संस्कृति और साम्प्रदायिकता

सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र 

साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। साम्प्रदायिक लोग अपने को सांस्कृतिक पुरूष, अपनी राजनीति को संस्कृति के रूप में पेश करते हैं, संस्कृति की शुद्धता व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लफ्फाजी के लिए प्रख्यात है। हिन्दी के महान रचनाकार मुन्शी प्रेमचन्द ने कहा था कि 'साम्प्रदायिकता हमेंशा संस्कृति का लबादा ओढ़कर आती है क्योंकि उसे अपने असली रूप में आते हुए लज्जा आती है।' सांस्कृतिक श्रेष्ठता, दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुड़े हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक लबादे को, उसके खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां- स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है।
किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं, भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है। मनुष्य के खान-पान, रहन-सहन के तौर तरीकों, उसके पूजा-उपासना व रीति-रिवाजों पर जलवायु का प्रभाव पड़ता है। पहाड़, मरुस्थल, बरसाती, समुद्र तट के किनारे रहने वाले लोंगों की स्थितियां अलग-अलग होने के कारण जीवन के साथ धार्मिक रिवाज भी अलग होते हैं। जहाँ एक जगह मुर्दे को फूका जाता है, एक जगह दबाया जाता है, एक जगह पानी में बहाया जाता है। कोई रिवाज श्रेष्ठ या निम्न नहीं होता। साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया । धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना ही साम्प्रदायिकता की शुरूआत हैं। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्त्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है, धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार, आत्मा-परमात्मा, परलोक, पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्त्वों के उपर धर्म को रखती है। संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है, उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। एक को दूसरे से खतरा है । अत: संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं । यह बात बिल्कुल बेबुनियाद व खोखली है कि समान धर्म को मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का, भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का, भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन, न भाषा -बोली में समानता है न रूचि स्वभाव में । इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है, होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश भी है।भाषा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक -व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं। भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते -रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हे। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रूचियों - स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा और इसमें विश्वास करने वाले लोग भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करते रहते है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना, पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है, इनका भाषा प्रेम दूसरी भाषा को कोसने-दुत्कारने में नजर आता है। अपनी भाषा के विकास के लिए कुछ न करके दूसरी भाषा को गालियां देना तो बहुत ही आसान मगर ओछे किस्म का भाषा प्रेम हैं। हिन्दी उर्दू को लेकर यह विवाद काफी गहरा है । उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानकर ही शायद इसे पाकिस्तान की राज्य-भाषा घोषित किया गया, जबकि पाकिस्तान में