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गुरुनानक और सांझी संस्कृति की विरासत

गुरुनानक और सांझी संस्कृति की विरासत
 सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

बाबा नानक शाह फकीर
हिन्दू का गुरु,
मुसलमान का पीर 1

गुरु नानक का जन्म 1469 में, पंजाब प्रान्त के ननकाना साहब नामक स्थान पर हुआ, जो आज कल पाकिस्तान में है। वे महान विचारक और समाज सुधारक थे। उनका व्यक्तित्व साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है। उन्होंने इनसान की समानता का संदेश दिया। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होनें सभी धर्मों के महापुरुषों का सम्मान किया। उन्होंने लोगों में चेतना जागृत की कि राम और रहीम एक हैं, कृष्ण और करीम में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने सभी धर्मों की उच्च शिक्षाओं को अपनाया। उन्होंने संन्यासियों, मुल्ला, मौलवियों, सूफियों, योगियों, पंडितों और वैरागियों सबसे बात की। बेहतर समाज के लिए सूत्र जहां मिले, उन्हें ग्रहण किया। उन्होनें सभी धर्मों के देवदूतों को--श्रीकृष्ण, गौतम बुद्घ, हजरत मुहम्मद को मान्यता प्रदान की। वे हर धर्म के मुख्य तीर्थ स्थलों पर गए। वे इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद की जन्म भूमि गए, बौद्घ धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्घ की जन्मभूमि गए। गुरु नानक की इन यात्राओं को 'उदासी' कहते हैं। गुरु नानक ने देश-विदेश की जितनी यात्राएं कीं, शायद ही किसी संत ने की होंगी। ''ये यात्राएं उन्होंने कई दिशाओं में कीं। सबसे पहले वे पूर्व की ओर हिन्दुओं के धर्म-स्थल यथा कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और बनारस से होते हुए सुदूर उड़ीसा, बंगाल और आसाम पहुंचे। वर्षों की लम्बी यात्राओं के दौरान जहां-जहां वे गये, वहां उन्होंने मित्रता और बंधुत्व की भावना का, संकीर्णता को छोडऩे का प्रचार किया और अनन्य परमेश्वर की उपासना पर बल दिया, जो सभी का सर्जनहार है और जिसकी दृष्टि में सब समान हैं। इस तरह उन्होंने अनगिनत संकीर्ण मतवादों को खत्म करने और सभी लोगों को प्रेम के बंधन में बाँधने का उपक्रम किया। वे हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान के बाहर सुदूर मक्का और बगदाद तक मुसलमानों के धार्मिक केन्द्रों में भी गए। मुसलमानों को उन्होंने करुणा और वैराग्य का संदेश दिया। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को भाइयों की तरह रहने की शिक्षा दी। ... योगियों के साथ उनकी बहसें हुई, जिनमें उन्होंने एकाकी जीवन की अपर्याप्तता की ओर संकेत किया जबकि विश्व पाप और बुराई तले जल रहा हो। उन्होंने उनसे कहा 'लोगों के बीच जाओ और सच्चे रास्ते पर उनका पथ-प्रदर्शन करो। यहां तुम पर्वतीय गुफाओं में, तन पर भस्म रमाये हुए अपना जीवन बरबाद कर रहे हो। उन्होंने बड़ी ईमानदारी से इन आदर्शों का प्रचार किया और जहां कहीं भी वे गये वहां लोगों ने उनकी बातों को बड़े सम्मान और श्रद्धा से सुना। ....अपनी यात्राओं के दौरान गुरु नानक, अरब देशों के अलावा हिमालय की ऊंची चोटियों पर और मध्य भारत के बीहड़ जंगलों में सभ्य, धार्मिक विचारों से शून्य, ठगों और आदमखोरों के बीच भी गए थे। कहा जाता है कि वे श्रीलंका भी गए थे और वहां के राजा शिवनाथ को उन्होंने उपदेश दिया था। हिमालय के योगियों को जो ध्यान और अन्य गुह्य साधनाओं में जुटे रहते थे, उन्होंने धार्मिक जिन्दगी के दायित्व को महसूस करने, अज्ञान में पड़े हुए लाखों लोगों के दुख और यातना को दूर करने का उदबोधन किया था।"