लोक-रंग की आंच में पकाया हबीब ने अपना रंग-लोक

लोक-रंग की आंच में पकाया हबीब ने अपना रंग-लोकडा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर



हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


रंगमंच की दुनिया में हबीब तनवीर एक ऐसा नाम है जो पिछले साठ साल से कलाकारों में नई स्फूर्ति पैदा करता रहा है और रंगमंच को नई ऊंचाइयां प्रदान करता रहा है। छोटे से कस्बे से अपने कलाकार जीवन की शुरूआत करके बुलन्दियों को छूने वाला उनका व्यक्तित्व ऊर्जा-स्रोत है। हबीब तनवीर के जीवन-संघर्ष की जमीन पर उपलब्धियां भी कम नहीं हैं, जिस पर कोई भी कलाकार गर्व कर सकता है। सन् 1972 से 78 तक राज्य सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत हुए, 1983 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अंलकृत किया गया, 1982 में एडिनबरा में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में महोत्सव समाप्त होने से पहले ही निर्णायक समिति ने प्रथम पुरस्कार की घोषणा की, 2006 में भारत सरकार द्वारानैशलन प्रोफेसरके पद से सम्मानित किया। इसके अलावा अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं और राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला से विशिष्ट पहचान बनाई है। 8 जून, 2009 को इस महान कलाकार की आवाज हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गई, लेकिन कलात्मक मूल्यों के संघर्ष में हबीब तनवीर का सादगीपूर्ण जीवन कलाकारों को प्रेरणा देता रहेगा।
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर, 1923 को छतीस गढ़ की राजधानी रायपुर में हुआ। इनका नाम हबीब अहमद खान था, शायरी करते हुए इन्होंने अपना नाम हबीब तनवीर रख लिया। ये हाफिज़ मोहम्मद हयात खान के दूसरे बेटे थे। हबीब के पिता पेशावर से आकर रायपुर में बसे थे और हबीब की मां रायपुर की थी। परिवार के परिवेश का किसी भी व्यक्ति या कलाकार के व्यक्तित्व के विकास में खास योगदान होता है। इनके पिता कुरान और नमाज़ को सबसे अधिक अहमियत देने वाले पक्के मज़हबी व्यक्ति थे, जो नाटक, संगीत और नृत्य को बेकार की चीज ही नहीं, बल्कि मज़हब के खि़लाफ़ भी मानते थे। दूसरी तरफ इनके एक मामा तो शास्त्रीय संगीत के अच्छे गायक थे और दूसरे शायर। इनके बड़े भाई को नाटकों में अभिनय करने का शौक था और विशेष बात यह है कि वे स्त्रियों की भूमिकाएं करते थे। हबीब तनवीर ने अपनी आत्मकथा लाइफ इन थियेटरमें विस्तार से बताया है कि वे बचपन में चोरी छिपे नाटक, सिनेमा देखने जाते थे और पात्रों के दर्द-पीड़ा देखकर रोया करते थे। बचपन में ही दर्शक और अभिनेता की सहभागिता का रिश्ता पहचान रहे थे, जिसने बाद में उनको जरूर ही असर डाला होगा। स्कूल में नाटकों में भाग लिया।
रायपुर में उस समय तक कोई कालेज नहीं था। नागपुर के मोरिस कालेज से बी. . करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एम.. उर्दू में दाखिला ले लिया, लेकिन एम.. करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे फिल्मों में अपना कैरियर आजमाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने विभिन्न मुद्राओं में फोटो खिंचवा कर बम्बई के कई प्रोड्यूसरों को भिजवाए भी, लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली।
एक सामान्य व्यक्ति की तरह वे अपने कैरियर के बारे में असमंजस में थे, रोजगार का संकट भी उनके सामने था। जलसेना अफसर की परीक्षा पास हो गई लेकिन अन्तिम परीक्षा में रह गए। असल में नदी पर पुल बनाने का सारा सामान देकर इनको निर्धरित समय में पुल पार करने के लिए कहा गया और इन्होंने वह समय सोचने में ही लगा दिया कि पुल कैसे बनाया जाये और वे जलसेना अफसर बनने से बच गए। हबीब तनवीर किसी भी काम में जल्दी नहीं करते थे, वे खूब सोच विचार करके ही कोई काम करते थे। उनके इस स्वभाव ने उनको जलसेना का अधिकारी होने में तो कोई मदद नहीं की, लेकिन एक नाटककार संस्कृतिकर्मी के तौर उनका यह धैर्य बहुत काम आया। जीवन में संकट के पलों में इसी वजह से टिक पाए। उनके इस धैर्य के कारण लोग उनको सनकी और जिद्दी कहते थे, लेकिन जो रचनात्मक और मौलिक काम उन्होंने किया शायद उसके लिए यह सुनना पड़ता है।
