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नींद में एक घरेलू स्त्रीः बाजारवाद से संघर्ष

हरियाणा के प्रतिष्ठित रचनाकार रामकुमार आत्रेय की लघुकथाओं, कहानियों और कविताओं से गुजरना अपने समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं और वैयक्तिक मानस के भीतर हो रहे परिवर्तनों को पहचानना है। उनकी कविताओं का संग्रह नींद में एक घरेलू स्त्री अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। ये कविताएं बाजारवादी मूल्य और सामाजिक संघर्ष के प्रति व्यक्ति की उदासीनता के अन्तःसंबंधों को समझाती हैं।

रामकुमार आत्रेय के लिए सक्रियता एक जीवन-मूल्य है और निष्क्रियता मृत्यु का लक्षण। कबीर का दुख, तालियां मेरी लड़ाई, तालाब का पानी परम्परा आदि कविताएं सामाजिक समस्याओं, सामाजिक संकटों और सामाजिक सवालों पर मौजूदा दौर में व्यक्ति का उदासीन रवैया उद्घाटित करती हैं। ये कविताएं एक बड़ी कविता के हिस्सों की तरह से हैं, इनको एकसाथ पढ़ने से समाज का पूरा परिदृश्य उभरता है। ये एक थिसीस प्रस्तुत करती हैं। सामाजिक दायित्वों के प्रति निष्क्रियता धीरे-धीरे मनुष्य की रचनात्मक-योगदान की इच्छा को ही समाप्त कर देती है, जिसके अभाव में व्यक्ति शोषणकारी-व्यवस्था में समायोजित हो जाता है। तालाब का पानी कविता इस प्रक्रिया को बहुत सहज ढंग से व्यक्त करती है। तालाब यहां व्यवस्था है, जिसका पानी यानी सार-तत्व मूल्य सड़ गया है। इस पर सब सहमत हैं। उसके दुष्परिणामों के बारे में भी सचेत हैं और दुरुस्त करने के तरीकों पर खूब बहस भी है। लेकिन सड़े हुए पानी को साफ करने की बजाए नाक पर रूमाल रखकर उससे बचकर निकल रहे हैं। वैयक्तिक तौर पर बचने के इन उपक्रमों से बचा नहीं जा सकता। व्यवस्था की सड़न हमारे खून में दौड़ने लगती है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि सड़न का एहसास भी खत्म हो जाता है।
  
तालाब का पानी धीरे धीरे
हमारा पीछा करता हुआ
चला आया था
हमारे अपने घरों तक
और अब हमें
उसमें से बदबू भी नहीं आती थी

बहस हम अब भी करते थे
पर बहस में तालाब का पानी
कहीं नहीं होता था (तालाब का पानी, पृ.-57)

रामकुमार आत्रेय सड़ चुकी व्यवस्था से बच कर निकलने की बजाए इसे बदलने का अहसास पैदा करते हैं, लेकिन वे देखते हैं कि सामाजिक-आन्दोलनों और सामूहिक कार्रवाइयों का अभाव है। यदि कोई सामाजिक-बदलाव का साहस करता है, तो इस संघर्ष में स्वयं को अकेला पाता है। पूरी तरह सच्चा होते हुए भी, उसका अकेला पड़ जाना (पृ.-96) कबीर का दुख ही नहीं, बल्कि रामकुमार आत्रेय का दुख भी है।

सामूहिक-अकर्मण्यता का कारण रामकुमार आत्रेय व्यवस्था प्रदत्त सुख और सुरक्षा से उत्पन्न गुलाम मानसिकता में देख रहे हैं। व्यवस्था का पिंजरा इसके नागरिकों को सुखाभास दे रहा है। दासता आदमी मूल स्वभाव नहीं है, लेकिन व्यवस्था उसे जकड़ लेती है। फिर वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। रामकुमार आत्रेय महसूस करते हैं कि इस पिंजरे यानी व्यवस्था को तोड़कर ही इसके नागरिकों को गुलामी के अहसास से निकाला जा सकता है।

सच, न्याय और ईमानदारी की हार की निश्चित होते हुए भी उससे लिए लड़ने की हिम्मत रखने वाले लोग हैं, लेकिन व्यवस्था के सुखाभास में जकड़े अधिकांश लोग इस संघर्ष में सिर्फ तालियां बजाते हैं। उनके विवेक व चेतना पर व्यवस्था की काई जम गई है। संघर्षों के प्रति लोगों की उदासीनता को लेकर रामकुमार आत्रेय के मन में गहरी पीड़ा है, जिसे वे व्यक्त करते हैं।

आज
झूठ, अन्याय और बेईमानी के बीच घिरा
विवश हूं मैं एक अकेला
फुटबाल की तरह उनकी ठोकरें खाने को
और तुम हो कि
अब भी बजाए जा रहे हो तालियां। (तालिया, पृ.-15)
    
रामकुमार आत्रेय समाज और व्यवस्था की बुराइयों-विकृतियों-असंगतियों को दूर करने के संघर्षों की परम्परा को रेखांकित करते हैं। व्यवस्था की ताकत और परिवर्तनकामी शक्तियों के लघु-शक्ति, लेकिन असीम साहस को महत्व देते हैं। समुद्र के खारेपन को मिटाने में अपने अस्तित्व को मिटाती बूंद और अपने छोटे छोटे पंखों से आकाश को नापता पक्षी संघर्ष की परम्परा है, जो वर्तमान में संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। सकारात्मक बदलाव के लिए किए गए संघर्ष, त्याग व बलिदान के छोटे-छोटे प्रयासों की सफलता के प्रति एक आशा का स्वर निहित है। अपनी शक्ति का सही प्रयोग करने पर जोर देते हैं।

ईश्वर ने मुझे अपनी ओर से
किसी को नए पंख देने का
अधिकार नहीं दिया है
इसके विपरीत आदेश दिया है
कि मैं उन पंखों को काटकर ले आऊँ
जिन्होंने उड़ने से इनकार कर दिया है
या फिर उड़ना छोड़ दिया है। (उड़ान, पृ-93)

सामाजिक-शाक्तियों के बीच संघर्ष में सकारात्मक शक्तियां निष्क्रिय हैं। इसीलिए रामकुमार आत्रेय का कहना है कि मेरी लड़ाई अंधेरे से नहीं, बल्कि सूरज से है। अंधेरा ताकतवर नहीं हैं, लेकिन रोशनी की शक्तियां निष्क्रिय हैं।

मेरी लड़ाई अंधेरे से नहीं
सूरज से है
अंधेरे की क्या मजाल
कि वह
किसी का कुछ बिगाड़ पाए
उसका अस्तित्व तो
सूरज पर निर्भर है (मेरी लड़ाई, 44)

