सामाजिक परिवर्तन का
दस्तावेज: ‘छांग्या रुक्ख’
डा. सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
पंजाब के दलित
जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा ‘छांग्या रुक्ख’ बीस अध्यायों में बंटी हुई है। रचनाकार का व्यक्तित्व किसी
विशेष समाज व परिवेश में बनता है। अपने समाज व परिवेश से कटकर आत्मकथा तो क्या
साहित्य की किसी भी विधा में सृजनात्मक लेखन नहीं हो सकता। अपने व्यक्तित्व और
सामाजिक परिवेश के बीच तनाव व लगाव की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के जरिये ही आत्मकथाकार समाज की बुनतर को व्यक्त करता है।
बलबीर माधोपुरी
अपने जीवन के अंतरंग, निजी व छुपे हुए पहलुओं को सार्वजनिक करने का साहस के
संकल्प की आभिजात्य धारणा के तहत आत्मकथा लिखने के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व निभाने का संकल्प लिए है, इसीकारण
‘छांग्या रुक्ख’ में लेखक के पूरे मुहल्ले, गांव व परिवेश का विश्वसनीय चित्रण है। ‘छांग्या रुक्ख’ का सबब’ में अपने मंतव्य को लेखक ने उद्घाटित किया है कि ‘‘अपने समकालीनों और आने वाली पीढिय़ों को, अपने और अपने परिवार के बहाने, धर्म द्वारा गुलाम
बनाए गए दलित समाज की अमानवीय स्थिति से परिचित कराऊं जिसके कारण वे दोहरी-तिहरी मार झेल रहे हैं’’ रचनाकार के इस
मंतव्य ने आत्मकथा को स्वरूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिन सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में बलबीर माधोपुरी समेत दलित आत्मकथाकारों का
व्यक्तित्व निर्मित हुआ है,
वहां सबकुछ सार्वजनिक है। इस सार्वजनिक की ही साहित्यिक अभिव्यक्ति की चुनौती को स्वीकार करते
हुए आपबीती के बहाने समाज की बहुत अधिक आबादी के सामूहिक जीवन अनुभवों को
साहित्य में स्थान दिया है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि
की ‘जूठन’, सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’, मोहनदास नेमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’, दया पवार की ‘अछूत’, शरणकुमार लिम्बाले
की ‘अक्करमाशी’, लक्ष्मणदास गायकवाड़ की ‘उचक्का’, शांताबाई काले की ‘छोरा कोल्हाटी का’, बलबीर माधोपुरी की ‘छांग्या रूक्ख’ जैसी दलित आत्मकथाएं इस आभिजात्य धारणा को तोड़ती हैं कि
सिर्फ ‘महान’ लोग ही आत्मकथाएं लिखने का हक रखते हैं और उनका ही नैतिक प्रभाव पड़ता है। दलित आत्मकथाओं के लेखक कथित ‘महानता’ के बोझ से नहीं दबे हैं, बल्कि अभिव्यक्ति की बेबाक आकांक्षा ने ही
उनको महान बनाया है। सन् 1932 में ‘हंस’ के ‘आत्मकथांक’ में प्रेमचन्द ने आत्मकथा के लोकतंत्रीकरण की वकालत की थी।
नन्ददुलारे वाजपेयी ने जब उनको लिखा कि ‘आत्मकथा लिखने के योग्य हिन्दी में कितने
आदमी हैं? कितने ऐसे महच्चरित हैं, जिनकी जीवनी
हिन्दी-जनता की पथ-नियामिका बन सकती है?’ तो प्रेमचन्द ने
इसका उत्तर देते हुए लिखा था कि ‘‘अब रह गई यह बात कि हिन्दी में ऐसे
लिखनेवाले कितने हैं, जिनकी जीवनी हिन्दी-जनता की पथ-नियामिका बन सकती
है? आपका खयाल है, एक भी नहीं। मेरा
खयाल है कि मेरे घर के मेहतर के जीवन में भी कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिनमें हमें प्रकाश मिल सकता है। किसी भी मनुष्य का जीवन
इतना तुच्छ नहीं है? जिसमें बड़े-से-बड़े महच्चरितों के लिए भी कुछ-न-कुछ विचार की सामग्री न हो। महच्चरित इसी तरह बनते हैं।’’ प्रेमचन्द के ये विचार आज सत्य हो रहे हैं और साहित्य में
आम व्यक्तियों के अनुभव ही महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं। दलित आत्मकथा के लेखक अपने जीवन के किसी रहस्य का उद्घाटन नहीं कर रहे और शायद उसमें किसी की
दिलचस्पी भी न हो। अपने जीवन के बहाने से वे उपेक्षित-वंचित-पीडि़त-शोषित समाज का उपेक्षित सत्य साहित्य में दर्ज कर रहे हैं।
वास्तविकता और प्रामाणिक अनुभव आत्मकथा की बुनियाद है, इसलिए आत्मकथा के
सत्य को साहित्यकार की कल्पना कहकर हल्के में नहीं उड़ाया जा सकता। इसीलिए दलित
समाज की स्थिति को चर्चा में ले आने के लिए आत्मकथा सर्वाधिक उपयुक्त विधा है।
दलित लेखकों की कहानियों, उपन्यासों, नाटकों व कविताओं की अपेक्षा आत्मकथाएं
समाजशास्त्रियों व साहित्यकारों के बीच चर्चा का विषय इसीलिए सबसे अधिक हैं। दलित आत्मकथाओं में व्यक्त दलित अनुभव कहीं न कहीं सवर्ण व वर्चस्वी समाज
के भावलोक को कुरेद रहा है, उसकी तमाम नैतिक मान्यताओं, संस्कृति, परम्परा पर प्रश्नचिह्न लगाकर कटघरे में
खड़ा कर रहा है। दलित-जीवन का बाह्य
ब्राह्मणवाद अन्त:जगत को झकझोर रहा
है। दलित आत्मकथाएं घुटन भरे माहौल में बहुत बड़ा छेद करके और वर्ण-व्यवस्था के पैरोकारों तथा उसके सताए हुए दलितों को मानवीय
गरिमा प्रदान कर रही हैं। जो समाज सम्मान पाने के लिए सत्य को (जाति) छुपाता था, वह अब उसे बताकर सामाजिक संरचनाओं में छुपी
हुई अमानवीयताओं को उद्घाटित कर रहा है। आत्मकथा ने दलित को सत्य बोलने का साहस
पैदा किया है और सत्य का अहसास करके ही कोई समाज मानवीय गरिमा पाने की लड़ाई लड़
सकता है। हिन्दी में लगभग उपेक्षित रही आत्मकथा विधा की परिवर्तनकारी शक्ति का
अहसास हो रहा है। दलित आत्मकथाकारों ने आत्मकथा विधा को व्यक्तिगतता, व निहायत निजीपन से निकाल कर सामाजिक सरोकारों से
जोड़कर आत्मकथा विधा का भी संस्कार किया है।
‘छांग्या रुक्ख’ में ‘परदे के पीछे का
सच’ जैसा निहायत व्यक्तिगत कुछ नहीं है, व्यक्तिगत ही
सामाजिक है और सामाजिक ही व्यक्तिगत। लेखक के साथ अन्य लोग
आत्मकथा का उसी तरह हिस्सा हैं जैसे वे उनके जीवन में मौजूद हैं। लेखक के पिता हों, फुमण्ण हों या दादी हों बहुत ही प्रभावशाली ढंग से उपस्थित
होते हैं, असल में तो इसके नायक यही हैं। इन
ऊर्जावान चरित्रों के प्रभावशाली व्यक्तित्व, दबंगता, आक्रोश व चेतना ने ही आत्मकथा में जान डाली है। जहां ये
मौजूद हैं, वहीं दलित पक्ष बड़ी मजबूती व निडरता से आता है और कथा के
वही अंश सर्वाधिक जीवन्त व पठनीय हैं। ‘छांग्या रुक्ख’ न तो एक व्यक्ति के जन्म से लेकर मरण तक का सिलसिलेवार वर्णन करता आत्मचरित है और न ही जीवन-वृतांत। यह वहीं निखरकर आती है, जहां अपने पूरे परिवेश के साथ है। वही
