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हिन्दी दुर्दशा

हिन्दी दुर्दशा
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

मनुष्य के सांस्कृतिक विकास में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य के साथ-साथ भाषा और भाषा के साथ-साथ मनुष्य विकसित हुआ है। भाषा विचारों के आदान प्रदान का ही नहीं, बल्कि सोचने का माध्यम भी है। भाषा की सीमा और विस्तार का अर्थ मनुष्य के ज्ञान और विस्तार से है। इसीलिए महापुरुषों ने अपनी भाषा व समाज को समृद्ध करने के लिए दूसरी भाषा के ज्ञान को अपनी भाषा में अनुवाद किया है।
भारत बहुभाषी तथा बहुसांस्कृतिक देश है, जिसमें सैंकड़ों भाषाओं और बोलियों को बोलने वाले लोग रहते हैं। शायद ही दुनिया के किसी देश में ऐसी भाषायी विविधता देखने को मिले, जिसमें एक से एक समृद्ध भाषाएं हों, जिनमें विपुल साहित्य हो और समस्त कार्य की क्षमता हो। लेकिन यह भी सही है कि शायद ही दुनिया में कोई देश ऐसा हो, जिसमें आजादी के 63 साल बाद भी राजकार्य में विदेशी भाषा का इतना बोलबाला हो, कि अपनी भाषा में काम को प्रोत्साहन देने के लिए 'हिन्दी-दिवस', 'हिन्दी-सप्ताह', 'हिन्दी-पखवाड़ा' मनाना पड़े और तरह-तरह के तो इनाम के रूप में लालच देने पड़ते हों।
भारत के संविधान की आठवीं सूची में में स्वीकृत भाषाओं की संख्या 23 हैं। संविधान निर्माताओं ने राजभाषा के सवाल पर गम्भीर विचार-विमर्श के बाद अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया। तात्कालिक तौर पर अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के तौर पर स्वीकार करते हुए उन्होंने संघ का कत्र्तव्य निर्धारित किया कि सन् 1965 तक हिन्दी राजभाषा के रूप में विकसित करे, परन्तु आजादी के तिरेसठ साल के बाद भी हिन्दी-दिवसों का मनाया जाना हमारे राजनेताओं, अफसरशाही की जनता की भाषा के प्रति प्रतिबद्धता व संविधान की भावनाओं के प्रति आदर तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान को दर्शाता है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद में पली-बढ़ी नौकरशाही इस बात को मानने को तैयार ही नहीं कि अंग्रेजी बिना देश प्रगति कर सकता है, जबकि रूस, चीन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली जैसे देशों का उदाहरण भी सारी दुनिया के समक्ष है कि उन्होंने विज्ञान और तकनीकी विकास अपनी भाषा में ही किया है।
भाषा का सवाल मात्र भाषा का सवाल नहीं है व्यक्तिगत भावनाओं-विचारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उसके तार देश-समाज के विकास और सत्ता संरचना से जुड़े होते हैं, विशेषकर लोकतंत्र में। भाषा संपर्क का सबसे विश्वसनीय माध्यम है और लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जितना वह जनता के निकट आता है। सरकार तथा जनता में देश की नीतियों, उपलब्धियों तथा भावी योजनाओं के संवाद का जरिया भाषा ही है। जनता की भाषा में कामकाज से ही सरकार-प्रशासन व जनता के बीच की दूरी को कम किया जाता है। लेकिन यहां तो इसका उलटा ही होता है। जिसे एक स्थानीय अनुभव से समझा जा सकता है। हरियाणा के फतेहाबाद जिले की कोर्ट में किसान अपने मुकदमे की पैरवी स्वयं कर रहा था, तो जज महोदय ने कहा कि मुझे आपकी भाषा समझ नहीं आ रही है। आप वकील कर लीजीए। किसान ने सहज समझ जबाव दिया कि यदि आपको मेरी भाषा समझ नहीं आ रही, तो आप करो वकील। किसान का यह उत्तर सरकारी कामकाज की कार्यप्रणाली पर प्रश्रचिह्न लगाता है। सूचना के अधिकार के युग में जब पारदर्शिता की मांग की जा रही है तो इसके सबसे पहले जनता की भाषा में कामकाज की जरूरत है। भाषा राजकाज के कामों को जनता से दूर करने का सबसे बड़ा हथियार बन जाती है। सत्ता में भागीदारी से रोकने को सबसे विश्वसनीय और मारक हथियार।
