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कबीर


कबीर
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
''पूरब दिशा हरि को बासा
पश्चिम अलह मुकामा।"1

'कबीर पोंगडा अलह राम का
सो गुरु पीर हमारा।"2

कबीर दास मध्यकालीन भारत के प्रसिद्घ संत हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया तथा ब्राह्मणवादी धार्मिक आडम्बरों की आलोचना की। इनकी प्रसिद्घ रचनाएं 'बीजक' में संकलित 'साखी', 'सबद', और 'रमैनी' हैं।
कबीरदास के जन्म के बारे में समाज में कई तरह की बातें प्रचलित हैं। माना जाता है कि कबीरदास एक विधवा ब्राह्मणी के घर पैदा हुए, जिसने लोकलाज के डर से उसे तालाब के किनारे छोड़ दिया वहां से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उसका पालन-पोषण किया। इस लोक प्रचलित मान्यता से लगता है कि कबीर का जीवन सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसके अनुसार उनका जन्म एक ब्राह्मणी के यहां हुआ और उनका लालन पालन मुसलमान परिवार में हुआ, इस तरह कबीर दोनों की परम्पराएं लिए हुए थे। कबीर की कविता और उनका जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। कबीर अपने विचारों में क्रान्तिकारी रहे, उन्होंने अपना यह स्वभाव मरते समय भी नहीं छोड़ा।3 कबीर दास का अपना कहना है कि वे बनारस में पैदा हुए और मगहर में उनकी मृत्यु हुई।

