साम्प्रदायिकता
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद, झगड़ों व हिंसा की घटनाओं का ही नाम नहीं है दो धार्मिक समुदायों के विवादों तक सीमित नहीं बल्कि एक विचारधारा का नया रूप धारण कर लिया है, अपनी एक तर्क-पद्धति विकसित कर ली है जिसके आधार पर वह समाज के विभिन्न पक्षों पर विचार करती है। समझ के स्तर पर साम्प्रदायिकता को एक विचारधारा के रूप में न देख पाना साम्प्रदायिकता को पूरे तौर पर न समझना है ''आखिरकार साम्प्रदायिकता सबसे पहले एक विचारधारा है, एक विश्वास प्रणाली है जिसके जरिए समाज, अर्थव्यवस्था और राजतंत्र को देखा जाता है। यह समाज और राजनीति को देखने का एक तरीका है।"साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक दृष्टिकोण है जिसमें यह माना जाता है कि एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं, बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। यदि इस बात को समझा जाए तो इसका अर्थ निकलेगा कि जैसे भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं तो साम्प्रदायिकता की विचारधारा के तर्क के अनुसार सभी हिन्दुओं के हित एक जैसे हैं, सभी मुसलमानों के एक जैसे, सभी सिक्खों के एक जैसे व सभी ईसाईयों के एक जैसे। एक समुदाय के हित न केवल एक जैसे हैं बल्कि दूसरे के विपरीत हैं। हिन्दुओं के हितों की मुसलमानों, सिक्खों, ईसाईयों के हितों से टकराहट है। इसी तरह मुसलमानों व अन्य धर्मों के लोगों की अन्य धर्मों के समुदायों के साथ। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते और साम्प्रदायिक झगड़े तो अवश्यभावी हैं। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है।
यह बात बिल्कुल भी सही नहीं है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित एक समान होते हैं। जब तक समाज वर्गों में बंटा है, समाज में गरीब और अमीर हैं तब तक एक धर्म के लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित एक समान हो ही नहीं सकते बल्कि एक ही धर्म के मानने वाले गरीब और अमीर के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक हित परस्पर विरोधी होते हैं और दूसरी तरफ अलग-अलग धर्मों को मानने वाले अमीरों के हित एक जैसे होते हैं और गरीबों के हित एक जैसे होते हैं। उदाहरण के लिए एक मजदूर हिन्दू या मुसलमान अपने ही धर्म के पूंजीपति के कारखाने में काम करते हैं तो उनके आर्थिक हित एक जैसे कैसे हो सकते हैं जहां पूंजीपति हमेशा अपने लाभ को बढ़ाने के लिए मजदूर की मेहनत का शोषण करने की नई-नई योजनाएं बनाता रहता है। इसके विपरीत पूंजीपति हिन्दू और पूंजीपति मुसलमान के हित एक जैसे होते हैं। गरीब हिन्दू व गरीब मुसलमान के जीवन जीने के ढंग में, रहन-सहन, शिक्षा-स्वास्थ्य, कार्य-स्थितियों में समानता होती है जबकि अमीर हिन्दू या मुसलमान की जीवन शैली, रहन-सहन, ठाठ-बाट व ऐश-विलास में समानता होती है। साम्प्रदायिक शक्तियां और साम्प्रदायिकता की विचारधारा गरीबों में एकता न हो जाए, उनमें वर्गीय-एकता को कमजोर करने के लिए व दरार पैदा करने के लिए यह सवाल उठाते रहे है। यदि गरीब लोगों (जो कि इसलिए गरीब हैं क्योंकि उनकी मेहनत का फल कोई और यानी अमीर चख रहा है) को इस बात का अहसास हो जाए कि और उनमें एकता स्थापित हो जाएगी और फिर पूंजीपति हिन्दू व मुसलमान गरीब हिन्दू व मुसलमान को लूट नहीं सकेंगे। अपने इस ठाठ-ऐश्वर्य को जारी रखने के लिए 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत साम्प्रदायिकता की यह घिनौनी चाल उनके बहुत काम आती है।
साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते। इसी बात को आधार बनाकर 'द्वि-राष्ट्र' का सिद्धांत गढ़ा गया और भारत के दो टुकड़े हुए-भारत और पाकिस्तान बने, लेकिन यह सिद्धांत कितनी झूठ और कृत्रिमता पर खड़ा था। यह तब साबित हुआ जब पाकिस्तान के भी दो टुकड़े हो गए और धर्म के आधार बनने वाले राष्ट्र और एक धर्म एक देश की अवधारणा का थोथापन उजागर हो गया। साम्प्रदायिकता की दृष्टि धारण किए हुए लोगों की यह बात तथ्यपरक भी नहीं है कि विभिन्न धर्मों के लोग शांति के साथ एक जगह नहीं रह सकते। