जन संघर्ष के बीच ललकार के कवि : ओमसिंह अशफाक
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
ओमसिंह अशफाक के 'भूकम्प में बच्चे' और 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कविताएं हमारे दौर की विदरूपताओं, विड़ंबनाओं, विसंगतियों को इस तरह उदघाटित करती है कि इस दौर की तमाम अमानवीयता सामने आ जाती है। जनकवि ओम सिंह अशफाक ने विभिन्न चित्रों के माध्यम से वर्तमान स्थितियों को उकेरा है। चलचित्र की तरह कविता व्यवस्था के अमानवीय पहलुओं को दर्शाती चलती है। ये कविताएं असल में एक इतिहास अपने में समेटे हुए है। समाज में हर रोज नई-नई घटनाएं घट रही हैं। नई घटना के बाद पिछली घटना या तो छोटी लगने लगती है या फिर वह स्मृति से गायब हो जाती है। इस तरह एक विस्मृति का दौरा है। विस्मृति की बर्फ को तोड़कर ही कुछ ऐतिहासिक नैरंतर्य में सोचा जा सकता है। भविष्य और इतिहास से कटी घटना मनुष्य को वर्तमान में ही ले आती है। मनुष्य केवल वर्तमान में नहीं जीता, केवल पशु ही वर्तमान में जीते हैं। मनुष्य को वर्तमान तक सीमित कर देना असल में उसकी मनुष्यता से ही काटना है। ये कविताएं इतिहास को अपने अंदर दर्ज करती हुई विस्मृति के खिलाफ ऐलान-ए-जंग हैं। इतिहास के इस दौर में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। किसान जिसे अन्नदाता कहा जाता है उस किसान की हालत इतनी खस्ता है कि उसी के भूखे मरने की नौबत है। कहीं से कोई आशा की किरण उसे नहीं सूझ रही है और वह अपना जीवन समाप्त करके ही इनसे निजात पाने की समझता है। सत्ताधारी नेताओं के विकास के लम्बे-चौड़े वादे और विज्ञान का तकनीकी विकास उसके किसी काम नहीं। वित्तीय पूंजी के आंकड़ों का खेल उसे कोई दिलासा नहीं दे रहे। किसान व मजदूर की यह हालत किसी प्राकृतिक विपदा के कारण नहीं हुई, बल्कि पूंजी को अधिकाधिक एकत्रित करने की होड़ के कारण हुई है।
समाज के सबसे वंचित-पीडि़त वर्ग दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार व्यवस्था के संकट की ही पहचान करवा रहे हैं। हरियाणा जैसे राज्य में जहां दलितों पर उत्पीडऩ की घटनाएं लगातार हो रही हैं। विभिन्न कारणों से दलितों पर अत्याचार हुए। कहीं गाय मारने का आरोप लगाकर पांच-पांच दलितों को मारा गया, तो कहीं एक व्यक्ति विशेष से बदला लेने के लिए दलितों की पूरी बस्ती ही जला दी गई, कहीं रस्मों-रिवाजों की रक्षा के नाम पर दलितों की बारात पर ही हमला कर दिया गया, तो कहीं उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को चुनौती मानते हुए सबक सिखाने के लिए उनके पूजा स्थल को स्वाहा कर दिया गया, कहीं अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग करने पर सामंती मानसिकता से उपजी झूठी चौधर का शिकार हुए। पहरावर, फरवाणा, हरसोला, महमदपुर, जाटू लुहारी, गोहाना, दुलीना आदि में घटी घटनाओं की पूरी श्रृंखला है जिसे ओम सिंह ने पूरी संवेदना के साथ अपनी कविताओं का विषय बनाया है। दलित 'घुट-घुट' कर जीने पर मजबूर है, असुरक्षित वातावरण में उन्हें अपनी 'जिंदगी उधारी' लगती है।
खाप पंचायतों के नाम पर समाज में प्रक्रियावादी व स्वार्थी तत्त्व एकत्रित होकर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला कर रहे हैं और कानून का रखवाला कहा जाने वाला प्रशासन मूक दर्शक ही नहीं, बल्कि अपराधियों की ओर खड़ा नजर आता है। महिलाओं पर जुल्म बढ़ रहे हैं। लड़कियों को भ्रूण में ही मारा जा रहा है। उनकी प्रजाति पर ही खतरा मंडराने लगा है। छेड़छाड़ व बलात्कार की घटनाएं इस तरह बढ़ रही हैं कि तीन महीने की बच्ची से लेकर तिरासी वर्ष की वृद्धा तक भी सुरक्षित नहीं है। बाप व ससुर से भी सुरक्षित नहीं हैं और गुरु से भी सुरक्षित नहीं हैं। अध्यापकों द्वारा यौन-शोषण की हरियाणा में ही कितनी घटनाएं सामने आईं हैं, जिनका जिक्र इस कविता में कवि ने किया है। सर्वाधिक विश्वास करने योग्य रिश्तों में इस तरह की विकृतियां सामाजिक-सांस्कृतिक व पारिवारिक ढांचे के चरमराने की सूचना है। समाज की सच्चाई बयान करने का जिम्मा लेने व स्वयं को लोकतंत्र का चौथा पाया कहने वाला मीडिया अपनी जिम्मेदारी छोड़कर उत्पीड़कों के साथ जा मिला है। जन पक्षधरता को तिलांजलि देकर धन्ना सेठों की चाकरी करने लगा है। धर्म का चोला पहने कथित बाबाओं के 'लंगार' भी असल में सांस्कृतिक व व्यवस्थागत संकट की उपज है। समाज में जितना रोष बढ़ता है उसको ठंडा करने के लिए उतनी ही अधिक मात्रा में इस निकम्मी-निठल्ली-परजीवी फौज की शासक वर्गों को आवश्यकता महसूस होन लगती है। धर्म के नाम पर पाखंड व बाहरी आडंबरों की बढ़ोत्तरी में धर्म की शिक्षाएं दब रही हैं, बल्कि पाखंड को ही धर्म के पर्याय के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। सादगी व सच्चाई की जगह भव्य दिखने वाले समारोहों और धन की चकाचौंध में आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जा रहा है। जगरातों, कीर्तनों, सत्संगों के नाम पर अंधविश्वास घर कर रहा है। धार्मिक लिबास का झूम ओढ़कर व धार्मिक शब्दावली के नीचे कथित संतों का अपराध का पूरा कारोबार फल-फूल रहा है। ओमसिंह की कविताएं समाज में हो रही सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं जिसे उन्होंने अपनी कविता में बाकायदा संदर्भ के साथ दिया है जो कविता के यथार्थ की विश्वनीयता को बढ़ावा देती है। चौतरफा संकट के जड़ की ओर इशारा करती हुई