''सकल जन्म शिवपुरी गंवाया ,मरती बेर मगहर उठ धाया।"
इसमें महत्त्व की बात यह है जिस तरह कबीरदास मनुष्यों के बीच कोई भेद स्वीकार नहीं करते थे उसी प्रकार वे शहरों और जगहों की ऊंच नीच को भी स्वीकार नहीं करते थे। हिन्दुओं में मान्यता है कि बनारस में मरने वाले को मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाले को फिर से गधे का जन्म मिलता है। इस अंधविश्वास को तोडऩे के लिए ही कबीर ने बनारस शहर छोड़ दिया और हेय समझे जाने वाले शहर मगहर में आकर बस गए।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा।।
अर्थात काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हुए हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा अहसान है? इसलिए कबीर जो जन्म भर काशी में रहे और बादशाहों की व पण्डों व मुल्लाओं की संकीर्णता औैर नफरत काशी से बाहर नहीं निकाल सकी मरने से पहले अपनी इच्छा से मगहर वासी हो गए।
कबीर की मृत्यु के बारे में जो किंवदन्ती है, वह कबीर के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि है। कहा जाता है कि कबीर की मृत्यु पर हिन्दुओं और मुसलमानों में विवाद हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनके शरीर को जलायेंगे तो मुसलमान कहते थे कि उनको दफनाया जाएगा। कहा जाता है कि इस का निबटारा इस तरह हुआ कि कबीर का शरीर फूलों के ढेर में बदल गया जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बराबर बराबर बांट लिया। इस तरह दोनों के रिवाज भी पूरे हो गए ओर उनका झगड़ा भी मिट गया और मरने के बाद भी कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की परम्परा बनाई। अब मगहर में इमली के पेड़ के नीचे कबीर की समाधि है, बनारस में मठ है जो कबीर चौरा के नाम से मशहूर है।
कबीर समाज के निम्न वर्ग से ताल्लुक रखते थे, उनकी कविता का न सिर्फ कथ्य निम्न वर्ग के पक्ष में था, बल्कि उसका रूप भी नवीन था। परम्परागत तौर पर मान्य काव्यशास्त्र के सिद्घांतों को उनकी कविता चुनौती देती थी, इसलिए उनकी कविता के कवित्व का अध्ययन नहीं हुआ और उनकी कविता को 'भक्ति साधना' का 'बाई प्रोडक्ट' मान लिया गया।
''कबीर ने अपनी वाणी को 'सुरझावनहारी' कहा है, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में इहलाम या उपदेश 'सुरझावनहारे' होते हैं। कबीर के यहां ऐसा नहीं है कि सभी प्रश्नों के उत्तर तैयार हैं और कविता का उपयोग केवल शंका-समाधन या जनता के बीच प्रचार के लिए करना है। कबीर की कविता धर्मगुरु या पैगम्बर का इहलाम नहीं, संघर्षशील, संवेदनशील मनुष्य की आवाज है।
वह मनुष्य कभी अपनी उपलब्धि पर खुशी से नाच रहा है, तो कभी विरह में तड़प रहा है। कहीं वह सामाजिक अन्याय के विरुद्घ प्रचंड आक्रोश की प्रतिमूर्ति है तो कहीं विरह व्याकुल स्त्री की। कहीं वह उलटबांसी के जरिए लोगों को छेड़ रहा है, तो कहीं लोगों की जडता पर जाग और रो रहा है। कहीं वह हर बात को अनुभव और विवेक की कसौटी पर परखने की सलाह देता मित्र है तो कहीं गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण की घोषणा करता साधक। कहीं वह स्वयं नारी का रूप धरण करता विरह व्याकुल भक्त है, कहीं नारी मात्र को नर्क का द्वार ठहराता विरक्त। ऐसे 'विरोधभास' कबीर के कवित्व के अचूक प्रमाण हैं। अपने मन की बातों को मन में ही रख सपाट-सा उपदेश देते रहना कबीर को नहीं आता। वे आप तक बनी बनाई उपदेश माला नहीं पहुंचाते, बल्कि अपनी कविता का आत्मसंघर्ष पहुंचाते हैं। ऐसे आत्मसंघर्ष और विरोधभासों से हममें से कौन नहीं गुजरता? सुबह से शाम तक हमारे मन में परस्पर विरोधी कितने भाव आते हैं। समर्थ कवि भाव को सेंसर नहीं करता। यह काम उपदेशक का है। कवि की वाणी में तो आप परस्पर विरोधी अनुभूतियों को मुखरित होते सुनते हैं - उसके केन्द्रीय भाव के स्वरों में।
