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रागिनी की चाल और नई चाल की रागनी

 रागिनी की चाल और नई चाल की रागिनी
डा. सुभाष चन्द्र,  प्रोफेसर,हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

हरियाणा में रागिनी का विकास सांगों के माध्यम से हुआ। लोक में अपने दुख-दर्दों, सुख-सपनों को अभिव्यक्ति का माध्यम कथा रही है। सांगों-किस्सों की सफलता का पूरा दारोमदार संगीत पर टिकने से लोक संगीत के विविध रूप निखर कर आए। हरियाणा में रागिनी लोक नाट्य की रीढ बन गई। हरियाणा की रागिनी का विकास भी कथा-आख्यान से हुआ और धीरे-धीरे यह स्वतंत्र तौर पर विकसित हुई। जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को केन्द्रित करके स्वतंत्र रागिनी प्रकाश में आने लगी। रागिनी से कथा का जुआ हटते ही इसकी चाल बदल गई। पौराणिकता के खोल से बाहर आकर धड़कते वास्तविक जीवन से जुड़ी।
हरियाणा में जब स्कूल जैसी आधुनिक संस्थाएं बन रही थीं तथा चौपाल व जोहड़ जैसी सामूहिक जरुरत के ढांचे के निर्माण की सामुदायिक पहलकदमी के लिए सांगों का सहारा लिया, जिससे हरियाणा के गांव-गांव तक रागिनी विस्तार हुआ। जो रागिनी रात को कलाकार के मुख से लोग सुनते थे, उसे अगले दिन पूरे इलाके के लोगों के मुख से सुना जा सकता था। रेडियो के विस्तार ने भी रागिनी को लोगों तक पहुंचाने का काम किया।
हरियाणा में ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जकड़ काफी गहरी रही है। ब्राह्मणवादी विचारधारा में कला को विशेषतौर पर गाने-बजाने-नाचने की कलाओं को निम्न दृष्टि से ही देखा गया। इसका नतीजा यह हुआ कि कला को प्रभावशाली लोगों और वर्गों का संरक्षण नहीं मिला। दूसरा इसका यह नतीजा हुआ कि कला के निखार व विस्तार का जिम्मा उनके सिर आन पड़ा, जिनको परम्परागत तौर पर साधनों से वंचित किया गया था। इन कलाकारों को ब्राह्मणवाद का दोहरा दंश झेलना पड़ता था, एक ओर तो आम जीवन में उपेक्षा और अभावों का, दूसरी ओर कलाकार के रूप में पहचान का। जो कलाकार अपने आम जीवन में उपेक्षित थे, मंच पर वे नायक होते थे। मंच इन कलाकारों को मानवीय गरिमा की नई पहचान दे रहा था और यह इनकी कला को दिन दिन सवाया करती जाती थी। कथित उचित जातियों से आए कलाकारों को भी अपने परिवारों से संघर्ष करना पड़ा। लख्मीचंद और मेहर सिंह जैसे अनुपम कलाकार अपने घरों से बगावत करके ही कला का क्षेत्र में उतर पाए।
रागनियों, किस्सों, सांगों आदि में पितृसत्ता और वर्णव्यवस्था जिस तरह आदर्श व्यवस्था के तौर पर महिमामंडित हुई है, उससे यही सिद्ध होता है कि हरियाणवी समाज की सामूहिक बुद्धिमत्ता एवं मनोचेतना कमोबेश ब्राह्मणवादी सोच से नियंत्रित-परिचालित है। ब्राह्मणवाद ने वर्ण-व्यवस्था और पितृसत्तात्मकता के द्वारा क्रमशः दलितों और स्त्रियों को मानवीय पहचान और गरिमा से वंचित किया है। सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच, अस्पृश्यता को धर्म के संबद्ध करके इसे धार्मिक-मर्यादा व नैतिक-चेतना के साथ जोड़ दिया है। यह लोक चेतना में इतने गहरे में उतर गई है कि इसमें व्याप्त क्रूर-बर्बर अत्याचार, उत्पीड़न, भेदभाव, शोषण दिखाई नहीं देता, बल्कि इसकी रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का और शासक का विशेष कर्तव्य माना गया। हरिश्चन्द्र सर्वाधिक चर्चित और प्रसिद्ध किस्सा रहा है, जिसको लगभग हरेक लोक रचनाकार-गायक ने लिखा-गाया है। इसकी वजह शायद यह रही होगी कि यह ब्राह्मणवाद के मूल आधार दान-महिमा, स्वामी-भक्ति और वर्ण-व्यवस्था के आदर्श को अपने में समेटे हुए है। मुख्यतः ये किस्से यथास्थितिवाद के चितेरे-समर्थक रहे हैं। जात-पात या सामाजिक-विभाजन यहां समस्या के तौर पर प्रस्तुत नहीं होते, बल्कि जात-पात का टूटना यहां समस्या के तौर पर प्रस्तुत हुआ है।
हरियाणवी किस्सों-सांगों की रागनियों में स्त्री केन्द्र में है। स्त्री-हठ, धर्म से डिगाने वाली, पुरुष को ठगने वाली, स्त्री की कामुकता, मूर्खता, घर को तोड़ने वाली, सिर फुट्टौवल करवाने वाली, डायन-शैतान आदि के अनेक रूपों में स्त्री किस्सों-सांगों की रागनियों में मौजूद हैं। पूरी-पूरी रागनियां हैं, जिसमें पौराणिक कथाओं से उदाहरण दे देकर एक लम्बी सूची तैयार की गई है, जिसमें स्त्री ने पुरुष को बरबाद किया है। स्त्री एक समस्या-स्रोत के रूप में प्रस्तुत हुई है, जो अनेक समस्याओं को जन्म देती है। स्त्री को माया, काली नागिन, विघ्न की जड़, सांडनी, खागड़ी आदि संबोधनों से पुकारा गया है। स्त्री के दुख-तकलीफों का कारण उन्हें ही ठहराया गया है।
पितृसत्तात्मक-व्यवस्था में स्त्री का दर्जा पुरुष के मुकाबले में निम्न होता है, जीवन के किसी बिन्दू पर उसे पुरुष के समकक्ष नहीं समझा जाता, लेकिन काम-संबंधों में यह पुरुष-प्रधान सांस्कृतिक वर्चस्व टूटता है। स्त्री-पुरुष की बराबर की सक्रिय भागीदारी के साथ ही दैहिक-आनन्द संभव है। दैहिक आनन्द के क्षणों में पितृसत्ता की दीवार भरभराकर ढह जाती है। इन क्षणों में सामंती-पितृसत्तात्मक सामाजिक-संरचना में स्त्री अपने जीवन का सार पाती है।
आश्चर्य की बात यह है कि जिन विषयों पर समाज में सार्वजनिक तौर पर अथवा परिवार में खुले तौर पर चर्चा नहीं होती, नैतिकता के साथ जोड़कर जिनको निजी क्षेत्र का विषय मान लिया गया। वे विषय सांगों-किस्सों में और रागनियों में प्रमुखता से उठाए गए। इनकी भौतिक-नैतिक जटिलताओं और पेचीदगियों को सांगों-किस्सों के माध्यम से ही संबोधन मिलता था जो इनकी लोकप्रियता को भी बढ़ाता था।
बाजे भगत, लख्मीचन्द, मांगेराम, धनपत सिंह, रामकिशन ब्यास के सांगों-किस्सों में श्रृंगारिकता किस्सों-सांगों-रागनियों का केन्द्रीय विषय रही है। नायक-नायिकाओं का प्रेम-प्यार भक्ति-रहस्यवाद के भंवर में भी नहीं खो जाता। दैहिक सुखों के आनन्द-सागर पर रहस्य, अमूर्तिकरण का पर्दा नहीं पड़ा, जो वास्तविक जगत के वास्तविक सुखों को मिथ्या करार देता है और इस भौतिक जगत के समान्तर मिथ्या जगत उत्पन्न करके पाठक-श्रोता-दर्शक को उसमें डुबोये रखता है। काम-आनन्द को भक्ति-रहस्य-आध्यात्मिकता के गुंजलक में नहीं फंसाया गया है।
हरियाणा के सांगों-किस्सों की रागनियों में हीर-राझां, लीलो-चमन, कम्मो-कैलाश, हीरामल-जमाल आदि के माध्यम से सच्चा प्रेम अभिव्यक्त हुआ, जिसमें त्याग और बलिदान की पराकाष्ठा है, और ये लोक में खूब लोकप्रिय रहे हैं। इनके नायक-नायिका जात, गोत और धर्म की सीमाओं को लांघने का खतरा उठाते हैं।
रागिनी को लोक मानस का अभिन्न हिस्सा बनाने में लख्मीचन्द और बाजे भगत की सुर-ताल की गायकी, मांगेराम की रागिनी लेखन-कौशल, धनपत सिंह की ओजपूर्ण आवाज के जादू, रामकिशन ब्यास की संवादात्मकता की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अलीबख्श, दीपचन्द से लेकर रामकिशन ब्यास तक के सांगों-रागनियों के विकास की भी पहचान की जा सकती है, यह उतरोत्तर सामाजिक जीवन के निकट आती गई है। पौराणिक किस्सों और लोक कथाओं की संगीतबद्धता से इसने अपनी यात्रा आरम्भ की थी, लेकिन धीरे-धीरे इनमें मौलिक लेखन की ओर कदम रखा। यह भी सही है कि लोक में इनके स्वनिर्मित किस्से ही सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। लख्मीचन्द की नौटंकी व शाही लकड़हारा, धनपत सिंह का लीलो-चमन, रामकिशन ब्यास का कम्मो-कैलाश की स्मृतियां अभी भी बनी हुई हैं। इनके सांगों-किस्सों में हरियाणा के स्थानीय जीवन के अन्तर्विरोध और संघर्षों के संकेत तो इनके पात्रों-चरित्रों के संघर्ष में दिखाई देते हैं, लेकिन समाज में व्यापक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों से अछूते ही हैं। हरियाणा का जन-जीवन जिन समस्याओं को आज झेल रहा है, उसकी जडें इन सांगों-किस्सों में समाहित विचारधारा में दिखाई देती हैं। कन्या-भ्रूण-हत्या से उपजे लिंग-अनुपात और तद्जनित अन्य गंभीर संकट जिस मानसिक चेतना का परिणाम हैं, वे यहां बहुत ही मुखर रूप से प्रस्तुत हुआ। लख्मीचन्द के सांग हूर-मेनका से समझा जा सकता है कि हरियाणवी अवचेतन में कन्या-वध अथवा उसके सुधरे रूप कन्या-भ्रूण-हत्या को कोई अमानवीय कृत्य नहीं माना जाता, इसीलिए कन्या-भ्रूण-हत्या का जघन्य अपराध करके किसी के चेहरे पर शर्मिन्दगी अथवा ग्लानि के भाव नहीं दिखाई देते।

