बाबूराव बागुल
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मराठी के चिंतक-साहित्यकार बाबूराव बागुल ने अपने उपन्यास, कहानियों, कविताओं के साथ-साथ चिंतनपरक साहित्य-सृजन से दलित साहित्य को विस्तृत आधार तथा दृष्टि प्रदान की है। वे अपने वर्ग के प्रतिबद्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने दलित जीवन की पीड़ा को व्यक्त करने सचेत तौर दायित्व लिया। उन्होंने लिखा है कि "मैने दलितों की दुनिया अपने सिर पर धारण की है, इसलिए मेरा लेखन दलित लेखन है। मैंने उसमें जन्म लिया है इसलिए नहीं, बल्कि मैं उस ढँग से विचार करता हूँ इसलिए। जन्म से बड़ी सम्बद्धता विचारों की सम्बद्धता होती है।" अपने दायित्व के लिए उन्हें अपने ही समाज से भी लडऩा पड़ा, जातिगत अहंकार का आक्रोश झेलना पड़ा। उन्होंने दलित जीवन के अभिशापित पक्षों का उद्घाटन किया तो जाति को बदनाम करने का आरोप लगाकर उन्हें तथा उनके प्रकाशकों को दण्डित करने की कोशिशें हुई।
दलित साहित्य में और विशेषकर हिन्दी में दलित-उत्पीडऩ व बदहाली के केन्द्र गाँव रहे हैं, लेकिन बाबूराव बागुल की कहानियों में दलित आबादी का शहरी व महानगरीय अनुभव व्यक्त हुआ है। डा. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय गाँवों को उत्पीडऩ-शोषण के केन्द्र मानते हुए इससे बचने के तौर पर शहरों में जा बसने का आह्वान किया था। बाबूराव की कहानियाँ महानगरों में दलितों की दुर्दशा की कहानी कहती हैं। शोषण की व्यवस्था में दलित कहीं भी जाएँ, उनके लिए मैले का टोकरा तैयार है।
महानगरीय जीवन के नाम पर साहित्य में और विशेषकर हिन्दी में मध्यवर्ग का जीवन ही केन्द्र में ही रहा है। मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं और विडम्बनाओं पर तो सूक्ष्मता से विचार हुआ है। लेकिन महानगरों को अनिवार्य हिस्सा और बहुत बड़ी आबादी का विश्वसनीय चित्रण का अभाव ही रहा। भीष्म साहनी के बसन्ती जैसे उपन्यास के अलावा शायद ही कोई रचना इस विषय पर मिले। यहाँ भीष्म साहनी द्वारा प्रस्तुत इस वर्ग के चित्रण कितना विश्वसनीय है यह विषय नहीं है। झुग्गी झोंपडिय़ों के निम्र वर्ग के चरित्र आए भी हैं तो वे मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बना और नैतिक तौर पर गिरे हुए जीवन को उभारने के लिए ही।
बाबूराव बागुल ने 'विद्रोह,'जब मैने जात छुपाई', 'मरना सस्ता हो रहा है', 'रस्तेवाली', 'स्पर्धा', 'शिक्षा, 'गुंडा', 'बोव्हाड़ा' आदि ऐसी कहानियों में साहित्य से बिल्कुल अपरिचित दुनिया का परिचित करवाया है। ये कहानियां अपने में एक ऐसी दुनिया समेटे हैं जहां मानव जीवन स्वमेव ही त्रासदी है। बाबूराव की कहानियों का क्षेत्र बम्बई की झुग्गी झोंपडिय़ों का कष्टकारी जीवन है। पूंजीवादी शोषण ने इनकी मानवता को लील लिया है, किसी भी तरह से गुजारे लायक धन हासिल करना और जिन्दा रहना ही जीवन का पर्याय हो गया है। यहाँ पिता, माँ, पत्नी, बेटी के संबंध समाप्त हो जाते हैं। जहाँ पति के सामने ही