इन कविताओं के बारे में दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही लिखा है कि यह कविता ''पूंजीवादी, जातिवादी, सामंतवादी व्यवस्था की संधि को बेनकाब करती है।" ओम सिंह की कविताएं कल्पना पर नहीं , बल्कि हमारे समाज की वास्तविकता पर आधारित हैं, 'तेरा तुझको अर्पण' और 'जो लिया वही तो दिया' इन कविताओं पर लागू होता है। आजादी के बाद भारतीय शासकों विकास का जो पूंजीवादी माडल अपनाया असल में वह जनता के बहुत बड़े हिस्से की अपेक्षाओं को पूरी नहीं कर सका, लेेकिन भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीतियां अपनाकर शासक वर्ग समाज के प्रति दायित्व से ही इन्कार कर रहा है। इससे स्थिति ओर गंभीर हुई है, आबादी के बहुत बड़े हिस्से रोजगार की तलाश में अपनी जगहों को छोड़कर प्रवासी का सा जीवन बिताने पर मजबूर है, विकास के नाम पर आबादियों को उजाड़ा जा रहा है, लोगों के पास जो कुछ था उससे भी हाथ धोना पड़ रहा है। कथित विकास और सामाजिक जीवन में गहरी खाई है जो कई तरह की विकृतियों को जन्म दे रही है। यही पूरा परिदृश्य है जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के रूप में मौजूद है, इस परिदृश्य को ये कविताएं सही सही पहचानने की दृष्टि देती हैं। प्रसिद्ध दलित चिंतक कंवल भारती ने भी कहा है कि 'आजादी' के साठ साल बाद भी हमारी शासन-सत्ता न रोजी-रोटी के सवाल हल कर पायी है और न ही सामाजिक विषमता को दूर कर पायी है। नई आर्थिक नीतियों ने आम आदमी का जीवन और भी मुश्किल बना दिया है। देश में पूंजीवादी ढांचे का विकास जितनी तेजी से हो रहा है, उतनी ही गति से यह ढांचा सामंती अवशेषों को भी मजबूत करने का काम कर रहा है। एक ओर निजी क्षेत्र का चौतरफा विकास है, तो दूसरी ओर 'धार्मिक आस्थाओं' के विकास में सारे संत महात्मा और टी.वी. चैनल लगे हुए हैं जो सामाजिक और धार्मिक अन्याय से पीडि़त आमजनों को भक्ति में डुबाकर पलायनवादी बना रहे हैं। अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज जहां उठती भी है, तो वह जातिवाद और साम्प्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ जाती है। एक जन-विरोधी व्यवस्था काम कर रही है और जनहित की सारी जनतांत्रिक संस्थाएं उनके साथ खड़ी हैं।
महासंकट की इस घड़ी में 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताएं हिम्मत व होंसला देती है। निराशा में नहीं डुबोती बल्कि आशावान बनाती है। कवि की इच्छा है कि इस संसार में सभी लोग सुखी हों और यह दुनिया ही ऐसी हो जाए कि 'इस धरती को ही स्वर्ग' कहा जा सके। हालांकि यह मात्र कवि की सद्इच्छा इस रूप में बनकर जाती है कि समाज में इसकी ओर संघर्षरत मानव के जीवंत चित्र नहीं दे पाते। लेकिन महान साहित्यकार प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य मात्र पीछे चलने वाली नहीं, बल्कि मशाल लेकर आगे-आगे चलने वाली सच्चाई है। समाज को बदलने का दावा करने वाली कविता का अति-उत्साही कवि अक्सर अपने को ही बदलाव का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र मानने लग जाता है। जनता की जगह तो वह स्वयं ले लेता है और जनता के संघर्ष की जगह अपनी कविता को स्थापित करता है मानो कि कविता ने ही समाज को बदल देना है। 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' का कवि जनता को और उसके संघर्ष को स्थानापन्न नहीं करता। कवि जब कहता है कि 'दिन बरजण के आन पड़े' तो इसका अर्थ सही है कि जो कुछ चल रहा है उसको प्रभावी ढंग से रोकना पड़ेगा, लेकिन लेेखक इस मामले में जनता को ही मुख्य मानता है। जनता की सामूहिक शक्ति में ही विश्वास हैं। इसलिए उसका कहना है
'जनता एक दिन मनन करेगी!
पूर्ण-मुक्ति का जतन करेगी!
इतना-सा जो कहण पुगावें!,
मिल-बैठ के सोचें और समझावें!,
जनता का वे इकठ्ठ बनावें!
दुर्दिन ना कभी लौट के आवें!'
कवि ने जनता के संगठित होकर संघर्ष करने पर जोर दिया है। 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताओं में सच्ची घटनाओं की इतनी भरमार है कि यह यथातथ्य चित्रण भी लग सकता है। यद्यपि किसी वक्त में सच्चाई की गंभीरता की ओर संकेत करने के लिए इस तरह की कविताओं का अपना महत्त्व होता है, लेकिन ओमसिंह की कविता पर घटनावाद इस कदर हावी नहीं है कि उसे यथातथ्य या मात्र सच को व्यक्त करने वाली रचनाएं कहा जा सके। वे हमेशा सच्चाई के पीछे की सच्चाई यानि सच्चाई के कारकों और कारणों को उदघाटित करते हैं। साहित्य का सच और समाज के सच में यही गुणात्मक अंतर होता है कि साहित्य का सच हमेशा समाज के सच से आगे होता है।
ओमसिंह लोकभाषा का प्रयोग करके कविता को केवल पोथी पढ़े लोगों के शगल की चीज नहीं रहने दिया, बल्कि उनकी चेतना व मानस का हिस्सा बनाया है जिस मेहनतकश जनता के बारे में ये कविताएं हैं। मेहनतकश जनता के दर्द को व्यक्त करने वाली व उनके पक्ष को मजबूत करने वाली ऐसी कविताएं भी लिखी गईं हैं कि उनकी आने वाली दस पीढिय़ां भी सिर पटक कर मर जाएं, लेकिन उनकी समझ में न आएं। असल में लोक की ऐसी मारक व प्रभावी भाषा को वही कवि साध सकता है जिसके पास लोकजीवन की गहरी समझ हो। लोक के दुख-तकलीफ में शामिल होने व उसे दूर करने की तडफ़ के बिना तर्क व विवेक युक्त ऐसी भावना-प्रधान कविताओं की रचना करना असंभव है। ओम सिंह की कविता में जिस सहजता से लोक के पात्र आ जाते हैं वह उनके जुड़ाव की ओर ही इंगित करना है।
'ना अंटी में जब पिस्सा हो!
