फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ः मुक्ति और प्रेम के कवि
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
फैज़ अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ। उनके पिता का नाम सुल्तान मोहम्मद और माता का नाम सुल्तान फातिमा था। चार साल की उम्र में उनकी शिक्षा आरम्भ हुई और उन्होंने कुरान को कठस्थ कर लिया था। प्रथम श्रेणी में मैट्रिक और इंटरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से बी ए और अरबी में बी ए आनर्स की उपाधि प्राप्त की। 1933 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में और 1934 में ओरिंएटल कालेज, लाहौर से अरबी में एम.ए. की । 1935 में एम ए ओ कालेज, अमृतसर में अंग्रेजी अध्यापक के तौर पर कार्य आरम्भ किया। 1940 से 42 तक उन्होंने हेली कालेज, लाहौर में अंग्रेजी पढ़ाई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वे अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गए और 1947 तक कर्नल के पद तक पहुंचे। फौज से इस्तीफा देकर वे पाकिस्तान टाइम्स के संपादक के तौर परपत्रकारिता करने लगे। ।
1928 में उन्होंने पहली गज़ल और 1929 में पहली कविता लिखी। उन्होंने गज़लों व कविताओं केअलावा गद्य में भी लेखन किया। नक्शे-फरियादी, दस्ते-सबा, जि़न्दाँनामा, दस्ते-तहे-संग, सरे-वादिए-सीना, शामे-शहरे-याराँ, मेरे दिल मेरे मुसाफिर (कविता संग्रह), मीज़ान(लेख-संग्रह), सलीबें मेरे दरीचे में(पत्नी केनाम पत्र), मताए-लौहो-कलम (भाषण, लेख, साक्षात्कार, भूमिकाएँ, पत्र, नाटक आदि)
फैज अहमद फैज साहित्य चिंतक-सृजक के साथ-साथ साहित्य के सक्रिय कार्यकता थे, जिन्होंने साहित्यकारों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। एफ्रो-एशियन लेखक संघ की स्थापना सन् 1958 से ही जुड़े हुए थे। सन् 1973 में एफ्रो-एशियन लेखक सम्मेलन केअल्मा अता और 1978 में लुआंडा (अंगोला) अधिवेशन में हिस्सेदारी की। 1978 से उन्होंने इसकी पत्रिका लोटस का भी संपादन किया। ये बैरूत (लेबनान) में रहे। 1962 में लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
फैज अहमद फैज अपनी रचनाओं को बहुत अच्छे अंदाज में नहीं गाते या पढ़ते थे। उनकी उर्दू रचनाओं के पाठन में पंजाबी का लहजा रहता था। जिन्होंने उनको सुना है, वे बताते हैं कि उनका रचना पाठ कोई प्रभावशाली नहीं था। इसके बावजूद वे भारतीय उप-महाद्वीप में फरीद, बुल्लेशाह जैसे सूफियों की तरह से लोकप्रिय हुए। उर्दू शायरी में फैज ने एक नये अध्याय को जोड़ा। उर्दू को अन्तर्राष्ट्रीय जुबान बनाया। पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक थे। फैज़ की रचनाएं बेगम अख्तर, इकबाल बानो, नैयारा नूर, महदी हसन, जिया मोउनुद्दीन जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों ने गाईं, जिसकी वजह से वो आम लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे।
फैज अहमद फैज ने अपने सिद्धांतों के लिए सक्रिय व संघर्षशील जीवन की शुरुआत तो फासीवाद के खिलाफ दूसरे युद्ध में हिस्सा लेकर कर दी थी। आजादी के बाद वो पाकिस्तान में चले गए, जहां लोकतंत्र की स्थापना नहीं हुई। आजादी के लिए उनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। जिन्दगी भर वे संघर्ष करते रहे और तानाशाही शासन सत्ताओं का दमन झेलते रहे। 1951 में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तख्ता पलट के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। जेल का यह समय उनकी रचनात्मकता के लिए बहुत अहं साबित हुआ। वे किसी षडयन्त्र में शामिल नहीं थे। इसका खुलासा उन्होंने आप बीती में किया है। इस स्थिति को शेर के माध्यम से भी कहा है:
जिस बात का फसाने में कोई जिक्र नहीं था
वही बात उनकोसबसे नागवार गुजरी है
फैज ने जब लिखना शुरू किया तो साहित्यिक जगत में कला के लिए कला अथवा जीवन के लिए कला के बीच तीखी बहस थी। प्रगतिशील आन्दोलन में फैज का मुहावरा अनुपम था। उन्होंने रचनाओं से आन्दोलन का काम लिया है। अपनी रचनाओं के माध्यम से मेहनतकश जनता के संघर्षों को व्यक्त करते थे। उनकी रचनाएं मेहनतकश वर्ग को समर्पित हैं। उनकी कविताओं के सरोंकारों को उनकी इन्तिसाब नामक कविता से समझा जा सकता है। जिन्दगी से गहरा जुड़ाव उनकी कविता को जीवन प्रदान करता है। वे इंकलाब, संघर्ष, बदलाव की बात बड़े जोरदार ढँग से कहते थे पर प्रचारात्मक ढंग से बिल्कुल नहीं। शायरी उनके लिए सिर्फ वक्त काटने का जरिया ही नहीं थी, फैज ने प्रगतिशील मूल्यों और जीवन की अभिव्यक्ति के लिए कविता को चुना। उन्होंने लिखा है:
करे न जग में अलाओ तो शेर किस मकसद
करे न शह्र में जल-थल तो चश्मे-गम क्या है
