
अपने अपने पिंजरेडा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्रमोहनदास नैमिशराय दलित साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, जिन्होंनें दलित साहित्य के विभिन्न पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई है। अपनी आत्मकथा अपने अपने पिंजरे’ में अपने अनुभवों के माध्यम से दलितों के आर्थिक व सामाजिक शोषण के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया है। अक्सर माना जाता है कि शहर दलितों के शोषण को कम करता है,लेकिन नैमिशराय का जीवन मेरठ शहर में ही अधिक बीता है और उनके द्वारा वर्णित अनुभवों से लगता है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है। दलितों का शोषण शहर में भी उतना ही है,जितना कि गांव में। मोहनदास नैमिशराय ने दलित जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की है। वे समाज व देश के संदर्भ में दलितों की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करते हुए इस बात पर विचार करते हैं कि दलितों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार करने के पीछे कौन से कारण रहे हैं। उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे ऐसे समुदाय से ताल्लुक नहीं रखते जिसने कि शोषण किया,निर्दोषों को सताया और धर्म के नाम पर अमानवीय परम्पराओं को वैधता प्रदान की।
हम गरीब जरूर थे पर हमने न देश बेचा था न अपना जमीर। न हम डंडीमार थे और न ही सूदखोर। चोर लुटेरों की श्रेणी में हम नहीं आते थे। हमारे पुरखों ने घर बनाए, शहर बनाए पर न हमारे पास ढंग के घर थे और न बस्तियां। शहरों के भीतर बसने की कल्पना भी करना हमारे लिए मुश्किल थी। शहर-दर-शहर और उनके आसपास छितरे हमारी जात के लोगों की यही दास्तान थी। ... शहर के नाले/कूड़ाघरों/नदियों के कछारों/कब्रिस्तान के आसपास हम जहां-तहां पसरते रहे। पर सवर्णों की तरह हमने न मुगलों से समझौता किया न अंग्रेजों से सौदेबाजी की। और न शहर में बख्शीस में हवेलियां/कटरे/मंदिरों के नाम पर बड़े-बडे़ भूखंड स्वीकार किये। समूचे शहर में उनके बड़े-बड़े भवन, पक्के मकान और हाशिये पर हमारे घर। किसने ऐसी संरचना की होगी आखिर शहर को कौन बांट गया शहर की बस्तियों/गलियों/ मोहल्लों/ कटरों को जातियों के खानों में। हमारे माथे पर हमारी जातियों के नाम भी खुदते गये। जख्म दर जख्म जिनकी टीस हम झेलते रहे। सवाल हमारे लिए सलीब बने, उत्तर कहीं से न मिले।’(पृ.-15, भाग-2)सही है कि दलित कभी शोषक श्रेणी के साथ नहीं रहे, लेकिन यह भी सही है कि सभी सवर्ण न तो शोषक रहे हैं और न ही सभी को शहर के बीच में हवेलियां मिलीं और न ही जमीनें मिलीं, बल्कि बहुत से सवर्णों की हालत भी दलितों से बेहतर नहीं है। सामन्ती शासन में केवल उन्हीं के ठाठ होते थे जो कि शासकों के वफादार होते थे और उन्हीं पर राजाओं की कृपा दृष्टि होती थी जो उसकी लूट और शोषण को स्वीकृति देते थे। यह सर्वविदित है कि वे बहुत ही कम होते थे। अधिकांश लोग तो प्रजा का ही हिस्सा होते थे। शोषकों-शासकों की संख्या हमेशा ही कम रही है क्योंकि यह संभव नहीं है कि कुछ लोगों की मेहनत का शोषण करके अधिकांश ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जी सकें। इसके विपरीत अधिकांश की मेहनत का शोषण करके कुछ लोग ऐश्वर्य-विलास का जीवन जी सकते हैं। इन कुछ’ के सामने यह हमेशा समस्या रही है कि वे कौन सा तरीका अपनाए कि उनके ऐश्वर्यपूर्ण जीवन में कोई विघ्न न आए। इसके लिए एक तो लोगों को न केवल बांटकर रखा, बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ भी करके रखा। दूसरे, लोगों में चेतना व जागरूकता न आए इसके लिए एक मिथ्या चेतना फैलाने के लगातार प्रयास किए। इस कार्य के लिए ब्राह्मणवाद ने वर्ण-व्यवस्था व पितृसत्ता को ईजाद किया।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा का भारतीय समाज व्यवस्था पर गहरा प्रभाव है। मानव समाज जातियों में बंटा हुआ है। इन जातियों में ऊंच-नीच मौजूद है। एक जाति को दूसरी से नीचा माना जाता है, तो दूसरी को तीसरी से नीचा माना जाता है। ब्राह्मणवादी-व्यवस्था व विचारधारा का केन्द्रीय तत्त्व है जाति-व्यवस्था। जाति के आधार पर समाज में तीखा विभाजन करके ही यह अपना अस्तित्व कायम रख सकी है। इसलिए इसकी कोशिश रहती है कि समाज में व्यक्ति की अन्य पहचानों को पीछे करके जाति की पहचान को आगे करती है, जबकि एक ही समय में व्यक्ति की एक से अधिक पहचान होती हैं जैसे पेशे के आधार पर व्यक्ति की पहचान कर्मचारी, किसान, मजदूर, व्यापारी के रूप में भी होती है। जाति की पहचान को छोड़कर यदि व्यक्ति अपनी पहचान पेशे के आधार पर करने लगे तो समाज में वर्ग-चेतना का प्रसार होगा और ब्राह्मणवादी विचारधारा इस बात को अच्छी तरह जानती है कि समाज यदि वर्ग के आधार पर संगठित होने लगा तो सामाजिक शोषण आसान नहीं रहेगा। जातीय पहचान के माध्यम से ही ब्राह्मणवाद लोगों के जीवन का अंग बना रहा है। शोषणकारी शासन-सत्ताएं जनता को विभाजित करके ही शासन कर सकती हैं और जाति ने भारतीय समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर रखा है, इसलिए चाहे यहां मुगलों का शासन रहा हो या फिर अंग्रेजों का सब ने जाति-प्रथा को समर्थन दिया। जाति लोगों की चेतना का हमेशा हिस्सा रहे इसके लिए गली-मुहल्लों तक के नाम भी जाति के आधार पर रखे गए हैं। इसका सबसे अधिक नुक्सान होता है निम्न कही जाने वाली जातियों को, जिनमें अपने निवास का पता बताते हुए ही एक सामाजिक अपमान का बोध पैदा होने लगता है।
मेरठ में मराठे आये और मुगल भी। फिरंगी अपनी भाषा तथा संस्कृति का समूचा लश्कर लेकर आये। जाति और वर्गों के खाने में पहले से ही बस्तियां बंटी थीं। हर आने वाले हमलावर दस्ते ने उन्हें अलग-अलग नाम दिए। बस्तियों के चप्पे-चप्पे पर जातिगत नामों की छाप थी। कुछ बस्तियां वाड़ों और पाड़ों के नाम से जानी गयीं - जत्तीवाड़ा, पौड़ीवाड़ा, जटवाड़ा, छीपीवाड़ा, खटीकवाड़ा, ठटेरवाड़ा, बनियावाड़ा आदि आदि। गलियों पर भी कहीं कहीं वैसी ही छाप रही। नील की गली, पत्ते वाली गली, रोहतगी गली, सुनार गली, कसाइयों वाली गली। मेरे शहर के भीतर बने पुल तथा पुलियों पर भी जातियों की पहचान थी। लोद्धों वाला पुल, सैनी पुल, कसाइयों की पुलिया, धीवरों का पुल...। इससे अलग बेगम पुल, भुमिया का पुल तथा खूनी पुल भी था। शहर में गेट और दरवाजे भी थे। चमार गेट, दिल्ली गेट, शोहराब गेट, बुढ़ाना गेट और सराय भी जैसे बनी सराय।
हर जाति और वर्ग के लोग अपनी-अपनी पहचान में सिमटे हुए। शहर धड़कता था, पर अलग-अलग स्वर में। बस्तियां थिरकती-नाचती थी अलग-अलग बोलियों में। उन सबसे मिलकर बना था यह शहर।’(पृ.-12)जाति को व्यक्ति की मुख्य पहचान बनाने से निम्न कही जाने वाली जातियां तो उच्च जातियों की घृणा का शिकार होती ही हैं जो उनमें हीन भावना पैदा करती है परन्तु ऊंची कही जाने वाली जातियां भी श्रेष्ठता व दंभ का शिकार हो जाती हैं। व्यक्ति की योग्यता व समस्त प्रतिभा पीछे पड़ जाती है और जाति मुख्य हो जाती है। जबकि यह भी सच है कि किसी व्यक्ति की इच्छा से उसकी जाति तय नहीं होती। समाज में व्यक्ति की हैसियत और दर्जा जाति से ही तय हो जाता है। सबसे पहले व्यक्ति की जाति के बारे में जानने की जिज्ञासा समाज में रहती है और यही तय कर देता है कि संवाद होगा या नहीं। जब सवर्ण को पता चल जाता है कि जिस व्यक्ति से वह संवाद कर रहा है वह निम्न श्रेणी का है तो वह संवाद ही नहीं करता। इस मामले में वह किसी किस्म का खतरा उठाना नहीं चाहता इसलिए वह पहले ही जाति पूछ लेना चाहता है। लेखक का परिवार व मौहल्ले के लोग बैलगाड़ी पर मेले में जा रहे हैं तो पास से गुजरने वाली एक अन्य गाड़ी के लोग लेखक की गाड़ीवालों से सबसे पहले उनकी जाति के बारे में पूछता है उसका एक सवाल सामाजिक संरचना को और उसमें व्याप्त दलितों के प्रति घृणा को उजागर कर देता है।
कुछ दूरी पर दो बैल-गाड़ियां और मिलीं। गाड़ीवान ने केवल दो सवाल तड़ से कर दिए थे। कहां से आरे हो?’ हममें से इतने उसका जवाब कोई देता, दूसरा सवाल साथ-साथ कर दिया था - कौन जात हो?’