फिर चतरा हो, चाहे घिस्सा हो!,
'न्यूं सोचे बैठ बनवारी हो',
'जब भरतू संग न भीक्का हो'
चतरा, बनवारी, भरतु और भीक्का आदि आमजन के प्रतिनिधि चरित्र कविता में से निकल कर हमारे सामने बिल्कुल जिन्दा रूप में आ खड़े होते हैं। ये चरित्र कविता में तभी इतने जीवंत रूप में आ पाते हैं जब कवि इनकी पीड़ा से एकमएक हो और इससे बेचैन होकर उसकी हालत ऐसी हो जाए कि 'फिरे दिन कवि ठगा-ठगा और रात में रोए जगा-जगा।' जो कवि जागता है और फिर रोता है तभी वह कुछ रचनात्मक प्रदान कर सकता है। कवि की यही रचनात्मक पीड़ा जिससे गुजरकर ही वह कुछ सृजन कर पाता है, जैसे कोई स्त्री जब तक प्रसव-पीड़ा से नही' गुजरती तब तक वह बच्चे को जन्म भी नहीं दे सकती। मेेहनतकश दलित-वंचित-पीडि़त-शोषित जनता की पीड़ा के बीज से ही ओमसिंह की कविता अंकुरित होती है। 'भूकम्प में बच्चे' की भूमिका में डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ओमसिंह की कविता के बारे में सही लिखा है कि ''कविताई ओमसिंह का पेशा नहीं है, और ना ही वह उनके लिए कोई शौक या शगल है। कविताई को उन्होंने साधारण जनों के बीच से अर्जित किया है, उसे कहीं से पाया या चुराया नहीं है। इसी नाते वे कविता के आभिजात्य से अपने को बचा सके हैं। उनकी कविता में संवेदना का ताप और उष्मा है, आदमीयत के क्षरण के प्रति विक्षोभ और बेचैनी है। बेहद ईमानदार नीयत वाली उनकी कविता में तराश और परिष्कृति भले उसमें आकांक्षित हद तक न हो, वह बेधक और दोटूक है। एक बेहतर आदमी, बेहतर समाज और बेहतर दुनिया का सपना उसमें बराबर मौजूद है।"
ओम सिंह के लिए दलित-वंचित के प्रति हमदर्दी का प्रदर्शन न तो रणनीतिक राजनीति की मजबूरी है और न ही फैशन। दलितों के प्रति ओम सिंह का भावनात्मक लगाव है एक कसक है जो बार-बार कविताओं में आ जाती है। 'बंदा रिक्शा खींच रहा है', 'युवती कूड़ा बीन रही है' या फिर 'बंदा झाडू लगा रहा हो।' जहां ये कविताएं समाज के विशेष वर्ग की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं, वहीं ये पूरे परिदृश्य का उजागर करती हैं। एक कविता ही पूरी समाज-संरचना की झलक पेश कर जाती है। तमाम आधुनिक सुविधाओं से लैस व ग्रस्त शहरों में रिक्शावाले, खोमचेवाले, कूड़ा बीनने वाले व अन्य सैंकड़ों काम करने वाले लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। जो इस विकास से अपना विकास भी देखते हैं, लेकिन इस समाज के कूड़े के ढेर के अलावा उनको इसमें कुछ भी हाथ नहीं आना है। उनको तो इस व्यवस्था को बदलकर न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के संघर्ष में शामिल होकर ही कुछ हासिल हो सकता है। कवि ने मेहनतकश जनता के एकजुट संघर्ष को बदलाव का केंद्रीय सूत्र माना है, लेकिन इस बात का भी संकेत किया है कि इसके लिए चेतना व जागरूकता की आवश्यकता है जो 'भाग्य', 'किस्मत' जैसी मिथ्या चेतना को छोड़कर ही संभव है। 'बंदा जूते-चप्पल गांठ रहा है' लेकिन उसने कथित गुरु की तस्वीर लगा रखी है। गुरुओं के चक्कर से निकलकर ही वह अपने वर्ग के बारे में सोच सकता है और वर्ग-चेतना के बिना कोई आमूल बदलाव संभव नहीं है। गौर करने की बात है कि ओमसिंह अशफाक की कविता जहां किसी विशेष व्यक्ति या स्थिति पर केंद्रित है वहां सबसे मजबूत रूप में हमारे सामने प्रकट होती है। 'भूकंप में बच्चे' कविता संग्रह की 'खान मजूर' कविता का सलीम अंसारी हो या 'खूंटी पर खुदकुशी' की रामदुलारी हो। इन चित्रों के साथ व्यवस्था की सच्चाइयां उद्घाटित होती जाती हैं। गद्य में जैसे शब्द चित्र होता है कि वह पूरी तरह चेतना पर अंकित हो जाता है। कविता के चरित्र गतिशील हैं, वे क्रियाशील हैं, वे कुछ कहने में व्यस्त हैं। गतिमान चरित्रों पर ठहरकर नजर डालना कविता की उपलब्धि है। स्थिति की विडंबना व उसके अंतर्विरोध को उजागर करने वाले लोक-मुहावरों और लोक-शब्दावली के सटीक प्रयोग से कविता का प्रभाव बढ़ा है। ऐसे चित्र प्रस्तुत हो जाते हैं, कि जनजीवन जीवंत हो उठता है जैसे 'पाले में चिट्टी धरती हो', 'रो रो विधवा बैन करें', 'टुम ठेकरी-रहन धरें', 'जब सत्ता टेढ़ी नजर तणे', 'जब फाईनेंसर आंख दिखाता हो', 'बिना कुड़क करे न जाता हो', 'मुठमर्दी पे अड़ जाता हो', 'जब कर्जे नीचे घिट्टी हो', 'जब दिन में तारे दिखने लगे', 'मजदूर पे चलता गंडासा हो', 'मरती रंभाटे भरती हो', 'फिर गुड़ का स्वाद फीका हो', 'न्यूं हरे जख्म पे मिर्च लगावें', 'पूंजीवाद के पेट पर लात चले'। लोकजीवन की एक झलक प्रस्तुत करती ये पंक्तियां वास्तविकता को उद्घाटित कर जाती हैं। इन कविताओं पर विचार करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही कहा है कि 'लोकजीवन की व्यथा लोकभाषा में ही अभिव्यक्त हो सकती है, इस तथ्य को यह कविता सिद्ध करती है।' लोकभाषा की सीमाएं कहीं भी ओम सिंह की अभिव्यक्ति में बाधक नहीं बनती। यदि कहीं कोई ऐसी स्थिति आती है तो ओम सिंह कबीर की तरह 'दरेरा देकर' भाषा को अपने अनुकूल बना लेते हैं। अभिव्यक्ति के लिए