सांगों-किस्सों में लोक में प्रचलित विचारों और मूल्यों को अपने अभिव्यक्ति दी और इसको समाज में स्थापित करने का काम भी किया। आज हरियाणा का हर गांव बारूद के ढेर पर बैठा है। दलित-जातियों और वर्चस्वी जातियों के बीच जूतम-पैजार और सिर फुट्टौवल की घटनाओं की खबर आ जाती है। दुलीना, गोहाना, हरसौला और मिर्चपुर जैसे अमानवीय काण्ड हो चुके हैं। इस मानसिकता की जड़ें वर्ण-धर्म के महिमामंडन में हैं, जो दलित जातियों को बराबरी के अधिकार नहीं देता और वर्चस्वी जातियों को सामाजिक भेदभाव कोई समस्या ही नजर नहीं आती। असल में लोक के किस्सों-सांगों में आलोचनात्मक विवेक से नहीं, बल्कि समाज में प्रचलित धारणाओं और विश्वासों की अभिव्यक्ति होती है। स्वाभाविक है कि समय की रफ्तार में धारणाएं और विश्वास पीछे छूट जाते हैं। असल में हरियाणा की मनोचेतना की निर्माण में इनकी भूमिका रही है, जिसे समझने के लिए इस साहित्य के विश्लेषण की जरूरत है, न कि इसका उत्सव मनाने की।
चेतना का दायरा इसी से देखा जा सकता है कि लख्मीचन्द और बाजे भगत के समय में भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन अपने यौवन पर था, उसकी सुगबुगाहट हरियाणा में भी थी। हरियाणा के लोग भी स्वतंत्रता-आन्दोलन में भाग ले रहे थे। अंग्रेजी सरकार के लिए भी हरियाणा महत्वपूर्ण क्षेत्र इसलिए था, कि यहां से भारी तादाद में नौजवानों को फौज में भर्ती कर रहे थे। मजे की बात यह है कि रोहतक-सोनीपत के इलाके में ही यह सब कुछ हो रहा था। सांग की दृष्टि से इसी क्षेत्र को ही हरियाणा का एथेंस कहा जाता है, जिसने कई महत्वपूर्ण सांगी पैदा किए। गौर करने की बात है कि इतने विपुल साहित्य में स्वतंत्रता-आन्दोलन की छाया के भी दर्शन नहीं होते। असल में स्वतंत्रता-आन्दोलन केवल राजनीतिक आन्दोलन नहीं था, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में वह स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे के मूल्यों को स्थापित करता था। ये मूल्य जातिगत और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ थे, जो सांगों-किस्सों की मूल विचारधारा है।

सांग-किस्साकारों के समानान्तर एक धारा पनपी, जिसमें अग्रिम चेतना के बिन्दू दिखाई देते हैं। मेहरसिंह, दयाचन्द मायना, कृष्णचन्द, जगन्नाथ समचाणा, हरिकेश पटवारी, मुन्शीराम जांडलीवाला का नाम विशेषतौर पर लिया जा सकता है। इनमें मेहरसिंह, दयाचन्द मायना, कृष्णचन्द फौज में भर्ती हुए थे। मेहरसिंह की रागनियों में फौजी-जीवन के कष्ट, फौजी की पत्नियों की पीड़ा को जो अभिव्यक्ति मिली, वह बेजोड़ है। मेहरसिंह का जीवन-काल बहुत छोटा था, लेकिन उन्होंने रागिनी को ऐतिहासिक मोड़ दिया, इसमें नए विषय सम्मिलित करके इसे वास्तविक जीवन से जोड़ा।
दयाचन्द मायना ने महत्वपूर्ण किस्से भी लिखे और स्वतंत्र रागनियां भी लिखी। दयाचन्द मायना ने वास्तव में अपनी परम्परा को आत्मसात करते हुए हरियाणा के किस्सा और रागिनी लेखन व गायन को शिखर पर पंहुचाया। इनकी रागनियों में बनते हुए नए हरियाणा के दर्शन होते हैं। हरियाणा के जन जीवन में जगह बना रही नई संस्कृति को इनमें देखा जा सकता है। कितनी ही रागनियों में दैनिक जीवन में प्रयोग के सामान की सूची दी गई है, जो बाजार के विस्तार के साथ गांव की दुकानों में आ रहा था और लोगों के जीवन का हिस्सा बन रहा था। सड़कों, बसों और बाजारों से हरियाणा का जीवन रफ्तार पकड़ रहा था और इससे पैदा हुई नई स्थितियों को रागनियों में अभिव्यक्ति हो रही थी। दयाचन्द मायना ने बस और रिक्शा की दुर्घटना तथा बस में यात्रियों के व्यवहार पर बहुत ही विश्वसनीय रागनियां लिखीं। शोषणपरक व्यवस्था में विभिन्न वर्गों की विभिन्न स्थितियां दिखाई देने लगीं। एकरूप लोक की तस्वीर की बजाए विभिन्न वर्गों की पहचान में रचनाकार की सचेत दृष्टि का भी आभास होता है। दयाचन्द मायना की रागनियों में सेठों के प्रति जो आक्रोश दिखाई दिया है, वह परम्परगत वर्णन से अलग है और उसमें शोषित व्यक्ति का आक्रोश सम्मिलित है। यहां रागिनी में गुणात्मक विकास को पहचाना जा सकता है और परम्परागत किस्सों और स्वतंत्र रागिनी के अन्तर को भी पहचाना जा सकता है। गाड़ी का रूपक लेकर उन्होंने समाज में आ रही मूल्यों की गिरावट की ओर संकेत किया है।

       धरया सिर पाप घड़ा, क्यूं तळै खड़ा, ईब नहीं बसावै पार
       या गाड़ी टूट लई मेरे यार ।।  

       जत का जूआ ज्योत टूटगे, सत की सिळम रही कोन्या
       ल्याज, शर्म का डिग्या लाळवा, नाके नाड़ सही कोन्या
       ऊतपणा मैं फिरै ऊंटड़ा, डामांडोल ढही कोन्या
       लग्या आरा मैं, घुण सारा मैं, आमण पूठी बेकार
       या गाड़ी.....

       बल्ली, बर्री सारी खुलगी, आकै पड़ी धरण के मां
       पाप बोझ का डिग्या पाटड़ा, कोन्या रहा परण के मां
       मूंग मोतिया सिर मैं लाग्या, आगी जान मरण के मां
       रंग बिगड़ा, सब ढंग बिगड़ा, सट सिर मैं सेहरा मार
       या गाड़ी.....

       गाड़ी के दो पहिए घिसगे, भार सहण की फड़ टूटी
       धुरा पाप का कती पाट्ग्या, ज्यूं मोती की लड़ टूटी
       ठट्ठा मैं गई टूट ठिकाणी, केळे कैसी धड़ टूटी
       ठीक नहीं, सही लीख नहीं, चलै बारा पत्थर बाहर
       या गाड़ी...

       पुन की पाती नै जर खाग्या, रही करम की कील नहीं
       सब गाड़ी का ईंधन होग्या, इब फूकण की ढील नहीं
       कह दयाचन्द गडवाले की, लागै राम अपील नहीं
       जाणा हो, दुख ठाणा हो, होले पैदल असवार
       या गाड़ी.....

अपने समाज को अभिव्यक्त करते हुए इन रचनाकारों ने अपनी परम्परा पर भी आलोचनात्मक दृष्टि डाली और उसे पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की। पौराणिक महापुरुषों की नई व्याख्याएं करके उनको अपनी रागनियों का विषय बनाया। संस्कृति की पुरुष-प्रधान व्याख्या को चुनौती दी। नल-दमयन्ती, कृष्ण व अन्य देवताओं और लोक-नायकों को नए तरीके से पेश किया। इनकी स्वीकृति असल में समाज की नई सोच का द्योतक है।
रागिनी में वर्तमान समाज के चित्रण के साथ उस पर आलोचनात्मक दृष्टि भी डाली जाने लगी। आजादी मिलने पर पूरे देश में उमंग-जोश का माहौल था, तो पूरे भारत ने और विशेषकर हरियाणा-पंजाब के लोगों ने विभाजन की त्रासदी को झेला। मार-काट और लूटमार के जो अभूतपूर्व अमानवीय दृश्य समाज ने देखे। इन दिल दहला देने वाली घटनाओं को लोक कवियों ने अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हरिकेश पटवारी की रागिनी विशेषतौर पर रेखांकित करने योग्य है।
सन् 47 मैं हिन्द देश का बच्चा बच्चा तंग होग्या।
राज्ओं का जंग बन्द होग्या तो परजा का जंग होग्या।।

जिस दिन मिल्या स्वराज उसी दिन पड़गी फूट हिन्द मैं
जितने थे बदमास पड़े बिजळी ज्यों टूट हिन्द मैं
छुरे बम्ब पस्तौल चले कई होगे शूट हिन्द मैं
पिटे कुटे और लूटे बड़ी माची लूट हिन्द मैं
एक एक नंग साहूकार हुआ एक एक सेठ नंग होग्या

ऊपर बच्चे छाळ छाळ कै नीचे करी कटारी
पूत का मांस खिळा दिया मां नै इसे जुल्म हुए भारी
जलूस काढे नंगी करकै कई कई सौ नारी
एक एक पतिव्रता की इज्जत सौ सौ दफा उतारी
जुल्म सितम की खबरें पढ़ पढ़ हरिकेश दंग होग्या

आजादी के साथ जनता के विकास के सपने और संकल्प जुड़े थे, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व जनता की आंकाक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। नेताओं की जो तस्वीर जनता के दिल में थी, वह ध्वस्त हो चुकी थी। हरियाणा में घोर राजनीतिक अवसरवाद के दर्शन हुए। लोकतांत्रिक प्रणाली की चुनावी प्रक्रिया से राजनीति में जनता की रूचि पैदा हुई। राजनीतिक संस्कृति और नेताओं का व्यवहार आम चर्चा का विषय बनने लगे। तांगा-रिक्शा, बस-अड्डों, सरकारी दफ्तरों से लेकर घर-परिवार और रिश्तेदारी में राजनीति की चर्चा होने लगी। इस चर्चा में राजनीतिक नेताओं के कारनामे, उनके आपसी संबंध आदि तो चर्चा लोक में चर्चा का विषय बने, लेकिन नीतियों के प्रति राजनीतिक-चेतना का अभाव ही रहा। हरियाणा के लालों के बारे में लोगों को ढेरों चुटकले याद होंगे, लेकिन उनकी शासन-नीतियों के बारे में बात करते ही उनके समस्त राजनीतिक ज्ञान को लकवा मार जाता है।
हरियाणा के राजनीतिक नेताओं की अवसरवादिता, जनता की आकांक्षाओं के विरोधाभास रागनियों का हिस्सा बनने लगे। यहीं से रागिनी के स्वरूप ने एक करवट फिर ली। पौराणिक-सामाजिक-धार्मिक विषयों के साथ राजनीतिक विषयों को जोड़ना महत्वपूर्ण काम था। छोटूराम को आधार बनाकर लिखी गई कृष्णचन्द की रागिनी असल में वर्तमान नेताओं पर कटाक्ष है।
जिले रोहतक मैं बसरया सै वो गढ़ी गाम कड़े तैं ल्याऊं।
                   सच्चा रहबर इस जनता का छोटूराम कड़े तैं ल्याऊं।।

                   यें कला बाज हठधर्मी सैं मेळ मिलारे जनता पै
झूठ कपट छळ बेइमानी की बेल फलारे जनता पै
एक सीट के लालच खातर सेल चलारे जनता पै
लूट लूट धन कठ्ठा कर लिया खेल खिलारे जनता पै
करै खात्मा गुंड्यां का इसा छत्री जाम कड़े तैं ल्याऊं।।

