उत्पीडित सम्वेदना के कवि : हरेराम समीप
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
हरेराम समीप विगत तीन दशकों से निरन्तर साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। अभी तक उनकी गजलों के तीन संग्रह (हवा से भीगते हुए, आंधियों के दौर में, कुछ तो बोलो) प्रकाशित हो चुके हैं। दो संग्रह दोहों के (जैस, साथ चलेगा कौन) तथा कहानियों का एक संग्रह (समय से पहले) प्रकाशित हो चुका है। 'मैं अयोध्या...' नाम से उनकी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं के बारे में उनका कहना है कि ''ये वे छवियां हैं, जिन्होंने छंद या गद्य में आने से साफ इन्कार कर दिया था।" साहित्य में और विशेषकर कविता व गजल विधा में दिलचस्पी रखने वाले के लिए स्वाभाविक रूप से यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि आखिऱ जीवन के ऐसे कौन से अनुभव हैं जो गजल व दोहा जैसे परीक्षित व लम्बी परम्परा समेटे छंद में और आधुनिक समाज की सच्चाईयों को अभिव्यक्त करने वाली विधा कहानी में 'आने से साफ' इनकार करता है। कोई भी रचनाकार सिर्फ प्रयोग करने के लिए तो अपनी अभिव्यक्ति की विधा को नहीं बदलता। अनुभवों का विस्तार ही रचनाकार को ऐसा करने पर विवश करता है। रचनाकारों का एक से अधिक विधा में साहित्य सृजन के पीछे यही कारण रहा होगा। सही है कि कथ्य अपने शिल्प-रूप के साथ-साथ विधा भी चुनता है और चाहे कितना भी लचीला क्यों न हो, लेकिन हर विधा का अपना अनुशासन भी होता है।
हरेराम समीप की कविता कवि की व्यक्तिगत भावनाओं-उदगारों को व्यक्त नहीं करती, बल्कि वह अपने समाज के बृहत्तर सवालों-समस्याओं को भी अपने में समेटती है। मौजूदा सामाजिक-व्यवस्था के बर्बर व शोषणपरक चरित्र को उदघाटित करते हुए सामाजिक वर्गों की टकराहट को भी मुखर वाणी प्रदान करती हैं। शोषक व्यवस्था की राजनीति के कुचक्रों को सामने लाती हैं और इसके विरूद्ध पनप रहे जन-आक्रोश के संकेत भी देती है। समीप की वैचारिक दृष्टि कविताओं को अनुभवों व घटनाओं को ऐतिहासिक परिघटना के साथ जोड़कर ठोस जमीन प्रदान करती है। कवि रामकुमार कृषक ने समीप की कविताओं को 'समय को आवाज देती कविताएं' कहते हुए सही लिखा है कि ''इतिहास, और उसकी कोख से पैदा वर्तमान उनकी कविताओं की मुख्य भूमि है, और उस पर खड़े मनुष्य की त्रासद सच्चाइयां उनका मुख्य बयान। लेकिन इसी के साथ वे अपनी जनता के उन सपनों और आकांक्षाओं को भी आवाज़ देते हैं, जो एक मानवीय और समतामूलक समाज-संरचना की बुनियाद है। यही कारण है कि समीप की कविताएं उनकी गज़लों और दोहों की ही तरह हमसे सीधे संवाद करती हैं और हमारे अनुभवों को एक ज़रूरी वैचारिक परिप्रेक्ष्य देती हैं।"
पूंजीवादी वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवादी शोषण के औजार, तौर-तरीके व रूप बदले हैं। बाजार उसका सबसे बड़ा हथियार है और उपभोक्तावाद उसका दर्शन। बाजार व उपभोक्तावाद के जरिये मानवीय गरिमा ही नहीं, बल्कि मानव के अस्तित्व के लिए ही संकट पैदा कर रहा है। साम्राज्यवादी 'आखेटक' शोषण के नए-नए तरीके dhundh रहे हैं और शोषण को छुपाने के लिए रूप बदल-बदल कर पेश हो रही है। पूरा देश एक 'सेल' में तब्दील कर दिया है। 'सेल' की चमक-दमक लोगों को इस कदर लुभा रही है कि अपनी 'जेबें कटवाने' की होड़ लगी है। बाजार के साथ उसके मूल्य भी जीवन का हिस्सा बनते जा रहे हैं और बाजारी संस्कृति ही मानवीय संस्कृति का पर्याय बनती जा रही है।
'इंडीपाप' की भरमार ने
कबीर के भजनों की कैसेट को
ड्रायर में
धकेल दिया है पीछे
साहित्य के दंगल में
हास्य ने व्यंग्य को
मारा है घोड़ा-पछाड़
'वाह-वाह' के
मंत्रमुग्ध ठहाके
गूंज रहे हैं
कविता के नाम से
हा: हा: हा:
हमें अपनी भाषा बोलते हुए
आने लगी है शर्म
जैसे 'चीफ की दावत' में
मां को कर दिया गया हो
बगल की कोठरी में बंद
और हिदायत हो उसे कि
जब तक हमारे ठहाके चलते रहें
नहीं निकलना है कोठरी से बाहर ... (सेल)
'सेल-संस्कृति' की शोषणपरक-व्यवस्था समाज में असमानता की खाई को गहरा रही है। एक तरफ तो खूब ऐशो-आराम के साधनों का बोलबाला है, दूसरी तरफ घोर दरिद्रता। 'भारत बनाम इण्डिया' नारा मात्र नहीं है, यह समाज में असमानता की कहानी कह देता है।
संपन्नों के लिए
खुले हों,
आजाद नशे के अड्डे
जुए के फड़
डांस बार
मल्टीप्लेक्स, प्लाजा, माल, फनसिटी...
