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नींद में एक घरेलू स्त्रीः बाजारवाद से संघर्ष

हरियाणा के प्रतिष्ठित रचनाकार रामकुमार आत्रेय की लघुकथाओं, कहानियों और कविताओं से गुजरना अपने समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं और वैयक्तिक मानस के भीतर हो रहे परिवर्तनों को पहचानना है। उनकी कविताओं का संग्रह नींद में एक घरेलू स्त्री अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। ये कविताएं बाजारवादी मूल्य और सामाजिक संघर्ष के प्रति व्यक्ति की उदासीनता के अन्तःसंबंधों को समझाती हैं।

रामकुमार आत्रेय के लिए सक्रियता एक जीवन-मूल्य है और निष्क्रियता मृत्यु का लक्षण। कबीर का दुख, तालियां मेरी लड़ाई, तालाब का पानी परम्परा आदि कविताएं सामाजिक समस्याओं, सामाजिक संकटों और सामाजिक सवालों पर मौजूदा दौर में व्यक्ति का उदासीन रवैया उद्घाटित करती हैं। ये कविताएं एक बड़ी कविता के हिस्सों की तरह से हैं, इनको एकसाथ पढ़ने से समाज का पूरा परिदृश्य उभरता है। ये एक थिसीस प्रस्तुत करती हैं। सामाजिक दायित्वों के प्रति निष्क्रियता धीरे-धीरे मनुष्य की रचनात्मक-योगदान की इच्छा को ही समाप्त कर देती है, जिसके अभाव में व्यक्ति शोषणकारी-व्यवस्था में समायोजित हो जाता है। तालाब का पानी कविता इस प्रक्रिया को बहुत सहज ढंग से व्यक्त करती है। तालाब यहां व्यवस्था है, जिसका पानी यानी सार-तत्व मूल्य सड़ गया है। इस पर सब सहमत हैं। उसके दुष्परिणामों के बारे में भी सचेत हैं और दुरुस्त करने के तरीकों पर खूब बहस भी है। लेकिन सड़े हुए पानी को साफ करने की बजाए नाक पर रूमाल रखकर उससे बचकर निकल रहे हैं। वैयक्तिक तौर पर बचने के इन उपक्रमों से बचा नहीं जा सकता। व्यवस्था की सड़न हमारे खून में दौड़ने लगती है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि सड़न का एहसास भी खत्म हो जाता है।
  
तालाब का पानी धीरे धीरे
हमारा पीछा करता हुआ
चला आया था
हमारे अपने घरों तक
और अब हमें
उसमें से बदबू भी नहीं आती थी

बहस हम अब भी करते थे
पर बहस में तालाब का पानी
कहीं नहीं होता था (तालाब का पानी, पृ.-57)

रामकुमार आत्रेय सड़ चुकी व्यवस्था से बच कर निकलने की बजाए इसे बदलने का अहसास पैदा करते हैं, लेकिन वे देखते हैं कि सामाजिक-आन्दोलनों और सामूहिक कार्रवाइयों का अभाव है। यदि कोई सामाजिक-बदलाव का साहस करता है, तो इस संघर्ष में स्वयं को अकेला पाता है। पूरी तरह सच्चा होते हुए भी, उसका अकेला पड़ जाना (पृ.-96) कबीर का दुख ही नहीं, बल्कि रामकुमार आत्रेय का दुख भी है।

सामूहिक-अकर्मण्यता का कारण रामकुमार आत्रेय व्यवस्था प्रदत्त सुख और सुरक्षा से उत्पन्न गुलाम मानसिकता में देख रहे हैं। व्यवस्था का पिंजरा इसके नागरिकों को सुखाभास दे रहा है। दासता आदमी मूल स्वभाव नहीं है, लेकिन व्यवस्था उसे जकड़ लेती है। फिर वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। रामकुमार आत्रेय महसूस करते हैं कि इस पिंजरे यानी व्यवस्था को तोड़कर ही इसके नागरिकों को गुलामी के अहसास से निकाला जा सकता है।

सच, न्याय और ईमानदारी की हार की निश्चित होते हुए भी उससे लिए लड़ने की हिम्मत रखने वाले लोग हैं, लेकिन व्यवस्था के सुखाभास में जकड़े अधिकांश लोग इस संघर्ष में सिर्फ तालियां बजाते हैं। उनके विवेक व चेतना पर व्यवस्था की काई जम गई है। संघर्षों के प्रति लोगों की उदासीनता को लेकर रामकुमार आत्रेय के मन में गहरी पीड़ा है, जिसे वे व्यक्त करते हैं।

आज
झूठ, अन्याय और बेईमानी के बीच घिरा
विवश हूं मैं एक अकेला
फुटबाल की तरह उनकी ठोकरें खाने को
और तुम हो कि
अब भी बजाए जा रहे हो तालियां। (तालिया, पृ.-15)
    
रामकुमार आत्रेय समाज और व्यवस्था की बुराइयों-विकृतियों-असंगतियों को दूर करने के संघर्षों की परम्परा को रेखांकित करते हैं। व्यवस्था की ताकत और परिवर्तनकामी शक्तियों के लघु-शक्ति, लेकिन असीम साहस को महत्व देते हैं। समुद्र के खारेपन को मिटाने में अपने अस्तित्व को मिटाती बूंद और अपने छोटे छोटे पंखों से आकाश को नापता पक्षी संघर्ष की परम्परा है, जो वर्तमान में संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। सकारात्मक बदलाव के लिए किए गए संघर्ष, त्याग व बलिदान के छोटे-छोटे प्रयासों की सफलता के प्रति एक आशा का स्वर निहित है। अपनी शक्ति का सही प्रयोग करने पर जोर देते हैं।

ईश्वर ने मुझे अपनी ओर से
किसी को नए पंख देने का
अधिकार नहीं दिया है
इसके विपरीत आदेश दिया है
कि मैं उन पंखों को काटकर ले आऊँ
जिन्होंने उड़ने से इनकार कर दिया है
या फिर उड़ना छोड़ दिया है। (उड़ान, पृ-93)

सामाजिक-शाक्तियों के बीच संघर्ष में सकारात्मक शक्तियां निष्क्रिय हैं। इसीलिए रामकुमार आत्रेय का कहना है कि मेरी लड़ाई अंधेरे से नहीं, बल्कि सूरज से है। अंधेरा ताकतवर नहीं हैं, लेकिन रोशनी की शक्तियां निष्क्रिय हैं।

मेरी लड़ाई अंधेरे से नहीं
सूरज से है
अंधेरे की क्या मजाल
कि वह
किसी का कुछ बिगाड़ पाए
उसका अस्तित्व तो
सूरज पर निर्भर है (मेरी लड़ाई, 44)

रामकुमार आत्रेय की कविता आशा का संचार करती हैं। ऐसे चित्रों-बिम्बों-पात्रों के दर्शन यहां होते हैं, जो हिम्मत से आगे बढ़ते हैं और अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं। पंख कविता का युवक अपने रास्ते पर अग्रसर होता है, तो उसके पंख उग आते हैं। जो इस ओर संकेत करते हैं कि आन्दोलनविहीन परिवेश में अपनी आन्तरिक शक्ति और हिम्मत को पहचान कर ही व्यक्ति संघर्ष कर सकता है।

वापस लौट चलने की उनकी सलाह को
अनसुना कर आगे बढ़ चला था
तब ठीक उनकी आंखों के सामने ही
उसकी देह पर उग आए थे
दो बड़े बड़े
खुरदरे सुनहले पंख (पंख, पृ-14)

बाजारवाद, उपभोक्तावाद और मीडिया के समाज पर प्रभाव रामकुमार आत्रेय की कविता का  केन्द्रीय विषय है। मीडिया में मानव त्रासदियों की मनोरंजक प्रस्तुति समाज की संवेदना को भोंथरा बना रही है। ईमारत का गिरना, सामूहिक बलात्कार, बाढ़ आदि त्रासदियां एंज्वाय का साधन बन गई हैं।बड़ी खबर को व्यावसायिक मीडिया ने मनोरंजन में बदल दिया है। मानवीय पीड़ा के इस उत्सव में पीड़ित की चीख-पुकार दब गई है।

आपसे अनुरोध
एंज्वाय करने के लिए इन जिंदा अनुभवों को
रहिए हमारे साथ देर रात तक (बड़ी खबर, पृ.-67)

बाजारवादी-उपभोक्तावादी मल्यों से संघर्ष रामकुमार आत्रेय की कविता का प्रमुख संकल्प है। बाजार के मूल्यों के विरूद्ध मानवीय मूल्यों की रचना कर रही हैं। इसी संघर्ष में कविताएं अपना रूप-आकार ग्रहण करती है। बाजार निर्मित अवधारणाओं और समाज की वास्तविक स्थितियों के बीच की गहरी खाई ने संतुलन बिगाड़ दिया है। मसलन नींद में एक घरेलू स्त्री कविता का पति के सौंदर्यबोध को बाजार निर्मित कर रहा है। उसे बनी-ठनी-सजी खुशबू छोड़ती मुस्कराती हुई पत्नी की अवधारणा बाजार ने दी है, लेकिन वास्तव में जिस पत्नी से उसका निर्वाह हो रहा है, वह एक कर्मठ घरेलू स्त्री है, जिसे अपने पति और बच्चों की देखभाल करनी है। उसके मन में बाजार की मूल्य-व्यवस्था ने घर कर लिया है। विडम्बना यह है कि बाजार निर्मित अवधारणा की स्त्री और उसकी वास्तविक परिस्थितियों में भारी अन्तर है।

रामकुमार आत्रेय की कविता बाजार के प्रभावों से पिस रहे मनुष्य का करुणा-विगलित चित्रण  नहीं करती, बल्कि उसे समझने और उससे संघर्ष का विवेक भी पैदा करती है। बाजार की मूल्य-प्रणाली के समानान्तर अवधारणाओं का निर्माण करते हुए जीवन को समझने का सूत्र सहज ही दे जाती है। उसकी सुविधाओं को प्राप्त करके बाजार को नहीं जीता जा सकता। उसकी विकृतियों से मुक्ति के लिए उसकी विचारधारा से वैचारिक टक्कर लेने की जरूरत है। बाजार में धंसकर उसे नहीं समझा जा सकता, बल्कि उससे बाहर आकर समझा जा सकता है।

दुखों को दूर करने का अर्थ
सुखी होना नहीं है
सुखों की निस्सारता को जानना
और बुद्ध बन जाना है। (बुद्ध बन जाना है ,पृ.-19)

बाजारवाद एक शोषण-प्रक्रिया का नाम है, जिसके माध्यम से ऐसे संसार की रचना हो रही है, जिसमें कुछ लोगों के पास अथाह सुख हैं और अधिकांश ठन-ठन गोपाल। एक ओर चमकता भारत है, दूसरी ओर पीड़ित भारत। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से पूंजी का प्रवाह इस तरह से हुआ है कि खरबपतियों की संख्या भी बढ़ रही है और गरीबों की संख्या में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है। बड़े पेट वाला घोड़ा समस्त संपदा को निगलने पर तुला है। बड़े पेट वाला घोड़ा पूंजी का घोड़ा है जो पूरे विश्व की संपदा को चर रहा है। ज्यों-ज्यों वह खा रहा है, त्यों-त्यों उसके पेट की इच्छा-क्षमता भी बढ़ रही है।
बाजार-प्रसूत उपभोक्तावाद न केवल आर्थिक-भौतिक शोषण कर रहा है, बल्कि सांस्कृतिक-आत्मिक शोषण भी कर रहा है। बाजार ने गांवकी संपदा के साथ साथ वहां की सामुदायिक संस्कृति, जीवन का भोलापन-सरलता को लील लिया है। इस प्रक्रिया में गांव का स्वरूप बदला है। गांव न तो गांव ही रह पाए हैं और न शहर ही बन पाए हैं, यही सबसे बड़ी विडम्बना है। बाजार एक सपना बेच रहा है, जो समाज के अभावग्रस्त को मुंह चिड़ा रहा है। सपने का बालक अभावग्रस्त समाज का प्रतिनिधि है, जिसके पास मूलभूत वस्तुएं भी नहीं हैं। खेलें चीरहरण कविता स्त्री की अस्मिता पर आए दिन हो रहे बर्बर-क्रूर अमानवीय हमले को प्रस्तुत करती है।  बाजारवादी होड़ सबसे घातक आक्रमण संवेदना पर होता है। बाजार की  चपेट में सबसे अधिक मध्य वर्ग आता है, सागपुरी खाता रमुआ उसकी संवेदनशून्यता को व्यक्त करता है।
बाजारवाद समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित कर रहा है। साहित्य व कविता के आईकन भी वह बना रहा है। जो साहित्यकार बाजार के पक्ष में माहौल तैयार कर रहा है, उसे बाजार लाभ पहुंचा रहा है। बाजार में उसी की कीमत है जो बिक सके और खरीदा जा सके। श्रेष्ठ साहित्य का पैमाना भी उसमें समाहित मूल्यों से नहीं, बल्कि बिक्री की मात्रा और तद्जनित मुनाफे से है। बेचने और बिकने की कला ही बाजार की कला है, जो इस कला में सिद्धहस्त है, वही बाजार का चहेता है। इन बाजार-पुत्र कलाकारों-साहित्यकारों का खूब पोषण हो रहा है। लिटरेरी-फेस्टीवल आयोजित करके, बेस्ट-सैलर का भ्रामक-प्रचार करके, हर छोटी-बड़ी समस्या पर छोटे पर्दे पर उनके प्रवचन करवाके उनके लिए बाजार ने अपने खजाने के मुंह खोल रखे हैं।
उन्हीं के हिस्से में आए
सारे सम्मान
सारे पुरस्कार
उन्हीं को मिला धन
उन्हीं को मिली प्रसिद्धि
उन्हीं के किस्से
छपते रहे अखबारों में
उन्हीं के पीछे घूमती रहीं
पागलों की तरह
सुंदर स्त्रियां
चमचमाती सफलताएं

उनका परिचय सिर्फ इतना ही
कि स्वयं को
बेचने की कला में हो गए थे माहिर। (बड़े कलाकार, पृ.-32)

कवि रामकुमार आत्रेय की पीड़ा है कि बाजारवाद के युग में साहित्यकारों के सृजन-कर्म और जीवन-कर्म में गहरी खाई है। यही बात लेखक को कचोटती है। ईमानदार अभिव्यक्ति के अभाव में कवि कविता से आंख मिलाने से डरता है। उसका कारण यही है कि वह कविता में व्यक्त किए संकल्पों-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है।

अब तुमसे क्या छिपाना मित्र
हम कवि लोग कविता को
अपनी असली जिंदगी से
कुछ अलग ही रखते हैं
कविता भी हमारे इस झूठ को जानती है
इसीलिए हम कविता से आंख
मिलाने से डरते हैं। (कवि का सच, पृ.-59)

रामकुमार आत्रेय तटस्थता का ढोंग रचने वाले साहित्यकार नहीं हैं, बल्कि वे पीड़ित-पक्ष के प्रति प्रतिबद्ध हैं। उनकी प्रतिबद्धता वक्तव्यों के माध्यम से नहीं, बल्कि कविताओं की संरचना में ही मुखर होती है। किसी स्थिति, पात्र के प्रति लगाए गए विशेषणों में दिखाई देती है। मसलन् नींद में घरेलू स्त्री पीड़ित पक्ष है, इसलिए कवि उसकी तरफ है। इसका स्पष्ट तौर पर पता चलता है, जब कवि उसके पति के खर्राटों की तुलना किसी जंगली पशु की गुर्राहट से करता है।(पृ.-22) रामकुमार आत्रेय की कविता में उनके प्रति गहरा क्षोभ है, जो सिर्फ तालियां बजा रहे हैं। वे पीड़ित के पक्ष में खड़े नहीं हो रहे। उनका शौक कविता में कवि पगड़ियों को बैठक की दीवार पर सजाने को अजीब शौक की संज्ञा देता है और यदि बहुत ही जरूरी हो तुम्हारा उनके यहां जाना में उनको महत्व नहीं दिया जा रहा। कवि की प्रतिबद्धता की तीव्रता को ईश्वर कविता से समझा जा सकता है।

ईश्वर
मैं जानता हूं
कि तुम तो
मुझे कर ही दोगे क्षमा
क्योंकि इतिहास बताता है
कि तुम हमेशा दोषियों को
करते रहे हो क्षमा
और निर्दोषों को देते रहे हो सजा

पर याद रखना
एक कवि होने के नाते मैं
कभी नहीं कर पाऊंगा क्षमा तुम्हें
इन गलतियों के लिए। (ईश्वर, पृ.-9)

रामकुमार आत्रेय अपने काव्य-संकल्पों को भी कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं। साहित्य में जीवन की सच्चाइयों की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण मानते हैं। मेहनतकश जनता के संघर्षों को कविता में अभिव्यक्त करने को प्रतिबद्ध हैं। साहित्य रामकुमार आत्रेय के लिए बैठे ठाले का धंधा नहीं है, वक्तकाटू खेल नहीं है, बल्कि साहित्य के लिए उनके जेनुइन कन्सर्न है। साहित्य उनके लिए जीवन को समझने और बदलने की प्रक्रिया का हिस्सा है। साहित्य में वास्तविक जीवन और जीवन में साहित्य की उपस्थिति को जरूरी मानते हैं।

जिंदगी की ठनक ही
रस पैदा करती है आत्मा में

रामकुमार आत्रेय साहित्य की शक्ति और उसके प्रभाव को समझते हैं। वही साहित्य असरकारी है, जिसमें जिन्दगी की ठनक हो। वास्तविक जीवन की विश्वसनीय अभिव्यक्ति ही रामकुमार आत्रेय की कविता की ताकत है। यहां स्थितियों का चमत्कृत करने वाला वर्णन नहीं है, न ही कोई अतिरिक्त जोर किसी काव्य-औजार पर है। सच्चाई को उसकी विडम्बना के साथ प्रस्तुत करना ही कविता को पाठक से जोड़ता है। नींद में एक घरेलू स्त्री घरेलू स्त्री के जीवन को व्याख्यायित करती है कि बच्चों और पति की देखभाल की दिनचर्या वह स्वयं खो गई है। इसकी इतनी अभ्यस्त हो गई है कि यह उसकी जैविक प्रतिक्रिया हो गई है। नींद में भी वह अपने दैनिक जीवन के कार्यों के प्रति इतनी सचेत है कि कोई गलती नहीं होती।
नाटकीयता, कौतूहल और जिज्ञासा रामकुमार आत्रेय की कविता के शिल्प का अभिन्न हिस्सा है। नाटकीय स्थिति कविता की पठनीयता बनाए रखने में मददगार होती है। सागपूरी खाता रमुआ कविता में रमुआ का पूरियों पर टूट पड़ना, ऐसा देखकर मालिक का खुश होना, फर्श गन्दा होने पर मालकिन का चिल्लाना आदि ऐसी स्थितियां हैं, जो वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए मध्यवर्ग की संवेदना-शून्यता की परतों को उद्घाटित करती है।
लोक चेतना, लोक-विश्वास व लोक मुहावरों का कविता में अनायास उपस्थिति रामकुमार आत्रेय का लोक से गहरा जुड़ाव दर्शाती है। लोक-विश्वास अर्थ को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करते हैं। उल्लू को लोक में अनिष्ट की आशंका माना जाता है। जिंदा ठूंठ कविता में ठूंठ के सिर पर उल्लू का बैठना उसके विनाश की ओर संकेत करता है। पिंजरा, संदूक, तालाब आदि के प्रयोग मुक्ति के प्रति प्रबल आकांक्षा को ही दर्शाते हैं।पंख रामकुमार आत्रेय की कविता में बहुत आता है। पंख उड़ने का संकल्प है।
अर्थ की सघनता के लिए कविताओं में विपरीत स्थितियों, वस्तुओं अथवा क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। ये विरोधात्मक प्रयोग स्थिति को तीव्रता में रेखांकित करते हैं। नींद में एक घरेलू स्त्री के मिर्च-धनिया गंधाते हाथ और पति के मुंह से शराब की बदबू। लेकिन कई बार इसका प्रयोग महज चमत्कार पैदा करने के लिए किया गया है, जिस कारण अर्थ-सम्प्रेषण में अवरोध पैदा होता है। मसलन नींद में एक घरेलू स्त्री कविता में वह करती है प्यार, उसे पूरी नफरत के साथ
रामकुमार आत्रेय की कविता का कथ्य और शिल्प में एकात्मकता है। सरलता, सहजता उनके काव्य-शिल्प का अनिवार्य गुण है। जिसमें कई बार सपाटता का भ्रम भी हो सकता है, लेकिन कभी क्रिया से तो कभी नाटकीयता से कविता की संरचना में निहित वक्रता कल्पनाशील पाठक का निर्माण करती है। कविता का शिल्प उसके कथ्य के साथ ही रुप आकार ग्रहण करता है। उनका शौक कविता में सामन्ती मानसिकता, सामन्ती-संस्कार परिचालित जीवन का वर्णन करते हैं। तो राजा-नवाबों के शौक, शेर-चीतों की खालों के साथ पगड़ियों को आना पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक व ऐतिहासिक संगर्भ को उद्घाटित कर जाता है। सामन्ती सोच और वर्तमान जीवन आमने सामने हो गया है। इससे इज्जत के लिए हत्याओं, सामाजिक उत्पीड़न व भेदभाव के अमानवीय काण्डों के पीछे की सोच प्रभावी ढंग से स्पष्ट हो जाती है।