आगे पूरन की गाड़ी खड़ी थी। वह कुछ देर चुप रहा। बा ने झटाक से उत्तर दे दिया था - चमार दरवज्जे से!’
बा का जवाब सुनते ही गाड़ीवान ने तिक-तिक-तिक करते हुए गाड़ी आगे बढा ली थी। जैसे उससे हमारी गाड़ी छू न जाए।’ (पृ.-63)
सवर्ण जाति की दलितों के प्रति घृणा दो तरह से प्रकट होती है या तो वे बिना किसी संवाद के नकार कर चले जाते हैं या फिर उनके लिए गालियां उनके मुंह से फूटने लगती हैं। इस अपमान से बचने के लिए दलित अपनी जाति को छुपाने की कोशिश करते हैं।
अपने मामा की बारात में जाते हुए लेखक के नाना से रास्ते में लोग जब पूछते कौन जात हो?’ तो वे अपनी जाति न बताकर कभी जाट बता देते तो कभी सैनी बता देते। ऐसा करने का रहस्य नाना ने बाद में बतलाया था - रास्ते में कोई भी जात बतलाओ, पर अपनी जात बिल्कुल नहीं। हमारी जात का तो नाम सुनकर लोग आग बबुला हो जाते थे ।’ (पृ.-23,भाग-2)
दलितों को गालियां देने के लिए किसी कारण या कसूर की जरूरत नहीं है, इसके लिए उनका दलित होना ही काफी है। सवर्ण समाज में दलितों के प्रति जमी सदियों की नफरत व तिरस्कार एकदम उजागर हो जाती है, इसको सवर्ण समाज दबाने या छुपाने की कोशिश नहीं करता बल्कि बड़े अधिकारपूर्वक इसको व्यक्त करता है क्योंकि दलितों को नीचा दिखाने में वह अपनी शान व सम्मान महसूस करता है।
हिन्दू समाज में आदमी की कीमत उसकी जात से ही आंकी जाती थी। हमें विशेष तौर पर चमार-चूड़े के नाम से संबोधित किया जाता था। पर उनके संबोधन के तौर तरीके और भी घृणास्पद हुआ करते थे। उनके द्वारा कहे गए एक-एक शब्द हमारे शरीर को छीलते थे। बीच-बीच में वे गालियां भी देते थे। हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की अमानवीय परंपरा से जुड़ी अजीबो गरीब अश्लील गालियां। जिन्हें हमें सुनना ही पड़ता।’ (पृ.- 22, भाग-2)
अस्पृश्यता ब्राह्मणवादी विचारधारा का सबसे घृणित आविष्कार है। सदियों से समाज में इसके व्यवहार और ब्राह्मणवादी ग्रन्थों द्वारा इसको वैधता प्रदान करने के कारण इसमें छुपी अमानवीयता का अहसास ही नहीं होता कि वे कितना घृणित कार्य कर रहे हैं। जोतिबा फूले और आंबेडकर ने इसके विरुद्ध संघर्ष किया, लेकिन सवर्ण समाज सुधारकों की ओर से इस मामले में बहुत कम पहलकदमियां हुई जिस कारण इस समाज ने इसे सामाजिक बुराई के तौर पर पहचाना ही नहीं और दलितों के प्रति वे ऐसा व्यवहार करते रहे कि प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाने में उनकी जाति आड़े आ जाती है,एक ही रास्तों पर चलने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है। लेखक का अनुभव रोंगटे खडे़ कर देने वाला है, जब लेखक अपने बड़े भाई के साथ बहन को लिवा लाने के लिए जाता है तो उसको प्यास लग जाती है,वे एक सवर्ण के घर के आगे पानी पीने की आशा में रूकते हैं।
प्यास से मेरा दम ही निकले जा रहा था। वे दोनों ही हमारी तरफ गौर से देखे जा रहे थे। पानी तक न पूछा था उन्होंनें हमसे। मेरा प्यासा मन पानी पानी चिल्ला रहा था। थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने पूछा -कित गांव जाओगे?’
निठारी गांव’ भइया ने उत्तर दिया था।
किसके हिंया’ अब दूसरे ने सवाल किया था।
सुजान के हिंया’ भइया ने कहा।
उनमें से एक ने पूछा - जो चमार है?’
हां’,भइया के मुंह से निकला था।
अचानक दोनों के तेवर बदल गये थे।
तो म्हारे घर के अग्गे कियों खड़े हो? जाओ सिद्धे-सिद्धे, आगे चमारों के घर पड़ेंगें पैले।’ वे सांप की तरह पफुंफकारे थे।
हमें पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है’ भइया के स्वर में गिड़गिड़ाहट के भाव थे।
म्हारे घर चमारों की खात्तर पानी ना है।’ उन्होंनें इनकार कर दिया था।
अग्गे झोड़ है, वईं मिल जागा पानी-वानी तमै।’ हमारी तरफ हिकारत से देखते हुए कहा था उन्होंने।
मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था । पानी पीकर हम पांच मील भी आगे चल सकते थे। पर प्यासे गले से तो पांच कदम भी आगे न बढा जा रहा था। उन दोनों ने पानी से मना कर हमारी आधी जान ले ली थी। कितनी आस से हम रुके थे उनके घर के आगे। हम वहां प्यासे ही रुके थे और प्यासे ही आगे बढ गए थे।’ (पृ.-68)
लेखक को जोहड़ का गंदा और बदबू भरा पानी पीना पड़ा, जिसको कि जानवर भी मजबूरी में ही पीते हैं। ऐसा व्यवहार करते हुए सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति जरा भी असहज महसूस नहीं करते। उनकी सामान्य चेतना में दलितों के प्रति घृणा इतनी गहरे पैठी है कि वे बिल्कुल स्वाभाविक ढंग से ऐसा व्यवहार करते जाते हैं, अपनी सोच में उनको कोई खोट ही नजर नही आता। दलितों से व्यवहार करते हुए उनकी इन्सानी दृष्टि, मानवीय करूणा, सहानुभूति सब समाप्त हो जाती है। दलितों की हैसियत सवर्ण की नजरों में पशु से अधिक नहीं है इसलिए वह उसको पशुओं जैसी जीवन स्थितियों में रखना चाहता है। वह ऐसा व्यवहार अपमान व ठेस पहुंचाने के लिए बहुत सचेत स्तर पर नहीं करता, बल्कि उसके व्यक्तित्व व सोच का अभिन्न हिस्सा बन गया है। होमगार्डस शिविर के दौरान का अनुभव इसी ओर संकेत करता है।
शिविर में पहले ही दिन एक घटना हो गई। हम दो-तीन साथी रसोई में चले गए। और वहां क्या बना था, कैसा बना था, इसकी जांच-पड़ताल करने लगे। बनी हुई सब्जी के बडे़-बड़े बर्तन रखे थे। दो आदमी रोटियां बेल रहे थे और एक आदमी चुल्हे पर वहीं रोटियां सेंक रहा था। मैने एक टब को उघाड़कर जैसे ही भीतर रखी सब्जी देखनी चाही रसोइये ने इसका एतराज उठाते हुए गुस्से में कह दिया, न जाने तुम लोग कहां से आए हो, कौन हो। सब्जी का बर्तन ही छू दिया।’ हमें भी गुस्सा आ गया। मिने लगभग चिल्लाते हुए कहा,हम चमार हैं और इसी शहर से ही आए हैं।’
तब तो और भी गड़बड़ हो गया।’ रसोइया उफनते हुय बोला।
क्या गड़बड़ हो गया?’ हमने भी उफनते हुए पूछा।
यही कि सब्जी खराब हो गयी।’ वह तत्काल बोला।
कैसे खराब हो गयी?’ हमारे स्वर गर्म थे।
राम, राम, राम --- ,सब भरस्ट हो गया। हमें क्या मालूम था कि...।’ (पृ.-56, भाग-2)
अस्पृश्यता ने दलितों को तमाम मानवीय और प्राकृतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। असल में यह शोषण का माध्यम रही है, चूंकि सामाजिक रूप से कमजोर व्यक्ति और वर्ग का शोषण आसानी से किया जा सकता है और उसके विरोध को भी आसानी से दबाया जा सकता है। सामाजिक हैसियत और आर्थिक शोषण का बहुत ही गहरा रिश्ता है। बेगार की तमाम प्रथाएं सामाजिक दृष्टि से निम्न माने जाने वालों के ही हिस्से में आई हैं। सामन्ती-व्यवस्था में शोषण इस हद तक होता है कि व्यक्ति का अपने शरीर तक पर भी अधिकार नहीं रहता। काम के मामले में व्यक्ति की पसन्द-नापसन्द व इच्छा-अनिच्छा तो कोई मायने ही नहीं रखती। इस शोषण के लिए उनको मानसिक रूप से तैयार करने के लिए ब्राह्मणवादी विचारधारा का सहारा लिया गया। अधिकतर वही जातियां अस्पृश्य हैं जो दस्तकार हैं या फिर श्रमिक हैं, जिनका कि उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व नही है। इस शोषण को वैध ठहराने के लिए ही ब्राह्मणवाद के समाज चिंतक व संहिता लेखक मनु ने शूद्रों-श्रमिकों को संपति, ज्ञान व शस्त्रों से वंचित करके मात्र उच्च वर्णों की सेवा का अधिकार दिया और इसको धर्म का रूप दिया। शोषक वर्गों को अधिकार दिया कि वे कथित शूद्रों से जबरदस्ती काम करवाएं। ब्राह्मणवाद की इसी पद्धति से समाज का कार्य-व्यापार चलता रहा है।
