हरियाणा का साहित्यिक परिवेश में कविता के जनवादी स्वर
पुस्तक की भूमिका
डा. सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जनता के हितों को परिभाषित व कार्यान्वित करने वाला दर्शन, चिन्तन या विचारधारा ही 'जनवाद' है। वर्ग-विभक्त समाज में शासक व शाषित तथा शोषक व शोषित वर्गों में निरन्तर विचारधारात्मक संघर्ष रहता है। इस संघर्ष में जहां एक ओर शोषक-शासक वर्ग के साधनों पर अपने स्वामित्व, सामाजिक वर्चस्व तथा राजनीतिक सत्ता का औचित्य ठहराने के लिए विभिन्न तर्क रचता है, तो दूसरी ओर जन-सामान्य शोषण से मुक्ति व जीवन की बेहतरी के लिए अपने हितों को परिभाषित करता है। जनता की शोषण से मुक्ति, साधनों पर स्वामित्व तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का औचित्य ठहराने वाला दर्शन ही जनवाद है।
जनवाद के लिए 'जनतंत्र', 'प्रजातंत्र', 'लोकतंत्र' आदि शब्द भी प्रयोग किए जाते हैं। जनवाद एक व्यापक शब्द है, जो जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक हितों को समाहित करता है, जबकि ये शब्द शासन-सत्ता व राजनीतिक संदर्भ तक ही सीमित रहते हैं।
'जनवाद' शब्द में 'जन' शब्द काफी महत्वपूर्ण है, जिसे आमतौर पर तो मानव मात्र के लिए प्रयोग किया जाता है, लेकिन जब इसके साथ 'वाद' लगाया जाता है तो इसका प्रयोग समाज के दलित, शोषित, वंचित, किसान, श्रमिक, नौकरीपेशा लोगों के लिए किया जाता है। शोषणपरक व्यवस्थाओं में समाज के सभी स्तरों पर शोषण होता है, लेकिन जो वर्ग सबसे निम्न स्तर पर होते हैं उनका सर्वाधिक शोषण होता है। सर्वाधिक शोषितों के हितों को परिभाषित करने वाला दर्शन जनवाद है।
जनवाद और माक्र्सवाद में प्रवृतिगत समानता है, लेकिन पर्यायवाची नहीं हैं, जैसा कि आमतौर पर मान लिया जाता है। जनवादी होने के लिए माक्र्सवादी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है, लेकिन माक्र्सवादी के लिए जनवादी होना अनिवार्य है। माक्र्सवादी दृष्टि जनता के हितों को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित व परिभाषित करने में सहायता करता है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, नस्ल, लिंग आदि के आधर पर भेदभाव के बिना सबको विकास के समान अवसर प्राप्त करना तथा 'समता, स्वतंत्रता और भाईचारा' जनवाद का संकल्प है। माक्र्सवाद इन मूल्यों को अपनाता है, इसलिए माक्र्सवादी साहित्य जनवादी मूल्य अपनाने व उनको प्राप्त करने के लिए चेतना का विकास और संघर्ष करने का साहस पैदा करता है।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, नस्ल, क्षेत्र की संकीर्णता आधारित पहचान व सामन्ती संरचनाएं जनवादी चेतना के विकास में बाधक हैं। पहचान के संकीर्ण दायरों को तोड़कर ही वर्गीय पहचान संभव है, जो जनवादी चेतना के लिए अनिवार्य है। मानव को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग, नस्ल की संकीर्णताओं से बाहर निकालकर मानवीय पहचान देना जनवादी सरोकारों में प्रमुख है। मानवीय पहचान व गरिमा के लिए संघर्ष करना इसकी अगली कड़ी है।
संकीर्णताओं को त्यागकर मानवीय पहचान के लिए तथा जनवाद की दिशा में साहित्य ने हमेशा ही प्रयास किया है, लेकिन इसके लिए संगठित व योजनाबद्ध प्रयास की शुरूआत सन् 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से हुई। इस अवसर पर प्रेमचन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य की कसौटी बदलने की बात कहकर इसे परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।" इसके बाद से साहित्य में जनवादी मूल्यों को प्रमुखता से स्थान दिया। जनता के हितों व संघर्षों को साहित्य में अभिव्यक्ति मिली, जिससे जनता के संघर्षों में भी नई जान आई। साहित्य में प्रगतिवाद नामक आन्दोलन उभरा, जिसने मजदूरों, किसानों, वंचितों, पीडि़तों, शोषितों की स्थिति को प्रमुखता से अभिव्यक्ति दी। साहित्य-संस्कृतिकर्मियों ने जनता के तकलीफों में शामिल होकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जनवादी चेतना ' इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोश्यिेशन) के आन्दोलन ने बंगाल के अकाल के दौरान जनता की मदद की थी।
जनता के पक्षधर्र साहित्य के स्वरूप को लेकर निरन्तर चर्चा रही है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस पक्ष पर गहराई से विचार करते हुए लिखा कि "जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है।" मुक्तिबोध ने जनता के साहित्य की पहचान, जनवादी साहित्य के सरोकारों को सही परिभाषित किया है। उन्होंने जनवादी सौंदर्य के तत्वों को भी व्याख्यायित किया है, जो जनवादी साहित्य के मूल्यांकन की आधर बने हैं। उन्होंने ''जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से क्रांति-पथ पर मोडऩे वाला साहित्य, मानवीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला, स्वातन्त्रय और मुक्ति के गीतों को गाने वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा व स्नेह के सुकुमार दृश्यों" वाले साहित्य को जनवादी सरोकारों के साहित्य में सम्मिलित किया है।
