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भारत में साम्प्रदायिकताः इतिहास और अनुभव

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आम्बेडकर से दोस्तीः समता और मुक्ति

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अल्ताफ हुसैन हालीः चुनिंदा नज्में और गजलें

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ः मुक्ति और प्रेम के कवि

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ः मुक्ति और प्रेम के कवि
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

फैज़ अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ। उनके पिता का नाम सुल्तान मोहम्मद और माता का नाम सुल्तान फातिमा था। चार साल की उम्र में उनकी शिक्षा आरम्भ हुई और उन्होंने कुरान को कठस्थ कर लिया था। प्रथम श्रेणी में मैट्रिक और इंटरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से बी ए और अरबी में बी ए आनर्स की उपाधि प्राप्त की। 1933 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में और 1934 में ओरिंएटल कालेज, लाहौर से अरबी में एम.ए. की । 1935 में एम ए ओ कालेज, अमृतसर में अंग्रेजी अध्यापक के तौर पर कार्य आरम्भ किया। 1940 से 42 तक उन्होंने हेली कालेज, लाहौर में अंग्रेजी पढ़ाई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वे अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गए और 1947 तक कर्नल के पद तक पहुंचे। फौज से इस्तीफा देकर वे पाकिस्तान टाइम्स के संपादक के तौर परपत्रकारिता करने लगे। ।
1928 में उन्होंने पहली गज़ल और 1929 में पहली कविता लिखी। उन्होंने गज़लों व कविताओं केअलावा गद्य में भी लेखन किया। नक्शे-फरियादी, दस्ते-सबा, जि़न्दाँनामा, दस्ते-तहे-संग, सरे-वादिए-सीना, शामे-शहरे-याराँ, मेरे दिल मेरे मुसाफिर (कविता संग्रह), मीज़ान(लेख-संग्रह), सलीबें मेरे दरीचे में(पत्नी केनाम पत्र), मताए-लौहो-कलम (भाषण, लेख, साक्षात्कार, भूमिकाएँ, पत्र, नाटक आदि)
फैज अहमद फैज साहित्य चिंतक-सृजक के साथ-साथ साहित्य के सक्रिय कार्यकता थे, जिन्होंने साहित्यकारों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। एफ्रो-एशियन लेखक संघ की स्थापना सन् 1958 से ही जुड़े हुए थे। सन् 1973 में एफ्रो-एशियन लेखक सम्मेलन केअल्मा अता और 1978 में लुआंडा (अंगोला) अधिवेशन में हिस्सेदारी की। 1978 से उन्होंने इसकी पत्रिका लोटस का भी संपादन किया। ये बैरूत (लेबनान) में रहे। 1962 में लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
फैज अहमद फैज अपनी रचनाओं को बहुत अच्छे अंदाज में नहीं गाते या पढ़ते थे। उनकी उर्दू रचनाओं के पाठन में पंजाबी का लहजा रहता था। जिन्होंने उनको सुना है, वे बताते हैं कि उनका रचना पाठ कोई प्रभावशाली नहीं था। इसके बावजूद वे भारतीय उप-महाद्वीप में फरीद, बुल्लेशाह जैसे सूफियों की तरह से लोकप्रिय हुए। उर्दू शायरी में फैज ने एक नये अध्याय को जोड़ा। उर्दू को अन्तर्राष्ट्रीय जुबान बनाया। पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक थे। फैज़ की रचनाएं बेगम अख्तर, इकबाल बानो, नैयारा नूर, महदी हसन, जिया मोउनुद्दीन जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों ने गाईं, जिसकी वजह से वो आम लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे।
फैज अहमद फैज ने अपने सिद्धांतों के लिए सक्रिय व संघर्षशील जीवन की शुरुआत तो फासीवाद के खिलाफ दूसरे युद्ध में हिस्सा लेकर कर दी थी। आजादी के बाद वो पाकिस्तान में चले गए, जहां लोकतंत्र की स्थापना नहीं हुई। आजादी के लिए उनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। जिन्दगी भर वे संघर्ष करते रहे और तानाशाही शासन सत्ताओं का दमन झेलते रहे। 1951 में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तख्ता पलट के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। जेल का यह समय उनकी रचनात्मकता के लिए बहुत अहं साबित हुआ। वे किसी षडयन्त्र में शामिल नहीं थे। इसका खुलासा उन्होंने आप बीती में किया है। इस स्थिति को शेर के माध्यम से भी कहा है:

जिस बात का फसाने में कोई जिक्र नहीं था
वही बात उनकोसबसे नागवार गुजरी है

फैज ने जब लिखना शुरू किया तो साहित्यिक जगत में कला के लिए कला अथवा जीवन के लिए कला के बीच तीखी बहस थी। प्रगतिशील आन्दोलन में फैज का मुहावरा अनुपम था। उन्होंने रचनाओं से आन्दोलन का काम लिया है। अपनी रचनाओं के माध्यम से मेहनतकश जनता के संघर्षों को व्यक्त करते थे। उनकी रचनाएं मेहनतकश वर्ग को समर्पित हैं। उनकी कविताओं के सरोंकारों को उनकी इन्तिसाब नामक कविता से समझा जा सकता है। जिन्दगी से गहरा जुड़ाव उनकी कविता को जीवन प्रदान करता है। वे इंकलाब, संघर्ष, बदलाव की बात बड़े जोरदार ढँग से कहते थे पर प्रचारात्मक ढंग से बिल्कुल नहीं। शायरी उनके लिए सिर्फ वक्त काटने का जरिया ही नहीं थी, फैज ने प्रगतिशील मूल्यों और जीवन की अभिव्यक्ति के लिए कविता को चुना। उन्होंने लिखा है:
करे न जग में अलाओ तो शेर किस मकसद
करे न शह्र में जल-थल तो चश्मे-गम क्या है
फैज का रचनाकार अपने जीवन अनुभवों की पूंजी से रचना करता है, इसीलिए वह लाऊड होकर भी विश्वसनीय होती है। अपने युग के अन्तर्विरोधों, सत्ता की क्रूरताओं-अत्याचारों और मेहनतकश के संघर्षों-आन्दोलनों को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया और उस दायित्व को बखूबी निभाया। फैज शायरी में अपने निजी दुख-दर्दों-पीड़ाओं का रोना नहीं रोते, बल्कि अपनी तकलीफों और जमाने की तकलीफों को एकमएक कर देते हैं। अपने अनुभवों का विस्तार करके उनको आमजन की तकलीफों से गूंथ देने से फैज की कविताएं सामूहिक गान और आह्वान गीत की शक्ल अख्तियार करती जाती हैं और पाठक पर गहरा असर करती है। पाठक को अपने में इस कदर समा लेती हैं कि कविता का दर्द और पाठक के दर्द में कोई फर्क ही नहीं रह जाता। ऐसा नहीं कि वे अपनी इस उपलब्धि से वे अनजान थे, बल्कि ये कला उन्होंने सचेत तौर पर अपनाई थी। जो अपने ऊपर गुजरती है, तथा जो दुनिया पर गुजरती है उसे शायरी में ढालते हैं इसीलिए वह इतनी विश्वसनीय हो जाती है। लौह-ओ-कलम कविता में उनके संकल्प को देखा जा सकता है।
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रकम करते रहेंगे
असबाब-ए-गम-ए-इश्क बहम करते रहेंगे
वीरानी-ए-दौराँ पे रकम करते रहेंगे
मंजूर ये तल्खी, ये सितम हम को गवारा
दम् है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंग-ए-लब-ओ-रुखसार-ए-सनम करते रहेंगे
1951 में रावलपिण्डी षड्यन्त्र केस में उनको जेल में डाला गया। उनको पढऩे व लिखने की कोई सुविधा नहीं दी गई थी। तो उन्होंने लिखा:
मताए-लौह-ओ-कलम छिन गयी तो क्या गम है,
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हलकए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने।
अपने काव्य विकास के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि श्रमिक-आन्दोलनों और प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन से जुड़कर उन्होंने सीखा कि अपनी ज़ात को बाकी दुनिया से अलग करके सोचना अव्वल तो मुमकिन ही नहीं, इसलिए कि इसमें बहरहाल गर्दो-पेश के सभी तजुर्बात शामिल होते हैं और अगर ऐसा मुमकिन हो भी तो इंतहाई गैर सूदमंद फेल है कि इनसानी फर्द की ज़ात अपनी सब मुहब्बतों और कुदरतों, मुसर्रतों और रंजिशों के बावजूद, बोहत ही छोटी सी, बोहत ही महदूद और हकीर शै है। इसकी वुसअत और पहनाई का पैमाना तो बाकी आलमे मौजूदात से उसके ज़हनी और जज्बाती रिश्ते हैं, खास तौर से इनसानी बिरादरी के मुश्तरका दुख-दर्द के रिश्ते। चुनांचे गमे जानां और गमे दौरां तो एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। पृ.-208
आशावाद उनकी कविता का केन्द्रीय स्वर है। कविताओं के ताने-बाने में, उसकी पृष्ठभूमि में वह मौजूद रहता है। जीवन के सभी कष्टों को इसके सहारे ही हल्का करते हैं। वे दु:ख और निराशा को अस्थायी मानते हैं और जीवन में भरोसा करते हैं। जेल जीवन की सघन पीड़ा को भी उन्होंने यह समझकर सह लिया। यह आशावाद उनको जीवनी शक्ति प्रदान करता है। उनका आशावाद हवाई-लफ्फाज़ी पर नहीं, बल्कि ठोस जमीन पर है। जन संघर्षों की जमीन से जुड़ा यह आशावाद एक शासन सत्ताओं की दहशत को, उनके खौफ को चाक-चाक कर देता है। उन्होंने अपने वतन में बार-बार बर्बर व दमनकारी फौजी शासन को देखा और जनता की आजादी व स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनते देखा। उनका आशावाद यथार्थ की जमीन को नहीं छोड़ता।
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नजऱ चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फिऱाक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं

गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं

जिन्दगी से अलग कविता का उनके लिए कोई अर्थ ही नहीं था। फैज़ ने कबीर की तरह से आह्वान किए हैं। उनके आह्वानों में एक मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और संकल्पों के प्रति प्रतिबद्धता मिलकर एक विश्वसनीय आह्वान बना देते हैं। ये आह्वान किसी उपदेशवादी की तरह नहीं रहते, बल्कि क्रांतिकारी साथी के हो जाते हैं। जीवन व क्रांति में गहरा विश्वास कविता में आशावाद को एक नई शक्ल में ढाल देता है। इसी आशावाद से ही वे अपने जीवन में भी ऊर्जा ग्रहण करते हैं। पाकिस्तान जैसे देश में जहां अधिकतर समय फौजी बूटों के नीचे जनता की आजादी को रौंदा गया है। उसमें इस तरह की आशा व आह्वानपरक कविताओं का बहुत महत्त्व है।
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले, सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
फैज ने बहुत ही निजी कविताएं भी लिखी हैं। अपने बहुत ही करीबी सम्बन्धियों पर। अपनी बेटी मुनीजा की सालगिरह पर, अपने भाई की मृत्यु पर या इसी तरह के निजी जीवन की घटनाओं पर भी। लेकिन वे अपने अनुभवों को दुनिया के अनुभवों के साथ इस तरह से जोड़ते हैं कि वह निजी अनुभव सामूहिक बन जाता है। निजता और सामूहिकता केएक साथ फैज की कविताओं में दर्शन होते हैं। अनुभव की कसक कविता की विश्वनीयता बनाती है तो दृष्टि उसे विश्व से जोड़ देती है।
मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गये साथ मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गये जाते जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आखिऱी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
फैज को दिल का दौरा पड़ा तो उन्होंने उस समय कविता लिखी जो उस मन:स्थिति को व्यक्त करती है। यहां वे निराश दिखाई देते हैं, लेकिन फैज की खूबी यही है कि वे कोई बनावटी, कृत्रिम और ओढ़ा हुआ यथार्थ नहीं रचते, बल्कि खास संदर्भ की स्थिति व मानसिकता उसका हिस्सा होती है। विभिन्न मनस्थितियों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति का रहस्य यही है।
इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आखिरी फेरा
शाखों में खयालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर न एक महर, न इक रबत, न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया न कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त कड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है
फै़ज़ की गज़लों और कविताओं में अकेलेपन का दर्द बहुत गहरा है। उनकी रचनाओं में तन्हाई का बहुत जिक्र है। उन्होंने तन्हाई की पीड़ा को सहा है। उनकी जेल की तन्हा जिन्दगी और अपने वतन से निर्वासन ने संवेदनशील कवि के दिल पर गहरा असर छोड़ा। इसे ही कवि ने अपनी पूंजी बना लिया। और शासन सत्ताओं द्वारा दी गई तन्हाई को उनके अत्याचारों को उद्घाटन करने का माध्यम बनाया। और इस तन्हाई के अंधेरे को निजाम के अंधेरे में बदल कर इसे बदलने का संकल्प जोड़ दिया। फैज़ के बदलाव व क्रांतिकारी बदलाव में अटूट आस्था व आशा के साथ मिलकर अलग ही रंग पैदा किया है।
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तन्हाई का

दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनां
आज अरज़ा हो कोई हफऱ शनासाई का

दीदा-ओ-दिल को संभालो कि सरे-शामे-फिऱाक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का
फैज सही मायनों में अन्तराष्ट्रीय कवि थे, उनकी नज़र से विश्व में घटित हो रही घटनाएं ओझल नहीं होती। अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के कारण ये घटनाएं उनकी रचनाओं में जगह बना लेती हैं। वियतनाम के बच्चे पर, ईरानीतुल्बा पर, अफ्रीका पर, लिखी रचनाओं से पता चलता है कि उनकी चिन्ता में पूरा विश्व था। वे बैरुत में रहे और फिलिस्तीनियों के पक्ष में रचनाएं भी लिखीं। बैरुत की बर्बादी पर उन्होंने कविता लिखीः
चांद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उसके आने की।
फैज को हिन्दुस्तान से बेहद प्यार था, वे यहां पले-बढ़े भी थे। उनके कितने ही दोस्त हिन्दुस्तान में थे। वे हिन्दुस्तान का भारत और पाकिस्तान में राजनीतिक विभाजन को मन से कभी स्वीकार कर पाए थे। भारत पाकिस्तान के शासक दोनों देशों की जनता के बीच खाई पैदा कर रहे थे। फैज़ इससे बहुत चिन्तित और दुखी थे। उन्होंने जान लिया था कि यह समस्या शासकों द्वारा पैदा की गई है और दोनों देशों की आम जनता के हित में नहीं है। इसीलिए इसका समाधान वे मेहनतकश के शासन यानी क्रांति में देखते थे। कहा करते थे कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के मसलों का हल एक ही है कि दोनों मुल्कों में मेहनतकश अपने हक हासिल करके अपने-अपने बागीचों के माली बन जायें। इसके बाद इन मुल्कों के बीच नफरत का ज़हर, और उसको पैदा करने वाले वे मसले जो निदान चाहते हैं, जिनकी आड़ में सामराजी आजकल फौलादी पंजे, वतने-अज़ीज़ की रगों में पैवस्त कर रहे हैं, यूं गायब हो जायेंगे जैसे देवों-परियों के किस्सों में हीरो के इस्म पढऩे पर दैत्य, भूत और दूसरी बलाएं पलक झपकते ग़ायब हो जाती हैं।
फैज अहमद फैज के दिल में भारत के विभाजन की टीस बहुत गहरी थी। विभाजन केवल देश का ही नहीं हुआ थ, केवल आबादियों ने अपने स्थान ही नहीं बदले थे, बल्कि संस्कृति व इतिहास की सांझी विरासत का भी बंटवारा हो रहा था। दिलों में नफरत के बीज पड़ रहे थे और कट्टरपंथी खुलकर अपना खेल खेल रहे थे। विशेषतौर पर पाकिस्तान में भाषा, संस्कृति व साहित्य के मामले में संकीर्णता और कट्टरता घर करती जा रही थी, जिससे फैज़ का दुखी होना स्वाभाविक था। पाकिस्तान के शासकों की भाषायी और क्षेत्रीय संकीर्णता के कारण ही पाकिस्तान को एक बार फिर विभाजन से गुजरना पड़ा। पाकिस्तान के कट्टर व संकीर्ण शासक वहां की जनता में विश्वास नहीं बन पाये। लोकतांत्रिक शक्तियों और जनवादी आन्दोलनों को कुचलते रहे। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक प्रणाली के आधार पर ही बहु-भाषिक और बहु-सांस्कृतिक समाज को एक रखा जा सकता है। साझी सांस्कृतिक परम्पराओं के आधार पर भाईचारा निर्मित करने के समर्थक फैज को गहरा आघात लगा। सन् 1971 में ढाका से वापसी के बाद उन्होंने इस संबंध में गजल लिखीः
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद

कब नजऱ में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मह्र सुब्हें मह्रबाँ रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे ‘फ़ैज़’ जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
फैज असल में मुक्ति के कवि हैं और मुक्ति के कवि में प्रेम का अहसास बहुत गहरा होता है। सामन्ती समाज की वर्जनाओं और बंधनों को तोडऩे के लिए इसका सहारा लिया गया है। अपनी क्रांतिकारी शायरी केलिए प्रेम की शब्दावली व प्रतीकों का प्रयोग किया। ‘रकीब’ का जैसा प्रयोग फैज ने किया वैसा शायद ही किसी ओर शायर ने इससे पहले किया होगा। क्योंकि यह रकीब वतन का रकीब है, इसलिए यहाँ कोई द्वेष नहीं, बल्कि प्रेम है। एक प्रेमी की बात प्रेमी ही समझ सकता है। फैज़ की रुमानियत फैज की रचनाओं की आन्तरिक बनावट में है। यह कोई टेक्नीक के तौर पर नहीं अपनाई गई, बल्कि उनकी जिंदगी के हालात से निकली है। इसीलिए यह एक ताकत बनकर आती है। प्रेम उनकी कविता का अनिवार्य अंग है। यह रोमांस ही है जो उनको एक ताजगी देता है। पाब्लो नेरुदा की तरह उनकी कविताओं में प्रेम और इंकलाब इस तरह से गुंथे हुए हैं कि उनको अलग नहीं किया जा सकता। फैज़ की शायरी में इंकलाब और इश्क गंगा-जमुना की जलधारा के समान साथ-साथ बहते हैं और एकमएक हो जाते हैं। एक दूसरे से ताकत पाते हैं।
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के

वीरां है मयकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के

इक फुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोजग़ार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फ़ैज़
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के