हमारी जात के मर्द-औरतों को चैबीस घन्टे उनकी सेवा करने को तत्पर रहना पड़ता था। दिन का कोई समय हो, रात कितनी भी गहरी हो गई हो। सवर्णों का मूलमंत्र भी तो यही था। दलितों की पुरानी पीढी के साथ नई पीढी को गुलाम बनाकर रखना। हमारा काम था सेवा करना। हम सेवादार थे और वे हमारे मालिक। उनके हाथ में हंटर होते, चाकू होते, लाठी-बल्लम होते। वे इनके साथ धर्म, भाग्य और भगवान के हथियार भी इस्तेमाल करते। यही तो हमारा भाग्य है। ऐसा हमें बार-बार याद दिलाया जाता।’(पृ.-11,भाग-2)
शोषण को बनाए रखने के लिए एक तरफ तो बल का प्रयोग किया जाता है, दूसरी तरफ धर्म, भाग्यवाद का सहारा लिया जाता है। कर्म-सिद्धांत के आविष्कार का यही कारण रहा है कि एक तरफ तो यह समझाया जाता है कि व्यक्ति की जैसी स्थिति है वह किसी और के कारण नहीं बल्कि उसके अपने कर्मों का ही फल है, दूसरी और यह भी समझाया जाता है कि यदि वह कर्म’ में लीन रहे तो अपनी स्थिति को सुधर भी सकता है। इसी तरह के हथकण्डे अपनाकर ही दलितों की चेतना को नियंत्रित करने का काम किया जाता है। वह अपनी स्थिति के वास्तविक कारणों को जान ही नहीं पाते, बल्कि शोषण को भी बिना किसी विरोध के सहन करते जाते हैं, और अपनी हालत को सुधारने’ के लिए ज्यादा काम करते हैं और फलस्वरूप ज्यादा शोषण का शिकार होते हैं। अपने शोषण करने वालों को ही अपना अन्नदाता, रक्षक, हितैषी मान लेते हैं।
पूंजीवादी शोषण ने दलित जीवन को गरीबी की दलदल में डाल दिया है और सामाजिक शोषण के साथ मिलकर यह उसे बदतर बना देता है। पूजीवादी-व्यवस्था में पूंजी को प्रधानता दी जाती है न कि श्रम को, और दलित श्रमिक हैं न कि पूंजी के मालिक। श्रमिकों का शोषण करने के लिए पूंजी तरह तरह के खेल करती है। उनके काम में तरह-तरह के मीन-मेख निकालती है, श्रमिकों-कारीगरों के काम को वह कम करके आंकती है और श्रमिकों की सामाजिक हैसियत व कमजोर माली हालत उसके सौदेबाजी की क्षमता को कम करती है। पूंजीपति श्रमिकों का श्रम अपनी शर्तों पर खरीदते-बेचते हैं। पूंजीवाद की विशेषता है मार्किट। मार्किट पर पूंजी की प्रधानता के कारण श्रमिकों-कारीगरों के श्रम का मूल्य भी व्यापारी ही तय करता है।
दुकानदारों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। वे टोकरे में से चप्पल निकाल-निकालकर देखते। उनमें ढूंढकर नुक्स निकालते। ऐसे समय पर हमें बहुत बुरा लगता। इतनी मेहनत से बा चप्पल बनाता था। फिर भी वे उसमें कोई न कोई कमी निकाल ही देते थे। असल में कमियां निकालने का कारण भी होता था। चप्पलों में दो चार कमियां निकालकर वे दाम कम कर देते थे। एक बार घर से टोकरा भरकर माल ले गए थे तो उसे वापस न लाते थे। भले ही कम पैसे मिलें। जैसे तैसे भाव पर माल बेच दिया जाता था।’(पृ.80)
इस शोषण से बचने का कोई उपाय श्रमिक के पास नहीं है, कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि वह अपने माल का उचित दाम पा सके ।
शोषण के कारण चौबीस घण्टे काम करने के बाद भी मेहनती व्यक्ति कंगाली की हद तक पहुंच जाता है और दूसरी तरफ उसकी मेहनत का शोषण करने वालों की साल-दर-साल संपति-पूंजी में वृद्धि होती जाती है व साधनों, बाजार व पूंजी पर उसका एकाधिकार बढता जाता है।
दलित जाति के दस्तकार बड़ी लगन और मेहनत से फैंसी (सजावट वाली) चप्पल/सैंडिल बनाया करते थे। बाजार में इनकी खूब मांग थी। इन्हीं को बेच-बेचकर न जाने कितने लाला/बनिए करोड़पति बन गए थे। पर दस्तकारों में उस समय लखपति भी कोई नहीं बन सका था। इन दस्तकारों को फी एक जोड़ी चप्पल पर एक रूपया ही मिलता था, सैंडिल पर डेढ़ या दो रूपये मिल जाते थे। जबकि दुकानदार इन्हीं पर पांच-दस रूपये कमाते थे। रोज शाम होते-होते टोकरे भर भर करोलबाग के बाजार में ये दस्तकार ले जाते थे। पर दुकानदार इन्हें कभी भी पूरे पैसे नहीं देते थे। वे थोड़े पैसे देकर पर्ची थमा देते थे। उस पर्ची को दिखलाकर ये दुकान से चमड़ा आदि खरीदते थे। ये दुकानें भी किसी लाला/किसी बनिए/या किसी पंजाबी की हुआ करती थीं। वे उस पर्ची को देखकर अधिक दामों पर सामान दिया करते थे। इस तरह दलित की हर जगह कटौती होती थी। उसके द्वारा बनाए माल पर कम मुनाफा मिलता था दूसरे राॅ मैटेरियल के दाम उसे अधिक देने पड़ते थे। उसे खटना ही पड़ता था। अधिकांश दलित शराब के नशे में अपने पास की जमा पूंजी गंवाते थे। पैसा जब पास नहीं होता तब उन्हीं दुकानदारों के सामने हाथ फैलाते थे। जो उनका भरपूर शोषण करते थे।’(पृ.-60, भाग-2)
पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिको-दस्तकारों का दोनों तरफ से शोषण किया जाता है उसका श्रम खरीदते समय भी और उसको कच्चा माल बेचते समय भी।
मोहनदास नैमिशराय ने दलित-श्रमिक व कारीगर के शोषण का बिल्कुल सही वर्णन किया है, लेकिन उनकी दृष्टि इसको पूंजीवादी-शोषण के रूप में न पहचान कर जातीय रंग देती है। जैसे उनके अनुभव ही बताते हैं कि दुकानदार चाहे हिन्दू हो या मुसलमान वह श्रमिकों से एक ही तरह से पेश आता है और इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि यदि दुकानदार दलित भी हो तो वह भी श्रमिकों-कारीगरों से उसी तरह ही पेश आयेगा जिस तरह लेखक ने सवर्ण लाला को दर्शाया है। व्यापारी की कोई जाति नहीं होती, उसकी एक ही जाति है अधिकतम मुनाफा। वह किसी की जाति देखकर अपना मुनाफा नहीं छोड़ता। किसी सेठ या पूंजीपति को केवल जाति बनिया/पंजाबी तक सीमित कर देना व्यवस्था के शोषणकारी रूप को सीमित कर देना है। पूंजीवादी व्यवस्था की प्रकृति है श्रम का अधिक से अधिक शोषण करके पूंजी को अधिक से अधिक लाभ देना, इसीलिए तो श्रमिक को फी जोड़ी डेढ या दो रूपए मिलते हैं और व्यापारी को फी जोड़ी पांच-दस रूपए। इस व्यवस्था में यदि कोई दलित जाति से संबंध रखने वाला व्यापारी भी हो तो वह भी उसी तरह चांदी कूटते हैं जैसे कि सवर्ण। यदि जाति देखकर शोषण में कुछ छूट होती तो एक सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाला अपनी ही जाति का शोषण न करता, इस मामले में यह व्यवस्था सबसे समान रूप से पेश आती है। दलित-श्रमिक-कारीगर की तरह ही किसान का भी शोषण इस हद तक होता है कि अपने खेतों में इतना अनाज पैदा करने के बाद भी उसको साल के आखिरी दिनों में अपना