डा. आंबेडकर भारत में लोकतांत्रिक समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने के चैंपियन थे। उनकी लोकतंत्र की अवधारणा में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की बुनियाद पर खड़ी थी। उन्होंने अपने लेखओं व वक्तव्यों में बार-बार इस बात को रेखांकित किया है। 18 जनवरी 1943 को महादेव गोबिन्द रानाडे की 101वीं जयन्ती पर दिए गए भाषण में ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित है) आम्बेडकर ने कहा कि ”लोकतंत्रात्मक शासन के लिए लोकतंत्रात्मक समाज का होना जरूरी होता है। प्रजातंत्र के औपचारिक ढांचे का कोई महत्व नहीं है और यदि सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह वास्तव में अनुपयुक्त होगा। राजनीतिक लोगों ने यह कभी भी महसूस नहीं किया कि लोकतंत्र शासन तंत्र नहीं है। यह वास्तव में समाज तंत्र है। ‘इंडियन फैडरेशन ऑफ लेबर’ के तत्त्वावधान में 8 से 17 सितम्बर तक, 1943 में, दिल्ली में, ‘अखिल भारतीय कार्मिक संघ’ के कार्येकर्ताओ के अध्ययन शिविर के समापन सत्र में दिए गए भाषण में डा. आम्बेडकर ने कहा कि ”सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र के स्नायु और तंत्र हैं। ये स्नायु और तंत्र जितने अधिक मजबूत होते हैं, उतना ही शरीर सशक्त होता है। लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है।
जिस तरह के लोकतंत्र की स्थापना डा. आंबेडकर करना चाहते थे धर्मनिरपेक्षता को अपनाए बिना ऐसे लोकतंत्र की स्थापना भारत जैसे बहुधर्मी-बहुसंस्कृति देश में संभव नहीं है। भारत जैसे बहु-संस्कृति, बहुधर्मी, बहुभाषी देश में उदार व व्यापक अवधारणा ही सबको समाहित कर सकती है। यूरोप के अधिकांश देशों एक धर्म, एक नस्ल और एक भाषा बोलने वाले लोग हैं। इसलिए एक भाषा, एक धर्म और एक नस्ल को राष्ट्र का आधार मानने वाली अवधारणा भारतीय समाज व परिस्थतियों के अनुकूल नहीं थी।
डा आंबेडकर का मानना था कि वर्णाश्रम धर्म के आधार पर ही भारतीय समाज में सामाजिक शोषण-उत्पीड़न और भेदभाव को वैधता प्रदान की जाती रही है। इसीलिए राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की वकालत करते हुए धर्म आधारित राज्य बनने से रोकने की सलाह दी। “अगर वास्तव में हिंदू राज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए, एक भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिए यह अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (खंड-15, पृ.-365)
डा. आंबेडकर की धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति गहरी हमदर्दी थी, इसीलिए अपने विचारों, संघर्षों और मोर्चों में उनके अधिकारों की सुरक्षा के पक्षधर थे, लेकिन अल्पसंख्यकों की धर्म आधारित राजनीति का कभी उन्होंने समर्थन नहीं किया। पाकिस्तान पर लिखी अपनी पुस्तक में मुसलिम लीग और हिंदू महासभा की धर्म-आधारित राजनीति की मुखर आलोचना की।
डा. आंबेडकर धर्म आधारित राजनीतिक दल बनाने के भी विरोधी थे, क्योंकि इस तरह के दल समाज के राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप व समाज के साम्प्रदायिक भाईचारे के लिए नुक्सान पहुंचाने का खतरा रहता है। “हिंदू और मुसलमान ‘मिलजुल कर राजनीतिक पार्टियों का निर्माण कर लें, जिनका आधार आर्थिक जीर्णोद्धार तथा स्वीकृत सामाजिक कार्यक्रम हो, तथा जिसके फलस्वरूप हिंदू राज अथवा मुस्लिम राज का खतरा टल सके’।
डा. आंबेडकर इस बात के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थे किभारतीय समाज में विभिन्न धर्मों से संबंधित लोंगों का राजनीतिक दल संभव है। उन्होंने लिखा है कि ‘ भारत में हिंदू-मुसलमानों की संयुक्त पार्टी की रचना कठिन नहीं है। हिंदू समाज में ऐसी बहुत सी उपजातियां हैं जिनकी आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक आवश्यकताएं वही हैं जो बहुसंख्यक मुस्लिम जातियों की है। अतः वे उन उच्च जाति के हिंदुओं की अपेक्षा, जिन्होंने शताब्दियों से आम मानव अधिकारों से उन्हें वंचित कर दिया है, अपने व अपने समाज के हितों की उपलब्धियों के लिए मुसलमानों से मिलने के लिए शीघ्र तैयार हो जाएंगी।’ (खंड-15, पृ.-366)
धर्मनिरपेक्षता उनके लिए विदेशी विचार नहीं था, बल्कि भारतीय समाज की रूप रचना और सांस्कृतिक-धार्मिक जीवन के आधार पर ही उनकी ये सोच बनी थी। लगभग बीस वर्षों तक भारत के विभिन्न धर्मों का गहराई से अध्ययन के उपरांत उनका ये विश्वास पक्का हो गया था उन्होंने कहा भी है कि इसकी प्रेरणा उन्होंने बौद्ध धर्म से ग्रहण की है। जो लोग धर्मनिरपेक्षता को विदेशी विचार कहकर उपहास उड़ाते हैं उनको डा. आंबेडकर ने तथ्यपरक जबाव दिया है। धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं
डा. आंबेडकर की धर्मनिपरेक्षता का आधार धार्मिक विश्वास-नैतिकता नहीं था, बल्कि वह विवेक आधारित है। इसी मायने में धर्मनिरपेक्षता संबंधी विचार तत्कालीन अन्य नेताओं से अलग हैं। महात्मा गांधी भी सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिक सदभाव व राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखने के पक्षधर थे और अपने इन मूल्यों के लिए वे शहीद भी हुए। उनकी धर्मनिरपेक्षता की उनकी अवधारणा सर्वधर्म समभाव पर आधारित थी।
धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में डा. आंबेडकर के विचार शहीद भगत सिंह के बहुत करीब हैं। भगतसिंह ने ‘साम्प्रदायिक दंगें और उनका इलाज’ लेख में अपना मत स्पष्ट किया कि ‘‘1914-15के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे,जिनमें सिक्ख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
डा. आंबेडकर ने संविधान निर्माण की बहसों में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के विचार को प्रमुखता देते हुए जोर दिया कि राज्य के मामलों में, राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है, बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है।
भारत के लोकतंत्र पर सभी राजनीतिक दल व सभी प्रकार के चिंतक सही ही गर्व करते हैं, इस सफलता को देखा जाए तो उसकी जड़ में धर्मनिरपेक्षता ने इसे संभव बनाया है। हमारे पड़ोसी देशों व अन्य मुल्कों में लोकतंत्र का जिस तरह से अपहरण होता रहा है उसका कारण उसके मूलस्वरूप में सब नागरिकों के लिए समानता का न होना रहा है। असल में भारत के लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र कहा जाना चाहिए। भारत जैसे बहुधर्मी देश में लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है धर्मनिरपेक्षता।
लेखक हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में प्रोफेसर हैं. फोन-9416482156