हरियाणा के
प्रतिष्ठित रचनाकार रामकुमार आत्रेय की लघुकथाओं, कहानियों और कविताओं से गुजरना
अपने समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं और वैयक्तिक मानस के भीतर हो रहे
परिवर्तनों को पहचानना है। उनकी कविताओं का संग्रह ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। ये कविताएं बाजारवादी मूल्य और सामाजिक
संघर्ष के प्रति व्यक्ति की उदासीनता के अन्तःसंबंधों को समझाती हैं।
रामकुमार आत्रेय
के लिए सक्रियता एक जीवन-मूल्य है और निष्क्रियता मृत्यु का लक्षण। ‘कबीर का दुख’, ‘तालियां’ ‘मेरी लड़ाई’, ‘तालाब का पानी’ ‘परम्परा’ आदि कविताएं सामाजिक
समस्याओं, सामाजिक संकटों और सामाजिक सवालों पर मौजूदा दौर में व्यक्ति का उदासीन
रवैया उद्घाटित करती हैं। ये कविताएं एक बड़ी कविता के हिस्सों की तरह से हैं,
इनको एकसाथ पढ़ने से समाज का पूरा परिदृश्य उभरता है। ये एक थिसीस प्रस्तुत करती
हैं। सामाजिक दायित्वों के प्रति निष्क्रियता धीरे-धीरे मनुष्य की रचनात्मक-योगदान
की इच्छा को ही समाप्त कर देती है, जिसके अभाव में व्यक्ति शोषणकारी-व्यवस्था में
समायोजित हो जाता है। ‘तालाब का पानी’ कविता इस
प्रक्रिया को बहुत सहज ढंग से व्यक्त करती है। तालाब यहां व्यवस्था है, जिसका पानी यानी सार-तत्व मूल्य सड़ गया है। इस पर सब
सहमत हैं। उसके दुष्परिणामों के बारे में भी सचेत हैं और दुरुस्त करने के तरीकों
पर खूब बहस भी है। लेकिन सड़े हुए पानी को
साफ करने की बजाए ‘नाक पर रूमाल’ रखकर उससे बचकर
निकल रहे हैं। वैयक्तिक तौर पर बचने के इन उपक्रमों से बचा नहीं जा सकता। व्यवस्था
की सड़न हमारे खून में दौड़ने लगती है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि सड़न का
एहसास भी खत्म हो जाता है।
तालाब का पानी
धीरे धीरे
हमारा पीछा करता
हुआ
चला आया था
हमारे अपने घरों
तक
और अब हमें
उसमें से बदबू भी
नहीं आती थी
बहस हम अब भी करते
थे
पर बहस में तालाब
का पानी
कहीं नहीं होता था
(तालाब का पानी, पृ.-57)
रामकुमार आत्रेय
सड़ चुकी व्यवस्था से बच कर निकलने की बजाए इसे बदलने का अहसास पैदा करते हैं,
लेकिन वे देखते हैं कि सामाजिक-आन्दोलनों और सामूहिक कार्रवाइयों का अभाव है। यदि
कोई सामाजिक-बदलाव का साहस करता है, तो इस संघर्ष में स्वयं को अकेला पाता है। ‘पूरी तरह सच्चा होते हुए भी, उसका अकेला पड़ जाना’ (पृ.-96) ‘कबीर का दुख’ ही नहीं, बल्कि रामकुमार आत्रेय का दुख
भी है।
सामूहिक-अकर्मण्यता
का कारण रामकुमार आत्रेय व्यवस्था प्रदत्त सुख और सुरक्षा से उत्पन्न गुलाम
मानसिकता में देख रहे हैं। व्यवस्था का ‘पिंजरा’ इसके नागरिकों को
सुखाभास दे रहा है। दासता आदमी मूल स्वभाव नहीं है, लेकिन व्यवस्था उसे जकड़ लेती
है। फिर वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। रामकुमार आत्रेय महसूस करते हैं कि इस पिंजरे