पक्ष इसके सबसे कमजोर पक्ष भी हैं, जहां केवल और केवल लेखक है। मसलन ‘किरायेदारी की लानत’ झेलता लेखक परिस्थितियों के दास की तरह से है, जिधर वे धक्का दे देती हैं, वह उफधर ही खिसक जाता है। यहां किसी प्रकार का तनाव नहीं
है, तनाव से वह दूर भागता है। ‘सरदार’ होने के आवरण में जातिगत ग्रंथि को छुपाता है और ऐसी
परिस्थिति को टालने की कोशिश करता है, जहां जहां उसे सामाजिक घृणा का सामना करना पड़े। मकान-मालिकों से वह बात
निडरता से कहने की हिम्मत नहीं करता, जो अपनी पत्नी से करता है, जबकि फुमण्ण जैसों को ऐसा कोई काम्पलेक्स नहीं है, वे हमेशा संघर्ष करते हैं और परिस्थिति से नहीं भागते।
बलबीर माधोपुरी के
पास परिस्थितियों को आलोचनात्मक ढंग से सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में देखने की प्रगतिशील दृष्टि के साथ उनको बड़े कैनवास पर
अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक लेखकीय धैर्य, प्रतिबद्धता और जीवन को व्यक्त करने की
इतिहासकार जैसी निस्संगता भी है। दलित जीवन के अभिशाप व त्रसदी का कारण भूमि-संबंधों और संपति-संबंधों में खोजती बलबीर माधोपुरी की ‘छांग्या रुक्ख’ इस सत्य का उद्घाटन करती है कि जीवन के सुख-दुख को तय करने वाली ठोस सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का नियंत्रण व संचालन उच्च जाति के भू-स्वामियों के हाथों में है।
बलबीर माधोपुरी
अपने गांव की बसासत की प्रक्रिया के बहाने से लगभग प्रत्येक गांव के बसने की
प्रक्रिया बताते हैं। जमींदारों के बाद खेती की जरूरत के लिए ‘कम्मी’ या कमेरे दस्तकार गांवों में बसाये गए थे। किसी गांव की
पहचान भू-स्वामियों से होती
है। दलित मुक्ति के महानायकों जोतिबा फूलेे व डा. आम्बेडकर ने अंग्रेजी शासन को दलित-मुक्तिदाता के रूप
में समझा। बलबीर माधोपुरी की ‘छांग्या रूक्ख’ का अनुभव व खोज
अंग्रेजी शासन की इस छवि को तोड़ती है। अंग्रेजी शासन में दलितों के शोषण, बेगार, सामाजिक भेदभाव व
क्रूरताओं को माधोपुरी ने विस्तार से बताया है। ‘‘जैलदार, जागीरदार, सफेदपोश और नंबरदार से सब लोग थर-थर कांपते थे। जैलदार के अधीन कई-कई गांव हुआ करते थे। वह कचहरी लगाता, फैसले सुनाता।
उसके पास अदालत के जज की तरह अधिकार हुआ करते थे। सुनाई गई सजा के अनुसार जुर्माना, हर्जाना और अन्य दण्ड भरने पड़ते। हालात और सूरत के अनुसार
किसी को कोई सजा सुनाई जाती तो किसी को कोई और। कहते हैं, किसी जैलदार को
पांच और किसी को सात खून माफ होते, इसलिए लोग उसके सामने गर्दन सीधी करके
बात करने का साहस न करते। और कमीनों, खासकर अछूतों के प्रति उसका व्यवहार
अक्सर डरावना और अत्याचारी हुआ करता। वह खेतीबाड़ी और निर्माण के कामों में बेगार
करवाता। अगर इन दोनों क्षेत्रों में कोई काम न होता तो वह बेगार के निश्चित दिनों
में से मिट्टी खुदवाता और गांवों के बाहर फिंकवाता। कहने का अर्थ यह कि निश्चित की
हुई बेगार को बख्शता नहीं था। उदाहरण के तौर पर हकीकत के सबूत उन गांवों में टीलों
की शक्ल में आज भी देखे जा सकते हैं, जिन गांवों में जैलदार हुआ करते थे।
जागीरदार अंग्रेजी
हुकूमत की मदद के लिए 15 से 30 घोड़े पाला करता, अपने देशवासियों के अन्दर उठते विद्रोह के विरूद्ध
अंग्रेजों का साथ देकर जागीरें हासिल किया करता। वह भी अछूतों से बेगार करवाता, इनाम के तौर पर मार-पिटाई और गालियों की बौछार किया करता। मतलब यह कि अपना रौब और दबदबा बनाए रखता
और अछूतों के अन्दर अपने अधिकारों के लिए उठने वाले विद्रोह को पनपने न देता।
सफेदपोश दो-चार घोड़े रखा करता, कुछ गांव उसके
अधीन हुआ करते। बेगार करने के लिए अछूत हाजिर रहते। सफेदपोश सरकारी एजेण्ट की तरह
काम करता, मुखबरी करता। अपना इस तरह का रुतबा कायम रखते हुए सरकार से ‘बख्शीश’ हासिल करता रहता।
नंबरदार गांव स्तर
पर सरकारी मुलाजिम था। वह अपने से उफपर वालों की सेवा के लिए उतावला रहा करता।
अछूतों से अपनी इच्छानुसार बगैर मेहनताने के काम करवाता। उससे नीच जाति के लोगों
सहित बाकी लोग भी बहुत डर कर रहते थे क्योंकि वह थाने में या फिर जैलदार के पास
जाकर किसी की भी शिकायत कर सकता था। उसकी बात हर जगह यानी सरकार-दरबार में सुनी जाती। उसकी इच्छानुसार फैसले लिए जाते। वह
लोगों को सरकारी पक्ष वाली सोच रखने और सरकारी नीतियों का समर्थन करवाने में अपनी
अहम भूमिका निभाता। इसीलिए,
आम तौर पर सभी ओहदेदारों को ‘टोड़ी’ या सरकार के ‘पि_ू’ कहा जाता रहा है। इनकी ओर देख कर ही जमींदार अछूतों के साथ
शारीरिक अत्याचार करते रहते। ऐसे उदाहरण, अनुसूचित जातियों
के 65-70 बरस के लोगों से आज भी बहुतायत में पूछे-सुने जा सकते हैं।’’ (पृ.22-23)
अंग्रेजी शासन ने
दलितों के शोषण को कानूनी रूप देकर पक्का कर दिया, बलबीर माधोपुरी ने
अपने गांव माधोपुर के 1914-15
के बंदोबस्त में कमीनों के काम और उनकी
जिम्मेदारी तथा उसके बदले में किसानों द्वारा दी जाने वाले मेहनताने की सूची (पृ.24) देकर अंग्रेजों के ‘न्यायप्रिय और
वैज्ञानिक दृष्टि’ वाले शासन की सच्चाई को प्रकट करके उनके
दलित-विरोधी चरित्र को रेखांकित किया है। ‘‘वर्ण-व्यवस्था के कट्टर
समर्थकों के साथ गठजोड़ था। पंजाब में अपने लगभग सौ साल के शासन के दौरान इन्तकाले
अराजी एक्ट जिसके तहत अछूत अपने पैसे इक_ा करके भी जमीन नहीं खरीद सकते थे, लागू रहा। मौरूसी (गांव के जमींदारों की ओर से कम्मियों-कमीनों को रिहायश के लिए दी गई साझी जमीन) भी मिलकीयत न बनी। अछूत, जागीरदारों और भू-स्वामियों के रहमोकरम पर निर्भर रहते, डर-डर कर समय व्यतीत किया करते। भू-स्वामी इसी आधार पर उनके साथ जोर-जबरदस्ती करते, बलपूर्वक बेगार करवाते। ना-नुकर करने पर सरेआम अपमानित करते, मारपीट करते।’’(पृ.-25) अंग्रेजी शासन पूरी तरह से जैलदार, जागीरदार, सपफेदपोश और नंबरदार पर निर्भर करता था और इन पदों पर आमतौर
पर उच्च जातियों के लोग ही रहते थे।
ब्राह्मणवाद ने
दलितों को सम्पति के अधिकार से वंचित करके अपना वर्चस्व स्थापित किया। गांव में
जमीन ही संसाधन व उत्पादन का साधन है। सामाजिक बराबरी हासिल करने