फैज का रचनाकार अपने जीवन अनुभवों की पूंजी से रचना करता है, इसीलिए वह लाऊड होकर भी विश्वसनीय होती है। अपने युग के अन्तर्विरोधों, सत्ता की क्रूरताओं-अत्याचारों और मेहनतकश के संघर्षों-आन्दोलनों को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया और उस दायित्व को बखूबी निभाया। फैज शायरी में अपने निजी दुख-दर्दों-पीड़ाओं का रोना नहीं रोते, बल्कि अपनी तकलीफों और जमाने की तकलीफों को एकमएक कर देते हैं। अपने अनुभवों का विस्तार करके उनको आमजन की तकलीफों से गूंथ देने से फैज की कविताएं सामूहिक गान और आह्वान गीत की शक्ल अख्तियार करती जाती हैं और पाठक पर गहरा असर करती है। पाठक को अपने में इस कदर समा लेती हैं कि कविता का दर्द और पाठक के दर्द में कोई फर्क ही नहीं रह जाता। ऐसा नहीं कि वे अपनी इस उपलब्धि से वे अनजान थे, बल्कि ये कला उन्होंने सचेत तौर पर अपनाई थी। जो अपने ऊपर गुजरती है, तथा जो दुनिया पर गुजरती है उसे शायरी में ढालते हैं इसीलिए वह इतनी विश्वसनीय हो जाती है। लौह-ओ-कलम कविता में उनके संकल्प को देखा जा सकता है।
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रकम करते रहेंगे
असबाब-ए-गम-ए-इश्क बहम करते रहेंगे
वीरानी-ए-दौराँ पे रकम करते रहेंगे
मंजूर ये तल्खी, ये सितम हम को गवारा
दम् है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंग-ए-लब-ओ-रुखसार-ए-सनम करते रहेंगे
1951 में रावलपिण्डी षड्यन्त्र केस में उनको जेल में डाला गया। उनको पढऩे व लिखने की कोई सुविधा नहीं दी गई थी। तो उन्होंने लिखा:
मताए-लौह-ओ-कलम छिन गयी तो क्या गम है,
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हलकए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने।
अपने काव्य विकास के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि श्रमिक-आन्दोलनों और प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन से जुड़कर उन्होंने सीखा कि अपनी ज़ात को बाकी दुनिया से अलग करके सोचना अव्वल तो मुमकिन ही नहीं, इसलिए कि इसमें बहरहाल गर्दो-पेश के सभी तजुर्बात शामिल होते हैं और अगर ऐसा मुमकिन हो भी तो इंतहाई गैर सूदमंद फेल है कि इनसानी फर्द की ज़ात अपनी सब मुहब्बतों और कुदरतों, मुसर्रतों और रंजिशों के बावजूद, बोहत ही छोटी सी, बोहत ही महदूद और हकीर शै है। इसकी वुसअत और पहनाई का पैमाना तो बाकी आलमे मौजूदात से उसके ज़हनी और जज्बाती रिश्ते हैं, खास तौर से इनसानी बिरादरी के मुश्तरका दुख-दर्द के रिश्ते। चुनांचे गमे जानां और गमे दौरां तो एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। पृ.-208
आशावाद उनकी कविता का केन्द्रीय स्वर है। कविताओं के ताने-बाने में, उसकी पृष्ठभूमि में वह मौजूद रहता है। जीवन के सभी कष्टों को इसके सहारे ही हल्का करते हैं। वे दु:ख और निराशा को अस्थायी मानते हैं और जीवन में भरोसा करते हैं। जेल जीवन की सघन पीड़ा को भी उन्होंने यह समझकर सह लिया। यह आशावाद उनको जीवनी शक्ति प्रदान करता है। उनका आशावाद हवाई-लफ्फाज़ी पर नहीं, बल्कि ठोस जमीन पर है। जन संघर्षों की जमीन से जुड़ा यह आशावाद एक शासन सत्ताओं की दहशत को, उनके खौफ को चाक-चाक कर देता है। उन्होंने अपने वतन में बार-बार बर्बर व दमनकारी फौजी शासन को देखा और जनता की आजादी व स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनते देखा। उनका आशावाद यथार्थ की जमीन को नहीं छोड़ता।
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नजऱ चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फिऱाक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं
जिन्दगी से अलग कविता का उनके लिए कोई अर्थ ही नहीं था। फैज़ ने कबीर की तरह से आह्वान किए हैं। उनके आह्वानों में एक मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और संकल्पों के प्रति प्रतिबद्धता मिलकर एक विश्वसनीय आह्वान बना देते हैं। ये आह्वान किसी उपदेशवादी की तरह नहीं रहते, बल्कि क्रांतिकारी साथी के हो जाते हैं। जीवन व क्रांति में गहरा विश्वास कविता में आशावाद को एक नई शक्ल में ढाल देता है। इसी आशावाद से ही वे अपने जीवन में भी ऊर्जा ग्रहण करते हैं। पाकिस्तान जैसे देश में जहां अधिकतर समय फौजी बूटों के नीचे जनता की आजादी को रौंदा गया है। उसमें इस तरह की आशा व आह्वानपरक कविताओं का बहुत महत्त्व है।
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले, सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
फैज ने बहुत ही निजी कविताएं भी लिखी हैं। अपने बहुत ही करीबी सम्बन्धियों पर। अपनी बेटी मुनीजा की सालगिरह पर, अपने भाई की मृत्यु पर या इसी तरह के निजी जीवन की घटनाओं पर भी। लेकिन वे अपने अनुभवों को दुनिया के अनुभवों के साथ इस तरह से जोड़ते हैं कि वह निजी अनुभव सामूहिक बन जाता है। निजता और सामूहिकता केएक साथ फैज की कविताओं में दर्शन होते हैं। अनुभव की कसक कविता की विश्वनीयता बनाती है तो दृष्टि उसे विश्व से जोड़ देती है।
मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गये साथ मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गये जाते जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आखिऱी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
फैज को दिल का दौरा पड़ा तो उन्होंने उस समय कविता लिखी जो उस मन:स्थिति को व्यक्त करती है। यहां वे निराश दिखाई देते हैं, लेकिन फैज की खूबी यही है कि वे कोई बनावटी, कृत्रिम और ओढ़ा हुआ यथार्थ नहीं रचते, बल्कि खास संदर्भ की स्थिति व मानसिकता उसका हिस्सा होती है। विभिन्न मनस्थितियों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति का रहस्य यही है।
इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आखिरी फेरा
शाखों में खयालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर न एक महर, न इक रबत, न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया न कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त कड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है
फै़ज़ की गज़लों और कविताओं में अकेलेपन का दर्द बहुत गहरा है। उनकी रचनाओं में तन्हाई का बहुत जिक्र है। उन्होंने तन्हाई की पीड़ा को सहा है। उनकी जेल की तन्हा जिन्दगी और अपने वतन से निर्वासन ने संवेदनशील कवि के दिल पर गहरा असर छोड़ा। इसे ही कवि ने अपनी पूंजी बना लिया। और शासन सत्ताओं द्वारा दी गई तन्हाई को उनके अत्याचारों को उद्घाटन करने का माध्यम बनाया। और इस तन्हाई के अंधेरे को निजाम के अंधेरे में बदल कर इसे बदलने का संकल्प जोड़ दिया। फैज़ के बदलाव व क्रांतिकारी बदलाव में अटूट आस्था व आशा के साथ मिलकर अलग ही रंग पैदा किया है।
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तन्हाई का
दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनां
आज अरज़ा हो कोई हफऱ शनासाई का
दीदा-ओ-दिल को संभालो कि सरे-शामे-फिऱाक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का
फैज सही मायनों में अन्तराष्ट्रीय कवि थे, उनकी नज़र से विश्व में घटित हो रही घटनाएं ओझल नहीं होती। अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के कारण ये घटनाएं उनकी रचनाओं में जगह बना लेती हैं। वियतनाम के बच्चे पर, ईरानीतुल्बा पर, अफ्रीका पर, लिखी रचनाओं से पता चलता है कि उनकी चिन्ता में पूरा विश्व था। वे बैरुत में रहे और फिलिस्तीनियों के पक्ष में रचनाएं भी लिखीं। बैरुत की बर्बादी पर उन्होंने कविता लिखीः
चांद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उसके आने की।
फैज को हिन्दुस्तान से बेहद प्यार था, वे यहां पले-बढ़े भी थे। उनके कितने ही दोस्त हिन्दुस्तान में थे। वे हिन्दुस्तान का भारत और पाकिस्तान में राजनीतिक विभाजन को मन से कभी स्वीकार कर पाए थे। भारत पाकिस्तान के शासक दोनों देशों की जनता के बीच खाई पैदा कर रहे थे। फैज़ इससे बहुत चिन्तित और दुखी थे। उन्होंने जान लिया था कि यह समस्या शासकों द्वारा पैदा की गई है और दोनों देशों की आम जनता के हित में नहीं है। इसीलिए इसका समाधान वे मेहनतकश के शासन यानी क्रांति में देखते थे। कहा करते थे कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के मसलों का हल एक ही है कि दोनों मुल्कों में मेहनतकश अपने हक हासिल करके अपने-अपने बागीचों के माली बन जायें। इसके बाद इन मुल्कों के बीच नफरत का ज़हर, और उसको पैदा करने वाले वे मसले जो निदान चाहते हैं, जिनकी आड़ में सामराजी आजकल फौलादी पंजे, वतने-अज़ीज़ की रगों में पैवस्त कर रहे हैं, यूं गायब हो जायेंगे जैसे देवों-परियों के किस्सों में हीरो के इस्म पढऩे पर दैत्य, भूत और दूसरी बलाएं पलक झपकते ग़ायब हो जाती हैं।
फैज अहमद फैज के दिल में भारत के विभाजन की टीस बहुत गहरी थी। विभाजन केवल देश का ही नहीं हुआ थ, केवल आबादियों ने अपने स्थान ही नहीं बदले थे, बल्कि संस्कृति व इतिहास की सांझी विरासत का भी बंटवारा हो रहा था। दिलों में नफरत के बीज पड़ रहे थे और कट्टरपंथी खुलकर अपना खेल खेल रहे थे। विशेषतौर पर पाकिस्तान में भाषा, संस्कृति व साहित्य के मामले में संकीर्णता और कट्टरता घर करती जा रही थी, जिससे फैज़ का दुखी होना स्वाभाविक था। पाकिस्तान के शासकों की भाषायी और क्षेत्रीय संकीर्णता के कारण ही पाकिस्तान को एक बार फिर विभाजन से गुजरना पड़ा। पाकिस्तान के कट्टर व संकीर्ण शासक वहां की जनता में विश्वास नहीं बन पाये। लोकतांत्रिक शक्तियों और जनवादी आन्दोलनों को कुचलते रहे। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक प्रणाली के आधार पर ही बहु-भाषिक और बहु-सांस्कृतिक समाज को एक रखा जा सकता है। साझी सांस्कृतिक परम्पराओं के आधार पर भाईचारा निर्मित करने के समर्थक फैज को गहरा आघात लगा। सन् 1971 में ढाका से वापसी के बाद उन्होंने इस संबंध में गजल लिखीः
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नजऱ में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मह्र सुब्हें मह्रबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद
उनसे जो कहने गए थे ‘फ़ैज़’ जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
फैज असल में मुक्ति के कवि हैं और मुक्ति के कवि में प्रेम का अहसास बहुत गहरा होता है। सामन्ती समाज की वर्जनाओं और बंधनों को तोडऩे के लिए इसका सहारा लिया गया है। अपनी क्रांतिकारी शायरी केलिए प्रेम की शब्दावली व प्रतीकों का प्रयोग किया। ‘रकीब’ का जैसा प्रयोग फैज ने किया वैसा शायद ही किसी ओर शायर ने इससे पहले किया होगा। क्योंकि यह रकीब वतन का रकीब है, इसलिए यहाँ कोई द्वेष नहीं, बल्कि प्रेम है। एक प्रेमी की बात प्रेमी ही समझ सकता है। फैज़ की रुमानियत फैज की रचनाओं की आन्तरिक बनावट में है। यह कोई टेक्नीक के तौर पर नहीं अपनाई गई, बल्कि उनकी जिंदगी के हालात से निकली है। इसीलिए यह एक ताकत बनकर आती है। प्रेम उनकी कविता का अनिवार्य अंग है। यह रोमांस ही है जो उनको एक ताजगी देता है। पाब्लो नेरुदा की तरह उनकी कविताओं में प्रेम और इंकलाब इस तरह से गुंथे हुए हैं कि उनको अलग नहीं किया जा सकता। फैज़ की शायरी में इंकलाब और इश्क गंगा-जमुना की जलधारा के समान साथ-साथ बहते हैं और एकमएक हो जाते हैं। एक दूसरे से ताकत पाते हैं।
