धर्म बनाम साम्प्रदायिकता

धर्म बनाम साम्प्रदायिकता
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

आधुनिक भारत पर साम्प्रदायिकता की काली छाया लगातार मंडराती रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता के साथ धर्म जुड़ा रहता है, जिस कारण साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान चाहने वाले लोग कई बार इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि साम्प्रदायिकता की जड़ धर्म में है। साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। इसलिए धर्म और साम्प्रदायिकता के अन्त:संबंधों को समझना निहायत जरूरी है।
धर्म का क्षेत्र और साम्प्रदायिकता का क्षेत्र बिल्कुल भिन्न है। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंध होता है, धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं।
किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नही होती। साम्प्रदायिकता स्वत: स्फूर्त परिघटना नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक शक्तियां वातावरण का निर्माण करती हैं, एक-दूसरे समुदाय के बारे भ्रम फैलाते हैं और एक-दूसरे के विरूद्ध नफरत फैलाते हैं। भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों के होना साम्प्रदायिकता नहीं है। लोगों के, समुदायों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनमें कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार) टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धूंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं। चूंकि धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है, लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता, लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा, कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से, धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते है, जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू हिंसा करके धर्म की उदारता और सहिष्णुता को समाप्त करते हैं तो साम्प्रदायिक मुस्लिम इस्लाम यानि शान्ति के संदेश का अपमान करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है। कट्टर व साम्प्रदायिक लोगों की दोस्ती उसी तरह होती है जिस तरह कहावत है कि 'चोर-चोर मौसेरे भाई' इसलिए वे उदार लोगों के लिए अपमानजनक मुहावरे और वाक्य प्रयोग करते हैं जैसे - कायर, गद्दार, नपुसंक, धर्म-द्रोही आदि। सच्चा धार्मिक या सच्चे अर्थों में धर्म को मानने वाला कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर/खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर/खुदा की सत्ता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा औरसमान समझेगा इसके विपरीत जिसकी धर्म में और धार्मिक विश्वासों में आस्था के विपरीत स्वार्थों में घिरा है तो वह सबको समान नहीं समझेगा और वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा, सबको समान नहीं समझेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक तरफ महात्मा गांधी जो स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धारण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे, 'रघुपति राघव राजा राम' की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं mein विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। लेकिन महात्मा गांधी साम्प्रदायिक नहीं थे, सभी धर्मों और उनके मानने वालों का आदर करते थे। उन्होंनें धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। इस आदर्श के लिए उन्होंने अपनी जान भी दे दी। धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। दूसरी तरफ इसके विपरीत वीर सावरकर थे जिनकी हिन्दू धर्म में, इसके रीति-रिवाजों, विश्वासों-मान्यताओं में आस्था नहीं थी बल्कि उनका ईश्वर में भी विश्वास नहीं था, लेकिन उनको धर्म के आधार पर 'हिन्दु-राष्ट्र' चाहिए था। धर्म