यानी
निठल्ली जमातों के लिए
नए ठौर-ठिकाने, स्वछन्द आमोद केन्द्र
लंपट संपन्नता ऐसे संवेदनशून्य मनुष्य पैदा कर रही है, जो फुटपाथ पर सोये लोगों को अपनी गाड़ी से कुचल सकते हैं, शराब सर्व न करने पर गोली मार सकते हैं। अपने मां-बाप की हत्या भी कर सकते हैं।
वर्तमान समाज राजनीतिक समाज है, लेकिन यह भी सही है कि आर्थिक-व्यवस्था के अनुकूल राजनीति का चरित्र होता है। जनविरोधी अर्थव्यवस्था है राजनीति भी उसी की तर्कसंगति में ही होगी। राजनीति पर नियंत्रण करके ही शोषक शक्तियां अपने शोषण को वैधता देती हैं। समीप की कविताएं राजनीति के चरित्र को उद्घाटित करती हैं। लोकतांत्रिक-व्यवस्था में बहुत से अधिकार जनता को मिले हैं, लेकिन सामन्ती-शक्तियों का वर्चस्व अभी कायम है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सामन्ती-परम्पराओं को समाप्त नहीं कर सकी हैं, बल्कि सामन्ती शक्तियों ने लोकतंत्र को बंधक बनाया हुआ है। जन-प्रतिनिधियों का चुनाव जरूर होता है, लेकिन चुनाव सत्ता प्राप्त करने का औजार मात्र बनकर रह गया है। विपक्ष हो या पक्ष दोनों में सत्ता प्राप्त करना ही मकसद है जनता के जीवन सुधार के सवाल यहां पीछे पड़ जाते हैं।
निकल पड़ी है शोभायात्रा
प्रजातंत्र की
गांव की पगडंडियों, गलियों से होकर
शहर की सड़कों और मैदानों की तरफ
रथों में बैठे हैं
राजा-रानी, राजकुमार और राजकुमारियां
पीछे हैं
सामंत, विदूषक, व्यापारी, माफिया डॉन
अपराधी, बाहुबली हंसते-मुस्कराते
प्रजा के सामने
हाथ जोड़े
मांग रहे हैं जनता से
उसकी सेवा का अधिकार
प्रजा के सामने
विनयानत है शासक (शोभायात्रा)
वर्तमान पूंजीवादी सामाजिक-व्यवस्था में राजनीति भी एक व्यापार की तरह है, सत्ता की भूख ने जनसेवा व समाज की बेहतरी का संकल्प गायब कर दिया है। राजनीति में प्रवेश से पहले और चुनाव जीतने के बाद भी राजनेताओं के पास जनसेवा कोई एजेण्डा नहीं होता। खिलाड़ी, सैनिक, मजदूर, डाक्टर सभी पेशों के मकसद उद्घाटित होते हैं और प्रत्येक के समक्ष अपने मकसद भी स्पष्ट होते हैं, लेकिन राजनेताओं के कार्य-व्यवहार पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए लिखते हैं कि
माननीय नेताजी!
चुनाव में हाथ जोड़े
जब आप आते हैं
हमारे सामने
या चुनाव जीतकर जब पहुंचते हैं
विधान-भवन में
सच कहिएगा
तब क्या सोच रहे होते हैं
सच कहिएगा (सच कहिएगा)
जनविरोधी सत्ता की राजनीति का चरित्र है जनता को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के आधार पर बांटकर उनको परस्पर लड़वाना। जनता की वर्गीय एकता व पहचान को समाप्त करके संकीर्ण आधर पर संगठित कर उसे आपस में ही उलझाए रखना। साम्प्रदायिकता की संकीर्ण राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का काफी नुक्सान किया है। साम्प्रदायिकता अब सिर्फ राजनीतिक सत्ता हासिल करने का साधन नहीं है, बल्कि राष्ट्र, धर्म, संस्कृति आदि को परिभाषित करने लगी है। साम्प्रदायिकता अन्तत: फासीवाद व तानाशाही में तब्दील हो जाती है, इसलिए कविता विरोधी भी है। मानवीय संघर्ष में बाधक समझते हुए रचनाकारों ने इस पर अपनी लेखनी चलाई है। साम्प्रदायिक शक्तियों को समझने के लिए 'मैं अयोध्या...', 'चीख', तथा 'वे' महत्त्वपूर्ण कविताएं हैं।
मैं जाना चाहता हूं
वर्तमान के पार
ख्वाबों का नया घर बसाने
वे दप्फन करना चाहते हैं मुझे
अतीत के उजाड़ कब्रिस्तान में
वे
प्रेम से करते हैं घृणा
और
घृणा से करते हैं प्रेम (वे)
साम्प्रदायिक फासीवादी व सामन्ती-पूंजीवादी शक्तियों की जनविरोधी राजनीति की वास्तविकता को समीप की कविताएं प्रस्तुत करती हैं, तो इसके खिलाफ जनता के पनप रहे रोष-आक्रोश व विद्रोह की भावना भी उनकी नजर से ओझल नहीं हैं। शोषण-उत्पीडऩ को सहन करती जनता का 'धीरज' समाप्त हो गया है और
एक बड़ी लड़ाई के लिए
कसमसा रहा है
गांव का धीरज'
सामाजिक परिवर्तन के लिए पुलिसिया दमन-उत्पीडऩ को सहते हुए संघर्ष जारी रखने वाले 'सत्येन' का क्रांतिकारी चरित्र बदलाव के संकेत छोड़ जाता है।
समाज के सबसे जागरूक और प्रखर माने जाने वाले वर्ग 'झंट' बुद्धिजीवी धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय के संघर्ष में उत्पीडि़त-पक्ष को छोड़कर उत्पीडि़त सत्ता के साथ मिल गए हैं और उसके चरित्र को समझते हुए भी उसके विरोध की बजाए चुप्पी साध लेते हैं। संवेदनशून्य व बेशर्म बुद्धिजीवी वर्ग समाज में पनप रही बुराइयों को बहुत अच्छी तरह से समझते हुए भी उनको दूर करने के लिए प्रयास नहीं करता। वह सत्ता पक्ष के साथ ही होता है। इस बारे में जब उनसे कोई बात करना चाहता है तो वे
या तो
ताकने लगते हैं आसमान
या फिर
गड़ा लेते हैं अपनी आंखें
धरती में