के संघर्ष में उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी प्राप्त करने का संघर्ष अनिवार्य
रूप से जुड़ा हुआ है। उत्पादक संसाधनों में हिस्सेदारी का अर्थ है आत्मनिर्भरता व
स्वावलम्बन। आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन किसी देश, समूह या व्यक्ति
के लिए सम्मान और सुरक्षा की गारंटी है। गांव में जिसके पास जमीन नहीं है वह अपने
पशुओं के चारे के लिए, अनाज के लिए तथा अन्य जरूरतों के लिए पूरी तरह भू-मालिक स्वर्णों पर निर्भर हैं और ये भू-मालिक इस ‘अनुकम्पा’ के लिए पूरी कीमत वसूलता है, इस कीमत चुकाने में लाख जतन करने पर भी उसके सम्मान की बलि
चढ़ जाती है। सम्मानजनक जिन्दगी हासिल करने की शर्त है - जमीन पर मालिकाना हक।
‘छांग्या रुक्ख’ में जमीन के सवाल को मुख्य तौर पर पेश
किया गया है, जबकि दलित-राजनीति में और
दलित-साहित्य में भी जमीन के सवाल को मुख्यत: पर नहीं उठाया जाता। दलित समस्या की वास्तविक जड़ दलितों के पास खेती योग्य जमीन न होना है। ‘छांग्या रूक्ख’ में मानवीय गरिमा प्राप्त करने के संघर्ष को भूमि संघर्ष से
जोड़कर देखने की दृष्टि विकसित होती है। बलबीर माधोपुरी का पिता, फुम्मण तथा आत्मकथा के अन्य पात्रों ने बार-बार जमीन के महत्त्व को रेखांकित किया है।
चमारली में धमकाने
आए जमींदार के साथ उलझे फुमण्ण को लेखक का ताया रामा डांटकर घर जाने के लिए कहता
है, तो वह कहता है कि ‘‘ये रोज आकर रौब
झाड़ा करते हैं, इनको कोई कुछ नहीं कहता, हम क्या कहीं बाहर
से आए हुए हैं कि इन लोगों ने हमारा जीना ही दूभर किया हुआ है। हर समय रौब, हर समय दबदबा। इनके पास जमीनें क्या हो गयीं, हमारे रब्ब बने बैठे हैं। आ गए नए अन्नदाते! अगर हमारे आदमी तुम्हारे खेतों में इतनी कड़ी मेहनत न करें
तो तुम भूखे मर जाओ। शाम को पीकर जो चिंघाड़ते हो, यह भी बन्द हो
जाएगा।’’ (पृ.- 48)
लेखक की दादी को ‘तुम्हारी सत्तो के यार, कोई चूहड़ा, कोई चमार’ कहकर फब्ती कसकर चला जाता है और दादी उसे
गालियां देती है तो फुम्मण इस व्यवहार की जड़ जमीन को ही ठहराते हुए कहता है, ‘‘चार खेत क्या हो गए, चांद पर थूकने से
बाज नहीं आते। ... ‘जो भी उठता है, पहले जात का ताना मारता है, ढाई-ढाई किल्ले जमीन
हिस्से नहीं आती, बने फिरते हैं बड़े लाटीकान ...।’’ (पृ. 58-59)
बापू ‘‘दुखी होकर अपने आप से ही बातें करने लगता, ‘‘अगर थोड़ी-सी जमीन हमारे पास
भी होती, बहुत बढिय़ा गुजारा हो जाता। पता नहीं किस कंजर ने हमें जमीन
से वंचित किया हुआ है। (पृ.-50)
‘‘अगर हमारे पास भी चार खेत होते तो हमारा
वक्त भी अच्छा गुजर जाता। जट्टों की तरह हमारे घर में भी गेहूं के ढेर आते।’’ (पृ.-167)
सोढ़ी मास्टर
बलबीर माधोपुरी व रोशी को अपनी जानवरों के लिए घास लाने के लिए भेजता है तो उनकी
बातचीत से भी यही उभरता है। रोशी कहता है कि ‘‘सोढियों के पल्ले
क्या है? सिक्खी? और जट्ट मौजें लूटते हैं - जमीनों-जैदादों के सिर पर! यूं ही तो नहीं ये लोग हमारी गलियों में दहाड़ते फिरते!’’
... लेखक के मन में बार बार
एक ही सवाल घुमता है कि ‘‘आखिर, हमारे पास पैलियां (खेत) क्यूं नहीं?’’ (पृ.-84)
बाजीगरों की कला
पर दाद न देकर भू-स्वामियों का ये
कहना कि सेवा करना और मन बहलाना ही तो कम्मी-कमीनों का काम है, इस पर रचनाकार का पिता उसे समझाते हुए खेती योग्य जमीन का
महत्त्व समझाता है। ‘‘मैं तो कहता हूं भई, हमारे मुल्क में से ये उफंच-नीच का कलंक बगैर जूती के नहीं मिटने वाला। अगर चार खेत हमारे पास भी हो जाएं तो फिर कौन
पहचाने इन बेकद्रे जमींदारों को! इनकी नफरत भरी
निगाहें पता नहीं कब तक घूर-घूरकर देखती
रहेंगी। मगर जिंदा रहने के लिए ये सब कुछ झेलना पड़ता है। और क्या करें अब? अन्दर ही अन्दर जल-भुनकर रह जाते हैं।’’ (पृ.-82)
रचनाकार माधोपुरी
ने ‘अन्दर ही अन्दर जल-भुनकर रह’ रहे समाज को वाणी दी है। दलितों के संसाधनों के शोषण के लिए
ही ब्राह्मणवाद ने सामाजिक तौर पर निम्न व संपति से वंचित करने का डिजाइन बनाया, इसलिए संसाधनों को अपने पक्ष में करने पर ही शोषण से मुक्ति
संभव है। हिन्दुस्तान में संपति के संबंध मूलत: भूमि संबंध ही हैं। आजादी के आन्दोलन के दौरान जमींदारी-प्रथा समाप्त करने और जोतने वाले की ही जमीन होने का मुद्दा सर्वाधिक चर्चा का विषय था, लेकिन आजादी के बाद के शासक वर्गों ने इसे
त्याग दिया और संपति के संबंध जस-के-तस ही रहे। यह सच है कि भूमि-सुधार का सवाल वामपंथियों ने उठाया और जहां सत्ता में आए वहां इसे लागू भी
किया। भारतीय राजनीति की विडम्बना ही कही जायेगी कि दलित राजनीति की चैंपीयन
राजनीतिक पार्टी तो अभी नारे के तौर पर भी सरकारी भूमि के वितरण से
आगे नहीं बढ़ी, जबकि भूमि पर काम करने वाले का अधिकार और समान बंटवारे से
ही दलित के लिए मानवीय गरिमा प्राप्त करने लायक स्थितियां बन सकती
हैं। ब्राह्मणवाद को सिर्फ विचारधारात्मक स्तर पर संघर्ष करके परास्त नहीं किया जा
सकता, बल्कि उसके वास्तविक आधार पर चोट करने से यह संभव है। भूमि
प्राप्त करने का संघर्ष ही असल में वास्तविक संघर्ष है।
दलित जमीनों के
मालिक नहीं हैं और वे अपने अस्तित्व के लिए जमींदारों के खेतों पर
निर्भर हैं, इसीलिए कोई जमींदार दगड़-दगड़ करते हुए गालियां दे देता है और बिना किसी खौफ के कह सकता है कि ‘सारी चमारली का जूते मार-मारकर सिर पोला
नहीं कर दिया तो मैं भी जट्ट का पूत नहीं।’’ आखिर जमींदार के
पास इस तरह की हिम्मत भू-स्वामी होने की
वजह से ही आती है।
दलित मुक्ति चेतना
का रूप बलबीर माधोपुरी के ताये के लड़के फुम्मण में देखा जा सकता है, असल में वह वास्तविक योद्धा है। वही दलित समस्या की जड़, जाति के भौतिक आधार तथा भू-स्वामियों की दलितों पर धौंस के कारण को बखूबी समझता है और भू-स्वामियों की गीदड़ भभकियों से भी नहीं डरता, बल्कि सामने होकर लड़ता है। जब चमारली में धमकाने आया
जमींदार थाने का नाम लेकर डराना चाहता है तो वही दलितों की वास्तविक आवाज है। ‘‘किसी और को धमकी देना, वो जमाना गया जब
ये सब लोग तुम्हारे आगे घिघियाया करते थे।’’ फुम्मण ने पलट कर
जवाब दिया। ....