उनकी बैठक की दीवारों पर
टंगी हैं बड़ी-बड़ी शानदार पगड़ियां
जासे कि राजाओं और नवाबों के
महलों की दीवारों पर सजी होती हैं
खतरनाक शेरों और चीतों की
मुंह बोलती खालें
जो गर्वपूर्वक कर रही होती हैं उद्घोषणा
राजाओं और नवाबों की नृशंस वीरता की (उनका शौक, पृ.-17)


व्यक्ति और समाज की सकारात्मक शक्तियों को सक्रियता के लिए प्रेरित करना तथा बाजारवाद के प्रभावस्वरूप उत्पन्न विकृतियों को उद्घाटित करते हुए संवेदना जगाना रामकुमार आत्रेय की कविता का प्रमुख स्वर है। रामकुमार आत्रेय की कविता की सहजता से अपने पाठक से बात करने का आधार तैयार करके उसके साथ धीरे से आत्मीय रिश्ता कायम लेती है और उसकी चेतना में प्रवेश कर जाती है। जाहिर है कि जो कविता पाठक की चेतना में प्रवेश का रास्ता तलाश लेती है वही अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन की कसौटी पर खरी उतरती है। 

बहिस्कृत औरत व उनका सवाल



हरियाणा का साहित्यिक परिवेश में कविता के जनवादी स्वर

हरियाणा का साहित्यिक परिवेश में कविता के जनवादी स्वर
पुस्तक की भूमिका
डा. सुभाष चन्द्र,  हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

जनता के हितों को परिभाषित व कार्यान्वित करने वाला दर्शन, चिन्तन या विचारधारा ही 'जनवाद' है। वर्ग-विभक्त समाज में शासक व शाषित तथा शोषक व शोषित वर्गों में निरन्तर विचारधारात्मक संघर्ष रहता है। इस संघर्ष में जहां एक ओर शोषक-शासक वर्ग के साधनों पर अपने स्वामित्व, सामाजिक वर्चस्व तथा राजनीतिक सत्ता का औचित्य ठहराने के लिए विभिन्न तर्क रचता है, तो दूसरी ओर जन-सामान्य शोषण से मुक्ति व जीवन की बेहतरी के लिए अपने हितों को परिभाषित करता है। जनता की शोषण से मुक्ति, साधनों पर स्वामित्व तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का औचित्य ठहराने वाला दर्शन ही जनवाद है।
जनवाद के लिए 'जनतंत्र', 'प्रजातंत्र', 'लोकतंत्र' आदि शब्द भी प्रयोग किए जाते हैं। जनवाद एक व्यापक शब्द है, जो जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक हितों को समाहित करता है, जबकि ये शब्द शासन-सत्ता व राजनीतिक संदर्भ तक ही सीमित रहते हैं।
'जनवाद' शब्द में 'जन' शब्द काफी महत्वपूर्ण है, जिसे आमतौर पर तो मानव मात्र के लिए प्रयोग किया जाता है, लेकिन जब इसके साथ 'वाद' लगाया जाता है तो इसका प्रयोग समाज के दलित, शोषित, वंचित, किसान, श्रमिक, नौकरीपेशा लोगों के लिए किया जाता है। शोषणपरक व्यवस्थाओं में समाज के सभी स्तरों पर शोषण होता है, लेकिन जो वर्ग सबसे निम्न स्तर पर होते हैं उनका सर्वाधिक शोषण होता है। सर्वाधिक शोषितों के हितों को परिभाषित करने वाला दर्शन जनवाद है।
जनवाद और माक्र्सवाद में प्रवृतिगत समानता है, लेकिन पर्यायवाची नहीं हैं, जैसा कि आमतौर पर मान लिया जाता है। जनवादी होने के लिए माक्र्सवादी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है, लेकिन माक्र्सवादी के लिए जनवादी होना अनिवार्य है। माक्र्सवादी दृष्टि जनता के हितों को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित व परिभाषित करने में सहायता करता है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, नस्ल, लिंग आदि के आधर पर भेदभाव के बिना सबको विकास के समान अवसर प्राप्त करना तथा 'समता, स्वतंत्रता और भाईचारा' जनवाद का संकल्प है। माक्र्सवाद इन मूल्यों को अपनाता है, इसलिए माक्र्सवादी साहित्य जनवादी मूल्य अपनाने व उनको प्राप्त करने के लिए चेतना का विकास और संघर्ष करने का साहस पैदा करता है।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, नस्ल, क्षेत्र की संकीर्णता आधारित पहचान व सामन्ती संरचनाएं जनवादी चेतना के विकास में बाधक हैं। पहचान के संकीर्ण दायरों को तोड़कर ही वर्गीय पहचान संभव है, जो जनवादी चेतना के लिए अनिवार्य है। मानव को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग, नस्ल की संकीर्णताओं से बाहर निकालकर मानवीय पहचान देना जनवादी सरोकारों में प्रमुख है। मानवीय पहचान व गरिमा के लिए संघर्ष करना इसकी अगली कड़ी है।
संकीर्णताओं को त्यागकर मानवीय पहचान के लिए तथा जनवाद की दिशा में साहित्य ने हमेशा ही प्रयास किया है, लेकिन इसके लिए संगठित व योजनाबद्ध प्रयास की शुरूआत सन् 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से हुई। इस अवसर पर प्रेमचन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य की कसौटी बदलने की बात कहकर इसे परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।" इसके बाद से साहित्य में जनवादी मूल्यों को प्रमुखता से स्थान दिया। जनता के हितों व संघर्षों को साहित्य में अभिव्यक्ति मिली, जिससे जनता के संघर्षों में भी नई जान आई। साहित्य में प्रगतिवाद नामक आन्दोलन उभरा, जिसने मजदूरों, किसानों, वंचितों, पीडि़तों, शोषितों की स्थिति को प्रमुखता से अभिव्यक्ति दी। साहित्य-संस्कृतिकर्मियों ने जनता के तकलीफों में शामिल होकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जनवादी चेतना ' इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोश्यिेशन) के आन्दोलन ने बंगाल के अकाल के दौरान जनता की मदद की थी।
जनता के पक्षधर्र साहित्य के स्वरूप को लेकर निरन्तर चर्चा रही है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस पक्ष पर गहराई से विचार करते हुए लिखा कि "जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है।" मुक्तिबोध ने जनता के साहित्य की पहचान, जनवादी साहित्य के सरोकारों को सही परिभाषित किया है। उन्होंने जनवादी सौंदर्य के तत्वों को भी व्याख्यायित किया है, जो जनवादी साहित्य के मूल्यांकन की आधर बने हैं। उन्होंने ''जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से क्रांति-पथ पर मोडऩे वाला साहित्य, मानवीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला, स्वातन्त्रय और मुक्ति के गीतों को गाने वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा व स्नेह के सुकुमार दृश्यों" वाले साहित्य को जनवादी सरोकारों के साहित्य में सम्मिलित किया है।
जनवादी साहित्य 'कला के लिए कला' में नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' में विश्वास करता है, इसलिए जीवन को बेहतर बनाने वाले समस्त तत्वों का कलात्मक समर्थन तथा जीवन को विकृत करने वाले तत्वों का विरोध इसकी स्वाभाविक प्रवृति है। शोषक-शासक राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण करके ही जनता का शोषण करता है, इसलिए शोषक वर्ग के राजनीतिक मंतव्यों का उद्घाटन तथा उसकी सत्ता की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिए जनवादी रचनाकार राजनीतिक विषयों पर रचना करने से परहेज नहीं करते। साहित्य में जनपक्षीय राजनीति व विचारधारा नारों के रूप में नहीं, बल्कि दृष्टि के तौर पर निहित रहती है। सर्वमान्य विचार है कि जो साहित्यकार अपने वर्ग की राजनीति को अन्य मूल्यों के साथ जितना संबद्ध् करके प्रस्तुत करता है, वह उतना ही अपने मंतव्य में सफल कहा जाता है। महाभारत और रामायण में राजनीति के प्रस्तुतिकरण को आदर्श माना जा सकता है। यहां राजनीति को एक बड़े सवाल के साथ प्रस्तुत किया गया है अत: उसमें सीधे सत्ता संघर्ष होते हुए भी राजनीति अखरती नहीं है।
समाज में जनवादी आन्दोलन ने साहित्य को प्रभावित किया है, जिस क्षेत्र में जनवादी आन्दोलन का रूप तीखा रहा है, वहां के साहित्य में जनवादी मूल्य भी उतनी प्रखरता के साथ आए हैं। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन का उदाहरण हमारे सामने है, वहां जोतिबा पूफले और डा. भीमराव आम्बेडकर के आन्दोलन बहुत ही प्रखर रहे हैं, तो दलित-साहित्य भी वहीं पनपा और अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। किसी क्षेत्र या समाज का साहित्यिक परिदृश्य असल में उसके व्यापक परिदृश्य का ही अंश होता है। समाज के व्यापक परिदृश्य में उसके साहित्यिक परिदृश्य का आकलन एवं विश्लेषण किया जा सकता है।
हरियाणा क्षेत्र में स्वतंत्रता-आन्दोलन कमजोर था। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान आधुनिक मूल्यों की स्थापना समाज में हुई वह भी यहां लगभग नदारद ही रही। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति भी हरियाणा में जातिगत व क्षेत्रीय संकीर्णताओं के दायरे में ही सिमटी रही। धर्मनिरपेक्ष व जनवादी परम्पराएं ठोस जगह यहां नहीं बना पाईं। यहां के समाज में आधुनिक राजनीति व संस्थाएं परम्परागत ढांचों में ही आई। आधुनिक संरचनाओं में परम्परागत विचारधारा ही अपनी जडें जमाए रही, जबकि साहित्य का फूल हमेशा नवीनता की जद्दोजहद में ही खिलता है। हरियाणा के राजनीतिक-सांस्कृतिक विचारधारात्मक पिछड़ेपन के कारण यहां का साहित्य भी पिछड़ा ही रहा, पिछड़ेपन की यह परम्परा अभी भी जारी है। मध्यकाल में दो-चार नाम बड़े साहित्यकारों के लिए जा सकते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में हरियाणा से था। आधुनिक काल में अल्ताफ हुसैन 'हालीÓ और बाबू बालमुकुन्द गुप्त के नाम लिए जा सकते हैं, जिन्होंने साहित्य को नई जमीन प्रदान की। इसके बावजूद हरियाणा में साहित्य की समृद्ध परम्परा नहीं रही। मध्यकाल में साहित्य लेखन व संरक्षण के केन्द्र या तो धार्मिक मठ थे या राजाओं-सामन्तों के दरबार। हरियाणा में इक्का-दुक्का स्थानों को छोड़कर ऐसा कोई साहित्यिक केन्द्र नहीं उभरकर आया, जिससे कि साहित्य लेखन व पठन-पाठन की संस्कृति विकसित होती।
हरियाणा के वर्तमान साहित्य पर नजर डाली जाए, तो यहां प्रगतिशील व जनवादी रचनाकार भी काफी बड़ी संख्या में हैं और जेनुइन साहित्यकार के तौर पर उनकी समाज में पहचान है। उनके साहित्यिक मूल्य व सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर नजर आ जाते हैं। इनके लिए साहित्य लेखन मात्र अपनी प्रतिष्ठा या कला-कौशल के प्रदर्शन का क्षेत्र नहीं है, बल्कि कुछ आदर्शों व मूल्यों को समाज में स्थापित करने का माध्यम है। साहित्य से उनकी सामाजिक अपेक्षाएं व सरोकार उनके विषयवस्तु के चयन व उसके प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करते हैं। इन रचनाओं के केन्द्र में दलित, पीडि़त, वंचित वर्ग हैं, जीवन के लिए संघर्ष करते आम जन हैं, जिजीविषा लिए हुए जीते-जागते चरित्र हैं। समाज को बेहतर बनाने की छटपटाहट इनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है। समाज को बदलने व बेहतर करने का संकल्प ही यथार्थ को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करने की ओर ले जाता है।
हरियाणा के समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को, पीड़ाओं को, समस्याओं को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले साहित्यकारों में प्रमुख तौर पर तारा पांचाल, मनमोहन, विजय कुमार सिंघल, बलबीर सिंह राठी, ओमप्रकाश ग्रेवाल, आबिद आलमी, प्रदीप कासनी, ओमसिंह अशफाक, हरभगवान चावला, जयपाल, स्वदेश दीपक, ज्ञानप्रकाश विवेक, ललित कार्तिकेय, सही राम, भगवान दास मोरवाल, अमृतलाल मदान, रामकुमार आत्रोय, ब्रजेश कृष्ण, राणा गन्नौरी, पुरन मोदगिल, महेन्द्र प्रताप चांद आदि का नाम लिया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा के साहित्यकार की प्रभावी उपस्थिति के बावजूद हरियाणा के साहित्य-भण्डार में बोलबाला यथास्थितिवादी रचनाकारों का ही है, जो साहित्य की प्रतिबद्धता के सवाल पर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। तटस्थता की आड़ में 'कला के लिए कलाÓ के विचार का समर्थन करते हुए साहित्य की सामाजिक भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लगाते रहते हैं। सामाजिक दायित्व विहिन साहित्य में इकहरा यथार्थ रचनाओं की नियति बन जाता है। समाज में घटित किसी घटना को कलमबद्ध कर देने से कोई साहित्यकार न तो पाठकों पर प्रभाव छोड़ पाता है और न ही उनकी समझ को विकसित कर पाने में ही कोई मदद कर पाता है। रचनाकार को रचना में यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है वहीं आकर रचनाकार का साहस चुक जाता है। अधिकांश रचनाकार बड़ी सहजता से कह देते हैं कि कविता का 'प्रस्फुटन' हुआ है। साहित्य-रचना उनके लिए 'दैवीय गुण' है, 'जन्मजात प्रतिभा' का नतीजा है, जिसमें वे कुछ खास नहीं कर सकते। साहित्य-सृजन का यह सैद्धान्तिक आग्रह व्यक्तिगतता तक सिकोड़ देता है। साहित्य उनके लिए समाज परिवर्तन का औजार नहीं रहता, बल्कि वह रसास्वादन का माध्यम बन जाता है। आत्ममुग्धता की स्थिति में रचनाकार अपने पर ही रिझा हुआ है और समाज हो रहे बड़े-बड़े आन्दोलन व परिवर्तन को न तो उनकी दृष्टि पहचान पाती है और न ही वे उनके साहित्य की रचनाओं का विषय ही बन पाती हैं।
यदि साहित्य-रचना की मात्र पर नजर डाली जाए तो बड़ी मात्र में साहित्य प्रकाशित हो रहा है। हरियाणा में साहित्य सृजन की मात्र तो निराश करने वाली नहीं है। हर वर्ष कितने ही कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह व अन्य साहित्यिक विधाओं में सृजनात्मक साहित्य के नाम पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। सैंकड़ों नाम लिये जा सकते हैं जो साहित्यकार के तौर पर समाज में प्रतिष्ठित हैं। इसी स्थिति ने हरियाणा के साहित्य और समाज में घटित हो रही घटनाओं का तथा साहित्य के यथार्थ का कोई सम्पर्क नहीं बन रहा है। समाज में कुछ घटित हो रहा है और साहित्य किसी दूसरी ही दुनिया का परिचय दे रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हरियाणा में अमानवीयता और बर्बरता की घटनाएं घटी हैं, लेकिन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति लगभग नदारद है। दलित उत्पीडऩ की भयावह घटनाएं तो घटनाओं पर तो चुप्पी जैसी स्थिति ही है और लड़कियों का हरियाणवी समाज से गायब होना जितनी चिन्ता का विषय समाजशास्त्रियों के लिए बना, उतना साहित्यकारों के लिए नहीं। पूरी परिस्थिति को उद्घाटित करती रचनाओं का घोर अकाल है, लेकिन इस विषय पर भावुक किस्म की रचनाएं अवश्य आई हैं।
हरियाणा के साहित्य पर नजर डालने पर एक चिन्ताजनक पक्ष - साहित्यकारों का वास्तविक हरियाणा के अपरिचय का है। साहित्यिक रचनाओं में हरियाणा का बहुत ही छोटे से वर्ग की समस्याएं नजर आती हैं। हरियाणा का अधिकांश समाज कृषि पर आधरित है और गांवों में रहता है, लेकिन साहित्य में शहरों रहने वाले मध्यवर्ग का छोटा सा हिस्सा ही छाया हुआ है। गांव यदि कहीं आया भी है, तो वह इतने सीधे सपाट ढंग से कि उसके अन्तर्विरोध प्रकट नहीं होते। शहरी जीवन से गायब सामुदायिकता और भाईचारे का स्थानापन्न की जगह के रूप में ही गांव मौजूद है। संवेदनशील मन का कल्पित गांव तो यहां दिखाई देता है, लेकिन वास्तविक गांव नहीं। गांव के बारे में बड़ी ही 'नास्टेलजिक' भावना है। नए विकास व बदलते संदर्भों में गांव का नया स्वरूप यहां नहीं है। 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?, क्यों न सबका मन ललचाए' वाली रोमानी छवि ही हावी है। अपने अस्तित्व मात्र के लिए लड़ती गांव की अधिकांश आबादी यहां से पूर्णत: गायब है।
समाज में परिवर्तनकामी वर्गों की चेतना धरण किए बिना व उनके संघर्षों में शामिल हुए बिना कोई रचनाकार हो रहे परिवर्तनों को बहुत विश्वसनीय ढंग से अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता। परिवर्तन के आन्दोलन से कटकर रचना करने वाले साहित्यकारों की स्थिति 'शतरंज के खिलाडिय़ों' जैसी ही होती है, जो अपने साहित्यिक शतरंज के खेल में इतने मस्त हैं कि सामाजिक परिवर्तन उनके पास से ही गुजर जाते हैं।
एक-दूसरे को सम्मानित करने का 'दोस्ती-धर्म' निभाने की परम्परा ने यहां साहित्य-विमर्श को उभरने नहीं दिया। इस माहौल में साहित्य की समीक्षा का स्तर लगभग ऐसा है जैसा कि शादी में 'सेहरा' पढ़ा जाता है। समीक्षा में रचनाशीलता की ताकत व कमजोरी को उद्घाटन करने की बजाए लेखक की 'आरती' गाई जाती है। इस महिमामंडन में लेखक भी आनन्दविभोर होता है और इसी में कथित समीक्षक अपनी 'शास्त्रीय' प्रतिभा का प्रर्दशन करता है। रचना के विकास में इस 'स्तुति-संस्कृति' ने बहुत नुक्सान किया है। आग में तपकर ही सोने में चमक आती है, उसी तरह साहित्यकार भी विचार-विमर्श की आंच में तपकर ही उतरोतर विकास करता है। रचना पर विचार-विमर्श के अभाव में जैसा वह लिखना शुरू करता है, वैसा ही लिखता रह सकता है। विचार-विमर्श के अभाव में दोहराव रचनाकार की ऐसी सीमा बन जाती है कि उसकी रचनाधिर्मता का असामयिक निधन हो जाता है और वह 'वरिष्ठ' साहित्यकार का दर्जा पाते ही उपदेशक की मुद्रा में आ जाता है। नए उभर रहे साहित्यकारों के लिए कुछ कहने को उसके पास नहीं होता तो वह उनको खारिज भी करने लगता है। इसलिए 'वरिष्ठ' साहित्यकारों को अक्सर शिकायत होती है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जा रहा। सही है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जाएगा। लेकिन जब वे 'वैसे' को ही आदर्श लेखन मान लें तो नए लेखन के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं। अक्सर नए साहित्य के बारे में निराशाजनक टिप्पणियां सुनने को मिल जाएंगी।
लगभग हर शहर और कस्बे में साहित्यिक संस्थाएं व सभाएं हैं, जो नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां व कार्यक्रम करती हैं, लेकिन अपनी नियमितता के बावजूद ये गोष्ठियां कोई साहित्यिक माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। इन गोष्ठियों की जबरदस्त सीमा यही है कि इनमें रचनाओं पर कोई बातचीत नहीं होती, कोई विचार-विमर्श नहीं होता। रचनाकारों को अपनी रचनाएं सुनाने में ही अधिक रुचि रहती है या फिर अधिक से अधिक एक दूसरे को सुनने का बारी-बट्टा और यही फार्मूला एक दूसरे की तारीफ करने में लागू किया जाता है। पुराने समय के मुशायरों के वाह-वाह की संस्कृति इन रचना-गोष्ठियों में हावी है। इसलिए रचनाकार का विकास कर पाने में ये कोई खास मदद नहीं कर पाती।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन और पाठकों से जुड़ाव भी साहित्यिक परिदृश्य का महत्वपूर्ण पक्ष है। पाठकों और लेखकों के बीच में पत्रिका ही वह पुल है जो एक दूसरे को जोड़ता है। हरियाणा में कुछ गिने-चुने नाम ही साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। हरियाणा में 'पल-प्रतिपल' ही एक ऐसी पत्रिका है, जो साहित्य को बड़ी गम्भीरता से प्रकाशित करती है। 'जतन' पत्रिका से भी हरियाणा के साहित्य पाठक परिचित हैं, लेकिन इसकी अनियमितता साहित्य के प्रसार व विकास में कोई निरन्तरता नहीं बना पाती।
साहित्य के गम्भीर प्रकाशन व प्रकाशन गृह भी प्रदेश में न के बराबर हैं। 'आधार प्रकाशन' ने एक समय में गम्भीर साहित्य प्रकाशित किया और नए रचनाकारों की रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। हरियाणा के किसी शहर में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां से साहित्य उपलब्ध हो सके। पुस्तकों की दुकानें पूरी तरह से परीक्षा में उपयोगी पुस्तकों से भरी पड़ी हैं। कोई यदि साहित्य में रूचि ले भी तो साहित्य की अनुपलब्धता की भारी समस्या का सामना उसे करना पड़ता है। 'साहित्य उपक्रम, करनालÓ ने साहित्य के प्रकाशन व प्रसारण के लिए कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया। एक छोटी गाड़ी के माध्यम से गांव-गांव व शहर-शहर जाकर साहित्य पंहुचाने का प्रयास किया। कैथल की 'अक्षर धाम' संस्था ने शहर शहर पुस्तक-प्रर्दशनी व मेले लगाकर लोगों के बीच साहित्य पहुंचाने का प्रयास किया है, लेकिन साहित्य की जरूरत व प्रभाव को देखते हुए ये प्रयास सीमित ही कहे जा सकते हंै।
'हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, रोहतक' व 'राज्य संसाधन केन्द्र, रोहतक' ने भी अपनी विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से साहित्य के प्रसार को महत्व प्रदान किया। विशेष तौर पर साक्षरता आन्दोलन के दौरान हजारों की संख्या में साहित्य के नए पाठक बने हैं और इसी दौरान कितने ही नव लेखक उभरे हैं। साहित्य के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करने के लिए छटपटाहट दिखाई दी है। जिन वर्गों का साहित्य से कोई जुड़ाव नहीं था, न पाठक के तौर पर और न ही लेखक के तौर पर उनमें से ही साहित्यकार उभर कर आ रहे हैं। साहित्य इन वर्गों के लिए नया क्षेत्र है, लेकिन जिस तरह से इन्होंने साहित्य लेखन को नए अनुभव से जोड़कर नई ऊर्जा व ताजगी दी है, उससे जरूर शुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं।
'हाली' व बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने अपनी कविताओं में जनवादी सरोकारों को अभिव्यक्त करके हरियाणा की कविता की नींव डाल दी थी, लेकिन उनके बाद यह परम्परा कुछ मन्द पड़ी रही लेकिन अस्सी के दशक के बाद से कविता में जनवादी स्वर निरन्तर विद्यमान हैं। हरियाणा के जनवादी सरोकारों की कविताओं के पढऩे के बाद स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ये कविताएं हरियाणा के जीवन को वास्तव में व्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कविताएं हैं, जिनमें लफ्फाजी नहीं, बल्कि समाज की सच्चाई अपनी पूरी जटिलताओं के साथ मौजूद है। हर रचनाकार का विशिष्ट मुहावरा है, जो उसके विशिष्ट अनुभवों को प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। विषय वस्तु की दृष्टि से विविधता इन कविताओं में अपनी बात को पाठक तक संप्रेषित करने का जबरदस्त कौशल देखने को मिलता है।
हरियाणा के कविता के जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली कविता को समझने के लिए समय समय पर लिखे गए लेख इस पुस्तक में शामिल हैं। जो अपने में स्वतंत्र लेख हैं, चूंकि एक जगह से कविता उगी है और एक दृष्टि है तो सबको एक साथ पढऩे पर हरियाणा की कविता का स्वरूप समझने में कुछ मदद मिलेगी, इसलिए इनको पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनी। श्री देश निर्मोही को हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला तो उन्होंने साहित्यिक सृजन को बढ़ावा देने के लिए कालेजों के विद्यार्थियों यानी नवोदित रचनाकारों की कविताओं को 'दस्तक' नाम से पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। 'दस्तक' भाग एक व दो की भूमिका के तौर पर संकलित लेखों को भी इसमें शामिल किया है। इन कविताओं को पढ़कर हरियाणा के साहित्य की दिशा के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
इस पुस्तक का श्रेय मैं श्री देश निर्मोही, पूर्व निदेशक साहित्य अकादमी हरियाणा को देता हूं, जिन्होंने सामाजिक विषयों में रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को कविता की ओर प्रेरित किया तथा कार्य के महत्त्व पर व कर्तव्य का वास्ता देकर ये लेख लिखवा लिए तथा प्रकाशित भी किया।
डा. सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