फैज की शायरी की जडें क्लासिकी-परम्परा में गहरे तक पैठी हैं। उन्होंने क्रातिकारियों की जमीन पर, वली दकनी की जमीन पर ग़जलें लिखकर अपना अदबी रिश्ता कायम किया। सौदा, गालिब आदि प्रख्यात शायर कवि उनकी रचनाओं के बीच होते हैं। फैज अहमद फैज ने परम्परा से कविता के औजारों प्रतीकों, शब्दों का सहारा लिया उनका खूब प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने इनका अर्थ बदल दिया और नए संदर्भों में प्रयोग किया। यह फैज की दिल के दर्द की सघनता थी कि उसने परम्परागत अर्थों को बदल दिया। रूढ़ और परम्परागत अर्थ से निकलकर अर्थ नया अर्थ देने लगे। फैज़ अपने कविता के प्रतीकों के प्रयोग के प्रति सचेत थे।
क्लासिकी-परम्परा के साथ-साथ फैज अहमद फैज की कविताओं की जड़ें लोक में गहरे तक हैं। इसीलिए उनके तराने और गज़लें लोकगीत की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ जाती हैं। इनकी कविताओं में एक आर्कषण है जो अपने पाठकों को अपने से बांध लेती है। लोक चेतना को फैज़ ने बहुत खूबसूरत ढंग से प्रयोग किया और उसकी व्याख्या को बदल दिया। उन्होंने धर्म की शब्दावली का भी प्रयोग किया, लेकिन उनको नया संदर्भ दे दिया। अपने उसूलों और विचारों के साथ उनका प्रयोग किया। कुरान में भी इस तरह के विचार हैं, लेकिन फैज़ की गज़ल में कोई भाग्यवाद, अंधविश्वास पैदा नहीं होता, बल्कि एक यह दुनिया को बदलने के संघर्ष में एक विश्वास पैदा करती है। ये विचार सदियों से लोगों की चेतना का हिस्सा हैं, इसलिए उनके माध्यम से अपनी बात कहने का तरीका फैज़ ने विकसित किया। जब कोई कवि शब्दों के अर्थ ही बदल डाले, तो उसकी प्रभाव क्षमता को समझा जा सकता है। यह शक्ति उसकी कविता की विश्वसनीयता से आती है। फैज की जो प्रसिद्ध रचनाएं हैं, विशेषतौर पर उनमें इस तरह के प्रयोग मिलते हैं।
हम देखेंगे
लाजि़म है के: हम भी देखेंगे
वो: दिन के: जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गराँ
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अह्ले-हिकम केसर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्जे-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अह्ले-सफा, मर्दूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजि़र भी
उट्ठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
फैज़ धर्म की विचारधारा और कर्मकाण्डों में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन काबा, खुदा, बुत आदि धार्मिक शब्दावली का प्रयोग शासकों केही खिलाफ पड़ता है। सूफियों के अनलहक का विचार आदि वे सब परम्पराओं को अपने बीच लेकर चलते थे। धार्मिक शब्दावली के माध्यम से अपने जमाने की बात कहने का शिल्प फैज़ ने विकसित किया। इसका वे इसीलिए प्रयोग कर पाए कि वे पाठक या श्रोता उनके दिमाग में हमेशा उपस्थित होता है। संप्रेषण की जद्दोजहद में ही लोक-परम्परा, जिसमें धार्मिक-चेतना भी शामिल है, को अपने मंतव्य के अनुरूप ढाल पाए हैं। विचारधारा, दृष्टिकोण और पाठकीयता को वे बहुत महत्व देते थे।
फैज की कविताएं अपने परिवेश की उपज हैं, न केवल विषय वस्तु में, बल्कि शिल्प में भी क्लासिकी व लोक परम्परा में गहरे से जुड़े होने के बावजूद अपने वर्तमान संदर्भ के औजारों से ही जन्म लेती है। अपने आस पास की वस्तुएं ही उनकी कविता के औजार बन जाते हैं। फैज की कविता अपने आस-पास से गहरे से जुड़ी रहती है। जहां वे पैदा होती हैं उस माहौल को अपने साथ लेकर चलती हैं। मसलन जब वे जेल में थे और कविताएं लिखते तो जेल की चारदीवारी, रोशनदान, जंजीरे, हथकडिय़ां आदि कविताओं का हिस्सा बन जाते थे। उनके जेल का अकेलापन था, पीड़ा थी, भविष्य का स्वप्न और कविता की समृद्ध परम्परा का गहरा ज्ञान था जिसका खूब प्रयोग करते थे।
फैज़ की शायरी और कविताएं अपने पाठकों और श्रोताओं से संवाद रचाती हैं। वे एक तरफा बयान नहीं बनती, बल्कि उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाते हुए उनकी चेतना का हिस्सा हो जाती हैं और उनकी तरफ से बोलने लगती हैं। उनकी रचनाओं का पाठक या श्रोता पेसिव नहीं हो सकता। वह अपने पाठकों और श्रोताओं में जोश पैदा करती है। उनकी इंसानी गरिमा को उभारती है, उनको जगा जाती है, अहसासों को ताजा करती है। फैज की रचनाएं अपने पाठकों की जिंदगी में नया अर्थ भरती हैं। फैज की शायरी में पाठक को पकड़कर रखने की ताकत है। वह अपने पाठक से दोस्ती कायम कर लेती है।

अज्ञेय की कविता में विभाजन की त्रासदी

अज्ञेय की कविता में विभाजन की त्रासदी

डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र

हिन्दी साहित्य-जगत की विलक्षण प्रतिभा सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जीवन और साहित्य विवादास्पद रहा है। अंग्रेजी और संस्कृत साहित्य से प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग, समाज से कटकर व्यक्तिवादिता के खोल में सिमटे कलावादी होने के उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। निस्संदेह इन आरोपों में कुछ सच्चाईयां हैं। इसके बावजूद उनके सोलह कविता-संग्रहों, आठ कहानी संग्रहों, पाँच उपन्यासों, निबन्धों, गीतिनाट्य, यात्रावृत्त आदि विधाओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। अज्ञेय के विपुल साहित्य-सृजन उसमें बहुत अद्भुत व अनुपम सामग्री है।
आजादी के साथ ही भारतीय उप महाद्वीप को महात्रासदी से गुजरना पड़ा। लाखों लोग उजड़े और हजारों मारे गए। लाखों लोगों को शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर होना पड़ा। अज्ञेय स्वयं न तो शरणार्थी थे, न कभी वैसी परिस्थिति में पड़े थे। किंतु शरणार्थियों की मनोदशाओं का गहरा अनुभव उन्होंने प्राप्त किया था। विभाजन के बाद त्रासदी का संबंध पंजाब, बंगाल, जम्मू-काश्मीर आदि में सर्वाधिक हुआ, इन क्षेत्रों से अज्ञेय का गहरा संबंध था।

विभाजन की त्रासदी से उपजे मानवीय संकट की गम्भीरता व व्यापकता का अनुमान आसानी से इसी बात से लगाया जा सकता है, कि अज्ञेय जैसे ‘अपने से बाहर न निकलने वाले’ कवि ने इस विषय पर सोलह कवितांए ‘मिरगी पड़ी’, ‘ठांव नहीं’, ‘रूकेंगे तो मरेंगे’, ‘मानव की आंख’, ‘गाड़ी रूक गया’, ‘हमारा रक्त’, ‘श्रीमद्धर्मधुरंधर पंडा’, ‘कहती है पत्रिका’, ‘जीना है बन सीने का सांप’, ‘पक गयी खेती’, ‘समानांतर सांप’ (जिसके सात भागों में ) तथा पांच कहानियां ‘शरणदाता’, ‘लेटर बक्स’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’, ‘-रमंते तत्र देवता’, ‘बदला’ लिखी हैं। सन्1947 में ही अज्ञेय ने ‘शरणार्थी’ नामक संग्रह में इन कविताओं और कहानियों को प्रकाशित किया था। अज्ञेय ने इसकी भूमिका में यह भी स्पष्ट किया कि इन कहानियों और कविताओं की विषयवस्तु सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। अपने लेखकीय कौशल का प्रयोग करके उन्होंने विभाजन की त्रासदी को बहुत ही रचनात्मक ढंग से अज्ञेय ने प्रस्तुत किया।

एक अनजान व्यक्ति की आंखों में व्याप्त असामान्य अथाह घृणा को अज्ञेय जैसा मानव-हृदय व व्यवहार का पारखी कवि ही पहचान सकता था। यह घृणा ही इन रचनाओं का प्रेरणा स्रोत बनी, इसे बताते हुए उन्होंने लिखा कि ‘‘अक्तूबर 1947 के आरम्भ में दिल्ली जाने के लिए स्टेशन गया, तो पुल पार कर प्लेटफारम पर उतरते हुए सीढ़ियों पर पश्चिमी पंजाब के एक परिवार से मुठभेड़ हो गई। सबसे आगे पुरुष सिर झुकाए चल रहा था, पीछे स्त्री और दो बच्चे। मेरे ठीक सामने वे चढ़ रहे थे, मैं उतर रहा था। मेरे सामने पहुंचकर उस आदमी ने जैसे जान कर चौंक कर मुंह उठाकर मेरी ओर देखा। हमारी आंखें मिलीं तो मैं चौंका, क्योंकि सहसा संचित हो मानेवाली उतनी घनी भय-मिश्रित घृणा मैंने कभी किसी और आंखों की जोड़ी में नहीं देखी। यह भी है ‘मानव की आंख’! उसने शायद मुझे मुसलमान समझा था, क्योंकि मैं पाजामा पहने था और यहां का ‘हिन्दू पहिरावा’ धोती है।(वह स्वयं सलवार पहने था, यह और बात है!) इसी संबंध-सूत्र से खिंचा हुआ मेरा मन पहुँचा उससे सप्ताह भर पहले की घटना की ओर- सितम्बर के अंत में मैं ढाका गया था। वहां शहर घूमने की इच्छा प्रकट करने पर लोगों ने मुझे हिंदू मुहल्लों में घूमने को मना किया क्योंकि मैं पाजामा पहनता हूं और मुसलमान समझा जाऊंगा और मुसलमानों के मुहल्लों में जाने से इसलिए मना किया कि मैं लंबा-चौड़ा-गोरा होने के कारण पंजाबी मुसलमान समझा जाऊंगा और पूर्वी पाकिस्तान के लिए पश्चिमी पाकिस्तानी असह्य हो रहे हैं। यह भी कहा गया कि हिंदू तो घृणा से मुंह फेर कर ही रह जायेंगे, ढाका के मुसलमान छुरा भोंकने में दक्ष हैं और उन्हें बहुमत के कारण कोई भय भी नहीं। मैंने दोनों ही परामर्शों की उपेक्षा की और इस प्रकार दोनों की सच्चाई का अनुभव कर सका। छुरा तो कहीं न भोंका गया पर यह तो कई जगह हुआ कि मेरे गुजरने के बाद लोगों ने दबी किंतु घृणा से छमकती हुई आवाज में कहा, ‘पांजाबी!’
मशः मन और पीछे को चलता गया - सन् 1946 का सीमा प्रांत - अबटाबाद-कोहाट-पेशावर, अखबारों की सुर्खियां, नारे, रेल की यात्राएं, सैनिक अधिकारियों की बातचीत, जनता की उक्तियां, साम्प्रदायिक संस्थाओं की बैठकें - और मन का अनुसरण करते हुए घृणा के देश के नये-नये पथ-पगडंडियां मेरे सामने खुलती गईं।’’ ( शरणार्थी, पृ.-4)

विभाजन की त्रासदी को कथा में तो यशपाल, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा, सआदत हसन मंटो आदि लेखकों ने अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हैं। लेकिन अज्ञेय को छोड़कर शायद ही किसी कवि ने उस समय इस विषय पर कविता लिखी हो। यद्यपि ज्यों-ज्यों साम्प्रदायिकता की समस्या विकराल और विकट होकर उलझ रही है, त्यों-त्यों हिन्दी के कवि इसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति कर रहे हैं। विभाजन पर केन्द्रित अज्ञेय की रचनाएं उनके व्यक्तित्व के अनचिह्नें पहलुओं की ओर संकेत करती हुई उन पर लगे व्यक्तिवादिता के आरोपों का खंडन करती हैं।

‘मानव की आंख’ में ऐसी घृणा सामान्यतः नहीं हो सकती, बल्कि मानव हृदय में प्रेम का भाव मुख्यतः होता है। प्रेम को अपदस्थ करके जब घृणा अपना घर बना लेती है, तो इंसानियत का क्षरण होने लगता है। मनुष्य अपनी मनुष्यता त्यागकर हिंस्र पशु हो जाता है। इसे देखकर अज्ञेय का कवि हृदय हिल गया था।
कोटरों से गिलगिली घृणा यह झांकती है।
मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़-दृष्टि
जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं

और तमजात सब जंतुओं से
मानव का वैर है
क्योंकि वह सुत है प्रकाश का -
यदि इनमें न होता यह स्थिर तप्त स्पंदन तो?