कदे वो उसकी कदे वो उसकी यो दुत्तां केसा रोळा सै
कठ्ठे होरे ये लाख कुमसल यो पुत्तां केसा टोळा सै
कोए जात जमात नहीं इनके यो ऊत्तां केसा टोळा सै
लेकै माल घरां मैं बडग़े यो भुत्तां केसा टोळा सै
न्यूं मुंधा पड़ पड़ रोऊं सूं भला उसके काम कड़े तैं ल्याऊं।।

जगन्नाथ समचाणा, हरिकेश पटवारी और मुंशीराम जांडलीवाला ने समाज के विभिन्न वर्गों की स्थितियों को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया। इनमें विषय विशेष पर केन्द्रित रागनियों भी लिखी और समाज को समग्रता से प्रस्तुत करने वाली रागनियों भी लिखीं। इनकी रागनियों में किसान की पीड़ा, छुआछात, अंधविश्वास, धार्मिक-पाखण्ड, नैतिक-गिरावट की स्थितियों के मार्मिक और विश्वसनीय चित्रण प्रस्तुत हुए। लोक का सहज अनुभव सहज शिल्प के साथ यहां मौजूद था, इसलिए ये रागनियां जल्दी ही लोगों की जुबान पर चढ़ गईं।  समाज की सत्ता संरचना में हुए परिवर्तन से विभिन्न वर्गों की सामाजिक हैसियत में परिवर्तन भी रागनियों में देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद अपनाई गई नीतियों और राजनीतिक ढांचे का अयोग्य लोगों ने सर्वाधिक लाभ उठाया, प्रशासनिक ढांचे में पनपे भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार ने घोर निराशा पैदा की। हरिकेश पटवारी की रागनियों में यह दिखाई दिया है।
भूखे मरते भक्त, ऐश करते ठग चोर जवारी क्यूं।
     फिर भगवान तनैं न्यायकारी कहती दुनिया सारी क्यूं।।

  नशे विषे में मस्त दुष्ट सुख की निद्रां सोते देखे
सतवादी सत पुरुष भूख में जिन्दगानी खोते देखे
एम.ए. बी.ए. पढ़े लिखे सिर पर बोझा ढोते देखे
                      महा लंठ अनपढ़ गंवार कुर्सीनशीन होते देखे
हरियाणा के समाज के विकास के साथ साथ रागिनी में भी परिवर्तन हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों और राजनीतिक आन्दोलनों ने हरियाणा के समाज के प्रभावित किया। हरियाणा में तीव्र गति से भौतिक ढांचे में विकास हुआ। स्कूल, सड़कें और बिजली का संजाल बना। हरित क्रांति में नए बीजों, खाद, और कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग तथा सिंचाई के साधनों के विकास से खेती में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। समाज के छोटे हिस्से में ही सही मगर प्रगतिशील चेतना का संचार भी हुआ। इसने सामाजिक बुराइयों, राजनीतिक अवसरवाद, धार्मिक-पाखण्ड के खिलाफ जन जागरण का बीड़ा उठाया। यह वर्ग एक छोटा समूह था और इसके पास सीमित साधन थे, लेकिन इसके पास एक प्रगतिशील सोच थी जो हरियाणा के समाज का तर्कसंगत विश्लेषण करती थी। इस वर्ग ने अपने विचार को जनता तक पहुंचाने के लिए गायक मंडलियां बनाई।
सन् 1990 के बाद समाज में भारी परिवर्तन हुए। बुद्धिजीवी वर्ग साक्षरता-अभियान के माध्यम से जनता के सीधे सम्पर्क में आया और निरक्षरता के बहाने जनता के दुख-दर्दों, पीड़ाओं-तकलीफों, आशाओं-आकाक्षाओं को संबोधन करने की चुनौती इसके समक्ष आन पड़ी। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने दायित्व का निर्वाह करने में इसने लोक कलाओं और लोक-शैलियों के महत्व को समझा और इसी में कितने ही लोक कलाकार जिनके पास अभिव्यक्ति का कोई मंच नहीं था इस अभियान का हिस्सा हो गए। इस समय को हरियाणा की कला के विकास में महत्वपूर्ण समय माना जा सकता है। पूरे हरियाणा में कितने ही कलाकार अपने वाद्य-यन्त्र उठाकर रात को गांव में जन जागरण के काम कर रहे थे और साथ ही उनकी कला में निरन्तर निखार आ रहा था। इस आन्दोलन में समाज के निम्न वर्गों की भागीदारी अधिक थी, इस वर्ग का गाने-बजाने- नाचने की कलाओं से परम्परागत जुड़ाव था। यहीं से नए स्वरूप की रागिनी का गायक, पाठक और लेखक निकल कर आया।
यही दौर है, जब भारत के शासक वर्ग ने उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण की नीतियों को अपनाया। समाज के सभी वर्गों में अपने रोजगार और जीवन-यापन के साधनों को लेकर गहरी आशंकाएं थी, जो बाद में सच भी साबित हुई। खेती पर संकट आया और कर्मचारियों को अपने वेतन-भत्ते और रोजगार सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। इनके खिलाफ विरोध के स्वर फूटने लगे और हरियाणा में एक सशक्त कर्मचारी-आन्दोलन दिखाई देने लगा। कर्मचारियों में गायक और लेखक थे, उन्होंने इस आन्दोलन को रागनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया। अध्यापक समाज पत्रिका का आखिरी पन्ना रागिनी के लिए लगभग आरक्षित ही था, इससे सैंकड़ों रागनियां प्रकाश में आईं। 
समाज के दूसरे वर्गों पर आर्थिक-राजनीतिक नीतियों का नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उन्होंने इसका विरोध किया। महिला-आन्दोलनों, किसान, मजदूरों आन्दोलनों-संघर्षों में रागिनी इनके साथ थी। रागिनी के सुरों ने आन्दोलनों और रोजमर्रा के संघर्षों की आवाज को बुलन्द किया, तो परिवर्तनधर्मी-आन्दोलनों के संसर्ग से जनवादी चेतना ने रागिनी को क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान किया है।
आज की घड़ी में दुनिया में जो परिवर्तन हो रहे हैं, अमेरिका की दादागिरी उसके साम्राज्यवादी लूट, वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण से उपजे संकटों को रागिनी में अभिव्यक्ति मिल रही है। रागिनी के लिए अब पौराणिक प्रसंगों की तलाश नहीं है, बल्कि अपने आसपास का समाज, अपने आसपास के वास्तविक चरित्र रागिनी के बीच में आ बैठे हैं। जनवादी रागिनी के मूल में वर्तमान जीवन की विश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति और वैकल्पिक आदर्शों को लोक चेतना का हिस्सा बनाने का संकल्प ही है। रणबीर सिंह ने अपनी रागनियों में इसे जाहिर किया है।
किसे और की कहाणी कोन्या इसमैं राजा रानी कोन्या
  सै अपनी बात बिराणी कोन्या, थोड़ा दिल नै थाम लियो।।


नल दमयन्ती की गावै तूं कद अपनी रानी की गावैगा
 नल छोड़ गया दमयन्ती नै तूं कितना साथ निभावैगा।।

हरित क्रांति ने हरियाणा में खेती के स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन किए हैं। खेती में परिवर्तन के फलस्वरूप गांव के स्वरूप में, सामाजिक संबंधों में परिवर्तन हुआ है। विकास की दिशा और साधनों ने गांव की सत्ता-संरचना को भी प्रभावित किया है।
गांव में अब अतीत के वो संबंध नहीं रहे, जो कि स्मृति में हैं। यहां अब दलितों और सवर्णों में भेद है, झगड़े हैं। उस तरह की पंचायती व्यवस्था नहीं है, जिसका कि बखान किया जाता है। गांव कोई एक रूप इकाई नहीं है, विभिन्न स्वार्थों वाली शक्तियां हैं और उनमें टकराहटें हैं, राजनीतिक दाव पेंच हैं, षड़यन्त्र हैं। सुख-सुविधाओं वाला वर्ग है और विपन्न वर्ग हैं। टेलीफोन, मकानों के ढांचों-नक्शों, टेलीविजन ने घरों की संस्कृति को आमूल-चूल बदल दिया है। गांव का आदमी शहर जा रहा है, और वहां से शहरी चेतना ला रहा है। देवर-भाभी, जीजा-साली, ससुराल, दामाद जैसी सामाजिक-संस्थाओं और रिश्तों की परिभाषाएं भी बदली हैं। अपने-पराये की परिभाषाएं बदल रही हैं। खूनी रिश्तों की जगह मानवीय रिश्ते अधिक विश्वसनीय साबित हो रहे हैं। सामूहिक चेतना में दरार पड़ी है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एक मूल्य के तौर पर पहचानी गई है। गांव की गांव में आंख-मटका, शारीरिक संबंध तो पहले भी होते थे, लेकिन अब युवक-युवतियां जाति-गोत्र की सीमाओं को लांघकर इन रिश्तों को विवाह में बदलने के लिए जान का जोखिम तक उठा रहे हैं। अनेक जोड़े अपनी जान गंवा चुके हैं, और अपने पीछे प्रेम कहानियां छोड़ गए हैं। नागरिक अधिकारों के सवाल बहुत जोर शोर से उठाए जा रहे हैं। परिवारों का स्वरूप बदला है। पारिवारिक सत्ता संरचनाएं भी बदली हैं। पारिवारिक कलह के कारण बदल गए हैं। जिन पर रचनाकारों की नजर भी पड़ रही है, और ये रागनियों का विषय बन रहे हैं।
हरियाणा में अब पनघट के वे दृश्य नहीं हैं, जैसे कि कहे-सुने जाते हैं कि महिलाएं गीत गाती जाती थीं, उनके पायलों की झनकार से परिवेश जगमग रहता था। अब ये पनघट हरियाणा की धरोहर ही कहे जा सकते हैं, जिन्हें, अतीत-मोही लोग गाहे-बगाहे महिमामंड़ित भी करते रहते हैं। अतीत मोह से ग्रसित रचनाकारों और बुद्धिजीवियों को पनघट हमेशा रोमांचित करता है। यहां उनको औरतों के गीत-घुंघरुओं की आवाज तो सुनाई देती है, लेकिन औरतों के सिर के बाल भी उड़ाए हैं। अतीतमोह आंख पर मोतियाबिंद के जाले की तरह छा जाता है, जो उनको स्पष्ट देखने नहीं देता और धुंधली स्मृतियां ही उसका अन्तिम सहारा हो जाती हैं। नए विकास से गांव में सरकारी नल के द्वारा पानी आ रहा है। महिलाओं को सिर पर पानी नहीं ढोना पड़ता, लेकिन पानी की किल्लत इन नलों पर नया नजारा देखने को मिल रहा है, जिसे रामधारी खटकड़ पहचान और अभिव्यक्त कर रहे हैं।
रोळा होग्या रै ...
पाणी बाबत नळके ऊपर रोळा होग्या रै ...
बिना बात का रोब ना ओटूं सिर पै चढती जा री
या टूंटी थारे घर की कोन्यां या तो सै सरकारी
दूज्जी बोली रांड नपूती राड़ खामखां ठा री
चोटी पाड़ कै धर दूंगी तूं चाल कड़े आ री
खोळा हो ग्या रै ...
खींचा-ताणी कारण नळका खोळा होग्या रै ...