उर्दू बोलने वालों की संख्या बहुत कम है। यदि देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से, एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी कथाकार मुंशी प्रेमचंद या अन्य किसी साहित्यकार की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। साधारण हिन्दी और उर्दू दोनों जन सामान्य की भाषांए है। इसका मिला जुला रूप ही जन साधारण की भाषा है। भाषा के नाम पर किए जाने वाले साम्प्रदायिकरण से समझा जा सकता है कि भाषा का विवाद खड़ा किया जाता है उर्दू व हिन्दी का, लेकिन समाप्त की जाती है जन साधारण की भाषा। उदाहरण के पहले सार्वजनिक स्थानों पर 'पीने का पानी', 'ठण्डा पानी' लिखा होता था अब उनकी जगह लिखा है 'पेयजल', 'शीतल जल'। लोग हमेशा पानी मांगते हैं लेकिन लिखा जाता है संस्कृतनिष्ठ 'जल'। बस में लिखा होता था 'बीड़ी सिग्रेट पीना मना है' अब लिखा है 'धुम्रपान निषेध/ वर्जित है', 'अन्दर आना मना है' की जगह 'प्रवेश निषेध', 'दाखिला' की जगह 'प्रवेश' आदि सैकड़ों प्रयोग हैं जिन पर अनजाने ही साम्प्रदायिक मुहिम का प्रभाव पड़ा है। भाषा के इस प्रयोग से साफ समझा जा सकता है कि वर्ग-विभक्त समाज में संस्कृति का रूप भी वर्ग विभक्त होता है। यद्यपि वह इतनी साफ तौर पर अलग-अलग दिखाई नहीं देती। आम बोल चाल की हिन्दी या उर्दू मिश्रित हिन्दी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग संस्कृति के वर्गीय रूप की ओर संकेत करता है। खेती करने वाले किसान-मजदूर की तथा बिना मेहनत किए ऐश करने वाले जमींदार व सेठ की रूचियों में निश्चित रूप से भिन्नता होती है।साम्प्रदायिकता हमेंशा शासकों की संस्कृति यानि शोषण की संस्कृति की हिमायती होती है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा और इसको माननेवाले गैर-बराबरी को उचित ठहराते हैं। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' लेख में इस पर गहराई से विचार किया है कि ''अब संसार में केवल एक संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते है। ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई-संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।" मुसलमानों व हिन्दुओं के पूजा-विधान में, ईश्वर के प्रति धारणाओं में भी समानता है, भाषा, रहन-सहन, खान-पान व संगीत और चित्र-कला आदि हिन्दू-मुसलमानों में समानता है। रहन-सहन, खान-पान से धर्म का संबंध होता है, उसी के अनुरूप उसका स्वरूप बनता है न कि धर्म के कारण रहन-सहन व खान-पान का। मनुष्य जिस क्षेत्र की जैसी परिस्थितियों में रहा है। उसी के अनुसार उसकी संस्कृति व उसके घटक धर्म का रूप बना है। इसलिए पूरी दुनिया में धर्म का एक सा रूप नहीं है। स्थान के अनुसार उसका रूप बदल जाता है। जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं तो धर्म का व यहाँ तक कि ईश्वर का रूप भी बदलता है और उसके रिवाज और पूजा विधान तो लगातार बदले ही हैं। एक संस्कृति जैसी या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पुजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग, इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा ही बन गई।संस्कृति जड़ वस्तु नहीं होती और न यह स्थिर रहती है, बल्कि यह हमेशा परिवर्तनशील है।जब संस्कृतियां मिलती हैं तो समाज विकास करता है और संस्कृति समृद्ध होती है। दो संस्कृतियों के मिलन से नए बदलाव होते हैं, जिससे किसी देश या समुदाय की संस्कृति में कुछ नया जुड जाता है और कुछ पुराना पीछे छूट जाता है। भारत की संस्कृति विविधतापूर्ण संस्कृति है। इसमें विभिन्न धर्मों, जातियों , सम्प्रदायों , विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोग रहते हैं। भारत में 4635 विभिन्न समुदाय हैं, जिनकी अपनी-अपनी आनुवंशिक विशेषताएं, भाषाएं, पहनावे, आराधना की विधियाँ, खानपान और रिश्तेदारी और शादी-ब्याह की रीतियां हैं। भारत के लोगों की उत्पति प्रोटो-आस्टेलाइड, पैलियो-मेडिटरेनियन, काकेशसाइड, नीगोइड और मंगोलीय नस्लों के मिलन से हुई है। भारत में करीब 325 भाषाएं और 25 लिपियां प्रचलन में हैं। ये विभिन्न भाषाई परिवारों हिंद आर्य, तिब्बती बर्मी, हिंद यूरोपीय, द्रविड़, आस्त्रो एशियाई, अंडमानी और हिंद-ईरानी से उपजी हैं।