आमतौर पर देखा गया है कि कवि अपनी कविता से अपेक्षाओं के बारे में कविता अवश्य लिखते हैं। यह तो सही है कि इनके जरिये कवि अपने साहित्यिक सरोकारों को उदघाटित करता है और कविताओं को समझने की कुंजी भी इस तरह की कविताओं में होती है, लेकिन इससे कविता की क्षमता व शक्ति के प्रति एक अविश्वास भी झलकाता है। यह भी सही है कि समाज में वास्तविक संघर्ष के साथ साथ और उससे पहले विचारों का संघर्ष होता है। सामाजिक वर्ग अपने हितों को शब्दों के जरिये ही परिभाषित करते हैं। सभी वर्ग अपने विचार को समाज में स्थापित करते हैं, परिवर्तनकामी उत्पीडि़त वर्गों के लिए यह विशेषकर जरूरी है। लेकिन यह भी सही है कि वास्तविक संघर्ष में शामिल हुए बिना शब्दों का संघर्ष एक आत्मतुष्टि की जगह भी है। कवि-रचनाकार शब्द या कविता के संघर्ष को ही जीवन का संघर्ष मान बैठता है और कविता को बचाने की लड़ाई को ही मानव बचाने की लड़ाई मानने का भ्रम पाल बैठता है। कविता यहां परिवर्तन का औजार नहीं रहती, बल्कि जीवन व समाज-संघर्ष का स्थानापन्न बन जाती है। अपने कविता लेखन पर ही कवि आत्ममुग्ध हो जाता है और कविता लिखना मात्र ही उसके लिए क्रांतिकारी काम हो जाता है।
इस समय तुम
कविता की हिफाजत करो
क्योंकि हर तरफ से
असहाय होते मनुष्य के पास
हाथ टेकने के लिए
अंतत: रह जाएगी
बस यही
कविता-भर जमीन
कविता-भर ज़मीन
जितनी किसी टापू की
पुफनगी पर
मिल जाती है गौरैया को
इत्मीनान से सुस्ताने के लिए
जगह
कविता-भर ज़मीन
जहां बचा रहेगा
अंतिम समय में
आत्मरक्षा के लिए
छुपाया गया अंतिम अस्त्र
कविता-भर ज़मीन
जितनी मनुष्यता के लिए ध्वज को
फहराने के लिए ज़रूरी है
इसलिए
कविता की हिफाज़त करो
क्योंकि कविता
आत्मा की धड़कन है। (कविता भर जमीन)
आत्ममुग्ध कवि को कविता लिखना 'आनंद' देने लगती है और यहीं से कवि अपने खोल में घुसने लगते हैं। 'बड़े दिनों के बाद / लिखी जब मैने कविता / वैसा था आनंद' कि जैसे रावण को हराने के बाद सीता से मिलन हो या बरसों से मां को बिछुड़ा बेटा मिल गया हो, खोई डायरी वापस आ जाए या कोई बचपन का दोस्त मिल जाए वगैरा वगैरा। ये सब जीत के, खुशी के, राहत के ऐसे अहसास हैं जैसे कि कविता लिखने के बाद कुछ संघर्ष शेष नहीं रह जाता है।
सामाजिक संघर्ष में पूरी तरह इन्वाल्व न होने पर ही राष्ट्रपति से बचकाना सवाल कर सकता है। राष्ट्रपति से सीधे सीधे रू-ब-रू पूछने में जो नपुसंक ललकार थी भी वे टिपीकल मध्यवर्ग की नौकरी व बच्चों के भविष्य की चिरस्थायी चिंता में दूध के उफान की तरह बैठ जाती है। मध्यवर्गीय मानसिकता से उपजे कविकर्म की सीमाओं के प्रति कवि पूरी तरह से सचेत है।
समीप!
शब्दों को तरतीब देकर
तुम समझते हो कि अब
तुम्हारा काम रह गया है बस
प्रतीक्षा करना
कि तरतीबदार शब्दों की लड़ी
फुरफुराएगी, और
तुम्हारा शाब्दिक डायनामाइट
विस्फोट करेगा
दुखों का ये पहाड़ ढहेगा
आगे रास्ता खुलेगा!
परंतु लंबे इंतजार और
इतने प्रयत्नों के बावजूद
अभी तक तुम
मल रहे हो अपने हाथ
क्यों?
क्या सोचा कभी?
'समीप', मेरे दोस्त!
तुम शब्दों को कभी
नहीं बना पाए
छैनी, हथौड़ा या कुदाल
कि वे
करते अपना काम
तोड़ते पहाड़
और बनाते अपनी राह!
अपने नैतिक दायित्व को निभाने के लिए कानून और संविधान से सुरक्षा की गुहार संघर्षों से दूर रचनाकार ही लगाता है और जब कनपटी पर पिस्तौल रखी हो उसे कुछ नहीं सूझता। मध्यवर्ग की मानसिकता धरण किए कवि वक्त पर कुछ नहीं कर सकता, पश्चाताप करना उसकी नियति है।
कवि शब्दों के जरिये 'मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही के लिए रसद और शस्त्र की तरह उजास भरा' मंतव्य पहुंचाना चाहता है, लेकिन स्वयं को इससे अलग कर लेता है और शब्दों को अपना 'समर्थन और शुभकामनाएं' अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है और 'शब्द से उम्मीद करते हैं कि कठिन समय में मोर्चे पर डटे रहने की।' मध्यवर्गीय सोच, सुविधा व आदर्शवाद से कविता के बारे में इस तरह की सोच उपजती है।
अपने कविकर्म के प्रति कवि पूरी तरह सचेत है और अपने मालिक की 'अपेक्षा' पर उसकी झूठी तारीफ में तो कविता नहीं लिखता। जब कवि अपने मूल्यों को छोड़कर मालिक की 'अपेक्षा' पर खरा न उतरने का खतरे उठाता है, वहीं कविता पाठक को हिम्मत देती है और उसको संघर्ष के लिए तैयार करती है। प्रेम करने वाले युवक-युवतियों को सामन्ती-शक्तियां बर्बरता से कुचल रही हैं , लेकिन प्रेम करने वालों ने इसकी परवाह न मानते हुए मानवीय मूल्यों को जिन्दा रखा है।
आशावाद साहित्य की बहुत बड़ी ताकत है, बुरे वक्त में आशा जगाने वाली कविता ही पाठकों में हिम्मत पैदा करती है। निराशा-हताशा में डूबी कविता पाठक में सामाजिक परिवर्तन की आशा नहीं जगा सकती। यह भी सही है कि आशावाद असरकारी तभी होता है जब उसके पांव जमीन पर टिके हों। यदि वह वायवी हो अथवा मनोगत हो तो वह पाठक की कोई मदद नहीं करता। विश्वसनीय यथार्थ के साथ ही आशावाद पाठक को प्रभावित करता है। यथार्थ के बिना आशावाद खोखला और शब्दजाल मात्र है। समीप की कविताओं का आशावाद कोरा उपदेश नहीं, बल्कि सक्रियता लिये है, जो सकारात्मक बचा है उसी से आगे बढऩे की बात करती है। 'आस न छोड़ो', 'गुरसी' कविताएं इसे व्यक्त करती हैं।
कमरे की इन दीवारों में
कोई खिड़की निश्चित होगी
जिसके बाहर, स्वागत करने
नई रोशनी मिल जाएगी
जुगनू होंगे, दीपक होगा
चांद-सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो (आस न छोड़ो)
बिना आग के
महा भयानक इस सर्दी में
जीना विकट संकट है
''संकट कैसा?
चलो जलाएं आग!"
