दादू
सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो
दादू दयाल भक्ति आन्दोलन के संत हैं , जिन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किए। भक्तिकालीन कवि आम जनता के बीच से आए थे, उनके जीवन के बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं मिलती। इनके जन्म के बारे में विद्वानों ने इतिहास, किंवदंतियों और उनकी वाणी के अन्त:साक्ष्यों को आधार बनाकर उनके जन्म, जन्म-स्थान, माता-पिता आदि के बारे में कयास लगाए हैं। ''दादूपंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती में नहाते हुए पाये गये। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। कुछ लोग इसे कपोल कल्पना मानते हैं।"... आचार्य क्षितिमोहन सेन ने इनका संबंध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम 'दाऊद' था।1
दादू दयाल का संबंध रुई धुनने वाली निम्न समझी जाने वाली जाति धुनिया से था, लेकिन इनके मन में अपनी जाति को लेकर किसी प्रकार की हीन भावना नहीं थी, इसीलिए इन्होंने अपनी जाति को छिपाया नहीं।
दादू कुल हमारै केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेस्वर परिवार।।
दादू ने अपने पदों में अपने को पिंजारा कहा है।
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौ पूजै गरीब पिंजारा।
दादू के आंरभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। वे 26 वर्ष की आयु में सांभर (राजस्थान)आए। उन्होंने काशी, बिहार, का भ्रमण करके साधु-संतों व जोगियों से विचार विमर्श किया। सांभर में ही दादू ने अपने उपदेश व प्रवचन देने आंरभ किए। उनके मानवतावादी उपदेशों व संदेश को सुनकर उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। सांभर को अपने ज्ञान के प्रसार का केन्द्र बनाने के बाद आमेर (अभी भी यहां 'दादू द्वारा' बना हुआ है) गए और यहीं रहे। अजमेर, दिल्ली, आमेर की यात्रा करके नराणा (राजस्थान)चले गए, यहीं इनकी मृत्यु हो गई।
''इनके गरीबदास और मिसकीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियां थीं। कुछ विद्वान इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद् पुत्र थे, कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे।"2
दादू ने अपने जीवन काल में 'पर ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना की, जो उनकी मृत्यु के बाद 'दादू पंथ'के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ''आरम्भ में इनके कुल एक सौ बावन शिष्य माने जाते रहे। इनमें से एक सौ शिष्य (वीतरागी) थे और भगवत भजन में ही लगे रहे। बावन शिष्यों ने एकांत भगवत् चिंतन के साथ लोक में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का संगठनात्मक कार्य करना भी आवश्यक समझा। इन बावन शिष्यों के थांभे प्रचलित हुए। इनके थांभे अब भी अधिकतर राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में हैं। इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर दादू-द्वारों की स्थापना की गई थी। उनके शिष्यों में गरीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से अधिकतर संतों ने अपनी मौलिक रचनाएं भी प्रस्तुत की थीं।"3
क्षितिमोहन सेन के अनुसार उनके सारे पदों की संख्या बीस हजार से ऊपर ही होगीे ... दादू वाणी का सर्वाधिक प्रामाणिक पाठ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'दादू ग्रंथावली' माना जाता है। इसमें कुल 2453 साखियां और 426 पद हैं।4
हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ-साथ इन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने गुजराती और हिन्दी में पद लिखे। हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव को व्यर्थ का बताते हुए दादू ने कहा कि सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा का निवास है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान।
दादू सब हम देष्या सोधि सब, दूसर नांही आन।
सब घटि येकै आत्मा, क्या हींदू मुसलमान।।