मानव से मानव की मिलती है आंख, पर
कोटरों से गिलगिली घृणा झांक जाती है! (मानव की आंख)
धर्म और साम्प्रदायिकता का सहारा लेकर चालाक शासक वर्ग आम लोगों के जीवन से खेलता है। साम्प्रदायिक दंगों में सतही तौर पर धार्मिक विवाद दिखाई देते हैं। असल में उसके पीछे शासक वर्गों की क्रूर चालें होती हैं। अज्ञेय ने दूरदृष्टि से सही कहा था कि साम्प्रदायिक घृणा की फसल काटने के लिए अगली सदियां हैं और उसका परिणाम भुगत रहे हैं। आजादी के इतने सालों के बाद भी राजनीति जनता में आपसी विश्वास नहीं पैदा कर पाई, बल्कि साम्प्रदायिकता की आग में शहर दर शहर जल रहे हैं और पिछले दशकों में पूरी राजनीति का चरित्र बन गया है। साम्प्रदायिक राजनीति और नफरत लोकतंत्र को समाप्त कर रही है। उन्होंने सही पहचाना था कि साम्प्रदायिकता धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से उपजी है।
वैर की परनालियों से हंस-हंस के
हमने सींची जो राजनीति की रेती
उसमें आज बह रही खूं की नदियां हैं।

कल ही जिसमें ‘खाक-मिट्टी’ कह के हमने थूका था
घृणा की आज उसमें पक गई खेती
फस्ल काटने को अगली सदियां हैं। (पक गई खेती)

विभाजन की त्रासदी ने लोगों के जीवन को अस्थिर कर दिया था। कहीं पर भी ठहराव नहीं था। अपनी जान बचाने के लिए लोग दर दर भटक रहे थे। मानव जीवन के समक्ष जब अस्तित्व का ही संकट पैदा हो जाए, तो मानव गरिमा के सवाल पीछे छूट जाते हैं। अज्ञेय ने इस स्थिति को बहुत समग्रता से समेटा है। लोगों की आंकाक्षा और मनःस्थिति के बहुत ही मार्मिक चित्र उन्होंने खींचा है। अज्ञेय के काव्य बोध को यहीं समझा जा सकता है कि वे एक स्थिति के हर पक्ष को छूते हैं उनकी नजर से कुछ भी ओझल नहीं होता। स्थूल स्थिति और मनःस्थिति को जिस तरह से वे एकमएक कर देते हैं वह उनकी अद्भुत कला है, जो अन्य किसी कवि में शायद ही देखने को मिले। शहरों और गांवों की स्थिति में अन्तर को पहचानना और हृदय और पांव की प्रतिक्रियाओं को देखना आदि महत्वपूर्ण है।

शहरों में कहर पड़ा है और ठांव नहीं गांव में
अंतर में खतरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पांव में
त्राहि! त्राहि! शरण! शरण!
रुकते नहीं युगल चरण
थमती नहीं भीतर कहीं गूँज रही एकसुर रटना
कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें

आन! मान! वह तो उफान है गुरूर का -
पहली ज़रूरत है जान से चिपटना! (ठांव नहीं)


मनुष्य की ‘पहली जरुरत जान से चिपटना’ होकर रह जाए और ‘रुकेंगे तो मरेंगे’ की स्थिति हो जाए तो मानवीय संकट है। मनुष्य के सांस्कृतिक विकास व रुपान्तरण में स्थायित्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपनी जड़ों से उखाड़े व खदेड़ दिए लोगों के समक्ष अस्तित्व का सवाल खड़ा हो जाता है। भागना उनकी नियति बन जाती है।
भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहां -
रुकेंगे तो मरेंगे! (रुकेंगे तो मरेंगे)
विभाजन के बाद देश में जिस तरह का उन्माद दिखाई दिया उसकी तुलना अज्ञेय ने मिरगी के रोगी के साथ की है। मिरगी के रोगी की चेतना गायब हो जाती है और उसके हाथ-पैर अकड़ जाते हैं अपने कृत्यों पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं होता। मिरगी का दौरा है।
चेतना स्तिमित है।
किंतु कहीं भी तो नहीं दीखती शिथिलता-
तनी नसें, कसीं मुट्ठी, भिंचे दांत, ऐंठी मांस-पेशियां-
वासना स्थगित होगी किंतु झाग झर रहा है मुंह से!

आज जाने किस हिंस्र डर ने
देश को बेखबरी में डस लिया!
संस्कृति की चेतना मुरझ गया!
मिरगी का दौरा पड़ा, इच्छा शक्ति बुझ गयी!
जीवन हुआ है रुद्ध, मूर्छना की कारा में -
गति है तो ऐंठन है, शोथ है,
मुक्ति-लब्ध राष्ट्र की जो देह होती है - लोथ है -
ओठ खिंचे, भिंचे दांतों में से पूय झाग लगे झरने!
सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया है! (मिरगी पड़ी)

विभाजन के बाद आबादी के स्थानान्तरण के सवाल के साथ ही दलितों अछूतों के स्थानान्तरण का सवाल चर्चा में आया था। अज्ञेय ने ‘कहती है कविता’ में इसे व्यक्त किया, जो केवल ऐतिहासिकता को ही नहीं समेटे है, बल्कि मानवीयता की त्रासदी को भी उभारता है।
कहती है पत्रिका
चलेगा कैसे उनका देश?
मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत-
देखें अब कैसे उनका मैला ढुलता है!

‘मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत।’

अगर वहीं के वे हो जाते
पंगु देश के सही, मगर होते आजाद नागरिक।

होते द्रोही!
यह क्या कम है यहां लौट कर
जनम-जनम तक जुगों-जुगों तक
मिले उन्हें अधिकार, एक स्वाधीन राष्ट्र का
मैला ढोवें? (कहती है पत्रिका)

ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अभिशाप को सामने रखते हुए अज्ञेय ने सपाट तरीके से समस्या को प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि उसकी तमाम जटिलताओं के साथ रखा है। गौर करने की बात यह है कि अज्ञेय की सहानुभूति अछूतों के प्रति है जो उनके लेखकीय सरोकारों को उद्घाटित करती है।

मानव समाज में भाईचारे का सवाल हमेशा ही विचारणीय रहा है। प्राचीन समाजों में जाति, धर्म, भाषायी, नस्लीय, और क्षेत्र के आधार पर भाईचारे की सरणियां बनती रही हैं। लेकिन आधुनिक समाज में सब संकीर्णताओं को त्यागकर समतामूलक मानवीय मूल्यों के आधार पर ही सच्चे भाईचारे की निर्मिति संभव है। साम्प्रदायिकता मनुष्य के भाईचारे के आधार के तौर पर धर्म को प्राथमिकता देती है। जबकि अनुभवों से बार बार यह बात असत्य सिद्ध हो रही है। ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’ कहानी तथा ‘कहती है पत्रिका’ कविता में इस सवाल के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त किया है। धर्म के आधार पर भाईचारा कितना खोखला है अज्ञेय ने धर्म के आधार पर भाईचारा नहीं होता, बल्कि उसका आधार वर्गीय है।

हमने भी सोचा था कि अच्छी चीज है स्वराज
हमने भी सोचा था कि हमारा सिर
ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज
अपने ही बल के
अपने ही छल के
अपने ही कौशल के
अपनी समस्त सभ्यता के सारे
संचित प्रपंच के सहारे

जीना है हमें तो, बन सीने का सांप उस अपने समाज के
जो हमारा एक मात्र अक्षंतव्य शत्रु है
क्योंकि हम आज ही के मोहताज
उसके भिखारी शरणार्थी हैं। (जीना है बन सीने का सांप)


यह इधर बहा
मेरे भाई का रक्त
वह उधर रहा
उतना ही लाल
तुम्हारी बहन का
रक्त!
बह गया, मिलीं दोनों धरा
जाकर मिट्टी में हुई एक। (हमारा रक्त)

अज्ञेय बार बार आगाह करते हैं साम्प्रदायिकता के सांप से बचने की। वे जनता से आह्वान करते हैं, बार बार चेताते हैं कि जिसे हम अपना कहते हैं वह ही हमें डस लेगा। साम्प्रदायिकता चाहे हिन्दू हो या फिर मुस्लिम दोनों का चरित्र एक ही होता है और दोनों परस्पर दुश्मन नहीं बल्कि पूरक होती हैं और एक-दूसरे को फूलने फलने के लिए खुराक उपलब्ध करवाती हैं। साम्प्रदायिकता मनुष्य की इंसानियत को ढंक लेती है। अज्ञेय बार बार मनुष्य की इंसानियत को जगाने की बात करते हैं। मनुष्य की इंसानियत को जगाकर ही साम्प्रदायिकता के सांप को समाप्त किया जा सकता है।
किंतु भीतर कहीं
भेड़-बकरी, बाघ-गीदड़, सांप के बहुरूप के अंदर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी पड़पता है
सनातन मानव -
खरा इनसान -
क्षण भर रुको तो उसको जगा लें! (समानान्तर सांप-7)


धर्म, मर्यादा, परम्परा आदि की सब बातें उनका छल है, जिसकी आड़ में अपने नापाक इरादों को वे छुपाने की कोशिश करते हैं। प्रेमचन्द ने ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ लेख में कहा था कि ‘साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति का लबादा ओढ़कर आती है, क्योंकि उसे अपने नग्न रूप में आते हुए लज्जा आती है।‘ अज्ञेय ने ‘समानान्तर सांप-7’ कविता में साम्प्रदायिकता की आड़ में छिपी दरिदंगी, रुढ़िवादिता, स्वार्थों को उद्घाटित किया है।
नहीं है यह धर्म, ये तो पैंतरे हैं उन दरिदों के
रूढ़ि के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर
जो बिचारों पर झपट्टा मारतें हैं -
बडे़ स्वार्थों की कुटिल चालें!
साथ आओ -
गिलगिले ये सांप वैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो
यह मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुलें हैं केंचुलें हैं झाड़ दो! (समानान्तर सांप-7)

अज्ञेय ने अपनी कविताओं में साम्प्रदायिक शक्तियों की क्रूरता, बर्बरता, हिंस्रता, उन्माद और घृणा की सघनता को दर्शाने के लिए उनकी तुलना हिंस्र-पशुओं के साथ की है। उनके विवेकहीन कार्यों के लिए ‘मिरगी के रोगी’ रुपक रचा है।
साम्प्रदायिकता स्वतः स्फूर्त परिघटना नहीं है कि मानवता के क्षरण से पनपी हो, बल्कि इसके कारण सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने और ऐतिहासिक परिस्थितियों में हैं, वर्ग-स्वार्थों की टकराहट में हैं, संकीर्ण व सस्ती राजनीति में हैं। विभाजन से उपजी त्रासदी, शरणार्थियों की दयनीय हालत, धार्मिक उन्माद में पनपती घोर घृणा के वर्णन से मन्द पड़ती मानवता और शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति पैदा करने में अज्ञेय की कविताएं कामयाब होती हैं।