‘‘मुंह संभालकर बात कर, नहीं तो दाढ़ी उखाड़कर हाथ में पकड़ा दूंगा। और अपने बाप से
पहले पूछ जिसने मेरी मां को पैना मारा था। थाने में नाक से लकीरें खिंचवाई
थीं उससे।’’ (पृ.- 47)
बदलती तकनीक, आर्थिक विकास व आधुनिकता ने खान-पान और सामाजिक व्यवहार में दलित-सवर्ण की श्रेणियों के सामाजिक अलगाव को कम किया है। आधुनिक समाज के तौर-तरीकों से
वैयक्तिकता व स्वतंत्र निर्णय की भावना का विकास हुआ है। गांव की जजमानी प्रथा टूट
रही है। नए परिवेश में पली-बढ़ी नई पीढ़ी
सामाजिक शोषण को स्वीकार करने वाली नहीं है। चाहे फुमण्ण हो या फिर
पाशू पुरानी मान्यताओं की स्वीकार नहीं करते। वे नए धन्धे तलाश करने की जुगत में
है। पूंजीवाद के विकास ने नए धंधों को पैदा किया, जिनसे दलित वर्गों
में स्वतन्त्रता की चाह पैदा हुई है। पाशू और उसके पिता का संवाद जहां पुराने
किस्म की व्यवस्था क्रूरता को दर्शाता है, वहीं नए के प्रति
इच्छा को भी व्यक्त करता है। ‘‘कहता है, मुझसे जूठन नहीं
धोई जाती....आ गया ये बड़े
नवाब का पुत्र!’’
दीवान अपने बेटे
पाशू के बारे में दूसरों को बताते हुए लाल-पीला हो रहा था।...
‘‘सवेरे से बरतन मांजने बैठा हूं। मेहमान रोटी खा चुके हैं, देखते-देखते दिन का
तीसरा पहर हो गया। जब भी रोटी के लिए थाली उठाने लगता हूं, तभी हुक्म कर देते
हैं -
ये दो बरतन धो दे, वो फलाना आ गया। ये तो शाम तक आते रहेंगे।’’
पाशू के शब्द
पटाखों-धमाकों जैसे थे
जिनकी ‘ठांय-ठांय’ से मुझे डर नहीं बल्कि हौसला मिल रहा था।
‘‘न, कांसे के थाल के दो टुकड़े क्यों कर आया? मेरी बेइज्जती कराने के लिए? मेहमान क्या कहते
होंगे?’’
‘‘सवेरे से रोटी नसीब नहीं हुई, गुस्से में और
क्या करता? घड़ी भर में पीछे से आवाज लगा देते हैं - बस, दो बरतन मांज दे। मैं कहता हूं - ‘घोड़ों’ का बूढ़ा क्या मरा, भूखा मार दिया। लोग तो जलेबियां-जर्दा खा कर चले गए।’’
मुझे लगा, पाशू जैसे जलेबियां-जर्दा जैसे शब्दों को मुंह के अन्दर चबाकर अपने भूखे तन-मन की तृप्ति कर रहा था। पल भर बाद वह फिर कहने लगा, ‘‘मैं आज के बाद
किसी की जूठनें धोने नहीं जाऊगा! क्या कमी आ जाएगी
अगर ऐसा काम नहीं करेंगे - एक पीपा दाने हाड़ी (रबी की फसल) पर और एक साउणी (खरीफ की फसल) पर। ... किसी के चार मेहमान आ गए तो हम रोटी बनाएं-खिलाएं! इस तरह कभी इसके, कभी उसके खुशी-गमी के मौके पर
पकायें-खिलायें! उफपर से सारा सौदा सिर पर रखकर भोगपुर से लाएं।’’ ‘झींवरों का काम इसी तरह की सेवा करना है’ कहकर बेटे को मनाने के लिए उसकी खुशामद के लिए रोटी खाने को
कहता है तो पाशू का यह कहना कि ‘मैं रेहड़ी लगा लूंगा पर जूठन नहीं
धोउफंगा’’ (पृ.-65-66) पुरानी व्यवस्था के अस्वीकार की घोषणा है।
जाति की सीढीनुमा
संरचना में प्रत्येक जाति किसी न किसी जाति को अपने से नीचे मानती है। आर्थिक या राजनैतिक हैसियत बदलते ही जाति का दर्जा भी बदलता रहा है। निम्न मानी
जाने वाली जातियां उच्च मानी जाने वाली जातियों के तौर तरीके अपना कर उनकी श्रेणी
में अपना स्थान सुरक्षित करती रही हैं। संस्कृतिकरण की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती
रहती है। निम्न जाति उच्च जाति की संस्कृति को अपनाती है स्वयं को उच्च जाति मानने
लगती है। बलबीर माधोपुरी ने इस ओर संकेत किया है।
‘‘ताये बन्ते ने दूसरों को सुनाकर कहा, ‘‘कभी अंधे घोड़े का दान मांगने चल दिए, कभी गुग्गा ... क्या काम पकड़ रखा
है इन्होंने भी, जैसे गुग्गा इनकी मौसी का बेटा हो।’’
‘‘ये भी अपने जैसे ही हैं गरीब बेचारे, हमारे जैसे! इनके पास भी कौन
सी जैदाद है! बहाने से चार मन
दाने कमा लेते हैं।’’ बापू ने ताया के पास बैठते हुए कहा।
‘‘रास्तगो वाला काणा पखीर तेरा सज्जन जो है, हमप्याला! हम आज तक इनके घर नहीं गए, न इनके घर कभी हुक्का पिया, न पानी। तुझे बड़ा
प्यार आ रहा है इन मांगकर खाने वालों पर।’’
‘‘हमें भी जट्ट कहां पास फटकने देते हैं। आंगन में नीचे जमीन
बिठाते हैं, कुत्ते जितनी कदर नहीं।’’ बापू ने पलटकर
जवाब दिया।
‘‘जट्ट फिर भी जमीन-जैदाद वाले हैं, ये रामदासियों को देख लो, हमारे में से
सिक्ख बने हैं। पहले इसी कुंए से पानी भरा करते थे, अब अपनी कुइया बना
ली है। कहते हैं - इस कुंए से
हुक्कों में से उंडेले गए पानी की बदबू आती है। सीधा नहीं कहते कि हम अब पहले वाले
नहीं रहे।’’
‘‘हमारी मां तो अभी तक मुणशा सिंह की मां को बुआ कहकर बुलाती
रही है।’’ बापू ने बताया’’ ...
