अपने समय के जरुरी 'सवाल' उठाती कविताएँ

अपने समय के जरुरी 'सवाल' उठाती कविताएँ : सुशीला बहबलपुर, सरोज पूर्णमुखी, सुमन और संतोष वाल्मीकि
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

हरियाणा के हिसार जिले के बहबलपुर गांव की चार नव कवयित्रियों का 'सवाल' कविता-संग्रह साहित्य जगत के लिए शुभ समाचार है। जब यह कविता संग्रह प्रकाशित हुआ तो कई तरह की प्रतिक्रियाएं सुनने को मिली। किसी ने इसे जल्दबाजी कहा, किसी ने युवतियों के साहस की प्रशंसा की, किसी ने आशीर्वचन की मुद्रा में शुभ कामनाएं दी। लेकिन इस सब में जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात दबकर रह गई वह थी - इन कविताओं पर समीक्षात्मक बातचीत व इन रचनाओं की शक्ति व सीमाओं पर विचार-विमर्श। न केवल हिन्दी में, बल्कि तमाम भारतीय साहित्य में ही एक अजीब किस्म की प्रवृति मौजूद है जिसे इन नव रचनाकारों ने तोड़ा है। भारतीय साहित्यकार यह तो चाहता है कि उसकी रचनाओं के अधिकाधिक पाठक और खरीददार हों और ऐसा न होने पर वह अक्सर शिकायत करता हुआ भी पाया जाता है। लेकिन यह भी सही है कि इसके लिए वह कुछ प्रयास नहीं करता, इस काम को या तो वह प्रकाशक के हवाले कर देता है या फिर इसे 'हीनकर्म' ही मानता है। विदेशों में यह परम्परा है कि रचनाकार अपनी रचनाओं का परिचय करवाते हुए अपनी पुस्तकों को बेचता है। भारत में भी चित्रकार-मूर्तिकार अपनी कृतियों के पास खड़े होकर उनका परिचय करवाता है। 'सवाल''कविता की कवयित्रियां इस 'छवि' से बाहर निकली हैं। कविता लिख लेने मात्र से संतोष न करके उन्हें पाठकों तक पहुंचाने के लिए रचनाओं का परिचय देते हुए पाया। कविता को पाठकों से परिचय देने की उत्कट इच्छा इनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
'सवाल' कविता-संग्रह में सुशीला बहबलपुर, सरोज पूर्णमुखी, सुमन और संतोष वाल्मीकि की कविताएं शामिल हैं। चारों कवयित्रियों के अनुभव की भावभूमि में, विचार-दृष्टि में और रचनाओं की विषयवस्तु में एक समानता है और अनुभव के अहसास में और उसके प्रस्तुति में एक विशिष्टता है। इस संग्रह की कविताओं को मुख्यत: तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहली श्रेणी में उन कविताओं को रखा जा सकता है जिनमें नव रचनाकार अपने संकल्पों-आदर्शों को व्यक्त करता है। जब नव रचनाकार रचना-जगत में कदम रखता है तो समाज के अन्तर्विरोधों, टकराहटों, असंगतियों को पहचानने की प्रक्रिया से गुजरता है और इसी दौरान अपने लेखन की दिशा तय करता है। अपनी दिशा तय करने के लिए तथा अपने निश्चय को स्पष्ट करने के लिए बार-बार अपने अन्तर्मन को खंगालता-टटोलता है, जितना इस प्रक्रिया में शामिल होता जाता है उतना ही अपने पैरों के नीचे की जमीन ठोस करता जाता है। इस आत्मसंघर्ष को रचनाकार अपनी रचनाओं में अवश्य अभिव्यक्त करता है। 'सवाल' संग्रह की कवयित्रियां भी इस संघर्ष से गुजरी हैं जो सुशीला बहबलपुर की 'संघर्ष', 'सवाल', 'मुश्किल', 'पहलू' कविता में सुमन की 'मुकाम', 'क्षितिज' कविता में और संतोष वाल्मीकि की 'नव इच्छा','अपना पथ', 'संस्कार' व 'नई किरण' कविता में अभिव्यक्त हुआ है।