हबीब तनवीर जलसेना की परीक्षा देने गए तो वापस नहीं लौटे और बम्बई को ही अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। इसके लिए उनको कुछ कष्ट भी उठाने पड़े, लेकिन यह समय ज्यादा लम्बा नहीं था। उन्हें जल्दी ही फिल्मों में काम मिलने लगा। अंग्रेजी के उपन्यास पर बनी फिल्म की समीक्षा कर रहे थे तो उनकी सटीक और बेबाक टिप्पणी सुनकर किसी व्यक्ति ने फिल्मों में काम करने के लिए आंमत्रित किया। यद्यपि यह फिल्म कभी पर्दे पर नहीं आई, लेकिन हबीब को बम्बई में पैर रखने की जगह मिल गई थी। गोला-बारूद की फैक्टरी के मालिक मोहम्मद ताहिर से हबीब तनवीर की मुलाकात हुई। ताहिर साहब को शायरी का शौक था। उन्होंने हबीब तनवीर को मुशायरा करवाने के लिए सचिव के तौर पर रख लिया। हबीब तनवीर का दायरा बढऩे लगा, वे मुशायरों में जाने लगे और शायरी में उन्होंने अच्छा नाम कमाया।
इसी दौरान इनकी मुलाकात ऑल इण्डिया रेडियो, बम्बई के निदेशक जेड. . बुखारी से हुई, जो स्वयं नई नई प्रतिभाओं की तलाश में रहते थे। हबीब तनवीर की फिल्म समीक्षाओं ने उनको प्रसिद्धि दिला दी थी। फिल्म इण्डिया के संपादक बाबू राव पटेल ने इनकी सटीक बेबाक टिप्पणियों से प्रभावित होकर सीनियर एसिस्टेंट एडीटर के तौर पर रख लिया। फिल्म इण्डिया में रहते हुए कई फिल्मों में काम किया। ख्वाजा अहमद अब्बास कीराही’, ‘दिया जले सारी रात’, ‘आकाशशान्ताराम बेडेकर की फिल्मलोकमान्य तिलक’, जिया सरहदी कीफुटपाथ’, ‘एस. के. ओझा कीनाज’, ‘इजरा मीर कीबीते दिनमें प्रमुख भूमिकाओं में उतरे। इस तरह हबीब तनवीर का एक बहुआयामी व्यक्तित्व के तौर पर उभर रहे थे।
उन दिनों बम्बई शहर मजदूर आन्दोलन का बहुत बड़ा केन्द्र था। सांस्कृतिक आन्दोलन भी बम्बई में व्यापक तौर पर था, जो पूरे देश को दिशा दे रहा था। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोसियेसन) के माध्यम से देश के बेहतरीन कलाकार और संस्कृतिकर्मी आन्दोलन सक्रिय थे और अपनी कला को सामाजिक सरोकारों के लिए प्रयोग कर रहे थे। अली सरदार जाफरी, सज्जाद जहीर प्रगतिशील लेखक संघ में थे तो बलराज साहनी, दीना पाठक, मोहन सहगल इप्टा में थे। हबीब तनवीर ने इप्टा के नाटकों में काम किया।
हबीब तनवीर का नाटक के प्रति समर्पण लगाव कोइप्टाके दौरान घटी घटना से अनुमान लगाया जा सकता है। 1948 मेंइप्टाके इलाहाबाद सम्मेलन में जो नाटक प्रस्तुत होना था, उसमें हबीब तनवीर बुढ्ढे की भूमिका कर रहे थे। गोली लगने से बेटे के मर जाने पर विलाप करते हुए हबीब तनवीर की भूमिका से बलराज साहनी संतुष्ट नहीं थे। हबीब तनवीर ने उस घटना का जिक्र करते हुए बताया कि ‘‘रात दो बजे तक रिहर्सल होता रहा। बलराज मेरे पीछे पड़े थे कि मैं बुड्ढा ठीक से नहीं बन पा रहा था। खासतौर पर बेटे के मरने पर मेरा बहुत बनावटी लग रहा था। मुझसे हो ही नहीं रहा था कि बलराज ने मुझे जोर का एक तमाचा लगाया। गाल पर पांचों उंगलियां उभर आईं। बोले - ‘अब रोओ और बोलो रोना तो ही गया था, रोते रोते डायलाग बोला। डॉयलाग खत्म होने पर, उन्होंने मुझे लिपटा लिया और बोले - ‘अब तुम ठीक से रो सकोगे। वर्ना तुम्हारा रोना इस कदर बनावटी हो रहा था कि मेरे पास और कोई उपाय नहीं था। मैंने तुम्हें गुस्से में नहीं मारा था, जानबूझकर मारा था। तुम्हें रोना नहीं रहा था। तुम्हें एक ऐसे तजुर्बे की जरूरत थी, जिसे याद करके तुम रो सकते, उस तजुर्बे को हूबहू उतार सकते, रिप्रोड्यूस कर सकते। मैंने तुम्हें ये तजुर्बा कराया। स्तानिस्लाव्स्की ने याददाश्त के सिलसिले में मस्क्यूलर मैमोरी की बात कही है। मैं उन सब बातों पर बहुत विश्वास नहीं करता, लेकिन तुम्हारे साथ यह तरीका आजमाने के सिवा और कोई उपाय नहीं था।’’
