दलित मुक्ति : प्रेमचन्द बनाम डा.आम्बेडकर
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में समाज की वास्तविकता को जिस समग्रता के साथ अभिव्यक्त किया है वह भारत के और विशेषकर हिन्दी के रचनाकारों के लिए आदर्श है। समाज के सभी वर्गों के चित्र मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में उकेरे हैं। शोषक वर्ग के चित्रों की चालाकी, काईयांपन व घाघपन को बहुत रचनात्मक ढंग से उद्घाटित किया है, तो शोषित वर्गों के भोलेपन, असहायता व लाचारी को भी बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द की समाज के दलित, वंचित, उत्पीडि़त वर्गों के प्रति स्पष्ट पक्षधरता रही है। अपनी रचनाओं में वास्तविक स्थितियों का चित्र खींचते हुए शोषित वर्गों के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए शोषकों के प्रति तीखी लताड़ लगाई है। भारत में ब्राह्मणवादी विचारधारा ने समाज की अधिकांश आबादी को मानवीय गरिमा व इन्सानी पहचान से वंचित कर दिया। मानवीय पहचान पाने के सवाल पर ब्राह्मणवादी विचारधारा के संवाहकों-समर्थकों और विरोधियों में हमेशा टकराहट रही है। प्रेमचन्द के समय में यह टकराहट और भी तीखी थी। डा। भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में मंदिर-प्रवेश, सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी लेने के लिए संघर्षों में तथा राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के सवालों पर समाज के वंचित-पीडि़त-दलित वर्ग संगठित हो रहे थे। दूसरी तरफ शोषक-वर्चस्वी शक्तियां सामाजिक तौर पर दलितों का बहिष्कार करके, मार-पीट करके, गांव से निकाल कर, बंदी लगाकर सख्ती से इस आन्दोलन को समाप्त करने की हर संभव कोशिश कर रही थी। जागरूक रचनाकार के साथ-साथ प्रेमचन्द पत्रकार भी थे और सक्रिय नागरिक भी। उनकी प्रखर दृष्टि समाज सामाजिक-शक्तियों की टकराहट को व उनके स्वार्थों को भलीभांति पहचान रही थी। वे समाज के प्रतिक्रियावादी, पतनशील एवं परजीवी वर्गों तथा प्रगतिशील, विकासपरक एवं मेहनतकश वर्गों के बीच चल रहे संघर्ष व द्वन्द्व को पहचानकर अपनी रचनाओं का मुख्य विषय बना रहे थे। इसी कारण प्रेमचन्द जैसे प्रगतिशील जनधर्मी रचनाकारों पर एक तरफ तो सत्ता तरह-तरह से दमन कर रही थी, दूसरी तरफ प्रतिक्रियावादी व अंगे्रज-भक्त शक्तियां घृणित आरोप लगाकर जनता में बदनाम करने की कोशिश कर रही थी। इन जनविरोधी शक्तियों ने प्रेमचन्द को 'ब्राह्मण' और 'घृणा का प्रचारक' तक कहा। ''इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली मासिक 'सरस्वती' के दिसम्बर, 1933 के अंक में मुंशी जी की एक कहानी 'सद्गति'प्रकाशित हुई तो श्रीनाथ सिंह ने उस कहानी के आधार पर 'घृणा के प्रचारक प्रेमचन्दÓ लेख लिखकर मुंशी जी पर निहायत घृणास्पद आक्रमण किया। तब मुंशी जी ने उनका जवाब 'हंसÓ में 'जीवन में घृणा का स्थानÓ लेख लिखकर दिया।1 प्रेमचन्द ने अपनी रचना-प्रक्रिया स्पष्ट करते हुए लिखा कि ''वे व्यक्तियों के शत्रु नहीं हैं, न वे द्वेष या ईष्र्या के कारण साहित्य की रचना करते हैं। वे उन परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के शत्रु हैं, जिनके हाथों ऐसे व्यक्ति उत्पन्न होते हैं। व्यक्तियों से उन्हें उतना ही पे्रम है, जितना उन्हें अपने भाई से हो सकता है। जिन सूदखोरों, महाजनों या मजदूरों के पसीने की कमाई पर मोटे होने वाले मिल मालिकों के प्रति वे अपनी कृतियों में जहर उगलता है, उन्हीं को संकट में देखकर वह अपना अहोभाग्य समझेगा। वह जानता है कि यह गरीब खुद अपनी स्वार्थान्धता के हाथों से दुखी हंै और अपनी धनलिप्सा के शिकार होकर गरीबों को सता रहे हैं उसे उससे सहानुभूति होती है, पर उन परिस्थितियों के साथ वे बिल्कुल समझौता नहीं कर सकते, हो सकता है, उनमें कुछ ऐसे भी हों, जिन्हें सूदखोरों के हाथों कष्ट उठाने पड़े हों, सम्भव है, उन्हीं के हाथों उनका सर्वनाश हो गया हो, लेकिन अगर वह कलाकार है, तो उसमें इतनी क्षमता अवश्य होगी कि वह व्यक्ति विशेष पर दिल का गुबार निकालने न बैठेगा। हां, यह हो सकता है कि सूदखोरों के प्रति उसकी लेखनी ज्यादा तीव्र और पैनी हो जाए। इन पंक्तियों के लेखक के विषय में एक कृपालु आलोचक ने यह आक्षेप किया है कि उसने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणों के प्रति घृणा का प्रचार किया है। अव्वल तो उसे किसी ब्राह्मण के हाथों कोई कष्ट नहीं पहुंचा और मान लो किसी ब्राह्मण ने उस पर डिग्री करके उसका घर नीलाम करा लिया हो, या उसे सरे बाजार गाली दे दी हो तो इसलिए वह समस्त ब्राह्मण समुदाय का दुश्मन क्यों हो जाएगा? जीवन में आदमी को सभी तरह के अनुभव होते हैं। और प्राय: सभी समुदायों में उसके मित्र भी हो सकते हैं और शत्रु भी, फिर वह किसी एक समुदाय को क्यों चुनकर घृणा फैलायेगा?"2
प्रेमचन्द ने अपने लेख 'क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं' में जिक्र किया है कि 'भारत' पत्र में 'निर्मल' नामक व्यक्ति ने यह आरोप लगाया, उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए हैं। ''हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं , तो जहां हमारा एक उदेश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच-नीच पवित्र-अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उदेश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रक्खें, जिनमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उनका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की जिन्दगी बसर करें और अन्धकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जाए।"3
मुंशी प्रेमचन्द 'ब्राह्मण' नहीं थे, हां वे ब्राह्मणवादी-विचारधारा के आलोचक जरूर थे। ब्राह्मणवादी विचारधारा मुख्यत: दो स्तम्भों पर टिकी है - वर्ण-व्यवस्था और पितृसत्ता। इन दोनों ने समाज में असमानता को वैधता देकर घृणा व विभाजन पैदा किया है। समाज में श्रेष्ठ और निम्नता की श्रेणियों की स्वीकार्यता देने वाली तथा इसको धार्मिकता का आवरण देकर अपनी रक्षा करने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा की तीखी आलोचना करते हुए ही चरित्रों का निर्माण किया है। प्रेमचन्द ने किसी जाति-विशेष या वर्ग-विशेष को बदनाम करने या निंदा करने के लिए साहित्य-रचना नहीं की।
यह बात काफी दिलचस्प और विडम्बनापूर्ण है कि प्रेमचन्द की मौत के 70-75 वर्ष बाद दलित साहित्यकार व राजनीतिक कार्यकत्र्ता उन पर 'दलित' होने का आरोप लगा रहे हैं। उनकी पुस्तकों की होली इस तरह जला रहे हैं, मानो कि प्रेमचन्द ने मनुस्मृति की रचना कर डाली हो। दलित साहित्यकार उनको 'दलितों को अमानवीय व नकारात्मक चरित्रों का चितेरा'4 कहता है तो कोई ताल ठोकते हुए मनघडंत अनुमान लगाकर 'सामन्तों का मुन्शी' साबित करने के लिए अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा रहा है। यह मात्र संयोग भी हो सकता है कि जब साम्प्रदायिक शक्तियां प्रेमचन्द के साहित्य को पाठ्यक्रम से बाहर कर रही हैं तो ये अति-उत्साही दलित भी उनके साथ ही सुर में सुर मिला रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि कुछ 'दलित साहित्य अकादमी' के झण्डाबरदार दलित कार्यकत्र्ता इसके जरिये सस्ती लोकप्रियता हासिल करके दलितों में अपनी नेतागिरी चमकाने के चक्कर में भी हैं। यह बात बिल्कुल सही है कि ब्राह्मणवादी होने के लिए उच्च वर्ण या जाति का होना कतई आवश्यक नहीं है। दलित जाति में जन्मा व्यक्ति भी ब्राह्मणवाद का घोर समर्थक हो सकता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कोई स्त्री पुरुषवादी विचारधारा व मानसिकता के अनुसार अपना व्यवहार कर सकती है।
ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है जो गैर-बराबरी, भेदभाव, शोषण, पक्षपात को वैधता प्रदान करती है। प्रेमचन्द का इस विचार से मूलभूत विरोध रहा है और समाज में मौजूद सामाजिक व आर्थिक विषमता को दूर करना उनके साहित्य-लेखन का मकसद रहा है। साहित्य के बारे में सन् 1936 में, उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन के सभापति के आसन से बोलते हुए कहा कि ''हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"5 प्रेमचन्द वंचित-पीडि़त वर्ग के हिमायती थे। ''साहित्यकार मानवता का, प्रगति का, शराफत का वकील है, जो दलित है, पीडि़त है, ज़ख्मी है, चाहे वे व्यक्ति हो या समाज। उनकी हिमायत और वकालत ही उसका धर्म है। उसकी अदालत समाज है इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है।"6 प्रेमचन्द ने ऐसे समाज-निर्माण के लिए साहित्य रचना की, जिसमें सबको सम्मान के साथ जीने का हक हो और ऐसी समाज-व्यवस्था हो, जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे का शोषण न कर सके। प्रेमचन्द के सपनों के समाज का आधार सामाजिक-आर्थिक समानता थी, यह कुछ उसी तरह का समाज था, जिसे डा. भीमराव आम्बेडकर लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करते थे।
शोषितों-दलितों-वंचितों-पीडि़तों के मुक्ति-नायक व आधुनिक भारत के महान दार्शनिक-चिंतक, अर्थशास्त्री-विधिवेत्ता डॉ. भीमराव आम्बेडकर समानतापूर्ण लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना चाहते थे। डा. आम्बेडकर के चिंतन व कार्य मूलत: उनकी लोकतंत्र में विश्वास की ही अभिव्यक्ति है, इस विश्वास में लगातार विकास ही हुआ। ज्यों-ज्यों वे समाज के बदलाव के संघर्ष में जुड़ते गए त्यों-त्यों उनका लोकतंत्र में विश्वास बढ़ता गया। राजनीति, समाज, अर्थ व धर्म संबंधी उनके चिंतन का यही केन्द्रीय तत्त्व है।
डा. आम्बेडकर लोकतंत्र को व्यापक अर्थों में ग्रहण करते थे। उनका कहना था कि ''प्रजातंत्र सरकार का एक स्वरूप मात्र नहीं है। यह वस्तुत: साहचर्य की स्थिति में रहने का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से सम्प्रेषण होता है। प्रजातंत्र का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और मान की भावना।"7 वर्ण-व्यवस्था व जाति-व्यवस्था में साहचर्य व भाईचारे की भावना के विपरीत असमानता होने के कारण ही वे इसके प्रखर आलोचक थे।
डा.आम्बेडकर राजनीतिक और सामाजिक लोकतंत्र को अलग-अलग करके नहीं देखते थे, बार-बार उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है। 18 जनवरी 1943 को महादेव गोबिन्द रानाडे की 101वीं जयन्ती पर दिए गए भाषण में Ó ('रानाडे, गांधी और जिन्नाÓ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित है) आम्बेडकर ने कहा कि ''लोकतंत्रात्मक शासन के लिए लोकतंत्रात्मक समाज का होना जरूरी होता है। प्रजातंत्र के औपचारिक ढांचे का कोई महत्त्व नहीं है और यदि सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह वास्तव में अनुपयुक्त होगा। राजनीतिक लोगों ने यह कभी भी महसूस नहीं किया कि लोकतंत्र शासन तंत्र नहीं है। यह वास्तव में समाज तंत्र है।8 डा. आम्बेडकर मानते थे कि जब तक समाज में आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र न हो तो राजनीतिक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। 'इंडियन फैडरेशन ऑफ लेबर' के तत्त्वावधान में 8 से 17 सितम्बर तक, 1943 में, दिल्ली में, 'अखिल भारतीय कार्मिक संघ' के कार्येकर्ताओ के अध्ययन शिविर के समापन सत्र में दिए गए भाषण में डा. आम्बेडकर ने संसदीय लोकतंत्र की असफलता के कारणों पर विचार करते हुए कहा कि जिन देशों में अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र है उनमें संसदीय लोकतंत्र आसानी से असफल नहीं हुआ। ''सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र के स्नायु और तंत्र हैं। ये स्नायु और तंत्र जितने अधिक मजबूत होते हैं, उतना ही शरीर सशक्त होता है। लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता की चाह का विकास किया, परन्तु समानता के प्रति इसने नकारात्मक रुख अपनाया। यह समानता के महत्त्व को अनुभव करने में असफल रहा और इसने स्वतंत्रता तथा समानता के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रयास नहीं किया जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया तथा असमानता को पनपने दिया।"9 आम्बेडकर वास्तविक लोकतंत्र यानी सामाजिक लोकतंत्र के हिमायती थे, वे ऐसी स्थितियां चाहते थे जो लोकतंत्र के अनुकूल हों।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने दलित जीवन के विभिन्न पक्षों - हिन्दू समाज में दलितों की स्थिति, उनके शोषण-उत्पीडऩ की प्रक्रियाओं व उनके खिलाफ संघर्ष के तरीकों पर अपनी रचनाओं में विस्तार लिखा। प्रेमचन्द के साहित्य में प्रसंगवश दलित-जीवन के विविध पक्ष व्यक्त हुए हैं। डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में मौजूद समानता केवल सुखद संयोग नहीं है बल्कि दोनों चिंतकों की जीवन-दृष्टि की आधार भूमि एक है।
प्रेमचन्द की रचनाओं में दलितों के प्रति सहानुभूति, करुणा एवं संवेदना के साथ शोषण, अन्याय, उत्पीडऩ से मुक्ति और मानवीय गरिमा व पहचान के लिए संघर्ष को नजरंदाज करके कोई राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित व्यक्ति या फिर उनकी रचनाओं से अनभिज्ञ ही 'दलित-विरोधी होने का अनर्गल आरोप लगा सकता है। प्रेमचन्द ने दलित जीवन के विभिन्न पक्षों के अन्त:सूत्रों को पहचाना व प्रतिबद्धता से व्यक्त किया है। प्रेमचन्द के 'कर्मभूमि' 'गोदान' व 'रंगभूमि' उपन्यासों में तथा 'दूध का दाम', 'मंदिर', 'गुल्ली डंडा', 'ठाकुर का कुंआ', 'मंत्र', 'सद्गति', 'कफन' आदि कहानियों में दलित जीवन के चित्र प्रस्तुत हुए हैं। जिस रूप में दलित जीवन के विविध पक्ष यहां अभिव्यक्त हुए हैं उनको देखकर तो कोई संवेदनशील व्यक्ति उन पर दलित-विरोधी होने का आरोप नहीं लगा सकता।
मानवीयता से परिपूर्ण दलित जीवन की अभिव्यक्ति
प्रेमचन्द ने दलित चरित्रों को सकारात्मक और मानवीयता से परिपूर्ण दर्शाया है। प्रेमचन्द को समाज के गरीबों-वंचितों-दलितों में मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा अधिक दिखाई दी। उन्होंने लिखा है कि ''हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के सामने रखो, चाहे हिन्दू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो, इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है"10
'मंदिर' कहानी की सुखिया दलित पात्र है और उसमें मौजूद अद्भुत ममता किसी महान स्त्री से कम नहीं है। ''तीन दिन से सुखिया के मुंह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आंखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हंसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहाँ? एक बार पानी का एक घंूट मुंह में लिया था, पर कंठ के नीचे न ले जा सकी।"11 सुखिया का वात्सल्य-प्रेम इतना उदात्त है कि वह इसके लिए कुछ भी कर सकती है। अपनी जमा-पूंजी बेच सकती है, पुजारी की मिन्नतें कर सकती है, भयानक रात में प्रतीक्षा कर सकती है, सामाजिक मान्यताओं को तोड़ सकती है और अन्तत: अपनी जान भी दे देती है।
'मंत्र' कहानी का अछूत बूढ़ा घायल पंडित लीलाधर को अपने घर ले आता है और उसकी सेवा-सुश्रुषा व दवाई-बूटी करता है। यहां तक कि ''बूढ़ा मल-मूत्र तक अपने हाथों से उठाकर फेंकता, पंडित जी की घुड़कियां सुनता, सारे गांव से दूध मांगकर उन्हें पिलाता। पर उसकी त्योरियां कभी मैली न होतीं। अगर उसके कहीं चले जाने पर घरवाले लापरवाही करते तो आकर सबको डांटता।"
''महीने भर के बाद पंडित जी चलने-फिरने लगे और तब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मेरे साथ कितना उपकार किया है। इन्हीं लोगों का काम था कि मुझे मौत के मुंह से निकाला, नहीं तो मरने में क्या कसर रह गई थी? उन्हें अनुभव हुआ कि मैं जिन लोगों को नीच समझता था और जिनके उद्धार का बीड़ा उठाकर आया था वे मुझसे कहीं ऊंचे हैं। मैं इस परिस्थिति में कदाचित रोगी को किसी अस्पताल में भेजकर ही अपनी कत्र्तव्य-निष्ठा पर गर्व करता; समझता मंैने दधीचि और हरिश्चन्द्र का मुख उज्ज्वल कर दिया। उनके रोएं-रोएं से इन देव-तुल्य प्राणियों के प्रति आशीर्वाद निकलने लगा।"12
यह प्रसंग कथित अछूतों और कथित सवर्णों के व्यवहार की तुलना करता है। पंडित लीलाधर अपने व्यवहार और अछूत बूढ़े के व्यवहार में तुलना करता है तो पाता है कि इन कथित नीचों के जीवन-मूल्य उनसे कहीं ज्यादा बेहतर है। जिन लोगों को वे नीच मानकर उनकी 'शुद्धि' करने के लिए आये थे उनका व्यवहार असल में मानवीयता से परिपूर्ण है जिसमें किसी प्रकार का ढोंग और पाखण्ड नहीं है। नीच होने का दंश झेलते ये लोग प्रेमचन्द की नजरों में इतने ऊंचे है कि उन्होंने पंडित लीलाधर के माध्यम से इनको 'देवतुल्य' प्राणियों की संज्ञा दी है।
पंडि़त लीलाधर का बदला व्यवहार केवल प्रेमचन्द की 'हृदय-परिवर्तन' की शैली का ही कमाल नहीं है, बल्कि उसका एक पुख्ता आधार है कि वे उनमें रहते हैं और जीवन को तथा अपने वर्ग के जीवन को गहराई से देखते हैं। और इस नतीजे पर पंहुचते हैं कि जिन दलितों को 'अछूत व गंदे' समझता रहा असल में उनका जीवन व व्यवहार मानवता की कसौटी पर इतना खरा उतरता है कि वे उनमें ही रहने लग गये। पंडित लीलाधर में यह परिवर्तन अचानक नहीं आया कि उन्हें इलम हो गया कि अब अछूत अच्छे हो गए हैं, बल्कि वे अपने प्रति उनका व्यवहार देखते हैं। वे उनके व्यवहार से इतना सीखते हैं कि न केवल उनमें रहने लगते हैं, बल्कि जानलेवा बीमारी में उन अछूतों की दवा-दारू व सेवा-सुश्रुषा करते हैं, जबकि उनके सगे-संबंधी अपनी जान बचाकर भाग जाते हैं और वे कई लोगों की जान बचा लेते हैं। पंडित जी का व्यक्तित्व एकदम बदल जाता है। इसके बदलने का कारण मुख्य तौर पर उनके सोचने के ढंग में आया परिवर्तन ही है। प्रेमचन्द ने वर्णन करते हुए लिखा कि ''पंडित जी अब अपने ब्राह्मणत्व पर घमंड करने वाले पंडित जी न थे। इन्होंने शूद्रों और भीलों का आदर करना सीख लिया था। उन्हें छाती से लगाते हुए अब पंडित जी को घृणा न होती थी। पंडित जी ने किसी को शुद्ध नहीं किया। उन्हें अब शुद्धि का नाम लेते शर्म आती थी।
मैं भला इन्हें क्या शुद्ध करूंगा, पहले अपने को तो शुद्ध कर लू। ऐसी निर्मल एवं पवित्र आत्माओं को शुद्धि के ढोंग से अपमानित नहीं कर सकता"
यह मंत्र था, जो उन्होंने इन चांडालों से सीखा था और इस बल से वह अपने धर्म की रक्षा करने में सफल हुए थे।
पंडित जी अभी जीवित हैं, पर वह अब सपरिवार उस प्रांत में, उन्हीं भीलों के साथ रहते है।"13
सोचने की बात है कि बूढ़े अछूत की मानवता व सेवा-भाव से ब्राह्मणवादी विचारधारा की वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करने वाले को बदल सकने की शक्ति को चित्रित करने वाला लेखक किसी भी तरह से दलित-विरोधी तो नहीं ही हो सकता। अछूतों से ऐसे उदात्त चरित्रों की रचना वही रचनाकार कर सकता है जिसके हृदय में अछूतों-दलितों के प्रति न केवल सहानुभूति व करुणा का भाव हो, बल्कि उनको पूरी तरह मुकम्मल इंसान मानता हो। प्रेमचन्द ने 'शुद्धि' जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड व पाखण्ड द्वारा उनकी इन्सानियत सिद्ध करने की जरूरत नहीं समझी। जो व्यक्ति अपने विचारधारात्मक अंहकार के कारण उनकी इंसानियत को चुनौती देकर उन्हें 'शुद्ध' करके पूरा इंसान बनाने का दावा करता हो वही यह कहने लगे कि वे उससे कहीं ऊंचे हैं। उनके मानवीय व्यवहार में प्रभावित करने की इतनी शक्ति है कि उसकी धारणाएं ही बदल जाएं, सारा जातीय अंहकार इस हद तक चूर-चूर हो जाए कि उनमें ही आकर रहने लग जाए। पे्रमचन्द ने अछूत व नीच कहे जाने वाले लोगों तथा श्रेष्ठ व ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का व्यवहार समानान्तर रूप से दर्शाया है। एक तरफ तो ये अछूत हैं जिनकी पंडित लीलाधर से न तो कोई जान-पहचान है, न उनकी जाति का है, न वर्ण का और किसी भी तरह की सांझ नहीं हैं लेकिन ये विपत्ति आने पर उनकी कितनी सेवा-सुश्रुषा करते हैं, उनका मल-मूत्र तक उठाते हैं और कड़ी मेहनत करके उनकी जान बचा लेते हैं। दूसरी तरफ, उनके परिवार के लोग व उनके सहयोगी हैं , हिन्दू सभा के नेता कार्यकत्र्ता व दानी हैं जिनके लिए पंडित लीलाधर ने अपना जीवन ही लगा दिया था, लेकिन उनका व्यवहार इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है ''तीन महीने गुजर गए। न तो हिन्दू-सभा ने पंडित जी की खबर ली और न घरवालों ने। सभा के मुख-पत्र में उनकी मृत्यु पर आंसू बहाये गये, उनके कामों की प्रशंसा की गई, और उनका स्मारक बनाने के लिए चन्दा खोल दिया गया। घरवाले भी रो-पीट कर बैठ रहे।"14 पं. लीलाधर के सहयोगियों के पास धन है, लेकिन मानवीय संवेदनाओं की कमी है। वे धन खर्च करके ही अपने कत्र्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
पं. लीलाधर जब दलितों के बीच रहता है, तो उनके जीवन को जान पाता है। इससे पहले उसका ज्ञान मात्र शास्त्रों या प्रचार आधारित है। इस वर्ण-धर्म की व्यवस्था ने समाज में अलगाव की बहुत गहरी खाई निर्मित की है, बीच में एक मोटी दीवार है, जो एक-दूसरे के प्रति सम्मान-सहानुभूति व परस्पर परिचय भी नहीं होने देती। पं. लीलाधर के दिमाग से वर्ण-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण धारणाएं हटती hai, तो उनका मानवीय अनुभव उनके व्यवहार को बदल देता है। डा. भीमराव आम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था को अलगाव पैदा करने वाली बताया है। अपने विश्लेषण में उन्होंने इसका विस्तार से वर्णन किया है कि दलित-बस्तियां गांव से दूर एक किनारे पर रखना उनका समाज से अलगाव व बहिष्कार ही है। प्रेमचन्द भी डा. आम्बेडकर की तरह से जाति-वर्ण व्यवस्था के प्रभावों को देख रहे थे।
'दूध का दाम' कहानी में अछूत मानी जाने वाली भूंगी भंगिन महेश बाबू के नवजात बेटे सुरेश को अपना दूध पिलाती है, जिस कारण उसका अपना बेटा मंगलू भूखा भी रहता है।15 यह दलित ही है जो इतना त्याग कर सकता है कि अपने बच्चे के हिस्से का दूध दूसरे को पिला सकती है।
प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में दलित चरित्रों को मानवीय संवेदना लिए हुए दर्शाया है न कि नैतिक रूप से पतित। प्रेमचन्द के दलित चरित्र बहुत विचारशील हैं। प्रेमचन्द यथार्थवादी लेखक हैं, इसलिए वे मनोगत व कल्पित दुनिया का निर्माण करके दलितों को आदर्शीकृत भी नहीं करते। मानव सुलभ कमजोरियां उनमें भी हैं। तत्कालीन समाज में वर्चस्वी वर्ग के अत्यधिक आधिपत्य के कारण दलित वर्ग लाचार व असहाय भी थे। प्रेमचन्द की रचनाओं में दलित चरित्र मानवीय संवेदनाओं का त्याग नहीं करते। व्यवस्थागत व परिस्थितिगत विवशताओं के कारण यदि वे किसी ऐसे कर्म में हैं तो प्रेमचन्द उसे उद्घाटित करते हैं।
ब्राह्मणवादी विचारधारा : मानवता का क्षरण
प्रेमचन्द किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं थे, बल्कि वे ब्राह्मणवादी विचारधारा को मानवता के हृास का कारण मानते थे और इस विचारधारा की अमानवीयता को उद्घाटित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ते थे, इसके खोखले तर्कों की बखिया उधेड़ते थे। ध्यान देने की बात है कि 'मंत्र' कहानी में अछूत बूढ़ा भरी सभा में ब्राह्मणवादी-विचारधारा के प्रशिक्षित प्रचारक की आंखों में आंखे डालकर अपना पक्ष रखता है और अपनी सहज बुद्धि से उन तमाम खोखले व अहंकारपूर्ण तर्कों का जवाब देता है जो हिन्दू धर्म में वर्ण-व्यवस्था की ऊंच-नीच को तथा छूआछूत को कभी अशुद्ध खाने का बहाना लेकर तो कभी 'संस्कारों' का बहाना लेकर उचित ठहराते हैं। अछूत बूढ़े ने बिल्कुल स्पष्ट और सही ही कहा है कि ऊंच-नीच की वजह कुछ और नहीं बल्कि शक्ति व सत्ता है जिसके पास ताकत है - धन की, बल की व ज्ञान की - समाज में उसका दर्जा ऊंचा है और जो इनसे वंचित है उसका नीचा है। शास्त्रीय व संस्थागत धर्म ने हमेशा ऊंच-नीच का औचित्य ठहराने में ही मदद की है। समाज में जब भी सत्ता के समीकरण बदले हैं तो उसके साथ ही जातियों के सामाजिक-स्तर भी बदले है। अपना पक्ष रखकर बूढ़े व उसके साथियों का पंडाल से चले जाना ऊंच-नीच की मान्यता देने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा का अस्वीकार है। प्रेमचन्द किन्हीं शर्तों के आधार पर उनको स्वीकार करने की हिमायत नहीं करते बल्कि जैसे हैं उसी रूप में मानव-गरिमा की अपेक्षा रखते हैं, वे दलितों को भरा पूरा इंसान मानते हैं। इसलिए पंडित लीलाधर के तर्कों से कोई सरोकार न रखकर उसकी सभा से दलित बहिष्कार करते हैं। ध्यान देने की बात है कि उसकी सभा का बहिष्कार अकेला बूढ़ा नहीं करता बल्कि पूरा दलित समाज करता है। अछूत बूढ़े के विचार समस्त दलित समाज के विचार हैं, जो बूढ़े की अपेक्षाएं हैं वे पूरे दलित समाज की अपेक्षाएं हैं। बूढ़े का व उसके साथियों का इस सभा से बहिष्कार प्रेमचन्द के विचारों में मौजूद पूरी स्पष्टता को ही दर्शाता है, उनके विचारों में किसी प्रकार का असमंजस या ढुलमुलपन नहीं है। वे अपना पक्ष बिना किसी लाग लपेट के रखते हैं। बूढ़े के तर्क और कार्य केवल कहानी की तार्किक परिणति के कारण नहीं हैं, बल्कि प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता इसमें गहराई से जुड़ी है। प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता उनकी संपादकीय टिप्पणियों में देखी जा सकती है। इस संबंध में 21 नवम्बर 1932 को प्रेमचन्द ने लिखा कि ''कहा जाता है अछूतों की आदतें गंदी हैं, वे रोज स्नान नहीं करते, निषिद्ध कर्म करते हैं, आदि। क्या जितने सछूत हैं, वे रोज स्नान करते हंै, क्या काश्मीर और अल्मोड़ा के ब्राह्मण रोज नहाते हैं? इसी काशी में ऐसे ब्राह्मणों को देखा है, जो जाड़ों में, महीने में एक बार स्नान करते हैं। फिर भी वे पवित्र हैं। यह इसी अन्याय का प्रायश्चित है कि संसार के अन्य देशों में हिंदू मात्र को अछूत समझा जाता है। फिर शराब क्या ब्राह्मण नहीं पीते? इसी काशी में हजारों मदसेवी ब्राह्मण और वह भी तिलकधारी - निकल आयेंगे, फिर भी वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों के घरों में चमारियां हैं, फिर भी उनके ब्राह्मणत्व में बाधा नहीं आती, किन्तु अछूत नित्य स्नान करता हो, कितना ही आचारवान हो, वह मंदिर में नहीं जा सकता। क्या इसी नीति पर हिन्दू धर्म स्थिर रह सकता है? इस नीति के कुफल हम देख चुके, अब सावधान हो जाना चाहिए।
हमारी समझ में नही आता हम किस मुंह से यह दावा कर सकते हैं कि हम पवित्र और अमुक अपवित्र हैं। किसी ब्राह्मण महाजन के पास उसी का भाई ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है, ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता, उस पर उसका विश्वास नहीं है। वह जानता है, उसे रुपये देकर वसूल करना मुश्किल हो जाएगा। उसी ब्राह्मण के पास अछूत असामी जाता है और बिना किसी लिखा-पढ़ी के रुपये ले आता है। ब्राह्मण को उस पर विश्वास है। वह जानता है, यह बेईमानी नहीं करेगा। ऐसे सत्यवादी, सरल हृदय, भक्ति-परायण लोगों को हम अछूत के नाम से पुकारते हैं, उनसे घृणा करते हैं, मगर हमारा विश्वास है, हिन्दू समाज की धार्मिक चेतना जाग्रत हो गई है, अब वह ऐसे अन्यायों को सहन न करेगा। राष्ट्रों के जीवन का रहस्य उसकी समझ में आ गया है, वह ऐसी नीति का साथ न देगा, जो उसके जीवन की जड़े काट रही है।"16
'मंत्र' कहानी के बूढ़े के माध्यम से प्रेमचन्द ने अस्पृश्यता और जातिप्रथा के संबंधों के सवाल को बिल्कुल सही परिप्रेक्ष्य में उठाया है। छुआछूत व जातिप्रथा का अस्तित्व रोटी व बेटी के संबंधों पर टिका है। अछूतों के साथ रोटी के संबंध बनाने के लिए तो पंडि़त लीलाधर भी तैयार हैं जो सिर्फ छुआछूत को ही समाप्त करते हैं लेकिन उनके साथ बेटी के रिश्ते बनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। बिना बेटी के संबंध बने समाज से ऊंच-नीच को पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। असल में जिस ब्राह्मणवादी विचारधारा व शास्त्रीय ग्रन्थों के तर्कों से उनका व्यवहार परिचालित हैं वह जाति-प्रथा की जननी वर्ण-व्यवस्था को सैद्धान्तिक तौर पर उचित ठहराती है। प्रेमचन्द और डा. भीमराव आम्बेडकर का ऐसा मानना रहा है कि जातिप्रथा को समाप्त करके ही वास्तविक भाईचारा स्थापित हो सकता है, अन्तर्जातीय विवाह इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। केवल खान-पान के संबंधों से ही जाति-प्रथा को समाज से मिटाया नहीं जा सकता, इसलिए पे्रमचन्द 'मंत्र' कहानी के बूढ़े के माध्यम से बेटी के संबंध बनाने की बात करते हैं ।
''बूढ़ा- आप जब इन्हीं महात्माओं की संतान हैं, तो फिर ऊंच-नीच में क्यों इतना भेद मानते हैं?
लीलाधर- इसलिए कि हम पतित हो गए हैं अज्ञान में पड़कर उन महात्माओं को भूल गये हैं।
बूढ़ा- अब तो आपकी निद्रा टूटी है, हमारे साथ भोजन करोगे?
लीलाधर- मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
बूढ़ा- मेरे लड़के से अपनी कन्या का विवाह कीजिएगा?
लीलाधर- जब तक तुम्हारे जन्म-संस्कार न बदल जाएं, जब तक तुम्हारे आहार-व्यवहार में परिवर्तन न हो जाए, हम तुमसे विवाह का सम्बन्ध नहीं कर सकते, मांस खाना छोड़ो मदिरा पीना छोड़ो, शिक्षा ग्रहण करो, तभी तुम उच्च-वर्ण के हिन्दुओं में मिल सकते हो।
बूढ़ा- हम कितने ही ऐसे कुलीन ब्राह्मणों को जानते हैं, जो रात-दिन नशे में डूबे रहते हैं। मांस के बिना कौर नहीं उठाते और कितने ही ऐसे हैं, जो एक अक्षर भी नहीं पढ़े हैं पर आपको उनके साथ भोजन करते देखता हूँ । उनसे विवाह-संबंध में आपको कदाचित इनकार न होगा। जब आप खुद अज्ञान में पड़े हुए हैं तो हमारा उद्धार कैसे कर सकते हैं? आपका हृदय अभी तक अभिमान से भरा हुआ है। जाइए, अभी कुछ दिन और अपनी आत्मा का सुधार कीजिए। हमारा उद्धार आपके किए न होगा। हिंदू समाज में रहकर हमारे माथे से नीचता का कलंक न मिटेगा। हम कितने ही विद्वान कितने ही आचारवान हो जाएं, आप हमें यों ही नीच समझते रहेंगे। हिन्दुओं की आत्मा मर गई है, और उसका स्थान अंहकार ने ले लिया है! हम अब देवता की शरण जा रहे हैं, जिनके मानने वाले हमसे गले मिलने को आज ही तैयार हैं। वे यह नहीं कहते कि तुम अपने संस्कार बदल कर आओ। हम अच्छे हैं या बुरे, वे इसी दशा में हमें अपने पास बुला रहे हैं। आप अगर ऊंचे है, तो ऊंचे ही रहिये। हमें उडऩा न पड़ेगा।
लीलाधर - एक ऋषि-संतान के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। वर्ण-भेद तो ऋषियों ही का किया हुआ है। उसे तुम कैसे मिटा सकते हो?
बूढा - ऋषियों को बदनाम मत कीजिए। यह सब पाखण्ड आप लोगों का रचा हुआ है। आप कहते हैं- तुम मदिरा पीते हो, लेकिन आप मदिरा पीने वालों की जूतियां चाटते हैं। आप हमसे मांस खाने के कारण घिनाते हैं, लेकिन आप गौ-मांस खाने वालों के सामने नाक रगड़ते हैं। इसलिए न कि वे आप से बलवान हैं। हम भी आज राजा हो जाएं, तो आप हमारे सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। आपके धर्म में वही ऊंचा है, जो बलवान है, वही नीच है, जो निर्बल है। यही आपका धर्म है?
