स्त्री-लेखन के प्रति हिन्दी-समीक्षा के रुझान

स्त्री-लेखन के प्रति हिन्दी-समीक्षा के रुझान

डा. सुभाष चन्द्र, प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

भारतीय मानस के निर्माण में ब्राह्मणवादी विचारधारा की दो बैशाखियों - पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था की विशेष भूमिका है। समाज की आधी आबादी को पितृसत्ता की विचारधारा के माध्यम से तथा शेष आबादी के अधिकांश हिस्से को वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से विकास के तमाम अवसरों से वंचित किया। ज्ञान, सत्ता और सम्पति को द्विज वर्गों तक सीमित करके स्त्री और शूद्र वर्ण के सामाजिक व आर्थिक शोषण को धार्मिक वैधता प्रदान की। इसके लिए अनेक ग्रंथों व कथाओं की रचना की। भारतीय समाज में इस शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह भी हुए। प्राचीन भारत में बौद्धों- जैनों का आन्दोलन, मध्यकाल में संतों का आन्दोलन तथा आधुनिक काल में जोतिबा फूले, पेरियार, आम्बेडकर के आन्दोलन को विशेषतौर पर रेखांकित किया जा सकता है।

पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था में गहरा अन्तःसंबंध है, इसे गीता के प्रथम अध्याय में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद से समझा जा सकता है। अर्जुन के विषाद का कारण युद्ध में पुरुषों के मारे जाने के बाद स्त्रियों की भ्रष्टता और फलस्वरूप वर्णसंकरता और कुल का नाश है। गीता के प्रथम अध्याय में वह अपना पक्ष रखते हुए कहता है कि ''युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है, पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए है।''1

भारतीय ज्ञान-मीमांसा में स्त्री को पुरुष के समकक्ष नहीं माना गया और न ही उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया। मनुस्मृति में उसे बचपन में पिता, जवानी में पति तथा बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहने की व्यवस्था दी गई है।2 गीता में उसे पापयोनि3 की संज्ञा तथा कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् में विवाह के बाद ससुराल जाते समय शकुन्तला को उसके पिता कण्व के उपदेश समाज में स्त्री की दोयम स्थिति की पुष्टि करते हैं।4 बौद्ध थेरी गाथाएं भी उसकी सामाजिक स्थिति का ब्यौरा प्रदान करती हैं तथा जातक कथाओं से भी स्त्री की सामाजिक हैसियत का अनुमान लगाया जा सकता है।


भारतीय परम्परा में पितृसत्ता के खिलाफ मूलगामी आन्दोलन नजर नहीं आता। वर्ण-व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक शोषण के विरुद्ध जो जबरदस्त आन्दोलन हुए स्त्री के प्रति उनका भी नजरिया बहुत उदार नहीं था। प्राचीन काल में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों को अपने संघ में बड़ी हिचकिचाहट और शर्तों के साथ प्रवेश दिया था।5 मध्यकाल में संतो के आन्दोलन में  स्त्री के प्रति समतामूलक रुझान नहीं थे, उन्होंने स्त्री को नरक कुण्ड,माया,महाठगिनी आदि पितृसत्तात्मक संज्ञाएं दीं।6 तुलसीदास की ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी उक्ति हिन्दी क्षेत्र की आचार-संहिता का सूत्र बनी। रीतिकालीन दरबारी कवियों के लिए तो स्त्री देह मात्र थी, जिसकी बनावट व भाव-भंगिमाओं के स्थूल वर्णन से अपने अन्नदाताओं की कुंठाओं को तुष्ट करते थे। यद्यपि आधुनिक काल में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत जोतिबा फूले और डा. भीमराव आम्बेडकर ने अपने आन्दोलन में स्त्री-मुक्ति को केन्द्रीय सवाल के तौर पर रखा था, लेकिन इनके कथित अनुयायियों ने स्त्री-मुक्ति को लेकर वह संवेदनशीलता नहीं दिखाई।

सावित्रीबाई फूले, ताराबाई सिन्दे, पण्डिता रमा बाई आदि ने स्त्री-मुक्ति के सवालों को उठाया और आधुनिक भारत में स्त्री लेखन शुरुआत की थी। हिन्दी में महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान के बाद कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा जैसे सशक्त हस्ताक्षर हैं, परन्तु यहां तक स्त्रियों की उपस्थिति भर है, लेकिन अस्सी के बाद स्त्री लेखिकाओं की पूरी पीढ़ी सामने आई है । मृदुला गर्ग, मृणाल पाण्डे, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुदगल, कात्यायनी, नासिरा शर्मा, अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, रोहिणी अग्रवाल, अनामिका, गीतांजलिश्री, क्षमा शर्मा, जैसी सशक्त लेखिकाओं ने विभिन्न विधाओं में स्त्री-सत्य को अभिव्यक्त किया है।

