हाशिये के लोगों की औपन्यासिकता का विमर्श
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर,हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
वीरेन्द्र यादव रचित 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' पुस्तक हिन्दी आलोचना और विशेषकर उपन्यास आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक काल के अन्तर्द्वन्द्वों को उपन्यास ने मुख्यत: व्यक्त किया है। अपने समय के विमर्शें को भी स्थान दिया है। यद्यपि आधुनिक काल में जन सामान्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं को साहित्य में प्रमुखता से स्थान मिला है और वही कृति कालजयी हो पाई है जिसमें जन सामान्य के जीवन संघर्ष के विश्वसनीय चित्र दिए हैं। सृजनात्मक लेखन के साथ साथ आलोचना भी जनपक्षधरता लिए रही है। विरेन्द्र यादव ने 'वर्चस्व की सत्ता' को विश्लेषित करने के लिए पिछले वर्षों में चर्चा में रहे हिन्दी व अंग्रेजी के उपन्यासों को अपना आधार बनाया है। उपन्यासों के साथ उपन्यास पठन व आलोचना के बारे में उनका ज्ञान उनकी विद्वता को तो दर्शाता ही है, उसमें से अपना नया रास्ता भी बनाया है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' दलित और स्त्री विमर्श के युग में नए ' कैनन फारमेशन' निर्मित करने के संकल्प से उपजी है। इसलिए इसमें एक पक्ष अपने विविध तर्कों के साथ प्रस्तुत है।
दो सौ साठ पृष्ठों की पुस्तक में कुल ग्यारह अध्याय है 'हिन्दी उपन्यास : एक सबाल्टर्न प्रस्तावना'; 'औपनिवेशिकता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय किसान: संदर्भ 'गोदान'; 'राष्ट्रवाद, मुस्लिम अलगाववाद और नारी प्रश्र : संदर्भ 'झूठा सच'; 'विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान : संदर्भ 'आधा गांव'; 'क्षुद्रताओं के महावृत्तान्त से महानताओं की क्षुद्रता तक : संन्दर्भ 'राग दरबारी'; 'एक बेदखल इतिहास का 'पाहीघर'; 'उपन्यास का जनतन्त्र और हाशिए का समाज'; 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी'; 'महज 'उन्माद' नहीं है फासीवाद'; 'घेरबन्दी के समय में 'आखिर कलाम'; 'दि इंडियन इंग्लिश नॉवेल और भारतीय यथार्थ'। इन अध्यायों के शीर्षकों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह उपन्यासों का समाजार्थिक अध्ययन है। उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ के जरिये राष्ट्रवाद, अलगाववाद, जनतन्त्र, फासीवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, ग्रामीण विकास पर विचार किया है। उपन्यासों के आधार पर समाज-राजनीति के सवालों पर विचार उपन्यास को ठोस आधार प्रदान करता है तो इस विमर्श को उपन्यास को विश्वसनीय आधार प्रदान करते हैं। विभिन्न समस्याओं व सवालो की जडें पहचानने के लिए सामाजिक जीवन में झांकना जरूरी है और उपन्यास जीवन को व्यक्त करता है। बिना जीवन अनुभवों के विमर्श शब्दों की जुगाली मात्र है तो बिना दृष्टि के अनुभव वर्णन अनुभववाद और प्रकृतवाद का शिकार होता है। उपन्यासकारों के लिए तथा उनके पाठकों के लिए उपन्यास में व्यक्त सवालों के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना निहायत जरूरी है। विरेन्द्र यादव की यह पुस्तक दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण साबित होगी।
हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों का पुनर्पाठ भी कहा जा सकता है। और यह पुर्नपाठ मात्र फिर से पढऩा नहीं है, बल्कि नए दृष्टिकोण से इन्हें देखा है। वीरेन्द्र यादव की दृष्टि उपेक्षितों की दृष्टि है। हिन्दी आलोचना और साहित्य अभी आभिजात्यता से ही जकड़ा हुआ है। साहित्य में उपेक्षितों के सवाल अथवा जीवन व्यक्त भी होता है तो वह आलोचना की नजर से छूट जाता है और विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। यदि कहीं उसका जिक्र होता भी है तो मात्र इसलिए कि लेखक की दृष्टि में विस्तार है और समाज का कोई छूटा नहीं है। लेकिन उसकी विचारधारात्मक कमजोरी अथवा कलात्मकता पर विचार नहीं होता। वीरेन्द्र यादव ने न तो दृष्टि से इसे ओझल होने दिया।
पिछले कई दशकों से भारतीय समाज और राजनीति में परम्परागत तौर पर हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों का समाज व राजनीति में दखल जोरदार ढंग से बढ़ा है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में प्रभावी हस्तक्षेप का ही परिणाम है कि साहित्य में भी इन वर्गों का स्वर प्रमुखता से उभरा है। इस साहित्य की सैद्धांतिकी भी निर्मित हो रही है। उपेक्षितों की दृष्टि से साहित्य का पाठ हो रहा है, साहित्य की पड़ताल हो रही है, जिससे साहित्य के अनछुये पक्षों की ओर ध्यान जा रहा है तथा साहित्य पाठ की सीमाएं भी इसके साथ ही रेखांकित हो रही हैं। वीरेन्द्र यादव की आलोचना-दृष्टि इसी परिवेश व इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द बनी है। पिछले दशकों में भारतीय राजनीति ने मुख्यत: साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, दलित, पिछड़ों व स्त्रियों की मुक्ति व भागीदारी के सवालों तथा वैश्वीकरण व विकास की विभिन्न धारणाओं, निम्र वर्ग तथा उच्च वर्ग के हितों की टकराहट के बीच ही अपना स्वरूप ग्रहण किया है। साहित्य में भी इन सवालों की अभिव्यक्ति हुई है, विशेषतौर पर उपन्यासों में तो हुई ही है।
प्रेमचन्द का लेखन विशेष तौर उनके उपन्यास किसी भी उपन्यास आलोचक के लिए प्रस्थान बिन्दू हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों के पाठ की भी विभिन्न व्याख्याएं सामने आई हैं। किसान जीवन के दस्तावेज के तौर पर भी पढ़ा गया और स्वतन्त्रता आन्दोलन के सवालों को व्यक्त करने के तौर भी, गांधीवाद की नजर से भी और माक्र्सवाद की नजर से भी। लेकिन सभी किस्म के आलोचकों की व्याख्याएं अपने समय की सीमाओं को नहीं लांघ पाई। विरेन्द्र यादव ने नए डा. रामविलास शर्मा तथा निर्मल वर्मा की दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित करते हुए 'गोदान' को नए संदर्भों में समझने की कोशिश की है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेतृत्व की दृष्टि, औपनिवेशिक शोषण तथा स्त्री सवालों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशि श की है। प्रेमचन्द के लेखन को लेकर पिछले दिनों कुछ दलित चिन्तकों व कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाए। विरेन्द्र यादव ने 'गोदान' पर विचार करते हुए इसका जबाब तलाशने की कोशिश की है और प्रेमचन्द को दलित के संबंध न केवल संवेदनशील पाया, बल्कि रेडिकल चित्र दिए हैं। दलित प्रसंग में ऐसी व्याख्याएं बहुत से भ्रमों को दूर करती है।
पिछले कुछ समय से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में नारी-विमर्श की खूब चर्चा है। नारी मुक्ति के सवालों को केन्द्र लाने वाली साहित्यिक रचनाएं आई हैं, जिसने नारी विमर्श को पुख्तगी दी है। नारी अनुभवों की विशिष्टता को उभारते हुए मानव-मुक्ति के संघर्ष के साथ जोड़कर देखा है। नारी विमर्श भी वर्ग-स्वार्थों से अछूता नहीं है, उसमें कोई एकरूपता नहीं है, बल्कि सामाजिक वर्गों के स्वार्थों को व्यक्त करने वाली दृष्टियां यहां मौजूद हैं। नारी विमर्श ने उच्च वर्ग तथा उच्च मध्यवर्ग की स्त्रियों के सवालों को लांघकर ग्रामीण और निम्र वर्गों की स्त्रियों के सवालों को तक अपना विस्तार किया है। पहले जहां कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही साहित्य के क्षेत्र में थी, लेकिन नारी-विमर्श व चेतना ने इस क्षेत्र को खोल दिया है और महिला लेखकों की एक पूरी जमात है जो नारी जीवन के विशिष्ट अनुभवों से लेकर समाज के बृहत्तर सवालों पर अपनी लेखनी चला रही हैं। विरेन्द्र यादव ने इस क्षमता को पहचानते हुए 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी' में पांच लेखिकाओं के गीताजंलि श्री के 'तिरोहित', अलका सरावगी के 'शेष कादम्बरी', अनामिका के 'अवान्तर कथा', मैत्रेयी पुष्पा के 'विजन', मधु कांकरिया के 'खुले गगन के लाल सितारे' उपन्यासों पर चर्चा में स्त्री सवालों को केन्द्र रखते हुए उनकी विशिष्टता को रेखांकित किया है। उनकी पूरी रचनाशीलता में नारी सवाल के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करते हुए नारी-विमर्श को केन्द्र में रखा है। ''नारी अस्मिता के भिन्न धरातलों की पड़ताल करते ये उपन्यास भारतीय समाज में स्त्री-प्रश्र का कोलाज-सा रचते हैं। जहां 'तिरोहित 'स्त्री-सच का बेबाक बयान है। वहीं 'शेष कादम्बरी' का कथा-वृतान्त स्त्री-अस्मिता के पार जाकर अपने होने का अर्थ ढूंढता है। 'अवान्तर कथा 'यदि भावनात्मक खालीपन को भरने का रूमानी उपक्रम है, तो 'विजन' पुरुष सत्ता से टकराती कैरियर वुमेन का साहस-भरा पराक्रम। 'खुले गगन के लाल सितारे' की मणि के रूमान से रूमान तक के सफर की सार्थकता उपन्यास के उस स्त्री-विमर्श में है, जो धर्म की पुरुष-केन्द्रित सत्ता-संरचना का विखण्डन करती है।" पृ.-177
वीरेन्द्र यादव वर्तमान में मानवता के समक्ष चुनौती बनी समस्याओं की पड़ताल करते हैं। वे उन्हीं उपन्यासों को अपने विमर्श में शामिल करते हैं जिनमें अपने समाज के अन्तर्द्वन्द्वों तथा व्यापक सवालों को समेटा है। पिछले दशकों में दलित, स्त्री और साम्प्रदायिकता के सवाल मुख्यत: चर्चा के विषय रहे हैं। इनको केन्द्रित करते हुए रचनाएं भी प्रकाश में आई हैं। भारतीय जनतन्त्र व विकास की भेड़चाल के चलते हाशिये पर ढकेल दिए जाने को अभिशप्त समाज उपन्यास में केन्द्रीयता प्राप्त कर रहा है। भगवानदास मोरवाल का 'काला पहाड़', संजीव का 'जंगल जहां शुरू होता है', श्रीप्रकाश का 'जहां बांस फूलते हैं', तेजिन्दर का 'काला पादरी' की यहां विशेष चर्चा की गई है। आंचलिकता की रूढ़ आलोचना जो क्षेत्र विशेष की बोली और प्रकृति के वर्णन में ही अपनी पूरी ताकत लगा देती है उससे बाहर निकालकर जनता के बुनियादी सवालों को केन्द्र में लाने व उनके आधार पर इन उपन्यासों के पाठ की संकल्पना को स्थापित करती है, जो उपन्यास आलोचना को नए संदर्भ प्रदान करेगी। आंचलिक उपन्यासों की आलोचना से उस क्षेत्र विशेष के विकास के सवाल अनदेखे रहते रहे हैं और उनकी भाषा व प्रकृति के बारे में ही अधिकांश चर्चा होती रही है।
समाज की समस्याओं से काटकर किसी उपन्यास को पढऩा उसके महत्त्व को कम करता है और वह महज एक रचना तक ही सीमित रह जाती है। कमलाकान्त त्रिपाठी ने अपने 'पाहीघर' और 'बेदखल' उपन्यासों में अवध के जीवन को व्यक्त किया है। इतिहास दृष्टि जन-इतिहास को केन्द्र में लाती है। 1857 की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस आन्दोलन पर फिर से विचार विमर्श हुआ। 'पाहीघर' ने उसे एक नया आयाम प्रदान किया था। 'पाहीघर' उन गिने चुने उपन्यासों में हैं, जिसमें 1857 को अपना विषय वस्तु बनाया गया है। जन इतिहास को केन्द्र में लाने वाले इस उपन्यास पर मुख्य धारा की आलोचना ने अनदेखा ही किया है। विरेन्द्र यादव ने इसके विश्लेषण के जरिये जन इतिहास की ओर ध्यान खींचने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतिहास और उपन्यास के संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश करके उसकी सैद्धांतिकी की ओर भी दृष्टि दी है।