2 गुरुनानक के बारे में लोक में एक कहानी प्रसिद्घ है कि जब गुरुनानक मक्का गए तो वे उस ओर पैर करके सो रहे थे, तो एक मुल्ला ने उनको उस ओर पैर करके सोने से मना किया। गुरु नानक ने उससे कहा कि मेरे पैर उधर कर दीजिए जिधर मक्का नहीं है।3 गुरुनानक अंधविश्वासों और धार्मिक आडम्बरों के कितने खिलाफ थे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है -- वे भ्रमण करते हुए हिन्दुओं के प्रसिद्घ तीर्थ स्थल हरिद्वार गए वहां उन्होंने देखा कि पण्डे पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सूर्य को पानी दे रहे हैं, तो गुरुनानक ने इसके विपरीत दिशा यानि पश्चिम की ओर पानी देना आंरभ कर दिया। इस पर पण्डों ने पूछा कि वह क्या कर रहा है, तो उन्होंने कहा कि वे अपने पंजाब के खेतों को पानी दे रहे हैं। इस पर पण्डे हंसे और नानक से कहा कि पंजाब यहां से बहुत दूर है, यह पानी पंजाब नहीं पहुच सकता तो उन्होंने उत्तर दिया कि जब तुम्हारा पानी सूरज पर पहुंच सकता है तो मेरा पंजाब तो उससे बहुत पास है, फिर वहां तक पानी क्यों नहीं पहुंच सकता।4
गुरुनानक ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया, उन्होंने कहा कि हिन्दू और मुसलमान एक ही ईश्वर के बन्दे हैं, दोनों में कोई भेद नहीं है। जो ईश्वर के नाम पर लोगों को बांटते हैं और लड़वाते हैं, वे धार्मिक नहीं हैं, वे धर्म के नाम पर लोगों को धोखा दे रहे हैं, वे बेईमान हैं-
'बन्दे एक खुदाय के हिन्दू मुसलमान,
दावा राम रसूल कर, लडदे बेईमान।'
''गुरुनानक और उनका साथी मरदाना पूर्वी भारत की यात्रा करने निकल पड़े। इस समय गुरु जी ने अपनी वेशभूषा बड़ी विचित्र बना रखी थी। वे अंबुआ रंग का चोला पहने हुए थे। उस पर सफेद रंग का दुपट्टा पड़ा हुआ था। सिर पर टोपी ऐसी थी जैसे मुसलमान कलंदर पहनते हैं। साथ ही मस्तक पर उन्होंने केसरिया तिलक लगा रखा था। इस वेशभूषा का कुछ भाग हिन्दुओं जैसा था और कुछ भाग मुसलमानों जैसा। उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना कठिन था कि वे हिन्दू हैं या मुसलमान"5
गुरुनानक ने हिन्दू-मुसलमानों में एकता स्थापित करने के लिए, तथा ऊंच-नीच का भेद मिटाने के लिए केवल प्रवचन ही नहीं दिए, बल्कि ठोस परम्पराएं भी शुरू कीं। उन्होंने 'लंगर' और 'संगत' की प्रथा चलाकर समाज में व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कदम उठाया। इनका महत्त्व समझाते हुए कहा कि संगत का अर्थ है --एक साथ मिलकर भजन कीर्तन और ध्यान करें और लंगर का अर्थ है कि एक ही पंक्ति में बैठकर बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर भोजन करें। इस तरह गुरुनानक ने धर्म के दार्शनिक पक्ष पर एकता स्थापित करने तथा समाज में व्याप्त सामाजिक भेदभाव को मिटाने के लिए ठोस कार्य किए।
ग्ुारुनानक धर्म, जाति, वर्ण आदि की श्रेष्ठता में विश्वास नहीं करते थे। गुरुनानक के समानता आधारित मानवीय धर्म को हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोगों ने अपनाया। गुरुनानक के मत का मुसलमान बहुत आदर करते थे। धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था, क्योंकि गुरुनानक के बहुत से अनुयायी मुसलमान थे और बहुत मुसलमान उनके प्रशसंक रहे हैं। बचपन में नानक ने मौलवी मुहम्मद हसन से शिक्षा प्राप्त की। मुसलमान फकीरों से उनका घनिष्ठ संबंध रहा। मरदाना गुरु नानक का शिष्य था। वह हमेशा उनके साथ रहता था। अन्त तक वह गुरुनानक के साथ रहा। जब गुरुनानक गाते थे तो मरदाना रबाब बजाता था।
