुसलमानों में विवाद हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनके शरीर को जलायेंगे तो मुसलमान कहते थे कि उनको दफनाया जाएगा। कहा जाता है कि इस का निबटारा इस तरह हुआ कि कबीर का शरीर फूलों के ढेर में बदल गया जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बराबर बराबर बांट लिया। इस तरह दोनों के रिवाज भी पूरे हो गए ओर उनका झगड़ा भी मिट गया और मरने के बाद भी कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की परम्परा बनाई। अब मगहर में इमली के पेड़ के नीचे कबीर की समाधि है, बनारस में मठ है जो कबीर चौरा के नाम से मशहूर है।
कबीर समाज के निम्न वर्ग से ताल्लुक रखते थे, उनकी कविता का न सिर्फ कथ्य निम्न वर्ग के पक्ष में था, बल्कि उसका रूप भी नवीन था। परम्परागत तौर पर मान्य काव्यशास्त्र के सिद्घांतों को उनकी कविता चुनौती देती थी, इसलिए उनकी कविता के कवित्व का अध्ययन नहीं हुआ और उनकी कविता को 'भक्ति साधना' का 'बाई प्रोडक्ट' मान लिया गया।
''कबीर ने अपनी वाणी को 'सुरझावनहारी' कहा है, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में इहलाम या उपदेश 'सुरझावनहारे' होते हैं। कबीर के यहां ऐसा नहीं है कि सभी प्रश्नों के उत्तर तैयार हैं और कविता का उपयोग केवल शंका-समाधन या जनता के बीच प्रचार के लिए करना है। कबीर की कविता धर्मगुरु या पैगम्बर का इहलाम नहीं, संघर्षशील, संवेदनशील मनुष्य की आवाज है।
वह मनुष्य कभी अपनी उपलब्धि पर खुशी से नाच रहा है, तो कभी विरह में तड़प रहा है। कहीं वह सामाजिक अन्याय के विरुद्घ प्रचंड आक्रोश की प्रतिमूर्ति है तो कहीं विरह व्याकुल स्त्री की। कहीं वह उलटबांसी के जरिए लोगों को छेड़ रहा है, तो कहीं लोगों की जडता पर जाग और रो रहा है। कहीं वह हर बात को अनुभव और विवेक की कसौटी पर परखने की सलाह देता मित्र है तो कहीं गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण की घोषणा करता साधक। कहीं वह स्वयं नारी का रूप धरण करता विरह व्याकुल भक्त है, कहीं नारी मात्र को नर्क का द्वार ठहराता विरक्त। ऐसे 'विरोधभास' कबीर के कवित्व के अचूक प्रमाण हैं। अपने मन की बातों को मन में ही रख सपाट-सा उपदेश देते रहना कबीर को नहीं आता। वे आप तक बनी बनाई उपदेश माला नहीं पहुंचाते, बल्कि अपनी कविता का आत्मसंघर्ष पहुंचाते हैं। ऐसे आत्मसंघर्ष और विरोधभासों से हममें से कौन नहीं गुजरता? सुबह से शाम तक हमारे मन में परस्पर विरोधी कितने भाव आते हैं। समर्थ कवि भाव को सेंसर नहीं करता। यह काम उपदेशक का है। कवि की वाणी में तो आप परस्पर विरोधी अनुभूतियों को मुखरित होते सुनते हैं - उसके केन्द्रीय भाव के स्वरों में।
कबीर की कविता का केन्द्रीय भाव प्रेम, विविध और विरोधी भावदशाओं में मूर्त होता है। उनकी वाणी केवल सतत मिलन का उल्लास नहीं; वह केवल सतत विरह की वेदना भी नहीं। कबीर का प्रेम आशा-आशंका, मिलन-विरह, उल्लास-वेदना के छोरों को छूता है। कबीर की कविता जानती है: प्रेम अपने विस्तार में जीवनदाता है और गहराई में जानलेवा। प्रेम सहज संभव है और सर्वथा अप्राप्य भी। इस अनुभव से जो वंचित रहा, वह मनुष्य है कहां? वह तो साक्षात श्मशान है - 'जिहि घटि विरह न संचरै, सो घट सदा मसान।' .... संदर्भ प्रेम हो या मृत्यु, अंतस्साधना हो या सामाजिक आलोचना कबीर की कविता जबर्दस्त भावोन्मेष करती है। उसकी संवेदना प्रेम, मृत्यु और सामाजिक वास्तव - इन तीनों बुनियादी सत्यों का गहरा अनुसंधान करती है। यह अनुसंधान पाठक/श्रोता को भी भागीदार बना लेता है - क्योंकि कबीर की भाषा अमूर्त उपदेश की भाषा नहीं है। वह केवल व्यंग्य और आक्रामकता तक सीमित भाषा ही नहीं है। वह व्यंग्य के साथ-साथ सटीक निरीक्षण और व्यंजक बिंब निर्माण की भाषा भी है। कहीं कबीर की भाषा सादगी और सीधे तथ्यकथन से भावोन्मेष करते हैं तो कहीं व्यंजक बिंबो के सहारे।"4