पत्नी का बलात्कार करने की चेष्टा हो सकती है। जहाँ पिता अपनी बेटी को वेश्यावृति के लिए उकसा सकता है, बेटे को भिखारी बना सकता है। जहाँ कुछ पैसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य मरने तक का नाटक करने पर मजबूर है। जहाँ का प्रत्येक निवासी घोर निराशा व उदासी से गुजर रहा है। समाज के उपेक्षित व घृणा के शिकार व्यक्तियों के हृदय में मानवीय सलिला की धारा बह रही है, इसे बाबूराव उजागर करते हैं। बाबूराव बागुल अपने विशिष्ट अनुभव से ऐसे मौलिक चरित्रों की रचना करते है जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। ये अनुभव महानगरों की बसासत से लेकर उसमें 'फेंक दिए गए आदमी' के जीवन की संघर्ष गाथा को व्यक्त करती हैं। महानगर इन्हे ठिकाना भी दे रहा है और इनकी मानवीय गरिमा को भी कुचल रहा है।
'गुंडा' कहानी में इथोपियाई व्यक्ति जो अपने डील-डौल से भी असामान्य है। उसने कभी स्त्री से प्रेम नहीं किया, जो कभी रोया ही नहीं। उसमें मानवीय संवेदनाओं का जन्म ही नहीं हुआ। उसे समाज से दूर अंधेरे में सिर्फ अपराध करवाने के लिए रखा गया है। यह व्यक्ति बाहर से देखने में भयावह, कठोर है। वह सबका ध्यान तो आकर्षित करता है, पर सहानुभूति प्राप्त नहीं करता, बल्कि घृणा ही पाता है। वेश्या जब उसे अपना दर्द सुनाती है तो उसकी संवेदना जागृत होती है और वह बेहद संवेदनशील व मानवीय एहसास के साथ उपस्थित होता है। बाबूराव की लेखकीय सहानुभूति का स्पर्श पाकर वह एकदम खिल जाता है और एक यादगार चरित्र बन जाता है।
'रस्तेवाली' कहानी शोषण की इस सीढीनुमा व्यवस्था के त्रासद सच को उद्घाटित करती कहानी महानगरों के प्रवासी मजदूरों के एकाकी जीवन में कुछ समय के लिए राहत प्रदान करती 'स्ट्रीट प्रास्टीच्यूटस' के जीवन संघर्ष को उघाड़ती है। वेश्या में अगाध ममता है। विवशता में इस जीवन में आई ये इस काम के नखरे भी सीख रही हैं, लेकिन वे यहाँ ठगी जाती हैं। वेश्याओं के कोठे, संगीत आम शहरी के लिए रोमांचक हो सकते हैं, लेकिन 'रस्तेवाली' वेश्या में और कोठेवाली में बहुत फर्क है। यहाँ सआदत हसन मंटों की कहानियों की वेश्याओं की तरह प्रेमी के झूठे वायदों का इन्तजार करती, बिचौलियों-भडुवों के साथ नहीं, बल्कि अपनी देह की 'मजदूरी' के लिए ठगी जाती और घोर प्रतिस्पर्धा की शिकार वेश्याएं हैं। बाबूराव की विशेष बात यही है कि वे इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलते कि जिन्दा रहने के लिए इस जीवन में फंस तो जाती हैं, लेकिन उनकी आत्मा इतनी नहीं मरी कि वे मानवीय गुणों का त्याग कर दे। बल्कि इसके विपरीत जो कथित सम्मान का जीवन जी रहे हैं, असल में वे कितने गिरे हुए हैं इसका उद्घाटन भी कर देते हैं।