ताये ने पलभर
रुककर फिर पहली बात पर आते हुए कहा, ‘‘अब सारी बात ये है भई कि हमारे अपने अपने
नहीं रहे, और तू हमें चूहड़ों के साथ न मिला ... हमारी उनसे कैसी सांझ?
... कोई लेना नहीं, कोई देना नहीं, कोई रिश्तेदारी नहीं। सो, ज्यादा सिर पर
नहीं चढ़ाते इस जैसी जाहिल कौम को।’’
‘‘धौली दाढ़ी का कुछ खयाल कर। अगर हम चूहड़ों के घर पैदा हो
जाते? अगर जन्म लेना अपने बस में होता तो मैं चमारों के घर पैदा
नहीं होता।’’ बापू हुक्के का घूंट भरे बगैर ही उनके पास से उठ खड़ा हुआ।
घर की ओर बढ़ते हुए ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘ये कोढ़ नहीं निकलेगा हम लोगों के अन्दर
से, सारा बखेड़ा बाह्मणों का खड़ा किया हुआ है। बखेड़ा कैसा, फूट डाल रखी है खाली बैठकर खाने को, हम जैसों से
दूसरों के लिए बेगार करवाने के लिए!’’(पृ.-75) बलबीर माधोपुरी ने दलित जातियों में एकता के सूत्र को खोजने
की कोशिश की है तथा दलितों की एकता में ही मुक्ति के संघर्ष की जीत छुपी है। जाति-व्यवस्था दलित शोषण का औजार है, इसे समाप्त करने
में ही दलितों का भाईचारा संभव है, जो बराबरी प्राप्त करने के संघर्ष में
सबसे जरूरी है।
असल में जाति मानव
एकता को तोड़ती है, श्रमिकों में विभाजन पैदा करती है। पूर्णत: सर्वहारा के मन में भी जातिगत भावना रहती है। प्रगतिवादी
विचारधारा का धारण किए लोग भी पूरी तरह से जाति से मुक्त नहीं हो पाए हैं। मौका
पडऩे पर उनका जाति संस्कार जाग उठता है, लेकिन बलबीर माधोपुरी ने सही चित्रित
किया है कि ‘भूख-प्यास न पूछे जात’। जाति-व्यवस्था भरे पेट
लोगों ने बनाई है, लेकिन इसको धारण करते हैं निम्न वर्ग के लोग। भूखे आदमी को
तो रोटी चाहिए, जाति नहीं। उसका जातिगत अहंकार पेट भरने के बाद ही जागृत
होता है। अकाल व सूखे के सताए राजपूत भी अपने जातिगत अहंकार को छोड़कर दलित से
मांग कर खाने में कोई गुरेज नहीं, वह मदद करने वाले की जाति नहीं पूछता। ‘‘बीबी, दो-दो रोटियां दे दे या दो मु_ी आटा दे दे, हम और हमारे ये
बच्चे भूखे हैं। सूखा पड़ रहा है, फसल नहीं हो रही। हम मांगने वाले नहीं
हैं। बस, दो रोटियां या ...
हम मां-बेटे को दालान के अन्दर प्रवेश करते देखकर बापू ने पहले की
तरह कहा, ‘‘देखो, जोरावर और इज्जतदार राजपूतों को भूख ने
कैसे मोहताज बना दिया है! इन्हें हमारी
बस्ती-मुहल्ले का पता भी है। इन्होंने हमें कभी अपने पास बैठने
नहीं दिया। हम गंगानगर गेहूं-चने काटने जाते थे, प्यास लगने पर जब हम इन्हें पानी पिलाने के लिए कहते तो ये
पहले हमसे हमारी जात पूछते। अब हमारे दर पर मांगते घूम रहे हैं। भला कोई पूछे कि
अब तुम्हारी अकड़-अहंकार और वो
दबदबा कहां गया? कहते हैं कि भूख-मुसीबत के समय
किसी ने अपनी मां के यार को भी बाप बना लिया था।’’
हुक्के के दो-तीन तेज-तेज कश भरने के
बाद वह फिर कहने लगा, ‘‘हमारी बात समझने का किसी के पास टैम ही नहीं कि जात-पांत का सारा ताना-बाना रब ने नहीं, आदमी ने अपने स्वार्थ के लिए घड़ा है।’’ (पृ.-112) जाति-प्रथा के दैवीय, जैविक, नस्लीय आधारों को नकारते हुए उसकी उत्पति
को सामाजिक-व्यवस्था व स्वार्थों की उपज मानना वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, जिसे ‘छांग्या रूक्ख’ पूरी तरह व्यक्त
करती है और जाति-स्वाभिमान व
अस्मिता से आगे जाति-व्यवस्था की
समाप्ति के लिए प्रेरित करती है।
आधुनिक समय में शिक्षा मुक्ति का साधन माना गया है। ब्राह्मणवाद ने स्त्री व शूद्रों
की आबादी को शिक्षा व ज्ञान से वंचित करके ही गुलाम बनाया, इसीलिए उसके पंजों
से निकलने में ज्ञान महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। शिक्षा प्राप्त करके सरकारी
नौकरी को दलितों ने अपनी मुक्ति का साधन माना, जो कि सही ही है।
इन्सानों से अधिक जानवरों को महत्त्व दिये जाने वाली शोषणकारी व्यवस्था से
छुटकारा पाने के लिए बलबीर माधोपुरी भी सोचते हंै कि ‘‘जैसे तैसे पढ़ जाऊ, बड़ा होकर दिल्ली में रहते अपनी बुआ के बेटों की तरह नौकरी
करूं, दिल्ली में रहूं और नई-नई पैंट-कमीजें पहनकर
घूमता फिरूं, न किसी का भय और न किसी की डांट-डपट हो।’’ (पृ.- 50)
वर्चस्वी सवर्ण भी
शिक्षा के प्रभाव को समझता है, शिक्षा से जो चेतना आती है उसके बाद किसी
समाज को गुलाम नहीं रखा जा सकता। इसलिए सवर्ण अधयापक दलितों को शिक्षा
के प्रति निरुत्साहित ही करते हैं। मास्टर सोढी लेखक को अपने जानवरों
के लिए घास लेने भेज देता है।
‘‘सारा चमार टोला पढऩे बैठ गया। दिन-ब-दिन इनका दिमाग खराब हुए जाता है। अगर इन्हें नौकरियां मिल गईं
तो हमारे खेतों में काम कौन करेगा? भइये? जो लाइन लगाकर आते
जा रहे हैं। दस बार कहो तो एक बार हाथ हिलाते हैं ... ऊपर से दस-दस रोटियां फाड़ते
हैं।’’ ‘बूझड़’ ने हम सात-आठ जनों को कालेज जाते देख, सुनाकर कहा।’’ (पृ.- 171)
जातिगत भेदभाव की
यह व्यवस्था धर्म से वैधता पाकर ही इतने समय तक टिकी रही है। ‘‘ऐसी हजारों बरसों की अन्याय, भेदभाव और
असमानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था की मिसाल पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलती। पूरे
विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो नफरत, अनैतिक रीति-रिवाज, भेदभाव भरे आदेशों और अमानवीय परम्पराओं
का झंडाबरदार हो। श्रमिक वर्ग और स्त्रियों के प्रति ऐसा अत्याचारी, दमनकारी व्यवहार और मनुष्यों को बांटने का सिलसिला किसी देश
में नहीं, पर भारत में इस व्यवस्था पर गर्व किया जाता है कि इसके चलते
समूचे भारतीय समाज के अन्दर कभी तनाव और हिंसा नहीं हुई’’ (पृ. 25)
गुरूनानक ने अपनी वाणी में मनुष्यों में जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया। गुरू