यहां कई संस्कृतियों के लोग आकर बसे और एक दूसरे का परस्पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण यहां की संस्कृति बहुत ही खूबसूरत बन गई है। यहां बाहर के कई क्षेत्रों से कई जातियों के लोग जैसे हुण,शक कुषाण, अफगान, पठान, मंगोल, तुर्क आदि आए। ये सभी धर्म से मुसलमान थे, परन्तु इनकी संस्कृति अलग अलग थी। ये हिन्दुस्तान में आए और संस्कृतियों का मिश्रण हुआ और इन्होंने एक दूसरे को प्रभावित किया। यहां के लोगों ने इनसे काफी कुछ सीखा और वहां से आए लोगों ने यहां के लोगों से काफी कुछ सीखा। दोनों ने एक दूसरे को गहरे से प्रभावित किया। इस प्रभाव से एक नई किस्म की संस्कृति का निर्माण हुआ। एक ऐसी संस्कृति का जन्म हुआ जिसमें दोनों धर्मों की संकीर्णताओं को छोड़कर, दोनों धर्मों में व्याप्त मानवता और उदारता के बिन्दुओं को लिया। इसमें बहुत संतों - सूफियों का योगदान है। जब से मुसलमान यहां आए तभी से इस बात के उदाहरण मिलते हैं। बाबा फरीद, निजामुद्दीन औलिया, जो कभी सत्ता के दरबार में नहीं गए और माना कि पूजा की उतनी ही विधियां हैं जितने कि रेत के कण। अमीर खुसरो जिसने हिंदी को अपनी भाषा माना और हिन्दुस्तान की तुलना स्वर्ग के बगीचे से की। कबीर दास ने दोनों धर्मों की कट्टरता और बाहरी दिखावे को बेकार की चीज मानते हुए आचरण की पवित्रता पर जोर दिया और अल्लाह और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं माना। गुरूनानक ने सभी धर्मों के पवित्र माने जाने वाले तीर्थों की यात्राएं की और व्याप्त आडम्बरों का विरोध करते हुए मानव एकता संदेश दिया और लंगर-संगत की ऐसी परम्पराएं शुरू की जिससे वास्तव में मानव में एकता स्थापित हो सके। बुल्लेशाह, जायसी ने यहां की लोक कथाओं को आधार बनाकर काव्य रचना की और यहां की लोक रीतियों को गहराई से समझा। रसखान को किसी भी कृष्ण भक्त कवि से कम नहीं माना जा सकता, श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति बेजोड है। दादू दयाल ने हिन्दू मुस्लिम एकता के बिन्दुओं की पहचान करवाई। रहीम की कृष्ण भक्ति और तुलसीदास से दोस्ती तो सभी जानते हैं इस तरह एक लम्बी परम्परा है जो हिन्दू मुस्लिम एकता की कड़ियां हैं। जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों में समन्वय स्थापित करने के लिए कार्य किया। असल में मध्यकाल में हिन्दू मुस्लिम का सवाल नहीं था, यदि ऐसा होता तो हिन्दुओं और मुसलमानों में इतनी एकता नजर नहीं आती। इस संस्कृति के निर्माण में सूफी संतों के अलावा कुछ शासकों का योगदान है, जिन्होंने अपनी राजसत्ता चलाने के लिए ऐसी नीतियां अपनाई, जिससे कि किसी धर्म के मानने वालों की भावनाओं को ठेस न लगे। दोनों धर्मों के विश्वासों का आदर किया। बाबर ने अपने बेटे हुमायुं का सभी धर्मों का आदर करने की नसीहत दी। हुमायूँ को शेरशाह सूरी से एक हिन्दू ने ही बचाया था, हुमायुं को मेवाड की रानी ने राखी भेजी थी। अकबर तो पैदा ही हिन्दू घराने में हुआ था और वह सभी धर्मों की शिक्षाओं को सुनता था। धर्मों की कट्टरता से तंग आकर उसने एक नया धर्म ही चला दिया था। उसने ऐसे अनेक काम किए जिससे यह कहा जा सकता है कि वह सभी धर्मों का आदर करता था। औरगंजेब जिसे सबसे अधिक कट्टर माना जाता है उसने इलाहाबाद नगर पालिका में पड़ने वाले सोमेश्वर नाथ मंदिर को, उज्जैन में महाकेश्वर मंदिर