बाबूराव बागुल ने अपनी कहानियों में पूँजीवादी-शोषण और वर्ण-व्यवस्था के आपसी गठजोड़ को बहुत ही रचनात्मक ढंग से व्यक्त किया है। 'विद्रोह', 'जब मैने जात छुपाई' जैसी कहानियों में विशेष तौर पर प्रकट हुआ है। एक तरफ तो दलित शिक्षा और चेतना के कारण गंदगी-मैला उठाने के काम को छोड़ रहे हैं, लेकिन पँजीवादी शोषण और घोर गरीबी उनको इधर धकेल रही है। 'विद्रोह' कहानी के जय की मन:स्थिति व विवशता शहरी दलितों की विवशता को दर्शाती है। बेशक महानगर बन रहे हैं, लेकिन उच्च जातिगत संस्कार दलितों के प्रति उसी तरह नफरत करता है।
बाबूराव के साहित्य में यांत्रिक तरीके से अन्तर्जातीय विवाह करवाकर आदर्श स्थापित कर देना या दलित स्त्रियों पर बलात्कार दर्शाना ही नहीं है। उत्पीडऩ-शोषण के नाम पर यौन-शोषण का अतिरंजना पूर्ण वर्णन कि पाठक उसमें रस लेने लगे। वे शोषण को संश्लिष्टता में समझते और व्यक्त करते हैं। शोषण के रूपों के अन्त:संबंधों को उद्घाटित करने के कारण ही दलित जीवन यथार्थ का एकांगी नहीं, बल्कि विविध पक्षों को व्यक्त कर पाए। वे शोषण की प्रक्रियाओं को समझते हुए उनके सम्बन्धों को समग्रता में देखते थे। वे अस्पृश्यता को भावनात्मक अपील से दूर होने वाली समस्या नहीं, बल्कि उसके सामाजिक-आर्थिक आधार को समझते थे, इसीलिए व्यवस्था परिवर्तन के साथ जोडुकर देखते थे। उन्होंने लिखा "अस्पृश्यता का सिर्फ एहसास किया कि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का विश्व-दर्शन हो जाता है। अस्पृश्यता का कारण (1)धर्म है (2)संस्कृति है (3)धर्म ग्रंथ है (4)सामाजिक संरचना है (5)धर्मावलंबी आर्थिक संरचना है। और इन सबसे पैदा हुई मानसिक संरचना है। यानी अस्पृश्यता नष्ट करनी हो तो इतनी व्यवस्थाएं बदलनी पड़ती हैं व नई निर्माण करनी होती है। और यह काम कितना बड़ा है?"
जातिगत विभाजन श्रमिकों में कभी वर्गीय एकता व भाईचारा बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा समाज का जातिगत विभाजन है। वर्ण-व्यवस्था के उच्च वर्गीय चरित्र को उद्घाटित करती कहानी 'जब मैंने जात छुपाई' स्थापित करती है कि सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण से एकजुट संघर्ष ही दलित मुक्ति का सही रास्ता है। जाति छुपाकर काम चलने वाला नहीं है।
सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण एक दूसरे के पूरक हैं। सामाजिक भेदभाव आर्थिक शोषण की वैधता की जमीन तैयार करता है तो आर्थिक शोषण दलितों के सामाजिक भेदभाव को। बाबूराव बागुल माक्र्सवाद और डा. आम्बेडकर के संघर्षों में कोई विरोधाभास नहीं देखते थे, जैसा कि बाद के दलित साहित्यकारों और माक्र्सवादी साहित्यकारों में दिखाई दिया। दलित आन्दोलन और माक्र्सवादी आन्दोलन के बीच जो खाई बढ़ी, उससे वे परेशान रहे। उन्होंने लिखा है कि ''माक्र्सवाद दीनता, दु:ख व दासता का विरोधी है। अत: जिस तरह यह पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का विरोध करता है, उसी तरह वह वर्णाश्रम विरोधी भी है। इसलिए वामपंथियों को अस्पृश्यता का सवाल उठाना चाहिए। यह सवाल एक आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संघर्ष पैदा करता है। भारतीय क्रांति की सच्ची लड़ाई अस्पृश्यता निराकरण से ही विकसित होने वाली है। इसलिए शूद्र, अतिशूद्र समाज ही केन्द्र में होना चाहिए। उसी को नेता मानना चाहिए।
