मलिक मुहम्मद जायसी प्रसिद्ध सूफी कवि हैं, जिन्होंने पदमावत महाकाव्य की रचना की। जायसी ने लोक में प्रचलित कथाओं के आधार पर लोक भाषा अवधी में काव्य रचना की। इनकी रचनाएं इतनी प्रसिद्घ थीं कि लोग इनको गाते थे।
जायसी के बारे में बहुत विश्वसनीय जानकारियों का अभाव है। इनकी रचनाओं से कुछ सूचनाएं अवश्य प्राप्त होती हैं। उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले के जायस कस्बे में निवास के कारण जायसी कहलाए। जायस से अपने संबंध को 'पदमावत में 'जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्द बखानू।' कहकर उजागर किया है तो 'आखिरी कलाम' रचना में 'जायस नगर मोर अस्थानू। नगर क नांव आदि उदयानू।' कहा है।
जायसी की जन्म तिथि के बारे में कई तहरह की अटकलें लगाई जाती हें। ''तिथियों के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहना कठिन है पर अन्त:साक्ष्य को कुछ बाह्य साक्ष्य से मिलाने पर भी जायसी का जन्म 870 हिजरी 1464ई. और मृत्यु 949 हिजरी 1542ई. में मान सकते हैं।"1
''जायसी कुरूप और काने थे। कुछ लोगों के अनुसार वे जन्म से ही ऐसे थे पर अधिकतर लोगों का कहना है कि शीतल या अधरंग रोग से उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने का उल्लेख, कवि ने आप ही इस प्रकार किया है
'एक नयन कवि मुहमद गुनी'।
उनकी दाहिनी आंख फूटी थी या बांई, इसका उत्तर शायद इस दोहे से मिले
मुहमद बाईं दिसि तजा, एक सखन एक आंखि।
इससे अनुमान होता है कि बांए कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था। जायस में प्रसिद्घ है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गए। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देख हंस पड़ा। उन्होंने अत्यन्त शांत भाव से पूछा 'मोहि हससि, कि कोहरहि?' अर्थात तू मुझ पर हंसा या उस कुम्हार गढऩे वाले ईश्वर पर? इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा मांगी। कुछ लोग कहते हैं कि वे शेरशाह के दरबार में नहीं गए थे, शेरशाह ही उनका नाम सुनकर उनके पास आया था"2
''कहते हैं कि जायसी के पुत्र थे, पर वे मकान के नीचे दबकर या किसी और दुर्घटना से मर गए। तब से जायसी संसार से और भी अधिक विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घर-बार छोड़कर इधर-उधर फकीर होकर घूमने लगे। वे अपने समय के एक सिद्ध फकीर माने जाते थे और चारों ओर उनका बड़ा मान था। अमेठी के राजा रामसिंह उन पर श्रद्धा रखते थे। जीवन के अंतिम दिनों में अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। ... जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान कोट से लगभग पौन मील के लगभग है। यह वर्तमान कोट जायसी के मरने के बहुत पीछे बना है। अमेठी के राजाओं का पुराना कोट जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था।"3
जायसी ने 'कान्हावत' नामक ग्रन्थ की रचना की । यह कृष्ण के बारे है, इसका ऐतिहासिक महत्त्व यह है कि यह अवधी भाषा का पहला काव्य है। इसमें जायसी ने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। उन्होंने कृष्ण को प्रेम, काम और योग का पूंजीभूत बताया है। 'कान्हावत' की कथा का मूलाधार श्रीमदभागवत है।
महाकवि जायसी सांस्कृतिक समन्वय और एकता के पक्षधर थे, इन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने मे बड़ी भूमिका निभाई। हिन्दू-मुस्लिम जीवन के अनेक संदर्भों में जायसी दोनों संस्कृतियों के अमर सेतु हैं। उन्हें अल्लाह और ईश्वर में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। उनका मानना है कि जो भिन्नता दिखाई देती है वह केवल बाहरी है:-
परगट मेरा गोपाल गोबिन्दु । कपट गियान न तुरूक न हिन्दू।
अपने रंग सो रूप मुरारी । कतहूं राजा कतहु भिखारी ।
कतहुं सो पण्डित कतहुं मूरुख । कतहूं इस्तरी कतहुं पुरुष।
महाकवि जायसी ने इस्लाम के एकेश्वरवादी चिन्तन और वेदान्ती अद्वैतवादी दर्शन में सुन्दर समन्वय किया है:--
जो ब्रह्म सो है पिंड, सब जग रहा समाई ।
जायसी भागवत ग्रन्थ के ज्ञाता थे और उन्हें हिन्दू धर्म का अगाध ज्ञान था। वे इस्लाम और हिन्दू धर्म की मानवतावादी मान्यताओं में समन्वय स्थापित कर रहे थे। धर्म के कर्मकाण्डों और बाहरी आडम्बरों का विरोध कर रहे थे।
का भया परगट कया पखारें।
का भया भगति भूँह सिर मारें।
का भया जटा भभूत चढाएँ।
का भया गेरू कापरि लाएँ।
का भया भेस दिगंबर छाँटे।
का भया आपु उलटि गए काँटे।।
जो भेखहि तजि मौन तू गहा।
ना बग रहै बलू भगत बेचहा?