भाषा की सीमाओं से जूझना और उसको लांघकर साथ ही साथ अपने पाठकों से संपर्क बनाए रखना रचनाकार की रचनाशीलता व प्रतिबद्धता को ही दर्शाता है। आमतौर पर जिस प्रेषणीयता के संकट का रोना मध्यवर्ग का कवि अक्सर रोता है ओम सिंह अशफाक की कविताओं के लिए वह संकट नहीं है। इनकी कविताओं की प्रेषणीयता पर प्रदीप कासनी ने सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ''अशफाक के छंद दुर्निवार रूप से जनता के जीवन-समर के बीचों-बीच उगतेे हैं। उनमें कबीर की तरह का प्रतिरोधी भाव है, और नजीर की तरह गहन स्वयंफूर्ति । कहे जाने के क्षण में ही उनका प्रेषण भी हो जाता है। वे जनता के जीवन की चौपाल में अपना पीढ़ा लगाते हैं और खेल-तमाशे की भाषा में युग के गंभीर संकट के रंग-रेशों को अपने सुनने वालों को अपने अंग-संग रखे-रखे सहज खोल डालते हैं।"
छंद का सहारा लेकर भी यह छंदमुक्त है। कविता का छंद भाव-जगत को कभी बाधित नहीं करता, बल्कि उसके तारतम्यता में ही इसके समस्त भाव धारा को संयोेिजत करता है व इसे कवि की लक्षित दिशा की ओर अग्रसर करने में ही इजाफा करता है। यह इस छंद के प्रयोग का कमाल ही है कि कविता सहज ही जुबान पर चढ़ जाती है। ओमसिंह की कविता का छंद ढीला-ढीला है। समाज की कुरुप वास्तविकता के इतने स्थूल-स्थूल चित्रों के लिए छंद की बारीक बनावट किसी काम की है भी नहीं। लोक धुन के साथ मिलकर कविता स्वत: ही गीत के रूप में फूट पड़ती है। अक्सर कहा जाता है कि गीत में 'कोमल कांत पदावली' का प्रयोग होता है, लेकिन समाज की सच्चाई जब इतने क्रूर रूप में कवि के सामने प्रस्तुत हो तो कोई कठोर ह्रदय का कवि ही कोमल कांत पदावली का प्रयोग कर सकता है। नरम हृदय का कवि तो कठोर कहे जाने शब्दों से ही कविता रच सकता जिसमें कि 'करोड़ों शोषित-उत्पीडि़त गरीब-मेहनतकश जनता को अपनी धमनियों में बजते रक्त की लय सुनाई पड़े।' डॉ. शिवकुमार मिश्र ने लिखा है कि ''ओम सिंह सही मायनों में जज़बात के कवि हैं, अर्थ या मरजी के कवि हैं, इल्म और नक्काशी के कवि हैं। जज़बात भी ऐसे हैं जो एक स्तर पर भले ही उनके निजी हो, जिनका गहरा रिश्ता उन करोड़ों के अपने जज़बातों से है जिनके लिए और जिनके बारे में खड़े होकर वे लिखते हैं। निष्ठा, संकल्प, ईमानदारी और वैचारिक प्रतिबद्धता, आदमी, समाज और बेहतर दुनिया का एक विजन बराबर उनके साथ रहा है। तराश और परिष्कृति से बेपरवाह उन्होंने जिनके लिए कविता लिखी है, उन्हें विश्वास है कि उन तक वह पहुंचेगी। वे जनता के, साधारण जन के कवि हैं, अवकाश भोगियों के मनोरंजन की सामग्री जुटाने वाले कवि नहीं। उनकी कविता हमेें आह्लादित भी करती है, उत्साहित भी करती है। इसके साथ साथ वह सब को विक्षुब्ध और बेचैन भी करती है। सच्चाई, दो टूक कहना उनकी कविता और कवि का स्वभाव है। ओमसिंह ने कविता एक दायित्व के तहत लिखी है, यश की बुलंदियों को छूने के लिए नहीं।"
लेखकों के आदर्श पे्रमचंद ने कहा था कि 'सच्चा साहित्य वह है जो हमें सुलाए नहीं बल्कि जगाए।' 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। ये कविताएं पाठक को राहत प्रदान नहीं करती, बल्कि बेचैन करती हैं। स्थिति की भयावहता कहीं न कहीं पाठक पर हथौड़े का वार करती है। इन कविताओं के बारे में कहा जा सकता है कि यह बहरों को सुनाने के लिए धमाके की आवाज पैदा करती है। जिनकी चेतना संवेदनशून्य हो गई है उसे झिंझोंड़ती है, जो जमाने की चाल व चरित्र को नहीं पहचान रहा उसको दृष्टि प्रदान करती है, जो संघर्ष में है उसे हिम्मत प्रदान करती है। हां, यह भी कहा जाना जरूरी है कि जो कविताओं को शास्त्रीय खोल में ही रखकर देखते हैं वे यहां जरूर निराश होंगे, जो कविता को विशुद्ध कविता ही रहने देने के वकील हैं समाज की इतनी कड़वी सच्चाई को देखकर उनका मजा अवश्य किरकिरा होगा। हो सकता है कि गुस्से में वे इसे कविता होने का प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर दे। खैर कोई इसे किसी तरह से भी देखें इस 'अन्याय गाथा' का रचयिता इससे जरूर ही संतुष्ट होगा कि उसकी कविता और पाठकों के बीच किसी तीसरे की कोई आवश्यकता नहीं। जो उसने कहना चाहा वही उसके वास्तविक पाठकों तक बिना किसी अस्पष्टता के पहुंचा।
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