यह कहकर बूढ़ा वहां से चला गया और साथ ही और लोग भी उठ खड़े हुए। केवल चौबे जी और उनके दल वाले मंच पर रह गए, मानो मंचगान समाप्त हो जाने के बाद उसकी प्रतिध्वनि वायु में गूंज रही हो।"17
प्रेमचन्द जाति-वर्ण व्यवस्था व अस्पृश्यता के दंश को खूब समझते थे और इसकी विचारधारा व मंतव्य को भी। बूढ़े के माध्यम से उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं, कि यह ऊंच-नीच की व्यवस्था असल में कमजोर व ताकतवर के रिश्ते बताती है। जब बूढ़ा कहता है कि 'हम भी आज राजा हो जाएं, तो आप हमारे सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। आपके धर्म में वही ऊंचा है जो बलवान है, वही नीच है, जो निर्बल है तो वह वह जाति-व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक आधार को उद्घाटित कर रहे हैं। इस बात की ओर भी प्रेमचन्द ने संकेत कर दिया था कि राजनीतिक सत्ता हासिल किए बिना शोषक समाज दलितों को मानवीय गरिमा प्रदान करने वाला नहीं है। डा। भीमराव आम्बेडकर ने भी राजनीतिक सत्ता को दलित-मुक्ति की 'गुरु-किल्ली'बताया था, इसीलिए वे सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए राजनीतिक सत्ता हासिल करने का संघर्ष करते थे। प्रेमचन्द अपने समय की प्रगतिशील व विकासमान शक्तियों को पहचान रहे थे। जो रचनाकार अपने युग की गति को पहचानता है वही युगद्रष्टा व भविष्यद्रष्टा होता है। इसीलिए प्रेमचन्द ने साहित्य को 'राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई' कहा था। प्रेमचन्द ने दलित-मुक्ति की राजनीति की दिशा की ओर संकेत किया था, आज के दलित-आन्दोलन व स्थितियों पर विचार करने से सही साबित हो रही है कि जब दलित नेता राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने में सफल हुए हैं, तो कथित 'श्रेष्ठ' व 'उच्च' भी उनके पास 'हाथ बांधे खड़े' हैं।
डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में साम्यता सिर्फ उपर्युक्त मामले में ही नहीं थी, बल्कि जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के उपाय में भी थी। डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द दोनों ही सवर्णों-दलितों के बीच रोटी-बेटी के सम्बन्धों को जाति-प्रथा तोडऩे के लिए कारगर समझते थे तथा केवल रोटी के सम्बन्ध को अपर्याप्त मानते थे। महात्मा गंाधी के सामूहिक भोज को वे दलित मुक्ति के लिए नाकाफी समझते थे। डा.आम्बेडकर की तरह अन्तर्जातीय विवाह के हिमायती थे, इसीलिए प्रेमचन्द की 'मंत्र' कहानी का बूढ़ा अन्तर्जातीय विवाह पर जोर देता है। डा.भीमराव आम्बेडकर ने अपने प्रसिद्ध लेख 'जातिप्रथा-उन्मूलन' में अन्तर्जातीय विवाह पर विशेष जोर दिया है। उन्होंने लिखा कि ''जाति-व्यवस्था समाप्त करने की एक योजना है कि अन्तर्जातीय खान-पान का आयोजन किया जाए। मेरी राय में यह उपाय भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अनेक जातियां है, जो अन्तर्जातीय खान-पान की अनुमति देती हैं। इस जाति-भावना या जाति-बोध को समाप्त करने में सफल नहीं हो पायी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अंतर्जातीय विवाह ही है। केवल खून के मिलने से ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता, तब तक जाति-व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गई पृथकता की भावना अर्थात् पराएपन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिन्दुओं में अंतर्जातीय विवाह सामाजिक जीवन में निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा। गैर-हिन्दुओं में इसकी इतनी आवश्यकता नहीं है। जहां समाज संबंधों के ताने-बाने से सुगठित होगा, वहां विवाह जीवन की एक साधारण घटना होगी। लेकिन जहां समाज छिन्न-भिन्न है, वहां बाध्यकारी शक्ति के रूप में विवाह की परम आवश्यकता होती है। अत: जाति-व्यवस्था को समाप्त करने का वास्तविक उपाय अन्तर्जातीय विवाह ही है। जाति-व्यवस्था समाप्त करने के लिए जाति-विलय जैसे उपाय को छोड़कर और कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होगा .... सही है कि जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी, जब रोटी-बेटी का संबंध सामान्य व्यवहार में आ जाए। आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है? यह प्रश्न अपने आप से पूछिए। अधिसंख्य हिन्दू रोटी-बेटी का संबंध क्यों नहीं करते? आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है कि रोटी-बेटी का संबंध उन आस्थाओं और धर्म-सिद्धांतों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं। जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेल-मिलाप से रोकती हो और जिसे तोडऩा आवश्यक हो। जाति तो एक धारणा है और यह एक मानसिक स्थिति है। अत: जाति व्यवस्था को नष्ट करने का अर्थ भौतिक रुकावटों को दूर करना नहीं है। इसका अर्थ विचारात्मक परिवर्तन से है। जाति व्यवस्था बुरी हो सकती है। जाति के आधार पर ऐसा घटिया आचरण किया जा सकता है, जिसे मानव के प्रति अमानुषिकता कहा जा सकता है।"18
प्रेमचन्द ने सही दर्शाया है कि समस्या की असली जड़ पंडित लीलाधर सोचने के ढंग में है वे इसलिए ही अछूतों को नीच समझते रहे कि वे वर्ण-व्यवस्था की विचारधारा के दृष्टिकोण से समाज को देखते हैं। उनको अपने व्यवहार में कोई खोट नजर ही नहीं आया, बल्कि वर्ण-धर्म की रक्षा को वे बड़े पुण्य और समाज के लिए आवश्यक कार्य मानते थे। वे बड़ी ईमानदारी से 'शुद्धि' का काम इसलिए करते थे कि वे इसे धर्म व मानवता की सेवा के रूप में देखते थे। ऊंच-नीच के व्यवहार में उनको कुछ भी असंगत नहीं लगा, बल्कि 'धर्म-सम्मत'ही लगा। इसीलिए डा। भीमराव आम्बेडकर ने हमेशा ही इस बात पर जोर दिया कि ऐसे आदमी से घृणा करने या उस पर गुस्सा करने का कोई लाभ नहीं है जो धार्मिक मान्यता के कारण भेदभाव करता है, क्योंकि वह तो अपनी तरफ से धर्मसम्मत व्यवहार कर रहा होता है। इसलिए उन्होंने सलाह दी है कि जातिप्रथा के धार्मिक आधार पर चोट करना व उसके शास्त्रीय आधार को तोडऩा जरूरी है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने कहा कि ''यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दू समुदाय द्वारा जाति-प्रथा मानने का कारण यह नहीं है कि उनका व्यवहार अमानुषिक और अन्यायपूर्ण है। वह जातपांत को इसलिए मानते हैं, क्योंकि वह अत्यधिक धार्मिक होते हैं। अत: जातपांत मानने के लोग दोषी नहीं हैं। मेरी राय में उनका धर्म दोषी है, जिसके कारण जाति-व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ है। यदि यह बात सही है तो यह स्पष्ट है कि वह शत्रु जिसके साथ आपको संघर्ष करना है, वे लोग नहीं हैं जो जातपांत मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं, जिन्होंने जाति धर्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी का संबंध न करने या समय-समय पर अन्तर्जातीय खान-पान और अन्तर्जातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिए लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीका है। वास्ततिक उपचार यह है कि शास्त्रों से लोगों के विश्वास को समाप्त किया जाए। यदि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा तो आप कैसे सफल होंगे? शास्त्रों की सत्ता का विरोध किए बिना, लोगों को उनकी पवित्रता और दंड विधान में विश्वास करने के लिए अनुमति देना और फिर उनके अविवेकी और अमानवीय कार्यों के लिए उन्हें दोष लगाना और उनकी आलोचना करना सामाजिक सुधार करने का अनुपयुक्त तरीका है। प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी समेत अस्पृश्यता को समाप्त करने वाले समाज सुधारक यह महसूस नहीं करते हैं कि लोगों के कार्य मात्र उन धर्म-विश्वासों के परिणाम हैं, जो शास्त्रों द्वारा उनके मन में पैदा कर दिए गए हैं। लोग तब तक अपने आचरण में परिवर्तन नहीं करेंगे, जब तक वे शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास करना नहीं छोड़ देते, जिस पर उनका आचरण आधारित है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसे प्रयासों का कोई सकारात्मक परिणाम न निकले। आप भी वही गलती कर रहे हैं, जो अस्पृश्यता को समाप्त करने के उद्देश्य से काम करने वाले समाज सुधारक कर रहे हैं। रोटी-बेटी के संबंध के लिए आन्दोलन करना और उनका आयोजन करना कृत्रिम साधनों से किए जाने वाले, बलात् भोजन कराने के समान है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को शास्त्रों के बंधन से मुक्त कराइए, शास्त्रों द्वारा प्रतिष्ठापित हानिकर धारणाओं से उनके मस्तिष्क का पिंड छुड़ाइए, फिर देखिए, वह आपके कहे बिना अपने आप अंतर्जातीय खान-पान तथा अंतर्जातीय विवाह का आयोजन करेगा/करेगी।"19
'मंत्रÓ कहानी में पंडि़त लीलाधर जब दलितों में रहकर अपने कथित 'धार्मिक-संस्कारों' से मुक्ति पाते हैं तो उनकी संवेदना का दायरा विस्तृत होता है और उन्हें अपने अनुभव से दलितों के जीवन में मौजूद मानवता का अहसास होता है। ज्यों ही वे अपने अन्दर बैठे हुए ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाते हैं तो उनके सोचने का ढंग ही बदल जाता है। पंडित लीलाधर असमानता, श्रेष्ठता-नीचता को मान्यता देने वाली विचारधारा को त्याग देते हैं, तभी वे इन कथित अछूतों में घुल-मिल पाते हैं। 'शुद्धि' जैसे काम को जिसे वे धर्म का पुण्य-कार्य समझते थे, उसे मानवता को 'अपमानित' करने वाला मानने लगते हैं। विचारधारा के स्तर पर आत्मसंघर्ष से ही व्यक्ति गहरे में जड़ जमाये 'धार्मिक' आधार पर मान्यता पाए इन संस्कारों से छुटकारा पा सकता है।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने छुआछूत और जातिप्रथा को अलग-अलग करके नहीं देखा, बल्कि उनका मानना था कि जातिप्रथा को समाप्त किए बिना छुआछूत को समाप्त नहीं किया जा सकता। जातिप्रथा को समाप्त किए बिना अस्पृश्यता के विनाश की आशा करना बालू की भीत बनाना है। यह विचार कि जातिप्रथा और अस्पृश्यता दोनों अलग-अलग हैं, एक दिवा-स्वप्न है। दोनों एक ही हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दोनों का चोली दामन का साथ है। ...अस्पृश्यता तभी दूर हो सकगी, जब सम्पूर्ण व्यवस्था, विशेष रूप से जातिप्रथा विलीन हो जाए। क्या यह सभंव है? प्रत्येक संस्था का कोई न कोई आधार होता है। ये आधार तीन प्रकार के होते हैं? कानूनी, सामाजिक और धार्मिक। संस्था का स्थायित्व उसके अपने आधार की शक्ति पर निर्भर करता है। जाति-प्रथा के आधार की प्रकृति कैसी है? दुर्भाग्य से जाति-प्रथा का आधार धार्मिक है। जातिप्रथा वर्ग-व्यवस्था का नया संस्करण है, जिसे वेदों से आधार मिलता है। वेद हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ हैं और अकाट्य हैं, मैं उसे दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कहता हंू कि जिस किसी का आधार धर्म होता है, वह इस कारण ही पवित्र और सनातन बन जाता है। यदि जाति-प्रथा विलीन नहीं हो सकती, तब यह आशा किस प्रकार की जाए कि अस्पृश्यता विलीन हो जाएगी।"20
प्रेमचन्द की 'मंदिर' कहानी में सुखिया नामक चमारिन का बेटा बीमार हो जाता है और उसे लगता है कि यदि वह मंदिर में पूजा कर ले तो वह स्वस्थ हो सकता है। इसके लिए वह अपने घर का बचा-खुचा सामान बेचकर पूजा की सामग्री तैयार करती है। चूंकि गांव का पुजारी और ठाकुर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार सोचते हैं इसलिए वे उसे पूजा नहीं करने देते। पुजारी व ठाकुर की मान्यताएं और संस्कार सुखिया की ममता में रोड़ा बनकर खड़े हो जाते हैं। विशेष ध्यान देने की बात है कि प्रेमचन्द ने पुजारी या ठाकुर के प्रति भी घृणा नहीं की, बल्कि उस विचारधारा का अमानवीयपन है जिससे उनका व्यवहार परिचालित है और अपने लेखकीय कौशल व विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के कारण पुजारी में मौजूद मानवता को भी उभारने की कोशिश की है लेकिन विडम्बनापूर्ण है कि जब भी उसकी मानवता उभार पाती है तो उसके संस्कारों-विचारों, मान्यताओं-नैतिकता में मौजूद ब्राह्मणवादी अमानवीय विचारधारा के किटाणु उसे दबा देते हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा में छिपी बर्बरता व क्रूरता वात्सल्य-प्रेम के आड़े आती है। एक अबोध-अस्वस्थ बालक की रक्षा करने वाली मां की मदद नहीं करते, बल्कि उसमें बाधा बनकर खड़े होते हंै। जब सुखिया उससे मंदिर में पूजा करने की प्रार्थना करती है तो उस समय का उद्धरण देना उचित रहेगा:
''सुखिया ने थाली जमीन पर रख दी और एक हाथ फैलाकर भिक्षा प्रार्थना करती हुई बोली - महाराज जी, मैं अभागिनी हूँ । यही बालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो। तीन दिन से इसने सिर नहीं उठाया। तुम्हें बड़ा जस होगा, महाराज जी।
यह कहते-कहते सुखिया रोने लगी। पुजारी जी दयालु तो थे, पर चमारिन को ठाकुर जी के समीप जाने देने का अभूतपूर्व घोर पातक वह कैसे कर सकते थे? न जाने ठाकुर जी इसका क्या दंड दें। आखिर उनके भी बाल-बच्चे थे। कहीं ठाकुर जी कुपित होकर गांव का सर्वनाश कर दें, तो? बोले - घर जाकर भगवान् का नाम ले, तो बालक अच्छा हो जायेगा। मै यह तुलसीदल देता हूँ , बच्चे को खिला दे, चरणामृत उसकी आंखों में लगा दे। भगवान चाहेंगे तो सब अच्छा ही होगा।
सुखिया- ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे?
पुजारी- तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गांव पर कोई आफत-विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो।"21 बच्चे की हालत देखकर या सुखिया की मिन्नतों के कारण पुजारी के मन में उसके प्रति दया भाव या सहानुभूति पैदा होती है और पुजारी में मौजूद मानवता उभार पाने लगती है तो सदियों से उसके मन पर जमा पाप का डर, अनिष्ट की आशंका उसे फिर दबा देती है। ब्राह्मणवादी विचारधारा के कुतर्क को कि 'अछूत के छूने से मंदिर व ईश्वर भ्रष्ट हो जाते हैं व गांव पर भारी विपदा पड़ सकती है' सुखिया के माध्यम से प्रेमचन्द ने खूब उजागर किया है।
प्रेमचन्द ने दलितों के जीवन में मौजूद ईमानदारी तथा इन्सानियत को उजागर करते हुए सवर्णों के अन्याय, अत्याचार व शोषण का अस्वीकार है। 'दूध का दाम' कहानी में महेशबाबू के कथित सवर्ण व सम्पन्न परिवार के विचार, संस्कार व व्यवहार तथा अछूत समझे जाने वाली भुंगी, गूदड़ व मंगलू के विचार, संस्कार व व्यवहार को आमने-सामने दर्शाकर प्रेमचन्द ने दलितों में मौजूद करुणा, सहयोग, इन्सानियत को उजागर किया तो सवर्ण मनोवैज्ञानिकता में मौजूद काईयांपन, चालाकी व धोखेबाजी को चित्रित किया है जो उनकी इंसानियत को उभरने नहीं देती। मंगल को अहसास है कि सवर्ण के साथ उसकी किसी भी तरह की सांझ नहीं हो सकती। मौजूदा व्यवस्था में उसका शोषण होना निश्चित है इसलिए वह कहता है कि 'तुम बड़े चघड़ हो।' भारतीय समाज में दलितों को दूसरे दर्जे का इन्सान मानना और उनके साथ भेदभाव बरतना गम्भीर समस्याएं हैं। दलितों को हमेशा इनका सामना करना पड़ता है। इस तरह के व्यवहार के कारण दलितों को मानवीय गरिमा नहीं मिलती और दूसरी ओर भरा पूरा इन्सान होने के लिए जिस विनम्रता, सहजता और उदारता की आवश्यकता होती है वह सवर्णों में गायब हो जाती है। डा. आम्बेडकर ने इस बात को लिखा कि ''अस्पृश्यों को जिन गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें कम से कम इंसानों का दर्जा पाने की समस्या के बाद दूसरी समस्या भेदभावपूर्ण व्यवहार की आती है। जीवन में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ अस्पृश्य और हिंदुओं की एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा न होती हो और जिसमें अस्पृश्यों के साथ भेदभाव न किया जाता हो। यह भेदभाव बहुत ही मर्मातंक तरीके का होता है।
सामाजिक-सम्बन्ध, जैसे आमोद-प्रमोद, खान-पान, खेलकूद और पूजापाठ के मामले में यह प्रतिबंध का रूप ले लेता है। इस कारण साधारण से साधारण क्षेत्र में भी भाग लेने पर रोक लग जाती है। ... नागरिकता के अधिकार का आशय अस्पृश्यों के अधिकार से नहीं होता। जनता की सरकार और जनता के लिए सरकार का आशय अस्पृश्यों के लिए सरकार से नहीं होता, सभी के लिए समान अवसर का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अवसर नहीं होता। समान अधिकार का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अधिकार नहीं होता। सारे देश में कोने-कोने में अस्पृश्यों को अड़चनों का सामना करना पड़ता है, भेदभाव सहन करना पड़ता है, उनके साथ अन्याय होता है, वे भारत के सबसे दीन-हीन लोग हैं। यह कितना सच है, यह केवल अस्पृश्य जानते हैं, जिन्हें मुसीबतें उठानी पड़ती हैं। यह भेदभाव अस्पृश्यों के रास्ते में सबसे कठिन बाधा है। यह उनको इससे उबरने नहीं देती। इसके कारण उन्हें प्रतिक्षण किसी न किसी का, बेरोजगारी का, दुव्र्यवहार का, उत्पीडऩ आदि का डर बना रहता है। यह असुरक्षा की जिंदगी होती है।"22
दलित वर्ग को समाज के प्रति त्याग, निष्ठा, ईमानदारी व सर्वस्व त्याग का फल भी नहीं मिलता, उनको तो अपने लिए समर्पित मानकर चला जाता है, इसलिए उनके किए कार्यों के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित नहीं की जाती। जब किसी समाज के त्याग की कोई कीमत न समझी जाए तो जिस समाज के प्रति वह त्याग करता है उसकी इन्सानियत पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जाति-व्यवस्था की विचारधारा समाज से मानवता को सोख लेती है। जो समाज श्रेष्ठता के दंभ में चूर है वह इस कारण इन्सान होने की आवश्यक शर्तों पर खरा नहीं उतर पाता और जो वर्ग अपना सर्वस्व त्याग देता है उसकी मानवीयता का उल्लेख नहीं होने देती। दलित वर्ग की पीड़ा मंगल के इन शब्दों में व्यक्त होती है। ''मंगल ने एक हाथ से टम्मी का सिर सहलाकर कहा - देखा, पेट की आग ऐसी होती है। यह लात मारी हुई रोटियां भी न मिलती, तो क्या करते?
टम्मी ने दुम हिला दी।
'सुरेश को अम्मा ने पाला था।'
टम्मी ने फिर दुम हिलायी।
'लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'
टम्मी ने फिर दुम हिलायी।"23
ब्राह्मणवादी विचारधारा व्यक्ति को इतना गिरा देती है कि वह बीमार व असहाय व्यक्ति पर भी दया नहीं करने देती, जरूरतमंद की सहायता भी नहीं करते देती। ब्राह्मणवादी विचारधारा सिर्फ दलितों के लिए ही अभिशाप नहीं है, बल्कि कथित सवर्णों के लिए भी अभिशाप है। 14 मई,1934 को प्रेमचन्द ने 'इस हिमाकत की भी हद है' में लिखा कि ''छूतछात और जात-पांत का भेद हिन्दू समाज में इतना बद्धमूल हो गया है, कि शायद उसका सर्वनाश करके ही छोड़े। खबर है कि किसी स्थान में एक कुलीन हिन्दू स्त्री कुंए पर पानी भरने गई। संयोगवश कुंए में गिर पड़ी। बहुत से लोग तुरन्त कुंए पर जमा हो गए और उस औरत को बाहर निकालने का उपाय सोचने लगे, मगर किसी में इतना साहस न था कि कुंए में उतर जाता। वहां कई हरिजन भी जमा हो गए थे। वे कुंए में जाकर उस स्त्री को निकाल लाने को तैयार हुए, लेकिन हरिजन कुंए में कैसे जा सकता था। पानी अपवित्र हो जाता। नतीजा यह हुआ कि अभागिनी स्त्री कुंए में मर गई।
क्या छूत का भूत कभी हमारे सिर से न उतरेगा?"24
ब्राह्मणवादी विचारधारा और इंसानियत के मूल्य साथ-साथ नहीं रह सकते। कभी यह दलित पर कहर बनकर गिरती है तो कभी सवर्ण पर। 'ठाकुर का कुंआ' कहानी का जोखू बीमार है। जिसे साफ पानी की जरूरत है। दलितों के कुंए में कोई जानवर गिरकर मरने से पानी में बदबू हो गई। उसका पानी पीना बीमार व्यक्ति के लिए ठीक नहीं है। उसकी पत्नी उसके लिए ठाकुर के कुंए से पानी लेने के लिए कहती है। गांव में दलितों की बस्ती, कुंए, चौपाल सब कुछ अलग हैं, जोखू इस वास्तविकता को पहचानता है और उसे मना करता है, लेकिन बीमार व्यक्ति के लिए स्वच्छ पानी तो अवश्य चाहिए इसलिए वह पानी लेने जाने की हिम्मत करती है। जोखू और गंगी की बातचीत से पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
''जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- दूसरा पानी कहां से आयेगा?
'ठाकुर और साहू के दो कुंए तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?'
''हाथ-पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण/देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहू जी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुंए से पानी भरने देंगे?"25
यह कहानी वर्ण-व्यवस्था में छिपी अमानवीयता को दर्शाती है। वर्ण-व्यवस्था में चार वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र - सभी बराबर नहीं है, बल्कि विभिन्न स्तर है। इसमें ब्राह्मण सबसे ऊपर हैं, क्षत्रिय उससे नीचे, वैश्य उससे नीचे और शूद्र सबसे नीचे। इस स्तर क्रम में जो सबसे ऊंचे पायदान पर है वह सभी अधिकारों को भोगता है लेकिन जो सबसे नीचे है वह केवल 'कर्तव्य करता है। ऊपर के तीनों वर्ण मिलकर दलित का शोषण करते हैं और वे दलित का शोषण करने के लिए एकजुट हो जाते है। दलितों पर सवर्णों का यह अमानवीय व्यवहार ब्राह्मणवादी वर्ण-धर्म के कारण है। डा आम्बेडकर ने इस संबंध में लिखा कि ''अस्पृश्य यदि साफ वस्त्र पहनता है तो उस पर अत्याचार क्यों किया जाए? हिन्दू को उससे क्या आघात पहुंच सकता है? अस्पृश्य के साथ क्यों छेड़-छाड़ की जाए, यदि वह अपने घर पर खपरैल की छत डालता है? हिन्दू का उससे क्या बिगड़ता है? अस्पृश्य को क्यों पीड़ा पहुंचाई जाए? यदि वह अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहता है? उससे हिन्दू की क्या हानि होती है? अस्पृश्य को क्यों विवश किया जाए कि वह मृत पशुओं को उठाए, सड़ा-गला मांस खाए और घर-घर जाकर अपने भोजन के लिए गिड़गिड़ाए? हिन्दुओं को क्या घाटा होता है, यदि वह इन कामों को न करें? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि अस्पृश्य अपना धर्म बदलना चाहता है? उसके धर्म-परिवर्तन से हिंदू क्यों नाराज हों और बौखलाएं? हिन्दू स्वयं को क्यों अपमानित अनुभव करें, यदि अस्पृश्य अपना सुंदर एवं सम्मानीय नामकरण करता है? किसी अस्पृश्य का उत्तम नाम हिन्दू पर प्रतिकूल प्रभाव कैसे डाल सकता है? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि कोई बनता-बिगड़ता है? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि किन्हीं निश्चित दिवसों पर उसके कानों तक किसी अस्पृश्य की आवाज पहुंचती है, उससे वह बहरा तो नहीं हो सकता। हिन्दू को क्यों अप्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए, यदि कोई अस्पृश्य कोई काम करता है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाता है और उसकी गिनती खाते-पीते लोगों में होने लगती है, सभी हिन्दू, चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, मिलकर अस्पृश्यों का दमन क्यों करते हैं? सभी जातियां, चाहे वे आपस में लड़ती झगड़ती रहें, हिन्दू धर्म की आड़ में एकजुट होकर क्यों साजिश करती हैं और अस्पृश्यों को असहाय स्थिति में रखती हैं।
निश्चय ही ऐसे विचित्र और अमानवीय व्यवहार का कोई स्पष्टीकरण तो होना चाहिए वह क्या है?
यदि आप किसी हिन्दू से पूछेंगें कि वह ऐसा बर्बर व्यवहार क्यों करता है, क्यों वह घोर अपमान अनुभव करता है जब अस्पृश्य स्वच्छ और सम्मानजनक जीवन जीने का प्रयास करते हैं, तो उसका उत्तर सीधा-सा होगा। वह कहेगा, 'अस्पृश्यों के जिस प्रयास को आप सुधार कहते है, वह सुधार नहीं है। वह हमारे धर्म का घोर अपमान है।' यदि आप उससे फिर पूछेंगे कि इस धर्म की व्यवस्था कहां है तो पुन: उसका उत्तर एकदम सीधा-सा होगा, 'हमारा धर्म हमारे शास्त्रों में है।' पूर्वाग्रह-रहित व्यक्ति की दृष्टि से, अस्पृश्यों के उस न्यायोचित विद्रोह का दमन कर रहा है, जो वे हिंसा, लूटमार, आगजनी पर आधारित मूलत: अन्यायपूर्ण प्रणाली के विरुद्ध कर रहे हैं। आधुनिक व्यक्ति को लगता है कि दमन का सहारा लेकर हिन्दू नितांत धर्म-विरोधी कार्य कर रहा है या हिन्दुओं की प्रचलित शब्दावली में कहा जाए तो वह 'अधर्म' कर रहा है। लेकिन हिन्दू इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगा। हिन्दू का विचार है कि 'धर्म' का उल्लंघन तो अस्पृश्य कर रहे हैं और अराजकता के कर्म तो अधर्म से लगते हैं। उनकी प्रेरणा उसे धर्म के पुनरुद्धार हेतु, उसके पावन कत्र्तव्य से मिलती है। यह एक ऐसा अन्तर है जिसकी सत्यता को वे लोग नहीं नकार सकते, जो हिन्दुओं की मानसिकता से परिचित हैं।"26
'ठाकुर का कुंआÓ की गंगी ठाकुर के कुंए से पानी लेने के लिए चली जाती है। वह अपनी स्थिति और कथित ऊंचे वर्ण के लोगों के व्यवहार के बारे में सोचने लगती है। एक तो उनका कथित धर्म है दूसरे उनका वास्तविक जीवन है। कर्मकाण्डी, शास्त्रीय व पोथी का धर्म कुछ भी कहता हो लेकिन उनका जीवन भ्रष्ट है। गंगी के माध्यम से कथित श्रेष्ठता के खोल को प्रेमचन्द उजागर करते है।
''गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी-पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हंै और यह लोग क्यों ऊंचे हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हंै? यहां तो जितने हैं, एक-से-एक छंटे हैं? चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहुजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हंै। काम करवा लेते हैं, मजदूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हमसे ऊंचे। हां, मुँह में हमसे ऊंचे हंै। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे हैं, हम ऊंचे। कभी गांव में जाती हूं, तो रसभरी आंखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परन्तु घमण्ड यह कि हम ऊंचे हैं।
''कब इन लोगों को दया आती है किसी पर। बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसलिए कि उसने बेगार न दी थी। उस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं।"27
ब्राह्मणवादी विचारधारा का दलितों के प्रति सबसे क्रूर रूप 'सद्गति' कहानी के दुखी के मरने पर उद्घाटित होता है। दुखी लकड़ी फाड़ते-फाड़ते मर जाता है और जब पंडित घासीराम अपनी पत्नी को कहता है कि वह 'लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा?' तो वह बिना किसी संवेदना-सहानुभूति के ऐसे कह देता है जैसे कि कुछ घटित ही नहीं हुआ। जैसे दुखी का मरना उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। वह कहती है - 'होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो कि मुर्दा उठा ले जाएं'। पंडिताइन का यह वाक्य संवेदनहीनता का चरम बिन्दु है।
दुखी की लाश को चमार उठाने से मना कर देते हैं और ब्राह्मण उसको उठाने में अपने को नीचा समझते हैं। उनको दु:खी के परिवार से कोई संवेदना व सहानुभूति नहीं है। वे शोक मनाते परिवार के सदस्यों को भी अपनी नींद में बाधा डालने वाले ही मानते है। पण्डित घासीराम व उसकी पत्नी के बीच का संवाद अच्छी तरह उद्घाटित करता है।
'' आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मण लाश कैसे उठाते। भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है? कहीं कोई दिखा दे।
पंडिताइन ने झुंझलाकर कहा - इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभी का गला भी नहीं पकता।
पंडित ने कहा रोने दो चुड़ैलों को, कब-तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँची।
पंडिताइन - चमार का रोना मनहूस है।
पंडित - हां बहुत मनहूस
पंडिताइन - अभी से दुर्गन्ध उठने लगी ।
पंडित - चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।
पंडिताइन - इन सबों को घिन भी नहीं लगती।
पंडित - भ्रष्ट हैं सब।
रात तो किसी तरह कटी, मगर सवेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो पीटकर चली गई। दुर्गन्ध कुछ- कुछ फैलने लगी।
पंडित जी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फंदे को खींच दिया। अभी-कुछ धुंधलका था। पंडित जी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गांव के बाहर घसीट ले गये। वहां से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का" उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते ओर कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।" 28 पंडित घासीराम चमारों के शोक को मनहूस बता रहे हैं। लाश उठाने के लिए शास्त्रों के पन्नों को खंगालने का स्वांग भरते हैं। स्वयं को बड़ा ही धर्म-कर्म का और शुद्ध समझते हैं। उनकी नजर में सबसे बड़ा कार्य चमार के मरने से अपने घर की 'शुद्धि' है वे गंगाजल छिड़क कर ही अपने को शुद्ध कर लेते हैं। दुखी की हत्या से न तो उनकी आत्मा विचलित होती है और न ही उसे शुद्ध करने की जरूरत महसूस करते हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा की खोखली नैतिकता, कर्मकाण्डी धर्म और परजीवीपन ने पण्डित के जीवन से मानवता को समाप्त कर दिया है। कोई भी घटना उसकी मानवता को नहीं जगा पाती, वह हमेशा अपने-अपने शास्त्रों की व्यवस्था देखता है। प्रेमचन्द ने श्रमजीवी वर्ग दलित तथा उनकी मेहनत का शोषण करने वाले परजीवी वर्ग की सोच में अन्तर को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। प्रेमचन्द की सहानुभूति श्रमजीवी वर्ग की तरफ है।
शोषण को वैधता
वर्ण-व्यवस्था सामाजिक विषमता को वैधता प्रदान करती है। शोषकों की लूट और शोषण को उचित ठहराती है। छुआछूत को बनाए रखने के लिए धर्म व शास्त्रों का सहारा लिया है। धर्म ने हमेशा उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की है, और निम्न वर्ग के शोषण को उचित ठहराया है। इसीलिए दलितों के लिए अलग धर्म है तो सवर्णों के लिए अलग। प्रत्येक वर्ग के लिए अलग धर्म का औचित्य ठहराना असल में समाज में विशेषाधिकारों को स्वीकारना व उनको सुरक्षित करना है। यह सभी कुकर्मों-पापों व अनैतिकता को उचित ठहरा देती है। 'दूध का दाम' कहानी में ब्राह्मण और महेशबाबू के बीच हुए संवाद से यह स्पष्ट है:
'' भूंगी का शासनकाल साल भर से आगे न चल सका। देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित का प्रस्ताव कर बैठे। दूध तो छुड़ा दिया गया, लेकिन प्रायश्चित की बात हंसी में उड़ गई। महेशनाथ ने फटकार कर कहा - प्रायश्चित की खूब कही शास्त्री जी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गई। वाह रे आपका धर्म।
शास्त्री जी शिखा फटकारकर बोले - वह सत्य है, वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला। मांस खाकर पला, यह भी सत्य है, लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं, पर यहां तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते है। खिचड़ी तक खा लेते हैं' बाबूजी, लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता है। आपद्धर्म की बात न्यारी है।
'तो इसका अर्थ है कि धर्म बदलता रहता है- कभी कुछ, कभी कुछ?'
'और क्या! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजे-महाराजे जो चाहे खायें, जिसके साथ चाहें खाएं, जिसके साथ चाहें शादी ब्याह करे, उनके लिए कोई बन्धन नहीं। समर्थ पुरुष हैं। बन्धन तो मध्यवालों के लिए है।"29
स्पष्ट है कि धर्म के समस्त बंधन निम्न वर्ग के लोगों के लिए हैं। निम्न वर्ग के लोगों का आपस में भाईचारा न हो पाए इसीलिए उनमें खान-पान व शादी-विवाह न करने की व्यवस्था की। वर्चस्वी वर्गों के लिए कोई धार्मिक पांबदी नहीं है क्योंकि वे धार्मिक पाबंदी को स्वीकार नहीं करते। यदि कोई ऐसा कार्य हो भी जाता है जो व्यवस्था को तोड़ दे तो इसको पुन: स्थापित करने के लिए 'आपद्धर्म' की श्रेणी में डालकर उसे स्वीकार लिया गया और पुन: पूर्ववत व्यवहार करने की व्यवस्था दी गई। पे्रमचन्द ने पंडित और बाबू महेशनाथ के बीच की बातचीत से न केवल संकेत किया है बल्कि जोर देकर स्पष्ट किया है कि धर्म कोई सिद्धांत, मूल्यों और सार्वभौमिक और सार्वकालिक मान्यताओं पर नहीं टिका, बल्कि उसका आधार पूर्णत: स्वार्थ और आर्थिक हैसियत है। इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों के लिए धर्म अलग-अलग व्यवस्था देता है। इसमें गरीबों के लिए सख्त नियम होते हैं और अमीरों के लिए काफी छूट होती है। धर्म की व्याख्या करने वाले भी अमीर के पक्ष में ही उसकी व्याख्या करते हैं।
धर्म से मान्यता पाकर वर्ण-व्यवस्था में ऊंच-नीच की व्यवस्था शोषण को उचित ठहराती है। दलितों को साधनों से वंचित करके ही यह शोषण संभव हो सका है। धन का अभाव व उन पर निर्भरता के कारण ही थोड़े से धन के लालच में 'दूध का दाम' की भूंगी अपने बच्चे मंगल को भूखा रखती है लेकिन मालिक के बेटे सुरेश को पूरा दूध पिलाती है। उसके पेट की भूख ही ऐसा करवाती है। इसी तरह जब मंगलू को महेशबाबू की पत्नी डांटकर भगा देती है तो वह अपमानित होकर चला तो जाता है लेकिन उसे अपनी भूख मिटाने के लिए वापस वहीं आना पड़ता है, क्योंकि उसके पास अपनी भूख मिटाने का और कोई साधन ही नहीं है। 'मंगल ने एक हाथ से सिर सहलाकर कहा - देखा, पेट की आग ऐसी होती है! यह लात मारी हुई रोटियां भी न मिलती, तो क्या करते?'30 पेट भरने की मजबूरी ही दलितों को अपमान, शोषण व उत्पीडऩ को सहने को विवश करती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बड़े चालाकीपूर्ण ढंग से दलितों को साधन विहीन करके उनका शोषण करने की व्यवस्था की है।
अपना स्वार्थ साधने के लिए ऊंच-नीच व छूत-अछूत की व्यवस्था की गई है अत: जब स्वार्थ साधने में यह व्यवस्था आड़े आती है तो इसके पोषक इसको त्याग भी देते हैं, लेकिन जब स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तो फिर यह व्यवस्था अपना ली जाती है। इसका यह लचीलापन ही जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता और मानवीय शोषण को चिरस्थायी बनाए हुए हैं। बाबू महेश की पत्नी के दूध नहीं उतरता तो भुंगी भंगिन का दूध अपने बेटे सुरेश को पिलाने में कोई छूत नहीं लगती, यहां तक कि महेश बाबू भी उसकी डांट सहन कर लेते हैं। लेकिन जब अपना मतलब निकल जाता है तो फिर से ऊंच-नीच, छूत-अछूत की व्यवस्था को अपना लिया जाता है।
यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जो बच्चा उसके हिस्से का दूध पीकर बड़ा होता है और भंगिन का दूध पीता है वह भी छुआछूत में विश्वास करता है और महेश बाबू की पत्नी को जब दूध नहीं उतरता तो वह भुंगी भंगिन की चिरौरी करती है और तरह तरह के लालच देकर अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए उसे राजी कर लेती है और इसके लिए वह अपने बच्चे को भी दूध नहीं पिलाती। परन्तु यह घोर स्वार्थ के साथ वर्ण-व्यवस्था की अमानवीय विचारधारा का असर ही कहा जायेगा कि वह उस भंगिन के बेटे के छूने से भी न केवल मना करती है, बल्कि उसे खूब खरी खोटी सुनाती है। होना तो चाहिए था कि इनके मन से छुआछूत की भावना समाप्त हो जाती, लेकिन यह उसके बेटे के छूने को भी बुरा मानती है जिसने कि उसके बेटे को उसके हिस्से का दूध पिला कर बड़ा किया। अनाथ होने पर भी उस पर दया नहीं आई, जबकि उसने तो आने वाली कई पुश्तों को बैठे-बैठे खिलाने के स्वप्न दिखाए थे। सुरेश जब अपनी मां को शिकायत करता है कि मंगल ने उसे छू लिया है तो वह उसको डांट-फटकार कर भगा देती है, उससे सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
''मां ने पूछा - क्यों रोता है सुरेश, किसने मारा?
सुरेश ने रोकर कहा - मंगल ने छू दिया।
मां को विश्वास नहीं आया। मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा, तो विश्वास करना लाजिम हो गया। मंगल को बुलाकर डांटा - क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी। मैनें तुमसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद है कि नहीं, बोल।
मंगल ने दबी आवाज में कहा- याद क्यों नहीं है।
'तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?'
'मैंने नहीं छुआ।'
'तूने नहीं छुआ, तो वह रोता क्यों था?'
'गिर पड़े, इससे रोने लगे।'
चोरी और सीनाजोरी। देवीजी दांत पीसकर रह गई। मारतीं, तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उसके देह में पैबस्त हो जाता, इसलिए जहां तक गालियां दे सकीं दी और हुक्म दिया कि अभी-अभी यहां से निकल जा। फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आयी, तो खून ही पी जाऊंगी। मुफ्त की रोटियां खा-खाकर शरारत सूझती है,आदि।"31
'मंदिर' कहानी का पुजारी एक रुपये के लालच में आकर सुखिया को पूजा करने की इजाजत देने को तैयार हो ही जाता है और बड़ी ही धूर्तता से ममतामयी मजबूर सुखिया की स्थिति का लाभ उठाकर उससे रुपया ऐंठ भी लेता है।32 प्रेमचन्द ब्राह्मणवादी विचारधारा के इस शोषक रूप को खूब समझते थे। बार-बार उन्होंने अपनी रचनाओं में इसे उद्घाटित किया है। इस पर 21 नवम्बर 1932 को टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि, ''अछूत के पैसे तो आप बेधड़क ले लेते हैं, अछूत कोई मंदिर बनाये, आप दल-बल के साथ जायेंगे, मंदिर में देवता की स्थापना करेंगे, तर माल खायेंगे - हां, अछूत ने उसे छुआ न हो - दक्षिणा लेंगे, इसमें कोई पाप नहीं, न होना चाहिए, लेकिन अछूत मंदिर में नहीं जा सकता, इससे देवता अपवित्र हो जायेंगे। अगर आपके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाए। हिन्दू उसी को अपना देवता समझ सकता है। पतितों का उद्धार करने वाले ठाकुर ही हमारे ठाकुर हैं, जो पतितों के दर्शन-मात्र से पतित हो जाएं ऐसे ठाकुर को हमारा दूर ही से नमस्कार है।"33
ब्राह्मणवादी विचारधारा की वर्ण-व्यवस्था पद्धति की दलितों में स्वीकृति, पोथी-पत्रों का शुभ-अशुभ का अभिशाप व वरदान का भय दलितों के मन में इतना गहरा बैठा दिया है कि इनकी अवहेलना व उपेक्षा करना साधारण मनुष्य के वश के बात नहीं। 'सद्गति' कहानी के दुखी के मन में ब्राह्मण का, उसकी जीवन-शैली का, उसकी श्रेष्ठता का आभामण्डल इस तरह छाया हुआ है कि वह अपनी विवेक बुद्धि का इस्तेमाल न करके उसी को अन्तिम सत्य मान लेता है जो ब्राह्मण कहता है। उनसे इतना आतंकित है कि जरा भी उसकी अवहेलना नहीं करता। दुखी लकड़ी फाड़ते-फाड़ते थक जाता है तो उसका मन चिलम पीने को होता है वह एक गोंड के घर से चिलम तम्बाकू तो मांग लेता है लेकिन वहां आग नहीं थी। आग मांगने के लिए पंडित घासीराम के घर के भीतर चला जाता है इस पर घासीराम की पत्नी पंडित पर गुस्सा करती है, छूत का व धर्म का वास्ता देती है। पंडि़त घासीराम और उसकी पत्नी के बीच हो रहा वार्तालाप दुखी भी सुन लेता है। लेकिन वह उसी पक्ष को सही मानता है जिसको पंडिताइन कहती है और इसमें अपनी ही गलती मानता है।
''दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये! बड़े पवित्तर होते है यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गांव में बूढ़ा हो गया, मगर मुझे इतनी भी अकल ना आई।
इसलिए जब पंडि़ताइन आग लेकर निकली, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला- पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूर्ख न होते, तो लात क्यों खाते। पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं पांच हाथ की दूरी से घंूघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हटकर सिर को झोंटे देने लगा। उसने मन में कहा- यह एक पवित्तर ब्राह्मण के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार डरता है। और सबके रुपए मारे जाते हंै। ब्राह्मण के रुपए भला कोई मार तो ले। घर भर का सत्यानाश हो जाए, पांव गल-गलकर गिरने लगें।"34
सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जिस बात पर दुखी को गुस्सा आना चाहिए उसे वह प्रसाद समझकर ग्रहण करता है। उसकी बुद्धि पर ब्राह्मणों द्वारा अपनी कथित वरदान-अभिशाप, मंत्र-श्लोक की शक्ति का इतना भय बैठ गया है कि वह शोषण करने को दैवीय विधान मानने लगता है। किसी अनिष्ट की आशंका के भय से वह हमेशा दबा रहता है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने अपने लेखन में बार बार संकेत किया है कि दलितों को ब्राह्मणवादी संस्कारों व विचारों को अपने मन से समाप्त कर देना चाहिए। महात्मा जोतीबा फुले ने ब्राह्मणों द्वारा किसानों-मजदूरों के शोषण का वर्णन अपनी रचनाओं मे किया। 'गुलामगीरी' की प्रस्तावना में लिखा कि ''ब्राह्मण ने अपना प्रभाव, वर्चस्व इन लोगों के दिलो दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थवृत्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे सभी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूंकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दांव पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना गुलाम बनाकर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रखकर, एक से अधिक बनावटी ग्रन्थों की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रन्थों में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की, कि उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब उन्हें ईश्वर द्वारा प्राप्त है। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय की शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रन्थों में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा)पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुराहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।
ब्राह्मण-पंडा पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रन्थों द्वारा जगह-जगह, बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही। इन लोगों को उन्होंने(ब्राह्मणों ने) इनके मन में ईश्वर के प्रति जो भावना है, वही भावना अपने (ब्राह्मणों के) प्रति समर्पित करने के लिए मजबूर किया। यह कोई साधारण या मामूली अन्याय नहीं है। ब्राह्मणों के उपदेशों का प्रभाव अधिकांश अज्ञानी शूद्र लोगों के दिलो-दिमाग पर इस तरह जड़ जमाए हुए है कि अमेरिका के (काल) गुलामों की तरह जिन दुष्ट लोगों ने हमें गुलाम बनाकर रखा है। उनसे लड़कर मुक्त (आजादी) होने की बजाए जो हमें आजादी दे रहे हैं, उन लोगों के विरुद्ध कमर कसकर लडऩे के लिए तैयार हुए हैं।"35 बेटी की सगाई के लिए, मूर्हत निकलवाने पंडित घासी राम के पास जाने से पहले दुखी व उसकी पत्नी तैयारी करते हैं। उनके बीच संवाद से ही स्पष्ट हो जाता है कि वे पंडित की नाराजगी से कितने आतंकित हैं-
''झुरिया - वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेमधर्म से रहते हैं।
दुखी ने जरा चिंचित होकर कहा- हां, यह बात तो है। मुहए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूं तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हंै। वह पवित्र है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ
झुरिया- पत्तल मंै बना लंूगी, तुम जाओ। लेकिन हां, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूं?
दुखी - कहीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे। बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी किरोध चढ़ आता है। क्रोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हां मुदा तू छूना मत। झूरी गोंड की लड़की को लेकर साहू की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आध सेर चावल, पाव भर दाल, आध पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़ ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं तो गजब हो जाएगा।"36
'तू कुछ मत छूना' नहीं तो गजब हो जाएगा' में जो आशंका है उसकी वजह से ही दुखी जैसे दलितों शोषण होता है। उनके जीवन भर की मेहनत पर शोषक ऐश करते रहते हैं। यह बात इतने गहरे में बैठी है कि वे ब्राह्मण की नाराजगी की सोच भी नहीं सकते इसलिए चुपचाप बिना कुछ किन्तु-परन्तु लगाए शोषण की चक्की में पिसते रहते हैं। जब गोंड दुखी को रोटी न देने के लिए ब्राह्मण की निन्दा करता है तो भी दुखी के मुंह से यही शब्द निकलते हैं। 'धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन ले तो आफत आ जाए।' दुखी के मन में यह बात घर कर गई कि ब्राह्मण द्वारा विचार किए मुहर्त के कारण सब काम संपूर्ण होते हैं। उसकी कृपा के बिना कोई काम सफल नहीं होगा जो सारा दिन मेहनत करता है और अपनी मेहनत से नई-नई चीजें बनाता है। उसकी मेहनत से ही शोषक-अत्याचारियों के ठाठ चलते हैं वह ब्राह्मणवादी सोच के भ्रम में पड़कर सोचने लगता है कि सभी कार्य ब्राह्मण के विचारने से ही होंगे इसलिए दुखी भूखा प्यासा, थका-हारा होने के बावजूद भी पंडित घासीराम का काम करता रहता है। ''दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई जो बातें पहले सोच रखी थीं, वह सब भूल गई। पेट पीठ में धंसा जाता था, आज सवेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना भी पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हंै, कहीं साइत ठीक से न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दे।'37
शोषक ब्राह्मण इतने चालाक हैं कि दुखी जैसे लोगों के मन में जमे इस भय को बढ़ावा देते रहते हैं वे इसे खूब पहचानते हैं कि शोषितों-वंचितों के मन से भय निकल गया तो उनका शोषण करना इतना सरल नहीं होगा। यह अदृश्य भय ही है जिसकी वजह से उनका शोषण सरल हो जाता है। काम करते करते थककर दुखी को नींद आ जाती है तो पंडित घासीराम उसे कहते हैं कि 'तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना। इसी से कहा है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आंख बदली।"38
'सद्गति' कहानी में दूसरी बात उठाई है कि दलितों का शोषण करने के लिए दलितों को साधनों से वंचित करके केवल 'सेवा का अधिकार' दिया। इसके बावजूद यदि वह मेहनत करके कुछ फालतू धन बचा लेता जो उसके परिवार, बच्चों की बेहतरी में खर्च होता तो उसका जीवन-स्तर सुधरता उसमें जागरूकता, चेतना व शक्ति आती और फलत: वह मुक्ति का प्रयास जरूर करता। लेकिन ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों से जीवन इतना भरा है कि कोई अवसर ऐसा नहीं है कि जबकि मूहर्त न निकलवाना पड़े, ब्राह्मण को दान-दक्षिणा न देनी पड़े। ब्राह्मणों को दान देने की विशेष महिमा का बखान शास्त्रों में किया है। इन कर्मकाण्डों और ब्राह्मण को दक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद प्राप्त करने में उसकी सारी मेहनत की चोरी होती रहती है।
अपनी बेटी की सगाई को मुहर्त निकलवाने पर पंडित को दी जाने वाली सामग्री देखकर उस पर हुए खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है। पंडित जब दुखी के घर आयेगा तो भेंट स्वरूप देने के लिए उसने सामग्री तैयार कर दी और जब वह उसके घर जाता है तो वह नजराने के तौर पर घास का ग_र लेकर जाता है।
''दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का ग_ा लेकर पंडित जी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। खाली हाथ देखकर तो बाबा दूर से ही दुत्कारते" 39
मेहनतकश जनता का शोषण करने के लिए ही यह व्यवस्था बनाई गई है। बिना मेहनत किए ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना संभव नहीं है यदि सामान्य जनता में धर्म के प्रति अंधश्रद्धा, पाखण्ड व्याप्त न हो। पूजा को ही सबसे ऊंचा काम मानने पर ही ऐसा संभव है। पंडित घासी राम की जीवन चर्या देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे किस तरह परजीवी की तरह आम जनता का रक्त चूसकर मुटिया रहे है।
''पं। घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासना में लग जाते। मुंह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आध घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बांहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुर जी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते। ईशोपासना का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।"40 एक तरफ तो किसान मजदूर हैं जो खेतों में कड़ी मेहनत करते हंै। उन्हें न नहाने का समय मिलता और न ही ठीक ढंग से खाने का। आईने में अपनी शक्ल देखे तो महीनों बीत जाते हंै। उसके पास इतना काम है कि उसे दम लेने की फुरसत नहीं उसके बावजूद भी भूखे मरने की नौबत है। भरपेट अन्न उसको नहीं मिल पाता। दूसरी तरफ पंडित घासीराम है जो अपने शरीर का ही ख्याल करते हंै अपना बनाव-श्रृंगार करते है और आराम करते है। प्रेमचन्द ने ठीक ही कहा है कि उनकी यह 'खेतीÓ है। यानी यह धर्म एक धंधा है जिससे वे अपना संासारिक कारोबार चलाते हैं। सांसारिक कारोबार चलाने के लिए वे तरह-तरह की कहानियां-किस्से गढ़ते हैं। पं. घासीराम के धर्म में दुखी जैसों के लिए सार क्यों सूख जाता है। दुखी के लिए उनकी सहानुभूति कहां गायब हो जाती है। वे अपने श्रेष्ठत्व-ब्राह्मणत्व की आड़ में दुखी जैसे भोले-भाले सीधे सरल व्यक्ति का शोषण करते जाते हंै। सारा दिन काम करवाने के बावजूद भी उनको न तो दुखी से सहानुभूति ही होती है न ही उस पर दया आती है। वे उसके प्रति निहायत क्रूरता से पेश आते हैं। दलितों के शेाषण व इससे आर्थिक लाभ को वे खूब पहचानते हंै। लेकिन बावजूद इसके वे उसे प्रताडि़त करते हैं। चिलम पीने के लिए दुखी जब आग मांगता है तो पंडित व पंडिताइन की बातों में उनकी क्रूरता स्पष्ट तौर पर उभर आती है। ''पंडित जी भोजन कर रहे थे पंडि़ताइन ने पूछा-यह कौन आदमी आग मांग रहा है?
