अमीर खुसरो

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो का जन्म उतरप्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक गांव में हुआ था। इनका मूल नाम अबुल हसन था, लेकिन ये अमीर खुसरो के नाम से प्रसिद्घ हुए। अमीर खुसरो के पिता सैफउद्दीन महमूद तुर्क सरदार थे और बलख से हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंनेेेेेे हिन्दुस्तानी वंश के अमीर अमादुल मलिक के यहां शादी की। अमीर खुसरो अभी बच्चे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई और खुसरो के नाना अमादुल मलिक ने खुसरो का पालन-पोषण किया। चूंकि अमादुल मलिक का संबंध तत्कालीन राज दरबार से था, इसलिए खुसरो भी दरबार से जुड़ गए। हजरत निजामुदीन औलिया अमीर खुसरो के गुरु थे।

अमीर खुसरो ने हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएं की। उन्हें भिन्न-भिन्न इलाकों की संस्कृति को देखने के अवसर मिले, जो उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है। हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मुलाकात ने अमीर खुसरो को उदार दृष्टि प्रदान की। वे अपने जन्म-स्थान को छोड़़कर दिल्ली आए थे। दिल्ली से उनको समाना जाना पड़ा, वे बंगाल गए और जब बंगाल से दिल्ली वापस आए तो तत्कालीन शासक बलबन का पुत्र व उत्तराधिकारी खान शहीद उन्हें अपने साथ मुलतान ले गया। मुल्तान से बुरी हालत में दिल्ली आए तो खान जहान के साथ उन्हें अवध जाना पड़ा। वह एक बार देवगिरि यानी दौलताबाद भी गए।1
अमीर खुसरो समन्वयवादी संस्कृति के अग्रदूत थे। अमीर खुसरो ने संस्कृतियों के आदान-प्रदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके हृदय में भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा थी। ''अमीर खुसरो को अपने हिन्दुस्तानी होने पर गर्व था। मसनवी 'नुह सिपहर' में हिन्दुस्तान का संकेत करते हुए कहते हैं:

हस्त मरा मौलिद-ओ-मावा-ओ वतन
यही मेरा जन्म स्थान और यही मेरी मातृभूमि है

वह हिन्दुस्तान के सच्चे प्रेमी और पक्के देशभक्त थे। अपने काव्य में जहां-जहां वह हिन्दुस्तान की प्रशंसा करते हैं, उनकी आत्मा झूम उठती है और जैसे उनके मुंह से फूल झडऩे लगते हैं। मसनवी 'नुह सिपहर' का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण तीसरा परिच्छेद पूरा हिन्दुस्तान की स्तुति में है। इसमें चार-पांच सौ शेर हैं जिनमें हिन्दुस्तान के निवासियों की बुद्घिमत्ता, उनके धार्मिक विश्वास, विद्वता, भाषाओं, रस्म-रिवाजों, पक्षियों, मौसमों, फलों, फूलों आदि सभी बातों के बारे में जितने प्रभावकारी ढंग और भावुकता के साथ शेर कहे हैं उसकी मिसाल शायद ही किसी दूसरे शाइर के यहां मिल सके।"2

खुसरो ने लिखा कि ''सम्भव है कि कोई मुझसे पूछे कि भारत के प्रति मैं इतनी श्रद्घा क्यों रखता हूं। मेरा उत्तर यह है कि केवल इसलिए कि भारत मेरी जन्म भूमि है, भारत मेरा अपना देश है। खुद नबी ने कहा है कि अपने देश का प्रेम आदमी के धर्म प्रेम में सम्मिलित होता है।"

खुसरो ने भारत को स्वर्ग माना और लिखा कि आदम और हौवा जब स्वर्ग से निकाले गए थे, तब वे इसी देश में उतरे थे"3 
उन्होंनेेेेेे भारत की तुलना स्वर्ग के उद्यान से की है और संसार के देशों में भारत को श्रेष्ठ सिद्घ किया है
किश्वरे हिन्द अस्त बहिश्ती बजमी।4 
भारत संसार में स्वर्ग है
उनका मानना था कि एकता और आत्मीयता को स्थापित करने का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण साधन भाषा है, इसलिए खुसरो ने भारत के लोगों की भाषा में रचनाएं कीं। अमीर खुसरो को जन साधारण की भाषा से अत्यधिक लगाव था। इस भाषा को उन्होंनेेेेेे 'हिन्दवी' कहा जो बाद में हिन्दी भाषा के रूप में विकसित हुई। वे जन साधारण की भाषा में विचार व्यक्त करने में अधिक प्रसन्न होते थे और कहते थे कि हिन्दवी में अपने विचार अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। उन्हें अपने हिन्दी के ज्ञान पर गर्व था। वे कहते थे कि
चू मन तूति-ए-हिन्दम अर रास्त पुरसीं ।
जेे मन हिन्दवी पुर्स, ते नग्ज गुयम।
''मैं हिन्दुस्तान का तोता हूं। मुझसे मीठा बोलना चाहो तो मुझसे हिन्दवी में पूछो जिससे मैं भलिभांति बात कर सकूं।"
इसी ग्रन्थ में उन्होंनेेेेे कहा कि ''मैं एक भारतीय तुर्क हूं और आपको हिन्दी में उत्तर दे सकता हूं मेरे अंदर मिस्री शक्कर नहीं है कि मैं अरबी में बात करूं-
तुर्क हिन्दुस्तानम मन हिंदवी गोयम जबाव,
शक्करे मिस्री नदारम कज अरब गोयम सुखन।5