शाह अशरफ पानीपत के रहने वाले थे। गुरुनानक उनके पास गए तो शाह अशरफ ने उनसे पूछा कि तुमने गृहस्थी के कपड़े क्यों पहने हैं और सिर को क्यों नहीं मुंडवाया। गुरुनानक ने जबाब दिया कि सिर मुंडवाने की बजाए मन को मुंडवाना चाहिए और जहां तक कपड़ों को त्यागने का सवाल है तो हमें मोह-माया व अहंकार का त्याग करना चाहिए। सूफी साधक शाह अशरफ उनके जवाब से इतने प्रसन्न हुए कि गुरुनानक के हाथों को चूमने लगे और कहा कि ''आपके अन्दर मुझे अल्लाह का नूर दिखाई देता है"। इनके अतिरिक्त मियां मिठ्ठा जलाल, बाबा बुढन शाह, वली कन्धारी, पीर अब्दुल रहमान, सज्जन जैसे मुसलमान गुरुनानक के अनुयायी रहे।
''यह कहा जा सकता है कि वे विभिन्न धर्मों में समन्वय बैठाने वाले महान साधक थे। इसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने विभिन्न धर्मों के प्रचारकों से अपने धर्मों के बुनियादी तत्वों से समझौता करने के लिए नहीं कहा, न ही उन्होंने विभिन्न धर्मों की विभिन्न बातों को मिलाकर कोई नया मिश्रित धर्र्म तैयार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने कहा कि हर मनुष्य को अपने धर्म पर, जिसमें उसकी आस्था है, सच्चाई से चलना चाहिए और उसके प्रति निष्ठावान रहना चाहिए। उसे अपने धर्म का पालन इस रूप में करना चाहिए जिससे उसके धर्म और विश्वास की मूल्यगत विश्वजनीनता और मानवता की चेतना अभिव्यक्त हो सके। सार्वभौम विश्वजनीन नैतिक गुणों के प्रचार का यह महत् प्रयत्न था। उन्होंने कहा कि ''मुसलमान कहलवाना कठिन है, परन्तु यदि कोई सचमुच मुसलमान है तो उसे ऐसा कहलाने का अधिकार है। इसके लिए सबसे पहली शर्त धर्म-प्रेम है, फिर हृदय के पाप के धब्बों का साफ करना अपेक्षित है। जब कोई व्यक्ति मुसलमान बनता है तथा धर्म को अपना कर्णधार स्वीकार करता है तो उसे अपने जन्म-मरण की सारी चिन्ता त्याग देनी चाहिए। उसे ईश्वरेच्छा के सम्मुख पूरी तरह नतमस्तक होना, ईश्वर की आज्ञा का पालन करना तथा आत्म-विसर्जन करना अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति तभी सभी जीवधारियों के लिए वरदान होगा और तभी सच्चा मुसलमान कहला सकता है।
मुसलमान कहावणु मुसकलु जा होई ता मुसलमाणु कहावै।
अवलि अउलि दीनु करि मिठा मसलमाना मालु मुसावै।।
होइ मुसलिमू दीन मुहाणै मरणा जीवण का भरम चुकावै।
रब की रजाई मैने सिर उपरि करता मैने आपु गवावै।।
तऊ नानक सरब जीआ मिहरमति होइ त मुसलमाण कहावै।।6
गुरुनानक ने समाज में व्याप्त मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, अंधविश्वास, रूढि़वाद, वर्ण-व्यवस्था की ऊंच-नीच व छुआछूत आदि बुराइयों का विरोध किया जो समाज की समानता में रुकावट पैदा कर रहे थे। धर्म के नाम पर फैले पाखंडों को, बाहरी आडम्बरों का खुलकर विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किसी मंदिर, मस्जिद और मठ में जाने की आवश्यकता नहीं है। धर्म के नाम पर पाखण्ड फैलाने वालों का उन्होंने विरोध किया। जो लोग अपने आप को गुरु और पीर कहलाते हैं, किन्तु भीख मांगने जाते हैं, उनके चरणों पर कभी नहीं पडऩा चाहिए। वही व्यक्ति सच्चा मार्ग पहचानता है जो स्वयं परिश्रम करके खाता है और उसमें से कुछ अपने हाथों से कुछ देता है।
गुरु पीरू सदाए मंगण जाए। ता के भूलि न लगिऐ पाए।।
घालि खाइ किछु हथहु देइ। नानक राहु पछाणिहि सेइ।।
जो मनुष्य झूठ बोलकर दूसरों का हक खाता है, तथा इसके विपरीत समझाता है, ऐसे उपदेशक की कलई खुल जाती है। वह स्वयं तो ठगा ही जाता है, अपने साथियों को भी लुटवा देता है।
कूडु बोलि मुरदारू खाइ। अवरी नो समझावणि जाइ ।
मुठा आपि मुहाए साथै। नानक ऐसा आगू जापै ।।
यदि कपड़े पर खून लग जाए तो वह अपवित्र हो जाता है। परन्तु जो लोग मनुष्यों का खून पीते हैं, शोषण करते हैं, उनका चित्त किस प्रकार निर्मल रह सकता है ?