''कबीर ने अपने युगीन समाज पर पूर्णरूपेण दृष्टिपात करके देखा कि अमीर और प्रभावशाली परिवार के लोगों का गहरा विश्वास था कि औरों पर शासन करना या उन पर प्रभुत्व जमाना उनका जन्मसिद्घ अधिकार था। वह विचार उस काल के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को समर्थन देने के लिए पैदा हुए थे और बढ़ रहे थे। कबीर क्रोधित होकर गरीबों और अमीरों के बीच गहरी असमानता और अन्तर्विरोध् को देखकर कहते हैं कि एक मोती-मुक्ताओं से सुसज्जित रेशमी कपड़े पहने हैं, धवल सज्जा पर सोते हैं और दूसरा गुदड़ी पहनता है। अमीरों के द्वारों पर नौबत बजती है, उनके द्वार पर हाथी झूमते हैं जबकि निर्धन व्यक्ति मिट्टी की टूटी झोंपड़ी में रहता है। कबीर ने शरीर की उपमा एक मिट्टी की झोंपड़ी से की है और आत्मा को निर्धन गरीब व्यक्ति माना है। गरीबों के प्रति अपनी गहरी संवेदना दिखाते हुए कबीर कहते हैं:
इब न रहूं माटी के घर में
छिनहर घर अरु झिनहर टाटी
घन गर्जत कंपै मेरी छाती
अब मैं मिट्टी से बनी झोंपड़ी में नहीं रह सकता क्योंकि यह घर बहुत कच्चा है और इसके द्वार पर दरवाजों के स्थान पर टाट का पर्दा टंगा है। जब आकाश में बादल गरजते हैं तो मेरी छाती कांपने लगती है।
कबीर द्वारा अमीरों के ऐश्वर्यशाली जीवन के चरित्रांकन से स्पष्ट होता है कि उनका मुख्य ध्येय सामंती तत्वों से मुख्यत: भू-स्वामियों को प्रताडि़त करना था। कबीर ने इस वर्ग के लोगों में स्थित घमंड का भी प्रतिकार किया। कबीर ने उच्च-कुल के लोगों को झूठा अभिमान रखने के लिए लांछित करते हुए कहा कि वे अपने आधिपत्य का डंका पीटते हैं जो उनके विध्वंस का कारण बनता है। उन्होंने उनकी तुलना ऊंचे बांस के वृक्षों से की है जो आपस में एक-दूसरे के साथ टकराकर जल जाते हैं और गरीबों की चंदन के पेड़ों के समान जिसमें सुगंध रूपी अच्छे गुण हैं जो वातावरण को सुगंधित करते हैं। सीमावर्ती राजा और भूपति ऊंची-ऊंची नस्ल के घोड़ों पर चढ़ते हैं, विशाल महलों के ऊंचे दरवाजों जिनमें से हाथी निकल सकें और विशाल महलों जिनमें बड़े-बड़े झरोखे, बगीचे और बावलियों में रहते थे जिनमें वे गर्मियों में शीतलता का अनुभव करते थे। गरीबों की दृष्टि में यही लोग चमकदार कपड़े पहनते थे और मुंह में उनके पान-सुपारी रहती थी तथा वे जी भरकर स्वादिष्ट भोजन करते थे।
उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारि खात।
कबीर के अनुसार व्यापारी वर्ग के लोग अपनी खुशहाली के लिए ऊंची दरों पर रुपया चढ़ाते थे, छल-कपट से धन जोड़ते थे और उसको जमीन में गाढ़ देते थे, अपेक्षा इसके कि उसे किसी काम में लगाएं। कबीर ने व्यापारी लोगों की तुलना उस मधुमक्खी से की जो गरीब रूपी पूफलों का रस चूस-चूस कर मधु एकत्रित करती है और फिर उसे स्वयं पी जाती है। पूरे समाज की दुर्दशा को देख कबीर ने कहा कि यह दुख, गरीबी, अज्ञानता, द्वेष और घमंड से पूरी तरह आक्रांत है।"5
''मनुष्य की समानता के पक्षधर कबीर किसी को बड़ा या छोटा नहीं मानते। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि घास की भी निंदा नहीं करनी चाहिए भले ही वह पांवों के नीचे क्यों न रहती हो क्योंकि जब वही घास उड़कर आंख में गिर जाती है तो बहुत दुख उठाना पड़ता है-
कबीर घास न नींदिए, जो पाऊं तलि होइ।
उडि़ पड़ै जे आंखि मैं, खरा दुहेला होइ।।6
कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के सच्चे सिपाही हैं। उन्होंने दोनों धर्मों को मिलाने के लिए प्रयास किए। दोनों के भेद मिटाने के लिए उन्होंने दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर करने की कोशिश की। दोनों धर्मों के पाखण्डों का विरोध किया ओर दोनों धर्मों में व्याप्त आन्तरिक एकता को सामने रखा। कबीर के इस प्रयास के मध्यकालीन भारतीय समाज पर गहरे असर पड़े। उन्होंने अपने को किसी धर्म में बांधने से इन्कार कर दिया। अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि विशुद्घ मानवीय बनाई।
हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाही।
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेले माहीं।।
कबीर दास की कविता में ब्राह्मणवादी पाखण्डों और कठमुल्लाओं पर तीखे कटाक्ष हैं। ''हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों ही के कर्मकाण्डों और बहुत सी मान्यताओं की कठोर आलोचना कबीर ने की है। ऐसी आलोचना करने वाले विचारक कई बार एक नए धर्म या पंथ की स्थापना भी करते हैं। संगठित धर्म की जो आलोचना कबीर करते थे; क्या उसका लक्ष्य भी यही था कि किसी धर्म या सम्प्रदाय की स्थापना की जाए?