अमीर खुसरो ने अपने बेटे को नसीहत देते हुए कहा कि ''मैं हिंद को ही अपना मुल्क मानता हूं और यहां के आम लोगों की जुबान को ही अपनी जुबान।

''अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना है और सदा के लिए यहीं बसना है तो सबसे पहले हमें यहां के लोगों के दिलों में बसना होगा। और दिलों में बसने के लिए सबसे पहली जरूरत है इनकी जबान में इनसे बातें करना; इनके दिल की बात को शायरी में बांधना। तभी बंध पायेंगे हम इनसे। तुर्कों को हिंदवी जुबान सिखाने के खयाल से ही मैने 'खालिकबारी' नाम की किताब लिखी है।
''यों भी हिंदवी जुबान किसी तरह से भी अरबी-फारसी के मुकाबले हल्की या कमजोर नहीं।"6

''1318 के आसपास लिखे गए अपने प्रसिद्घ फारसी महाकाव्य 'नूर सिपहर' नौ आकाश में खुसरो ने अपने भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की शिनाख्त की और उन सबको हिन्दी से जोड़कर दिखाया:
सिंदी-ओ-लाहोरी-ओ कश्मीर-ओ गर,
धर समंदरी तिलगी ओ गुजर।
माबरी-ओ गोरी-ओ बंगाल-ओ अवध,
दिल्ली-ओ पैरामकश अंदरहमाहद,
ईं हमा हिंदवीस्त जि़ अयाम-ए-कुहन,
आम्मा बकारस्त बहर गूना सुखन।
सिंधी, पंजाबी, कश्मीरी, मराठी, कन्नड़, तेलगु, गुजराती, तमिल, असमिया, बंगला, अवधी, दिल्ली और उसके आसपास जहां तक उसकी सीमा है, इन सबको प्राचीन काल से हिंदवी नाम से जाना जाता है। बहरहाल अब मैं अपनी बात शुरु करता हूं।
खुसरो के इस छंद को भारत के पहले अनौपचारिक भाषा सर्वेक्षण का दर्जा दिया जा सकता है। उन्होंनेेेेेे ग्रियर्सन से कई सदी पहले यह काम किया था। अपने इस सर्वेक्षण में खुसरो ने संस्कृत का भी जिक्र किया, लेकिन उसे हिंदवी के दायरे से अलग रखा
लेक ज़बानीस्त दिगर कस सुखना
आनस्त गुजीं निज्द हमां बरहमना
सेंसकिरत नाम जि़ अहद-ए कुहनश
आम्मां नदारद खबर अज़ कुन मकुनश।

इसके अलावा कुछ और भाषाएं भी हैं, जिनमें ब्राह्मणों की भाषा की एक खास ही जगह है, इसे प्राचीन काल से संस्कृत नाम से जाना जाता रहा है और आम लोग इसकी बारीकियों से वाकिफ नहीं हैं।
खुसरो ने हिंदवी की फारसी और तुर्की से भी तुलना की:
इस्बात गुत हिंद बहुज्जत कि राजेहस्त
बर पारसी-ओ तुर्कि अज़ अल्फाज़ खुशगवार
फारसी और तुर्की की तुलना में हिंदवी अपने मधुर शब्दों के कारण अधिक लोकप्रिय है।7

खुसरो ने जन साधारण की भाषा को महत्त्व दिया, अपनी 'खालिकबारी' रचना में अरबी, फारसी और हिन्दी भाषा की त्रिवेणी को प्रवाहित किया। 'खालिकबारी' एक तरह का कोश है। 'खालिकबारी' में विभिन्न भाषाओं के शब्दों की संख्या इस प्रकार है : अरबी के 237, तुर्की के 2, फारसी के 482, तथा हिन्दी के 575। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हिन्दी भाषा को कितना चाहते थे।