राजनीतिक परिस्थितियों के कारण तथाइप्टाका स्वतंत्र कार्यक्रम होने के कारण आन्दोलन बिखर गया तो इसमें काम करने वाले अधिकतर लोग फिल्मों में काम करने लगे। कोई अभिनेता बन गया, तो कोई गीत लिखने लगा, कोई पटकथा लिखने लगा, लेकिन हबीब तनवीर बम्बई छोड़कर दिल्ली गए। हबीब तनवीर फिल्मों में काम कर चुके थे और चाहते तो अच्छे जम सकते थे। नाटक के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ही थी जो उनको फिल्मी दुनिया का ग्लैमर सुविधाएं छोड़कर सामाजिक सरोकारों के रंगमंच में ले आई। अधिकाधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की क्षमता के कारण वे फिल्म माध्यम की ओर आर्कषित हुए थे, लेकिन व्यावसायिकता और तकनीक उनके सामाजिक सरोकारों में कोई मदद नहीं कर पाई। फिल्मों को छोडऩे एक कारण यह भी था कि फिल्म में श्रोताओं-दर्शकों से जीवन्त संबंध नहीं बनता, जो शायर तथा रंगमंच के कलाकार अपने दर्शकों और श्रोताओं से होता है। जिस कलाकार के सामाजिक सरोकार हों उसे दर्शकों-श्रोताओं की जीवन्त प्रतिक्रिया प्रोत्साहित करती है।
इप्टाके नाटकों में काम करने से हबीब तनवीर को एक दृष्टि मिली और अपने नाटक की मौलिक शैली निर्मित करने के सूत्र भी यहीं से मिले।इप्टाके नाटकों का मकसद सामाजिक जागृति थी, इसलिए संदेश की संप्रेषणीयता पर विशेष जोर रहता था और जनता से जुड़ाव के नए नए तरीके खोजे जाते थे। जनता से जुडऩे वाली कला जनता में मौजूद कला रूपों से मुंह नहीं मोड़ सकती।इप्टाके नाटकों की प्रभावशाली प्रस्तुति का कारण लोक रूपों का बहुत प्रयोग था। बम्बई में विभिन्न प्रदेशों के कलाकार थे और वे अपने अपने प्रदेशों की लोक शैलियों को प्रस्तुत करते थे। हबीब तनवीर को विभिन्न लोक शैलियों को सीखने जानने का मौका यहीं मिला। यहीं से भारतीय कला को विकसित करने का बीज अंकुरित हुआ, जिसे उन्होंने अपने ज्ञान, अनुभव, संघर्ष प्रतिबद्धता से एक मुकम्मल विचार की शक्ल दी।
नाटक की दुनिया में केवल सिद्धांत गढऩे से ही बात नहीं बनती, बल्कि उनको व्याहारिक तौर पर कार्यरूप देना होता है। हबीब तनवीर उनके सिद्धांत को नाटक की दुनिया में गम्भीरता से लिया जाने लगा जनकवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटकआगरा बाजारकी प्रस्तुति के बाद। इस प्रस्तुति ने केवल हबीब के आलोचकों को चुप करा दिया था, बल्कि हबीब तनवीर को भी अपने सिद्धांतों के प्रति आश्वस्त किया था। रंगमंच की रूढिय़ों को तोड़ते मंच के उन्मुक्त एवं सहज वातावरण ने दर्शक से सीधा संपर्क स्थापित किया। भारतीय नाट्यशास्त्र की जकड़बन्दी तथा पश्चिमी रंगमंच की नकल से दबे रंगमंच ने खुली सांस ली थी। नजीर अकबराबादी स्वयं मेले-ठेलों के जन कवि थे और उनकी सच्ची भावना को ऐसे ही प्रस्तुत किया जा सकता था।आगरा बाजारनाटक उन्होंने जामिया मिलिया के विद्यार्थियों के साथ शुरू किया था, लेकिन वे इससे संतुष्ट नहीं थे और इन्होंने ओखला गांव के बच्चों को इसमें कलाकार के तौर पर जोड़ा और तभी यह प्रस्तुति जीवन्त हुई थी।
हबीब तनवीर कीआगरा बाजारप्रस्तुति को देखकर आभिजात्य आदर्शवादी महिला कुदसिया जैदी बहुत प्रभावित हुई। वे स्वयं भी भारतीय रंगमंच के लिए कुछ मौलिक करना चाहती थी। उन्होंने हबीब तनवीर को अपनी संस्थाहिन्दुस्तानी थियेटरके निर्देशक के पद पर कार्य करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे हबीब तनवीर ने स्वीकार भी कर लिया। इसी दौरान ब्रिटिश कौंसिल की ओर से लंदन स्थितरॉयल अकेडमी ऑफ ड्रैमेटिक आर्टसमें अध्ययन के लिए स्कॉलरशिप मिली। दो वर्ष बाद निर्देशक पद संभालने के लिए श्रीमती जैदी ने प्रस्ताव रखा तो उन्होंने दो शर्तों के साथ स्वीकार किया। जिसमें पहली शर्त तो संस्कृत विदेशी भाषाओं के 12 नाटकों के अनुवाद थे औरहिन्दुस्तानी थियेटरके लिए एक लाख पचास हजार रुपए का इन्तजाम ताकि शुरूआती दौर में धन की कमी हो।