पेट भरने के लिए तथा खेतों में बोने के लिए उन्हीं व्यापारियों से मंहगें दामों में अनाज खरीदना पड़ता है, जिन्होंने किसान से बहुत कम कीमत पर ही खरीदा था। मण्डी के व्यापारी-आढती के ऐश्वर्य-विलास में जितनी वृद्धि होती जाती है, किसान के कर्जे में भी उतनी ही वृद्धि होती जाती है। किसान के कर्जे और शोषक व्यापारी के ठाठ बढाने में भी उसी तरह की पर्ची’ की भूमिका है जो श्रमिक को कंगाल बनाती है। आढती भी किसान को उसकी फसल के नकद दाम देने के बजाए पर्ची थमा देता है। खेती के लिए जरूरत का सामान बीज, खाद, तेल, दवाई आदि सब पर्ची के माध्यम से ही खरीद पाता है। इस पर्ची ने किसान को बंधुआ क्रेता और बंधुआ विक्रेता बना दिया है। पर्ची के माध्यम से आढती उसका फाईनेंसर है इसलिए वह अपना उत्पाद भी बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं है और उसको अपने उत्पाद का सही मूल्य भी उसे नहीं मिलता। उसके हाथ में न तो खरीदते वक्त मोल भाव करने की शक्ति रहती है और न ही गुणवत्ता के आधार पर अस्वीकार करने की। उसे घटिया सामान भी उफंचे दाम पर मिलता है। पूंजीवादी-सामन्ती शोषण की दोहरी मार ने अन्नदाता कहलाने वाले किसान को पैसे-पैसे का मोहताज बना दिया है। पूंजीवादी शोषण ने मेहनतकश लोगों का जीवन इस तरह अभावग्रस्त बना दिया है कि जिस बस्ती में घर घर चप्पलें बनती थी लेकिन मेरे पांव में बरसों तक ढंग की कोई चप्पल नहीं आई।’(पृ.-77) पूंजीवादी व्यवस्था में सारा उत्पादन बाजार के लिए होता है और बाजार में अपनी हैसियत को सुधारने के लिए श्रमिक अपना सर्वोत्तम बाजार में पहुंचाता है। उसके अवचेतन का ही हिस्सा बन गया है कि वह अपना बढिया उत्पाद तो मण्डी में लेकर जाता है। अपने उपभोग के लिए रखता भी है तो बचा-खुचा व ऐसा जिसकी कीमत बाजार में कम है। किसान भी अपना बढिया-से-बढिया माल मण्डी में लेकर जाता है और बचा हुआ अपने परिवार के काम के लिए। समस्त मेहनतकश के प्रति इस व्यवस्था का यही रवैया है, कारीगर जो आलीशान बंगले बनाते है वे बहुत गंदे घरों में रहते हैं, जुलाहे हर मौसम के लिए रंग-बिरंगे व डिजाइनदार वस्त्र बनाते है, लेकिन उनके व उनके परिवार को बदन ढकने के लिए कपड़ा नसीब नहीं होता, जो गांव-शहर की सफाई करता है उसे रहने के लिए साफ-सुथरी जगह नहीं मिलती। सभी मेहनत करने वाले लोगों की हालत लगभग एक जैसी है चाहे वह किसी भी जाति से या धर्म से क्यों न संबंध रखता हो, पूंजीवादी शोषण की चक्की में सब श्रमिक बराबर पिसते हैं। लेकिन यह बात भी सही है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर होने के कारण दलितों का शोषण करना ज्यादा आसान है, बेगार आदि के माध्यम से इस वर्ग का शोषण को वैधता सी मिली है। दलितों को न चाहते हुए भी यह स्वीकार करनी पड़ती है। आर्थिक अभाव के कारण समय पर मकान का किराया नहीं दे पाते तो जिस नबाब के किराएदार हैं वह अपने जुते चप्पल मुरम्मत करवाता है, लेकिन वह इसके बदले में मजदूरी नहीं देता।
पर नवाब साहब चप्पल मरम्मत का पैसा न देता था। ऐसा ही होता था। वह बेगार थी, पर हमारी जात के लोगों की मजबूरी थी। बेगार न करें तो जिन्दगी मुसीबतों, मुश्किलों से घिर जाती थीं। एक-एक कर अड़चनें आती थीं। जिनका सामना करना हमारी जात के लोगों के बस का नहीं था। हमारा बोझ दोहरा था। एक गरीबी का और दूसरा जात-पात का।’(पृ.-40)
पूंजीवादी शोषण ने समस्त श्रमिक वर्ग को कर्ज के बोझ से दबा लिया है। श्रम के दाम पूरे न मिल पाने के कारण परिवारों का गुजारा ही ढंग से नहीं होता, लेकिन प्राकृतिक संकट से उबरने के लिए लिया गया कर्ज तो तमाम पारिवारिक ढांचे को ही समाप्त कर देता है। लेखक की पूरी बस्ती ही काशो नाम के साहूकार के कर्ज के तले दबी है। बरसात के कारण मोहनदास का मकान गिर जाता है उसकी मुरम्मत करवाने के लिए लेखक का परिवार काशो से पांच हजार रूपए कर्ज ले लेता है लेकिन उस कर्ज को वापस नहीं कर पाते तो घर में कलह व तनाव शुरू होता है और पारिवारिक जीवन से सारी खुशियां छीन लेता है।
आर्थिक रूप से जितना हम उबरने के लिए प्रयास करते उतना ही गरीबी की दलदल में और धंसते जा रहे थे। आजकल बा, पिता और चाचा में वैसे भी पटती न थी। जरा-जरा सी बात पर वे बिदकते थे। पांच हजार रूपया उन्होंने मिलकर कर्ज तो लिया था, लेकिन कर्ज को उतारने के नाम पर एक न थे। फलस्वरूप कर्ज पर ब्याज बढ़ता ही जा रहा था। और जैसे-जैसे ब्याज बढता था फिर उस पर चक्रवर्ती ब्याज भी लगने लगा था। ब्याज-पर-ब्याज, जैसे लकड़ी को दीमक चाटती लगती है वैसे ही बा को कर्ज पर ब्याज की चिंता रात दिन सताने लगी थी। बा का शरीर चिंता का गठरी बन गया था। वह अपने - आपमें सिमटने लगा था। चिचिड़ाहट बढ गई थी। ... मां से अक्सर झगड़ा हो जाता। दोनों एक दूसरे को बुरा-भला कहते। मैं, भइया चुपचाप सुनते। जिस दिन झगड़ा होता उस दिन रोटी देर से बनती।’ (पृ.-94)
पूंजीवादी शोषण का सबसे भद्दा चेहरा है कर्ज, जिसके कारण देश भर में हजारों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। शोषण और मानव-अस्तित्व एक दूसरे के आमने-सामने खडे़ हैं जहां या तो जीवन रहेगा या फिर कर्ज। मजबूर श्रमिक व किसान का कर्ज को उतारने पर तो कोई वश नहीं चलता, लेकिन वह अपना जीवन समाप्त कर लेता है। साम्राज्यवादी, पूंजीवादी व सामन्ती-शोषण मजदूरों-किसानों के जीवन से सारा रस सोखकर गरीबी-दरिद्रता की गर्त में धकेल रहा है।
सामाजिक सम्मान व मानवीय गरिमा के संघर्ष को दरिद्रता को दूर करने वाले संघर्ष के साथ जोड़ने से ही सामाजिक व आर्थिक रूप से शोषितों, पीड़ितों, वंचितों का बड़ा मोर्चा बनाया जा सकता है। विभिन्न वर्गों में एकता के सूत्र खोजना व संगठित संघर्ष करने से ही कोई मूल बदलाव संभव है। इसके विपरीत जनता की एकता को तोड़कर जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के संकीर्ण आधार पर उनको संगठित करने वाले नेता व राजनीतिक दल दलित-श्रमिक मुक्ति के शत्रु हैं। व्यापक जन-आन्दोलन के लिए विभिन्न वर्गों की भागीदारी व सभी वर्गों के विकास के अवसर देने वाले व शोषण से मुक्ति की आंकाक्षाओं को अभिव्यक्ति देने वाले व्यापक परिप्रेक्ष्य की जरूरत है, जो जातिविहीन व शोषण रहित व्यवस्था की स्थापना के संकल्प में ही संभव है।
दुर्भाग्य की बात तो यह है कि ब्राह्मणवाद का कोढ जाति-प्रथा दलितों में भी इस तरह अपनी जड़ जमाए है कि अन्य वर्गों के साथ साझा संघर्ष तो दूर की बात है दलितों को भी यह विभाजित करती है। जो जातियां स्वयं उच्च-वर्ण की घृणा का शिकार हैं वे स्वयं अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के प्रति घृणा करती हैं।
दलितों में ही जाटव और वाल्मीकि जातियों के बीच संवाद का अभाव तो था साथ ही आपस में घृणा और तनाव का वातावरण भी रहता था। कभी-कभी तो मारपीट भी हो जाती थी। ...