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मयकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के
इक फुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोजग़ार के
भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फ़ैज़
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के
फैज की शायरी की जडें क्लासिकी-परम्परा में गहरे तक पैठी हैं। उन्होंने क्रातिकारियों की जमीन पर, वली दकनी की जमीन पर ग़जलें लिखकर अपना अदबी रिश्ता कायम किया। सौदा, गालिब आदि प्रख्यात शायर कवि उनकी रचनाओं के बीच होते हैं। फैज अहमद फैज ने परम्परा से कविता के औजारों प्रतीकों, शब्दों का सहारा लिया उनका खूब प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने इनका अर्थ बदल दिया और नए संदर्भों में प्रयोग किया। यह फैज की दिल के दर्द की सघनता थी कि उसने परम्परागत अर्थों को बदल दिया। रूढ़ और परम्परागत अर्थ से निकलकर अर्थ नया अर्थ देने लगे। फैज़ अपने कविता के प्रतीकों के प्रयोग के प्रति सचेत थे।
क्लासिकी-परम्परा के साथ-साथ फैज अहमद फैज की कविताओं की जड़ें लोक में गहरे तक हैं। इसीलिए उनके तराने और गज़लें लोकगीत की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ जाती हैं। इनकी कविताओं में एक आर्कषण है जो अपने पाठकों को अपने से बांध लेती है। लोक चेतना को फैज़ ने बहुत खूबसूरत ढंग से प्रयोग किया और उसकी व्याख्या को बदल दिया। उन्होंने धर्म की शब्दावली का भी प्रयोग किया, लेकिन उनको नया संदर्भ दे दिया। अपने उसूलों और विचारों के साथ उनका प्रयोग किया। कुरान में भी इस तरह के विचार हैं, लेकिन फैज़ की गज़ल में कोई भाग्यवाद, अंधविश्वास पैदा नहीं होता, बल्कि एक यह दुनिया को बदलने के संघर्ष में एक विश्वास पैदा करती है। ये विचार सदियों से लोगों की चेतना का हिस्सा हैं, इसलिए उनके माध्यम से अपनी बात कहने का तरीका फैज़ ने विकसित किया। जब कोई कवि शब्दों के अर्थ ही बदल डाले, तो उसकी प्रभाव क्षमता को समझा जा सकता है। यह शक्ति उसकी कविता की विश्वसनीयता से आती है। फैज की जो प्रसिद्ध रचनाएं हैं, विशेषतौर पर उनमें इस तरह के प्रयोग मिलते हैं।
हम देखेंगे
लाजि़म है के: हम भी देखेंगे
वो: दिन के: जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गराँ
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अह्ले-हिकम केसर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्जे-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अह्ले-सफा, मर्दूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजि़र भी
उट्ठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
फैज़ धर्म की विचारधारा और कर्मकाण्डों में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन काबा, खुदा, बुत आदि धार्मिक शब्दावली का प्रयोग शासकों केही खिलाफ पड़ता है। सूफियों के अनलहक का विचार आदि वे सब परम्पराओं को अपने बीच लेकर चलते थे। धार्मिक शब्दावली के माध्यम से अपने जमाने की बात कहने का शिल्प फैज़ ने विकसित किया। इसका वे इसीलिए प्रयोग कर पाए कि वे पाठक या श्रोता उनके दिमाग में हमेशा उपस्थित होता है। संप्रेषण की जद्दोजहद में ही लोक-परम्परा, जिसमें धार्मिक-चेतना भी शामिल है, को अपने मंतव्य के अनुरूप ढाल पाए हैं। विचारधारा, दृष्टिकोण और पाठकीयता को वे बहुत महत्व देते थे।
फैज की कविताएं अपने परिवेश की उपज हैं, न केवल विषय वस्तु में, बल्कि शिल्प में भी क्लासिकी व लोक परम्परा में गहरे से जुड़े होने के बावजूद अपने वर्तमान संदर्भ के औजारों से ही जन्म लेती है। अपने आस पास की वस्तुएं ही उनकी कविता के औजार बन जाते हैं। फैज की कविता अपने आस-पास से गहरे से जुड़ी रहती है। जहां वे पैदा होती हैं उस माहौल को अपने साथ लेकर चलती हैं। मसलन जब वे जेल में थे और कविताएं लिखते तो जेल की चारदीवारी, रोशनदान, जंजीरे, हथकडिय़ां आदि कविताओं का हिस्सा बन जाते थे। उनके जेल का अकेलापन था, पीड़ा थी, भविष्य का स्वप्न और कविता की समृद्ध परम्परा का गहरा ज्ञान था जिसका खूब प्रयोग करते थे।
फैज़ की शायरी और कविताएं अपने पाठकों और श्रोताओं से संवाद रचाती हैं। वे एक तरफा बयान नहीं बनती, बल्कि उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाते हुए उनकी चेतना का हिस्सा हो जाती हैं और उनकी तरफ से बोलने लगती हैं। उनकी रचनाओं का पाठक या श्रोता पेसिव नहीं हो सकता। वह अपने पाठकों और श्रोताओं में जोश पैदा करती है। उनकी इंसानी गरिमा को उभारती है, उनको जगा जाती है, अहसासों को ताजा करती है। फैज की रचनाएं अपने पाठकों की जिंदगी में नया अर्थ भरती हैं। फैज की शायरी में पाठक को पकड़कर रखने की ताकत है। वह अपने पाठक से दोस्ती कायम कर लेती है।