बाबूराव बागुल


बाबूराव बागुल
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मराठी के चिंतक-साहित्यकार बाबूराव बागुल ने अपने उपन्यास, कहानियों, कविताओं के साथ-साथ चिंतनपरक साहित्य-सृजन से दलित साहित्य को विस्तृत आधार तथा दृष्टि प्रदान की है। वे अपने वर्ग के प्रतिबद्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने दलित जीवन की पीड़ा को व्यक्त करने सचेत तौर दायित्व लिया। उन्होंने लिखा है कि "मैने दलितों की दुनिया अपने सिर पर धारण की है, इसलिए मेरा लेखन दलित लेखन है। मैंने उसमें जन्म लिया है इसलिए नहीं, बल्कि मैं उस ढँग से विचार करता हूँ इसलिए। जन्म से बड़ी सम्बद्धता विचारों की सम्बद्धता होती है।" अपने दायित्व के लिए उन्हें अपने ही समाज से भी लडऩा पड़ा, जातिगत अहंकार का आक्रोश झेलना पड़ा। उन्होंने दलित जीवन के अभिशापित पक्षों का उद्घाटन किया तो जाति को बदनाम करने का आरोप लगाकर उन्हें तथा उनके प्रकाशकों को दण्डित करने की कोशिशें हुई।
दलित साहित्य में और विशेषकर हिन्दी में दलित-उत्पीडऩ व बदहाली के केन्द्र गाँव रहे हैं, लेकिन बाबूराव बागुल की कहानियों में दलित आबादी का शहरी व महानगरीय अनुभव व्यक्त हुआ है। डा. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय गाँवों को उत्पीडऩ-शोषण के केन्द्र मानते हुए इससे बचने के तौर पर शहरों में जा बसने का आह्वान किया था। बाबूराव की कहानियाँ महानगरों में दलितों की दुर्दशा की कहानी कहती हैं। शोषण की व्यवस्था में दलित कहीं भी जाएँ, उनके लिए मैले का टोकरा तैयार है।
महानगरीय जीवन के नाम पर साहित्य में और विशेषकर हिन्दी में मध्यवर्ग का जीवन ही केन्द्र में ही रहा है। मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं और विडम्बनाओं पर तो सूक्ष्मता से विचार हुआ है। लेकिन महानगरों को अनिवार्य हिस्सा और बहुत बड़ी आबादी का विश्वसनीय चित्रण का अभाव ही रहा। भीष्म साहनी के बसन्ती जैसे उपन्यास के अलावा शायद ही कोई रचना इस विषय पर मिले। यहाँ भीष्म साहनी द्वारा प्रस्तुत इस वर्ग के चित्रण कितना विश्वसनीय है यह विषय नहीं है। झुग्गी झोंपडिय़ों के निम्र वर्ग के चरित्र आए भी हैं तो वे मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बना और नैतिक तौर पर गिरे हुए जीवन को उभारने के लिए ही।
बाबूराव बागुल ने 'विद्रोह,'जब मैने जात छुपाई', 'मरना सस्ता हो रहा है', 'रस्तेवाली', 'स्पर्धा', 'शिक्षा, 'गुंडा', 'बोव्हाड़ा' आदि ऐसी कहानियों में साहित्य से बिल्कुल अपरिचित दुनिया का परिचित करवाया है। ये कहानियां अपने में एक ऐसी दुनिया समेटे हैं जहां मानव जीवन स्वमेव ही त्रासदी है। बाबूराव की कहानियों का क्षेत्र बम्बई की झुग्गी झोंपडिय़ों का कष्टकारी जीवन है। पूंजीवादी शोषण ने इनकी मानवता को लील लिया है, किसी भी तरह से गुजारे लायक धन हासिल करना और जिन्दा रहना ही जीवन का पर्याय हो गया है। यहाँ पिता, माँ, पत्नी, बेटी के संबंध समाप्त हो जाते हैं। जहाँ पति के सामने ही पत्नी का बलात्कार करने की चेष्टा हो सकती है। जहाँ पिता अपनी बेटी को वेश्यावृति के लिए उकसा सकता है, बेटे को भिखारी बना सकता है। जहाँ कुछ पैसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य मरने तक का नाटक करने पर मजबूर है। जहाँ का प्रत्येक निवासी घोर निराशा व उदासी से गुजर रहा है। समाज के उपेक्षित व घृणा के शिकार व्यक्तियों के हृदय में मानवीय सलिला की धारा बह रही है, इसे बाबूराव उजागर करते हैं। बाबूराव बागुल अपने विशिष्ट अनुभव से ऐसे मौलिक चरित्रों की रचना करते है जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। ये अनुभव महानगरों की बसासत से लेकर उसमें 'फेंक दिए गए आदमी' के जीवन की संघर्ष गाथा को व्यक्त करती हैं। महानगर इन्हे ठिकाना भी दे रहा है और इनकी मानवीय गरिमा को भी कुचल रहा है।
'गुंडा' कहानी में इथोपियाई व्यक्ति जो अपने डील-डौल से भी असामान्य है। उसने कभी स्त्री से प्रेम नहीं किया, जो कभी रोया ही नहीं। उसमें मानवीय संवेदनाओं का जन्म ही नहीं हुआ। उसे समाज से दूर अंधेरे में सिर्फ अपराध करवाने के लिए रखा गया है। यह व्यक्ति बाहर से देखने में भयावह, कठोर है। वह सबका ध्यान तो आकर्षित करता है, पर सहानुभूति प्राप्त नहीं करता, बल्कि घृणा ही पाता है। वेश्या जब उसे अपना दर्द सुनाती है तो उसकी संवेदना जागृत होती है और वह बेहद संवेदनशील व मानवीय एहसास के साथ उपस्थित होता है। बाबूराव की लेखकीय सहानुभूति का स्पर्श पाकर वह एकदम खिल जाता है और एक यादगार चरित्र बन जाता है।
'रस्तेवाली' कहानी शोषण की इस सीढीनुमा व्यवस्था के त्रासद सच को उद्घाटित करती कहानी महानगरों के प्रवासी मजदूरों के एकाकी जीवन में कुछ समय के लिए राहत प्रदान करती 'स्ट्रीट प्रास्टीच्यूटस' के जीवन संघर्ष को उघाड़ती है। वेश्या में अगाध ममता है। विवशता में इस जीवन में आई ये इस काम के नखरे भी सीख रही हैं, लेकिन वे यहाँ ठगी जाती हैं। वेश्याओं के कोठे, संगीत आम शहरी के लिए रोमांचक हो सकते हैं, लेकिन 'रस्तेवाली' वेश्या में और कोठेवाली में बहुत फर्क है। यहाँ सआदत हसन मंटों की कहानियों की वेश्याओं की तरह प्रेमी के झूठे वायदों का इन्तजार करती, बिचौलियों-भडुवों के साथ नहीं, बल्कि अपनी देह की 'मजदूरी' के लिए ठगी जाती और घोर प्रतिस्पर्धा की शिकार वेश्याएं हैं। बाबूराव की विशेष बात यही है कि वे इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलते कि जिन्दा रहने के लिए इस जीवन में फंस तो जाती हैं, लेकिन उनकी आत्मा इतनी नहीं मरी कि वे मानवीय गुणों का त्याग कर दे। बल्कि इसके विपरीत जो कथित सम्मान का जीवन जी रहे हैं, असल में वे कितने गिरे हुए हैं इसका उद्घाटन भी कर देते हैं।
बाबूराव बागुल ने अपनी कहानियों में पूँजीवादी-शोषण और वर्ण-व्यवस्था के आपसी गठजोड़ को बहुत ही रचनात्मक ढंग से व्यक्त किया है। 'विद्रोह', 'जब मैने जात छुपाई' जैसी कहानियों में विशेष तौर पर प्रकट हुआ है। एक तरफ तो दलित शिक्षा और चेतना के कारण गंदगी-मैला उठाने के काम को छोड़ रहे हैं, लेकिन पँजीवादी शोषण और घोर गरीबी उनको इधर धकेल रही है। 'विद्रोह' कहानी के जय की मन:स्थिति व विवशता शहरी दलितों की विवशता को दर्शाती है। बेशक महानगर बन रहे हैं, लेकिन उच्च जातिगत संस्कार दलितों के प्रति उसी तरह नफरत करता है।
बाबूराव के साहित्य में यांत्रिक तरीके से अन्तर्जातीय विवाह करवाकर आदर्श स्थापित कर देना या दलित स्त्रियों पर बलात्कार दर्शाना ही नहीं है। उत्पीडऩ-शोषण के नाम पर यौन-शोषण का अतिरंजना पूर्ण वर्णन कि पाठक उसमें रस लेने लगे। वे शोषण को संश्लिष्टता में समझते और व्यक्त करते हैं। शोषण के रूपों के अन्त:संबंधों को उद्घाटित करने के कारण ही दलित जीवन यथार्थ का एकांगी नहीं, बल्कि विविध पक्षों को व्यक्त कर पाए। वे शोषण की प्रक्रियाओं को समझते हुए उनके सम्बन्धों को समग्रता में देखते थे। वे अस्पृश्यता को भावनात्मक अपील से दूर होने वाली समस्या नहीं, बल्कि उसके सामाजिक-आर्थिक आधार को समझते थे, इसीलिए व्यवस्था परिवर्तन के साथ जोडुकर देखते थे। उन्होंने लिखा "अस्पृश्यता का सिर्फ एहसास किया कि हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का विश्व-दर्शन हो जाता है। अस्पृश्यता का कारण (1)धर्म है (2)संस्कृति है (3)धर्म ग्रंथ है (4)सामाजिक संरचना है (5)धर्मावलंबी आर्थिक संरचना है। और इन सबसे पैदा हुई मानसिक संरचना है। यानी अस्पृश्यता नष्ट करनी हो तो इतनी व्यवस्थाएं बदलनी पड़ती हैं व नई निर्माण करनी होती है। और यह काम कितना बड़ा है?"
जातिगत विभाजन श्रमिकों में कभी वर्गीय एकता व भाईचारा बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा समाज का जातिगत विभाजन है। वर्ण-व्यवस्था के उच्च वर्गीय चरित्र को उद्घाटित करती कहानी 'जब मैंने जात छुपाई' स्थापित करती है कि सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण से एकजुट संघर्ष ही दलित मुक्ति का सही रास्ता है। जाति छुपाकर काम चलने वाला नहीं है।
सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण एक दूसरे के पूरक हैं। सामाजिक भेदभाव आर्थिक शोषण की वैधता की जमीन तैयार करता है तो आर्थिक शोषण दलितों के सामाजिक भेदभाव को। बाबूराव बागुल माक्र्सवाद और डा. आम्बेडकर के संघर्षों में कोई विरोधाभास नहीं देखते थे, जैसा कि बाद के दलित साहित्यकारों और माक्र्सवादी साहित्यकारों में दिखाई दिया। दलित आन्दोलन और माक्र्सवादी आन्दोलन के बीच जो खाई बढ़ी, उससे वे परेशान रहे। उन्होंने लिखा है कि ''माक्र्सवाद दीनता, दु:ख व दासता का विरोधी है। अत: जिस तरह यह पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का विरोध करता है, उसी तरह वह वर्णाश्रम विरोधी भी है। इसलिए वामपंथियों को अस्पृश्यता का सवाल उठाना चाहिए। यह सवाल एक आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संघर्ष पैदा करता है। भारतीय क्रांति की सच्ची लड़ाई अस्पृश्यता निराकरण से ही विकसित होने वाली है। इसलिए शूद्र, अतिशूद्र समाज ही केन्द्र में होना चाहिए। उसी को नेता मानना चाहिए।
मैं पूछ रहा था -- पूँजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध यानी किसका समर्थन करना? सर्वाधिक दलित-पीडि़त जनता का समर्थन करना। यानी ग्रामीण जनता का समर्थन करना। यानी वर्ण-व्यवस्था की निर्मित की हुई आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना का विरोध। यह विरोध जिस तरह जातिवाद को तोड़ता है, उसी तरह खेती, और समाज, संस्कृति की पुनर्रचना की मांग करता है। यह वर्ग-संघर्ष है। यही वर्ग-संघर्ष साहित्य में प्रकट होना चाहिए। महाड़ के पानी के लिए सत्याग्रह, कालाराम मंदिर सत्याग्रह, ये केवल पानी और मंदिर का सत्याग्रह नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक संघर्ष है, वर्ग संघर्ष है। यह संघर्ष लोकतंत्र का संस्कृतिकरण एवं सामाजीकरण चाहता है और ज्ञान-विज्ञान का समर्थन चाहता है। मनुष्य की प्रतिष्ठा की मांग करता है।"
बाबूराव बागुल की कहानियों की विशेष बात यह है कि वे बिल्कुल विपरीत स्थितियों से कहानी की शुरूआत करके सच्चाई के विभिन्न पहलुओं की परतें उतारते जाते हैं। पाठक के समक्ष एक जीवन्त संसार खुलता जाता है। और लेखक अपने मंतव्य से सहमत करते जाते हैं। 'मरना सस्ता हो रहा है' कहानी में दो लेखक का मित्र बम्बई पर कविता लिखना चाहता है। उसके दिमाग में बम्बई की छवि मुक्ति प्रदाता और संघर्षों-आन्दोलनों की भूमि के रूप में है। इसमें काफी सत्य भी है, लेकिन यह बम्बई का पूरा सच नहीं है। अपने मित्र को रेल की पटरियों के साथ बसी झुग्गी झोंपडिय़ों के जीवन को दर्शाता है तो उसकी वह रोंमाटिक छवि ध्वस्त हो जाती है और बम्बई के बारे में धारणा बदल जाती है। यह सिर्फ कहानी के चरित्र के साथ ही नहीं होता, बल्कि पाठक भी ऐसी छुपी हुए संसार से परिचित होता जाता है और इस वर्ग का आर्तनाद उसकी चेतना को झकझोरता है। शहरों की जो साफ सुथरी, चमक-दमक वाली खूबसूरत छवियाँ मीडिया में तैरती हैं और जिन्हें पूँजीवादी विकास की उपलब्धियों के तौर पर पेश किया जाता है, उनके बरक्स ऐसी दुनिया का चित्रण कथित विकास पर पश्रचिह्न लगाता है।
बाबूराव की कहानी में अनेक कहानियां छुपी होती हैं। यहाँ की सच्चाई कल्पना से भी ज्यादा चमत्कारिक है। इसका कारण यही है कि लेखक जिस जीवन को व्यक्त करता है, उससे गहरे में जुड़ा है। पात्र कहानी के ऐन बीच में आ बैठते हैं और अपने जीवन का सच बताने लगते हैं। जिस तरह एक समुदाय होता है उसी तरह कहानी में आ बैठता है। मानो कि बाबू राव की कलम में कैमरा लगा है। पूरी बस्ती के साथ-साथ उसमें रह रहे व्यक्ति विशेष के चित्र कहानियों में आते रहते हैं। इन चित्रों से कहानी की विश्वसनीयता बनती है और लेखक को भी जीवन से दूर नहीं जाने देते।
कहानियों के चरित्र अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व परिस्थितियों के साथ होते हैं। बाबूराव सचेत कहानीकार हैं जो दलितों-सर्वहारा की दशा को दर्शाकर जागरूकता व चेतना पैदा करना उनका उद्देश्य है इसलिए ऐसे चरित्रों को निर्मित करने वाली परिस्थितियाँ कभी ओझल नहीं होती। खोजी पत्रकार की तरह बाबूराव इनकी सच्चाई को बाहर ले आते हैं। 'विद्रोह' कहानी का जय, 'जब मैने जात छुपाई' का काशीनाथ, 'मरना सस्ता हो रहा है' का भीमू, रानू नागवेकर, बारकू, 'गुंडा' कहानी का इथोपियाई आदमी, 'शिक्षा' का लक्ष्मण जाधव, 'रस्तेवाली' की गिरिजा पाठक की चेतना व स्मृति में स्थायी तौर पर चिपक जाते हैं। ये चरित्र महान व आदर्श न होते हुए भी इसीलिए यादगार बन जाते हैं, क्योंकि ये अपनी स्थितियों को छोड़कर नहीं आते, बल्कि उनके साथ आते हैं। बाबूराव का मानना है कि "आदमी अच्छे होते हैं। बुरी होती है व्यवस्था। बुरी होती है परिस्थिति, जो मन, स्वभाव का निर्माण करती है। जीवन प्रवाह छिन्न-भिन्न कर डालती है। परिस्थिति और सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था अच्छी हो, निरोगी हो तो आदमी कितने खुशहाल, आनंदित होंगे।"
बाबूराव बागुल की प्रभावशाली रचनात्मक भाषा के प्रयोग ने इन चरित्रों को यादगार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जीवन्त भाषा से चरित्र एकदम जिन्दा चरित्रों की तरह कहानियों में मौजूद होते हैं। बहुत चुस्त और खुरदरी लेकिन जातगी से भरी भाषा के दर्शन यहाँ होते हैं। किसी चरित्र की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जो उपमाएं दी हैं उनसे जो चित्र बनता है वह उसे सही व्याख्यायित करता है। बाबूराव बागुल का कवि कहानी में आ जाता है। 'सांप देखकर शोर मचाने वाली मैना की तरह सिंगापुर की वेश्याओं ने शोर मचाया', 'सवन की फुहारों की तरह आनंदित रामचरण ने तेजी से कहा','बैल की तरह बैठे-बैठे गू-मूत करता है','उसकी मुट्ठी ताले की तरह कस गई। स्वाहा करने पर उठने वाली होम-कुंड की ज्वाला की तरह उसकी जीभ दांतों के दरवाजे की आड़े में ही पड़ी रही', 'नाल ठोंकने के लिए जैसे बैल को उलथा करते हैं वैसे दामू के उद्गार से गांव उलथा हो गया'।
बाबूराव बागुल का अपने चरित्रों के प्रति भावुकतापूर्ण रवैया नहीं, बल्कि आलोचनात्मक है। वे उनकी कमजोरियों को कहीं आदर्शीकृत नहीं करते, बल्कि उस पर फटकार लगाते हैं। जिन्दगी से इन चरित्रों को कोई मोह नहीं रह गया है, वे बिल्कुल पाश्विक स्तर पर जी रहे हैं और अपनी स्थितियों के प्रति उनके मन में कोई असंतुष्टि व आक्रोश नहीं है। उनके वर्णन में बाबूराव में प्रकृतवाद के रुझान भी दिखाई देते हैं।
बाबूराव का मानना है कि "सुंदरता, मनुष्य व उसके जीवन जीने के तरीके में होती है। प्रकृति सतत् सौंदर्यपूर्ण होती है, वैसे ही मनुष्य भी सुंदर होता है। लेकिन व्यवस्था, दु:ख, दीनता, दासत्व और कुरूपता पैदा करती है, सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए।" पूँजीवाद, साम्राज्यवाद और ब्राह्मणवाद के तिहरे शोषण ने मानवीय गरिमा छीन ली है। जीवन को सुन्दर बनाने के लिए व्यवस्था को आमूल चूल परिवर्तन की जरुरत है। बाबूराव की कहानियाँ मानवीय बोध जगाकर उसे तैयार करती हैं।