कबीरपंथी तो यही मानते हैं कि कबीर ने स्वयं ही पंथ की स्थापना की थी। लेकिन इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कबीर पंथ की किसी शाखा का मूल स्वयं कबीर तक नहीं खोजा जा सकता।
कबीर की कविता से गुजरें तो स्पष्ट हो जाता है कि उस कविता का स्वर प्रचलित धर्मों की आलोचना कर अपना धर्म चलाने के इच्छुक व्यक्ति का स्वर नहीं है। कबीर हिन्दू या इस्लाम की ही आलोचना नहीं कर रहे थे। वे संगठित धर्म- रिलीजन, मजहब मात्र की आलोचना कर रहे थे। वे किसी एक या दो धर्मों की समीक्षा नहीं - संगठित धर्म की अवधारणा मात्र की समीक्षा कर रहे थे। उनकी धर्म समीक्षा केवल कर्मकाण्ड या रीति-रिवाज की आलोचना मात्र तक सीमित न होकर धर्ममात्र की मूलगामी समीक्षा है। इस मूलगामी समीक्षा का सबसे मूल्यवान पक्ष यह है कि कबीर मनुष्य की मूलभूत आध्यात्मिक पिपासा और वेदना की उपेक्षा नहीं करते। इस वेदना का अस्तित्व हम अपने अनुभव से ही जानते हैं। इसी अनुभव को कबीर कविता का रूप देते हैं। वे इस आध्यात्मिक वेदना पर धर्म के एकाधिकार को चुनौती देते हैं। उनकी कविता इस वेदना को संजोने के लिए, वैकल्पिक विधि का संकेत देती है। वह पुराने धर्म के स्थान पर नए धर्म के सामने समर्पण कर देने की आसान, लेकिन अंधी गली में फंसने की बजाए धर्मेतर अध्यात्म की उस 'दुहेली' राह पर चलने की, धर्ममात्र का विकल्प खोजने की, चुनौती स्वीकार करती है, जिस पर चलना 'नहिं कायर का काम'।
कबीर ने स्वयं को न कभी 'धर्मगुरु' कहा, न अवतार। वे स्वयं को 'पैगम्बर' या नए धर्म के संस्थापक के रूप में कहीं नहीं देखते। समस्या यह है कि बहुत से लोग यह कल्पना ही नहीं कर पाते कि आधुनिक युग से पहले भी संगठित धर्म की ऐसी आलोचना कोई कर सकता था, जिसका लक्ष्य एक ओर संगठित धर्म की स्थापना करना न हो। कल्पना की इस दरिद्रता को कबीर पर आरोपित करके यह मान लिया गया कि वे हिन्दू धर्म और इस्लाम की आलोचना इसलिए कर रहे थे ताकि नया धर्म या पंथ चला सकें। कबीर पंथ के इतिहासकारों ने भी कबीर के अपने विचारों और कबीर पंथ के दावों को गड्ड-मड्ड कर डाला। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उन्हें अपना 'निराला पंथ चलाने' को उत्सुक व्यक्ति के रूप में देखा, तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'धर्मगुरु' के रूप में।"7
कबीरदास धर्म के बाहरी आडम्बरों और दिखावों से दूर हटकर धर्म के मर्म को पहचानते थे। वे बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़कर धर्म की शिक्षाओं के पालन करने पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि सारी दुनिया पागल हो गई है। यदि सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है। हिन्दू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते मरते हैं, लेकिन सच्चाई से कोई भी परिचित नहीं है।
साधो, देखो जग बौराना।
सांची कहौ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहै मोही राम पिआरा तुरक कहैं रहमाना ।
आपस में दोऊ लडि़ लडि़ मूये, मरम न कोऊ जाना।
***
एक निरंजन अलह मेरा हिन्दू तुरुक दुहूं नाहिं मेरा
राखूं व्रत न मरहम जानां, तिसही सुमिरुं जो रहे निदाना।
पूजा करुं न निमाज गुजारुं, एक निराकार हिरदै नमसकारुं।
ना हज जाऊं न तीरथ पूजा, एक पिछांया तौ का दूजा।।
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूं मन लागा।।
''दिखावटी धर्म से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्ययुग के मनुष्य को आत्म-प्रतिष्ठा, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दिया और मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया। संतों और सूफियों के पास इतनी ताकत तो नहीं थी कि वे उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ सकते जिनका केन्द्र शाही दरबार और अमीरों के महल थे। इसलिए उन्होंने उनकी तरफ से बड़े तिरस्कार के साथ मुंह फेर लिया और संतोष धीरज का उपदेश दिया। संतोष का अर्थ वैराग्य नहीं था बल्कि बादशाहों, दरबारियों और अमीरों से विमुख होकर व्यापार और शारीरिक श्रम से रोजी कमाना था जिसका आदर्श कबीर ने पेश किया है। उस युग में व्यापार को राज-सेवा के मुकाबले में तुच्छ समझा जाता था"8
कबीर का मानना है कि परमात्मा एक है, वह कण कण में व्याप्त है। सभी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो इनमें भेद करते हैं वे झूठे हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। ईश्वर को दो मानना लोगों में भ्रम को फैलाना है। ईश्वर, अल्लाह एक हैं। हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर एक ही है। एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। उसी को अल्लाह कहा जाता है, उसी को राम, वही केशव है वही करीम, वही हजरत है और वही हरि है। वह एक ही तत्व है,जिसके अलग अलग नाम रख लिए हैं और भ्रम पैदा कर दिया है। एक सोने से सब जेवर बनाए गए हैं, उनमें दो भाव कैसे हो सकते हैं। पूजा नमाज सब कहने सुनने की बातें हैं। वही महादेव हैं और वही मुहम्मद हैं। जो ब्रह्म है उसी को आदम कहना चाहिए। कोई हिन्दू कहलाता है कोई मुसलमान, लेकिन सब एक जमीन पर रहते हैं। एक वेद पढ़ता है और दूसरा खुतबा। एक मौलाना कहलाता है और दूसरा पण्डित। सब एक मिट्टी के बर्तन हैं , सिर्फ नाम अलग अलग हैं।
भाई रे दुई जगदीश कहॉ ते आया, कहु कौने भरमाया।
अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।
गहना एक कनक तें गढना, इनि मंह भाव न दूजा।