हमारी जात के घरों में भी सफाई करने वाली/सफाई करने वाली आती थीं, जिन्हें अन्य की तरह हम भी अबे ओ भंगी के, अरी ओ भंगन ... आदि नामों से पुकारने में अपना बड़प्पन समझते थे। उन्हें बात-बात पर गालियां भी देते थे। हमारे घरों में जब किसी की मृत्यु हो जाती तो मृतक के अन्य कपड़े, सामान आदि उन्हें दिए जाते थे। शादी विवाहों के अवसरों पर उनकी स्थिति दीनहीनता से भरपूर और भी विचित्र बन जाती थी। जब सभी लोगों का भोजन समाप्त हो जाता था तब तक टोकरा, सिलवर की परात, गिलास आदि लिए वे भिखमंगे की तरह इंतजार करते थे। बीच में उनकी औरतें चिरौरी करतीं और हमें सेठ जी, चौधरी, माइ-बाप, हजूर आदि आदि नामों से अंलकृत करतीं। दूसरी तरफ मर्द उन्हें डांटे-फटकारे बिना न रहते। कभी-कभी गालियां भी दे देते। वे विवश, भूखे पेट लिए घर बैठे बच्चों को जल्द-से-जल्द जूठन खिलाने के लिए सब कुछ सहन करतीं। ...उस समय तक हमारी जात के विवाह आदि में कोई भी वाल्मीकि समाज का व्यक्ति पंगत में हमारे साथ बैठने की हिम्मत नहीं कर करता था। और न ही हमारे बीच से ही कोई उन्हें बुलाने का साहस करता था। दलित जातियों में भी परस्पर समरसता का अभाव था। एक-दूसरे के प्रति घृणा तथा ईर्ष्या अधिक थी।’(पृ.-67, भाग-2)
दलित जातियों में समानता का न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है असल में असमानता व्यवस्था का चरित्र है, जो जातियों की ऊंच-नीच में वह प्रकट होता है और अपने से नीचे मानी जाने वाली जाति के प्रति तिरस्कार इसका अनिवार्य पहलू है। यह व्यवस्था टिकी ही इसके सहारे पर है यदि विभिन्न स्तरों पर भेदभाव न होता तो यह एक दिन भी न टिक पाती। असल में तो यह श्रमिक वर्ग के विभाजन का ढंग है इसलिए श्रमिकों में जाति की जडें ज्यादा गहरी हैं। उच्च वर्ग में तो जाति के बावजूद एकता नजर भी आ जाती है। शायद ही कोई जाति ऐसी होगी जो उच्चता के क्रम में कुछ जातियों को नीचा न समझती होगी।
जातियों-उपजातियों में बंटे दलित समाज को जातिवाद की जकड़ से निकालना व जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष में शामिल करने से ही दलित-आन्दोलन कुछ सकारात्मक कर सकता है, लेकिन विडम्बनापूर्ण है कि स्वयं दलित-नेतृत्व जाति के आधार पर लोगों को एकत्रित करके उनमें फूट पैदा कर रहा है और ब्राह्मणवाद को वैधता प्रदान कर रहा है। जातियों के आधार पर पनपा दलित-नेतृत्व आपस में लड़ने व एक दूसरे को गरियाने में व्यस्त है। शासक वर्ग की अन्य पार्टियां राजनीतिक चेतना व जागरूकता पैदा किए बिना लोगों की भीड़ एकत्रित करके उसको वोट-बैंक में तब्दील करने पर लगी हैं उसी कार्य प्रणाली का शिकार दलित नेतृत्व भी है। बिना सामाजिक सुधार के एजेंडे के राजनीतिक-आन्दोलन इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। सिर्फ वोट के लिए लोगों को इकठ्ठा करना ही राजनीति मान लिया गया है न कि राजनीति के माध्यम से समाज-परिवर्तन को। अधिकांश दलित नेताओं को तो जाति की इन रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। सच यह भी है कि रेखांए रहेंगी तो उनकी राजनीति चलेगी, वरना फिर उन्हें कौन पूछेगा। इसलिए वैसे नेता समाज से जाति भेद के खत्म होने की बात नहीं सोचते। इसके विपरीत वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वे रेखांए उभरें इस बारे में वे प्रयास करेंगें। जगह-जगह जाकर दलितों के बीच जाति भेद पर भाषण देंगें। हमें कम मिला उन्हें ज्यादा क्यों मिला, इस पर तूफान खड़ा कर देंगें। जिन जातियों को कम मिला उन्हें बरगलायेंगें तथा अपने भाषणों से मंत्रमुग्ध कर उनकी वोटों से सौदा कर संसद और विधान सभाओं में पहुंचेंगे। यही है उनकी राजनीति।’(पृ.-65,भाग-2)
महज सत्ता प्राप्त करने की राजनीति करने के कारण दलित-नेतृत्व घोर अवसरवाद का शिकार है। राजनीति के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाना मकसद न होकर मात्र सत्ता हासिल करना है इसीलिए न तो घोर ब्राह्मणवादी व मनुवाद को आदर्श मानने वाले राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सत्ता प्राप्त करने में कोई हिचकिचाहट है और न ही अन्यायकारी व उत्पीड़नकारी शक्तियों का साथ देने में कोई संकोच है। दलितों के नाम पर चुनकर आए सांसद व विधायक दलित-उत्पीड़न व दमन के मामलों पर भी मूकदर्शक बने रहते हैं और दलित पक्ष को मजबूत करने के लिए आवाज नहीं उठाते। असल में यह नेतृत्व सामाजिक संघर्ष की उपज नहीं है इसीलिए तो इसके व्यवहार में सामन्ती प्रवृतियां देखने को मिलती हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर की विचारधारा और संघर्ष चेतना को तो इस नेतृत्व ने त्याग दिया है, लेकिन उनका नाम इनके काम का है, इसलिए उसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं। आम्बेडकर द्वारा उठाए गए शोषण के सवाल, भूमि के सवाल, उत्पीड़न के सवाल, दलितों में एकता पैदा करने के सवाल, दलितों में शिक्षा व वैज्ञानिक चेतना प्रसार के सवालों को छोड़कर भावनात्मक सवालों को उठा लिया है जैसे कि मार्गों का नाम व पार्कों का नाम आम्बेडकर के नाम पर रखना, चौंक पर उनकी मूर्ति स्थापित करने को लेकर लोगों को आन्दोलित करना। दलित-आन्दोलन किसी मूल बदलाव के लिए संघर्ष न होकर मात्र पहचान व अस्मिता का व कुछ सुविधांए प्राप्त करने के लिए दबाव की राजनीति तक सिकुड़कर रह गया है। दलित आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में समस्त दलित-समाज के उत्थान की बात न रहकर कुछ दलितों को सत्ता में हिस्सेदारी ही रह गई है और सत्ता के खेल में लिप्त नेता सुविधावाद व भ्रष्टाचार में धंसे है। असल में दलित समाज में भी बहुत कम लोग ऐसे थे जिन्हें दलित अस्मिता तथा आंदोलन की समझ थी। वरना अधिकांश तो बाबा साहेब डा.आम्बेडकर के नाम पर खाते-पीते और मौज-मस्ती करते थे। दलितों के पास भी जैसे-तैसे पैसा आ रहा था वे सुविधाओं से संभोग के पक्षधर थे।’ (पृ.-149, भाग-2) इस मानसिकता के चलते एक ऐसा वर्ग भी उभरा है जिसका दलितों की मुक्ति से तो कुछ लेना नहीं लेकिन इसकी आड़ में अपना उल्लू जरूर सीधा कर रहे हैं।
दलित-आन्दोलन का नेतृत्व मध्यवर्ग का ही शिकार हो गया है। इसके कार्य व मुद्दे तो बदल ही गए हैं आन्दोलन में मध्यवर्ग के सवाल प्रमुखता पा रहे हैं और गरीब लोगों के सवाल पीछे पड़ते जा रहे हैं। दलित-आन्दोलन चन्द शिक्षित लोगों के अधिकारों की तो बात करता है, लेकिन अधिकांश जनता के हितों की परवाह नहीं मानता, इसीलिए वह सरकारी नौकरियों में आरक्षण की तो बात करता है, लेकिन भूमि सुधार या कारखानों में काम करने वाले व खेतीहर-मजदूर, व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश दलितों की ओर से आंख बन्द कर लेता है। दलितों में जो मध्यवर्ग पनपा है उसकी रोजी-रोटी की समस्या तो दूर हो गई है इसलिए वह केवल सम्मान की लड़ाई व स्वीकृति के लिए संघर्ष करना चाहता है। गरीब लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल रोजगार व रोटी का है, जबकि मध्यवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त आन्दोलन मात्र स्वाभिमान के या अस्मिता को मुख्य मानता है।श्रमिक दलित के लिए रोजगार-रोटी व सम्मान के मुद्दे अलग नहीं हैं इसलिए वह इस आन्दोलन का हिस्सा ही नहीं बन पाता। मोहनदास नैमिशराय का अनुभव बताता है कि दलित समाज की वस्तु-स्थिति को समझकर व उनके सही सवालों को उठाने से ही उसमें लोगों की भागीदारी संभव है। ऐसे ही आन्दोलन का जिक्र किया है।