चेतना आकर बोली -
लाओ माचिस कागज़, तिनके
लकड़ी यहां-वहां से चुनकर (गुरसी)
गांव से आकर शहर में बसे आदमी की कमजोरी हो जाता है गांव। शहर की जिंदगी व संघर्ष से परेशान आदमी के लिए गांव की रोमानी तस्वीर कुछ राहत देती है। शहरी जीवन की विसंगतियां न होने के कारण गांव उसको अच्छा लगता है और गांव की वह ऐसी तस्वीर खींचता है जैसे स्वर्ग वहीं पर हो। सारी ऊर्जा अपने मनोगत गांव को प्रस्तुत करने में खर्च कर देता है। वास्तविक गांव की सच्चाइयों से इसका कोई वास्ता नहीं होता। वहां के अभाव, कष्ट, दुख उसको दिखाई नहीं देते। असल में वह एक मेहमान के तौर पर आता है और सैलानी की नजर से गांव को देखता है और उसको सब अच्छा अच्छा इसीलिए लगता है कि वह उसके अन्तर्विरोधों को नहीं पहचानता। हरेराम समीप की कविताएं ग्रामीण जीवन को 'प्रेम, उपकार, सहानुभूति व एकता' का पुंज मानते हुए अतिरिक्त महिमा मंडित करती हैं। असल में गांव को इस तरह से आदर्शीकृत करना हिन्दी कविता का पुराना रोग है।
मेरा गांव
योगफल है
मानवीय विश्वासों का।' (योगफल)
शहरी जीवन से दुखी-परेशान लेखक के कल्पना लोक का गांव मौका मिलते ही उजागर हो जाता है। गांव को आदर्शीकृत करने का रवैया कवि का सुविचारित व सचेत प्रयास नहीं है, बल्कि संस्कारगत है। कवि को गांव में अपनापन नजर आता है। अपनों में जाना सबको अच्छा लगता है, लेकिन कवि को गांव के लोग ही अपने लगते हैं, जिनके साथ वह काम करता है और रहता है उनका अपनों में न होना जीवन की विडम्बना ही है।
कि जैसे
मैं आ जाऊं गांव
बुढ़ापे में
अपनों के बीच (लिखी जब मैने कविता)
किसी कवि को अपनी इच्छा के पाठक नहीं मिलते, विभिन्न स्तरों तक अपनी बात पहुंचाने में जो कवि जितना समर्थ है सामाजिक बदलाव में उसकी उतनी ही बड़ी भूमिका है।
अपनी कविताओं की संप्रेषणीयता के नए-नए तरीके ढूंढने की जद्दोजहद के बिना कोई रचनाकार अपने मंतव्य को पाठकों तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हो सकता। संप्रेषणीयता के औजारों की तलाश में ही कवि कुछ मौलिक कह पाता है और इस मौलिक का ही कुछ असर भी होता है। समीप जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही अपनी कविता के औजार बनाते हैं। कविताएं बहुत ही सहज हैं, जीवन के छोटे-छोटे अहसास कविता में हैं, जिस वजह से कविता अपने पाठक रिश्ता धीरे से बना लेती हैं। हरेराम अभिव्यक्ति के औजारों को लगातार मांजते हैं। वे ऐसे प्रसंगों-घटनाओं को उठाते हैं, जो लोक शैलियां तो नहीं हैं, लेकिन बाजार ने उनको आम चेतना का हिस्सा बना दिया है। वे बाजार की सर्वाधिक प्रचलित शैली 'सेल' को कविता के बीच में रख देते हैं। 'सेल' के मतलब व संस्कृति से सब लोग परिचित हैं इसलिए कविता स्वत: ही खुलती चली जाती है। विज्ञापन के लुभावने व आम प्रचलित मुहावरों 'लो कल्लो बात' 'दुनिया मुठ्टी में' का प्रयोग पहले से जहन में मौजूद पुराने संदर्भ को तो खोलता ही है, उसे नए रूप में भी प्रस्तुत करता है।
समीप की कविताएं न केवल अपने कथ्य के स्तर पर पाठक को संबोधित हैं, बल्कि इनके रूप में भी संबोधन साफ-साफ दिखाई देता है। कभी यह 'साथी' के रूप में होता है, कभी 'जज' साहब के रूप में, कभी 'स्वयं' को संबोधित हैं। नाटकीयता से विचार-विमर्श की गुंजाइश बना लेते हैं। कविता पाठक से संवाद करने लगती है। लोक-प्रचलित शब्दों को भी समीप अपनी कविता में प्रयोग करते हैं। कविता में लोक का आगमन उसे लोकतांत्रिक बनाता है। लोक प्रचलित मुहावरों, शब्दों और शैलियों के प्रयोग से कविता जितनी उन्मुक्त व ताजी होती है उतना ही लोक भी होता है।
अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए रामायण-महाभारत की पौराणिक घटनाओं और चरित्रों व प्रसंगों का भी जिक्र कर देते हैं। ये प्रसंग या घटनाएं आम तौर पर लोगों की चेतना का हिस्सा होते हैं। बिना जांच-पड़ताल किए प्रचलित धरणा के आधर पर प्रयोग भी आम बात है। मसलन 'लिखी जब मैने कविता' में
बड़े दिनों के बाद
लिखी मैंने कविता
वैसा था आनंद
कि जैसे महासमर के बाद
दशानन-वध के तद्उपरांत
मिले थे ज्यों सीता से राम
असल में बात इसके बिल्कुल विपरीत है जब राम ने रावण को हरा दिया तो वे सीता से मिलने के लिए उतने व्यग्र नहीं थे, जितना कि आमतौर पर माना जाता है। वे सीता से काफी काम निपटा कर मिलते हैं और इन कामों में उसे लगभग भूल ही जाते हैं। प्रचलन के आधर पर प्रयोग किए गए प्रसंग आम चेतना में नई उद्भावनाएं पैदा नहीं करते, बल्कि पहले से जो प्रचलित है उसे ही कन्फर्म कर देते हैं। अपने समय की अभिव्यक्ति के लिए इस तरह का सीमित उपयोग उचित हो सकता है, लेकिन यह पूरी परम्परा को नए तरीके से परिभाषित नहीं करता। जिसका कि फायदा कवि ले सकते थे। सामाजिक परिवर्तन में लगे किसी भी कवि को अपने इतिहास और परम्परा को पुनर्परिभाषित भी करना पड़ता है और सत्ता के विचारों की जमी काई को उससे उतारना पड़ता है।