कबीर की कविता का केन्द्रीय भाव प्रेम, विविध और विरोधी भावदशाओं में मूर्त होता है। उनकी वाणी केवल सतत मिलन का उल्लास नहीं; वह केवल सतत विरह की वेदना भी नहीं। कबीर का प्रेम आशा-आशंका, मिलन-विरह, उल्लास-वेदना के छोरों को छूता है। कबीर की कविता जानती है: प्रेम अपने विस्तार में जीवनदाता है और गहराई में जानलेवा। प्रेम सहज संभव है और सर्वथा अप्राप्य भी। इस अनुभव से जो वंचित रहा, वह मनुष्य है कहां? वह तो साक्षात श्मशान है - 'जिहि घटि विरह न संचरै, सो घट सदा मसान।' .... संदर्भ प्रेम हो या मृत्यु, अंतस्साधना हो या सामाजिक आलोचना कबीर की कविता जबर्दस्त भावोन्मेष करती है। उसकी संवेदना प्रेम, मृत्यु और सामाजिक वास्तव - इन तीनों बुनियादी सत्यों का गहरा अनुसंधान करती है। यह अनुसंधान पाठक/श्रोता को भी भागीदार बना लेता है - क्योंकि कबीर की भाषा अमूर्त उपदेश की भाषा नहीं है। वह केवल व्यंग्य और आक्रामकता तक सीमित भाषा ही नहीं है। वह व्यंग्य के साथ-साथ सटीक निरीक्षण और व्यंजक बिंब निर्माण की भाषा भी है। कहीं कबीर की भाषा सादगी और सीधे तथ्यकथन से भावोन्मेष करते हैं तो कहीं व्यंजक बिंबो के सहारे।"4
''कबीर ने अपने युगीन समाज पर पूर्णरूपेण दृष्टिपात करके देखा कि अमीर और प्रभावशाली परिवार के लोगों का गहरा विश्वास था कि औरों पर शासन करना या उन पर प्रभुत्व जमाना उनका जन्मसिद्घ अधिकार था। वह विचार उस काल के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को समर्थन देने के लिए पैदा हुए थे और बढ़ रहे थे। कबीर क्रोधित होकर गरीबों और अमीरों के बीच गहरी असमानता और अन्तर्विरोध् को देखकर कहते हैं कि एक मोती-मुक्ताओं से सुसज्जित रेशमी कपड़े पहने हैं, धवल सज्जा पर सोते हैं और दूसरा गुदड़ी पहनता है। अमीरों के द्वारों पर नौबत बजती है, उनके द्वार पर हाथी झूमते हैं जबकि निर्धन व्यक्ति मिट्टी की टूटी झोंपड़ी में रहता है। कबीर ने शरीर की उपमा एक मिट्टी की झोंपड़ी से की है और आत्मा को निर्धन गरीब व्यक्ति माना है। गरीबों के प्रति अपनी गहरी संवेदना दिखाते हुए कबीर कहते हैं:
इब न रहूं माटी के घर में
छिनहर घर अरु झिनहर टाटी
घन गर्जत कंपै मेरी छाती
अब मैं मिट्टी से बनी झोंपड़ी में नहीं रह सकता क्योंकि यह घर बहुत कच्चा है और इसके द्वार पर दरवाजों के स्थान पर टाट का पर्दा टंगा है। जब आकाश में बादल गरजते हैं तो मेरी छाती कांपने लगती है।
कबीर द्वारा अमीरों के ऐश्वर्यशाली जीवन के चरित्रांकन से स्पष्ट होता है कि उनका मुख्य ध्येय सामंती तत्वों से मुख्यत: भू-स्वामियों को प्रताडि़त करना था। कबीर ने इस वर्ग के लोगों में स्थित घमंड का भी प्रतिकार किया। कबीर ने उच्च-कुल के लोगों को झूठा अभिमान रखने के लिए लांछित करते हुए कहा कि वे अपने आधिपत्य का डंका पीटते हैं जो उनके विध्वंस का कारण बनता है। उन्होंने उनकी तुलना ऊंचे बांस के वृक्षों से की है जो आपस में एक-दूसरे के साथ टकराकर जल जाते हैं और गरीबों की चंदन के पेड़ों के समान जिसमें सुगंध रूपी अच्छे गुण हैं जो वातावरण को सुगंधित करते हैं। सीमावर्ती राजा और भूपति ऊंची-ऊंची नस्ल के घोड़ों पर चढ़ते हैं, विशाल महलों के ऊंचे दरवाजों जिनमें से हाथी निकल सकें और विशाल महलों जिनमें बड़े-बड़े झरोखे, बगीचे और बावलियों में रहते थे जिनमें वे गर्मियों में शीतलता का अनुभव करते थे। गरीबों की दृष्टि में यही लोग चमकदार कपड़े पहनते थे और मुंह में उनके पान-सुपारी रहती थी तथा वे जी भरकर स्वादिष्ट भोजन करते थे।
उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारि खात।
कबीर के अनुसार व्यापारी वर्ग के लोग अपनी खुशहाली के लिए ऊंची दरों पर रुपया चढ़ाते थे, छल-कपट से धन जोड़ते थे और उसको जमीन में गाढ़ देते थे, अपेक्षा इसके कि उसे किसी काम में लगाएं। कबीर ने व्यापारी लोगों की तुलना उस मधुमक्खी से की जो गरीब रूपी पूफलों का रस चूस-चूस कर मधु एकत्रित करती है और फिर उसे स्वयं पी जाती है। पूरे समाज की दुर्दशा को देख कबीर ने कहा कि यह दुख, गरीबी, अज्ञानता, द्वेष और घमंड से पूरी तरह आक्रांत है।"5
''मनुष्य की समानता के पक्षधर कबीर किसी को बड़ा या छोटा नहीं मानते। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि घास की भी निंदा नहीं करनी चाहिए भले ही वह पांवों के नीचे क्यों न रहती हो क्योंकि जब वही घास उड़कर आंख में गिर जाती है तो बहुत दुख उठाना पड़ता है-
कबीर घास न नींदिए, जो पाऊं तलि होइ।
उडि़ पड़ै जे आंखि मैं, खरा दुहेला होइ।।6