'सवाल' संग्रह की कवयित्रियां अपने रचनात्मक कर्म को आम जन के संघर्ष के साथ जोडऩा चाहती हैं। सुशीला बहबलपुर की 'संघर्ष' कविता इस संकल्प को सही शब्दों में व्यक्त करती है कि
मैं संघर्ष से सटकर चलना चाहती हूं
संघर्ष की राह पर चलना सीख
मैं खुद संघर्ष बन जाती हूं
समाज में संघर्षरत विभिन्न व परस्पर विरोधी सामाजिक शक्तियों को पहचानकर अपनी अभिव्यक्ति को इतनी प्रभावशाली बनाने की प्रबल इच्छा कि
जो हलचल मचा दे
इस ब्रह्माण्ड में
मजबूर कर दे जो
इन्सां को सोचने पर
जो छू जाए हर इन्सां को
दिल की गहराइयों तक
नव रचनाकार के लिए महत्त्वपूर्ण है। नव रचनाकार को अपने रचनात्मक संघर्ष के लिए कोई दिशा चुननी ही पड़ती है। इस चयन पर ही सारा दारोमदार है। सुमन की 'क्षितिज' कविता महत्त्वपूर्ण है कि
अब सोचना है, मुझे
अपनाना होगा कौन सा मार्ग
पर अपनाऊंगी उसी
क्षितिज को
जिस पर टिकी हैं उत्पीडितों
की उम्मीदें
क्या मैं दे सकती हूं
उनकी इच्छा को उत्कृष्टता?
या दे सकती हूं उनके
विचार को आकार?
क्या लड़ सकती हूं
दरिद्रता के खिलाफ?
दिखाना होगा उन्हें
जनवाद का चिराग
जिसकी चाहत है मुझे?
संतोष वाल्मीकि 'नई किरण' कविता में अपनी प्रतिबद्धता को बहुत स्पष्ट शब्दों में उजागर करती है कि
हमें तो वही करना है जो! समाज को
उन दलितों को
पीडि़त स्त्रियों को
भटके मजदूरों को
एक नई किरण प्रदान करेगा
'सवाल' कविता की कवयित्रियों के सामने अपनी कविता के उद्देश्य एकदम स्पष्ट हैं। अपने रचनाकर्म के प्रति आशावान हैं कि यह संघर्षशील मेहनतकश वर्ग के संघर्ष में अवश्य मददगार होगा। रेखांकित करने योग्य बात यह है कि कोरे आशावाद और बड़बोलेपन की यहां कोई जगह नहीं है। प्रगतिशील-मूल्यों को स्थापित करने के संघर्ष में रचनाकार स्वयं शामिल हैं, समाज के बदलाव को बहुत निकट से देख रही हैं। परिवर्तन की आशा की ठोस जमीन तलाशने के लिए ही ये रचनाकार अपने आप से 'सवाल' करते हैं,अपने 'अन्तर्मन को टटोलते हैं' अपने 'मुकाम' पाने के लिए 'अपना पथ' तलाशते हैं। इस प्रक्रिया में कोई अतिरिक्त भावनात्मक जोश नहीं है बल्कि समाज की विडम्बनाओं, अन्तर्विरोधें, विसंगतियों-असंगतियों को जानने-समझने की गम्भीर जद्दोजहद है जो इन नव रचनाकारों की प्रौढता को दर्शाता है।