हिन्दी को राजभाषा के तौर पर स्वीकृति संविधान निर्माताओं के दिमाग की उपज नहीं थी, बल्कि यह स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों का हिस्से के तौर पर था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के आन्दोलन में भाषायी गुलामी से भी मुक्ति प्राप्त करनी थी। धीरे धीरे गुलामी के तमाम कारकों से विशेषकर मानसिक गुलामी से छुटकारा पाना था, लेकिन आज जब हम यह बात कर रहे हैं तो गुलामी का अहसास ही समाप्त हो गया है। गुलामी के इस चिह्न को अपनी शोभा-आभूषण बना लिया है और इस आभूषण को धारण करने की होड़ लगी हुई है। अंग्रेजी सीखना बुरी बात नहीं है। आजादी के आन्दोलन के दौरान के उन सभी नेताओं को बहुत बढिया अंग्रेजी आती थी, जिन्होंने हिन्दी की राष्ट्रभाषा-राजभाषा के तौर पर स्वीकार करने की वकालत की थी। हां, हिन्दी न आना या अपनी भाषा न आना शर्म की बात जरूर है। इस शर्म को अंग्रेजी स्कूलों में तैयार की गई पीढी तो पी चुकी है, उसको हिन्दी की गिनती भी अंग्रेजी में बताकर समझानी पड़ रही है। मां-बाप बच्चे को हिन्दी अथवा स्थानीय भाषा की वर्णमाला की बजाए अंग्रेजी की वर्णमाला, अंग्रेजी में शरीर के अंगों के उच्चारण को गर्व से सिखाते हैं। यह सब अचानक नहीं हुआ, इसके लिए समाज की अभिजात्य वर्ग का तथा नौकरशाही का पूरा दिमाग लगा है। सन् 1948 में डा. राधाकृष्ण की अध्यक्षता में बना 'विश्वविद्यालय आयोग', सन् 1952 में डा. लक्ष्मण स्वामी मुदलियर की अध्यक्षता में बने 'माध्यमिक शिक्षा आयोग', सन् 1964 में डी.एस. कोठारीकी अध्यक्षता में बने 'शिक्षा आयोग' आदि स्वतंत्र हिन्दुस्तान में जितने भी शिक्षा आयोग बने उन सबने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की सिफारिश की। भारतीय भाषाओं और हिन्दी को विकसित करने के लिए त्रि-भाषा सूत्र जैसे कितने ही उपाय सुझाए। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता और वर्ग स्वार्थों का वायरस सबको निकल गया। लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम बने रहने के कारण मेधावी व महत्त्वाकांक्षी छात्रों को अंग्रेजी की ओर धकेलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूरे देश में अंग्रेजी माध्यम और कान्वेट स्कूलों के कारोबार फलने-फूलने के पीछे यही कारण है। इनकी परिकल्पना में ही था कि जो यहां पढ़ेगा वह अफसर बनकर ही निकलेगा, इसीलिए अफसरशाही की प्रतीक 'टाई' इनकी वर्दी का अनिवार्य हिस्सा बनी। सत्ता में भागीदारी का द्वार बनकर उभरे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय और स्थानीय मातृभाषाओं के विद्यालय में रह गई प्रजा। जब इस दोहरी व्यवस्था की आलोचना होने लगी और शासनकर्ताओं की मंशा को कटघरे में खड़ा करना शुरू किया तो हरियाणा जैसे राज्य जो हिन्दी भाषा के आधार पर ही अस्तित्व में आया, उसमें भी सरकारी विद्यालयों में भी प्रथम कक्षा से ही अंग्रेजी विषय अनिवार्य कर दिया। पहले अंग्रेजी के भूत से बच्चों का पांचवी कक्षा के बाद वास्ता पड़ता था अब नौनिहालों के पल्ले पड़ गया। यह सिर्फ आलोचना से बचने का माध्यम था कोई गम्भीर चिंतन इसके पीछे नहीं था। इसीलिए अंग्रेजी अध्यापक का एक भी स्कूलों में सृजित नहीं किया गया।
शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी और हिन्दी के बीच भेदभाव सतह पर ही नजर आता है। हिन्दी शिक्षण के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है, लेकिन अंग्रेजी को समाज-विज्ञान के अध्यापक ही पढ़ा देते हैं। उच्च शिक्षा में हिन्दी विषय का वर्कलोड बहुत ही कम है अंग्रेजी आधा तथा समाज विज्ञान के दूसरे विषयों से भी आधा। भाषा के प्रति वर्तमान शासकों-प्रशासकों व नीति-निर्माता बुद्धिजीवियों का बहुत ही उदासीन रुख है और हिन्दी के प्रति तो नकारात्मक है। भाषा का पाठ्यक्रम समाज और वर्तमान की जरुरतों के अनुसार नहीं, बल्कि परीक्षा में अधिक से अधिक प्राप्त करने के अनुसार तैयार किए जा रहे हैं। परीक्षा में अधिक से अधिक अंक ही सफलता व ज्ञान की कसौटी बन गए हैं। इसका मंत्र है कम से कम पाठ्यक्रम और सुविधाजनक प्रश्र। स्कूलों में तो ऐसा माना जाता है कि हिन्दी तो कोई भी पढ़ा देगा। पी.टी.आई. आदि भी हिन्दी की कक्षाएं ले लेते हैं। कालेजों-विश्वविद्यालयों में संकीर्ण सोच काम कर रही है। केवल अपने विषय का वर्कलोड बढ़ाने की होड़ लगी है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से संबंधित महाविद्यालयों में कामर्स संकाय के लिए भाषा की अपेक्षा कामर्स के अध्यापक ही पढ़ाते हैं। मीडिया विभाग में स्नातक के विद्यार्थियों को हिन्दी के अध्यापक पढायेंगे या कि मीडिया के यह बात भी विवाद का विषय बनी हुई है। विभिन्न महाविद्यालयों में दोनों विभागों के अध्यापकों के बीच खींचतान देखी जा सकती है। प्रबन्धन, गृह विज्ञान, फार्मेसी व विधि आदि कितने ही पाठ्यक्रमों में हिन्दी भाषा विषय ही नहीं है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अपना ज्ञान व कौशल विकसित करने के पश्चात जिन लोगों को इस ज्ञान की सेवाएं देनी है उनसे किस तरह से तालमेल कर पायेंगे।
आज कल सभी यह कहते पाए जाते हैं कि एम.ए. करने के बाद भी प्रार्थना-पत्र तक लिखते वक्त उच्च-डिग्रीधारी तक के हाथ कांपने लगते हैं। अखबार वाले नव-पत्रकारों को भाषा नहीं आती का रोना रोते हैं तो पाठक अखबारों में अत्यधिक गलतियों का रोना रोते हैं। दुकानों के साईनबोडऱ्ों, निमन्त्रण-पत्रों, विभिन्न किस्म की प्रचार सामग्री में बहुत अधिक भाषायी त्रुटियां मिलेंगी। कारण जानने की कोशिश करो तो उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षक स्कूली-शिक्षा में दोष निकाल कर छुट्टी पा जाते हैं। स्कूल शिक्षक छात्रों के मां-बाप, छात्रों की अरुचि व वातावरण को जिम्मेदार ठहराते हैं।
भाषा की अशुद्धता दो स्तर पर है, एक उच्चारण के स्तर पर दूसरा लेखन के स्तर पर। स्थानीय लहजे व बोलियों की विशिष्टताओं के कारण उच्चारण की विविधता और मानक दृष्टि से अशुद्धता स्वाभाविक है। लेकिन लेखन के स्तर पर तो पूरी तरह शिक्षा-प्रणाली का दोष है। जिसमें शिक्षक, पाठ्यक्रम, परीक्षा-प्रणाली तथा भाषा-नीति भी शामिल हैं। भाषा के प्रति जो थोड़ी बहुत जागरुकता है भी तो केवल उच्चारण पर। इसीलिए अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले सैंकड़ों प्रतिष्ठान शहरों में मिल जायेंगे, लेकिन शुद्ध अंग्रेजी लिखने पर कोई ध्यान नहीं।