जनवादी साहित्य 'कला के लिए कला' में नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' में विश्वास करता है, इसलिए जीवन को बेहतर बनाने वाले समस्त तत्वों का कलात्मक समर्थन तथा जीवन को विकृत करने वाले तत्वों का विरोध इसकी स्वाभाविक प्रवृति है। शोषक-शासक राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण करके ही जनता का शोषण करता है, इसलिए शोषक वर्ग के राजनीतिक मंतव्यों का उद्घाटन तथा उसकी सत्ता की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिए जनवादी रचनाकार राजनीतिक विषयों पर रचना करने से परहेज नहीं करते। साहित्य में जनपक्षीय राजनीति व विचारधारा नारों के रूप में नहीं, बल्कि दृष्टि के तौर पर निहित रहती है। सर्वमान्य विचार है कि जो साहित्यकार अपने वर्ग की राजनीति को अन्य मूल्यों के साथ जितना संबद्ध् करके प्रस्तुत करता है, वह उतना ही अपने मंतव्य में सफल कहा जाता है। महाभारत और रामायण में राजनीति के प्रस्तुतिकरण को आदर्श माना जा सकता है। यहां राजनीति को एक बड़े सवाल के साथ प्रस्तुत किया गया है अत: उसमें सीधे सत्ता संघर्ष होते हुए भी राजनीति अखरती नहीं है।
समाज में जनवादी आन्दोलन ने साहित्य को प्रभावित किया है, जिस क्षेत्र में जनवादी आन्दोलन का रूप तीखा रहा है, वहां के साहित्य में जनवादी मूल्य भी उतनी प्रखरता के साथ आए हैं। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन का उदाहरण हमारे सामने है, वहां जोतिबा पूफले और डा. भीमराव आम्बेडकर के आन्दोलन बहुत ही प्रखर रहे हैं, तो दलित-साहित्य भी वहीं पनपा और अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। किसी क्षेत्र या समाज का साहित्यिक परिदृश्य असल में उसके व्यापक परिदृश्य का ही अंश होता है। समाज के व्यापक परिदृश्य में उसके साहित्यिक परिदृश्य का आकलन एवं विश्लेषण किया जा सकता है।
हरियाणा क्षेत्र में स्वतंत्रता-आन्दोलन कमजोर था। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान आधुनिक मूल्यों की स्थापना समाज में हुई वह भी यहां लगभग नदारद ही रही। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति भी हरियाणा में जातिगत व क्षेत्रीय संकीर्णताओं के दायरे में ही सिमटी रही। धर्मनिरपेक्ष व जनवादी परम्पराएं ठोस जगह यहां नहीं बना पाईं। यहां के समाज में आधुनिक राजनीति व संस्थाएं परम्परागत ढांचों में ही आई। आधुनिक संरचनाओं में परम्परागत विचारधारा ही अपनी जडें जमाए रही, जबकि साहित्य का फूल हमेशा नवीनता की जद्दोजहद में ही खिलता है। हरियाणा के राजनीतिक-सांस्कृतिक विचारधारात्मक पिछड़ेपन के कारण यहां का साहित्य भी पिछड़ा ही रहा, पिछड़ेपन की यह परम्परा अभी भी जारी है। मध्यकाल में दो-चार नाम बड़े साहित्यकारों के लिए जा सकते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में हरियाणा से था। आधुनिक काल में अल्ताफ हुसैन 'हालीÓ और बाबू बालमुकुन्द गुप्त के नाम लिए जा सकते हैं, जिन्होंने साहित्य को नई जमीन प्रदान की। इसके बावजूद हरियाणा में साहित्य की समृद्ध परम्परा नहीं रही। मध्यकाल में साहित्य लेखन व संरक्षण के केन्द्र या तो धार्मिक मठ थे या राजाओं-सामन्तों के दरबार। हरियाणा में इक्का-दुक्का स्थानों को छोड़कर ऐसा कोई साहित्यिक केन्द्र नहीं उभरकर आया, जिससे कि साहित्य लेखन व पठन-पाठन की संस्कृति विकसित होती।
हरियाणा के वर्तमान साहित्य पर नजर डाली जाए, तो यहां प्रगतिशील व जनवादी रचनाकार भी काफी बड़ी संख्या में हैं और जेनुइन साहित्यकार के तौर पर उनकी समाज में पहचान है। उनके साहित्यिक मूल्य व सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर नजर आ जाते हैं। इनके लिए साहित्य लेखन मात्र अपनी प्रतिष्ठा या कला-कौशल के प्रदर्शन का क्षेत्र नहीं है, बल्कि कुछ आदर्शों व मूल्यों को समाज में स्थापित करने का माध्यम है। साहित्य से उनकी सामाजिक अपेक्षाएं व सरोकार उनके विषयवस्तु के चयन व उसके प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करते हैं। इन रचनाओं के केन्द्र में दलित, पीडि़त, वंचित वर्ग हैं, जीवन के लिए संघर्ष करते आम जन हैं, जिजीविषा लिए हुए जीते-जागते चरित्र हैं। समाज को बेहतर बनाने की छटपटाहट इनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है। समाज को बदलने व बेहतर करने का संकल्प ही यथार्थ को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करने की ओर ले जाता है।
हरियाणा के समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को, पीड़ाओं को, समस्याओं को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले साहित्यकारों में प्रमुख तौर पर तारा पांचाल, मनमोहन, विजय कुमार सिंघल, बलबीर सिंह राठी, ओमप्रकाश ग्रेवाल, आबिद आलमी, प्रदीप कासनी, ओमसिंह अशफाक, हरभगवान चावला, जयपाल, स्वदेश दीपक, ज्ञानप्रकाश विवेक, ललित कार्तिकेय, सही राम, भगवान दास मोरवाल, अमृतलाल मदान, रामकुमार आत्रोय, ब्रजेश कृष्ण, राणा गन्नौरी, पुरन मोदगिल, महेन्द्र प्रताप चांद आदि का नाम लिया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा के साहित्यकार की प्रभावी उपस्थिति के बावजूद हरियाणा के साहित्य-भण्डार में बोलबाला यथास्थितिवादी रचनाकारों का ही है, जो साहित्य की प्रतिबद्धता के सवाल पर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। तटस्थता की आड़ में 'कला के लिए कलाÓ के विचार का समर्थन करते हुए साहित्य की सामाजिक भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लगाते रहते हैं। सामाजिक दायित्व विहिन साहित्य में इकहरा यथार्थ रचनाओं की नियति बन जाता है। समाज में घटित किसी घटना को कलमबद्ध कर देने से कोई साहित्यकार न तो पाठकों पर प्रभाव छोड़ पाता है और न ही उनकी समझ को विकसित कर पाने में ही कोई मदद कर पाता है। रचनाकार को रचना में यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है वहीं आकर रचनाकार का साहस चुक जाता है। अधिकांश रचनाकार बड़ी सहजता से कह देते हैं कि कविता का 'प्रस्फुटन' हुआ है। साहित्य-रचना उनके लिए 'दैवीय गुण' है, 'जन्मजात प्रतिभा' का नतीजा है, जिसमें वे कुछ खास नहीं कर सकते। साहित्य-सृजन का यह सैद्धान्तिक आग्रह व्यक्तिगतता तक सिकोड़ देता है। साहित्य उनके लिए समाज परिवर्तन का औजार नहीं रहता, बल्कि वह रसास्वादन का माध्यम बन जाता है। आत्ममुग्धता की स्थिति में रचनाकार अपने पर ही रिझा हुआ है और समाज हो रहे बड़े-बड़े आन्दोलन व परिवर्तन को न तो उनकी दृष्टि पहचान पाती है और न ही वे उनके साहित्य की रचनाओं का विषय ही बन पाती हैं।