एक बोली मेरा वार सै पहलां अपणे भांडे ठा ले
दूज्जी कह री गात डाट ले क्यूं कर री सै चाळे
तकरार छिड़ी फिर घणी जोर की करड़े खिंचगे पाळे
जाण पटी जब घरक्या नैं वे लाठी ठा-ठा चाले
धोळा होग्या रै ...
कुणबे दोनूं  भिड़े, सांग ओडै़ धौळा होग्या रै ...
हरियाणा की किसानी का रूप बदल चुका है। किसान के समक्ष प्राकृतिक आपदाओं और अकाल, सूखा, बैलों के संकट उस रूप में नहीं है, उसकी समस्याओं का रूप बदल चुका है। अब कोई साहुकार उसके बैलों को खोलकर नहीं ले जाएगा उसके गंभीर संकट भूमि अधिग्रहण जैसे सवालों के साथ जुड़े हैं। मशीनों और तकनीक के आने से खेती उतना कष्ट साध्य काम नहीं रहा, उसकी मेहनत का रूप बदल गया है। वह खुद भी अब उतना सादा-भोला, बेचारा और याचक नहीं है, बल्कि लड़ाका भी है। किसान में चेतना, जागरुकता आ रही है, वह अपने संगठन बना रहा है। फटे कपड़ों और टूटी जूती कहने से उसकी जीवन-दशा का चित्रण होने वाला नहीं है। हो सकता है कि वह एकदम चकाचक कपड़ों में हो और उसका दिल बिल्कुल निराश हो। स्थिति को पूरी जटिलता के साथ उद्घाटित करके ही कोई रचना सार्थक हो सकती है।
महिला आन्दोलन ने ज्ञान-मीमांसा के पुरुष-प्रधान चरित्र को उद्घाटित किया है। समाज के विभिन्न पक्षों को पुनर्व्याख्यायित किया है। पितृसत्तात्मक विचारधारा की जड़ों को समाज से उखाड़ने के संकल्पों को अभिव्यक्त किया है। पुरुष को बरबाद करने वाली, घर तोड़ने वाली,  कमअक्ली, कुलटा जैसी पुरुष-प्रधान सोच से उपजी धारणाओं को झूठा साबित कर दिया है। वह जीवन के संघर्षों में मनुष्य के साथ खड़ी है और अपने हकों के लिए भी लड़ रही है। अब वह गुड़िया की तरह नहीं है, अबला और ममतामयी, कोमलांगी धारणा को उसने तोड़ दिया है। घर की चार दीवारी से बाहर सार्वजनिक जीवन में उसका दखल बढ़ा है। ग्रामीण महिला के संघर्ष को अब चक्की पीसने, पानी लाने, घास काटने, हाळी की रोटी लेकर जाने के संघर्ष के जरिये व्यक्त नहीं किया जा सकता। कालेज में जाती युवती और कामकाजी महिला, उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से नशे की गिरफ्त में आए पुरुषों की पत्नियों के अलग तरह के संकट हैं। इज्जत के नाम पर युवक-युवतियों की हत्याएं और खाप पंचायतों द्वारा उनके समर्थन ने हरियाणा के संवेदनशील समाज के गहरे तक झकझोरा है। रागिनी लेखकों ने नागरिक अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, इज्जत की अवधारणाओं के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। जिसमें वर्चस्वी विचारधारा का स्वीकार नहीं है, बल्कि नया समाज बनाने का संकल्प और चेतना दिखाई देती है। मुकेश यादव ने महिला की मेहनत और अधिकारों को रागिनी में पिरोया है।
हे जी हे जी बदन म्हं गहरी बेदन छाई
              आधी जिन्दगी बीत गई, मेरै ईब समझ म्हं आई

              देश नै आजाद बतावैं, या जिन्दगी मेरी गुलाम क्यूं
              दसवीं तक  पहल नम्बर थी, कटग्या मेरा नाम क्यूं
              कुरड़ी का धन कहैं छोरी नै, यू जीणा मेरा हराम क्यूं - 2
              गोबर गेरूं धार काढ़ लूं, फेर पाणी के ल्यावूं मैं
              झाड़ू पोचा करकै नै, रोटी टूका निपटाऊं मैं
              दाती पल्ली ठाकै नै, फेर न्यार नै जाऊं  मैं - 2
              मेरी मेहनत का कोए खात्ता ना, या कित जा मेरी कमाई
      

              पढ़-लिखकै के काढग़ी, तू सूह्र सीख ले घर का हे
              सारी जिन्दगी कहण पुगाणा हो सै, ब्याहे बर का हे
              जो लिख राख्या वो मिल ज्यागा, ताज तेरा वो सिर का हे - 2
              टूम-ठेकरी दान-दहेज दे, सासरै खंदावण लागे
              डोळी अर्थी की एक देहळ हो, चलती नै समझावण लागे
              पतिव्रता का धर्म निभाइये, खोलकै बतावण लागे - 2
              हे उड़ै किसा मेरा होवै था स्वागत, घूंघट म्हं लिपटाई
      
              सासरे म्हं जाकै नै, बड़ी मुश्किल पैर जमाणे हो
              बड़े-छोटे घर कुणबे के, सारे फर्ज पुगाणे हो
              दान-दहेज और लेण-देण के, सौ-सौ ताने खाणे हो - 2
              ताना-बाना इसा कसूता, समझ मेरी ना आई हे
              किसै की भाभी किसै की काकी, किसै की बणगी ताई हे
              पहचान मेरी तै गुम होगी, कितै मैं ना ढूंढी पाई हे - 2
              अड़ै जात-गोत और नाम बदल दें, कहैं मरदां गेल लुगाई
      
              कोथली संदारे देकै, अपणा फर्ज पुगाण लागे
              दूसर-तीसर छुछक देकै, स्यान सा जताण लागे
              भात तक आते-आते, आंख-सी दिखाण लागे - 2
              छोरी धरती देती ना, ये कर रे रोज मुनादी हे
              कई करोड़ की धरती थी, भाईयां कै नाम करा दी हे
              उस दिन भी दोनूवां ना मिलकै, एकै तीळ सिमादी हे - 2
              कित-कित मारैं रोज रोळ ये, ‘मुकेशकरै कविताई

जातिगत-विभाजन ने भारतीय मेहनतकश समाज को इतिहास और वर्तमान में बहुत नुक्सान पहुंचाया है। आज के सामाजिक जीवन में जाति का अस्तित्व राजनीतिक हितों के साथ जुड़ गया है। जातिगत आधार पर राजनीतिक लामबंदियां हो रही हैं। राजनीतिक हितों की टकराहट और सामाजिक वर्चस्व की विचारधारा ने हरियाणा में दुलीना, हरसौला, गोहाना, मिर्चपुर आदि जघन्य-काण्डों को जन्म दिया है। इस मानसिकता के जहर को रागनियों में अभिव्यक्त किया है। जाति और राजनीति के सम्बन्धों को रागनियों का विषय बनाया जा रहा है। धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के संकीर्ण आधारों पर सामाजिक विभाजन वर्गीय भाईचारे की एकता को खंडित करता है। जातिगत विभाजन और तद्जनित भेदभाव को मिटाकर ही शोषणमूलक व्यवस्था के खिलाफ सशक्त आन्दोलन संभव है।
खेती के बदले स्वरूप और विकास की दिशा ने जहां लोगों को शहरों की ओर धकेला है। गांव में रोजगार खत्म होने से जो मजदूर काम की तलाश में शहर के लेबर चौंक पर खड़ा होता है। कोई गांरटी नहीं है, कि उसे काम मिलेगा। रामफल जख्मी ने मजदूर की मनःस्थिति को, उसके रोजगार संकट को अभिव्यक्त किया है।
राजी खुशी की मत बूझै, बन्द कर दे जिक्र चलाणा हे।
दिन तै पहल्यां रोट बांध कै, पडै़ चौक म्हं जाणा हे।।

देखूं बाट बटेऊ ज्यूं, कोये इसा आदमी आज्या
मनै काम पै ले चालै, ज्या बाज चून का बाजा
नस-नस म्हं खुशी होवै, जे काम रोज का ठ्याज्या
इसे हाल म्हं मनै बता दे, कौण सा राजी पाज्या
नहीं दवाई नहीं पढ़ाई, नहीं मिलै टेम पै खाणा हे

देखे ज्यां सूं मैं बाट काम की, सदा नहीं मिलता हे
एक महीने म्हं कई बार तो, ना मेरा चुल्हा जलता हे
बच्चां कानी देख-देख कै, मेरा काळजा हिलता हे
रहै आधा भूखा पेट सदा, न्यू ना चेहरा खिलता हे
तीस बरस की बूढ़ी दीखूं मैं, पड़ग्या फीका बाणा हे
जनवादी रागिनी में वैकल्पिक व्यवस्था और उसकी संस्कृति की परिकल्पना का समावेश होता है। जिस समतामूलक समाज की रचना रचनाकारों के पास है, उसकी स्पष्ट तस्वीर इन रागनियों में उभर कर आती है। मंगतराम शास्त्री ने अपनी रागिनी में ऐसे समाज को प्रस्तुत किया है।
सुपने में देखी ऐसी बांकी नगरिया हो राम...
वा हे नगरिया मेरे मन में बसी।

उस नगरी में ना कोए दीन था, ओड़ै आपस में पूरा यकीन था
ना कोए धोखा सबकी साझी तिजुरिया हो राम...
वा हे तिजुरिया मेरे मन में बसी।।

भूखा नहीं था कोए नाज का, ओड़ै चिडिय़ा नै खतरा ना था बाज का
सबकी थी सबके मन में पूरी कदरिया हो राम...
वा हे कदरिया मेरे मन में बसी।।

कोए किसे की ना था दाब में, ओड़ै फरक नहीं था किसे की आब में
सबकी थी आपस के म्हैं सुथरी नजरिया हो राम...
वा हे नजरिया मेरे मन में बसी।।

मंगतराम की आंखें खुली, फेर टोही भतेरी ना वा राही मिली
पहोंची थी उस नगरी में, जोणसी डगरिया हो राम...
वा हे डगरिया मेरे मन में बसी।।
हरियाणा की संस्कृति को अब मेलों में पुराने सामानों की सूचियों बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। लाठी की खरीद अब अप्रासंगिक हो गई है। मनियारी, सब्जीवाले, बाबे-साधु सबका स्वरूप बदल गया है। त्यौहार सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में खुशी और उल्लास लेकर आते हैं, जो जीवन की निराशा और एकरसता को तोड़कर उसमें जिजीविषा का संचार करते हैं। सामाजिक संबंधों के साथ ही त्यौहारों का स्वरूप भी बदलता रहा है। होली-फाग का त्यौहार हरियाणा का सबसे जीवन्त त्यौहार है, जिसमें समाज के हर वर्ग का हर उम्र का व्यक्ति सक्रिय होता है, लेकिन परिवेश के प्रभाव से ये अछूते नहीं हैं। सत्यवीर नाहड़िया ने अपनी रचना में इसे व्यक्त किया है।
त्यौहारों का रूप भी पूर्णतः परिवर्तित है। अब न तो उस तरह के रिवाज रहे हैं। फाल्गुण और चैत्र के मेलों में अब वो गीत सुनाई नहीं देते। अंधविश्वास किसी भी समाज में जगह बना लेते हैं और समाज के विकास में बाधा बन जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि किसी भी समाज के विकास में जरुरी होती है। धार्मिक-पाखण्ड व रुढ़िवाद पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली और वैज्ञानिक चेतना का निर्माण करने वाली रागनियां प्रकाश में आई हैं। हबीब भारती की रागनियों में यह देखा जा सकता है।
विज्ञान ज्ञान के दम पै देखो उड़ते जहाज गगन में।
टमाटर आलू एक पौधे पै अजूबे करे चमन मैं।।