ओमसिंह अशफाक के 'भूकम्प में बच्चे' और 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कविताएं हमारे दौर की विदरूपताओं, विड़ंबनाओं, विसंगतियों को इस तरह उदघाटित करती है कि इस दौर की तमाम अमानवीयता सामने आ जाती है। जनकवि ओम सिंह अशफाक ने विभिन्न चित्रों के माध्यम से वर्तमान स्थितियों को उकेरा है। चलचित्र की तरह कविता व्यवस्था के अमानवीय पहलुओं को दर्शाती चलती है। ये कविताएं असल में एक इतिहास अपने में समेटे हुए है। समाज में हर रोज नई-नई घटनाएं घट रही हैं। नई घटना के बाद पिछली घटना या तो छोटी लगने लगती है या फिर वह स्मृति से गायब हो जाती है। इस तरह एक विस्मृति का दौरा है। विस्मृति की बर्फ को तोड़कर ही कुछ ऐतिहासिक नैरंतर्य में सोचा जा सकता है। भविष्य और इतिहास से कटी घटना मनुष्य को वर्तमान में ही ले आती है। मनुष्य केवल वर्तमान में नहीं जीता, केवल पशु ही वर्तमान में जीते हैं। मनुष्य को वर्तमान तक सीमित कर देना असल में उसकी मनुष्यता से ही काटना है। ये कविताएं इतिहास को अपने अंदर दर्ज करती हुई विस्मृति के खिलाफ ऐलान-ए-जंग हैं। इतिहास के इस दौर में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। किसान जिसे अन्नदाता कहा जाता है उस किसान की हालत इतनी खस्ता है कि उसी के भूखे मरने की नौबत है। कहीं से कोई आशा की किरण उसे नहीं सूझ रही है और वह अपना जीवन समाप्त करके ही इनसे निजात पाने की समझता है। सत्ताधारी नेताओं के विकास के लम्बे-चौड़े वादे और विज्ञान का तकनीकी विकास उसके किसी काम नहीं। वित्तीय पूंजी के आंकड़ों का खेल उसे कोई दिलासा नहीं दे रहे। किसान व मजदूर की यह हालत किसी प्राकृतिक विपदा के कारण नहीं हुई, बल्कि पूंजी को अधिकाधिक एकत्रित करने की होड़ के कारण हुई है।
समाज के सबसे वंचित-पीडि़त वर्ग दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार व्यवस्था के संकट की ही पहचान करवा रहे हैं। हरियाणा जैसे राज्य में जहां दलितों पर उत्पीडऩ की घटनाएं लगातार हो रही हैं। विभिन्न कारणों से दलितों पर अत्याचार हुए। कहीं गाय मारने का आरोप लगाकर पांच-पांच दलितों को मारा गया, तो कहीं एक व्यक्ति विशेष से बदला लेने के लिए दलितों की पूरी बस्ती ही जला दी गई, कहीं रस्मों-रिवाजों की रक्षा के नाम पर दलितों की बारात पर ही हमला कर दिया गया, तो कहीं उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को चुनौती मानते हुए सबक सिखाने के लिए उनके पूजा स्थल को स्वाहा कर दिया गया, कहीं अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग करने पर सामंती मानसिकता से उपजी झूठी चौधर का शिकार हुए। पहरावर, फरवाणा, हरसोला, महमदपुर, जाटू लुहारी, गोहाना, दुलीना आदि में घटी घटनाओं की पूरी श्रृंखला है जिसे ओम सिंह ने पूरी संवेदना के साथ अपनी कविताओं का विषय बनाया है। दलित 'घुट-घुट' कर जीने पर मजबूर है, असुरक्षित वातावरण में उन्हें अपनी 'जिंदगी उधारी' लगती है।
खाप पंचायतों के नाम पर समाज में प्रक्रियावादी व स्वार्थी तत्त्व एकत्रित होकर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला कर रहे हैं और कानून का रखवाला कहा जाने वाला प्रशासन मूक दर्शक ही नहीं, बल्कि अपराधियों की ओर खड़ा नजर आता है। महिलाओं पर जुल्म बढ़ रहे हैं। लड़कियों को भ्रूण में ही मारा जा रहा है। उनकी प्रजाति पर ही खतरा मंडराने लगा है। छेड़छाड़ व बलात्कार की घटनाएं इस तरह बढ़ रही हैं कि तीन महीने की बच्ची से लेकर तिरासी वर्ष की वृद्धा तक भी सुरक्षित नहीं है। बाप व ससुर से भी सुरक्षित नहीं हैं और गुरु से भी सुरक्षित नहीं हैं। अध्यापकों द्वारा यौन-शोषण की हरियाणा में ही कितनी घटनाएं सामने आईं हैं, जिनका जिक्र इस कविता में कवि ने किया है। सर्वाधिक विश्वास करने योग्य रिश्तों में इस तरह की विकृतियां सामाजिक-सांस्कृतिक व पारिवारिक ढांचे के चरमराने की सूचना है। समाज की सच्चाई बयान करने का जिम्मा लेने व स्वयं को लोकतंत्र का चौथा पाया कहने वाला मीडिया अपनी जिम्मेदारी छोड़कर उत्पीड़कों के साथ जा मिला है। जन पक्षधरता को तिलांजलि देकर धन्ना सेठों की चाकरी करने लगा है। धर्म का चोला पहने कथित बाबाओं के 'लंगार' भी असल में सांस्कृतिक व व्यवस्थागत संकट की उपज है। समाज में जितना रोष बढ़ता है उसको ठंडा करने के लिए उतनी ही अधिक मात्रा में इस निकम्मी-निठल्ली-परजीवी फौज की शासक वर्गों को आवश्यकता महसूस होन लगती है। धर्म के नाम पर पाखंड व बाहरी आडंबरों की बढ़ोत्तरी में धर्म की शिक्षाएं दब रही हैं, बल्कि पाखंड को ही धर्म के पर्याय के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। सादगी व सच्चाई की जगह भव्य दिखने वाले समारोहों और धन की चकाचौंध में आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जा रहा है। जगरातों, कीर्तनों, सत्संगों के नाम पर अंधविश्वास घर कर रहा है। धार्मिक लिबास का झूम ओढ़कर व धार्मिक शब्दावली के नीचे कथित संतों का अपराध का पूरा कारोबार फल-फूल रहा है। ओमसिंह की कविताएं समाज में हो रही सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं जिसे उन्होंने अपनी कविता में बाकायदा संदर्भ के साथ दिया है जो कविता के यथार्थ की विश्वनीयता को बढ़ावा देती है। चौतरफा संकट के जड़ की ओर इशारा करती हुई इन कविताओं के बारे में दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही लिखा है कि यह कविता ''पूंजीवादी, जातिवादी, सामंतवादी व्यवस्था की संधि को बेनकाब करती है।" ओम सिंह की कविताएं कल्पना पर नहीं , बल्कि हमारे समाज की वास्तविकता पर आधारित हैं, 'तेरा तुझको अर्पण' और 'जो लिया वही तो दिया' इन कविताओं पर लागू होता है। आजादी के बाद