संविधान निर्माताओं के समक्ष भाषा का स्वरूप दिन के उजाले की तरह साफ था। हिन्दी को राजभाषा स्वीकार करते हुए अनुच्छेद 351 में इसके स्वरूप की परिकल्पना की ओर भी संकेत किया था, जिसको यहां देना अप्रासंगिक नहीं होगा। ''संघ का यह कत्र्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तथ्यों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं सूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं के संयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक हो या वांछनीय हो, वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से ग्रहण करते हुए उसकी संवृद्धि सुनिश्चित हो सके।ÓÓ
संविधान निर्माताओं ने हिन्दी-भाषा में बहुसांस्कृतिक, बहुधर्मी, बहुभाषी देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने की क्षमता को रेखांकित किया था। हिन्दी को उसका स्वरूप प्रदान करने का श्रेय असंख्य सुफियों-संतों-भक्तों, पीरों-फकीरों, लोक गायकों, सिद्धों, जन नायकों तथा स्वतंत्रता सेनानियों और लेखकों को है। हिन्दी हमेशा सत्ता के विरुद्ध पनपी व विकसित हुई है, अपने साथ कबीर, मीरा, निराला की परम्परा समेटे हुए है। शासन-सत्ता की भाषा और जनता की भाषा में जो अन्तर होता है, वह हिन्दी की प्रकृति में मौजूद है। अमीर खुसरो हिन्दी कहते थे कि हिन्दवी में अपने विचार अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। उन्हें अपने हिन्दी के ज्ञान पर गर्व था। वे कहते थे कि
चू मन तूति-ए-हिन्दम अर रास्त पुरसीं ।
जेे मन हिन्दवी पुर्स, ते नग्ज गुयम।
''मैं हिन्दुस्तान का तोता हूं। मुझसे मीठा बोलना चाहो तो मुझसे हिन्दवी में पूछो जिससे मैं भलिभांति बात कर सकूं।ÓÓ
इसी ग्रन्थ में उन्होंनेेेेे कहा कि ''मैं एक भारतीय तुर्क हूं और आपको हिन्दी में उत्तर दे सकता हूं मेरे अंदर मिस्री शक्कर नहीं है कि मैं अरबी में बात करूं-
तुर्क हिन्दुस्तानम मन हिंदवी गोयम जबाव,
शक्करे मिस्री नदारम कज अरब गोयम सुखन।
अमीर खुसरो ने अपने बेटे को नसीहत देते हुए कहा कि ''मैं हिंद को ही अपना मुल्क मानता हूं और यहां के आम लोगों की जुबान को ही अपनी जुबान।
''अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना है और सदा के लिए यहीं बसना है तो सबसे पहले हमें यहां के लोगों के दिलों में बसना होगा। और दिलों में बसने के लिए सबसे पहली जरूरत है इनकी जबान में इनसे बातें करना; इनके दिल की बात को शायरी में बांधना। तभी बंध पायेंगे हम इनसे। तुर्कों को हिंदवी जुबान सिखाने के खयाल से ही मैने 'खालिकबारी' नाम की किताब लिखी है।
''1318 के आसपास लिखे गए अपने प्रसिद्घ फारसी महाकाव्य 'नूर सिपहर' नौ आकाश में खुसरो ने अपने भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की शिनाख्त की और उन सबको हिन्दी से जोड़कर दिखाया:
सिंदी-ओ-लाहोरी-ओ कश्मीर-ओ गर,
धर समंदरी तिलगी ओ गुजर।
माबरी-ओ गोरी-ओ बंगाल-ओ अवध,
दिल्ली-ओ पैरामकश अंदरहमाहद,
ईं हमा हिंदवीस्त जि़ अयाम-ए-कुहन,
आम्मा बकारस्त बहर गूना सुखन।
सिंधी, पंजाबी, कश्मीरी, मराठी, कन्नड़, तेलगु, गुजराती, तमिल, असमिया, बंगला, अवधी, दिल्ली और उसके आसपास जहां तक उसकी सीमा है, इन सबको प्राचीन काल से हिंदवी नाम से जाना जाता है। बहरहाल अब मैं अपनी बात शुरु करता हूं।
अमीर खुसरो ने अपने बेटे को तीन नसीहतें दी' 'दूसरी नसीहत यह कि क्योंकि तू भी शायरी करने लगा है, इसलिए मैं चाहूंगा कि हिन्दवी में ही शायरी करना ।'
मैथिल कोकिल कहे जाने वाले विद्यापति ने भी देसी भाषा यानी लोगों की जुबान को ही महत्त्व देते हुए कहा था कि