यानी व्यवस्था को तोड़कर ही इसके नागरिकों को गुलामी के अहसास से निकाला जा सकता है।
सच, न्याय और
ईमानदारी की हार की निश्चित होते हुए भी उससे लिए लड़ने की हिम्मत रखने वाले लोग
हैं, लेकिन व्यवस्था के सुखाभास में जकड़े अधिकांश लोग इस संघर्ष में सिर्फ ‘तालियां’ बजाते हैं। उनके विवेक व चेतना पर व्यवस्था की काई जम गई है। संघर्षों के प्रति
लोगों की उदासीनता को लेकर रामकुमार आत्रेय के मन में गहरी पीड़ा है, जिसे वे
व्यक्त करते हैं।
आज
झूठ, अन्याय और
बेईमानी के बीच घिरा
विवश हूं मैं एक
अकेला
फुटबाल की तरह
उनकी ठोकरें खाने को
और तुम हो कि
अब भी बजाए जा रहे
हो तालियां। (तालिया, पृ.-15)
रामकुमार आत्रेय
समाज और व्यवस्था की बुराइयों-विकृतियों-असंगतियों को दूर करने के संघर्षों की
परम्परा को रेखांकित करते हैं। व्यवस्था की ताकत और परिवर्तनकामी शक्तियों के
लघु-शक्ति, लेकिन असीम साहस को महत्व देते हैं। ‘समुद्र के खारेपन को मिटाने में अपने अस्तित्व को मिटाती बूंद’ और ‘अपने छोटे छोटे पंखों से आकाश को नापता पक्षी’ संघर्ष की ‘परम्परा’ है, जो वर्तमान में संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। सकारात्मक बदलाव के लिए किए
गए संघर्ष, त्याग व बलिदान के छोटे-छोटे प्रयासों की सफलता के प्रति एक आशा का
स्वर निहित है। अपनी शक्ति का सही प्रयोग करने पर जोर देते हैं।
ईश्वर ने मुझे
अपनी ओर से
किसी को नए पंख
देने का
अधिकार नहीं दिया
है
इसके विपरीत आदेश
दिया है
कि मैं उन पंखों
को काटकर ले आऊँ
जिन्होंने उड़ने
से इनकार कर दिया है
या फिर उड़ना छोड़
दिया है। (‘उड़ान’, पृ-93)
सामाजिक-शाक्तियों
के बीच संघर्ष में सकारात्मक शक्तियां निष्क्रिय हैं। इसीलिए रामकुमार आत्रेय का
कहना है कि ‘मेरी लड़ाई’ अंधेरे से नहीं,
बल्कि सूरज से है। अंधेरा ताकतवर नहीं हैं, लेकिन रोशनी की शक्तियां निष्क्रिय
हैं।
मेरी लड़ाई अंधेरे
से नहीं
सूरज से है
अंधेरे की क्या
मजाल
कि वह
किसी का कुछ
बिगाड़ पाए
उसका अस्तित्व तो
सूरज पर निर्भर है
(मेरी लड़ाई, 44)
रामकुमार आत्रेय
की कविता आशा का संचार करती हैं। ऐसे चित्रों-बिम्बों-पात्रों के दर्शन यहां होते
हैं, जो हिम्मत से आगे बढ़ते हैं और अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ‘पंख’ कविता का युवक अपने रास्ते पर अग्रसर होता है, तो उसके पंख उग आते हैं। जो इस
ओर संकेत करते हैं कि आन्दोलनविहीन परिवेश में अपनी आन्तरिक शक्ति और हिम्मत को
पहचान कर ही व्यक्ति संघर्ष कर सकता है।
वापस लौट चलने की
उनकी सलाह को
अनसुना कर आगे बढ़
चला था
तब ठीक उनकी आंखों
के सामने ही
उसकी देह पर उग आए
थे
दो बड़े बड़े
खुरदरे सुनहले पंख
(पंख, पृ-14)
बाजारवाद,
उपभोक्तावाद और मीडिया के समाज पर प्रभाव रामकुमार आत्रेय की कविता का केन्द्रीय विषय है। मीडिया में मानव त्रासदियों