नानक ने छुआछूत का विरोध किया और वे उफंच-नीच में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने कहा कि मैं नीची जाति में जो नीच है
और उन नीचों में भी जो बहुत नीच हैं, उनके साथ हूं
नीची अन्दर नीच
जाति हूं
अति नीचु ।
नानकु तिनके संगि
साथि वडिया सिउ किया रीस।
जिथै नीच समाली
अनि तिथै नदरि तेरी बखसीस।।
ऐसे धर्म की
स्थापना की जिसकी शिक्षाओं में उच्चता-श्रेष्ठता की
श्रेणियां नहीं थी। लंगर-संगत की परम्परा
की शुरूआत की। मानव एकता व भाईचारे का संदेश लेकर जन्मा धर्म भी अपने कर्मकाण्डी व
व्यवहारिक रूप में जातिगत उच्चता-निम्नता की श्रेणियों में बंट गया। धर्म पर कब्जा हुआ दबंग जातियों व भू-स्वामियों का। धर्म के सैद्धांतिक रूप में चाहे
कितनी ही समानता की बात रही हो, लेकिन धार्मिक कार्यों में
व्यवहारिक स्तर जातिगत भेदभाव साफ तौर देखा गया। ‘छांग्या रुक्ख’ के सबब के पीछे यह पीड़ा भी है कि ‘‘देश के सबसे
खुशहाल प्रांत पंजाब - जहां धार्मिक दिखने वाले अनेक ग्रंथों का सृजन हुआ और विश्व का सबसे नया और मानववादी समझा
जाने वाला सिख-धर्म जोर-जुल्म के खिलाफ स्थापित हुआ। उसी धरती पर वह सभ्याचार
उत्पन्न नहीं हुआ, जिसकी खातिर गुरु साहिबान ने संस्कृत और संस्कृति को त्यागा
था। जातिवादी संकीर्ण मानसिकता के कारण नित्य नए लड़ाई-झगड़े, अत्याचार, अन्तर्जातीय विवाहों के बदले मृत्यु, विज्ञान और तकनॉलोजी के शिखर छूती सदी में भी सामाजिक और धार्मिक संस्थानों में दलितों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार जारी रहा।’’ (पृ. 15)
‘इस चमारली को डपट के परे हटा तो जरा’, ‘चन्नणा, तेरे काबू में
नहीं आने वाली ये चींगरपोट ... मैं भगाता हूं इन
मां के ...।’ ‘कमजातो, तुम्हें एक बार नहीं कहा, आराम से बैठ जाओ’ का राग अलापते और ‘हाथ की कटोरी या बच्चों के हाथों से छू न जाए’ इस डर से ऊपर से
ही परसाद फेंकते खिझू स्वभाव वाले सिक्खी स्वरूप को दर्शाता कच्छा पहने ‘भाई’ का दलित बच्चों के प्रति यह व्यवहार धर्म की तमाम
सैद्धांतिकता को धराशायी कर देता है। परसाद के मामले में उसका भेदभाव को रेखांकित
करते मस्से के शब्द ‘‘तुझे नहीं पता, कानी बांट करता है ये मुचरू-सा। अन्दर बैठे हुए लोगों को तो मु_ी भर-भर कर देता है और हमें ले-देकर वही चुटकी-सा ...।’’(पृ. 29)
लेखक धर्म-परिवर्तन करके
जाति के अभिशाप से छुटकारा पाने की बहस भी छेडऩा चाहता है, लेकिन सभी धर्मों
में भेदभाव मौजूद है, इसलिए सामाजिक स्थिति बदलने वाला कोई कदम ही दलितों की
स्थिति बदल सकता है। बिना सामाजिक परिस्थिति बदले धर्म बदलना तो ऐसा कदम है
जैसे कि किसी आदमी को एक कुएं से निकाल कर दूसरे कुएं में फेंक देना। सभी धर्मों
के साथ बुराइयां, रूढियां, भाग्यवाद, नियतिवाद आदि
अनिवार्य रूप से चिपटे हुए हैं। दलित-आन्दोलन में धर्म-परिवर्तन का मुद्दा काफी विवादास्पद रहा है। कुछ दलित
चिन्तक व राजनीतिक कार्यकर्ता धर्म परिवर्तन को दलित-मुक्ति का कारगर साधन मानते हैं। ‘छांग्या रुक्ख’ के लेखक ने इसमें चिन्तकों और कार्यकर्ताओं की
बजाए आम दलितों के जरिये उनका पक्ष रखा है। धर्म परिवर्तन की बहस लेखक के पिता और मां के बीच चलती है। चाहे कोई भी धर्म अपना लें, लेकिन सामाजिक भेदभाव से पीछा नहीं छूटने वाला। ‘सारी उम्र गुरुद्वारे में ढोलकी कूटते और छैने बजाते’ गुलजारी लाल को भी
आड़ से पानी पीने की बात इन्दरसिंह कहता है। (पृ.-77)
वर्तमान में दलित-उत्पीडऩ की जो घटनाएं घट रही हैं उनमें धार्मिक कम और सामाजिक सर्वोच्चता का अहं अधिक है। सामाजिक वर्चस्व की जड़ें उत्पीड़क और उत्पीडि़त की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में हैं। आमतौर पर देखने में आया
है कि गांवों में झगड़ा या टकराहट का मूल तो आर्थिक-राजनीतिक स्थिति में है, लेकिन वह रूप लेता है जातिगत संघर्ष का। दलित सामाजिक दृष्टि से हीन, राजनीतिक दृष्टि से असुरक्षित और आर्थिक दृष्टि से गरीब हैं। ऐसे में उसके जीवन के वास्तविक संघर्ष को कुचलने
के लिए जाति या धर्म का रंग देना बिल्कुल आसान है।
सामाजिक-उत्पीडऩ का कारण धार्मिक मात्र नहीं है, लेकिन शोषण व उत्पीडऩ को जायज ठहराने के
लिए धर्म की सत्ता वैधता प्रदान करती है, इसलिए दलित-उत्पीडऩ का निदान धर्म का परिवर्तन करने में नहीं। उसके लिए सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है, जो लोगों के दिमाग से धर्म के भय व उसमें व्याप्त अमानवीय
प्रथाओं-परम्पराओं को हटा
दे और उसकी जगह वैज्ञानिक मानवीय चिन्तन स्थापित करे। दलितों के प्रति अन्याय इसलिए
नहीं है कि वे किसी खास धर्म से ताल्लुक रखते हैं, बल्कि उनके प्रति
समाज में उत्पीडऩ इसलिए है कि वे आर्थिक तौर पर दरिद्र व सम्पतिहीन, सामाजिक तौर पर नीच व हीन तथा राजनीतिक तौर पर असुरक्षित व कमजोर हैं। ‘छांग्या रुक्ख’ का रचनाकार
धार्मिक-सामाजिक भेदभाव को स्वीकार न करने के लिए जब ‘‘मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लेता - ‘अब से गुरुद्वारे के आंगन में पैर नहीं रखना। ऐसे परसाद को
नहीं लेने से क्या थुरने वाला है!’’ (पृ. 29) तो दलित-मुक्ति की दिशा
में एक शुरूआत है।
धर्म के आधार पर
जातिगत ही नहीं, बल्कि साम्प्रदायिक भेदभाव, संकीर्णता को भी
वैध ठहराया जाता है। शोषक शक्तियां लोगों की धार्मिक आस्था का लाभ अपने
वर्गीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए करती हैं। देश का विभाजन इस आधार पर हो चुका है
और लाखों की संख्या में परिवार उजड़े हैं। पंजाब ने देश विभाजन की त्रसदी व