पंडित- अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है थोडी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।
पंडिताइन ने भवें चढ़ाकर कहा - तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रों के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुंह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाए, नहीं तो इस लुआठे से मुंह झुलस दूंगी। आग मांगने चले हैं। पंडित जी ने उन्हें समझाकर कहा भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता तो कम-से-कम चार आने लेता।
पंडिताइन ने गरज कर कहा - वह घर में आया क्यों।
पंडित ने हारकर कहा- ससुरे का अभाग था और क्या!
पंडित घासीराम व्यवहारिक व्यक्ति है वह दुखी की मेहनत की कीमत को पहचानता है। इसलिए आग देने के लिए कहता है क्योंकि आग देने से उनको कोई नुक्सान नहीं होता। पंडिताइन घृणा से आग दुखी की ओर फेंकती है तो उसकी चिंगारी दुखी पर गिर जाती है। तो उसके मन में उसके प्रति दया भाव पैदा होता है।
''उस पर आग पड़ गई तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडित जी भोजन करके उठे, तो बोली - इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।
पंडित जी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा - रोटियां हैं ?
पंडिताइन - दो चार बच जायेंगीं?
पंडित - दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोली - अरे बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो। पंडित जी ने अब शेर बनकर कहा - कुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टी ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लि_ा चाहिए।
पंडिताइन ने कहा - अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।"41
आग देने और रोटी देने के मामले में ऊपरी तौर पर लगेगा कि एक मामले में पंडि़त में दयाभाव जागृत होता है और एक में पंडिताइन में। लेकिन यदि उसे गहराई से समझा जाए तो दोनों में ब्राह्मणवादी दृष्टि है। आग देने से कोई हानि नहीं लेकिन रोटी खिलाना अव्यवहारिक है पंडित जी का ऐसा मानना शोषण की मंशा को एकदम स्पष्ट कर देता है। मेहनतकश आदमी के लिए भोजन उसके शरीर की जरूरत है, लेकिन परजीवी-कर्मकाण्डी वर्ग का पेटूपन स्वाद चखने व शरीर को तृप्त करने के लिए है। इस मोटे-ताजे चन्दन मंडित शरीर का राष्ट्र व समाज के विकास में योगदान नगण्य है वे अनाज को मल में तबदील करने की मशीनें हैं जबकि मेहनतकश व्यक्ति का भोजन उत्पादन को बढ़ावा देने का माध्यम है वह एक रोटी खाकर पचास रोटियां पैदा करता है, लेकिन परजीवी-शोषक वर्ग की नजरों में उसके द्वारा खाये गए अनाज को बेकार समझा जाता है। देश के तमाम नीति-निर्माता, योजनाकार, अर्थशास्त्री लगातार इस बात को प्रचारित करते हुए नहीं थकते कि जनता देश पर बोझ है।
दलितों की मेहनत से वर्चस्वी वर्ग को कोई परेशानी नहीं है। दुखी घर लीप दे तो उसे छूत नहीं लगती, उसके द्वारा लीपे गए घर में बैठने पर उसको कोई एतराज नहीं। उसके द्वारा ढोए गए भूसे से उसको कोई समस्या नहीं ओैर उसके हाथों कटी लकडिय़ों को जलाने में उसके सामने धर्म-संकट उत्पन्न नहीं होता। स्पष्ट है कि दलितों का शोषण करना ही उनका मकसद है। धर्म प्रदत्त उनका सर्वोंच्च पद शोषण का औजार बन जाता है वह शेाषण का औचित्य ठहरा देता है। दलितों की सामाजिक स्थिति को अपने से नीचा करके और इसे दैवीय-ईश्वरीय विधान मानने से उनका शोषण करना आसान हो जाता है।
प्रेमचन्द ने इस सत्य को बार बार व्यक्त किया है कि धर्म शोषण का जरिया है। धर्म के कर्मकाण्डी रूप में मूल्य व नैतिकता नहीं रहती, वह शोषण को वैध ठहराने व कुकृत्र्यो पर आवरण ढकने के काम आता है। 'गोदान' में झिंगुरी सिंह और पं.दातादीन की बातचीत से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
''यह कहकर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया और फिर आकर खाट पर बैठते हुए बोले - हां, मतई के ब्याह का क्या हुआ? हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी हो रही है।
दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था, वह खूब समझते थे। गर्म होकर बोले - पीठ पीछे आदमी जो चाहे सो बके, हमारे मुंह पर कोई कुछ कहे तो उसकी मूंछे उखाड़ लूं। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूं, जो कभी संध्या-बंदन नहीं करते, न उन्हें धरम से मतलब, न करम से, न कथा से मतलब, न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हंसेगा कोई, जिसने अपने जीवन में एक एकादशी भी नागा नहीं की, कभी बिना स्नान-पूजन किए मुंह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाजार की कोई चीज खायी हो, या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया हो, तो उसकी टांग की राह निकल जाऊं। सिलिया हमारी चौखट नहीं लांघने पाती, चौखट; बरतन-भांड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा कर रहा है, लेकिन जब एक बार बात हो गई तो यह पाजी का काम है कि औरत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूं, इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री जाति पवित्र है।
दातादीन अपनी जवानी में स्वयं बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भांति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्त्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौंका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्त्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके?
झिंगुरीसिंह ने कायल होकर कहा-मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया।
दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किए जाने की एक लम्बी-सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तानें हुई, वह ब्राह्मण कहलायी और आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं संतानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं।
झिंगुरीसिंह उनके पांडित्य पर मुग्ध होकर बोले - तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैं?
'समय-समय की परथा है और क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खाकर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थी, सतयुग के साथ गयी। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिलकर रहने में है; मगर करूँ क्या, कोई लड़की वाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा-औरों से भी कहा, कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँ?
झिंगुरीसिंह ने डाँटा - झूठ मत बोलो पण्डित, मैं दो आदमियों को फांस फूस कर लाया; मगर तुम फैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आखिर किस बिते पर हजार-पाँच सौ माँगते हो तुम? दस बीघे खेत और भीख के सिवा तुम्हारे पास और क्या है?
दातादीन के अभिमान को चोट लगी। दाढ़ी पर हाथ फेरकर बोले - पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपनी लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिये हैं; फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगू? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती, तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसी ज़मींदारी समझता हूँ, बंकघर। जमींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अन्त तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू-जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दौ सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं-न-कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न जमींदारी में है, न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मण की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी।
दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैर से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था।
सिलिया साँवली सलोनी, छरहरी बालिका थी, जो रूपवती न होकर भी आकर्षक थी। उसके हास में, चितवन में, अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद था, जिससे उसकी बोटी-बोटी नाचती रहती थी, सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, सिर के बाल आधे खुले, वह दौड़-दौड़कर अनाज ओसा रही थी, मानों तन-मन से कोई खेल खेल रही हो।
मातादीन ने कहा-आज साँझ तक नाज बाकी न रहे सिलिया! तू थक गई हो तो मैं आऊँ?
सिलिया प्रसन्न मुख बोली - तुम काहे को आओगे पण्डित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी।
'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी?
'तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा दूँगी, ढोकर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ एक दाना भी न रहेगा।
दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दुकान से होली के दिन दौ पैसे का गुलाबी रंग लायी थी। अभी तक पैसे न दिए थे। सिलिया के पास आकर बोली - क्यों री सिलिया, महीना-भर रंग लाये हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिये? माँगती हूँ तो मटककर चली जाती है। आज मैं बिना पैसा लिये न जाऊँगी।
मातादीन चुपके से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठाकर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली - चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी।
उसने अन्दाज से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के फैले हुए अन्जल में डाल दिया। उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अन्जल पकड़कर बोला - अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है।
फिर उसने लाल-लाल आँखों से सिलिया को देखकर डाँटा - तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछकर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली?
सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिन्त बैठी हुई थी, वह टूट गई ओर अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है! खिसियाए हुए मुँह से, आँखों में आँसू भरकर सिलिया बोली - तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो।
सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार-भरी आँखों से देखती हुई चली गई।
तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा - तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तयार नहीं है?
मातादीन आँखें निकालकर बोला- नहीं, तुझे कोई अख्तयार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर। मजदूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं।
सिलिया ने उस पक्षी की भाँति, जिसे मालिक ने पर काटकर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भत्र्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फडफ़ड़ा रहा था और ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायु-मण्डल में उडऩे की शक्ति न पाकर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकराकर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है! वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आशय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है। उसे वह दिन याद आये - और अभी दो साल भी तो नहीं हुए - जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जनेऊ हाथ में लेकर कहा था- सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा; जब वह प्रेमातुर होकर हार में और बाग में और नदी के तट पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। और आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मु_ी भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया।
उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती हुई आहत हृदय और शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी।"42
पं। दातादीन ने 'जजमानी' को 'जमींदारी' से भी स्थायी सही ही कहा है, क्योंकि ये बदल सकती हैं पर 'धर्मशास्त्रों'की व्यवस्था नहीं बदल सकती। सिलिया उसके लिए बिना पैसे का मजदूर है। यही उसकी विचारधारा व कथित शास्त्रों का मकसद है। अपने इसी शोषण और लूट को ढकने के लिए ही धर्म का आविष्कार किया तथा उसको इस तरह जनता के दिमाग में स्थापित किया गया कि उसके भय से वे उसकी अवहेलना नहीं कर सकते। सिलिया का सर्वस्व ले लेने वाला पं. मातादीन भी उसे काम करने की मशीन ही समझता है, उसे अपनी स्त्री का दर्जा तो क्या उसे खर्च भी नहीं देना चाहता। उसके लिए प्रेम का कोई महत्त्व नहीं है, जबकि सिलिया बहुत ही निश्छल है, लेकिन अपनी निश्छलता के कारण ही वह पं. मातादीन के कपट को नहीं समझ पाती और हर स्थिति में समर्पण किए रहती है।
प्रतिरोध के स्वर
प्रेमचन्द के लिए साहित्य मनोरंजन मात्र की वस्तु नहीं थी, बल्कि वे रचना से समाज में जागृति पैदा करना चाहते थे, उन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों के पक्ष को बड़ी मजबूती से उठाया है। सामाजिक सरोकारों के बिना साहित्य को वे साहित्य नहीं मानते थे। उन्होंने लिखा कि ''जिस साहित्य में हमारे जीवन की समस्याएं न हों, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति न हो, केवल जिन्सी भावों में गुदगुदी पैदा करने के लिए भाषा चातुरी दिखाने के लिए रचा गया हो वह निर्जीव साहित्य है।
साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हमारे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि व्यापक बनाता है, जिसे अन्याय देखकर क्रोध नहीं आता वह यही नहीं कि कलाकार नहीं है, बल्कि वह मनुष्य भी नहीं है।"43
भुंगी भंगिन महेश बाबू के बेटे को दूध पिलाती थी। इस कारण अपना अधिकार जताती थी और सब उसकी बात की ओर ध्यान भी देते थे, भूंगी भी अपने महत्त्व और स्थिति को समझती थी और अपनी बात बड़े बेधड़क ढंग से कहती थी। ''घर में मालकिन के बाद भूंगी का राज्य था। महरियां, महराजिन, नौकर-चाकर सब उसका रौब मानते थे। यहां तक कि खुद बहू जी भी उससे दब जाती थी। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डांटा था। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा था - दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाए, भंगी, भंगी ही रहेगें। इन्हें आदमी बनाना कठिन है।
इस पर भुंगी ने कहा था - मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं उन्हें कोई क्या आदमी बनाए।
यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भुंगी के सिर के बाल बच सकते थे? लेकिन आज बाबू साहब ठठाकर हंसे और बोले - भुंगी बात बड़े पते की कहती है।44
भुंगी को जरा सा स्पेस मिला तो उसने केवल अपने इंसान होने की ही बात नहीं कही, बल्कि दूसरों को इंसान बनाने का दावा भी पेश किया। अपनी जाति व वर्ण को लेकर उसमें किसी प्रकार की हीनग्रंथि नहीं है। वह अपने को पूर्ण इंसान मानती है। इसी तरह खेल की जोड़ी पूरी न बनने के कारण या दयावश सुरेश ने जब मंगल को खेलने के लिए कहा तो मंगल के संवादों से भी प्रेमचन्द दलित चेतना-जागरूकता को रखा है।
''मंगल बोला - ना भैया, कहीं मालिक देख ले तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाए। तुम्हें क्या, तुम तो अलग हो जाओगे।
सुरेश ने कहा - तो यहां कौन आता है बे? चल, हम लोग सवार-सवार खेलेंगे। तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ायेंगे?
मंगल ने शंका की - मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगा, कि सवारी भी करुंगा? यह बता दो।
यह प्रश्न टेढ़ा था। किसी ने इस पर विचार न किया था।
सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा - तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच? आखिर तू भंगी है कि नहीं?
मंगल भी कड़ा हो गया। बोला- मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी मां ने अपना दूध पिलाकर पाला है। जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूंगा। तुम लोग बड़े चघड़ हो। आप तो मजे से सवारी करोगे और मैं घोड़ा ही बना रहूं।
सुरेश ने डांटकर कहा, तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा और मंगल को पकडऩे दौड़ा। मंगल भागा। सुरेश ने दौड़ाया। मंगल ने कदम और तेज किया। सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर थुलथुल हो गया था और दौडऩे में उसकी सांस फूलने लगती थी।
आखिर उसने रुककर कहा - आकर घोड़ा बनो मंगल, नहीं तो कभी पा जाऊंगा, तो बुरी तरह पीटूंगा।
'तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा।'
'अच्छा हम भी बन जायेंगे।'
'तुम पीछे से निकल जाओगे। पहले तुम घोड़ा बन जाओ। मैं सवारी कर लूं, फिर मैं बनूंगा।'
सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था। मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला - देखते हो इसकी बदमाशी, भंगी है न?
तीनों ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला- चल घोड़े, चल!
मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे।"45
प्रेमचन्द ने सुरेश की चालाकी का उद्घाटन करते हुए जिस तरह मंगलू की शंका को उठाया है उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसा दलित-विरोधी विचारों का व्यक्ति नहीं कर सकता। मंगलू में कई तरह से प्रश्न करने का साहस है वह वस्तुस्थिति समझता है, उसे परिणामों का अहसास है इसलिए खेल में शामिल नहीं होना चाहता। जब उसको इस बारे में आश्वस्त कर दिया जाता है तो वह खेल में बराबरी चाहता है। इसका आश्वासन नहीं मिलता तो भागता है। इसका आश्वासन मिल जाता है। उसे आश्वासन के खोखलेपन का अहसास है इसलिए वह पहले ही सवारी कर लेना चाहता है, लेकिन कथित सवर्ण मानसिकता की दाब-धौंस व जबरदस्ती के कारण उसे घोड़ा बनना पड़ता है तो वह अपना दाव लगाकर भाग जाता है। इस तरह उसका भागना दलितों द्वारा अपने शोषण के प्रति सचेत होने का प्रमाण है।
पे्रमचन्द ने बड़े प्रतीकात्मक ढंग से बच्चों के खेल के माध्यम से दलितों के शोषण को उद्घाटित किया है। तीन बच्चे मंगलू को जबरदस्ती घोड़ा बना देते हैं। ये तीन बच्चे ऊपर के तीन वर्णों की तरह हैं जो दलितों-शूद्रों पर सवारी करने के लिए मिलकर उसको काबू में करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचते हैं, उसको बरगलाकर उसका शोषण करना चाहते हैं। जब वह उनके झांसे में नहीं आता तो पाश्विक बल प्रयोग करते हैं। प्रेमचन्द ने दर्शाया है कि शोषण से छुटकारा पाया जा सकता है। जिस तरह मौका देखकर मंगलू अपनी पीठ से सुरेश को गिरा देता है उसी तरह से दलितों को एकत्रित होकर अपने ऊपर लदे शोषण से छुटकारा पाने की कोई जुगत विचारनी ही होगी।
मंगलू को जिस तरह सुरेश और उसके मित्रों पर भरोसा नहीं है कि वे अपने वचन पर खरे उतरेंगे और इसलिए वह सवारी पहले ले लेना चाहता है। उसकी आशंका बिल्कुल सच निकलती है। सुरेश व उसके दोस्त सिर्फ उस पर सवारी करना चाहते हैं, उसको सवारी नहीं देना चाहते। प्रेमचन्द ने संकेत दिया कि इस भरोसा करने से धोखे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। प्रेमचन्द ने जो संकेत इस कहानी में दिए डा। आम्बेडकर ने बहुत साफ साफ शब्दों में लिखा। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान डा. भीमराव आम्बेडकर पर अंगे्रजों का साथ देने के आरोप लगाए गए। जिनका कारण यही था कि उन्होंने दलितों को समान अधिकार देने की शर्त रखी थी। वे किसी तरह का धोखा नहीं खाना चाहते थे। उनके सामने अमेरिका के काले लोगों का उदाहरण था, जिन्होंने अमेरिका की आजादी के लिए सबसे अधिक संघर्ष किया और कुर्बानियां दी, लेकिन अमेरिका के आजाद होने पर भी उनको आजादी नहीं मिली। डा. आम्बेडकर भी दलितों के लिए पहले आश्वासन चाहते थे। 'क्या अस्पृश्य अंग्रेजों की कठपुतली हैं?'46 नामक लेख में विस्तार से इस बारे में लिखा है। आम्बेडकर का स्वतन्त्रता-आन्दोलन में भाग लेने से पहले दलितों के लिए संवैधानिक संरक्षण की मांग करना और 'दूध का दाम'कहानी में मंगल का सुरेश को पहले घोड़ा बनकर सवारी की मांग करना, दोनों इसी विचार को उजागर करते हैं। मंगल का अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति वास्तविकता बोध, बराबरी का व्यवहार पाने की छटपटाहट, भुंगी का भंगियों को मुक्कमल इंसान समझने का भाव आदि सब मिलकर कहानी दलित अपेक्षाओं व संभावनाओं को व्यक्त करती है। कहानी सिर्फ मंगल के प्रति पाठक के मन में दयाभाव का संचार नहीं करती, बल्कि उसकी इंसानियत की स्वीकार्यता को ज्ञापित करती है और ब्राह्मणवादी विचारधारा के बोदेपन, अवसरवादी रवैये और इन्सानियत को मारने वाली प्रवृत्तियों को उद्घाटित करती है।
'मंदिर' कहानी की सुखिया को पुजारी पूजा नहीं करने देने का कारण अपनी आशंका जाहिर करता है कि 'अछूत के छूने से मंदिर व ईश्वर भ्रष्ट हो जाते हैं व गांव पर भारी विपदा पड़ सकती है' तो वह उसे लताड़ती है। ''उसका मुख क्रोध की ज्वाला से तमतमा उठा, आंखों से अंगारे बरसने लगे। दोनों मु_ियां बंध गयी। दांत पीसकर बोली- पापियों, मेरे बच्चे के प्राण लेकर दूर क्यों खड़े हो? मुझे भी क्यों नहीं उसी के साथ मार डालते? मेरे छू लेने से ठाकुर जी को छूत लग गयी? पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जायेंगे। मुझे बनाया, तो छूत नहीं लगी? लो, अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं आऊँगी। ताले में बंद रखो, पहरे बैठा दो। हाय, तुम्हें दया छू भी नहीं गयी। तुम इतने कठोर हो। बाल-बच्चे वाले होकर भी तुम्हें एक अभागिन माता पर दया न आयी। तिस पर धरम के ठेकेदार बनते हो! तुम सब के सब हत्यारे हो, निपट हत्यारे हो। डरो मत मैं थाना-पुलिस नहीं जाऊँगी। मेरा न्याय भगवान करेंगे, अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूंगी।"47
सुखिया उनको भगवान का वास्ता देती है, 'पुलिस-थाना' 'कोर्ट-कचहरी' जाकर वर्चस्वशाली लोगों को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है, लेकिन वह जुल्म को स्वीकार नहीं करती उसके खिलाफ डटकर खड़ी होती है और शोषकों को ललकारती है। विडम्बना भी यही है जिसे कि प्रेमचन्द ने बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है कि सुखिया की तरह दलित वर्ग ब्राह्मणवादी विचारधारा के चंगुल में है। सुखिया का यह मानना कि मंदिर में जाकर पूजा करने से उसका बेटा स्वस्थ हो जाएगा ब्राह्मणवाद में ही फंसना है। इसके लिए सुखिया अपनी सारी सम्पत्ति तक बेच देती है। प्रेमचन्द ने दर्शाया है कि धर्म और उसके पूजा-विधान असल में तो शोषण करने के जरिये ही रहे हैं। इनमें अपनी आस्था जताकर या इनको अपनाकर दलितों का किसी भी सूरत में भला नहीं हो सकता। इनको त्यागकर ही दलित तरक्की कर सकते हैं। इन रिवाजों, कर्मकाण्डों या पाखण्डों के माध्यम से ही ब्राह्मणवादी विचारधारा दलितों में घुसपैठ करती है और अपनी जगह बनाती है। देखने की बात यह है कि सुखिया के मन में न तो मंदिर में कोई विशेष आस्था है और न ही वह मंदिर में जाने पर अपना सामाजिक दर्जा ऊँचा हो जाएगा ऐसा मानती है। वह तो ममतामयी मां है, जिसका बेटा बीमार हो गया है, इसलिए वह मंदिर में ठाकुर के दर्शन करना चाहती है। वह भी सिर्फ इसलिए कि उसको यह वहम है या कि ब्राह्मणवादी विचारधारा ने इतना अंध ईश्वरवाद को प्रसारित किया है कि वह सोचने लगी है कि मंदिर में दर्शन करने से उसका बीमार बेटा स्वस्थ हो सकता है वह राजनीतिक-सामाजिक समझ के तहत ऐसा नहीं करती।
स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान एक वर्ग ने इस बात को प्रसारित किया कि 'मंदिरों में दलितों के प्रवेश की इजाजत दे देने से ही उनका उद्धार हो जाएगा वे बराबरी का दर्जा पा जायेंगे' लेकिन प्रेमचन्द इस बात के कायल नहीं थे, वे इसकी आंशिक भूमिका ही स्वीकार करते थे और दलितों के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक विकास के माध्यम से ही उनका वास्तविक उत्थान संभव है ऐसा उनका मानना था, जिसे उन्होंने जब तब व्यक्त किया। इस संबंध में लिखा कि ''हरिजनों की समस्या केवल मंदिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर है। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रोजाना मंदिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फीसदी न कहकर अगर पांच फी हजार कहा जाए तो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मंदिर-प्रवेश को कोई महत्त्व नहीं देते। हरिजनों के अपने देवता अलग हैं। मंदिर प्रवेश का अधिकार पाते ही वे अपने देवताओं को उठाकर दरिया में न फेंक देंगे। हिन्दू जाति उन्हें यह अधिकार देकर केवल अपना कलंक दूर करेगी, उसी तरह जैसे मृतक-श्राद्ध करके हम केवल अपनी आत्मा को शान्त करते हैं। मृत आत्मा को उससे लाभ होता है, इसके निश्चय करने का हमारे पास न कोई साधन है न इच्छा। असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते है तो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिएं, नौकरियां देने में उनके साथ थोड़ी-सी रियायत करनी चाहिए। हमारे जमीदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हंै। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन देकर, उनसे बेगार लेना बन्द करके, उनसे सजन्नता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या का आप ही हल करेगा, पर हिन्दू जाति अपने कत्र्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती।"48 प्रेमचन्द के विचारों की तरह ही डॅ. भीमराव आम्बेडकर भी मंदिर-प्रवेश को लेकर कोई विशेष उत्साही नहीं थे। वे भी दलितों का उद्धार आर्थिक उन्नति में ही मानते थे। अपने विचार प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा कि ''मुख्य प्रश्न है, दलित वर्ग मंदिरों में प्रवेश करना चाहते हैं या नहीं? इस मुख्य प्रश्न के प्रति दलित वर्गों के दो दृष्टिकोण हैं। एक तो आर्थिक दृष्टिकोण है उस दृष्टि से दलित वर्गों का विचार है कि उत्थान का सर्वाधिक ठोस तरीका यह है कि उन्हें उच्च-शिक्षा और रोजगार मिले, और रोजी-रोटी कमाने के बेहतर अवसर प्राप्त हों। एक बार यदि वे सामाजिक जीवन के ढांचे में सुस्थापित हो जायेंगे तो उनका सम्मान होने लगेगा, एक बार यदि उनका सम्मान होने लगेगा तो निश्चय ही उनके प्रति रूढि़वादियों के धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन होगा यदि ऐसा नहीं भी होता, तो भी उससे उनके आर्थिक हित पर कोई आंच नहीं आ सकती। इन दृष्टिकोणों के आधार पर दलित वर्ग कहते हैं कि वे मंदिर-प्रवेश जैसे खोखले कार्य पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेंगे। एक अन्य कारण से भी वे इसके लिए संघर्ष नहीं करना चाहते। यह दृष्टिकोण 'आत्मसम्मान' का दृष्टिकोण है। अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ जब भारत में यूरोपियों द्वारा संचालित क्लबों तथा सामाजिक सैरगाहों के बोर्डों पर लिखा जाता था: 'कुत्तों और भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है।' आज हिन्दुओं के मंदिरों के बोर्ड ताल ठोंककर कहते हैं, 'सभी हिन्दुओं तथा कुत्तों सहित सभी पशुओं को प्रवेश की अनुमति है, केवल अस्पृश्य प्रवेश नहीं कर सकते। दोनों दशाओं में स्थिति एक जैसी है। लेकिन हिन्दुओं ने कभी भी उन स्थानों में प्रवेश की चिरौरी नहीं की थी, जिनके द्वार यूरोपियों ने अंहकारवश बंद कर दिए थे। तो कोई अस्पृश्य उस स्थान में प्रवेश के लिए चिरौरी करे, जिसके द्वार हिन्दुओं ने अंहकारवश बंद कर दिए हैं? अपने आर्थिक कल्याण में रूचि रखने वाले अस्पृश्य का यह तर्कसम्मत दृष्टिकोण है। यह हिन्दुओं से यह कहने के लिए तैयार है, 'आप अपने मंदिरों के द्वार खोलें या न खोलें। इस प्रश्न पर विचार करना आपका काम है, मैं उस पर उत्तेजना क्यों प्रकट करूं। यदि आप सोचते हैं कि मानव व्यक्तित्व की पवित्रता का अनादर अशिष्टता है तो अपने मंदिरों के द्वार खोल दें। यदि सज्जन के बजाए आप हिन्दू रहना चाहते हंै तो आप अपने द्वार बंद रखें और भाड़ में जाएं आप, क्योंकि मंदिर में आने की मुझे चिंता नहीं है।"49
डा. भीमराव आम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष पूजा करने के लिए नहीं किया था बल्कि इसलिए किया था कि दलितों का यह नागरिक और मानवीय अधिकार है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं फिर चाहे वह तालाब हों, चैपाल हों या कि मंदिर। वे इन मंदिरों को दलितों के प्रति भेदभाव का प्रतीक मानते थे और इस भेदभाव को मिटाना उनका मकसद था। मंदिर-प्रवेश उनके लिए मानवीय गरिमा पाने की लड़ाई का हिस्सा थी, न कि पूजा करने के अधिकार पाने का, इसीलिए उन्होंने दलितों केे लिए अलग से मंदिरों का निर्माण अभियान नहीं चलाया और न ही दलितों को इसके लिए प्रेरित किया। यदि पूजा करना या धार्मिक उद्देश्य होता तो वे इसको अलग से मंदिर बनाकर भी पूरा कर सकते थे, परन्तु उनका जोर इसी बात पर था कि दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा मिले।
प्रेमचन्द ने 'कर्मभूमि' उपन्यास में डा. आम्बेडकर की तरह मन्दिर-प्रवेश आन्दोलन को मानवीय अधिकार पाने के लिए किए गए संघर्ष के रूप में दर्शाया है। इस प्रसंग को प्रेमचन्द के शब्दों में रखना ही उचित होगा। ''नैना ठाकुरद्वारे में पहुंची तो कथा आरंभ हो गई थी। आज और दिनों से ज्यादा हुजूम था। नौजवान-सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्यापक भी आए हुए थे। मधुसूदन जी कह रहे थे - 'राम-रावण की कथा तो इस जवीन, इस संसार की कथा है;इसको चाहो तो सुनना पड़ेगा, न चाहो तो सुनना पड़ेगा। इससे हम-तुम बच नहीं सकते। हमारे ही अंदर राम भी हैं, रावण भी हैं, सीता भी हैं आदि.....'
सहसा पिछली सफ़ों में कुछ हलचल मची। ब्रह्मचारीजी कई आदमियों को हाथ पकड़-पकड़ कर उठा रहे थे और जोर-जोर से गालियां दे रहे थे। हंगामा हो गया। लोग इधर-उधर से उठकर वहां जमा हो गए। कथा बंद हो गई।'
समरकांत ने पूछा - 'क्या बात है ब्रह्मचारीजी?'
ब्रह्मचारी ने ब्रह्मतेज़ से लाल-लाल आंखें निकालकर कहा - 'बात क्या है, यह लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं! भंगी, चमार जिसे देखो घुसा चला आता है - ठाकुरजी का मंदिर न हुआ सराय हुई!'
समरकांत ने कड़ककर कहा-'निकाल दो सभी को मारकर!'
एक बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा-'हम तो यहां दरवज्जे पर बैठे थे सेठजी, जहां जूते रखे हैं। हम क्या ऐसे नादान हैं कि आप लोगों के बीच में जाकर बैठ जाते?'
ब्रह्मचारी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा-'तू यहां आया क्यों? यहां से वहां तक एक दरी बिछी हुई है। सब का सब भरभंड हुआ कि नहीं? परसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं? अब जाड़े-पाले में लोगों को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं? हम कहते हैं तू बूढ़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गए, पर तुझे अक़्ल भी नहीं आई। चला है वहां से बड़ा भगत की पूंछ बनकर!'
समरकांत ने बिगड़कर पूछा-'और भी पहले कभी आया था कि आज ही आया है?'
'रोज़ आते हैं महाराज, यहीं दरवज्जे पर बैठकर भगवान् की कथा सुनते हैं।'
ब्रह्मचारी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज़ यहां आते थे! रोज़ सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज़ खाते थे! इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है? धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?' धर्मात्माओं के क्रोध का वारापार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर उन गऱीबों पर पिल पड़े। भगवान् के मंदिर में भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा!
डाक्टर शांतिकुमार और उनके अध्यापक खड़े जऱा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानंद अपना मोटा सोंटा लेकर ब्रह्मचारी की तरफ लपके।
डाक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानंद के हाथों से सोंटा छीन लिया।
आत्मानंद ने खून-भरी आंखों से देखकर कहा - 'आप यह दृश्य देख सकते हैं, मैं नहीं देख सकता।'
शांतिकुमार ने उन्हें शांत किया और ऊंची आवाज़ से बोले-'वाह रे ईश्वर भक्तो! वाह! क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का! जो जितने जूते मारेगा, भगवान् उस पर उतने प्रसन्न होंगे। उसे चारों पदार्थ मिल जाएंगे। सीधे स्वर्ग से विमान आ जाएगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।'
ब्रह्मचारी, लाला समरकांत, सेठ धनीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शांतिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बंद हो गए।
शांतिकुमार इस समय कुरता और धोती पहने, माथे पर चंदन लगाए, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई-से लग रहे थे। यहां उनका वह फैशन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।
डाक्टर साहब ने फिर ललकारकर कहा - 'आप लोगों ने हाथ क्यों बंद कर लिए? लगाइए कस-कसकर! और जूतों से क्या होता है, बंदूकें मंगाइए और धर्म-द्रोहियों का अंत कर डालिए। सरकार कुछ नहीं कह सकती। और तुम धर्म-द्रोहियों, तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको, खाओ। तुम्हें इतनी ख़बर नहीं कि यहां सेठ-महाजनों के भगवान् रहते हैं! तुम्हारी इतनी मज़ाल कि इन भगवान् के मंदिर में कदम रखो! तुम्हारे भगवान् कहीं किसी झोंपड़े में या पेड़ तले होंगे। यह भगवान् रत्नों के आभूषण पहनते हैं, मोहन भोग-मलाई खाते हैं। चीथड़े पहनने वालों और चबेना खाने वालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते।'
ब्रह्मचारीजी परशुराम की भांति विकराल रूप दिखाकर बोले - 'तुम तो बाबूजी, अंधेर करते हो। सासतर में कहां लिखा है कि अंत्यजों को मंदिर में आने दिया जाए?'
शांतिकुमार ने आवेश से कहा-'कहीं नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चरबी मिलाकर बेचो, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ, आंखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान हैं, उनके चरण धो-धोकर पियो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान् की दृष्टि में न कोई छोटा है, न बड़ा; न कोई शुद्ध है न कोई अशुद्ध। उसकी गोद सबके लिए खुली हुई है।'
समरकांत ने कई आदमियों को अंत्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा-'डाक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं? इन्हें तो यहां का हाल मालूम है, कहीं बाहर से तो नहीं आए हैं?'
शांतिकुमार का खून खौल रहा था-'आप लोगों ने जूते क्यों मारे?'
ब्रह्मचारी ने उजड्डपन से कहा - 'और क्या पान-फूल लेकर पूजते?'
शांतिकुमार उत्तेजित होकर बोले - 'अंधे भक्तों की आंखों में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गए? अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी में स्नान करेंगे, दूध से नहीं।'
सब लोग हां-हां करते ही रहे; पर शांतिकुमार, आत्मानंद और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिए। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।
उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की ज़रूरत ही क्या थी? और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा?
दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई; पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गई थी। मधुसूदन ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें; पर लोग ज़म्हाइयां ले रहे थे और पिछली फों में तो लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मंदिर का आंगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाज़े कुछ नीचे हो गए हैं, भजन-मंडली के न होने से और भी सपाटा है। उधर नौजवान-सभा के सामने खुले मैदान में शांतिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानंद आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियां छोटी पड़ गईं और थोड़ी देर और गुजऱने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथेड़े पहने हुए। उनकी देह से तंबाकू और मैलेपन की दुर्गंध आ रही थी। स्त्रियां आभूषणहीन, मैली-कुचैली धोतियां या लहंगे पहने हुए थीं। रेशम और सुगंध तथा चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था, पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नए आने वालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पांव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो; बल्कि और सिमट जाते थे और खुशी से जगह दे देते थे।
नौ बजे कथा आरंभ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी। ब्रह्म-ऋषियों के तप और तेज का वृत्तांत न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहां मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्त्व है। वही ऊंचा है, जिसका मन शुद्ध है; वही नीचा है, जिसका मन अशुद्ध है-जिसने वर्ण का स्वांग रचकर समाज के एक अंग को मदांध और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया? किसी के लिए उत्पत्ति या उद्धार का द्वार नहीं बंद किया-एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोत्पत्ति का एक सजीव संदेश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी आत्मा के बंधन खुल गए हैं, संसार पवित्र और सुंदर हो गया है।
नैना को भी धर्म के पाखंड से चिढ़ थी। अमरकांत उससे इस विषय पर अकसर बातें किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकांत का भय न होता, तो उसने ब्रह्मचारीजी को फटकार बताई होती; इसलिए जब शांतिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े हाथों लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणों पर लोटने लगी। अमरकांत से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रद्धा उठी कि जाकर उनसे कहे - 'तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूं। अपने आस-पास के आदमियों को क्रोधित देख-देखकर उसे भय हो गया था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डाक्टर के पास खड़ी हो जाय और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गए, तो उसका चित्त शांत हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आई।
सुखदा ने रास्ते में कहा-'ये दुष्ट न जाने कहां से फट पड़े? उस पर डाक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लडऩे को तैयार हो गए।'
नैना ने कहा - 'भगवान् ने तो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा नहीं बनाया?'
'भगवान् ने नहीं बनाया, तो किसने बनाया?'
'अन्याय ने।'
'छोटे-बड़े संसार में सदा रहे हैं और सदा रहेंगे।'
नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।
दूसरे दिन संध्या समय उसे ख़बर मिली कि आज नौजवान सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मंदिर में सुखदा के साथ तो गई; पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियां लेने लगी-आज वह कृत्य शीघ्र ही होने लगा - तो वह चुपके से बाहर आई और एक तांगे पर बैठकर नौजवान सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की ख़बर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जऱा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर लहरियां कानों में आई। तांगा उस स्थान पर पहुंचा तो शांतिकुमार मंच पर आ गए थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डाक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भांति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो तांगे पर मंत्र-मुग्ध सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली क़तार में सबके पीछे खड़ी हो गई।
एक बुढिय़ा बोली - 'कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।'
नैना ने कहा - 'मैं बड़े आराम से हूं। सुनाई तो दे रहा है।'
बुढिय़ा आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शांतिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में हैं, मानों वहां की वायु सुधामयी हो गई है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानों वे किसी नवीन संपत्ति के स्वामी हो गए हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शांतिकुमार कह रहे थे - 'क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आए हो? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो; पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मंदिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है? क्या तुम सदैव इसी भांति पतित और दलित बने रहना चाहते हो?'
एक आवाज़ आई - 'हमारा क्या बस है?'
शांतिकुमार ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा - 'तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है, जब तक समझते हो, तुम्हारा बस नहीं है। मंदिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिंदू-मात्र की चीज़ है। यदि कोई रोकता है, तो यह उसकी ज़बरदस्ती है। मत टलो उस मंदिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा क्यों न हो! तुम जऱा-जऱा सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गंवा देते हो, जानें दे देते हो, यह तो धर्म की बात है, और धर्म हमें जान से भी प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी।' कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तेजित कर दिया था। दिन भर उसी विषय की चर्चा होती रही। बारूद तैयार होती रही। उसमें चिंगारी की क़सर थी। ये शब्द चिंगारी का काम कर गए। संघ-शक्ति ने हिम्मत बढ़ा दी। लोगों ने पगडिय़ां संभालीं, आसन बदले और एक-दूसरे की ओर देखा, मानों पूछ रहे हों - 'चलते हो, या अभी कुछ सोचना बाक़ी है?' और फिर शांत हो गए। साहस ने चूहे की भांति बिल से सिर निकालकर फिर अंदर खींच लिया।
नैना के पास वाली बुढिय़ा ने कहा - 'अपना मंदिर लिए रहें, हमें क्या करना है?'
नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को संभाला - 'मंदिर किसी एक आदमी का नहीं है।'
शांतिकुमार ने गूंजती हुई आवाज़ में कहा-'कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने?'
बुढिय़ा ने सशंक होकर कहा-'क्या अंदर कोई जाने देगा?'
शांतिकुमार ने मु_ी बांधकर कहा-'मैं देखूंगा कौन नहीं जाने देता। हमारा ईश्वर किसी की संपत्ति नहीं है, जो संदूक में बंद करके रखा जाए। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।'
कई सौ स्त्री-पुरुष शांतिकुमार के साथ मंदिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा;पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहां होते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भांति-भांति की शंकाएं भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।
ज्यों-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था, और लोग आ-आकर मिलते जाते थे, पर ज्यों-ज्यों मंदिर समीप आता था, लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से ये सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दु:ख था मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहां न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देने वाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमाकर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।
जत्था मंदिर के सामने पहुंचा तो दस बज गए थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियां लिए द्वार पर खड़े थे। लाला समरकांत भी पैंतरे बदल रहे थे।
नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम बड़े धर्मात्मा बने हो! आधी रात तक इसी मंदिर में जुआ खेलते हो। पैसे-पैसे पर ईमान बेचते हो, झूठी गवाहियां देते हो, द्वार-द्वार पर भीख मांगते हो, फिर भी तुम धर्म के ठेकेदार हो। तुम्हारे तो स्पर्श से ही देवताओं को कलंक लगता है।
वह मन के इस आग्रह को रोक न सकी। पीछे से भीड़ को चीरती हुई मंदिर के द्वार को चली आ रही थी कि शांतिकुमार की निगाह उस पर पड़ गई। चौंककर बोले - 'तुम यहां कहां नैना? मैंने तो समझा था, तुम अंदर कथा सुन रही होगी।'
नैना ने बनावटी रोष से कहा - 'आपने तो रास्ता रोक रखा है। कैसे जाऊं?'
शांतिकुमार ने भीड़ को सामने से हटाते हुए कहा - 'मुझे मालूम न था कि तुम रुकी खड़ी हो।'
नैना ने जरा ठिठककर कहा - 'आप हमारे ठाकुरजी को भ्रष्ट करना चाहते हैं?'