बाबू बालमुकुन्द गुप्त

बाबू बालमुकुन्द गुप्त

हरियाणा के झज्जर जिले के गुडिय़ानी नामक गांव में 1965 में लाला पूरणमल के घर में बाबू बालमुकुन्द गुप्त का जन्म हुआ। ''गुप्त के आरंभिक काल में इस गांव की आबादी थोड़ी ही थी। गांव में दो प्रमुख जातियों के लोग रहते थे। बहुसंख्यक तो पठान थे जो घोड़ों का व्यापार करते थे और अल्पसंख्यक महाजन लोग थे जो वाणिज्य और सूद का ध्ंाधा करते थे। पठान व्यापारी अपने बच्चों को उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए मक़तब भेजते, परन्तु महाजन लोगों में शिक्षा का प्रचार नहीं था। बालमुकुन्द गुप्त गांव में अपनी जाति के पहले बालक थे जिनकी शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई।"1
बालमुकुन्द गुप्त की ''प्रारंभिक शिक्षा तत्कालीन मामूली से मदरसे में हुई थी, जिसको गुप्त जी के शब्दों में 'नीम मकतब' कहा जा सकता है। ऐसे स्कूलों में न कोई पुस्तक होती थी, न उर्दू का कायदा उपलब्ध होता था। अध्यापक के बताने पर तख्तियों पर बच्चे उर्दू की वर्णमाला लिख लिया करते थे। पठन-पाठन की भाषा उर्दू के कायदे का काम चलाती थी। उस समय तक उर्दू की पहली, दूसरी तथा तीसरी किताब लिखी तो जा चुकी थी, पर दूरस्थ ग्राम मदरसों तक पहुंच न पायी थी।"2
बालमुकुन्द गुप्त का जीवन संघर्षपूर्ण था। वे पढ़ाई में बहुत होशियार थे। उनके पिता उनको शिक्षा दिलवाना चाहते थे। ''इससे पहले कि पूरणमल अपने लड़के के भविष्य के बारे में कुछ सोचते, वे चौंतीस वर्ष की आयु में चल बसे। यही नहीं, उनके निधन से पूरणमल के पिता को ऐसा धक्का लगा कि एक सप्ताह में उनका भी स्वर्गवास हो गया। तब परिवार में सबसे बड़े चौदह वर्षीय बालमुकुन्द को अपने पैतृक व्यवसाय के हिसाब-किताब को समझने, बकाया वसूल करने और लेन-देन के झगड़े निपटाने के काम में जुट जाना पड़ा। अगले ही वर्ष सन् 1880 में उनका विवाह भी कर दिया गया। वधू अनार देवी रेवाड़ी के एक व्यापारी की पुत्री थी। अब बालमुकुन्द को घर-गृहस्थी और छोटे भाइयों और बहनों की इेखरेख भी करनी पड़ी। शिक्षा के स्वप्न हवा हुए। जब पांच वर्षों की अवधि में उनके भाई काम संभालने की स्थिति में हुए तब बालमुकुन्द निर्णय कर सके कि आगे पढ़ाई की जाए। उन्होंने घर बैठकर स्वयं अध्ययन किया और 1886 में दिल्ली जाकर वहां से मिडिल की परीक्षा पास की।"3
बालमुकुन्द गुप्त जी ने उर्दू पत्रकारिता से शुरूआत की, उन्होंने 'अखबार-ए-चुनार', 'कोहिनूर' का सम्पादन किया और अपनी लेखनी से ख्याति अर्जित की। हिन्दी-पत्रकारिता में 'हिन्दी बंगवासी', 'भारत मित्र' को बुलन्दियों पर लेकर गए। कलकत्ता की जलवायु तथा काम की अधिकता के कारण गुप्त जी का स्वास्थ्य खराब हो गया। जलवायु बदलने के लिए वे बिहार में वैद्यनाथ धाम भी गए, परन्तु मन न लगने व स्वास्थ्य में सुधार न होने के कारण वे गुडिय़ानी के लिए रवाना हुए। दिल्ली पहुंचने पर उनके सम्बन्धियों ने इलाज के लिए रोक लिया। कई वैद्यों ने इलाज के प्रयास किए लेकिन गुप्त जी के स्वास्थ्य में कोई लाभ नहीं हुआ। 18 सितम्बर, 1907 को उनका छोटी सी उम्र में देहान्त हो गया।
गुप्त जी ने अपनी थोड़ी सी उम्र में ही हिन्दी साहित्य को बहुत कुछ दिया। उनके व्यक्तित्व के बारे में डा. नत्थन सिंह ने सही लिखा है कि ''बचपन से ही गुप्त जी प्रतिभावान एवं कर्मठ छात्र थे। गणित के जिस प्रश्न को अध्यापक हल करने में विफल रहे थे, उसको आपने हल कर दिया था। पिता तथा पितामह के संरक्षण से वंचित होकर भी आपने कौटुम्बिक व्यवसाय का संवर्धन तथा अध्ययन का उत्कर्ष किया था। समुचित साधनों के अभाव में विद्या का अर्जन, निस्पृह लेखन, वैष्णव संस्कृति का पोषण, साहित्य की प्रगतिशील राष्ट्रवादी परम्परा का संवर्धन, भाषा तथा लिपि के सहज तथा लोकोन्मुख रूप की रक्षा के लिए महारथियों के साथ संघर्ष, व्यग्य एवं विनोदपरक शैली के माध्यम से प्रखर आलोचना का प्रवर्तन, ज्ञान एवं मानवता के रक्षक, देशी-विदेशी विद्वानों का सम्मान करना आदि उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण थे।
उनको उर्दू, फारसी, हिन्दी तथा बंगला आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। संस्कृत तथा अंग्रेजी का जमकर अध्ययन किया था। विद्यार्जन में रुचि, निर्भीक एवं स्पष्ट कथन और भारतीयता उनके व्यक्तित्व की त्रिवेणी थी। वह अपने युग के अप्रतिम लेखक थे।"4
''गुप्त जी के कवि और लेखक का श्रीगणेश उर्दू कविता तथा गद्य से होता है। प्रारम्भिक शिक्षार्जन के पश्चात् उनका सम्पर्क झज्जर की संस्था 'रिफाहे आम सोसाइटी' के साथ हुआ। यह संस्था समस्यापूर्ति का केन्द्र स्थल थी। गुप्त जी भी समस्यापूर्ति करने लगे और शनै: शनै: उर्दू में काव्य रचना की ओर बढ़े। उनके अध्यापक मौलवी बरकतअली और मुंशी वजीर मुहम्मद साहब उनकी उर्दू कविता का संशोधन कर दिया करते थे। उनका उर्दू काव्य परम्परागत अध्कि है, किन्तु हिन्दी-काव्य परम्परा से एक कदम आगे की चीज है। इतने पर भी कविता के कलापरक निकष पर परखने पर निराशा हाथ लग सकती है, कारण केवल यह है कि कला की निरपेक्ष साधना उनका अभिप्रेत न था। यह काव्य के माध्यम से अपनी समाज-सापेक्ष विचारधारा को वाणी देने के पक्षधर थे।
गुप्त जी का यह अभिप्रेत उनके उर्दू-काव्य से भी व्यक्त होता है और हिन्दी कविता से भी। उर्दू कविता अधिकाशंत: शराब, साकी, मयखाना तक सीमित रहती है। गुप्त जी का मार्ग इससे कुछ भिन्न था। इश्क के विषय में उनकी धरणा एक शेर से प्रकट होती है -
अजायब है ए शाद! नैरंगे इश्क, लिखी खूब हैरत ने यह जंगे इश्क।
मजामीन ताजाब सरगूद है। खयालात पाकीजा और खूब है।5
गुप्त जी ने उर्दू साहित्य की नई धरा से अपने को जोड़ा वे अपनी कविताओं से समाज की बुराइयों दूर करने व व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता व सदाचार को अपनाने के लिए प्रेरित करते थे। अल्ताफ हुसैन हाली ने उर्दू में जिस नए दौर की शुरूआत की थी, गुप्त जी ने उसे अपनाया।
समझ इस बात को नादां जो तुम में कुछ भी गैरत हो,
न कर उस काम को हरगिज कि जिसमें तुझको जिल्लत हो।
बुरे अफआल में पड़कर न हरगिज अपनी बुकअत खो,
बस वह काम कर जिसमें कि तेरे दिल को राहत हो।
अगर है साहिबे इसबाल आपे से न हो बेरंग,
कि आमद हो न पानी की तो सूखे चश्मये जेजूं।6
बालमुकुन्द गुप्त की कविता के बारे में डा. नत्थन सिंह ने सही ही लिखा है कि ''गुप्त जी का उर्दू-काव्य, उर्दू शायरी के परम्परागत रूप का एक सीमित मात्रा में स्पर्श करते हुए भी उससे अलग है। उसमें न मयखाने की बहुतायत है, न साकीवाला की, न उसमें माशूक की शोखियों का चित्रण है, न आशिक के शिकवे-शिकायत का बाहुल्य, उसमें न दजला-फरात तथा कोहकाफ की प्राकृतिक सुषमा का अंकन है, न युग यथार्थ से पलायन। उसमें प्रकृति के बिम्ब हैं और मानव की अनुभूति की अभिव्यंजना भी। वह न कोरी कल्पना का महल खड़ा करती है और न कला के उपयोगितावादी पक्ष से बचती है। वह नीति, संयम और विवेक के उपदेश भी देती है और राष्ट्र की प्रगति के साथ इन्सान को जोडऩा चाहती है।"7
कविता ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। तत्कालीन घटनाएं कविताओं में मौजूद हैं। साहित्य को सीधे पर तौर पर अपने समय से जोडऩा अपने आप में ऐतिहासिक काम है। अभी तक कविता आभिजात्य के मनोरंजन, मन बहलाव का विषय थी। अपने समय की समस्याओं को सीधे तौर पर इसमें संबोधित किया जा सकता है इस विचार को स्थापित करने वाले साहित्यकारों में बालमुकुन्द गुप्त का नाम अग्रगण्य है। अंग्रेजों ने बंगाल को दो टुकड़ों में बांटकर जनता को आपस में बांटने की चाल चली थी। लोगों ने इसका कड़ा विरोध किया था और उस विरोध के कारण ही बंगाल फिर से एक हो गया था। इस व्यापक स्तर पर इस आन्दोलन को अपनी कविता का विषय बनाया।8
बालमुकुन्द गुप्त जी ने अपनी कविताओं में तत्कालीन राजनीतिक सवालों को उठाया। वर्ग विभाजित समाज में कोई महान रचनाकार व रचना अपने युग की राजनीति से कटकर नहीं रह सकती। बात सिर्फ इतनी है कि वह शासक वर्गों की राजनीति की पक्षधर है या शोषित-वंचित वर्गों की। बालमुकुन्द गुप्त जहां राजनीतिक तौर पर आम जनता के पक्षधर थे। जनता के आन्दोलन व संघर्ष, जनता की आकांक्षा उनके साहित्य का आधार है। यहीं से उनका साहित्य अपने लिए विषय जुटाता है और जनता का पक्ष निर्माण करता है। उनके काव्य से यदि राजनीतिक सवालों को निकाल दिया जाए, तो उनमें कुछ नहीं बचेगा। आम लोगों के जीवन की वास्तविक स्थितियों व शोषक राजनीति को उदघाटन उनकी कविताओं का प्रधान व शक्तिशाली स्वर है। जनता के पक्ष निर्माण करने वाला कवि ही जनवादी कवि होता है। प्रगतिशील आन्दोलन 'कला के लिए कला' नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' का सुव्यवस्थित दर्शन लेकर साहित्य के केन्द्र में उभरा था, जिसने किसानों-मजदूरों के सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों को अपने साहित्य के केन्द्र में रखा। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं को उसका पूर्व संस्करण कहा जा सकता है। जिन्हें कविता के छन्दों की मात्राओं को गिनने की फुरसत है, जो कविता में अंलकारों की सूची बनाने निकले हैं, कोमलकान्त पदावली में ही कलात्मकता ढूंढने निकले हैं, उन कलावादियों को गुप्त जी कविताओं में निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। जिनके लिए कविता का जीवन से जुड़ाव है, वे यहां से मोती प्राप्त करेंगें। गुप्त जी को कलावादियों से दाद की अपेक्षा नहीं थी, बल्कि वे दबे-कुचले, पीडि़त-वंचित-शोषित संघर्षरत लोगों के खुरदरे यथार्थ को व्यक्त करते थे।
बालमुकुन्द गुप्त की कविताएं कलावादियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, शायद इसीकारण निर्भीक पत्रकार और गद्य निर्माता के तौर पर तो उनके योगदान को रेखांकित किया गया, लेकिन उनकी कविताओं ने हिन्दी साहित्य में जिस नई धारा का सूत्रपात किया व उससे जो काव्य-मूल्य विकसित हुए उस पर घोर चुप्पी साध ली गई। यह बाबू बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि जिस साहित्यकार की रचनाओं में जनता के हित सिर चढ़कर बोलते हैं, उनके साथ ऐसा होता रहा है। महाकवि कबीर की कविता को कविता की श्रेणी से निकालने के लिए कितना शोर-शराबा हुआ है, लेकिन जनता की भावनाओं को व्यक्त करने वाले साहित्य को किसी कलावादी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती। रामप्रसाद बिस्मिल की गजलें बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं, उनको किसी काव्यशास्त्री की सम्मति की आवश्यकता नहीं है। हाली की रचनाओं को भी ऐसे ही बेहूदे तर्क देकर नकारने की कोशिश हुई थी। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में तत्कालीन सामाजिक शक्तियों की टकराहट है और गुप्त जी इसमें प्रगतिशील शक्तियों की ओर हैं, ऐसा रचनाकार अपन समय की सीमाआं को लांघकर हमेशा प्रासंगिक रहता है।
बाबू बालमुकुन्द गुप्त के पास राष्ट्रवादी-जनवादी पत्रकार की पैनी दृष्टि थी और कवि का संवेदनशील हृदय। जिस कारण वे जनता के दु:ख-तकलीफों को महसूस कर सके और निर्भीकता से व्यक्त कर किया। तत्कालीन अंग्रेजी साम्राज्यवाद अपने विरोधी स्वरों को बड़ी क्रूरता से दमन करता था, विद्रोह की आशंका से भय से इतनी बड़ी संख्या में साहित्य की जब्ती इसे बताता है। ऐसी विपरीत स्थितियों में जन पक्षधरता के लिए जिस जीवट व दृष्टि की आवश्यकता थी, वह उनके पास थी।
बालमुकुन्द गुप्त के समय में भारत का क्रांतिकारी और राष्ट्रीय आन्दोलन की दिशा व रूप ग्रहण नहीं कर पाया था, बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में भावी आन्दोलनों की आहट सुना जा सकता है। साम्राज्यवाद के घोर शोषण ने जनता के लिए अस्तित्व का ही संकट पैदा कर दिया था। अंग्रेजों द्वारा जनता की अधिकाधिक लूट के लिए कृत्रिम अकाल का प्रायोजित किए। बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने कविताओं में अकाल से त्रस्त दीन जनता का मार्मिक चित्र खींचा है। 'हे राम' कविता में लिखा
केहि कारन पावत नाहिं आधे पेटहु नाज,
कौन पाप-सौं बसन बिन ढकन न पावहि लाज।
सीत सतावत सीत महं अरु ग्रीसम महं घाम,
भीजत ही पावस कटत कौन पाप सौ राम?
केते बालक दूध के बिन्ना अन्न के कौर,
रोय रोय जी देत हैं कहा सुनावैं और।
कौन पाप ते नाथ यह जनमत हम घर आये,
दूध गयौ पै अन्नहू मिलत न तिन कहं हाय।
केते बालक डोलते माता बिना विहीन,
एक कौर के फेर महं घर घर आये दीन।
मरी मात की देह को गीध रहे बहु खाय,
ताही सौं यक दूध को सिसू रह्यो लपटाय।
जहं तहं नर-कंकाल के लागे दीखत ढेर,
नरन पसुन के हाड़-सों भूम छई चहुं फेर।
हरे राम केहि पाप ते भारत भूमि मझार,
हाडऩ की चक्की चलैं हाडऩ को व्यापार।
अब या सुखमय भूमि महं नाहीं सुख को लेस,
हाड़ चाम पूरित भयो अन्न दूध को देस।
बार बार मारी परत बारहिं बार अकाल,
काल फिरत नित सीप पै खोले गाल कराल।9
बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने किसान की दशा का जो वर्णन किया है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि साम्राज्यवादी लूट कितनी ज्यादा थी। किसान को लगान देना पड़ता था, वह उसकी फसल से भी अधिक होता था। लगान वसूल करने के लिए जो अत्याचार व दमन किया जाता था उसका वर्णन करके अंग्रेजी राज की क्रूरता को अभिव्यक्त किया है। अंग्रेजी शासन दमन का सहारा लेता था। जिस सूक्ष्मता व समग्रता से किसान जीवन का वर्णन किया है, किसान के जानवरों को भी कुछ खाने के लिए नहीं मिलता। सारे समाज का पेट भरने वाला किसान ही भूखा है। 'सर सैयद अहमद का बुढ़ापा' कविता में किसानों के शोषण की प्रक्रियाओं का वर्णन किया, उसके दर्शन महान कथाकार प्रेमचन्द के कथा साहित्य में होते हैं। जब वे कहते हैं कि 'जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा है' तो उनकी किसानों के प्रति प्रतिबद्धता प्रकट होती है।
जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा है।
जिनके कारण सब सुख पावें जिनका बोया सब जन खावें,
हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लावें।
हाय जो सब को गेहूं देते वह ज्वार बाजरा खाते हैं,
वह भी जब नहिं मिलता तब वृक्षों की छाल चबाते हैं।
उपजाते हैं अन्न सदा सहकर जाड़ा गरमी बरसात,
कठिन परिश्रम करते हैं बैलों के संग लगे दिन रात।
जेठ की दुपहर में वह करते हैं एकत्र अन्न का ढेर,
जिसमें हिरन होंय काले चीलें देती हैं अंडा गेर।
काल सर्प की सी फुफकारें लुयें भयानक चलती हैं,
धरती की सातों परतें जिसमें आवा सी जलती हैं।
तभी खुले मैदानों में वह कठिन किसानी करते हैं,
नंगे तन बालक नर नारी पित्ता पानी करते हैं।
जिस अवसर पर अमीर सारे तहखाने सजवाते हैं,
छोटे बड़े लाट साहब शिमले में चैन उड़ाते हैं।
उस अवसर में मर खपकर दुखिया अनाज उपजाते हैं,
हाय विधता उसको भी सुख से नहिं खाने पाते हैं।
जम के दूत उसे खेतों ही से उठवा ले जाते हैं,
यह बेचारे उनके मुंह को तकते ही रह जाते हैं।
अहा बेचारे दु:ख के मारे निस दिन पचपच मरें किसान,
जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवाय ले जाय लगान।
यह लगान पापी सारा ही अन्न हड़प कर जाता है,
कभी कभी सब का सब भक्षण कर भी नहीं अघाता है।
जिन बेचारों के तन पर कपड़ा छप्पर पर फूंस नहीं,
खाने को दो-सेर अन्न नहीं बैलों को तृण तूस नहीं।
नग्न शरीरों पर उन बेचारों के कोड़े पड़ते हैं,
माल माल कह कर चपरासी भाग की भांति बिगड़ते हैं।
सुनी दशा कुछ उनकी बाबा! जो अनाज उपजाते हैं,
जिनके श्रम का फल खा खाकर सभी लोग सुख पाते हैं।10
बालमुकुन्द गुप्त ने किसानों की दुर्दशा का जो वर्णन किया, वह आज भी काला हांडी के किसानों की याद दिला जाता है। गुप्त जी कविता में किसान वृक्षों की छाल चबाकर पेट भरने को विवश हैं, तो आज के किसानों कच्ची गुठलियां खाकर बीमार होने को विवश हैं। साम्राज्यवादी-पंूजीवादी शोषण के कारण एक लाख अस्सी हजार से अधिक किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। यह कोई प्राकृतिक विपदा के कारण नहीं है, बल्कि पूंजीपरस्त सरकारी नीतियों व योजनाओं के कारण हैं। आजादी प्राप्त करने के बाद भी किसान की हालत बहुत नहीं बदली है। अंग्रेजी साम्राज्यवादी शासन किसानों के अनाज को खलिहान से उठा ले जाता था, लेकिन आज की शोषक नीतियां फसल पकने से पहले ही खाद-तेल-दवाई-बीज के माध्यम से पहले ही लूट लेती हैं। किसान के श्रम का शोषण ही है, जिसके कारण उसकी ऐसी दयनीय हालत है, वरन् वह न तो कामचोरी करता है और न ही फिजूलखर्ची।
गुप्त जी ने केवल अंग्रेजों के शोषण व दमन को ही व्यक्त नहीं किया, बल्कि महाजनों-सेठों के शोषण को भी उजागर किया है। अकाल में पीडि़त लोगों से मुंह मोड़ लेना संवेदनशून्यता को दर्शाता है। गुप्त जी ने इसकी खबर ली है। गुप्त जी स्वतंत्रता-आन्दोलन में विभिन्न वर्गों की भूमिका को देख रहे थे। सेठ-महाजन, व्यापारी,जमींदार-सामन्तों को अपने ऐश्वर्य-विलास से ही फुरसत नहीं थी, वे अपना मुनाफा कमाने में ही व्यस्त हैं। 'ताऊ और हाऊ' कविता में उनकी इस मनोवृति को व्यक्त किया है:
लोग देश के भूखौ मरैं, उनके लिए कहो क्या करैं?
ताऊ कहै सुनो रे पूत, किन बहकाओ दोरौ ऊत?
जल्दी से घर के मूँद किवार, अपना अपना झौंको भार।
घर में बैठे चैन से खाओ, देस भेष चूल्हे में जाओ।