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से इतने घुल-मिल गए हैं कि यह अनुमान लगाना कठिन है कि कौन सा विश्वास या रिवाज किस धर्म का है। विभिन्न धर्मों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। आधुनिक चिन्तक व समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने लिखा है कि ''भारत हिन्दू और मुसलमान दोनों का घर है। दोनों भारत की फिज़ा में साँस लेते हैं और पवित्र गंगा और जमुना का पानी पीते हैं। दोनों इसी धरती की उपज खाते हैं। लंबे समय से यहाँ रहने के कारण दोनों का खून बदला है, दोनों का रंग भी समान हो गया है, चेहरे भी एक ही तरह के हो गए हैं। मुसलमानों ने हिंदुओं के सैंकड़ों रीति-रिवाज सीख लिए हैं तथा हिन्दुओं ने भी मुसलमानों से सैंकड़ों चीजें सीखी हैं। दोनों का इतना मेलजोल हुआ है कि इससे एक नई जबान उर्दू का जन्म हुआ है, जो इन दोनों में से किसी की भाषा नहीं है। भारत के साझे निवासी होने से हिंदू और मुसलमान एक जाति हैं तथा देश के साथ-साथ इस दोनों की उन्नति परस्पर सहयोग, सद्भाव और प्रेम से ही संभव है। एक दूसरे के प्रति विरोध कलह और विभेद से हम परस्पर का विनाश ही करेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जो लोग इन बातों को नहीं समझते और हिंदू-मुस्लिम के बीच विभेद पैदा करते हैं, यह नहीं समझ पाते कि ऐसी स्थिति में उनका ही नुकसान होगा और वे इन बातों से स्वयं को ही आघात पहुंचा रहे हैं। दोस्तो! मैंने बार-बार कहा है कि हिन्दुस्तान एक दुल्हन की तरह है जिसकी दो खूबसूरत चमकीली आँखें हैं - हिन्दू और मुसलमान। यदि ये दोनों आपस में लड़ाई करेंगी तो खूबसूरत दुल्हन बदशक्ल हो जाएगी और यदि एक आँख दूसरे को नष्ट कर देगी, तो दुल्हन एक आँख ही गंवा बैठेगी। हिन्दुस्तान के लोगों अब यह तुम्हारे हाथ में है कि इस दुल्हन को भैंगी बनाओ या कानी।"
साम्प्रदायिकता दो तरह की होती है - एक को नर्म या उदार साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है दूसरी फासिस्ट/कट्टर साम्प्रदायिकता। नर्म/उदार साम्प्रदायिक लोगों का मानना है कि एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित विशिष्ट भी होते हैं, जिनको हासिल करने के लिए बातचीत से या दबाव से जैसे भी हो पूरा करना चाहिए लेकिन साथ ही उदार/नर्म साम्प्रदायिक यह भी मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों के सांझे हित हैं और इस साझेपन के कारण ही वे राष्ट्र बनते हैं इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास के संघर्ष में साथ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय या धर्म के प्रति उदार रूख के कारण ही इसको उदार सम्प्रदायिकता कहा जाता है। जो अपने सम्प्रदाय के हितों की पूर्ति के लिए जोर रखती है और इसके लिए अन्य सम्प्रदायों या धर्मों से सौदेबाजी भी करती है। स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान सन 1936 तक हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग व अकाली दल के उदार साम्प्रदायिक लोग बैठकर आपस में विचार विमर्श भी करते थे और अपने झगड़े सुलझाते थे व अंग्रेजी सरकार पर दबाव डालकर अपनी बात भी मनवाने की कोशिश भी करते थे। आज की राजनीति में उदार साम्प्रदायिक दलों में अकाली दल, केरल व तमिलनाडु की मुस्लिम लीग को और केरल के ईसाई राजनीतिक समूहों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा और हिंसा पर आधारित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायिओं के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़ी आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है, दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते। स्वतन्त्रता-संघर्ष के दौरान सन 1937 के बाद इस किस्म की साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा। मुस्लिम लीग व जिन्ना ने तथा हिन्दू महासभा व वीर सावरकर दोनों ने कहा कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, दोनों एक राष्ट्र में नहीं रह सकते। हिन्दू साम्प्रदायिकों ने इस बात का खूब प्रचार किया कि हिन्दू राष्ट्र में अल्पसंख्यक दास, गुलाम और दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहें तो जिन्ना ने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग रखी जो दुर्भाग्यवश पाकिस्तान के रूप में पूरी हुई। घृणा, अलगाव, निंदा और हिंसा पर टिकी साम्प्रदायिकता को आजादी के बाद आर।एस।एस.