हरेराम समीप की कविता सर्वहारा मजदूर और किसानों के संघर्ष व जीवन को अपने में नहीं समेटती, लेकिन शोषित-पीडि़त वर्ग का वैचारिक परिप्रेक्ष्य कविताओं में मौजूद है।
हरेराम समीप विगत तीन दशकों से निरन्तर साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। अभी तक उनकी गजलों के तीन संग्रह (हवा से भीगते हुए, आंधियों के दौर में, कुछ तो बोलो) प्रकाशित हो चुके हैं। दो संग्रह दोहों के (जैस, साथ चलेगा कौन) तथा कहानियों का एक संग्रह (समय से पहले) प्रकाशित हो चुका है। 'मैं अयोध्या...' नाम से उनकी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं के बारे में उनका कहना है कि ''ये वे छवियां हैं, जिन्होंने छंद या गद्य में आने से साफ इन्कार कर दिया था।" साहित्य में और विशेषकर कविता व गजल विधा में दिलचस्पी रखने वाले के लिए स्वाभाविक रूप से यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि आखिऱ जीवन के ऐसे कौन से अनुभव हैं जो गजल व दोहा जैसे परीक्षित व लम्बी परम्परा समेटे छंद में और आधुनिक समाज की सच्चाईयों को अभिव्यक्त करने वाली विधा कहानी में 'आने से साफ' इनकार करता है। कोई भी रचनाकार सिर्फ प्रयोग करने के लिए तो अपनी अभिव्यक्ति की विधा को नहीं बदलता। अनुभवों का विस्तार ही रचनाकार को ऐसा करने पर विवश करता है। रचनाकारों का एक से अधिक विधा में साहित्य सृजन के पीछे यही कारण रहा होगा। सही है कि कथ्य अपने शिल्प-रूप के साथ-साथ विधा भी चुनता है और चाहे कितना भी लचीला क्यों न हो, लेकिन हर विधा का अपना अनुशासन भी होता है।
हरेराम समीप की कविता कवि की व्यक्तिगत भावनाओं-उदगारों को व्यक्त नहीं करती, बल्कि वह अपने समाज के बृहत्तर सवालों-समस्याओं को भी अपने में समेटती है। मौजूदा सामाजिक-व्यवस्था के बर्बर व शोषणपरक चरित्र को उदघाटित करते हुए सामाजिक वर्गों की टकराहट को भी मुखर वाणी प्रदान करती हैं। शोषक व्यवस्था की राजनीति के कुचक्रों को सामने लाती हैं और इसके विरूद्ध पनप रहे जन-आक्रोश के संकेत भी देती है। समीप की वैचारिक दृष्टि कविताओं को अनुभवों व घटनाओं को ऐतिहासिक परिघटना के साथ जोड़कर ठोस जमीन प्रदान करती है। कवि रामकुमार कृषक ने समीप की कविताओं को 'समय को आवाज देती कविताएं' कहते हुए सही लिखा है कि ''इतिहास, और उसकी कोख से पैदा वर्तमान उनकी कविताओं की मुख्य भूमि है, और उस पर खड़े मनुष्य की त्रासद सच्चाइयां उनका मुख्य बयान। लेकिन इसी के साथ वे अपनी जनता के उन सपनों और आकांक्षाओं को भी आवाज़ देते हैं, जो एक मानवीय और समतामूलक समाज-संरचना की बुनियाद है। यही कारण है कि समीप की कविताएं उनकी गज़लों और दोहों की ही तरह हमसे सीधे संवाद करती हैं और हमारे अनुभवों को एक ज़रूरी वैचारिक परिप्रेक्ष्य देती हैं।"
पूंजीवादी वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवादी शोषण के औजार, तौर-तरीके व रूप बदले हैं। बाजार उसका सबसे बड़ा हथियार है और उपभोक्तावाद उसका दर्शन। बाजार व उपभोक्तावाद के जरिये मानवीय गरिमा ही नहीं, बल्कि मानव के अस्तित्व के लिए ही संकट पैदा कर रहा है। साम्राज्यवादी 'आखेटक' शोषण के नए-नए तरीके dhundh रहे हैं और शोषण को छुपाने के लिए रूप बदल-बदल कर पेश हो रही है। पूरा देश एक 'सेल' में तब्दील कर दिया है। 'सेल' की चमक-दमक लोगों को इस कदर लुभा रही है कि अपनी 'जेबें कटवाने' की होड़ लगी है। बाजार के साथ उसके मूल्य भी जीवन का हिस्सा बनते जा रहे हैं और बाजारी संस्कृति ही मानवीय संस्कृति का पर्याय बनती जा रही है।
'इंडीपाप' की भरमार ने
कबीर के भजनों की कैसेट को
ड्रायर में
धकेल दिया है पीछे
साहित्य के दंगल में
हास्य ने व्यंग्य को
मारा है घोड़ा-पछाड़
'वाह-वाह' के
मंत्रमुग्ध ठहाके
गूंज रहे हैं
कविता के नाम से
हा: हा: हा:
हमें अपनी भाषा बोलते हुए
आने लगी है शर्म
जैसे 'चीफ की दावत' में
मां को कर दिया गया हो
बगल की कोठरी में बंद
और हिदायत हो उसे कि
जब तक हमारे ठहाके चलते रहें
नहीं निकलना है कोठरी से बाहर ... (सेल)
'सेल-संस्कृति' की शोषणपरक-व्यवस्था समाज में असमानता की खाई को गहरा रही है। एक तरफ तो खूब ऐशो-आराम के साधनों का बोलबाला है, दूसरी तरफ घोर दरिद्रता। 'भारत बनाम इण्डिया' नारा मात्र नहीं है, यह समाज में असमानता की कहानी कह देता है।
संपन्नों के लिए
खुले हों,
आजाद नशे के अड्डे
जुए के फड़
डांस बार
मल्टीप्लेक्स, प्लाजा, माल, फनसिटी...