शांतिकुमार उसका विनोद न समझ सके। उदास होकर बोले - 'क्या तुम्हारा भी यही विचार है नैना?'
नैना ने और रद्दा जमाया - 'आप अछूतों को मंदिर में भर देंगे तो देवता भ्रष्ट न होंगे?'
शांतिकुमार ने गंभीर भाव से कहा - 'मैंने तो समझा था, देवता भ्रष्टों को पवित्र करते हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।'
सहसा ब्रह्मचारी ने गरज़कर कहा - 'तुम लोग क्या यहां बलवा करने आए हो, ठाकुरजी के मंदिर के द्वार पर?'
एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा - 'हम फ़ौजदारी करने नहीं आए हैं। ठाकुरजी के दर्शन करने आए हैं।'
समरकांत ने उस आदमी को धक्का देकर कहा - 'तुम्हारे बाप-दादा भी दर्शन करने आए थे कि तुम्हीं सबसे वीर हो!'
शांतिकुमार ने उस आदमी को संभालकर कहा - 'बाप-दादों ने जो काम नहीं किया, क्या पोतो-परोतों के लिए भी वर्जित है। लालाजी, बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन चीजों का क्यों व्यवहार होता है? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।'
समरकांत ने व्यंग्य से कहा - 'इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुर जी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे?'
शांतिकुमार ने प्रतिवाद किया - 'ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूं, द्रोही वह हैं, जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिंदू संस्कारों को नहीं मानते? फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बंद कर रखा है?'
ब्रह्मचारी ने आंखें निकालकर कहा - 'जो लोग मांस-मदिरा खाते हैं, निषिद्ध कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।'
शांतिकुमार ने शांत भाव से जवाब दिया - 'मांस-मदिरा तो बहुत-से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य भी खाते हैं। आप उन्हें क्यों नहीं रोकते? भंग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं?'
समरकांत ने डंडा संभालकर कहा - 'यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जऱा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फ़ौजदारी करने आए हैं।'
इस वक़्त तक बहुत-से पंडे-पुजारी जमा हो गए थे। सब-के-सब लाठियों के कुंदों से भीड़ को हटाने लगे। लोगों में भगदड़ पड़ गई कोई पूरब भागा, कोई पश्चिम। शांतिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर वह अपनी जगह पर खड़े आदमियों को समझाते रहे - 'भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहीं बैठ जाओ, ठाकुर के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए ...'
पर दूसरी लाठी सिर पर इतने ज़ोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकलने पाई और वह गिर पड़े। संभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़तोड़ कई लाठियां पड़ गई। यहां तक कि वह बेहोश हो गए।"50
'ठाकुर का कुंआ' की गंगी ठाकुरों के कुंए से पानी लेने जाते हुए कथित ऊंचे वर्ण के लोगों के व्यवहार के बारे में सोचने लगती है। कथित ऊंचे लोगों का कथित उच्च-धर्म में शुद्धता व पवित्रता के लम्बे चौड़े दावे हैं, लेकिन उनका वास्तविक जीवन का आचरण तमाम कमजोरियों व दुष्टता से भरा है। कर्मकाण्डी व शास्त्रीय व पोथी का धर्म कुछ भी कहता हो लेकिन उनका जीवन भ्रष्ट है। गंगी के माध्यम से कथित श्रेष्ठता के खोल में छिपी असलियत को उजागर करना उसकी चेतना को दर्शाता है और संकेत करता है कि ब्राह्मणवाद प्रदत्त विश्ेाष अधिकारों को भोगने वालों के जीवन को दलित समाज निकट से देख रहा है। उसमें इतनी चेतना विकसित होने लगी है कि वह उस प्रभामंडल से ग्रस्त नहीं है कि तिलक-जनेऊ आदि श्रेष्ठता के प्रतीकों के पीछे की सच्चाई को न देख पाए। ''गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी-पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और यह लोग क्यों ऊंचे है? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहां तो जितने हैं, एक-से-एक छंटे हैं? चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहुजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं काम करवा लेते हैं, मजदूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हमसे ऊंचे। हां, मुँह में हमसे ऊंचे हैं। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे हैं, हम ऊंचे। कभी गांव में जाती हूं, तो रसभरी आंखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परन्तु घमण्ड यह कि हम ऊंचे हैं।
''कब इन लोगों को दया आती है किसी पर। बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसलिए कि उसने बेगार न दी थी। उस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं।"51 गंगी की आलोचनात्मक सोच में बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा है, जो दलित मुक्ति के संघर्ष का बीज है।
'गोदान' में सिलिया के मां-बाप पं. मातादीन के मुंह में गाय की हड्डी घुसेड़ देते हैं। प्रेमचन्द के समय में शायद ही ऐसी घटना घटी हो, लेकिन प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास में बड़े साहस के साथ प्रस्तुत किया। ''उसी वक्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आकर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीनकर फेंक दी और गााली देकर बोली - राँड, जब तुझे मजदूरी ही करनी थी, तो घर की मजदूरी छोड़कर यहाँ क्या करने आयी! जब ब्राह्मण के साथ रहती है, तो ब्राह्मण की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवाकर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आयी थी! चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरती!
झिंगुरीसिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले हुए तेवर देखकर उन्हें शान्त करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा - क्या बात है चौधरी, किस बात का झगड़ा है?
सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था, काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ; पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला - झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर, हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी-न-किसी के घर जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है, मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा होकर रहे। तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओ-पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज्जत लेते हो, तो अपना धरम हमें दो।
दातादीन ने लाठी फटकारकर कहा - मुँह सँभालकर बात कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है, ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है।
सिलिया की माँ उँगली चमकाकर बोली - वाह वाह पण्डित! खूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गई होती और तुम इसी तरह की बातें करते तो देखती। हम चमार हैं, इसलिए हमारी कोई इज्जत ही नहीं! हम सिलिया को अकेले न ले जायँगे उसके साथ मातादीन को भी ले जाँएगे, जिसने उसकी इज्जत बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो। उसके साथ सोओगे, लेकिन उसके हाथ का पानी न पियागे! यही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती।
हरखू ने अपने साथियों को ललकारा - सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो?
इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिए, तीसरे ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और उसके पहले कि दातादीन और झिंगुरीसिंह अपनी अपनी लाठी संभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। उसे मतली हुई और मुँह आप-से-आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गए; पर आश्चर्य यह है कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसन्द था। वह गाँव की बहू-बेटियों को घूरा करता था, इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँ, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे।
होरी ने कहा - अच्छा, अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते हो, तो यहां से चले जाओ।
हरखू ने निडरता से उत्तर दिया - तुम्हारे घर में भी लड़कियां हैं होरी महतो, इतना समझ लो। इसी तरह गांव की मरजाद बिगडऩे लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी।
एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पाकर आक्रमणकारियों ने वहां से टल जाना ही उचित समझा। जनमत के बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है।
मातादीन कै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा - एक-एक को पांच-पांच साल के लिए न भिजवाया, तो कहना। पांच-पांच साल तक चक्की पिसवाऊंगा।
हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया - इसका यहां कोई गम नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं? जहां काम करेंगे, वहां आधा पेट दाना मिल जाएगा।"52
'कफन' कहानी को लेकर दलित साहित्यकारों ने सर्वाधिक विवाद किया है। घीसू और माधव को कामचोर दर्शाने पर ऐतराज जताया। जबकि इन चरित्रों के साथ समाज की वास्तविकता इस तरह गुंफित है कि पूरे समाज की तस्वीर उभर आती है और पूजींवादी और सामन्ती शोषण के भयानक रूप उद्घाटित हो जाते है और इसके साथ ही प्रेमचन्द दलित वर्ग के श्रमिकों में गांव के किसानों से अधिक जागरूकता-चेतना को व्यक्त करते हैं। घीसू और माधव उस तरह काम नहीं करते जिस तरह कि गांव के दूसरे मजदूर व किसान करते हैं। उनको काम के लिए तभी बुलाया जाता है जब कि दोगुनी मजदूरी देकर भी काम करवाने में भी लाभ समझते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि अन्य मजदूरों की कम-से-कम आधी मेहनत का शोषण है इसे घीसू और माधव अच्छी तरह समझते हैं इसलिए वे शोषण से बचने के लिए काम ही छोड़ देते हैं और चोरी से अपना गुजारा करना बेहतर समझते हंै। उनको कई-कई दिन फाका करना पड़ता है। बुधिया प्रसव-पीड़ा से तड़प रही थी तो उनके सामने एक प्रश्न खड़ा होता है कि यदि बच्चा पैदा हो गया तो उसके लिए ''सोंठ, गुड, तेल कुछ भी तो नहीं है। घर में " यह हालत सिर्फ घीसू और माधव की नहीं है बल्कि उन लोगों की भी है जो सारा दिन पूरी लगन से काम करते हैं। यहां काम करने वालों और काम न करने वालों में कोई अन्तर नहीं रह जाता क्योंकि शोषण की प्रक्रिया के तहत काम करने वालों की सारी मेहनत जमींदारों-महाजनों के पास चली जाती है और उनकी हालत घीसू और माधव से बेहतर नहीं होती। मुंशी प्रेमचन्द घीसू और माधव की कथित कामचोरी को, उन लोगों की अपेक्षा जो दिन-रात खटने के बाद भी घीसू-माधव जैसी हालत में रहते हैं, ज्यादा बेहतर मानते हैं। उन्होंने लिखा ''जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव उंगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेज़ा फायदा तो नहीं उठाते।" 53
पे्रमचन्द रेखांकित करते है कि घीसू और माधव का कथित कामचोर होना न तो उनके जाति व वर्ग का आवश्यक गुण है और न ही उनका व्यक्तिगत स्वभाव है, बल्कि वे इसे व्यवस्था जन्य मानते हैं। जिस व्यवस्था में काम न करने वालों के यहां सम्पन्नता है और काम करने वालों के यहां दरिद्रता, तो वहां घीसू और माधव किसी भी जाति में पैदा हो सकते हैं। सर्वहारा दलितों में ऐसे विद्रोही पैदा होने की संभावना ज्यादा है। ऐसे लोग जो बिना यह सोचे-विचारे कि उनके द्वारा की गई मेहनत का फायदा कौन उठाता है लगातार पशु की तरह काम में लगे रहते हैं, उससे बेहतर तो काम न करना है। वे जानते हैं कि एक तो इससे शोषण में कमी आती है दूसरे उसे संतुष्टि होती है कि उसका कोई शोषण नहीं कर रहा है।
घीसू और माधव का शोषण के प्रति सचेत होना कथित सवर्णों के लिए तो कामचोरी हो सकती है, लेकिन दलित यदि ऐसी व्याख्या करें तो इसे समझ का फेर ही कहा जाएगा। शायद उन्होंने भी कालेजों-विश्वविद्यालयों की परीक्षा में 'कफन' कहानी, विशेषकर घीसू-माधव सम्बन्धी प्रश्नों को देखकर ही ऐसे समझा है। शिक्षा-प्रणाली में जिस तरह के ठस्स बुद्धि व साहित्य को सतही स्तर पर समझने वाले व विचार-संस्कार से ब्राह्मणवादी किस्म के पोंगापंथियों का साम्राज्य रहा है। इसके चलते प्रेमचन्द की कहानियों की पृष्ठभूमि में शोषणकारी व्यवस्था की क्रूरता-अमानवीयता को उद्घाटित करने की बजाए इस व्यवस्था के शिकार वर्गों को ही उनकी बदहाली का जिम्मेवार ठहराते हैं। व्यवस्थाजन्य अमानवीयता को वंचित-शोषित वर्ग पर डालकर व्यवस्था को साफ तौर पर बचा लेते हैं। प्रेमचन्द ने घीसू-माधव को कामचोर दिखाने के लिए 'कफन' कहानी की रचना नहीं की, बल्कि इनके माध्यम से श्रम-चोर व्यवस्था का चरित्र जरूर उद्घाटित किया है। 'कफन' को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है वह इसी तरह की तोड़-मरोड़ का परिणाम है, अपने विरोधी ज्ञान को बदनाम करने, उसके बारे में भ्रम फैलाने व उसे आत्मसात करने में ब्राह्मणवाद आरम्भ से ही कुख्यात है। प्रेमचन्द भी इसी का शिकार हुए हैं।
प्रेमचन्द की दलितों को 'निकम्मा व कामचोर' बताने में कोई रूचि व मंशा नहीं थी, इसे 'पूस की रात'54 कहानी से समझा जा सकता है। 'पूस की रात' का किसान हल्कू पूरी मेहनत करने के बाद भी कर्ज नहीं उतार पाता। खेती में हुए घाटे को वह मजदूरी करके भी पूरा नहीं कर पाता। खेती उसके लिए घोर दरिद्रता का कारण बन रही है, वह अपने लिए कम्बल भी नहीं खरीद पाता। जानलेवा सर्दी में अपनी पकी फसल की रखवाली के लिए वह खेत में तो जाता है, लेकिन खेत में घुसे जानवरों को भगाने में उसकी कोई रूचि नहीं है। उसकी सारी फसल जानवर नष्ट करते रहते हैं, लेकिन वह उन्हें नहीं हटाता। उसे फसल उजडऩे का कोई अफसोस नहीं है, फसल में उसका कोई मोह नहीं रहता। वह जान गया है कि फसल पक भी जाएगी तो उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा। शोषण ने उसको अपनी मेहनत से अलग थलग कर दिया है। क्या 'पूस की रात' के हल्कू की 'अकर्मण्यता' को किसानों की कामचोरी मान लिया जाए? प्रेमचन्द पर किसानों को बदनाम करने का आरोप लगाकर उनकी कृतियों की होली जलाई जाए? प्रेमचन्द उनकी मेहनत को रेखांकित करते हुए उससे मिलने वाला लाभ किसानों से कैसे छीन लिया जाता है इसका खुलासा करके यह बता रहे हैं कि इस प्रक्रिया में अन्तत: व्यक्ति काम करना ही बन्द कर देता है। यही स्थिति 'कफन' के घीसू-माधव की है। दलितों-वंचितों-पीडि़तों-मजदूरों-शोषितों के दर्द को प्रेमचन्द अच्छी तरह से पहचानते थे और पूरी हमदर्दी व गम्भीरता से उसे प्रस्तुत करते थे।
प्रेमचन्द समाज में विचारधारा को, मान्यताओं को, नैतिकता को वर्गीय दायरों में बंटा हुआ पाते हंै। वे 'कफन' कहानी में समाज के निकम्मे-निठल्ले व शोषक वर्ग को 'कुत्सित मंडली' कहते हैं जो पूरे गांव पर अपना रोब-धौंस रखती है। अपनी चालाकी व बेईमानी से गांव पर शासन करती है। क्योंकि शासन करने के लिए ताकत की आवश्यकता है - पैसे की, बल की व ज्ञान की - जो घीसू के पास नहीं है। इसलिए सभी लोग उसकी आलोचना-निंदा करते हैं कामचोर कहते हैं यदि उसके पास भी सत्ता का बल होता तो उसको भी कामचोर नहीं कहा जाता। सामंतवाद-पूंजीवाद में खाली-बैठना जमी़ंदारों का ही अधिकार है। घीसू और माधव सामाजिक दर्जे पर भी सबसे नीचे हैं इसलिए उनका ऐसा घूमना तो विद्रोह है। उनका ऐसे घूमना दूसरे मेहनतकश लोगों के लिए भी प्रेरणा का काम बन सकता है और यदि उनमें यह चेतना विकसित हो गई तो वे उनका शोषण तो किसी भी सूरत में नहीं कर सकेंगे। चूंकि समाज का अधिकांश वर्ग सामंती-पूंजीवादी मान्यताओं-संस्कारों से परिचालित है इसलिए घीसू-माधव का इस तरह रहना उन्हें अखरता है। मांगकर खाना या चोरी करके खाना घीसू और माधव द्वारा किया गया आविष्कार नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मणवादी विचारधारा की मूलभूत विशेषता है और वर्ण-व्यवस्था के क्रम के अनुसार वर्णों की भूमिका अलग-अलग है। जब कोई निम्न वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण की नकल करने लगता है तो सबको पहाड़ सा टूटता नजर आता है। यही स्थिति यहां है कि खाली बैठकर खाने का अधिकार तो सिर्फ उच्च वर्ण के लोगों को है, मण्डलियों में बैठने का हक भी उच्च वर्ण के लोगों का है, इसलिए जब निम्न वर्ण से ताल्लुक रखने वाले घीसू और माधव बिना बेगार किए, बिना कड़ी मशक्कत किए जिन्दा रहते हैं तो उनको अपनी व्यवस्था गड़बड़ाती नजर आती है, जिसपर बिना काम किए उनके ऐश्वर्य और ठाठ का जीवन टिका हुआ है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने दलितों की स्थिति को समझने के लिए उनके काम धंधों को जानना जरूरी बताया है। डा. आम्बेडकर के शोधपूर्ण विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि घीसू और माधव की स्थिति कोई अजूबी नहीं है, बल्कि इस तरह की स्थितियों में उनका चोरी करके खाना और 'काम' न करना एक क्रांतिकारी कदम बन जाता है। जहां अधिकतर समय बेगार में बीत जाता हो और जी तोड़ मेहनत के बदले में कुछ न मिलता हो वहां काम न करना विद्रोह का ही एक ढंग है। जहां जोर-जबरदस्ती से काम करवाया जाता हो वहां 'निकम्मे' घूमना एक तरह की हड़ताल ही है। डा. आम्बेडकर ने लिखा कि ''अस्पृश्य किस प्रकार रहते है? वे अपनी रोजी-रोटी किस प्रकार कमाते हैं, जब तक यह नहीं पता चलता है, तब तक हिन्दू समाज में उनकी हैसियत का स्पष्ट पता लगना संभव नही"। प्रेमचन्द ने घीसू और माधव को 'अमानवीय दर्शाया व समस्त दलित समाज का अपमान किया है' यह कहना निहायत गलत है। घीसू और माधव के चरित्र में अमानवीयता नहीं है, बल्कि व्यवस्था में अमानवीयता है जिसमें ऐसे चरित्र पैदा होने की गुंजाइश है। वे प्रसव-पीड़ा से तड़पती बुधिया की देखभाल इसलिए नहीं कर पाते कि वे कई दिन के भूखे हैं। भूख ही उनको बुधिया के प्रति ऐसा व्यवहार करने पर विवश कर रही है वरन् तो घीसू कहता है ''मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं, और फिर मुझसे लजायेगी कि नहीं? जिसका कभी मुंह नहीं देखा; आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूं। उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पांव भी न पटक सकेगी।"55
आर्थिक जकड़बंदी में दलित को शोषण से बचने का और कोई रास्ता नहीं है। काम न करना और चोरी करके खाना ही इस स्थिति में बचता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेमचन्द ने दलितों को कामचोर प्रस्तुत किया है बल्कि यह ध्वनित होता है कि जब सारा दिन काम करना भी उनके काम नहीं आता तो उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है। उनके वश में काम न करना ही है वे वही करते हैं। वे अपने काम की कीमत अच्छी तरह पहचानते हैं। इसीलिए दोगुनी मजदूरी मांगते हैं उनकी दोगुनी मजदूरी मांगना ही जमीदारों के लिए चुनौती है क्योंकि मजदूरी तो जमींदार तय करते हैं। चंूकि दलितों के पास मोल-तोल की ताकत नहीं है, इसलिए वे 'निठल्ले' रह जाते हैं। दलितों के पास साधन नहीं हैं वे पूरी तरह से जमींदारों पर आश्रित हैं, इससे उनकी स्थिति ओर दयनीय हो जाती है। डा. आम्बेडकर ने इस सम्बन्ध में लिखा कि ''अस्पृश्य न केवल अपनी रोजी-रोटी के लिए स्पृश्य का मुंह जोहता है, बल्कि जीवन की दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए उसकी यही नियति है और गांवों में सभी दुकानें स्पृश्यों की होती हंै। व्यापार स्पृश्य के हाथ में है और अनिवार्यत: होगा भी। अत: खरीदारी के लिए अस्पृश्य को स्पृश्य दुकानदार के आसरे रहना पड़ता है। अस्पृश्य दैनिक जरूरत की चीजें तभी प्राप्त कर सकेगा, जब स्पृश्य वे चीजें बेचना चाहेगा। यदि स्पृश्य बेचना नहीं चाहता, तो अस्पृश्य को भूखों मरना ही पड़ेगा, भले ही उसके पास पैसा हो। अत: जब भी स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच कोई विवाद उत्पन्न हो जाता है तो दुकानदारों को स्पृश्य यह आदेश देना नहीं भूलता कि अस्पृश्य को कोई चीज बेची न जाए। स्पृश्य संगठित रूप से ऐसी साजिश करते हैं कि अस्पृश्यों से आर्थिक रिश्ता पूर्णतया टूट जाए। अस्पृश्यों के खिलाफ लड़ाई का ऐलान कर दिया जाता है। 'शत्रु' को तहस-नहस करने के लिए दुष्टों का एक दंडात्मक अभियान दल अस्पृश्यों के क्षेत्र में भेज दिया जाता है। वह दल निर्भय होकर विध्वंस करता है। वह निर्लज्ज होकर हिंसा के कर्म करता है। वह औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शता।"56
घीसू और माधव बुधिया के 'कफन' के धन की शराब पीने को उनकी गिरावट का निम्नतम स्तर माना है। धन को किसी और काम में खर्च कर देना दूसरी बात है लेकिन घीसू का अनुभव यह कहता है कि उसे कफन मिलेगा। कफन के बिना उसका अन्तिम संस्कार नहीं होगा। घीसू को अपने बच्चों के पैदा होने का भी अनुभव है कि ऐसे मौकों के लिए लोग कुछ न कुछ अवश्य दे देते हैं व उसका चेतनशील मानस जानता है कि कर्मकाण्ड व रिवाजों पर टिकी शोषक व्यवस्था को चलाने के लिए शोषक लोग कुछ भी करते हैं इसलिए वह बड़े आत्मविश्वास से माधव को कहता है, ''तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूं? उसको कफन मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा।"
माधव को विश्वास न आया। बोला - कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी मांग में तो सिंदूर मैंने डाला था।
''कौन देगा, बताते क्यों नहीं?"
''वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हां, अब की रुपये हमारे हाथ न आयेंगे।"
देखने की बात यह भी है कि घीसू और माधव केवल शराब पीने के लालच में कफन के पैसे नहीं उड़ाते। वे कफन उढ़ाने के विचार से सैद्धान्तिक तौर पर ही सहमत नहीं थे।
''बाजार मे पहुंचकर घीसू बोला - लकड़ी तो उसे जलाने भर को मिल गई है, क्यों माधव।
माधव बोला - हां, लकड़ी तो बहुत हैं, अब कफन चाहिए।
'तो चलो, कोई हल्का-सा कफन ले लें।'
'हां, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जायेगी। रात को कफन कौन देखता है?'
'कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए।'
'कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है।'
'और क्या रखा रहता है? यही पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।"
कफन उढ़ाना एक रिवाज है उसकी व्यावहारिकता पर वे प्रश्न चिन्ह लगाते हैंहैं। अचानक वे स्वयं को शराब के ठेके के सामने पाते हंै और एक बोतल शराब लेकर कुछ कई कुज्जियां फटाफट पी जाते हैं। यदि वे इतने संवेदन शून्य व बुधिया के प्रति अमानवीय होते तो नशे में यह बात न करते।
''घीसू बोला - कफन लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहु के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो - दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बामनों को हजारों रुपये क्यों दे देते है? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं।
''बड़े आदमियों के पास धन है, फूंकें। हमारे पास फूंकने को क्या है?57
इन रिवाजों के शोषण को प्रेमचन्द पहचानते हैं और कहते हैं कि शोषक वर्ग की विचारधारा ने शोषण को स्वीकृति दिलाने के लिए लोगों के मन में ऐसे विचार बिठा दिए हैं जिसे वे स्वीकार कर लेते हैं घीसू इसे स्वीकार नहीं करता। प्रेमचन्द ने रिवाजों की पवित्रता व उसकी आड़ में खुराक पाकर फलती-फूलती शोषण-व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 'अस्पृश्यों को चेतावनी' लेख में शोषण से छुटकारा पाने के लिए दो स्तरों पर कार्य करने की आवश्यकता को रेखांकित किया ''अनिवार्यत: अस्पृश्यों को क्या प्रयास करना चाहिए? दो बातों के लिए उन्हें प्रयास करना ही होगा, और वे है - शिक्षा और ज्ञान का प्रसार। विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की शक्ति उस झूठ की वैसाखी पर टिकी रहती है, जिसका प्रचार-प्रसार वे बड़ी लगन व जतन से करते हैं। जब तक शक्ति को मान्यता प्रदान करने वाले झूठ को सच स्वीकार कर लिया जाएगा, तब तक शक्ति का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता। जब तक बचाव के सर्वोपरि तथा प्रमुख कवच झूठ का भांडा नहीं फोड़ा जाएगा, तब तक कोई विद्रोह हो ही नहीं सकता। इससे पूर्व कि किसी अन्याय, किसी कुरीति या दमन का प्रतिरोध किया जा सके, वह अति आवश्यक है कि उसके मूलाधार झूठ को बेनकाब करके उसे भलीभांति पहचान लिया जाए। यह केवल शिक्षा के द्वारा ही हो सकता है।"58
'कफन' कहानी में दलितों को विकृत रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि व्यवस्था की संवेदनशून्यता व हृदयहीनता को दर्शाया है। प्रेमचन्द लिखते है कि 'सारे गांव पर अंधकार छा गया था।' बुधिया की प्रसव-पीड़ा की वेदना-पूर्ण चीखों को सुनकर घीसू-माधव तो भूख के कारण आलू भूनने-खाने में ही मशगूल हैं लेकिन पूरे गांव से भी उसकी पीड़ा की पुकार सुनकर कोई मदद करने को नहीं आता। हां जब वह मर जाती है तो 'नर्मदिल स्त्रियां भी आंसू' बहा जाती हैं और दूसरे कठोर दिल जमींदार भी 'दया' की वर्षा कर देते हैं। जमींदार बुधिया के मरने पर रुपये तो देता है अपनी शान रखने के लिए लेकिन सांत्वना व सहानुभूति व्यक्त नहीं करता। स्पष्ट है कि शोषक वर्ग अपनी शोषण की व्यवस्था में उसी को दान देता है जो उसकी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मंत्र व श्लोक घड़ता हो तथा वह उसी पर दया करता है जो कि उसके काम आता है। बुधिया के मरने पर कफन के लिए सहायता करने के समय की प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट है:-
''जमींदार साहब दयालू थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल दूर हो यहां से। यों तों बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जी मैं कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिये। मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुंह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।"59
स्पष्ट है कि इस कथित 'दया' की आड़ में शोषक (जमींदार व महाजन) दलितों, वंचितों का शोषण करते हंै कि 'यों तो बुलाने पर भी नहीं आता' वाक्य में जमींदार की मंशा छुपी है। वह घीसू-माधव को क्यों बुलाना चाहता है। बेगार के लिए, परम्परागत रिवाजों को बनाये रखने के लिए और अपनी शान बढ़ाने के लिए। घीसू इस नीतिशास्त्र व आचार-संहिता को नहीं मानता इसलिए वह 'दया' के काबिल भी नहीं। इस 'दया' के माध्यम से ही वर्चस्व कायम रहता है। डॅा। आम्बेडकर ने भारतीय गांवों में दलितों के प्रति सवर्णों के रुख पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ''हम उन कत्र्तव्यों को लेते हैं, जो इस संहिता के अनुसार अस्पृश्यों को स्पृश्यों के लिए करने अपेक्षित हैं। ... ये काम बिना मजदूरी लिए किये जाने होते हैं। इन कामों के महत्त्व को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि ये काम क्यों अस्तित्व में आए। गांव का हर हिन्दू अपने आपको अस्पृश्यों से श्रेष्ठ मानता है। वह अपने आपको सबका मालिक मानता है और इसलिए वह अपनी इज्जत को बनाए रखना बहुत जरूरी समझता है। वह अपनी इस इज्जत को तब तक कायम नहीं रख सकता, जब तक उसके इशारे पर नाचने वालों की भीड़ उसके आस-पास नहीं रहती। इसके लिए अस्पृश्य ही मिलते हैं, जो उसका हर काम करने के लिए तैयार रहते हैं और जिन्हें उसके लिए कुछ भी देना नहीं पड़ता। चूंकि अस्पृश्य असहाय होते हैं, अत: वे इस कारण इन कामों को करने से इंकार नहीं कर सकते और हिन्दू भी उनसे जबर्दस्ती इन कामों को करवाने से नहीं चूकते, क्योंकि वे उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए जरूरी होते हैं।"60
प्रेमचन्द पर दलित-विरोध का आरोप लगाकर अपने को दलितों का मसीहा साबित करने पर तुले लोग तो ऐसा कुतर्क भी दे सकते हैं कि प्रेमचन्द ने 'सद्गति' के दुखी की लाश की कुत्ते-कौओं से दुर्गति करवा दी है। लेकिन यदि गम्भीरता से व सही संदर्भ में समझा जाए तो प्रेमचन्द ने ब्राह्मणवाद में मौजूद संवेदनशून्यता यांत्रिक कर्मकाण्ड और अमानवीयता को उजागर किया है। 'यही जीवन पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था' कहकर इस बात की ओर संकेत किया है कि ब्राह्मणवादी धर्म व विचारधारा के रहते दलितों के ये 'गुण' किसी भी तरह उनके उद्धार मुक्ति का कारण नहीं बन सकते। दुखी पूरी जिन्दगी ब्राह्मणवादी मान्यताओं के अनुसार ही काम करता रहा। उसी को सत्य मानकर चलता रहा जो पण्डित घासीराम का 'पत्र ' कहता रहा। लेकिन उससे उसका कोई उद्धार नहीं हुआ। दूसरे प्रेमचन्द ने यह भी इस कहानी में दर्शाया है कि असली मायने में धार्मिक तो दुखी है जिसने सेवा, निष्ठा व ईमानदारी को धारण किया हुआ है न कि पंडित घासीराम जो कि तमाम धूर्तता, कांईयापन व धोखेबाजी धारण किए हैं। पोथी, शास्त्रीय-पाखण्ड व रूढि़वादी ब्राह्मणवादी धर्म में दलितों के लिए कोई स्थान नहीं है। उसे समाप्त करके ही वे इन्सानी-गरिमा पा सकते हैं। इन्सानियत के धर्म और कर्मकाण्डी-शास्त्रीय धर्म आमने सामने हैं। यद्यपि कहानी में दुखी किसी भी तरह इस शोषण व कर्मकाण्डी धर्म का विरोध नहीं करता, लेकिन प्रेमचन्द ने एक गोंड चरित्र की रचना करके इस पक्ष को व्यक्त किया है। दो बार वह कहानी में हस्तक्षेप करता है। उसके विचारों को प्रेमचन्द के शब्दों मे रखना ही बेहतर होगा।
''दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाडी संभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आध घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया।
इतने में वहीं गोंड आ गया। बोला - क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गांठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।
दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा - अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई!
गोंड - कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके मांगते क्यों नही?