के आधार पर 'हिन्दु महासभा' का गठन किया उनको धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र स्वीकार नहीं था जबकि धर्म से उनका कोई सरोकार नहीं था। इसी तरह मुसलमानों में देखा जा सकता है। एक तरफ मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखते थे, कुरान पर चार-भागों में टीका लिखी, जो पांचों समय नमाज पढ़ते थे और नियमित रूप से मस्जिद जाते थे लेकिन वे धर्म को निजी मामला समझते थे। धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विश्वास करते थे। धर्म के आधार पर 'पाकिस्तान' की मांग करने वालों का मुखर विरोध किया।
अबुल कलाम मौलाना आजाद ने कहा कि ''मैं मुसलमान हूँ, और गर्व के साथ अनुभव करता हूँ कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपति हैं। मैं तैयार नहीं हूँ कि इसका कोई छोटे-से-छोटे हिस्से को भी होने दूँ। इस्लाम की तालीम, इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पूंजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हू और मैं बरदास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की 'रिएलिटीज़' यानि हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूँ कि मैं हिंदुस्तानी हूँ मैं हिंदुस्तान की अविभिन्न संयुक्त-राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हूँ। मैं इस संयुक्त-राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हूँ । उसका एक ऐसा टुकड़ा हूँ, जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूँ। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।"
दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था। जिनका इस्लाम में, इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। मसलन शराब और सुअर का मांस इस्लाम में हराम माने गए हैं जबकि जिन्ना का नाश्ता सुअर के मांस और रात का भोजन शराब (स्कॉच) के बिना नही होता था। आचार-विचार से, वेश-भूषा से, विश्वास-व्यवहार से कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे, लेकिन धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की और फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी व अबुल कलाम मौलाना आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना व सावरकर का धर्म से व धार्मिकता से कोई वास्ता नहीं था। जिन्ना की मुस्लिम लीग और अबुल कलाम मौलाना आजाद में हमेशा छतीस का आंकड़ा रहा और महात्मा गांधी तो वीर सावरकर के राजनीतिक शिष्य की ही गोली का शिकार हुए। इसके विपरीत जिन्ना और सावरकर में गहरी समानताएं हैं जैसे दोस्तों में होती हैं। दोनों की विचारधारा, धर्म के मामले में एक जैसी थी, दोनों धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। दोनों 'द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के समर्थक थे।
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म का प्रयोग करके ही साम्प्रदायिक शक्तियां फलती-फूलती हैं। धर्म के प्रतीकों का, धर्म के विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। स्वतंत्रता पूर्व समय में सन 1938 तक मुस्लिम लीग का आधार नहीं बढ़ा। जमींदारों और कुछ उच्च-मध्यवर्ग तक ही साम्प्रदायिक चेतना का प्रसार-प्रभाव था, लेकिन जब सन 1938 के बाद जिन्ना ने धार्मिक प्रतीकों का सहारा लिया, मुल्ला-मौलवियों का तथा धार्मिक स्थलों का सहारा लिया तो उसका आधार बढ़ा और अपने आक्रामक प्रचार से लोगों की चेतना में यह बात डाल दी कि पाकिस्तान या मुसलमानों के लिए अलग देश बने बिना न तो इस्लाम सुरक्षित है और न ही इस्लाम को मानने वाले।