देसिअ बअना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहट्ठा।
देसी भाषा सबको मीठी लगती है यही जानकर मैने अवहट्ठ में रचना की है। अवहट्ठ हिन्दी का पूर्वरूप है।
हिन्दी के महाकवि तुलसीदास ने कथित देववाणी की बजाए आम लोगों की जुबान में रामचरित लिखा तो तत्कालीन वर्चस्वी पंडितों ने उनको जाति बाहर कर दिया और उनको सामाजिक बहिष्कार का दण्ड भुगतना पड़ा।
इन सबका यहां जिक्र करने का मतलब इतना ही है कि जिसने भी भारतीय जनता से संवाद स्थापित करना चाहा है, उसने जनभाषा हिन्दी को अपनाया है। बिना जनभाषा को अपनाए उससे संवाद स्थापित करने का ओर कोई जरिया अभी तक ईजाद नहीं हुआ है। लेकिन शासन सत्ताओं को जन से संवाद की बजाए एकतरफा प्रलाप करते ही अपना शासन टिकाऊ नजर आता है। शासन का यही तरीका उसे सबसे विश्वसनीय लगता है।
हिन्दी का पथ राजपथ नहीं है और इसको उस पर चलने की आदत है। यह तो देश की जनता के अनगढ़ता को वाणी देती रही है। इसी दौरान उसमें सांस्कृतिक एकता को वाणी देने में सक्षम हुई। इसी क्षमता के कारण ही स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गैर हिन्दी भाषियों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के लिए बिल्कुल उपयुक्त पाया था। राजामोहन राय बंगाली थे, उन्होंने हिन्दी के बारे कहा था कि 'हिन्दी में अखिल भारतीय भाषा बनने की क्षमता है।' गुजराती भाषी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था कि 'हिन्दी द्वारा सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।' महात्मा गांधी भी गुजराती भाषी थे उन्होंने कहा था कि 'राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं।' लोकमान्य तिलक का कहना था कि 'राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्त्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।' नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि 'देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा हिन्दी ही राष्ट्रभाषा पद की अधिकारिणी है।' सुब्रह्मण्य भारती ने कहा कि 'राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।' बंकिमचन्द्र चटर्जी ने कहा था कि 'अपनी मातृभाषा बांग्ला में लिखकर मैं बंग-बंधु तो हो गया, किंतु भारत-बंधु मैं तभी हो सकूंगा जब भारत की राष्ट्रभाषा में लिखूंगा'। इन महापुरुषों ने हिन्दी की महत्ता को व गौरव को सही रेखांकित किया था।
हिन्दी पर आरोप लगाया जाता है कि उसमें काम काज की क्षमता नहीं है। असल में यह अपनी अक्षमता को हिन्दी भाषा पर थोंपना है। फिर भाषाओं क्षमता क्या अचानक आ जाती है? सोचने की बात है कि जब अंग्रेजों ने अपने शासन का कामकाज अंग्रेजी में शुरू किया तो भारत के कितने लोग अंग्रेजी में पारंगत तो छोड़ो उसका सामान्य ज्ञान भी कितने लोगों को था। लेकिन अंग्रेजी शासकों की अपनी भाषा व साम्राज्य के प्रति निष्ठा ने उसे कुछ ही सालों में राजकाज की भाषा के तौर पर स्थापित कर दिया।