1 दो साल के बाद भी हबीब तनवीर भारत नहीं आए तो श्रीमती जैदी ने मोनिका मिश्र को निर्देशक के तौर पर रख लिया। जो स्वयं काफी अच्छी निर्देशक थी और थियेटर की समझ रखती थी। कालिदास केशकुन्तलानाटक की प्रभावी प्रस्तुति भी की। हबीब तनवीर भारत आए तो श्रीमती जैदी उन्हें निर्देशक के पद पर रख लिया। अपनी नौकरी छूटने के कारण मोनिका मिश्र के मन में हबीब तनबीर के प्रति गुस्सा था। बाद में इन्हीं मोनिका मिश्र के साथ 1961 में हबीब तनवीर की शादी हुई। मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर ने मिलकरनया थियेटरनाम से नाटक करना आरम्भ किया। पैसे की तंगी के कारण हबीब तनवीर फिल्मों की समीक्षा अखबारों में लिखते थे, लेकिन नाटक को उन्होंने नहीं छोड़ा।नया थियेटरख्याति प्राप्त करने लगा तो मोनिका तनवीर ही सारा प्रबन्ध देखती थी।2
हबीब तनवीर के काम में विविधता व्यापकता थी। इन्होंने संस्कृत यूरोपीय भाषाओं के कालजयी नाटकों पर विभिन्न संस्थाओं के लिए काम किया, बच्चों के लिए भी काम किया। स्वयं छोटी-छोटी भूमिकाएं भी करते थे और नाटक के केन्द्रीय चरित्र भी। उन्होंने अपने जीवन में एक सौ पचास से ज्यादा नाटकों का निर्देशन-मंचन किया, जिनमेंआगरा बाजार’, ‘फांसी’, रुस्तम--सोहराब’, ‘मेरे बाद’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘गौरी-गौरा’, ‘गांव का नाम ससुराल मोर नाम दमाद’, ‘चरणदास चोर’, ‘शाजापुर की शांताबाई’, ‘बहादुर क्लारिन’, ‘लाला शोहरत राय’, ‘देख रहे हैं नैन’, ‘कामदेव का अपना वंसत ऋतु का सपना’, ‘सुन बहरी’, ‘मुद्राराक्षस’, ‘उत्तर रामचरित’, वेणी संहार’, ‘दुश्मन’, ‘जिस लाहौर नहिं वेख्या वो जम्या ही नहींप्रमुख हैं।
हबीब तनवीर समय की सच्चाई से जुड़े रहते हैं फिर कथा चाहे लोक से उठाई गई हो या इतिहास से, नाटक का संदर्भ चाहे देशी हो या विदेशी। नजीर अकबराबादी के जीवन पर केन्द्रितआगरा बाजारनजीर के जीवन व्यक्तित्व को तो उभारता ही है, साथ ही हमारे समय की मंदी को भी उभारता है कि बाजार में कुछ भी बिक नहीं रहा है। इसी तरह से रोमन सल्तनत के अस्कंदरिया प्रदेश की चौथी सदी के आखिर और पांचवी सदी के आरम्भ की घटनाओं को केन्द्रित करताएक औरत हिपेशिया भी थीनाटक भारत में पनप रहे फासीवादी रुझानों को रेखांकित करता है। कोई भी नाटक हो वर्तमान जगत के किसी विशेष पहलू को गहराई से विश्लेषित करता है। इनके नाटकों में एक जीवन्त बहस विद्यमान है, जो विभिन्न पक्षों के अन्तर्विरोधों को उजागर करती है।
हबीब तनवीर के हर नाटक की अपनी उपलब्धि रही है और प्रयोग किये हैं, लेकिन उनको ख्याति मिलीआगरा बाजार’, ‘मोर नाम दामाद, गांव का नाम ससुराल’, ‘चरणदास चोर’, ‘पोंगा पंडितसे। इन नाटकों की शक्ति लोक तत्त्व का प्रयोग ही है। हबीब तनवीर ने अपने नाटकों के लेखन प्रस्तुतिकरण में लोक कथाओं को वर्तमान स्थितियों में प्रासंगिक बनाया और लोक में प्रचलित कलाओं को रंगमंच पर प्रस्तुत किया। हबीब तनवीर को लोक जीवन का गहरा ज्ञान था, लोक में विभिन्न अवसरों पर गीत-नृत्य का प्रयोग होता है। चाहे वह कोई धार्मिक उत्सव हो या फिर सांस्कृतिक उत्सव। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के जितने भी सामूहिक कार्य हैं लय, संगीत, गीत के बिना पूरे नहीं होते। हबीब ने अपने रंग-दर्शन, निर्देशन लेखन में लोक जीवन की संगीत-नृत्यात्मक सहज अनौपचारिक प्रस्तुतियों की शक्ति का खूब प्रयोग किया। असल में यह विशिष्टता ही रंग-जगत में उनकी अलग पहचान बनाती है। संगीता गुंदेचा ने हबीब तनवीर के बारे में सही कहा है कि ‘‘पंडित कुमार गंधर्व की तरह ही हबीब तनवीर उन बिरले समकालीन कलाकारों में हैं, जिन्होंने भारतीय लोक और शास्त्रीय संस्कृतियों के बीच एक सहज नैरंतर्य को चरितार्थ किया।’’3