उन पुरुष-प्रधान मानसिकता के समीक्षकों को विश्वसनीय और ईमानदारीपू्र्ण स्त्री-लेखन की शक्ति का अहसास कभी नहीं हो सकता, जो बिना पढ़े स्त्री-लेखन पर जड़ों से कटे होने के फतवे जारी करते हैं या अपने जड़ीभूत संस्कारों से ग्रस्त हैं। इसकी शक्ति का अहसास पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढांचों की शिकार युवतियों व शोध-छात्राओं को होता है, जो जीवन से निराश होकर आत्महत्या तक की सोच रही थी, लेकिन इस साहित्य से संपर्क ने उनमें जिजीविषा जगाई और जीवन का संचार किया।

साहित्य आन्तरिक जगत का प्रकटीकरण है। भारतीय समाज व परिवार के पितृसत्तात्मक ढांचे में परवरिश के कारण पुरुष के आन्तरिक-जगत और महिला के आन्तरिक-जगत के निर्माण में गहरा अन्तर है। फलतः विभिन्न सामाजिक सवालों पर पुरुष लेखक और स्त्री लेखक की रचनात्मक प्रतिक्रिया में अन्तर होता है। पुरुष लेखक और स्त्री लेखक की विचारधारा और दृष्टि की समानता के बावजूद अनुभव-जगत की भिन्नता के कारण उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति स्वाभाविक तौर पर भिन्न होगी।लेखन करते समय पुरुष लेखन की अनुभूतियां और संवेदनाएं वही नहीं हो सकती जो स्त्री लेखक की होंगी। पुरुष लेखन संभवतः नारी मुक्ति का राजनीतिक सूत्रीकरण तो कर सकता है, परन्तु रचनात्मक धरातल पर उसकी कृति, बोध या धारणाएं एक हद तक वह नहीं हो सकती जो स्त्री लेखिका की होंगी।7 महिला के आन्तरिक जगत के समाजशास्त्र की विशिष्टता की पहचान करके ही स्त्री-साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को गढ़ा जा सकता है।

आज लेखिकाएं स्त्री-संबंधी सवालों को उठाकर शोषण के सूक्ष्म रूपों की पहचान करवा रही हैं। स्त्रियों के लिए साहित्य-सृजन टाईम-काटू साधन नहीं, बल्कि अस्तित्व का संघर्ष और जिन्दगी प्राप्त करने का जरिया है। साहित्य स्त्रियों के लिए खुली खिड़की की तरह है, जहां से उनके जीवन में ताजगी आती है। स्त्रियों का रचनात्मक लेखन नारी मुक्ति और जागरण का एक माध्यम है, उनकी स्वतंत्रता की आकांक्षा और अभिव्यक्ति का साधन भी।8 साहित्य स्त्रियों के लिए कितना महत्वपूर्ण है इसका उद्घाटन करते हुए हिन्दी की प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथाएक कहानी यह भी में लिखा है कि आज लेखन की शक्ति के बारे में सोचती हूं तो आश्चर्य होता है। आदमी यदि निरन्तर लिखता रहे तो कितनी आपदाओं-विपदाओं को सहज ही दरकिनार कर सकता है। आप लिखते रहें और आपका लिखा बराबर चर्चित भी होता रहे तो कैसी ऊर्जा का संचार होता रहता है आपके भीतर, यह तो मैने खुद अनुभव किया है वरना निष्क्रिय मन के चलते तो छोटी-छोटी बातें भी आपके लिए असह्य हो जाती हैं। --- मैं ही अपनी दुखती रगों और खाली कोनों को अपने लेखन से पूरा करने की कोशिश करती रहती थी।9