हिन्दी को दोहरी मार झेलनी पड़ी है। एक तरफ तो विदेशी भाषा से दूसरी तरफ हिन्दी के अभिजन से, हिन्दी के पंडिताऊपन से। राजभाषा को निर्मित करने का जिम्मा जिन हिन्दी-प्रेमियों को मिला उन्होंने उसकी रक्षा में हत्या की। संविधान निर्माताओं ने जिस जन भाषा की जो सामासिक संस्कृति की उत्पति थी उसको त्यागकर संस्कृतनिष्ठ-कलिष्ट, शास्त्रीय-पंडिताऊ भाषा को अपनाया। जन प्रयोग के शब्दों तथा दूसरी भाषा के शब्दों विशेषकर उर्दू के शब्दों को चुन-चुनकर हिन्दी-निकाला दिया गया। सहज प्रयोग को निहायत कृत्रिम, उबाऊ बना दिया। अंग्रेजी भाषा विश्व की भाषा ऐसे नहीं बन गई, उन्होंने भाषायी संकीर्णता अपनाई होती और अपनी श्रेष्ठता के खोल में ही रहते तो उनकी राजसी भाषा इतना विकसित नहीं होती। कितने ही शब्द हैं जो हिन्दी व उसकी बोलियों से अंग्रेजी शब्दकोश का सम्माननीय हिस्सा बने हैं। इसके विपरीत हिन्दी में दूसरी ही बयार चली, जो चुन-चुनकर हिन्दी के शब्दों की पूंछ उठाकर देखते और उसे बाहर कर देते।
इसीलिए आम स्थानों पर ऐसे बेहूदे व फूहड़ शब्द देखने को मिलेंगे कि आप मातृभाषा को इस तरह बलात्कृत होते देखकर आप सिर पीट लेंगे। आपको देखने में आयेगा कि 'प्रवेश निषेध' है, क्या 'अन्दर आना मना है' में कोई मूलभूत खराबी है? आपको पानी की टंकियों पर लिखा मिलेगा 'शीतल जल', क्या 'ठण्डा पानी' में कोई जहर है? आपको लिखा मिलेगा 'धूम्रपान वर्जित है' क्या लोग 'बीड़ी-सिगरेट पीना मना है' को नहीं समझते? ये सब हो रहा है भाषा की शुद्धता व मानकीकरण के नाम पर। मानकीकरण की आड़ में सबसे पहले हमला होता है जनभाषा पर यानी जन के अभिव्यक्ति के औजारों पर। ऐसा करने के लिए चाहे भाषाओं का घालमेल ही क्यों न करना पड़े। ऐसे प्रयोग इसी मानसिकता के उदाहरण हैं जैसे 'दुग्ध-डायरी' अब आप बताइए कि 'दूध' का 'दुग्ध' तो शुद्ध पर्यायवाची मिल गया, लेकिन डायरी कहां से प्रयोग हो रहा है।
भाषायी शुचिता का तर्क पोंगापंथ की हद तक गया, जिसके चलते हिन्दी ऐसी बनी कि अंग्रेजी से भी मुश्किल। मूल भाषा, संस्कृति व परम्परा के नाम पर अपने अभिजात्य की रक्षा करने के काम आई कठिनता। सरलता और कलिष्टता का संघर्ष भाषा के क्षेत्र में रहा है और यह मात्र भाषा विज्ञान का नियम नहीं है कि भाषा कलिष्टता से सरलता की ओर जाती है, बल्कि इसमें सामाजिक शक्तियों के संघर्ष भी दिखाई देते हैं। कबीर जब कहते हैं कि 'संसकिरत भाषा कूप जल, भाखा बहता नीर' तो वे एक अन्तर्विरोध की ओर संकेत करते हैं। 'बहते नीर' वाली भाषा ही विकसित होती है और अपनी प्रासंगिकता नहीं खोती।
भाषाओं में श्रेष्ठता के दावे नहीं चलते, जिस भाषा जो अभिव्यक्ति करता है उसके लिए वही भाषा महान होती है। दूसरी भाषाओं की कद्र करके ही हम अपनी भाषा के लिए सम्मान पा सकते हैं। भाषाओं में ऐसी संकीर्णताएं नहीं होती, ऐसी कोई भाषा नहीं जिसने दूसरी भाषाओं से शब्द न लिए हों। एक जगह से शब्द दूसरी जगह तक यात्रा करते हैं। जिस भाषा में ग्रहणशीलता को ग्रहण लग जाता है वह भाषा जल्दी ही मृत भी हो जाती है। दुनिया की कितनी ही समृद्ध भाषाएं इसीलिए आज व्यवहार से बाहर मात्र शब्दकोशों और संस्थानों में शोभा बढ़ा रही हैं कि उनकी ग्राह्य क्षमता उदार नहीं रही।
यदि भाषा को जन अभिव्यक्ति से दूर किया जायेगा तो इस तरह की हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाएगी। शादी के मंडप के नीचे फेरों के अवसर पर पुरोहित लड़की वालों से सामग्री अपनी संस्कृतनिष्ठ भाषा में मंगवा रहा था। उसने अपनी ही रौ में कहा कि 'कन्या को लाओ', तो घरवालों ने आंखें तरेर कर कहा कि 'पंडित जी, कल क्यों नहीं बताया वो तो बाजार से लाए ही नहीं।' संस्कृतनिष्ठ-कलिष्ट भाषा व जन भाषा की बहस को यह वाक्या सही बयान करता है। बारात को तरह तरह के व्यंजन परोसे जा रहे थे और आवाज देकर खाने का आग्रह किया जा रहा था। एक व्यक्ति 'जलजी' 'जलजी' कहता हुआ आ रहा था तो किसी बाराती ने उसका स्वाद लेने के लिए पी लिया। बाद में जब खाने की चर्चा चली तो बारात में सब खाने की तारीफ कर रहे थे। सबका ख्याल था थे कि बाकी तो सब ठीक था लेकिन 'जलजी' बिल्कुल 'पानी' ही था।
