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रहीम

रहीम
सुबहश चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

प्रख्यात कवि अब्दुर्रहीम खाननखाना यानी रहीम अकबर के मन्त्री और सेनापति थे। ये अकबर के नवरत्नों में थे। मुगल बादशाह ''हुमायूं ने हिन्दुस्तान के जमींदारों से सम्बन्ध बनाने के लिए उनकी पुत्रियों से विवाह किया। हुसैन खां मेवाती का चचेरा भाई जमाल खां हुमायूं के पास आया। उसकी बड़ी पुत्री का विवाह हुमायूं से और छोटी का बैरम खां से कर दिया। इसी मेव कन्या से 17 दिसम्बर, 1556 को लाहौर में अब्दुर्रहीम का जन्म हुआ।"1 रहीम के पिता बैरम खां मुगल बादशाह हुमायूं के विश्वास पात्र थे, उन्होंने बैरम खां को अकबर का संरक्षक बना दिया था। रहीम के जन्म के चार वर्ष बाद ही उनके पिता को गुजरात में एक पठान ने मार डाला। अकबर ने रहीम का पालन-पोषण व शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की बेटी महाबानू से रहीम का विवाह करा दिया।
रहीम बहादुर योद्घा थे। अपने रण-कौशल, सूझ-बूझ, शौर्य और पराक्रम का परिचय देकर शत्रु सेना पर विजय प्राप्त की। गुजरात विजय की खुशी में अकबर ने इन्हें पांच हजारी मनसब और खाननखाना की उपाधि प्रदान की। रहीम ने भी गुजरात विजय पर अपने मित्रों, सम्बधियों, सेवकों को उपहार भेंटस्वरूप प्रदान किए। मुगल शासन की सर्वोच्च उपाधि 'वकील' भी इन्हें प्राप्त हुई। टोडरमल के बाद यह उपाधि रहीम को ही मिली थी।
रहीम का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। ''रहीम ने अपने जीवन में कभी सुख-संतोष की सांस नहीं ली। किशोरावस्था से वृद्घावस्था तक युद्घ और राजनीतिक संघर्षों से उन्हें जूझना पड़ा। पारिवारिक दृष्टि से भी वे कभी सुखी नहीं रहे। पत्नी, चारों पुत्र और दामाद की मृत्यु का शोक उनके साथ बना रहा। जवान बेटों को खोकर रणभूमि में अडिग भाव से खड़े रहे, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। रहीम ने अपने पुत्र का कटा सिर अपनी आंखों से देखा, अपने पौत्रों का वध देखा और निर्मम हत्याओं का भीषण हाहाकार। रहीम ने अपने जीवन में ऐश्वर्य का भोग नहीं किया। धन-ऐश्वर्य उनके पास आता-जाता रहा, किन्तु विलास की ओर उनका ध्यान नहीं गया। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे लाहौर में थे किन्तु उनकी इच्छा दिल्ली में ही प्राण छोड़ऩे की थी। लाहौर से बीमारी की हालत में ही दिल्ली पहुंचे और सन् 1627 ई. के अप्रैल मास में उनका प्राणांत हो गया। मरण के समय उनकी आयु साढ़े इकहतर वर्ष की थी। दिल्ली में हुमांयू के मकबरे के समीप उन्होंने अपनी बीवी का मकबरा बनवाया था, उसी मकबरे में इन्हें भी दफनाया गया। आज भी यह मकबरा खड़ा है और एक सच्चे भारत सपूत के पार्थिव शरीर को अपने आंचल में दबाये उसकी याद को ताजा कर रहा है। इस मकबरे में उस महान विभूति का पार्थिव शरीर दबा हुआ है जो अपने उदात्त चरित्र, अद्भुत प्रतिभा, धार्मिक सहिष्णुता और साहित्यिक संवेदना के कारण सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।"2
अकबर स्वयं हिन्दुस्तान की मिली-जुली संस्कृति के निर्माताओं में थे। रहीम पर इसकी गहरी छाप थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक में लिखा कि ''अकबर के दीन-ए-इलाही में हिन्दुत्व को जो स्थान दिया होगा, रहीम ने कविताओं में उसे उससे भी बड़ा स्थान दिया। प्रत्युत् यह समझना अधिक उपयुक्त है कि रहीम ऐसे मुसलमान हुए हैं जो धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्घ भारतीय थे।"3 रहीम के व्यक्तित्व को किसी धर्म, जाति या स्थान तक सीमित नहीं किया जा सकता, ''जन्म से तुर्क, मजहब से मुसलमान और नागरिकता से भारतीय होने पर भी रहीम इन संकीर्ण सीमाओं में बंधे न होकर एक सच्चे मानव का प्रतिरूप थे। जाति, धर्म और देश की सीमाओं का उन्होंने अपनी काव्यात्मक रचनाओं में जिस उदात्त शैली से अतिक्रमण किया है वह संस्कृति-पुरुष का आदर्श है।"4