दादू ने कहा कि हिन्दू और मुसलमान समाज में उसी तरह हैं, जैसे मनुष्य के शरीर में हाथ हैं, पैर हैं और कान हैं, आंखें हैं। इनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है, उसी तरह हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है।
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान।।
दादूदयाल अल्लाह और राम में कोई भेद नहीं करते थे, उनके लिए ये दोनों बराबर थे। वे एक ईश्वर को मानते थे, मंदिर-मस्जिद के झगड़े को झूठा समझते थे। वे मूल तत्व को पकडऩे की बात कहते थे।
अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो।
दादू ने पाखण्डों की जमकर आलोचना की है। बाहरी दिखावा धर्म नहीं है। पूजा पद्धतियों में धर्म व ईश्वर उपासना नहीं है, बल्कि मानव के दुख तकलीफ को समझना वा उसके दुखों को दूर करने ईश्वर की पूजा है। विभिन्न तरीकों से संसार से पलायन करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। कितने ही मुल्ला, पीर, पैगम्बर, मुनि, योगी, पण्डित अपने अपने कर्मकाण्ड की अनुपालना करते हैं, लेकिन वह सब व्यर्थ है।
मैं पंथि येक अपार कै मनि और न भावै।
कोई पंथ पावे पीव का, जिस आप लषावै।।
को पंथि हींदू तुरक के, को काहू माता।
को पंथि सोफी सेवड़े, को संन्यासी राता।।
को पंथि जोगी जंगमा को, को सकति पंथ ध्यावे।
को पंथि कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावें।।
को पंथि काहू के चलै, मैं और न जानौं।
दादू जिनि जगु सिरजिया, नाहीं कौं मानौ।।
दादू ने बाहरी दिखावों को त्यागकर अपने अन्तर्मन को स्वच्छ करने पर जोर दिया तथा बाह्य कर्मकाण्डों की आलोचना की।
दादू केते पुस्तक पढि़ मुए, पंडित वेद पुरान।
केते ब्रह्मा कथि गए, जांहिन राम समान।।
दादू काजी कजा न जाणंही, कागद हाथि कतेब।
पढतां पढतां दिन गए, भीतरि नाहीं भेद।।
स्वांग सती का पहरि करि, करै कुटंब का साच।
बाहरि सूरा देषिए, दादू भीतरि पोच।।
पढि़-पढि़ थाके पंडिता, किनहु न पाया पार।
कथि-कथि थाके मुनि जनां, दादू नांई अधर।।
दादू हिंदू मारग कहें हमारा, तुरक कहें रह मेरी।
कोंण पंथ है कहौ अलष का, तुम तौं असी हेरी।।
षंड-षंड करि ब्रह्म कूं, पषि-पषि लीया बांटि।
दादू पूरण ब्रह्म तजि, बंधे भ्रम की गांठि।।
मरने के बाद स्वर्ग की कल्पना पर प्रहार किया है।
मूवां पीछैं मुकति बतावैं, मूवा पीछैं मेला।
मूवां पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गेला।।
***
मूवां पीछैं बैकुंठि वासा, मूवा श्रगि पठावैं।
मूवां पीछैं मुकति बतावै, दादू जग बौरावैं।।
वे हिन्दू और मुसलमानों के पाखण्डों और पूजा विधानों को नहीं मानते थे। वे मानव धर्म में विश्वास करते थे, जिसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा के पितृसत्ता व ऊंच नीच का कोई स्थान नहीं था। दादू ने सभी धर्मों को बराबर का दर्जा दिया और निरपख धर्म की स्थापना की। आधुनिक धर्म निरपेक्षता को दादू पहले ही स्वीकार कर चुके थे।
दादू ना हम हिन्दू होहिंगें, ना हम मुसलमान,
षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहिमांन।
दादू ने स्पष्ट तौर पर कहा कि हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव संस्थागत धर्म के कर्मकाण्डों के कारण हैं। संस्थागत धर्म को बढ़ावा देने वाले काजी, मुल्लाओं और पण्डे पुजारियों व ब्राह्मणों ने धर्म के वास्तविक मर्म को छोड़़कर बाहरी दिखावे को प्रतिपादित किया है। हिन्दू पूरब में मंदिर जाते हैं और मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके नमाज पढ़ते हैं लेकिन वे ईश्वरीय तत्व को भुला देते हैं। दादूदयाल ने मंदिर और मस्जिद दोनों का ही विरोध किया है, क्योंकि वे धर्म के आन्तरिक स्वरूप में विश्वास करते थे, और बाहरी कर्मकाण्डों का विरोध करते थे।
हींदू तुरक न जानौ दोई।
सांइ सबनिका सोइ हेरे; और न दूजा देषौं कोइ।
कीट-पतंग सबनि मैं, जल-थल संगि समाना सोइ।
पीर पेंकवर देवा दानव, मीर मुलिक मुनि जन कौं मोहि।।
कहता है रे सोई चिन्हौं, जिनि, वै क्रोध करै रे कोइ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धेई।।