जे रतु लगै कपडै़ जामा होइ पलीतु ।
जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु ।।
पांखडी लोग संसार को ठगने के लिए आंखें बंद करके नाक पकड़ते हैं। ये लोग दो उंगलियों से नाक पकड़कर यह दावा करते हैं कि उन्हें तीनों लोकों का ज्ञान है;किन्तु अपने पीछे रखी चीज इन्हें दिखाई नहीं देती। यह कैसा पद्मासन है !
अखी त मीटहि नाक पकडहि ठगण कउ संसारू ।।
आंट सेती नाकु पकडहि सूझते तिनि लोअ ।
मगर पाछै कछु न सूझै एहु परमु अलोअ ।।
गुरु नानक ने धर्म के नाम पर आम जनता का शोषण करने वाले कथित धार्मिक नेताओं के अधार्मिक व्यवहार की तीखी आलोचना की, जो धर्म का वास्ता देकर भोले भाले लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण करते हैं। उन्होंने लिखा कि 'काजी झूठ बोल-बोलकर हराम की कमाई खाता है। ब्राह्मण जीवों को दु:ख देकर नहाता फिरता है। योगी अंधा अज्ञानी है, वह युक्ति नहीं जानता। ये तीनों उजाड़ के समान हैं।
कादी कूडु बोलि मलु खाइ। ब्राह्मणु नावै जीब धई।।
जोगी जुगति न जाणै अंधु। तीने ओजाड़े का बंधु।
गुरु नानक ने कर्मकाण्डों और खोखले रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने आचरण की शुद्घता पर जोर दिया। धर्म का कर्मकाण्डी रूप हमेशा मानवता के विकास के लिए बाधक रहा है। व्यवहार की पवित्रता पर जोर देने के लिए गुरु नानक ने जीवन की नई परिभाषाएं दीं, हिन्दू और मुसलमान पण्डे-पुजारियों और मुल्ला-मौलवियों से बाहरी आडम्बरों को छोड़कर आन्तरिक शुद्घता पर बल देने के लिए कहा। हिन्दुओं से उन्होंने कहा कि ''मुझे ऐसा जनेऊ पहनाओ जिसमें दया की कपास हो, संतोष की सूत हो, संयम की गांठ हो और सत्य उस जनेऊ की पूरन हो। यह जनेऊ न टूटता है,न इसमें मैल ही लगता है। वह न जलता है और न ही यह खोता ही है। हे नानक वे मनुष्य धन्य हैं जो अपने गले में इस प्रकार का जनेऊ पहनकर परलोक जाते हैं। ओ पंडित, जो जनेऊ तुम पहनते-फिरते हो, यह तो तुमने चार कौड़ी देकर मंगवा ली है और अपने यजमान के चौके में बैठकर उसके गले में पहना दिया है। तत्पश्चात् उसके कानों में यह उपदेश दिया कि आज से तेरा गुरु ब्राह्मण हो गया। आयु समाप्त होने पर जब वह यजमान मर गया तो वह जनऊ उसके शरीर से गिर गया। जनेऊ के बिना ही संसार से विदा हो गया।
दइया कपाह संतोखु सूतु जतु गंढी सतु वटु।
एहुं जनेउ जीअ का हई त पाडे घतु।।
ना एहु लूटै न मलु लगै न एहु जले न जाइ।
धनु सु माणस नानका जो गलि चले पाइ।।
चउकडि़ मुलि अणइया बहि चनद्रकै पाइया।
सिखा कानि चड़ाइया गुरु ब्राह्मनु थिआ।
ओहु मुआ ओहु झडि़ पाइया वे तगा गइया।।
गुरु नानक ने कहा कि अपने संबंधियों की आत्माओं की शान्ति के लिए किया गया दान अगर ईमानदारी की कमाई में से नहीं है, तो वह चोरी है।
''यदि कोई ठग पराया घर लूटे और उस घर को लूटकर अपने पितरों के श्राद्ध के रूप में अर्पित करे तो परलोक में वे वस्तुएं पहचान ली जायेगी और पितर लोग चोर साबित होंगे। परमात्मा वहां न्याय करेगा कि दलाल का हाथ काट लिया जाए। हे नानक, आगे तो मनुष्य को वही मिलता है जो वह कमाता है और अपने हाथों से देता है।"
जे मोहाका घरु मुहै थरु मुहि पितरी देई।
अगै बसतु सिजाणीऐ तिपरी चोर करेई।।
बड़ी अहि हथ दलाल के मुसकी एह कोई।
नानक अगै सो मिलै जि खटै घाले देई।।