पानिहि रहइँ मंछि और दादूर।
नाँगे नितहिं रहइँ फुनि गादुर।।
पसु पंछी नाँगे सब खरे।
भसम कुम्हार रहइँ नित भरे।।
बर पीपर सिर जटा न थोरे।
अइस भेस की पावसि भोरे।।
जब लगि विरह न होइ तन, हिये न उपजत पेम।
तब लगि हाथ न आव तप, करम धरम सत नेम।।4
जायसी ने 'पदमावत' में हिन्दुओं के संस्कारों को स्थान दिया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लोक में प्रचलित संस्कारों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। जन्म के समय होने वाले रीति रिवाज, आनंद बधाइयों का जायसी ने विस्तार से उल्लेख किया है। पदमावती के जन्म के बाद छठी के आयोजन का वर्णन किया है:-
''बाजइ अनन्द उछाह बधाए। केतिक गुनी पोथी लै आए।"
सामाजिक जीवन में विवाह संस्कारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। विवाह के समय अनेक रीति रिवाजों का सम्पादन होता है। जायसी इनसे भलि भांति परिचित हैं। विवाह के पूर्वलगन निर्धारण लोक में प्रचलित हैं।
'लगन धरा और रचा बियाहू। सिंहल नेवत फिरा सब काहू'
हिन्दू समाज में शव को जलाने की प्रथा है। हिन्दू विश्वास के अनुसार काशी में मरना पुण्य माना जाता है। जायसी ने इसका सजीव चित्रण किया है।
'जाइ बनारसि जारिउं क्या। पारिउं पिउं नहाइउ गया।'
जायसी ने भारतीय त्योहारों होली और दिवाली का विस्तार से वर्णन किया है। होली के त्योहार पर अबीर गुलाल व रंग लगाकर उल्लास मनाया जाता है। इसे मिलन का त्योहार भी कहा जाता है। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, हिन्दू-मुसलमान की समस्त संकीर्णताओं को भूलकर लोग एक दूसरे से मिलते हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन 'होलिका' दहन किया जाता है और अगले दिन उसकी राख उड़ाई जाती है। जायसी ने पदमावत में इस धार्मिक पक्ष का वर्णन किया:
'फागु खेलि पुनि दाहब होली,
सै तब खेह उड़ायब झोली।'
फाग खेलकर होली जलाऊंगी और राख बटोरकर झोली भर भर उड़ाऊंगी
होली के उत्सव पर अवध में अनेक प्रकार के नृत्य किए जाते हैं, जिनमें चंाचर, घनौरी गान, मनोरा, ठूमक आदि। जायसी ने होली और दीवाली के चित्रों का विस्तार से वर्णन किया है।"5
पदमावत का राघव चेतन नाम का चरित्र वेद निन्दक है। जायसी ने उसे खलनायक बताया है और उसकी निन्दा की है। अलाउद्दीन को माया का प्रतीक बताया है। पदमावत में अलाउद्दीन के स्वागत में जो भोज होता है उसमें ऐसे किसी भी भोजन का उल्लेख नहीं है जो हिन्दुओं के लिए अखाद्य हो।
पदमावत में जो हठयोग, ब्रह्मरन्ध्र, सहस्रार आदि का जो वर्णन है उससे स्पष्ट है कि जायसी का मन इस देश की संस्कृति और परम्परा में गहरा रंगा हुआ था। ''सूफी मुसलमान फकीरों के सिवा कई सम्प्रदायों जैसे कि गोरखपंथी, रसायनी, वेदांती हिन्दू साधुओं से भी उनका बहुत सत्संग रहा, जिनसे उन्होंने बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त की। हठयोग, वेदांत, रसायन आदि की बहुत सी बातों का सन्निवेश उनकी रचना में मिलता है। हठयोग में मानी हुई इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की ही चर्चा उन्होंने नहीं की है, बल्कि सुषुम्ना नाड़ी में मस्तिष्क नाभिचक्र, कुंडलिनी, हृत्कमल और दशमद्वार ब्रह्मरंध्र का भी बार बार उल्लेख किया है।"6
जायसी ने मुसलमान होते हुए हिन्दू रीति-रिवाजों का वर्णन किया है उससे लगता है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में वैमनस्य नहीं, बल्कि वे एक दूसरे के करीब थे।
संदर्भ:
1-परमानन्द श्रीवास्तव,जायसी,साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्र.सं. 1981, पृ.12
2-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी;16वां सं.;पृ. 5
3-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी;16वां सं.;पृ.-6
4-पं. शिवसहाय पाठक, चित्ररेखा, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी,प्र.सं.1959, पृ. 70
5- कुंवरपाल सिंह;भक्ति आन्दोलन और लोक संस्कृति;पृ.-80
6-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी;16वां सं.; पृ.-7