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
फैज़ अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ। उनके पिता का नाम सुल्तान मोहम्मद और माता का नाम सुल्तान फातिमा था। चार साल की उम्र में उनकी शिक्षा आरम्भ हुई और उन्होंने कुरान को कठस्थ कर लिया था। प्रथम श्रेणी में मैट्रिक और इंटरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से बी ए और अरबी में बी ए आनर्स की उपाधि प्राप्त की। 1933 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में और 1934 में ओरिंएटल कालेज, लाहौर से अरबी में एम.ए. की । 1935 में एम ए ओ कालेज, अमृतसर में अंग्रेजी अध्यापक के तौर पर कार्य आरम्भ किया। 1940 से 42 तक उन्होंने हेली कालेज, लाहौर में अंग्रेजी पढ़ाई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वे अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गए और 1947 तक कर्नल के पद तक पहुंचे। फौज से इस्तीफा देकर वे पाकिस्तान टाइम्स के संपादक के तौर परपत्रकारिता करने लगे। ।
1928 में उन्होंने पहली गज़ल और 1929 में पहली कविता लिखी। उन्होंने गज़लों व कविताओं केअलावा गद्य में भी लेखन किया। नक्शे-फरियादी, दस्ते-सबा, जि़न्दाँनामा, दस्ते-तहे-संग, सरे-वादिए-सीना, शामे-शहरे-याराँ, मेरे दिल मेरे मुसाफिर (कविता संग्रह), मीज़ान(लेख-संग्रह), सलीबें मेरे दरीचे में(पत्नी केनाम पत्र), मताए-लौहो-कलम (भाषण, लेख, साक्षात्कार, भूमिकाएँ, पत्र, नाटक आदि)
फैज अहमद फैज साहित्य चिंतक-सृजक के साथ-साथ साहित्य के सक्रिय कार्यकता थे, जिन्होंने साहित्यकारों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। एफ्रो-एशियन लेखक संघ की स्थापना सन् 1958 से ही जुड़े हुए थे। सन् 1973 में एफ्रो-एशियन लेखक सम्मेलन केअल्मा अता और 1978 में लुआंडा (अंगोला) अधिवेशन में हिस्सेदारी की। 1978 से उन्होंने इसकी पत्रिका लोटस का भी संपादन किया। ये बैरूत (लेबनान) में रहे। 1962 में लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
फैज अहमद फैज अपनी रचनाओं को बहुत अच्छे अंदाज में नहीं गाते या पढ़ते थे। उनकी उर्दू रचनाओं के पाठन में पंजाबी का लहजा रहता था। जिन्होंने उनको सुना है, वे बताते हैं कि उनका रचना पाठ कोई प्रभावशाली नहीं था। इसके बावजूद वे भारतीय उप-महाद्वीप में फरीद, बुल्लेशाह जैसे सूफियों की तरह से लोकप्रिय हुए। उर्दू शायरी में फैज ने एक नये अध्याय को जोड़ा। उर्दू को अन्तर्राष्ट्रीय जुबान बनाया। पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक थे। फैज़ की रचनाएं बेगम अख्तर, इकबाल बानो, नैयारा नूर, महदी हसन, जिया मोउनुद्दीन जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों ने गाईं, जिसकी वजह से वो आम लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे।
फैज अहमद फैज ने अपने सिद्धांतों के लिए सक्रिय व संघर्षशील जीवन की शुरुआत तो फासीवाद के खिलाफ दूसरे युद्ध में हिस्सा लेकर कर दी थी। आजादी के बाद वो पाकिस्तान में चले गए, जहां लोकतंत्र की स्थापना नहीं हुई। आजादी के लिए उनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। जिन्दगी भर वे संघर्ष करते रहे और तानाशाही शासन सत्ताओं का दमन झेलते रहे। 1951 में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तख्ता पलट के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। जेल का यह समय उनकी रचनात्मकता के लिए बहुत अहं साबित हुआ। वे किसी षडयन्त्र में शामिल नहीं थे। इसका खुलासा उन्होंने आप बीती में किया है। इस स्थिति को शेर के माध्यम से भी कहा है:
जिस बात का फसाने में कोई जिक्र नहीं था
वही बात उनकोसबसे नागवार गुजरी है
फैज ने जब लिखना शुरू किया तो साहित्यिक जगत में कला के लिए कला अथवा जीवन के लिए कला के बीच तीखी बहस थी। प्रगतिशील आन्दोलन में फैज का मुहावरा अनुपम था। उन्होंने रचनाओं से आन्दोलन का काम लिया है। अपनी रचनाओं के माध्यम से मेहनतकश जनता के संघर्षों को व्यक्त करते थे। उनकी रचनाएं मेहनतकश वर्ग को समर्पित हैं। उनकी कविताओं के सरोंकारों को उनकी इन्तिसाब नामक कविता से समझा जा सकता है। जिन्दगी से गहरा जुड़ाव उनकी कविता को जीवन प्रदान करता है। वे इंकलाब, संघर्ष, बदलाव की बात बड़े जोरदार ढँग से कहते थे पर प्रचारात्मक ढंग से बिल्कुल नहीं। शायरी उनके लिए सिर्फ वक्त काटने का जरिया ही नहीं थी, फैज ने प्रगतिशील मूल्यों और जीवन की अभिव्यक्ति के लिए कविता को चुना। उन्होंने लिखा है:
करे न जग में अलाओ तो शेर किस मकसद
करे न शह्र में जल-थल तो चश्मे-गम क्या है
फैज का रचनाकार अपने जीवन अनुभवों की पूंजी से रचना करता है, इसीलिए वह लाऊड होकर भी विश्वसनीय होती है। अपने युग के अन्तर्विरोधों, सत्ता की क्रूरताओं-अत्याचारों और मेहनतकश के संघर्षों-आन्दोलनों को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया और उस दायित्व को बखूबी निभाया। फैज शायरी में अपने निजी दुख-दर्दों-पीड़ाओं का रोना नहीं रोते, बल्कि अपनी तकलीफों और जमाने की तकलीफों को एकमएक कर देते हैं। अपने अनुभवों का विस्तार करके उनको आमजन की तकलीफों से गूंथ देने से फैज की कविताएं सामूहिक गान और आह्वान गीत की शक्ल अख्तियार करती जाती हैं और पाठक पर गहरा असर करती है। पाठक को अपने में इस कदर समा लेती हैं कि कविता का दर्द और पाठक के दर्द में कोई फर्क ही नहीं रह जाता। ऐसा नहीं कि वे अपनी इस उपलब्धि से वे अनजान थे, बल्कि ये कला उन्होंने सचेत तौर पर अपनाई थी। जो अपने ऊपर गुजरती है, तथा जो दुनिया पर गुजरती है उसे शायरी में ढालते हैं इसीलिए वह इतनी विश्वसनीय हो जाती है। लौह-ओ-कलम कविता में उनके संकल्प को देखा जा सकता है।