रंगमंच की दुनिया में हबीब तनवीर की पहचान ऐसे सख्स की है, जिसने आंचलिक शैलियों को, विषयों को, कलाकारों को प्रमुखता दी। उनका मानना था कि वर्तमान शिक्षा पद्धति मनुष्य की स्वाभाविक कला को समाप्त करती है। भारतीय कला की जड़ें गांव-देहातों और कस्बों में हैं, जिसे विकसित किया जाना चाहिए। उनका ये विचार रंगमंच के अनुभव से निरन्तर पक्का होता गया। वे अपने रंगमंच के अनुभव को बताते हुए अपने भाषणों और बातचीत में अक्सर कहा करते थे कि कलाकारों को चुनते वक्त वे उनको सबसे उपयुक्त पाते हैं, जो महानगरों से दूर और आधुनिक शिक्षा पद्धति से दूर हैं। उनकी मंडली में गांव-देहातों के आदिवासी और आम लोग थे, जिन्होंने किसी उच्च संस्थानों से प्रशिक्षण नहीं लिया था।
हबीब तनवीर गांव-देहात के कम-पढ़े लिखे लोगों को कलाकारों के साथ सफल प्रस्तुतियां रंगमंच की आभिजात्यता को चिढ़ाती थी। हबीब तनवीर को आभिजात्य रंगमंच की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा और इनका जबाव देते हुए ही उन्होंने एक रंगकर्मी के तौर पर अपना स्थान बनाया। आभिजात्यता ने हिन्दी रंगमंच का गला घोंट रखा था। एक ओर तो संस्कृत नाट्य शास्त्र की जकड़बन्दी का पक्षधर वर्ग था, जो शास्त्रीय नियमों और पद्धति यों में बदलाव को केवल नाट्यशास्त्र से छेड़छाड़ समझता था, बल्कि इसे भारतीय संस्कृति की विरोधी भी मानता था। दूसरी तरफ यह पाश्चात्य नाट्य-सिद्धातों की नकल अंधानुकरण था। ये दोनों देखने में परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन दोनों ही आभिजात्यता वैधता प्रदान करके लोक कलाओं और नए प्रयोगों के प्रति शंकालु थे। हबीब तनवीर का दोनों तरफ से ही विरोध हुआ। कभी उनके सिद्धातों को अव्यवहारिक करार दिया गया तो कभी उसकी सीमित उपयोगिता कहकर खारिज करने की कोशिश की। हबीब तनवीर ने आंचलिकता में ही अपने मौलिक मुहावरे को तलाशने की कोशिश की। उन्होंने लिखा कि ‘‘मैं मुद्दतों पहले यकीन की हद तक इस नतीजे पर पहुंच गया था कि थिएटर में अगर किसी और कल्चर की नकल की झलक है, तो वह असली थिएटर नहीं है। थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर है, थिएटर के सारे लवाजमात तत्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मजा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन हम ऐसा थिएटर खुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे। यानी थिएटर में इलाकाइयत(आंचलिकता) का दामन छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुंचना कामयाब थिएटर की कुंजी है।’’4
हबीब तनवीर का सिद्धांत असल में रंगमंच की दुनिया में कस्बाई-देहाती और महानगरीय अभिरुचियों और मान्यताओं की टकराहट के बीच से विकसित हुआ है। महानगरों में आंचलिक शैलियों के नाटक करने के औचित्य बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘इन आंचलिक मुहावरे के नाटकों को दिल्ली जैसी जगहों में प्रस्तुत करने का एक मकसद तो यह है कि मैं इस तथाकथित सभ्य समाज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूं। उन्हें एक ऐसे अहसास से परिचित कराना चाहता हूं जो अत्यन्त खरा, अधिक ऊर्जावान और जीवन्त है। उन्हें खुलकर हंसने के लिए मैं गुदगुदाना चाहता हूं, रुलाना चाहता हूं। जिसके वे अभ्यस्त नहीं हैं। उनका एक ऐसी अभिन्न पद्धति से साक्षात्कार कराना चाहता हूं जो पूरी तरह से अनौपचारिक है। अभिनय के सौन्दर्य-शास्त्र के अन्तर्गत सीमाबद्ध रहकर ऐसे हास्य से अभिमुख कराना चाहता हूं, जो असीम है।’’5
हबीब तनवीर ने अपने विचारों पर दृढ़ रहे और अपने स्वभाव के अनुसार लगातार जूझते रहे। ऐसा नहीं है कि उनके सामने कोई दिक्कत नहीं आई, बल्कि इन दिक्कतों से उन्होंने लगातार सीखा। अभिनेता की पृष्ठभूमि नाटक के प्रस्तुतिकरण को गहरे से प्रभावित करती है। उन्होंने पाया कि महानगरीय जीवन में रचा-बसा इस जीवन की मान्यताओं-धारणाओं को सहेजने वाला कलाकार सुदूर आदिवासी, दलितों की पीड़ा को प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है। आदिवासी जीवन पर आधारित नाटकहिरमा की अमर कहानीनाटक में उन्होंने महसूस किया। महानगरीय कलाकार आदिवासी संस्कृति को पिछड़ा समझता है, इसलिए वह उसके सकारात्मक पक्षों को, उसके जीवन के खुलेपन को व्यक्त ही नहीं कर पाता। दूसरी ओर उन्मुक्त जीवन के अभ्यस्त आदिवासी कलाकार बंधे-बंधाए महानगरीय जीवन को स्टेज पर प्रस्तुत करने में असमर्थ पाते हैं।