यदि साहित्य-रचना की मात्र पर नजर डाली जाए तो बड़ी मात्र में साहित्य प्रकाशित हो रहा है। हरियाणा में साहित्य सृजन की मात्र तो निराश करने वाली नहीं है। हर वर्ष कितने ही कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह व अन्य साहित्यिक विधाओं में सृजनात्मक साहित्य के नाम पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। सैंकड़ों नाम लिये जा सकते हैं जो साहित्यकार के तौर पर समाज में प्रतिष्ठित हैं। इसी स्थिति ने हरियाणा के साहित्य और समाज में घटित हो रही घटनाओं का तथा साहित्य के यथार्थ का कोई सम्पर्क नहीं बन रहा है। समाज में कुछ घटित हो रहा है और साहित्य किसी दूसरी ही दुनिया का परिचय दे रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हरियाणा में अमानवीयता और बर्बरता की घटनाएं घटी हैं, लेकिन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति लगभग नदारद है। दलित उत्पीडऩ की भयावह घटनाएं तो घटनाओं पर तो चुप्पी जैसी स्थिति ही है और लड़कियों का हरियाणवी समाज से गायब होना जितनी चिन्ता का विषय समाजशास्त्रियों के लिए बना, उतना साहित्यकारों के लिए नहीं। पूरी परिस्थिति को उद्घाटित करती रचनाओं का घोर अकाल है, लेकिन इस विषय पर भावुक किस्म की रचनाएं अवश्य आई हैं।
हरियाणा के साहित्य पर नजर डालने पर एक चिन्ताजनक पक्ष - साहित्यकारों का वास्तविक हरियाणा के अपरिचय का है। साहित्यिक रचनाओं में हरियाणा का बहुत ही छोटे से वर्ग की समस्याएं नजर आती हैं। हरियाणा का अधिकांश समाज कृषि पर आधरित है और गांवों में रहता है, लेकिन साहित्य में शहरों रहने वाले मध्यवर्ग का छोटा सा हिस्सा ही छाया हुआ है। गांव यदि कहीं आया भी है, तो वह इतने सीधे सपाट ढंग से कि उसके अन्तर्विरोध प्रकट नहीं होते। शहरी जीवन से गायब सामुदायिकता और भाईचारे का स्थानापन्न की जगह के रूप में ही गांव मौजूद है। संवेदनशील मन का कल्पित गांव तो यहां दिखाई देता है, लेकिन वास्तविक गांव नहीं। गांव के बारे में बड़ी ही 'नास्टेलजिक' भावना है। नए विकास व बदलते संदर्भों में गांव का नया स्वरूप यहां नहीं है। 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?, क्यों न सबका मन ललचाए' वाली रोमानी छवि ही हावी है। अपने अस्तित्व मात्र के लिए लड़ती गांव की अधिकांश आबादी यहां से पूर्णत: गायब है।
समाज में परिवर्तनकामी वर्गों की चेतना धरण किए बिना व उनके संघर्षों में शामिल हुए बिना कोई रचनाकार हो रहे परिवर्तनों को बहुत विश्वसनीय ढंग से अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता। परिवर्तन के आन्दोलन से कटकर रचना करने वाले साहित्यकारों की स्थिति 'शतरंज के खिलाडिय़ों' जैसी ही होती है, जो अपने साहित्यिक शतरंज के खेल में इतने मस्त हैं कि सामाजिक परिवर्तन उनके पास से ही गुजर जाते हैं।
एक-दूसरे को सम्मानित करने का 'दोस्ती-धर्म' निभाने की परम्परा ने यहां साहित्य-विमर्श को उभरने नहीं दिया। इस माहौल में साहित्य की समीक्षा का स्तर लगभग ऐसा है जैसा कि शादी में 'सेहरा' पढ़ा जाता है। समीक्षा में रचनाशीलता की ताकत व कमजोरी को उद्घाटन करने की बजाए लेखक की 'आरती' गाई जाती है। इस महिमामंडन में लेखक भी आनन्दविभोर होता है और इसी में कथित समीक्षक अपनी 'शास्त्रीय' प्रतिभा का प्रर्दशन करता है। रचना के विकास में इस 'स्तुति-संस्कृति' ने बहुत नुक्सान किया है। आग में तपकर ही सोने में चमक आती है, उसी तरह साहित्यकार भी विचार-विमर्श की आंच में तपकर ही उतरोतर विकास करता है। रचना पर विचार-विमर्श के अभाव में जैसा वह लिखना शुरू करता है, वैसा ही लिखता रह सकता है। विचार-विमर्श के अभाव में दोहराव रचनाकार की ऐसी सीमा बन जाती है कि उसकी रचनाधिर्मता का असामयिक निधन हो जाता है और वह 'वरिष्ठ' साहित्यकार का दर्जा पाते ही उपदेशक की मुद्रा में आ जाता है। नए उभर रहे साहित्यकारों के लिए कुछ कहने को उसके पास नहीं होता तो वह उनको खारिज भी करने लगता है। इसलिए 'वरिष्ठ' साहित्यकारों को अक्सर शिकायत होती है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जा रहा। सही है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जाएगा। लेकिन जब वे 'वैसे' को ही आदर्श लेखन मान लें तो नए लेखन के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं। अक्सर नए साहित्य के बारे में निराशाजनक टिप्पणियां सुनने को मिल जाएंगी।