कहत सुनत को दुइं करि थापै, इक निमाज इक पूजा।।
वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा-आदम कहिये।
को हिन्दु को तुरुक कहावै, एक जिमी पर रहिये।।
बेद कितेब पढे वे कुतुबा, वे मौलाना वे पांडे।
बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भांडे।।
कबीर ने हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं माना। हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा में कोई भेद नहीं है। गुुरू ने यही उपदेश दिया है।
हिन्दू तुरुक की एक राह है सतगुरु इहै बताई।
कहै कबीर सुनो हो संतों राम न कहेउ खोदाई।।
कबीर दास का मानना था कि परमात्मा को किसी मंदिर, मस्जिद में या किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के आडम्बर की जरूरत नहीं है। यदि कोई उसे प्राप्त करने का इच्छुक है तो वह जल्दी ही मिल जाता है। वह किसी कर्मकाण्ड से नहीं मिलता। वह सच्चे मन और शुद्घ आचरण से मिलता है।
मोकों कहां ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।
''कबीर ने वेद-शास्त्रों की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को श्रेष्ठ माना है। कबीर ने धर्म की असली पहचान आचरण की शुद्घता और अनुभव ज्ञान आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और राम-नाम था जिसके निरंतर जाप करने से साधक संत मोक्ष या आत्मस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है। कबीर हिन्दू और मुसलमानों में स्थित अन्य संप्रदायों शैव मत, जोगी जंगम, सेवड़े आदि तथा शेख, मुशायकों तथा सूफियों में स्थित निरर्थक विधि-विधानों का प्रतिरोध करते हैं।"9
कबीर दास ने लोगों को बांटने वाले रिवाजों पर तीखे कटाक्ष किए हैं। भारतीय समाज में जाति-प्रथा ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके कारण समाज में ऊंच नीच का भेदभाव है। कबीर दास ने मानव मानव में कोई भेदभाव नहीं किया, वे सामाजिक श्रेष्ठता को नहीं मानते थे । उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं।
जे तू बामन बामनी जाया, तो आन बाट काहे न आया।
जे तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।
***
जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
***
जात-पात पूछे नाहि कोई, हरि का भजे सो हरि का होई
***
ऊंंचे कुल क्या जनमियां जे करणी उंफचे न होइ।
सोवन कलस सुरै भरा साधू निंद्या सोई।।
***
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चाम एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
***
काहे को कीजै पांडे छोड़त विचारा।
छोतहि ते उपजा संसारा।।
हम कत लोहू तुम कत दूध।
तुम कत बामन हम कत सूद।।
छोति-छोति करत तुमहि जाए
तो गरभ वास काहे को आए।।
कबीर दास ने जाति-पांत, बाहरी आडम्बरों का विरोध किया और हिन्दू व मुसलमानों में एकता के प्रयास किये। उन्होंने आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया और आचरण की पवित्रता को महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दू व मुसलमान की पहचान किसी कर्मकाण्ड में नहीं है, जिसका ईमान दुरुस्त है वही सच्चा हिन्दू और मुसलमान है।
सो हिन्दू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहे ईमान।
कबीर दास ने सामाजिक भेदभाव और साम्प्रदायिक एकता को बनाने के लिए प्रयास किए। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे। हिन्दू पण्डे और मुस्लिम कठमुल्लाओं के कर्मकाण्डी धर्म की उन्होंने आलोचना की। हिन्दू और मुस्लिम दोनों में उनके शिष्य बने, कबीर के विचारों में दोनों धर्मों के तत्वों का मिश्रण है। वे साम्प्रदायिक सदभाव की अनुपम कड़ी हैं।
''कबीर को विश्लेषित करने पर कहा जा सकता है कि वे अपने युगीन राजाओं, राज्याधिकारियों, सामाजिक अर्थात समाज की राजनीतिक तंत्र, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था के प्रति पूरी तरह असंतुष्ट थे। उन्होंने इन सबके विरोध में अपनी गहरी असहमति और विरोध प्रकट किया। कबीर के जीवन का ध्येय समाज में विद्रोह उत्पन्न करना नहीं था। कबीर का सामाजिक उद्देश्य समाज में समता और समानता के भाव की स्थापना था। वे एक ऐसा समाज चाहते थे जिसमें धनवान और निर्धन में गहरी असमानता न हो, जिसमें एक व्यक्ति धन संचित करे और व्यक्ति गरीब भूख मिटाने के लिए भीख मांगने के लिए बाह्य न हो। कबीर के मत में वही व्यक्ति अनुकरण करने योग्य है जो विषयादि से मुक्त हो और पुरुषार्थ द्वारा अपनी जीविका से उत्पन्न धन कमाने में संतुष्ट हो, जिससे वह अपने कुटुंब का पालन कर सके और घर आए अतिथि या साधु को भोजन कराने में समर्थ हो।"10
संदर्भ:
1-क्षिति मोहन सेन; संस्कृति संगम; पृ.-176
2-वही ; पृ.-176
3-अली सरदार जाफरी; कबीर वाणी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; पृ.-8
4-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-34
5- सावित्री सिन्हा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-5
6- सं. बलदेव वंशी;कबीर: एक पुनर्मूल्यांकन में संकलित जबरीमल पारख के लेख 'दलित चेतना के संदर्भ में कबीर का काव्य' से;आधार प्रकाशन, पंचकूला; 2006; पृ-104
7-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-बीस
8-अली सरदार जाफरी; कबीर बानी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; तीसरी आवृति 2006; पृ-34
9- सावित्री चंद्र शोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007
10- सावित्री चंद्र षोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-8