हबीब तनवीर का मानना था कि देहाती वंचित, शोषित लोगों के जीवन को उसी अंचल के कलाकार इसीलिए कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें व्यावसायिक कला रूपों ने प्रभावित नहीं किया होता। उनकी यह बात एक हद सही थी, लेकिन अब जिस तरह से मीडिया का विस्तार हुआ है और संस्कृति एक उद्योग का रूप धारण कर रही है जिसका कला रूपों पर प्रभाव पड़ रहा है। लोक कलाओं को व्यावसायिक हितों के लिए प्रयोग करके उसके रूप को विकृत किया जा रहा है। ऐसे कलाकारों का मिलना शायद ही संभव हो जो कि मीडिया से अप्रभावित रहे हों।
लोक कला कोफैशनके तौर पर प्रयोग करना बिल्कुल अलग बात है और उसेपैशनके रूप में अपनाना बिल्कुल दूसरी। फैशन के लिए किसी खोजबीन मेहनत की विशेष आवश्यकता नहीं है, लेकिन पैशन के लिए स्वयं को खपाना पड़ता है। अपने मुहावरे को विकसित करने और उसकी शक्ति को सिद्ध करने के लिए हबीब तनवीर ने भवभूति, शूद्रक, विशाखादत्त, कालिदास आदि संस्कृत महान नाटककारों के नाटकों को अपनी शैली में प्रस्तुत किया, तो मौलियर, शेक्सपीयर, ब्रेख्त आदि विदेशी नाटककारों के नाटकों की सफल प्रस्तुतियां की। वे शास्त्रीय रंगमंच और लोक रंगमंच में विरोध नहीं, बल्कि नैरंतर्य देखते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं सन् अट्ठाावन से चीख-चीखकर कह रहा हूं कि इन दोनों( शास्त्रीय और लोक रंगमंच) में कोई अन्तर नहीं है। चुनांचे हमारे नाटकों की लोकप्रथा में तमाम वे ही बुनियादी चीजें हैं, जिन्हें हम शास्त्रीय कहते हैं। शास्त्रीय का विशाल ढांचा तो एक अलग चीज है, लेकिन जो दार्शनिक अन्तर्दृष्टि है, रंगाकाश के बारे में या अहंकार के बारे में, वो दोनों में मौजूद है। तो नैरंतर्य तो है इसीलिए हम लोक कलाकारों के साथ शास्त्रीय नाटक कर सके और लोककथाओं पर आधारित लोकप्रधान नाटक भी।
नागरिक कलाकार और लोक कलाकारों में फर्क यही है कि लोक कलाकार बहुआयामी होता है। वो छोटे से छोटा रोल कर लेता है। मसलन् ठाकुरराम और मदनलाल चांडाल, पुलिस, कोतवाल की भूमिका निभाते हुए मंच पर आकर दृश्य लूट लेते थे। स्तानिस्लाव्हस्की कहता है किभूमिकाएं छोटी नहीं होती, अभिनेता छोटे हो सकते हैंस्तानिस्लाव्हस्की को पढ़े बगैर ये लोग इन बातों को जानते हैं। ब्रेख्त का नाम तक पता नहीं। स्तानिस्लाव्हस्की या ब्रेख्त का अभिनय की कला के विश्लेषण का जो तरीका है वो इन चीजों को स्वाभाविक रूप से जानता है, उसको एलिएनेशन थ्योरी पढऩे की जरूरत नहीं होती।’’6
हबीब तनवीर ने अपने नाटकों रंगकर्म में लोक-शैलियों लोक-भाषा का बहुत प्रयोग किया, लेकिन उनको लोक-चेतना का कलाकार नहीं कहा जा सकता। अपनी परम्परा और लोक के प्रति उनका आलोचनात्मक रुख था। लोक परम्परा के प्रति अतिरिक्त सचेत थे, इसीलिए उनके नाटक लोक-नाटकों की सीमाओं से ग्रस्त नहीं हैं। केवल टाइम-काटू मनोरंजन उनका मकसद नहीं हैं। लोक के पक्षधर होते हुए भी लोकवाद को उन्होंने कभी महिमामंडित नहीं किया। लोक तत्त्वों का अतिरिक्त सावधानीपूर्वक प्रयोग उनके नाटकों के गीतों में सर्वाधिक मुखर है।चरन दास चोरकेएक चोर ने रंग जमाया...चोरी ही उसका नसीब था, पैसे वाला था गरीब थागीत में लोक-सुलभ भाग्यवाद का लेश मात्र भी नहीं है। चेतना के स्तर पर नाटक आधुनिक प्रगतिशील हैं, उन्हें लोक चेतना के संवाहक नहीं कहा जा सकता। यह चेतना का सूत्र ही है, जिसके जरिये देश-विदेश लोग इनके नाटकों से जुड़ाव महसूस करते हैं।