लगभग हर शहर और कस्बे में साहित्यिक संस्थाएं व सभाएं हैं, जो नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां व कार्यक्रम करती हैं, लेकिन अपनी नियमितता के बावजूद ये गोष्ठियां कोई साहित्यिक माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। इन गोष्ठियों की जबरदस्त सीमा यही है कि इनमें रचनाओं पर कोई बातचीत नहीं होती, कोई विचार-विमर्श नहीं होता। रचनाकारों को अपनी रचनाएं सुनाने में ही अधिक रुचि रहती है या फिर अधिक से अधिक एक दूसरे को सुनने का बारी-बट्टा और यही फार्मूला एक दूसरे की तारीफ करने में लागू किया जाता है। पुराने समय के मुशायरों के वाह-वाह की संस्कृति इन रचना-गोष्ठियों में हावी है। इसलिए रचनाकार का विकास कर पाने में ये कोई खास मदद नहीं कर पाती।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन और पाठकों से जुड़ाव भी साहित्यिक परिदृश्य का महत्वपूर्ण पक्ष है। पाठकों और लेखकों के बीच में पत्रिका ही वह पुल है जो एक दूसरे को जोड़ता है। हरियाणा में कुछ गिने-चुने नाम ही साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। हरियाणा में 'पल-प्रतिपल' ही एक ऐसी पत्रिका है, जो साहित्य को बड़ी गम्भीरता से प्रकाशित करती है। 'जतन' पत्रिका से भी हरियाणा के साहित्य पाठक परिचित हैं, लेकिन इसकी अनियमितता साहित्य के प्रसार व विकास में कोई निरन्तरता नहीं बना पाती।
साहित्य के गम्भीर प्रकाशन व प्रकाशन गृह भी प्रदेश में न के बराबर हैं। 'आधार प्रकाशन' ने एक समय में गम्भीर साहित्य प्रकाशित किया और नए रचनाकारों की रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। हरियाणा के किसी शहर में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां से साहित्य उपलब्ध हो सके। पुस्तकों की दुकानें पूरी तरह से परीक्षा में उपयोगी पुस्तकों से भरी पड़ी हैं। कोई यदि साहित्य में रूचि ले भी तो साहित्य की अनुपलब्धता की भारी समस्या का सामना उसे करना पड़ता है। 'साहित्य उपक्रम, करनालÓ ने साहित्य के प्रकाशन व प्रसारण के लिए कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया। एक छोटी गाड़ी के माध्यम से गांव-गांव व शहर-शहर जाकर साहित्य पंहुचाने का प्रयास किया। कैथल की 'अक्षर धाम' संस्था ने शहर शहर पुस्तक-प्रर्दशनी व मेले लगाकर लोगों के बीच साहित्य पहुंचाने का प्रयास किया है, लेकिन साहित्य की जरूरत व प्रभाव को देखते हुए ये प्रयास सीमित ही कहे जा सकते हंै।
'हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, रोहतक' व 'राज्य संसाधन केन्द्र, रोहतक' ने भी अपनी विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से साहित्य के प्रसार को महत्व प्रदान किया। विशेष तौर पर साक्षरता आन्दोलन के दौरान हजारों की संख्या में साहित्य के नए पाठक बने हैं और इसी दौरान कितने ही नव लेखक उभरे हैं। साहित्य के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करने के लिए छटपटाहट दिखाई दी है। जिन वर्गों का साहित्य से कोई जुड़ाव नहीं था, न पाठक के तौर पर और न ही लेखक के तौर पर उनमें से ही साहित्यकार उभर कर आ रहे हैं। साहित्य इन वर्गों के लिए नया क्षेत्र है, लेकिन जिस तरह से इन्होंने साहित्य लेखन को नए अनुभव से जोड़कर नई ऊर्जा व ताजगी दी है, उससे जरूर शुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं।
'हाली' व बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने अपनी कविताओं में जनवादी सरोकारों को अभिव्यक्त करके हरियाणा की कविता की नींव डाल दी थी, लेकिन उनके बाद यह परम्परा कुछ मन्द पड़ी रही लेकिन अस्सी के दशक के बाद से कविता में जनवादी स्वर निरन्तर विद्यमान हैं। हरियाणा के जनवादी सरोकारों की कविताओं के पढऩे के बाद स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ये कविताएं हरियाणा के जीवन को वास्तव में व्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कविताएं हैं, जिनमें लफ्फाजी नहीं, बल्कि समाज की सच्चाई अपनी पूरी जटिलताओं के साथ मौजूद है। हर रचनाकार का विशिष्ट मुहावरा है, जो उसके विशिष्ट अनुभवों को प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। विषय वस्तु की दृष्टि से विविधता इन कविताओं में अपनी बात को पाठक तक संप्रेषित करने का जबरदस्त कौशल देखने को मिलता है।
हरियाणा के कविता के जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली कविता को समझने के लिए समय समय पर लिखे गए लेख इस पुस्तक में शामिल हैं। जो अपने में स्वतंत्र लेख हैं, चूंकि एक जगह से कविता उगी है और एक दृष्टि है तो सबको एक साथ पढऩे पर हरियाणा की कविता का स्वरूप समझने में कुछ मदद मिलेगी, इसलिए इनको पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनी। श्री देश निर्मोही को हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला तो उन्होंने साहित्यिक सृजन को बढ़ावा देने के लिए कालेजों के विद्यार्थियों यानी नवोदित रचनाकारों की कविताओं को 'दस्तक' नाम से पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। 'दस्तक' भाग एक व दो की भूमिका के तौर पर संकलित लेखों को भी इसमें शामिल किया है। इन कविताओं को पढ़कर हरियाणा के साहित्य की दिशा के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
इस पुस्तक का श्रेय मैं श्री देश निर्मोही, पूर्व निदेशक साहित्य अकादमी हरियाणा को देता हूं, जिन्होंने सामाजिक विषयों में रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को कविता की ओर प्रेरित किया तथा कार्य के महत्त्व पर व कर्तव्य का वास्ता देकर ये लेख लिखवा लिए तथा प्रकाशित भी किया।
डा. सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