की मनोरंजक प्रस्तुति समाज की संवेदना को भोंथरा बना रही है। ‘ईमारत का गिरना’, ‘सामूहिक बलात्कार’, ‘बाढ़’ आदि त्रासदियां
एंज्वाय का साधन बन गई हैं। ‘बड़ी खबर’ को व्यावसायिक मीडिया ने मनोरंजन में बदल दिया है। मानवीय पीड़ा के इस उत्सव
में पीड़ित की चीख-पुकार दब गई है।
आपसे अनुरोध
एंज्वाय करने के
लिए इन जिंदा अनुभवों को
रहिए हमारे साथ
देर रात तक (बड़ी खबर, पृ.-67)
बाजारवादी-उपभोक्तावादी
मल्यों से संघर्ष रामकुमार आत्रेय की कविता का प्रमुख संकल्प है। बाजार के मूल्यों
के विरूद्ध मानवीय मूल्यों की रचना कर रही हैं। इसी संघर्ष में कविताएं अपना
रूप-आकार ग्रहण करती है। बाजार निर्मित अवधारणाओं और समाज की वास्तविक स्थितियों के
बीच की गहरी खाई ने संतुलन बिगाड़ दिया है। मसलन ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ कविता का पति के सौंदर्यबोध को बाजार निर्मित कर रहा है। उसे बनी-ठनी-सजी
खुशबू छोड़ती मुस्कराती हुई पत्नी की अवधारणा बाजार ने दी है, लेकिन वास्तव में
जिस पत्नी से उसका निर्वाह हो रहा है, वह एक कर्मठ घरेलू स्त्री है, जिसे अपने पति
और बच्चों की देखभाल करनी है। उसके मन में बाजार की मूल्य-व्यवस्था ने घर कर लिया
है। विडम्बना यह है कि बाजार निर्मित अवधारणा की स्त्री और उसकी वास्तविक परिस्थितियों
में भारी अन्तर है।
रामकुमार आत्रेय
की कविता बाजार के प्रभावों से पिस रहे मनुष्य का करुणा-विगलित चित्रण नहीं करती, बल्कि उसे समझने और उससे संघर्ष का
विवेक भी पैदा करती है। बाजार की मूल्य-प्रणाली के समानान्तर अवधारणाओं का निर्माण
करते हुए जीवन को समझने का सूत्र सहज ही दे जाती है। उसकी सुविधाओं को प्राप्त
करके बाजार को नहीं जीता जा सकता। उसकी विकृतियों से मुक्ति के लिए उसकी विचारधारा
से वैचारिक टक्कर लेने की जरूरत है। बाजार में धंसकर उसे नहीं समझा जा सकता, बल्कि
उससे बाहर आकर समझा जा सकता है।
दुखों को दूर करने
का अर्थ
सुखी होना नहीं है
सुखों की
निस्सारता को जानना
और बुद्ध बन जाना
है। (बुद्ध बन जाना है ,पृ.-19)
बाजारवाद एक
शोषण-प्रक्रिया का नाम है, जिसके माध्यम से ऐसे संसार की रचना हो रही है, जिसमें कुछ
लोगों के पास अथाह सुख हैं और अधिकांश ठन-ठन गोपाल। एक ओर चमकता भारत है, दूसरी ओर
पीड़ित भारत। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से पूंजी का प्रवाह इस
तरह से हुआ है कि खरबपतियों की संख्या भी बढ़ रही है और गरीबों की संख्या में भी
बेतहाशा वृद्धि हो रही है। ‘बड़े पेट वाला घोड़ा’ समस्त संपदा को निगलने पर तुला है। ‘बड़े पेट वाला घोड़ा’ पूंजी का घोड़ा है जो पूरे विश्व की संपदा को चर रहा है। ज्यों-ज्यों वह खा
रहा है, त्यों-त्यों उसके पेट की इच्छा-क्षमता भी बढ़ रही है।
बाजार-प्रसूत उपभोक्तावाद न केवल आर्थिक-भौतिक शोषण कर रहा है, बल्कि
सांस्कृतिक-आत्मिक शोषण भी कर रहा है। बाजार ने ‘गांव’ की संपदा के साथ साथ वहां की सामुदायिक संस्कृति, जीवन का भोलापन-सरलता को लील