कबीर हिन्दू-मुस्लिम एकता के सच्चे सिपाही हैं। उन्होंने दोनों धर्मों को मिलाने के लिए प्रयास किए। दोनों के भेद मिटाने के लिए उन्होंने दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर करने की कोशिश की। दोनों धर्मों के पाखण्डों का विरोध किया ओर दोनों धर्मों में व्याप्त आन्तरिक एकता को सामने रखा। कबीर के इस प्रयास के मध्यकालीन भारतीय समाज पर गहरे असर पड़े। उन्होंने अपने को किसी धर्म में बांधने से इन्कार कर दिया। अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि विशुद्घ मानवीय बनाई।
हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाही।
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेले माहीं।।
कबीर दास की कविता में ब्राह्मणवादी पाखण्डों और कठमुल्लाओं पर तीखे कटाक्ष हैं। ''हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों ही के कर्मकाण्डों और बहुत सी मान्यताओं की कठोर आलोचना कबीर ने की है। ऐसी आलोचना करने वाले विचारक कई बार एक नए धर्म या पंथ की स्थापना भी करते हैं। संगठित धर्म की जो आलोचना कबीर करते थे; क्या उसका लक्ष्य भी यही था कि किसी धर्म या सम्प्रदाय की स्थापना की जाए?
कबीरपंथी तो यही मानते हैं कि कबीर ने स्वयं ही पंथ की स्थापना की थी। लेकिन इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कबीर पंथ की किसी शाखा का मूल स्वयं कबीर तक नहीं खोजा जा सकता।
कबीर की कविता से गुजरें तो स्पष्ट हो जाता है कि उस कविता का स्वर प्रचलित धर्मों की आलोचना कर अपना धर्म चलाने के इच्छुक व्यक्ति का स्वर नहीं है। कबीर हिन्दू या इस्लाम की ही आलोचना नहीं कर रहे थे। वे संगठित धर्म- रिलीजन, मजहब मात्र की आलोचना कर रहे थे। वे किसी एक या दो धर्मों की समीक्षा नहीं - संगठित धर्म की अवधारणा मात्र की समीक्षा कर रहे थे। उनकी धर्म समीक्षा केवल कर्मकाण्ड या रीति-रिवाज की आलोचना मात्र तक सीमित न होकर धर्ममात्र की मूलगामी समीक्षा है। इस मूलगामी समीक्षा का सबसे मूल्यवान पक्ष यह है कि कबीर मनुष्य की मूलभूत आध्यात्मिक पिपासा और वेदना की उपेक्षा नहीं करते। इस वेदना का अस्तित्व हम अपने अनुभव से ही जानते हैं। इसी अनुभव को कबीर कविता का रूप देते हैं। वे इस आध्यात्मिक वेदना पर धर्म के एकाधिकार को चुनौती देते हैं। उनकी कविता इस वेदना को संजोने के लिए, वैकल्पिक विधि का संकेत देती है। वह पुराने धर्म के स्थान पर नए धर्म के सामने समर्पण कर देने की आसान, लेकिन अंधी गली में फंसने की बजाए धर्मेतर अध्यात्म की उस 'दुहेली' राह पर चलने की, धर्ममात्र का विकल्प खोजने की, चुनौती स्वीकार करती है, जिस पर चलना 'नहिं कायर का काम'।
कबीर ने स्वयं को न कभी 'धर्मगुरु' कहा, न अवतार। वे स्वयं को 'पैगम्बर' या नए धर्म के संस्थापक के रूप में कहीं नहीं देखते। समस्या यह है कि बहुत से लोग यह कल्पना ही नहीं कर पाते कि आधुनिक युग से पहले भी संगठित धर्म की ऐसी आलोचना कोई कर सकता था, जिसका लक्ष्य एक ओर संगठित धर्म की स्थापना करना न हो। कल्पना की इस दरिद्रता को कबीर पर आरोपित करके यह मान लिया गया कि वे हिन्दू धर्म और इस्लाम की आलोचना इसलिए कर रहे थे ताकि नया धर्म या पंथ चला सकें। कबीर पंथ के इतिहासकारों ने भी कबीर के अपने विचारों और कबीर पंथ के दावों को गड्ड-मड्ड कर डाला। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उन्हें अपना 'निराला पंथ चलाने' को उत्सुक व्यक्ति के रूप में देखा, तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'धर्मगुरु' के रूप में।"7
कबीरदास धर्म के बाहरी आडम्बरों और दिखावों से दूर हटकर धर्म के मर्म को पहचानते थे। वे बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़कर धर्म की शिक्षाओं के पालन करने पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि सारी दुनिया पागल हो गई है। यदि सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है। हिन्दू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते मरते हैं, लेकिन सच्चाई से कोई भी परिचित नहीं है।
साधो, देखो जग बौराना।
सांची कहौ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहै मोही राम पिआरा तुरक कहैं रहमाना ।
आपस में दोऊ लडि़ लडि़ मूये, मरम न कोऊ जाना।
***
एक निरंजन अलह मेरा हिन्दू तुरुक दुहूं नाहिं मेरा
राखूं व्रत न मरहम जानां, तिसही सुमिरुं जो रहे निदाना।
पूजा करुं न निमाज गुजारुं, एक निराकार हिरदै नमसकारुं।
ना हज जाऊं न तीरथ पूजा, एक पिछांया तौ का दूजा।।
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूं मन लागा।।