कई बार बस्ती में यह सवाल उठा था कि औरतों का जंगल जाना बंद कर देना चाहिए। उन दिनों मेरठ शहर तथा आसपास के गांवों में सामाजिक सुधार की हवा बहने लगी थी। गांव-गांव में मुर्दारी न खाने पर जोर दिया जा रहा था। हमारी जात के लोग बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे। उनमें उजले कपड़े पहनने की लालसा उगने लगी थी। फिर बदलाव की आंधी से हमारी बस्ती कैसे अछूती रह पाती? वह तो शहर के बीच में थी। पर जंगल जाने वाली औरतें इस बदलाव में न थी। इसलिए कि जंगल उन्हें रोटी देता था। कोल्ड-स्टोरेज से मिली मजदूरी से वे अपने बच्चों का पालन पोषण करती थीं। गोबर के उपले बेचने से उन्हें चन्द पैसे मिलते थे। उनमें से अधिकांश के साथ शोषण द्वारा जिस्म की भूख मिटाने की अकसर घटनाएं रहती थीं। जंगल, खेत, खलिहान, कोल्ड स्टोरेज, बाग, बगीचे, काश्तकारों के बड़े-बड़े मकान इन सबके चश्मदीद मूक गवाह थे।’(पृ.-83)
इससे स्पष्ट है कि जब तक दलित पूर्ण रूप से उच्च वर्ग पर निर्भर हैं तब तक वे शोषण से मुक्त होने के संघर्ष में शामिल नहीं हो सकते। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी को दलित आन्दोलन का मुख्य सवाल बनाकर ही इसे प्रभावी आन्दोलन बनाया जा सकता है।
दलित-आन्दोलन पर मध्यवर्ग के मुद्दे ही हावी नहीं हैं, बल्कि दलित-जीवन को देखने के मामले में भी उसकी नैतिकता व शिष्टाचार की दृष्टि मध्यवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त है। मोहनदास नैमिशराय का दृष्टिकोण भी इस सीमा को नहीं लांघ सका। जब तब इसके दर्शन हो ही जाते हैं। वे दलित जीवन का बड़ा ही यथार्थपरक वर्णन करते हैं, लेकिन जब इस बारे में अपने विचार प्रकट करते हैं तो मध्यवर्ग का संस्कार स्पष्ट हो जाता है।दलित बस्ती से सवर्ण औरतें गुजरती हैं उसके वर्णन करते समय यह सीमा एकदम स्पष्ट हो जाती है।
बस्ती से गुजरते हुए औरतें हमारे घरों के भीतर कंगाली के मानचित्र को देखकर उपहास करतीं। उनकी बातों में जाति सूचक संबोधन होते। बस्ती की औरतें उन्हें देखतीं और वे बस्ती की औरतों को। हमारी बस्ती में गलियां या बक्खल भी थीं। सड़क के दोनों तरफ वैसे अधिकतर पंक्तिवार कच्चे घर थे। वे घर खुले होते थे। जैसे घरों के भीतर-बाहर खुलापन था वैसे ही उन घरों में रहनेवालों के खुलेपन की कोई सीमा न होती थी। एक आदमी किसी एक कोने से किसी को आवाज देता था तो बस्ती के दूसरे कोने पर उसकी आवाज सुनाई देती थी। लोग फुसफुसाकर बातें कम करते थे और तेज आवाज में अधिक बोलते थे। वे शालीनता में विश्वास नहीं करते थे। आदतन चीखते-चिल्लाते थे। फिर वे चाहे महिलाएं ही क्यों न हों।’(पृ.-35,भाग-2)
खुलेपन का वर्णन तो सही है, लेकिन जब लेखक इसे फूहड़ता की श्रेणी में रख देता है और शालीनता’ को धीरे-धीरे आवाज में खोजने लगता है और उनका बात करना चीखने-चिल्लाने’ के रूप में परिभाषित करने में मध्यवर्गीय संस्कार ही दिखाई देता है।
गरीबी, अस्पृश्यता व सामाजिक शोषण के सम्बन्धों को समझकर इनके खिलाफ संयुक्त संघर्ष करके ही दलित आन्दोलन फल-फूल सकता है और उसी से दलितों की स्थिति में कोई मूल बदलाव संभव है। आर्थिक-शोषण व सामाजिक-शोषण पूंजीवादी-सामन्ती शोषण के दो रूप हैं, जिनके खिलाफ अलग-अलग संघर्ष से कुछ विशेष हासिल नहीं होगा। सरकारी-सेवाओं में दलितों के लिए आरक्षण का आन्दोलन है वह भी हिस्सेदारी व प्रतिनिधित्व का ही आन्दोलन है, जिसको कि धर्म व कानून बनाकर दलितों को वंचित किया गया है। केवल सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण से सबको हिस्सेदारी नहीं मिल सकती, जबकि दलित नेतृत्व अधिक-से-अधिक इसी बात को उठाता है। यद्यपि वर्चस्ववादी-सवर्ण वर्ग सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी देने के लिए भी तैयार नहीं है, इसलिए आरक्षण के खिलाफ वह लगातार सक्रिय रहता है। कभी योग्यता का सवाल उठाता है तो कभी गुणवत्ता का। जहां मौका मिलता है वहां इससे इनकार भी करता है। दलितों के प्रति भेदभाव के रवैये को शिक्षा भी नहीं बदल पाई है, क्योंकि शिक्षा भी समाज के वर्चस्वी वर्गों के हितों को पूरा करती है। उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी दलितों के प्रति वही दृष्टि रखता है जो कि आम नागरिक रखता है। शोषण आधारित व्यवस्था में शिक्षा का मुख्य काम बन जाता है वर्गों की हैसियत और स्थिति के अनुसार लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करना, इसलिए शिक्षा के बावजूद पुरातन संस्कारों से उनका न केवल व्यक्तिगत जीवन चलता है, बल्कि राज्य-तंत्र को भी कानून की बजाए अपनी धारणाओं के अनुसार चलाते हैं। कानून तो जाति, धर्म, भाषा के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव की अनुमति नहीं देता, लेकिन ऐसा वहीं पर होता है जिन्होंने इस कानून को लागू करना है। थानेदार की भर्ती के दौरान हुए लेखक का अनुभव इसी ओर संकेत करता है।
सबके बीच में आया था वही एस. एच. ओ. जिसने पैरेड़ ग्राऊंड़ में खड़े लड़कों को दो भागों में बांट दिया था। एक भाग सवर्णों का, दूसरा दलितों का। मैं दलितों वाले भाग में सिमट गया था। मेरी देखा-देखी दूसरे भी एक-दूसरे के पीछे सिमट गए थे। सच कहा जाए तो उस दिन भरी दोपहरी में हमारे व्यक्तित्व बौने हो गए थे। हम बौने हो गए थे। हमारी प्रतिभाएं जैसे कुंद-सी हो गई थीं।
एस.एच.ओ. ने ऊंची आवाज में कहा था - जो सुडलकास्ट लड़के हैं वे एक तरफ हो जाएं हमें फाइनल लिस्ट बनानी है।’ कैसे चाबुक से लगे थे उसके शब्द हमारे शरीर और मन पर।’(पृ.-86,भाग-2)
शिक्षा ही नहीं वर्ग विभक्त समाज में नैतिकता और शिष्टाचार पर भी वर्गीय छाप होती है। एक वर्ग के लिए जो शिष्टता है दूसरे के लिए वही धृष्टता की श्रेणी में आ जाती है।
बा का बस्ती और शहर में बड़ा मान था। तो भी उन्हें वैसे ही पुकारा जाता था - कहां गया है रामप्रसाद। बडे़ तो बड़े, छोटे भी सुभान अल्लाह, उनके बेटे-बेटियां यहां तक कि बच्चे भी इसी तेवर में बोलते थे - रामप्रसाद आ जाये तो उसको बोल देना, हमारी चप्पल की मरम्मत कर दे। घर में हम सभी को बहुत बुरा लगता था। पर कर भी क्या सकते थे।’(पृ.-18)
जिस समाज में हर स्तर पर भेद हों उसमें बराबरी की भाषा नहीं पनप सकती। भाषा के माध्यम से ही तो सारा कार्य-व्यापार चलता है, इसलिए एक वर्ग का दूसरे के प्रति रवैया सम्मान-अपमान व समाज में उसकी हैसियत भी भाषा से ही उजागर होती है। बराबरी के समाज में ही बराबरी की भाषा ही अपेक्षा की जा सकती है। वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी वर्ग दलित-श्रमिक वर्ग के प्रति घृणा का न भी कहें तो अनादर व तिरस्कार का भाव तो रखता ही है। व्यापारी चाहे हिन्दू हो या मुसलमान मेहनतकश के प्रति उसका रवैया एक सा ही होता है।
बैली बाजार में उन दिनों चप्पल-जूतों की दो दुकानें थीं। एक हिन्दू की तथा एक मुसलमान की। हिन्दू दुकानदार का नाम पिश्योरीलाल था जो मूलतः पंजाबी था। दूसरे दुकानदार नाम रहमत अली था। दोनों बा की उम्र के थे, लेकिन बातें ऐसे लहजे में करते जैसे वे बा से बीस साल बड़े हों।’(पृ.-81)
चूंकि नैतिकता व शिष्टाचार को न तो कोई एक व्यक्ति तय करता है और न ही कोई एक उसे बदल सकता है, यह समाज की निर्मिति है। समाज पर जिस वर्ग का आधिपत्य होता है उसी को अधिमान देने वाला शिष्टाचार व नैतिक मान्यताएं स्वीकृति पाती हैं। यदि कोई दलित बालक किसी सवर्ण बुजुर्ग से इस तरह पेश आए तो हंगामा खड़ा हो सकता है, वह इस व्यवहार को कतई स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन दलित इसको आसानी से स्वीकार कर लेता है। दलितों की माली हालत में सुधार हो रहा है और उसके साथ ही राजनीतिक चेतना भी आ रही है जिसकारण अब बराबरी के व्यवहार व सम्मान की मांग उठने लगी है।