रामकुमार आत्रेय की कविता आशा का संचार करती हैं। ऐसे चित्रों-बिम्बों-पात्रों के दर्शन यहां होते हैं, जो हिम्मत से आगे बढ़ते हैं और अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं। पंख कविता का युवक अपने रास्ते पर अग्रसर होता है, तो उसके पंख उग आते हैं। जो इस ओर संकेत करते हैं कि आन्दोलनविहीन परिवेश में अपनी आन्तरिक शक्ति और हिम्मत को पहचान कर ही व्यक्ति संघर्ष कर सकता है।

वापस लौट चलने की उनकी सलाह को
अनसुना कर आगे बढ़ चला था
तब ठीक उनकी आंखों के सामने ही
उसकी देह पर उग आए थे
दो बड़े बड़े
खुरदरे सुनहले पंख (पंख, पृ-14)

बाजारवाद, उपभोक्तावाद और मीडिया के समाज पर प्रभाव रामकुमार आत्रेय की कविता का  केन्द्रीय विषय है। मीडिया में मानव त्रासदियों की मनोरंजक प्रस्तुति समाज की संवेदना को भोंथरा बना रही है। ईमारत का गिरना, सामूहिक बलात्कार, बाढ़ आदि त्रासदियां एंज्वाय का साधन बन गई हैं।बड़ी खबर को व्यावसायिक मीडिया ने मनोरंजन में बदल दिया है। मानवीय पीड़ा के इस उत्सव में पीड़ित की चीख-पुकार दब गई है।

आपसे अनुरोध
एंज्वाय करने के लिए इन जिंदा अनुभवों को
रहिए हमारे साथ देर रात तक (बड़ी खबर, पृ.-67)

बाजारवादी-उपभोक्तावादी मल्यों से संघर्ष रामकुमार आत्रेय की कविता का प्रमुख संकल्प है। बाजार के मूल्यों के विरूद्ध मानवीय मूल्यों की रचना कर रही हैं। इसी संघर्ष में कविताएं अपना रूप-आकार ग्रहण करती है। बाजार निर्मित अवधारणाओं और समाज की वास्तविक स्थितियों के बीच की गहरी खाई ने संतुलन बिगाड़ दिया है। मसलन नींद में एक घरेलू स्त्री कविता का पति के सौंदर्यबोध को बाजार निर्मित कर रहा है। उसे बनी-ठनी-सजी खुशबू छोड़ती मुस्कराती हुई पत्नी की अवधारणा बाजार ने दी है, लेकिन वास्तव में जिस पत्नी से उसका निर्वाह हो रहा है, वह एक कर्मठ घरेलू स्त्री है, जिसे अपने पति और बच्चों की देखभाल करनी है। उसके मन में बाजार की मूल्य-व्यवस्था ने घर कर लिया है। विडम्बना यह है कि बाजार निर्मित अवधारणा की स्त्री और उसकी वास्तविक परिस्थितियों में भारी अन्तर है।

रामकुमार आत्रेय की कविता बाजार के प्रभावों से पिस रहे मनुष्य का करुणा-विगलित चित्रण  नहीं करती, बल्कि उसे समझने और उससे संघर्ष का विवेक भी पैदा करती है। बाजार की मूल्य-प्रणाली के समानान्तर अवधारणाओं का निर्माण करते हुए जीवन को समझने का सूत्र सहज ही दे जाती है। उसकी सुविधाओं को प्राप्त करके बाजार को नहीं जीता जा सकता। उसकी विकृतियों से मुक्ति के लिए उसकी विचारधारा से वैचारिक टक्कर लेने की जरूरत है। बाजार में धंसकर उसे नहीं समझा जा सकता, बल्कि उससे बाहर आकर समझा जा सकता है।

दुखों को दूर करने का अर्थ
सुखी होना नहीं है
सुखों की निस्सारता को जानना
और बुद्ध बन जाना है। (बुद्ध बन जाना है ,पृ.-19)

बाजारवाद एक शोषण-प्रक्रिया का नाम है, जिसके माध्यम से ऐसे संसार की रचना हो रही है, जिसमें कुछ लोगों के पास अथाह सुख हैं और अधिकांश ठन-ठन गोपाल। एक ओर चमकता भारत है, दूसरी ओर पीड़ित भारत। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से पूंजी का प्रवाह इस तरह से हुआ है कि खरबपतियों की संख्या भी बढ़ रही है और गरीबों की संख्या में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है। बड़े पेट वाला घोड़ा समस्त संपदा को निगलने पर तुला है। बड़े पेट वाला घोड़ा पूंजी का घोड़ा है जो पूरे विश्व की संपदा को चर रहा है। ज्यों-ज्यों वह खा रहा है, त्यों-त्यों उसके पेट की इच्छा-क्षमता भी बढ़ रही है।
बाजार-प्रसूत उपभोक्तावाद न केवल आर्थिक-भौतिक शोषण कर रहा है, बल्कि सांस्कृतिक-आत्मिक शोषण भी कर रहा है। बाजार ने गांवकी संपदा के साथ साथ वहां की सामुदायिक संस्कृति, जीवन का भोलापन-सरलता को लील लिया है। इस प्रक्रिया में गांव का स्वरूप बदला है। गांव न तो गांव ही रह पाए हैं और न शहर ही बन पाए हैं, यही सबसे बड़ी विडम्बना है। बाजार एक सपना बेच रहा है, जो समाज के अभावग्रस्त को मुंह चिड़ा रहा है। सपने का बालक अभावग्रस्त समाज का प्रतिनिधि है, जिसके पास मूलभूत वस्तुएं भी नहीं हैं। खेलें चीरहरण कविता स्त्री की अस्मिता पर आए दिन हो रहे बर्बर-क्रूर अमानवीय हमले को प्रस्तुत करती है।  बाजारवादी होड़ सबसे घातक आक्रमण संवेदना पर होता है। बाजार की  चपेट में सबसे अधिक मध्य वर्ग आता है, सागपुरी खाता रमुआ उसकी संवेदनशून्यता को व्यक्त करता है।
बाजारवाद समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित कर रहा है। साहित्य व कविता के आईकन भी वह बना रहा है। जो साहित्यकार बाजार के पक्ष में माहौल तैयार कर रहा है, उसे बाजार लाभ पहुंचा रहा है। बाजार में उसी की कीमत है जो बिक सके और खरीदा जा सके। श्रेष्ठ साहित्य का पैमाना भी उसमें समाहित मूल्यों से नहीं, बल्कि बिक्री की मात्रा और तद्जनित मुनाफे से है। बेचने और बिकने की कला ही बाजार की कला है, जो इस कला में सिद्धहस्त है, वही बाजार का चहेता है। इन बाजार-पुत्र कलाकारों-साहित्यकारों का खूब पोषण हो रहा है। लिटरेरी-फेस्टीवल आयोजित करके, बेस्ट-सैलर का भ्रामक-प्रचार करके, हर छोटी-बड़ी समस्या पर छोटे पर्दे पर उनके प्रवचन करवाके उनके लिए बाजार ने अपने खजाने के मुंह खोल रखे हैं।
उन्हीं के हिस्से में आए
सारे सम्मान
सारे पुरस्कार
उन्हीं को मिला धन
उन्हीं को मिली प्रसिद्धि
उन्हीं के किस्से
छपते रहे अखबारों में
उन्हीं के पीछे घूमती रहीं
पागलों की तरह
सुंदर स्त्रियां
चमचमाती सफलताएं