''दिखावटी धर्म से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्ययुग के मनुष्य को आत्म-प्रतिष्ठा, आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दिया और मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया। संतों और सूफियों के पास इतनी ताकत तो नहीं थी कि वे उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ सकते जिनका केन्द्र शाही दरबार और अमीरों के महल थे। इसलिए उन्होंने उनकी तरफ से बड़े तिरस्कार के साथ मुंह फेर लिया और संतोष धीरज का उपदेश दिया। संतोष का अर्थ वैराग्य नहीं था बल्कि बादशाहों, दरबारियों और अमीरों से विमुख होकर व्यापार और शारीरिक श्रम से रोजी कमाना था जिसका आदर्श कबीर ने पेश किया है। उस युग में व्यापार को राज-सेवा के मुकाबले में तुच्छ समझा जाता था"8
कबीर का मानना है कि परमात्मा एक है, वह कण कण में व्याप्त है। सभी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो इनमें भेद करते हैं वे झूठे हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। ईश्वर को दो मानना लोगों में भ्रम को फैलाना है। ईश्वर, अल्लाह एक हैं। हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर एक ही है। एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। उसी को अल्लाह कहा जाता है, उसी को राम, वही केशव है वही करीम, वही हजरत है और वही हरि है। वह एक ही तत्व है,जिसके अलग अलग नाम रख लिए हैं और भ्रम पैदा कर दिया है। एक सोने से सब जेवर बनाए गए हैं, उनमें दो भाव कैसे हो सकते हैं। पूजा नमाज सब कहने सुनने की बातें हैं। वही महादेव हैं और वही मुहम्मद हैं। जो ब्रह्म है उसी को आदम कहना चाहिए। कोई हिन्दू कहलाता है कोई मुसलमान, लेकिन सब एक जमीन पर रहते हैं। एक वेद पढ़ता है और दूसरा खुतबा। एक मौलाना कहलाता है और दूसरा पण्डित। सब एक मिट्टी के बर्तन हैं , सिर्फ नाम अलग अलग हैं।
भाई रे दुई जगदीश कहॉ ते आया, कहु कौने भरमाया।
अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।
गहना एक कनक तें गढना, इनि मंह भाव न दूजा।
कहत सुनत को दुइं करि थापै, इक निमाज इक पूजा।।
वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा-आदम कहिये।
को हिन्दु को तुरुक कहावै, एक जिमी पर रहिये।।
बेद कितेब पढे वे कुतुबा, वे मौलाना वे पांडे।
बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भांडे।।
कबीर ने हिन्दू और मुसलमान में कोई अन्तर नहीं माना। हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा में कोई भेद नहीं है। गुुरू ने यही उपदेश दिया है।
हिन्दू तुरुक की एक राह है सतगुरु इहै बताई।
कहै कबीर सुनो हो संतों राम न कहेउ खोदाई।।
कबीर दास का मानना था कि परमात्मा को किसी मंदिर, मस्जिद में या किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के आडम्बर की जरूरत नहीं है। यदि कोई उसे प्राप्त करने का इच्छुक है तो वह जल्दी ही मिल जाता है। वह किसी कर्मकाण्ड से नहीं मिलता। वह सच्चे मन और शुद्घ आचरण से मिलता है।
मोकों कहां ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।
''कबीर ने वेद-शास्त्रों की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को श्रेष्ठ माना है। कबीर ने धर्म की असली पहचान आचरण की शुद्घता और अनुभव ज्ञान आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और राम-नाम था जिसके निरंतर जाप करने से साधक संत मोक्ष या आत्मस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है। कबीर हिन्दू और मुसलमानों में स्थित अन्य संप्रदायों शैव मत, जोगी जंगम, सेवड़े आदि तथा शेख, मुशायकों तथा सूफियों में स्थित निरर्थक विधि-विधानों का प्रतिरोध करते हैं।"9
कबीर दास ने लोगों को बांटने वाले रिवाजों पर तीखे कटाक्ष किए हैं। भारतीय समाज में जाति-प्रथा ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके कारण समाज में ऊंच नीच का भेदभाव है। कबीर दास ने मानव मानव में कोई भेदभाव नहीं किया, वे सामाजिक श्रेष्ठता को नहीं मानते थे । उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं।