हिन्दी समाज के साथ एक समस्या रही है कि साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक संकीर्णता की, जिसका प्रभाव हिन्दी भाषा पर भी पड़ा। उन्मादी हिन्दी-भाषियों का भाषायी प्रेम उर्दू-विरोध तथा अंग्रेजी के नकार में ही फला-फूला। हिन्दी प्रेम का यह मतलब दूसरी भाषाओं को न सीखना और उनमें व्याप्त ज्ञान से वंचित रहना तो कतई नहीं। भाषाओं को धर्मों से जोड़कर देखा जाएगा तो उनमें इस तरह की संकीर्णता पैदा होगी। उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है, पंजाबी सिखों की भाषा नहीं है और न ही हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है। भाषा का रिश्ता धर्मों से कम और संस्कृतियों से अधिक हुआ करता है। संस्कृति से भाषा को विचार-दृष्टि मिलती है तो भाषा संस्कृति को वाणी देती है। केरल का मुसलमान उर्दू नहीं मलयालम बोलता है, तमिलनाडू का तमिल, बंगाल का बंगला, आंध्र पद्रेश का तेलगु और पंजाब का पंजाबी। इसीतरह विभिन्न प्रदेशों के हिन्दू अपने अपने प्रदेशों की भाषाएं बोलते हैं न कि हिन्दी। संस्कृति का विकास संकीर्णताओं से नहीं उदारता से होता है। जहां तक हिन्दी, उर्दू और पंजाबी या अन्य आधुनिक भारतीय भाषाएं हैं वे सब एक ही समय में पैदा हुई हैं और एक दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ी हैं। बिल्कुल जुड़वां बहनों की तरह से एक दूसरे का सुख-दुख बांटते हुए, गमी-खुशी साझी करते हुए।
भाषाओं का चरित्र धर्मनिरपेक्ष होता है। शब्द एक भाषा व क्षेत्र से दूसरी भाषा व क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। भाषाओं का परस्पर आदान-प्रदान से ही वे फलती-फूलती हैं। महात्मा गांधी ने हिन्दी भाषा की व्याख्या करते हुए सही परिभाषित किया था ''हिन्दी भाषा वह भाषा है, जिसको उत्तर में हिंदू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा अरबी लिपि में लिखी जाती है। वह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है न वह एकदम फारसी शब्दों से लदी हुई है। देहाती बोली में जो माधुर्य मैं देखता हूं वह न लखनऊ के मुसलमान भाइयों की बोली में है, न प्रयागजी के पंडितों की बोली में पाया जाता है"
ऐसी मिली जुली जन हिन्दी में ही पूरे देश की संपर्क भाषा बनने की क्षमता है। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद फौज' का गठन किया तो फौजी टुकडिय़ों को कमांड देने के लिए हिन्दी भाषा को ही अपनाया। आजाद हिंद फौज के लिए कौमी तराना बनाया उसकी हिन्दी का स्वरूप आदर्श नमूना है।
कदम-कदम मिलाए जा, खुशी के गीत गाए जा।
ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाए जा।।
बहुसंख्यक भाषा भाषियों में दूसरी भाषाओं के प्रति संवेदनाशीलता का अक्सर अभाव पाया जाता है। वे यही कहते पाए जाते हैं हिन्दुस्तान की भाषा हिन्दी है और वही श्रेष्ठ भी है, और अनुकरणीय भी। लेकिन उनसे कोई पूछे कि उन्होंने दूसरी कौन सी भाषा सीखी है कि दूसरे उनकी भाषा अपनाएं और सीखें तो बतीसी निपोरने के अलावा उनके पास कुछ कहने के लिए नहीं होता। अपनी भाषा को दूसरों पर थोंपने की बजाए सभी भाषाओं का सम्मान करने की आवश्यकता है। महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया कि ''आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल-कमल के समान है, जिसका एक-एक दल, एक-एक प्रांत, भाषा और उसका साहित्य-संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां, जिनमें सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने-अपने घर में रानी बनकर रहें, ... और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्य मणि हिन्दी भारत-भारती होकर विराजती रहे।ÓÓ