दुखी - कैसी बात करते हो चिखुरी, ब्राह्मण की रोटी हमको पचेगी
गोंड - पचने को पच जायेगी, पहले मिले तो। मूछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाडऩे का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।"61
गोंड से माध्यम से प्रेमचन्द ब्राह्मणों द्वारा दलितों के शोषण को बहुत सीधे तौर पर और स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं। जो अपने को सर्वोच्च स्थान पर रखता है उसके धर्मात्मापन की पोल खोल देता है।
जब दुखी मर जाता है तो पंडित उसे लाश उठाने को कहता है परन्तु गोंड उस पर सीधा हत्या का आरोप लगाता है और उनसे कहता है कि ''उधर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया। खबरदार मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि गरीब की जान ले ली। पंडितजी होगें, तो अपने घर के होगें लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़े जाओगे।"62
गोंड के माध्यम से प्रेमचन्द ने धर्म की सत्ता व ब्राह्मण श्रेष्ठता के परम्परागत ढर्रे को छोड़कर कानून के समक्ष जवाबदेही की ओर संकेत किया है। प्रेमचन्द जानते हैं कि धर्म के अनुसार तो पलड़ा हमेशा पंडित की ओर ही झुकेगा और कानून की नजर में सभी बराबर हैं इसलिए धर्म की सत्ता को त्यागकर कानून की सत्ता का अपनाना चाहिए। कानून की सत्ता आधुनिक समाज की निर्मिति है। जिसको अपनाने पर जोर दिया। दलित दुखी की लाश लेने नहीं जाते इससे भी उनकी आकांक्षा नजर आती है। पंडित घासीराम के धमकाने व मिन्नतें करने के बावजूद भी चमार लाश नहीं उठाते बेशक उनको गोंड की इस धमकी का डर तो जरूर रहा होगा कि वे भी पकड़े jayenge लेकिन यह भी सच है कि डर तो उनके मन में पंडित की अवमानना व उसके अभिशाप का भी रहा होगा लेकिन वे पंडित की बात की उपेक्षा करके लाश लेने नहीं आते तो निश्चित तौर पर यह इस ओर संकेत करता है कि वे धर्म की सत्ता की उसके शोषण-अत्याचार से छुटकारा पाना चाहते है और नागरिक समानता चाहते हैं लेकिन साथ ही दलितों में न तो अभी इतनी चेतना होगी और न ही आत्मनिर्भरता कि वे पुलिस थाने जाकर तहकीकात करवाते।
प्रेमचन्द केवल यथास्थिति का ही चित्रण नहीं करते थे, बल्कि उनके साहित्य में भविष्य की ओर के संकेत भी होते थे। गोंड की बात को पे्रमचन्द का भविष्य का संकेत ही कहा जा सकता है।
प्रेमचन्द की लेखकीय सहानुभूति व संवेदना पूर्ण रूप से दलितों के साथ है वे दलितों पर ब्राह्मणवादी विचारधारा की क्रूरता को इसी दृष्टि से उद्घाटित करते हैं। दलितों की सामाजिक हैसियत उनके आर्थिक शोषण का आधार तैयार करती है और आर्थिक हैसियत उनके सामाजिक दर्जे को निम्नतम पायदान पर जा खड़ा करती है। आर्थिक व सामाजिक शोषण अलग-अलग नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं। एक की स्थिति दूसरे को बढ़ावा देती है। प्रेमचन्द की रचनाएं इस बात को रेखांकित करती हैं कि सामाजिक न्याय व सामाजिक सम्मान को आर्थिक समानता पाने के संघर्ष में ही प्राप्त किया जा सकता है।
डा. आम्बेडकर सामाजिक न्याय व सामाजिक सम्मान के लिए आर्थिक समानता का आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि यदि समाज में आर्थिक समानता नहीं है तो सामाजिक समानता स्थापित नहीं हो सकती। सामाजिक समानता व आर्थिक समानता हासिल करने का संघर्ष परस्पर इतना जुड़ा है कि एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लोकतंात्रिक-व्यवस्था की पोलिटिकल-इकोनॉमी समझाते हुए 24 नवम्बर,1949 को तीसरे वाचन के उपरान्त संविधान के स्वीकार होने के अवसर पर बाबा साहब ने कहा कि ''जो हमें करना आवश्यक है वह यह है कि हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र से ही संतुष्ट नहीं रह जाना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक राजनीतिक लोकतंत्र की बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र स्थित नहीं होगा तब तक राजनीतिक लोकतंत्र की इमारत स्थिर और टिकाऊ नहीं हो सकती। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक ऐसा जीवन जीने का ढंग जो जीवन के आधारभूत सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता को स्वीकार करता हो। स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के ये तीन sidhant त्रयी में विद्यमान तीन अलग-अलग शब्दों के रूप में तीन पृथक-पृथक तत्त्व नहीं माने जाने चाहिए। ये वास्तव में संयुक्त रूप से मिलकर एक एकीकृत त्रयी का निर्माण करते हैं, इस अर्थ में कि एक को दूसरे से पृथक करना लोकतंत्र के ही उद्देश्य को ही पराजित करना हो जाता है। स्वतंत्रता को समानता से पृथक नहीं किया जा सकता। समानता को स्वतंत्रता से पृथक नहीं किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता बहुजनों पर अल्पजनों की प्रभुता उत्पन्न करेगी। और स्वतंत्रता के बिना समानता वैयक्तिक पहल को नष्ट कर देगी। बन्धुता के बिना तो स्वतंत्रता तथा समानता एक स्वाभाविक प्रक्रिया-जन्य चीजें नहीं बन सकतीं। तब तो स्वतंत्रता और समानता को लागू कराने के लिए पुलिस के इस्तेमाल का सहारा लेना पड़ेगा।"
''हमें इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए ही अपनी शुरूआत करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का घोर अभाव है। उसमें से एक चीज है समानता का अभाव। सामाजिक धरातल पर भारत में हमारे यहां एक ऐसा समाज है जो 'क्रमिक असमानता' यानी सीढ़ीनुमा गैर बराबरी पर आधारित हैं, जिनका अर्थ है थोड़े से लोगों का उत्कर्ष और अधिसंख्य लोगों का अपकर्ष। आर्थिक धरातल पर हमारे यहां एक ऐसा समाज है जिसमें एक ओर जहां बेशुमार लोगों की जिन्दगी की गुजर-बसर गरीबी और कंगाली में जैसे-तैसे होती है तो वहीं दूसरी ओर मु_ी भर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी मु_ी में अकूत दौलत कैद है।
26 जनवरी,1950 को हम अन्तरविरोधों या विसंगतियों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में तो हम समानता स्थापित करेंगे लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में हम असमानता ही बनाए रखेंगे। राजनीति में हम 'एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य' के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने प्रचलित और पारंपरिक सामाजिक-आर्थिक ढांचे की वजह से 'एक व्यक्ति और एक जैसा मूल्यÓ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम आखिर कब तक जीवन के सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लम्बे अरसे तक टालते और नकारते रहे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ही ऐसा कर सकेंगे। इसलिए हमें चाहिए कि जितना जल्दी हो सके उतना ही जल्दी हम इस अन्तर्विरोध को दूर कर लें, वरना जो लोग इन असमानताओं से पीडि़त हैं वे लोग राजनीतिक लोकतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़कर फेंक देंगे जिसको इस संविधान सभा ने बड़ी लगन और मेहनत से बनाया है।"63
डा। भीमराव आम्बेडकर ने जो चेतावनी दी थी वह तो सच हुई कि आर्थिक असमानता के चलते वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था लम्बे समय तक नहीं चल सकती और वह नहीं चल रही है, लेकिन इसमें जो दुर्भाग्यपूर्ण हुआ वह यह कि इस ढांचे को 'असमानताओं से पीडि़त' लोगों ने नहीं, बल्कि असमानताओं का आनन्द लेने वाले मुठी भर लोगों ने उखाड़ा है। यदि असमानता से पीडि़त लोग इसे उखाड़ते तो वे इसकी जगह समानता स्थापित करने वाला कोई नया ढांचा स्थापित करते, चंूकि यह समाज के ऐश्वर्यवान लोगों ने उखाड़ा है इसलिए परिवारवाद यानी राजशाही की, सामन्तवादी व कारपोरेट पूंजी की सुविधा के लिए साम्राज्यवादी प्रवृतियां लोकतंत्र के खोल में पनप रही हैं और उसकी जड़ों को काट रही हैं।
डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में मूलभूत समानता है। दलित-आन्दोलन के समक्ष अपनी परम्परा के मूल्यांकन की चुनौती है। किसी आन्दोलन के भावी रूप इस पर भी निर्भर करता है कि वह अपनी परम्परा का मूल्यांकन कैसे करता है। दलित-वंचित वर्गों की मुक्ति का संघर्ष तभी से है जब से उसका अस्तित्व है। समय के साथ उसके रूप व मुद्दे अवश्य बदलते रहे हैं। अपनी परम्परा की पहचान खोकर कोई आन्दोलन अपने मकसद में सफल नहीं हो सकता। सामयिक आन्दोलन हमेशा परम्परा से ही खुराक ग्रहण करते हैं।
प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में दलित जीवन को जिस तरह से चित्रित किया तथा अपने विचारों को विचारों दलितों के पक्ष में प्रस्तुत किया है, उसको देखते हुए उनको दलित समर्थक साहित्यकारों में अवश्य रखा जा सकता है। वे किसी भी मायने में दलित सरोकारों में कमतर नहीं है। दलित जीवन का वर्णन उनके लिए न तो रणनीतिक सवाल था और न ही मात्र सहानुभूति का मसला। वे दलित-मुक्ति को मानवता की स्थापना की अनिवार्य शर्त मानते थे।
संदर्भ:
1 उत्तरगाथा (प्रेमचन्द अंक); सं. सव्यसाची, मथुरा; जनवरी, 1981; पृ.-172
2 वही, पृ.-36
3 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली 2003; पृ.-458
4 सहमत मुक्तनाद; सं. राजेन्द्र शर्मा; विठ्ठल भाई पटेल हाउस,नई दिल्ली; जुलाई, 2005; पृ.-89
5 सं. खगेन्द्र ठाकुर; प्रेमचन्द प्रतिनिधि संकलन; नेशनल बुक ट्रस्ट; 2006; पृ. 15
7 सं. डा.सुभाष चन्द्र; आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006; पृ.-50
8 वही; पृ.-150
9 वही;पृ.-191
10 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली 2003; पृ.-458
11 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; पृ.-1
12 वही, पृ.-30 13 वही, पृ.-36 14 वही, पृ.-31
15 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; पृ.-342
17 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1) पृ. 28
18 बाबा साहेब डा. आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय (खण्ड-1); डा. आम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली; पृ.-90
19 वही, पृ.- 91
20 आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय(खण्ड-9); पृ.-159-160
21 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-4
22 आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय(खण्ड-9); पृ.-169
23 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-347
24 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); पृ.-465
25 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां; (खण्ड-1), पृ.-74
27 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.-77
28 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1),पृ.-668
29 वही, पृ.-343 30 वही, पृ.-347 31 वही, पृ.-345
32 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-2), पृ.-3
34 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1); पृ.-665
35 एल.जी.मेश्राम कीर्ति ; महात्मा जोतीबा फुले रचनावली, भाग-1; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; 2002; पृ.-135
36 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-663
37 वही, पृ.-666 38 वही, पृ.-666 39 वही, पृ.-663
40 वही, पृ.-663 41 वही, पृ.-665
42 प्रेमचन्द, गोदान; प्रकाशन संस्थान, दिल्ली; पृ.-225 से 227
44 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-343
45 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.- 345
46 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006; पृ.-104
47 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-6
49 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-98
50 कर्मभूमि
51 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1),पृ.-77
52 गोदान, पृ.-
53 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-800
54 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां
55 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-800
56 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति;
57 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-802
58 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-94
59 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-802
60 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-60
61 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-666
62 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.-667
63 सं.प्रदीप गायकवाड (अनु.-मा.रामगोपाल आजाद); डा. बाबा साहेब आम्बेडकरके महत्त्वपूर्ण भाषण एवं लेख; समता प्रकाशन, नागपुर; प्र.सं. 2005; पृ.-118
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में समाज की वास्तविकता को जिस समग्रता के साथ अभिव्यक्त किया है वह भारत के और विशेषकर हिन्दी के रचनाकारों के लिए आदर्श है। समाज के सभी वर्गों के चित्र मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में उकेरे हैं। शोषक वर्ग के चित्रों की चालाकी, काईयांपन व घाघपन को बहुत रचनात्मक ढंग से उद्घाटित किया है, तो शोषित वर्गों के भोलेपन, असहायता व लाचारी को भी बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द की समाज के दलित, वंचित, उत्पीडि़त वर्गों के प्रति स्पष्ट पक्षधरता रही है। अपनी रचनाओं में वास्तविक स्थितियों का चित्र खींचते हुए शोषित वर्गों के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए शोषकों के प्रति तीखी लताड़ लगाई है। भारत में ब्राह्मणवादी विचारधारा ने समाज की अधिकांश आबादी को मानवीय गरिमा व इन्सानी पहचान से वंचित कर दिया। मानवीय पहचान पाने के सवाल पर ब्राह्मणवादी विचारधारा के संवाहकों-समर्थकों और विरोधियों में हमेशा टकराहट रही है। प्रेमचन्द के समय में यह टकराहट और भी तीखी थी। डा। भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में मंदिर-प्रवेश, सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी लेने के लिए संघर्षों में तथा राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के सवालों पर समाज के वंचित-पीडि़त-दलित वर्ग संगठित हो रहे थे। दूसरी तरफ शोषक-वर्चस्वी शक्तियां सामाजिक तौर पर दलितों का बहिष्कार करके, मार-पीट करके, गांव से निकाल कर, बंदी लगाकर सख्ती से इस आन्दोलन को समाप्त करने की हर संभव कोशिश कर रही थी। जागरूक रचनाकार के साथ-साथ प्रेमचन्द पत्रकार भी थे और सक्रिय नागरिक भी। उनकी प्रखर दृष्टि समाज सामाजिक-शक्तियों की टकराहट को व उनके स्वार्थों को भलीभांति पहचान रही थी। वे समाज के प्रतिक्रियावादी, पतनशील एवं परजीवी वर्गों तथा प्रगतिशील, विकासपरक एवं मेहनतकश वर्गों के बीच चल रहे संघर्ष व द्वन्द्व को पहचानकर अपनी रचनाओं का मुख्य विषय बना रहे थे। इसी कारण प्रेमचन्द जैसे प्रगतिशील जनधर्मी रचनाकारों पर एक तरफ तो सत्ता तरह-तरह से दमन कर रही थी, दूसरी तरफ प्रतिक्रियावादी व अंगे्रज-भक्त शक्तियां घृणित आरोप लगाकर जनता में बदनाम करने की कोशिश कर रही थी। इन जनविरोधी शक्तियों ने प्रेमचन्द को 'ब्राह्मण' और 'घृणा का प्रचारक' तक कहा। ''इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली मासिक 'सरस्वती' के दिसम्बर, 1933 के अंक में मुंशी जी की एक कहानी 'सद्गति'प्रकाशित हुई तो श्रीनाथ सिंह ने उस कहानी के आधार पर 'घृणा के प्रचारक प्रेमचन्दÓ लेख लिखकर मुंशी जी पर निहायत घृणास्पद आक्रमण किया। तब मुंशी जी ने उनका जवाब 'हंसÓ में 'जीवन में घृणा का स्थानÓ लेख लिखकर दिया।1 प्रेमचन्द ने अपनी रचना-प्रक्रिया स्पष्ट करते हुए लिखा कि ''वे व्यक्तियों के शत्रु नहीं हैं, न वे द्वेष या ईष्र्या के कारण साहित्य की रचना करते हैं। वे उन परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के शत्रु हैं, जिनके हाथों ऐसे व्यक्ति उत्पन्न होते हैं। व्यक्तियों से उन्हें उतना ही पे्रम है, जितना उन्हें अपने भाई से हो सकता है। जिन सूदखोरों, महाजनों या मजदूरों के पसीने की कमाई पर मोटे होने वाले मिल मालिकों के प्रति वे अपनी कृतियों में जहर उगलता है, उन्हीं को संकट में देखकर वह अपना अहोभाग्य समझेगा। वह जानता है कि यह गरीब खुद अपनी स्वार्थान्धता के हाथों से दुखी हंै और अपनी धनलिप्सा के शिकार होकर गरीबों को सता रहे हैं उसे उससे सहानुभूति होती है, पर उन परिस्थितियों के साथ वे बिल्कुल समझौता नहीं कर सकते, हो सकता है, उनमें कुछ ऐसे भी हों, जिन्हें सूदखोरों के हाथों कष्ट उठाने पड़े हों, सम्भव है, उन्हीं के हाथों उनका सर्वनाश हो गया हो, लेकिन अगर वह कलाकार है, तो उसमें इतनी क्षमता अवश्य होगी कि वह व्यक्ति विशेष पर दिल का गुबार निकालने न बैठेगा। हां, यह हो सकता है कि सूदखोरों के प्रति उसकी लेखनी ज्यादा तीव्र और पैनी हो जाए। इन पंक्तियों के लेखक के विषय में एक कृपालु आलोचक ने यह आक्षेप किया है कि उसने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणों के प्रति घृणा का प्रचार किया है। अव्वल तो उसे किसी ब्राह्मण के हाथों कोई कष्ट नहीं पहुंचा और मान लो किसी ब्राह्मण ने उस पर डिग्री करके उसका घर नीलाम करा लिया हो, या उसे सरे बाजार गाली दे दी हो तो इसलिए वह समस्त ब्राह्मण समुदाय का दुश्मन क्यों हो जाएगा? जीवन में आदमी को सभी तरह के अनुभव होते हैं। और प्राय: सभी समुदायों में उसके मित्र भी हो सकते हैं और शत्रु भी, फिर वह किसी एक समुदाय को क्यों चुनकर घृणा फैलायेगा?"2
प्रेमचन्द ने अपने लेख 'क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं' में जिक्र किया है कि 'भारत' पत्र में 'निर्मल' नामक व्यक्ति ने यह आरोप लगाया, उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए हैं। ''हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं , तो जहां हमारा एक उदेश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच-नीच पवित्र-अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उदेश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रक्खें, जिनमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उनका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की जिन्दगी बसर करें और अन्धकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जाए।"3
मुंशी प्रेमचन्द 'ब्राह्मण' नहीं थे, हां वे ब्राह्मणवादी-विचारधारा के आलोचक जरूर थे। ब्राह्मणवादी विचारधारा मुख्यत: दो स्तम्भों पर टिकी है - वर्ण-व्यवस्था और पितृसत्ता। इन दोनों ने समाज में असमानता को वैधता देकर घृणा व विभाजन पैदा किया है। समाज में श्रेष्ठ और निम्नता की श्रेणियों की स्वीकार्यता देने वाली तथा इसको धार्मिकता का आवरण देकर अपनी रक्षा करने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा की तीखी आलोचना करते हुए ही चरित्रों का निर्माण किया है। प्रेमचन्द ने किसी जाति-विशेष या वर्ग-विशेष को बदनाम करने या निंदा करने के लिए साहित्य-रचना नहीं की।
यह बात काफी दिलचस्प और विडम्बनापूर्ण है कि प्रेमचन्द की मौत के 70-75 वर्ष बाद दलित साहित्यकार व राजनीतिक कार्यकत्र्ता उन पर 'दलित' होने का आरोप लगा रहे हैं। उनकी पुस्तकों की होली इस तरह जला रहे हैं, मानो कि प्रेमचन्द ने मनुस्मृति की रचना कर डाली हो। दलित साहित्यकार उनको 'दलितों को अमानवीय व नकारात्मक चरित्रों का चितेरा'4 कहता है तो कोई ताल ठोकते हुए मनघडंत अनुमान लगाकर 'सामन्तों का मुन्शी' साबित करने के लिए अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा रहा है। यह मात्र संयोग भी हो सकता है कि जब साम्प्रदायिक शक्तियां प्रेमचन्द के साहित्य को पाठ्यक्रम से बाहर कर रही हैं तो ये अति-उत्साही दलित भी उनके साथ ही सुर में सुर मिला रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि कुछ 'दलित साहित्य अकादमी' के झण्डाबरदार दलित कार्यकत्र्ता इसके जरिये सस्ती लोकप्रियता हासिल करके दलितों में अपनी नेतागिरी चमकाने के चक्कर में भी हैं। यह बात बिल्कुल सही है कि ब्राह्मणवादी होने के लिए उच्च वर्ण या जाति का होना कतई आवश्यक नहीं है। दलित जाति में जन्मा व्यक्ति भी ब्राह्मणवाद का घोर समर्थक हो सकता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कोई स्त्री पुरुषवादी विचारधारा व मानसिकता के अनुसार अपना व्यवहार कर सकती है।
ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है जो गैर-बराबरी, भेदभाव, शोषण, पक्षपात को वैधता प्रदान करती है। प्रेमचन्द का इस विचार से मूलभूत विरोध रहा है और समाज में मौजूद सामाजिक व आर्थिक विषमता को दूर करना उनके साहित्य-लेखन का मकसद रहा है। साहित्य के बारे में सन् 1936 में, उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन के सभापति के आसन से बोलते हुए कहा कि ''हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"5 प्रेमचन्द वंचित-पीडि़त वर्ग के हिमायती थे। ''साहित्यकार मानवता का, प्रगति का, शराफत का वकील है, जो दलित है, पीडि़त है, ज़ख्मी है, चाहे वे व्यक्ति हो या समाज। उनकी हिमायत और वकालत ही उसका धर्म है। उसकी अदालत समाज है इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है।"6 प्रेमचन्द ने ऐसे समाज-निर्माण के लिए साहित्य रचना की, जिसमें सबको सम्मान के साथ जीने का हक हो और ऐसी समाज-व्यवस्था हो, जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे का शोषण न कर सके। प्रेमचन्द के सपनों के समाज का आधार सामाजिक-आर्थिक समानता थी, यह कुछ उसी तरह का समाज था, जिसे डा. भीमराव आम्बेडकर लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करते थे।
शोषितों-दलितों-वंचितों-पीडि़तों के मुक्ति-नायक व आधुनिक भारत के महान दार्शनिक-चिंतक, अर्थशास्त्री-विधिवेत्ता डॉ. भीमराव आम्बेडकर समानतापूर्ण लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना चाहते थे। डा. आम्बेडकर के चिंतन व कार्य मूलत: उनकी लोकतंत्र में विश्वास की ही अभिव्यक्ति है, इस विश्वास में लगातार विकास ही हुआ। ज्यों-ज्यों वे समाज के बदलाव के संघर्ष में जुड़ते गए त्यों-त्यों उनका लोकतंत्र में विश्वास बढ़ता गया। राजनीति, समाज, अर्थ व धर्म संबंधी उनके चिंतन का यही केन्द्रीय तत्त्व है।
डा. आम्बेडकर लोकतंत्र को व्यापक अर्थों में ग्रहण करते थे। उनका कहना था कि ''प्रजातंत्र सरकार का एक स्वरूप मात्र नहीं है। यह वस्तुत: साहचर्य की स्थिति में रहने का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से सम्प्रेषण होता है। प्रजातंत्र का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और मान की भावना।"7 वर्ण-व्यवस्था व जाति-व्यवस्था में साहचर्य व भाईचारे की भावना के विपरीत असमानता होने के कारण ही वे इसके प्रखर आलोचक थे।
डा.आम्बेडकर राजनीतिक और सामाजिक लोकतंत्र को अलग-अलग करके नहीं देखते थे, बार-बार उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है। 18 जनवरी 1943 को महादेव गोबिन्द रानाडे की 101वीं जयन्ती पर दिए गए भाषण में Ó ('रानाडे, गांधी और जिन्नाÓ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित है) आम्बेडकर ने कहा कि ''लोकतंत्रात्मक शासन के लिए लोकतंत्रात्मक समाज का होना जरूरी होता है। प्रजातंत्र के औपचारिक ढांचे का कोई महत्त्व नहीं है और यदि सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह वास्तव में अनुपयुक्त होगा। राजनीतिक लोगों ने यह कभी भी महसूस नहीं किया कि लोकतंत्र शासन तंत्र नहीं है। यह वास्तव में समाज तंत्र है।8 डा. आम्बेडकर मानते थे कि जब तक समाज में आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र न हो तो राजनीतिक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। 'इंडियन फैडरेशन ऑफ लेबर' के तत्त्वावधान में 8 से 17 सितम्बर तक, 1943 में, दिल्ली में, 'अखिल भारतीय कार्मिक संघ' के कार्येकर्ताओ के अध्ययन शिविर के समापन सत्र में दिए गए भाषण में डा. आम्बेडकर ने संसदीय लोकतंत्र की असफलता के कारणों पर विचार करते हुए कहा कि जिन देशों में अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र है उनमें संसदीय लोकतंत्र आसानी से असफल नहीं हुआ। ''सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र के स्नायु और तंत्र हैं। ये स्नायु और तंत्र जितने अधिक मजबूत होते हैं, उतना ही शरीर सशक्त होता है। लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता की चाह का विकास किया, परन्तु समानता के प्रति इसने नकारात्मक रुख अपनाया। यह समानता के महत्त्व को अनुभव करने में असफल रहा और इसने स्वतंत्रता तथा समानता के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रयास नहीं किया जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया तथा असमानता को पनपने दिया।"9 आम्बेडकर वास्तविक लोकतंत्र यानी सामाजिक लोकतंत्र के हिमायती थे, वे ऐसी स्थितियां चाहते थे जो लोकतंत्र के अनुकूल हों।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने दलित जीवन के विभिन्न पक्षों - हिन्दू समाज में दलितों की स्थिति, उनके शोषण-उत्पीडऩ की प्रक्रियाओं व उनके खिलाफ संघर्ष के तरीकों पर अपनी रचनाओं में विस्तार लिखा। प्रेमचन्द के साहित्य में प्रसंगवश दलित-जीवन के विविध पक्ष व्यक्त हुए हैं। डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में मौजूद समानता केवल सुखद संयोग नहीं है बल्कि दोनों चिंतकों की जीवन-दृष्टि की आधार भूमि एक है।
प्रेमचन्द की रचनाओं में दलितों के प्रति सहानुभूति, करुणा एवं संवेदना के साथ शोषण, अन्याय, उत्पीडऩ से मुक्ति और मानवीय गरिमा व पहचान के लिए संघर्ष को नजरंदाज करके कोई राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित व्यक्ति या फिर उनकी रचनाओं से अनभिज्ञ ही 'दलित-विरोधी होने का अनर्गल आरोप लगा सकता है। प्रेमचन्द ने दलित जीवन के विभिन्न पक्षों के अन्त:सूत्रों को पहचाना व प्रतिबद्धता से व्यक्त किया है। प्रेमचन्द के 'कर्मभूमि' 'गोदान' व 'रंगभूमि' उपन्यासों में तथा 'दूध का दाम', 'मंदिर', 'गुल्ली डंडा', 'ठाकुर का कुंआ', 'मंत्र', 'सद्गति', 'कफन' आदि कहानियों में दलित जीवन के चित्र प्रस्तुत हुए हैं। जिस रूप में दलित जीवन के विविध पक्ष यहां अभिव्यक्त हुए हैं उनको देखकर तो कोई संवेदनशील व्यक्ति उन पर दलित-विरोधी होने का आरोप नहीं लगा सकता।
मानवीयता से परिपूर्ण दलित जीवन की अभिव्यक्ति
प्रेमचन्द ने दलित चरित्रों को सकारात्मक और मानवीयता से परिपूर्ण दर्शाया है। प्रेमचन्द को समाज के गरीबों-वंचितों-दलितों में मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा अधिक दिखाई दी। उन्होंने लिखा है कि ''हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के सामने रखो, चाहे हिन्दू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो, इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है"10
'मंदिर' कहानी की सुखिया दलित पात्र है और उसमें मौजूद अद्भुत ममता किसी महान स्त्री से कम नहीं है। ''तीन दिन से सुखिया के मुंह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आंखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हंसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहाँ? एक बार पानी का एक घंूट मुंह में लिया था, पर कंठ के नीचे न ले जा सकी।"11 सुखिया का वात्सल्य-प्रेम इतना उदात्त है कि वह इसके लिए कुछ भी कर सकती है। अपनी जमा-पूंजी बेच सकती है, पुजारी की मिन्नतें कर सकती है, भयानक रात में प्रतीक्षा कर सकती है, सामाजिक मान्यताओं को तोड़ सकती है और अन्तत: अपनी जान भी दे देती है।
'मंत्र' कहानी का अछूत बूढ़ा घायल पंडित लीलाधर को अपने घर ले आता है और उसकी सेवा-सुश्रुषा व दवाई-बूटी करता है। यहां तक कि ''बूढ़ा मल-मूत्र तक अपने हाथों से उठाकर फेंकता, पंडित जी की घुड़कियां सुनता, सारे गांव से दूध मांगकर उन्हें पिलाता। पर उसकी त्योरियां कभी मैली न होतीं। अगर उसके कहीं चले जाने पर घरवाले लापरवाही करते तो आकर सबको डांटता।"
''महीने भर के बाद पंडित जी चलने-फिरने लगे और तब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मेरे साथ कितना उपकार किया है। इन्हीं लोगों का काम था कि मुझे मौत के मुंह से निकाला, नहीं तो मरने में क्या कसर रह गई थी? उन्हें अनुभव हुआ कि मैं जिन लोगों को नीच समझता था और जिनके उद्धार का बीड़ा उठाकर आया था वे मुझसे कहीं ऊंचे हैं। मैं इस परिस्थिति में कदाचित रोगी को किसी अस्पताल में भेजकर ही अपनी कत्र्तव्य-निष्ठा पर गर्व करता; समझता मंैने दधीचि और हरिश्चन्द्र का मुख उज्ज्वल कर दिया। उनके रोएं-रोएं से इन देव-तुल्य प्राणियों के प्रति आशीर्वाद निकलने लगा।"12
यह प्रसंग कथित अछूतों और कथित सवर्णों के व्यवहार की तुलना करता है। पंडित लीलाधर अपने व्यवहार और अछूत बूढ़े के व्यवहार में तुलना करता है तो पाता है कि इन कथित नीचों के जीवन-मूल्य उनसे कहीं ज्यादा बेहतर है। जिन लोगों को वे नीच मानकर उनकी 'शुद्धि' करने के लिए आये थे उनका व्यवहार असल में मानवीयता से परिपूर्ण है जिसमें किसी प्रकार का ढोंग और पाखण्ड नहीं है। नीच होने का दंश झेलते ये लोग प्रेमचन्द की नजरों में इतने ऊंचे है कि उन्होंने पंडित लीलाधर के माध्यम से इनको 'देवतुल्य' प्राणियों की संज्ञा दी है।
पंडि़त लीलाधर का बदला व्यवहार केवल प्रेमचन्द की 'हृदय-परिवर्तन' की शैली का ही कमाल नहीं है, बल्कि उसका एक पुख्ता आधार है कि वे उनमें रहते हैं और जीवन को तथा अपने वर्ग के जीवन को गहराई से देखते हैं। और इस नतीजे पर पंहुचते हैं कि जिन दलितों को 'अछूत व गंदे' समझता रहा असल में उनका जीवन व व्यवहार मानवता की कसौटी पर इतना खरा उतरता है कि वे उनमें ही रहने लग गये। पंडित लीलाधर में यह परिवर्तन अचानक नहीं आया कि उन्हें इलम हो गया कि अब अछूत अच्छे हो गए हैं, बल्कि वे अपने प्रति उनका व्यवहार देखते हैं। वे उनके व्यवहार से इतना सीखते हैं कि न केवल उनमें रहने लगते हैं, बल्कि जानलेवा बीमारी में उन अछूतों की दवा-दारू व सेवा-सुश्रुषा करते हैं, जबकि उनके सगे-संबंधी अपनी जान बचाकर भाग जाते हैं और वे कई लोगों की जान बचा लेते हैं। पंडित जी का व्यक्तित्व एकदम बदल जाता है। इसके बदलने का कारण मुख्य तौर पर उनके सोचने के ढंग में आया परिवर्तन ही है। प्रेमचन्द ने वर्णन करते हुए लिखा कि ''पंडित जी अब अपने ब्राह्मणत्व पर घमंड करने वाले पंडित जी न थे। इन्होंने शूद्रों और भीलों का आदर करना सीख लिया था। उन्हें छाती से लगाते हुए अब पंडित जी को घृणा न होती थी। पंडित जी ने किसी को शुद्ध नहीं किया। उन्हें अब शुद्धि का नाम लेते शर्म आती थी।
मैं भला इन्हें क्या शुद्ध करूंगा, पहले अपने को तो शुद्ध कर लू। ऐसी निर्मल एवं पवित्र आत्माओं को शुद्धि के ढोंग से अपमानित नहीं कर सकता"
यह मंत्र था, जो उन्होंने इन चांडालों से सीखा था और इस बल से वह अपने धर्म की रक्षा करने में सफल हुए थे।
पंडित जी अभी जीवित हैं, पर वह अब सपरिवार उस प्रांत में, उन्हीं भीलों के साथ रहते है।"13
सोचने की बात है कि बूढ़े अछूत की मानवता व सेवा-भाव से ब्राह्मणवादी विचारधारा की वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करने वाले को बदल सकने की शक्ति को चित्रित करने वाला लेखक किसी भी तरह से दलित-विरोधी तो नहीं ही हो सकता। अछूतों से ऐसे उदात्त चरित्रों की रचना वही रचनाकार कर सकता है जिसके हृदय में अछूतों-दलितों के प्रति न केवल सहानुभूति व करुणा का भाव हो, बल्कि उनको पूरी तरह मुकम्मल इंसान मानता हो। प्रेमचन्द ने 'शुद्धि' जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड व पाखण्ड द्वारा उनकी इन्सानियत सिद्ध करने की जरूरत नहीं समझी। जो व्यक्ति अपने विचारधारात्मक अंहकार के कारण उनकी इंसानियत को चुनौती देकर उन्हें 'शुद्ध' करके पूरा इंसान बनाने का दावा करता हो वही यह कहने लगे कि वे उससे कहीं ऊंचे हैं। उनके मानवीय व्यवहार में प्रभावित करने की इतनी शक्ति है कि उसकी धारणाएं ही बदल जाएं, सारा जातीय अंहकार इस हद तक चूर-चूर हो जाए कि उनमें ही आकर रहने लग जाए। पे्रमचन्द ने अछूत व नीच कहे जाने वाले लोगों तथा श्रेष्ठ व ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का व्यवहार समानान्तर रूप से दर्शाया है। एक तरफ तो ये अछूत हैं जिनकी पंडित लीलाधर से न तो कोई जान-पहचान है, न उनकी जाति का है, न वर्ण का और किसी भी तरह की सांझ नहीं हैं लेकिन ये विपत्ति आने पर उनकी कितनी सेवा-सुश्रुषा करते हैं, उनका मल-मूत्र तक उठाते हैं और कड़ी मेहनत करके उनकी जान बचा लेते हैं। दूसरी तरफ, उनके परिवार के लोग व उनके सहयोगी हैं , हिन्दू सभा के नेता कार्यकत्र्ता व दानी हैं जिनके लिए पंडित लीलाधर ने अपना जीवन ही लगा दिया था, लेकिन उनका व्यवहार इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है ''तीन महीने गुजर गए। न तो हिन्दू-सभा ने पंडित जी की खबर ली और न घरवालों ने। सभा के मुख-पत्र में उनकी मृत्यु पर आंसू बहाये गये, उनके कामों की प्रशंसा की गई, और उनका स्मारक बनाने के लिए चन्दा खोल दिया गया। घरवाले भी रो-पीट कर बैठ रहे।"14 पं. लीलाधर के सहयोगियों के पास धन है, लेकिन मानवीय संवेदनाओं की कमी है। वे धन खर्च करके ही अपने कत्र्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
पं. लीलाधर जब दलितों के बीच रहता है, तो उनके जीवन को जान पाता है। इससे पहले उसका ज्ञान मात्र शास्त्रों या प्रचार आधारित है। इस वर्ण-धर्म की व्यवस्था ने समाज में अलगाव की बहुत गहरी खाई निर्मित की है, बीच में एक मोटी दीवार है, जो एक-दूसरे के प्रति सम्मान-सहानुभूति व परस्पर परिचय भी नहीं होने देती। पं. लीलाधर के दिमाग से वर्ण-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण धारणाएं हटती hai, तो उनका मानवीय अनुभव उनके व्यवहार को बदल देता है। डा. भीमराव आम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था को अलगाव पैदा करने वाली बताया है। अपने विश्लेषण में उन्होंने इसका विस्तार से वर्णन किया है कि दलित-बस्तियां गांव से दूर एक किनारे पर रखना उनका समाज से अलगाव व बहिष्कार ही है। प्रेमचन्द भी डा. आम्बेडकर की तरह से जाति-वर्ण व्यवस्था के प्रभावों को देख रहे थे।
'दूध का दाम' कहानी में अछूत मानी जाने वाली भूंगी भंगिन महेश बाबू के नवजात बेटे सुरेश को अपना दूध पिलाती है, जिस कारण उसका अपना बेटा मंगलू भूखा भी रहता है।15 यह दलित ही है जो इतना त्याग कर सकता है कि अपने बच्चे के हिस्से का दूध दूसरे को पिला सकती है।
प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में दलित चरित्रों को मानवीय संवेदना लिए हुए दर्शाया है न कि नैतिक रूप से पतित। प्रेमचन्द के दलित चरित्र बहुत विचारशील हैं। प्रेमचन्द यथार्थवादी लेखक हैं, इसलिए वे मनोगत व कल्पित दुनिया का निर्माण करके दलितों को आदर्शीकृत भी नहीं करते। मानव सुलभ कमजोरियां उनमें भी हैं। तत्कालीन समाज में वर्चस्वी वर्ग के अत्यधिक आधिपत्य के कारण दलित वर्ग लाचार व असहाय भी थे। प्रेमचन्द की रचनाओं में दलित चरित्र मानवीय संवेदनाओं का त्याग नहीं करते। व्यवस्थागत व परिस्थितिगत विवशताओं के कारण यदि वे किसी ऐसे कर्म में हैं तो प्रेमचन्द उसे उद्घाटित करते हैं।
ब्राह्मणवादी विचारधारा : मानवता का क्षरण
प्रेमचन्द किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं थे, बल्कि वे ब्राह्मणवादी विचारधारा को मानवता के हृास का कारण मानते थे और इस विचारधारा की अमानवीयता को उद्घाटित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ते थे, इसके खोखले तर्कों की बखिया उधेड़ते थे। ध्यान देने की बात है कि 'मंत्र' कहानी में अछूत बूढ़ा भरी सभा में ब्राह्मणवादी-विचारधारा के प्रशिक्षित प्रचारक की आंखों में आंखे डालकर अपना पक्ष रखता है और अपनी सहज बुद्धि से उन तमाम खोखले व अहंकारपूर्ण तर्कों का जवाब देता है जो हिन्दू धर्म में वर्ण-व्यवस्था की ऊंच-नीच को तथा छूआछूत को कभी अशुद्ध खाने का बहाना लेकर तो कभी 'संस्कारों' का बहाना लेकर उचित ठहराते हैं। अछूत बूढ़े ने बिल्कुल स्पष्ट और सही ही कहा है कि ऊंच-नीच की वजह कुछ और नहीं बल्कि शक्ति व सत्ता है जिसके पास ताकत है - धन की, बल की व ज्ञान की - समाज में उसका दर्जा ऊंचा है और जो इनसे वंचित है उसका नीचा है। शास्त्रीय व संस्थागत धर्म ने हमेशा ऊंच-नीच का औचित्य ठहराने में ही मदद की है। समाज में जब भी सत्ता के समीकरण बदले हैं तो उसके साथ ही जातियों के सामाजिक-स्तर भी बदले है। अपना पक्ष रखकर बूढ़े व उसके साथियों का पंडाल से चले जाना ऊंच-नीच की मान्यता देने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा का अस्वीकार है। प्रेमचन्द किन्हीं शर्तों के आधार पर उनको स्वीकार करने की हिमायत नहीं करते बल्कि जैसे हैं उसी रूप में मानव-गरिमा की अपेक्षा रखते हैं, वे दलितों को भरा पूरा इंसान मानते हैं। इसलिए पंडित लीलाधर के तर्कों से कोई सरोकार न रखकर उसकी सभा से दलित बहिष्कार करते हैं। ध्यान देने की बात है कि उसकी सभा का बहिष्कार अकेला बूढ़ा नहीं करता बल्कि पूरा दलित समाज करता है। अछूत बूढ़े के विचार समस्त दलित समाज के विचार हैं, जो बूढ़े की अपेक्षाएं हैं वे पूरे दलित समाज की अपेक्षाएं हैं। बूढ़े का व उसके साथियों का इस सभा से बहिष्कार प्रेमचन्द के विचारों में मौजूद पूरी स्पष्टता को ही दर्शाता है, उनके विचारों में किसी प्रकार का असमंजस या ढुलमुलपन नहीं है। वे अपना पक्ष बिना किसी लाग लपेट के रखते हैं। बूढ़े के तर्क और कार्य केवल कहानी की तार्किक परिणति के कारण नहीं हैं, बल्कि प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता इसमें गहराई से जुड़ी है। प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता उनकी संपादकीय टिप्पणियों में देखी जा सकती है। इस संबंध में 21 नवम्बर 1932 को प्रेमचन्द ने लिखा कि ''कहा जाता है अछूतों की आदतें गंदी हैं, वे रोज स्नान नहीं करते, निषिद्ध कर्म करते हैं, आदि। क्या जितने सछूत हैं, वे रोज स्नान करते हंै, क्या काश्मीर और अल्मोड़ा के ब्राह्मण रोज नहाते हैं? इसी काशी में ऐसे ब्राह्मणों को देखा है, जो जाड़ों में, महीने में एक बार स्नान करते हैं। फिर भी वे पवित्र हैं। यह इसी अन्याय का प्रायश्चित है कि संसार के अन्य देशों में हिंदू मात्र को अछूत समझा जाता है। फिर शराब क्या ब्राह्मण नहीं पीते? इसी काशी में हजारों मदसेवी ब्राह्मण और वह भी तिलकधारी - निकल आयेंगे, फिर भी वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों के घरों में चमारियां हैं, फिर भी उनके ब्राह्मणत्व में बाधा नहीं आती, किन्तु अछूत नित्य स्नान करता हो, कितना ही आचारवान हो, वह मंदिर में नहीं जा सकता। क्या इसी नीति पर हिन्दू धर्म स्थिर रह सकता है? इस नीति के कुफल हम देख चुके, अब सावधान हो जाना चाहिए।
हमारी समझ में नही आता हम किस मुंह से यह दावा कर सकते हैं कि हम पवित्र और अमुक अपवित्र हैं। किसी ब्राह्मण महाजन के पास उसी का भाई ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है, ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता, उस पर उसका विश्वास नहीं है। वह जानता है, उसे रुपये देकर वसूल करना मुश्किल हो जाएगा। उसी ब्राह्मण के पास अछूत असामी जाता है और बिना किसी लिखा-पढ़ी के रुपये ले आता है। ब्राह्मण को उस पर विश्वास है। वह जानता है, यह बेईमानी नहीं करेगा। ऐसे सत्यवादी, सरल हृदय, भक्ति-परायण लोगों को हम अछूत के नाम से पुकारते हैं, उनसे घृणा करते हैं, मगर हमारा विश्वास है, हिन्दू समाज की धार्मिक चेतना जाग्रत हो गई है, अब वह ऐसे अन्यायों को सहन न करेगा। राष्ट्रों के जीवन का रहस्य उसकी समझ में आ गया है, वह ऐसी नीति का साथ न देगा, जो उसके जीवन की जड़े काट रही है।"16
'मंत्र' कहानी के बूढ़े के माध्यम से प्रेमचन्द ने अस्पृश्यता और जातिप्रथा के संबंधों के सवाल को बिल्कुल सही परिप्रेक्ष्य में उठाया है। छुआछूत व जातिप्रथा का अस्तित्व रोटी व बेटी के संबंधों पर टिका है। अछूतों के साथ रोटी के संबंध बनाने के लिए तो पंडि़त लीलाधर भी तैयार हैं जो सिर्फ छुआछूत को ही समाप्त करते हैं लेकिन उनके साथ बेटी के रिश्ते बनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। बिना बेटी के संबंध बने समाज से ऊंच-नीच को पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। असल में जिस ब्राह्मणवादी विचारधारा व शास्त्रीय ग्रन्थों के तर्कों से उनका व्यवहार परिचालित हैं वह जाति-प्रथा की जननी वर्ण-व्यवस्था को सैद्धान्तिक तौर पर उचित ठहराती है। प्रेमचन्द और डा. भीमराव आम्बेडकर का ऐसा मानना रहा है कि जातिप्रथा को समाप्त करके ही वास्तविक भाईचारा स्थापित हो सकता है, अन्तर्जातीय विवाह इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। केवल खान-पान के संबंधों से ही जाति-प्रथा को समाज से मिटाया नहीं जा सकता, इसलिए पे्रमचन्द 'मंत्र' कहानी के बूढ़े के माध्यम से बेटी के संबंध बनाने की बात करते हैं ।
''बूढ़ा- आप जब इन्हीं महात्माओं की संतान हैं, तो फिर ऊंच-नीच में क्यों इतना भेद मानते हैं?
लीलाधर- इसलिए कि हम पतित हो गए हैं अज्ञान में पड़कर उन महात्माओं को भूल गये हैं।
बूढ़ा- अब तो आपकी निद्रा टूटी है, हमारे साथ भोजन करोगे?
लीलाधर- मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
बूढ़ा- मेरे लड़के से अपनी कन्या का विवाह कीजिएगा?
लीलाधर- जब तक तुम्हारे जन्म-संस्कार न बदल जाएं, जब तक तुम्हारे आहार-व्यवहार में परिवर्तन न हो जाए, हम तुमसे विवाह का सम्बन्ध नहीं कर सकते, मांस खाना छोड़ो मदिरा पीना छोड़ो, शिक्षा ग्रहण करो, तभी तुम उच्च-वर्ण के हिन्दुओं में मिल सकते हो।
बूढ़ा- हम कितने ही ऐसे कुलीन ब्राह्मणों को जानते हैं, जो रात-दिन नशे में डूबे रहते हैं। मांस के बिना कौर नहीं उठाते और कितने ही ऐसे हैं, जो एक अक्षर भी नहीं पढ़े हैं पर आपको उनके साथ भोजन करते देखता हूँ । उनसे विवाह-संबंध में आपको कदाचित इनकार न होगा। जब आप खुद अज्ञान में पड़े हुए हैं तो हमारा उद्धार कैसे कर सकते हैं? आपका हृदय अभी तक अभिमान से भरा हुआ है। जाइए, अभी कुछ दिन और अपनी आत्मा का सुधार कीजिए। हमारा उद्धार आपके किए न होगा। हिंदू समाज में रहकर हमारे माथे से नीचता का कलंक न मिटेगा। हम कितने ही विद्वान कितने ही आचारवान हो जाएं, आप हमें यों ही नीच समझते रहेंगे। हिन्दुओं की आत्मा मर गई है, और उसका स्थान अंहकार ने ले लिया है! हम अब देवता की शरण जा रहे हैं, जिनके मानने वाले हमसे गले मिलने को आज ही तैयार हैं। वे यह नहीं कहते कि तुम अपने संस्कार बदल कर आओ। हम अच्छे हैं या बुरे, वे इसी दशा में हमें अपने पास बुला रहे हैं। आप अगर ऊंचे है, तो ऊंचे ही रहिये। हमें उडऩा न पड़ेगा।
लीलाधर - एक ऋषि-संतान के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। वर्ण-भेद तो ऋषियों ही का किया हुआ है। उसे तुम कैसे मिटा सकते हो?
बूढा - ऋषियों को बदनाम मत कीजिए। यह सब पाखण्ड आप लोगों का रचा हुआ है। आप कहते हैं- तुम मदिरा पीते हो, लेकिन आप मदिरा पीने वालों की जूतियां चाटते हैं। आप हमसे मांस खाने के कारण घिनाते हैं, लेकिन आप गौ-मांस खाने वालों के सामने नाक रगड़ते हैं। इसलिए न कि वे आप से बलवान हैं। हम भी आज राजा हो जाएं, तो आप हमारे सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। आपके धर्म में वही ऊंचा है, जो बलवान है, वही नीच है, जो निर्बल है। यही आपका धर्म है?