जे तू बामन बामनी जाया, तो आन बाट काहे न आया।
जे तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।
***
जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
***
जात-पात पूछे नाहि कोई, हरि का भजे सो हरि का होई
***
ऊंंचे कुल क्या जनमियां जे करणी उंफचे न होइ।
सोवन कलस सुरै भरा साधू निंद्या सोई।।
***
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चाम एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
***
काहे को कीजै पांडे छोड़त विचारा।
छोतहि ते उपजा संसारा।।
हम कत लोहू तुम कत दूध।
तुम कत बामन हम कत सूद।।
छोति-छोति करत तुमहि जाए
तो गरभ वास काहे को आए।।
कबीर दास ने जाति-पांत, बाहरी आडम्बरों का विरोध किया और हिन्दू व मुसलमानों में एकता के प्रयास किये। उन्होंने आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया और आचरण की पवित्रता को महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दू व मुसलमान की पहचान किसी कर्मकाण्ड में नहीं है, जिसका ईमान दुरुस्त है वही सच्चा हिन्दू और मुसलमान है।
सो हिन्दू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहे ईमान।
कबीर दास ने सामाजिक भेदभाव और साम्प्रदायिक एकता को बनाने के लिए प्रयास किए। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे। हिन्दू पण्डे और मुस्लिम कठमुल्लाओं के कर्मकाण्डी धर्म की उन्होंने आलोचना की। हिन्दू और मुस्लिम दोनों में उनके शिष्य बने, कबीर के विचारों में दोनों धर्मों के तत्वों का मिश्रण है। वे साम्प्रदायिक सदभाव की अनुपम कड़ी हैं।
''कबीर को विश्लेषित करने पर कहा जा सकता है कि वे अपने युगीन राजाओं, राज्याधिकारियों, सामाजिक अर्थात समाज की राजनीतिक तंत्र, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था के प्रति पूरी तरह असंतुष्ट थे। उन्होंने इन सबके विरोध में अपनी गहरी असहमति और विरोध प्रकट किया। कबीर के जीवन का ध्येय समाज में विद्रोह उत्पन्न करना नहीं था। कबीर का सामाजिक उद्देश्य समाज में समता और समानता के भाव की स्थापना था। वे एक ऐसा समाज चाहते थे जिसमें धनवान और निर्धन में गहरी असमानता न हो, जिसमें एक व्यक्ति धन संचित करे और व्यक्ति गरीब भूख मिटाने के लिए भीख मांगने के लिए बाह्य न हो। कबीर के मत में वही व्यक्ति अनुकरण करने योग्य है जो विषयादि से मुक्त हो और पुरुषार्थ द्वारा अपनी जीविका से उत्पन्न धन कमाने में संतुष्ट हो, जिससे वह अपने कुटुंब का पालन कर सके और घर आए अतिथि या साधु को भोजन कराने में समर्थ हो।"10