शिक्षा के साथ जागरूकता व चेतना का प्रसार होता है और फलस्वरूप वर्चस्वी वर्गों के आधिपत्य को चुनौती मिलती है, जो उनको स्वीकार नहीं है, इसलिए वे शिक्षा से ही दलितों को वंचित कर देना चाहते हैं। शिक्षा से बराबरी की भावना तो पैदा होती ही है साथ ही यह धारणा भी समाप्त होती है कि प्रतिभा जन्म जात होती है और वह केवल उच्च वर्ग के पास ही होती है। विड़म्बना ही है कि एक तरफ तो शास्त्रों में बिना शिक्षा प्राप्त किए व्यक्ति को बिना सींग-पूछ के जानवर की संज्ञा दी गई थी दूसरी तरफ दलित समाज को ज्ञान से वंचित करने के लिए नियम बनाए थे। इसका सीध सा अर्थ है कि दलित को पशुवत जीवन जीने के लिए जानबूझकर रखा जाता है। ज्ञान को सार्वजनिक न करके उसे कुछ वर्गों तक ही सीमित करके ब्राह्मणवाद फूला-फला है। जब कोई सवर्ण दलित को पढते हुए देखता है तो उसको ऐसा लगता है जैसे वह कोई अपराध कर रहा है। चप्पल ठीक कराने आए एक व्यक्ति से हुए संवाद के माध्यम से सवर्ण मानसिकता उद्घाटित होती है।
बा बरात में गांव गया था। मैं दुकान में बैठा हुआ पढ़ रहा था। तभी एक ग्राहक आ गया। मैने उसे पहचानने की कोशिश की। वह दूसरी बस्ती में रहता था। जात से बनिया था। हमारी दुकान से चप्पल ले जाता था। आते ही उसने कपड़े के थैले से जनानी चप्पल का एक पांव उलट दिया। चप्पल को उसने छुआ भी न था मैने देखा उसकी पट्टी दोनों तरफ से उखड़ी हुई थी।
एक महीना हुआ, यहीं से खरीदी थी चप्पल और इत्ती जल्दी टूट गई।’ ग्राहक का स्वर उखड़ा हुआ था।
पर बा तो गांव गया है।’ मैने उसका आशय समझकर कहा था।
कब आएगा वह?’ उसने पूछा।
कल’। मैने उत्तर दिया।
पर कल मैं कैसे आऊंगा। अभी भौत मुश्किल से टैम मिला है। तू ही ठीक कर दे।’ उसके स्वर में अभी उखड़ापन था।
पर मैं तो पढ़ रहा हूं। कल मेरी परीक्षा है।’ मैने अपनी मजबूरी बताई। वैसे मुझे पट्टी लगानी आती न थी। पर उसने न मेरी मजबूरी समझी और न मेरा नौसिखियापन। मेरे मुंह से परीक्षा’ की बात सुनकर वह चिढ़ गया। जैसे मैने उसके सामने पढ़ने की बात कहकर कोई अपराध कर दिया हो।’ अरे पढ़-लिखकर क्या तू लाट-गवन्नर बन जागा। गांठेगा तो येई लीतरें।’ नाराजगी के साथ उसके स्वर में व्यग्य था - चल उठ, मुझे वापसी में काम पर जाना।’ वह फिर अधिकार जताते हुए बोला।’ (पृ.-78)
गरीबी और सामाजिक शोषण दोनों मिलकर दलित समाज के लिए ऐसी स्थितियां पैदा करती हैं कि वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। गरीब होने के बावजूद भी शिक्षा ग्रहण करने की कोशिश करने के लिए उसे उत्साह नहीं मिलता, बल्कि अभावों के कारण अपने शिक्षकों की घृणा का ही शिकार होता है। लेखक व अन्य दलित विद्यार्थियों के पास स्कूल की वर्दी बनवाने के लिए भी साधन नहीं हैं, वे दो-दो साल के पुराने व छोटे पड़ गए कपड़ों में ही स्कूल जाते हैं।
सुबह की प्रार्थना में ही सभी की ड्रेस का मुआयना पी.टी. इंस्ट्रक्टर किया करता था। नाम था उसका शिव कुमार शर्मा। जो छात्र ड्रेस में नहीं होते उन सभी को बहुत कुछ सुनना पड़ता था। बार-बार हमें कहा जाता - अबे तुमसे पढ़ने के लिए कौन कहता है। बस जूते-चप्पल बनाओ और आराम से रहो। चले आते हैं ससुरे न जाने कहां-कहां से!’(पृ.-76)
इससे अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि जिस गुरु के मन में अपने शिष्य के प्रति सहानुभूति और स्नेह नहीं है वे उनको कितना ज्ञान दे सकते हैं। पढ़ाई पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देने के अन्य कारण भी होंगें, पर शिक्षकों का छात्रों के प्रति ऐसा रवैया भी मुख्य कारक है। सारा ज्ञानशास्त्र व शिक्षा संबंधी खोज यही बताती है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिक्षक व विद्यार्थी में आपसी विश्वास व मैत्रीपूर्ण संबंधों का होना जरूरी है। यह भी कहा जाता है कि शिक्षक विद्यार्थी का आदर्श होते हैं। शिक्षक के जीवन का उस पर गहरा असर पड़ता है। शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो शिक्षा दे उसको अपने जीवन में उतारकर उदाहरण प्रस्तुत करे, लेकिन शिक्षा का वर्गीय चरित्र व सामन्ती-संस्कार के कारण न केवल इससे भिन्न बल्कि विपरीत होता है।
वे (शिक्षक) कहते कुछ और करते कुछ। सुबह बच्चों को पढ़ाते - हमें अहिंसा में विश्वास रखना चाहिए, किसी को बुरा या कड़वा नहीं बोलना चाहिए और थोड़ी देर बाद में ही लात, घूंसे, थप्पड़ तथा डंडों से बच्चों की धुनाई भी कर डालते। उन्हें न जाने क्या-क्या बोलते। दोपहर होने से पहले बच्चों को समता, बराबरी का पाठ पढ़ाते और दोपहर बाद जब उन्हें प्यास लगती तो चुपके से अपना गिलास निकाल कर नल पर जाकर पानी पी आते। बच्चों के लिए पानी है या नहीं, इसकी चिंता उन्हें नहीं होती थी।’(पृ.-34)
वर्ग आधारित समाज में ज्ञान की श्रेणी में उसे ही शामिल किया जाता है जो कि वर्चस्वी वर्ग के काम का है और जो उसके वर्चस्व को बनाए रखने में मदद करता है। दलितों-श्रमिकों के कौशल को ज्ञान की श्रेणी से बाहर ही रखा जाता है। यद्यपि समाज के लिए इनका बहुत महत्व है, लेकिन इसके बावजूद उसे ज्ञान की संज्ञा नहीं दी जाती। दलित वर्ग से किसी व्यक्ति के किए गए काम को भी उतना महत्त्व नहीं मिलता, जितना कि उसका योगदान होता है। डा. भीमराव आम्बेडकर के बारे में ऐसा ही हुआ है। स्कूल, कालेज की शिक्षा पूरी तरह सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त है, उच्च वर्ण के शिक्षकों और बुद्धिजीवियों ने डा. आम्बेडकर का एक किस्म से बहिष्कार सा कर रखा है। इसलिए लेखक की तरह अन्य लोग भी स्कूलों-कालेजों के माध्यम से उनके विचारों को नहीं जान पाते।
मुझे भी बाबा साहेब के बारे में अधिक मालूम न था। स्कूल में गांधी, नेहरू के बारे में कई बार सुना था। अध्यापक बाबा साहेब का जिक्र तक न करते थे।’(पृ.-40)
यदि आम्बेडकर का जिक्र होता भी है तो उनको राष्ट्र-नायक व राष्ट्र-चिंतक के रूप में नहीं अधिक से अधिक उनको दलितों का मसीहा तक सीमित कर दिया जाता है। यदि आम्बेडकर जैसा प्रखर चिन्तक, संघर्ष चेता सवर्ण समाज से संबंधित होता तो शायद उतनी उपेक्षा न की जाती। यदि वे उच्च वर्ग से ताल्लुक रखते तो उनके विचारों को पाठ्यक्रमों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाता, उनके योगदान को महिमा मंडित किया जाता, और जो लोग अब उनका नाम लेना भी पाप समझते हैं वे उनको आदर्श के तौर पर अपनाने और अपना प्रेरणा-स्रोत बनाने का उपदेश देते न थकते। यद्यपि दलित आन्दोलन के कारण अब उनको पाठ्यक्रमों का तो हिस्सा बनाया जाने लगा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके प्रति श्रद्धा जाग गई है, बल्कि एक राजनीतिक विवशता के कारण ऐसा हुआ है।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा ने जहां दलितों के शोषण को मान्यता प्रदान की, वहीं स्त्री को उसके स्वतन्त्र अस्तित्व से वंचित कर दिया। उसको पुरूष की दासी व सेविका का ही दर्जा दिया, तथा उसको पुरूष का अनुशासन मामने वाली के रूप में आदर्शीकृत किया गया। मनु ने उसे बचपन में पिता, जवानी में पति व बुढापे में बेटे का अनुशासन स्वीकार करने की व्यवस्था दी। पुरूष के मुकाबले उसे दोयम दर्जे की नागरिक माना, इसलिए परिवारों में उसके प्रति इस तरह से व्यवहार हुआ कि वह मात्र पुरूष की सहायिका बन कर रह गई। चूंकि शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्रता का अहसास व बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा पैदा कर सकती है अतः उसे ज्ञान से ही वंचित कर दिया गया। ब्राह्मणवाद की इस बुराई से दलित समाज भी अछूता नहीं है, दलितों के लिए ब्राह्मणवाद ने ज्ञान पर प्रतिबन्ध लगाया और दलितों ने स्त्री के लिए ज्ञान पर रोक लगा दी।