यह कहकर बूढ़ा वहां से चला गया और साथ ही और लोग भी उठ खड़े हुए। केवल चौबे जी और उनके दल वाले मंच पर रह गए, मानो मंचगान समाप्त हो जाने के बाद उसकी प्रतिध्वनि वायु में गूंज रही हो।"17
प्रेमचन्द जाति-वर्ण व्यवस्था व अस्पृश्यता के दंश को खूब समझते थे और इसकी विचारधारा व मंतव्य को भी। बूढ़े के माध्यम से उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं, कि यह ऊंच-नीच की व्यवस्था असल में कमजोर व ताकतवर के रिश्ते बताती है। जब बूढ़ा कहता है कि 'हम भी आज राजा हो जाएं, तो आप हमारे सामने हाथ बांधे खड़े होंगे। आपके धर्म में वही ऊंचा है जो बलवान है, वही नीच है, जो निर्बल है तो वह वह जाति-व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक आधार को उद्घाटित कर रहे हैं। इस बात की ओर भी प्रेमचन्द ने संकेत कर दिया था कि राजनीतिक सत्ता हासिल किए बिना शोषक समाज दलितों को मानवीय गरिमा प्रदान करने वाला नहीं है। डा। भीमराव आम्बेडकर ने भी राजनीतिक सत्ता को दलित-मुक्ति की 'गुरु-किल्ली'बताया था, इसीलिए वे सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए राजनीतिक सत्ता हासिल करने का संघर्ष करते थे। प्रेमचन्द अपने समय की प्रगतिशील व विकासमान शक्तियों को पहचान रहे थे। जो रचनाकार अपने युग की गति को पहचानता है वही युगद्रष्टा व भविष्यद्रष्टा होता है। इसीलिए प्रेमचन्द ने साहित्य को 'राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई' कहा था। प्रेमचन्द ने दलित-मुक्ति की राजनीति की दिशा की ओर संकेत किया था, आज के दलित-आन्दोलन व स्थितियों पर विचार करने से सही साबित हो रही है कि जब दलित नेता राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने में सफल हुए हैं, तो कथित 'श्रेष्ठ' व 'उच्च' भी उनके पास 'हाथ बांधे खड़े' हैं।
डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में साम्यता सिर्फ उपर्युक्त मामले में ही नहीं थी, बल्कि जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के उपाय में भी थी। डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द दोनों ही सवर्णों-दलितों के बीच रोटी-बेटी के सम्बन्धों को जाति-प्रथा तोडऩे के लिए कारगर समझते थे तथा केवल रोटी के सम्बन्ध को अपर्याप्त मानते थे। महात्मा गंाधी के सामूहिक भोज को वे दलित मुक्ति के लिए नाकाफी समझते थे। डा.आम्बेडकर की तरह अन्तर्जातीय विवाह के हिमायती थे, इसीलिए प्रेमचन्द की 'मंत्र' कहानी का बूढ़ा अन्तर्जातीय विवाह पर जोर देता है। डा.भीमराव आम्बेडकर ने अपने प्रसिद्ध लेख 'जातिप्रथा-उन्मूलन' में अन्तर्जातीय विवाह पर विशेष जोर दिया है। उन्होंने लिखा कि ''जाति-व्यवस्था समाप्त करने की एक योजना है कि अन्तर्जातीय खान-पान का आयोजन किया जाए। मेरी राय में यह उपाय भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अनेक जातियां है, जो अन्तर्जातीय खान-पान की अनुमति देती हैं। इस जाति-भावना या जाति-बोध को समाप्त करने में सफल नहीं हो पायी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अंतर्जातीय विवाह ही है। केवल खून के मिलने से ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता, तब तक जाति-व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गई पृथकता की भावना अर्थात् पराएपन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिन्दुओं में अंतर्जातीय विवाह सामाजिक जीवन में निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा। गैर-हिन्दुओं में इसकी इतनी आवश्यकता नहीं है। जहां समाज संबंधों के ताने-बाने से सुगठित होगा, वहां विवाह जीवन की एक साधारण घटना होगी। लेकिन जहां समाज छिन्न-भिन्न है, वहां बाध्यकारी शक्ति के रूप में विवाह की परम आवश्यकता होती है। अत: जाति-व्यवस्था को समाप्त करने का वास्तविक उपाय अन्तर्जातीय विवाह ही है। जाति-व्यवस्था समाप्त करने के लिए जाति-विलय जैसे उपाय को छोड़कर और कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होगा .... सही है कि जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी, जब रोटी-बेटी का संबंध सामान्य व्यवहार में आ जाए। आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है? यह प्रश्न अपने आप से पूछिए। अधिसंख्य हिन्दू रोटी-बेटी का संबंध क्यों नहीं करते? आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है कि रोटी-बेटी का संबंध उन आस्थाओं और धर्म-सिद्धांतों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं। जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेल-मिलाप से रोकती हो और जिसे तोडऩा आवश्यक हो। जाति तो एक धारणा है और यह एक मानसिक स्थिति है। अत: जाति व्यवस्था को नष्ट करने का अर्थ भौतिक रुकावटों को दूर करना नहीं है। इसका अर्थ विचारात्मक परिवर्तन से है। जाति व्यवस्था बुरी हो सकती है। जाति के आधार पर ऐसा घटिया आचरण किया जा सकता है, जिसे मानव के प्रति अमानुषिकता कहा जा सकता है।"18
प्रेमचन्द ने सही दर्शाया है कि समस्या की असली जड़ पंडित लीलाधर सोचने के ढंग में है वे इसलिए ही अछूतों को नीच समझते रहे कि वे वर्ण-व्यवस्था की विचारधारा के दृष्टिकोण से समाज को देखते हैं। उनको अपने व्यवहार में कोई खोट नजर ही नहीं आया, बल्कि वर्ण-धर्म की रक्षा को वे बड़े पुण्य और समाज के लिए आवश्यक कार्य मानते थे। वे बड़ी ईमानदारी से 'शुद्धि' का काम इसलिए करते थे कि वे इसे धर्म व मानवता की सेवा के रूप में देखते थे। ऊंच-नीच के व्यवहार में उनको कुछ भी असंगत नहीं लगा, बल्कि 'धर्म-सम्मत'ही लगा। इसीलिए डा। भीमराव आम्बेडकर ने हमेशा ही इस बात पर जोर दिया कि ऐसे आदमी से घृणा करने या उस पर गुस्सा करने का कोई लाभ नहीं है जो धार्मिक मान्यता के कारण भेदभाव करता है, क्योंकि वह तो अपनी तरफ से धर्मसम्मत व्यवहार कर रहा होता है। इसलिए उन्होंने सलाह दी है कि जातिप्रथा के धार्मिक आधार पर चोट करना व उसके शास्त्रीय आधार को तोडऩा जरूरी है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने कहा कि ''यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दू समुदाय द्वारा जाति-प्रथा मानने का कारण यह नहीं है कि उनका व्यवहार अमानुषिक और अन्यायपूर्ण है। वह जातपांत को इसलिए मानते हैं, क्योंकि वह अत्यधिक धार्मिक होते हैं। अत: जातपांत मानने के लोग दोषी नहीं हैं। मेरी राय में उनका धर्म दोषी है, जिसके कारण जाति-व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ है। यदि यह बात सही है तो यह स्पष्ट है कि वह शत्रु जिसके साथ आपको संघर्ष करना है, वे लोग नहीं हैं जो जातपांत मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं, जिन्होंने जाति धर्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी का संबंध न करने या समय-समय पर अन्तर्जातीय खान-पान और अन्तर्जातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिए लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीका है। वास्ततिक उपचार यह है कि शास्त्रों से लोगों के विश्वास को समाप्त किया जाए। यदि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा तो आप कैसे सफल होंगे? शास्त्रों की सत्ता का विरोध किए बिना, लोगों को उनकी पवित्रता और दंड विधान में विश्वास करने के लिए अनुमति देना और फिर उनके अविवेकी और अमानवीय कार्यों के लिए उन्हें दोष लगाना और उनकी आलोचना करना सामाजिक सुधार करने का अनुपयुक्त तरीका है। प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी समेत अस्पृश्यता को समाप्त करने वाले समाज सुधारक यह महसूस नहीं करते हैं कि लोगों के कार्य मात्र उन धर्म-विश्वासों के परिणाम हैं, जो शास्त्रों द्वारा उनके मन में पैदा कर दिए गए हैं। लोग तब तक अपने आचरण में परिवर्तन नहीं करेंगे, जब तक वे शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास करना नहीं छोड़ देते, जिस पर उनका आचरण आधारित है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसे प्रयासों का कोई सकारात्मक परिणाम न निकले। आप भी वही गलती कर रहे हैं, जो अस्पृश्यता को समाप्त करने के उद्देश्य से काम करने वाले समाज सुधारक कर रहे हैं। रोटी-बेटी के संबंध के लिए आन्दोलन करना और उनका आयोजन करना कृत्रिम साधनों से किए जाने वाले, बलात् भोजन कराने के समान है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को शास्त्रों के बंधन से मुक्त कराइए, शास्त्रों द्वारा प्रतिष्ठापित हानिकर धारणाओं से उनके मस्तिष्क का पिंड छुड़ाइए, फिर देखिए, वह आपके कहे बिना अपने आप अंतर्जातीय खान-पान तथा अंतर्जातीय विवाह का आयोजन करेगा/करेगी।"19
'मंत्रÓ कहानी में पंडि़त लीलाधर जब दलितों में रहकर अपने कथित 'धार्मिक-संस्कारों' से मुक्ति पाते हैं तो उनकी संवेदना का दायरा विस्तृत होता है और उन्हें अपने अनुभव से दलितों के जीवन में मौजूद मानवता का अहसास होता है। ज्यों ही वे अपने अन्दर बैठे हुए ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाते हैं तो उनके सोचने का ढंग ही बदल जाता है। पंडित लीलाधर असमानता, श्रेष्ठता-नीचता को मान्यता देने वाली विचारधारा को त्याग देते हैं, तभी वे इन कथित अछूतों में घुल-मिल पाते हैं। 'शुद्धि' जैसे काम को जिसे वे धर्म का पुण्य-कार्य समझते थे, उसे मानवता को 'अपमानित' करने वाला मानने लगते हैं। विचारधारा के स्तर पर आत्मसंघर्ष से ही व्यक्ति गहरे में जड़ जमाये 'धार्मिक' आधार पर मान्यता पाए इन संस्कारों से छुटकारा पा सकता है।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने छुआछूत और जातिप्रथा को अलग-अलग करके नहीं देखा, बल्कि उनका मानना था कि जातिप्रथा को समाप्त किए बिना छुआछूत को समाप्त नहीं किया जा सकता। जातिप्रथा को समाप्त किए बिना अस्पृश्यता के विनाश की आशा करना बालू की भीत बनाना है। यह विचार कि जातिप्रथा और अस्पृश्यता दोनों अलग-अलग हैं, एक दिवा-स्वप्न है। दोनों एक ही हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दोनों का चोली दामन का साथ है। ...अस्पृश्यता तभी दूर हो सकगी, जब सम्पूर्ण व्यवस्था, विशेष रूप से जातिप्रथा विलीन हो जाए। क्या यह सभंव है? प्रत्येक संस्था का कोई न कोई आधार होता है। ये आधार तीन प्रकार के होते हैं? कानूनी, सामाजिक और धार्मिक। संस्था का स्थायित्व उसके अपने आधार की शक्ति पर निर्भर करता है। जाति-प्रथा के आधार की प्रकृति कैसी है? दुर्भाग्य से जाति-प्रथा का आधार धार्मिक है। जातिप्रथा वर्ग-व्यवस्था का नया संस्करण है, जिसे वेदों से आधार मिलता है। वेद हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ हैं और अकाट्य हैं, मैं उसे दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कहता हंू कि जिस किसी का आधार धर्म होता है, वह इस कारण ही पवित्र और सनातन बन जाता है। यदि जाति-प्रथा विलीन नहीं हो सकती, तब यह आशा किस प्रकार की जाए कि अस्पृश्यता विलीन हो जाएगी।"20
प्रेमचन्द की 'मंदिर' कहानी में सुखिया नामक चमारिन का बेटा बीमार हो जाता है और उसे लगता है कि यदि वह मंदिर में पूजा कर ले तो वह स्वस्थ हो सकता है। इसके लिए वह अपने घर का बचा-खुचा सामान बेचकर पूजा की सामग्री तैयार करती है। चूंकि गांव का पुजारी और ठाकुर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार सोचते हैं इसलिए वे उसे पूजा नहीं करने देते। पुजारी व ठाकुर की मान्यताएं और संस्कार सुखिया की ममता में रोड़ा बनकर खड़े हो जाते हैं। विशेष ध्यान देने की बात है कि प्रेमचन्द ने पुजारी या ठाकुर के प्रति भी घृणा नहीं की, बल्कि उस विचारधारा का अमानवीयपन है जिससे उनका व्यवहार परिचालित है और अपने लेखकीय कौशल व विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के कारण पुजारी में मौजूद मानवता को भी उभारने की कोशिश की है लेकिन विडम्बनापूर्ण है कि जब भी उसकी मानवता उभार पाती है तो उसके संस्कारों-विचारों, मान्यताओं-नैतिकता में मौजूद ब्राह्मणवादी अमानवीय विचारधारा के किटाणु उसे दबा देते हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा में छिपी बर्बरता व क्रूरता वात्सल्य-प्रेम के आड़े आती है। एक अबोध-अस्वस्थ बालक की रक्षा करने वाली मां की मदद नहीं करते, बल्कि उसमें बाधा बनकर खड़े होते हंै। जब सुखिया उससे मंदिर में पूजा करने की प्रार्थना करती है तो उस समय का उद्धरण देना उचित रहेगा:
''सुखिया ने थाली जमीन पर रख दी और एक हाथ फैलाकर भिक्षा प्रार्थना करती हुई बोली - महाराज जी, मैं अभागिनी हूँ । यही बालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो। तीन दिन से इसने सिर नहीं उठाया। तुम्हें बड़ा जस होगा, महाराज जी।
यह कहते-कहते सुखिया रोने लगी। पुजारी जी दयालु तो थे, पर चमारिन को ठाकुर जी के समीप जाने देने का अभूतपूर्व घोर पातक वह कैसे कर सकते थे? न जाने ठाकुर जी इसका क्या दंड दें। आखिर उनके भी बाल-बच्चे थे। कहीं ठाकुर जी कुपित होकर गांव का सर्वनाश कर दें, तो? बोले - घर जाकर भगवान् का नाम ले, तो बालक अच्छा हो जायेगा। मै यह तुलसीदल देता हूँ , बच्चे को खिला दे, चरणामृत उसकी आंखों में लगा दे। भगवान चाहेंगे तो सब अच्छा ही होगा।
सुखिया- ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे?
पुजारी- तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गांव पर कोई आफत-विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो।"21 बच्चे की हालत देखकर या सुखिया की मिन्नतों के कारण पुजारी के मन में उसके प्रति दया भाव या सहानुभूति पैदा होती है और पुजारी में मौजूद मानवता उभार पाने लगती है तो सदियों से उसके मन पर जमा पाप का डर, अनिष्ट की आशंका उसे फिर दबा देती है। ब्राह्मणवादी विचारधारा के कुतर्क को कि 'अछूत के छूने से मंदिर व ईश्वर भ्रष्ट हो जाते हैं व गांव पर भारी विपदा पड़ सकती है' सुखिया के माध्यम से प्रेमचन्द ने खूब उजागर किया है।
प्रेमचन्द ने दलितों के जीवन में मौजूद ईमानदारी तथा इन्सानियत को उजागर करते हुए सवर्णों के अन्याय, अत्याचार व शोषण का अस्वीकार है। 'दूध का दाम' कहानी में महेशबाबू के कथित सवर्ण व सम्पन्न परिवार के विचार, संस्कार व व्यवहार तथा अछूत समझे जाने वाली भुंगी, गूदड़ व मंगलू के विचार, संस्कार व व्यवहार को आमने-सामने दर्शाकर प्रेमचन्द ने दलितों में मौजूद करुणा, सहयोग, इन्सानियत को उजागर किया तो सवर्ण मनोवैज्ञानिकता में मौजूद काईयांपन, चालाकी व धोखेबाजी को चित्रित किया है जो उनकी इंसानियत को उभरने नहीं देती। मंगल को अहसास है कि सवर्ण के साथ उसकी किसी भी तरह की सांझ नहीं हो सकती। मौजूदा व्यवस्था में उसका शोषण होना निश्चित है इसलिए वह कहता है कि 'तुम बड़े चघड़ हो।' भारतीय समाज में दलितों को दूसरे दर्जे का इन्सान मानना और उनके साथ भेदभाव बरतना गम्भीर समस्याएं हैं। दलितों को हमेशा इनका सामना करना पड़ता है। इस तरह के व्यवहार के कारण दलितों को मानवीय गरिमा नहीं मिलती और दूसरी ओर भरा पूरा इन्सान होने के लिए जिस विनम्रता, सहजता और उदारता की आवश्यकता होती है वह सवर्णों में गायब हो जाती है। डा. आम्बेडकर ने इस बात को लिखा कि ''अस्पृश्यों को जिन गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें कम से कम इंसानों का दर्जा पाने की समस्या के बाद दूसरी समस्या भेदभावपूर्ण व्यवहार की आती है। जीवन में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ अस्पृश्य और हिंदुओं की एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा न होती हो और जिसमें अस्पृश्यों के साथ भेदभाव न किया जाता हो। यह भेदभाव बहुत ही मर्मातंक तरीके का होता है।
सामाजिक-सम्बन्ध, जैसे आमोद-प्रमोद, खान-पान, खेलकूद और पूजापाठ के मामले में यह प्रतिबंध का रूप ले लेता है। इस कारण साधारण से साधारण क्षेत्र में भी भाग लेने पर रोक लग जाती है। ... नागरिकता के अधिकार का आशय अस्पृश्यों के अधिकार से नहीं होता। जनता की सरकार और जनता के लिए सरकार का आशय अस्पृश्यों के लिए सरकार से नहीं होता, सभी के लिए समान अवसर का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अवसर नहीं होता। समान अधिकार का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अधिकार नहीं होता। सारे देश में कोने-कोने में अस्पृश्यों को अड़चनों का सामना करना पड़ता है, भेदभाव सहन करना पड़ता है, उनके साथ अन्याय होता है, वे भारत के सबसे दीन-हीन लोग हैं। यह कितना सच है, यह केवल अस्पृश्य जानते हैं, जिन्हें मुसीबतें उठानी पड़ती हैं। यह भेदभाव अस्पृश्यों के रास्ते में सबसे कठिन बाधा है। यह उनको इससे उबरने नहीं देती। इसके कारण उन्हें प्रतिक्षण किसी न किसी का, बेरोजगारी का, दुव्र्यवहार का, उत्पीडऩ आदि का डर बना रहता है। यह असुरक्षा की जिंदगी होती है।"22
दलित वर्ग को समाज के प्रति त्याग, निष्ठा, ईमानदारी व सर्वस्व त्याग का फल भी नहीं मिलता, उनको तो अपने लिए समर्पित मानकर चला जाता है, इसलिए उनके किए कार्यों के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित नहीं की जाती। जब किसी समाज के त्याग की कोई कीमत न समझी जाए तो जिस समाज के प्रति वह त्याग करता है उसकी इन्सानियत पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जाति-व्यवस्था की विचारधारा समाज से मानवता को सोख लेती है। जो समाज श्रेष्ठता के दंभ में चूर है वह इस कारण इन्सान होने की आवश्यक शर्तों पर खरा नहीं उतर पाता और जो वर्ग अपना सर्वस्व त्याग देता है उसकी मानवीयता का उल्लेख नहीं होने देती। दलित वर्ग की पीड़ा मंगल के इन शब्दों में व्यक्त होती है। ''मंगल ने एक हाथ से टम्मी का सिर सहलाकर कहा - देखा, पेट की आग ऐसी होती है। यह लात मारी हुई रोटियां भी न मिलती, तो क्या करते?
टम्मी ने दुम हिला दी।
'सुरेश को अम्मा ने पाला था।'
टम्मी ने फिर दुम हिलायी।
'लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'
टम्मी ने फिर दुम हिलायी।"23
ब्राह्मणवादी विचारधारा व्यक्ति को इतना गिरा देती है कि वह बीमार व असहाय व्यक्ति पर भी दया नहीं करने देती, जरूरतमंद की सहायता भी नहीं करते देती। ब्राह्मणवादी विचारधारा सिर्फ दलितों के लिए ही अभिशाप नहीं है, बल्कि कथित सवर्णों के लिए भी अभिशाप है। 14 मई,1934 को प्रेमचन्द ने 'इस हिमाकत की भी हद है' में लिखा कि ''छूतछात और जात-पांत का भेद हिन्दू समाज में इतना बद्धमूल हो गया है, कि शायद उसका सर्वनाश करके ही छोड़े। खबर है कि किसी स्थान में एक कुलीन हिन्दू स्त्री कुंए पर पानी भरने गई। संयोगवश कुंए में गिर पड़ी। बहुत से लोग तुरन्त कुंए पर जमा हो गए और उस औरत को बाहर निकालने का उपाय सोचने लगे, मगर किसी में इतना साहस न था कि कुंए में उतर जाता। वहां कई हरिजन भी जमा हो गए थे। वे कुंए में जाकर उस स्त्री को निकाल लाने को तैयार हुए, लेकिन हरिजन कुंए में कैसे जा सकता था। पानी अपवित्र हो जाता। नतीजा यह हुआ कि अभागिनी स्त्री कुंए में मर गई।
क्या छूत का भूत कभी हमारे सिर से न उतरेगा?"24
ब्राह्मणवादी विचारधारा और इंसानियत के मूल्य साथ-साथ नहीं रह सकते। कभी यह दलित पर कहर बनकर गिरती है तो कभी सवर्ण पर। 'ठाकुर का कुंआ' कहानी का जोखू बीमार है। जिसे साफ पानी की जरूरत है। दलितों के कुंए में कोई जानवर गिरकर मरने से पानी में बदबू हो गई। उसका पानी पीना बीमार व्यक्ति के लिए ठीक नहीं है। उसकी पत्नी उसके लिए ठाकुर के कुंए से पानी लेने के लिए कहती है। गांव में दलितों की बस्ती, कुंए, चौपाल सब कुछ अलग हैं, जोखू इस वास्तविकता को पहचानता है और उसे मना करता है, लेकिन बीमार व्यक्ति के लिए स्वच्छ पानी तो अवश्य चाहिए इसलिए वह पानी लेने जाने की हिम्मत करती है। जोखू और गंगी की बातचीत से पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
''जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- दूसरा पानी कहां से आयेगा?
'ठाकुर और साहू के दो कुंए तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?'
''हाथ-पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण/देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहू जी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुंए से पानी भरने देंगे?"25
यह कहानी वर्ण-व्यवस्था में छिपी अमानवीयता को दर्शाती है। वर्ण-व्यवस्था में चार वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र - सभी बराबर नहीं है, बल्कि विभिन्न स्तर है। इसमें ब्राह्मण सबसे ऊपर हैं, क्षत्रिय उससे नीचे, वैश्य उससे नीचे और शूद्र सबसे नीचे। इस स्तर क्रम में जो सबसे ऊंचे पायदान पर है वह सभी अधिकारों को भोगता है लेकिन जो सबसे नीचे है वह केवल 'कर्तव्य करता है। ऊपर के तीनों वर्ण मिलकर दलित का शोषण करते हैं और वे दलित का शोषण करने के लिए एकजुट हो जाते है। दलितों पर सवर्णों का यह अमानवीय व्यवहार ब्राह्मणवादी वर्ण-धर्म के कारण है। डा आम्बेडकर ने इस संबंध में लिखा कि ''अस्पृश्य यदि साफ वस्त्र पहनता है तो उस पर अत्याचार क्यों किया जाए? हिन्दू को उससे क्या आघात पहुंच सकता है? अस्पृश्य के साथ क्यों छेड़-छाड़ की जाए, यदि वह अपने घर पर खपरैल की छत डालता है? हिन्दू का उससे क्या बिगड़ता है? अस्पृश्य को क्यों पीड़ा पहुंचाई जाए? यदि वह अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहता है? उससे हिन्दू की क्या हानि होती है? अस्पृश्य को क्यों विवश किया जाए कि वह मृत पशुओं को उठाए, सड़ा-गला मांस खाए और घर-घर जाकर अपने भोजन के लिए गिड़गिड़ाए? हिन्दुओं को क्या घाटा होता है, यदि वह इन कामों को न करें? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि अस्पृश्य अपना धर्म बदलना चाहता है? उसके धर्म-परिवर्तन से हिंदू क्यों नाराज हों और बौखलाएं? हिन्दू स्वयं को क्यों अपमानित अनुभव करें, यदि अस्पृश्य अपना सुंदर एवं सम्मानीय नामकरण करता है? किसी अस्पृश्य का उत्तम नाम हिन्दू पर प्रतिकूल प्रभाव कैसे डाल सकता है? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि कोई बनता-बिगड़ता है? हिन्दू को क्यों आपत्ति करनी चाहिए, यदि किन्हीं निश्चित दिवसों पर उसके कानों तक किसी अस्पृश्य की आवाज पहुंचती है, उससे वह बहरा तो नहीं हो सकता। हिन्दू को क्यों अप्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए, यदि कोई अस्पृश्य कोई काम करता है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाता है और उसकी गिनती खाते-पीते लोगों में होने लगती है, सभी हिन्दू, चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, मिलकर अस्पृश्यों का दमन क्यों करते हैं? सभी जातियां, चाहे वे आपस में लड़ती झगड़ती रहें, हिन्दू धर्म की आड़ में एकजुट होकर क्यों साजिश करती हैं और अस्पृश्यों को असहाय स्थिति में रखती हैं।
निश्चय ही ऐसे विचित्र और अमानवीय व्यवहार का कोई स्पष्टीकरण तो होना चाहिए वह क्या है?
यदि आप किसी हिन्दू से पूछेंगें कि वह ऐसा बर्बर व्यवहार क्यों करता है, क्यों वह घोर अपमान अनुभव करता है जब अस्पृश्य स्वच्छ और सम्मानजनक जीवन जीने का प्रयास करते हैं, तो उसका उत्तर सीधा-सा होगा। वह कहेगा, 'अस्पृश्यों के जिस प्रयास को आप सुधार कहते है, वह सुधार नहीं है। वह हमारे धर्म का घोर अपमान है।' यदि आप उससे फिर पूछेंगे कि इस धर्म की व्यवस्था कहां है तो पुन: उसका उत्तर एकदम सीधा-सा होगा, 'हमारा धर्म हमारे शास्त्रों में है।' पूर्वाग्रह-रहित व्यक्ति की दृष्टि से, अस्पृश्यों के उस न्यायोचित विद्रोह का दमन कर रहा है, जो वे हिंसा, लूटमार, आगजनी पर आधारित मूलत: अन्यायपूर्ण प्रणाली के विरुद्ध कर रहे हैं। आधुनिक व्यक्ति को लगता है कि दमन का सहारा लेकर हिन्दू नितांत धर्म-विरोधी कार्य कर रहा है या हिन्दुओं की प्रचलित शब्दावली में कहा जाए तो वह 'अधर्म' कर रहा है। लेकिन हिन्दू इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगा। हिन्दू का विचार है कि 'धर्म' का उल्लंघन तो अस्पृश्य कर रहे हैं और अराजकता के कर्म तो अधर्म से लगते हैं। उनकी प्रेरणा उसे धर्म के पुनरुद्धार हेतु, उसके पावन कत्र्तव्य से मिलती है। यह एक ऐसा अन्तर है जिसकी सत्यता को वे लोग नहीं नकार सकते, जो हिन्दुओं की मानसिकता से परिचित हैं।"26
'ठाकुर का कुंआÓ की गंगी ठाकुर के कुंए से पानी लेने के लिए चली जाती है। वह अपनी स्थिति और कथित ऊंचे वर्ण के लोगों के व्यवहार के बारे में सोचने लगती है। एक तो उनका कथित धर्म है दूसरे उनका वास्तविक जीवन है। कर्मकाण्डी, शास्त्रीय व पोथी का धर्म कुछ भी कहता हो लेकिन उनका जीवन भ्रष्ट है। गंगी के माध्यम से कथित श्रेष्ठता के खोल को प्रेमचन्द उजागर करते है।
''गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी-पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हंै और यह लोग क्यों ऊंचे हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हंै? यहां तो जितने हैं, एक-से-एक छंटे हैं? चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहुजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हंै। काम करवा लेते हैं, मजदूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हमसे ऊंचे। हां, मुँह में हमसे ऊंचे हंै। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे हैं, हम ऊंचे। कभी गांव में जाती हूं, तो रसभरी आंखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परन्तु घमण्ड यह कि हम ऊंचे हैं।
''कब इन लोगों को दया आती है किसी पर। बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसलिए कि उसने बेगार न दी थी। उस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं।"27
ब्राह्मणवादी विचारधारा का दलितों के प्रति सबसे क्रूर रूप 'सद्गति' कहानी के दुखी के मरने पर उद्घाटित होता है। दुखी लकड़ी फाड़ते-फाड़ते मर जाता है और जब पंडित घासीराम अपनी पत्नी को कहता है कि वह 'लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा?' तो वह बिना किसी संवेदना-सहानुभूति के ऐसे कह देता है जैसे कि कुछ घटित ही नहीं हुआ। जैसे दुखी का मरना उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। वह कहती है - 'होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो कि मुर्दा उठा ले जाएं'। पंडिताइन का यह वाक्य संवेदनहीनता का चरम बिन्दु है।
दुखी की लाश को चमार उठाने से मना कर देते हैं और ब्राह्मण उसको उठाने में अपने को नीचा समझते हैं। उनको दु:खी के परिवार से कोई संवेदना व सहानुभूति नहीं है। वे शोक मनाते परिवार के सदस्यों को भी अपनी नींद में बाधा डालने वाले ही मानते है। पण्डित घासीराम व उसकी पत्नी के बीच का संवाद अच्छी तरह उद्घाटित करता है।
'' आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मण लाश कैसे उठाते। भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है? कहीं कोई दिखा दे।
पंडिताइन ने झुंझलाकर कहा - इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभी का गला भी नहीं पकता।
पंडित ने कहा रोने दो चुड़ैलों को, कब-तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँची।
पंडिताइन - चमार का रोना मनहूस है।
पंडित - हां बहुत मनहूस
पंडिताइन - अभी से दुर्गन्ध उठने लगी ।
पंडित - चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।
पंडिताइन - इन सबों को घिन भी नहीं लगती।
पंडित - भ्रष्ट हैं सब।
रात तो किसी तरह कटी, मगर सवेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो पीटकर चली गई। दुर्गन्ध कुछ- कुछ फैलने लगी।
पंडित जी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फंदे को खींच दिया। अभी-कुछ धुंधलका था। पंडित जी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गांव के बाहर घसीट ले गये। वहां से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का" उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते ओर कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।" 28 पंडित घासीराम चमारों के शोक को मनहूस बता रहे हैं। लाश उठाने के लिए शास्त्रों के पन्नों को खंगालने का स्वांग भरते हैं। स्वयं को बड़ा ही धर्म-कर्म का और शुद्ध समझते हैं। उनकी नजर में सबसे बड़ा कार्य चमार के मरने से अपने घर की 'शुद्धि' है वे गंगाजल छिड़क कर ही अपने को शुद्ध कर लेते हैं। दुखी की हत्या से न तो उनकी आत्मा विचलित होती है और न ही उसे शुद्ध करने की जरूरत महसूस करते हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा की खोखली नैतिकता, कर्मकाण्डी धर्म और परजीवीपन ने पण्डित के जीवन से मानवता को समाप्त कर दिया है। कोई भी घटना उसकी मानवता को नहीं जगा पाती, वह हमेशा अपने-अपने शास्त्रों की व्यवस्था देखता है। प्रेमचन्द ने श्रमजीवी वर्ग दलित तथा उनकी मेहनत का शोषण करने वाले परजीवी वर्ग की सोच में अन्तर को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। प्रेमचन्द की सहानुभूति श्रमजीवी वर्ग की तरफ है।
शोषण को वैधता
वर्ण-व्यवस्था सामाजिक विषमता को वैधता प्रदान करती है। शोषकों की लूट और शोषण को उचित ठहराती है। छुआछूत को बनाए रखने के लिए धर्म व शास्त्रों का सहारा लिया है। धर्म ने हमेशा उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की है, और निम्न वर्ग के शोषण को उचित ठहराया है। इसीलिए दलितों के लिए अलग धर्म है तो सवर्णों के लिए अलग। प्रत्येक वर्ग के लिए अलग धर्म का औचित्य ठहराना असल में समाज में विशेषाधिकारों को स्वीकारना व उनको सुरक्षित करना है। यह सभी कुकर्मों-पापों व अनैतिकता को उचित ठहरा देती है। 'दूध का दाम' कहानी में ब्राह्मण और महेशबाबू के बीच हुए संवाद से यह स्पष्ट है:
'' भूंगी का शासनकाल साल भर से आगे न चल सका। देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित का प्रस्ताव कर बैठे। दूध तो छुड़ा दिया गया, लेकिन प्रायश्चित की बात हंसी में उड़ गई। महेशनाथ ने फटकार कर कहा - प्रायश्चित की खूब कही शास्त्री जी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गई। वाह रे आपका धर्म।
शास्त्री जी शिखा फटकारकर बोले - वह सत्य है, वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला। मांस खाकर पला, यह भी सत्य है, लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं, पर यहां तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते है। खिचड़ी तक खा लेते हैं' बाबूजी, लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता है। आपद्धर्म की बात न्यारी है।
'तो इसका अर्थ है कि धर्म बदलता रहता है- कभी कुछ, कभी कुछ?'
'और क्या! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजे-महाराजे जो चाहे खायें, जिसके साथ चाहें खाएं, जिसके साथ चाहें शादी ब्याह करे, उनके लिए कोई बन्धन नहीं। समर्थ पुरुष हैं। बन्धन तो मध्यवालों के लिए है।"29
स्पष्ट है कि धर्म के समस्त बंधन निम्न वर्ग के लोगों के लिए हैं। निम्न वर्ग के लोगों का आपस में भाईचारा न हो पाए इसीलिए उनमें खान-पान व शादी-विवाह न करने की व्यवस्था की। वर्चस्वी वर्गों के लिए कोई धार्मिक पांबदी नहीं है क्योंकि वे धार्मिक पाबंदी को स्वीकार नहीं करते। यदि कोई ऐसा कार्य हो भी जाता है जो व्यवस्था को तोड़ दे तो इसको पुन: स्थापित करने के लिए 'आपद्धर्म' की श्रेणी में डालकर उसे स्वीकार लिया गया और पुन: पूर्ववत व्यवहार करने की व्यवस्था दी गई। पे्रमचन्द ने पंडित और बाबू महेशनाथ के बीच की बातचीत से न केवल संकेत किया है बल्कि जोर देकर स्पष्ट किया है कि धर्म कोई सिद्धांत, मूल्यों और सार्वभौमिक और सार्वकालिक मान्यताओं पर नहीं टिका, बल्कि उसका आधार पूर्णत: स्वार्थ और आर्थिक हैसियत है। इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों के लिए धर्म अलग-अलग व्यवस्था देता है। इसमें गरीबों के लिए सख्त नियम होते हैं और अमीरों के लिए काफी छूट होती है। धर्म की व्याख्या करने वाले भी अमीर के पक्ष में ही उसकी व्याख्या करते हैं।
धर्म से मान्यता पाकर वर्ण-व्यवस्था में ऊंच-नीच की व्यवस्था शोषण को उचित ठहराती है। दलितों को साधनों से वंचित करके ही यह शोषण संभव हो सका है। धन का अभाव व उन पर निर्भरता के कारण ही थोड़े से धन के लालच में 'दूध का दाम' की भूंगी अपने बच्चे मंगल को भूखा रखती है लेकिन मालिक के बेटे सुरेश को पूरा दूध पिलाती है। उसके पेट की भूख ही ऐसा करवाती है। इसी तरह जब मंगलू को महेशबाबू की पत्नी डांटकर भगा देती है तो वह अपमानित होकर चला तो जाता है लेकिन उसे अपनी भूख मिटाने के लिए वापस वहीं आना पड़ता है, क्योंकि उसके पास अपनी भूख मिटाने का और कोई साधन ही नहीं है। 'मंगल ने एक हाथ से सिर सहलाकर कहा - देखा, पेट की आग ऐसी होती है! यह लात मारी हुई रोटियां भी न मिलती, तो क्या करते?'30 पेट भरने की मजबूरी ही दलितों को अपमान, शोषण व उत्पीडऩ को सहने को विवश करती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बड़े चालाकीपूर्ण ढंग से दलितों को साधन विहीन करके उनका शोषण करने की व्यवस्था की है।
अपना स्वार्थ साधने के लिए ऊंच-नीच व छूत-अछूत की व्यवस्था की गई है अत: जब स्वार्थ साधने में यह व्यवस्था आड़े आती है तो इसके पोषक इसको त्याग भी देते हैं, लेकिन जब स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तो फिर यह व्यवस्था अपना ली जाती है। इसका यह लचीलापन ही जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता और मानवीय शोषण को चिरस्थायी बनाए हुए हैं। बाबू महेश की पत्नी के दूध नहीं उतरता तो भुंगी भंगिन का दूध अपने बेटे सुरेश को पिलाने में कोई छूत नहीं लगती, यहां तक कि महेश बाबू भी उसकी डांट सहन कर लेते हैं। लेकिन जब अपना मतलब निकल जाता है तो फिर से ऊंच-नीच, छूत-अछूत की व्यवस्था को अपना लिया जाता है।
यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जो बच्चा उसके हिस्से का दूध पीकर बड़ा होता है और भंगिन का दूध पीता है वह भी छुआछूत में विश्वास करता है और महेश बाबू की पत्नी को जब दूध नहीं उतरता तो वह भुंगी भंगिन की चिरौरी करती है और तरह तरह के लालच देकर अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए उसे राजी कर लेती है और इसके लिए वह अपने बच्चे को भी दूध नहीं पिलाती। परन्तु यह घोर स्वार्थ के साथ वर्ण-व्यवस्था की अमानवीय विचारधारा का असर ही कहा जायेगा कि वह उस भंगिन के बेटे के छूने से भी न केवल मना करती है, बल्कि उसे खूब खरी खोटी सुनाती है। होना तो चाहिए था कि इनके मन से छुआछूत की भावना समाप्त हो जाती, लेकिन यह उसके बेटे के छूने को भी बुरा मानती है जिसने कि उसके बेटे को उसके हिस्से का दूध पिला कर बड़ा किया। अनाथ होने पर भी उस पर दया नहीं आई, जबकि उसने तो आने वाली कई पुश्तों को बैठे-बैठे खिलाने के स्वप्न दिखाए थे। सुरेश जब अपनी मां को शिकायत करता है कि मंगल ने उसे छू लिया है तो वह उसको डांट-फटकार कर भगा देती है, उससे सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
''मां ने पूछा - क्यों रोता है सुरेश, किसने मारा?
सुरेश ने रोकर कहा - मंगल ने छू दिया।
मां को विश्वास नहीं आया। मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा, तो विश्वास करना लाजिम हो गया। मंगल को बुलाकर डांटा - क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी। मैनें तुमसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद है कि नहीं, बोल।
मंगल ने दबी आवाज में कहा- याद क्यों नहीं है।
'तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?'
'मैंने नहीं छुआ।'
'तूने नहीं छुआ, तो वह रोता क्यों था?'
'गिर पड़े, इससे रोने लगे।'
चोरी और सीनाजोरी। देवीजी दांत पीसकर रह गई। मारतीं, तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उसके देह में पैबस्त हो जाता, इसलिए जहां तक गालियां दे सकीं दी और हुक्म दिया कि अभी-अभी यहां से निकल जा। फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आयी, तो खून ही पी जाऊंगी। मुफ्त की रोटियां खा-खाकर शरारत सूझती है,आदि।"31
'मंदिर' कहानी का पुजारी एक रुपये के लालच में आकर सुखिया को पूजा करने की इजाजत देने को तैयार हो ही जाता है और बड़ी ही धूर्तता से ममतामयी मजबूर सुखिया की स्थिति का लाभ उठाकर उससे रुपया ऐंठ भी लेता है।32 प्रेमचन्द ब्राह्मणवादी विचारधारा के इस शोषक रूप को खूब समझते थे। बार-बार उन्होंने अपनी रचनाओं में इसे उद्घाटित किया है। इस पर 21 नवम्बर 1932 को टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि, ''अछूत के पैसे तो आप बेधड़क ले लेते हैं, अछूत कोई मंदिर बनाये, आप दल-बल के साथ जायेंगे, मंदिर में देवता की स्थापना करेंगे, तर माल खायेंगे - हां, अछूत ने उसे छुआ न हो - दक्षिणा लेंगे, इसमें कोई पाप नहीं, न होना चाहिए, लेकिन अछूत मंदिर में नहीं जा सकता, इससे देवता अपवित्र हो जायेंगे। अगर आपके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाए। हिन्दू उसी को अपना देवता समझ सकता है। पतितों का उद्धार करने वाले ठाकुर ही हमारे ठाकुर हैं, जो पतितों के दर्शन-मात्र से पतित हो जाएं ऐसे ठाकुर को हमारा दूर ही से नमस्कार है।"33
ब्राह्मणवादी विचारधारा की वर्ण-व्यवस्था पद्धति की दलितों में स्वीकृति, पोथी-पत्रों का शुभ-अशुभ का अभिशाप व वरदान का भय दलितों के मन में इतना गहरा बैठा दिया है कि इनकी अवहेलना व उपेक्षा करना साधारण मनुष्य के वश के बात नहीं। 'सद्गति' कहानी के दुखी के मन में ब्राह्मण का, उसकी जीवन-शैली का, उसकी श्रेष्ठता का आभामण्डल इस तरह छाया हुआ है कि वह अपनी विवेक बुद्धि का इस्तेमाल न करके उसी को अन्तिम सत्य मान लेता है जो ब्राह्मण कहता है। उनसे इतना आतंकित है कि जरा भी उसकी अवहेलना नहीं करता। दुखी लकड़ी फाड़ते-फाड़ते थक जाता है तो उसका मन चिलम पीने को होता है वह एक गोंड के घर से चिलम तम्बाकू तो मांग लेता है लेकिन वहां आग नहीं थी। आग मांगने के लिए पंडित घासीराम के घर के भीतर चला जाता है इस पर घासीराम की पत्नी पंडित पर गुस्सा करती है, छूत का व धर्म का वास्ता देती है। पंडि़त घासीराम और उसकी पत्नी के बीच हो रहा वार्तालाप दुखी भी सुन लेता है। लेकिन वह उसी पक्ष को सही मानता है जिसको पंडिताइन कहती है और इसमें अपनी ही गलती मानता है।
''दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये! बड़े पवित्तर होते है यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गांव में बूढ़ा हो गया, मगर मुझे इतनी भी अकल ना आई।
इसलिए जब पंडि़ताइन आग लेकर निकली, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला- पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूर्ख न होते, तो लात क्यों खाते। पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं पांच हाथ की दूरी से घंूघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हटकर सिर को झोंटे देने लगा। उसने मन में कहा- यह एक पवित्तर ब्राह्मण के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार डरता है। और सबके रुपए मारे जाते हंै। ब्राह्मण के रुपए भला कोई मार तो ले। घर भर का सत्यानाश हो जाए, पांव गल-गलकर गिरने लगें।"34
सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जिस बात पर दुखी को गुस्सा आना चाहिए उसे वह प्रसाद समझकर ग्रहण करता है। उसकी बुद्धि पर ब्राह्मणों द्वारा अपनी कथित वरदान-अभिशाप, मंत्र-श्लोक की शक्ति का इतना भय बैठ गया है कि वह शोषण करने को दैवीय विधान मानने लगता है। किसी अनिष्ट की आशंका के भय से वह हमेशा दबा रहता है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने अपने लेखन में बार बार संकेत किया है कि दलितों को ब्राह्मणवादी संस्कारों व विचारों को अपने मन से समाप्त कर देना चाहिए। महात्मा जोतीबा फुले ने ब्राह्मणों द्वारा किसानों-मजदूरों के शोषण का वर्णन अपनी रचनाओं मे किया। 'गुलामगीरी' की प्रस्तावना में लिखा कि ''ब्राह्मण ने अपना प्रभाव, वर्चस्व इन लोगों के दिलो दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थवृत्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे सभी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूंकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दांव पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना गुलाम बनाकर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रखकर, एक से अधिक बनावटी ग्रन्थों की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रन्थों में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की, कि उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब उन्हें ईश्वर द्वारा प्राप्त है। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय की शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रन्थों में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा)पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुराहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।
ब्राह्मण-पंडा पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रन्थों द्वारा जगह-जगह, बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही। इन लोगों को उन्होंने(ब्राह्मणों ने) इनके मन में ईश्वर के प्रति जो भावना है, वही भावना अपने (ब्राह्मणों के) प्रति समर्पित करने के लिए मजबूर किया। यह कोई साधारण या मामूली अन्याय नहीं है। ब्राह्मणों के उपदेशों का प्रभाव अधिकांश अज्ञानी शूद्र लोगों के दिलो-दिमाग पर इस तरह जड़ जमाए हुए है कि अमेरिका के (काल) गुलामों की तरह जिन दुष्ट लोगों ने हमें गुलाम बनाकर रखा है। उनसे लड़कर मुक्त (आजादी) होने की बजाए जो हमें आजादी दे रहे हैं, उन लोगों के विरुद्ध कमर कसकर लडऩे के लिए तैयार हुए हैं।"35 बेटी की सगाई के लिए, मूर्हत निकलवाने पंडित घासी राम के पास जाने से पहले दुखी व उसकी पत्नी तैयारी करते हैं। उनके बीच संवाद से ही स्पष्ट हो जाता है कि वे पंडित की नाराजगी से कितने आतंकित हैं-
''झुरिया - वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेमधर्म से रहते हैं।
दुखी ने जरा चिंचित होकर कहा- हां, यह बात तो है। मुहए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूं तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हंै। वह पवित्र है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ
झुरिया- पत्तल मंै बना लंूगी, तुम जाओ। लेकिन हां, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूं?
दुखी - कहीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे। बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी किरोध चढ़ आता है। क्रोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हां मुदा तू छूना मत। झूरी गोंड की लड़की को लेकर साहू की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आध सेर चावल, पाव भर दाल, आध पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़ ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं तो गजब हो जाएगा।"36
'तू कुछ मत छूना' नहीं तो गजब हो जाएगा' में जो आशंका है उसकी वजह से ही दुखी जैसे दलितों शोषण होता है। उनके जीवन भर की मेहनत पर शोषक ऐश करते रहते हैं। यह बात इतने गहरे में बैठी है कि वे ब्राह्मण की नाराजगी की सोच भी नहीं सकते इसलिए चुपचाप बिना कुछ किन्तु-परन्तु लगाए शोषण की चक्की में पिसते रहते हैं। जब गोंड दुखी को रोटी न देने के लिए ब्राह्मण की निन्दा करता है तो भी दुखी के मुंह से यही शब्द निकलते हैं। 'धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन ले तो आफत आ जाए।' दुखी के मन में यह बात घर कर गई कि ब्राह्मण द्वारा विचार किए मुहर्त के कारण सब काम संपूर्ण होते हैं। उसकी कृपा के बिना कोई काम सफल नहीं होगा जो सारा दिन मेहनत करता है और अपनी मेहनत से नई-नई चीजें बनाता है। उसकी मेहनत से ही शोषक-अत्याचारियों के ठाठ चलते हैं वह ब्राह्मणवादी सोच के भ्रम में पड़कर सोचने लगता है कि सभी कार्य ब्राह्मण के विचारने से ही होंगे इसलिए दुखी भूखा प्यासा, थका-हारा होने के बावजूद भी पंडित घासीराम का काम करता रहता है। ''दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई जो बातें पहले सोच रखी थीं, वह सब भूल गई। पेट पीठ में धंसा जाता था, आज सवेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना भी पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हंै, कहीं साइत ठीक से न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दे।'37
शोषक ब्राह्मण इतने चालाक हैं कि दुखी जैसे लोगों के मन में जमे इस भय को बढ़ावा देते रहते हैं वे इसे खूब पहचानते हैं कि शोषितों-वंचितों के मन से भय निकल गया तो उनका शोषण करना इतना सरल नहीं होगा। यह अदृश्य भय ही है जिसकी वजह से उनका शोषण सरल हो जाता है। काम करते करते थककर दुखी को नींद आ जाती है तो पंडित घासीराम उसे कहते हैं कि 'तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना। इसी से कहा है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आंख बदली।"38
'सद्गति' कहानी में दूसरी बात उठाई है कि दलितों का शोषण करने के लिए दलितों को साधनों से वंचित करके केवल 'सेवा का अधिकार' दिया। इसके बावजूद यदि वह मेहनत करके कुछ फालतू धन बचा लेता जो उसके परिवार, बच्चों की बेहतरी में खर्च होता तो उसका जीवन-स्तर सुधरता उसमें जागरूकता, चेतना व शक्ति आती और फलत: वह मुक्ति का प्रयास जरूर करता। लेकिन ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों से जीवन इतना भरा है कि कोई अवसर ऐसा नहीं है कि जबकि मूहर्त न निकलवाना पड़े, ब्राह्मण को दान-दक्षिणा न देनी पड़े। ब्राह्मणों को दान देने की विशेष महिमा का बखान शास्त्रों में किया है। इन कर्मकाण्डों और ब्राह्मण को दक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद प्राप्त करने में उसकी सारी मेहनत की चोरी होती रहती है।
अपनी बेटी की सगाई को मुहर्त निकलवाने पर पंडित को दी जाने वाली सामग्री देखकर उस पर हुए खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है। पंडित जब दुखी के घर आयेगा तो भेंट स्वरूप देने के लिए उसने सामग्री तैयार कर दी और जब वह उसके घर जाता है तो वह नजराने के तौर पर घास का ग_र लेकर जाता है।
''दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का ग_ा लेकर पंडित जी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। खाली हाथ देखकर तो बाबा दूर से ही दुत्कारते" 39
मेहनतकश जनता का शोषण करने के लिए ही यह व्यवस्था बनाई गई है। बिना मेहनत किए ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना संभव नहीं है यदि सामान्य जनता में धर्म के प्रति अंधश्रद्धा, पाखण्ड व्याप्त न हो। पूजा को ही सबसे ऊंचा काम मानने पर ही ऐसा संभव है। पंडित घासी राम की जीवन चर्या देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे किस तरह परजीवी की तरह आम जनता का रक्त चूसकर मुटिया रहे है।
''पं। घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासना में लग जाते। मुंह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आध घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बांहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुर जी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते। ईशोपासना का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।"40 एक तरफ तो किसान मजदूर हैं जो खेतों में कड़ी मेहनत करते हंै। उन्हें न नहाने का समय मिलता और न ही ठीक ढंग से खाने का। आईने में अपनी शक्ल देखे तो महीनों बीत जाते हंै। उसके पास इतना काम है कि उसे दम लेने की फुरसत नहीं उसके बावजूद भी भूखे मरने की नौबत है। भरपेट अन्न उसको नहीं मिल पाता। दूसरी तरफ पंडित घासीराम है जो अपने शरीर का ही ख्याल करते हंै अपना बनाव-श्रृंगार करते है और आराम करते है। प्रेमचन्द ने ठीक ही कहा है कि उनकी यह 'खेतीÓ है। यानी यह धर्म एक धंधा है जिससे वे अपना संासारिक कारोबार चलाते हैं। सांसारिक कारोबार चलाने के लिए वे तरह-तरह की कहानियां-किस्से गढ़ते हैं। पं. घासीराम के धर्म में दुखी जैसों के लिए सार क्यों सूख जाता है। दुखी के लिए उनकी सहानुभूति कहां गायब हो जाती है। वे अपने श्रेष्ठत्व-ब्राह्मणत्व की आड़ में दुखी जैसे भोले-भाले सीधे सरल व्यक्ति का शोषण करते जाते हंै। सारा दिन काम करवाने के बावजूद भी उनको न तो दुखी से सहानुभूति ही होती है न ही उस पर दया आती है। वे उसके प्रति निहायत क्रूरता से पेश आते हैं। दलितों के शेाषण व इससे आर्थिक लाभ को वे खूब पहचानते हंै। लेकिन बावजूद इसके वे उसे प्रताडि़त करते हैं। चिलम पीने के लिए दुखी जब आग मांगता है तो पंडित व पंडिताइन की बातों में उनकी क्रूरता स्पष्ट तौर पर उभर आती है। ''पंडित जी भोजन कर रहे थे पंडि़ताइन ने पूछा-यह कौन आदमी आग मांग रहा है?