संदर्भ:
1-क्षिति मोहन सेन; संस्कृति संगम; पृ.-176
2-वही ; पृ.-176
3-अली सरदार जाफरी; कबीर वाणी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; पृ.-8
4-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-34
5- सावित्री सिन्हा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-5
6- सं. बलदेव वंशी;कबीर: एक पुनर्मूल्यांकन में संकलित जबरीमल पारख के लेख 'दलित चेतना के संदर्भ में कबीर का काव्य' से;आधार प्रकाशन, पंचकूला; 2006; पृ-104
7-पुरुषोतम अग्रवाल; कबीर साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया; पहला सं. 2007; पृ-बीस
8-अली सरदार जाफरी; कबीर बानी; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; तीसरी आवृति 2006; पृ-34
9- सावित्री चंद्र शोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007
10- सावित्री चंद्र षोभा; हिन्दी साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया; 2007; पृ.-8

फरीद



फरीद
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


फरीदउद्दीन गंजशकर का जन्म मुल्तान में हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्घ हुए। पंजाब के फरीदकोट शहर का नाम बाबा फरीद के नाम पर ही पड़ा है। फरीद वर्तमान हरियाणा के हांसी कस्बे में 12 वर्ष तक रहे सूफी प्रचार किया। हांसी सूफी विचारधारा के केन्द्र के तौर पर विकसित हुआ। बाबा फरीद से भेंट करने के लिए यहां मशहूर सूफी आए। हांसी में चार कुतुब के नाम से आज भी ऐतिहासिक स्मारक है। बाबा फरीद को उनकी इच्छा के अनुसार उनको पंजाब के पाकपटन में दफनाया गया। आज भी यह प्रसिद्घ तीर्थ-स्थल बना हुआ है।
बाबा फरीद के शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। वे दोनों में लोकप्रिय थे। वे सत्ता के साथ कभी नहीं मिले और न ही सत्ता के जुल्मों को उन्होंने कभी उचित ठहराया। सत्ता से दूरी बनाए रखने और लोगों से जुड़े रहने का संदेश उन्होंने अपने शिष्यों को दिया। निजामुद्दीन औलिया भी बाबा फरीद के शिष्य बन गए। निजामुद्दीन औलिया से जब कुछ सुल्तानों ने भेंट करनी चाही तो उन्होंने कहा कि मेरे गुरु का उपदेश है कि सत्ता से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना। पाकपटन में उस समय का सुल्तान बलबन सोने-चांदी भेंट करने के लिए गया, तो उनकी भेंट ठुकराते हुए कहा कि 'बादशाह गांव और सोने चांदी की चमक दिखाकर हमें एहसान के बोझ से दबाना चाहते हैं। हम तो ऐसे खुदा के बन्दे हैं जो रिजक भी देता है मगर एहसान कभी नहीं जताता।'
बाबा फरीद पंजाबी के पहले कवि हैं। पंजाब की प्रसिद्घ रचना 'हीर रांझा' के कवि वारिसशाह ने, अपनी रचना के आरम्भ में बाबा फरीद को 'कामिल पीर' कहकर संबोधित किया, यह उनके प्रति सच्चा सम्मान है। गुरुनानक देव बाबा फरीद के गद्दीधारी शेख इब्राहिम से दो बार मिले और उनसे बाबा फरीद की रचनाएं प्राप्त कीं। सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव जी ने जब 'गुरुग्रन्थ साहिब' की रचना की, तो बाबा फरीद के चार सबद और 114 श्लोकों को उसमें स्थान दिया। ''फरीद का यहां की जनभाषा 'हिन्दवी' का उपयोग करना उन्हें सामान्य जन के और निकट ले आया। उर्दू और मुलतानी पंजाबी का यह पूर्वतम मिश्र रूप ही आम लोगों की भाषा था। उलेमा लोग और अधिकारी वर्ग अपने काम फारसी में करते थे। इनसे भिन्न बाबा फरीद अपने श्रोता समाज से 'हिन्दवी' में बोलते, जिसे वे सब समझते थे और घर की ही भाषा मानते थे। फरीद पंजाबी के एक बहुत बड़े कवि भी थे सर्वप्रथम कवि, जिन्होंने आध्यात्मिक एषणा जैसे गूढ़ विषय को, वहीं के ग्राम परिवेश से चुने हुए बिम्बों और चित्रों द्वारा सजा-संवार कर जनभाषा में प्रस्तुत किया। नि:संदेह ऐसा काव्य लोकप्रिय होता ही। लोग फरीद के 'सलोकों' का पाठ करते और भावमय होकर जब गाने लगते तब तो आनन्द विभोर ही हो जाते"1
फरीद ने इस बात पर जोर दिया कि ''ईश्वर के आगे सभी मनुष्य बराबर हैं, भले ही मत या धर्म किसी का कुछ भी हो। 'फरीदी लंगर' अर्थात सबके लिए समान भोजन का नियम सभी भेदभावों को दूर करने का ही एक और उपाय था"।2
बाबा फरीद ने सारे संसार को एक ही तत्व की उपज माना है। संसार के सब प्राणी एक ही मिट्टी के बने हुए हैं। जब सारे एक ही मिट्टी के बने हुए हैं तो फिर उनमें कोई ऊंच नीच नहीं है। सबमें एक ही तत्व मौजूद हैं, इसलिए सब बराबर हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है।
फरीदा खालुक खलक महि, खलक बसै रब माहि।
मन्दा किस नो आखिअ, जा तिस बिनु कोई नाहि।।
बाबा फरीद ने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ धार्मिक उदारता को अपनाया। धर्म के बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़कर उसके मर्म को पहचानने पर जोर दिया। बाबा फरीद ने धर्म के आन्तरिक पक्ष पर जोर दिया है न कि बाहरी दिखावे पर। उन्होंने बाहरी आडम्बरों को धर्म में अनावश्यक माना। आन्तरिक शुद्घता एवं पवित्रता पर जोर दिया और कहा कि बाहरी क्रियाओं की अपेक्षा अपने अंदर को स्वच्छ और पवित्र रखो।
फरीदा कनि मुसला सूफू गलि, दिलि काती गुडू बाति
बाहरि दिसै चानणा, दिलि अंधिआरी राति।

फरीद कहते हैं कि ईश्वर का ऊंची आवाज में पुकारने की यानि स्पीकर लगाकर कीर्तन-जगराते-पाठ-जाप करने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपने विचार व कर्मों में जो बेईमानी, झूठ व जरूरत से अधिक धन इक_ा करने के लिए किए जा रहे कुकर्मों को छोड़़कर स्वच्छ आचरण करना ही सच्ची पूजा है।
फरीदा उच्चा न कर सद्द, रब्ब दिलां दीआं जाणदा।
जे तुध विच कलब्ब, सो मझा हूं दूर कर।।

यदि तुम हज के लिए जाना चाहते हो तो हज तो हृदय में ही है। अपने हृदय में झांककर देखो। सच्चा हाजी बनो।
फरीदा जे तू वंजे हज, हज हब्भो ही जीआ में
लाह-दिले दी लज, सच्चा हाजी तंा थीये ।।

तेरे अन्दर ही मक्का है तेरे अन्दर ही मक्का की मीनारें और मेहराब हैं। तेरे अन्दर ही काबा हैं। तू कहां नमन अहा कर रहा है। तीर्थ, व्रत, यात्रा करना ढोंग है भक्ति नहीं। श्रद्घा व्यक्ति के अन्दर होती है। बाहर प्रदर्शन से नहीं।
फरीदा मंझ मक्का मंझ, माड़ीयां मंझे ही महराब ।
मंझे ही कावा थीआ, कैं दे करीं नमाज ।।