कपड़े की बिक्री नहीं होती, बिके न चादर बिके न धोती।
दोनों ओर देखके छूछा हाऊ ने ताऊ से पूछा।
कहिये ताऊ अब क्या करैं, कैसे अपनी पाकेट भरें?
बिकती नहीं एक भी गांठ, सब गाहक बन बैठे ठांठ।
दिये बहुत लोगों को झांसे, फंसता नहीं कोई भी फांसे।
ताऊ कहैं सुनो जी हाऊ, तुम निकले केवल गुड़ खाऊ।
फंसे उसी को खूब फंसाओ, नहीं फंसे तो चुप हो जाओ।
देश-वेश चुल्हे में जाय, 'सांसों म्हारी करै बलाय'।
खाओ-पीओ मौज उड़ाओ, अकड़ अकड़ के शान दिखाओ।11
भारत में अपनी जडें जमाने के लिए अंग्रेजी शासन ने यहां के जमींदारों-सामन्तों को अपना साथी बनाया। अंग्रेजों ने उनकी मदद लेने के लिए उनको पदवियां व जमीनें दी। इनको अपनी वफादारी साबित करनी पड़ती थी। जो अंग्रेजों से वफादारी नहीं करते थे, उन्हें उत्पीडऩ व दमन सहन करना पड़ता था। 'पंजाब में लायल्टी' कविता में बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने बड़ी स्पष्टता व निडरता से व्यक्त किया है। उस समय में इस तरह कि कविताएं लिखना वास्तव में बहादुरी का काम था। इसके लिए घनीभूत प्रतिबद्धता की आवश्यकता थी। इस तरह की तुकबंदियों का स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान होता था, जनता की भावनाओं को ये शब्द प्रदान करती थी और देशभक्तों में नई ऊर्जा का संचार करती थी।
केवल दो डिसलायल थे वां एक लाजपत, एक अजीत,
दोनों गये निकाले उनसे नहीं किसी को है प्रीत।
हां, कुछ डिसलायल थे रावलपिंडी के पंडित लाले,
वह सब पकड़, किये फाटक में, बाहर लगा दिये ताले।
फिर एक मिला था डिसलायल का बच्चा पिंडीदास,
सोते उसे उठाकर घर से फाटक में करवाया बास।
और दिखाई दिया एक डिसलायल लाला दीनानाथ,
उसको भी एक जुर्म लगाकर पिण्डी के करवाया साथ।12

अंग्रेज अधिकारी यहां पूरे सामन्ती ठाठ का निर्वाह करते थे। सामन्ती फिजूलखर्ची व प्रदर्शन को गुप्त जी पसन्द नहीं करते थे। उन्हें इस बात से तकलीफ थी कि जनता तो दाने दाने को तरस रही है, लेकिन शासक अपनी शान बघारने के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर रहे हैं। दिल्ली दरबार प्रसिद्ध है।
देखा सुना न जो कुछ कभी, दिल्ली में वह होगा सभी।
भर भर बीयर चले संदूकें, बीस हजार चले बन्दूकें।
मार धड़ाधड़ तोप चलें, दिल सब नामर्दों के हलें।
बिजली करैं रोशनी जाकर, भरे हाजिरी बनकर चाकर।
ऐसा आन पड़ा है जोत, दुनिया भर के आवैं लोग।
बादशाह के भाई आवैं, साथ-साथ कितनों को लावें।
बड़े लाठ की माता आवें, साथ में उनके भ्राता आवें।
अमरीका से साली सास, चलकर आवें हिये हुलास।
खूब बने श्री कर्जन लाट, होय निराला उनका ठाठ।
ऐसी हो उनकी पोशाक, सब को लगे उधर ही ताक।13
बालमुकुन्द गुप्त जनतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करना चाहते थे। वे सत्ता पर जनता का नियंत्रण चाहते थे, उनका मानना था कि जनता द्वारा चुने हुए ही सच्चे मायनों में जनता के प्रतिनिधि हो सकते हैं। वे ही उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं। नोमीनेशन से जनतंत्र व सत्ता में भागीदारी के ढोंग करने से जनता कोई भला नहीं होने वाला है। चुनावों का सैयद अहमद खान ने विरोध किया था। बालमुकुन्द गुप्त ने चुनावों की हिमायत की।
जारी न हो इलेक्टिव सिस्टम तब तक यह नहिं होना है,
परन्तु इसके लिये आपका अजब अनोखा रोना है।

एक्ट पास हो गया है ऋन का आफत आने वाली है।
अय! नामीनेशन के लोलुप, इधर तुम्हारा ध्यान भी है,
कब यह नियम चला कब हुआ उपस्थित इसका ज्ञान भी है।
किस किस ने इस बिल को रोका किसने वाद-विवाद किया,
किसने किया विरोध और किस किस ने इसका पक्ष लिया।
आप किया प्रस्ताव समर्थन आप ही उसको पास किया,
हां हुजूर वालों में देकर वोट खरा उपहास किया।
चुने हुए मेंबर होते तो ऐसा कब होने पाता,
इस प्रकार कौंसिल में कब नानी जी का घर बन जाता?14
बाबू बालमुकुन्द गुप्त चाटुकारिता के खिलाफ थे। सर सैयद अहमद खान पर तीखा प्रहार करते हुए लिखा ''अहा! चाटुकारों को खोके चाटुकार तुम बनते हो, अपने हाथ स्वतंत्रता लय को रच के आप ही खनते हो।" अंग्रेजी शासन से पुरस्कार पाने के लिए तत्कालीन शिक्षित मध्यवर्ग लालायित रहता था, लेकिन बालमुकुन्द गुप्त इसके खिलाफ थे।
चाटुकारिता ने बाबा तुम को औंधी बुद्धि सिखाई है,
स्वार्थान्धता पकड़ तुम्हें उलटे रस्ते पर लाई है।
जाति का अपने नामीनेशन से यह लाभ कमाओगे,
सबका एक साथ ही अपने हाथों नाम मिटाओगे।15
आधुनिक समय में कोई शासन सत्ता चाहे अपनी प्रकृति में चाहे वह कितनी भी क्रूर व तानाशाह ही क्यों न हो मध्यकालीन शासकों की तरह जनमत को नजरंदाज करके शासन नहीं कर सकते। अपने शासन का औचित्य ठहराने व जनता में अपनी साख बनाए रखने के लिए जन कल्याणकारी होने का नाटक-पाखण्ड रचती हैं। शासन सता भलिभांति जानती हैं कि इसी नैतिक सता से ही शासन किया जा सकता है। अंग्रेजी शासन भी अपने जनतांत्रिक होने का ढिंढोरा पीटता था, लेकिन वास्तव में प्रकृति से साम्राज्यवादी था और शोषण करना उसका उद्देश्य था। अंग्रेजी शासन भी कानूनों व नियमों पर आधरित नहीं था, बल्कि व नौकरशाहों की मर्जी व इच्छा पर आधारित था। अपनी शोषक नीतियों को जारी रखने के लिए वे हर तरह के हथकण्डे अपनाते थे। बालमुकुन्द गुप्त ने शासन सत्ता की असलियत को उद्घाटित किया।
बड़े लाट के जी में आई, दिखलावै अपनी सच्चाई।
सभा जोड़ तब यह फरमाया, जुग जुग रहे हमारा साया।
हम ही भारत का कल्याण, करके दंगे पद निरवान।
कल जो कुछ कौंसिल में किया, वह तो तुम ने सब सुन लिया।
है कानून जबान हमारी, जो नहीं समझते वही अनारी।
हम जो कहैं वही कानून, तुम तो हो कोरे पतलून।
हम से सच की सुनो कहानी, जिससे मरे झूठ की नानी।
सच है सभ्य देश की चीज, तुमको उसकी कहां तमीज।
औरों को झूठा बतलाना, अपने सच की डींग उड़ाना।
ये ही पक्का सच्चापन है, सच कहना तो कच्चापन है।
बोले और करे कुछ और यही सत्य है करलो गौर।
झूठ को जो सच कर दिखलावैं, सोई सच्चा साधु कहावै।
मुंह जिसका हो सके न बन्द, समझो उसे सच्चिदानन्द।16

आत्मनिर्भरता को देश के विकास के लिए अनिवार्य समझते थे। इसलिए आर्थिक आत्मनिर्भरता पर बार बार जोर देते हैं।
टेसू आये लो आसीस, भारत जीवे कोटि बरीस।
कभी न उसमें पड़े अकाल, सदा वृद्धि से रहे निहाल।
अपना बोया आप ही खावे, अपना कपड़ा आप बनावें।
बढ़े सदा अपना व्यापार, चारों दिस हो मौज बहार।
माल विदेशी दूर भगावें, अपना चरखा आप चलावें।
कभी न भारत हो मुंहताज, सदा रहे टेसु का राज।

भोग विलास सभी दो छोड़, बाबूपन से मुंह लो मोड़।
छोड़ो सभी विदेशी माल, अपने घर का करो ख्याल।
अपनी चीजें आप बचाओ, उनसे अपना अंग सजाओ।17
बालमुकुन्द गुप्त ने हिन्दू देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर कविताओं की रचना की है। उनकी धार्मिक आस्था थी, लेकिन उनकी कविताओं को भक्ति की कविताएं नहीं कहा जा सकता। उनके सामने कोई परलोक की दुनिया नहीं है, जिसको सुधारने के लिए उन्होंने ईश-प्रार्थना की हो। उनकी भक्ति विषयक कविताएं 'राम भरोसा' 'जय रामचन्द्र', 'दुर्गा स्तुति', 'प्रार्थना', 'जय लक्ष्मी', 'लक्ष्मी स्त्रोत' कोई भी कविता हो, उनमें भक्ति काव्य की तरह मोक्ष-प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से आराधना नहीं है। भक्ति काव्य में जो वैयक्तिक 'सुधार' की कामना होती है उससे ये कविताएं मुक्त हैं। इनकी कविताओं में दीन-हीन समाज के सुधार का निवेदन है। यहां भक्त का कारूणिक प्रलाप नहीं है, दास्य बोध नहीं है और न ही ईश्वर व भक्त के सोपानिक संबंध हैं। अपने इष्ट की महिमा का भी यहां अतिश्य वर्णन नहीं है, न विशेष इष्ट की आराधना की ओर भक्तों को पे्ररित करती हैं। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में भक्ति के फल का प्रसाद पाने को महिमामंडित नहीं किया गया। यहां सामाजिक दुर्दशा का विश्वसनीय चित्र खींचते हुए उसे सुधारने पर जोर है।
सिंहासन अरु राजपाट को नाहि उरहनों,
ना हम चाहत अस्त्र-वस्त्र सुन्दर पट गहनों।
पै हाथ जोरि हम आज यह,
रोय रोय विनतीं करैं,
या भूखे पेट पापी पेट कहं,
मात कहो कैसे भरैं?18