लिया है। इस प्रक्रिया में गांव का स्वरूप बदला है। गांव न तो गांव ही रह पाए हैं
और न शहर ही बन पाए हैं, यही सबसे बड़ी विडम्बना है। बाजार एक सपना बेच रहा है, जो
समाज के अभावग्रस्त को मुंह चिड़ा रहा है। ‘सपने का बालक’ अभावग्रस्त समाज का प्रतिनिधि है, जिसके पास मूलभूत वस्तुएं भी नहीं हैं। ‘खेलें चीरहरण’ कविता स्त्री की अस्मिता पर आए दिन हो रहे बर्बर-क्रूर अमानवीय हमले को
प्रस्तुत करती है। बाजारवादी होड़ सबसे घातक आक्रमण संवेदना पर
होता है। बाजार की चपेट में सबसे अधिक
मध्य वर्ग आता है, ‘सागपुरी खाता रमुआ’ उसकी संवेदनशून्यता को व्यक्त करता है।
बाजारवाद समाज के प्रत्येक
पक्ष को प्रभावित कर रहा है। साहित्य व कविता के आईकन भी वह बना रहा है। जो
साहित्यकार बाजार के पक्ष में माहौल तैयार कर रहा है, उसे बाजार लाभ पहुंचा रहा
है। बाजार में उसी की कीमत है जो बिक सके और खरीदा जा सके। श्रेष्ठ साहित्य का
पैमाना भी उसमें समाहित मूल्यों से नहीं, बल्कि बिक्री की मात्रा और तद्जनित
मुनाफे से है। बेचने और बिकने की कला ही बाजार की कला है, जो इस कला में सिद्धहस्त
है, वही बाजार का चहेता है। इन बाजार-पुत्र कलाकारों-साहित्यकारों का खूब पोषण हो
रहा है। लिटरेरी-फेस्टीवल आयोजित करके, बेस्ट-सैलर का भ्रामक-प्रचार करके, हर
छोटी-बड़ी समस्या पर छोटे पर्दे पर उनके प्रवचन करवाके उनके लिए बाजार ने अपने
खजाने के मुंह खोल रखे हैं।
उन्हीं के हिस्से
में आए
सारे सम्मान
सारे पुरस्कार
उन्हीं को मिला धन
उन्हीं को मिली
प्रसिद्धि
उन्हीं के किस्से
छपते रहे अखबारों
में
उन्हीं के पीछे
घूमती रहीं
पागलों की तरह
सुंदर स्त्रियां
चमचमाती सफलताएं
उनका परिचय सिर्फ
इतना ही
कि स्वयं को
बेचने की कला में
हो गए थे माहिर। (बड़े कलाकार, पृ.-32)
कवि रामकुमार
आत्रेय की पीड़ा है कि बाजारवाद के युग में साहित्यकारों के सृजन-कर्म और जीवन-कर्म
में गहरी खाई है। यही बात लेखक को कचोटती है। ईमानदार अभिव्यक्ति के अभाव में कवि
कविता से आंख मिलाने से डरता है। उसका कारण यही है कि वह कविता में व्यक्त किए
संकल्पों-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है।
अब तुमसे क्या
छिपाना मित्र
हम कवि लोग कविता
को
अपनी असली जिंदगी
से
कुछ अलग ही रखते
हैं
कविता भी हमारे इस
झूठ को जानती है
इसीलिए हम कविता
से आंख
मिलाने से डरते
हैं। (कवि का सच, पृ.-59)
रामकुमार आत्रेय
तटस्थता का ढोंग रचने वाले साहित्यकार नहीं हैं, बल्कि वे पीड़ित-पक्ष के प्रति
प्रतिबद्ध हैं। उनकी प्रतिबद्धता वक्तव्यों के माध्यम से नहीं, बल्कि कविताओं की
संरचना में ही मुखर होती है। किसी स्थिति, पात्र के प्रति लगाए गए विशेषणों में
दिखाई देती है। मसलन् ‘नींद में घरेलू स्त्री’ पीड़ित पक्ष है, इसलिए कवि उसकी तरफ है। इसका स्पष्ट तौर पर पता चलता है, जब
