बुल्लेशाह

बुल्लेशाह
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

पंजाब विभिन्न संस्कृतियों, नस्लों, परम्पराओं और धर्मों के समन्वय का केन्द्र बिन्दु रहा है। यहां लगभग 4000 साल पहले सिन्धु घाटी की सभ्यता पली थी। उसके बाद यहां मध्य एशिया से आर्य आए, इसके बाद सीथियन, हूण, ग्रीक, तुर्क, फारसी, अफगान, मुगल आए। सभी ने भारत की साझी संस्कृति को समृद्घ किया।
बुल्लेशाह 16वीं शती में, कसूर में हुए। इनका असली नाम अब्दुल्ला शाह था, ये बुल्लेशाह के नाम से प्रसिद्घ हुए। पंजाब के सभी लोगों को चाहे वे किसी भी धर्म या जाति से संबंधित हों, बुल्लेशाह पर नाज है। बुल्लेशाह के गीतों को पंजाब के सभी लोग गाते हैं। उनकी कविताओं ने हिन्दू मुसलमान में समन्वय स्थापित किया। बुल्लेशाह की कविताएं सभी धर्मों की सीमाओं को लांघकर आम लोगों तक अपनी पहुंच बनाने में सक्षम हैं। बुल्लेशाह किसी एक धर्म से नहीं बंधे, उन्होंने सभी धर्मों और मतों पंथों से परम्पराओं और विचारों को ग्रहण किया। बुल्ले शाह की कविताओं में नाथपंथ और वैष्णव पंथ का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बुल्लेशाह ने कर्मकाण्ड को महत्त्व नहीं दिया।
इश्क दी नवियों नवीं बहार,
फूक मुसल्ल भन सिट लोटा,
न फड़ तस्बी कासा सोटा,
आलिम कहन्दा दे दो होका,
तर्क हलालों खह मुर्दार।
इश्क तो हमेशा नया होता है, आसन फूको, लोटा फेंक के तोड़ दो, जपमाला, प्याला, और दंड न पकड़ो, ऊंची आवाज में विद्वान सत को छोड़कर असत को अपनाने की बात कहता है। जिन वस्तुओं का यहां जिक्र किया है, वे सभी पूजा-उपासना से संबंधित हैं।

उमर गवाई विच मसीती,
अन्दर भरिया नाल पलीती,
कदे नमाज़ वाहदत ना कीती,
हूण कियों करना ऐं धाड़ो धाड़।
तूने मस्जिद में उम्र गंवा दी, तेरी आत्मा मैली है, प्रभु से जुडऩे के लिए कभी नमाज़ नहीं पढी, अब तू क्यों रोता है।

जां मैं सबक इश्क दा पढिय़ा,
मस्जिद कोलों जिवड़ा डरिया,
भज भज ठाकर द्वारे वडिय़ा,
घर विच पाया माहरम यार।
जब मैने प्रेम का पाठ पढ़ा, मस्जिद से आत्मा को डर लगा, मन्दिर में भागा गया, प्रीतम को अपने ही घर पाया

जा मैं रमज़ इश्क दा पाई,
मैं नां तूती मार गवाई,
अन्दर बाहर हुई फाई,
जित वल वेखां यारो यार।
जब प्रेम का रहस्य जाना, मैं-मैं, तू-तू को मार दिया, भीतर-बाहर की सफाई हो गई, सब तरफ प्रभु ही पाया।

वेद कुराना पढ़-पढ़ थक्के,
सिज्दे कर दियां घस गए मथ्थे,
न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के,
जिन पाया तिन नूर अँवार।
वेद-पुराण पढ़-पढ़ कर थक गए, प्रार्थनाएं करके सिर भी घिस गए, ईश्वर न तीर्थ में मिला और न ही मक्के में, उसे पाने वाले में तेज और सौन्दर्य आया
इश्क भुलाया सिज्दे तेरा,
हूण कियों आईवें ऐवैं पावें झेड़ा,
बुल्ला हो रहो चुप चुपेरा,
चुक्की सगली कूक पुकार।
तेरे प्रेम ने प्रार्थना भुला दी, अब झगड़ा क्यों करता है? बुल्ला चुप होकर कह रहा है, सारी हाहाकार शान्त हो गई है