अलगाववादी हिंसा को सबसे अधिक झेला है। बलबीर माधोपुरी ने इस दर्द को व्यक्त करते हुए
टिप्पणी की है ‘‘ताया रामसिंह जाते-जाते कहने लगा, ‘‘निर्दोषों-मासूमों को मारकर
इन पापियों को पल्ले क्या पड़ेगा? जिन्होंने पाकिस्तान बनता देखा है, वे भूलकर भी खालिस्तान का नाम नहीं ले सकते।’’ (पृ.-199) आतंकवाद की सबसे अधिक मार समाज के निम्न
वर्गों पर ही पड़ती है। लेखक स्वयं इसके शिकार होते-होते बचे।
‘‘आत्मकथा लिखते समय यह ख्याल लगातार मेरे जेहन में रहा कि उन
समस्याओं, असमानताओं, बेइंसाफियों और घटनाओं को एकपक्षीय और
भावुक हुए बगैर प्रस्तुत करूं, जिसका मेरे संग
गहरा वास्ता रहा है। इस तरह, ब्राह्मणवादी व्यवस्था की न्यारी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए अपना छोटा-सा यत्न पेश कर रहा हूं, जो मेरी उम्र के 45 वर्षों को अपने घेरे में लेता है।’’ बलबीर माधोपुरी ‘एकपक्षीय’ व ‘भावुक’ होने के प्रति सचेत हैं, इसीलिए उनके प्रस्तुतिकरण में गहरी विश्वसनीयता है, जो पाठक पर विशेष प्रभाव छोड़ती है और उसकी
संवेदना को मानवीय बनाते हुए उसकी सहानुभूति को प्राप्त करते हैं। दलित के प्रति
मानवीय दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक होती है, ‘एकपक्ष’ और ‘भावुकता’ इसमें हमेशा बाधक बनती है। तमाम
किन्तुओं-परन्तुओं के बाद
प्रतिबद्ध लेखक की कामयाबी की कसौटी तो यही है कि वह अपने पाठक को इच्छित लक्ष्य की दिशा में कितना ले जा सका है। बलबीर माधोपुरी अपने मकसद
में पूरी तरह से कामयाब हुए हैं।
‘छांग्या रूक्ख’ में लेखक ने अपने चरित्रों
का परिचय देने में बहुत धैर्य से काम लिया है, जिससे ये चरित्र
एक विशेष छाप छोड़ते है। रंग-रूप, चाल-ढाल, मुद्रा-भंगिमा का
चरित्रकंन बहुत सूक्ष्मता से किया है, जिससे चरित्र की विश्वसनीयता बनी है। ऐसा
वर्णन वही रचनाकार कर सकता है, जिसने जीवन को बहुत गहराई से देखा हो।
चरित्र यहां अपनी विशि_ष्टता में उभर कर आते हैं। लेखकीय सफलता ही है कि फुमण्ण का
आक्रोश केवल उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके भाव-भंगिमाओं से भी नजर आता है। दादी के बुढ़ापे के साथ उसके रौब-दाब,
दबंग स्वभाव व हैसियत भी उभार पाती है, यह लेखक के एक-एक चरित्र को उसकी विशिष्टता में निर्मित
करने का नतीजा है। आत्मकथा का छोटे-से-छोटा चरित्र का विशिष्ट व्यक्तित्व है। ढोल बजाने वाले
अच्छरू आत्मकथा में बहुत ही कम आता है, लेकिन उसका परिचय देखने लायक है। ‘‘बिलपालके गांव का अधेड़ उम्र का इकहरे बदन वाला अच्छरू, जिसके मुख पर माता के दाग थे, छोटी बिल्ली आंखें
थीं, खुली पतली दाढ़ी, गले में काले रंग की डोर में लटकता कंठा, सिर पर सीधी-सादी अधमैली सफेद
या मोतिया रंग की पगड़ी जिसका एक सिरा लटका हुआ था, बदन पर कुरता-धोती और पांव में
काले क्रोम की जूती पहने, ढोल बजाता इस तरह तेज-तेज कदमों से चल रहा था मानो उसे बहुत सारा रास्ता तय करना हो।’’ (पृ.78) कथा सम्राट प्रेमचन्द अपने पात्रों को इस तरह परिचित करवाते
थे, उनकी तरह की पैनी व सूक्ष्म दृष्टि के यहां दर्शन होते हैं।
बलबीर माधोपुरी की
कथा शैली की विशेष बात है कि उनके पात्र क्रियाशील हैं। नाटक के पात्रों की तरह
वे हमेशा गति में रहते हैं,
जिससे पाठक का लगातार जुड़ाव
रहता है। यही वजह है कि जीते जागते चरित्र सामने आ जाते हैं। भाषण देते हुए कामरेड
मेहली का वर्णन उल्लेखनीय है, ‘‘बोलते समय कामरेड मेहली की गर्दन की नसें
इस तरह फूल गई थीं मानो उनके अन्दर लहू नहीं, हवा भर गई हो।
काला चेहरा ताम्बई हो गया था और आंखों में लाली दिखाई देने लगी थी। आक्रोश और
विद्रोह ने उसके पहले वाले और अब वाले चेहरे में एक बड़ा फर्क ला दिया था। जब वह अपने दायें हाथ को उठा-उठाकर हवा में लहराता तो उसका शरीर भी कभी आगे, कभी पीछे होता
जैसे चाबी वाला खिलौना दनकते हुए आगे-पीछे होता है।’’ (पृ-120)
माधोपुरी अपने
पाठकों के बारे में पूरी तरह सचेत हैं, वे जानते हैं कि उनकी आत्मकथा के पाठक सिर्फ दलित और पंजाब के गांव के लोग ही नहीं हैं, बल्कि शहरी व
मध्यवर्ग के लोग उनके पाठक होंगे, इसीलिए शायद वे अपनी आत्मकथा में विस्तार
प्रदान करते हैं। पेशे व काम करने के ढंग को इतनी सूक्ष्मता व विस्तार से बयान
करते हैं कि जिस व्यक्ति का इस जीवन से परिचय नहीं है, वह भी आसानी से
समझ जाता है। घटनाओं और प्रक्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन-विवरण सम्प्रेषण को बढ़ाता है। विस्तार में जो नीरसता व
दोहराव की गुंजाइश होती है वह यहां नहीं है, क्योंकि यहां
शुष्क जानकारियां नहीं, बल्कि नाटक की सधी भाषा की
तरह पूरे दृश्य रचे गए हैं जो पाठक के समक्ष एक जीता जागता लोक पेश कर देते हैं।
‘छांग्या रुक्ख’ में माधोपुरी ने जो जानकारियां दी हैं, वे भी गौर करने लायक हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को शब्दबद्ध करने से यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज बनी है। ‘‘हमारी बिरादरी के बहुत से परिवारों की खड्डियां थीं और रोटी-रोजी इन्हीं पर निर्भर थी। खड्डी के काम में घर के सभी
सदस्यों को लगना पड़ता था। जैसे, पहले सूत की अट्टियों के चीरू बनाए जाते, फिर उन्हें चरखड़ी पर चढ़ाकर चरखे की तकली पर नड़े काटे
जाते। बापू तानी के लिए सरकंडे गाड़ता जो नीचे से जुड़े होते और उफपर से अंग्रेजी
के ‘वी’ अक्षर की शक्ल के होते। यह एक लम्बी इकहरी पाल
होती। कभी वह दो-दो सरकंडे दोहरी
कतार में गाड़ता। तकलियों के साथ गाड़े हुए सरकंडों की दरारों के बीच में से ताने
को निकालकर उन्हें तानता। ऐसा करने पर हवा के कारण बनी एक लहर-सी दिखाई देती। जब नड़े का धागा खत्म हो जाता तो नए नड़े के