हबीब तनवीर नाटकों की प्रस्तुति और लेखन में अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने हंसी को अपने नाटकों की प्रस्तुति का मुख्य सूत्र बनाया। आमतौर पर सामाजिक सरोकारों के नाटकों से हंसी या गायब होती है या फिर उसे सिर्फ एक फार्मूले के तौर पर डाला जाता है। हास्य यहां सैद्धांतिक सवाल के तौर पर नहीं आती। नाटक की बुनावट में नहीं होती और नाटक दर्शक के लिए सजा बन जाते हैं। हबीब तनवीर के नाटकों में हास्य उसके केन्द्र में है। हास्य और गम्भीरता दोनों को वे साथ साथ साधते हैं। उनके नाटकों में तो दर्शक बोरियत महसूस करता है और ही बौद्धिक आतंक से दबता है। बड़ी सहजता से जीवन के अंग के तौर पर नाटक आता है और नाटक का प्रभाव स्थायी होता है। जैसे अनौपचारिक रंगमंच की उन्होंने कल्पना की, उसमें हास्य महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हास्य की दर्शक का उन्मुक्त करता है। यदि दर्शक में उन्मुक्तता का भाव पैदा करना है तो सबसे पहले मंच को, पात्रों को रूढिय़ों से उन्मुक्त करना होगा। इनके नाटकों में चार्ली चैप्लिन की सी सहजता है और चरित्रों के वर्गीय विशेषताओं को उजागर करते हुए उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होती है। हास्य मानव की विशेषता है, जो उसमें आन्तरिक शक्ति जगाकर आत्मविश्वास पैदा करती है और इसी से राजसत्ताएं खौफ खाती हैं। कथित जातिगत-धार्मिक श्रेष्ठता के दावों के खोखलेपन को हास्य उजागर कर देता है।
हबीब तनवीर के नाटक दर्शक को केन्द्र में रखते हैं। दर्शकों के प्रति वे बेपरवाह नहीं हैं। दर्शकों की रुचियों में विविधता होती है। सफल नाटककार-रंगकर्मी वही है, जिसके कार्य में विविध रुचियों को संतुष्ट करने की गुंजाइश हो। हबीब तनवीर अपने नाटकों में पूरा ख्याल रखते थे। इसीलिए उनके नाटकों में गीत-संगीत नृत्य का बहुत प्रयोग मिलता है। दर्शकों से जीवन्त रिश्ता बनाने के तरीके वे किताबों के साथ साथ अपने अनुभव से सीखते थे, सीखने के लिए वे किसी से भी तैयार रहते थे। ‘‘हरियाणा की स्वांग वर्कशाप में एक गांव के आदमी ने मुझसे एक बहुत पते की बात कही थी। उसने कहा था ‘‘साब! दर्शक तीन प्रकार के होते हैं : सुर-मस्त, ताल-मस्त और हाल-मस्त। सुर-मस्त वह जो गाना सुनने आते हैं, और गाने वाला चाहे बेताला हो, अगर सुरीला है तो वह जमे रहेंगे। ताल-मस्त वह, जो ताल पर झूमते हैं, गाने वाला चाहे कितना ही बेसुरा हो, कनसुरा हो, लेकिन अगर ताल में है तो टलेंगे नहीं, सुनते रहेंगे। तीसरा हाल-मस्त! ऐसा आदमी नशे में झूमता हुआ आता है, और चाहता है कि रात भर कुछ--कुछ हंगामा होता रहे। उसे इससे मतलब नहीं कि गवैया बेसुरा है या बेताला है। उसे महफिल चाहिए जो जमी रहे। वह जब तक जमी रहे, वह भी जमा है। वह उखड़ी, तो वह भी उखड़ा।’’7
हबीब तनवीर पर बे्रख्त के प्रभाव को बताया जाता है। हबीब तनवीर ने दुनिया में रंगमंच की जितनी पद्धतियां थी उन सब का अध्ययन किया था और उनका प्रभाव भी उन पर स्वाभाविक है, लेकिन उन्होंने विशुद्ध भारतीय मुहावरा विकसित किया। वे बे्रख्त से प्रभावित थे, उनके कई नाटक भी उन्होंने किए। वे अक्सर बताते थे कि वे ब्रेख्त से मिलने के लिए जर्मनी गए तो बर्लिन में ही उनके पैसे खत्म हो गए। उन्होंने अपनी छतीसगढ़ी कला का प्रदर्शन करके कुछ धन जमा किया और ब्रेख्त के ठिकाने पर पहुंचे तो वे दुनिया से हमेशा के लिए चले गए थे। ब्रेख्त और हबीब तनवीर के रंग दर्शन में काफी समानताएं हैं। ब्रेख्त ने भी नाटक में राजनीति से परहेज नहीं किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नाजी सत्ता का विरोध किया तो हबीब तनवीर ने भी साम्प्रदायिक फासीवाद की विचारधारा का लगातार विरोध किया। नाटक की कला को बचाए रखते हुए राजनीतिक सवालों को नाटक में उठाया।