यानी
निठल्ली जमातों के लिए
नए ठौर-ठिकाने, स्वछन्द आमोद केन्द्र
लंपट संपन्नता ऐसे संवेदनशून्य मनुष्य पैदा कर रही है, जो फुटपाथ पर सोये लोगों को अपनी गाड़ी से कुचल सकते हैं, शराब सर्व न करने पर गोली मार सकते हैं। अपने मां-बाप की हत्या भी कर सकते हैं।
वर्तमान समाज राजनीतिक समाज है, लेकिन यह भी सही है कि आर्थिक-व्यवस्था के अनुकूल राजनीति का चरित्र होता है। जनविरोधी अर्थव्यवस्था है राजनीति भी उसी की तर्कसंगति में ही होगी। राजनीति पर नियंत्रण करके ही शोषक शक्तियां अपने शोषण को वैधता देती हैं। समीप की कविताएं राजनीति के चरित्र को उद्घाटित करती हैं। लोकतांत्रिक-व्यवस्था में बहुत से अधिकार जनता को मिले हैं, लेकिन सामन्ती-शक्तियों का वर्चस्व अभी कायम है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सामन्ती-परम्पराओं को समाप्त नहीं कर सकी हैं, बल्कि सामन्ती शक्तियों ने लोकतंत्र को बंधक बनाया हुआ है। जन-प्रतिनिधियों का चुनाव जरूर होता है, लेकिन चुनाव सत्ता प्राप्त करने का औजार मात्र बनकर रह गया है। विपक्ष हो या पक्ष दोनों में सत्ता प्राप्त करना ही मकसद है जनता के जीवन सुधार के सवाल यहां पीछे पड़ जाते हैं।
निकल पड़ी है शोभायात्रा
प्रजातंत्र की
गांव की पगडंडियों, गलियों से होकर
शहर की सड़कों और मैदानों की तरफ
रथों में बैठे हैं
राजा-रानी, राजकुमार और राजकुमारियां
पीछे हैं
सामंत, विदूषक, व्यापारी, माफिया डॉन
अपराधी, बाहुबली हंसते-मुस्कराते
प्रजा के सामने
हाथ जोड़े
मांग रहे हैं जनता से
उसकी सेवा का अधिकार
प्रजा के सामने
विनयानत है शासक (शोभायात्रा)
वर्तमान पूंजीवादी सामाजिक-व्यवस्था में राजनीति भी एक व्यापार की तरह है, सत्ता की भूख ने जनसेवा व समाज की बेहतरी का संकल्प गायब कर दिया है। राजनीति में प्रवेश से पहले और चुनाव जीतने के बाद भी राजनेताओं के पास जनसेवा कोई एजेण्डा नहीं होता। खिलाड़ी, सैनिक, मजदूर, डाक्टर सभी पेशों के मकसद उद्घाटित होते हैं और प्रत्येक के समक्ष अपने मकसद भी स्पष्ट होते हैं, लेकिन राजनेताओं के कार्य-व्यवहार पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए लिखते हैं कि
माननीय नेताजी!
चुनाव में हाथ जोड़े
जब आप आते हैं
हमारे सामने
या चुनाव जीतकर जब पहुंचते हैं
विधान-भवन में
सच कहिएगा
तब क्या सोच रहे होते हैं
सच कहिएगा (सच कहिएगा)
जनविरोधी सत्ता की राजनीति का चरित्र है जनता को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के आधार पर बांटकर उनको परस्पर लड़वाना। जनता की वर्गीय एकता व पहचान को समाप्त करके संकीर्ण आधर पर संगठित कर उसे आपस में ही उलझाए रखना। साम्प्रदायिकता की संकीर्ण राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का काफी नुक्सान किया है। साम्प्रदायिकता अब सिर्फ राजनीतिक सत्ता हासिल करने का साधन नहीं है, बल्कि राष्ट्र, धर्म, संस्कृति आदि को परिभाषित करने लगी है। साम्प्रदायिकता अन्तत: फासीवाद व तानाशाही में तब्दील हो जाती है, इसलिए कविता विरोधी भी है। मानवीय संघर्ष में बाधक समझते हुए रचनाकारों ने इस पर अपनी लेखनी चलाई है। साम्प्रदायिक शक्तियों को समझने के लिए 'मैं अयोध्या...', 'चीख', तथा 'वे' महत्त्वपूर्ण कविताएं हैं।
मैं जाना चाहता हूं
वर्तमान के पार
ख्वाबों का नया घर बसाने
वे दप्फन करना चाहते हैं मुझे
अतीत के उजाड़ कब्रिस्तान में
वे
प्रेम से करते हैं घृणा
और
घृणा से करते हैं प्रेम (वे)
साम्प्रदायिक फासीवादी व सामन्ती-पूंजीवादी शक्तियों की जनविरोधी राजनीति की वास्तविकता को समीप की कविताएं प्रस्तुत करती हैं, तो इसके खिलाफ जनता के पनप रहे रोष-आक्रोश व विद्रोह की भावना भी उनकी नजर से ओझल नहीं हैं। शोषण-उत्पीडऩ को सहन करती जनता का 'धीरज' समाप्त हो गया है और
एक बड़ी लड़ाई के लिए
कसमसा रहा है
गांव का धीरज'
सामाजिक परिवर्तन के लिए पुलिसिया दमन-उत्पीडऩ को सहते हुए संघर्ष जारी रखने वाले 'सत्येन' का क्रांतिकारी चरित्र बदलाव के संकेत छोड़ जाता है।
समाज के सबसे जागरूक और प्रखर माने जाने वाले वर्ग 'झंट' बुद्धिजीवी धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय के संघर्ष में उत्पीडि़त-पक्ष को छोड़कर उत्पीडि़त सत्ता के साथ मिल गए हैं और उसके चरित्र को समझते हुए भी उसके विरोध की बजाए चुप्पी साध लेते हैं। संवेदनशून्य व बेशर्म बुद्धिजीवी वर्ग समाज में पनप रही बुराइयों को बहुत अच्छी तरह से समझते हुए भी उनको दूर करने के लिए प्रयास नहीं करता। वह सत्ता पक्ष के साथ ही होता है। इस बारे में जब उनसे कोई बात करना चाहता है तो वे
या तो
ताकने लगते हैं आसमान
या फिर
गड़ा लेते हैं अपनी आंखें
धरती में