पुस्तक की भूमिका
डा. सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
जनता के हितों को परिभाषित व कार्यान्वित करने वाला दर्शन, चिन्तन या विचारधारा ही 'जनवाद' है। वर्ग-विभक्त समाज में शासक व शाषित तथा शोषक व शोषित वर्गों में निरन्तर विचारधारात्मक संघर्ष रहता है। इस संघर्ष में जहां एक ओर शोषक-शासक वर्ग के साधनों पर अपने स्वामित्व, सामाजिक वर्चस्व तथा राजनीतिक सत्ता का औचित्य ठहराने के लिए विभिन्न तर्क रचता है, तो दूसरी ओर जन-सामान्य शोषण से मुक्ति व जीवन की बेहतरी के लिए अपने हितों को परिभाषित करता है। जनता की शोषण से मुक्ति, साधनों पर स्वामित्व तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का औचित्य ठहराने वाला दर्शन ही जनवाद है।
जनवाद के लिए 'जनतंत्र', 'प्रजातंत्र', 'लोकतंत्र' आदि शब्द भी प्रयोग किए जाते हैं। जनवाद एक व्यापक शब्द है, जो जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक हितों को समाहित करता है, जबकि ये शब्द शासन-सत्ता व राजनीतिक संदर्भ तक ही सीमित रहते हैं।
'जनवाद' शब्द में 'जन' शब्द काफी महत्वपूर्ण है, जिसे आमतौर पर तो मानव मात्र के लिए प्रयोग किया जाता है, लेकिन जब इसके साथ 'वाद' लगाया जाता है तो इसका प्रयोग समाज के दलित, शोषित, वंचित, किसान, श्रमिक, नौकरीपेशा लोगों के लिए किया जाता है। शोषणपरक व्यवस्थाओं में समाज के सभी स्तरों पर शोषण होता है, लेकिन जो वर्ग सबसे निम्न स्तर पर होते हैं उनका सर्वाधिक शोषण होता है। सर्वाधिक शोषितों के हितों को परिभाषित करने वाला दर्शन जनवाद है।
जनवाद और माक्र्सवाद में प्रवृतिगत समानता है, लेकिन पर्यायवाची नहीं हैं, जैसा कि आमतौर पर मान लिया जाता है। जनवादी होने के लिए माक्र्सवादी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है, लेकिन माक्र्सवादी के लिए जनवादी होना अनिवार्य है। माक्र्सवादी दृष्टि जनता के हितों को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित व परिभाषित करने में सहायता करता है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, नस्ल, लिंग आदि के आधर पर भेदभाव के बिना सबको विकास के समान अवसर प्राप्त करना तथा 'समता, स्वतंत्रता और भाईचारा' जनवाद का संकल्प है। माक्र्सवाद इन मूल्यों को अपनाता है, इसलिए माक्र्सवादी साहित्य जनवादी मूल्य अपनाने व उनको प्राप्त करने के लिए चेतना का विकास और संघर्ष करने का साहस पैदा करता है।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, नस्ल, क्षेत्र की संकीर्णता आधारित पहचान व सामन्ती संरचनाएं जनवादी चेतना के विकास में बाधक हैं। पहचान के संकीर्ण दायरों को तोड़कर ही वर्गीय पहचान संभव है, जो जनवादी चेतना के लिए अनिवार्य है। मानव को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग, नस्ल की संकीर्णताओं से बाहर निकालकर मानवीय पहचान देना जनवादी सरोकारों में प्रमुख है। मानवीय पहचान व गरिमा के लिए संघर्ष करना इसकी अगली कड़ी है।
संकीर्णताओं को त्यागकर मानवीय पहचान के लिए तथा जनवाद की दिशा में साहित्य ने हमेशा ही प्रयास किया है, लेकिन इसके लिए संगठित व योजनाबद्ध प्रयास की शुरूआत सन् 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से हुई। इस अवसर पर प्रेमचन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य की कसौटी बदलने की बात कहकर इसे परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।" इसके बाद से साहित्य में जनवादी मूल्यों को प्रमुखता से स्थान दिया। जनता के हितों व संघर्षों को साहित्य में अभिव्यक्ति मिली, जिससे जनता के संघर्षों में भी नई जान आई। साहित्य में प्रगतिवाद नामक आन्दोलन उभरा, जिसने मजदूरों, किसानों, वंचितों, पीडि़तों, शोषितों की स्थिति को प्रमुखता से अभिव्यक्ति दी। साहित्य-संस्कृतिकर्मियों ने जनता के तकलीफों में शामिल होकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जनवादी चेतना ' इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोश्यिेशन) के आन्दोलन ने बंगाल के अकाल के दौरान जनता की मदद की थी।
जनता के पक्षधर्र साहित्य के स्वरूप को लेकर निरन्तर चर्चा रही है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस पक्ष पर गहराई से विचार करते हुए लिखा कि "जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है।" मुक्तिबोध ने जनता के साहित्य की पहचान, जनवादी साहित्य के सरोकारों को सही परिभाषित किया है। उन्होंने जनवादी सौंदर्य के तत्वों को भी व्याख्यायित किया है, जो जनवादी साहित्य के मूल्यांकन की आधर बने हैं। उन्होंने ''जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से क्रांति-पथ पर मोडऩे वाला साहित्य, मानवीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला, स्वातन्त्रय और मुक्ति के गीतों को गाने वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा व स्नेह के सुकुमार दृश्यों" वाले साहित्य को जनवादी सरोकारों के साहित्य में सम्मिलित किया है।