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
''पूरब दिशा हरि को बासा
पश्चिम अलह मुकामा।"1
'कबीर पोंगडा अलह राम का
सो गुरु पीर हमारा।"2
कबीर दास मध्यकालीन भारत के प्रसिद्घ संत हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया तथा ब्राह्मणवादी धार्मिक आडम्बरों की आलोचना की। इनकी प्रसिद्घ रचनाएं 'बीजक' में संकलित 'साखी', 'सबद', और 'रमैनी' हैं।
कबीरदास के जन्म के बारे में समाज में कई तरह की बातें प्रचलित हैं। माना जाता है कि कबीरदास एक विधवा ब्राह्मणी के घर पैदा हुए, जिसने लोकलाज के डर से उसे तालाब के किनारे छोड़ दिया वहां से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उसका पालन-पोषण किया। इस लोक प्रचलित मान्यता से लगता है कि कबीर का जीवन सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसके अनुसार उनका जन्म एक ब्राह्मणी के यहां हुआ और उनका लालन पालन मुसलमान परिवार में हुआ, इस तरह कबीर दोनों की परम्पराएं लिए हुए थे। कबीर की कविता और उनका जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। कबीर अपने विचारों में क्रान्तिकारी रहे, उन्होंने अपना यह स्वभाव मरते समय भी नहीं छोड़ा।3 कबीर दास का अपना कहना है कि वे बनारस में पैदा हुए और मगहर में उनकी मृत्यु हुई।
''सकल जन्म शिवपुरी गंवाया ,मरती बेर मगहर उठ धाया।"
इसमें महत्त्व की बात यह है जिस तरह कबीरदास मनुष्यों के बीच कोई भेद स्वीकार नहीं करते थे उसी प्रकार वे शहरों और जगहों की ऊंच नीच को भी स्वीकार नहीं करते थे। हिन्दुओं में मान्यता है कि बनारस में मरने वाले को मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाले को फिर से गधे का जन्म मिलता है। इस अंधविश्वास को तोडऩे के लिए ही कबीर ने बनारस शहर छोड़ दिया और हेय समझे जाने वाले शहर मगहर में आकर बस गए।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा।।
अर्थात काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हुए हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा अहसान है? इसलिए कबीर जो जन्म भर काशी में रहे और बादशाहों की व पण्डों व मुल्लाओं की संकीर्णता औैर नफरत काशी से बाहर नहीं निकाल सकी मरने से पहले अपनी इच्छा से मगहर वासी हो गए।
कबीर की मृत्यु के बारे में जो किंवदन्ती है, वह कबीर के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि है। कहा जाता है कि कबीर की मृत्यु पर हिन्दुओं और मुसलमानों में विवाद हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनके शरीर को जलायेंगे तो मुसलमान कहते थे कि उनको दफनाया जाएगा। कहा जाता है कि इस का निबटारा इस तरह हुआ कि कबीर का शरीर फूलों के ढेर में बदल गया जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बराबर बराबर बांट लिया। इस तरह दोनों के रिवाज भी पूरे हो गए ओर उनका झगड़ा भी मिट गया और मरने के बाद भी कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की परम्परा बनाई। अब मगहर में इमली के पेड़ के नीचे कबीर की समाधि है, बनारस में मठ है जो कबीर चौरा के नाम से मशहूर है।
कबीर समाज के निम्न वर्ग से ताल्लुक रखते थे, उनकी कविता का न सिर्फ कथ्य निम्न वर्ग के पक्ष में था, बल्कि उसका रूप भी नवीन था। परम्परागत तौर पर मान्य काव्यशास्त्र के सिद्घांतों को उनकी कविता चुनौती देती थी, इसलिए उनकी कविता के कवित्व का अध्ययन नहीं हुआ और उनकी कविता को 'भक्ति साधना' का 'बाई प्रोडक्ट' मान लिया गया।
''कबीर ने अपनी वाणी को 'सुरझावनहारी' कहा है, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में इहलाम या उपदेश 'सुरझावनहारे' होते हैं। कबीर के यहां ऐसा नहीं है कि सभी प्रश्नों के उत्तर तैयार हैं और कविता का उपयोग केवल शंका-समाधन या जनता के बीच प्रचार के लिए करना है। कबीर की कविता धर्मगुरु या पैगम्बर का इहलाम नहीं, संघर्षशील, संवेदनशील मनुष्य की आवाज है।
वह मनुष्य कभी अपनी उपलब्धि पर खुशी से नाच रहा है, तो कभी विरह में तड़प रहा है। कहीं वह सामाजिक अन्याय के विरुद्घ प्रचंड आक्रोश की प्रतिमूर्ति है तो कहीं विरह व्याकुल स्त्री की। कहीं वह उलटबांसी के जरिए लोगों को छेड़ रहा है, तो कहीं लोगों की जडता पर जाग और रो रहा है। कहीं वह हर बात को अनुभव और विवेक की कसौटी पर परखने की सलाह देता मित्र है तो कहीं गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण की घोषणा करता साधक। कहीं वह स्वयं नारी का रूप धरण करता विरह व्याकुल भक्त है, कहीं नारी मात्र को नर्क का द्वार ठहराता विरक्त। ऐसे 'विरोधभास' कबीर के कवित्व के अचूक प्रमाण हैं। अपने मन की बातों को मन में ही रख सपाट-सा उपदेश देते रहना कबीर को नहीं आता। वे आप तक बनी बनाई उपदेश माला नहीं पहुंचाते, बल्कि अपनी कविता का आत्मसंघर्ष पहुंचाते हैं। ऐसे आत्मसंघर्ष और विरोधभासों से हममें से कौन नहीं गुजरता? सुबह से शाम तक हमारे मन में परस्पर विरोधी कितने भाव आते हैं। समर्थ कवि भाव को सेंसर नहीं करता। यह काम उपदेशक का है। कवि की वाणी में तो आप परस्पर विरोधी अनुभूतियों को मुखरित होते सुनते हैं - उसके केन्द्रीय भाव के स्वरों में।