देवताओं और दूसरे पितरों के निमित पिंड बनाने के पीछे ब्राह्मण स्वयं भोजन करते हैं। जबकि परमात्मा की कृपा का जो पिंड है वह कभी समाप्त नहीं होता।
इक लोकी होरु छमिछरी ब्राह्मण वटि पिंडु खाइ।
नानक पिंडु बखसीस का कबहु निखूटसि नाहि।।
लोग तीर्थ में स्नान करने तो जाते हैं, किन्तु वे अपने मन के खोट और तन के चोर होते हैं। स्नान करने से बाहरी मैल तो उतर जाता है, लेकिन मैल का दूसरा भाग यानी अंहकार व पाखंड, और अधिक बढ़ जाता है। तुमड़ी यानी कड़वी लौकी को बाहर चाहे जितना धो दिया जाए किन्तु भीतर वह बड़ी जहरीली या कड़वी होती है। साधु लोग बिना नहाए भी सज्जन रहते हैं पर जो चोर हैं वे नहाकर भी चोर ही रहते हैं।
नावण चले तीरथी मनि खोटे तनि चोर।
इकु भाउ लथी नातिआ दुइ भा चड़ी असु होर।।
बाहरि धेती तुमड़ी अंदरि विसु निकोर।
साथ भले अणनातिया चोर सि चोरा-चोर।।
योग की प्राप्ति न तो कंथा में है, न डंडा लेने में है और न शरीर पर भस्म लगाने में। योग न तो कानों में मुद्रा पहनने में है, न मंूड़ मुंड़वाने में और न श्रृंगी बजाने में। योग की वास्तविक युक्ति माया में रहकर भी माया से अलिप्त रहने में है। इसी से योग की प्राप्ति होती है। निरी कोरी बातों से योग की प्राप्ति नहीं होती। जो सभी को एक दृष्टि से देखता है, वही वास्तविक योगी कहलाने का अधिकारी है। कब्रों या शमशानों में पड़े रहना भी योग नहीं है और बाह्य वस्तु में ध्यान लगाना भी योग नहीं है। देश-देशान्तरों का भ्रमण करना भी योग नहीं है और न तीर्थादिकों के स्नान करने से ही योग की प्राप्ति होती है। यदि माया के बीच रहते हुए निरंजन से युक्त रहा जाए तो यही योग की वास्तविक युक्ति है और इसी से योग प्राप्त होता है। सद्गुरु मिले तभी भ्रम टूट सकता है। जब विषयों की ओर दौड़ते हुए मन को रोककर रखा जा सके तभी आत्मानंद का निर्झर झरने लगता है और सहजावस्था में ही वृत्ति रम जाती है और अपने घर ही में प्रिय का परिचय प्राप्त हो जाता है।
जोगु न खिंथा जोगु न डंडै जोगु न भसम चडाइऐ ।
जोगु न मुंदी मुंडी मुंडाइऐ जोगु न सिंगी वाइऐ ।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाइऐ ।
गल जोगु न होइ ।
एक दृस्टि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोइ ।।
जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईए।
जोगु न देसि दिसंतरि भविए जोग न तीरथि नाईए।
अंजन माहि निरंजन रहीऐ जोगु जुगति इव पाइए।।
सतिगुरु पे हाटै सहसा लुटै धवत बरजि रहाईए।
निढरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाइए।।
लालच कुत्ता है, झूठ भंगी है, ठग कर खाना मरे हुए पशु को खाने के समान है। पराई निंदा मुंह में गिरी पराई मैल है। क्रोध की अग्नि ही चांडाल है। हे करतार , आत्म-श्लाघा ही विविध प्रकार के कसैले रस हैं।
लबु कुता कूडु चूहड़ा ठगि खाध मुरदारू ।
पर निंदा परमलु मलु मुखसुधी अगनि क्रोध् चंडालु
रस कस आपु सलाहण ए करम मेरे करतार ।
गुरुनानक बचपन में अपनी बहन नानकी के पास रहते थे। वे कहते थे कि ''ना कोई हिन्दू है ना कोई मुसलमान" इस पर कट्टरपंथी हिन्दू और मुसलमान दोनों नाराज होने लगे। शहर के काजी ने नबाब दौलतखान से शिकायत की। नबाब ने उन्हें बुला भेजा और पूछा - ''यह आपको क्या हो गया है? आप कहते हैं कि न कोई हिन्दू है, न कोई मुसलमान। इसका क्या मतलब होता है?"