'सवाल' की कविताओं के केन्द्र में मेहनतकश वर्ग है, मध्यवर्गीय जीवन के पहलुओं से यह बची हुई हैं। हिन्दी कविता मध्यवर्ग से दबी रही है, यहां तक कि प्रगतिशील कही जाने वाली भी अधिकांश कविता मध्यवर्ग के ढुलमुलपन व असमंजस की स्थितियों को, उसके समझौतापरस्त रूख पर कटाक्ष करने व इस वर्ग को अपनी क्रांतिकारी भूमिका की याद दिलाने को ही संबोधित है। ग्रामीण व मेहनतकश शोषित वर्ग पर कविता लिखने का खतरा इन नव रचनाकारों ने इस रूप में उठाया है कि जिस भी कवि ने इस वर्ग को अपनी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु बनाया वह कवि जनता में तो लोकप्रिय हुआ, लेकिन मध्यवर्गीता से ग्रस्त समीक्षकों ने उनकी उपेक्षा ही की फिर चाहे वे शील हों या भवानीप्रसाद मिश्र।
सुशीला बहबलपुर की 'संवेदना', 'नीड़', 'घुलता बचपन', 'आधुनिकता', 'अभिशाप', 'बदनुमा हालात' कविता में सुमन की 'लुप्त बचपन', 'स्वप्न' कविता में तथा संतोष वाल्मीकि की 'आम इन्सान', 'चिंता', 'उन्नति या अवनति' में बहुत ही विश्वसनीय चित्र देखे जा सकते हैं। पूंजी-प्रधान वर्ग-विभक्त समाज-व्यवस्था में एक वर्ग के लिए तो अपने अस्तित्व का ही संकट है, पैदा होते ही जिन्दा रहने का संघर्ष शुरू हो जाता है दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी है जिसके पास बेहिसाब दौलत है। इस व्यवस्था में अधिकांश आबादी के सपने बिखरकर रह जाते हैं। 'बदनुमा हालात' में किसी का बुढापा खो जाता है और अच्छा भला व्यक्ति भिखारी में तब्दील हो जाता है। 'बदनुमा हालात' भिखारी के होने भर का ही बयान नहीं करती,बल्कि उसके भिखारी बनने के पीछे के कारणों को भी उद्घाटित करती है कि पूंजीवादी शोषणकारी व्यवस्था तब तक व्यक्ति का शोषण करती है जब तक कि उसे पूरी तरह न निचोड़ ले। ज्यों ही वह उसके काम का नहीं रहता उसे भिखारी बनने पर मजबूर कर देती है। शोषण की यह व्यवस्था कहीं मानव को बुढापे के बोझ से दबा देती है तो कहीं 'बाल मजूर' का 'घुलता बचपन' अभावों के चलते कहीं चाय की दुकानों पर, ढाबों पर, घरों में काम करने पर विवश है। अपना जीवन ही 'अभिशाप' लगने लगता है। पूंजीवाद की घोर लूट की वजह से बच्चे भूखे ही सो जाते हैं, 'नीड़' का सपना भी पूरा नहीं होता। सम्पन्नों को देखकर उसके मन में भी आता है कि उसके पास भी 'गाड़ी', 'लजीज खाना','एयर कंडीशन' हो, लेकिन वह समझ नहीं पाता कि दिन-रात मेहनत करने के बाद भी आखिर उसे अभावमय जीवन क्यों जीना पड़ता है। पूंजीवादी-व्यवस्था की लूट को वह समझ ही नहीं पाता और अत्यधिक मेहनत करने लगता है। उसे शायद यह लगता है कि वह अधिक मेहनत करके ऐशो-आराम के साधन जुटा सकता है। लेकिन कवयित्री ने सही पहचाना है कि
'काश! कर पाता वह अधिक विचार
उस पर हो रहे अन्याय पर। न होता, आज कोई बेघर
न सोना पड़ता किसी को भूखे पेट
शायद उनका भी घोंसला होता
किसी सेक्टर या स्टेट में।
सरोज पूर्णमुखी की कविताएं के चित्र एक स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। 'नई आशा और नई दिशा का मिर्च बेचता बूढा पूंजीवादी-व्यवस्था में बदलते सम्बन्धें की त्रसदी को व्यक्त करता है, उसका 'दर्द' घर-परिवार के बारे में पूछे जाने पर बुड़बुड़ाने में निकलता है
घर में कौन-कौन हैं?