कबीर की कविता का केन्द्रीय भाव प्रेम, विविध और विरोधी भावदशाओं में मूर्त होता है। उनकी वाणी केवल सतत मिलन का उल्लास नहीं; वह केवल सतत विरह की वेदना भी नहीं। कबीर का प्रेम आशा-आशंका, मिलन-विरह, उल्लास-वेदना के छोरों को छूता है। कबीर की कविता जानती है: प्रेम अपने विस्तार में जीवनदाता है और गहराई में जानलेवा। प्रेम सहज संभव है और सर्वथा अप्राप्य भी। इस अनुभव से जो वंचित रहा, वह मनुष्य है कहां? वह तो साक्षात श्मशान है - 'जिहि घटि विरह न संचरै, सो घट सदा मसान।' .... संदर्भ प्रेम हो या मृत्यु, अंतस्साधना हो या सामाजिक आलोचना कबीर की कविता जबर्दस्त भावोन्मेष करती है। उसकी संवेदना प्रेम, मृत्यु और सामाजिक वास्तव - इन तीनों बुनियादी सत्यों का गहरा अनुसंधान करती है। यह अनुसंधान पाठक/श्रोता को भी भागीदार बना लेता है - क्योंकि कबीर की भाषा अमूर्त उपदेश की भाषा नहीं है। वह केवल व्यंग्य और आक्रामकता तक सीमित भाषा ही नहीं है। वह व्यंग्य के साथ-साथ सटीक निरीक्षण और व्यंजक बिंब निर्माण की भाषा भी है। कहीं कबीर की भाषा सादगी और सीधे तथ्यकथन से भावोन्मेष करते हैं तो कहीं व्यंजक बिंबो के सहारे।"4
''कबीर ने अपने युगीन समाज पर पूर्णरूपेण दृष्टिपात करके देखा कि अमीर और प्रभावशाली परिवार के लोगों का गहरा विश्वास था कि औरों पर शासन करना या उन पर प्रभुत्व जमाना उनका जन्मसिद्घ अधिकार था। वह विचार उस काल के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को समर्थन देने के लिए पैदा हुए थे और बढ़ रहे थे। कबीर क्रोधित होकर गरीबों और अमीरों के बीच गहरी असमानता और अन्तर्विरोध् को देखकर कहते हैं कि एक मोती-मुक्ताओं से सुसज्जित रेशमी कपड़े पहने हैं, धवल सज्जा पर सोते हैं और दूसरा गुदड़ी पहनता है। अमीरों के द्वारों पर नौबत बजती है, उनके द्वार पर हाथी झूमते हैं जबकि निर्धन व्यक्ति मिट्टी की टूटी झोंपड़ी में रहता है। कबीर ने शरीर की उपमा एक मिट्टी की झोंपड़ी से की है और आत्मा को निर्धन गरीब व्यक्ति माना है। गरीबों के प्रति अपनी गहरी संवेदना दिखाते हुए कबीर कहते हैं:
इब न रहूं माटी के घर में
छिनहर घर अरु झिनहर टाटी
घन गर्जत कंपै मेरी छाती
अब मैं मिट्टी से बनी झोंपड़ी में नहीं रह सकता क्योंकि यह घर बहुत कच्चा है और इसके द्वार पर दरवाजों के स्थान पर टाट का पर्दा टंगा है। जब आकाश में बादल गरजते हैं तो मेरी छाती कांपने लगती है।
कबीर द्वारा अमीरों के ऐश्वर्यशाली जीवन के चरित्रांकन से स्पष्ट होता है कि उनका मुख्य ध्येय सामंती तत्वों से मुख्यत: भू-स्वामियों को प्रताडि़त करना था। कबीर ने इस वर्ग के लोगों में स्थित घमंड का भी प्रतिकार किया। कबीर ने उच्च-कुल के लोगों को झूठा अभिमान रखने के लिए लांछित करते हुए कहा कि वे अपने आधिपत्य का डंका पीटते हैं जो उनके विध्वंस का कारण बनता है। उन्होंने उनकी तुलना ऊंचे बांस के वृक्षों से की है जो आपस में एक-दूसरे के साथ टकराकर जल जाते हैं और गरीबों की चंदन के पेड़ों के समान जिसमें सुगंध रूपी अच्छे गुण हैं जो वातावरण को सुगंधित करते हैं। सीमावर्ती राजा और भूपति ऊंची-ऊंची नस्ल के घोड़ों पर चढ़ते हैं, विशाल महलों के ऊंचे दरवाजों जिनमें से हाथी निकल सकें और विशाल महलों जिनमें बड़े-बड़े झरोखे, बगीचे और बावलियों में रहते थे जिनमें वे गर्मियों में शीतलता का अनुभव करते थे। गरीबों की दृष्टि में यही लोग चमकदार कपड़े पहनते थे और मुंह में उनके पान-सुपारी रहती थी तथा वे जी भरकर स्वादिष्ट भोजन करते थे।
उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारि खात।
कबीर के अनुसार व्यापारी वर्ग के लोग अपनी खुशहाली के लिए ऊंची दरों पर रुपया चढ़ाते थे, छल-कपट से धन जोड़ते थे और उसको जमीन में गाढ़ देते थे, अपेक्षा इसके कि उसे किसी काम में लगाएं। कबीर ने व्यापारी लोगों की तुलना उस मधुमक्खी से की जो गरीब रूपी पूफलों का रस चूस-चूस कर मधु एकत्रित करती है और फिर उसे स्वयं पी जाती है। पूरे समाज की दुर्दशा को देख कबीर ने कहा कि यह दुख, गरीबी, अज्ञानता, द्वेष और घमंड से पूरी तरह आक्रांत है।"5
''मनुष्य की समानता के पक्षधर कबीर किसी को बड़ा या छोटा नहीं मानते। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि घास की भी निंदा नहीं करनी चाहिए भले ही वह पांवों के नीचे क्यों न रहती हो क्योंकि जब वही घास उड़कर आंख में गिर जाती है तो बहुत दुख उठाना पड़ता है-
कबीर घास न नींदिए, जो पाऊं तलि होइ।
उडि़ पड़ै जे आंखि मैं, खरा दुहेला होइ।।6
कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के सच्चे सिपाही हैं। उन्होंने दोनों धर्मों को मिलाने के लिए प्रयास किए। दोनों के भेद मिटाने के लिए उन्होंने दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर करने की कोशिश की। दोनों धर्मों के पाखण्डों का विरोध किया ओर दोनों धर्मों में व्याप्त आन्तरिक एकता को सामने रखा। कबीर के इस प्रयास के मध्यकालीन भारतीय समाज पर गहरे असर पड़े। उन्होंने अपने को किसी धर्म में बांधने से इन्कार कर दिया। अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि विशुद्घ मानवीय बनाई।
हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाही।
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेले माहीं।।
कबीर दास की कविता में ब्राह्मणवादी पाखण्डों और कठमुल्लाओं पर तीखे कटाक्ष हैं। ''हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों ही के कर्मकाण्डों और बहुत सी मान्यताओं की कठोर आलोचना कबीर ने की है। ऐसी आलोचना करने वाले विचारक कई बार एक नए धर्म या पंथ की स्थापना भी करते हैं। संगठित धर्म की जो आलोचना कबीर करते थे; क्या उसका लक्ष्य भी यही था कि किसी धर्म या सम्प्रदाय की स्थापना की जाए?