जब दलितों के मुहल्ले में स्कूल खुलने लगे व दलितों के बच्चे स्कूलों में जाने लगे तो लड़कियों को स्कूलों में नहीं भेजा गया। वे घरों में सहायता करती थी। उस समय दलितों की बस्ती में स्कूल होना भी बड़ी बात थी। लोग स्कूल को शिक्षा का सूरज मानते थे। बस्ती में जैसे-जैसे उगेगा-बढ़ेगा वैसे-वैसे अशिक्षा के साथ कुरीतियां तथा कुप्रथाएं दूर होंगी। बस्ती के लोग अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में रूचि लेने लगे थे। पर लड़कियों को स्कूल में न भेजा जाता था। उनका स्कूल भेजना खराब माना जाता था। वे घर पर ही रहती थीं और अपनी मांओं, चाचिओं, भाभिओं के साथ घर के काम करती थीं। पोतड़े धोने से बच्चों को गोद में उठाए-उठाए खिलाने का कार्य अधिकतर उन्हें सौंपा जाता।’(पृ.-34)
पुरूष प्रधान समाज में स्त्री को सारी समस्याओं की जड़ माना जाता है। उसका पैदा होने को अपशकुन की तरह समझा जाता है।
कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती थी। ब्याह से पहले लड़कियों का बाहर निकलना अच्छा न माना जाता था। यही नहीं उनके प्रति कड़ाई भी बरती जाती थी। वैसे भी बस्ती में औरतों, लड़कियों की संख्या पुरूषों से कम थी। उनमें भी दादियों, मांओं, भाभिओं और चाचिओं की संख्या अधिक थी। बेटियों का प्रतिशत बस्ती में कम था। जिस घर में बेटी पैदा हो जाती, उसका बाप अपना माथा पकड़कर बैठ जाता था। और मां गुम-सुम सी होकर रह जाती थी। लड़कियां, दुख, कलह, अभाव, लड़ाई-झगड़ों का प्रतीक मानी जाती थी।’(पृ.-37)
पूंजीवादी शोषणकारी व्यवस्था में दलित स्त्री का तिहरा शोषण होता है। एक गरीब के रूप में, दूसरा दलित के रूप में और तीसरा स्त्री के रूप में।
समाज बदल रहा है दलितों में चेतना पनप रही है तो शोषणकारी व्यवस्था की विचारधारा भी उनमें जगह बनाती जा रही है। पहले ब्राह्मणवाद ने दलितों को पूजा से, धर्म से, ईश्वर-उपासना से दूर करके शोषण किया तो अब अपने अन्दर समाहित करके दलितों का शोषण कर रही है। दलितों में शिक्षा से मुक्ति की चेतना पनपी है तो उसके असर को समाप्त करने के लिए उनमें पाखण्ड व अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही है। दलितों ने न केवल अपने देवी-देवताओं के मंदिर बनाने शुरू किए हैं, बल्कि ब्राह्मणवादी पाखण्डों में भी दलित बढ-चढकर भाग ले रहे हैं। दलित जातियों में हांलाकि शिक्षा आने लगी थी, पर वह सतही सिद्ध हो रही थी। लोग परंपराओं को छोड़ना न चाहकर उन्हें सीने से चिपटाए रखने में ही अधिक विश्वास करते थे। दलितों में कुल देवता और गौत्र देवता उभरने लगे थे। वे अपने बाप-दादाओं की छोड़ी हुई लकीरें पीटने लगे थे। उस लकीर को मिटाकर नई लकीर खींचने का साहस बहुत कम लोगों में था, जो संघर्षशील थे, कुछ नया करने के लिए जूझ रहे थे। पर दलित बस्तियों के आसपास कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे मंदिरों तथा पीरों की मजारें उन्हें पीछे धकेल रही थी।’(पृ.-46, भाग-2)
शिक्षित दलितों ने गुरू धारण कर लिए तो अधिकांश ने अपने घरों में ही पूजा घर बना लिए हैं और इनके माध्यम से पिछड़े व ब्राह्मणवादी विचार उनके जीवन में घुस रहे हैं। मनुवाद को स्थापित करने का संकल्प लेने वाली शक्तियों ने दलितों को अपने साम्प्रदायिक अभियान में जोड़ा है, दलितों को एक उग्र हिन्दू की छवि प्रदान की है और दलितों के रोष को अन्य धर्मों के गरीबों की ओर मोड़ दिया है। साम्प्रदायिक दंगों में दूसरे धर्म के गरीब लोगों के खिलाफ प्रयोग किए जा रहे हैं।
दलित और गरीब मुसलमान दोनों में एक स्वाभाविक समानता है। यूं भी कहा जा सकता है कि मुसलमान कुछ समय पहले के दलित हैं, इसलिए मुसलमानों की बस्तियां और दलितों की बस्तियां सटी हुई हैं और उनके रहन-सहन में भी काफी समानताएं है। दोनों ब्राह्मणवाद के सताये हुए हैं। यद्यपि लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि दलितों के प्रति मुसलमानों में भी उसी तरह की पूर्व धारणाएं व पूर्वाग्रह हैं, जैसे कि हिन्दू सवर्ण में हैं, लेकिन अधिकतर मुसलमानों का पेशा भी दस्तकारी है, कोई कपड़ा बुनता है, कोई सब्जी बेचता है, कोई गोश्त काटता-बेचता है, कोई तांगा-रिक्शा चलाता है, कोई कपड़े सिलता है, कोई लुहार का काम करता है और दोनों की हालत लगभग एक जैसी है और कभी कभी तो दलितों से भी अधिक सोचनीय हो जाती। पर वे सब कुछ सहने पर विवश होते।’(पृ.-51,भाग-2) दलित और मुसलमान दोनों ही उच्च वर्ण की घृणा के शिकार हैं। उनके जीवन में एक साझापन है। लेखक अपनी पड़ौसन बत्तो के माध्यम से यह व्यक्त करते है।
हमारे पड़ौस में रहती थी बत्तो। उसके खाविंद को नाम रहमत अली था। वह कपड़े सिलता था। उसका बड़ा बेटा तांगा चलाता था और छोटा सब्जी बेचा करता था। जब जब भी ईद आती, वह छत पर चढकर ताई मां को आवाजें लगाया करती। उनकी छत और हमारी छत मिली हुई थीं। बीच में केवल एक-डेढ़ गज का फासला था। पर हमारे और उनके दिल में एक सूत की भी दूरी न थी। मीठी ईद पर वह सईंये-सीरी बनाती। छत पर चढकर स्वयं बत्तो प्याले में सईयें ले आती। फिर वहीं से आवाज देती - मदन की अम्मी, अयं मदन की अम्मी!’ मदन बिचले भइया का नाम था। ताई मां ऊपर से आती बत्तो की आवाज सुनती तो आंगन में आकर पूछती -क्या बात है बी?’
ताई मां बत्तो को बी कहकर पुकारती थी।
लो, मदन की अम्मी पूछ रही है क्या बात है। अयं ईद सिरफ हमारी है क्या?’ बत्तो पलटकर जवाब देती।
नई बी, ईद तो सबकी है।’ ताई मां कह उठती थी।
अल्ला-ताला तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को सई-सलामत रक्खे।’ छत पर खड़ी बत्तो के स्वर में सईयें-सीरी जैसी मिठास घुल जाती, अब जरा ऊपर आओ।’
ताई मां के छत पर जाते ही वह सईयों से भरा प्याला पकड़ते हुए कहती - देख खुदा की नियामत है सईयें, मना मत करना।’
और सचमुच ताई मां सईयें लेने से मना नहीं कर पाती। वह खुशी-खुशी सईयों से भरा प्याला संभालते हुए ले आती। ताई मां कटोरी में बराबर-बराबर सईयें डालकर हमें देती जिसे सब मिलकर खाते थे। पर बा नहीं खाता था। वह हमें सईयें खाने से रोकता भी न था। मीठी ईद की सईयें बहुत स्वादिष्ट होती थीं। सईयें खत्म होने के बाद हम अपने-अपने बर्तन को, अंगुलियों से उसकी बची हुई मिठास को चाटते।’ (पृ.-19)
साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी यह भाईचारा नहीं टूटता। तीसरे दिन छत से गनी की आवाज सुनाई पड़ी थी - ओ रामप्रसाद कर्फ्यू लग गया तो क्या बात तक भी नहीं करेगा।’ हमारी हिम्मत बढ़ी। गली में यादराम पहले निकला, फिर म्हाऊ। तब तक बा’ भी बाहर आ गया था। औरतें अभी भी मुंडेर पर खड़ी थीं। तीनों को बाहर आये देख गनी और खुला। वह छत की मुंडेर पर था। उसके पीछे उसका बेटा सज्जाद भी था। उसकी आंखों में अनगिनत सवाल थे। तभी गनी का पोता भी आ गया था। कुछ देर में औरतें भी डरी-सहमी सी बाहर निकल आई थीं। सामने से बत्तो भी छत पर आ गई थी। उसके पीछे उसका बेटा मट्टो भी। गली में अधिकांश छतें बिना मुंडेर की थीं। ताई मां डर के मारे ऊपर न आई थी। वह गली में नीचे ही खड़ी थी। जबकि बत्तो छत पर थी। सामने गली थी। सभी के चेहरो पर अफसोस था। ताई मां के पीछे मैं खड़ा था। मैने ऊपर जाने को पूछा। ताई मां ने झट मना कर दिया - तुझे दिखाई नहीं देता कर्फ्यू लगा है’ मैं चुप रह गया। तभी बत्तो की आवाज ऊपर से आई थी -आयं मौन की अम्मी, हमारा-तुम्हारा भला कर्फ्यू से क्या वास्ता। हम तुम तो पड़ौसी हैं। खुदा गारत करे दंगे फसाद कराने वालों को।’ और ताई मां नीचे से ही हूं हां करती रही।’(पृ.-45)