जनवादी साहित्य 'कला के लिए कला' में नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' में विश्वास करता है, इसलिए जीवन को बेहतर बनाने वाले समस्त तत्वों का कलात्मक समर्थन तथा जीवन को विकृत करने वाले तत्वों का विरोध इसकी स्वाभाविक प्रवृति है। शोषक-शासक राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण करके ही जनता का शोषण करता है, इसलिए शोषक वर्ग के राजनीतिक मंतव्यों का उद्घाटन तथा उसकी सत्ता की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिए जनवादी रचनाकार राजनीतिक विषयों पर रचना करने से परहेज नहीं करते। साहित्य में जनपक्षीय राजनीति व विचारधारा नारों के रूप में नहीं, बल्कि दृष्टि के तौर पर निहित रहती है। सर्वमान्य विचार है कि जो साहित्यकार अपने वर्ग की राजनीति को अन्य मूल्यों के साथ जितना संबद्ध् करके प्रस्तुत करता है, वह उतना ही अपने मंतव्य में सफल कहा जाता है। महाभारत और रामायण में राजनीति के प्रस्तुतिकरण को आदर्श माना जा सकता है। यहां राजनीति को एक बड़े सवाल के साथ प्रस्तुत किया गया है अत: उसमें सीधे सत्ता संघर्ष होते हुए भी राजनीति अखरती नहीं है।
समाज में जनवादी आन्दोलन ने साहित्य को प्रभावित किया है, जिस क्षेत्र में जनवादी आन्दोलन का रूप तीखा रहा है, वहां के साहित्य में जनवादी मूल्य भी उतनी प्रखरता के साथ आए हैं। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन का उदाहरण हमारे सामने है, वहां जोतिबा पूफले और डा. भीमराव आम्बेडकर के आन्दोलन बहुत ही प्रखर रहे हैं, तो दलित-साहित्य भी वहीं पनपा और अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। किसी क्षेत्र या समाज का साहित्यिक परिदृश्य असल में उसके व्यापक परिदृश्य का ही अंश होता है। समाज के व्यापक परिदृश्य में उसके साहित्यिक परिदृश्य का आकलन एवं विश्लेषण किया जा सकता है।
हरियाणा क्षेत्र में स्वतंत्रता-आन्दोलन कमजोर था। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान आधुनिक मूल्यों की स्थापना समाज में हुई वह भी यहां लगभग नदारद ही रही। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति भी हरियाणा में जातिगत व क्षेत्रीय संकीर्णताओं के दायरे में ही सिमटी रही। धर्मनिरपेक्ष व जनवादी परम्पराएं ठोस जगह यहां नहीं बना पाईं। यहां के समाज में आधुनिक राजनीति व संस्थाएं परम्परागत ढांचों में ही आई। आधुनिक संरचनाओं में परम्परागत विचारधारा ही अपनी जडें जमाए रही, जबकि साहित्य का फूल हमेशा नवीनता की जद्दोजहद में ही खिलता है। हरियाणा के राजनीतिक-सांस्कृतिक विचारधारात्मक पिछड़ेपन के कारण यहां का साहित्य भी पिछड़ा ही रहा, पिछड़ेपन की यह परम्परा अभी भी जारी है। मध्यकाल में दो-चार नाम बड़े साहित्यकारों के लिए जा सकते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में हरियाणा से था। आधुनिक काल में अल्ताफ हुसैन 'हालीÓ और बाबू बालमुकुन्द गुप्त के नाम लिए जा सकते हैं, जिन्होंने साहित्य को नई जमीन प्रदान की। इसके बावजूद हरियाणा में साहित्य की समृद्ध परम्परा नहीं रही। मध्यकाल में साहित्य लेखन व संरक्षण के केन्द्र या तो धार्मिक मठ थे या राजाओं-सामन्तों के दरबार। हरियाणा में इक्का-दुक्का स्थानों को छोड़कर ऐसा कोई साहित्यिक केन्द्र नहीं उभरकर आया, जिससे कि साहित्य लेखन व पठन-पाठन की संस्कृति विकसित होती।
हरियाणा के वर्तमान साहित्य पर नजर डाली जाए, तो यहां प्रगतिशील व जनवादी रचनाकार भी काफी बड़ी संख्या में हैं और जेनुइन साहित्यकार के तौर पर उनकी समाज में पहचान है। उनके साहित्यिक मूल्य व सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर नजर आ जाते हैं। इनके लिए साहित्य लेखन मात्र अपनी प्रतिष्ठा या कला-कौशल के प्रदर्शन का क्षेत्र नहीं है, बल्कि कुछ आदर्शों व मूल्यों को समाज में स्थापित करने का माध्यम है। साहित्य से उनकी सामाजिक अपेक्षाएं व सरोकार उनके विषयवस्तु के चयन व उसके प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करते हैं। इन रचनाओं के केन्द्र में दलित, पीडि़त, वंचित वर्ग हैं, जीवन के लिए संघर्ष करते आम जन हैं, जिजीविषा लिए हुए जीते-जागते चरित्र हैं। समाज को बेहतर बनाने की छटपटाहट इनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है। समाज को बदलने व बेहतर करने का संकल्प ही यथार्थ को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करने की ओर ले जाता है।
हरियाणा के समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को, पीड़ाओं को, समस्याओं को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले साहित्यकारों में प्रमुख तौर पर तारा पांचाल, मनमोहन, विजय कुमार सिंघल, बलबीर सिंह राठी, ओमप्रकाश ग्रेवाल, आबिद आलमी, प्रदीप कासनी, ओमसिंह अशफाक, हरभगवान चावला, जयपाल, स्वदेश दीपक, ज्ञानप्रकाश विवेक, ललित कार्तिकेय, सही राम, भगवान दास मोरवाल, अमृतलाल मदान, रामकुमार आत्रोय, ब्रजेश कृष्ण, राणा गन्नौरी, पुरन मोदगिल, महेन्द्र प्रताप चांद आदि का नाम लिया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा के साहित्यकार की प्रभावी उपस्थिति के बावजूद हरियाणा के साहित्य-भण्डार में बोलबाला यथास्थितिवादी रचनाकारों का ही है, जो साहित्य की प्रतिबद्धता के सवाल पर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। तटस्थता की आड़ में 'कला के लिए कलाÓ के विचार का समर्थन करते हुए साहित्य की सामाजिक भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लगाते रहते हैं। सामाजिक दायित्व विहिन साहित्य में इकहरा यथार्थ रचनाओं की नियति बन जाता है। समाज में घटित किसी घटना को कलमबद्ध कर देने से कोई साहित्यकार न तो पाठकों पर प्रभाव छोड़ पाता है और न ही उनकी समझ को विकसित कर पाने में ही कोई मदद कर पाता है। रचनाकार को रचना में यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है वहीं आकर रचनाकार का साहस चुक जाता है। अधिकांश रचनाकार बड़ी सहजता से कह देते हैं कि कविता का 'प्रस्फुटन' हुआ है। साहित्य-रचना उनके लिए 'दैवीय गुण' है, 'जन्मजात प्रतिभा' का नतीजा है, जिसमें वे कुछ खास नहीं कर सकते। साहित्य-सृजन का यह सैद्धान्तिक आग्रह व्यक्तिगतता तक सिकोड़ देता है। साहित्य उनके लिए समाज परिवर्तन का औजार नहीं रहता, बल्कि वह रसास्वादन का माध्यम बन जाता है। आत्ममुग्धता की स्थिति में रचनाकार अपने पर ही रिझा हुआ है और समाज हो रहे बड़े-बड़े आन्दोलन व परिवर्तन को न तो उनकी दृष्टि पहचान पाती है और न ही वे उनके साहित्य की रचनाओं का विषय ही बन पाती हैं।