हाशिये के लोगों की औपन्यासिकता का विमर्श

हाशिये के लोगों की औपन्यासिकता का विमर्श
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर,हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

वीरेन्द्र यादव रचित 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' पुस्तक हिन्दी आलोचना और विशेषकर उपन्यास आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक काल के अन्तर्द्वन्द्वों को उपन्यास ने मुख्यत: व्यक्त किया है। अपने समय के विमर्शें को भी स्थान दिया है। यद्यपि आधुनिक काल में जन सामान्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं को साहित्य में प्रमुखता से स्थान मिला है और वही कृति कालजयी हो पाई है जिसमें जन सामान्य के जीवन संघर्ष के विश्वसनीय चित्र दिए हैं। सृजनात्मक लेखन के साथ साथ आलोचना भी जनपक्षधरता लिए रही है। विरेन्द्र यादव ने 'वर्चस्व की सत्ता' को विश्लेषित करने के लिए पिछले वर्षों में चर्चा में रहे हिन्दी व अंग्रेजी के उपन्यासों को अपना आधार बनाया है। उपन्यासों के साथ उपन्यास पठन व आलोचना के बारे में उनका ज्ञान उनकी विद्वता को तो दर्शाता ही है, उसमें से अपना नया रास्ता भी बनाया है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' दलित और स्त्री विमर्श के युग में नए ' कैनन फारमेशन' निर्मित करने के संकल्प से उपजी है। इसलिए इसमें एक पक्ष अपने विविध तर्कों के साथ प्रस्तुत है।