इसी तरह आजादी के कुछ समय तक साम्प्रदायिकता हाशिये पर ही रही। जनसंघ को 'बनियों' की पार्टी के तौर पर ही जाना गया और इसकी ताकत कम ही रही लेकिन ज्यों ही धार्मिक भावनाओं से जुड़े मुद्दे उठाए, धार्मिक प्रतीकों को उठाया तो इसका आकार तेजी से बढ़ता गया और एक राजनीतिक ताकत बनकर उभरी। गौ-रक्षा के बाद, राम-जन्म भूमि के विवाद को उठाया, अखाड़ों के महंतों, मंदिरों के पुजारियों, पौराणिक कथावाचकों का, धार्मिक स्थलों का सहारा लिया और इनको अपने प्रचार में जोड़ लिया तो एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में संकीर्णता, अंध्विश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं लेकिन ध्यान देने योग्य बात है कि साम्प्रदायिक लोग स्वयं धार्मिक रूढिय़ों को नहीं मानते, ठीक उसी तरह जिस तरह वे धर्म से जुड़े मानवीय मूल्यों और शिक्षाओं को नहीं मानते। साम्प्रदायिक शक्तियां अत्याधुनिक तरीकों व तकनीक का प्रयोग करती हैं। धार्मिक ग्रन्थों व शास्त्रों की दुहाई भी देते हैं और अपने उपदेशों, सभाओं, भाषणों में उनके पालन का आग्रह भी करते हैं। मसलन साम्प्रदायिक हिन्दू मनु द्वारा दी गई वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानता है। आश्रम-व्यवस्था के अनुसार न तो कोई सन्यास लेता है और न ही ब्रह्मचारी रहता है। इसी तरह साम्प्रदायिक मुसलमान का व्यवहार शरीअत के अनुसार नहीं होता। हां शास्त्रों की-ग्रन्थों की, रूढिय़ों-पुरातन विश्वासों को आम लोगों पर बदले की कार्रवाई की तरह प्रयोग किया जाता है। सभी धर्म की सेवा करने वाले उग्रपंथी चाहे सिक्ख हों, हिन्दू या मुसलमान सबसे पहले स्त्रियों की आजादी छीनते हैं, उनकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को समाप्त करते हैं, उन पर आचार-संहिता थोंपते हैं। साम्प्रदायिकता शक्तियां स्वयं चाहें रूढि़वादी न हों लेकिन समाज को रूढिय़ों से जकडऩे की कोशिश करते हैं। इसका एक काफी दिलचस्प उदाहरण है 'शिव सेना' (राजनीतिक पार्टी) स्वयं को हिन्दुओं के हितों की रक्षक घोषित करती है लेकिन इसकी कलई तभी खुल जाती जब कोई भी मुद्दा आता है जैसे कि रेलवे में भर्ती के लिए उन्होंने कहा कि यह सिर्फ महाराष्ट्र के लिए है और दूसरे प्रान्त के लोगों को शिव सेना के गुण्डों ने पीट-पीट कर भगा दिया यदि 'शिव सेना' से पूछा जाए कि क्या महाराष्ट्र के बाहर के हिन्दुओं के प्रति उनका व्यवहार धार्मिक है। इसी तरह 'शिव सेना' 'वेलेन्टाइन डे' पर लड़के-लड़कियों के जोड़ों के मुंह पर कालिख पोत देती है, स्त्रियों के लिए 'ड्रेस कोड़' का आहवान करती है, लेकिन दूसरी तरफ माइकल जैक्शन को बुलाकर 'सांस्कृतिक' कार्यक्रम भी करवाती है। साम्प्रदायिक शक्तियों की जीत असल में इसी में होती है कि लोग वैसा ही मानते जाएं जैसा वे कहते जाएं। आजादी, उन्मुक्तता व बराबरी का रिश्ता-रिवाज उनकी सारी विचारधारा को खतरा नजर आता है।
आधुनिक भारत के चिन्तक व समाज सुधारक राजाराम मोहन राय ने धर्म के नाम पर किए जाने वाले कुकृत्यों को उचित ठहराने के बारे में सही ही कहा है कि ''इन धार्मिक नेताओं ने अधिकतर लोगों को अपने आकर्षण में इस तरह जकड़ लिया है कि ये असहाय लोग वस्तुत: बाध्यता और दासता के बंधन में हैं यह अपनी दृष्टि और अपना हृदय पूर्णरूपेण खो चुके हैं। इसीलिए इन नेताओं के आदेश का पालन करते समय वे अपने वास्तविक मंगल और पाप में भेद करना तक अपराध समझते हैं। यद्यपि मनुष्य होने के नाते वे मूलत: एक ही वृक्ष की भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं तथापि केवल अपने मतवाद को स्थापित करने के लिए और साम्प्रदायिक भावना से प्रेरित होकर वे एक-दूसरे की हत्या करना अथवा अत्याचार करना एक विशेष पुण्य का कार्य मानते हैं। मिथ्याचार, चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि निकृष्टतम दुष्कार्य जो कि आत्मा के लिए अमंगलकारी एवं साधारण मानव के लिए भी अहितकारी हैं, ऐसे पापकर्मों से वे केवल इसलिए नहीं हिचकते कि उन्हें विश्वास है कि उनके धार्मिक नेता उन्हें पाप से मुक्ति दिला देंगे मनुष्य अपना अमूल्य समय ऐसी पुराण कथाओं के पाठ में व्यतीत करता है, जिन पर विश्वास करना असंभव लगता है। परंतु इन्हीं कथाओं से प्राचीन और नए धार्मिक नेताओं पर उनका विश्वास मानो और अधिक दृढ़ होता है।"