पंडित- अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है थोडी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।
पंडिताइन ने भवें चढ़ाकर कहा - तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रों के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुंह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाए, नहीं तो इस लुआठे से मुंह झुलस दूंगी। आग मांगने चले हैं। पंडित जी ने उन्हें समझाकर कहा भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता तो कम-से-कम चार आने लेता।
पंडिताइन ने गरज कर कहा - वह घर में आया क्यों।
पंडित ने हारकर कहा- ससुरे का अभाग था और क्या!
पंडित घासीराम व्यवहारिक व्यक्ति है वह दुखी की मेहनत की कीमत को पहचानता है। इसलिए आग देने के लिए कहता है क्योंकि आग देने से उनको कोई नुक्सान नहीं होता। पंडिताइन घृणा से आग दुखी की ओर फेंकती है तो उसकी चिंगारी दुखी पर गिर जाती है। तो उसके मन में उसके प्रति दया भाव पैदा होता है।
''उस पर आग पड़ गई तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडित जी भोजन करके उठे, तो बोली - इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।
पंडित जी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा - रोटियां हैं ?
पंडिताइन - दो चार बच जायेंगीं?
पंडित - दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोली - अरे बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो। पंडित जी ने अब शेर बनकर कहा - कुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टी ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लि_ा चाहिए।
पंडिताइन ने कहा - अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।"41
आग देने और रोटी देने के मामले में ऊपरी तौर पर लगेगा कि एक मामले में पंडि़त में दयाभाव जागृत होता है और एक में पंडिताइन में। लेकिन यदि उसे गहराई से समझा जाए तो दोनों में ब्राह्मणवादी दृष्टि है। आग देने से कोई हानि नहीं लेकिन रोटी खिलाना अव्यवहारिक है पंडित जी का ऐसा मानना शोषण की मंशा को एकदम स्पष्ट कर देता है। मेहनतकश आदमी के लिए भोजन उसके शरीर की जरूरत है, लेकिन परजीवी-कर्मकाण्डी वर्ग का पेटूपन स्वाद चखने व शरीर को तृप्त करने के लिए है। इस मोटे-ताजे चन्दन मंडित शरीर का राष्ट्र व समाज के विकास में योगदान नगण्य है वे अनाज को मल में तबदील करने की मशीनें हैं जबकि मेहनतकश व्यक्ति का भोजन उत्पादन को बढ़ावा देने का माध्यम है वह एक रोटी खाकर पचास रोटियां पैदा करता है, लेकिन परजीवी-शोषक वर्ग की नजरों में उसके द्वारा खाये गए अनाज को बेकार समझा जाता है। देश के तमाम नीति-निर्माता, योजनाकार, अर्थशास्त्री लगातार इस बात को प्रचारित करते हुए नहीं थकते कि जनता देश पर बोझ है।
दलितों की मेहनत से वर्चस्वी वर्ग को कोई परेशानी नहीं है। दुखी घर लीप दे तो उसे छूत नहीं लगती, उसके द्वारा लीपे गए घर में बैठने पर उसको कोई एतराज नहीं। उसके द्वारा ढोए गए भूसे से उसको कोई समस्या नहीं ओैर उसके हाथों कटी लकडिय़ों को जलाने में उसके सामने धर्म-संकट उत्पन्न नहीं होता। स्पष्ट है कि दलितों का शोषण करना ही उनका मकसद है। धर्म प्रदत्त उनका सर्वोंच्च पद शोषण का औजार बन जाता है वह शेाषण का औचित्य ठहरा देता है। दलितों की सामाजिक स्थिति को अपने से नीचा करके और इसे दैवीय-ईश्वरीय विधान मानने से उनका शोषण करना आसान हो जाता है।
प्रेमचन्द ने इस सत्य को बार बार व्यक्त किया है कि धर्म शोषण का जरिया है। धर्म के कर्मकाण्डी रूप में मूल्य व नैतिकता नहीं रहती, वह शोषण को वैध ठहराने व कुकृत्र्यो पर आवरण ढकने के काम आता है। 'गोदान' में झिंगुरी सिंह और पं.दातादीन की बातचीत से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
''यह कहकर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया और फिर आकर खाट पर बैठते हुए बोले - हां, मतई के ब्याह का क्या हुआ? हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी हो रही है।
दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था, वह खूब समझते थे। गर्म होकर बोले - पीठ पीछे आदमी जो चाहे सो बके, हमारे मुंह पर कोई कुछ कहे तो उसकी मूंछे उखाड़ लूं। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूं, जो कभी संध्या-बंदन नहीं करते, न उन्हें धरम से मतलब, न करम से, न कथा से मतलब, न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हंसेगा कोई, जिसने अपने जीवन में एक एकादशी भी नागा नहीं की, कभी बिना स्नान-पूजन किए मुंह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाजार की कोई चीज खायी हो, या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया हो, तो उसकी टांग की राह निकल जाऊं। सिलिया हमारी चौखट नहीं लांघने पाती, चौखट; बरतन-भांड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा कर रहा है, लेकिन जब एक बार बात हो गई तो यह पाजी का काम है कि औरत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूं, इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री जाति पवित्र है।
दातादीन अपनी जवानी में स्वयं बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भांति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्त्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौंका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्त्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके?
झिंगुरीसिंह ने कायल होकर कहा-मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया।
दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किए जाने की एक लम्बी-सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तानें हुई, वह ब्राह्मण कहलायी और आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं संतानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं।
झिंगुरीसिंह उनके पांडित्य पर मुग्ध होकर बोले - तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैं?
'समय-समय की परथा है और क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खाकर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थी, सतयुग के साथ गयी। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिलकर रहने में है; मगर करूँ क्या, कोई लड़की वाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा-औरों से भी कहा, कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँ?
झिंगुरीसिंह ने डाँटा - झूठ मत बोलो पण्डित, मैं दो आदमियों को फांस फूस कर लाया; मगर तुम फैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आखिर किस बिते पर हजार-पाँच सौ माँगते हो तुम? दस बीघे खेत और भीख के सिवा तुम्हारे पास और क्या है?
दातादीन के अभिमान को चोट लगी। दाढ़ी पर हाथ फेरकर बोले - पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपनी लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिये हैं; फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगू? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती, तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसी ज़मींदारी समझता हूँ, बंकघर। जमींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अन्त तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू-जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दौ सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं-न-कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न जमींदारी में है, न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मण की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी।
दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैर से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था।
सिलिया साँवली सलोनी, छरहरी बालिका थी, जो रूपवती न होकर भी आकर्षक थी। उसके हास में, चितवन में, अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद था, जिससे उसकी बोटी-बोटी नाचती रहती थी, सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, सिर के बाल आधे खुले, वह दौड़-दौड़कर अनाज ओसा रही थी, मानों तन-मन से कोई खेल खेल रही हो।
मातादीन ने कहा-आज साँझ तक नाज बाकी न रहे सिलिया! तू थक गई हो तो मैं आऊँ?
सिलिया प्रसन्न मुख बोली - तुम काहे को आओगे पण्डित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी।
'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी?
'तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा दूँगी, ढोकर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ एक दाना भी न रहेगा।
दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दुकान से होली के दिन दौ पैसे का गुलाबी रंग लायी थी। अभी तक पैसे न दिए थे। सिलिया के पास आकर बोली - क्यों री सिलिया, महीना-भर रंग लाये हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिये? माँगती हूँ तो मटककर चली जाती है। आज मैं बिना पैसा लिये न जाऊँगी।
मातादीन चुपके से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठाकर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली - चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी।
उसने अन्दाज से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के फैले हुए अन्जल में डाल दिया। उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अन्जल पकड़कर बोला - अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है।
फिर उसने लाल-लाल आँखों से सिलिया को देखकर डाँटा - तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछकर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली?
सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिन्त बैठी हुई थी, वह टूट गई ओर अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है! खिसियाए हुए मुँह से, आँखों में आँसू भरकर सिलिया बोली - तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो।
सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार-भरी आँखों से देखती हुई चली गई।
तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा - तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तयार नहीं है?
मातादीन आँखें निकालकर बोला- नहीं, तुझे कोई अख्तयार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर। मजदूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं।
सिलिया ने उस पक्षी की भाँति, जिसे मालिक ने पर काटकर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भत्र्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फडफ़ड़ा रहा था और ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायु-मण्डल में उडऩे की शक्ति न पाकर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकराकर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है! वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आशय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है। उसे वह दिन याद आये - और अभी दो साल भी तो नहीं हुए - जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जनेऊ हाथ में लेकर कहा था- सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा; जब वह प्रेमातुर होकर हार में और बाग में और नदी के तट पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। और आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मु_ी भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया।
उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती हुई आहत हृदय और शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी।"42
पं। दातादीन ने 'जजमानी' को 'जमींदारी' से भी स्थायी सही ही कहा है, क्योंकि ये बदल सकती हैं पर 'धर्मशास्त्रों'की व्यवस्था नहीं बदल सकती। सिलिया उसके लिए बिना पैसे का मजदूर है। यही उसकी विचारधारा व कथित शास्त्रों का मकसद है। अपने इसी शोषण और लूट को ढकने के लिए ही धर्म का आविष्कार किया तथा उसको इस तरह जनता के दिमाग में स्थापित किया गया कि उसके भय से वे उसकी अवहेलना नहीं कर सकते। सिलिया का सर्वस्व ले लेने वाला पं. मातादीन भी उसे काम करने की मशीन ही समझता है, उसे अपनी स्त्री का दर्जा तो क्या उसे खर्च भी नहीं देना चाहता। उसके लिए प्रेम का कोई महत्त्व नहीं है, जबकि सिलिया बहुत ही निश्छल है, लेकिन अपनी निश्छलता के कारण ही वह पं. मातादीन के कपट को नहीं समझ पाती और हर स्थिति में समर्पण किए रहती है।
प्रतिरोध के स्वर
प्रेमचन्द के लिए साहित्य मनोरंजन मात्र की वस्तु नहीं थी, बल्कि वे रचना से समाज में जागृति पैदा करना चाहते थे, उन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों के पक्ष को बड़ी मजबूती से उठाया है। सामाजिक सरोकारों के बिना साहित्य को वे साहित्य नहीं मानते थे। उन्होंने लिखा कि ''जिस साहित्य में हमारे जीवन की समस्याएं न हों, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति न हो, केवल जिन्सी भावों में गुदगुदी पैदा करने के लिए भाषा चातुरी दिखाने के लिए रचा गया हो वह निर्जीव साहित्य है।
साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हमारे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि व्यापक बनाता है, जिसे अन्याय देखकर क्रोध नहीं आता वह यही नहीं कि कलाकार नहीं है, बल्कि वह मनुष्य भी नहीं है।"43
भुंगी भंगिन महेश बाबू के बेटे को दूध पिलाती थी। इस कारण अपना अधिकार जताती थी और सब उसकी बात की ओर ध्यान भी देते थे, भूंगी भी अपने महत्त्व और स्थिति को समझती थी और अपनी बात बड़े बेधड़क ढंग से कहती थी। ''घर में मालकिन के बाद भूंगी का राज्य था। महरियां, महराजिन, नौकर-चाकर सब उसका रौब मानते थे। यहां तक कि खुद बहू जी भी उससे दब जाती थी। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डांटा था। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा था - दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाए, भंगी, भंगी ही रहेगें। इन्हें आदमी बनाना कठिन है।
इस पर भुंगी ने कहा था - मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं उन्हें कोई क्या आदमी बनाए।
यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भुंगी के सिर के बाल बच सकते थे? लेकिन आज बाबू साहब ठठाकर हंसे और बोले - भुंगी बात बड़े पते की कहती है।44
भुंगी को जरा सा स्पेस मिला तो उसने केवल अपने इंसान होने की ही बात नहीं कही, बल्कि दूसरों को इंसान बनाने का दावा भी पेश किया। अपनी जाति व वर्ण को लेकर उसमें किसी प्रकार की हीनग्रंथि नहीं है। वह अपने को पूर्ण इंसान मानती है। इसी तरह खेल की जोड़ी पूरी न बनने के कारण या दयावश सुरेश ने जब मंगल को खेलने के लिए कहा तो मंगल के संवादों से भी प्रेमचन्द दलित चेतना-जागरूकता को रखा है।
''मंगल बोला - ना भैया, कहीं मालिक देख ले तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाए। तुम्हें क्या, तुम तो अलग हो जाओगे।
सुरेश ने कहा - तो यहां कौन आता है बे? चल, हम लोग सवार-सवार खेलेंगे। तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ायेंगे?
मंगल ने शंका की - मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगा, कि सवारी भी करुंगा? यह बता दो।
यह प्रश्न टेढ़ा था। किसी ने इस पर विचार न किया था।
सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा - तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच? आखिर तू भंगी है कि नहीं?
मंगल भी कड़ा हो गया। बोला- मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी मां ने अपना दूध पिलाकर पाला है। जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूंगा। तुम लोग बड़े चघड़ हो। आप तो मजे से सवारी करोगे और मैं घोड़ा ही बना रहूं।
सुरेश ने डांटकर कहा, तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा और मंगल को पकडऩे दौड़ा। मंगल भागा। सुरेश ने दौड़ाया। मंगल ने कदम और तेज किया। सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर थुलथुल हो गया था और दौडऩे में उसकी सांस फूलने लगती थी।
आखिर उसने रुककर कहा - आकर घोड़ा बनो मंगल, नहीं तो कभी पा जाऊंगा, तो बुरी तरह पीटूंगा।
'तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा।'
'अच्छा हम भी बन जायेंगे।'
'तुम पीछे से निकल जाओगे। पहले तुम घोड़ा बन जाओ। मैं सवारी कर लूं, फिर मैं बनूंगा।'
सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था। मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला - देखते हो इसकी बदमाशी, भंगी है न?
तीनों ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला- चल घोड़े, चल!
मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे।"45
प्रेमचन्द ने सुरेश की चालाकी का उद्घाटन करते हुए जिस तरह मंगलू की शंका को उठाया है उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसा दलित-विरोधी विचारों का व्यक्ति नहीं कर सकता। मंगलू में कई तरह से प्रश्न करने का साहस है वह वस्तुस्थिति समझता है, उसे परिणामों का अहसास है इसलिए खेल में शामिल नहीं होना चाहता। जब उसको इस बारे में आश्वस्त कर दिया जाता है तो वह खेल में बराबरी चाहता है। इसका आश्वासन नहीं मिलता तो भागता है। इसका आश्वासन मिल जाता है। उसे आश्वासन के खोखलेपन का अहसास है इसलिए वह पहले ही सवारी कर लेना चाहता है, लेकिन कथित सवर्ण मानसिकता की दाब-धौंस व जबरदस्ती के कारण उसे घोड़ा बनना पड़ता है तो वह अपना दाव लगाकर भाग जाता है। इस तरह उसका भागना दलितों द्वारा अपने शोषण के प्रति सचेत होने का प्रमाण है।
पे्रमचन्द ने बड़े प्रतीकात्मक ढंग से बच्चों के खेल के माध्यम से दलितों के शोषण को उद्घाटित किया है। तीन बच्चे मंगलू को जबरदस्ती घोड़ा बना देते हैं। ये तीन बच्चे ऊपर के तीन वर्णों की तरह हैं जो दलितों-शूद्रों पर सवारी करने के लिए मिलकर उसको काबू में करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचते हैं, उसको बरगलाकर उसका शोषण करना चाहते हैं। जब वह उनके झांसे में नहीं आता तो पाश्विक बल प्रयोग करते हैं। प्रेमचन्द ने दर्शाया है कि शोषण से छुटकारा पाया जा सकता है। जिस तरह मौका देखकर मंगलू अपनी पीठ से सुरेश को गिरा देता है उसी तरह से दलितों को एकत्रित होकर अपने ऊपर लदे शोषण से छुटकारा पाने की कोई जुगत विचारनी ही होगी।
मंगलू को जिस तरह सुरेश और उसके मित्रों पर भरोसा नहीं है कि वे अपने वचन पर खरे उतरेंगे और इसलिए वह सवारी पहले ले लेना चाहता है। उसकी आशंका बिल्कुल सच निकलती है। सुरेश व उसके दोस्त सिर्फ उस पर सवारी करना चाहते हैं, उसको सवारी नहीं देना चाहते। प्रेमचन्द ने संकेत दिया कि इस भरोसा करने से धोखे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। प्रेमचन्द ने जो संकेत इस कहानी में दिए डा। आम्बेडकर ने बहुत साफ साफ शब्दों में लिखा। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान डा. भीमराव आम्बेडकर पर अंगे्रजों का साथ देने के आरोप लगाए गए। जिनका कारण यही था कि उन्होंने दलितों को समान अधिकार देने की शर्त रखी थी। वे किसी तरह का धोखा नहीं खाना चाहते थे। उनके सामने अमेरिका के काले लोगों का उदाहरण था, जिन्होंने अमेरिका की आजादी के लिए सबसे अधिक संघर्ष किया और कुर्बानियां दी, लेकिन अमेरिका के आजाद होने पर भी उनको आजादी नहीं मिली। डा. आम्बेडकर भी दलितों के लिए पहले आश्वासन चाहते थे। 'क्या अस्पृश्य अंग्रेजों की कठपुतली हैं?'46 नामक लेख में विस्तार से इस बारे में लिखा है। आम्बेडकर का स्वतन्त्रता-आन्दोलन में भाग लेने से पहले दलितों के लिए संवैधानिक संरक्षण की मांग करना और 'दूध का दाम'कहानी में मंगल का सुरेश को पहले घोड़ा बनकर सवारी की मांग करना, दोनों इसी विचार को उजागर करते हैं। मंगल का अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति वास्तविकता बोध, बराबरी का व्यवहार पाने की छटपटाहट, भुंगी का भंगियों को मुक्कमल इंसान समझने का भाव आदि सब मिलकर कहानी दलित अपेक्षाओं व संभावनाओं को व्यक्त करती है। कहानी सिर्फ मंगल के प्रति पाठक के मन में दयाभाव का संचार नहीं करती, बल्कि उसकी इंसानियत की स्वीकार्यता को ज्ञापित करती है और ब्राह्मणवादी विचारधारा के बोदेपन, अवसरवादी रवैये और इन्सानियत को मारने वाली प्रवृत्तियों को उद्घाटित करती है।
'मंदिर' कहानी की सुखिया को पुजारी पूजा नहीं करने देने का कारण अपनी आशंका जाहिर करता है कि 'अछूत के छूने से मंदिर व ईश्वर भ्रष्ट हो जाते हैं व गांव पर भारी विपदा पड़ सकती है' तो वह उसे लताड़ती है। ''उसका मुख क्रोध की ज्वाला से तमतमा उठा, आंखों से अंगारे बरसने लगे। दोनों मु_ियां बंध गयी। दांत पीसकर बोली- पापियों, मेरे बच्चे के प्राण लेकर दूर क्यों खड़े हो? मुझे भी क्यों नहीं उसी के साथ मार डालते? मेरे छू लेने से ठाकुर जी को छूत लग गयी? पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जायेंगे। मुझे बनाया, तो छूत नहीं लगी? लो, अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं आऊँगी। ताले में बंद रखो, पहरे बैठा दो। हाय, तुम्हें दया छू भी नहीं गयी। तुम इतने कठोर हो। बाल-बच्चे वाले होकर भी तुम्हें एक अभागिन माता पर दया न आयी। तिस पर धरम के ठेकेदार बनते हो! तुम सब के सब हत्यारे हो, निपट हत्यारे हो। डरो मत मैं थाना-पुलिस नहीं जाऊँगी। मेरा न्याय भगवान करेंगे, अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूंगी।"47
सुखिया उनको भगवान का वास्ता देती है, 'पुलिस-थाना' 'कोर्ट-कचहरी' जाकर वर्चस्वशाली लोगों को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है, लेकिन वह जुल्म को स्वीकार नहीं करती उसके खिलाफ डटकर खड़ी होती है और शोषकों को ललकारती है। विडम्बना भी यही है जिसे कि प्रेमचन्द ने बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है कि सुखिया की तरह दलित वर्ग ब्राह्मणवादी विचारधारा के चंगुल में है। सुखिया का यह मानना कि मंदिर में जाकर पूजा करने से उसका बेटा स्वस्थ हो जाएगा ब्राह्मणवाद में ही फंसना है। इसके लिए सुखिया अपनी सारी सम्पत्ति तक बेच देती है। प्रेमचन्द ने दर्शाया है कि धर्म और उसके पूजा-विधान असल में तो शोषण करने के जरिये ही रहे हैं। इनमें अपनी आस्था जताकर या इनको अपनाकर दलितों का किसी भी सूरत में भला नहीं हो सकता। इनको त्यागकर ही दलित तरक्की कर सकते हैं। इन रिवाजों, कर्मकाण्डों या पाखण्डों के माध्यम से ही ब्राह्मणवादी विचारधारा दलितों में घुसपैठ करती है और अपनी जगह बनाती है। देखने की बात यह है कि सुखिया के मन में न तो मंदिर में कोई विशेष आस्था है और न ही वह मंदिर में जाने पर अपना सामाजिक दर्जा ऊँचा हो जाएगा ऐसा मानती है। वह तो ममतामयी मां है, जिसका बेटा बीमार हो गया है, इसलिए वह मंदिर में ठाकुर के दर्शन करना चाहती है। वह भी सिर्फ इसलिए कि उसको यह वहम है या कि ब्राह्मणवादी विचारधारा ने इतना अंध ईश्वरवाद को प्रसारित किया है कि वह सोचने लगी है कि मंदिर में दर्शन करने से उसका बीमार बेटा स्वस्थ हो सकता है वह राजनीतिक-सामाजिक समझ के तहत ऐसा नहीं करती।
स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान एक वर्ग ने इस बात को प्रसारित किया कि 'मंदिरों में दलितों के प्रवेश की इजाजत दे देने से ही उनका उद्धार हो जाएगा वे बराबरी का दर्जा पा जायेंगे' लेकिन प्रेमचन्द इस बात के कायल नहीं थे, वे इसकी आंशिक भूमिका ही स्वीकार करते थे और दलितों के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक विकास के माध्यम से ही उनका वास्तविक उत्थान संभव है ऐसा उनका मानना था, जिसे उन्होंने जब तब व्यक्त किया। इस संबंध में लिखा कि ''हरिजनों की समस्या केवल मंदिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर है। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रोजाना मंदिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फीसदी न कहकर अगर पांच फी हजार कहा जाए तो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मंदिर-प्रवेश को कोई महत्त्व नहीं देते। हरिजनों के अपने देवता अलग हैं। मंदिर प्रवेश का अधिकार पाते ही वे अपने देवताओं को उठाकर दरिया में न फेंक देंगे। हिन्दू जाति उन्हें यह अधिकार देकर केवल अपना कलंक दूर करेगी, उसी तरह जैसे मृतक-श्राद्ध करके हम केवल अपनी आत्मा को शान्त करते हैं। मृत आत्मा को उससे लाभ होता है, इसके निश्चय करने का हमारे पास न कोई साधन है न इच्छा। असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते है तो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिएं, नौकरियां देने में उनके साथ थोड़ी-सी रियायत करनी चाहिए। हमारे जमीदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हंै। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन देकर, उनसे बेगार लेना बन्द करके, उनसे सजन्नता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या का आप ही हल करेगा, पर हिन्दू जाति अपने कत्र्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती।"48 प्रेमचन्द के विचारों की तरह ही डॅ. भीमराव आम्बेडकर भी मंदिर-प्रवेश को लेकर कोई विशेष उत्साही नहीं थे। वे भी दलितों का उद्धार आर्थिक उन्नति में ही मानते थे। अपने विचार प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा कि ''मुख्य प्रश्न है, दलित वर्ग मंदिरों में प्रवेश करना चाहते हैं या नहीं? इस मुख्य प्रश्न के प्रति दलित वर्गों के दो दृष्टिकोण हैं। एक तो आर्थिक दृष्टिकोण है उस दृष्टि से दलित वर्गों का विचार है कि उत्थान का सर्वाधिक ठोस तरीका यह है कि उन्हें उच्च-शिक्षा और रोजगार मिले, और रोजी-रोटी कमाने के बेहतर अवसर प्राप्त हों। एक बार यदि वे सामाजिक जीवन के ढांचे में सुस्थापित हो जायेंगे तो उनका सम्मान होने लगेगा, एक बार यदि उनका सम्मान होने लगेगा तो निश्चय ही उनके प्रति रूढि़वादियों के धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन होगा यदि ऐसा नहीं भी होता, तो भी उससे उनके आर्थिक हित पर कोई आंच नहीं आ सकती। इन दृष्टिकोणों के आधार पर दलित वर्ग कहते हैं कि वे मंदिर-प्रवेश जैसे खोखले कार्य पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेंगे। एक अन्य कारण से भी वे इसके लिए संघर्ष नहीं करना चाहते। यह दृष्टिकोण 'आत्मसम्मान' का दृष्टिकोण है। अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ जब भारत में यूरोपियों द्वारा संचालित क्लबों तथा सामाजिक सैरगाहों के बोर्डों पर लिखा जाता था: 'कुत्तों और भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है।' आज हिन्दुओं के मंदिरों के बोर्ड ताल ठोंककर कहते हैं, 'सभी हिन्दुओं तथा कुत्तों सहित सभी पशुओं को प्रवेश की अनुमति है, केवल अस्पृश्य प्रवेश नहीं कर सकते। दोनों दशाओं में स्थिति एक जैसी है। लेकिन हिन्दुओं ने कभी भी उन स्थानों में प्रवेश की चिरौरी नहीं की थी, जिनके द्वार यूरोपियों ने अंहकारवश बंद कर दिए थे। तो कोई अस्पृश्य उस स्थान में प्रवेश के लिए चिरौरी करे, जिसके द्वार हिन्दुओं ने अंहकारवश बंद कर दिए हैं? अपने आर्थिक कल्याण में रूचि रखने वाले अस्पृश्य का यह तर्कसम्मत दृष्टिकोण है। यह हिन्दुओं से यह कहने के लिए तैयार है, 'आप अपने मंदिरों के द्वार खोलें या न खोलें। इस प्रश्न पर विचार करना आपका काम है, मैं उस पर उत्तेजना क्यों प्रकट करूं। यदि आप सोचते हैं कि मानव व्यक्तित्व की पवित्रता का अनादर अशिष्टता है तो अपने मंदिरों के द्वार खोल दें। यदि सज्जन के बजाए आप हिन्दू रहना चाहते हंै तो आप अपने द्वार बंद रखें और भाड़ में जाएं आप, क्योंकि मंदिर में आने की मुझे चिंता नहीं है।"49
डा. भीमराव आम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष पूजा करने के लिए नहीं किया था बल्कि इसलिए किया था कि दलितों का यह नागरिक और मानवीय अधिकार है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं फिर चाहे वह तालाब हों, चैपाल हों या कि मंदिर। वे इन मंदिरों को दलितों के प्रति भेदभाव का प्रतीक मानते थे और इस भेदभाव को मिटाना उनका मकसद था। मंदिर-प्रवेश उनके लिए मानवीय गरिमा पाने की लड़ाई का हिस्सा थी, न कि पूजा करने के अधिकार पाने का, इसीलिए उन्होंने दलितों केे लिए अलग से मंदिरों का निर्माण अभियान नहीं चलाया और न ही दलितों को इसके लिए प्रेरित किया। यदि पूजा करना या धार्मिक उद्देश्य होता तो वे इसको अलग से मंदिर बनाकर भी पूरा कर सकते थे, परन्तु उनका जोर इसी बात पर था कि दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा मिले।
प्रेमचन्द ने 'कर्मभूमि' उपन्यास में डा. आम्बेडकर की तरह मन्दिर-प्रवेश आन्दोलन को मानवीय अधिकार पाने के लिए किए गए संघर्ष के रूप में दर्शाया है। इस प्रसंग को प्रेमचन्द के शब्दों में रखना ही उचित होगा। ''नैना ठाकुरद्वारे में पहुंची तो कथा आरंभ हो गई थी। आज और दिनों से ज्यादा हुजूम था। नौजवान-सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्यापक भी आए हुए थे। मधुसूदन जी कह रहे थे - 'राम-रावण की कथा तो इस जवीन, इस संसार की कथा है;इसको चाहो तो सुनना पड़ेगा, न चाहो तो सुनना पड़ेगा। इससे हम-तुम बच नहीं सकते। हमारे ही अंदर राम भी हैं, रावण भी हैं, सीता भी हैं आदि.....'
सहसा पिछली सफ़ों में कुछ हलचल मची। ब्रह्मचारीजी कई आदमियों को हाथ पकड़-पकड़ कर उठा रहे थे और जोर-जोर से गालियां दे रहे थे। हंगामा हो गया। लोग इधर-उधर से उठकर वहां जमा हो गए। कथा बंद हो गई।'
समरकांत ने पूछा - 'क्या बात है ब्रह्मचारीजी?'
ब्रह्मचारी ने ब्रह्मतेज़ से लाल-लाल आंखें निकालकर कहा - 'बात क्या है, यह लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं! भंगी, चमार जिसे देखो घुसा चला आता है - ठाकुरजी का मंदिर न हुआ सराय हुई!'
समरकांत ने कड़ककर कहा-'निकाल दो सभी को मारकर!'
एक बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा-'हम तो यहां दरवज्जे पर बैठे थे सेठजी, जहां जूते रखे हैं। हम क्या ऐसे नादान हैं कि आप लोगों के बीच में जाकर बैठ जाते?'
ब्रह्मचारी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा-'तू यहां आया क्यों? यहां से वहां तक एक दरी बिछी हुई है। सब का सब भरभंड हुआ कि नहीं? परसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं? अब जाड़े-पाले में लोगों को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं? हम कहते हैं तू बूढ़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गए, पर तुझे अक़्ल भी नहीं आई। चला है वहां से बड़ा भगत की पूंछ बनकर!'
समरकांत ने बिगड़कर पूछा-'और भी पहले कभी आया था कि आज ही आया है?'
'रोज़ आते हैं महाराज, यहीं दरवज्जे पर बैठकर भगवान् की कथा सुनते हैं।'
ब्रह्मचारी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज़ यहां आते थे! रोज़ सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज़ खाते थे! इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है? धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?' धर्मात्माओं के क्रोध का वारापार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर उन गऱीबों पर पिल पड़े। भगवान् के मंदिर में भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा!
डाक्टर शांतिकुमार और उनके अध्यापक खड़े जऱा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानंद अपना मोटा सोंटा लेकर ब्रह्मचारी की तरफ लपके।
डाक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानंद के हाथों से सोंटा छीन लिया।
आत्मानंद ने खून-भरी आंखों से देखकर कहा - 'आप यह दृश्य देख सकते हैं, मैं नहीं देख सकता।'
शांतिकुमार ने उन्हें शांत किया और ऊंची आवाज़ से बोले-'वाह रे ईश्वर भक्तो! वाह! क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का! जो जितने जूते मारेगा, भगवान् उस पर उतने प्रसन्न होंगे। उसे चारों पदार्थ मिल जाएंगे। सीधे स्वर्ग से विमान आ जाएगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।'
ब्रह्मचारी, लाला समरकांत, सेठ धनीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शांतिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बंद हो गए।
शांतिकुमार इस समय कुरता और धोती पहने, माथे पर चंदन लगाए, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई-से लग रहे थे। यहां उनका वह फैशन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।
डाक्टर साहब ने फिर ललकारकर कहा - 'आप लोगों ने हाथ क्यों बंद कर लिए? लगाइए कस-कसकर! और जूतों से क्या होता है, बंदूकें मंगाइए और धर्म-द्रोहियों का अंत कर डालिए। सरकार कुछ नहीं कह सकती। और तुम धर्म-द्रोहियों, तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको, खाओ। तुम्हें इतनी ख़बर नहीं कि यहां सेठ-महाजनों के भगवान् रहते हैं! तुम्हारी इतनी मज़ाल कि इन भगवान् के मंदिर में कदम रखो! तुम्हारे भगवान् कहीं किसी झोंपड़े में या पेड़ तले होंगे। यह भगवान् रत्नों के आभूषण पहनते हैं, मोहन भोग-मलाई खाते हैं। चीथड़े पहनने वालों और चबेना खाने वालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते।'
ब्रह्मचारीजी परशुराम की भांति विकराल रूप दिखाकर बोले - 'तुम तो बाबूजी, अंधेर करते हो। सासतर में कहां लिखा है कि अंत्यजों को मंदिर में आने दिया जाए?'
शांतिकुमार ने आवेश से कहा-'कहीं नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चरबी मिलाकर बेचो, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ, आंखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान हैं, उनके चरण धो-धोकर पियो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान् की दृष्टि में न कोई छोटा है, न बड़ा; न कोई शुद्ध है न कोई अशुद्ध। उसकी गोद सबके लिए खुली हुई है।'
समरकांत ने कई आदमियों को अंत्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा-'डाक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं? इन्हें तो यहां का हाल मालूम है, कहीं बाहर से तो नहीं आए हैं?'
शांतिकुमार का खून खौल रहा था-'आप लोगों ने जूते क्यों मारे?'
ब्रह्मचारी ने उजड्डपन से कहा - 'और क्या पान-फूल लेकर पूजते?'
शांतिकुमार उत्तेजित होकर बोले - 'अंधे भक्तों की आंखों में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गए? अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी में स्नान करेंगे, दूध से नहीं।'
सब लोग हां-हां करते ही रहे; पर शांतिकुमार, आत्मानंद और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिए। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।
उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की ज़रूरत ही क्या थी? और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा?
दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई; पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गई थी। मधुसूदन ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें; पर लोग ज़म्हाइयां ले रहे थे और पिछली फों में तो लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मंदिर का आंगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाज़े कुछ नीचे हो गए हैं, भजन-मंडली के न होने से और भी सपाटा है। उधर नौजवान-सभा के सामने खुले मैदान में शांतिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानंद आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियां छोटी पड़ गईं और थोड़ी देर और गुजऱने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथेड़े पहने हुए। उनकी देह से तंबाकू और मैलेपन की दुर्गंध आ रही थी। स्त्रियां आभूषणहीन, मैली-कुचैली धोतियां या लहंगे पहने हुए थीं। रेशम और सुगंध तथा चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था, पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नए आने वालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पांव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो; बल्कि और सिमट जाते थे और खुशी से जगह दे देते थे।
नौ बजे कथा आरंभ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी। ब्रह्म-ऋषियों के तप और तेज का वृत्तांत न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहां मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्त्व है। वही ऊंचा है, जिसका मन शुद्ध है; वही नीचा है, जिसका मन अशुद्ध है-जिसने वर्ण का स्वांग रचकर समाज के एक अंग को मदांध और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया? किसी के लिए उत्पत्ति या उद्धार का द्वार नहीं बंद किया-एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोत्पत्ति का एक सजीव संदेश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी आत्मा के बंधन खुल गए हैं, संसार पवित्र और सुंदर हो गया है।
नैना को भी धर्म के पाखंड से चिढ़ थी। अमरकांत उससे इस विषय पर अकसर बातें किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकांत का भय न होता, तो उसने ब्रह्मचारीजी को फटकार बताई होती; इसलिए जब शांतिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े हाथों लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणों पर लोटने लगी। अमरकांत से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रद्धा उठी कि जाकर उनसे कहे - 'तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूं। अपने आस-पास के आदमियों को क्रोधित देख-देखकर उसे भय हो गया था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डाक्टर के पास खड़ी हो जाय और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गए, तो उसका चित्त शांत हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आई।
सुखदा ने रास्ते में कहा-'ये दुष्ट न जाने कहां से फट पड़े? उस पर डाक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लडऩे को तैयार हो गए।'
नैना ने कहा - 'भगवान् ने तो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा नहीं बनाया?'
'भगवान् ने नहीं बनाया, तो किसने बनाया?'
'अन्याय ने।'
'छोटे-बड़े संसार में सदा रहे हैं और सदा रहेंगे।'
नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।
दूसरे दिन संध्या समय उसे ख़बर मिली कि आज नौजवान सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मंदिर में सुखदा के साथ तो गई; पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियां लेने लगी-आज वह कृत्य शीघ्र ही होने लगा - तो वह चुपके से बाहर आई और एक तांगे पर बैठकर नौजवान सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की ख़बर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जऱा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर लहरियां कानों में आई। तांगा उस स्थान पर पहुंचा तो शांतिकुमार मंच पर आ गए थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डाक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भांति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो तांगे पर मंत्र-मुग्ध सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली क़तार में सबके पीछे खड़ी हो गई।
एक बुढिय़ा बोली - 'कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।'
नैना ने कहा - 'मैं बड़े आराम से हूं। सुनाई तो दे रहा है।'
बुढिय़ा आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शांतिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में हैं, मानों वहां की वायु सुधामयी हो गई है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानों वे किसी नवीन संपत्ति के स्वामी हो गए हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शांतिकुमार कह रहे थे - 'क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आए हो? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो; पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मंदिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है? क्या तुम सदैव इसी भांति पतित और दलित बने रहना चाहते हो?'
एक आवाज़ आई - 'हमारा क्या बस है?'
शांतिकुमार ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा - 'तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है, जब तक समझते हो, तुम्हारा बस नहीं है। मंदिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिंदू-मात्र की चीज़ है। यदि कोई रोकता है, तो यह उसकी ज़बरदस्ती है। मत टलो उस मंदिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा क्यों न हो! तुम जऱा-जऱा सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गंवा देते हो, जानें दे देते हो, यह तो धर्म की बात है, और धर्म हमें जान से भी प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी।' कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तेजित कर दिया था। दिन भर उसी विषय की चर्चा होती रही। बारूद तैयार होती रही। उसमें चिंगारी की क़सर थी। ये शब्द चिंगारी का काम कर गए। संघ-शक्ति ने हिम्मत बढ़ा दी। लोगों ने पगडिय़ां संभालीं, आसन बदले और एक-दूसरे की ओर देखा, मानों पूछ रहे हों - 'चलते हो, या अभी कुछ सोचना बाक़ी है?' और फिर शांत हो गए। साहस ने चूहे की भांति बिल से सिर निकालकर फिर अंदर खींच लिया।
नैना के पास वाली बुढिय़ा ने कहा - 'अपना मंदिर लिए रहें, हमें क्या करना है?'
नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को संभाला - 'मंदिर किसी एक आदमी का नहीं है।'
शांतिकुमार ने गूंजती हुई आवाज़ में कहा-'कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने?'
बुढिय़ा ने सशंक होकर कहा-'क्या अंदर कोई जाने देगा?'
शांतिकुमार ने मु_ी बांधकर कहा-'मैं देखूंगा कौन नहीं जाने देता। हमारा ईश्वर किसी की संपत्ति नहीं है, जो संदूक में बंद करके रखा जाए। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।'
कई सौ स्त्री-पुरुष शांतिकुमार के साथ मंदिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा;पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहां होते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भांति-भांति की शंकाएं भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।
ज्यों-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था, और लोग आ-आकर मिलते जाते थे, पर ज्यों-ज्यों मंदिर समीप आता था, लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से ये सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दु:ख था मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहां न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देने वाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमाकर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।
जत्था मंदिर के सामने पहुंचा तो दस बज गए थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियां लिए द्वार पर खड़े थे। लाला समरकांत भी पैंतरे बदल रहे थे।
नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम बड़े धर्मात्मा बने हो! आधी रात तक इसी मंदिर में जुआ खेलते हो। पैसे-पैसे पर ईमान बेचते हो, झूठी गवाहियां देते हो, द्वार-द्वार पर भीख मांगते हो, फिर भी तुम धर्म के ठेकेदार हो। तुम्हारे तो स्पर्श से ही देवताओं को कलंक लगता है।
वह मन के इस आग्रह को रोक न सकी। पीछे से भीड़ को चीरती हुई मंदिर के द्वार को चली आ रही थी कि शांतिकुमार की निगाह उस पर पड़ गई। चौंककर बोले - 'तुम यहां कहां नैना? मैंने तो समझा था, तुम अंदर कथा सुन रही होगी।'
नैना ने बनावटी रोष से कहा - 'आपने तो रास्ता रोक रखा है। कैसे जाऊं?'
शांतिकुमार ने भीड़ को सामने से हटाते हुए कहा - 'मुझे मालूम न था कि तुम रुकी खड़ी हो।'
नैना ने जरा ठिठककर कहा - 'आप हमारे ठाकुरजी को भ्रष्ट करना चाहते हैं?'
शांतिकुमार उसका विनोद न समझ सके। उदास होकर बोले - 'क्या तुम्हारा भी यही विचार है नैना?'