यदि साहित्य-रचना की मात्र पर नजर डाली जाए तो बड़ी मात्र में साहित्य प्रकाशित हो रहा है। हरियाणा में साहित्य सृजन की मात्र तो निराश करने वाली नहीं है। हर वर्ष कितने ही कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह व अन्य साहित्यिक विधाओं में सृजनात्मक साहित्य के नाम पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। सैंकड़ों नाम लिये जा सकते हैं जो साहित्यकार के तौर पर समाज में प्रतिष्ठित हैं। इसी स्थिति ने हरियाणा के साहित्य और समाज में घटित हो रही घटनाओं का तथा साहित्य के यथार्थ का कोई सम्पर्क नहीं बन रहा है। समाज में कुछ घटित हो रहा है और साहित्य किसी दूसरी ही दुनिया का परिचय दे रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हरियाणा में अमानवीयता और बर्बरता की घटनाएं घटी हैं, लेकिन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति लगभग नदारद है। दलित उत्पीडऩ की भयावह घटनाएं तो घटनाओं पर तो चुप्पी जैसी स्थिति ही है और लड़कियों का हरियाणवी समाज से गायब होना जितनी चिन्ता का विषय समाजशास्त्रियों के लिए बना, उतना साहित्यकारों के लिए नहीं। पूरी परिस्थिति को उद्घाटित करती रचनाओं का घोर अकाल है, लेकिन इस विषय पर भावुक किस्म की रचनाएं अवश्य आई हैं।
हरियाणा के साहित्य पर नजर डालने पर एक चिन्ताजनक पक्ष - साहित्यकारों का वास्तविक हरियाणा के अपरिचय का है। साहित्यिक रचनाओं में हरियाणा का बहुत ही छोटे से वर्ग की समस्याएं नजर आती हैं। हरियाणा का अधिकांश समाज कृषि पर आधरित है और गांवों में रहता है, लेकिन साहित्य में शहरों रहने वाले मध्यवर्ग का छोटा सा हिस्सा ही छाया हुआ है। गांव यदि कहीं आया भी है, तो वह इतने सीधे सपाट ढंग से कि उसके अन्तर्विरोध प्रकट नहीं होते। शहरी जीवन से गायब सामुदायिकता और भाईचारे का स्थानापन्न की जगह के रूप में ही गांव मौजूद है। संवेदनशील मन का कल्पित गांव तो यहां दिखाई देता है, लेकिन वास्तविक गांव नहीं। गांव के बारे में बड़ी ही 'नास्टेलजिक' भावना है। नए विकास व बदलते संदर्भों में गांव का नया स्वरूप यहां नहीं है। 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?, क्यों न सबका मन ललचाए' वाली रोमानी छवि ही हावी है। अपने अस्तित्व मात्र के लिए लड़ती गांव की अधिकांश आबादी यहां से पूर्णत: गायब है।
समाज में परिवर्तनकामी वर्गों की चेतना धरण किए बिना व उनके संघर्षों में शामिल हुए बिना कोई रचनाकार हो रहे परिवर्तनों को बहुत विश्वसनीय ढंग से अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता। परिवर्तन के आन्दोलन से कटकर रचना करने वाले साहित्यकारों की स्थिति 'शतरंज के खिलाडिय़ों' जैसी ही होती है, जो अपने साहित्यिक शतरंज के खेल में इतने मस्त हैं कि सामाजिक परिवर्तन उनके पास से ही गुजर जाते हैं।
एक-दूसरे को सम्मानित करने का 'दोस्ती-धर्म' निभाने की परम्परा ने यहां साहित्य-विमर्श को उभरने नहीं दिया। इस माहौल में साहित्य की समीक्षा का स्तर लगभग ऐसा है जैसा कि शादी में 'सेहरा' पढ़ा जाता है। समीक्षा में रचनाशीलता की ताकत व कमजोरी को उद्घाटन करने की बजाए लेखक की 'आरती' गाई जाती है। इस महिमामंडन में लेखक भी आनन्दविभोर होता है और इसी में कथित समीक्षक अपनी 'शास्त्रीय' प्रतिभा का प्रर्दशन करता है। रचना के विकास में इस 'स्तुति-संस्कृति' ने बहुत नुक्सान किया है। आग में तपकर ही सोने में चमक आती है, उसी तरह साहित्यकार भी विचार-विमर्श की आंच में तपकर ही उतरोतर विकास करता है। रचना पर विचार-विमर्श के अभाव में जैसा वह लिखना शुरू करता है, वैसा ही लिखता रह सकता है। विचार-विमर्श के अभाव में दोहराव रचनाकार की ऐसी सीमा बन जाती है कि उसकी रचनाधिर्मता का असामयिक निधन हो जाता है और वह 'वरिष्ठ' साहित्यकार का दर्जा पाते ही उपदेशक की मुद्रा में आ जाता है। नए उभर रहे साहित्यकारों के लिए कुछ कहने को उसके पास नहीं होता तो वह उनको खारिज भी करने लगता है। इसलिए 'वरिष्ठ' साहित्यकारों को अक्सर शिकायत होती है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जा रहा। सही है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जाएगा। लेकिन जब वे 'वैसे' को ही आदर्श लेखन मान लें तो नए लेखन के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं। अक्सर नए साहित्य के बारे में निराशाजनक टिप्पणियां सुनने को मिल जाएंगी।