एक जीव का अंग काट कै दूजे कै इब फिट कट कर दें
मिजाइल छोड़ैं बटन दाब कै हजार कोस पै हिट कर दें
सौ सौ मंजिली बणी इमारत अपणी छाप अमिट कर दें
कमप्यूटर जबान पकड़ कै तेजी तैं गिट पिट कर दे
सुख सुविधा हजार तरहां की साईंस लगी जतन मैं


बेरोजगारी और विशेषकर शिक्षित बेरोजगारी ने युवा समाज के समक्ष ऐसी स्थिति प्रस्तुत कर दी है, जिसमें वह जीवन के उल्लास भूल गया है। पहले को नौजवानों के सामने विवाह की चिंता होती थी, और उसके सपने आते थे, लेकिन अब वह रोजगार की चिंता में तब्दील हो गई है, जो उसको काट खाए जा रही है। उनके स्थान अब अखाड़े और खेल के मैदान नहीं हैं, बल्कि नशे के अड्डों पर उनका डेरा हो गया है। खेल भी बदले हैं और उनके हीरो भी बदल गए हैं। युवा की मनःस्थिति को अभिव्यक्त करके ही आज का लेखक उससे संबंध कायम कर सकता है।
हरियाणा की पौराणिक रागिनी के दिन अब लद चुके हैं। अपने समय में इन्होंने भूमिका निभाई थी। जमाने के परिवर्तन के बोझ को वहन करने में अक्षम पा रही है। अपने समय के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त करने के लिए सांगों में पौराणिक चरित्रों का सहारा लिया था। जन-आन्दोलनों से जुड़ी रागिनी की धारा ने जीवन्त इतिहास को आधार बनाकर किस्से और स्वतंत्र रागनियां लिखी हैं। लक्ष्मीबाई के साथ अजीजन बाई, झलकारी बाई को भी प्रमुखता से स्थान मिला। 1857 में हरियाणा की भूमिका को रेखांकित करने के लिए रागनियां लिखीं, उनके पीछे जन-संघर्षों को उभार देने की मंशा तो थी ही,अपने वास्तविक नायकों और परम्परा को पहचानने की कोशिश का परिणाम है। स्वतंत्रता-आन्दोलन के शहीदों के आधार पर लिखी रागनियां हरियाणा के जनमानस में लोकप्रिय रही हैं। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों के जीवन पर केन्द्रित करके रागनियां लिखीं और स्वतंत्रता-आन्दोलन के संकल्पों-आदर्शों को व्यक्त किया। विभिन्न अवसरों पर ये रागनियां गाईं गईं, जिससे हरियाणा के लोक मानस में स्वतंत्रता-आन्दोलन की चेतना को जगह मिली। अंग्रेजों के अत्याचार से सरकार की अगाड़ी और घोडे़ की पिछाड़ी न होने की जो मानसिकता बनी थी, इन रागनियों ने उसे तोड़ा।
हरियाणा और साथ लगते राजस्थान और उत्तरप्रदेश में रागिनी का प्रचलन लम्बे समय से रहा है। समय के साथ निश्चित तौर पर रागिनी के कथ्य और रूप में परिवर्तन हुए हैं। लेकिन यह भी सही है कि रागिनी के सौन्दर्यशास्त्र की ओर विद्वानों ले ध्यान नहीं दिया। रागिनी समीक्षकों-विश्लेषकों ने रागिनी के अभिव्यंजना पक्ष को विश्लेषित करते हुए संस्कृत छंदशास्त्र के आधार पर रागनियों की मात्राएं गिनकर और अंलकारों की तलाश करके रागिनी के शिल्प को निपटा दिया। इस पद्धति से रागिनी के शिल्प का स्वतंत्र विकास नहीं हुआ और विभिन्न रचनाकारों की रागनियों की विशिष्टता भी उद्घाटित नहीं हो पाई। इस दिशा में अभी रागिनी के सौन्दर्य शास्त्र पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लखमीचंद से लेकर सभी महत्वपूर्ण रागिनी लेखकों ने अपनी रागनियों में इसके कुछ संकेत किए हैं, जिसके आधार पर इसके शास्त्र को विकसित किया जा सकता है।
कम्पीटीशन की रागनियों के दौर में रागिनी के विविधतापूर्ण शिल्प को गहरा आघात लगा। कम्पीटीशन की रागनियों का शिल्प एक जैसा ही था, लेकिन इसमें इसका जादू लोक के सिर चढ़कर बोला। कम्पीटीशन की रागनियों के तेज स्वर में जीवन के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने वाले मंद स्वर फीके पड़ गए। श्रोताओं के समक्ष रागिनी का यही स्वरूप रह गया।
जनवादी रागिनी का विकास समाज से सम्पर्क स्थापित करने की जद्दोजहद में हुआ। किस्सों-सागों की परम्परागत तथा कम्पीटीशन की रागिनी के रूप की बजाए इसने समाज में मौजूद कला-रूपों के साथ इसने संपर्क किया। जनवादी रागिनी के शिल्प में विविधता के दर्शन होते हैं, कहीं यह लोकगीतों के साथ गलबहियां करके आगे बढती है, तो कहीं धार्मिक गीतों के साथ। लोकगीतों की धुनों तथा क्रांतिकारी आह्वान गीतों की धुनों का भी इस पर प्रभाव पड़ा है। ऊपरा तळी की रागनियां भी देखी जा सकती हैं, जो कभी भाई-बहन के संवादों का रूप लेती है, कभी पति-पत्नी के बीच संवादों का, कभी दो महिलाओं अपना दुख-तकलीफ सांझा करती हैं। संवादों के माध्यम से एक विषय की सूक्ष्मताएं और विभिन्न परतें उद्घाटित होती जाती हैं। जीवन्त संवाद से रचनाकार अपना मंतव्य स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हरियाणा के गतिशील जीवन के साथ भाषा और मुहावरे भी बदल रहे हैं, जो जनवादी रागिनी में आ रहे हैं।
हरियाणा में रागिनी की समृद्ध परम्परा है। यह बात सही है कि पुरानी चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, लेकिन उनसे भविष्य का काम नहीं लिया जा सकता। पुरानी पर हम गर्व तो कर सकते हैं, लेकिन प्रयोग की तो अपनी ही रागिनी होगी, चाहे वह कितनी ही उबड़ खाबड़ और खुरदरी हो। लोक जीवन के खून-पसीने से ही लोक विधाओं और साहित्य में खुशबू आती हैं। जिस रागिनी में अपने समय की चेतना नहीं होती, वह अपने आप समाप्त हो जाती है।
वर्तमान में रणबीर सिंह दहिया, रामेश्वर दास गुप्ता, रामफल सिंह जख्मी, रामधारी खटकड़, मंगतराम शास्त्री, मुकेश यादव, जय सिंह खानक, सत्यवीर नाहड़िया, राजेश दलाल की रागनियों में अमेरिका के साम्राज्यवादी शोषण से लेकर गांव-गली के दृश्य और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्व तक इसमें शामिल हैं। प्रथमतः देखने में लगता है कि ये विषय हरियाणा की रागिनी के परम्परागत स्वरूप से मेल नहीं खाते और हरियाणा की भाषा के लिए भी ये स्थितियां नई हैं। रागिनी की विधा का परिष्कार नव रागिनिकारों के समक्ष गंभीर चुनौती है, जिससे किनारा करके अपने जमाने की चेतना को रागिनी में व्यक्त नहीं किया जा सकता। रागिनी अभी तक गाने-सुनने का विषय ही रही हैं। अभी तक इस पर विमर्श इसके गायन को लेकर हुआ है, जबकि रागिनी लेखन का संकट स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है। कविता की तरह रागनियों के पाठ केन्द्रित गोष्ठियां करने की जरूरत है। नए समाज की जरुरतों को तभी सही व्यक्त किये जा सकने के औजार विकसित किए जा सकते हैं।
                                                        
   


मेरी पुस्तकों के कवर

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो का जन्म उतरप्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक गांव में हुआ था। इनका मूल नाम अबुल हसन था, लेकिन ये अमीर खुसरो के नाम से प्रसिद्घ हुए। अमीर खुसरो के पिता सैफउद्दीन महमूद तुर्क सरदार थे और बलख से हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंनेेेेेे हिन्दुस्तानी वंश के अमीर अमादुल मलिक के यहां शादी की। अमीर खुसरो अभी बच्चे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई और खुसरो के नाना अमादुल मलिक ने खुसरो का पालन-पोषण किया। चूंकि अमादुल मलिक का संबंध तत्कालीन राज दरबार से था, इसलिए खुसरो भी दरबार से जुड़ गए। हजरत निजामुदीन औलिया अमीर खुसरो के गुरु थे।

अमीर खुसरो ने हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएं की। उन्हें भिन्न-भिन्न इलाकों की संस्कृति को देखने के अवसर मिले, जो उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है। हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मुलाकात ने अमीर खुसरो को उदार दृष्टि प्रदान की। वे अपने जन्म-स्थान को छोड़़कर दिल्ली आए थे। दिल्ली से उनको समाना जाना पड़ा, वे बंगाल गए और जब बंगाल से दिल्ली वापस आए तो तत्कालीन शासक बलबन का पुत्र व उत्तराधिकारी खान शहीद उन्हें अपने साथ मुलतान ले गया। मुल्तान से बुरी हालत में दिल्ली आए तो खान जहान के साथ उन्हें अवध जाना पड़ा। वह एक बार देवगिरि यानी दौलताबाद भी गए।1
अमीर खुसरो समन्वयवादी संस्कृति के अग्रदूत थे। अमीर खुसरो ने संस्कृतियों के आदान-प्रदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके हृदय में भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा थी। ''अमीर खुसरो को अपने हिन्दुस्तानी होने पर गर्व था। मसनवी 'नुह सिपहर' में हिन्दुस्तान का संकेत करते हुए कहते हैं:

हस्त मरा मौलिद-ओ-मावा-ओ वतन
यही मेरा जन्म स्थान और यही मेरी मातृभूमि है

वह हिन्दुस्तान के सच्चे प्रेमी और पक्के देशभक्त थे। अपने काव्य में जहां-जहां वह हिन्दुस्तान की प्रशंसा करते हैं, उनकी आत्मा झूम उठती है और जैसे उनके मुंह से फूल झडऩे लगते हैं। मसनवी 'नुह सिपहर' का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण तीसरा परिच्छेद पूरा हिन्दुस्तान की स्तुति में है। इसमें चार-पांच सौ शेर हैं जिनमें हिन्दुस्तान के निवासियों की बुद्घिमत्ता, उनके धार्मिक विश्वास, विद्वता, भाषाओं, रस्म-रिवाजों, पक्षियों, मौसमों, फलों, फूलों आदि सभी बातों के बारे में जितने प्रभावकारी ढंग और भावुकता के साथ शेर कहे हैं उसकी मिसाल शायद ही किसी दूसरे शाइर के यहां मिल सके।"2

खुसरो ने लिखा कि ''सम्भव है कि कोई मुझसे पूछे कि भारत के प्रति मैं इतनी श्रद्घा क्यों रखता हूं। मेरा उत्तर यह है कि केवल इसलिए कि भारत मेरी जन्म भूमि है, भारत मेरा अपना देश है। खुद नबी ने कहा है कि अपने देश का प्रेम आदमी के धर्म प्रेम में सम्मिलित होता है।"

खुसरो ने भारत को स्वर्ग माना और लिखा कि आदम और हौवा जब स्वर्ग से निकाले गए थे, तब वे इसी देश में उतरे थे"3 
उन्होंनेेेेेे भारत की तुलना स्वर्ग के उद्यान से की है और संसार के देशों में भारत को श्रेष्ठ सिद्घ किया है
किश्वरे हिन्द अस्त बहिश्ती बजमी।4 
भारत संसार में स्वर्ग है
उनका मानना था कि एकता और आत्मीयता को स्थापित करने का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण साधन भाषा है, इसलिए खुसरो ने भारत के लोगों की भाषा में रचनाएं कीं। अमीर खुसरो को जन साधारण की भाषा से अत्यधिक लगाव था। इस भाषा को उन्होंनेेेेेे 'हिन्दवी' कहा जो बाद में हिन्दी भाषा के रूप में विकसित हुई। वे जन साधारण की भाषा में विचार व्यक्त करने में अधिक प्रसन्न होते थे और कहते थे कि हिन्दवी में अपने विचार अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। उन्हें अपने हिन्दी के ज्ञान पर गर्व था। वे कहते थे कि
चू मन तूति-ए-हिन्दम अर रास्त पुरसीं ।
जेे मन हिन्दवी पुर्स, ते नग्ज गुयम।
''मैं हिन्दुस्तान का तोता हूं। मुझसे मीठा बोलना चाहो तो मुझसे हिन्दवी में पूछो जिससे मैं भलिभांति बात कर सकूं।"
इसी ग्रन्थ में उन्होंनेेेेे कहा कि ''मैं एक भारतीय तुर्क हूं और आपको हिन्दी में उत्तर दे सकता हूं मेरे अंदर मिस्री शक्कर नहीं है कि मैं अरबी में बात करूं-
तुर्क हिन्दुस्तानम मन हिंदवी गोयम जबाव,
शक्करे मिस्री नदारम कज अरब गोयम सुखन।5

अमीर खुसरो ने अपने बेटे को नसीहत देते हुए कहा कि ''मैं हिंद को ही अपना मुल्क मानता हूं और यहां के आम लोगों की जुबान को ही अपनी जुबान।

''अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना है और सदा के लिए यहीं बसना है तो सबसे पहले हमें यहां के लोगों के दिलों में बसना होगा। और दिलों में बसने के लिए सबसे पहली जरूरत है इनकी जबान में इनसे बातें करना; इनके दिल की बात को शायरी में बांधना। तभी बंध पायेंगे हम इनसे। तुर्कों को हिंदवी जुबान सिखाने के खयाल से ही मैने 'खालिकबारी' नाम की किताब लिखी है।
''यों भी हिंदवी जुबान किसी तरह से भी अरबी-फारसी के मुकाबले हल्की या कमजोर नहीं।"6

''1318 के आसपास लिखे गए अपने प्रसिद्घ फारसी महाकाव्य 'नूर सिपहर' नौ आकाश में खुसरो ने अपने भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की शिनाख्त की और उन सबको हिन्दी से जोड़कर दिखाया:
सिंदी-ओ-लाहोरी-ओ कश्मीर-ओ गर,
धर समंदरी तिलगी ओ गुजर।
माबरी-ओ गोरी-ओ बंगाल-ओ अवध,
दिल्ली-ओ पैरामकश अंदरहमाहद,
ईं हमा हिंदवीस्त जि़ अयाम-ए-कुहन,
आम्मा बकारस्त बहर गूना सुखन।
सिंधी, पंजाबी, कश्मीरी, मराठी, कन्नड़, तेलगु, गुजराती, तमिल, असमिया, बंगला, अवधी, दिल्ली और उसके आसपास जहां तक उसकी सीमा है, इन सबको प्राचीन काल से हिंदवी नाम से जाना जाता है। बहरहाल अब मैं अपनी बात शुरु करता हूं।
खुसरो के इस छंद को भारत के पहले अनौपचारिक भाषा सर्वेक्षण का दर्जा दिया जा सकता है। उन्होंनेेेेेे ग्रियर्सन से कई सदी पहले यह काम किया था। अपने इस सर्वेक्षण में खुसरो ने संस्कृत का भी जिक्र किया, लेकिन उसे हिंदवी के दायरे से अलग रखा
लेक ज़बानीस्त दिगर कस सुखना
आनस्त गुजीं निज्द हमां बरहमना
सेंसकिरत नाम जि़ अहद-ए कुहनश
आम्मां नदारद खबर अज़ कुन मकुनश।

इसके अलावा कुछ और भाषाएं भी हैं, जिनमें ब्राह्मणों की भाषा की एक खास ही जगह है, इसे प्राचीन काल से संस्कृत नाम से जाना जाता रहा है और आम लोग इसकी बारीकियों से वाकिफ नहीं हैं।
खुसरो ने हिंदवी की फारसी और तुर्की से भी तुलना की:
इस्बात गुत हिंद बहुज्जत कि राजेहस्त
बर पारसी-ओ तुर्कि अज़ अल्फाज़ खुशगवार
फारसी और तुर्की की तुलना में हिंदवी अपने मधुर शब्दों के कारण अधिक लोकप्रिय है।7

खुसरो ने जन साधारण की भाषा को महत्त्व दिया, अपनी 'खालिकबारी' रचना में अरबी, फारसी और हिन्दी भाषा की त्रिवेणी को प्रवाहित किया। 'खालिकबारी' एक तरह का कोश है। 'खालिकबारी' में विभिन्न भाषाओं के शब्दों की संख्या इस प्रकार है : अरबी के 237, तुर्की के 2, फारसी के 482, तथा हिन्दी के 575। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हिन्दी भाषा को कितना चाहते थे।

अमीर खुसरो ने 'हालात-ए-कन्हैया' और 'नजरान-ए- हिन्दी' नामक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है,जिनके नाम से ही स्पष्ट है कि ये हिन्दुओं में विष्णु के अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण और भारत माता से संबंधित हैं।
अमीर खुसरो ने अपने पुत्र ग्यास को तीन नसीहतें दीं। इन तीनों नसीहतों को देखकर कहा जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमान के एक दूसरे के करीब आ रहे थे। अमीर खुसरो की ये नसीहतें ध्यान देने योग्य हैं। 
''ग्यास बेटे, मैने तो हिन्द की खाक को अपनी आंखों का सुरमा बना लिया है, इसलिए तुम्हें सबसे पहली नसीहत यही देना चाहता हूं कि तू भी हिन्द को ही अपना सब कुछ समझना।".... ''दूसरी नसीहत यह कि क्योंकि तू भी शायरी करने लगा है, इसलिए मैं चाहूंगा कि हिन्दवी में ही शायरी करना ।"....''तीसरी नसीहत यह कि अपनी शायरी का कोई भी हिस्सा शाहों की खुशामद में बरबाद मत करना, जैसे कि मैने किया। मैं चाहता हूं कि तू हिन्द के आम लोगों में घुल मिलकर उनकी रूहों की आवाज सुन और फिर उस आवाज को अपनी शायरी की रूह बना ले।"8
अमीर खुसरो ने सूफियों की तरह इश्क को महत्त्वपूर्ण माना। उन्होंनें कहा कि में इश्क का काफिर हूं। मुझे मुसलमानी की जरूरत नहीं है। काफिर को भी यज्ञोपवीत जैसे दिखावटी धागे की जरूरत पड़ती है, परन्तु मुझे वह भी नहीं चाहिए;क्योंकि मेरी तो नस-नस प्रेम रस पीकर पवित्र तार अर्थात् यज्ञोपवीत के धागे बन चुकी है। संसार कहता हे कि खुसरो मूर्ति पूजक हो गया है। हां हो गया हंूू। किसी को इससे क्या लेना देना।
काफिरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नेस्त,
हर रगे-मन तार गष्त: हाजते-जुन्नार नेस्त।
खल्क भी गोयद कि खुसरो बुतपरस्ती मीकुनद,
आरे-आरे मी कुनम व खल्क-ओ-आलम कारनेस्त।9

अमीर खुसरो ने भाषा व साहित्य के माध्यम से संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने की कोशिश की, संगीत में भी उन्होंनेेेेेे समन्वय स्थापित किया। भारतीय और ईरानी संगीत को मिलाकर संगीत को बुलन्दी तक पहुंचाने में अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। ईरानी बारह स्वरों के आधार पर राग वर्गीकरण की पद्घति अमीर खुसरो से ही शुरू हुई। भारतीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बन चुके 'ख्याल' और 'तराना' अमीर खुसरो की देन है। खुसरो ने बरवा राग में लय की रीति आरंभ की। सितार वादन, कव्वाली आदि का आविष्कार किया। हकीम मुहम्मदइकराम खान अवध के प्रख्यात संगीतकार थे। अपनी पुस्तक 'मदुनूल मासीकी' में लिखा--
''अमीर खुसरो की फारसी और हिन्दी के रागों पर इतनी गहरी पकड़ थी कि उसे युग का नायक कहा जा सकता है। उसने पखावज की जगह ढोलक का आविष्कार किया;और बीन की जगह सितार का। धुरू, रहवा, मत्था, छिंद, परसंद, ध्रुपद सामान्य तौर पर प्रयोग होते हैं। उसने छ: नए तरीके खोजे: कूल ,कलवना, नक्श, गुल, तराना, और ख्याल। अमीर खुसरो ने संगीत की विधाएं खोजीं। सावनी, फरोदस्त, पश्तो, कव्वाली आदि।

दो संस्कृतियों के संगम से विद्या, भाषा और संगीत कला की जो उन्नति हुई उसमें अमीर खुसरो का विशेष योगदान है। इनका जीवन और रचनाएं साम्प्रदायिक सद्भाव व सांस्कृतिक समन्वय की मिसाल है। उनके लेखन के विषयों से स्पष्ट है कि उस समय लोग एक दूसरे के धर्मों का आदर करते थे। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आपस में लड़तेे झगड़ते नहीं, बल्कि एक दूसरे की संस्कृति को जानने के उत्सुक थे और एक दूसरे से अच्छी बातें सीखने को इच्छुक थे।