व इसके आनुषंगिक संगठनों ने अपनाया, जिसने मुसलमानों के बारे में झूठ, घृणा का इतना आक्रामक दुष्प्रचार किया कि उनको सभी समस्याओं का दोषी ठहरा दिया। इसी तरह सिक्खों में भिंडरावाला ने और मुसलमानों में जमात-ए-इस्लामी आदि ने इस किस्म की साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है जब से साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ तभी से ऐसा हो रहा है बल्कि यह कहा जा सकता है कि उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ है। बिल्कुल प्रारम्भ से इसका उच्च-वर्गीय चरित्र रहा है। साम्प्रदायिकता की उत्पति पर विचार करना इसके वर्गीय चरित्र की पहचान करने में जरूरी है। अंग्रेजों के आने के पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सत्ता हथियाई जाती थी और जो भी सत्ता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे, चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखता हो। राजा के प्रति वफादारी ही शासन-व्यवस्था में पद पाने का साधन थी। अर्थव्यवस्था में भी प्रतिस्पर्धा नहीं थी। आम तौर पर अपनी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन किया जाता था न कि बाहर के बाजार में बेचने के लिए। अंग्रेजों ने जब भारत की शासन सत्ता संभाली तो इस व्यवस्था में भारी फेर बदल हुआ। उत्पादन भी प्रतिस्पर्धात्मक हो गया और अपनी स्थानीय जरूरतों के अलावा बाजार में बेचे जाने के लिए होने लगा। अंग्रेजों की औपनिवेशिक व्यवस्था पहले की सामन्ती व्यवस्था से अधिक लोकतान्त्रिक व प्रतिस्पर्धात्मक थी। इस नई व्यवस्था में हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की होड़/प्रतिस्पर्धा के कारण ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए हिन्दू व मुस्लिम उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी, क्योंकि वे सन 1857 में हिन्दुओं-मुसलमानों की एकता को देख चुके थे और हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए यह नीति काम कर गई। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सुंदरपाल की सन 1929 में 'भारत में अंग्रेजी राज' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें अंग्रेजी शासकों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का प्रसारित करने की मंशा को उनके दस्तावेजों के माध्यम से बताया है। ''इसके कुछ साल एक अंग्रेज अफसर ने लिखा था- ''हमारे राजनैतिक, मुल्थी और फौजी तीनों तरह के भारतीय शासन का उसूल, 'फूट फैलाओ और शासन करो' होना चाहिए।"
''..... अभी तक हमने साम्प्रदायिक और धार्मिक पक्षपात के द्वारा ही मुल्क को वश में रखा है - हिन्दुओं के खिलाफ मुसलमानों को और इसी तरह अन्य जातियों को एक-दूसरे के खिलाफॅ।" विप्लव के बाद कर्नल जॉन कोक ने, जो इस समय मुरादाबाद की पलटनों का कमांडर था, लिखा कि- ''हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि भिन्न-भिन्न धर्मों और जातियों के लोगों में हमारे सौभाग्य से जो अनैक्य मौजूद है उसे पूरे जोरों में कायम रखा जाए, हमें उन्हें मिलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भारत सरकार का उसूल यही होना चाहिए- 'फूट फैलाओ और शासन करो।"
सन 1883 में जब वायसराय कार्यकारिणी परिषद में पहली बार स्थानीय स्वशासन बिल प्रस्तुत किया तो मुस्लिम समाज सुधारक सर सैयद अहमदखान ने दो सम्प्रदायों के बीच नगरपालिका में सीटों की संख्या के बंटवारे को लेकर विरोध किया। इस तरह चुनावों के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर हिन्दू व मुसलमानों के उच्च वर्ग में विवाद का जन्म हुआ और धर्म का नाम लेकर निम्न वर्ग को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा करने के लिए यानी अपनी संख्या बढ़ाने के लिए साम्प्रदायिक चेतना का प्रचार शुरू किया और अंग्रेजों ने इसको पूरी हवा दी। ज्यों-ज्यों स्वतन्त्रता-आन्दोलन तेज होता गया तो सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए उच्च वर्ग भी साम्प्रदायिकता के माध्यम से तेज होता गया। स्वतन्त्रता की संभावना जितनी बढ़ी सत्ता में हिस्सेदारी की स्पर्धा भी सघन हुई जिससे हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष तेज होता गया।
साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को एक अन्य ऐतिहासिक संदर्भ से भी समझा जा सकता है। अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष को लेकर मुसलमानों का निम्न वर्ग, निम्न-मध्यवर्ग और उच्च वर्ग व उच्च-मध्यवर्ग परस्पर विरोधी विचार रखते थे। उच्च वर्ग के विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले सर सैयद अहमद खान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने का विरोध किया जबकि अधिकतर उलेमाओं ने अंग्रेजों का विरोध किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का साथ दिया। शाह वली उल्लाही स्कूल के उलेमाओं ने कांग्रेस से गठबन्धन किया, देवबन्द के दारूल-उलम के मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने मुसलमानों को कांग्रेस से सम्बन्ध् स्थापित करने का फतवा जारी किया। बहावियों ने सौ फतवों का संग्रह 'नुसरत-अल-अहरार (स्वतन्त्रता सेनानियों की मदद) नामक पुस्तक प्रकाशित करके अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे का संकल्प दोहराया।
अंग्रेजों के विरोध या समर्थन के पीछे वर्गीय चरित्र ही काम कर रहा था। अधिकतर उलेमा या तो गांव के गरीब थे या फिर कारीगर वर्ग से सम्बंधित थे और गौर करने की बात है कि अंग्रेजों की नीतियों ने किसानों को और हस्तशिल्पियों-कारीगरों के आर्थिक आधार को तबाह कर दिया था। मशीन से बने ब्रिटेन के कपड़ों ने भारत के जुलाहों का धंधा बिल्कुल चौपट कर दिया था। इन वर्गों पर अंग्रेजी नीतियों की सबसे अधिक मार पड़ी थी इसीलिए ये वर्ग अंग्रेजी शासन के विरूद्ध पूरी निष्ठा से लड़े। दूसरी तरफ मुस्लिम लीग में या तो उच्च मध्य वर्ग के शिक्षित लोग थे या फिर राजे-रजवाड़े और जमींदार। शिक्षित मध्य वर्ग नौकरी पाने के लिए तथा राजे-रजवाड़ों ने राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। धर्म की आड़ लेकर लोगों को एकत्रित करने की कोशिश की चूँकि मुस्लिम लीग का न तो धर्म से कोई लेना देना था और न ही आम लोगों की तकलीफों से, इसलिए मुस्लिम लीग की पकड़ कभी भी आम मुसलमानों में नहीं हुई और कभी भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विशेषकर बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों में जहां मुसलमानों की संख्या अन्य समुदायों से अधिक थी। महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द ने 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' लेख में साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को उद्घाटित किया है कि ''इन संस्थाओं (साम्प्रदायिकता) को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना और इस तरह विदेशी शासन को स्थायी बनाना है। उन्हें किसी हिन्दू या किसी मुस्लिम शासन की अपेक्षा विदेशी शासन कहीं सहज है। वे ओहदों और रिआयतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते। मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रिआयतें पा गया है, तो हिंदू क्यों न सरकार का दामन पकड़े और क्यों न मुसलमान की ही भांति सुर्खरू बन जाए। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना, जिससे हिंदू और मुसलमान दोनों एक होकर राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएं मध्यवर्ग के धनिकों, जमींदारों, ओहदेदारों और पद-लोलुपों की है। उनका कार्य क्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुंचने का भय है, तो वे तुरंत उसका विरोध् करने को तैयार हो जाएंगी। अगर और ज्यादा गहराई तक जाएं, तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई-न-कोई निजी हित लगा हुआ है और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसाई ही सरल हो जाती है।"
स्वतन्त्रता के बाद भी साम्प्रदायिकता हमेशा उच्च-वर्ग के हितों की सेवा करने का औजार रही है। समाज के सामान्य लोगों के दुख-दर्दों से साम्प्रदायिकता का कोई-लेना-देना नहीं है। अपने ही सम्प्रदाय के बीच अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण, अंध्-विश्वास, बेकारी, भ्रूण-हत्या, स्त्री विरोधी पुरातन मानसिकता, जाति की अमानवीय प्रथा के प्रति कभी आवाज नहीं उठाई क्योंकि साम्प्रदायिक दृष्टि में ये समस्याएं ही नहीं है। इसके लिए गरीबी समस्या नहीं है बल्कि गरीब समस्या है उनकी मैनेजमेंट करना और उनके रोष को उन्हीं के खिलाफ प्रयोग करना उनकी चिंता है और इस कुत्सित कार्य को सिद्ध करने के लिए वह साम्प्रदायिकता का विषैला नाग लोगों में लेकर आता है।