सांई केरी सेवा कीजै, पाया धन काहै को षोइ।
दादू रे जन हरि जपि लीजे, जनमि-जनमि जे सुरिजन होइ।।
दादू यह मसीति यहु देहरा सतगुरि दिया दिषाइ।
भीतर सेवा बंदगी बाहरि काहे जाई।।
हिन्दू लागे देहरा, मुसलमान मसीति।
हम लागे इक अलख सों, सदा निरन्तर प्रीति।।
दादूदयाल ने ईश्वर को एक माना, उसको अनेक नामों से राम, रहीम, केशव, गोबिन्द, गोपाल, गोसाई, साई, रब्ब, अल्लाह, ओंकार, वासुदेव, परमानन्द, साहिब और सुल्तान, गरीब-निवाज तथा बंदिछोर नामों से संबोधित किया।
बाबा दूसर नांही कोई।
येक अनेक नांव तुम्हारे, मोपै और न होई।
अलष इलाही येक तूं, तूं ही राम रहीम।
तूं ही मालिक मोहना, केसौ नांव करीम।।
रमिता राजिक येक तूं, तूं सारंग सुबिहान।
कादिर करता येक तूं, तूं साहिब सुल्तान।
अविगत अलह येक तूं, गनी गुसांई येक।
अजब अनुपम आप है, दादू नांव अनेक।।
जब दादू से कहा गया कि अगर तुम लोक सेवा करना चाहते हो तो किसी सम्प्रदाय में आबद्घ होकर ही कर सकते हो, तो दादू ने कहा - हे दयामय, तुम्हीं बताओ; यह धरती, आकाश, ये दिन और रातें, सूरज और चांद किस पंथ के हैं? ब्रह्मा, विष्णु और शिव के नाम से अगर पंथ खड़े हो सकते हों तो तुम बताओ कि ये स्वयं किस पंथ के मानने वाले हैं? हे एक अल्लाह तुम्हीं बताओ तो भला, मुहम्मद का मजहब क्या था? जिब्राइल का पंथ कौन सा था?
दादू ए सब किसके पंथ में, धरती अर असमान।
पाणी पवन दिन रात का, चंद सूर रहिमांन।।
ब्रह्म, विशन महेस को, कौन पन्थ गुरुदेव;
सांई सिरजनहार तूं, कहिये अलख अभेद ।
महमद किसके दीन में, जबराइल किस राह ?
इसके मुर्सद पीर को कहिए एक अलाह।
दादू ये सब किसके ह्वै रहे यहु मेरे मन मांहि,
अलख इलाही जगद्गुरु दूजा कोई नाहीं ।
संत दादू दयाल ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने का काम किया। दोनों सम्प्रदायों के लोग उनके अनुयायी बने।
संदर्भ:
1 रामबक्ष; दादू; साहित्य अकादमी; दिल्ली; पृ. 10
2 वही; पृ.14
3 वही; पृ. 16
4 वही; पृ.22
सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो
दादू दयाल भक्ति आन्दोलन के संत हैं , जिन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किए। भक्तिकालीन कवि आम जनता के बीच से आए थे, उनके जीवन के बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं मिलती। इनके जन्म के बारे में विद्वानों ने इतिहास, किंवदंतियों और उनकी वाणी के अन्त:साक्ष्यों को आधार बनाकर उनके जन्म, जन्म-स्थान, माता-पिता आदि के बारे में कयास लगाए हैं। ''दादूपंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती में नहाते हुए पाये गये। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। कुछ लोग इसे कपोल कल्पना मानते हैं।"... आचार्य क्षितिमोहन सेन ने इनका संबंध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम 'दाऊद' था।1
दादू दयाल का संबंध रुई धुनने वाली निम्न समझी जाने वाली जाति धुनिया से था, लेकिन इनके मन में अपनी जाति को लेकर किसी प्रकार की हीन भावना नहीं थी, इसीलिए इन्होंने अपनी जाति को छिपाया नहीं।
दादू कुल हमारै केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेस्वर परिवार।।
दादू ने अपने पदों में अपने को पिंजारा कहा है।
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौ पूजै गरीब पिंजारा।
दादू के आंरभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। वे 26 वर्ष की आयु में सांभर (राजस्थान)आए। उन्होंने काशी, बिहार, का भ्रमण करके साधु-संतों व जोगियों से विचार विमर्श किया। सांभर में ही दादू ने अपने उपदेश व प्रवचन देने आंरभ किए। उनके मानवतावादी उपदेशों व संदेश को सुनकर उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। सांभर को अपने ज्ञान के प्रसार का केन्द्र बनाने के बाद आमेर (अभी भी यहां 'दादू द्वारा' बना हुआ है) गए और यहीं रहे। अजमेर, दिल्ली, आमेर की यात्रा करके नराणा (राजस्थान)चले गए, यहीं इनकी मृत्यु हो गई।