नानक ने कहा- ''मैं इंसान और इंसान के बीच कोई फर्क नहीं मानता। ईश्वर मनुष्य की पहचान उसके अच्छे गुणों से करता है, न कि उसके हिन्दू और मुसलमान होने के कारण।"7
धर्मों के मुख्य स्थलों पर व्याप्त पाखण्डों व आडम्बरों से गुरु नानक चिंतित थे। इनके कारण धर्म की वास्तविक सीख धुंधली पड़ रही थी, बाहरी आडम्बरों को ही धर्म का पर्याय मान लिया गया था। ''मुसलमान काजी तथा अन्य हाकिम हैं तो मनुष्य भक्षी पर वे पढ़ते हैं नमाज। उसके मुंशी ऐसे खत्री हैं जो छुरी चलाते हैं पर उनके गले में जनेऊ है। उनके घर जाकर ब्राह्मण शंख बजाते हैं, इसलिए उन ब्राह्मणों को भी उन्हीं पदार्थों के स्वाद आते हैं। झूठ की पूंजी है और झूठा व्यापार है। झूठ बोलकर ही वे लोग गुजारा करते हैं। शर्म और धर्म का डेरा दूर हो गया है । हे नानक सभी स्थानों में झूठ ही झूठ व्याप्त हो गया है।
माणस खाणो करहि निवाज। छूरी वगाइनि तिन गलि ताग।।
तिन घरि ब्राह्मण पूरहि नाद। उना भी आबहि कोई साद।।
कूड़ी रासि कूड़ा वापारु, कूडू बेली करहि आहारु।।
सरम ध्रम का डेरा दूरि। नानक कुडू रहिआ भरपूरि।।
अथै टिका तेडि़ धेति करवाई। हथि छुरी जगत कसाई।।
नानक ने मुसलमानों से कहा कि --'दया को अपनी मस्जिद बना, सच्चाई को मुसलमान बना, इंसाफ को कुरान बना, विनय को खतना समझ, सज्जनता को रोजा रख तब तू सच्चा मुसलमान बनेगा। नेक कामों को तू अपना काबा बना, सच्चाई और ईमानदारी को अपना पीर बना, परोपकार को अपना कलमा समझ, खुदा की मर्जी को अपनी तसबीह, तब ऐ नानक , खुदा तेरी लाज रखेगा।'
मिहर मसीति सिदकु मुसला हकु हलालु कुराणु ।
सरम सुनति सीलु रोजा होहु मुसलमाणु ।।
करणी काबा सचु पीरू कलमा करम निवाज ।
तसबी सा तिसु भावसी नानक रखे लाज ।।
गुरुनानक ने संस्थागत धर्म के बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़कर धर्म की मानवीय शिक्षाओं पर बल दिया। उन्होंने पांच वक्त की नमाज के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि ''पहली नमाज सचाई है, ईमानदारी की कमाई दूसरी नमाज है, खुदा की बंदगी तीसरी नमाज है, मन को पवित्र रखना चौथी नमाज है, और सारे संसार का भला चाहना उसकी पांचवीं नमाज है। हे काजी ! जो ऐसी नमाज पढ़ता है वह सच्चा मुसलमान है। इस तरह की नमाजों और कलमों से रहित जितने भी लोग हैं, वे सब झूठे हैं और झूठे की प्रतिष्ठा भी झूठी होती है।"
पंजि निवाजा बखत पंजि पंजा पंजे नाउ।
पहिला सचु हलाल दुइ तीजा खैर खुदाई।।
चऊथी नीअति रासि मनु पंजवी फिति सनाइ।
करणी कलमा आखै कै ता मुसलमाणु सदाइ।
नानक जेते कुडिय़ार कूड़ै कूड़ी पाई।।
गुरुनानक ने बेइमानी और शोषण को अधर्म बताया और अपने हक की कमाई करने वाले को सच्चा धार्मिक बताया है। उन्होंने कहा कि पराया हक मुसलमान के लिए सुअर और हिन्दू के लिए गाय के समान है। गुरु और पीर उसी की हामी भरते हैं जो बेइमानी की कमाई नहीं खाता। केवल लम्बी बातें करने से स्वर्ग नहीं जाया जा सकता। सच की कमाई करने से ही छुटकारा पाया जा सकता है। हराम के मांस में चतुराई का मसाला डाल देने से वह हलाल नहीं बन जाता। झूठी बातें करने से झूठ ही पल्ले पडता है।
हकु पराइया नानका उसु सूअर उस गाय ।
गुरु पीर हामा ता भरै जा मुरदारु न खाइ ।
गली भिसति न जाईऐ छुटै सचु कमाइ ।
मारण पाहि हराम महि होइ हलालु न जाइ ।।
नानक गली कूडीई कुडो पले पाइ ।।