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद, झगड़ों व हिंसा की घटनाओं का ही नाम नहीं है दो धार्मिक समुदायों के विवादों तक सीमित नहीं बल्कि एक विचारधारा का नया रूप धारण कर लिया है, अपनी एक तर्क-पद्धति विकसित कर ली है जिसके आधार पर वह समाज के विभिन्न पक्षों पर विचार करती है। समझ के स्तर पर साम्प्रदायिकता को एक विचारधारा के रूप में न देख पाना साम्प्रदायिकता को पूरे तौर पर न समझना है ''आखिरकार साम्प्रदायिकता सबसे पहले एक विचारधारा है, एक विश्वास प्रणाली है जिसके जरिए समाज, अर्थव्यवस्था और राजतंत्र को देखा जाता है। यह समाज और राजनीति को देखने का एक तरीका है।"साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक दृष्टिकोण है जिसमें यह माना जाता है कि एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं, बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। यदि इस बात को समझा जाए तो इसका अर्थ निकलेगा कि जैसे भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं तो साम्प्रदायिकता की विचारधारा के तर्क के अनुसार सभी हिन्दुओं के हित एक जैसे हैं, सभी मुसलमानों के एक जैसे, सभी सिक्खों के एक जैसे व सभी ईसाईयों के एक जैसे। एक समुदाय के हित न केवल एक जैसे हैं बल्कि दूसरे के विपरीत हैं। हिन्दुओं के हितों की मुसलमानों, सिक्खों, ईसाईयों के हितों से टकराहट है। इसी तरह मुसलमानों व अन्य धर्मों के लोगों की अन्य धर्मों के समुदायों के साथ। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते और साम्प्रदायिक झगड़े तो अवश्यभावी हैं। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है।
यह बात बिल्कुल भी सही नहीं है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित एक समान होते हैं। जब तक समाज वर्गों में बंटा है, समाज में गरीब और अमीर हैं तब तक एक धर्म के लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित एक समान हो ही नहीं सकते बल्कि एक ही धर्म के मानने वाले गरीब और अमीर के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक हित परस्पर विरोधी होते हैं और दूसरी तरफ अलग-अलग धर्मों को मानने वाले अमीरों के हित एक जैसे होते हैं और गरीबों के हित एक जैसे होते हैं। उदाहरण के लिए एक मजदूर हिन्दू या मुसलमान अपने ही धर्म के पूंजीपति के कारखाने में काम करते हैं तो उनके आर्थिक हित एक जैसे कैसे हो सकते हैं जहां पूंजीपति हमेशा अपने लाभ को बढ़ाने के लिए मजदूर की मेहनत का शोषण करने की नई-नई योजनाएं बनाता रहता है। इसके विपरीत पूंजीपति हिन्दू और पूंजीपति मुसलमान के हित एक जैसे होते हैं। गरीब हिन्दू व गरीब मुसलमान के जीवन जीने के ढंग में, रहन-सहन, शिक्षा-स्वास्थ्य, कार्य-स्थितियों में समानता होती है जबकि अमीर हिन्दू या मुसलमान की जीवन शैली, रहन-सहन, ठाठ-बाट व ऐश-विलास में समानता होती है। साम्प्रदायिक शक्तियां और साम्प्रदायिकता की विचारधारा गरीबों में एकता न हो जाए, उनमें वर्गीय-एकता को कमजोर करने के लिए व दरार पैदा करने के लिए यह सवाल उठाते रहे है। यदि गरीब लोगों (जो कि इसलिए गरीब हैं क्योंकि उनकी मेहनत का फल कोई और यानी अमीर चख रहा है) को इस बात का अहसास हो जाए कि और उनमें एकता स्थापित हो जाएगी और फिर पूंजीपति हिन्दू व मुसलमान गरीब हिन्दू व मुसलमान को लूट नहीं सकेंगे। अपने इस ठाठ-ऐश्वर्य को जारी रखने के लिए 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत साम्प्रदायिकता की यह घिनौनी चाल उनके बहुत काम आती है।
साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते। इसी बात को आधार बनाकर 'द्वि-राष्ट्र' का सिद्धांत गढ़ा गया और भारत के दो टुकड़े हुए-भारत और पाकिस्तान बने, लेकिन यह सिद्धांत कितनी झूठ और कृत्रिमता पर खड़ा था। यह तब साबित हुआ जब पाकिस्तान के भी दो टुकड़े हो गए और धर्म के आधार बनने वाले राष्ट्र और एक धर्म एक देश की अवधारणा का थोथापन उजागर हो गया। साम्प्रदायिकता की दृष्टि धारण किए हुए लोगों की यह बात तथ्यपरक भी नहीं है कि विभिन्न धर्मों के लोग शांति के साथ एक जगह नहीं रह सकते। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से इतने घुल-मिल गए हैं कि यह अनुमान लगाना कठिन है कि कौन सा विश्वास या रिवाज किस धर्म का है। विभिन्न धर्मों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। आधुनिक चिन्तक व समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने लिखा है कि ''भारत हिन्दू और मुसलमान दोनों का घर है। दोनों भारत की फिज़ा में साँस लेते हैं और पवित्र गंगा और जमुना का पानी पीते हैं। दोनों इसी धरती की उपज खाते हैं। लंबे समय से यहाँ रहने के कारण दोनों का खून बदला है, दोनों का रंग भी समान हो गया है, चेहरे भी एक ही तरह के हो गए हैं। मुसलमानों ने हिंदुओं के सैंकड़ों रीति-रिवाज सीख लिए हैं तथा हिन्दुओं ने भी मुसलमानों से सैंकड़ों चीजें सीखी हैं। दोनों का इतना मेलजोल हुआ है कि इससे एक नई जबान उर्दू का जन्म हुआ है, जो इन दोनों में से किसी की भाषा नहीं है। भारत के साझे निवासी होने से हिंदू और मुसलमान एक जाति हैं तथा देश के साथ-साथ इस दोनों की उन्नति परस्पर सहयोग, सद्भाव और प्रेम से ही संभव है। एक दूसरे के प्रति विरोध कलह और विभेद से हम परस्पर का विनाश ही करेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जो लोग इन बातों को नहीं समझते और हिंदू-मुस्लिम के बीच विभेद पैदा करते हैं, यह नहीं समझ पाते कि ऐसी स्थिति में उनका ही नुकसान होगा और वे इन बातों से स्वयं को ही आघात पहुंचा रहे हैं। दोस्तो! मैंने बार-बार कहा है कि हिन्दुस्तान एक दुल्हन की तरह है जिसकी दो खूबसूरत चमकीली आँखें हैं - हिन्दू और मुसलमान। यदि ये दोनों आपस में लड़ाई करेंगी तो खूबसूरत दुल्हन बदशक्ल हो जाएगी और यदि एक आँख दूसरे को नष्ट कर देगी, तो दुल्हन एक आँख ही गंवा बैठेगी। हिन्दुस्तान के लोगों अब यह तुम्हारे हाथ में है कि इस दुल्हन को भैंगी बनाओ या कानी।"
साम्प्रदायिकता दो तरह की होती है - एक को नर्म या उदार साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है दूसरी फासिस्ट/कट्टर साम्प्रदायिकता। नर्म/उदार साम्प्रदायिक लोगों का मानना है कि एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित विशिष्ट भी होते हैं, जिनको हासिल करने के लिए बातचीत से या दबाव से जैसे भी हो पूरा करना चाहिए लेकिन साथ ही उदार/नर्म साम्प्रदायिक यह भी मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों के सांझे हित हैं और इस साझेपन के कारण ही वे राष्ट्र बनते हैं इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास के संघर्ष में साथ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय या धर्म के प्रति उदार रूख के कारण ही इसको उदार सम्प्रदायिकता कहा जाता है। जो अपने सम्प्रदाय के हितों की पूर्ति के लिए जोर रखती है और इसके लिए अन्य सम्प्रदायों या धर्मों से सौदेबाजी भी करती है। स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान सन 1936 तक हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग व अकाली दल के उदार साम्प्रदायिक लोग बैठकर आपस में विचार विमर्श भी करते थे और अपने झगड़े सुलझाते थे व अंग्रेजी सरकार पर दबाव डालकर अपनी बात भी मनवाने की कोशिश भी करते थे। आज की राजनीति में उदार साम्प्रदायिक दलों में अकाली दल, केरल व तमिलनाडु की मुस्लिम लीग को और केरल के ईसाई राजनीतिक समूहों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा और हिंसा पर आधारित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायिओं के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़ी आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है, दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते। स्वतन्त्रता-संघर्ष के दौरान सन 1937 के बाद इस किस्म की साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा। मुस्लिम लीग व जिन्ना ने तथा हिन्दू महासभा व वीर सावरकर दोनों ने कहा कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, दोनों एक राष्ट्र में नहीं रह सकते। हिन्दू साम्प्रदायिकों ने इस बात का खूब प्रचार किया कि हिन्दू राष्ट्र में अल्पसंख्यक दास, गुलाम और दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहें तो जिन्ना ने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग रखी जो दुर्भाग्यवश पाकिस्तान के रूप में पूरी हुई। घृणा, अलगाव, निंदा और हिंसा पर टिकी साम्प्रदायिकता को आजादी के बाद आर।एस।एस.