बुल्लेशाह किसी धर्म की सीमा में नहीं बंधे वे अपने को न तो हिन्दू मानते थे और न ही मुसलमान मानते थे। वे हिन्दू और मुस्लिम धर्म की संकीर्णताओं से अलग हटकर मानवतावादी धर्म की ओर बढ़ रहे थे। इसलिए दोनों धर्मो की संकीर्ण पहचान को मिटाने की कोशिश कर रहे थे और दोनों की कट्टरता को नकार रहे थे।
मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे,
ढा दे जो कुछ ढैंदा,
पर किसी दा दिल ना ढाइं ,
रब्ब दिलां विच रैंदा।
इस तरह कहा जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमानों में एक दूसरे के धर्म को समझने की ललक थी। एक दूसरे के धर्म का आदर करते थे, जिसका परिणाम यह निकला कि दोनों की मान्यताओं और विश्वासों को मिलाकर कुछ और ही बन गया।
मेरी बुक्कल दे विच चोर,
साधो किसनूं कूक सुणावां,
मेरी बुक्कल दे विच चोर।
किते रामदास किते फतेह मुहम्मद
इहो कदीमी शोर,
मुसलमान सिवें तो चिढ़दे,
हिन्दू चिढ़दे गोर,
चुक गए सभ झगड़े झेड़े,
निकल गया कोई होर,
साधे किसनूं कूक सुणावां,
मेरी बुक्कल दे विच चोर।
मेरी बगल में चोर है, साधो किसको बताऊं, मेरी बगल में चोर है। कहीं वह राम दास है, कहीं $फतेह मुहम्मद है, युगों युगों से यही शोर सुनाई दे रहा है। मुसलमान शव-दहन से चिढते हैं, हिन्दू शव दफनाने से। अब सारे झगड़ खत्म हो गए हैं, कोई और ही निकल गया है। हे साधो, किसे बताऊं कि मेरी बगल में चोर है।
पुराना शोर मिट गया, झगड़ा मिट गया और कुछ नया पैदा हो गया है। बुल्लेशाह ने जिस 'कुछ नए' की ओर संकेत किया है वह मिली जुली संस्कृति और मानवता है। बुल्लेशाह की रचनाओं में और अन्य सूफी-संतों की रचनाओं में यह संस्कृति साफ दिखाई देती है।
बुल्ले शाह धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे। सूफी सदा से ही उदारता के पक्षधर रहे और उनको इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। कट्टर इस्लामियों ने सूफियों को शहीद किया। अपने स्वतंत्र विचारों के कारण मंसूर को सूली पर टांग दिया था। बुल्ले शाह ने उदारता की परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी रचनाओं में बार-बार मंसूर, शम्स, जकरिया का नाम लिया है।
शाह शमस दी खाल लहायो,
मंसूर नूं च सूली दिवायो
जक्रीए सिर कल्क्तर धरायो,
कि लिख्या रह गया बाकी दा?

बेली जित घर तेरा फेर होया,
उह जल बल माटी ढेर होया,
तन राख उड़ी तां सेर होया,
इश्क़ा मैंथे आया हैं,
तूं आया हैं मैं पाया हैं।
ओ मित्र, जिस घर में तू घुसता है, उसको भस्म कर देता है, राख उड़ाकर तू संतुष्ट हुआ। अरे महबूब, तू मेरे नजदीक आया है, तू आया है, मैंने तुझे पाया है।

जकड़ीए सिर कल्वतर दित्तोई।
जुसब हतोहत विकियोई,
इब्राहिम छिखा विच पाइओई,
औ मैनूं किया लै आया है।
जकरिया का सिर काटा था, जोस$फ को हाट में बेचा था, इब्राहिम को चिता की आग में तूने ही $फेका था, अब मेरे लिए क्या लाया है

इकनां दे पोश लहाई दे,
इक आरिया नाल छिवाई दे,
इक सूली चाए दिवाई दे,
कर किस गल दा सघराइया हैं।
कुछ की खालों को छीला था, कुछ को आरों से चीरा था, कुछ को सूली पे चढ़ाया था, अब मेरे लिए क्या है

बुल्लेशाह ने हिन्दुओं में पूज्य माने जाने वाले श्रीकृष्ण को केन्द्रित करके रचनाएं की। कृष्ण की बांसुरी की बहुत तारीफ की। उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रेम का देवता बताया।
बंसी वालिया चाका रांझा,
तेरा सुर है सब नाल सांझा
तेरीयां मौजंा साढा मांझा,
साढी सुर तैं आप मिलाई
बंसी काह्न अचरज बजाई

बंसी सब को सुणे सुणावे,
अरथ इसका कोई बिरला पावे
जो कोई अनहद की सुर पावे,
सो इस बंसी का सैदाई
बंसी काह्न अचरज बजाई
राधा और कृष्ण को माध्यम बनाकर मानवता का संदेश दिया। उन्होंने शैव मत के प्रतीकों का भी प्रयोग किया। इनकी रचनाओं में वैष्णव, शैव, नाथ पंथ तथा इस्लाम की विभिन्न मान्यताओं का समन्वय हुआ। बुल्लेशाह की रचनाएं तत्कालीन समाज में पनपी साझी संस्कृति को व्यक्त करती हैं, ये प्रसिद्घ भी इसीलिए हुर्इं और लोगों की जुबान पर चढऩे का कारण भी यही था कि ये रचनाएं लोगों की बात कह रही थीं।