लगभग हर शहर और कस्बे में साहित्यिक संस्थाएं व सभाएं हैं, जो नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां व कार्यक्रम करती हैं, लेकिन अपनी नियमितता के बावजूद ये गोष्ठियां कोई साहित्यिक माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। इन गोष्ठियों की जबरदस्त सीमा यही है कि इनमें रचनाओं पर कोई बातचीत नहीं होती, कोई विचार-विमर्श नहीं होता। रचनाकारों को अपनी रचनाएं सुनाने में ही अधिक रुचि रहती है या फिर अधिक से अधिक एक दूसरे को सुनने का बारी-बट्टा और यही फार्मूला एक दूसरे की तारीफ करने में लागू किया जाता है। पुराने समय के मुशायरों के वाह-वाह की संस्कृति इन रचना-गोष्ठियों में हावी है। इसलिए रचनाकार का विकास कर पाने में ये कोई खास मदद नहीं कर पाती।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन और पाठकों से जुड़ाव भी साहित्यिक परिदृश्य का महत्वपूर्ण पक्ष है। पाठकों और लेखकों के बीच में पत्रिका ही वह पुल है जो एक दूसरे को जोड़ता है। हरियाणा में कुछ गिने-चुने नाम ही साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। हरियाणा में 'पल-प्रतिपल' ही एक ऐसी पत्रिका है, जो साहित्य को बड़ी गम्भीरता से प्रकाशित करती है। 'जतन' पत्रिका से भी हरियाणा के साहित्य पाठक परिचित हैं, लेकिन इसकी अनियमितता साहित्य के प्रसार व विकास में कोई निरन्तरता नहीं बना पाती।
साहित्य के गम्भीर प्रकाशन व प्रकाशन गृह भी प्रदेश में न के बराबर हैं। 'आधार प्रकाशन' ने एक समय में गम्भीर साहित्य प्रकाशित किया और नए रचनाकारों की रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। हरियाणा के किसी शहर में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां से साहित्य उपलब्ध हो सके। पुस्तकों की दुकानें पूरी तरह से परीक्षा में उपयोगी पुस्तकों से भरी पड़ी हैं। कोई यदि साहित्य में रूचि ले भी तो साहित्य की अनुपलब्धता की भारी समस्या का सामना उसे करना पड़ता है। 'साहित्य उपक्रम, करनालÓ ने साहित्य के प्रकाशन व प्रसारण के लिए कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया। एक छोटी गाड़ी के माध्यम से गांव-गांव व शहर-शहर जाकर साहित्य पंहुचाने का प्रयास किया। कैथल की 'अक्षर धाम' संस्था ने शहर शहर पुस्तक-प्रर्दशनी व मेले लगाकर लोगों के बीच साहित्य पहुंचाने का प्रयास किया है, लेकिन साहित्य की जरूरत व प्रभाव को देखते हुए ये प्रयास सीमित ही कहे जा सकते हंै।
'हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, रोहतक' व 'राज्य संसाधन केन्द्र, रोहतक' ने भी अपनी विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से साहित्य के प्रसार को महत्व प्रदान किया। विशेष तौर पर साक्षरता आन्दोलन के दौरान हजारों की संख्या में साहित्य के नए पाठक बने हैं और इसी दौरान कितने ही नव लेखक उभरे हैं। साहित्य के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करने के लिए छटपटाहट दिखाई दी है। जिन वर्गों का साहित्य से कोई जुड़ाव नहीं था, न पाठक के तौर पर और न ही लेखक के तौर पर उनमें से ही साहित्यकार उभर कर आ रहे हैं। साहित्य इन वर्गों के लिए नया क्षेत्र है, लेकिन जिस तरह से इन्होंने साहित्य लेखन को नए अनुभव से जोड़कर नई ऊर्जा व ताजगी दी है, उससे जरूर शुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं।
'हाली' व बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने अपनी कविताओं में जनवादी सरोकारों को अभिव्यक्त करके हरियाणा की कविता की नींव डाल दी थी, लेकिन उनके बाद यह परम्परा कुछ मन्द पड़ी रही लेकिन अस्सी के दशक के बाद से कविता में जनवादी स्वर निरन्तर विद्यमान हैं। हरियाणा के जनवादी सरोकारों की कविताओं के पढऩे के बाद स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ये कविताएं हरियाणा के जीवन को वास्तव में व्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कविताएं हैं, जिनमें लफ्फाजी नहीं, बल्कि समाज की सच्चाई अपनी पूरी जटिलताओं के साथ मौजूद है। हर रचनाकार का विशिष्ट मुहावरा है, जो उसके विशिष्ट अनुभवों को प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। विषय वस्तु की दृष्टि से विविधता इन कविताओं में अपनी बात को पाठक तक संप्रेषित करने का जबरदस्त कौशल देखने को मिलता है।
हरियाणा के कविता के जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली कविता को समझने के लिए समय समय पर लिखे गए लेख इस पुस्तक में शामिल हैं। जो अपने में स्वतंत्र लेख हैं, चूंकि एक जगह से कविता उगी है और एक दृष्टि है तो सबको एक साथ पढऩे पर हरियाणा की कविता का स्वरूप समझने में कुछ मदद मिलेगी, इसलिए इनको पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनी। श्री देश निर्मोही को हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला तो उन्होंने साहित्यिक सृजन को बढ़ावा देने के लिए कालेजों के विद्यार्थियों यानी नवोदित रचनाकारों की कविताओं को 'दस्तक' नाम से पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। 'दस्तक' भाग एक व दो की भूमिका के तौर पर संकलित लेखों को भी इसमें शामिल किया है। इन कविताओं को पढ़कर हरियाणा के साहित्य की दिशा के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
इस पुस्तक का श्रेय मैं श्री देश निर्मोही, पूर्व निदेशक साहित्य अकादमी हरियाणा को देता हूं, जिन्होंने सामाजिक विषयों में रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को कविता की ओर प्रेरित किया तथा कार्य के महत्त्व पर व कर्तव्य का वास्ता देकर ये लेख लिखवा लिए तथा प्रकाशित भी किया।
डा. सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र