साम्प्रदायिकता की समस्या स्वतन्त्र भारत की विशेष तौर पर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर की प्रमुख समस्या है। इस समस्या को लेखकों ने अपनी सृजना का आधर बनाया है। विभाजन को आधार बनाकर कुछ बहुत ही बेहतरीन उपन्यासों की रचना हुई थी। साम्प्रदायिकता को केन्द्रित करने वाले कई उपन्यासों पर इस पुस्तक में विचार-चर्चा की गई है जो साम्प्रदायिकता को समझने की लेखक की तड़प को ही दर्शाता है। राही मासूम रजा का 'आधा गांव' सांझी संस्कृति को साम्प्रदायिक एकता का आधार दिखाया है। यहां हिन्दू और मुसलमान के उस तरह के दंगे नहीं, बल्कि चेतना को उद्घाटित किया है और इस चेतना के वर्गीय चरित्र को भी उद्घाटित किया है। मनुष्यविरोधी ब्राह्मणवादी संरचना को बेपर्दा करने तथा धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के उस पोले आधार को उजागर करते दूधनाथ सिंह के 'आखिरी कलाम' को भी विरेन्द्र यादव ने विचार का विषय बनाया है और साम्प्रदायिक चेतना के स्रोतों को समझने की कोशिश की है। ''आखिरी कलाम जहां धर्मोन्मादी फासीवाद की निर्माण प्रक्रिया से साक्षात् कराता है वहीं इसके मूल उत्स पर प्रहार का भी आवाहन करता है।" भगवान सिंह का 'उन्माद' अन्यथा हिन्दी में विशेष चर्चित नहीं हुआ, लेकिन वह एक ऐसी समस्या से जुड़ा है जो समकालीन भारत में सत्ता और संस्कृति के चरित्र तय कर रहा है। इसलिए वीरेन्द्र यादव ने उसकी पड़ताल करना उचित समझा। साम्प्रदायिकता और फासीवाद को ठोस स्वार्थों की पूर्ति करने राजनीतिक विचारधारा की अपेक्षा महज मानवीय मनोविकार तक सीमित करना समस्या को अलग ही परिप्रेक्ष्य में पेश करता है। ''भगवान सिंह साम्प्रदायिकता को निश्चित सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण का परिणाम न मानकर इसे मनोविकार व दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणतियों के रूप में प्रस्तुत करते हैं।" समस्या की गम्भीरता को समझते हुए तथा उपन्यास में उसके प्रस्तुतिकरण पर टिप्पणी सही है कि ''फासीवाद व साम्प्रदायिक दंगों की सरलीकृत व्याख्या से न तो साम्प्रदायिकता के उभार को समझा जा सकता है और न हिन्दुत्व के एजेंडे की पड़ताल। उपन्यासकार साम्प्रदायिकता को संकीर्ण राजनीतिक हितों से विछिन्न मानकर इसे मॉब बिहैवियर के रूप में विश्लेषित करता है।" साम्प्रदायिकता को समझने के लिए जीवन को समझना जरुरी है। जीवन में साम्प्रदायिक चेतना को आधार प्रदान करने वाले तत्त्वों की पहचान के बिना सरलीकरण करके इसे नहीं समझा जा सकता।
अंग्रेजी के भारतीय उपन्यासकारों की आभिजात्य व औपनिवेशिक दृष्टि का खुलासा करता लेख 'दि इंडियन इंग्लिश नावेल और भारतीय यथार्थ' लेख विशेषतौर पर इस पुस्तक की उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य आलोचना की पुस्तकों में अंग्रेजी के प्रति अनभिज्ञता ही है। बाजारवाद व उपभोक्ता संस्कृति ने ऐसे साहित्य को अपने विस्तार व जरुरत के लिए पैदा किया है। जिसमें समाज की वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है। इन उपन्यासों के माध्यम से ही भारतीय समाज और साहित्य की छवि पूरी दुनिया में बन रही है। भारत की वास्तविक जमीन से उपजा साहित्य अनदेखा हो रहा है। पिछले वर्षों में चर्चित भारतीय अंग्रेजी उपन्यास सलमान रुश्दी का 'मिडनाइट चिल्ड्रेन', पंकज मिश्रा का 'दि रोमांटिक्स', अरुधंती राय का 'दि गॉड ऑफ स्माल थिंग्स', विक्रम सेठ का 'ए सूटेबल ब्वाय', राजकमल झा का 'दि ब्लू बेडस्प्रेड' विशेषतौर पर चर्चित हुए।