गुरु नानक ने छुआछूत का विरोध किया और वे ऊंच-नीच में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने कहा कि मैं, नीची जाति में जो नीच हैं और उन नीचों में भी जो बहुत नीच हैं, उनके साथ हूं :
नीची अन्दर नीच जाति नीची हूँ अति नीचु ।
नानकु तिनके संगि साथि वडिया सिउ किया रीस।
जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस।।
जातिगत श्रेष्ठता को त्यागने पर जोर देते हुए कहा
जाति का गरब न कर मूरख गवारा ।
इस गरब ते चलहिं बहुत विकारा ।
परमात्मा के द्वार से न कोई जाति है और न जोर ही है। परमात्मा के यहां तो जीवों का नया ही विधान चलता है। वहां तो वे ही कोई कोई व्यक्ति भले गिने जाते हैं जिन्हें कर्मों के लेखे यानी हिसाब का उस समय आदर प्राप्त होता है।
अगै जाति न जोरु है जीव नवै।
जिसकी लेखै पति पवै चंगे सेई केई।।
गुरुनानक ने नारी को सम्मान दिया है, उन्होंने कहा कि ''स्त्री द्वारा ही हम गर्भ में धारण किए जाते हैं, और उसी से जन्म लेते हैं। उसी से हमारी प्रगति होती है और उसी से विवाह होता है। उसी से सृष्टि क्रम चलता है। एक स्त्री के मर जाने पर दूसरी स्त्री खोजनी पड़ती है। स्त्री हमें सामाजिक बंधन में रखती है फिर हम उस स्त्री को मंद यानि नीच, क्यों कहें, जिससे महान पुरुष जन्म लेते हैं।"
पितृसत्ता की विचारधरा ने स्त्री को पाप की जननी कहकर उसे मानवीय गरिमा प्रदान नहीं की। स्त्री मानव-शिशु को जन्म देकर सृष्टि को आगे बढ़ाती है, लेकिन उसे ही अस्पृश्य व्यवहार सहन करना पड़ता है। शिशु के चालीस दिन तक घर अपवित्र मान लिया जाना अंधविश्वास ही है। गुरु नानक ने सूतक सम्बन्धी अंधविश्वास पर प्रश्न चिह्न लगाकर स्त्री को मानवीय दर्जा दिया। उन्होंने कहा कि 'यदि सूतक मानना ही है तो इस प्रकार का सूतक मानो कि मन का सूतक लोभ है, जिह्वा का सूतक झूठ है। आंखों का सूतक दूसरे का धन तथा दूसरे की स्त्री का रूप देखना है। कानों का सूतक यह है कि बेफिक्र होकर दूसरे की चुगली सुनी जाए। हे नानक, बाह्य वेश में हंसों के समान मनुष्यों में भी यदि उपर्युक्त सूतक हैं तो वे बंधे हुए यमपुरी जाते हैं। सूतक सब भ्रम ही है, जो द्वैत भाव में फंसे हुए मनुष्यों को लग जाता है।
मन का सूतकु लोभु है जिह्वा सुतकु कूडू।
अखी सूतकु वेखणा परतृअ परधन रुप।।
कनी सुतकू कनि पै लाइत बारी खाहि।
नानक हंसा आदमी बधे जमपुरि जाहि।।
सभी सूतकु भरमु है दूजै लगै जाई।।
आज के राजा व्याघ्र के समान हिंसक हो गये हैं। इनके चौधरी कुत्तों के समान लालची हैं। ये लोग अपनी शांत-सुप्त प्रजा को अनायास सताते रहते हैं। राजाओं के नौकर अपने तेज नाखूनों से लोगों पर घाव करते हैं और उनका खून राजाओं के चौधरी चाट जाते हैं। जिस स्थान पर प्राणियों के कर्मों की छान-बीन होगी, वहां उन नाएतबारों की नाक काट ली जाएगी।
राजे सीह मुकद्दम कुत्ते।
जाइ जगाइन बैठे सुत्ते ।।
चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ।
रतू पितू कुतिहो चटि जाहु ।।
जिथै जीआं होसी सार ।
नकीं वढीं लाइतबार ।।
कलियुग छुरी की तरह है, इस युग के राजे कसाई हैं, धर्म पंख लगा कर उड़ गया है, झूठ की अमावस छाई हुई है, इसमें सचाई का चन्द्रमा कहीं दिखाई नहीं देता। मैं उस चन्द्रमा को ढूंढ-ढूंढ कर व्याकुल हो गयी हंू। अंधेरे में कोई मार्ग नहीं सूझता। जीवात्मा अहंकार के दु:ख में रो रहा है। हे नानक ! इस दु:खपूर्ण स्थिति से किस प्रकार छुटकारा हो ?