सरकारी विभागों, बैंकों आदि में सितम्बर का महीना हिन्दी-भाषा के लिए बजट समाप्त करने का महीना बनकर रह गया है। एक कर्मकाण्ड हर साल होता है। वही अधिकारी मुख्य अतिथि के पद को सुशोभित करते हैं, जो पूरे साल हिन्दी में काम को हतोत्साहित करते हैं। हिन्दी में काम करने के संकल्प के साथ कर्मकाण्ड प्रारम्भ होता है और उसी के साथ खत्म। भाषा की महिमा का समूहगान होता है और साल भर वही ढाक के तीन पात। अगले साल फिर उन्हीं पुरानी फाइलों से धूल झाड़ ली जाती है और पुन: काम शुरू हो जाता है। सालों से यह क्रम जारी है।
भाषा सामाजिक और सामूहिक संपति है। आज जिस समय में हम रह रहे हैं वहां व्यक्तिगत विकास के लिए आपा धापी मची है। भाषा के सवालों पर सोचने के लिए किसी के पास वक्त ही नहीं है। जब व्यक्ति अपने समाज से आगे निकलने की सोचता है तो वह उसके सामूहिक विकास की चीजों की नहीं, बल्कि अपनी शान-विकास की ही सोचता है और इसमें अपना विवेक भी खो देता है। अपने भौतिक विकास के लिए अपने आत्मिक विकास को वह त्यागने के क्षण नहीं लगाता। दूसरों से आगे निकलने का आसान रास्ता ही चुनता है। वह आसानी से अपने विकास की भाषा और काम की भाषा में अन्तर कर लेता है। हिन्दी सिनेमा में काम करने वाले सुपरस्टारों के भाषा के प्रति व्यवहार से इसको समझा जा सकता है। हिन्दी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषा के अच्छे जानकार और उसमें नाम व धन कमाने वाले कलाकार जब अपनी कला का पुरस्कार लेते हैं तो अक्सर अंग्रेजी बोलते मिलते हैं। जब काम की भाषा और जीवन व्यवहार की भाषा अलग हो जाए तो किसी भाषा के प्रति चाहे वह अपनी मातृभाषा ही क्यों न हो हीनता के भाव आना अस्वाभाविक नहीं है।
आम जन और शासक वर्ग की भाषा का अन्तर तो हम संस्कृत के क्लासिक नाटकों में भी देख सकते हैं, जिनमें आम जीवन के चरित्रों की भाषा तथा शासकीय चरित्रों की भाषा अलग अलग है। इस तरह की भाषायी विविधता व स्तर तो समाज में हमेशा ही रहे हैं। लेकिन आज साम्राज्यवाद के दौर में भाषाओं में हीनता बोध पैदा करना तो राजनीतिक रणनीति का हिस्सा ही है। अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए तो चाहे दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनी भी धुर देसी भाषा में विज्ञापन प्रसारित करती है। उसके प्रतीकों का प्रयोग करती है, लेकिन जब अपनी योजनाएं बनाती है तो उसके सोचने की भाषा कोई ओर ही होती है।
बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा था कि चाहे हम किसी भी भाषा में बात करें लेकिन सोचें तो अपनी भाषा में और लिखें तो अपनी भाषा में। इसी से ही भाषाओं में ज्ञान का प्रविष्ट होता है जो उस समाज तक जाता है। इसीलिए उन्होंने देश के विकास की उन्नति का मूल कहा था और सभी क्षेत्रों में उसके प्रसार की बात कही थी।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल।।

प्रचलित करो जहान में निज भाषा करि जत्न।
राज काज दरबार में फैलावहु यह रत्न।।


डा.सुभाष चन्द्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र