उनका परिचय सिर्फ इतना ही
कि स्वयं को
बेचने की कला में हो गए थे माहिर। (बड़े कलाकार, पृ.-32)

कवि रामकुमार आत्रेय की पीड़ा है कि बाजारवाद के युग में साहित्यकारों के सृजन-कर्म और जीवन-कर्म में गहरी खाई है। यही बात लेखक को कचोटती है। ईमानदार अभिव्यक्ति के अभाव में कवि कविता से आंख मिलाने से डरता है। उसका कारण यही है कि वह कविता में व्यक्त किए संकल्पों-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है।

अब तुमसे क्या छिपाना मित्र
हम कवि लोग कविता को
अपनी असली जिंदगी से
कुछ अलग ही रखते हैं
कविता भी हमारे इस झूठ को जानती है
इसीलिए हम कविता से आंख
मिलाने से डरते हैं। (कवि का सच, पृ.-59)

रामकुमार आत्रेय तटस्थता का ढोंग रचने वाले साहित्यकार नहीं हैं, बल्कि वे पीड़ित-पक्ष के प्रति प्रतिबद्ध हैं। उनकी प्रतिबद्धता वक्तव्यों के माध्यम से नहीं, बल्कि कविताओं की संरचना में ही मुखर होती है। किसी स्थिति, पात्र के प्रति लगाए गए विशेषणों में दिखाई देती है। मसलन् नींद में घरेलू स्त्री पीड़ित पक्ष है, इसलिए कवि उसकी तरफ है। इसका स्पष्ट तौर पर पता चलता है, जब कवि उसके पति के खर्राटों की तुलना किसी जंगली पशु की गुर्राहट से करता है।(पृ.-22) रामकुमार आत्रेय की कविता में उनके प्रति गहरा क्षोभ है, जो सिर्फ तालियां बजा रहे हैं। वे पीड़ित के पक्ष में खड़े नहीं हो रहे। उनका शौक कविता में कवि पगड़ियों को बैठक की दीवार पर सजाने को अजीब शौक की संज्ञा देता है और यदि बहुत ही जरूरी हो तुम्हारा उनके यहां जाना में उनको महत्व नहीं दिया जा रहा। कवि की प्रतिबद्धता की तीव्रता को ईश्वर कविता से समझा जा सकता है।

ईश्वर
मैं जानता हूं
कि तुम तो
मुझे कर ही दोगे क्षमा
क्योंकि इतिहास बताता है
कि तुम हमेशा दोषियों को
करते रहे हो क्षमा
और निर्दोषों को देते रहे हो सजा

पर याद रखना
एक कवि होने के नाते मैं
कभी नहीं कर पाऊंगा क्षमा तुम्हें
इन गलतियों के लिए। (ईश्वर, पृ.-9)

रामकुमार आत्रेय अपने काव्य-संकल्पों को भी कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं। साहित्य में जीवन की सच्चाइयों की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण मानते हैं। मेहनतकश जनता के संघर्षों को कविता में अभिव्यक्त करने को प्रतिबद्ध हैं। साहित्य रामकुमार आत्रेय के लिए बैठे ठाले का धंधा नहीं है, वक्तकाटू खेल नहीं है, बल्कि साहित्य के लिए उनके जेनुइन कन्सर्न है। साहित्य उनके लिए जीवन को समझने और बदलने की प्रक्रिया का हिस्सा है। साहित्य में वास्तविक जीवन और जीवन में साहित्य की उपस्थिति को जरूरी मानते हैं।

जिंदगी की ठनक ही
रस पैदा करती है आत्मा में

रामकुमार आत्रेय साहित्य की शक्ति और उसके प्रभाव को समझते हैं। वही साहित्य असरकारी है, जिसमें जिन्दगी की ठनक हो। वास्तविक जीवन की विश्वसनीय अभिव्यक्ति ही रामकुमार आत्रेय की कविता की ताकत है। यहां स्थितियों का चमत्कृत करने वाला वर्णन नहीं है, न ही कोई अतिरिक्त जोर किसी काव्य-औजार पर है। सच्चाई को उसकी विडम्बना के साथ प्रस्तुत करना ही कविता को पाठक से जोड़ता है। नींद में एक घरेलू स्त्री घरेलू स्त्री के जीवन को व्याख्यायित करती है कि बच्चों और पति की देखभाल की दिनचर्या वह स्वयं खो गई है। इसकी इतनी अभ्यस्त हो गई है कि यह उसकी जैविक प्रतिक्रिया हो गई है। नींद में भी वह अपने दैनिक जीवन के कार्यों के प्रति इतनी सचेत है कि कोई गलती नहीं होती।
नाटकीयता, कौतूहल और जिज्ञासा रामकुमार आत्रेय की कविता के शिल्प का अभिन्न हिस्सा है। नाटकीय स्थिति कविता की पठनीयता बनाए रखने में मददगार होती है। सागपूरी खाता रमुआ कविता में रमुआ का पूरियों पर टूट पड़ना, ऐसा देखकर मालिक का खुश होना, फर्श गन्दा होने पर मालकिन का चिल्लाना आदि ऐसी स्थितियां हैं, जो वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए मध्यवर्ग की संवेदना-शून्यता की परतों को उद्घाटित करती है।
लोक चेतना, लोक-विश्वास व लोक मुहावरों का कविता में अनायास उपस्थिति रामकुमार आत्रेय का लोक से गहरा जुड़ाव दर्शाती है। लोक-विश्वास अर्थ को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करते हैं। उल्लू को लोक में अनिष्ट की आशंका माना जाता है। जिंदा ठूंठ कविता में ठूंठ के सिर पर उल्लू का बैठना उसके विनाश की ओर संकेत करता है। पिंजरा, संदूक, तालाब आदि के प्रयोग मुक्ति के प्रति प्रबल आकांक्षा को ही दर्शाते हैं।पंख रामकुमार आत्रेय की कविता में बहुत आता है। पंख उड़ने का संकल्प है।
अर्थ की सघनता के लिए कविताओं में विपरीत स्थितियों, वस्तुओं अथवा क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। ये विरोधात्मक प्रयोग स्थिति को तीव्रता में रेखांकित करते हैं। नींद में एक घरेलू स्त्री के मिर्च-धनिया गंधाते हाथ और पति के मुंह से शराब की बदबू। लेकिन कई बार इसका प्रयोग महज चमत्कार पैदा करने के लिए किया गया है, जिस कारण अर्थ-सम्प्रेषण में अवरोध पैदा होता है। मसलन नींद में एक घरेलू स्त्री कविता में वह करती है प्यार, उसे पूरी नफरत के साथ
रामकुमार आत्रेय की कविता का कथ्य और शिल्प में एकात्मकता है। सरलता, सहजता उनके काव्य-शिल्प का अनिवार्य गुण है। जिसमें कई बार सपाटता का भ्रम भी हो सकता है, लेकिन कभी क्रिया से तो कभी नाटकीयता से कविता की संरचना में निहित वक्रता कल्पनाशील पाठक का निर्माण करती है। कविता का शिल्प उसके कथ्य के साथ ही रुप आकार ग्रहण करता है। उनका शौक कविता में सामन्ती मानसिकता, सामन्ती-संस्कार परिचालित जीवन का वर्णन करते हैं। तो राजा-नवाबों के शौक, शेर-चीतों की खालों के साथ पगड़ियों को आना पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक व ऐतिहासिक संगर्भ को उद्घाटित कर जाता है। सामन्ती सोच और वर्तमान जीवन आमने सामने हो गया है। इससे इज्जत के लिए हत्याओं, सामाजिक उत्पीड़न व भेदभाव के अमानवीय काण्डों के पीछे की सोच प्रभावी ढंग से स्पष्ट हो जाती है।