कलि काते राजे कासाई ध्रमु पखु करि उडिआ ।
कूडु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चडिआ ।।
हउ भालि विकुंनी होई ।
आधेरै राहु न कोई ।।
विचि हउमै करि दुखु रोई ।
कहु नानक किनि बिध् गति होई ।।
जीभ का लालच मानो राजा है, पाप वजीर और झूठ बनाने वाला सरदार अथवा चौधरी है। काम नायब है, इसे बुलाकर सलाह पूछी जाती है और यह बैठे-बैठे ही विचार करता है। प्रजा ज्ञान से विहिन होने के कारण अंधी हो गई है जिससे कि अग्निरूपी तृष्णा को रिश्वत दे रही है।
लबु पापु दुर राजा महता कूडू होआ सिकदारु।
कामु नेवू सदि पूछिऐ बहि बहि करै बीचारु।
अंधी रयति गिआन बिहूणी भाहि भरै मुरदारु।
राजा, प्रजा और भूमिपति भी नहीं बच पाएगा। दुकानें, नगर, बाजार उसके हुक्म से नष्ट हो जायेंगें। सुदृढ़ और भव्य महल तथा वस्तुओं से भरे भंडार जिन्हें मूर्ख व्यक्ति अपनी समझे बैठा है, एक क्षण में रिक्त हो जायेंगें। अरबी घोड़े, रथ और ऊंट, लोहे का झूल, बाग, जमीन घर बार अब कहां गए? तंबू, नीवार वाले पलंग, रेशमी कनातें सभी नष्ट हो जायेंगें। गुरु नानक कहते हैं कि हे मनुष्य तुम्हारी पहचान इन चीजों से नहीं होगी बल्कि स्वत्व से होगी।
राजे रैयत सिकदार कोई न रहसिऊ।
हट्ट पट्टन बाजार हुकुमी ढहसीऊ।।
पक्के बंक दुआर मूरख जाणै आपणै।
दरबि भरे भंडार रीते इकि खणै।।
ताजी रथ तुखर हाथी पाखरे।
बाग पलंग निवार सराइचे लालती।
नानक सच दातारु सिनाखतु कुदरती।।
''गुरु नानक भविष्य द्रष्टा थे। उन्होंने आध्यात्मिकता और नैति़़कता से प्रेरित संश्लिष्ट कर्मयुक्त जीवन का स्वप्न देखा था और ऐसे समाज की कल्पना की थी जो एक ओर स्वार्थी पुराहित वर्ग से मुक्त हो, दूसरी ओर निरंकुश राजाओं और उनके अत्याचारी चाटुकारों से।"8 अपने समय के भ्रष्टाचार और अन्याय को उदघाटित किया है। तत्कालीन शासन-व्यवस्था की पदसोपानिकता को उदघाटित किया है।
गुरुनानक का हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में कितना आदर था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु के संबंध में कहावत समाज में प्रचलित है। कहावत है कि गुरुनानक की मृत्यु के समय हिन्दू उनका दाह-संस्कार करना चाहते थे, जबकि मुसलमानों की जिद्द थी कि उन्हें दफनाया जाए।9 इससे यह जरूर स्पष्ट होता है कि गुरुनानक हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल हैं . गुरुनानक देव ने सभी धर्मों का आदर किया और सभी धर्मों के लोग उनके अनुयायी थे। उनका जीवन और सिद्घांत साम्प्रदायिक सदभाव की मिसाल है। उनके सिद्घांत मिली-जुली संस्कृति और विचारों का परिणाम हैं। समाज में व्याप्त भेदभावों को मिटाने के लिए तथा सामाजिक समानता व साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए गुरुनानक देव के विचार आज भी प्रासंगिक हैं।

संदर्भ:
1-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-1
2- गुरुबचन सिंह तालिब; गुरुनानक; साहित्य अकादमी, पृ.-9 से 12
3-सर्वपल्ली राधाकृण; हमारी संस्कृति; पृ.-96
4-वही; पृ. 96
5-महीप सिंह; गुरुनानक; सरस्वती विहार, दिल्ली; 1989; पृ.-27
6- गुरबचन सिंह तालिब; पृ.-17
7-वही पृ.-16
8- गुरुबचन सिंह तालिब; गुरुनानक; साहित्य अकादमी, दिल्ली; 2002; पृ.-7
9- कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-1