रहीम ने अपने व्यस्त व उलझन भरे जीवन के बावजूद बहुत महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचनाओं का सृजन किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में 'दोहावली', 'नगर शोभा', 'बरवै नायिका भेद', 'बरवै', 'श्रृंगार सोरठ', 'मदनाष्टक', 'फुटकर पद', 'संस्कृत श्लोक', 'खेद कौतुकजातकम' व फारसी की दो रचनाएं 'वाकेआत बाबरी' तथा 'फारसी दीवान' हैं।
कहा तो जाता है कि रहीम ने 'सतसई' की रचना की थी, लेकिन कोई प्रामाणिक कृति उपलब्ध नहीं है। सम्पादकों ने उनके दोहों को संकलित किया उनमें 300 से कम दोहे ही मिलते हैं। सुरेन्द्रनाथ तिवारी ने 'रहीम कवितावली' में 254 दोहे; लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी ने 'रहिमन-नीति दोहावली' में 203 दोहे; रामनरेश त्रिपाठी ने 'रहीम' में 233 दोहे; अयोध्या प्रसाद ने 'रहीमन विनोद' में 268 दोहे; मायाशंकर याज्ञिक ने 'रहीम रत्नावली' में 270 दोहे; ब्रजरत्न दास व रामनारायण लाल ने 'रहिमन विलास' में 279 दोहे तथा विद्यानिवास मिश्र व गोविन्द रजनीश ने 'रहीम ग्रंथावली' में 300 दोहे संकलित किए हैं।
रहीम को कई भाषाओं में दक्षता हासिल थी। ये तुर्की, फारसी, अरबी, संस्कृत और हिन्दी का प्रयोग अपनी रचनाओं में बड़ी सफलता से करते थे। ''रहीम का काव्य प्रयोगधर्मी है। जिस प्रकार परम्परागत छन्दों के साथ नये छन्दों में काव्य रचना की ओर वे प्रवृत्त हुए; उसी प्रकार भाषा-वैविध्य को अपनाते हुए उन्होंने फारसी, खड़ी बोली, संस्कृत, अवधी, ब्रज के अतिरिक्त राजस्थानी और पंजाबी आदि का भी उन्होंने प्रयोग किया है। मिश्र भाषा में काव्य रचना का प्रयास अमीर खुसरो तथा शांर्गधर कर चुके थे। कुछ लोगों ने 'मदनाष्टक' की भाषा को रेख्ता माना है, जिसका प्रयोग उस समय दक्षिण में होने लगा था।"5
रहीम की हिन्दी के प्रसिद्घ कवि तुलसीदास से दोस्ती थी। जब तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना की तो रहीम ने 'हिन्दुआन को वेद सम, तुरुकहिं प्रगट कुरान' कहकर उसकी प्रशंसा की और यह स्वीकार किया कि यह हिन्दुओं के लिए वेद है और मुसलमानों के लिए कुरान है।6 रहीम की रचना 'बरवै नायिका भेद' नायिका-भेद संबंधी ग्रंथों में सबसे प्राचीन है। अवधी भाषा में रचित रहीम के बरवों से ही तुलसीदास को 'बरवै रामायण' रचने की प्रेरणा मिली।
रहीम हिन्दी के कवियों से घिरे रहते थे और उनको इनाम देते थे। इनकी दानशीलता और उदारता मिथक और लोकाख्यान बन गई थी। हिन्दी के अधिकांश कवि उनके द्वारा पुरस्कृत हुए। इनमें हिन्दी के कवि - गंग को एक छन्द पर सर्वाधिक राशि 36 लाख रूपए प्राप्त हुई। हिन्दी-फारसी के कवियों ने रहीम की प्रशंसा की--केशव दास, गंग, मंडन, हरनाथ, अलाकुली खां, ताराकवि, मुकुन्द कवि, मुल्लामुहम्मद रजा 'नबी', मीर मुगीस माहवी हमदानी, युलकलि बेग, उरफी नजीरी, हयाते जिलानी के आदि नाम उल्लेखनीय हैं। रहीम दान देते समय आंख उठाकर ऊपर नहीं देखते थे। याचक के रूप में आए लोगों को बिना देखे वे दान देते थे। गंग कवि और रहीम के बीच इस सम्बन्ध में हुआ संवाद प्रसिद्घ है। गंग कवि ने रहीम से पूछा -
सीखे कहां नवाबजू, ऐसी दैनी देन
ज्यों-ज्यों कर ऊंचा करो त्यों-त्यों नीचे नैन।।
रहीम ने गंग कवि की बात का उत्तर बड़ी विनम्रतापूर्वक दिया-
देनदार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन।।