साम्प्रदायिकता न तो धार्मिक कारणों से पैदा होती है और न वह धार्मिक समस्याओं को उठाती है इसलिए साम्प्रदायिकता का समाधान धार्मिक आधार पर नहीं हो सकता। हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम साम्प्रदायिकता की लड़ाई हिन्दू-धर्म और इस्लाम-धर्म की लड़ाई नहीं है बल्कि यह कुछ वर्गों के राजनीतिक हितों की टकराहट है, इसलिए इसका समाधन भी राजनीतिक पहलकदमी में है। धर्म की आड़ में छुपी राजनीति और राजनीतिक हितों की कलई खोलकर ही इससे मुकाबला किया जा सकता है। स्वतन्त्रता से पहले मुस्लिम लीग साम्प्रदायिकता की राजनीति करती थी लेकिन उसकी एक भी मांग धार्मिक नहीं थी। मुस्लिम लीग के 14 सूत्री मांग-पत्र का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं था। सारी मांगें राजनीतिक थी। इसी तरह स्वतन्त्रता के बाद आर.एस.एस. साम्प्रदायिकता का चैंपियन है। सारी राजनीति धर्म की आड़ लेकर की जाती है अपने संगठन का राजनीतिक चरित्र भी छिपाया जाता है। लोगों में स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए सांस्कृतिक संगठन की छवि बनाई जाती है जबकि होती है शुद्ध सता हथियाने की राजनीति। कोई संगठन अपने को सांस्कृतिक संगठन कैसे कह सकता है यदि उसका पहला मकसद ही राजनीतिक हों यानि हिन्दू राष्ट्र बनाना। यदि किसी राष्ट्र का चरित्र निर्धारण करने के काम को भी अराजनीतिक श्रेणी में रखा जाएगा तो राजनीतिक कार्य किसको कहा जाएगा। 'विश्व हिन्दू परिषद' ने कभी भी मन्दिरों में सुधारों के लिए कोई अभियान नहीं चलाया इसके नेता विष्णुहरि डालमिया, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडिय़ा न तो संत हैं और न ही उनकी कोई धार्मिक आस्था है बल्कि वे राजनीतिक व्यक्ति हैं जो विशेष वर्गों के राजनीतिक हितों को साध रहे हैं
शहीदे भगतसिंह ने 'धर्म और हमारा स्वतन्त्रता-संग्राम लेख में धर्म और साम्प्रदायिकता पर विचार प्रकट करते हुए दोनों में स्पष्ट अन्तर किया है उन्होंने लिखा कि ''रूसी महात्मा टालस्टॉय ने अपनी पुस्तक में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं-
1 इसेन्स ऑफ़ दी रिलिजन - यानी धर्म की जरूरी बातें - अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना वगैरह।
२ फिलोसोफी ऑफ़ दी रिलिजन - यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।
३ रिचुअल ऑफ़ दी रिलिजन - यानी रस्मो-रिवाज वगैरह।
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए यदि पहली और दूसरी बात में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, धर्म मुबारक है।"
इस तरह कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता की उत्पति का कारण धर्म नहीं है और न ही अनेक धर्मों के लोगों का साथ रहना बल्कि इसका कारण वर्ग विशेष के निहित स्वार्थ है यदि धर्म और धार्मिक आस्थाएं इसका कारण होती तो साम्प्रदायिकता की उत्पति आधुनिक युग में न होती बल्कि इसकी उत्पति काफी पहले हो गई होती क्योंकि आधुनिक युग के मुकाबले पहले लोगों की धार्मिक आस्थाएं अधिक पुख्ता थी, जबकि आधुनिक काल में धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिह्न लगा है। दिलचस्प बात यह है कि साम्प्रदायिकता की शुरूआत भी आधुनिक काल में हुई और इसको आगे बढ़ाने वाले मंदिरों-मस्जिदों-गुरूद्वारों-गिरिजाघरों में बैठे पुजारी-महंत नहीं थे, बल्कि राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग थे। स्वतंत्रता पूर्व के काल में राजनीतिक लोगों ने साम्प्रदायिकता को धर्म की आड़ लेकर आगे बढ़ाया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विशेषकर सन 1980 के बाद राजनीतिक लोगों ने धार्मिक आड़म्बर का चोला धरण करके राजनीतिक लाभ उठाया। इस तरह स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक विचारधारा है जो सत्ताधरी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए काम करती है, लेकिन यह धर्म का आवरण ओढ़कर या धर्म की आड़ लेकर ऐसा करती है और लोगों की धार्मिक भावनाओं से इसमें ईंधन का काम लिया जाता है।