उनकी बैठक की दीवारों पर
टंगी हैं बड़ी-बड़ी शानदार पगड़ियां
जासे कि राजाओं और नवाबों के
महलों की दीवारों पर सजी होती हैं
खतरनाक शेरों और चीतों की
मुंह बोलती खालें
जो गर्वपूर्वक कर रही होती हैं उद्घोषणा
राजाओं और नवाबों की नृशंस वीरता की (उनका शौक, पृ.-17)


व्यक्ति और समाज की सकारात्मक शक्तियों को सक्रियता के लिए प्रेरित करना तथा बाजारवाद के प्रभावस्वरूप उत्पन्न विकृतियों को उद्घाटित करते हुए संवेदना जगाना रामकुमार आत्रेय की कविता का प्रमुख स्वर है। रामकुमार आत्रेय की कविता की सहजता से अपने पाठक से बात करने का आधार तैयार करके उसके साथ धीरे से आत्मीय रिश्ता कायम लेती है और उसकी चेतना में प्रवेश कर जाती है। जाहिर है कि जो कविता पाठक की चेतना में प्रवेश का रास्ता तलाश लेती है वही अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन की कसौटी पर खरी उतरती है। 

मध्यकालीन कविता में सांस्कृतिक समन्वय

                                     डा. सुभाष चन्द्र
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मध्यकालीन कविता में सांस्कृतिक समन्वय