भारतीय शासकों विकास का जो पूंजीवादी माडल अपनाया असल में वह जनता के बहुत बड़े हिस्से की अपेक्षाओं को पूरी नहीं कर सका, लेेकिन भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीतियां अपनाकर शासक वर्ग समाज के प्रति दायित्व से ही इन्कार कर रहा है। इससे स्थिति ओर गंभीर हुई है, आबादी के बहुत बड़े हिस्से रोजगार की तलाश में अपनी जगहों को छोड़कर प्रवासी का सा जीवन बिताने पर मजबूर है, विकास के नाम पर आबादियों को उजाड़ा जा रहा है, लोगों के पास जो कुछ था उससे भी हाथ धोना पड़ रहा है। कथित विकास और सामाजिक जीवन में गहरी खाई है जो कई तरह की विकृतियों को जन्म दे रही है। यही पूरा परिदृश्य है जो इन कविताओं की पृष्ठभूमि के रूप में मौजूद है, इस परिदृश्य को ये कविताएं सही सही पहचानने की दृष्टि देती हैं। प्रसिद्ध दलित चिंतक कंवल भारती ने भी कहा है कि 'आजादी' के साठ साल बाद भी हमारी शासन-सत्ता न रोजी-रोटी के सवाल हल कर पायी है और न ही सामाजिक विषमता को दूर कर पायी है। नई आर्थिक नीतियों ने आम आदमी का जीवन और भी मुश्किल बना दिया है। देश में पूंजीवादी ढांचे का विकास जितनी तेजी से हो रहा है, उतनी ही गति से यह ढांचा सामंती अवशेषों को भी मजबूत करने का काम कर रहा है। एक ओर निजी क्षेत्र का चौतरफा विकास है, तो दूसरी ओर 'धार्मिक आस्थाओं' के विकास में सारे संत महात्मा और टी.वी. चैनल लगे हुए हैं जो सामाजिक और धार्मिक अन्याय से पीडि़त आमजनों को भक्ति में डुबाकर पलायनवादी बना रहे हैं। अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज जहां उठती भी है, तो वह जातिवाद और साम्प्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ जाती है। एक जन-विरोधी व्यवस्था काम कर रही है और जनहित की सारी जनतांत्रिक संस्थाएं उनके साथ खड़ी हैं।
महासंकट की इस घड़ी में 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताएं हिम्मत व होंसला देती है। निराशा में नहीं डुबोती बल्कि आशावान बनाती है। कवि की इच्छा है कि इस संसार में सभी लोग सुखी हों और यह दुनिया ही ऐसी हो जाए कि 'इस धरती को ही स्वर्ग' कहा जा सके। हालांकि यह मात्र कवि की सद्इच्छा इस रूप में बनकर जाती है कि समाज में इसकी ओर संघर्षरत मानव के जीवंत चित्र नहीं दे पाते। लेकिन महान साहित्यकार प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य मात्र पीछे चलने वाली नहीं, बल्कि मशाल लेकर आगे-आगे चलने वाली सच्चाई है। समाज को बदलने का दावा करने वाली कविता का अति-उत्साही कवि अक्सर अपने को ही बदलाव का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र मानने लग जाता है। जनता की जगह तो वह स्वयं ले लेता है और जनता के संघर्ष की जगह अपनी कविता को स्थापित करता है मानो कि कविता ने ही समाज को बदल देना है। 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' का कवि जनता को और उसके संघर्ष को स्थानापन्न नहीं करता। कवि जब कहता है कि 'दिन बरजण के आन पड़े' तो इसका अर्थ सही है कि जो कुछ चल रहा है उसको प्रभावी ढंग से रोकना पड़ेगा, लेकिन लेेखक इस मामले में जनता को ही मुख्य मानता है। जनता की सामूहिक शक्ति में ही विश्वास हैं। इसलिए उसका कहना है
'जनता एक दिन मनन करेगी!
पूर्ण-मुक्ति का जतन करेगी!
इतना-सा जो कहण पुगावें!,
मिल-बैठ के सोचें और समझावें!,
जनता का वे इकठ्ठ बनावें!
दुर्दिन ना कभी लौट के आवें!'
कवि ने जनता के संगठित होकर संघर्ष करने पर जोर दिया है। 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताओं में सच्ची घटनाओं की इतनी भरमार है कि यह यथातथ्य चित्रण भी लग सकता है। यद्यपि किसी वक्त में सच्चाई की गंभीरता की ओर संकेत करने के लिए इस तरह की कविताओं का अपना महत्त्व होता है, लेकिन ओमसिंह की कविता पर घटनावाद इस कदर हावी नहीं है कि उसे यथातथ्य या मात्र सच को व्यक्त करने वाली रचनाएं कहा जा सके। वे हमेशा सच्चाई के पीछे की सच्चाई यानि सच्चाई के कारकों और कारणों को उदघाटित करते हैं। साहित्य का सच और समाज के सच में यही गुणात्मक अंतर होता है कि साहित्य का सच हमेशा समाज के सच से आगे होता है।
ओमसिंह लोकभाषा का प्रयोग करके कविता को केवल पोथी पढ़े लोगों के शगल की चीज नहीं रहने दिया, बल्कि उनकी चेतना व मानस का हिस्सा बनाया है जिस मेहनतकश जनता के बारे में ये कविताएं हैं। मेहनतकश जनता के दर्द को व्यक्त करने वाली व उनके पक्ष को मजबूत करने वाली ऐसी कविताएं भी लिखी गईं हैं कि उनकी आने वाली दस पीढिय़ां भी सिर पटक कर मर जाएं, लेकिन उनकी समझ में न आएं। असल में लोक की ऐसी मारक व प्रभावी भाषा को वही कवि साध सकता है जिसके पास लोकजीवन की गहरी समझ हो। लोक के दुख-तकलीफ में शामिल होने व उसे दूर करने की तडफ़ के बिना तर्क व विवेक युक्त ऐसी भावना-प्रधान कविताओं की रचना करना असंभव है। ओम सिंह की कविता में जिस सहजता से लोक के पात्र आ जाते हैं वह उनके जुड़ाव की ओर ही इंगित करना है।
'ना अंटी में जब पिस्सा हो!