को,चित्रकूट में बाला जी मंदिर, गुहावटी में उमानन्द मंदिर, शत्रुंजय में जैन मंदिर और उतरी भारत में फैले गुरूद्वारों को दान दिया और अपने शासन में हिन्दू या मुसलमान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया और धार्मिक कारणों से पूजा स्थल नहीं गिराये। शिवाजी और गुरू गोबिन्द सिंह को मुसलमानों के दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, जबकि इसमें जरा भी सच्चाई नहीं है, इनके मुसलमानों से बहुत अच्छे ताल्लुक थे। शिवाजी की सेना में तो मुसलमान बहुत अधिक और बहुत ऊँचे पदों पर थे और गुरू गोबिन्द सिंह के जीवन में कई ऐसी घटनाएं हैं जहां मुसलमानों ने उनकी मदद की। टीपु सुल्तान और बहादुर शाह जफर, महारनी लक्ष्मी बाई के जीवन से जुड़ी घटनाओं से हिन्दू मुस्लिम की एकता, आपसी विश्वास और धार्मिक सद्भाव को आसानी से समझा जा सकता है।बहुत सी परम्पराएं व त्यौहार ऐसे हैं , जो हिन्दुओं के हैं और मुसलमान उनमें बढ चढकर भाग लेते हैं और बहुत सी परम्पराएं ऐसी हैं जो मुसलमानों की हैं और हिन्दू बढ चढकर भाग लेते हैं और बहुत सी परम्पराएं ऐसी भी हैं जो दोनों की साझी हैं। बहुत से रिवाजों और परम्पराओं में इस तरह से घुल मिल गई हैं कि यह बताना मुश्किल है कि कौन सी परम्परा हिन्दू है और कौन सी परम्परा मुस्लिम। यह परम्पराएं भारत की सांझी संस्कृति की ओर इशारा करती हैं। दिल्ली का ‘‘फूल वालों की सैर’’ और अवध का ‘‘कैसर बाग का मेला’’ इस बात का उदाहरण है। अहमदशाह वली के उर्स पर होने वाली परम्पराएं इस बात का जीता जागता नमूना है। इस तरह के उदाहरण पूरे देश में बिखरे पडे हैं। खान-पान,व रहन-सहन की अन्य परम्पराओं पर हिन्दुओं ने मुसलमानों से सीखा और मुसलमानों ने हिन्दुओं से सीखा। हिन्दुओं ने मुसलमानों से एक- से-एक व्यंजन बनाने सीखे और मुसलमानों ने हिन्दुओं से। संगीत में , चित्रकला में, स्थापत्य में, ज्योतिष, और साहित्य में और जीवन के अन्य क्षेत्रों में दोनों का एक दूसरे पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।साझी संस्कृति का नमूना इस रूप में देखा जा सकता है कि मुस्लिम धर्म में कुछ परम्पराएं ऐसी शुरू हुई, जो केवल हिन्दुस्तान में ही हैं जैसे ताजिये निकालने की परम्परा भारत के अलावा ओर कहीं नहीं है, यह यहां का ही प्रभाव है। जैसे ‘बिस्मिल्लाह’ और ‘अकीका’ जैसे संस्कार यहां का प्रभाव हैं। यहां के लोगों ने मुसलमानों से बहुत कुछ सीखा। सिक्ख धर्म को देखा जा सकता है। सिक्ख धर्म में गुरूद्वारों के ढांचे में मीनारों और गुम्बदों का प्रयोग ईरानी वास्तुकला का प्रभाव है। सिर्फ ढांचे में ही नहीं बल्कि दार्शनिक स्तर पर एकेश्वरवाद का अपनाया जाना और सिर पर कपड़ा रखकर पूजा करने की पद्धति भी मुसलमानी प्रभाव है। इस तरह एक-दूसरे को बहुत अधिक प्रभावित किया है। इससे एक नई संस्कृति ने जन्म लिया। जिसमें सभी के रीति रिवाज शामिल थे, आज तक यह सीखने सिखाने की परम्परा जारी है और इसी से किसी देश का विकास होता है। जब पवित्र या शुद्ध संस्कृति जैसी चीज ही नहीं है ''फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए सांप्रदायिकता इतना जोर बांध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड और इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं, जो साम्प्रदायिकता की शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर, सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनंत तक ऐसी शक्ति की जरूरत समझते हैं, जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती है।"(मुंशी प्रेमचंद)संस्कृति लगातार निर्मित होती है। सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन से संस्कृति में परिवर्तन होता है। जबसंस्कृति परिवर्तनशील है तो कौन सी संस्कृति की रक्षा करनी है।