संस्कृति जड़ वस्तु नहीं होती और न यह स्थिर रहती है, बल्कि यह हमेशा परिवर्तनशील है। संस्कृतियों के मिलन से नए बदलाव होते हैं, जिससे किसी देश या समुदाय की संस्कृति में कुछ नया जुड जाता है और कुछ पुराना पीछे छूट जाता है। भारत की संस्कृति विविधतापूर्ण संस्कृति है।1 इसमें विभिन्न धर्मों, जातियों, सम्प्रदायों, विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोग रहते हैं। हुण, शक, कुषाण, अफगान, पठान, मंगोल, तुर्क आदि कई क्षेत्रों से कई जातियों व कई संस्कृतियों के लोग यहां आकर बसे और परस्पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण यहां की संस्कृति बहुत ही खूबसूरत बन गई है। यहां के लोगों ने इनसे काफी कुछ सीखा और वहां से आए लोगों ने यहां के लोगों से काफी कुछ सीखा।2 इससे ऐसी संस्कृति का जन्म हुआ जिसमें संकीर्णताओं को छोड़कर मानवता और उदारता के बिन्दुओं को लिया। बहुत सी परम्पराएं व त्यौहार ऐसे हैं,जो हिन्दुओं के हैं और मुसलमान उनमें बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं और बहुत सी परम्पराएं ऐसी हैं जो मुसलमानों की हैं और हिन्दू बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं और बहुत सी परम्पराएं ऐसी भी हैं जो दोनों की साझी हैं। बहुत से रिवाजों और परम्पराएं इस तरह से घुल मिल गई हैं कि यह बताना मुश्किल है कि कौन सी परम्परा हिन्दू है और कौन सी परम्परा मुस्लिम। इसमें कवियों, संतों व सूफियों का बहुत योगदान है।
अमीर खुसरो (1253-1325) का मूल नाम अबुल हसन था। वे दूसरे धर्मों के प्रति उदार व समन्वयवादी संस्कृति के अग्रदूत थे। उन्हें भारत के लोगों से, प्रकृति से, पक्षियों से, जलवायु आदि के प्रति अगाध प्रेम था। अपनी मसनवी ''नुहे सिपह्न'' (नौ आकाश ) में खुसरो ने भारत की जो प्रशंसा लिखी है वह इस बात का प्रमाण है। खुसरो ने लिखा कि ''सम्भव है कि कोई मुझसे पूछे कि भारत के प्रति मैं इतनी श्रद्धा क्यों रखता हूं। मेरा उतर यह है कि केवल इसलिए कि भारत मेरी जन्म भूमि है, भारत मेरा अपना देश है। खुद नबी ने कहा है कि अपने देश का प्रेम आदमी के धर्म प्रेम में सम्मिलित होता है।''भारत को खुसरो ने स्वर्ग माना है। और लिखा है कि आदम और हौवा जब स्वर्ग से निकाले गए थे ,तब वे इसी देश में उतरे थे''3 उन्होंने भारत की तुलना स्वर्ग के उद्यान से की है और संसार के देशों में भारत को श्रेष्ठ सिद्ध किया है--   
 किश्वरे हिन्द अस्त बहिश्ती बजमी।4 (भारत संसार में स्वर्ग है)
उनका मानना था कि एकता और आत्मीयता को स्थापित करने का सबसे बडा एवं महत्त्वपूर्ण साधन भाषा है, इसलिए खुसरो ने भारत के आम जन की भाषा में रचनाएं की। अमीर खुसरो को जन साधारण की भाषा से अत्यधिक लगाव था। इस भाषा को उन्होंने 'हिन्दवी' कहा जो बाद में हिन्दी भाषा के रूप में विकसित हुई। वे जन साधारण की भाषा में विचार व्यक्त करने में अधिक प्रसन्न होते थे, और कहते थे कि हिन्दवी में अपने विचार अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। उन्हें अपने हिन्दी के ज्ञान पर गर्व था। उन्होंने कहा कि
चू मन तूति-ए-हिन्दम अर रास्त पुरसीं ।
जे मन हिन्दवी पुर्स, ते नग्ज गुयम। 
''मैं हिन्दुस्तान का तोता हूं। मुझसे मीठा बोलना चाहो तो मुझसे हिन्दवी में पूछो जिससे मैं भलि भांति बात कर सकूं।''
इसी ग्रन्थ में उन्होंने कहा कि ''मैं एक भारतीय तुर्क हूं और आपको हिन्दी में उत्तर दे सकता हूं मेरे अंदर मिस्री शक्कर नहीं है कि मैं अरबी में बात करूं-
तुर्क हिन्दुस्तानम मन हिंदवी गोयम जबाव,
शक्करे मिस्री नदारम कज अरब गोयम सुखन।5  
अमीर खुसरो ने अपने बेटे को नसीहत देते हुए कहा कि ''मैं हिंद को ही अपना मुल्क मानता हूं और यहां के आम लोगों की जुबान को ही अपनी जुबान।
 ''अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना है और सदा के लिए यहीं बसना है तो सबसे पहले हमें यहां के लोगों के दिलों में बसना होगा। और दिलों में बसने के लिए सबसे पहली जरूरत है इनकी जबान में इनसे बातें करना; इनके दिल की बात को शायरी में बांधना। तभी बंध पायेंगें हम इनसे। तुर्कों को हिंदवी जुबान सिखाने के खयाल से ही मैने 'खालिकबारी'  नामक किताब लिखी है।
''यों भी हिंदवी जुबान किसी तरह से भी अरबी-फारसी के मुकाबले हल्की या कमजोर नहीं।''6
अमीर खुसरो ने ''हालात-ए-कन्हैया'' और ''नजरान-ए-हिन्दी'' नामक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिनके नाम से ही स्पष्ट है कि ये हिन्दुओं में विष्णु के अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण और भारत माता से संबंधित हैं।
अमीर खुसरो ने अपने पुत्र ग्यास को तीन नसीहतें दी। इन तीनों नसीहतों को देखकर कहा जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमान के दूसरे के करीब आ रहे थे। अमीर खुसरो की ये नसीहतें देखने योग्य हैं। ''ग्यास बेटे, मैने तो हिन्द की खाक को अपनी आंखों का सूरमा बना लिया है, इसलिए तुम्हें सबसे पहली नसीहत यही देना चाहता हूं कि तू भी हिन्द को ही अपना  सब कुछ समझना।''.... ''दूसरी नसीहत यह कि  क्योंकि तू भी शायरी करने लगा है, इसलिए मैं चाहूंगा कि हिन्दवी में ही शायरी करना।''....''तीसरी नसीहत यह कि अपनी शायरी का कोई भी हिस्सा शाहों की खुशामद में बरबाद मत करना, जैसे कि मैने किया। मैं चाहता हूं कि तू हिन्द के आम लोगों में घुल मिलकर उनकी रूहों की आवाज सुन और फिर उस आवाज को अपनी शायरी की रूह बना ले।''7
अमीर खुसरो ने भाषा व साहित्य के माध्यम से संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने की कोशिश की, संगीत में भी उन्होंने समन्वय स्थापित किया। भारतीय और ईरानी संगीत को मिलाकर संगीत को बुलन्दी तक पहुचाने में अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। ईरानी बारह स्वरों के आधार पर राग वर्गीकरण की पद्धति  अमीर खुसरो से ही शुरू हुई। भारतीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बन चुके 'ख्याल' और 'तराना' अमीर खुसरो की देन है। खुसरो ने बरवा राग में लय की रीति आरंभ की। सितार वादन, कव्वाली आदि का आविष्कार किया। हकीम मुहम्मदइकराम खान अवध के प्रख्यात संगीतकार थे। अपनी पुस्तक 'मदुनूल मासीकी' में लिखा :
''अमीर खुसरो की फारसी और हिन्दी के रागों पर इतनी गहरी पकड़ थी कि उसे युग का नायक कहा जा सकता है। उसने पखावज की जगह ढोलक का आविष्कार किया और बीन की जगह सितार का। धुरू, रहवा, मत्था, छिंद, परसंद, धरुपद सामान्य तौर पर प्रयोग होते हैं। उसने छ: नए तरीके खोजे: कूल ,कलवना, नक्श, गुल, तराना, और ख्याल। अमीर खुसरो ने संगीत की विधाएं खोजी--सावनी, फरोदस्त, पश्तो, कव्वाली आदि। दो संस्कृतियों के संगम से विद्या, भाषा और संगीत कला की जो उन्नति हुई उसमें अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। इनकी रचनाएं साम्प्रदायिक सद्भाव व सांस्कृतिक समन्वय की मिसाल है।
   कबीर की कविता और जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। कबीर दास ने अपनी रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया तथा धार्मिक आडम्बरों की आलोचना की। कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों के भेद मिटाने के लिए दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर करने की कोशिश की। दोनों धर्मों के पाखण्डों का विरोध किया ओर दोनों धर्मों में व्याप्त आन्तरिक एकता को सामने रखा। कबीर के इस प्रयास के मध्यकालीन भारतीय समाज पर गहरे असर पड़े। उन्होंने अपने को किसी धर्म में बांधने से इन्कार कर दिया। अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि विशुद्ध मानवीय बनाई।
  हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाही ।
  पांच तत्त्व का पूतला, गैबी खेले माहीं ।
कबीर दास की कविता में ब्राह्मणवादी पाखण्डों और कठमुल्लाओं पर तीखे कटाक्ष हैं। कबीर दास धर्म के बाहरी आडम्बरों और दिखावों से दूर हटकर धर्म के मर्म को पहचानते थे। वे बाहरी कर्मकाण्डों को छोडकर धर्म की शिक्षाओं के पालन करने पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि यदि सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है। हिन्दू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते मरते हैं, लेकिन सच्चाई से कोई भी परिचित नहीं है।
   साधो, देखो जग बौराना।