दो सौ साठ पृष्ठों की पुस्तक में कुल ग्यारह अध्याय है 'हिन्दी उपन्यास : एक सबाल्टर्न प्रस्तावना'; 'औपनिवेशिकता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय किसान: संदर्भ 'गोदान'; 'राष्ट्रवाद, मुस्लिम अलगाववाद और नारी प्रश्र : संदर्भ 'झूठा सच'; 'विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान : संदर्भ 'आधा गांव'; 'क्षुद्रताओं के महावृत्तान्त से महानताओं की क्षुद्रता तक : संन्दर्भ 'राग दरबारी'; 'एक बेदखल इतिहास का 'पाहीघर'; 'उपन्यास का जनतन्त्र और हाशिए का समाज'; 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी'; 'महज 'उन्माद' नहीं है फासीवाद'; 'घेरबन्दी के समय में 'आखिर कलाम'; 'दि इंडियन इंग्लिश नॉवेल और भारतीय यथार्थ'। इन अध्यायों के शीर्षकों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह उपन्यासों का समाजार्थिक अध्ययन है। उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ के जरिये राष्ट्रवाद, अलगाववाद, जनतन्त्र, फासीवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, ग्रामीण विकास पर विचार किया है। उपन्यासों के आधार पर समाज-राजनीति के सवालों पर विचार उपन्यास को ठोस आधार प्रदान करता है तो इस विमर्श को उपन्यास को विश्वसनीय आधार प्रदान करते हैं। विभिन्न समस्याओं व सवालो की जडें पहचानने के लिए सामाजिक जीवन में झांकना जरूरी है और उपन्यास जीवन को व्यक्त करता है। बिना जीवन अनुभवों के विमर्श शब्दों की जुगाली मात्र है तो बिना दृष्टि के अनुभव वर्णन अनुभववाद और प्रकृतवाद का शिकार होता है। उपन्यासकारों के लिए तथा उनके पाठकों के लिए उपन्यास में व्यक्त सवालों के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना निहायत जरूरी है। विरेन्द्र यादव की यह पुस्तक दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण साबित होगी।

हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों का पुनर्पाठ भी कहा जा सकता है। और यह पुर्नपाठ मात्र फिर से पढऩा नहीं है, बल्कि नए दृष्टिकोण से इन्हें देखा है। वीरेन्द्र यादव की दृष्टि उपेक्षितों की दृष्टि है। हिन्दी आलोचना और साहित्य अभी आभिजात्यता से ही जकड़ा हुआ है। साहित्य में उपेक्षितों के सवाल अथवा जीवन व्यक्त भी होता है तो वह आलोचना की नजर से छूट जाता है और विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। यदि कहीं उसका जिक्र होता भी है तो मात्र इसलिए कि लेखक की दृष्टि में विस्तार है और समाज का कोई छूटा नहीं है। लेकिन उसकी विचारधारात्मक कमजोरी अथवा कलात्मकता पर विचार नहीं होता। वीरेन्द्र यादव ने न तो दृष्टि से इसे ओझल होने दिया।

पिछले कई दशकों से भारतीय समाज और राजनीति में परम्परागत तौर पर हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों का समाज व राजनीति में दखल जोरदार ढंग से बढ़ा है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में प्रभावी हस्तक्षेप का ही परिणाम है कि साहित्य में भी इन वर्गों का स्वर प्रमुखता से उभरा है। इस साहित्य की सैद्धांतिकी भी निर्मित हो रही है। उपेक्षितों की दृष्टि से साहित्य का पाठ हो रहा है, साहित्य की पड़ताल हो रही है, जिससे साहित्य के अनछुये पक्षों की ओर ध्यान जा रहा है तथा साहित्य पाठ की सीमाएं भी इसके साथ ही रेखांकित हो रही हैं। वीरेन्द्र यादव की आलोचना-दृष्टि इसी परिवेश व इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द बनी है। पिछले दशकों में भारतीय राजनीति ने मुख्यत: साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, दलित, पिछड़ों व स्त्रियों की मुक्ति व भागीदारी के सवालों तथा वैश्वीकरण व विकास की विभिन्न धारणाओं, निम्र वर्ग तथा उच्च वर्ग के हितों की टकराहट के बीच ही अपना स्वरूप ग्रहण किया है। साहित्य में भी इन सवालों की अभिव्यक्ति हुई है, विशेषतौर पर उपन्यासों में तो हुई ही है।

प्रेमचन्द का लेखन विशेष तौर उनके उपन्यास किसी भी उपन्यास आलोचक के लिए प्रस्थान बिन्दू हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों के पाठ की भी विभिन्न व्याख्याएं सामने आई हैं। किसान जीवन के दस्तावेज के तौर पर भी पढ़ा गया और स्वतन्त्रता आन्दोलन के सवालों को व्यक्त करने के तौर भी, गांधीवाद की नजर से भी और माक्र्सवाद की नजर से भी। लेकिन सभी किस्म के आलोचकों की व्याख्याएं अपने समय की सीमाओं को नहीं लांघ पाई। विरेन्द्र यादव ने नए डा. रामविलास शर्मा तथा निर्मल वर्मा की दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित करते हुए 'गोदान' को नए संदर्भों में समझने की कोशिश की है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेतृत्व की दृष्टि, औपनिवेशिक शोषण तथा स्त्री सवालों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशि श की है। प्रेमचन्द के लेखन को लेकर पिछले दिनों कुछ दलित चिन्तकों व कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाए। विरेन्द्र यादव ने 'गोदान' पर विचार करते हुए इसका जबाब तलाशने की कोशिश की है और प्रेमचन्द को दलित के संबंध न केवल संवेदनशील पाया, बल्कि रेडिकल चित्र दिए हैं। दलित प्रसंग में ऐसी व्याख्याएं बहुत से भ्रमों को दूर करती है।

पिछले कुछ समय से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में नारी-विमर्श की खूब चर्चा है। नारी मुक्ति के सवालों को केन्द्र लाने वाली साहित्यिक रचनाएं आई हैं, जिसने नारी विमर्श को पुख्तगी दी है। नारी अनुभवों की विशिष्टता को उभारते हुए मानव-मुक्ति के संघर्ष के साथ जोड़कर देखा है। नारी विमर्श भी वर्ग-स्वार्थों से अछूता नहीं है, उसमें कोई एकरूपता नहीं है, बल्कि सामाजिक वर्गों के स्वार्थों को व्यक्त करने वाली दृष्टियां यहां मौजूद हैं। नारी विमर्श ने उच्च वर्ग तथा उच्च मध्यवर्ग की स्त्रियों के सवालों को लांघकर ग्रामीण और निम्र वर्गों की स्त्रियों के सवालों को तक अपना विस्तार किया है। पहले जहां कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही साहित्य के क्षेत्र में थी, लेकिन नारी-विमर्श व चेतना ने इस क्षेत्र को खोल दिया है और महिला लेखकों की एक पूरी जमात है जो नारी जीवन के विशिष्ट अनुभवों से लेकर समाज के बृहत्तर सवालों पर अपनी लेखनी चला रही हैं। विरेन्द्र यादव ने इस क्षमता को पहचानते हुए 'नारी का उपन्यास बनाम उपन्यास की नारी' में पांच लेखिकाओं के गीताजंलि श्री के 'तिरोहित', अलका सरावगी के 'शेष कादम्बरी', अनामिका के 'अवान्तर कथा', मैत्रेयी पुष्पा के 'विजन', मधु कांकरिया के 'खुले गगन के लाल सितारे' उपन्यासों पर चर्चा में स्त्री सवालों को केन्द्र रखते हुए उनकी विशिष्टता को रेखांकित किया है। उनकी पूरी रचनाशीलता में नारी सवाल के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करते हुए नारी-विमर्श को केन्द्र में रखा है। ''नारी अस्मिता के भिन्न धरातलों की पड़ताल करते ये उपन्यास भारतीय समाज में स्त्री-प्रश्र का कोलाज-सा रचते हैं। जहां 'तिरोहित 'स्त्री-सच का बेबाक बयान है। वहीं 'शेष कादम्बरी' का कथा-वृतान्त स्त्री-अस्मिता के पार जाकर अपने होने का अर्थ ढूंढता है। 'अवान्तर कथा 'यदि भावनात्मक खालीपन को भरने का रूमानी उपक्रम है, तो 'विजन' पुरुष सत्ता से टकराती कैरियर वुमेन का साहस-भरा पराक्रम। 'खुले गगन के लाल सितारे' की मणि के रूमान से रूमान तक के सफर की सार्थकता उपन्यास के उस स्त्री-विमर्श में है, जो धर्म की पुरुष-केन्द्रित सत्ता-संरचना का विखण्डन करती है।" पृ.-177

वीरेन्द्र यादव वर्तमान में मानवता के समक्ष चुनौती बनी समस्याओं की पड़ताल करते हैं। वे उन्हीं उपन्यासों को अपने विमर्श में शामिल करते हैं जिनमें अपने समाज के अन्तर्द्वन्द्वों तथा व्यापक सवालों को समेटा है। पिछले दशकों में दलित, स्त्री और साम्प्रदायिकता के सवाल मुख्यत: चर्चा के विषय रहे हैं। इनको केन्द्रित करते हुए रचनाएं भी प्रकाश में आई हैं। भारतीय जनतन्त्र व विकास की भेड़चाल के चलते हाशिये पर ढकेल दिए जाने को अभिशप्त समाज उपन्यास में केन्द्रीयता प्राप्त कर रहा है। भगवानदास मोरवाल का 'काला पहाड़', संजीव का 'जंगल जहां शुरू होता है', श्रीप्रकाश का 'जहां बांस फूलते हैं', तेजिन्दर का 'काला पादरी' की यहां विशेष चर्चा की गई है। आंचलिकता की रूढ़ आलोचना जो क्षेत्र विशेष की बोली और प्रकृति के वर्णन में ही अपनी पूरी ताकत लगा देती है उससे बाहर निकालकर जनता के बुनियादी सवालों को केन्द्र में लाने व उनके आधार पर इन उपन्यासों के पाठ की संकल्पना को स्थापित करती है, जो उपन्यास आलोचना को नए संदर्भ प्रदान करेगी। आंचलिक उपन्यासों की आलोचना से उस क्षेत्र विशेष के विकास के सवाल अनदेखे रहते रहे हैं और उनकी भाषा व प्रकृति के बारे में ही अधिकांश चर्चा होती रही है।