आमतौर पर देखा गया है कि कवि अपनी कविता से अपेक्षाओं के बारे में कविता अवश्य लिखते हैं। यह तो सही है कि इनके जरिये कवि अपने साहित्यिक सरोकारों को उदघाटित करता है और कविताओं को समझने की कुंजी भी इस तरह की कविताओं में होती है, लेकिन इससे कविता की क्षमता व शक्ति के प्रति एक अविश्वास भी झलकाता है। यह भी सही है कि समाज में वास्तविक संघर्ष के साथ साथ और उससे पहले विचारों का संघर्ष होता है। सामाजिक वर्ग अपने हितों को शब्दों के जरिये ही परिभाषित करते हैं। सभी वर्ग अपने विचार को समाज में स्थापित करते हैं, परिवर्तनकामी उत्पीडि़त वर्गों के लिए यह विशेषकर जरूरी है। लेकिन यह भी सही है कि वास्तविक संघर्ष में शामिल हुए बिना शब्दों का संघर्ष एक आत्मतुष्टि की जगह भी है। कवि-रचनाकार शब्द या कविता के संघर्ष को ही जीवन का संघर्ष मान बैठता है और कविता को बचाने की लड़ाई को ही मानव बचाने की लड़ाई मानने का भ्रम पाल बैठता है। कविता यहां परिवर्तन का औजार नहीं रहती, बल्कि जीवन व समाज-संघर्ष का स्थानापन्न बन जाती है। अपने कविता लेखन पर ही कवि आत्ममुग्ध हो जाता है और कविता लिखना मात्र ही उसके लिए क्रांतिकारी काम हो जाता है।
इस समय तुम
कविता की हिफाजत करो
क्योंकि हर तरफ से
असहाय होते मनुष्य के पास
हाथ टेकने के लिए
अंतत: रह जाएगी
बस यही
कविता-भर जमीन
कविता-भर ज़मीन
जितनी किसी टापू की
पुफनगी पर
मिल जाती है गौरैया को
इत्मीनान से सुस्ताने के लिए
जगह
कविता-भर ज़मीन
जहां बचा रहेगा
अंतिम समय में
आत्मरक्षा के लिए
छुपाया गया अंतिम अस्त्र
कविता-भर ज़मीन
जितनी मनुष्यता के लिए ध्वज को
फहराने के लिए ज़रूरी है
इसलिए
कविता की हिफाज़त करो
क्योंकि कविता
आत्मा की धड़कन है। (कविता भर जमीन)
आत्ममुग्ध कवि को कविता लिखना 'आनंद' देने लगती है और यहीं से कवि अपने खोल में घुसने लगते हैं। 'बड़े दिनों के बाद / लिखी जब मैने कविता / वैसा था आनंद' कि जैसे रावण को हराने के बाद सीता से मिलन हो या बरसों से मां को बिछुड़ा बेटा मिल गया हो, खोई डायरी वापस आ जाए या कोई बचपन का दोस्त मिल जाए वगैरा वगैरा। ये सब जीत के, खुशी के, राहत के ऐसे अहसास हैं जैसे कि कविता लिखने के बाद कुछ संघर्ष शेष नहीं रह जाता है।
सामाजिक संघर्ष में पूरी तरह इन्वाल्व न होने पर ही राष्ट्रपति से बचकाना सवाल कर सकता है। राष्ट्रपति से सीधे सीधे रू-ब-रू पूछने में जो नपुसंक ललकार थी भी वे टिपीकल मध्यवर्ग की नौकरी व बच्चों के भविष्य की चिरस्थायी चिंता में दूध के उफान की तरह बैठ जाती है। मध्यवर्गीय मानसिकता से उपजे कविकर्म की सीमाओं के प्रति कवि पूरी तरह से सचेत है।
समीप!
शब्दों को तरतीब देकर
तुम समझते हो कि अब
तुम्हारा काम रह गया है बस
प्रतीक्षा करना
कि तरतीबदार शब्दों की लड़ी
फुरफुराएगी, और
तुम्हारा शाब्दिक डायनामाइट
विस्फोट करेगा
दुखों का ये पहाड़ ढहेगा
आगे रास्ता खुलेगा!
परंतु लंबे इंतजार और
इतने प्रयत्नों के बावजूद
अभी तक तुम
मल रहे हो अपने हाथ
क्यों?
क्या सोचा कभी?
'समीप', मेरे दोस्त!
तुम शब्दों को कभी
नहीं बना पाए
छैनी, हथौड़ा या कुदाल
कि वे
करते अपना काम
तोड़ते पहाड़
और बनाते अपनी राह!
अपने नैतिक दायित्व को निभाने के लिए कानून और संविधान से सुरक्षा की गुहार संघर्षों से दूर रचनाकार ही लगाता है और जब कनपटी पर पिस्तौल रखी हो उसे कुछ नहीं सूझता। मध्यवर्ग की मानसिकता धरण किए कवि वक्त पर कुछ नहीं कर सकता, पश्चाताप करना उसकी नियति है।
कवि शब्दों के जरिये 'मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही के लिए रसद और शस्त्र की तरह उजास भरा' मंतव्य पहुंचाना चाहता है, लेकिन स्वयं को इससे अलग कर लेता है और शब्दों को अपना 'समर्थन और शुभकामनाएं' अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है और 'शब्द से उम्मीद करते हैं कि कठिन समय में मोर्चे पर डटे रहने की।' मध्यवर्गीय सोच, सुविधा व आदर्शवाद से कविता के बारे में इस तरह की सोच उपजती है।
अपने कविकर्म के प्रति कवि पूरी तरह सचेत है और अपने मालिक की 'अपेक्षा' पर उसकी झूठी तारीफ में तो कविता नहीं लिखता। जब कवि अपने मूल्यों को छोड़कर मालिक की 'अपेक्षा' पर खरा न उतरने का खतरे उठाता है, वहीं कविता पाठक को हिम्मत देती है और उसको संघर्ष के लिए तैयार करती है। प्रेम करने वाले युवक-युवतियों को सामन्ती-शक्तियां बर्बरता से कुचल रही हैं , लेकिन प्रेम करने वालों ने इसकी परवाह न मानते हुए मानवीय मूल्यों को जिन्दा रखा है।
आशावाद साहित्य की बहुत बड़ी ताकत है, बुरे वक्त में आशा जगाने वाली कविता ही पाठकों में हिम्मत पैदा करती है। निराशा-हताशा में डूबी कविता पाठक में सामाजिक परिवर्तन की आशा नहीं जगा सकती। यह भी सही है कि आशावाद असरकारी तभी होता है जब उसके पांव जमीन पर टिके हों। यदि वह वायवी हो अथवा मनोगत हो तो वह पाठक की कोई मदद नहीं करता। विश्वसनीय यथार्थ के साथ ही आशावाद पाठक को प्रभावित करता है। यथार्थ के बिना आशावाद खोखला और शब्दजाल मात्र है। समीप की कविताओं का आशावाद कोरा उपदेश नहीं, बल्कि सक्रियता लिये है, जो सकारात्मक बचा है उसी से आगे बढऩे की बात करती है। 'आस न छोड़ो', 'गुरसी' कविताएं इसे व्यक्त करती हैं।
कमरे की इन दीवारों में
कोई खिड़की निश्चित होगी
जिसके बाहर, स्वागत करने
नई रोशनी मिल जाएगी
जुगनू होंगे, दीपक होगा
चांद-सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो (आस न छोड़ो)
बिना आग के
महा भयानक इस सर्दी में
जीना विकट संकट है
''संकट कैसा?
चलो जलाएं आग!"