   सांची कहौ तो मारन धावै झुठे जग पतियाना ।
   हिन्दू कहै मोही राम पिआरा तुरक कहैं रहमाना ।
   आपस में दोउ लडि़ लडि़ मूये, मरम न कोउ जाना।
कबीर का मानना है कि परमात्मा एक है, वह कण-कण में व्याप्त है। सभी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो इनमें भेद करते हैं वे झूठे हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। ईश्वर को दो मानना लोगो में भ्रम को फैलाना है। ईश्वर, अल्लाह एक ही हैं। हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर एक ही है। एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। सब एक मिट्टी के बर्तन हैं, सिर्फ नाम अलग अलग हैं।
भाई रे दुई जगदीश कहां ते आया, कहु कौन भरमाया
अल्लाह, राम,करीम ,केशव, हरि हजरत नाम धाराया ।
गहना एक कनक तें गढना, इनि मंह भाव न दूजा।
कहन सुनन को दुर करि पापिन, इक निमाज इक पूजा।।
वही महादेव वही महंमद ,ब्रह्मा-आदम कहिये।
को हिन्दू को तुरुक कहावै, एक जिमीं पर रहिये।।
बेद कितेब पढे वे कुतुबा, वे मोंलाना वे पांडे।
बेगरि बेगरि नाम धाराये, एक मटिया के भांडे।।
कबीर ने हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं माना। हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा में कोई भेद नहीं है। लोगों को बांटने वाले रिवाजों पर तीखे कटाक्ष किए हैं।
कबीर दास ने जाति-पाति, बाहरी आडम्बरों का विरोध किया और हिन्दू व मुसलमानों में एकता के प्रयास किये। उन्होंने आन्तरिक शुद्धता पर जोर दिया और आचरण की पवित्रता को महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दू व मुसलमान की पहचान किसी कर्मकाण्ड में नहीं है, जिसका ईमान दुरुस्त है वही सच्चा हिन्दू और मुसलमान है। 'सो हिन्दू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहे ईमान।' कबीर दास ने सामाजिक भेदभाव और साम्प्रदायिक एकता को बनाने के लिए प्रयास किए। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे। हिन्दू पण्डे और मुस्लिम कठमुल्लाओं के कर्मकाण्डी धर्म की उन्होंने आलोचना की। हिन्दू ओर मुस्लिम दोनों में उनके शिष्य बने, कबीर के विचारों में दोनों धर्मों के तत्त्वों का मिश्रण है। कबीर अपने विचारों में क्रान्तिकारी रहे, उन्होंने अपना यह स्वभाव मरते समय भी नहीं छोडा।9 जिस तरह कबीरदास मनुष्यों के बीच कोई भेद स्वीकार नहीं करते थे उसी प्रकार वे शहरों और जगहों की ऊंच नीच को भी स्वीकार नहीं करते थे। हिन्दुओं में मान्यता है कि बनारस में मरने वाले को मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाले को फिर से गधे का जन्म मिलता है। इस अंधविश्वास को तोडऩे के लिए ही कबीर ने बनारस शहर छोड़ दिया और हेय समझे जाने वाले शहर मगहर में आकर बस गए।
क्या काशी क्या उसर मगहर,राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा ।।
कबीर के बारे में जनश्रुति है कि उनके मरने के बाद उनके मुस्लिम अनुयायी उनको दफनाने तथा हिन्दू अनुयायी जलाने की जिद्द कर रहे थे, लेकिन उनका शरीर फूलों के ढेर में तब्दील हो गया और दोनों विश्वासों के मानने वाले लोगों ने उन्हें बांट लिया।
सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत महाकाव्य की रचना की । इन्होंने लोक भाषा अवधी में अपने ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने लोक में प्रचलित कथाओं के आधार पर काव्य रचना की। इनकी रचनाएं इतनी प्रसिद्ध थी कि लोग इनको गाते थे। जायसी का 'कान्हावत' नामक ग्रन्थ कृष्ण के बारे में है। इसमें जायसी ने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। उन्होंने कृष्ण को प्रेम, काम और योग का पूंजीभूत बताया है। महाकवि जायसी सांस्कृतिक समन्वय और एकता के पक्षधर थे, इन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने मे बड़ी भूमिका निभाई। हिन्दू-मुस्लिम जीवन के अनेक संदर्भों में जायसी दोनों संस्कृतियों के अमर सेतु हैं। उन्हें अल्लाह और ईश्वर में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। उनका मानना है कि जो भिन्नता दिखाई देती है वह केवल बाहरी है।
परगट मेरा गोपाल गोबिन्दु। कपट गियान न तुरुक न हिन्दू।
अपने रंग सो रूप मुरारी । कतहूं राजा कतहु भिखारी  ।
कतहुं सो पण्डित कतहुं मूरुख । कतहूं इस्तरी कतहुं पुरुष।
महाकवि जायसी ने इस्लाम के एकेश्वरवादी चिन्तन और वेदान्ती अद्वैतवादी दर्शन में सुन्दर समन्वय किया है
जो ब्रह्म सो है पिंड, सब जग रहा समाई ।
जायसी भागवत ग्रन्थ के ज्ञाता थे और उन्हें हिन्दू धर्म का अगाध ज्ञान था। वे इस्लाम और हिन्दू धर्म की मानवतावादी मान्यताओं में समन्वय स्थापित कर रहे थे। धर्म के कर्मकाण्डों और बाहरी आडम्बरों का विरोध कर रहे थे। जायसी ने अपनी पद्मावत में हिन्दुओं के संस्कारों को अपने काव्य में स्थान दिया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लोक में प्रचलित संस्कारों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। जन्म के समय होने वाले रीति रिवाज, आनंद बधाइयों का जायसी ने विस्तार से उल्लेख किया है। पद्मावती के जन्म के बाद छठी के आयोजन का वर्णन किया है
''बाजइ अनन्द उछाह बधाए। केतिक गुनी पोथी लै आए।''
सामाजिक जीवन में विवाह संस्कारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। विवाह के समय अनेक रीति रिवाजों का सम्पादन होता है। जायसी इनसे भलि भांति परिचित हैं। विवाह के पूर्वलगन निर्धारण लोक में प्रचलित है।
''लगन धारा और रचा बियाहू। सिंहल नेवत फिरा सब काहू'
हिन्दू समाज में शव को जलाने की प्रथा है। हिन्दू विश्वास के अनुसार  काशी में मरना पुण्य माना जाता है। जायसी ने इसका सजीव चित्रण किया है।
''जाइ बनारसि जारिउं क्या। पारिउं पिउं नहाइउ गया।''
जायसी ने भारतीय त्यौहारों होली और दिवाली का विस्तार से वर्णन किया है। होली के उत्सव पर अवध में अनेक प्रकार के नृत्य किए जाते हें, जिनमें चांचर, घनौरी गान, मनोरा, ठूमक आदि। जायसी ने होली और दिवाली के चित्रों को विस्तार से वर्णन किया है।''10
पद्मावत का राघव चेतन नाम का चरित्र वेद निन्दक है। जायसी ने उसे खलनायक बताया है और उसकी निन्दा की है। अलाउद्दीन को माया का प्रतीक बताया है। यदि जायसी का रवैया साम्प्रदायिक होता तो वह ऐसा क्यों करते।पदमावत में अलाउद्दीन के स्वागत में जो भोज होता हे उसमें ऐसे किसी भी भोजन का उल्लेख नहीं है जो हिन्दुओं के लिए अखाद्य है। हठयोग, ब्रह्मरन्धर,सहस्रार आदि का जो वर्णन है उससे स्पष्ट है कि जायसी का मन इस देश की संस्कृति और परम्परा में गहरा रंगा हुआ था। जायसी ने हिन्दू रीति रिवाजों का वर्णन किया है उससे लगता है कि वे एक दूसरे के करीब आ रहे।
दादू दयाल (1544-1603) ने  हिन्दू मुस्लिम एकता के साथ साथ इन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने गुजराती और हिन्दी में पद लिखे।11 हिन्दू मुस्लिम के बीच एकता को स्थापित करने के उन्होंने कि हिन्दू और मुसलमान समाज में उसी तरह हैं, जैसे मनुष्य के शरीर में हाथ हैं, पैर हैं और कान हैं,आंखें हैं। इनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है, उसी तरह हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है।
दोनों भाई हाथ,पग, दोनों भाई कान ,
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान ।
दादूदयाल अल्लाह और राम कोई भेद नहीं करते थे, उनके लिए ये दोनों बराबर थे। वे एक ईश्वर को मानते थे, मंदिर-मस्जिद के झगड़े को झूठा समझते थे। वे मूल तत्त्व को पकडऩे की बात करते थे।
अलह कहो, भावे राम कहो , डाल तजो, सब मूल गहो।
वे हिन्दू और मुसलमानों के पाखण्डों और पूजा विधानों को नहीं मानते थे। वे अपने मानव धर्म में विश्वास करते थे, जिसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा के पितृसत्ता व ऊंच नीच का कोई स्थान नहीं था।
दादू ना हम हिन्दू होहिंगें, ना हम मुसलमान,
षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहिमान।
दादूदयाल ने ईश्वर को एक माना, उसको अनेक नामों से  राम, रहीम, केशव, गोबिन्द, गोपाल, गोसाई, साई, रब्ब, अल्लाह, ओंकार, वासुदेव, परमानन्द, साहिब और सुल्तान, गरीब -निवाज तथा बंदिछोर नामों से संबोधित किया।
अलख इलाही एक तूं, तूं ही राम रहीम।
तूं ही मालिक मोहना, केशव नाम करीम।