बारेक नयन उघारि देखि जननी निज भारत,
साक अन्न बिन चहुं दिसि डौलै हाथ पसारन।
फाटै चिथरन जोरि देह की लाज निवारैं,
जब सोऊ नहिं मिलै विवश ह्वै फिरै उधरे।
सूखे कर पद, फूले उदर,
दीन, हीनबल, मलिन मुख।
अब मात बेगि करुना करो,
मेटहु मेटहु दुसह दुख।19

चाहै चंवर न छत्र राज भूषण गजबाजी,
अन्न दूध भर पेट मिलैं वाही मैं राजी।
मोटो मोटो वस्त्र मिलैं तन ढाकन कारन,
केवल चाहत सीत धूप को कष्ट निवारन।20

धनबल, जनबल, बाहुबल बुद्धि विवेक विचार,
मान तान मरजाद को बैठे जूओ हार।
हमरे जाति न बर्न है नहीं अर्थ नहिं काम,
कहा दुरावै आप से, हमरी जाति गुलाम।
बहु बीते राम प्रभु! खोये अपनो देस,
खोवत है अब बैठि के भाषा भोजन भेस।
नहीं गांव में झूंपड़ो नहिं जंगल में खेत,
घर ही बैठे हम कियो अपनो कन्चन रेत।
पसु समान विडरत रहैं पेट भरन के काज,
याही में दिन जात हैं सुनिये रघुकुल राज।
दो दो मूठी अन्न हित ताकत पर मुख ओर,
घर ही मैं हम पारधी घर ही मैं चोर।21

अब तुमसों बिनती यहै राम गरीब निवाज,
इन दुखिया अंखियान महं बसै आपको राज।
जहं मारी को डर नहीं अरु अकाल को त्रास,
जहां करै सुख सम्पदा बारह मास निवास।
जहं प्रबल को बल नहिं अरु निबलन की हाय,
एक बार सो दृश्य पुनि आंखिन देहु दिखाय।
करहिं दसहरो आपको दु:ख ताप सब भूल,
पुनि भारत सुखमय करौं होहु राम अनुकूल।22
बालमुकुन्द 'हिन्दू मर्यादा, 'हिन्दूपन' की बात करते हैं, लेकिन उनका 'हिन्दूपन' कर्मकाण्डी व पूजा-पाठी नहीं है। उनके लिए हिन्दूपन नैतिकता में है, व्यवहार व आचरण में है। वे मध्यकालीन संतों की तरह धार्मिक शिक्षाओं को महत्व देते हैं, न कि उसके कर्मकाण्डी स्वरूप को। हिन्दूपन के हवाले से नैतिकबोध व सामाजिक दायित्व का अहसास पैदा करते हैं, न कि दूसरे धर्म के लोगों के प्रति घृणा नफरत पैदा करते हैं, उनके हिन्दूपन में अपने धर्म को श्रेष्ठ तथा अन्य को निकृष्ट साबित करने का भाव भी नहीं है।
मेटे वेद पुरान न्याय निष्ठा सब खोई।
हिन्दू कुल-मरजाद आज हम सबहि डुबोई।
पेट भरन हित फिरें हाय कूकर से दर दर।
चाटहिं ताके पैर लपकि मारहिं जो ठोकर।23

सदा रखें दृढ़ हिय महं निज सांचो हिन्दुपन।
घोर विपदहू परैं डिगै नहिं आन ओर मन।24
धर्म के नाम पर हिन्दू व मुसलमान को बांटने व साम्प्रदायिकता पैदा करने के अंग्रेजी साम्राज्यवाद के षडय़न्त्र को समझते थे और इसके खतरों का भी उनको अहसास था। अंग्रेजी शासन ने अदालतों की भाषा बदलकर हिन्दू व मुसलमानों में वैमनस्य पैदा करने की कोशिश की थी, जिसमें वे कुछ हद तक कामयाब भी हुए थे। साम्प्रदायिकता का हमेशा उच्च वर्ग के लोगों के हितों को पोषित करती है, साम्प्रदायिकता का आम जनता के हितों से कोई वास्ता नहीं होता। साम्प्रदायिकता की उत्पति भी उच्च वर्गों के हितों के टकराहट से ही हुई है, इस बात को बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने समझ लिया था। लिपि के सवाल पर लिखा कि ''नागरी प्रचारिणी की थोड़ी-सी सफलता पर भी हमको बड़ा हर्ष है। हम उसके उद्योगी मेम्बरों के दृढ़ता से नागरी आन्दोलन करने की प्रशंसा करते हैं और उनको बधाई देते हैं। परन्तु इस विषय को लेकर जो आन्दोलन खड़ा हुआ है उसकी हड़बंगू में फंसने से उनको रोकते भी हैं। हम देख रहे हैं कि एक तरफ तो देवनागरी प्रचारिणी वाले इससे इतने प्रसन्न हुए हैं कि अपने को आप ही धन्यवाद दे रहे हैं। दूसरी ओर मुसलमानों ने यह समझ लिया है कि उनके साथ मानो बड़ा वज्र अन्याय हुआ है। इस समय उनका कर्तव्य है कि मुसलमानों को शान्त करें। उनको समझाएं कि वह कुछ लुट नहीं गए हैं और न उनका हक छीनकर हिन्दुओं को दे दिया गया है। देवनागरी को केवल अदालत तक आने की आज्ञा मिली है। जब फारसी अक्षरों के जानने वालों से देवनागरी जानने वाले कई गुना अधिक हैं तो क्या उनका कुछ भी लिहाज नहीं होना चाहिए। .... मुसलमानों के जितने अखबार हैं, सब इस विषय को मजहबी रंग में रंगकर इसे उर्दू-हिन्दी की लड़ाई बता रहे हैं। यदि इस विषय को केवल हिन्दू-मुसलमान के मेल में कुछ झमेल पड़े तो अच्छी बात नहीं। नागरी प्रचारिणी सभा वालों को चाहिए कि जब तक यह बखेड़ा शान्त नहीं हो जाये तब तक खूब शान्ति से काम करें। झूठमूठ के आनन्द में उन्मत होने की कोई जरूरत नहीं है। मुसलमानों को यह जानना चाहिए कि जिस भाषा को वह उर्दू कह रहे हैं, वह हिन्दी से अलग नहीं है। उर्दू के आदि कवियों ने उस भाषा को हिन्दवी कह कर पुकारा है"25
बाबू बालुमुकुन्द गुप्त 'देवनागरी' का समर्थन किया, लेकिन वे उर्दू के खिलाफ नहीं थे। वे उर्दू की आलोचना साम्प्रदायिक कारणों से नहीं करते, बल्कि उसकी सीमाओं की ओर संकेत करते हैं। उन्होंने उर्दू के माध्यम से ही शिक्षा ग्रहण की थी और उर्दू पत्रकारिता से ही हिन्दी की ओर आए थे, तथा ऐसे क्षेत्र से ताल्लुक रखते थे, जहां उर्दू का बोलबाला था। वे भाषायी संकीर्णता के कायल नहीं थे, जो अन्तत: साम्प्रदायिक चेतना में तब्दील होती है।
बालमुकुन्द गुप्त ने सर सैयद अहमद खान को भी लताड़ लगाई कि वे चुनाव प्रणाली का विरोध करके साम्प्रदायिक आधार पर नोमीनेशन की वकालत कर रहे हैं। सर सैयद ने साम्प्रदायिक सद्भाव की वकालत की थी, 'सर सैयद अहमद का बुढ़ापा' कविता में उसको भी याद करवाया।
बोलो तो बूड्ढे बाबा क्या उस सनेह का हुआ निचोड़,
भूल गये पंजाब-यात्रा में तुम आंख रहे थे अपनी फोड़।
हिन्दू और मुसलमानों को एक हिसा बतलाते थे,
आंख फोडऩे को अपने झटपट प्रस्तुत हो जाते थे।26
बाबू बालमुकुन्द गुप्त के समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के समक्ष एक तरफ तो साम्राज्यवादी वैचारिक हमले की चुनौती थी, जो भारतीय समाज को पिछड़ा, अवैज्ञानिक तथा कोरे अध्यात्मिक व पारलौकिक जगत के मनीषी साबित करते थे। दूसरी ओर भारतीय मिथकीय-परम्परा को महिमामंडन से बचने की चुनौती थी। ये दोनों ही भारत की दार्शनिक-वैज्ञानिक उपलब्धियों को नकारती थी। बालमुकुन्द गुप्त भारत के बहुलतापूर्ण समाज की बनावट को पहचानते थे। साम्प्रदायिक दृष्टि के आलोचक थे, भारत की साझी संस्कृति को उजागर करने वाली कविताओं की रचना की है। हिन्दू व मुसलमान भारत में सदियों से साथ साथ रहते आए हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जनता की एकता को बनाए रखने के लिए 'हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई भाई' का नारा खूब लगाया जाता था। उसी तरह की एकता की ओर बालमुकुन्द गुप्त ने संकेत किया है।
'अल्ला गाड अरु निराकार में भेद न जानो भाई रे।
इन तीनों को जी में अपने अपने जानो भाई-भाई रे।
तहमद और पतलून एक भये एक कोट मिरजाई रे।
चोटी डाढ़ी क्रोस जनेऊ गड्डम-गड्ड मचाई रे।।27
हिन्दी भाषा के निर्माण में बाबू जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने हिन्दी के उत्थान में विशेष योगदान दिया। वे जनभाषा के पक्षधर थे। वे न तो पण्डिताऊ हिन्दी को चाहते थे और न ही फारसी बहुल उर्दू को। जन भाषा को साहित्य में अपनाने पर जोर दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से भी इस मामले में भिड़ गए। उन्होंने लिखा कि ''भाषा का एक दोष जटिल लिखना भी है। द्विवेदी जी मानो इस समय इसके आचार्य हैं। दास आत्माराम 77 बालमुकुन्द गुप्त जी ने इसी नाम से लिखा था 88 को यही बात समझाते-समझाते कई सप्ताह लग गये। जिस वाक्य में अर्थात् की जरूरत पड़ती है, उसको सरल-स्वच्छ भाषा लिखने वाले कभी पसन्द नहीं करते। पर द्विवेदी जी का काम बिना अर्थात् के चलता ही नहीं है।"28
बालमुकुन्द गुप्त का भाषा के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं था, वे आम बोलचाल की भाषा में साहित्य रचना करते थे। लोगों की भाषा में ही लोगों से संवाद हो सकता है। जनता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही उनकी भाषा की वकालत की। आमजन के व्यवहार की भाषा का यही रूप बाद की जनवादी-प्रगतिशील साहित्य की भाषा बनी। प्रेमचन्द ने इसे ठोस आधार प्रदान किया।
इसी कारण से उनकी कविताओं में विभिन्न भाषाओं के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग होते हैं। उनका ध्यान भाषा की सजावट पर उतना नहीं था, जितना कि संप्रेषण पर। संप्रेषण ही उनकी भाषा की कसौटी थी। इसी से अंग्रेजी के, फारसी, उर्दू व अन्य बोलियों के शब्द भी उनकी कविताओं में हैं। वे स्वयं उर्दू पत्रकारिता से ही हिन्दी में आए थे, उर्दू विरोध की मानसिकता उनकी नहीं थी। वे हिन्दी व उर्दू मूलत: एक ही भाषा मानते थे। अंग्रेजी के शब्दों स भी उनको परहेज नहीं था।
जारी करें सरकुलर लायन,
और एमरसन ठोकें फायन,
हाकिम पुलिस हुए कम्पाइन,
पर यह समय बड़ा है डाइन,
छोड़ चले शाइस्ता-खानी।29
ग्रामीण मुहावरों के प्रयोग ने भाषा को बहुत प्रभावी बना दिया है। हरियाणा क्षेत्रा के कितने ही शब्द उनकी कविता के माध्यम से हिन्दी साहित्य में स्थायी हो गए। 'खेवा', 'पचपच', 'तत्ता', 'कचाई', 'घाऊघप्प', 'उलझेड़ा', 'निटेड़ा', 'तप्पर टाटा', 'रिण के तूदे', , 'चिकने बर्तन पर', 'चोखी', 'ऐनक चपकनदार', 'इलेक्टिव सिस्टम', 'वोट', 'लायल्टी', 'बागड़बिल्लापन', 'नानी जी का घर' 'भारत की रग मैने पाई', 'मार दुहत्थड़ सिर कूटा','पीटो पेट बजाओ बाजा', 'वही ढाक के तीनों पात', 'लाल बुझक्कड़ काले टेसू', 'ऊंट चढ़े को कुत्ता खाय', 'कोई लो तुक्का कोई लो तीर', 'एक रंग सब से पचरंगा, जल गई धेती रह गये नंगा', ऐरा गैरा नत्थू खैरा','हृदय और मस्तक दोनों की फूट गई', 'देखें घर फूक तमाशा', 'तुम तो हो कोरे पतलून'।
बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने जिस भाषा को अपनाया था वही भावी कविता का आधार बनी। कविता जब भी जनता के दुख तकलीफों से दूर हटकर आभिजात्य के गलियारों में भटकी, तो गुप्त जी की भाषा ने उसे उसकी सही जगह बताया। गुप्त जी ने जन जीवन के चित्र अपनी कविताओं में खूब उकेरे हैं। किसान जीवन की वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए उसी की शब्दावली प्रयोग की है, जिससे ये चित्र वास्तविक व विश्वसनीय बन पड़े हैं। वर्षा, वसन्त, मेघ, वसन्तोत्सव आदि प्रकृति संबंधी कविताओं में केवल प्रकृति की छटा का ही वर्णन नहीं है, बल्कि लोक जीवन के चित्र दे जाती हैं। 'वसन्तोत्सव' कविता में ग्रामीण जीवन के चित्र सजीव हो उठे हैं।
आस पास पालों के वट वृक्षों का झूमर,
जिसके नीचे वह गायों भैसों का पोखर,
ग्वाल बाल सब जिनके नीचे खेल मचाते,
बूट चने के लाते होले करते खाते।
पशुगण जिनके तले बैठ के आनन्द मनाते,
पानी पीते पगुराते स्वछन्द विचरते।
पास चने के खेतों में बालक कुछ जाते,
दौड़ दौड़ के सुरुचि साग खाते घर लाते।
आपस में सब करते जाते खिल्ली ठट्ठा ,
वहीं खोलकर खाते मक्खन रोटी मट्ठा
बातें करते कभी बैठ के बांधे पाली,
साथ साथ खेतों की करते रखवाली।30
बालमुकुन्द गुप्त ने लोक शैली में कविता रचना की, टेसू और जोगीड़ा लोकगीतों को विशेषतौर। ''टेसू लोकगीत शैली हरियाणा के हिसार और रोहतक जिलों में, उत्तरप्रदेश के आगरा, मथुरा, मेरठ, मुजफफरनगर, एटा और इटावा आदि जिलों और पूर्वी राजस्थान के भागों में प्रचलित है। वहां छोटे-छोटे बच्चे आश्विन महीने में मिट्टी और लकड़ी के पुतलों को घर-घर लेकर जाते हैं वहां गीत गाते हैं तथा पैसे और गन्ना मांगते हैं। पुतलों को तथा गीतों को टेसू भी कहा जाता है। इसमें हास्य और व्यग्ंय रहता है। शासकों तथा राजनीतिक नेताओं और उनकी करतूतों के बारे में व्यग्ंय और प्रहसन के लिए टेसू का खूब प्रयोग किया। लार्ड कर्जन और गवर्नर फुलर को तो आड़े हाथों लिया ही, दिल्ली दरबार का वैभव, भारतीय सैनिकों का अफ्रीका में दुरुपयोग, भारत की निर्धनता, यहां के अकाल तथा रोग का व्यग्ंयात्मक शैली में चित्रण किया:
बन के सच्चों के सरदार, करके खूब सत्य परचार।
धन्यवाद सुनते थे कर्जन, उतरी एक स्वर्ग से दर्जिन।
उसने लेकर धगा सुई, जादू की खोदी एक कुई।
उससे निकली फौजी बात, चली तबेले में तब लात।
भिड़ गए जंगी मुल्की लाट, चक्की से चक्की का पाट।
गुत्थम गुत्था धींगा मुश्ती, खूब हुई दोनों में कश्ती।
ऊपर किचनर नीचे कर्जन, खड़ी तमाशा देखे दर्जिन। (मल्लयुध्द्ध)