फिर चतरा हो, चाहे घिस्सा हो!,
'न्यूं सोचे बैठ बनवारी हो',
'जब भरतू संग न भीक्का हो'
चतरा, बनवारी, भरतु और भीक्का आदि आमजन के प्रतिनिधि चरित्र कविता में से निकल कर हमारे सामने बिल्कुल जिन्दा रूप में आ खड़े होते हैं। ये चरित्र कविता में तभी इतने जीवंत रूप में आ पाते हैं जब कवि इनकी पीड़ा से एकमएक हो और इससे बेचैन होकर उसकी हालत ऐसी हो जाए कि 'फिरे दिन कवि ठगा-ठगा और रात में रोए जगा-जगा।' जो कवि जागता है और फिर रोता है तभी वह कुछ रचनात्मक प्रदान कर सकता है। कवि की यही रचनात्मक पीड़ा जिससे गुजरकर ही वह कुछ सृजन कर पाता है, जैसे कोई स्त्री जब तक प्रसव-पीड़ा से नही' गुजरती तब तक वह बच्चे को जन्म भी नहीं दे सकती। मेेहनतकश दलित-वंचित-पीडि़त-शोषित जनता की पीड़ा के बीज से ही ओमसिंह की कविता अंकुरित होती है। 'भूकम्प में बच्चे' की भूमिका में डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ओमसिंह की कविता के बारे में सही लिखा है कि ''कविताई ओमसिंह का पेशा नहीं है, और ना ही वह उनके लिए कोई शौक या शगल है। कविताई को उन्होंने साधारण जनों के बीच से अर्जित किया है, उसे कहीं से पाया या चुराया नहीं है। इसी नाते वे कविता के आभिजात्य से अपने को बचा सके हैं। उनकी कविता में संवेदना का ताप और उष्मा है, आदमीयत के क्षरण के प्रति विक्षोभ और बेचैनी है। बेहद ईमानदार नीयत वाली उनकी कविता में तराश और परिष्कृति भले उसमें आकांक्षित हद तक न हो, वह बेधक और दोटूक है। एक बेहतर आदमी, बेहतर समाज और बेहतर दुनिया का सपना उसमें बराबर मौजूद है।"
ओम सिंह के लिए दलित-वंचित के प्रति हमदर्दी का प्रदर्शन न तो रणनीतिक राजनीति की मजबूरी है और न ही फैशन। दलितों के प्रति ओम सिंह का भावनात्मक लगाव है एक कसक है जो बार-बार कविताओं में आ जाती है। 'बंदा रिक्शा खींच रहा है', 'युवती कूड़ा बीन रही है' या फिर 'बंदा झाडू लगा रहा हो।' जहां ये कविताएं समाज के विशेष वर्ग की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं, वहीं ये पूरे परिदृश्य का उजागर करती हैं। एक कविता ही पूरी समाज-संरचना की झलक पेश कर जाती है। तमाम आधुनिक सुविधाओं से लैस व ग्रस्त शहरों में रिक्शावाले, खोमचेवाले, कूड़ा बीनने वाले व अन्य सैंकड़ों काम करने वाले लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। जो इस विकास से अपना विकास भी देखते हैं, लेकिन इस समाज के कूड़े के ढेर के अलावा उनको इसमें कुछ भी हाथ नहीं आना है। उनको तो इस व्यवस्था को बदलकर न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के संघर्ष में शामिल होकर ही कुछ हासिल हो सकता है। कवि ने मेहनतकश जनता के एकजुट संघर्ष को बदलाव का केंद्रीय सूत्र माना है, लेकिन इस बात का भी संकेत किया है कि इसके लिए चेतना व जागरूकता की आवश्यकता है जो 'भाग्य', 'किस्मत' जैसी मिथ्या चेतना को छोड़कर ही संभव है। 'बंदा जूते-चप्पल गांठ रहा है' लेकिन उसने कथित गुरु की तस्वीर लगा रखी है। गुरुओं के चक्कर से निकलकर ही वह अपने वर्ग के बारे में सोच सकता है और वर्ग-चेतना के बिना कोई आमूल बदलाव संभव नहीं है। गौर करने की बात है कि ओमसिंह अशफाक की कविता जहां किसी विशेष व्यक्ति या स्थिति पर केंद्रित है वहां सबसे मजबूत रूप में हमारे सामने प्रकट होती है। 'भूकंप में बच्चे' कविता संग्रह की 'खान मजूर' कविता का सलीम अंसारी हो या 'खूंटी पर खुदकुशी' की रामदुलारी हो। इन चित्रों के साथ व्यवस्था की सच्चाइयां उद्घाटित होती जाती हैं। गद्य में जैसे शब्द चित्र होता है कि वह पूरी तरह चेतना पर अंकित हो जाता है। कविता के चरित्र गतिशील हैं, वे क्रियाशील हैं, वे कुछ कहने में व्यस्त हैं। गतिमान चरित्रों पर ठहरकर नजर डालना कविता की उपलब्धि है। स्थिति की विडंबना व उसके अंतर्विरोध को उजागर करने वाले लोक-मुहावरों और लोक-शब्दावली के सटीक प्रयोग से कविता का प्रभाव बढ़ा है। ऐसे चित्र प्रस्तुत हो जाते हैं, कि जनजीवन जीवंत हो उठता है जैसे 'पाले में चिट्टी धरती हो', 'रो रो विधवा बैन करें', 'टुम ठेकरी-रहन धरें', 'जब सत्ता टेढ़ी नजर तणे', 'जब फाईनेंसर आंख दिखाता हो', 'बिना कुड़क करे न जाता हो', 'मुठमर्दी पे अड़ जाता हो', 'जब कर्जे नीचे घिट्टी हो', 'जब दिन में तारे दिखने लगे', 'मजदूर पे चलता गंडासा हो', 'मरती रंभाटे भरती हो', 'फिर गुड़ का स्वाद फीका हो', 'न्यूं हरे जख्म पे मिर्च लगावें', 'पूंजीवाद के पेट पर लात चले'। लोकजीवन की एक झलक प्रस्तुत करती ये पंक्तियां वास्तविकता को उद्घाटित कर जाती हैं। इन कविताओं पर विचार करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही कहा है कि 'लोकजीवन की व्यथा लोकभाषा में ही अभिव्यक्त हो सकती है, इस तथ्य को यह कविता सिद्ध करती है।' लोकभाषा की सीमाएं कहीं भी ओम सिंह की अभिव्यक्ति में बाधक नहीं बनती। यदि कहीं कोई ऐसी स्थिति आती है तो ओम सिंह कबीर की तरह 'दरेरा देकर' भाषा को अपने अनुकूल बना लेते हैं। अभिव्यक्ति के लिए भाषा की सीमाओं से जूझना और उसको लांघकर साथ ही साथ अपने पाठकों से संपर्क बनाए रखना रचनाकार की रचनाशीलता व प्रतिबद्धता को ही दर्शाता है। आमतौर पर जिस प्रेषणीयता के संकट का रोना मध्यवर्ग का कवि अक्सर रोता है ओम सिंह अशफाक की कविताओं के लिए वह संकट नहीं है। इनकी कविताओं की प्रेषणीयता पर प्रदीप कासनी ने सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ''अशफाक के छंद दुर्निवार रूप से जनता के जीवन-समर के बीचों-बीच उगतेे हैं। उनमें कबीर की तरह का प्रतिरोधी भाव है, और नजीर की तरह गहन स्वयंफूर्ति । कहे जाने के क्षण में ही उनका प्रेषण भी हो जाता है। वे जनता के जीवन की चौपाल में अपना पीढ़ा लगाते हैं और खेल-तमाशे की भाषा में युग के गंभीर संकट के रंग-रेशों को अपने सुनने वालों को अपने अंग-संग रखे-रखे सहज खोल डालते हैं।"
छंद का सहारा लेकर भी यह छंदमुक्त है। कविता का छंद भाव-जगत को कभी बाधित नहीं करता, बल्कि उसके तारतम्यता में ही इसके समस्त भाव धारा को संयोेिजत करता है व इसे कवि की लक्षित दिशा की ओर अग्रसर करने में ही इजाफा करता है। यह इस छंद के प्रयोग का कमाल ही है कि कविता सहज ही जुबान पर चढ़ जाती है। ओमसिंह की कविता का छंद ढीला-ढीला है। समाज की कुरुप वास्तविकता के इतने स्थूल-स्थूल चित्रों के लिए छंद की बारीक बनावट किसी काम की है भी नहीं। लोक धुन के साथ मिलकर कविता स्वत: ही गीत के रूप में फूट पड़ती है। अक्सर कहा जाता है कि गीत में 'कोमल कांत पदावली' का प्रयोग होता है, लेकिन समाज की सच्चाई जब इतने क्रूर रूप में कवि के सामने प्रस्तुत हो तो कोई कठोर ह्रदय का कवि ही कोमल कांत पदावली का प्रयोग कर सकता है। नरम हृदय का कवि तो कठोर कहे जाने शब्दों से ही कविता रच सकता जिसमें कि 'करोड़ों शोषित-उत्पीडि़त गरीब-मेहनतकश जनता को अपनी धमनियों में बजते रक्त की लय सुनाई पड़े।' डॉ. शिवकुमार मिश्र ने लिखा है कि ''ओम सिंह सही मायनों में जज़बात के कवि हैं, अर्थ या मरजी के कवि हैं, इल्म और नक्काशी के कवि हैं। जज़बात भी ऐसे हैं जो एक स्तर पर भले ही उनके निजी हो, जिनका गहरा रिश्ता उन करोड़ों के अपने जज़बातों से है जिनके लिए और जिनके बारे में खड़े होकर वे लिखते हैं। निष्ठा, संकल्प, ईमानदारी और वैचारिक प्रतिबद्धता, आदमी, समाज और बेहतर दुनिया का एक विजन बराबर उनके साथ रहा है। तराश और परिष्कृति से बेपरवाह उन्होंने जिनके लिए कविता लिखी है, उन्हें विश्वास है कि उन तक वह पहुंचेगी। वे जनता के, साधारण जन के कवि हैं, अवकाश भोगियों के मनोरंजन की सामग्री जुटाने वाले कवि नहीं। उनकी कविता हमेें आह्लादित भी करती है, उत्साहित भी करती है। इसके साथ साथ वह सब को विक्षुब्ध और बेचैन भी करती है। सच्चाई, दो टूक कहना उनकी कविता और कवि का स्वभाव है। ओमसिंह ने कविता एक दायित्व के तहत लिखी है, यश की बुलंदियों को छूने के लिए नहीं।"
लेखकों के आदर्श पे्रमचंद ने कहा था कि 'सच्चा साहित्य वह है जो हमें सुलाए नहीं बल्कि जगाए।' 'जब इंसाफ कहीं न होता हो' की कविताएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। ये कविताएं पाठक को राहत प्रदान नहीं करती, बल्कि बेचैन करती हैं। स्थिति की भयावहता कहीं न कहीं पाठक पर हथौड़े का वार करती है। इन कविताओं के बारे में कहा जा सकता है कि यह बहरों को सुनाने के लिए धमाके की आवाज पैदा करती है। जिनकी चेतना संवेदनशून्य हो गई है उसे झिंझोंड़ती है, जो जमाने की चाल व चरित्र को नहीं पहचान रहा उसको दृष्टि प्रदान करती है, जो संघर्ष में है उसे हिम्मत प्रदान करती है। हां, यह भी कहा जाना जरूरी है कि जो कविताओं को शास्त्रीय खोल में ही रखकर देखते हैं वे यहां जरूर निराश होंगे, जो कविता को विशुद्ध कविता ही रहने देने के वकील हैं समाज की इतनी कड़वी सच्चाई को देखकर उनका मजा अवश्य किरकिरा होगा। हो सकता है कि गुस्से में वे इसे कविता होने का प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर दे। खैर कोई इसे किसी तरह से भी देखें इस 'अन्याय गाथा' का रचयिता इससे जरूर ही संतुष्ट होगा कि उसकी कविता और पाठकों के बीच किसी तीसरे की कोई आवश्यकता नहीं। जो उसने कहना चाहा वही उसके वास्तविक पाठकों तक बिना किसी अस्पष्टता के पहुंचा।