जब दादू से कहा गया कि अगर तुम लोक सेवा करना चाहते हो तो किसी सम्प्रदाय में आबद्ध होकर ही कर सकते हो, तो दादू ने कहा-हे दयामय, तुम्ही बताओ; यह धरती, आकाश, ये दिन और रातें, सूरज और चांद किस पंथ के हैं? ब्रह्मा, विष्णु और शिव के नाम से अगर पंथ खडे हो सकते हों तो तुम बताओ कि ये स्वयं किस पंथ के मानने वाले हैं? हे एक अल्लाह तुम्हीं बताओ तो भला, मुहम्मद का मजहब क्या था? जिब्राइल का पंथ कौन सा था?12 संत दादू दयाल ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने के लिए काम किया। दोनों सम्प्रदायों के लोग उनके अनुयायी बने।
कृष्ण भक्ति कवियों में रखखान का नाम आदर से लिया जाता है। रसखान ने एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेकर हिन्दुओं के परम पूजनीय देवता की भक्ति की, वे हिन्दू और मुसलमानों को जोडने वाली कड़ी हैं। रसखान ने अपनी कविताओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का, गौ चारण लीलाओं का, कुंज लीलाओं का, रास लीलाओं का, पनघट लीलाओं का और कृष्ण की मुरली का वर्णन किया है। वे श्रीकृष्ण की भक्ति में इतने लीन थे और उनके व्यक्तित्व से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि यदि उन्हें अगला जन्म मिले तो ब्रज में ही पैदा हों और कृष्ण के ही भक्त बनें। यदि पशु की योनि में जन्म मिले तो वे नन्द की गायों में ही चरें। यदि पत्थर बनूं तो उसी पहाड पर जाऊं, जिसे श्रीकृष्ण ने धारण किया है,यदि पक्षी बंनू तो यमुना के किनारे बसेरा करूं।
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयो कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कंदब की डारन।।
रसखान वृदांवन की एक-एक चीज से प्यार करते थे। वे वहां के फूल, पत्ते, पेड़ पौधे आदि प्रकृति की सभी चीजों से प्रेम करते थे। रसखान ने ब्रजभाषा में बहुत सी रचनाएं लिखी। प्रेम वाटिका इनकी प्रसिद्ध रचना है। इनमें 53 पद हैं। अधिकतर आध्यात्मिक प्रेम से संबंधित हैं, कृष्ण और राधा के पे्रम को परमात्मा के प्रेम का प्रतीक माना है। रसखान को कृष्ण पर इतना विश्वास है कि वे उसको सब संकटों को टालने वाला मानते हैं। उनकी भक्ति में अटूट आस्था है,उनका मानना है कि विपति के समय विष्णु भगवान अपने भक्तों की मदद करते हैं,और श्रीकृष्ण उसी के अवतार हैं।
द्रौपदी और गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।
गौतम गेहिनी कैसी तरी प्रहलाद को कैसे हर्यो दुख भारो।।
रसखान ने होली त्यौहार का बड़ा ही मोहक वर्णन किया है। बंसत का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। हिन्दुओं में ही नहीं दिवाली मुसलमानों में भी उतने ही चाव से मनाया जाता था। ये हिन्दू और मुसलमानों दोनों के सांझे त्यौहार हो गए थे। रसखान ने दिवाली का जैसा वर्णन किया है।
वृषभानु के गेह दिवारी के द्यौस अहीर अहीरिनी भोर भई 
जित ही तितही धुनि गोधन की सब ही कुज ह्वै रह्यौ राग मई।
वालकुटी अरु कमरिया पर राज तहॅू पुर को तजि डारौ।
रहीम अकबर के नवरत्नों में थे। रहीम को कई भाषाओं में दक्षता हासिल थी। ये तुर्की, फारसी,अरबी, संस्कृत और हिन्दी का प्रयोग अपनी रचनाओं में बड़ी सफलता से करते थे। रहीम की हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तुलसीदास से दोस्ती थी। जब तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की तो रहीम ने कुछ दोहे रचकर उसकी प्रशंसा की और यह स्वीकार किया कि यह हिन्दुओं के लिए वेद है और मुसलमानों के लिए कुरान है।13
हिन्दुआन को वेद सम, तुरुकहिं प्रगट कुरान।
रहीम हिन्दी के कवियों से घिरे रहते थे और उनको इनाम देते थे। इनकी दानशीलता और उदारता मिथक और लोकाख्यान बन गई थीं। हिन्दी के अधिकांश कवि उनके द्वारा पुरस्कृत हुए। इनमें हिन्दी के कवि - गंग को एक छन्द पर सर्वाधिक राशि 36 लाख रुपए प्राप्त हुई। हिन्दी - फारसी के कवियों ने रहीम की प्रशंसा की--केशव दास, गंग, मंडन, हरनाथ, अलाकुली खां, ताराकवि, मुकुन्द कवि, मुल्ला मुहम्मद रजानवी, मीर मुदर्रिसमाहवी हमदानी, युलकलि बेग, उर्फी, हयाते जिलानी के आदि नाम उल्लेखनीय हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि रहीम कितने प्रसिद्ध थे और हिन्दू और मुसलमान दोनों उनका कितना आदर करते थे। रहीम हिन्दू मुस्लिम एकता की कड़ी हैं।
रहीम ने अपनी कविताओं में सहजता के साथ श्रीकृष्ण के विरह के चित्र खींचे है। उससे उनकी श्रीकृष्ण के प्रति गहरी आस्था की झलक मिलती है। रहीम कहते हैं कि उसका मन चकोर की तरह है, जिसका ध्यान हमेशा अपने प्रेमी इष्ट चांद की ओर लगा रहता है। रहीम का कहना है कि उसका मन भी चकोर की तरह है जिसका ध्यान हमेशा अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण की ओर की लगा रहता हैं
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारु चकोर ।
निसि बासर लागो रहै, कृष्णचन्द्र की ओर ।।
हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के मिश्रण से उर्दू भाषा का जन्म हुआ। उर्दू भाषा में जिस तरह विभिन्न भाषाओं का मिश्रण है, उसी प्रकार इसमें विभिन्न संस्कृतियों का मिश्रण भी है। यहां के त्यौहार होली, दिवाली, दशहरा, रक्षा बन्धन आदि का वर्णन मिलता है। हिन्दुओं और मुसलमानों के पवित्र स्थलों का समान रूप से वर्णन किया गया है। भारत के पवित्र माने जाने वाले ग्रन्थों का अनुवाद किया गया है और उनको आधार बनाकर काव्य रचना की गई है। गीता ,रामायण, महाभारत की छाप उर्दू के कवियों पर देखी जा सकती है। उर्दू के प्रसिद्ध कवि ब्रजमोहन दतातुरिया 'कैफी' ने धार्मिक गुरुओं, महात्माओं , ऋषियों, अवतारों, त्यौहारों और रीति-रिवाजों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया गया है। जफर अली खां एक प्रसिद्ध संपादक थे, अपनी पुस्तक 'हिन्दुओं की तहजीब' नामक कविता में श्री रामचन्द्र की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है सर इकबाल मुहम्मद उर्दू के प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने महावीर,स्वामी रामतीर्थ, गुरू नानक, गौतमबुद्ध, पुरुषोतम राम आदि पर कविताएं लिखी। इकबाल ने 'राम' शीर्षक कविता में श्री रामचन्द्र की महानता और विशेषताओं का उल्लेख किया। उन्होंने श्रीराम को दार्शनिक ,महान योद्धा,विशाल हृदयी,गरीबों से सहानुभूति रखने वाला तथा सभी से पे्रम करने वाला कहा है। पंडित ब्रजनारायण चकबस्त ने 'रामायन एक सीन' में राम और माता कौशल्या के संबंधों का मार्मिक उल्लेख किया है। उर्दू प्रसिद्ध कवि त्रिलोकचन्द्र महरूम ने - राम, जिक्रे-ए-खैर ,फतह-ए-लंका, भरत और रामचन्द्र की खडाऊं तथा नकली दशहरा आदि कविताएं लिखी हैं। मुनव्वर लखनवी ने 'कायनात-ए-दिल' नामक पुस्तक में 'भगवान राम की अजमत' नामक कविता को शामिल किया गया है। इसमें राम की महानता को व्यक्त किया है,उन्होंने कहा कि राम मनुष्य के दर्पणा थे, उसके नियमों को जिस व्यक्ति ने अपना लिया वह पूर्ण मनुष्य हो गया। सागर निजामी ने 'राम' शीर्षक से दो कविताएं लिखी हैं,इनमें श्रीराम को वचनों का पक्का, प्रेम का संदेशवाहक, सत्य का संवाहक,करूणा का सागर बताया है।14
उर्दू के कवियों ने श्रीकृष्ण15 के जीवन को आधार बनाकर रचनाएं की हैं। नजीर अकबराबादी ने मुख्यत: 'जन्म कन्हैया जी', 'बालपन बांसुरी बजैया', 'कन्हैया जी की शादी', 'कन्हैया जी का रास' आदि हैं। कैफी देहलवी 'बंशी की धुन सुनाए जा', 'किशन जी का फलसफा-ए-अमल', भारत की खबर लीजिए', बंशी वाले आ जा', और 'राधेश्याम' नामक कविताएं लिखी हें। बासित बिसवानी की पुस्तक 'शाहिद-ए-मआनी' में और किशन व जसोदा नामक नज्में सम्मिलित की गई हैं। मौलाना जफरअली खां ने 'गोकुल की बंसरी की गूंज'  व हसरत मोहानी ने 'मथुरा जी' कविता लिखी है। सीमाब अकबराबादी कार-ए-अमरोज नामक पुस्तक में 'श्रीकृष्ण' शीर्षक कविता है, जोश मलीहाबादी, बहजाद लखनवी, निहाल सिवहारवी, सागर निजामी, शाह मुहम्मद काजिम श्रीकुष्ण के जीवन पर कविताएं लिखीं जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को नजदीक लाने की कोशिश की।
हिन्दू और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने में तथा परस्पर संस्कृति को समझने में बहुत से कवियों ने योगदान दिया। हिन्दी के अलावा पंजाबी के कवियों ने जिसमें गुरु नानक का नाम विशेष तौर पर लिया जा सकता है। इन कवियों ने संस्कृति को मजबूत आधार प्रदान किया। इसमें तर्कशीलता, विवेकशीलता, उदारता, मानवता के मूल्यों का समावेश था, जो किसी भी समाज के विकास के लिए अनिवार्य हुआ करते हैं।