स्त्री-जीवन की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं-संघर्षों-अन्तर्विरोधों को स्त्री-लेखिकाओं ने अभिव्यक्ति दी और ऐसी रचनाएं विपुल मात्रा में है। स्त्री-लेखन का संघर्ष परम्परावादी व स्त्री-विरोधी संस्कारों से है, जिसमें सतीत्वको ही स्त्रीत्व का पर्याय मान लिया गया है। इससे मुक्ति के लिए स्त्री को पदे-पदे संघर्ष करना पड़ता है। इसी संघर्ष में ही स्थापित मूल्यों-संस्कारों में छुपी सूक्ष्म अमानवीयताओं की पहचान करके वह वैकल्पिक जीवन-मूल्यों को अर्जित करती है। इन संस्कारों से संघर्ष का क्षेत्र सर्वाधिक कष्टदायक है, लेकिन यह भी सही है कि यहीं स्त्री-लेखन तेजस्विता ग्रहण करता है। लेकिन विडम्बना यह है कि स्त्री-लेखन साहित्य-विमर्श-समीक्षा में प्रमुखता नहीं पा सका। स्त्री-साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में भी हिन्दी आलोचना में गैर-अकादमिक एवं उपेक्षापूर्ण रवैया क्यों मौजूद है, इस पर विचार आवश्यक है।10

असल में वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी-वर्ग की ज्ञान-मीमांसा शोषित-वंचित वर्गों की ज्ञान-धाराओं की उपेक्षा, विकृत व्याख्या तथा अपने में समावेश करके उसके प्रभाव को कुंद करने की जुगतें लड़ाती रहती हैं। स्त्री-लेखन के साथ भी ऐसा ही सूलुक हुआ। उपेक्षा, विकृतिकरण और समावेशीकरण का प्रयास मध्यकालीन स्त्री-लेखिकाओं तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका शिकार आधुनिक लेखिकाएं भी हुईं। महिला-लेखन को स्वतंत्र तौर पर न देखकर पुरुष-लेखन के पूरक के तौर पर ही व्याख्यायित किया। मध्यकालीन संत कवियित्रियों मीरा, सहजोबाई, ललद्य आदि के साहित्य की विशिष्टता को पहचानने की कोशिशें भी नहीं हुईं। इनके साहित्य को धर्म, भक्ति, अध्यात्म की बद्ध प्रणालियों में ही व्याख्यायित किया। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी के साहित्य की समीक्षाओं में इन प्रवृतियों को देखा जा सकता है।

महादेवी वर्मा को रहस्यवादी-छायावादी कवियित्री को तौर पर ही पहचान मिली। एक चिन्तक के तौर पर उनको नहीं पहचाना। उन्होंने भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति के बारे में लिखा कि इस समय तो भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय और घोड़ा पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को पालता है तथा पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अधिकार समझता है। हमारे समाज के पुरुष के विवेकहीन जीवन का चित्र देखना हो तो, विवाह के समय गुलाब-सी खिली हुई, स्वस्थ बालिका को पांच वर्ष बाद देख लीजिए। उस समय असमय प्रौढ़ हुई दुर्बल संतानों की रोगिणी पीली माता में कौन-सी विवशता, कौन-सी रुला देने वाली करुणा न मिले।11

हिन्दी समीक्षा ने साहित्य को सांस्कृतिक समग्रता में व्याख्यायित नहीं किया। राजनीतिक क्षेत्र में ही उसका समीक्षा बोध निर्मित हुआ। स्वतन्त्रता, समानता, विकास, सुरक्षा, मानव मुक्ति आदि सवालों को राजनीतिक एकांगिता में ही समझने की कोशिश की। इन व्यापक सवालों के विविध आयाम हैं और समाज के हर स्तर पर इन सवालों की विविध अनुगूंजें हैं। स्त्री साहित्य में स्वतन्त्रता, समानता, विकास, सुरक्षा, मानव मुक्ति आदि के सवाल का रूप अलग है।

भारतीय समाज में स्त्री का अनुभव क्षेत्र मुख्यतः परिवार है। पारिवारिक संरचानाओं के साथ उसका संघर्ष है। मीरा का संघर्ष भी परिवार से आरम्भ होकर पूरे समाज और उसकी परम्परा से था। स्त्री के लिए स्वतंत्रता का अर्थ सामाजिक वर्जनाओं से मुक्ति है, समानता का अर्थ अवसरों की समानता से है, जबकि पुरुष के लिए परिवार संघर्ष का क्षेत्र नहीं है। पारिवारिक संरचानाओं में उसको विशेषाधिकार प्राप्त हैं। परिवार नामक संस्था में शोषण शब्द को पितृसत्तात्मक पुरुष स्वीकार नहीं करते। स्त्री का यहां दम घुटता है और इस स्तर पर संघर्ष काफी कठिन है, क्योंकि वह अपनों से तथा हितैषियों से है। वह परिवार नामक संस्था का जनतांत्रिकरण चाहती है, जबकि पुरुष इसे महिमामंडित करता है, वह इसमें बदलाव की जरूरत ही महसूस नहीं करता।