कवि उसके पति के खर्राटों की तुलना किसी जंगली पशु की गुर्राहट से करता
है।(पृ.-22) रामकुमार आत्रेय की कविता में उनके प्रति गहरा क्षोभ है, जो सिर्फ ‘तालियां’ बजा रहे हैं। वे पीड़ित के पक्ष में खड़े नहीं हो रहे। ‘उनका शौक’ कविता में कवि पगड़ियों को बैठक की दीवार पर सजाने को अजीब शौक की संज्ञा
देता है और यदि बहुत ही जरूरी हो तुम्हारा उनके यहां जाना में उनको महत्व नहीं
दिया जा रहा। कवि की प्रतिबद्धता की तीव्रता को ईश्वर कविता से समझा जा सकता है।
ईश्वर
मैं जानता हूं
कि तुम तो
मुझे कर ही दोगे
क्षमा
क्योंकि इतिहास
बताता है
कि तुम हमेशा
दोषियों को
करते रहे हो क्षमा
और निर्दोषों को
देते रहे हो सजा
पर याद रखना
एक कवि होने के
नाते मैं
कभी नहीं कर
पाऊंगा क्षमा तुम्हें
इन गलतियों के
लिए। (ईश्वर, पृ.-9)
रामकुमार आत्रेय
अपने काव्य-संकल्पों को भी कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं। साहित्य में जीवन
की सच्चाइयों की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण मानते हैं। मेहनतकश जनता के संघर्षों को
कविता में अभिव्यक्त करने को प्रतिबद्ध हैं। साहित्य रामकुमार आत्रेय के लिए बैठे
ठाले का धंधा नहीं है, वक्तकाटू खेल नहीं है, बल्कि साहित्य के लिए उनके जेनुइन
कन्सर्न है। साहित्य उनके लिए जीवन को समझने और बदलने की प्रक्रिया का हिस्सा है।
साहित्य में वास्तविक जीवन और जीवन में साहित्य की उपस्थिति को जरूरी मानते हैं।
जिंदगी की ठनक ही
रस पैदा करती है
आत्मा में
रामकुमार आत्रेय
साहित्य की शक्ति और उसके प्रभाव को समझते हैं। वही साहित्य असरकारी है, जिसमें
जिन्दगी की ठनक हो। वास्तविक जीवन की विश्वसनीय अभिव्यक्ति ही रामकुमार आत्रेय की
कविता की ताकत है। यहां स्थितियों का चमत्कृत करने वाला वर्णन नहीं है, न ही कोई
अतिरिक्त जोर किसी काव्य-औजार पर है। सच्चाई को उसकी विडम्बना के साथ प्रस्तुत
करना ही कविता को पाठक से जोड़ता है। ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ घरेलू स्त्री के जीवन को व्याख्यायित करती है कि बच्चों और पति की देखभाल की
दिनचर्या वह स्वयं खो गई है। इसकी इतनी अभ्यस्त हो गई है कि यह उसकी जैविक
प्रतिक्रिया हो गई है। नींद में भी वह अपने दैनिक जीवन के कार्यों के प्रति इतनी
सचेत है कि कोई गलती नहीं होती।
नाटकीयता, कौतूहल
और जिज्ञासा रामकुमार आत्रेय की कविता के शिल्प का अभिन्न हिस्सा है। नाटकीय
स्थिति कविता की पठनीयता बनाए रखने में मददगार होती है। ‘सागपूरी खाता रमुआ’ कविता में रमुआ का पूरियों पर टूट पड़ना, ऐसा देखकर मालिक का खुश होना, फर्श
गन्दा होने पर मालकिन का चिल्लाना आदि ऐसी स्थितियां हैं, जो वास्तविकता को
उद्घाटित करते हुए मध्यवर्ग की संवेदना-शून्यता की परतों को उद्घाटित करती है।
लोक चेतना,
लोक-विश्वास व लोक मुहावरों का कविता में अनायास उपस्थिति रामकुमार आत्रेय का लोक