आवेश में
झोला उठाया
बुड़बुड़ाया
और चलता बना
ऐसा मैने पूछ लिया
पीड़ा का अहसास
मुझे भी हुआ।
स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं को कविताओं में व्यक्त करते हुए उनकी सामाजिक स्थिति को व दोहरे-तिहरे शोषण को व्यक्त किया है। सुशीला बहबलपुर की 'दर्पण', 'जमाने की चाल' कविता को सरोज पूर्णमुखी की 'काण्ड', 'खम्भे', 'मोटर साईकिल वाला भिखारी, 'जन्मसिद्ध अधिकार' कविता को सुमन की 'सही रास्ता, 'सवाल, डगमगाता आत्मविश्वास', आधुनिक संस्कृति' कविता को और संतोष वाल्मीकि की 'एक विधवा', 'विडम्बना', 'मैं लड़की हूं' कविता में पितृसत्तात्मक विचारधारा के रूपों को चित्रित किया गया है। पुरूष-प्रधान समाज में स्त्रियों के लिए पुरूषों ने जो आचार संहिता बनाई है, उसमें स्त्रियों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं है। स्त्री को स्वतन्त्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, यदि कोई स्त्री ऐसा करती है तो उसे सामान्य घटना के रूप में नहीं लिया जाता, बल्कि 'काण्ड' की तरह लिया जाता है और ऐसी साहसी स्त्री का मनोबल तोडऩे के लिए खिल्ली उड़ाकर उसका अपमान किया जाता है।
परिवार स्त्री शोषण की मुख्य जगह है, कन्या-भ्रूण-हत्या व दहेज-हत्या जैसे जघन्य कृत्य परिवार के लोग ही करते हैं। इन अपराधें में शामिल होकर भी वे 'भद्रपुरूष', 'खानदानी' 'सुसंस्कृत' व 'इज्जतदार' बने रहते हैं। पितृसत्ता की स्त्री-विरोधी विचारधारा व संस्कार स्त्री के प्रति शोषण पर पर्दा डाल देना 'जमाने की चाल' ही बन गया है।
छोटी बच्ची का बलात्कारी भी
शामिल हो परिवार में
करवाता है पोस्ट मार्टम
नहीं रहे रिश्ते-नाते परिवारों में
उन्हें झुठला दिया गैर समझकर
रिश्तों की आड़ में खेल खेलने वाले भी
खड़े देते हैं दिखाई
सभ्य समाज में।'
सुरक्षा के नाम पर लगाए गए बंधन स्त्री के विकास के लिए सबसे अधिक बाधक है। रक्षा के नाम पर लड़की को पंगु बना दिया है। उसकी रक्षा की जिम्मेवारी पुरूष ने अपने ऊपर ले रखी है और इसी से उसके अन्दर मौजूद स्वरक्षा के नैसर्गिक गुण समाप्त हो जाते हैं। त्यौहारों और उत्सवों के माध्यम से पितृसत्ता की विचारधारा संस्कारों में घुस जाती है। यह इतना सहज ढंग से होता है कि स्त्री को भी इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं नजर आता। सरोज पूर्णमुखी की कविता इस प्रश्न को सही ही उठाती है कि जब तक ये 'खम्भे' नहीं गिरेंगें तब तक स्त्री की मुक्ति संभव नहीं है।
आखिर कब तक?
ये खम्भे मेरी रक्षा करेंगे
बनी रहूंगी कब तक
निस्सहाय लड़की
कब पैदा होगा?