स्त्री की लडाई बहुत जटिल है। उसकी जद्दोजहद में निजी नहीं सामाजिक संदर्भ शामिल हैं। समाज की पहली इकाई परिवार है। परिवार के मसले को पुरुष लेखकों ने इतना नहीं खोला, जितना स्त्रियों ने। अभिव्यक्ति और पहचान के स्तर पर परिवार पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी है शिक्षा की और तीसरी सीढ़ी है राजनीति की। पुरुष का लेखन पहली दो सीढियों पर नहीं शुरु होता है। पुरुष का लेखन शुरु होता है तीसरी पीढ़ी से। पुरुष का लेखन सीधे-सीधे राजनीतिक विमर्श तैयार करता है, जबकि परिवार और शिक्षा से स्त्री लेखन का सिलसिला तैयार होता है।12  परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं की सत्ता संरचना को जिस तरह से स्त्री लेखन ने उद्घाटित किया है, वैसा पुरुष साहित्यकार नहीं कर पाए। स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के विकास और स्वतंत्र पहचान के लिए इन संस्थाओं से संघर्ष करना पड़ा है।

सुभद्रा कुमारी चौहान, मन्नू भंडारी के साहित्य को सुविधावादी तरीके से ही पढ़ा गया। उनके साहित्य में सामान्य विमर्श को ही उभारा गया, जाने-अनजाने उन पक्षों को छोड़ दिया, जो स्त्री-विमर्श के सवालों को उठाते थे। रचनाकारों के व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली पंक्ति भी तत्कालीन सामान्य विमर्श की ही उपज थी। मसलन सुभद्राकुमारी चौहान को राष्ट्रीय वसंत की प्रथम कोकिला कहा गया और केवल देश-प्रेम और राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रकट करने वाली कवयित्री के रूप में ही देखा जाने लगा।13  सुभद्रा कुमारी चौहान के स्त्री संबंधी पक्षों को अनदेखा कर दिया गया, जबकिअपनी कहानियों में सुभद्राकुमारी चौहान ने अपने समाज में उभरते नए सवालों को पूरी स्पष्टता से देखा है, उन्हें जांचने की कोशिश की है। मसलन्, वे पाती हैं कि पुरानी पारिवारिक संरचनाएं आधुनिक विचारशील नारी के लिए अनावश्यक बाधा प्रस्तुत करती हैं। अनेक स्थितियों में नारी की सक्रियता उसे एक ओर ले जाती है, और पुरुष-प्रधान समाज की पारंपरिक नियमावली उसे दूसरी ओर खींचती है। अपनी कथा में इस मसले को सुभद्रा कुमारी चौहान वास्तविक तथा नैतिक शैली में एक साथ परखती हैं। ध्यान देने की बात यह है कि उनका बल निरंतर नारी की साहसिकता और ईमानदारी पर रहता है।14

स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व और अस्मिता साहित्य-विमर्श का हिस्सा ही नहीं बना। इस पीड़ा को मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा एक कहानी यह भीमें उठाया।  ‘आपका बंटी उपन्यास में बंटी के बहाने से आधुनिक समाज में खण्डित-बचपन और बच्चे के पालन-पोषण के आर्थिक-मनोवैज्ञानिक पहलू तो चर्चा-विमर्श का हिस्सा बने, लेकिन उसकी महत्वपूर्ण चरित्र शकुन तो एक तरह से हाशिए में जा पड़ी। उसे अपेक्षित महत्व मिला ही नहीं।15 मातृत्व और व्यक्तित्व के द्वन्द्व में शकुन के मातृत्व पक्ष की तो चर्चा हुई, लेकिन उसके व्यक्तित्व पक्ष की उपेक्षा हुई। जब उसका मातृत्व-पक्ष प्रबल होता है तो उसका अतृप्त-उपेक्षित व्यक्ति-पक्ष प्रश्नवाचक बनकर उसे मथने लगता है और जब उसका व्यक्ति पक्ष प्रबल होता है तो उसका मातृत्व तिलमिलाने लगता है। पर शकुन के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि व्यक्तित्व और मातृत्व के इस द्वन्द्व में न देह पूरी तरह व्यक्ति (शकुन) बनकर जी सकी --- न पूरी तरह मां।16

भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र में प्रेम का विशिष्ट स्थान है। लोक और दरबारी संरक्षण में रचित अधिकांश साहित्य का केन्द्रीय विषय प्रेम है। सुखद वैयक्तिक व सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य होते हुए भी समाज में आसानी से इसे स्वीकृति शायद इसीलिए नहीं मिलती कि, यह सांमती मूल्यों की उच्चता-निम्नता की श्रेणियों को तोड़कर समानता स्थापित करता है। साहित्य में स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति को सहजता से स्वीकृति कतई नहीं मिलती। स्त्री द्वारा अभिव्यक्त प्रेम पर पुरुष-प्रधानी नैतिकता की टकसाल में ढला श्लीलता-अश्लीलता का सवाल चस्पां कर दिया जाता रहा है। स्त्री लेखिका के साहित्य की प्रेमाभिव्यक्ति को भक्तिपरक, रहस्यवादी, आध्यात्मिक दायरे में व्याख्यायित किया जाता है, न कि मानवीय आकांक्षा के रूप में। मीरा और महादेवी वर्मा के साहित्य के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यही है। स्त्री-लेखन में ज्यों ही प्रेम की मानवीय अभिव्यक्ति होती है, आचार्यों की भृकुटि तन जाती है। इस मानव-सुलभ आकांक्षा का विश्लेषण करने की अपेक्षा इसे बोल्ड लेखन कह कर विमर्श से बाहर कर दिया जाता है। पात्रों की स्थितियों, मनःस्थितियों का अध्ययन करने की बजाए उन्हें रचनाकार के जीवन पर आरोपण करने की प्रवृति भी दिखाई दी है। आत्मपरक अभिव्यक्ति में जो खतरा होता है, उसे उठाकर भी स्त्री-लेखिकाओं ने परिवार-संरचना, सामाजिक-संबंधों तथा सत्ता प्रतिष्ठानों में छिपे शोषण के सूक्ष्म-रूपों को उद्घाटित किया। ऐसी बेबाक अभिव्यक्ति के लिए उनकी पीठ ठोकी जानी चाहिए थी, लेकिन उनको छिनाल का खिताब देकरपुरस्कृत किया गया।17      

साहित्यकार अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से ही करता है। अपने अभिप्रेत अर्थ के लिए वह न केवल शब्दों का चयन करता है, बल्कि उनका निर्माण भी करता है। कृष्णा सोबती की भाषा को लेकर जिस तरह की चर्चा हुई वह भी गौर करने लायक है। एक स्त्री से करुणा विगलित, दया की भीख मांगती, दास्य-भाव वाली भाषा की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन उससे मर्दों वाली भाषा की उम्मीद नहीं की जाती। भाषा की जनाना-मर्दाना सरणियां बनाने की कोशिशें पुरुष-प्रधान समीक्षा ही है। कृष्णा सोबती ने मित्रो मरजानी और दिलो दानिश में स्त्री-आंकाक्षाओं को जिस विश्वसनीयता और साहस के साथ उजागर किया था उससे हिन्दी समीक्षा को काठ मार गया। स्त्री की दृष्टि से जैसे ही यौनिक-सुखों की व्याख्या की जाती है, तो समस्त परम्परा खतरे में आ जाती है, सौंदर्यशास्त्री और रूपवादी समीक्षक भी घोर वस्तुवादी होकर नैतिक फतवे जारी करने लगते हैं। यह सही है कि स्त्री-लेखन में उच्च-मध्यवर्गीय स्त्रियों का दखल अधिक रहा है और इसी वर्ग की समस्याएं भी प्रमुखता से अभिव्यक्त हुई हैं, लेकिन यहां भी स्त्री की देह या यौन-स्वतंत्रता ही एक मात्र मुद्दा नहीं है, बल्कि स्त्री की अस्मिता, मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता तथा श्रमजीवी-स्त्री के बहुविध-शोषण के चित्र भी प्रमुखता से अभिव्यक्त हुए हैं। परन्तु समीक्षा में देह-स्वतंत्रता को देहवाद के समकक्ष रखकर इस तरह से पेश किया मानो स्त्री लेखन में यही एक स्वर था और इसकी गर्दों-गुबार में दूसरे सवाल ओझल ही हो गए।    