नैना ने और रद्दा जमाया - 'आप अछूतों को मंदिर में भर देंगे तो देवता भ्रष्ट न होंगे?'
शांतिकुमार ने गंभीर भाव से कहा - 'मैंने तो समझा था, देवता भ्रष्टों को पवित्र करते हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।'
सहसा ब्रह्मचारी ने गरज़कर कहा - 'तुम लोग क्या यहां बलवा करने आए हो, ठाकुरजी के मंदिर के द्वार पर?'
एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा - 'हम फ़ौजदारी करने नहीं आए हैं। ठाकुरजी के दर्शन करने आए हैं।'
समरकांत ने उस आदमी को धक्का देकर कहा - 'तुम्हारे बाप-दादा भी दर्शन करने आए थे कि तुम्हीं सबसे वीर हो!'
शांतिकुमार ने उस आदमी को संभालकर कहा - 'बाप-दादों ने जो काम नहीं किया, क्या पोतो-परोतों के लिए भी वर्जित है। लालाजी, बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन चीजों का क्यों व्यवहार होता है? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।'
समरकांत ने व्यंग्य से कहा - 'इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुर जी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे?'
शांतिकुमार ने प्रतिवाद किया - 'ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूं, द्रोही वह हैं, जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिंदू संस्कारों को नहीं मानते? फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बंद कर रखा है?'
ब्रह्मचारी ने आंखें निकालकर कहा - 'जो लोग मांस-मदिरा खाते हैं, निषिद्ध कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।'
शांतिकुमार ने शांत भाव से जवाब दिया - 'मांस-मदिरा तो बहुत-से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य भी खाते हैं। आप उन्हें क्यों नहीं रोकते? भंग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं?'
समरकांत ने डंडा संभालकर कहा - 'यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जऱा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फ़ौजदारी करने आए हैं।'
इस वक़्त तक बहुत-से पंडे-पुजारी जमा हो गए थे। सब-के-सब लाठियों के कुंदों से भीड़ को हटाने लगे। लोगों में भगदड़ पड़ गई कोई पूरब भागा, कोई पश्चिम। शांतिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर वह अपनी जगह पर खड़े आदमियों को समझाते रहे - 'भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहीं बैठ जाओ, ठाकुर के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए ...'
पर दूसरी लाठी सिर पर इतने ज़ोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकलने पाई और वह गिर पड़े। संभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़तोड़ कई लाठियां पड़ गई। यहां तक कि वह बेहोश हो गए।"50
'ठाकुर का कुंआ' की गंगी ठाकुरों के कुंए से पानी लेने जाते हुए कथित ऊंचे वर्ण के लोगों के व्यवहार के बारे में सोचने लगती है। कथित ऊंचे लोगों का कथित उच्च-धर्म में शुद्धता व पवित्रता के लम्बे चौड़े दावे हैं, लेकिन उनका वास्तविक जीवन का आचरण तमाम कमजोरियों व दुष्टता से भरा है। कर्मकाण्डी व शास्त्रीय व पोथी का धर्म कुछ भी कहता हो लेकिन उनका जीवन भ्रष्ट है। गंगी के माध्यम से कथित श्रेष्ठता के खोल में छिपी असलियत को उजागर करना उसकी चेतना को दर्शाता है और संकेत करता है कि ब्राह्मणवाद प्रदत्त विश्ेाष अधिकारों को भोगने वालों के जीवन को दलित समाज निकट से देख रहा है। उसमें इतनी चेतना विकसित होने लगी है कि वह उस प्रभामंडल से ग्रस्त नहीं है कि तिलक-जनेऊ आदि श्रेष्ठता के प्रतीकों के पीछे की सच्चाई को न देख पाए। ''गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी-पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और यह लोग क्यों ऊंचे है? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहां तो जितने हैं, एक-से-एक छंटे हैं? चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहुजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं काम करवा लेते हैं, मजदूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हमसे ऊंचे। हां, मुँह में हमसे ऊंचे हैं। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे हैं, हम ऊंचे। कभी गांव में जाती हूं, तो रसभरी आंखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परन्तु घमण्ड यह कि हम ऊंचे हैं।
''कब इन लोगों को दया आती है किसी पर। बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसलिए कि उसने बेगार न दी थी। उस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं।"51 गंगी की आलोचनात्मक सोच में बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा है, जो दलित मुक्ति के संघर्ष का बीज है।
'गोदान' में सिलिया के मां-बाप पं. मातादीन के मुंह में गाय की हड्डी घुसेड़ देते हैं। प्रेमचन्द के समय में शायद ही ऐसी घटना घटी हो, लेकिन प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास में बड़े साहस के साथ प्रस्तुत किया। ''उसी वक्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आकर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीनकर फेंक दी और गााली देकर बोली - राँड, जब तुझे मजदूरी ही करनी थी, तो घर की मजदूरी छोड़कर यहाँ क्या करने आयी! जब ब्राह्मण के साथ रहती है, तो ब्राह्मण की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवाकर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आयी थी! चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरती!
झिंगुरीसिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले हुए तेवर देखकर उन्हें शान्त करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा - क्या बात है चौधरी, किस बात का झगड़ा है?
सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था, काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ; पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला - झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर, हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी-न-किसी के घर जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है, मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा होकर रहे। तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओ-पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज्जत लेते हो, तो अपना धरम हमें दो।
दातादीन ने लाठी फटकारकर कहा - मुँह सँभालकर बात कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है, ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है।
सिलिया की माँ उँगली चमकाकर बोली - वाह वाह पण्डित! खूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गई होती और तुम इसी तरह की बातें करते तो देखती। हम चमार हैं, इसलिए हमारी कोई इज्जत ही नहीं! हम सिलिया को अकेले न ले जायँगे उसके साथ मातादीन को भी ले जाँएगे, जिसने उसकी इज्जत बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो। उसके साथ सोओगे, लेकिन उसके हाथ का पानी न पियागे! यही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती।
हरखू ने अपने साथियों को ललकारा - सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो?
इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिए, तीसरे ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और उसके पहले कि दातादीन और झिंगुरीसिंह अपनी अपनी लाठी संभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। उसे मतली हुई और मुँह आप-से-आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गए; पर आश्चर्य यह है कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसन्द था। वह गाँव की बहू-बेटियों को घूरा करता था, इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँ, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे।
होरी ने कहा - अच्छा, अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते हो, तो यहां से चले जाओ।
हरखू ने निडरता से उत्तर दिया - तुम्हारे घर में भी लड़कियां हैं होरी महतो, इतना समझ लो। इसी तरह गांव की मरजाद बिगडऩे लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी।
एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पाकर आक्रमणकारियों ने वहां से टल जाना ही उचित समझा। जनमत के बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है।
मातादीन कै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा - एक-एक को पांच-पांच साल के लिए न भिजवाया, तो कहना। पांच-पांच साल तक चक्की पिसवाऊंगा।
हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया - इसका यहां कोई गम नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं? जहां काम करेंगे, वहां आधा पेट दाना मिल जाएगा।"52
'कफन' कहानी को लेकर दलित साहित्यकारों ने सर्वाधिक विवाद किया है। घीसू और माधव को कामचोर दर्शाने पर ऐतराज जताया। जबकि इन चरित्रों के साथ समाज की वास्तविकता इस तरह गुंफित है कि पूरे समाज की तस्वीर उभर आती है और पूजींवादी और सामन्ती शोषण के भयानक रूप उद्घाटित हो जाते है और इसके साथ ही प्रेमचन्द दलित वर्ग के श्रमिकों में गांव के किसानों से अधिक जागरूकता-चेतना को व्यक्त करते हैं। घीसू और माधव उस तरह काम नहीं करते जिस तरह कि गांव के दूसरे मजदूर व किसान करते हैं। उनको काम के लिए तभी बुलाया जाता है जब कि दोगुनी मजदूरी देकर भी काम करवाने में भी लाभ समझते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि अन्य मजदूरों की कम-से-कम आधी मेहनत का शोषण है इसे घीसू और माधव अच्छी तरह समझते हैं इसलिए वे शोषण से बचने के लिए काम ही छोड़ देते हैं और चोरी से अपना गुजारा करना बेहतर समझते हंै। उनको कई-कई दिन फाका करना पड़ता है। बुधिया प्रसव-पीड़ा से तड़प रही थी तो उनके सामने एक प्रश्न खड़ा होता है कि यदि बच्चा पैदा हो गया तो उसके लिए ''सोंठ, गुड, तेल कुछ भी तो नहीं है। घर में " यह हालत सिर्फ घीसू और माधव की नहीं है बल्कि उन लोगों की भी है जो सारा दिन पूरी लगन से काम करते हैं। यहां काम करने वालों और काम न करने वालों में कोई अन्तर नहीं रह जाता क्योंकि शोषण की प्रक्रिया के तहत काम करने वालों की सारी मेहनत जमींदारों-महाजनों के पास चली जाती है और उनकी हालत घीसू और माधव से बेहतर नहीं होती। मुंशी प्रेमचन्द घीसू और माधव की कथित कामचोरी को, उन लोगों की अपेक्षा जो दिन-रात खटने के बाद भी घीसू-माधव जैसी हालत में रहते हैं, ज्यादा बेहतर मानते हैं। उन्होंने लिखा ''जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव उंगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेज़ा फायदा तो नहीं उठाते।" 53
पे्रमचन्द रेखांकित करते है कि घीसू और माधव का कथित कामचोर होना न तो उनके जाति व वर्ग का आवश्यक गुण है और न ही उनका व्यक्तिगत स्वभाव है, बल्कि वे इसे व्यवस्था जन्य मानते हैं। जिस व्यवस्था में काम न करने वालों के यहां सम्पन्नता है और काम करने वालों के यहां दरिद्रता, तो वहां घीसू और माधव किसी भी जाति में पैदा हो सकते हैं। सर्वहारा दलितों में ऐसे विद्रोही पैदा होने की संभावना ज्यादा है। ऐसे लोग जो बिना यह सोचे-विचारे कि उनके द्वारा की गई मेहनत का फायदा कौन उठाता है लगातार पशु की तरह काम में लगे रहते हैं, उससे बेहतर तो काम न करना है। वे जानते हैं कि एक तो इससे शोषण में कमी आती है दूसरे उसे संतुष्टि होती है कि उसका कोई शोषण नहीं कर रहा है।
घीसू और माधव का शोषण के प्रति सचेत होना कथित सवर्णों के लिए तो कामचोरी हो सकती है, लेकिन दलित यदि ऐसी व्याख्या करें तो इसे समझ का फेर ही कहा जाएगा। शायद उन्होंने भी कालेजों-विश्वविद्यालयों की परीक्षा में 'कफन' कहानी, विशेषकर घीसू-माधव सम्बन्धी प्रश्नों को देखकर ही ऐसे समझा है। शिक्षा-प्रणाली में जिस तरह के ठस्स बुद्धि व साहित्य को सतही स्तर पर समझने वाले व विचार-संस्कार से ब्राह्मणवादी किस्म के पोंगापंथियों का साम्राज्य रहा है। इसके चलते प्रेमचन्द की कहानियों की पृष्ठभूमि में शोषणकारी व्यवस्था की क्रूरता-अमानवीयता को उद्घाटित करने की बजाए इस व्यवस्था के शिकार वर्गों को ही उनकी बदहाली का जिम्मेवार ठहराते हैं। व्यवस्थाजन्य अमानवीयता को वंचित-शोषित वर्ग पर डालकर व्यवस्था को साफ तौर पर बचा लेते हैं। प्रेमचन्द ने घीसू-माधव को कामचोर दिखाने के लिए 'कफन' कहानी की रचना नहीं की, बल्कि इनके माध्यम से श्रम-चोर व्यवस्था का चरित्र जरूर उद्घाटित किया है। 'कफन' को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है वह इसी तरह की तोड़-मरोड़ का परिणाम है, अपने विरोधी ज्ञान को बदनाम करने, उसके बारे में भ्रम फैलाने व उसे आत्मसात करने में ब्राह्मणवाद आरम्भ से ही कुख्यात है। प्रेमचन्द भी इसी का शिकार हुए हैं।
प्रेमचन्द की दलितों को 'निकम्मा व कामचोर' बताने में कोई रूचि व मंशा नहीं थी, इसे 'पूस की रात'54 कहानी से समझा जा सकता है। 'पूस की रात' का किसान हल्कू पूरी मेहनत करने के बाद भी कर्ज नहीं उतार पाता। खेती में हुए घाटे को वह मजदूरी करके भी पूरा नहीं कर पाता। खेती उसके लिए घोर दरिद्रता का कारण बन रही है, वह अपने लिए कम्बल भी नहीं खरीद पाता। जानलेवा सर्दी में अपनी पकी फसल की रखवाली के लिए वह खेत में तो जाता है, लेकिन खेत में घुसे जानवरों को भगाने में उसकी कोई रूचि नहीं है। उसकी सारी फसल जानवर नष्ट करते रहते हैं, लेकिन वह उन्हें नहीं हटाता। उसे फसल उजडऩे का कोई अफसोस नहीं है, फसल में उसका कोई मोह नहीं रहता। वह जान गया है कि फसल पक भी जाएगी तो उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा। शोषण ने उसको अपनी मेहनत से अलग थलग कर दिया है। क्या 'पूस की रात' के हल्कू की 'अकर्मण्यता' को किसानों की कामचोरी मान लिया जाए? प्रेमचन्द पर किसानों को बदनाम करने का आरोप लगाकर उनकी कृतियों की होली जलाई जाए? प्रेमचन्द उनकी मेहनत को रेखांकित करते हुए उससे मिलने वाला लाभ किसानों से कैसे छीन लिया जाता है इसका खुलासा करके यह बता रहे हैं कि इस प्रक्रिया में अन्तत: व्यक्ति काम करना ही बन्द कर देता है। यही स्थिति 'कफन' के घीसू-माधव की है। दलितों-वंचितों-पीडि़तों-मजदूरों-शोषितों के दर्द को प्रेमचन्द अच्छी तरह से पहचानते थे और पूरी हमदर्दी व गम्भीरता से उसे प्रस्तुत करते थे।
प्रेमचन्द समाज में विचारधारा को, मान्यताओं को, नैतिकता को वर्गीय दायरों में बंटा हुआ पाते हंै। वे 'कफन' कहानी में समाज के निकम्मे-निठल्ले व शोषक वर्ग को 'कुत्सित मंडली' कहते हैं जो पूरे गांव पर अपना रोब-धौंस रखती है। अपनी चालाकी व बेईमानी से गांव पर शासन करती है। क्योंकि शासन करने के लिए ताकत की आवश्यकता है - पैसे की, बल की व ज्ञान की - जो घीसू के पास नहीं है। इसलिए सभी लोग उसकी आलोचना-निंदा करते हैं कामचोर कहते हैं यदि उसके पास भी सत्ता का बल होता तो उसको भी कामचोर नहीं कहा जाता। सामंतवाद-पूंजीवाद में खाली-बैठना जमी़ंदारों का ही अधिकार है। घीसू और माधव सामाजिक दर्जे पर भी सबसे नीचे हैं इसलिए उनका ऐसा घूमना तो विद्रोह है। उनका ऐसे घूमना दूसरे मेहनतकश लोगों के लिए भी प्रेरणा का काम बन सकता है और यदि उनमें यह चेतना विकसित हो गई तो वे उनका शोषण तो किसी भी सूरत में नहीं कर सकेंगे। चूंकि समाज का अधिकांश वर्ग सामंती-पूंजीवादी मान्यताओं-संस्कारों से परिचालित है इसलिए घीसू-माधव का इस तरह रहना उन्हें अखरता है। मांगकर खाना या चोरी करके खाना घीसू और माधव द्वारा किया गया आविष्कार नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मणवादी विचारधारा की मूलभूत विशेषता है और वर्ण-व्यवस्था के क्रम के अनुसार वर्णों की भूमिका अलग-अलग है। जब कोई निम्न वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण की नकल करने लगता है तो सबको पहाड़ सा टूटता नजर आता है। यही स्थिति यहां है कि खाली बैठकर खाने का अधिकार तो सिर्फ उच्च वर्ण के लोगों को है, मण्डलियों में बैठने का हक भी उच्च वर्ण के लोगों का है, इसलिए जब निम्न वर्ण से ताल्लुक रखने वाले घीसू और माधव बिना बेगार किए, बिना कड़ी मशक्कत किए जिन्दा रहते हैं तो उनको अपनी व्यवस्था गड़बड़ाती नजर आती है, जिसपर बिना काम किए उनके ऐश्वर्य और ठाठ का जीवन टिका हुआ है।
डा. भीमराव आम्बेडकर ने दलितों की स्थिति को समझने के लिए उनके काम धंधों को जानना जरूरी बताया है। डा. आम्बेडकर के शोधपूर्ण विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि घीसू और माधव की स्थिति कोई अजूबी नहीं है, बल्कि इस तरह की स्थितियों में उनका चोरी करके खाना और 'काम' न करना एक क्रांतिकारी कदम बन जाता है। जहां अधिकतर समय बेगार में बीत जाता हो और जी तोड़ मेहनत के बदले में कुछ न मिलता हो वहां काम न करना विद्रोह का ही एक ढंग है। जहां जोर-जबरदस्ती से काम करवाया जाता हो वहां 'निकम्मे' घूमना एक तरह की हड़ताल ही है। डा. आम्बेडकर ने लिखा कि ''अस्पृश्य किस प्रकार रहते है? वे अपनी रोजी-रोटी किस प्रकार कमाते हैं, जब तक यह नहीं पता चलता है, तब तक हिन्दू समाज में उनकी हैसियत का स्पष्ट पता लगना संभव नही"। प्रेमचन्द ने घीसू और माधव को 'अमानवीय दर्शाया व समस्त दलित समाज का अपमान किया है' यह कहना निहायत गलत है। घीसू और माधव के चरित्र में अमानवीयता नहीं है, बल्कि व्यवस्था में अमानवीयता है जिसमें ऐसे चरित्र पैदा होने की गुंजाइश है। वे प्रसव-पीड़ा से तड़पती बुधिया की देखभाल इसलिए नहीं कर पाते कि वे कई दिन के भूखे हैं। भूख ही उनको बुधिया के प्रति ऐसा व्यवहार करने पर विवश कर रही है वरन् तो घीसू कहता है ''मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं, और फिर मुझसे लजायेगी कि नहीं? जिसका कभी मुंह नहीं देखा; आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूं। उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पांव भी न पटक सकेगी।"55
आर्थिक जकड़बंदी में दलित को शोषण से बचने का और कोई रास्ता नहीं है। काम न करना और चोरी करके खाना ही इस स्थिति में बचता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेमचन्द ने दलितों को कामचोर प्रस्तुत किया है बल्कि यह ध्वनित होता है कि जब सारा दिन काम करना भी उनके काम नहीं आता तो उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है। उनके वश में काम न करना ही है वे वही करते हैं। वे अपने काम की कीमत अच्छी तरह पहचानते हैं। इसीलिए दोगुनी मजदूरी मांगते हैं उनकी दोगुनी मजदूरी मांगना ही जमीदारों के लिए चुनौती है क्योंकि मजदूरी तो जमींदार तय करते हैं। चंूकि दलितों के पास मोल-तोल की ताकत नहीं है, इसलिए वे 'निठल्ले' रह जाते हैं। दलितों के पास साधन नहीं हैं वे पूरी तरह से जमींदारों पर आश्रित हैं, इससे उनकी स्थिति ओर दयनीय हो जाती है। डा. आम्बेडकर ने इस सम्बन्ध में लिखा कि ''अस्पृश्य न केवल अपनी रोजी-रोटी के लिए स्पृश्य का मुंह जोहता है, बल्कि जीवन की दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए उसकी यही नियति है और गांवों में सभी दुकानें स्पृश्यों की होती हंै। व्यापार स्पृश्य के हाथ में है और अनिवार्यत: होगा भी। अत: खरीदारी के लिए अस्पृश्य को स्पृश्य दुकानदार के आसरे रहना पड़ता है। अस्पृश्य दैनिक जरूरत की चीजें तभी प्राप्त कर सकेगा, जब स्पृश्य वे चीजें बेचना चाहेगा। यदि स्पृश्य बेचना नहीं चाहता, तो अस्पृश्य को भूखों मरना ही पड़ेगा, भले ही उसके पास पैसा हो। अत: जब भी स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच कोई विवाद उत्पन्न हो जाता है तो दुकानदारों को स्पृश्य यह आदेश देना नहीं भूलता कि अस्पृश्य को कोई चीज बेची न जाए। स्पृश्य संगठित रूप से ऐसी साजिश करते हैं कि अस्पृश्यों से आर्थिक रिश्ता पूर्णतया टूट जाए। अस्पृश्यों के खिलाफ लड़ाई का ऐलान कर दिया जाता है। 'शत्रु' को तहस-नहस करने के लिए दुष्टों का एक दंडात्मक अभियान दल अस्पृश्यों के क्षेत्र में भेज दिया जाता है। वह दल निर्भय होकर विध्वंस करता है। वह निर्लज्ज होकर हिंसा के कर्म करता है। वह औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शता।"56
घीसू और माधव बुधिया के 'कफन' के धन की शराब पीने को उनकी गिरावट का निम्नतम स्तर माना है। धन को किसी और काम में खर्च कर देना दूसरी बात है लेकिन घीसू का अनुभव यह कहता है कि उसे कफन मिलेगा। कफन के बिना उसका अन्तिम संस्कार नहीं होगा। घीसू को अपने बच्चों के पैदा होने का भी अनुभव है कि ऐसे मौकों के लिए लोग कुछ न कुछ अवश्य दे देते हैं व उसका चेतनशील मानस जानता है कि कर्मकाण्ड व रिवाजों पर टिकी शोषक व्यवस्था को चलाने के लिए शोषक लोग कुछ भी करते हैं इसलिए वह बड़े आत्मविश्वास से माधव को कहता है, ''तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूं? उसको कफन मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा।"
माधव को विश्वास न आया। बोला - कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी मांग में तो सिंदूर मैंने डाला था।
''कौन देगा, बताते क्यों नहीं?"
''वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हां, अब की रुपये हमारे हाथ न आयेंगे।"
देखने की बात यह भी है कि घीसू और माधव केवल शराब पीने के लालच में कफन के पैसे नहीं उड़ाते। वे कफन उढ़ाने के विचार से सैद्धान्तिक तौर पर ही सहमत नहीं थे।
''बाजार मे पहुंचकर घीसू बोला - लकड़ी तो उसे जलाने भर को मिल गई है, क्यों माधव।
माधव बोला - हां, लकड़ी तो बहुत हैं, अब कफन चाहिए।
'तो चलो, कोई हल्का-सा कफन ले लें।'
'हां, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जायेगी। रात को कफन कौन देखता है?'
'कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए।'
'कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है।'
'और क्या रखा रहता है? यही पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।"
कफन उढ़ाना एक रिवाज है उसकी व्यावहारिकता पर वे प्रश्न चिन्ह लगाते हैंहैं। अचानक वे स्वयं को शराब के ठेके के सामने पाते हंै और एक बोतल शराब लेकर कुछ कई कुज्जियां फटाफट पी जाते हैं। यदि वे इतने संवेदन शून्य व बुधिया के प्रति अमानवीय होते तो नशे में यह बात न करते।
''घीसू बोला - कफन लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहु के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो - दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बामनों को हजारों रुपये क्यों दे देते है? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं।
''बड़े आदमियों के पास धन है, फूंकें। हमारे पास फूंकने को क्या है?57
इन रिवाजों के शोषण को प्रेमचन्द पहचानते हैं और कहते हैं कि शोषक वर्ग की विचारधारा ने शोषण को स्वीकृति दिलाने के लिए लोगों के मन में ऐसे विचार बिठा दिए हैं जिसे वे स्वीकार कर लेते हैं घीसू इसे स्वीकार नहीं करता। प्रेमचन्द ने रिवाजों की पवित्रता व उसकी आड़ में खुराक पाकर फलती-फूलती शोषण-व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 'अस्पृश्यों को चेतावनी' लेख में शोषण से छुटकारा पाने के लिए दो स्तरों पर कार्य करने की आवश्यकता को रेखांकित किया ''अनिवार्यत: अस्पृश्यों को क्या प्रयास करना चाहिए? दो बातों के लिए उन्हें प्रयास करना ही होगा, और वे है - शिक्षा और ज्ञान का प्रसार। विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की शक्ति उस झूठ की वैसाखी पर टिकी रहती है, जिसका प्रचार-प्रसार वे बड़ी लगन व जतन से करते हैं। जब तक शक्ति को मान्यता प्रदान करने वाले झूठ को सच स्वीकार कर लिया जाएगा, तब तक शक्ति का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता। जब तक बचाव के सर्वोपरि तथा प्रमुख कवच झूठ का भांडा नहीं फोड़ा जाएगा, तब तक कोई विद्रोह हो ही नहीं सकता। इससे पूर्व कि किसी अन्याय, किसी कुरीति या दमन का प्रतिरोध किया जा सके, वह अति आवश्यक है कि उसके मूलाधार झूठ को बेनकाब करके उसे भलीभांति पहचान लिया जाए। यह केवल शिक्षा के द्वारा ही हो सकता है।"58
'कफन' कहानी में दलितों को विकृत रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि व्यवस्था की संवेदनशून्यता व हृदयहीनता को दर्शाया है। प्रेमचन्द लिखते है कि 'सारे गांव पर अंधकार छा गया था।' बुधिया की प्रसव-पीड़ा की वेदना-पूर्ण चीखों को सुनकर घीसू-माधव तो भूख के कारण आलू भूनने-खाने में ही मशगूल हैं लेकिन पूरे गांव से भी उसकी पीड़ा की पुकार सुनकर कोई मदद करने को नहीं आता। हां जब वह मर जाती है तो 'नर्मदिल स्त्रियां भी आंसू' बहा जाती हैं और दूसरे कठोर दिल जमींदार भी 'दया' की वर्षा कर देते हैं। जमींदार बुधिया के मरने पर रुपये तो देता है अपनी शान रखने के लिए लेकिन सांत्वना व सहानुभूति व्यक्त नहीं करता। स्पष्ट है कि शोषक वर्ग अपनी शोषण की व्यवस्था में उसी को दान देता है जो उसकी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मंत्र व श्लोक घड़ता हो तथा वह उसी पर दया करता है जो कि उसके काम आता है। बुधिया के मरने पर कफन के लिए सहायता करने के समय की प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट है:-
''जमींदार साहब दयालू थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल दूर हो यहां से। यों तों बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड का अवसर न था। जी मैं कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिये। मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुंह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।"59
स्पष्ट है कि इस कथित 'दया' की आड़ में शोषक (जमींदार व महाजन) दलितों, वंचितों का शोषण करते हंै कि 'यों तो बुलाने पर भी नहीं आता' वाक्य में जमींदार की मंशा छुपी है। वह घीसू-माधव को क्यों बुलाना चाहता है। बेगार के लिए, परम्परागत रिवाजों को बनाये रखने के लिए और अपनी शान बढ़ाने के लिए। घीसू इस नीतिशास्त्र व आचार-संहिता को नहीं मानता इसलिए वह 'दया' के काबिल भी नहीं। इस 'दया' के माध्यम से ही वर्चस्व कायम रहता है। डॅा। आम्बेडकर ने भारतीय गांवों में दलितों के प्रति सवर्णों के रुख पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ''हम उन कत्र्तव्यों को लेते हैं, जो इस संहिता के अनुसार अस्पृश्यों को स्पृश्यों के लिए करने अपेक्षित हैं। ... ये काम बिना मजदूरी लिए किये जाने होते हैं। इन कामों के महत्त्व को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि ये काम क्यों अस्तित्व में आए। गांव का हर हिन्दू अपने आपको अस्पृश्यों से श्रेष्ठ मानता है। वह अपने आपको सबका मालिक मानता है और इसलिए वह अपनी इज्जत को बनाए रखना बहुत जरूरी समझता है। वह अपनी इस इज्जत को तब तक कायम नहीं रख सकता, जब तक उसके इशारे पर नाचने वालों की भीड़ उसके आस-पास नहीं रहती। इसके लिए अस्पृश्य ही मिलते हैं, जो उसका हर काम करने के लिए तैयार रहते हैं और जिन्हें उसके लिए कुछ भी देना नहीं पड़ता। चूंकि अस्पृश्य असहाय होते हैं, अत: वे इस कारण इन कामों को करने से इंकार नहीं कर सकते और हिन्दू भी उनसे जबर्दस्ती इन कामों को करवाने से नहीं चूकते, क्योंकि वे उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए जरूरी होते हैं।"60
प्रेमचन्द पर दलित-विरोध का आरोप लगाकर अपने को दलितों का मसीहा साबित करने पर तुले लोग तो ऐसा कुतर्क भी दे सकते हैं कि प्रेमचन्द ने 'सद्गति' के दुखी की लाश की कुत्ते-कौओं से दुर्गति करवा दी है। लेकिन यदि गम्भीरता से व सही संदर्भ में समझा जाए तो प्रेमचन्द ने ब्राह्मणवाद में मौजूद संवेदनशून्यता यांत्रिक कर्मकाण्ड और अमानवीयता को उजागर किया है। 'यही जीवन पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था' कहकर इस बात की ओर संकेत किया है कि ब्राह्मणवादी धर्म व विचारधारा के रहते दलितों के ये 'गुण' किसी भी तरह उनके उद्धार मुक्ति का कारण नहीं बन सकते। दुखी पूरी जिन्दगी ब्राह्मणवादी मान्यताओं के अनुसार ही काम करता रहा। उसी को सत्य मानकर चलता रहा जो पण्डित घासीराम का 'पत्र ' कहता रहा। लेकिन उससे उसका कोई उद्धार नहीं हुआ। दूसरे प्रेमचन्द ने यह भी इस कहानी में दर्शाया है कि असली मायने में धार्मिक तो दुखी है जिसने सेवा, निष्ठा व ईमानदारी को धारण किया हुआ है न कि पंडित घासीराम जो कि तमाम धूर्तता, कांईयापन व धोखेबाजी धारण किए हैं। पोथी, शास्त्रीय-पाखण्ड व रूढि़वादी ब्राह्मणवादी धर्म में दलितों के लिए कोई स्थान नहीं है। उसे समाप्त करके ही वे इन्सानी-गरिमा पा सकते हैं। इन्सानियत के धर्म और कर्मकाण्डी-शास्त्रीय धर्म आमने सामने हैं। यद्यपि कहानी में दुखी किसी भी तरह इस शोषण व कर्मकाण्डी धर्म का विरोध नहीं करता, लेकिन प्रेमचन्द ने एक गोंड चरित्र की रचना करके इस पक्ष को व्यक्त किया है। दो बार वह कहानी में हस्तक्षेप करता है। उसके विचारों को प्रेमचन्द के शब्दों मे रखना ही बेहतर होगा।
''दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाडी संभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आध घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया।
इतने में वहीं गोंड आ गया। बोला - क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गांठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।
दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा - अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई!
गोंड - कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके मांगते क्यों नही?
दुखी - कैसी बात करते हो चिखुरी, ब्राह्मण की रोटी हमको पचेगी
गोंड - पचने को पच जायेगी, पहले मिले तो। मूछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाडऩे का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।"61
गोंड से माध्यम से प्रेमचन्द ब्राह्मणों द्वारा दलितों के शोषण को बहुत सीधे तौर पर और स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं। जो अपने को सर्वोच्च स्थान पर रखता है उसके धर्मात्मापन की पोल खोल देता है।
जब दुखी मर जाता है तो पंडित उसे लाश उठाने को कहता है परन्तु गोंड उस पर सीधा हत्या का आरोप लगाता है और उनसे कहता है कि ''उधर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया। खबरदार मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि गरीब की जान ले ली। पंडितजी होगें, तो अपने घर के होगें लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़े जाओगे।"62
गोंड के माध्यम से प्रेमचन्द ने धर्म की सत्ता व ब्राह्मण श्रेष्ठता के परम्परागत ढर्रे को छोड़कर कानून के समक्ष जवाबदेही की ओर संकेत किया है। प्रेमचन्द जानते हैं कि धर्म के अनुसार तो पलड़ा हमेशा पंडित की ओर ही झुकेगा और कानून की नजर में सभी बराबर हैं इसलिए धर्म की सत्ता को त्यागकर कानून की सत्ता का अपनाना चाहिए। कानून की सत्ता आधुनिक समाज की निर्मिति है। जिसको अपनाने पर जोर दिया। दलित दुखी की लाश लेने नहीं जाते इससे भी उनकी आकांक्षा नजर आती है। पंडित घासीराम के धमकाने व मिन्नतें करने के बावजूद भी चमार लाश नहीं उठाते बेशक उनको गोंड की इस धमकी का डर तो जरूर रहा होगा कि वे भी पकड़े jayenge लेकिन यह भी सच है कि डर तो उनके मन में पंडित की अवमानना व उसके अभिशाप का भी रहा होगा लेकिन वे पंडित की बात की उपेक्षा करके लाश लेने नहीं आते तो निश्चित तौर पर यह इस ओर संकेत करता है कि वे धर्म की सत्ता की उसके शोषण-अत्याचार से छुटकारा पाना चाहते है और नागरिक समानता चाहते हैं लेकिन साथ ही दलितों में न तो अभी इतनी चेतना होगी और न ही आत्मनिर्भरता कि वे पुलिस थाने जाकर तहकीकात करवाते।
प्रेमचन्द केवल यथास्थिति का ही चित्रण नहीं करते थे, बल्कि उनके साहित्य में भविष्य की ओर के संकेत भी होते थे। गोंड की बात को पे्रमचन्द का भविष्य का संकेत ही कहा जा सकता है।
प्रेमचन्द की लेखकीय सहानुभूति व संवेदना पूर्ण रूप से दलितों के साथ है वे दलितों पर ब्राह्मणवादी विचारधारा की क्रूरता को इसी दृष्टि से उद्घाटित करते हैं। दलितों की सामाजिक हैसियत उनके आर्थिक शोषण का आधार तैयार करती है और आर्थिक हैसियत उनके सामाजिक दर्जे को निम्नतम पायदान पर जा खड़ा करती है। आर्थिक व सामाजिक शोषण अलग-अलग नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं। एक की स्थिति दूसरे को बढ़ावा देती है। प्रेमचन्द की रचनाएं इस बात को रेखांकित करती हैं कि सामाजिक न्याय व सामाजिक सम्मान को आर्थिक समानता पाने के संघर्ष में ही प्राप्त किया जा सकता है।
डा. आम्बेडकर सामाजिक न्याय व सामाजिक सम्मान के लिए आर्थिक समानता का आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि यदि समाज में आर्थिक समानता नहीं है तो सामाजिक समानता स्थापित नहीं हो सकती। सामाजिक समानता व आर्थिक समानता हासिल करने का संघर्ष परस्पर इतना जुड़ा है कि एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लोकतंात्रिक-व्यवस्था की पोलिटिकल-इकोनॉमी समझाते हुए 24 नवम्बर,1949 को तीसरे वाचन के उपरान्त संविधान के स्वीकार होने के अवसर पर बाबा साहब ने कहा कि ''जो हमें करना आवश्यक है वह यह है कि हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र से ही संतुष्ट नहीं रह जाना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक राजनीतिक लोकतंत्र की बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र स्थित नहीं होगा तब तक राजनीतिक लोकतंत्र की इमारत स्थिर और टिकाऊ नहीं हो सकती। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक ऐसा जीवन जीने का ढंग जो जीवन के आधारभूत सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता को स्वीकार करता हो। स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के ये तीन sidhant त्रयी में विद्यमान तीन अलग-अलग शब्दों के रूप में तीन पृथक-पृथक तत्त्व नहीं माने जाने चाहिए। ये वास्तव में संयुक्त रूप से मिलकर एक एकीकृत त्रयी का निर्माण करते हैं, इस अर्थ में कि एक को दूसरे से पृथक करना लोकतंत्र के ही उद्देश्य को ही पराजित करना हो जाता है। स्वतंत्रता को समानता से पृथक नहीं किया जा सकता। समानता को स्वतंत्रता से पृथक नहीं किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता बहुजनों पर अल्पजनों की प्रभुता उत्पन्न करेगी। और स्वतंत्रता के बिना समानता वैयक्तिक पहल को नष्ट कर देगी। बन्धुता के बिना तो स्वतंत्रता तथा समानता एक स्वाभाविक प्रक्रिया-जन्य चीजें नहीं बन सकतीं। तब तो स्वतंत्रता और समानता को लागू कराने के लिए पुलिस के इस्तेमाल का सहारा लेना पड़ेगा।"
''हमें इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए ही अपनी शुरूआत करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का घोर अभाव है। उसमें से एक चीज है समानता का अभाव। सामाजिक धरातल पर भारत में हमारे यहां एक ऐसा समाज है जो 'क्रमिक असमानता' यानी सीढ़ीनुमा गैर बराबरी पर आधारित हैं, जिनका अर्थ है थोड़े से लोगों का उत्कर्ष और अधिसंख्य लोगों का अपकर्ष। आर्थिक धरातल पर हमारे यहां एक ऐसा समाज है जिसमें एक ओर जहां बेशुमार लोगों की जिन्दगी की गुजर-बसर गरीबी और कंगाली में जैसे-तैसे होती है तो वहीं दूसरी ओर मु_ी भर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी मु_ी में अकूत दौलत कैद है।
26 जनवरी,1950 को हम अन्तरविरोधों या विसंगतियों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में तो हम समानता स्थापित करेंगे लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में हम असमानता ही बनाए रखेंगे। राजनीति में हम 'एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य' के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने प्रचलित और पारंपरिक सामाजिक-आर्थिक ढांचे की वजह से 'एक व्यक्ति और एक जैसा मूल्यÓ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम आखिर कब तक जीवन के सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लम्बे अरसे तक टालते और नकारते रहे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ही ऐसा कर सकेंगे। इसलिए हमें चाहिए कि जितना जल्दी हो सके उतना ही जल्दी हम इस अन्तर्विरोध को दूर कर लें, वरना जो लोग इन असमानताओं से पीडि़त हैं वे लोग राजनीतिक लोकतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़कर फेंक देंगे जिसको इस संविधान सभा ने बड़ी लगन और मेहनत से बनाया है।"63
डा। भीमराव आम्बेडकर ने जो चेतावनी दी थी वह तो सच हुई कि आर्थिक असमानता के चलते वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था लम्बे समय तक नहीं चल सकती और वह नहीं चल रही है, लेकिन इसमें जो दुर्भाग्यपूर्ण हुआ वह यह कि इस ढांचे को 'असमानताओं से पीडि़त' लोगों ने नहीं, बल्कि असमानताओं का आनन्द लेने वाले मुठी भर लोगों ने उखाड़ा है। यदि असमानता से पीडि़त लोग इसे उखाड़ते तो वे इसकी जगह समानता स्थापित करने वाला कोई नया ढांचा स्थापित करते, चंूकि यह समाज के ऐश्वर्यवान लोगों ने उखाड़ा है इसलिए परिवारवाद यानी राजशाही की, सामन्तवादी व कारपोरेट पूंजी की सुविधा के लिए साम्राज्यवादी प्रवृतियां लोकतंत्र के खोल में पनप रही हैं और उसकी जड़ों को काट रही हैं।
डा. आम्बेडकर और प्रेमचन्द के विचारों में मूलभूत समानता है। दलित-आन्दोलन के समक्ष अपनी परम्परा के मूल्यांकन की चुनौती है। किसी आन्दोलन के भावी रूप इस पर भी निर्भर करता है कि वह अपनी परम्परा का मूल्यांकन कैसे करता है। दलित-वंचित वर्गों की मुक्ति का संघर्ष तभी से है जब से उसका अस्तित्व है। समय के साथ उसके रूप व मुद्दे अवश्य बदलते रहे हैं। अपनी परम्परा की पहचान खोकर कोई आन्दोलन अपने मकसद में सफल नहीं हो सकता। सामयिक आन्दोलन हमेशा परम्परा से ही खुराक ग्रहण करते हैं।
प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में दलित जीवन को जिस तरह से चित्रित किया तथा अपने विचारों को विचारों दलितों के पक्ष में प्रस्तुत किया है, उसको देखते हुए उनको दलित समर्थक साहित्यकारों में अवश्य रखा जा सकता है। वे किसी भी मायने में दलित सरोकारों में कमतर नहीं है। दलित जीवन का वर्णन उनके लिए न तो रणनीतिक सवाल था और न ही मात्र सहानुभूति का मसला। वे दलित-मुक्ति को मानवता की स्थापना की अनिवार्य शर्त मानते थे।
संदर्भ:
1 उत्तरगाथा (प्रेमचन्द अंक); सं. सव्यसाची, मथुरा; जनवरी, 1981; पृ.-172
2 वही, पृ.-36
3 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली 2003; पृ.-458
4 सहमत मुक्तनाद; सं. राजेन्द्र शर्मा; विठ्ठल भाई पटेल हाउस,नई दिल्ली; जुलाई, 2005; पृ.-89
5 सं. खगेन्द्र ठाकुर; प्रेमचन्द प्रतिनिधि संकलन; नेशनल बुक ट्रस्ट; 2006; पृ. 15
7 सं. डा.सुभाष चन्द्र; आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006; पृ.-50
8 वही; पृ.-150
9 वही;पृ.-191
10 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली 2003; पृ.-458
11 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; पृ.-1
12 वही, पृ.-30 13 वही, पृ.-36 14 वही, पृ.-31
15 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; पृ.-342
17 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1) पृ. 28
18 बाबा साहेब डा. आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय (खण्ड-1); डा. आम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली; पृ.-90
19 वही, पृ.- 91
20 आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय(खण्ड-9); पृ.-159-160
21 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-4
22 आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय(खण्ड-9); पृ.-169
23 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-347
24 प्रेमचन्द के विचार(भाग-1); पृ.-465
25 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां; (खण्ड-1), पृ.-74
27 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.-77
28 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1),पृ.-668
29 वही, पृ.-343 30 वही, पृ.-347 31 वही, पृ.-345
32 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-2), पृ.-3
34 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1); पृ.-665
35 एल.जी.मेश्राम कीर्ति ; महात्मा जोतीबा फुले रचनावली, भाग-1; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली; 2002; पृ.-135
36 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-663
37 वही, पृ.-666 38 वही, पृ.-666 39 वही, पृ.-663
40 वही, पृ.-663 41 वही, पृ.-665
42 प्रेमचन्द, गोदान; प्रकाशन संस्थान, दिल्ली; पृ.-225 से 227
44 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-343
45 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.- 345
46 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006; पृ.-104
47 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-6
49 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-98
50 कर्मभूमि
51 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1),पृ.-77
52 गोदान, पृ.-
53 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-800
54 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां
55 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-800
56 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति;
57 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-802
58 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-94
59 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-2), पृ.-802
60 आम्बेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति; पृ.-60
61 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां(खण्ड-1), पृ.-666
62 प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां (खण्ड-1), पृ.-667
63 सं.प्रदीप गायकवाड (अनु.-मा.रामगोपाल आजाद); डा. बाबा साहेब आम्बेडकरके महत्त्वपूर्ण भाषण एवं लेख; समता प्रकाशन, नागपुर; प्र.सं. 2005; पृ.-118