मुझमें एक इन्सान
इन्तजार है मुझे उस दिन का
आखिर कब गिरेंगे
ये आधरभूत खम्भे
सही है कि पितृसत्ता के 'खम्भे' गिरे बिना स्त्री को बराबरी का दर्जा नहीं मिल सकता, लेकिन यह भी सही है कि पितृसत्ता के रखवाले अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए नित नए नए उपाय खोजते रहते हैं। एक लम्बे संघर्ष के साथ ही इनको गिराया जा सकता है। पितृसत्ता की विचारधारा समाज में बैर-बराबरी को वैधता देने के लिए कार्य करती है, इसे बदलने का संघर्ष समाज-व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ा है।
पितृसत्ता ने स्त्री के साथ कानूनी व राजनीतिक अधिकारों में ही भेदभाव नहीं किया है बल्कि उसके प्राकृतिक व मानवीय अधिकारों पर भी डाका डाला है। उसके 'जन्मसिद्ध अधिकार' से वंचित कर दिया है, जिसे ये रचनाकार किसी भी कीमत पर प्राप्त करना चाहते हैं। ज्ञान, शक्ति व सत्ता के तमाम रास्ते उसके लिए बंद करके उसे घर की चार दिवारी में कैद करने के लिए ऐसी आचार-संहिता का निर्माण किया कि स्त्रियां भी उसी में खुश व संतुष्ट हो जाती हैं, इसी आचार-संहिता की पालना को अपने जीवन का सार समझ लेती हैं। चेतना पर जमी इस विचारधारा को कवयित्री सुमन ने 'सवाल' उठाया कि 'पर ये शब्द उसके अन्दर/ की ध्वनि थी या पितृसत्ता/ ने उसे ऐसा बना दिया था।' समस्त घर-परिवार की इज्जत को स्त्री के साथ जोड़ दिया गया है। परिवार की इज्जत बचाने की स्त्री पर डाल दी गई है। स्त्री यदि कुछ स्वतंत्र रूप से करना चाहे तो उसे इज्जत के मसले के रूप में पेश किया जाता है।
उस पर थोपे जाते हैं कई
बंधन अकारण
मढ़ दी जाती है सबकी इज्जत
बरबस।
संतोष वाल्मीकि की 'एक विधवा' कविता स्त्री-जीवन के सच को सहज ही व्यक्त कर देती है। पितृसत्ता की आचार-संहिता का बोझ ढोते-ढोते स्त्री अपना अस्तित्व ही भूल जाती है। जब वह अपने जीवन का हिसाब लगाने बैठती है तो उसके हिस्से में कुछ नहीं आता।
टूट चुकी है, कमर मेरी
बोझ ढोते ढोते
मैने सही है, तानाशाही
पीहर में बाप की।
ससुराल में पति की
बुढापे में बेटों की
कब मिले हैं, मुझे
सुख के दो पल।
पूंजीवादी-समाज की ऐषणाएं भी स्त्री के लिए दुश्मन बनकर आती हैं। प्रेम के रिश्तों में भी यह विषाणु दरार डाल देता है और अन्तत: स्त्री को भुगतना पड़ता है। इस समाज-व्यवस्था की 'विडम्बना' को उद्घाटित किया है कि एक-दूसरे के बिना न रहने वालों में ऐसा क्या घटित हो जाता है कि अपनी प्रेमिका को दहेज की बलि चढा देता है।
और एक दिन
छिड़क कर पेटोल
जला देता है
वो इन्सान अपनी संगिनी को
अपनी प्रियतमा को
कोई न जान सका
इस विडम्बना को
आशा का संचार इन कविताओं के केन्द्र में हैं, जो मानवीय-संघर्ष को एक दिशा प्रदान करता है। रचनाकारों का यह विश्वास कि विनाशकारी शक्तियों का खात्मा होगा निरी कपोल-कल्पना नहीं है, बल्कि समा हो रहे परिवर्तनों पर उनकी सूक्ष्म नजर है।
सरलता से अपनी बात कहने का जो मुहावरा इन नव-रचनाकारों ने विकसित किया है वह महत्त्वपूर्ण है। समाज की सच्चाइयों बहुत विश्वसनीय चित्र इन कविताओं में मौजूद हैं, जिनसे ये कविताएं प्रभावशाली बनी हैं। सरोज पूर्णमुखी की कविता का 'मिर्च बेचता बूढा हो' या सुशीला बहबलपुर की कविता का पोंछा लगाता 'बाल मजूर' हो, सुमन की सवाल कविता की 'खुश गृहिणी' हो या फिर संतोष वाल्मीकि की 'एक विधवा' हो। ये ऐसे चरित्र हैं जो स्थाया छाप छोड़ते हैं, ये चरित्र कविता से निकलकर एकदम जिंदा हो जाते हैं।
नव-रचनाकारों की कविता रोमांटिक-नारेबाजी का शिकार हो जाती है, लेकिन इन कवयित्रियों की कविताएं इससे मुक्त हैं। कविता हमेशा समाज की वास्तविकता से जुड़ी रहती है, जो कविता को कभी भी भटकने नहीं देती। समाज को समझने व बदलने की जद्दोजहद में तीखी नजर वाले अपने समय के जरूरी रचनाकार हैं।