''इनके गरीबदास और मिसकीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियां थीं। कुछ विद्वान इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद् पुत्र थे, कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे।"2
दादू ने अपने जीवन काल में 'पर ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना की, जो उनकी मृत्यु के बाद 'दादू पंथ'के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ''आरम्भ में इनके कुल एक सौ बावन शिष्य माने जाते रहे। इनमें से एक सौ शिष्य (वीतरागी) थे और भगवत भजन में ही लगे रहे। बावन शिष्यों ने एकांत भगवत् चिंतन के साथ लोक में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का संगठनात्मक कार्य करना भी आवश्यक समझा। इन बावन शिष्यों के थांभे प्रचलित हुए। इनके थांभे अब भी अधिकतर राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में हैं। इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर दादू-द्वारों की स्थापना की गई थी। उनके शिष्यों में गरीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से अधिकतर संतों ने अपनी मौलिक रचनाएं भी प्रस्तुत की थीं।"3
क्षितिमोहन सेन के अनुसार उनके सारे पदों की संख्या बीस हजार से ऊपर ही होगीे ... दादू वाणी का सर्वाधिक प्रामाणिक पाठ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'दादू ग्रंथावली' माना जाता है। इसमें कुल 2453 साखियां और 426 पद हैं।4
हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ-साथ इन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने गुजराती और हिन्दी में पद लिखे। हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव को व्यर्थ का बताते हुए दादू ने कहा कि सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा का निवास है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान।
दादू सब हम देष्या सोधि सब, दूसर नांही आन।
सब घटि येकै आत्मा, क्या हींदू मुसलमान।।
दादू ने कहा कि हिन्दू और मुसलमान समाज में उसी तरह हैं, जैसे मनुष्य के शरीर में हाथ हैं, पैर हैं और कान हैं, आंखें हैं। इनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है, उसी तरह हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है।
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान।।
दादूदयाल अल्लाह और राम में कोई भेद नहीं करते थे, उनके लिए ये दोनों बराबर थे। वे एक ईश्वर को मानते थे, मंदिर-मस्जिद के झगड़े को झूठा समझते थे। वे मूल तत्व को पकडऩे की बात कहते थे।
अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो।
दादू ने पाखण्डों की जमकर आलोचना की है। बाहरी दिखावा धर्म नहीं है। पूजा पद्धतियों में धर्म व ईश्वर उपासना नहीं है, बल्कि मानव के दुख तकलीफ को समझना वा उसके दुखों को दूर करने ईश्वर की पूजा है। विभिन्न तरीकों से संसार से पलायन करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। कितने ही मुल्ला, पीर, पैगम्बर, मुनि, योगी, पण्डित अपने अपने कर्मकाण्ड की अनुपालना करते हैं, लेकिन वह सब व्यर्थ है।
मैं पंथि येक अपार कै मनि और न भावै।
कोई पंथ पावे पीव का, जिस आप लषावै।।
को पंथि हींदू तुरक के, को काहू माता।
को पंथि सोफी सेवड़े, को संन्यासी राता।।
को पंथि जोगी जंगमा को, को सकति पंथ ध्यावे।
को पंथि कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावें।।
को पंथि काहू के चलै, मैं और न जानौं।
दादू जिनि जगु सिरजिया, नाहीं कौं मानौ।।
दादू ने बाहरी दिखावों को त्यागकर अपने अन्तर्मन को स्वच्छ करने पर जोर दिया तथा बाह्य कर्मकाण्डों की आलोचना की।
दादू केते पुस्तक पढि़ मुए, पंडित वेद पुरान।
केते ब्रह्मा कथि गए, जांहिन राम समान।।
दादू काजी कजा न जाणंही, कागद हाथि कतेब।
पढतां पढतां दिन गए, भीतरि नाहीं भेद।।
स्वांग सती का पहरि करि, करै कुटंब का साच।
बाहरि सूरा देषिए, दादू भीतरि पोच।।
पढि़-पढि़ थाके पंडिता, किनहु न पाया पार।
कथि-कथि थाके मुनि जनां, दादू नांई अधर।।