व इसके आनुषंगिक संगठनों ने अपनाया, जिसने मुसलमानों के बारे में झूठ, घृणा का इतना आक्रामक दुष्प्रचार किया कि उनको सभी समस्याओं का दोषी ठहरा दिया। इसी तरह सिक्खों में भिंडरावाला ने और मुसलमानों में जमात-ए-इस्लामी आदि ने इस किस्म की साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है जब से साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ तभी से ऐसा हो रहा है बल्कि यह कहा जा सकता है कि उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ है। बिल्कुल प्रारम्भ से इसका उच्च-वर्गीय चरित्र रहा है। साम्प्रदायिकता की उत्पति पर विचार करना इसके वर्गीय चरित्र की पहचान करने में जरूरी है। अंग्रेजों के आने के पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सत्ता हथियाई जाती थी और जो भी सत्ता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे, चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखता हो। राजा के प्रति वफादारी ही शासन-व्यवस्था में पद पाने का साधन थी। अर्थव्यवस्था में भी प्रतिस्पर्धा नहीं थी। आम तौर पर अपनी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन किया जाता था न कि बाहर के बाजार में बेचने के लिए। अंग्रेजों ने जब भारत की शासन सत्ता संभाली तो इस व्यवस्था में भारी फेर बदल हुआ। उत्पादन भी प्रतिस्पर्धात्मक हो गया और अपनी स्थानीय जरूरतों के अलावा बाजार में बेचे जाने के लिए होने लगा। अंग्रेजों की औपनिवेशिक व्यवस्था पहले की सामन्ती व्यवस्था से अधिक लोकतान्त्रिक व प्रतिस्पर्धात्मक थी। इस नई व्यवस्था में हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की होड़/प्रतिस्पर्धा के कारण ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए हिन्दू व मुस्लिम उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी, क्योंकि वे सन 1857 में हिन्दुओं-मुसलमानों की एकता को देख चुके थे और हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए यह नीति काम कर गई। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सुंदरपाल की सन 1929 में 'भारत में अंग्रेजी राज' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें अंग्रेजी शासकों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का प्रसारित करने की मंशा को उनके दस्तावेजों के माध्यम से बताया है। ''इसके कुछ साल एक अंग्रेज अफसर ने लिखा था- ''हमारे राजनैतिक, मुल्थी और फौजी तीनों तरह के भारतीय शासन का उसूल, 'फूट फैलाओ और शासन करो' होना चाहिए।"
''..... अभी तक हमने साम्प्रदायिक और धार्मिक पक्षपात के द्वारा ही मुल्क को वश में रखा है - हिन्दुओं के खिलाफ मुसलमानों को और इसी तरह अन्य जातियों को एक-दूसरे के खिलाफॅ।" विप्लव के बाद कर्नल जॉन कोक ने, जो इस समय मुरादाबाद की पलटनों का कमांडर था, लिखा कि- ''हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि भिन्न-भिन्न धर्मों और जातियों के लोगों में हमारे सौभाग्य से जो अनैक्य मौजूद है उसे पूरे जोरों में कायम रखा जाए, हमें उन्हें मिलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भारत सरकार का उसूल यही होना चाहिए- 'फूट फैलाओ और शासन करो।"
सन 1883 में जब वायसराय कार्यकारिणी परिषद में पहली बार स्थानीय स्वशासन बिल प्रस्तुत किया तो मुस्लिम समाज सुधारक सर सैयद अहमदखान ने दो सम्प्रदायों के बीच नगरपालिका में सीटों की संख्या के बंटवारे को लेकर विरोध किया। इस तरह चुनावों के माध्यम से सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर हिन्दू व मुसलमानों के उच्च वर्ग में विवाद का जन्म हुआ और धर्म का नाम लेकर निम्न वर्ग को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा करने के लिए यानी अपनी संख्या बढ़ाने के लिए साम्प्रदायिक चेतना का प्रचार शुरू किया और अंग्रेजों ने इसको पूरी हवा दी। ज्यों-ज्यों स्वतन्त्रता-आन्दोलन तेज होता गया तो सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए उच्च वर्ग भी साम्प्रदायिकता के माध्यम से तेज होता गया। स्वतन्त्रता की संभावना जितनी बढ़ी सत्ता में हिस्सेदारी की स्पर्धा भी सघन हुई जिससे हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष तेज होता गया।
साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को एक अन्य ऐतिहासिक संदर्भ से भी समझा जा सकता है। अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष को लेकर मुसलमानों का निम्न वर्ग, निम्न-मध्यवर्ग और उच्च वर्ग व उच्च-मध्यवर्ग परस्पर विरोधी विचार रखते थे। उच्च वर्ग के विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले सर सैयद अहमद खान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने का विरोध किया जबकि अधिकतर उलेमाओं ने अंग्रेजों का विरोध किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का साथ दिया। शाह वली उल्लाही स्कूल के उलेमाओं ने कांग्रेस से गठबन्धन किया, देवबन्द के दारूल-उलम के मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने मुसलमानों को कांग्रेस से सम्बन्ध् स्थापित करने का फतवा जारी किया। बहावियों ने सौ फतवों का संग्रह 'नुसरत-अल-अहरार (स्वतन्त्रता सेनानियों की मदद) नामक पुस्तक प्रकाशित करके अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे का संकल्प दोहराया।
अंग्रेजों के विरोध या समर्थन के पीछे वर्गीय चरित्र ही काम कर रहा था। अधिकतर उलेमा या तो गांव के गरीब थे या फिर कारीगर वर्ग से सम्बंधित थे और गौर करने की बात है कि अंग्रेजों की नीतियों ने किसानों को और हस्तशिल्पियों-कारीगरों के आर्थिक आधार को तबाह कर दिया था। मशीन से बने ब्रिटेन के कपड़ों ने भारत के जुलाहों का धंधा बिल्कुल चौपट कर दिया था। इन वर्गों पर अंग्रेजी नीतियों की सबसे अधिक मार पड़ी थी इसीलिए ये वर्ग अंग्रेजी शासन के विरूद्ध पूरी निष्ठा से लड़े। दूसरी तरफ मुस्लिम लीग में या तो उच्च मध्य वर्ग के शिक्षित लोग थे या फिर राजे-रजवाड़े और जमींदार। शिक्षित मध्य वर्ग नौकरी पाने के लिए तथा राजे-रजवाड़ों ने राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। धर्म की आड़ लेकर लोगों को एकत्रित करने की कोशिश की चूँकि मुस्लिम लीग का न तो धर्म से कोई लेना देना था और न ही आम लोगों की तकलीफों से, इसलिए मुस्लिम लीग की पकड़ कभी भी आम मुसलमानों में नहीं हुई और कभी भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विशेषकर बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों में जहां मुसलमानों की संख्या अन्य समुदायों से अधिक थी। महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द ने 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' लेख में साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को उद्घाटित किया है कि ''इन संस्थाओं (साम्प्रदायिकता) को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना और इस तरह विदेशी शासन को स्थायी बनाना है। उन्हें किसी हिन्दू या किसी मुस्लिम शासन की अपेक्षा विदेशी शासन कहीं सहज है। वे ओहदों और रिआयतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते। मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रिआयतें पा गया है, तो हिंदू क्यों न सरकार का दामन पकड़े और क्यों न मुसलमान की ही भांति सुर्खरू बन जाए। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना, जिससे हिंदू और मुसलमान दोनों एक होकर राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएं मध्यवर्ग के धनिकों, जमींदारों, ओहदेदारों और पद-लोलुपों की है। उनका कार्य क्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुंचने का भय है, तो वे तुरंत उसका विरोध् करने को तैयार हो जाएंगी। अगर और ज्यादा गहराई तक जाएं, तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई-न-कोई निजी हित लगा हुआ है और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसाई ही सरल हो जाती है।"
स्वतन्त्रता के बाद भी साम्प्रदायिकता हमेशा उच्च-वर्ग के हितों की सेवा करने का औजार रही है। समाज के सामान्य लोगों के दुख-दर्दों से साम्प्रदायिकता का कोई-लेना-देना नहीं है। अपने ही सम्प्रदाय के बीच अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण, अंध्-विश्वास, बेकारी, भ्रूण-हत्या, स्त्री विरोधी पुरातन मानसिकता, जाति की अमानवीय प्रथा के प्रति कभी आवाज नहीं उठाई क्योंकि साम्प्रदायिक दृष्टि में ये समस्याएं ही नहीं है। इसके लिए गरीबी समस्या नहीं है बल्कि गरीब समस्या है उनकी मैनेजमेंट करना और उनके रोष को उन्हीं के खिलाफ प्रयोग करना उनकी चिंता है और इस कुत्सित कार्य को सिद्ध करने के लिए वह साम्प्रदायिकता का विषैला नाग लोगों में लेकर आता है।