जोगीड़ा लोकगीतों में व्यग्ंय रहता है परन्तु इसमें श्रृंगार-रस प्रधान होता है। गुप्त जी ने जोगीड़ा का प्रयोग धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों, साधुओं और उनके चेलों तथा पाश्चात्य रहन-सहन के समर्थकों की खिल्ली उड़ाने के लिए किया। जैसे बाबा जी वचनम में:
हां सदाशिव गोरख जागे-सदाशिव गोरख जागे
लण्डन जागे पेरिस जागे, अमरीका भी जागे
ऐसा नाद करूं भारत में सोता उठकर भागे।
मन्तर मारूं, जन्तर मारूं, भूत मसान जगाऊं
सब भारत वालों की अक्किल चुटकी मार उड़ाऊं।
अक्कड़ तोडूं, कंकड़ तोड़ूं, तोड़ूं पत्थर रोड़े
सारे बाबू पकड़ बनाऊं बिना पूंछ के घोड़े।
सदाशिव गोरख जागे।"31
बालमुकुन्द गुप्त जी सामाजिक वास्तविकताओं को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए नई नई शैलियों का प्रयोग करते थे। मौजूदा यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए कभी फैंटेसी, कभी पैरोड़ी तो कभी उलटबांसियों का सहारा लेते हैं। इन शैलियों से वे पाठक के सामने मौजूदा यथार्थ की सीमाओं को उजागर भी करते जाते हैं और वैकल्पिक यथार्थ की रचना भी करते जाते हैं। भारतीय समाज में स्त्री की सोचनीय दशा की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए 'जोरूदास' कविता दर्शनीय है।
सैंया हमारे सांचे कन्धैया,
नित राखें कान्धे पै लेवे बलैया।
सारी उठाय पिया साया पहिनावें।
मेमन में हमका नचावें ताथैया।
सास मोरी पीसे ससुर भरे पानी,
हम भैलें कुरसी के नाविल पढ़ैया।
आपै सिखाब सैंया लेक्चर दिवावैं,
जलसनमां हमरी करावैं बडैय़ा।
ग्रामीण बालगीतों की तर्ज पर बालमुकुन्द ने कविताओं की रचना की। जनता से जुडऩा ही उनका मकसद था, इसीलिए उन्होंने लोक प्रचलित मुहावरे को ही अपनी कविता का मुहावरा बनाया।
अमली की जड़ से निकली पतंग, तिसमें निकला शाह मलंग।
शाह मलंग चलावै सौटी, उसमें निकली लम्बी चोटी।
लम्बी चोटी चिन्दक चिन्दू तिसमें निकले पक्के हिन्दू।
पक्के हिन्दू भवन बनाया, तिस पर कब्बा बैठा पाया।
कब्बे ने की काली बीट, तिसमें निकला चूना ईंट।
चूने ईंट से निकला हाल, उसमें निकला आटा दाल।
आटा-दाल से निकली रोटी, कोई पतली कोई मोटी।
रोटी खाई छुटी अंघाई, गंगा किरिया रामदुहाई।
तब बैठे पंचायत जोर, कहत कहानी हो गई भोर।
सेख सलीम ने कही कहानी, चैमासे भर भया न पानी।32
व्यग्य बाबू बालमुकुन्द गुप्त की प्रभावी शैली का अनिवार्य अंग है। अपने निबन्धों में बड़ी निर्भीकता से उन्होंने इसका प्रयोग करते हुए पत्रकारिता के आदर्श की नींव रखी ही, इनकी कविता भी व्यंग्य लिए हुए है। यद्यपि इनका व्यंग्य बहुत महीन नहीं, स्थूल है।
गुप्त जी की कविताओं में जितनी वैचारिक स्पष्टता है, वह उस समय के शायद ही किसी कवि में हो। उनसे पहले राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति के बीच साहित्य झूल रहा था। इसलिए साहित्यकार अंग्रेजी साम्राज्य के शोषक रूप का वर्णन करते थे, तो साथ ही उसकी प्रशंसा भी कर देते थे। भारत के समाज में अंग्रेजी शासन की सकारात्मक भूमिका देखने वालों की संख्या काफी थी, लेकिन बालमुकुन्द गुप्त इस मामले में स्पष्ट थे, वे साम्राज्यवाद को भारत की प्रगति में बाधक मानते थे, उन्हें अंग्रेजी शासन से कोई सकारात्मक अपेक्षा नहीं थी। इसीलिए उनके साहित्य में उनकी प्रशंसा नहीं मिलती। वे साम्राज्यवादी पार्टियों में भी कोई भेद नहीं करते थे। बहुत से लोग समझते थे कि इग्लैंड में शासन परिवर्तन होने से भारत को राहत मिल सकती है, लेकिन गुप्त जी का मानना था कि भारत के लिए 'लिबरल और टोरी' में कोई अन्तर नहीं है।
नहीं कोई लिबरल नङ्क्षह कोई टोरी, जो परनाला सोई मोरी
दोनों का है पंथ अघोरी, होली है भाई होली है।
करते फुलर विदेशी वर्जन, सब गोरे करते हैं गर्जन,
जैसे मिन्टो वैसे कर्जन, हाली है भाई होली है।33
बालमुकुन्द गुप्त ने हिन्दी कविता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और जनता की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए कविता की भूमिका को रेखांकित किया। साहित्य को अपने समाज के संघर्षों से जोडऩे व तत्कालीन संघर्षों को कविता में सीधे तौर पर अभिव्यक्त करना उस समय की जरूरत थी। बालमुकुन्द जी की कविताओं में एक अनगढ़ व खुरदरा यथार्थ है, जो अपने मौलिक रूप में वहां मौजूद है। बालमुकुन्द की कविताओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी कविताओं की भावभूमि व भाषा नए युग के सूत्रपात का आभास हैं। उनकी कविताएं समसामयिक सवालों पर टिप्पणियों व राजनीतिक विचारों को सीधे तौर पर व्यक्त करती हैं। इन नए विषयों के लिए कविता के परम्परागत ढर्रे को तोडऩे की आवश्यकता थी, इसे तोड़कर उन्होंने नए ढंग से कविताएं लिखनी शुरू की। छंद का अनुशासन तोडऩा कविता में क्रांति की तरह का काम था। छंद समसामयिक अभिव्यक्ति में बाधा बनकर खड़ा था। बाद के समय में कविता लेखन का जो ढंग सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक हुआ उसकी नींव बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने रख दी थी। कविता को विलास की चीज समझने की बजाए उसे समाज से जोडऩे का ऐतिहासिक काम किया।

संदर्भ
1 मदन गोपाल; बालमुकुन्द गुप्त; साहित्य अकादमी, दिल्ली;1990; पृ.-7
2 नत्थन सिंह; बालमुकुन्द गुप्त ग्रन्थावली; हरियाणा साहित्य अकादमी,पंचकूला; द्वितीय सं. 2008; पृ.-12
3 मदन गोपाल; बालमुकुन्द गुप्त;पृ.-8
4 नत्थन सिंह; बालमुकुन्द गुप्त ग्रन्थावली; पृ.-26
5 वही, पृ.-309 6 वही, पृ.-
315 7 वही, पृ.-109 8
9 वही, पृ.-174-175 10 वही, पृ.-194-195
11 वही, पृ.-207 12 वही, पृ.-213
13 वही, पृ.-205 14 वही, पृ.197
15 वही, पृ.-192 16 वही, पृ.-205
17 वही, पृ।-207 18 वही, पृ।-170
19 वही, पृ।-172 20 वही, पृ।-173
21 वही, पृ।-179 22 वही, पृ.-176
23 वही, पृ.-163 24 वही, पृ.-167
25 वही, पृ।-4-5 26 वही, पृ.-191
27 वही, पृ.-199 28 वही, पृ.-60
29 वही, पृ.-212 30 वही, पृ.-170
31 मदनगोपाल, पृ.-64 32 नत्थन सिंह, पृ.-203
33 वही, पृ.-200

नवजागरण के अग्रदूत : हाली


नवजागरण के अग्रदूत : हाली
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। 'हाली' उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। 1856 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा। दिल्ली निवास (1854-1856) के दौरान हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात व उनका पूर्ण समन्वितसाथ। हाली ने जब गालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि 'यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शे'र नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे'।
1863 में नवाब मुहमद मुस्तफा खां शेफ्रता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ। 1874 में 'बरखा रुत' शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरूआत थी। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
हाली ने अपनी शायरी के जरिये ताउम्र अपने वतन के लोगों के दुख तकलीफों को व्यक्त करके उनकी सेवा की। वे शिक्षा व ज्ञान को तरक्की की कुंजी मानते थे। उन्होंने अपने लोगों की तरक्की के लिए पानीपत में स्कूल तथा पुस्तकालय का निर्माण करवाया। पानीपत में आज जो स्कूल आर्य सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के नाम से जाना जाता है पहले यह 'हाली मुस्लिम हाई स्कूल' था, जो देश के विभाजन के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को क्लेम में सौंप दिया गया था। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1907 में कराची में 'आल इण्डिया मोहम्डन एजुकेशनल कान्फ्रेंस' में हाली को प्रधान चुना गया। हाली की विद्वता को देखते हुए 1904 ई. में 'शमशुल-उलेमा' की प्रतिष्ठित उपाधि दी गई, यह हजारों में से किसी एक को ही हासिल होती थी। आखिर के वर्षों में हाली की आंख में पानी उतर आया, जिसकी वजह से उनके लेखन-पाठन कार्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 31 दिसम्बर,1914 ई. को हाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। शाह कलन्दर की दरगाह में हाली को दफना दिया गया।
हाली ने कविताओं के अलावा आलोचना की पुस्तक 'मुकद्दमा-ए-शेरो शायरी', कवि सादी की जीवनी 'हयाते सादी', सर सैयद की जीवनी 'हयाते जावेद' तथा गालिब की जीवनी 'यादगारे गालिब' की रचना की। कविताओं में 'मुनाजाते बेवा', 'बरखा रुत', 'हुब्बे वतन', तथा 'मुसद्दस-ए- हाली' बहुत लोकप्रिय हैं।
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
अल्ताफ हुसैन को 'हाली' इसलिए कहा जाता है कि वे अपनी रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे, इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए 'हाली' तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुडऩे की इच्छा को दर्शाता है।
वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?
हाली ने अपने समय की समस्याओं को न केवल पहचाना व अपनी रचनाओं में विश्वसनीयतापूर्ण ढंग से व्यक्त किया, बल्कि उनके माकूल हल की ओर भी संकेत किया। जीवन के छोटे-छोटे से दिखने-लगने वाले पक्षों पर उन्होंने कविताएं लिखी और उनमें व्यावहारिक-नैतिक शिक्षा मौजूद है। मनुष्य के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं इस बात पर विचार करते हुए उन्होंने अपनी बेबाक राय दी है। फिर विषय चाहे साहित्य में छन्दों-अंलकारों के प्रयोग का हो या जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ा हो। 'चण्डूबाजी के अंजाम', 'कर्ज लेकर हज को न जाने की जरूरत', 'बेटियों की निस्बत', 'बड़ों का हुक्म मानो', 'फलसफाए तरक्की', 'हकूके औलाद' आदि बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें हाली की सीख उन्हें अपने पाठक का सलाहकार दोस्त बना देती है।
हाली हिन्दुस्तान के उन शायरों में से हैं जिन्होंने साहित्य में आधुनिक मूल्यों, विचारों को अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया। अभी तक उर्दू कविता में स्त्री को पुरूष की दृष्टि से ही स्थान मिला था। स्त्री कविता में कामुक व विलासी पुरूष के खेलने की वस्तु के तौर पर आती थी। उसकी जुल्फें , उसकी शोख अदायें, पुरूष को घायल कर देने वाली बांकी चितवन, सौतिया-डाह में जलती व पुरूष को लुभाने व अपने इशारों पर नचानेवाली कामिनी स्त्री ही कविता में छाई हुई थी। इन कविताओं को देखकर तो ऐसा लगता है कि समाज में स्त्री का एक यही रूप था। न उसके जीवन में कोई कष्ट था, न उसकी इच्छाएं-आकाक्षांए थी। सत्तावादी पुरूषों के बहलाव का साधन बनी चन्द स्त्रियों की छवि के तले अधिकांश स्त्रियों का जीवन-संघर्ष दब कर रह जाता था। यह कुछ उसी तरह था जिस तरह आज मुख्यधारा का मीडिय़ा स्त्री की छवि पेश करता है। या तो अर्धनग्न वस्त्रों में रेम्प पर चलने वाली अतिआधुनिक स्त्री या फिर अपने अंग-प्रत्यंग को कपड़े में लपेटे परम्परागत छवि वाली औरत। असल में दोनों ही छवियां अधिकांश स्त्री-समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हाली ने रिश्तों में बराबरी की वकालत की। नवजागरण का यह आधारभूत मूल्य था, जिसे स्थापित करने के लिए समाज में एक लहर की जरूरत थी। हाली ने अपनी कविताओं में पितृप्रधान समाज में महिला पर अत्याचारों को मार्मिक ढंग से व्यक्त किया।

जि़न्दा सदा जलतीं रहीं तुम मुर्दा ख़ाविन्दों के साथ
और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता

ब्याहा तुम्हें याँ बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा

मौलाना हाली ने इस बात को पहचाना कि स्त्री को अपनी गुलाम बनाने के लिए पितृसत्तावादी व वर्चस्वी वर्ग ने उसको शक्ति के स्रोत ज्ञान, संपति व बल से दूर कर किया। स्त्री को इनसे वंचित करके ही पुरूष उस पर अपना शासन कायम कर सका है, इसलिए पुरूष ने स्त्री को ज्ञान से दूर रखने के लिए इस बात का आक्रामक प्रचार किया कि वह इसे प्राप्त करने के काबिल ही नहीं है। इस संबंध में हमारी लोक-कहावतों, लोक-विश्वासों व लोक-मान्यताओं में इस तरह उदाहरण भरे पड़े हैं। समाज की सोच की बनावट ही ऐसी बन गई है कि स्त्री को पुरूष के मुकाबले दोयम दर्जे का प्राणी मान लिया जाता है। सबसे बड़ी विड़म्बना यह रही कि स्त्री भी पुरूषों द्वारा बनाई आचार-संहिता को बिना सोचे मानती चली गई और पुरूष के सभी अत्याचारों को सहन करती गई। स्त्री पर हो रहे घोर अत्याचारों को देखकर उसके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं हुई। यह स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक सोच के अन्याय की पराकाष्ठा है कि स्त्री के मामले में पुरूष की संवेदना को सांप सूंघ जाता है। हाली ने लिखा:

दुनिया के दाना और हकीम इस ख़ौफ से लरज़ां थे सब
तुम पर मुवादा इल्म की पड़ जाए परछायीं कहीं
ऐसा न हो मर्द और औरत में रहे बाक़ी न फर्क
तालीम पाकर आदमी बनना तुम्हें ज़ेबा नहीं
याँ तक तुम्हारी हज़्व के गाए गए दुनिया में राग
तुम को भी दुनिय की कुहन का आ गया आखिऱ यकीं
इल्मो हुनर से रफता रफता हो गयीं मायूस तुम
समझा लिया दिल को के हम खुद इल्म के क़ाबिल नहीं

हाली ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया कि स्त्री के शोषण व अत्याचार के बारे में सब पुरूषों में सर्वसम्मति है, फिर चाहे वह बाप हो, बेटा हो, भाई हो या फिर पति हो। पुरूष चाहे अन्यथा कितने ही अच्छे हों, लेकिन स्त्री के मामले में उनकी 'अच्छाई' गायब हो जाती है। हाली ने इस बात को जोर देकर कहा कि जो बर्बर और हिंसक हैं उनकी तो बात ही क्या करनी लेकिन जिन्हें नेक दिल कहा जाता है वे भी स्त्रियों के बारे में नेक नहीं रहे। असल में समाज में पितृसत्ता की सोच इतने गहरे में पैठ गई है कि स्त्री को समाज की हर उपलब्धि से वंचित किया गया। पितृसत्तात्मक सोच की बर्बरता ही है कि जो दुनिया में पुरूष के लिए जरूरी व उसका आभूषण माना गया उसे स्त्री के लिए पाप मानकर मनाही की गई। स्त्री के प्रति यह पक्षपात लगातार होता रहा है और आज भी जारी है।
जो संग दिल फफ़ाक प्यासे थे तुम्हारे खून के
उन की हैं बे रहमियाँ मशहूर आलम में मगर
तुम ने तो चैन अपने खरीदारों से भी पाया न कुछ
शौहर हूँ उस में या पिदर, या हूँ बिरादर या पिसर
जब तक जिओ तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
आई हो जैसी बे ख़बर वैसी ही जाओ बे ख़बर
जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
हाली के समय में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न पर समाज की विभिन्न शक्तियों में संघर्ष था। प्रगतिशील विचारों के लोग स्त्री-मुक्ति के पक्ष में थे तो प्रतिक्रियावादी शक्तियां विरोध में थी। प्रतिक्रियावादी शक्तियां अपनी पुरजोर कोशिश में थी कि परम्परा से चले आ रहे स्त्री-विरोधी विचार समाज में अपनी जगह बनाए रहें, लेकिन प्रगतिशील शक्तियां भी मानवीय विवेक के साथ इनसे जूझ रही थी। हाली ने बड़े आशाजनक ढंग से इसे व्यक्त किया कि इसमें जीत तो स्त्री के पक्ष की होनी है क्योंकि यही सच्चाई है। उन्होंने कहा कि विश्व इतिहास इस बात का गवाह है कि समाज में जीत अन्तत: प्रगतिशील शक्तियों की होती रही है। स्त्री की मुक्ति समाज के विकास के लिए बहुत जरूरी है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं कि जिस समाज ने स्त्री को शिक्षा दी और सामाजिक बन्धनों से आजाद किया है उस समाज ने बहुत तेजी से तरक्की की है।

नौबत तुम्हारी हक़ रसी की बाद मुद्दत आई है
इंसाफ ने धुंदली सी एक अपनी झलक दिखलाई है
ऐ बे ज़बानों की ज़बानों, बे बसों के बाज़ुओं
तालीमे निस्वाँ की मुहिम जो तुम को अब पेश आयी है
ये मरहला आया है तुम से पहले जिन क़ोमों को पेश
मंजिल पे गाड़ी उनकी इसतक़बाल ने पहुँचाई है
ये जीत भी क्या कम है खुद हक़ है तुम्हारी पुश्त पर
जो हक़ पे मुंह आया है आखिऱ उसने मुँह की खाई है
हाली ने अपनी रचनाओं में समाज के विकास में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हुए उसके श्रम के वास्तविक मूल्य को पहचाना। स्त्री बच्चों का पालन-पोषण करके उसे इंसान कहलाने लायक बनाती है। हाली ने स्त्री के श्रम को गरिमा प्रदान करते हुए कहा कि यह स्त्री का हुनर ही है कि वह मांस के लोथड़े को इतना ताकतवर बना देती है कि वह संसार के समस्त संकटों का सामना करने के लिए तैयार रहता है। मां की गोद सीढ़ी की तरह है जिसके माध्यम से व्यक्ति इतनी बुलन्दी तक पहुंच सके हैं। जहां यह बात सच है कि संसार में जितने भी महान लोग हुए हैं उनके महान बनने में स्त्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है वहीं यह बात भी सच है कि समाज में जिस भी स्त्री ने आगे बढऩे की बात सोची है उसे पहले अपने परिवार व रिश्तेदारों से ही संघर्ष करना पड़ा है। यह बातचीत का आम मुहावरा है कि 'हर फल पुरूष के पीछे किसी स्त्री का त्याग होता है', लेकिन यह बात बिल्कुल सही नहीं है कि हर फल स्त्री के पीछे किसी पुरूष का त्याग होता है।

लेतीं ख़बर औलाद की माएँ न गर छुटपन में याँ
खाली कभी का नस्ल से आदम की हो जाता जहाँ
ये गोश्त का एक लोथड़ा परवान चढ़ता किस तरह
छाती से लिपटाए न हर दम रखती गर बच्चे को माँ
क्या सुफिय़ाने बा सफ़ा, क्या आरिफ़ाने वा खुदा
क्या औलिया क्या अम्बिया, क्या ग़ौस क्या क़ुतबे ज़माँ
सरकार से मालिक की जितने पाक बन्दे हैं बढ़े
वो माँओं की गोदों के जीने से हैं सब ऊपर चढ़े

हाली ने स्त्री को बोझ मानने वाले पितृसत्तात्मक समाज के विचार को मानने से इन्कार किया तथा स्त्री के महत्त्व को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि यह संसार सुन्दर है तो स्त्री के कारण है। स्त्री के कारण ही दुनिया में ईमान बचा हुआ है। यदि संसार में कहीं सत्यता बची है तो वह स्त्रियों में है। स्त्री बीमार की आशा है, बेकार का हौंसला है। हाली ने स्त्री को जीवन का पर्याय कहा है जो हर स्थिति में पुरूष की सहयोगी है न कि उस पर बोझ। इस विचार को स्थापित करने के लिए हाली ने विभिन्न तुलनाएं करके जीवन में उसकी भूमिका को रेखांकित किया है।

ऐ माओं, बहनों, बेटियो, दुनिया की ज़ीनत तुमसे है
मुल्कों की बस्ती हो तुम्ही, क़ौमों की इज्ज़त तुमसे है
तुम हो तो ग़ुरबत है वतन, तुम बिन है वीराना चमन
हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
मोनिस हो ख़ाविन्दों की तुम, ग़म ख्वार फऱजन्दों की तुम
तुम बिन है घर वीरान सब, घर भर की बरकत तुम से है
तुम आस हो बीमार की, ढारस हो तुम बेकार की
दौलत हो तुम नादार की, उसरत में इशरत तुम से है

रोजगार के लिए हाली को अपने वतन से दूर रहना पड़ा। उस समय उन्हें वतन से बिछुडऩे का अहसास हुआ और प्रवासी जीवन के अपने दर्द को रचनाओं का विषय बनाया। हाली की इस पीड़ा में उन हजारों-लाखों की पीड़ा भी शामिल हो गई, जो किसी कारण से अपना वतन छोड़कर दूर रहते हैं। 'हुब्बे वतन' में हाली ने व्यक्त किया।

तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले,
लूं न हरगिज अगर बहिश्त मिले

जान जब तक न हो वतन से जुदा,
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा

हाली के लिए देश-प्रेम कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है। उनके देश-प्रेम की परिभाषा इतनी व्यापक है कि उसमें अपने वतन के पेड़ पौधे, पशु-पक्षी, व वनस्पति सब कुछ के प्रति प्रेम शामिल है। देश-प्रेम केवल देश की सीमाओं की रक्षा करने तक सीमित नहीं होता। देश-सेवा को उसकी सीमा की रक्षा तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। हाली के लिए देश-प्रेम व देश-सेवा का अर्थ देश की जनता के जीवन में आ रही कठिनाइयों को दूर करने से था। हाली ने उसे देश प्रेमी कहा है जो अपनी पूरी कौम के दुख को देखकर दुखी हो, उसे दूर करने में अपनी ऊर्जा लगाए, देश के लोगों की खुशी में खुश हो और उनका दुख देखकर दुखी हो। देश के लोगों पर आए संकट को टालने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहने वाला तथा जनता के काम में अपने को पूरी तरह झोंक देने वाला ही सच्चा वतन प्रेमी है। हाली मात्र कल्पना में छलांग लगाने वाले शायर नहीं थे, और न ही वे कोई ऐसा यूटोपिया रच रहे थे जो संभव न हो।

क़ौम पर कोई ज़द न देख सके,
क़ौम का हाले बद न देख सके
क़ौम से जान तक अज़ीज़ न हो,
क़ौम से बढ़ के कोई चीज़ न हो
समझे उन की खुशी ओ राहते ज़ाँ,
वाँ जो नौरोज़ हो तो ईद यहाँ
रंज को उनके समझे मायाएग़म,
वाँ अगर सोग़ हो तो याँ मातम
भूल जाए सब अपनी क़द्रे ज़लील,
देख कर भाईयों को ख्वारो ज़लील
जब पड़े उन पे गरदिशे अफ़लाक,
अपनी आसाइशों पे डाल दे ख़ाक

भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, फारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मो को मानने वाले व विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोग रहते है। धर्मों के लोग रहते हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की विशेषता है, भारत की एकता व अखंड़ता के लिए धर्मनिरपेक्षता निहायत जरूरी है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। हाली ने चेतावनी दी कि यदि अपने राष्ट्र का भला चाहते हो तो इसमें रहने वाले सभी लोगों को अपना समझना जरूरी है। यदि जाति, धर्म, भाषा, नस्ल या इलाके के आधार पर लोगों में भेदभाव किया जाता है तो देश में असंतोष पनपने की संभावना है, जो देश के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीे है। सबको मीठी नजर से देखने पर ही शान्त व न्यायपूर्ण देश बन सकता है। हाली के देश प्रेम में संकीर्णता लेश मात्र भी नहीं थी। वे धर्म के आधार पर अपने देश के नागरिकों में किसी प्रकार के भेदभाव के हिमायती नहीं थे।
तुम अगर चाहते हो मुलक की ख़ैर
न किसी हम वतन को समझो गैऱ
हो मुसलमान उसमें या हिन्दू
बौद्ध मज़हब हो या के हो ब्रहमू
जापफ़री होवे या के हो हनाफ़ी
जैन मत होवे या के हो वैष्नवी
सब को मीठी निगाह से देखो
समझो आँखों की पुतलियाँ सबको

हाली समस्या या किसी विचार को मात्र वर्तमान में नहीं देखते थे, बल्कि वे इस पर ऐतिहासिक संदर्भों में विचार करते थे। हाली समाज में बराबरी कायम करना चाहते थे। वे समाज में मौजूद ऊंच-नीच को पहचान रहे थे। वे समानता को मानव समाज की आदिम प्रवृति या विशेषता मानते थे और विषमता को शक्तिशाली मनुष्यों का कमजोरों पर शोषण। हाली आदिम साम्यवादी युग में समानता को व्यक्त करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बाद में शक्तिशालियों ने कमजोरों को अपना गुलाम बनाया और उन्हें अपनी सेवा का पाठ पढ़ाया। एक बेहतरीन कवि की यही पहचान होती है कि जिन विचारों से वह अपना जुड़ाव महसूस करता है उनको उभारने के लिए जहां से भी संदर्भ मिलता है उसे अपनी रचना का हिस्सा बना लेता है। ऐसे समाज में जिसमें अक्सर यह बात दोहराई जाती हो कि समाज में समानता न तो कभी रही है और न कभी स्थापित हो सकती है। वहां मानव समाज के इतिहास में किसी समय पर समानता कायम थी इसके उदाहरण पेश करना हाली की समानता के प्रति प्रतिबद्धता को ही दर्शाती है। जो समाज में असमानता को बनाए रखना चाहता है वह वर्तमान में मौजूद व्यवस्था को ही अन्तिम मान कर चलता है। और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बदलाव को झुठलाता है। बदलाव को झुठलाने के लिए वह इतिहास और भविष्य दोनों को ही नकारता है। हाली ने समानता के समाज का चित्र खींचा और बताया कि समान समाज में कोई मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं था। सब एक समान थे और आपस में कोई झगड़ा भी नहीं था। असल में असमानता की उत्पति कोई प्रकृति की देन नहीं है,बल्कि यह समाज की एक विशेष अवस्था में पैदा हुई है। इसकी ओर हाली ने संकेत किया है कि समाज में जब कमजोर और शक्तिशाली की श्रेणियां बनीं तो असमानता का बीज समाज में बोया गया। जाहिर है किसी बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए उसके कारणों को दूर किया जाता है। यानी कि समाज से श्रेणियों को समाप्त करके ही समानता की स्थापना की जा सकती है।

एक ज़माना था के हम वज्न थे सब ख़र्दों कलाँ
लहलहाती थी बनी नो की खेती यकसाँ
एक उसलूब पे थी ग़र्दिशे परकारे जमाँ
शहरो वीरानाओ आबाद में था एक समाँ

एक से एक न कम था न ज़्यादा सरे यू
सब थे हम एक तराई के दर$खते खुदरौ
दस्ते कुदरत के सिवा सर पे कोई हाथ न था
एक किबला था कोई किबलए हाज़ात न था

ना गहां जोरो तग़ल्लुब का एक उठा तूफाँ
जिसके ख़दमें से हुई ज़ेरो ज़गर नज्में जहाँ
अकबिया हाथ जईफो पे लग करने खाँ
बकरियों को न रही भेडिय़ों से जाए अमाँ

हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वेे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरूष हुए हैं वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आम तौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।

हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
उन से कह दो, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की खि़दमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का

हाली समाज में आ रही गिरावटों से चिंतित थे। वे मजहब के नाम पर होने वाली गिरावट से सबसे ज्यादा परेशान थे। असल में मजहब का लोगों की चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव था। लेकिन उसमें लगातार गिरावट आ रही थी। दुनिया में जो धर्म पैदा हुए हैं वे अपने समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़े हुए हैं। उन्होंने अपने समय के पिछड़ेपन के विरूद्ध आवाज उठाई। लेकिन ये उनके लिए चिंता की बात थी कि जो धर्म इतनी क्रांतिकारिता के साथ दुनिया में आए थे वे उन्हीं चीजों को शरण देने लगे हैं जिनके कि वे खिलाफ खड़े हुए थे। अपने समय में धर्म नामक संस्था में आई गिरावट को 'अर्जे हाल' कविता में बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया है। इस्लाम जब दुनिया में आया तो वह प्रगतिशील धर्म था। शांति, भाईचारे व प्रेम का संदेश देने वाला था। इस विचार के कारण ही वह दुनिया के हर हिस्से में बहुत जल्द पहुंच गया था। उसमें एक से एक चिंतक हुए। लेकिन अब वह स्वयं इन समस्याओं से ग्रस्त हो गया है। 'अर्जे हाल' कविता में हाली ने लिखा

जो दीन बड़ी शान से निकला था वतन से
परदेश में वो आज गरीबुल गुरबा है
जो तपफ़रीके अक़वाम के आया था मिटाने
उस दीन में ख़ुद तफ़रिका अब आके पड़ा है
जिस दीन ने थे ग़ेरों के दिल आके मिलाए
उस दीन में खुद भाई से अब भाई जुदा है

छोटों मे इताअत है, न शफ़कत है बड़ों में
प्यारों में मुहब्बत है, न यारों में वफ़ा है
याँ निकले हैं सौदे को दिरम ले के पुराने
और सिक्का रवां शहर में मुद्दत में नया है

हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृति से गुजर रहा था। अंग्रेजों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे वे मानते थे कि अंग्रेजों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेजों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृति को पहचाना। 'देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो' कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह देकर पूरे समाज को निराशा से बाहर निकलने में मदद की।

पेशा सीखें कोई फऩ सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलगऱज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें

हाली के न्यायपूर्ण समाज की परिकल्पना आम जनता की भावनाओं को कुचलती तत्कालीन शोषणकारी-व्यवस्था से निकली है। हाली अपने समाज के तंत्र को बड़ी गहराई से देख रहे थे कि व्यवस्था पूरी तरह उच्च वर्गों के लोगों के हाथों में है और वे पूरी तरह से आम जनता का शोषण करते हैं। न्याय के संस्थान कहे जाने वाली जगहों पर भ्रष्टाचार व रिश्वत का पूरा बोल बाला है। इंसाफ और फरियादी के बीच में दलाल व्यवस्था पनप रही है जो इंसाफ की बोली अदालतों से बाहर ही लगा देते हैं। हाली ने अंग्रेजों की न्याय-व्यवस्था की पोल खोली है जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी व न्यायप्रियता का ढोल पीटते नहीं थकते थे। असल में अंग्रेजों की रहनुमाई में एक ऐसा भ्रष्ट तंत्र भारत में विकसित हुआ, जिसने उसी उच्च वर्ग के हितों की रक्षा की जो देश की लूट में उसका सहयोगी था। हाली आरम्भ में ही इसकी ओर संकेत कर गए थे, लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह भ्रष्टता का तंत्र लगातार फलता-फूलता रहा और अभी भी जारी है।
अहलकारों का कचहरी में जो देखो ब्योहार
समझे दीवाने अदालत को के है एक बाज़ार

पेट पकड़े हुए वाँ फिरते हैं हाज़त वाले
रवा मुँह खोले हुए बैठे हैं अदालत वाले
नहीं हाकि़म की मुरव्वत से उन्हें ख़ौफे मआल
''बोल क्या लाया है"? इज़हार का पहला है सवाल
हर तरफ बीच में दलाल हैं कुछ छूट रहे
दोनों हाथों से गरज़ मन्दों को लूट रहे
हाली ने 1857 का संग्राम अपनी आंखों से देखा। दिल्ली और उसके आस पास का इलाका इस संग्राम का केन्द्र था और हाली का इस क्षेत्र से गहरा ताल्लुक था। 1857 के संग्राम की शुरूआत सिपाहियों ने की थीं, परन्तु असल में यह किसान-विद्रोह था। अंग्रेजों ने इसे कुचलने के लिए नागरिकों पर कहर ढ़ाया। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों लोग उजड़े। अंग्रेजों की वहशत से पूरी दिल्ली आंतकित थी। हाली ने 'मरसिया जनाब हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में 'देहलवी' के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करते हुए इस स्थिति को व्यक्त करता एक पद लिखा।

वो जमाना जब के था दिल्ली में एक महशर बपा
नफ़सी-नफ़सी का था जब चारों तरफ़ ग़ुल पड़ रहा
अपने-अपने हाल में छोटा बड़ा था मुबतला
बाप से फऱजन्द और भाई से भाई था जुदा
मौजे-ज़न था जब के दरचाए इताबे ज़ुलजलाल
बागिय़ों के ज़ुल्म का दुनिया पै नाजि़ ाल था वबाल

अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह से खाली करवा लिया था। सारी आबादी शहर से बाहर खदेड़ दी थी। डेढ़-दो साल के बाद ही लोगों को शहर में आने की अनुमति दी। हाली ने 'मरहूम-ए-दिल्ली' में दिल्ली पर अंग्रेजी कहर का वर्णन किया है।

तज़किरा देहली-ए-मरहूम का अय दोस्त न छेड़
न सुना जायेगा हम से यह फसाना हर्गिज़
मिट गये तेरे मिटाने के निशां भी अब तो
अय फलक इससे ज्यादा न मिटानां हर्गिज़

हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही मौसम की मार पड़ती है, उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।

होंगें मजदूर और कमेरे उनके अब कायम मुक़ाम
फिरते हैं बेकार जिनके को दको पीरो जवाँ

वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। 'नंगे खिदमत' कविता में हाली ने लिखा।

नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गैऱ के हाथों में हर एक बात अपनी

हाथ अपने दिले आजाद से हम धो बैठे
एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे

इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने

देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है। हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। 'मरसिया हकीम महमूद खां मरहम 'देहलवी' में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा कि:

सुनते हैं 'हाली' सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुखऩवर के लिए चारों तरपफ़ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इशक की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह गज़़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफि़ल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेडऩे पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा

हाली उस समय की कथित मुख्यधारा से अलग हटकर साहित्य की रचना इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास नए विचार व प्रगतिशील दृष्टि थी, वे समाज मे हो रहे परिवर्तन को देख रहे थे। जनता में हो रहे बदलाव की इच्छा को वाणी दे पा रहे थे। जनता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही वे साहित्य के नए सौंदर्य-शास्त्र की रचना कर सके। उन्होंने तत्कालीन चाटुकार साहित्य-संस्कृति की अवास्तविकता को छोड़कर समाज की सच्चाइयों से विषयों को चुना।

शायरों के हैं सब अन्दाज़े-सुखऩ देखे हुए
दर्दमन्दों का टुकड़ा और बयां सबसे अलग
माल है नायाब पर गाहक हैं अक्सर बेख़बर
शहर में खोली है 'हाली' ने दुकां सबसे अलग

हाली ने तत्कालीन साहित्य की प्रमुख धारा की आलोचना की। हाली ने सचेत तौर पर पुरानी परम्परा से पीछा छुड़ाया। हाली ने लिखा कि ''शायरी की बदौलत चन्द रोज झूठा आशिक बनना पड़ा, एक ख्याली माशूक की चाह में बरसों दशते-जूनू की वह खाक उड़ाई, कैस व फरहाद को गर्द कर दिया। कभी नालय नीमशबी से रबेमसकन को हिला डाला, कभी चश्मे-दरियावार से तमाम आलम को डुबो दिया। आहोफुंगा के जोर से कर्रोवया के कान बहरे हो गये। शिकायतों की बौछार से जमाना चीख उठा। तानों की मार से आसमान छलनी हो गया। जब रश्क का तलातुम हुआ तो सारी खुदाई को रकीब समझा। यहां तक आप अपने से बदनुमा न हो गये। बारहा तेगेअब्रू से शहीद हुए और बारहा एक ठोकर से जी उठे। गोया जिन्दगी एक पैहरन था कि जब चाहा उतार दिया और जब चाहा पहन लिया। मैदाने कयामत में अक्सर गुजर हुआ। बहिश्त व दोजख की अक्सर सैर की। बादानोशी पर तो खुम-के-खुम लुढ़का दिये और फिर भी सैर न हुए।
कुफ्र से मानूस और ईमान से बेजार रहे, खुदा से शोखियां की, बीस बरस की उम्र से चालीस बरस तक तेली के बैल की तरह इसी चक्कर में फिरते रहे और अपने नजदीक सारा जहां तय कर चुके। जब आंख खुली मालूम हुआ, कि जहां से चले थे, अब तक वहीं हैं।
निगाह उठाकर देखा तो दांए-बांए, आगे-पीछे एक मैदाने-वसीअ नजर आया, जिनमें बेशुमार राहें चारों तरफ खुली हुई थी और ख्याल के लिए कहीं रास्ता तंग न था। जी में आया कि कदम बढ़ायें और उस मैदान की सैर करें। मगर जो कदम बीस बरस से एक चाल से दूसरी चाल न चले हों और जिनकी दौड़ गज-दो-गज जमीन में महदूद रही हो, उनसे इस वसीअ-मैदान में काम लेना आसान नहीं था। इसके सिवा बीस बरस बेकार और निकम्मी गर्दिश में हाथ-पांव चूर हो गए थे और ताकते-रफ़तार जवाब दे चुकी थी, लेकिन पांव में चक्कर था, इसलिए बैठना दुश्वार था। जमाने का नया ठाठ देखकर पुरानी शायरी से दिल सैर हो गया था और झूठे ढकोसले बांधने से शर्म आने लगी थी। न यारों के उभारों से दिल बढ़ता थ न साथियों के रोष से कुछ जोश आता था।" जनता के जीवन से जुडऩे की इस बेचैनी ने ही हाली के लिए नए नए विषयों के द्वार खोल दिए। साहित्य की एक ऐसी परम्परा की शुरूआत कर गए कि बाद में रचनाकारों को इस पर कदम रखने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई, यह नींव इतनी पुख्ता थी कि जनता से दूर रहकर साहित्य लिखने वाले शर्मिन्दा होने लगे। जिनकी जनता से कोई हमदर्दी भी नहीं थी, वे भी अपने को जनता का सच्चा हमदर्द बताने व सिद्ध करने में जमीन आसमान एक कर देते थे। हाली इस बात को पहचान रहे थे कि बुरी कविता का न केवल समाज की रूचियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि भाषा व साहित्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वे कविता को समाज के हित के लिए उसके विकास में बाधक चीजों को दूर करने के लिए प्रयोग करना चाहते थे।
हाली ने जन-भाषा में रचनाएं की तो उनकी बहुत आलोचना हुई। गौर करने की बात है कि यह साहित्य में पहली बार नहीं हो रहा था। कभी तुलसीदास को तत्कालीन पोंगा-पंडि़तों ने ब्राह्मण-जाति से इसलिए बहिष्कृत कर दिया था कि उन्होंने कथित 'देववाणी' को छोड़कर राम की कथा को लोक बोली में लिखा था। भाषा ही वह जरिया है, जिस पर अधिकार करके वर्चस्वी वर्ग अपना प्रभुत्व कायम करते हैं। कथित गूढ़ व शिष्ट भाषा के तत्कालीन साहित्यकारों ने हाली पर व्यंग्य कसे। वे साहित्य को उच्च वर्ग के मनोरंजन का ही साधन बनाए रखना चाहते थे। साहित्य में आम लोगों की भाषा उनके इस वर्चस्व को एक झटके में तार तार करने जा रही थी। हाली ने इन आरोपों की परवाह न करते हुए लगातार इसका प्रयोग किया। उन्होंने लिखा:

क्या पूछते हो क्योंकर सब नुक्ताचीं हुए चुप
सब कुछ कहा उन्होंने पर हमने दम न मारा

मौलाना हाली की कविता 'मुनाजाते बेवा' की भाषा से प्रभावित होकर ही महात्मा गांधी ने कहा था कि ''अगर हिन्दुस्तानी जुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज्म 'मुनाजाते बेवा' का है।" हाली की रचनाओं में खेती से जुड़े शब्द इस तरह दाखिल हो जाते हैं मानो कि ये शब्द उनकी कविता के लिए ही बने हों। कविता के लिए यह शब्दावली बिल्कुल नई थी। कविता में जीवन की विभिन्न स्थितियों को व्यक्त करने के लिए हाली ने खेती से जुड़ी शब्दावली का सटीक प्रयोग किया है। आम तौर पर खेती में बहुत ही स्थूल किस्म की शब्दावली का प्रयोग होता है लेकिन हाली ने उनका संदर्भ में इस तरह से प्रयोग किया है कि जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव भी व्यक्त करने में सक्षम हैं
हाली ने रूढ़ व बंधी-बंधाई उपमाओं का प्रयोग न करके उन उपमाओं का प्रयोग जो अभी तक कविता के लिए अछूती थी। परम्परागत तौर पर प्रयोग हो रहे बिम्बों का प्रयोग करने की बजाए हाली ने अभिव्यक्ति का खतरा उठाया और कविता के लिए नयी जमीन तोड़ी। किसान जीवन से कविता के लिए औजार लिए। यहीं से बिम्ब लिए, यहीं से उपमाएं लीं। यद्यपि किसान जीवन से जुड़े शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं को कविता में प्रयोग करने की कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं रही। हाली के पास एकदम नए औजार थे, जिनके स्पर्श से कविता भी खिल उठी। यह बात भी सही है कि यदि हाली पुराने औजारों व सामग्री से ही कविता रचना करते तो वे उस बात को उतने प्रभावशाली ढंग से कहने में फल नहीं हो पाते, जिसके लिए उनको अब याद किया जाता है। उन्होंने कविता की भाषा का नए शब्दों से व नए जीवन से परिचय करवाया। उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा से यह साबित किया कि आम बोल चाल की भाषा में समस्त भावों को बड़े कलात्मक व मार्मिक ढंग से व्यक्त करने की क्षमता है। हाली ने कविता की भाषा और आम जन की भाषा का अन्तर ही मिटा दिया। गर्मी की भयावहता का प्रयोग करने के लिए हाली ने 'बरखा-रुत' कविता में एक से बढ़कर एक ढंग अपनाया है। एक उदाहरण देखने लायक है जिससे उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है।

आरे थे बदन पै लू के चलते
शौले थे जमीन से निकलते

हाली ने इस बात को झूठला दिया कि आम बोलचाल की भाषा में सूक्ष्म-भावों व मनोवैज्ञानिक बातों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। उन्होंने स्थापित किया कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार भी यह अनगढ़ भाषा व्यक्त करने में सक्षम है। जिस तरह संत कबीर ने भाषा को अपने ढंग से प्रयोग किया, उसी तरह हाली ने भी भाषा की सीमा को अपनी सीमा नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी अभिव्यक्ति में आड़े आ रही भाषा को पलट कर प्रयोग किया।

गड़रिए का वो हुक्म बरदार कुत्ता,
कि भेड़ों की हरदम है रखवाली करता।
जो रेवड़ में होता है पत्ते का खड़का,
तो वो शेर की तरह फिरता है बिफरा।

भाषा का यह प्रयोग एकदम नया तो है ही एकदम विशिष्ट भी है। किसी समाज की वस्तुस्थिति व उसकी मिथ्या अकड़ को व्यक्त करने के लिए इससे अच्छा प्रयोग क्या हो सकता है। असल में जो है तो कुत्ता लेकिन वह इस तरह बिफरा है मानो कि शेर हो। अब कुत्ते में शेर की तरह की अकड़, उसका बिफरना यानी उसकी घंमडी चाल, उसको अपनी शक्ति का मिथ्या आभास होना सच्चाई के तमाम सूक्ष्म पहलुओं को व्यक्त करने में सक्षम है। यह समाज में सत्ता व शक्ति का जो पद-सोपान है उसको भी उजागर करता है। इतनी गहरी व गूढ सच्चाई को इतनी सरलता से व्यक्त कर देना उसी कवि के बस की बात है जो कि जन जीवन की गहरी समझ रखता हो।
भाषा सिर्फ अपनी बात कहने-समझने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह किसी वर्ग की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी है। भाषा के वर्चस्व ही वर्गों के वर्चस्व को वैधता देने लगते हैं। इसीलिए आम लोगों की भाषा में अभिव्यक्ति करने के कारण हाली पर 'प्रचारवादी' होने के आरोप लगाकर बदनाम करने की कोशिश की गई। उन्हें को इस बात का कोई मलाल नहीं था। वे इन आघातों को सहन करते हुए जन पक्ष का निर्माण करते जा रहे थे।

सच यह है के जब शेर हों सरकार के ऐसे
क्यों आप लगे मानने हाली के सुखऩ को
हाली को तो बदनाम किया उसके वतन ने
पर आपने बदनाम किया अपने वतन को

हाली की कविताओं की भाषा पर सपाटता का आरोप लगाया जाता है। यह आरोप न तो नया है और न ही अप्रत्याशित यह आरोप उन सभी साहित्यकारों पर लगातार लगता रहा है जिन्होंनें अपनी कविताओं में जनता की समस्याओं को व्यक्त किया और जन-सामान्य की भाषा अपनाई। यह आरोप असल में भाषा मात्र का आरोप नहीं है, बल्कि पूरे साहित्य दृष्टि पर ही प्रश्न-चिह्न लगाने के लिए भली-भांति सोचा गया विचार है। यह विचार साहित्य को मात्र एक वर्ग-विशेष तक सीमित करने का ही हामी है। मनोरंजन तक ही साहित्य की भूमिका सीमित करने का पक्षधर है। यह साहित्य को समाज की बौद्धिक जरूरत के लिए आवश्यक नहीं समझता और न ही साहित्य की कोई सामाजिक उपयोगिता ही समझता है।
हाली कविता को मात्र विद्वानों व कथित 'सहृदयों' के वाग्विलास की चीज नहीं मानते थे, कविता उनके लिए आम जनता की बेहतरी का साधन थी। हाली को जनता में जितनी ख्याति मिली है उसके पीछे भाषा भी एक कारण है। हाली ने समाज के विभिन्न पक्षों पर लोगों को शिक्षित करने के लिए कविताएं लिखी हैं, वे उन तक इस भाषा के कारण ही पहुंच सकी हैं। हाली की कविताओं में कहीं विधवा की पीड़ा है तो कहीं एक ऐसे बाप की, जिसका बेटा बिगड़ गया है। इनकी कविताओं से लोग अपनी पीड़ा को इसीलिए महसूस कर सके कि ये उसी जुबान में थी जिसमें जनता अपनी पीड़ा का अहसास करती थी। पीडि़त जनता हाली की कविताओं से रिश्ता बनाती थी इसके बारे में उर्दू की प्रसिद्ध शायरा पदम श्री बेगम मुम्ताज मिर्जा ने लिखा है कि ''मुझे याद है कि अब से तीस-चालीस बरस पहले हमारी पुरानी औरतें हाली की इस नज्म (मुनाजाते बेवा) को पढ़ पढ़कर राहत महसूस करती थी। बुजुर्गों से सुना है कि इस नज़्म ने हजारों औरतों को रूलाया भी है"। हाली की कविताओं की भाषा व आम लोगों की भाषा की एकता ही है जिसके माध्यम से वे अपने दर्द को इन कविताओं में व्यक्त दर्द के साथ मिलाकर राहत महसूस करते थे।
मुहावरे और कहावतें भाषा का श्रृंगार मात्र नहीं हैं, बल्कि ये सामूहिक चेतना को समझने व प्रभावी ढंग से उसे व्यक्त करने के लिए अनिवार्य हैं। इनके प्रयोग से भाषा न केवल रोचक बनती है, बल्कि सम्प्रेषणीय भी बनती है। मुहावरे और कहावतें समाज की जिस सामूहिक चेतना से बनते हैं, इनमें वह सामूहिक चेतना विद्यमान रहती है। जिस रचनाकार का समाज से जितना गहरा जुड़ाव व सामूहिक चेतना की जितनी गहरी समझ है, अपनी रचनात्मक भाषा में वह इनका उतना ही प्रभावी प्रयोग कर सकता है। सामूहिक चेतना हाली की चेतना का महत्त्वपूर्ण अंग है। उनकी सोच पर सामूहिक विवेक का गहरा प्रभाव है, लेकिन यह बात गौर करने की है कि सामूहिक चेतना के पिछड़ेपन को पहचानते हुए उन्होंने इसे अपनी चेतना का हिस्सा नहीं बनने दिया। असल में तो हाली की कविता रचना का कारण ही सामूहिक चेतना में जमे पिछड़ेपन को दूर करना था। हाली की सामाजिक जीवन पर गहरी पकड़ थी, इसलिए उनकी कविताओं की भाषा में लोक के मुहावरे वे कहावतें सहज ढंग से आ जाती हैं। इसके लिए उनको कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। ये मुहावरे और कहावतें कविता को उसके पाठकों से जीवन्त सम्पर्क बनाने में कारगर भूमिका निभाते हैं। 'रहगीर की लकड़ी', 'परबत को राई', 'लेने को यां पड़ गए देने, 'ओसों प्यास बुझाऊं क्योंकर', 'नाक रहे कुन्बे की सलामत', 'दाई से पेट छुपाना', 'नाखुन गोश्त से छुड़ाना'। ये मुहावरे प्रस्तुत भाव-स्थिति के साथ मिलकर उसकी अभिव्यक्ति को सर्वग्राह्य बना देते हैं।
हाली के दौर से पहले रीतिकाल की कविता का व उसके सौन्दर्य-शास्त्र का बोलबाला था। अत्यधिक अंलकारों के प्रयोग से कविता दब कर रह गई थी। हाली अत्यधिक अंलकारों को कविता के लिए हानिकर समझते थे। ''शब्दालंकारों से हमारी कविता, अपितु हमारे समस्त साहित्य को अत्यधिक हानि पहुंची है, ... हमारे साहित्य में शब्दांलकारों के प्रति इतनी रुचि बढ़ी कि अंत में केवल शब्दों का मोह रह गया और अर्थ की ओर कोई ध्यान न रहा।" (मुकद्मा-ए-शे'रो-शायरी, पृ. 130 )
हाली की कविता-भाषा का विशेष गुण है - उसके संवाद। संवादों ने हाली की भाषा को नाटकीय रूप दिया है। पाठक से अपना जीवन्त संवाद कायम करने में इस टेकनीक ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई है। संवादों से कविता में एक चुस्ती आ गई है। कविता के ये संवाद न तो कविता को कहीं सुस्त या मंद होने देते है हैं और न ही पाठक को। संवादों की इस श्रृखंला के कारण ही हाली अपनी कविता को लक्षित मंतव्य तक पहुंचा सके हैं। हाली की कविता में जो रवानी आई है वह भी उसकी चुस्त संवाद प्रणाली के कारण है। दो पक्षों के बीच में संवाद होते जाते हैं और विषय परत दर परत खुलता जाता है। हाली की कविताओं में आम तौर पर दो पात्रों या पक्षों की किसी न किसी रूप में उपस्थिति रहती है। हाली किसी न किसी को अपनी कविता में इस सम्बोधन के लिए निर्मित कर लेते हैं। यदि यह कहा जाए कि इनकी कविताएं किसी मुद्दे पर आम जनता को सम्बोधित हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कमाल की बात यह है कि इस प्रयास में कविता कहीं पीछे नहीं छूट गई है, बल्कि निखर कर उसकी धार तीखी व नुकीली हो गई है। हाली की कविताओं के संवाद एक बहस को जन्म देते हैं, संवाद के दो पक्ष ही कविता को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। हाली ने विषय के जितने बारीक पहलुओं का वर्णन किया है वह भी इस संवाद पद्धति की वजह से ही संभव हो सका है। इस पद्धति में किसी पक्ष के किसी पहलू के छूटने की गुंजाइश कम हो जाती है। हाली ने जितने मुनाजरे (शास्त्रार्थ) लिखे हैं, वे सब इसी वजह से रोचक बने हैं। चाहे ''हकूके औलाद', 'बाप की नसीहत' व 'बेटे का जबाव" में बाप और बेटे के संवाद हों। चाहे 'दौलत और वक्त का मुनाजरा' हो, चाहे 'फूट और ऐके का मुनाजरा हो', चाहे 'मुनजरए रहमो इन्साफ' हो या फिर 'मुनाजरए वाइजो शायर' हो इन सबमें अपने अपने पक्ष में जो तर्क दिए उन्होंनें संवादों का रूप धारण कर लिया। हाली ने एक वकील की तरह से हरेक पक्ष की कमजोरियों और खूबियों को उद्घाटित किया है। इसमें वे जरा भी नहीं चूके। संवाद में जब वे एक पक्ष की ओर से तर्क देते हैं, उस पक्ष की स्थिति स्पष्ट करते हैं तो वे बिल्कुल निष्पक्ष होकर देते हैं, पूरी ईमानदारी से उसके सबसे विश्वसनीय व मजबूत तर्क को रखते हैं, लेकिन वे इस बहस में तटस्थ नहीं रहते अपना झुकाव व विचार भी इस बारे में स्पष्ट करते हैं। हाली की भाषा कवि का माधुर्य, दार्शनिक की गम्भीरता व तर्क, समाज परिवर्तन के लिए सक्रिय कार्यकत्र्ता का जोश और शिक्षक की विनम्रता लिए है। हाली की कविताओं में कबीर की सी समाज सुधार के लिए तीखी कसमसाहट के दर्शन होते हैं।
हाली ने साहित्यकारों को झूठ और अतिश्योक्ति से बचने की सलाह दी। उनका मानना था कि इससे कविता का ही हृास होता है। ''समय की मांग यही है कि झूठ, अतिश्योक्ति, दोषारोपण, डींग, चापलूसी, व्यर्थ की बातों, अनुचित आत्मश्लाघा, निराधार आरोप, अनुचित शिकायतों और इसी प्रकार की दूसरी बातों से, जो सत्य और वास्तविकता की विरोधी हैं और जो हमारे काव्य का अभिन्न अंग बन गई हैं, यथासंभव बचा जाए। यह सच है कि हमारे काव्य में अब्बासिया खलीफों के युग से लेकर आज तक झूठ और अतिश्योक्ति को बराबर प्रोत्साहन मिलता रहा है और कवि के लिए झूठ बोलना उचित ही नहीं समझा गया, वरन् उसे उसके काव्य का अलंकार माना गया है, परन्तु इसमें भी संदेह नहीं कि जब से हमारे काव्य में झूठ और अतिश्योक्ति का प्रवेश हुआ उसी समय से उसकी अवनति आरम्भ हो गई।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी,पृ. 70 ) 'बुरी कविता से साहित्य और भाषा को क्या आघात पहुंचता है?"इस बारे में हाली ने लिखा कि ''सबसे बड़ी क्षति जो कविता के बिगड़ जाने से अथवा उसके संकीर्ण हो जाने से देश को पहुंचती है, वह उसके साहित्य और भाषा का विनाश करती है। जब झूठ और अतिश्योक्ति का कवि-समाज में प्रचलन हो जाता है तो उसका प्रभाव लेखकों की रचनाओं, वक्ताओं के भाषणों और देश के विशिष्ट वर्ग की नित्य की बोलचाल तक पहुंचता है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का मुख्य और महत्त्वपूर्ण भाग वे ही शब्द और मुहावरे और उक्तियां समझी जाती है। जो कवियों के प्रयोग में आ जाती हैं। अतएव जो व्यक्ति देश-भाषा में लेख, भाषण अथवा बोलचाल में नाम पाना चाहता है उसे कवियों की भाषा का अवश्य अनुसरण करना पड़ता है और इस प्रकार अतिश्योक्ति साहित्य और भाषा के अंग-अंग में समा जाती है। कवियों की फक्कड़बाजी से भाषा में अनेक अशिष्टतापूर्ण और अश्लील शब्द समाविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि कोश में वे ही शब्द प्रामाणिक और टकसाली समझे जाते हैं, जिनका औचित्य और प्रामाणिकता कवियों की वाणी से सिद्ध हो। अत: जो व्यक्ति देशी भाषा का कोश लिखने बैठता है उसे सबसे पहले कवियों के काव्य-संग्रह टटोलने पड़ते हैं। फिर जब कविता कुछ विषयों में पहले सीमित हो जाती है और उसका आधार केवल प्रचलित शैली का अनुकरण रह जाता है तब भाषा, बजाय इसके कि उसका क्षेत्र विस्तृत हो, अपना पहले का विस्तार भी खो बैठती है।" (मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी, पृ. 23 )
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया। जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी, समाज इनको सिर्फ इसलिए ढ़ोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की 'मुनाजाते बेवा' कविता जिस तरह लोकप्रिय हुई उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था, परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीडि़त-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया है वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थी, समाज सुधारक भी, दुख दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
हाली ने कविताओं के माध्यम से और साहित्यिक सिद्धांतों के माध्यम से साहित्य का नया सौन्दर्य-शास्त्र रचने की कोशिश की। साहित्य को आम जनता से जोडऩे के लिए संघर्ष किया और आने वाले साहित्यकारों के लिए जमीन तैयार की जो बाद में साहित्य की मुख्यधारा के तौर पर विकसित हुई। हाली की रचनाएं आज के समाज के लिए व साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम करती हैं। हाली ने साहित्य में जन-पक्षधरता की जिस परम्परा की शुरूआत की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।
मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली' की कविताएं आज के संदर्भ में निहायत प्रासंगिक हैं। आज जिस दौर से भारतीय समाज गुजर रहा है, उसमें हाली की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। हाली ने आम जनता की जिन समस्याओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया था वे अभी समाज से समाप्त नहीं हुई हैं, बल्कि कई मामलों में तो वे और भी गम्भीर रूप धारण कर रही हैं। हाली ने किसान जीवन को, पितृसत्तात्मक विचारधारा, जनता के भाईचारे को, बराबरी के न्यायपूर्ण समाज की स्थापना को मुख्य तौर पर अपनी कविताओं का विषय बनाया।
आज साम्राज्यवाद जिस तरह से अपना शिकंजा कस रहा है, उसने पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया है। किसानों का जीवन दूभर हो गया है। वे कर्ज के बोझ से इस कदर दब गए हैं कि आत्महत्या के अलावा उनको अपने जीवन का कोई हल नजर नहीं आता। रोजगार के लिए दर दर भटकने व हर दफ़तर में रोजगार पाने वाले चित्रों का जो वर्णन किया है वह स्थिति अभी दूर नहीं हुई है।
पितृसत्ता की विचारधारा समाज में अभी अपनी जगह बनाए हुए है, जो समाज व परिवार में समानता व जनतंत्र स्थापित होने में बाधा बनकर खड़ी है। जब समाज की आधी आबादी समान अधिकार और विकास के समान अवसरों से वंचित रहेगी, तब समाज में न्याय व शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती।
सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नहीं है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र व भाषायी संकीर्णताओं को देश के लिए घातक मानते हुए इनको दूर करने के लिए वातावरण निर्मित किया था। जनता की एकता व भाईचारे को तार तार करने वाली शक्तियां समाज में खुला खेल खेल रही हैं। धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव समाज में जारी है। साम्प्रदायिकता ने एक दार्शनिक आधार गढ़ लिया है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं।
हाली ने धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वास को समाज के पिछड़ेपन का जिम्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से दूर करने की आवाज उठाई थी, लेकिन आज ये शक्तियां खूब फल फूल रही हैं। धर्म के नाम पर जनता में संकीर्णता, अंधिवश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता को लाद रही हैं। बाहरी आडम्बरों व कर्मकाण्डों को ही धर्म के रूप में स्थापित करती है। धर्म को उसकी नैतिक व मानवीय शिक्षाओं से अलग करके नमाज पढना, दाढ़ी-चोटी रखना, जनेऊ-तिलक धरण करना या अन्य धार्मिक पहचान के चिन्हों को ही धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर रही हैं। धर्म को व्यक्ति के आचरण से न पहचानकर मात्र रामनामी चादर ओढने या गेरूए रंग के पटके डालने और लम्बा तिलक लगाने जैसे बाहरी कर्मकाण्डों से पहचान रही हैं। इन बाहरी आडम्बरों की आड़ में अपराधिक कार्यों में लिप्त कथित बाबा, संन्यासी-आतंकी धर्म की शरण ले रहे हैं। हाली का मानना था कि धर्म कुछ मूल्यों-आदर्शों का समुच्चय है, जिन्हें व्यक्ति को आचरण में उतारना है।