संदर्भ:
1-नया पथ; अप्रैल-जून, 2008; सं. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चैहान; शरीफ हुसैन कासमी के लेख 'अमीर खुसरो देहलवी: हमारी तहजीब का नुमाइंदा शाइर' से; पृ.-155
2-गोपीचंद नारंग; अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य; वाणी प्रकाशन, दिल्ली; 2002; पृ-24
3-रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.-334
4-राजेन्द्र पाण्डेय; भारत का सांस्कृतिक इतिहास; पृ.-233
5- वही; पृ.- 237
6-सुदर्शन चोपड़ा; अमीर खुसरो; साहित्य संगम, दिल्ली;1989; पृ.-29
7-नया पथ; अप्रैल-जून, 2008; सं.मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान; सलिल मिश्र का लेख 'हिन्दी और उर्दू: साझा अतीत, खंडित वर्तमान' से; पृ-77
8-सुदर्शन चोपड़ा; अमीर खुसरो; साहित्य संगम,दिल्ली; 1989; पृ-28
9-वही; पृ.-22

मलिक मुहम्मद जायसी


जायसी


मलिक मुहम्मद जायसी प्रसिद्ध सूफी कवि हैं, जिन्होंने पदमावत महाकाव्य की रचना की। जायसी ने लोक में प्रचलित कथाओं के आधार पर लोक भाषा अवधी में काव्य रचना की। इनकी रचनाएं इतनी प्रसिद्घ थीं कि लोग इनको गाते थे।
जायसी के बारे में बहुत विश्वसनीय जानकारियों का अभाव है। इनकी रचनाओं से कुछ सूचनाएं अवश्य प्राप्त होती हैं। उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले के जायस कस्बे में निवास के कारण जायसी कहलाए। जायस से अपने संबंध को 'पदमावत में 'जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्द बखानू।' कहकर उजागर किया है तो 'आखिरी कलाम' रचना में 'जायस नगर मोर अस्थानू। नगर क नांव आदि उदयानू।' कहा है।
जायसी की जन्म तिथि के बारे में कई तहरह की अटकलें लगाई जाती हें। ''तिथियों के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहना कठिन है पर अन्त:साक्ष्य को कुछ बाह्य साक्ष्य से मिलाने पर भी जायसी का जन्म 870 हिजरी 1464ई. और मृत्यु 949 हिजरी 1542ई. में मान सकते हैं।"1
''जायसी कुरूप और काने थे। कुछ लोगों के अनुसार वे जन्म से ही ऐसे थे पर अधिकतर लोगों का कहना है कि शीतल या अधरंग रोग से उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने का उल्लेख, कवि ने आप ही इस प्रकार किया है
'एक नयन कवि मुहमद गुनी'।
उनकी दाहिनी आंख फूटी थी या बांई, इसका उत्तर शायद इस दोहे से मिले
मुहमद बाईं दिसि तजा, एक सखन एक आंखि।
इससे अनुमान होता है कि बांए कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था। जायस में प्रसिद्घ है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गए। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देख हंस पड़ा। उन्होंने अत्यन्त शांत भाव से पूछा 'मोहि हससि, कि कोहरहि?' अर्थात तू मुझ पर हंसा या उस कुम्हार गढऩे वाले ईश्वर पर? इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा मांगी। कुछ लोग कहते हैं कि वे शेरशाह के दरबार में नहीं गए थे, शेरशाह ही उनका नाम सुनकर उनके पास आया था"2
''कहते हैं कि जायसी के पुत्र थे, पर वे मकान के नीचे दबकर या किसी और दुर्घटना से मर गए। तब से जायसी संसार से और भी अधिक विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घर-बार छोड़कर इधर-उधर फकीर होकर घूमने लगे। वे अपने समय के एक सिद्ध फकीर माने जाते थे और चारों ओर उनका बड़ा मान था। अमेठी के राजा रामसिंह उन पर श्रद्धा रखते थे। जीवन के अंतिम दिनों में अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। ... जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान कोट से लगभग पौन मील के लगभग है। यह वर्तमान कोट जायसी के मरने के बहुत पीछे बना है। अमेठी के राजाओं का पुराना कोट जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था।"3
जायसी ने 'कान्हावत' नामक ग्रन्थ की रचना की । यह कृष्ण के बारे है, इसका ऐतिहासिक महत्त्व यह है कि यह अवधी भाषा का पहला काव्य है। इसमें जायसी ने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। उन्होंने कृष्ण को प्रेम, काम और योग का पूंजीभूत बताया है। 'कान्हावत' की कथा का मूलाधार श्रीमदभागवत है।
महाकवि जायसी सांस्कृतिक समन्वय और एकता के पक्षधर थे, इन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने मे बड़ी भूमिका निभाई। हिन्दू-मुस्लिम जीवन के अनेक संदर्भों में जायसी दोनों संस्कृतियों के अमर सेतु हैं। उन्हें अल्लाह और ईश्वर में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। उनका मानना है कि जो भिन्नता दिखाई देती है वह केवल बाहरी है:-
परगट मेरा गोपाल गोबिन्दु । कपट गियान न तुरूक न हिन्दू।
अपने रंग सो रूप मुरारी । कतहूं राजा कतहु भिखारी ।
कतहुं सो पण्डित कतहुं मूरुख । कतहूं इस्तरी कतहुं पुरुष।
महाकवि जायसी ने इस्लाम के एकेश्वरवादी चिन्तन और वेदान्ती अद्वैतवादी दर्शन में सुन्दर समन्वय किया है:--
जो ब्रह्म सो है पिंड, सब जग रहा समाई ।
जायसी भागवत ग्रन्थ के ज्ञाता थे और उन्हें हिन्दू धर्म का अगाध ज्ञान था। वे इस्लाम और हिन्दू धर्म की मानवतावादी मान्यताओं में समन्वय स्थापित कर रहे थे। धर्म के कर्मकाण्डों और बाहरी आडम्बरों का विरोध कर रहे थे।
का भया परगट कया पखारें।
का भया भगति भूँह सिर मारें।
का भया जटा भभूत चढाएँ।
का भया गेरू कापरि लाएँ।
का भया भेस दिगंबर छाँटे।
का भया आपु उलटि गए काँटे।।
जो भेखहि तजि मौन तू गहा।
ना बग रहै बलू भगत बेचहा?
पानिहि रहइँ मंछि और दादूर।
नाँगे नितहिं रहइँ फुनि गादुर।।
पसु पंछी नाँगे सब खरे।
भसम कुम्हार रहइँ नित भरे।।
बर पीपर सिर जटा न थोरे।
अइस भेस की पावसि भोरे।।
जब लगि विरह न होइ तन, हिये न उपजत पेम।
तब लगि हाथ न आव तप, करम धरम सत नेम।।4
जायसी ने 'पदमावत' में हिन्दुओं के संस्कारों को स्थान दिया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लोक में प्रचलित संस्कारों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। जन्म के समय होने वाले रीति रिवाज, आनंद बधाइयों का जायसी ने विस्तार से उल्लेख किया है। पदमावती के जन्म के बाद छठी के आयोजन का वर्णन किया है:-
''बाजइ अनन्द उछाह बधाए। केतिक गुनी पोथी लै आए।"
सामाजिक जीवन में विवाह संस्कारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। विवाह के समय अनेक रीति रिवाजों का सम्पादन होता है। जायसी इनसे भलि भांति परिचित हैं। विवाह के पूर्वलगन निर्धारण लोक में प्रचलित हैं।
'लगन धरा और रचा बियाहू। सिंहल नेवत फिरा सब काहू'
हिन्दू समाज में शव को जलाने की प्रथा है। हिन्दू विश्वास के अनुसार काशी में मरना पुण्य माना जाता है। जायसी ने इसका सजीव चित्रण किया है।
'जाइ बनारसि जारिउं क्या। पारिउं पिउं नहाइउ गया।'
जायसी ने भारतीय त्योहारों होली और दिवाली का विस्तार से वर्णन किया है। होली के त्योहार पर अबीर गुलाल व रंग लगाकर उल्लास मनाया जाता है। इसे मिलन का त्योहार भी कहा जाता है। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, हिन्दू-मुसलमान की समस्त संकीर्णताओं को भूलकर लोग एक दूसरे से मिलते हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन 'होलिका' दहन किया जाता है और अगले दिन उसकी राख उड़ाई जाती है। जायसी ने पदमावत में इस धार्मिक पक्ष का वर्णन किया:
'फागु खेलि पुनि दाहब होली,
सै तब खेह उड़ायब झोली।'
फाग खेलकर होली जलाऊंगी और राख बटोरकर झोली भर भर उड़ाऊंगी
होली के उत्सव पर अवध में अनेक प्रकार के नृत्य किए जाते हैं, जिनमें चंाचर, घनौरी गान, मनोरा, ठूमक आदि। जायसी ने होली और दीवाली के चित्रों का विस्तार से वर्णन किया है।"5
पदमावत का राघव चेतन नाम का चरित्र वेद निन्दक है। जायसी ने उसे खलनायक बताया है और उसकी निन्दा की है। अलाउद्दीन को माया का प्रतीक बताया है। पदमावत में अलाउद्दीन के स्वागत में जो भोज होता है उसमें ऐसे किसी भी भोजन का उल्लेख नहीं है जो हिन्दुओं के लिए अखाद्य हो।
पदमावत में जो हठयोग, ब्रह्मरन्ध्र, सहस्रार आदि का जो वर्णन है उससे स्पष्ट है कि जायसी का मन इस देश की संस्कृति और परम्परा में गहरा रंगा हुआ था। ''सूफी मुसलमान फकीरों के सिवा कई सम्प्रदायों जैसे कि गोरखपंथी, रसायनी, वेदांती हिन्दू साधुओं से भी उनका बहुत सत्संग रहा, जिनसे उन्होंने बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त की। हठयोग, वेदांत, रसायन आदि की बहुत सी बातों का सन्निवेश उनकी रचना में मिलता है। हठयोग में मानी हुई इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की ही चर्चा उन्होंने नहीं की है, बल्कि सुषुम्ना नाड़ी में मस्तिष्क नाभिचक्र, कुंडलिनी, हृत्कमल और दशमद्वार ब्रह्मरंध्र का भी बार बार उल्लेख किया है।"6
जायसी ने मुसलमान होते हुए हिन्दू रीति-रिवाजों का वर्णन किया है उससे लगता है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में वैमनस्य नहीं, बल्कि वे एक दूसरे के करीब थे।

संदर्भ:
1-परमानन्द श्रीवास्तव,जायसी,साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्र.सं. 1981, पृ.12
2-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी;16वां सं.;पृ. 5
3-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी;16वां सं.;पृ.-6
4-पं. शिवसहाय पाठक, चित्ररेखा, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी,प्र.सं.1959, पृ. 70
5- कुंवरपाल सिंह;भक्ति आन्दोलन और लोक संस्कृति;पृ.-80
6-जायसी ग्रंथावली;रामचन्द्र शुक्ल;नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी;16वां सं.; पृ.-7