संदर्भ:
1 डा. राजकुमार शर्मा; हिन्दू मुस्लिम सामरस्य की परम्परा, उदभावना, दिल्ली; अंक-62; पृ.65
2 रामधरी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994; पृ.-471-476
3- वही, पृ.-334
4- राजेन्द्र पाण्डेय; भारत का सांस्कृतिक इतिहास; पृ.-233
5- वही; पृ.-237
6-सुदर्शन चोपडा; अमीर खुसरो; साहित्य संगम,दिल्ली,1989; पृ.-29
7- वही;पृ.-28
9-अली सरदार जाफरी; कबीर वाणी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ; पृ.-8  
10- कुवंरपाल सिंह; भक्ति आन्दोलन और लोक संस्कृति; अनंग प्रकाशन, दिल्ली,2002; पृ.-80
11-राजेन्द्र पाण्डेय; भारत का सांस्कृतिक इतिहास; पृ.-226
12- कुवंरपाल सिंह; भक्ति आन्दोलन और लोक संस्कृति; अनंग प्रकाशन, दिल्ली, 2002; पृ.-141
13-क्षितिमोहन सेन; संस्कृति संगम; पृ.-146
14-डॉ.इकबाल अहमद; सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग,सूचना और प्रसारण मंत्रलय,भारत सरकार,1993; पृ.-23

15- वही, पृ.-26