धागे के सिरे को थूक लगाकर पहले वाले धागे के संग मरोड़ी देता। शाम तक जल्दी-जल्दी ताना तानता।
मेरा बड़ा भाई बख्शी भी इस काम में हाथ बंटाता। बापू अगले दिन ताणी खींचकर उस पर
मांडी चढ़ाता। ऊपर से एक बड़ी कूची को फेरता ताकि धागे आपस में जुड़ न जाएं। फिर
ताणी इक_ा करता और ‘रश’ के साथ उसका एक-एक धागा थूक लगाकर मरोड़े देकर जोड़ता जाता। फिर
पल्लू के लिए खड्डी पर चढ़ाता। अब बाने के लिए नलियां तैयार की जातीं। बापू खड्डी
में टांगे लटकाकर बैठता। वह पैरों से पंजाले की पसारें बारी-बारी से दबाकर ताने के बीच में से नाल को कभी दायें और कभी बायें हाथ से
पुफर्ती के साथ निकालता। अगर नुकीली नाल (जिसमें नली-धागा होता) धीमे चलती तो उस पर सरसों के तेल का हाथ मलता। वैसे काली
लकड़ी की नाल घिर-घिसकर इतनी मुलायम
हो जाती कि हाथों में से फिसलती रहती।’’ (पृ.-144)
बलबीर माधोपुरी ने
कवि की तरह उपमाएं देते हुए ऐसे चित्रों व बिम्बों का सृजन किया है, जो पाठक पर स्थायी छाप छोड़ते हैं। विशेष बात यह
है कि वे अपने बिम्ब व उपमाएं किसानी जीवन से ही उठाते हैं। नए बैल को सिधाने की
प्रक्रिया के साथ शोषण को सहन करने की प्रक्रिया से और दलित जीवन की वीरान जिन्दगी
की तुलना थूहरों पर उगे फूलों से करते हैं। ‘‘छोटी-बड़ी थूहरों की कतारें पल भर के लिए हमारे मुहल्ले के
स्त्री-पुरुषों और बच्चों
में बदल गईं। मुझे प्रतीत हुआ जैसे यह वीरान स्थान उनकी वीरान जिन्दगी का प्रतीक हो और थूहरों के तीखे-लम्बे मजबूत शूलों
की भरमार उनकी मुश्किलें! जब मेरी नजर
थूहरों पर उगे फूलों पर पड़ी तो मुझे महसूस हुआ कि ये पाशू, ध्यान, रामपाल, सुच्चा, मेरा बड़ा भाई बिरजू और मैं हूं जिन्हें बापू जैसे लोग सदैव
खिलते हुए देखना चाहते हैं।’’ (पृ.- 67)
‘‘हमारी बिरादरी के गरीब-गुरबे लोगों के होठों पर मुस्कान भादों की एक-आध बौछार की तरह आ जाया करती’’ (पृ.-73)
‘‘कहते हैं न- गांव बसता है, कटड़े को मन दूध का क्या आसरा’’ (पृ.-73) ‘मांओं के सरू के बूटों जैसे बेटे’, ‘ताम्बई माथे पर, आलू वाले खेत की मेड़ों जैसी त्यौरियां’ (पृ.-142) गांव के गीत, कहावतें, मुहावरे व किसानी
जीवन में प्रयोग होने वाले शब्दों में मौलिकता है। गांव के जीवन का ताजगी पूर्ण
वर्णन क्रांतिकारी कवि पाश की याद दिला जाता है, जिसने कविता में
नई जमीन तोड़ी थी।
माधोपुरी ने लिखा
है कि ‘‘लिखते समय कथ्य और शिल्प को अपने ग्रामीण माहौल और सभ्याचार
के अनुरूप रखने के लिए कोई विशेष यत्न’’ नहीं किया, उनकी चेतना में
ग्रामीण जीवन पूरी तरह रचा बसा है। माधोपुरी की कथा-शैली में लोक पूरी तरह से रचा बसा है। लोकजीवन के जीवन्त रूप का वर्णन ‘छांग्या रुक्ख’ को व्यापक फलक प्रदान करता है।
बाजीगरों की कलाबाजियों का सजीव वर्णन, मेलों का चित्रण और गुग्गा के ‘भक्तों’ के चित्रण पूरे जीवन को सामने रख देते हैं। ग्रामीण जीवन की
जीवन्तता, विभिन्न स्तर व वर्गों के साथ उनकी सोच भी प्रकट हो जाती
है। बलबीर माधोपुरी की विशेष बात यही है कि वे किसी न किसी पात्र के जरिये से
वर्चस्ववादी सोच को उद्घाटित कर देते हैं। कला के प्रति भू-स्वामी वर्ग के दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं। ‘‘जब मैं घर पहुंचा
तो बापू मुझे जैसे समझाने लग पड़ा, ‘‘बाजी वाले लड़कों ने देह तोड़कर रख दी, रौनक-मेला करके लोगों का दिल बहला दिया, पर इन जमींदारों ने धेले जितनी कदर नहीं की। कहते हैं - कम्मी-कमीनों का काम ही
सेवा करना और मन बहलाना है। मैं तो कहता हूं भई, हमारे मुल्क में से ये ऊंच-नीच का कलंक बगैर जूती के नहीं मिटने वाला। अगर चार खेत हमारे पास भी हो जाएं तो फिर कौन
पहचाने इन बेकद्रे जमींदारों को! इनकी नफरत भरी
निगाहें पता नहीं कब तक घूर-घूरकर देखती
रहेंगी। मगर जिंदा रहने के लिए ये सब कुछ झेलना पड़ता है। और क्या करें अब? अन्दर ही अन्दर जल-भुनकर रह जाते हैं।’’ (पृ.-82)
बलबीर माधोपुरी
अपने विचारों को सीधे तौर पर व्यक्त करने की गुंजाइश भी पैदा कर लेते हैं और यह
बिल्कुल रचना का हिस्सा बनकर आता है। निम्न जाति का गरीब होने के बावजूद अपने को
उच्च जाति का व अमीर दर्शाते अपने दोस्त के बारे में सोचते हैं। ‘‘मुझे लगा कि समाज की नजरों में जन्म-जात से ऊंचा-सुच्चा होने का
ढोंग करके मेरा वह मित्र कैसे ‘हीनता’ का बोझ ढो रहा है; दोहरी जिन्दगी जीते हुए पल-पल मर रहा है और पल-पल बनावटी जिन्दगी
जी रहा है। मैं सोचता - पिछड़ी जातियों को
अछूत जातियों के साथ मिलकर चलने की जरूरत है। सामाजिक परिवर्तन इंकलाब
का ही दूसरा नाम है। उन शक्तियों को मिलकर चोट पंहुचाए जाने की आवश्यकता है जो
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और स्थितियों को यथावत रखने के लिए हर प्रकार की
कोशिश कर रही हैं।’’ (पृ.-187)
बलबीर माधोपुरी की
‘छांग्या रुक्ख’ दलित साहित्य को नई कलात्मक ऊंचाइयां प्रदान करती है। दलित साहित्य में अश्लीलता और गालियां ढूंढकर उस
जीवन के सामाजिक सत्य पर बात करने से नाक-भौं सिकोडऩे वाले
आलोचकों के लिए यह भी यह अपने मानदण्डों में बदलाव को विवश करेगी और सस्ती
लोकप्रियता हासिल करने के लिए अपने जीवन के अॅबनारमल प्रसंगों से पाटकर उन्हें ही
दलित जीवन का पर्याय बनाने वाले दलित लेखकों के लिए भी एक चुनौती पेश करेगी।
दलित आन्दोलन व चिन्तन के समक्ष भी यह कई सवाल छोड़ती है। दलित-मुक्ति दलितवाद में नहीं, बल्कि समाज के
बृहतर शोषित वर्गों के साथ एकजुट संघर्ष में है। शोषण की धार्मिक वैधता को समाप्त करने के साथ उसके भौतिक आधार पर भी चोट
करना जरूरी है और संपति-संबंधों को बदलने
का संघर्ष ही दलित-मुक्ति का
वास्तविक संघर्ष है।