दादू हिंदू मारग कहें हमारा, तुरक कहें रह मेरी।
कोंण पंथ है कहौ अलष का, तुम तौं असी हेरी।।
षंड-षंड करि ब्रह्म कूं, पषि-पषि लीया बांटि।
दादू पूरण ब्रह्म तजि, बंधे भ्रम की गांठि।।
मरने के बाद स्वर्ग की कल्पना पर प्रहार किया है।
मूवां पीछैं मुकति बतावैं, मूवा पीछैं मेला।
मूवां पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गेला।।
***
मूवां पीछैं बैकुंठि वासा, मूवा श्रगि पठावैं।
मूवां पीछैं मुकति बतावै, दादू जग बौरावैं।।
वे हिन्दू और मुसलमानों के पाखण्डों और पूजा विधानों को नहीं मानते थे। वे मानव धर्म में विश्वास करते थे, जिसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा के पितृसत्ता व ऊंच नीच का कोई स्थान नहीं था। दादू ने सभी धर्मों को बराबर का दर्जा दिया और निरपख धर्म की स्थापना की। आधुनिक धर्म निरपेक्षता को दादू पहले ही स्वीकार कर चुके थे।
दादू ना हम हिन्दू होहिंगें, ना हम मुसलमान,
षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहिमांन।
दादू ने स्पष्ट तौर पर कहा कि हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव संस्थागत धर्म के कर्मकाण्डों के कारण हैं। संस्थागत धर्म को बढ़ावा देने वाले काजी, मुल्लाओं और पण्डे पुजारियों व ब्राह्मणों ने धर्म के वास्तविक मर्म को छोड़़कर बाहरी दिखावे को प्रतिपादित किया है। हिन्दू पूरब में मंदिर जाते हैं और मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके नमाज पढ़ते हैं लेकिन वे ईश्वरीय तत्व को भुला देते हैं। दादूदयाल ने मंदिर और मस्जिद दोनों का ही विरोध किया है, क्योंकि वे धर्म के आन्तरिक स्वरूप में विश्वास करते थे, और बाहरी कर्मकाण्डों का विरोध करते थे।
हींदू तुरक न जानौ दोई।
सांइ सबनिका सोइ हेरे; और न दूजा देषौं कोइ।
कीट-पतंग सबनि मैं, जल-थल संगि समाना सोइ।
पीर पेंकवर देवा दानव, मीर मुलिक मुनि जन कौं मोहि।।
कहता है रे सोई चिन्हौं, जिनि, वै क्रोध करै रे कोइ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धेई।।
सांई केरी सेवा कीजै, पाया धन काहै को षोइ।
दादू रे जन हरि जपि लीजे, जनमि-जनमि जे सुरिजन होइ।।
दादू यह मसीति यहु देहरा सतगुरि दिया दिषाइ।
भीतर सेवा बंदगी बाहरि काहे जाई।।
हिन्दू लागे देहरा, मुसलमान मसीति।
हम लागे इक अलख सों, सदा निरन्तर प्रीति।।
दादूदयाल ने ईश्वर को एक माना, उसको अनेक नामों से राम, रहीम, केशव, गोबिन्द, गोपाल, गोसाई, साई, रब्ब, अल्लाह, ओंकार, वासुदेव, परमानन्द, साहिब और सुल्तान, गरीब-निवाज तथा बंदिछोर नामों से संबोधित किया।
बाबा दूसर नांही कोई।
येक अनेक नांव तुम्हारे, मोपै और न होई।
अलष इलाही येक तूं, तूं ही राम रहीम।
तूं ही मालिक मोहना, केसौ नांव करीम।।
रमिता राजिक येक तूं, तूं सारंग सुबिहान।
कादिर करता येक तूं, तूं साहिब सुल्तान।
अविगत अलह येक तूं, गनी गुसांई येक।
अजब अनुपम आप है, दादू नांव अनेक।।
जब दादू से कहा गया कि अगर तुम लोक सेवा करना चाहते हो तो किसी सम्प्रदाय में आबद्घ होकर ही कर सकते हो, तो दादू ने कहा - हे दयामय, तुम्हीं बताओ; यह धरती, आकाश, ये दिन और रातें, सूरज और चांद किस पंथ के हैं? ब्रह्मा, विष्णु और शिव के नाम से अगर पंथ खड़े हो सकते हों तो तुम बताओ कि ये स्वयं किस पंथ के मानने वाले हैं? हे एक अल्लाह तुम्हीं बताओ तो भला, मुहम्मद का मजहब क्या था? जिब्राइल का पंथ कौन सा था?
दादू ए सब किसके पंथ में, धरती अर असमान।
पाणी पवन दिन रात का, चंद सूर रहिमांन।।
ब्रह्म, विशन महेस को, कौन पन्थ गुरुदेव;
सांई सिरजनहार तूं, कहिये अलख अभेद ।
महमद किसके दीन में, जबराइल किस राह ?
इसके मुर्सद पीर को कहिए एक अलाह।
दादू ये सब किसके ह्वै रहे यहु मेरे मन मांहि,
अलख इलाही जगद्गुरु दूजा कोई नाहीं ।
संत दादू दयाल ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने का काम किया। दोनों सम्प्रदायों के लोग उनके अनुयायी बने।
संदर्भ:
1 रामबक्ष; दादू; साहित्य अकादमी; दिल्ली; पृ. 10
2 वही; पृ.14
3 वही; पृ. 16
4 वही; पृ.22