दादूदयाल

दादू
सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो

दादू दयाल भक्ति आन्दोलन के संत हैं , जिन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किए। भक्तिकालीन कवि आम जनता के बीच से आए थे, उनके जीवन के बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं मिलती। इनके जन्म के बारे में विद्वानों ने इतिहास, किंवदंतियों और उनकी वाणी के अन्त:साक्ष्यों को आधार बनाकर उनके जन्म, जन्म-स्थान, माता-पिता आदि के बारे में कयास लगाए हैं। ''दादूपंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती में नहाते हुए पाये गये। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। कुछ लोग इसे कपोल कल्पना मानते हैं।"... आचार्य क्षितिमोहन सेन ने इनका संबंध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम 'दाऊद' था।1
दादू दयाल का संबंध रुई धुनने वाली निम्न समझी जाने वाली जाति धुनिया से था, लेकिन इनके मन में अपनी जाति को लेकर किसी प्रकार की हीन भावना नहीं थी, इसीलिए इन्होंने अपनी जाति को छिपाया नहीं।
दादू कुल हमारै केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेस्वर परिवार।।
दादू ने अपने पदों में अपने को पिंजारा कहा है।
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौ पूजै गरीब पिंजारा।
दादू के आंरभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। वे 26 वर्ष की आयु में सांभर (राजस्थान)आए। उन्होंने काशी, बिहार, का भ्रमण करके साधु-संतों व जोगियों से विचार विमर्श किया। सांभर में ही दादू ने अपने उपदेश व प्रवचन देने आंरभ किए। उनके मानवतावादी उपदेशों व संदेश को सुनकर उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। सांभर को अपने ज्ञान के प्रसार का केन्द्र बनाने के बाद आमेर (अभी भी यहां 'दादू द्वारा' बना हुआ है) गए और यहीं रहे। अजमेर, दिल्ली, आमेर की यात्रा करके नराणा (राजस्थान)चले गए, यहीं इनकी मृत्यु हो गई।
''इनके गरीबदास और मिसकीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियां थीं। कुछ विद्वान इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद् पुत्र थे, कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे।"2
दादू ने अपने जीवन काल में 'पर ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना की, जो उनकी मृत्यु के बाद 'दादू पंथ'के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ''आरम्भ में इनके कुल एक सौ बावन शिष्य माने जाते रहे। इनमें से एक सौ शिष्य (वीतरागी) थे और भगवत भजन में ही लगे रहे। बावन शिष्यों ने एकांत भगवत् चिंतन के साथ लोक में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का संगठनात्मक कार्य करना भी आवश्यक समझा। इन बावन शिष्यों के थांभे प्रचलित हुए। इनके थांभे अब भी अधिकतर राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में हैं। इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर दादू-द्वारों की स्थापना की गई थी। उनके शिष्यों में गरीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से अधिकतर संतों ने अपनी मौलिक रचनाएं भी प्रस्तुत की थीं।"3
क्षितिमोहन सेन के अनुसार उनके सारे पदों की संख्या बीस हजार से ऊपर ही होगीे ... दादू वाणी का सर्वाधिक प्रामाणिक पाठ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'दादू ग्रंथावली' माना जाता है। इसमें कुल 2453 साखियां और 426 पद हैं।4
हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ-साथ इन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने गुजराती और हिन्दी में पद लिखे। हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव को व्यर्थ का बताते हुए दादू ने कहा कि सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा का निवास है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान।
दादू सब हम देष्या सोधि सब, दूसर नांही आन।
सब घटि येकै आत्मा, क्या हींदू मुसलमान।।
दादू ने कहा कि हिन्दू और मुसलमान समाज में उसी तरह हैं, जैसे मनुष्य के शरीर में हाथ हैं, पैर हैं और कान हैं, आंखें हैं। इनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है, उसी तरह हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है।
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान।।
दादूदयाल अल्लाह और राम में कोई भेद नहीं करते थे, उनके लिए ये दोनों बराबर थे। वे एक ईश्वर को मानते थे, मंदिर-मस्जिद के झगड़े को झूठा समझते थे। वे मूल तत्व को पकडऩे की बात कहते थे।
अलह कहो, भावे राम कहो, डाल तजो, सब मूल गहो।
दादू ने पाखण्डों की जमकर आलोचना की है। बाहरी दिखावा धर्म नहीं है। पूजा पद्धतियों में धर्म व ईश्वर उपासना नहीं है, बल्कि मानव के दुख तकलीफ को समझना वा उसके दुखों को दूर करने ईश्वर की पूजा है। विभिन्न तरीकों से संसार से पलायन करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। कितने ही मुल्ला, पीर, पैगम्बर, मुनि, योगी, पण्डित अपने अपने कर्मकाण्ड की अनुपालना करते हैं, लेकिन वह सब व्यर्थ है।
मैं पंथि येक अपार कै मनि और न भावै।
कोई पंथ पावे पीव का, जिस आप लषावै।।
को पंथि हींदू तुरक के, को काहू माता।
को पंथि सोफी सेवड़े, को संन्यासी राता।।
को पंथि जोगी जंगमा को, को सकति पंथ ध्यावे।
को पंथि कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावें।।
को पंथि काहू के चलै, मैं और न जानौं।
दादू जिनि जगु सिरजिया, नाहीं कौं मानौ।।
दादू ने बाहरी दिखावों को त्यागकर अपने अन्तर्मन को स्वच्छ करने पर जोर दिया तथा बाह्य कर्मकाण्डों की आलोचना की।
दादू केते पुस्तक पढि़ मुए, पंडित वेद पुरान।
केते ब्रह्मा कथि गए, जांहिन राम समान।।
दादू काजी कजा न जाणंही, कागद हाथि कतेब।
पढतां पढतां दिन गए, भीतरि नाहीं भेद।।

स्वांग सती का पहरि करि, करै कुटंब का साच।
बाहरि सूरा देषिए, दादू भीतरि पोच।।

पढि़-पढि़ थाके पंडिता, किनहु न पाया पार।
कथि-कथि थाके मुनि जनां, दादू नांई अधर।।

दादू हिंदू मारग कहें हमारा, तुरक कहें रह मेरी।
कोंण पंथ है कहौ अलष का, तुम तौं असी हेरी।।

षंड-षंड करि ब्रह्म कूं, पषि-पषि लीया बांटि।
दादू पूरण ब्रह्म तजि, बंधे भ्रम की गांठि।।

मरने के बाद स्वर्ग की कल्पना पर प्रहार किया है।
मूवां पीछैं मुकति बतावैं, मूवा पीछैं मेला।
मूवां पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गेला।।
***
मूवां पीछैं बैकुंठि वासा, मूवा श्रगि पठावैं।
मूवां पीछैं मुकति बतावै, दादू जग बौरावैं।।
वे हिन्दू और मुसलमानों के पाखण्डों और पूजा विधानों को नहीं मानते थे। वे मानव धर्म में विश्वास करते थे, जिसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा के पितृसत्ता व ऊंच नीच का कोई स्थान नहीं था। दादू ने सभी धर्मों को बराबर का दर्जा दिया और निरपख धर्म की स्थापना की। आधुनिक धर्म निरपेक्षता को दादू पहले ही स्वीकार कर चुके थे।
दादू ना हम हिन्दू होहिंगें, ना हम मुसलमान,
षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहिमांन।
दादू ने स्पष्ट तौर पर कहा कि हिन्दू और मुसलमानों के भेदभाव संस्थागत धर्म के कर्मकाण्डों के कारण हैं। संस्थागत धर्म को बढ़ावा देने वाले काजी, मुल्लाओं और पण्डे पुजारियों व ब्राह्मणों ने धर्म के वास्तविक मर्म को छोड़़कर बाहरी दिखावे को प्रतिपादित किया है। हिन्दू पूरब में मंदिर जाते हैं और मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह करके नमाज पढ़ते हैं लेकिन वे ईश्वरीय तत्व को भुला देते हैं। दादूदयाल ने मंदिर और मस्जिद दोनों का ही विरोध किया है, क्योंकि वे धर्म के आन्तरिक स्वरूप में विश्वास करते थे, और बाहरी कर्मकाण्डों का विरोध करते थे।
हींदू तुरक न जानौ दोई।
सांइ सबनिका सोइ हेरे; और न दूजा देषौं कोइ।
कीट-पतंग सबनि मैं, जल-थल संगि समाना सोइ।
पीर पेंकवर देवा दानव, मीर मुलिक मुनि जन कौं मोहि।।
कहता है रे सोई चिन्हौं, जिनि, वै क्रोध करै रे कोइ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धेई।।
सांई केरी सेवा कीजै, पाया धन काहै को षोइ।
दादू रे जन हरि जपि लीजे, जनमि-जनमि जे सुरिजन होइ।।

दादू यह मसीति यहु देहरा सतगुरि दिया दिषाइ।
भीतर सेवा बंदगी बाहरि काहे जाई।।

हिन्दू लागे देहरा, मुसलमान मसीति।
हम लागे इक अलख सों, सदा निरन्तर प्रीति।।
दादूदयाल ने ईश्वर को एक माना, उसको अनेक नामों से राम, रहीम, केशव, गोबिन्द, गोपाल, गोसाई, साई, रब्ब, अल्लाह, ओंकार, वासुदेव, परमानन्द, साहिब और सुल्तान, गरीब-निवाज तथा बंदिछोर नामों से संबोधित किया।
बाबा दूसर नांही कोई।
येक अनेक नांव तुम्हारे, मोपै और न होई।
अलष इलाही येक तूं, तूं ही राम रहीम।
तूं ही मालिक मोहना, केसौ नांव करीम।।
रमिता राजिक येक तूं, तूं सारंग सुबिहान।
कादिर करता येक तूं, तूं साहिब सुल्तान।
अविगत अलह येक तूं, गनी गुसांई येक।
अजब अनुपम आप है, दादू नांव अनेक।।
जब दादू से कहा गया कि अगर तुम लोक सेवा करना चाहते हो तो किसी सम्प्रदाय में आबद्घ होकर ही कर सकते हो, तो दादू ने कहा - हे दयामय, तुम्हीं बताओ; यह धरती, आकाश, ये दिन और रातें, सूरज और चांद किस पंथ के हैं? ब्रह्मा, विष्णु और शिव के नाम से अगर पंथ खड़े हो सकते हों तो तुम बताओ कि ये स्वयं किस पंथ के मानने वाले हैं? हे एक अल्लाह तुम्हीं बताओ तो भला, मुहम्मद का मजहब क्या था? जिब्राइल का पंथ कौन सा था?
दादू ए सब किसके पंथ में, धरती अर असमान।
पाणी पवन दिन रात का, चंद सूर रहिमांन।।
ब्रह्म, विशन महेस को, कौन पन्थ गुरुदेव;
सांई सिरजनहार तूं, कहिये अलख अभेद ।
महमद किसके दीन में, जबराइल किस राह ?
इसके मुर्सद पीर को कहिए एक अलाह।
दादू ये सब किसके ह्वै रहे यहु मेरे मन मांहि,
अलख इलाही जगद्गुरु दूजा कोई नाहीं ।
संत दादू दयाल ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने का काम किया। दोनों सम्प्रदायों के लोग उनके अनुयायी बने।
संदर्भ:
1 रामबक्ष; दादू; साहित्य अकादमी; दिल्ली; पृ. 10
2 वही; पृ.14
3 वही; पृ. 16
4 वही; पृ.22