मैं पूछ रहा था -- पूँजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध यानी किसका समर्थन करना? सर्वाधिक दलित-पीडि़त जनता का समर्थन करना। यानी ग्रामीण जनता का समर्थन करना। यानी वर्ण-व्यवस्था की निर्मित की हुई आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना का विरोध। यह विरोध जिस तरह जातिवाद को तोड़ता है, उसी तरह खेती, और समाज, संस्कृति की पुनर्रचना की मांग करता है। यह वर्ग-संघर्ष है। यही वर्ग-संघर्ष साहित्य में प्रकट होना चाहिए। महाड़ के पानी के लिए सत्याग्रह, कालाराम मंदिर सत्याग्रह, ये केवल पानी और मंदिर का सत्याग्रह नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक संघर्ष है, वर्ग संघर्ष है। यह संघर्ष लोकतंत्र का संस्कृतिकरण एवं सामाजीकरण चाहता है और ज्ञान-विज्ञान का समर्थन चाहता है। मनुष्य की प्रतिष्ठा की मांग करता है।"
बाबूराव बागुल की कहानियों की विशेष बात यह है कि वे बिल्कुल विपरीत स्थितियों से कहानी की शुरूआत करके सच्चाई के विभिन्न पहलुओं की परतें उतारते जाते हैं। पाठक के समक्ष एक जीवन्त संसार खुलता जाता है। और लेखक अपने मंतव्य से सहमत करते जाते हैं। 'मरना सस्ता हो रहा है' कहानी में दो लेखक का मित्र बम्बई पर कविता लिखना चाहता है। उसके दिमाग में बम्बई की छवि मुक्ति प्रदाता और संघर्षों-आन्दोलनों की भूमि के रूप में है। इसमें काफी सत्य भी है, लेकिन यह बम्बई का पूरा सच नहीं है। अपने मित्र को रेल की पटरियों के साथ बसी झुग्गी झोंपडिय़ों के जीवन को दर्शाता है तो उसकी वह रोंमाटिक छवि ध्वस्त हो जाती है और बम्बई के बारे में धारणा बदल जाती है। यह सिर्फ कहानी के चरित्र के साथ ही नहीं होता, बल्कि पाठक भी ऐसी छुपी हुए संसार से परिचित होता जाता है और इस वर्ग का आर्तनाद उसकी चेतना को झकझोरता है। शहरों की जो साफ सुथरी, चमक-दमक वाली खूबसूरत छवियाँ मीडिया में तैरती हैं और जिन्हें पूँजीवादी विकास की उपलब्धियों के तौर पर पेश किया जाता है, उनके बरक्स ऐसी दुनिया का चित्रण कथित विकास पर पश्रचिह्न लगाता है।
बाबूराव की कहानी में अनेक कहानियां छुपी होती हैं। यहाँ की सच्चाई कल्पना से भी ज्यादा चमत्कारिक है। इसका कारण यही है कि लेखक जिस जीवन को व्यक्त करता है, उससे गहरे में जुड़ा है। पात्र कहानी के ऐन बीच में आ बैठते हैं और अपने जीवन का सच बताने लगते हैं। जिस तरह एक समुदाय होता है उसी तरह कहानी में आ बैठता है। मानो कि बाबू राव की कलम में कैमरा लगा है। पूरी बस्ती के साथ-साथ उसमें रह रहे व्यक्ति विशेष के चित्र कहानियों में आते रहते हैं। इन चित्रों से कहानी की विश्वसनीयता बनती है और लेखक को भी जीवन से दूर नहीं जाने देते।