कबीरपंथी तो यही मानते हैं कि कबीर ने स्वयं ही पंथ की स्थापना की थी। लेकिन इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कबीर पंथ की किसी शाखा का मूल स्वयं कबीर तक नहीं खोजा जा सकता।
कबीर की कविता से गुजरें तो स्पष्ट हो जाता है कि उस कविता का स्वर प्रचलित धर्मों की आलोचना कर अपना धर्म चलाने के इच्छुक व्यक्ति का स्वर नहीं है। कबीर हिन्दू या इस्लाम की ही आलोचना नहीं कर रहे थे। वे संगठित धर्म- रिलीजन, मजहब मात्र की आलोचना कर रहे थे। वे किसी एक या दो धर्मों की समीक्षा नहीं - संगठित धर्म की अवधारणा मात्र की समीक्षा कर रहे थे। उनकी धर्म समीक्षा केवल कर्मकाण्ड या रीति-रिवाज की आलोचना मात्र तक सीमित न होकर धर्ममात्र की मूलगामी समीक्षा है। इस मूलगामी समीक्षा का सबसे मूल्यवान पक्ष यह है कि कबीर मनुष्य की मूलभूत आध्यात्मिक पिपासा और वेदना की उपेक्षा नहीं करते। इस वेदना का अस्तित्व हम अपने अनुभव से ही जानते हैं। इसी अनुभव को कबीर कविता का रूप देते हैं। वे इस आध्यात्मिक वेदना पर धर्म के एकाधिकार को चुनौती देते हैं। उनकी कविता इस वेदना को संजोने के लिए, वैकल्पिक विधि का संकेत देती है। वह पुराने धर्म के स्थान पर नए धर्म के सामने समर्पण कर देने की आसान, लेकिन अंधी गली में फंसने की बजाए धर्मेतर अध्यात्म की उस 'दुहेली' राह पर चलने की, धर्ममात्र का विकल्प खोजने की, चुनौती स्वीकार करती है, जिस पर चलना 'नहिं कायर का काम'।
कबीर ने स्वयं को न कभी 'धर्मगुरु' कहा, न अवतार। वे स्वयं को 'पैगम्बर' या नए धर्म के संस्थापक के रूप में कहीं नहीं देखते। समस्या यह है कि बहुत से लोग यह कल्पना ही नहीं कर पाते कि आधुनिक युग से पहले भी संगठित धर्म की ऐसी आलोचना कोई कर सकता था, जिसका लक्ष्य एक ओर संगठित धर्म की स्थापना करना न हो। कल्पना की इस दरिद्रता को कबीर पर आरोपित करके यह मान लिया गया कि वे हिन्दू धर्म और इस्लाम की आलोचना इसलिए कर रहे थे ताकि नया धर्म या पंथ चला सकें। कबीर पंथ के इतिहासकारों ने भी कबीर के अपने विचारों और कबीर पंथ के दावों को गड्ड-मड्ड कर डाला। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उन्हें अपना 'निराला पंथ चलाने' को उत्सुक व्यक्ति के रूप में देखा, तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'धर्मगुरु' के रूप में।"7
कबीरदास धर्म के बाहरी आडम्बरों और दिखावों से दूर हटकर धर्म के मर्म को पहचानते थे। वे बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़कर धर्म की शिक्षाओं के पालन करने पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि सारी दुनिया पागल हो गई है। यदि सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है। हिन्दू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते मरते हैं, लेकिन सच्चाई से कोई भी परिचित नहीं है।
साधो, देखो जग बौराना।
सांची कहौ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहै मोही राम पिआरा तुरक कहैं रहमाना ।
आपस में दोऊ लडि़ लडि़ मूये, मरम न कोऊ जाना।
***
एक निरंजन अलह मेरा हिन्दू तुरुक दुहूं नाहिं मेरा
राखूं व्रत न मरहम जानां, तिसही सुमिरुं जो रहे निदाना।
पूजा करुं न निमाज गुजारुं, एक निराकार हिरदै नमसकारुं।
ना हज जाऊं न तीरथ पूजा, एक पिछांया तौ का दूजा।।
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूं मन लागा।।
''दिखावटी धर्म से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्ययुग के मनुष्य को आत्म-प्रतिष्ठा, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दिया और मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया। संतों और सूफियों के पास इतनी ताकत तो नहीं थी कि वे उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ सकते जिनका केन्द्र शाही दरबार और अमीरों के महल थे। इसलिए उन्होंने उनकी तरफ से बड़े तिरस्कार के साथ मुंह फेर लिया और संतोष धीरज का उपदेश दिया। संतोष का अर्थ वैराग्य नहीं था बल्कि बादशाहों, दरबारियों और अमीरों से विमुख होकर व्यापार और शारीरिक श्रम से रोजी कमाना था जिसका आदर्श कबीर ने पेश किया है। उस युग में व्यापार को राज-सेवा के मुकाबले में तुच्छ समझा जाता था"8
कबीर का मानना है कि परमात्मा एक है, वह कण कण में व्याप्त है। सभी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो इनमें भेद करते हैं वे झूठे हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। ईश्वर को दो मानना लोगों में भ्रम को फैलाना है। ईश्वर, अल्लाह एक हैं। हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर एक ही है। एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। उसी को अल्लाह कहा जाता है, उसी को राम, वही केशव है वही करीम, वही हजरत है और वही हरि है। वह एक ही तत्व है,जिसके अलग अलग नाम रख लिए हैं और भ्रम पैदा कर दिया है। एक सोने से सब जेवर बनाए गए हैं, उनमें दो भाव कैसे हो सकते हैं। पूजा नमाज सब कहने सुनने की बातें हैं। वही महादेव हैं और वही मुहम्मद हैं। जो ब्रह्म है उसी को आदम कहना चाहिए। कोई हिन्दू कहलाता है कोई मुसलमान, लेकिन सब एक जमीन पर रहते हैं। एक वेद पढ़ता है और दूसरा खुतबा। एक मौलाना कहलाता है और दूसरा पण्डित। सब एक मिट्टी के बर्तन हैं , सिर्फ नाम अलग अलग हैं।
भाई रे दुई जगदीश कहॉ ते आया, कहु कौने भरमाया।
अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।
गहना एक कनक तें गढना, इनि मंह भाव न दूजा।
कहत सुनत को दुइं करि थापै, इक निमाज इक पूजा।।
वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा-आदम कहिये।