चेतना आकर बोली -
लाओ माचिस कागज़, तिनके
लकड़ी यहां-वहां से चुनकर (गुरसी)
गांव से आकर शहर में बसे आदमी की कमजोरी हो जाता है गांव। शहर की जिंदगी व संघर्ष से परेशान आदमी के लिए गांव की रोमानी तस्वीर कुछ राहत देती है। शहरी जीवन की विसंगतियां न होने के कारण गांव उसको अच्छा लगता है और गांव की वह ऐसी तस्वीर खींचता है जैसे स्वर्ग वहीं पर हो। सारी ऊर्जा अपने मनोगत गांव को प्रस्तुत करने में खर्च कर देता है। वास्तविक गांव की सच्चाइयों से इसका कोई वास्ता नहीं होता। वहां के अभाव, कष्ट, दुख उसको दिखाई नहीं देते। असल में वह एक मेहमान के तौर पर आता है और सैलानी की नजर से गांव को देखता है और उसको सब अच्छा अच्छा इसीलिए लगता है कि वह उसके अन्तर्विरोधों को नहीं पहचानता। हरेराम समीप की कविताएं ग्रामीण जीवन को 'प्रेम, उपकार, सहानुभूति व एकता' का पुंज मानते हुए अतिरिक्त महिमा मंडित करती हैं। असल में गांव को इस तरह से आदर्शीकृत करना हिन्दी कविता का पुराना रोग है।
मेरा गांव
योगफल है
मानवीय विश्वासों का।' (योगफल)
शहरी जीवन से दुखी-परेशान लेखक के कल्पना लोक का गांव मौका मिलते ही उजागर हो जाता है। गांव को आदर्शीकृत करने का रवैया कवि का सुविचारित व सचेत प्रयास नहीं है, बल्कि संस्कारगत है। कवि को गांव में अपनापन नजर आता है। अपनों में जाना सबको अच्छा लगता है, लेकिन कवि को गांव के लोग ही अपने लगते हैं, जिनके साथ वह काम करता है और रहता है उनका अपनों में न होना जीवन की विडम्बना ही है।
कि जैसे
मैं आ जाऊं गांव
बुढ़ापे में
अपनों के बीच (लिखी जब मैने कविता)
किसी कवि को अपनी इच्छा के पाठक नहीं मिलते, विभिन्न स्तरों तक अपनी बात पहुंचाने में जो कवि जितना समर्थ है सामाजिक बदलाव में उसकी उतनी ही बड़ी भूमिका है।
अपनी कविताओं की संप्रेषणीयता के नए-नए तरीके ढूंढने की जद्दोजहद के बिना कोई रचनाकार अपने मंतव्य को पाठकों तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हो सकता। संप्रेषणीयता के औजारों की तलाश में ही कवि कुछ मौलिक कह पाता है और इस मौलिक का ही कुछ असर भी होता है। समीप जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही अपनी कविता के औजार बनाते हैं। कविताएं बहुत ही सहज हैं, जीवन के छोटे-छोटे अहसास कविता में हैं, जिस वजह से कविता अपने पाठक रिश्ता धीरे से बना लेती हैं। हरेराम अभिव्यक्ति के औजारों को लगातार मांजते हैं। वे ऐसे प्रसंगों-घटनाओं को उठाते हैं, जो लोक शैलियां तो नहीं हैं, लेकिन बाजार ने उनको आम चेतना का हिस्सा बना दिया है। वे बाजार की सर्वाधिक प्रचलित शैली 'सेल' को कविता के बीच में रख देते हैं। 'सेल' के मतलब व संस्कृति से सब लोग परिचित हैं इसलिए कविता स्वत: ही खुलती चली जाती है। विज्ञापन के लुभावने व आम प्रचलित मुहावरों 'लो कल्लो बात' 'दुनिया मुठ्टी में' का प्रयोग पहले से जहन में मौजूद पुराने संदर्भ को तो खोलता ही है, उसे नए रूप में भी प्रस्तुत करता है।
समीप की कविताएं न केवल अपने कथ्य के स्तर पर पाठक को संबोधित हैं, बल्कि इनके रूप में भी संबोधन साफ-साफ दिखाई देता है। कभी यह 'साथी' के रूप में होता है, कभी 'जज' साहब के रूप में, कभी 'स्वयं' को संबोधित हैं। नाटकीयता से विचार-विमर्श की गुंजाइश बना लेते हैं। कविता पाठक से संवाद करने लगती है। लोक-प्रचलित शब्दों को भी समीप अपनी कविता में प्रयोग करते हैं। कविता में लोक का आगमन उसे लोकतांत्रिक बनाता है। लोक प्रचलित मुहावरों, शब्दों और शैलियों के प्रयोग से कविता जितनी उन्मुक्त व ताजी होती है उतना ही लोक भी होता है।
अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए रामायण-महाभारत की पौराणिक घटनाओं और चरित्रों व प्रसंगों का भी जिक्र कर देते हैं। ये प्रसंग या घटनाएं आम तौर पर लोगों की चेतना का हिस्सा होते हैं। बिना जांच-पड़ताल किए प्रचलित धरणा के आधर पर प्रयोग भी आम बात है। मसलन 'लिखी जब मैने कविता' में
बड़े दिनों के बाद
लिखी मैंने कविता
वैसा था आनंद
कि जैसे महासमर के बाद
दशानन-वध के तद्उपरांत
मिले थे ज्यों सीता से राम
असल में बात इसके बिल्कुल विपरीत है जब राम ने रावण को हरा दिया तो वे सीता से मिलने के लिए उतने व्यग्र नहीं थे, जितना कि आमतौर पर माना जाता है। वे सीता से काफी काम निपटा कर मिलते हैं और इन कामों में उसे लगभग भूल ही जाते हैं। प्रचलन के आधर पर प्रयोग किए गए प्रसंग आम चेतना में नई उद्भावनाएं पैदा नहीं करते, बल्कि पहले से जो प्रचलित है उसे ही कन्फर्म कर देते हैं। अपने समय की अभिव्यक्ति के लिए इस तरह का सीमित उपयोग उचित हो सकता है, लेकिन यह पूरी परम्परा को नए तरीके से परिभाषित नहीं करता। जिसका कि फायदा कवि ले सकते थे। सामाजिक परिवर्तन में लगे किसी भी कवि को अपने इतिहास और परम्परा को पुनर्परिभाषित भी करना पड़ता है और सत्ता के विचारों की जमी काई को उससे उतारना पड़ता है।
हरेराम समीप की कविता सर्वहारा मजदूर और किसानों के संघर्ष व जीवन को अपने में नहीं समेटती, लेकिन शोषित-पीडि़त वर्ग का वैचारिक परिप्रेक्ष्य कविताओं में मौजूद है।