कहानियों के चरित्र अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व परिस्थितियों के साथ होते हैं। बाबूराव सचेत कहानीकार हैं जो दलितों-सर्वहारा की दशा को दर्शाकर जागरूकता व चेतना पैदा करना उनका उद्देश्य है इसलिए ऐसे चरित्रों को निर्मित करने वाली परिस्थितियाँ कभी ओझल नहीं होती। खोजी पत्रकार की तरह बाबूराव इनकी सच्चाई को बाहर ले आते हैं। 'विद्रोह' कहानी का जय, 'जब मैने जात छुपाई' का काशीनाथ, 'मरना सस्ता हो रहा है' का भीमू, रानू नागवेकर, बारकू, 'गुंडा' कहानी का इथोपियाई आदमी, 'शिक्षा' का लक्ष्मण जाधव, 'रस्तेवाली' की गिरिजा पाठक की चेतना व स्मृति में स्थायी तौर पर चिपक जाते हैं। ये चरित्र महान व आदर्श न होते हुए भी इसीलिए यादगार बन जाते हैं, क्योंकि ये अपनी स्थितियों को छोड़कर नहीं आते, बल्कि उनके साथ आते हैं। बाबूराव का मानना है कि "आदमी अच्छे होते हैं। बुरी होती है व्यवस्था। बुरी होती है परिस्थिति, जो मन, स्वभाव का निर्माण करती है। जीवन प्रवाह छिन्न-भिन्न कर डालती है। परिस्थिति और सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था अच्छी हो, निरोगी हो तो आदमी कितने खुशहाल, आनंदित होंगे।"
बाबूराव बागुल की प्रभावशाली रचनात्मक भाषा के प्रयोग ने इन चरित्रों को यादगार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जीवन्त भाषा से चरित्र एकदम जिन्दा चरित्रों की तरह कहानियों में मौजूद होते हैं। बहुत चुस्त और खुरदरी लेकिन जातगी से भरी भाषा के दर्शन यहाँ होते हैं। किसी चरित्र की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जो उपमाएं दी हैं उनसे जो चित्र बनता है वह उसे सही व्याख्यायित करता है। बाबूराव बागुल का कवि कहानी में आ जाता है। 'सांप देखकर शोर मचाने वाली मैना की तरह सिंगापुर की वेश्याओं ने शोर मचाया', 'सवन की फुहारों की तरह आनंदित रामचरण ने तेजी से कहा','बैल की तरह बैठे-बैठे गू-मूत करता है','उसकी मुट्ठी ताले की तरह कस गई। स्वाहा करने पर उठने वाली होम-कुंड की ज्वाला की तरह उसकी जीभ दांतों के दरवाजे की आड़े में ही पड़ी रही', 'नाल ठोंकने के लिए जैसे बैल को उलथा करते हैं वैसे दामू के उद्गार से गांव उलथा हो गया'।
बाबूराव बागुल का अपने चरित्रों के प्रति भावुकतापूर्ण रवैया नहीं, बल्कि आलोचनात्मक है। वे उनकी कमजोरियों को कहीं आदर्शीकृत नहीं करते, बल्कि उस पर फटकार लगाते हैं। जिन्दगी से इन चरित्रों को कोई मोह नहीं रह गया है, वे बिल्कुल पाश्विक स्तर पर जी रहे हैं और अपनी स्थितियों के प्रति उनके मन में कोई असंतुष्टि व आक्रोश नहीं है। उनके वर्णन में बाबूराव में प्रकृतवाद के रुझान भी दिखाई देते हैं।
बाबूराव का मानना है कि "सुंदरता, मनुष्य व उसके जीवन जीने के तरीके में होती है। प्रकृति सतत् सौंदर्यपूर्ण होती है, वैसे ही मनुष्य भी सुंदर होता है। लेकिन व्यवस्था, दु:ख, दीनता, दासत्व और कुरूपता पैदा करती है, सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए।" पूँजीवाद, साम्राज्यवाद और ब्राह्मणवाद के तिहरे शोषण ने मानवीय गरिमा छीन ली है। जीवन को सुन्दर बनाने के लिए व्यवस्था को आमूल चूल परिवर्तन की जरुरत है। बाबूराव की कहानियाँ मानवीय बोध जगाकर उसे तैयार करती हैं।