को हिन्दु को तुरुक कहावै, एक जिमी पर रहिये।।
बेद कितेब पढे वे कुतुबा, वे मौलाना वे पांडे।
बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भांडे।।
कबीर ने हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं माना। हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा में कोई भेद नहीं है। गुुरू ने यही उपदेश दिया है।
हिन्दू तुरुक की एक राह है सतगुरु इहै बताई।
कहै कबीर सुनो हो संतों राम न कहेउ खोदाई।।
कबीर दास का मानना था कि परमात्मा को किसी मंदिर, मस्जिद में या किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के आडम्बर की जरूरत नहीं है। यदि कोई उसे प्राप्त करने का इच्छुक है तो वह जल्दी ही मिल जाता है। वह किसी कर्मकाण्ड से नहीं मिलता। वह सच्चे मन और शुद्घ आचरण से मिलता है।
मोकों कहां ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।
''कबीर ने वेद-शास्त्रों की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को श्रेष्ठ माना है। कबीर ने धर्म की असली पहचान आचरण की शुद्घता और अनुभव ज्ञान आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और राम-नाम था जिसके निरंतर जाप करने से साधक संत मोक्ष या आत्मस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है। कबीर हिन्दू और मुसलमानों में स्थित अन्य संप्रदायों शैव मत, जोगी जंगम, सेवड़े आदि तथा शेख, मुशायकों तथा सूफियों में स्थित निरर्थक विधि-विधानों का प्रतिरोध करते हैं।"9
कबीर दास ने लोगों को बांटने वाले रिवाजों पर तीखे कटाक्ष किए हैं। भारतीय समाज में जाति-प्रथा ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके कारण समाज में ऊंच नीच का भेदभाव है। कबीर दास ने मानव मानव में कोई भेदभाव नहीं किया, वे सामाजिक श्रेष्ठता को नहीं मानते थे । उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं।
जे तू बामन बामनी जाया, तो आन बाट काहे न आया।
जे तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।
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जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
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जात-पात पूछे नाहि कोई, हरि का भजे सो हरि का होई
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ऊंंचे कुल क्या जनमियां जे करणी उंफचे न होइ।
सोवन कलस सुरै भरा साधू निंद्या सोई।।
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एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चाम एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
***
काहे को कीजै पांडे छोड़त विचारा।
छोतहि ते उपजा संसारा।।
हम कत लोहू तुम कत दूध।
तुम कत बामन हम कत सूद।।
छोति-छोति करत तुमहि जाए
तो गरभ वास काहे को आए।।
कबीर दास ने जाति-पांत, बाहरी आडम्बरों का विरोध किया और हिन्दू व मुसलमानों में एकता के प्रयास किये। उन्होंने आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया और आचरण की पवित्रता को महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दू व मुसलमान की पहचान किसी कर्मकाण्ड में नहीं है, जिसका ईमान दुरुस्त है वही सच्चा हिन्दू और मुसलमान है।
सो हिन्दू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहे ईमान।
कबीर दास ने सामाजिक भेदभाव और साम्प्रदायिक एकता को बनाने के लिए प्रयास किए। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे। हिन्दू पण्डे और मुस्लिम कठमुल्लाओं के कर्मकाण्डी धर्म की उन्होंने आलोचना की। हिन्दू और मुस्लिम दोनों में उनके शिष्य बने, कबीर के विचारों में दोनों धर्मों के तत्वों का मिश्रण है। वे साम्प्रदायिक सदभाव की अनुपम कड़ी हैं।
''कबीर को विश्लेषित करने पर कहा जा सकता है कि वे अपने युगीन राजाओं, राज्याधिकारियों, सामाजिक अर्थात समाज की राजनीतिक तंत्र, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था के प्रति पूरी तरह असंतुष्ट थे। उन्होंने इन सबके विरोध में अपनी गहरी असहमति और विरोध प्रकट किया। कबीर के जीवन का ध्येय समाज में विद्रोह उत्पन्न करना नहीं था। कबीर का सामाजिक उद्देश्य समाज में समता और समानता के भाव की स्थापना था। वे एक ऐसा समाज चाहते थे जिसमें धनवान और निर्धन में गहरी असमानता न हो, जिसमें एक व्यक्ति धन संचित करे और व्यक्ति गरीब भूख मिटाने के लिए भीख मांगने के लिए बाह्य न हो। कबीर के मत में वही व्यक्ति अनुकरण करने योग्य है जो विषयादि से मुक्त हो और पुरुषार्थ द्वारा अपनी जीविका से उत्पन्न धन कमाने में संतुष्ट हो, जिससे वह अपने कुटुंब का पालन कर सके और घर आए अतिथि या साधु को भोजन कराने में समर्थ हो।"10
संदर्भ:
1-क्षिति मोहन सेन; संस्कृति संगम; पृ.-176
2-वही ; पृ.-176
3-अली सरदार जाफरी; कबीर वाणी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; पृ.-8
4-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-34
5- सावित्री सिन्हा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-5
6- सं. बलदेव वंशी;कबीर: एक पुनर्मूल्यांकन में संकलित जबरीमल पारख के लेख 'दलित चेतना के संदर्भ में कबीर का काव्य' से;आधार प्रकाशन, पंचकूला; 2006; पृ-104
7-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-बीस
8-अली सरदार जाफरी; कबीर बानी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; तीसरी आवृति 2006; पृ-34
9- सावित्री चंद्र शोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007
10- सावित्री चंद्र षोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-8