अमीर खुसरो ने 'हालात-ए-कन्हैया' और 'नजरान-ए- हिन्दी' नामक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है,जिनके नाम से ही स्पष्ट है कि ये हिन्दुओं में विष्णु के अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण और भारत माता से संबंधित हैं।
अमीर खुसरो ने अपने पुत्र ग्यास को तीन नसीहतें दीं। इन तीनों नसीहतों को देखकर कहा जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमान के एक दूसरे के करीब आ रहे थे। अमीर खुसरो की ये नसीहतें ध्यान देने योग्य हैं। 
''ग्यास बेटे, मैने तो हिन्द की खाक को अपनी आंखों का सुरमा बना लिया है, इसलिए तुम्हें सबसे पहली नसीहत यही देना चाहता हूं कि तू भी हिन्द को ही अपना सब कुछ समझना।".... ''दूसरी नसीहत यह कि क्योंकि तू भी शायरी करने लगा है, इसलिए मैं चाहूंगा कि हिन्दवी में ही शायरी करना ।"....''तीसरी नसीहत यह कि अपनी शायरी का कोई भी हिस्सा शाहों की खुशामद में बरबाद मत करना, जैसे कि मैने किया। मैं चाहता हूं कि तू हिन्द के आम लोगों में घुल मिलकर उनकी रूहों की आवाज सुन और फिर उस आवाज को अपनी शायरी की रूह बना ले।"8
अमीर खुसरो ने सूफियों की तरह इश्क को महत्त्वपूर्ण माना। उन्होंनें कहा कि में इश्क का काफिर हूं। मुझे मुसलमानी की जरूरत नहीं है। काफिर को भी यज्ञोपवीत जैसे दिखावटी धागे की जरूरत पड़ती है, परन्तु मुझे वह भी नहीं चाहिए;क्योंकि मेरी तो नस-नस प्रेम रस पीकर पवित्र तार अर्थात् यज्ञोपवीत के धागे बन चुकी है। संसार कहता हे कि खुसरो मूर्ति पूजक हो गया है। हां हो गया हंूू। किसी को इससे क्या लेना देना।
काफिरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नेस्त,
हर रगे-मन तार गष्त: हाजते-जुन्नार नेस्त।
खल्क भी गोयद कि खुसरो बुतपरस्ती मीकुनद,
आरे-आरे मी कुनम व खल्क-ओ-आलम कारनेस्त।9

अमीर खुसरो ने भाषा व साहित्य के माध्यम से संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने की कोशिश की, संगीत में भी उन्होंनेेेेेे समन्वय स्थापित किया। भारतीय और ईरानी संगीत को मिलाकर संगीत को बुलन्दी तक पहुंचाने में अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। ईरानी बारह स्वरों के आधार पर राग वर्गीकरण की पद्घति अमीर खुसरो से ही शुरू हुई। भारतीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बन चुके 'ख्याल' और 'तराना' अमीर खुसरो की देन है। खुसरो ने बरवा राग में लय की रीति आरंभ की। सितार वादन, कव्वाली आदि का आविष्कार किया। हकीम मुहम्मदइकराम खान अवध के प्रख्यात संगीतकार थे। अपनी पुस्तक 'मदुनूल मासीकी' में लिखा--
''अमीर खुसरो की फारसी और हिन्दी के रागों पर इतनी गहरी पकड़ थी कि उसे युग का नायक कहा जा सकता है। उसने पखावज की जगह ढोलक का आविष्कार किया;और बीन की जगह सितार का। धुरू, रहवा, मत्था, छिंद, परसंद, ध्रुपद सामान्य तौर पर प्रयोग होते हैं। उसने छ: नए तरीके खोजे: कूल ,कलवना, नक्श, गुल, तराना, और ख्याल। अमीर खुसरो ने संगीत की विधाएं खोजीं। सावनी, फरोदस्त, पश्तो, कव्वाली आदि।

दो संस्कृतियों के संगम से विद्या, भाषा और संगीत कला की जो उन्नति हुई उसमें अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। इनका जीवन और रचनाएं साम्प्रदायिक सद्भाव व सांस्कृतिक समन्वय की मिसाल है। उनके लेखन के विषयों से स्पष्ट है कि उस समय लोग एक दूसरे के धर्मों का आदर करते थे। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आपस में लड़तेे झगड़ते नहीं, बल्कि एक दूसरे की संस्कृति को जानने के उत्सुक थे और एक दूसरे से अच्छी बातें सीखने को इच्छुक थे।

संदर्भ:
1-नया पथ; अप्रैल-जून, 2008; सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चैहान; शरीफ हुसैन कासमी के लेख 'अमीर खुसरो देहलवी: हमारी तहजीब का नुमाइंदा शाइर' से; पृ.-155
2-गोपीचंद नारंग; अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य; वाणी प्रकाशन, दिल्ली; 2002; पृ-24
3-रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.-334
4-राजेन्द्र पाण्डेय; भारत का सांस्कृतिक इतिहास; पृ.-233
5- वही; पृ.- 237
6-सुदर्शन चोपड़ा; अमीर खुसरो; साहित्य संगम, दिल्ली;1989; पृ.-29
7-नया पथ; अप्रैल-जून, 2008; सं.मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान; सलिल मिश्र का लेख 'हिन्दी और उर्दू: साझा अतीत, खंडित वर्तमान' से; पृ-77
8-सुदर्शन चोपड़ा; अमीर खुसरो; साहित्य संगम,दिल्ली; 1989; पृ-28
9-वही; पृ.-22