रहीम की कविताओं में हिन्दू देवता शिव, विष्णु और हिन्दुओं में पूज्य मानी जाने वाली नदी गंगा का श्रद्धा पूर्वक वर्णन किया है।
अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल।।
विष्णु भगवान के चरणों में प्रवाहित होने वाली और महादेव जी के मस्तक पर मालती माला के समान सुशाभित होने वाली हे गंगे, मुझे तारने के समय महादेव बनाना न कि विष्णु।
रहीम ने अपनी कविताओं में श्रीकृष्ण की भक्ति को विषय बनाया है। उन्होंने श्रीकृष्ण को पूरा काव्य अर्पित किया। उन्होंने जितनी सहजता के साथ श्रीकृष्ण के विरह के चित्र खींचे हैं । उससे उनकी श्रीकृष्ण के प्रति गहरी आस्था की झलक मिलती है। रहीम कहते हैं कि उसका मन चकोर की तरह है, जिसका ध्यान हमेशा अपने प्रेमी इष्ट चांद की ओर लगा रहता है। रहीम का कहना है कि उसका मन भी चकोर की तरह है जिसका ध्यान हमेशा अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण की ओर की लगा रहता हैं
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारु चकोर ।
निसि बासर लागो रहै, कृष्णचन्द्र की ओर ।।
श्रीकृष्ण की जीवन लीलाओं और उसके प्रेम की गहरी जानकारी थी इस का अनुमान उनके बारे में प्रसिद्घ इस कहानी से आसानी से लगाया जा सकता है। एक बार तानसेन ने अकबर के दरबार में एक पद गाया--
जसुदा बार बार यों भाखै।
है कोउ ब्रज में हितू, हमारो चलत गोपालहिं राखै।
अकबर ने अपने सभासदों से इसका अर्थ करने को कहा। तानसेन ने कहा कि यशोदा 'बार बार' का अर्थ पुन: पुन: यह पुकार लगाती है कि है कोई ऐसा हितू जो गोपाल को ब्रज में रोक ले। शेख फैजी ने अर्थ किया , 'बार बार' रो-रोकर यह रट लगाती है। बीरबल ने कहा कि 'बार बार' का अर्थ द्वार द्वार जाकर यशोदा प्रतिदिन यही रटती है। अन्त में अकबर ने खानखाना रहीम से पूछा । रहीम ने कहा कि तानसेन गायक हैं, इनको एक ही पद को अलापना रहता है, इसलिए इन्होंने 'बार बार' का अर्थ पुनरुक्ति किया। शेख फैजी फारसी के शायर हैं, इन्हें रोने के सिवा और क्या काम है। राजा बीरबल द्वार द्वार घूमने वाले ब्राह्मण हैं, इसलिए इनको बार बार का अर्थ द्वार ही उचित लगा। खाने आजम कोका ज्योतिषी हैं उन्हें तिथि-बार से ही वास्ता रहता है इसलिए उन्होंने'बार बार' का अर्थ दिन दिन किया। परन्तु वास्तविक अर्थ यह है कि यशोदा का बाल बाल यानि रोम रोम पुकारता है कि कोई तो मिले जो मेरे गोपाल को ब्रज में रोक ले।
इससे रहीम की साहित्यिक प्रतिभा का तो पता चलता ही है, इसका भी पता चलता है कि वे हिन्दुस्तानी रंग में कितने अधिक रंगे हुए थे। उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम किसी कृष्ण भक्ति के कवि से कम नहीं है। रहीम के कृष्ण के प्रति गहरी अनुरक्ति से सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि रहीम हिन्दू और मुस्लिम को जोडऩे वाली कड़ी हैं, इनका जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता की मिसाल है।
रहीम की एक ज्योतिष संबंधी छोटी सी रचना है 'खेटक कौतुकम'। इसमें संस्कृत, फारसी और हिन्दी तीनों भाषाओं का मिश्रण है।
यदामुश्तरीकर्कटेवाकमाने,यदाचश्मखोराजमीवासमाने
तदा ज्योतिषी क्या कहै, क्या पढैगा? हुआ बालका पादशाही करैगा।
रहीम ने संस्कृत के श्लोक श्रीकृष्ण को, राम को ओर गंगा को संबोधित किये हैं। ये तीनों हिन्दुओं के परम आदरणीय हैं। रहीम ने इनका वर्णन करके हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव को मजबूत किया। कृष्ण को संबोधित श्लोक में तो रहीम अपने हृदय के गहन अंधकार में माखनचोर श्रीकृष्ण को छिप जाने का निमन्त्रण देते हैं। यह बड़ी सुरक्षित जगह है, यहां तुम्हें कोई नहीं पकड़ सकता।
नवनीतसारमपहृत्य शंकया स्वीकृतं यदि पलायनं त्वया।
मानसे मम घनान्धतामसे नन्दनन्दन कथे न लीयसे।।