हबीब तनवीर संप्रेषण के लिए लगातार संघर्ष करते थे। ‘‘लेखक का यही संघर्ष रहता है कि वह भाषा का किस तरह इस्तेमाल करे कि उसके वही मायने निकले जो वह कहना चाहता है ताकि संप्रेषण एक हद तक सही रहे। यह एक अलग प्रश्न है कि इसके बावजूद श्रोता और दर्शक अपनी कल्पना से उसमें कोई मानी-मतलब ढूंढ लें। जैसा कि चित्र में भी होता है और कविता में भी। यह सब ठीक है लेकिन सर्जक की कोशिश यही होती है कि मानी को जकड़े ... मेरे ख्याल से सब अच्छे कलाकारों की कोशिश यह होती है कि बहुत साफ तरीके से बात की जाए। कलाकार का सारा संघर्ष इस बात के लिए होता है कि ज्यादा-से-ज्यादा सफाई के साथ वह अपनी चीज को पेश कर सके। साफ का अर्थ यह नहीं कि आपने अपने दर्शकों को सब कुछ तश्तरी में रखकर पेश कर दिया कि आइए खा लीजिए। सफाई का अर्थ यह है कि कोई उलझाव, गुंजलक किस्म का, कोहरे जैसा रह जाए। कुछ लोग शायद सोचते होंगे कि ये कला है लेकिन सफाई से कहने का यह अर्थ नहीं है कि बात का कोई पहलू हो, उसकी अनुगूंजें हों।’’8
मंच की सादगी सामूहिकता कार्यकलापों में हबीब तनवीर के नाटकों की सफलता का रहस्य छुपा है। मंच पर पूरी गहमा-गहमी, चहल-पहल का उत्सवनुमा माहौल इनके नाटकों में होता है। वे ऐसे दृश्य रचते हैं, जिनमें चहल-पहल की गुंजाइश हो। मसलन् बाजार का दृश्य उनका पंसदीदा दृश्य है। किसी--किसी बहाने से वे इसे यहां ले आते हैं। एक साथ विभिन्न किस्म के कार्यकलाप चलते रह सकते हैं और लटके-झटकों की भी पूरी संभावना है, जो दर्शक को बांधने के लिए रामबाण होते हैं। शायद ही किसी नाटक में कोई पात्र मंच पर अकेला हो और आभिजात्य नाटकों के पात्रों की तरह अकेला ही लम्बे-लम्बे संवाद बोलकर अपने मन के असमंजस, द्वन्द्व नैतिक संकट को दर्शकों के समक्ष खोलता हो। निहायत व्यक्तिगत किस्म की भावनाओं विचारों को उजागर करने के लिए भी वे विमर्श की टेक्नीक अपनाते हैं। परस्पर विरोधी भावों को प्रस्तुत करने के लिए भी इसका सहारा लेते हैं।
हबीब तनवीर एक खोजी नाटककार हैं, जो दूर-दराज के उपेक्षित चरित्रों घटनाओं पर नाटकों की रचना करते हैं। नाटक का यह कथ्य दर्शकों-पाठकों की दृष्टि ज्ञान में विस्तार तो करता ही है, उनमें जिज्ञासा भी बनाए रखता है। ऐसे अपरिचित संसार से संपर्क दर्शक-पाठक को चमत्कृत भी करता है। कल्पनाशील फिल्मकार राजकपूर की तरह हबीब तनवीर ने समाज की घृणा पूर्वाग्रहों से ग्रसित चरित्रों के जीवन के ऐसे मार्मिक मानवीय पक्षों को प्रस्तुत किया है कि वे सहानुभूति संवेदना प्राप्त करते हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि एक चोर इतना सच्चा इमानदार हो सकता है और सच्चाई के लिए सत्ता के समस्त ऐश्वर्यों को ठुकरा सकता है या शराब बेचने वालीक्लारिनअपनी ममता नैतिकता में से नैतिकता को तरजीह देगी।
हबीब तनवीर अपने उम्र के आखिरी पड़ाव तक नाटक की दुनिया में सक्रिय थे। उनकी आवाज उतनी ही कड़क और असरदार थी जितनी कि पचास वर्ष पहले थी। भारतीय रंगमंच को ऐसे समय पर आक्सीजन दी जब वह आभिजात्य अभिरुचियों में कदमताल कर रहा था। हबीब तनवीर को रंगमंच में योगदान के लिए हमेशा हमेशा के लिए याद किया जाएगा। देहात-कस्बों की कला और कलाकार उनके कार्य और जीवन से प्रेरणा लेते रहेंगें।

संदर्भ:
1 भारतरत्न भार्गव; रंग हबीब: हबीब तनवीर की रंग यात्रा; राष्ट्रीय विद्यालय, नई दिल्ली; प्र.सं. 2006; पृ.-103
2 रंग-प्रसंग; जुलाई-सितम्बर, 2005(भारतरत्न भार्गव का लेखनेपथ्य में थिरकनसे); पृ.175
3 रंग प्रसंग; जुलाई-दिसम्बर, 2002; पृ.-114
4 हबीब तनवीर; चरन दास चोर; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्र.सं. 2004; पृ.-23
5 भारतरत्न भार्गव; रंग हबीब: हबीब तनवीर की रंग यात्रा; राष्ट्रीय विद्यालय, नई दिल्ली;प्र.सं. 2006;पृ. 83
6 रंग प्रसंग; जुलाई-दिसम्बर, 2002 (हबीब तनवीर की संगीता गुंदेचा से बातचीत); पृ.-127
7 हबीब तनवीर; चरन दास चोर; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्र.सं. 2004; पृ.-10
8 रंग प्रसंग; जनवरी-जून,2003; हबीब तनवीर से संगीता गुंदेचा की बातचीत; पृ.- 240 से 243