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रकम करते रहेंगे
असबाब-ए-गम-ए-इश्क बहम करते रहेंगे
वीरानी-ए-दौराँ पे रकम करते रहेंगे
मंजूर ये तल्खी, ये सितम हम को गवारा
दम् है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे
बाकी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंग-ए-लब-ओ-रुखसार-ए-सनम करते रहेंगे
1951 में रावलपिण्डी षड्यन्त्र केस में उनको जेल में डाला गया। उनको पढऩे व लिखने की कोई सुविधा नहीं दी गई थी। तो उन्होंने लिखा:
मताए-लौह-ओ-कलम छिन गयी तो क्या गम है,
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हलकए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने।
अपने काव्य विकास के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि श्रमिक-आन्दोलनों और प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन से जुड़कर उन्होंने सीखा कि अपनी ज़ात को बाकी दुनिया से अलग करके सोचना अव्वल तो मुमकिन ही नहीं, इसलिए कि इसमें बहरहाल गर्दो-पेश के सभी तजुर्बात शामिल होते हैं और अगर ऐसा मुमकिन हो भी तो इंतहाई गैर सूदमंद फेल है कि इनसानी फर्द की ज़ात अपनी सब मुहब्बतों और कुदरतों, मुसर्रतों और रंजिशों के बावजूद, बोहत ही छोटी सी, बोहत ही महदूद और हकीर शै है। इसकी वुसअत और पहनाई का पैमाना तो बाकी आलमे मौजूदात से उसके ज़हनी और जज्बाती रिश्ते हैं, खास तौर से इनसानी बिरादरी के मुश्तरका दुख-दर्द के रिश्ते। चुनांचे गमे जानां और गमे दौरां तो एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। पृ.-208
आशावाद उनकी कविता का केन्द्रीय स्वर है। कविताओं के ताने-बाने में, उसकी पृष्ठभूमि में वह मौजूद रहता है। जीवन के सभी कष्टों को इसके सहारे ही हल्का करते हैं। वे दु:ख और निराशा को अस्थायी मानते हैं और जीवन में भरोसा करते हैं। जेल जीवन की सघन पीड़ा को भी उन्होंने यह समझकर सह लिया। यह आशावाद उनको जीवनी शक्ति प्रदान करता है। उनका आशावाद हवाई-लफ्फाज़ी पर नहीं, बल्कि ठोस जमीन पर है। जन संघर्षों की जमीन से जुड़ा यह आशावाद एक शासन सत्ताओं की दहशत को, उनके खौफ को चाक-चाक कर देता है। उन्होंने अपने वतन में बार-बार बर्बर व दमनकारी फौजी शासन को देखा और जनता की आजादी व स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनते देखा। उनका आशावाद यथार्थ की जमीन को नहीं छोड़ता।
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नजऱ चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फिऱाक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं
जिन्दगी से अलग कविता का उनके लिए कोई अर्थ ही नहीं था। फैज़ ने कबीर की तरह से आह्वान किए हैं। उनके आह्वानों में एक मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और संकल्पों के प्रति प्रतिबद्धता मिलकर एक विश्वसनीय आह्वान बना देते हैं। ये आह्वान किसी उपदेशवादी की तरह नहीं रहते, बल्कि क्रांतिकारी साथी के हो जाते हैं। जीवन व क्रांति में गहरा विश्वास कविता में आशावाद को एक नई शक्ल में ढाल देता है। इसी आशावाद से ही वे अपने जीवन में भी ऊर्जा ग्रहण करते हैं। पाकिस्तान जैसे देश में जहां अधिकतर समय फौजी बूटों के नीचे जनता की आजादी को रौंदा गया है। उसमें इस तरह की आशा व आह्वानपरक कविताओं का बहुत महत्त्व है।
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले, सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
फैज ने बहुत ही निजी कविताएं भी लिखी हैं। अपने बहुत ही करीबी सम्बन्धियों पर। अपनी बेटी मुनीजा की सालगिरह पर, अपने भाई की मृत्यु पर या इसी तरह के निजी जीवन की घटनाओं पर भी। लेकिन वे अपने अनुभवों को दुनिया के अनुभवों के साथ इस तरह से जोड़ते हैं कि वह निजी अनुभव सामूहिक बन जाता है। निजता और सामूहिकता केएक साथ फैज की कविताओं में दर्शन होते हैं। अनुभव की कसक कविता की विश्वनीयता बनाती है तो दृष्टि उसे विश्व से जोड़ देती है।
मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गये साथ मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गये जाते जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आखिऱी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
फैज को दिल का दौरा पड़ा तो उन्होंने उस समय कविता लिखी जो उस मन:स्थिति को व्यक्त करती है। यहां वे निराश दिखाई देते हैं, लेकिन फैज की खूबी यही है कि वे कोई बनावटी, कृत्रिम और ओढ़ा हुआ यथार्थ नहीं रचते, बल्कि खास संदर्भ की स्थिति व मानसिकता उसका हिस्सा होती है। विभिन्न मनस्थितियों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति का रहस्य यही है।
इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आखिरी फेरा
शाखों में खयालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर न एक महर, न इक रबत, न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया न कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त कड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है
फै़ज़ की गज़लों और कविताओं में अकेलेपन का दर्द बहुत गहरा है। उनकी रचनाओं में तन्हाई का बहुत जिक्र है। उन्होंने तन्हाई की पीड़ा को सहा है। उनकी जेल की तन्हा जिन्दगी और अपने वतन से निर्वासन ने संवेदनशील कवि के दिल पर गहरा असर छोड़ा। इसे ही कवि ने अपनी पूंजी बना लिया। और शासन सत्ताओं द्वारा दी गई तन्हाई को उनके अत्याचारों को उद्घाटन करने का माध्यम बनाया। और इस तन्हाई के अंधेरे को निजाम के अंधेरे में बदल कर इसे बदलने का संकल्प जोड़ दिया। फैज़ के बदलाव व क्रांतिकारी बदलाव में अटूट आस्था व आशा के साथ मिलकर अलग ही रंग पैदा किया है।
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तन्हाई का
दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनां
आज अरज़ा हो कोई हफऱ शनासाई का
दीदा-ओ-दिल को संभालो कि सरे-शामे-फिऱाक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का
फैज सही मायनों में अन्तराष्ट्रीय कवि थे, उनकी नज़र से विश्व में घटित हो रही घटनाएं ओझल नहीं होती। अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के कारण ये घटनाएं उनकी रचनाओं में जगह बना लेती हैं। वियतनाम के बच्चे पर, ईरानीतुल्बा पर, अफ्रीका पर, लिखी रचनाओं से पता चलता है कि उनकी चिन्ता में पूरा विश्व था। वे बैरुत में रहे और फिलिस्तीनियों के पक्ष में रचनाएं भी लिखीं। बैरुत की बर्बादी पर उन्होंने कविता लिखीः
चांद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उसके आने की।
फैज को हिन्दुस्तान से बेहद प्यार था, वे यहां पले-बढ़े भी थे। उनके कितने ही दोस्त हिन्दुस्तान में थे। वे हिन्दुस्तान का भारत और पाकिस्तान में राजनीतिक विभाजन को मन से कभी स्वीकार कर पाए थे। भारत पाकिस्तान के शासक दोनों देशों की जनता के बीच खाई पैदा कर रहे थे। फैज़ इससे बहुत चिन्तित और दुखी थे। उन्होंने जान लिया था कि यह समस्या शासकों द्वारा पैदा की गई है और दोनों देशों की आम जनता के हित में नहीं है। इसीलिए इसका समाधान वे मेहनतकश के शासन यानी क्रांति में देखते थे। कहा करते थे कि हिंदुस्तान पाकिस्तान के मसलों का हल एक ही है कि दोनों मुल्कों में मेहनतकश अपने हक हासिल करके अपने-अपने बागीचों के माली बन जायें। इसके बाद इन मुल्कों के बीच नफरत का ज़हर, और उसको पैदा करने वाले वे मसले जो निदान चाहते हैं, जिनकी आड़ में सामराजी आजकल फौलादी पंजे, वतने-अज़ीज़ की रगों में पैवस्त कर रहे हैं, यूं गायब हो जायेंगे जैसे देवों-परियों के किस्सों में हीरो के इस्म पढऩे पर दैत्य, भूत और दूसरी बलाएं पलक झपकते ग़ायब हो जाती हैं।
फैज अहमद फैज के दिल में भारत के विभाजन की टीस बहुत गहरी थी। विभाजन केवल देश का ही नहीं हुआ थ, केवल आबादियों ने अपने स्थान ही नहीं बदले थे, बल्कि संस्कृति व इतिहास की सांझी विरासत का भी बंटवारा हो रहा था। दिलों में नफरत के बीज पड़ रहे थे और कट्टरपंथी खुलकर अपना खेल खेल रहे थे। विशेषतौर पर पाकिस्तान में भाषा, संस्कृति व साहित्य के मामले में संकीर्णता और कट्टरता घर करती जा रही थी, जिससे फैज़ का दुखी होना स्वाभाविक था। पाकिस्तान के शासकों की भाषायी और क्षेत्रीय संकीर्णता के कारण ही पाकिस्तान को एक बार फिर विभाजन से गुजरना पड़ा। पाकिस्तान के कट्टर व संकीर्ण शासक वहां की जनता में विश्वास नहीं बन पाये। लोकतांत्रिक शक्तियों और जनवादी आन्दोलनों को कुचलते रहे। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक प्रणाली के आधार पर ही बहु-भाषिक और बहु-सांस्कृतिक समाज को एक रखा जा सकता है। साझी सांस्कृतिक परम्पराओं के आधार पर भाईचारा निर्मित करने के समर्थक फैज को गहरा आघात लगा। सन् 1971 में ढाका से वापसी के बाद उन्होंने इस संबंध में गजल लिखीः
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नजऱ में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मह्र सुब्हें मह्रबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद
उनसे जो कहने गए थे ‘फ़ैज़’ जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
फैज असल में मुक्ति के कवि हैं और मुक्ति के कवि में प्रेम का अहसास बहुत गहरा होता है। सामन्ती समाज की वर्जनाओं और बंधनों को तोडऩे के लिए इसका सहारा लिया गया है। अपनी क्रांतिकारी शायरी केलिए प्रेम की शब्दावली व प्रतीकों का प्रयोग किया। ‘रकीब’ का जैसा प्रयोग फैज ने किया वैसा शायद ही किसी ओर शायर ने इससे पहले किया होगा। क्योंकि यह रकीब वतन का रकीब है, इसलिए यहाँ कोई द्वेष नहीं, बल्कि प्रेम है। एक प्रेमी की बात प्रेमी ही समझ सकता है। फैज़ की रुमानियत फैज की रचनाओं की आन्तरिक बनावट में है। यह कोई टेक्नीक के तौर पर नहीं अपनाई गई, बल्कि उनकी जिंदगी के हालात से निकली है। इसीलिए यह एक ताकत बनकर आती है। प्रेम उनकी कविता का अनिवार्य अंग है। यह रोमांस ही है जो उनको एक ताजगी देता है। पाब्लो नेरुदा की तरह उनकी कविताओं में प्रेम और इंकलाब इस तरह से गुंथे हुए हैं कि उनको अलग नहीं किया जा सकता। फैज़ की शायरी में इंकलाब और इश्क गंगा-जमुना की जलधारा के समान साथ-साथ बहते हैं और एकमएक हो जाते हैं। एक दूसरे से ताकत पाते हैं।