''प्राचीन भारतीय साहित्य से ही सूक्ति की एक परम्परा चली आ रही है। वह सूक्ति जीवन के निरीक्षण और गहरी अनुभूति से जब उभरती है तो सटीक होती है और तब वह जनजीवन की स्मृति का ही नहीं, बल्कि उसकी मति का भी और उसकी प्रज्ञा का भी अंग बन जाती है। इन सूक्तियों को आदमी केवल याद ही नहीं रखता, उनको जीता भी है और उनसे प्रेरित होकर अपने कर्तव्य का निर्धारण भी करता है। रहीम की सूक्तियों की विशेषता यह है कि उनके सारे दृष्टांत या तो पुराणों से लिए गए हैं या फिर सामान्य जीवन से। दृष्टांतों के चयन में मौलिकता और उनकी निरीक्षण शक्ति का पता चलता है।"7
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम।।
रहीम ने अपनी रचनाओं में हिन्दू देवी देवताओं तथा उन चीजों का बहुत अधिक प्रयोग किया जिनको हिन्दू धर्म में आदर से देखा जाता है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता हे कि उस समय हिन्दू और मुसलमान आपस में कितने गहरे से जुड़े हुए थे। एक दूसरे के विश्वासों को जानना समझना चाहते थे।
भज मन राम सियापति, रघुकूल ईस।
दीन बंधु दुख टारन, कौसलधीस ।।
रहीम के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि ''रहीम ने अपने उदार और ऊंचे हृदय को संसार के वास्तविक व्यवहारों के बीच रखकर जो संवेदना प्राप्त की है उसकी व्यंजना अपने काव्य में की है। तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिन्दी-भाषी भू-भाग में सर्वसाधरण के मुंह पर रहते हैं। इसका कारण है जीवन की परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव। रहीम के दोहे वृन्द और गिरधर के पद्यों के समान नीति पद्य नहीं हैं। उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर एक सच्चा हृदय झांक रहा है। जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी, वही जनता का प्यारा होगा। रहीम का हृदय द्रवीभूत होने के लिए कल्पना की उड़ान की अपेक्षा नहीं रखता। वह संसार के सच्चे और प्रत्यक्ष व्यवहारों में ही अपने द्रवीभूत होने के लिए पर्याप्त स्वरूप पा जाता था"।8
अपने जीवन में रहीम ने बहादुरी से युद्घ किए, कितनी ही उल्लेखनीय विजयें प्राप्त कीं। युद्घों की योजना, रणनीतिक व्यूहरचना में पारंगत थे। लेकिन गौर करने की बात है कि उनकी कविता में न तो युद्घों को महिमामंडित किया गया है और न ही युद्घों का वर्णन है। जीवन में तो युद्घों ने कभी पीछा नहीं छोड़ा , लेकिन उनकी कविता से लगभग गायब हैं। प्रेम, सद्भाव व जन-व्यवहार ही उनकी कविता की केन्द्रीय विषयवस्तु है। रहीम की कविताओं का प्रेम न तो रीतिकाल के कवियों की तरह वासना से परिपूर्ण है और न ही भक्तिकाल के कवियों की तरह उसमें पराभौतिक बिम्ब हैं।
लोक अनुभव उनके काव्य की पूंजी है। लोक-व्यवहार को उनके दोहे अपने में समेटे हुए हैं।
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम।।

काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।
रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर।।

कहु रहिम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।

थोथे बादर क्वार, ज्यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात।।

कहि रहीम धन बढि़ घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जो खात।।

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।

जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर।।

जो रहीम ओछो बढै़, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।।

टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।।

रहिमन राज सराहिए, ससिसम सुखद जो होय।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय।।

संदर्भ:
1 विद्यानिवास मिश्र; रहीम ग्रंथावली; पृ.-28
2- विजेन्द्र स्नातक; रहीम; साहित्य अकादमी; दिल्ली; पृ. 20
3- विजेन्द्र स्नातक; रहीम; पृ. 11
4- विजेन्द्र स्नातक; रहीम; पृ. 7
5 रहीम ग्रंथावली; पृ.-64
6- रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ. 34
7 रहीम ग्रंथावली; पृ.-17
8- विजेन्द्र स्नातक; रहीम; पृ. 50