''दरअसल सच यह है कि भारतीय अंग्रेजी औपन्यासिक लेखन की बाजारोन्मुखता उसे देशज यथार्थ से विमुख करती है, जो अभी तक हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में सुरक्षित है। अंग्रेजी के इस बाजारवाद की आहट अब हिन्दी साहित्य की दहलीज पर भी दस्तक देने लगी है। ... यह वास्तव में गम्भीर चिन्ता का विषय है कि भारतीय अंग्रेजी लेखन की सेक्स और मिथकीय रूढिय़ां एवं अन्य नकारात्मक प्रवृतियों का प्रवेश हिन्दी साहित्य में अब होने लगा है, लेकिन हिन्दी के बेहतर और श्रेष्ठ साहित्य के कोई लक्षण भारतीय अंग्रेजी उपन्यासकारों के बहुसंख्यक वर्ग पर नहीं दीखते। आखिर क्यों भारतीय विकास की जो पारम्परिक अवधारणा 'डूब'और 'इदम्नमम्'उपन्यासों के विमर्श के माध्यम से प्रश्रों के घेरे में है, वह अंग्रेजी उपन्यासों की चिन्ता का विषय नहीं बनती?" पृ.- 259
हिन्दी फिल्मों की तरह हिन्दी उपन्यास और कहानियां भी पश्चिम से नकल करते रहे हैं। जिनमें भारतीय समाज की सच्चाइयों से कोई लेना देना नहीं होता और बाजार की मेहरबानी से रातो-रात प्रतिष्ठित साहित्यकार व बेस्ट सेलर की श्रेणी में आ जाते हैं। जयदेव ने अपने अध्ययन में इसका काफी पहले खुलासा किया था। विरेन्द्र यादव ने भी इस ओर कुछ संकेत दिए हैं।
वीरेन्द्र यादव की विशेषता यह है कि वे जब एक उपन्यास का विश्लेषण करते हैं तो उनकी नजर में उपन्यास में आई मुख्य समस्या पर केन्द्रित अन्य उपन्यास ओझल नहीं होते। एक दूसरे की तुलना में विश्लेषण उपन्यास की विशिष्टता को उभारता है। जिन उपन्यासों के संदर्भ से विचार किया है वे निरपेक्ष रूप से वहां मौजूद नहीं हैं, बल्कि उस तरह के दूसरे उपन्यासों का जिक्र करते हुए उस उपन्यास की विशिष्टता को रेखांकित किया है। साम्प्रदायिकता के सवाल पर जहां 'झूठा सच' का विश्लेषण है, वहीं 'तमस' और 'आधा गांव' के साथ उसे जोड़कर देखा गया है। जब वे 'उन्माद' पर बात करते हैं तो यशपाल का 'झूठा सच', राही का 'आधा गांव', मंजूर एहतेशाम का 'सूखा बरगद', अब्दुल बिस्मिल्लाह का 'मुखड़ा क्या देखे' सामने रहते हैं। जब झूठा सच पर बात करते हैं तो राही का 'आधा गांव' और भीष्म साहनी का 'तमस' और जब वे 'आधा गांव' पर बात करते हैं तो 'राग दरबारी' उनकी नजरों से ओझल नहीं होता।
वीरेन्द्र यादव आलोचकों से भी टकराते हैं और उनकी दृष्टि की कमजोरियों को भी रेखांकित करते चलते हैं। और इस ढंग में वे उपन्यास के विमर्श को पलटते चलते हैं और जो महत्त्वपूर्ण पक्ष जाने-अनजाने आलोचकों की नजर से छूट गए या कि वे पकड़ नहीं पाए उनको रेखांकित करते चलते हैं। वीरेन्द्र यादव अध्यापकीय आलोचना की कमजोरी से पूर्णत: मुक्त हैं और अति बौद्धिकता से भी जो उपन्यास पर विचार करते करते यह भूल जाते हैं कि वे किसी उपन्यास पर बात कर रहें हैं। उसमें बहुत से अन्य उपन्यासों का जिक्र होगा बहुत से महान चिन्तकों का जिक्र भी होगा और साहित्यिक अपेक्षाओं-दायित्वों का जिक्र भी होगा, विचारधाराओं का जिक्र भी होगा जो पाठक पर आलोचक के ज्ञान की धाक तो जमा देगा, लेकिन उसमें जिस उपन्यास पर बात होगी उसका जिक्र सबसे कम होगा और एक समान्य समझ तो बढ़ेगी, लेकिन उपन्यास के बारे में कोई विशेष अध्ययन नहीं होगा। वीरेन्द्र यादव ने अपनी पूरी विचारधारात्मक समझ को केन्द्र में रखते हुए उपन्यास पर ही मूलत: केन्द्रित किया है। जो किसी उपन्यास के बारे में समग्र विचार रखता है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' में हिन्दी के सैंकड़ों उपन्यासों का जिक्र किया है, जिससे यह हिन्दी उपन्यास आलोचना की महत्त्वपूर्ण पुस्तक बनी है और उपेक्षितों-वंचितों के पक्ष को फोकस में लाती है। हिन्दी उपन्यास आलोचना को यह पुस्तक नए आयाम प्रदान करेगी।