समीक्षा का कार्य न केवल रचना के मर्म को उद्घाटित करना है, बल्कि रचना को उसकी परम्परा में स्थापित करना भी है। कबीर और तुलसी, निराला और प्रेमचन्द की परम्परा की पहचान की गई है, लेकिन मीरा, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान की परम्परा की पहचान अभी नहीं हुई। हिन्दी-समीक्षा पर पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है, यह एक वाजिब सवाल है कि उसने स्त्री-लेखन की परम्परा की पहचान क्यों नहीं की। स्त्री-लेखन हिन्दी की ही नहीं, पूरे संसार की सच्चाई है, जो आज के समय को व्याख्यायित कर रहा है। इसके माध्यम से ही ज्ञान का जनतांत्रिकरण हो रहा है। अपने जड़ीभूत व बद्धमूल संस्कार बदले बिना हिन्दी समीक्षा अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकती। सुखद बात यह भी है कि समीक्षा के क्षेत्र में भी स्त्रियां आ रही हैं और इस जीवन्त साहित्य को सही परिप्रक्ष्य में व्याख्यायित कर रही हैं।



संदर्भः

1.      तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्?
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ॥37
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्? 38
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम्?
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर: ॥41
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ॥42
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै: ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥43
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44

2         गौतम धर्मसूत्र, 18-1, वसिष्ठ धर्मसूत्र 5-13, मनुस्मृति 5-146-148

3.     मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येSपि स्युः पापयोनयः।
       स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेSपि यान्ति परां गतम्। (9-32)
( हे पृथानन्दन जो भी पापयोनियों वाले हों स्त्रियां वैश्य और शूद्र वे भी सर्वथा मेरे शरण में होकर निःसंदेह परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।)

4.     शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृतिं सपत्नीजने
       पत्युर्विप्रकृताSपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
       भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजनेभाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।।
(पति के घर के सभी बड़े-बूढ़ों की सेवा करना। अपनी सौतों के साथ सखियों जैसा प्रेम करना। पति कदाचित निरादर भी करे तो क्रोध करके झगड़ा मत करना। अपने दास-दासियों को प्यार से रखना और अपने सौभाग्य पर इतराना नहीं। जो स्त्रियां घर में इस प्रकार व्यवहार करती हैं, वे ही सच्ची गृहणी होती हैं और जो इससे विपरीत काम करती हैं, वे खोटी स्त्रियां तो अपने कुल की व्याधि होती हैं।)(अभिज्ञानशाकुंतलम् के चतुर्थ अंक के चतुर्थ श्लोक में)
डा. ब्रह्मानंद त्रिपाठी (सं.); कालिदास ग्रंथावली; चौखम्भा सुभारती प्रकाशन, वाराणसी; प्रथम सं. 1996 ई. ; पृ.-406

5      महात्मा बुद्ध स्त्रियों को संघों में शामिल नहीं करना चाहते थे, अपने शिष्य आनन्द के आग्रह पर उन्होंने शामिल भी किया, लेकिन बौद्ध संघों में स्त्रियों के लिए तथा पुरुषों के लिए अलग-अलग नियमावली थी। 

6.     नारी कुण्ड नरक का, बिरला थमै बाग।
       कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग।।
       एक कनक अरु कामनी, दोऊ अगनि की झाल।
       देखे ही तन प्रजलै, परस्या ह्वै पैमाल।।
       नारी सेती नेह, बुधि बमेक सब ही हरै।
काइ गमावै देह, कारिज कोई ना सरै।।
       एक करक अरु कामनी, विष फल कीये उपाय।
देखै ही थै विष चढ़ै, खाये सू मरि जाइ।।
नारि नसावै तीन सुख, जा नर पासै होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकै कोइ।।

पुरुषोतम अग्रवाल; कबीरः साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, दिल्ली; पहला सं. 2007; पृ.- 190-191  

7. युग परिबोध; दिसम्बर 2011; अनन्द प्रकाश (सं.) ; सैद्धांतिक एवं साहित्यिक स्त्री-विमर्श के द्वन्द्व लेख से; पृ.-7
8. चन्द्रा सदायत (सं.) ; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-बारह
9. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-67 
10. युग परिबोध; दिसम्बर 2011; अनन्द प्रकाश(सं.) ; सैद्धांतिक एवं साहित्यिक स्त्री-विमर्श के द्वन्द्व लेख से; पृ.-5  
11. महादेवी वर्मा; श्रृंखला की कड़ियां; पृ.-102
12. सुधा सिंह (सं.) ; स्त्री कथा 1907-1947; अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.)लि., दिल्ली; सं.2005; पृ.-11  
13. चन्द्रा सदायत; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-दस
14. आनन्द प्रकाश; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कहानियां; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2005
15. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-118
16. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-119

17. नया ज्ञानोदय  (अंक-90, अगस्त,2010) ; रवीन्द्र कालिया (सं.);   विभूतिनारायण राय का साक्षात्कार, पृ.- 32