से गहरा जुड़ाव दर्शाती है। लोक-विश्वास अर्थ को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करते
हैं। उल्लू को लोक में अनिष्ट की आशंका माना जाता है। ‘जिंदा ठूंठ’ कविता में ठूंठ के सिर पर ‘उल्लू’ का बैठना उसके
विनाश की ओर संकेत करता है। ‘पिंजरा’, ‘संदूक’, ‘तालाब’ आदि के प्रयोग मुक्ति के प्रति प्रबल आकांक्षा को ही
दर्शाते हैं। ‘पंख’ रामकुमार आत्रेय की कविता में बहुत आता है। पंख उड़ने का
संकल्प है।
अर्थ की सघनता के
लिए कविताओं में विपरीत स्थितियों, वस्तुओं अथवा क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। ये
विरोधात्मक प्रयोग स्थिति को तीव्रता में रेखांकित करते हैं। ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ के मिर्च-धनिया गंधाते हाथ और पति के मुंह से शराब की बदबू।
लेकिन कई बार इसका प्रयोग महज चमत्कार पैदा करने के लिए किया गया है, जिस कारण
अर्थ-सम्प्रेषण में अवरोध पैदा होता है। मसलन ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ कविता में ‘वह करती है प्यार,
उसे पूरी नफरत के साथ’।
रामकुमार आत्रेय
की कविता का कथ्य और शिल्प में एकात्मकता है। सरलता, सहजता उनके काव्य-शिल्प का
अनिवार्य गुण है। जिसमें कई बार सपाटता का भ्रम भी हो सकता है, लेकिन कभी क्रिया
से तो कभी नाटकीयता से कविता की संरचना में निहित वक्रता कल्पनाशील पाठक का
निर्माण करती है। कविता का शिल्प उसके कथ्य के साथ ही रुप आकार ग्रहण करता है। ‘उनका शौक’ कविता में सामन्ती मानसिकता, सामन्ती-संस्कार परिचालित जीवन का वर्णन करते
हैं। तो राजा-नवाबों के शौक, शेर-चीतों की खालों के साथ पगड़ियों को आना पूरे
सामाजिक-सांस्कृतिक व ऐतिहासिक संगर्भ को उद्घाटित कर जाता है। सामन्ती सोच और वर्तमान
जीवन आमने सामने हो गया है। इससे इज्जत के लिए हत्याओं, सामाजिक उत्पीड़न व भेदभाव
के अमानवीय काण्डों के पीछे की सोच प्रभावी ढंग से स्पष्ट हो जाती है।
उनकी बैठक की
दीवारों पर
टंगी हैं
बड़ी-बड़ी शानदार पगड़ियां
जासे कि राजाओं और
नवाबों के
महलों की दीवारों
पर सजी होती हैं
खतरनाक शेरों और
चीतों की
मुंह बोलती खालें
जो गर्वपूर्वक कर
रही होती हैं उद्घोषणा
राजाओं और नवाबों
की नृशंस वीरता की (उनका शौक, पृ.-17)
व्यक्ति और समाज
की सकारात्मक शक्तियों को सक्रियता के लिए प्रेरित करना तथा बाजारवाद के
प्रभावस्वरूप उत्पन्न विकृतियों को उद्घाटित करते हुए संवेदना जगाना रामकुमार
आत्रेय की कविता का प्रमुख स्वर है। रामकुमार आत्रेय की कविता की सहजता से अपने
पाठक से बात करने का आधार तैयार करके उसके साथ धीरे से आत्मीय रिश्ता कायम लेती है
और उसकी चेतना में प्रवेश कर जाती है। जाहिर है कि जो कविता पाठक की चेतना में
प्रवेश का रास्ता तलाश लेती है वही अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन की कसौटी पर
खरी उतरती है।