समाज की समस्याओं से काटकर किसी उपन्यास को पढऩा उसके महत्त्व को कम करता है और वह महज एक रचना तक ही सीमित रह जाती है। कमलाकान्त त्रिपाठी ने अपने 'पाहीघर' और 'बेदखल' उपन्यासों में अवध के जीवन को व्यक्त किया है। इतिहास दृष्टि जन-इतिहास को केन्द्र में लाती है। 1857 की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस आन्दोलन पर फिर से विचार विमर्श हुआ। 'पाहीघर' ने उसे एक नया आयाम प्रदान किया था। 'पाहीघर' उन गिने चुने उपन्यासों में हैं, जिसमें 1857 को अपना विषय वस्तु बनाया गया है। जन इतिहास को केन्द्र में लाने वाले इस उपन्यास पर मुख्य धारा की आलोचना ने अनदेखा ही किया है। विरेन्द्र यादव ने इसके विश्लेषण के जरिये जन इतिहास की ओर ध्यान खींचने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतिहास और उपन्यास के संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश करके उसकी सैद्धांतिकी की ओर भी दृष्टि दी है।

साम्प्रदायिकता की समस्या स्वतन्त्र भारत की विशेष तौर पर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर की प्रमुख समस्या है। इस समस्या को लेखकों ने अपनी सृजना का आधर बनाया है। विभाजन को आधार बनाकर कुछ बहुत ही बेहतरीन उपन्यासों की रचना हुई थी। साम्प्रदायिकता को केन्द्रित करने वाले कई उपन्यासों पर इस पुस्तक में विचार-चर्चा की गई है जो साम्प्रदायिकता को समझने की लेखक की तड़प को ही दर्शाता है। राही मासूम रजा का 'आधा गांव' सांझी संस्कृति को साम्प्रदायिक एकता का आधार दिखाया है। यहां हिन्दू और मुसलमान के उस तरह के दंगे नहीं, बल्कि चेतना को उद्घाटित किया है और इस चेतना के वर्गीय चरित्र को भी उद्घाटित किया है। मनुष्यविरोधी ब्राह्मणवादी संरचना को बेपर्दा करने तथा धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के उस पोले आधार को उजागर करते दूधनाथ सिंह के 'आखिरी कलाम' को भी विरेन्द्र यादव ने विचार का विषय बनाया है और साम्प्रदायिक चेतना के स्रोतों को समझने की कोशिश की है। ''आखिरी कलाम जहां धर्मोन्मादी फासीवाद की निर्माण प्रक्रिया से साक्षात् कराता है वहीं इसके मूल उत्स पर प्रहार का भी आवाहन करता है।" भगवान सिंह का 'उन्माद' अन्यथा हिन्दी में विशेष चर्चित नहीं हुआ, लेकिन वह एक ऐसी समस्या से जुड़ा है जो समकालीन भारत में सत्ता और संस्कृति के चरित्र तय कर रहा है। इसलिए वीरेन्द्र यादव ने उसकी पड़ताल करना उचित समझा। साम्प्रदायिकता और फासीवाद को ठोस स्वार्थों की पूर्ति करने राजनीतिक विचारधारा की अपेक्षा महज मानवीय मनोविकार तक सीमित करना समस्या को अलग ही परिप्रेक्ष्य में पेश करता है। ''भगवान सिंह साम्प्रदायिकता को निश्चित सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण का परिणाम न मानकर इसे मनोविकार व दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणतियों के रूप में प्रस्तुत करते हैं।" समस्या की गम्भीरता को समझते हुए तथा उपन्यास में उसके प्रस्तुतिकरण पर टिप्पणी सही है कि ''फासीवाद व साम्प्रदायिक दंगों की सरलीकृत व्याख्या से न तो साम्प्रदायिकता के उभार को समझा जा सकता है और न हिन्दुत्व के एजेंडे की पड़ताल। उपन्यासकार साम्प्रदायिकता को संकीर्ण राजनीतिक हितों से विछिन्न मानकर इसे मॉब बिहैवियर के रूप में विश्लेषित करता है।" साम्प्रदायिकता को समझने के लिए जीवन को समझना जरुरी है। जीवन में साम्प्रदायिक चेतना को आधार प्रदान करने वाले तत्त्वों की पहचान के बिना सरलीकरण करके इसे नहीं समझा जा सकता।



अंग्रेजी के भारतीय उपन्यासकारों की आभिजात्य व औपनिवेशिक दृष्टि का खुलासा करता लेख 'दि इंडियन इंग्लिश नावेल और भारतीय यथार्थ' लेख विशेषतौर पर इस पुस्तक की उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य आलोचना की पुस्तकों में अंग्रेजी के प्रति अनभिज्ञता ही है। बाजारवाद व उपभोक्ता संस्कृति ने ऐसे साहित्य को अपने विस्तार व जरुरत के लिए पैदा किया है। जिसमें समाज की वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है। इन उपन्यासों के माध्यम से ही भारतीय समाज और साहित्य की छवि पूरी दुनिया में बन रही है। भारत की वास्तविक जमीन से उपजा साहित्य अनदेखा हो रहा है। पिछले वर्षों में चर्चित भारतीय अंग्रेजी उपन्यास सलमान रुश्दी का 'मिडनाइट चिल्ड्रेन', पंकज मिश्रा का 'दि रोमांटिक्स', अरुधंती राय का 'दि गॉड ऑफ स्माल थिंग्स', विक्रम सेठ का 'ए सूटेबल ब्वाय', राजकमल झा का 'दि ब्लू बेडस्प्रेड' विशेषतौर पर चर्चित हुए।
''दरअसल सच यह है कि भारतीय अंग्रेजी औपन्यासिक लेखन की बाजारोन्मुखता उसे देशज यथार्थ से विमुख करती है, जो अभी तक हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में सुरक्षित है। अंग्रेजी के इस बाजारवाद की आहट अब हिन्दी साहित्य की दहलीज पर भी दस्तक देने लगी है। ... यह वास्तव में गम्भीर चिन्ता का विषय है कि भारतीय अंग्रेजी लेखन की सेक्स और मिथकीय रूढिय़ां एवं अन्य नकारात्मक प्रवृतियों का प्रवेश हिन्दी साहित्य में अब होने लगा है, लेकिन हिन्दी के बेहतर और श्रेष्ठ साहित्य के कोई लक्षण भारतीय अंग्रेजी उपन्यासकारों के बहुसंख्यक वर्ग पर नहीं दीखते। आखिर क्यों भारतीय विकास की जो पारम्परिक अवधारणा 'डूब'और 'इदम्नमम्'उपन्यासों के विमर्श के माध्यम से प्रश्रों के घेरे में है, वह अंग्रेजी उपन्यासों की चिन्ता का विषय नहीं बनती?" पृ.- 259
हिन्दी फिल्मों की तरह हिन्दी उपन्यास और कहानियां भी पश्चिम से नकल करते रहे हैं। जिनमें भारतीय समाज की सच्चाइयों से कोई लेना देना नहीं होता और बाजार की मेहरबानी से रातो-रात प्रतिष्ठित साहित्यकार व बेस्ट सेलर की श्रेणी में आ जाते हैं। जयदेव ने अपने अध्ययन में इसका काफी पहले खुलासा किया था। विरेन्द्र यादव ने भी इस ओर कुछ संकेत दिए हैं।

वीरेन्द्र यादव की विशेषता यह है कि वे जब एक उपन्यास का विश्लेषण करते हैं तो उनकी नजर में उपन्यास में आई मुख्य समस्या पर केन्द्रित अन्य उपन्यास ओझल नहीं होते। एक दूसरे की तुलना में विश्लेषण उपन्यास की विशिष्टता को उभारता है। जिन उपन्यासों के संदर्भ से विचार किया है वे निरपेक्ष रूप से वहां मौजूद नहीं हैं, बल्कि उस तरह के दूसरे उपन्यासों का जिक्र करते हुए उस उपन्यास की विशिष्टता को रेखांकित किया है। साम्प्रदायिकता के सवाल पर जहां 'झूठा सच' का विश्लेषण है, वहीं 'तमस' और 'आधा गांव' के साथ उसे जोड़कर देखा गया है। जब वे 'उन्माद' पर बात करते हैं तो यशपाल का 'झूठा सच', राही का 'आधा गांव', मंजूर एहतेशाम का 'सूखा बरगद', अब्दुल बिस्मिल्लाह का 'मुखड़ा क्या देखे' सामने रहते हैं। जब झूठा सच पर बात करते हैं तो राही का 'आधा गांव' और भीष्म साहनी का 'तमस' और जब वे 'आधा गांव' पर बात करते हैं तो 'राग दरबारी' उनकी नजरों से ओझल नहीं होता।

वीरेन्द्र यादव आलोचकों से भी टकराते हैं और उनकी दृष्टि की कमजोरियों को भी रेखांकित करते चलते हैं। और इस ढंग में वे उपन्यास के विमर्श को पलटते चलते हैं और जो महत्त्वपूर्ण पक्ष जाने-अनजाने आलोचकों की नजर से छूट गए या कि वे पकड़ नहीं पाए उनको रेखांकित करते चलते हैं। वीरेन्द्र यादव अध्यापकीय आलोचना की कमजोरी से पूर्णत: मुक्त हैं और अति बौद्धिकता से भी जो उपन्यास पर विचार करते करते यह भूल जाते हैं कि वे किसी उपन्यास पर बात कर रहें हैं। उसमें बहुत से अन्य उपन्यासों का जिक्र होगा बहुत से महान चिन्तकों का जिक्र भी होगा और साहित्यिक अपेक्षाओं-दायित्वों का जिक्र भी होगा, विचारधाराओं का जिक्र भी होगा जो पाठक पर आलोचक के ज्ञान की धाक तो जमा देगा, लेकिन उसमें जिस उपन्यास पर बात होगी उसका जिक्र सबसे कम होगा और एक समान्य समझ तो बढ़ेगी, लेकिन उपन्यास के बारे में कोई विशेष अध्ययन नहीं होगा। वीरेन्द्र यादव ने अपनी पूरी विचारधारात्मक समझ को केन्द्र में रखते हुए उपन्यास पर ही मूलत: केन्द्रित किया है। जो किसी उपन्यास के बारे में समग्र विचार रखता है। 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' में हिन्दी के सैंकड़ों उपन्यासों का जिक्र किया है, जिससे यह हिन्दी उपन्यास आलोचना की महत्त्वपूर्ण पुस्तक बनी है और उपेक्षितों-वंचितों के पक्ष को फोकस में लाती है। हिन्दी उपन्यास आलोचना को यह पुस्तक नए आयाम प्रदान करेगी।