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मयकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के
इक फुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोजग़ार के
भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फ़ैज़
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के
फैज की शायरी की जडें क्लासिकी-परम्परा में गहरे तक पैठी हैं। उन्होंने क्रातिकारियों की जमीन पर, वली दकनी की जमीन पर ग़जलें लिखकर अपना अदबी रिश्ता कायम किया। सौदा, गालिब आदि प्रख्यात शायर कवि उनकी रचनाओं के बीच होते हैं। फैज अहमद फैज ने परम्परा से कविता के औजारों प्रतीकों, शब्दों का सहारा लिया उनका खूब प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने इनका अर्थ बदल दिया और नए संदर्भों में प्रयोग किया। यह फैज की दिल के दर्द की सघनता थी कि उसने परम्परागत अर्थों को बदल दिया। रूढ़ और परम्परागत अर्थ से निकलकर अर्थ नया अर्थ देने लगे। फैज़ अपने कविता के प्रतीकों के प्रयोग के प्रति सचेत थे।
क्लासिकी-परम्परा के साथ-साथ फैज अहमद फैज की कविताओं की जड़ें लोक में गहरे तक हैं। इसीलिए उनके तराने और गज़लें लोकगीत की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ जाती हैं। इनकी कविताओं में एक आर्कषण है जो अपने पाठकों को अपने से बांध लेती है। लोक चेतना को फैज़ ने बहुत खूबसूरत ढंग से प्रयोग किया और उसकी व्याख्या को बदल दिया। उन्होंने धर्म की शब्दावली का भी प्रयोग किया, लेकिन उनको नया संदर्भ दे दिया। अपने उसूलों और विचारों के साथ उनका प्रयोग किया। कुरान में भी इस तरह के विचार हैं, लेकिन फैज़ की गज़ल में कोई भाग्यवाद, अंधविश्वास पैदा नहीं होता, बल्कि एक यह दुनिया को बदलने के संघर्ष में एक विश्वास पैदा करती है। ये विचार सदियों से लोगों की चेतना का हिस्सा हैं, इसलिए उनके माध्यम से अपनी बात कहने का तरीका फैज़ ने विकसित किया। जब कोई कवि शब्दों के अर्थ ही बदल डाले, तो उसकी प्रभाव क्षमता को समझा जा सकता है। यह शक्ति उसकी कविता की विश्वसनीयता से आती है। फैज की जो प्रसिद्ध रचनाएं हैं, विशेषतौर पर उनमें इस तरह के प्रयोग मिलते हैं।
हम देखेंगे
लाजि़म है के: हम भी देखेंगे
वो: दिन के: जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गराँ
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अह्ले-हिकम केसर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्जे-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अह्ले-सफा, मर्दूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजि़र भी
उट्ठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
फैज़ धर्म की विचारधारा और कर्मकाण्डों में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन काबा, खुदा, बुत आदि धार्मिक शब्दावली का प्रयोग शासकों केही खिलाफ पड़ता है। सूफियों के अनलहक का विचार आदि वे सब परम्पराओं को अपने बीच लेकर चलते थे। धार्मिक शब्दावली के माध्यम से अपने जमाने की बात कहने का शिल्प फैज़ ने विकसित किया। इसका वे इसीलिए प्रयोग कर पाए कि वे पाठक या श्रोता उनके दिमाग में हमेशा उपस्थित होता है। संप्रेषण की जद्दोजहद में ही लोक-परम्परा, जिसमें धार्मिक-चेतना भी शामिल है, को अपने मंतव्य के अनुरूप ढाल पाए हैं। विचारधारा, दृष्टिकोण और पाठकीयता को वे बहुत महत्व देते थे।
फैज की कविताएं अपने परिवेश की उपज हैं, न केवल विषय वस्तु में, बल्कि शिल्प में भी क्लासिकी व लोक परम्परा में गहरे से जुड़े होने के बावजूद अपने वर्तमान संदर्भ के औजारों से ही जन्म लेती है। अपने आस पास की वस्तुएं ही उनकी कविता के औजार बन जाते हैं। फैज की कविता अपने आस-पास से गहरे से जुड़ी रहती है। जहां वे पैदा होती हैं उस माहौल को अपने साथ लेकर चलती हैं। मसलन जब वे जेल में थे और कविताएं लिखते तो जेल की चारदीवारी, रोशनदान, जंजीरे, हथकडिय़ां आदि कविताओं का हिस्सा बन जाते थे। उनके जेल का अकेलापन था, पीड़ा थी, भविष्य का स्वप्न और कविता की समृद्ध परम्परा का गहरा ज्ञान था जिसका खूब प्रयोग करते थे।
फैज़ की शायरी और कविताएं अपने पाठकों और श्रोताओं से संवाद रचाती हैं। वे एक तरफा बयान नहीं बनती, बल्कि उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाते हुए उनकी चेतना का हिस्सा हो जाती हैं और उनकी तरफ से बोलने लगती हैं। उनकी रचनाओं का पाठक या श्रोता पेसिव नहीं हो सकता। वह अपने पाठकों और श्रोताओं में जोश पैदा करती है। उनकी इंसानी गरिमा को उभारती है, उनको जगा जाती है, अहसासों को ताजा करती है। फैज की रचनाएं अपने पाठकों की जिंदगी में नया अर्थ भरती हैं। फैज की शायरी में पाठक को पकड़कर रखने की ताकत है। वह अपने पाठक से दोस्ती कायम कर लेती है।