सिर मुंडा लेने से क्या होगा ? कितनी भेड़ों का सिर मुंडा जा चुका है लेकिन किसी को स्वर्ग नहीं मिला।
मनां मुन्न मुनाइयां, सिर मुन्ने क्या हो ?
केती भेडां मुन्नीआं, सुरग न लद्धी को ?
इसलिए सिर मुंडाने, व्रत रखने, तीर्थों की यात्रा करने, गेरुए वस्त्र या काले वस्त्र धारण करने तथा पूजा-पाठ, जप-माला, तिलक लगाने आदि के ढोंग-पाखण्ड करने में धर्म नहीं है बल्कि इनको त्यागकर स्वच्छ करने, किसी का मन न दुखाने, अहंकार त्यागने व शोषण-लूट व छल में शामिल न होने में ही सच्चा धर्म है। हृदय में पाप भरा हो तो सियाह चोला धरण करने से, कपड़ा फिर चाहे कैसा ही पहनो, लेकिन उससे फकीर नहीं बन सकते।
फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु।
गुनही भरिया मै फिरा लोकु कहै दरवेसु।।
बाबा फरीद ने कहा कि यदि तू समझदार है तो बुरे काम न कर, अपने कार्यों को देख। अपने गिरेबान में झांककर देख कि तूने कितने अच्छे काम किए हैं और कितने बुरे काम किए हैं
फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख।
आपनडे गिरीवान महिं, सिरु नीवां करि देख।।
जिन्होंने शानदार भवन बनवाए थे वे भी यहां से चले गए। उन्होंने संसार में झूठ का कारोबार किया ओर अन्तत: कब्र में दफन किए गए। अर्थात जिन्होंने समाज के शोषण, लूट से अपने ऐश्वर्य-विलास के लिए सामान एकत्रित किया वे भी मिट्टी में मिल गए।
कोठे मण्डप माड़ीयां उसारेदे भी गए ।
कूड़ा सौदा करि गए गोरी आए गए ।।
फरीद ने गरीबों की सेवा को ही सच्चा धर्म माना है। उनका संदेश है कि अपना आदर सम्मान कराने के लिए गरीब और दीन-दुखियों के बीच बैठकर उनकी सेवा में सहयोग करो। इसीलिए उन्होंने अमीरी से दूर गरीबी में रहना स्वीकार किया। मिट्टी के बारे में उन्होंने कहा कि उससे बड़ा इस संसार में कोई नहीं है, उसकी निन्दा न करो। वह मनुष्य का साथ देती है,जब तक मनुष्य जीवित रहता है ,तब तक वह उसके पैरों के नीचे रहती है उसको सहारा देती है, लेकिन जब मनुष्य मर जाता है तो वह उसके उस पर आती है, उसको ढक लेती है।
फरीदा खाकु न निंदिअै, खाकू जेडु न कोई।
जीवदिआं पैरां तलै , मुइयां उपरि होई ।

सब्र जीवन का उद्देश्य है, यदि मनुष्य इसे दृढ़ता से अपना ले तो बढ़कर दरिया बन जाएगा यदि सब्र को तोड़ दे तो अवारा प्रलय जाएगा। अर्थात सब्र की सीमा को तोड़कर व्यक्ति शोषण करे तो वह मनुष्य के लिए नुकसान दायक है।
सबर एह सुआऊ जे तू बंदा दिडु करहि ।
वध् िथीवहि दरीआऊ, टुटि न थीवहि वाहड़ा ।।
कईयों के पास जरूरत से अधिक आटा है तो कईयों के नमक भी नहीं है। वे सब पहचाने जायेंगे और उनमें से किसको सजा मिलेगी। फरीद कहते हैं कि समाज में कुछ ने शोषण करके बहुत अधिक इक_ा कर लिया और कुछ के पास जरूरत से बहुत कम है। समाज में यह असमानता के दोषी लोग सजा के पात्र हैं।
फरीदा इकनां आटा अगला इकना नाही लोणु ।
अजै गए सिंआपसण चोटा खासी कउणु ।।
जिन शासकों-राजाओंं के आस-पास नगाड़े बजते थे, सिर पर छत्र थे, जिनके द्वारों पर ढोल बजे थे और जिनकी प्रशंसा में चारण-भाट गीत गाते थे। अन्त में वे भी कब्रिस्तान में सो गए और अनाथों की तरह धरती में गाड़ दिए गए। फरीद का कहना है कि छल, कपट, झूठ, बेईमानी, चोरी, ठगी और व्यक्ति की मेहनत का शोषण बहुत बुरा है।
पासि दमामे छतु सिरि भेरी सडो रड
जाइ सुते जीराण महि थीए अतीमा गड ।
जब तक संसार में जिन्दा हो, कहीं पांव न लगाओ, एक कफन रखकर सब कुछ लुटा दो। अर्थात संसार में जमीन-जायदाद न बनाओ।
जे जे जीवें दुनी ते खुरचे कहीं न लाय ।
इक्को खपफ्फग रख के हारे सब्भो देह लुटाय ।।
जो शासक संसार पर राज करते थे, राजा कहलाते थे। जिनके आगे-आगे प्यादे और पीछे घोड़े चलते थे। जो खुद पालकियों में सवारी करते थे और ऊपर सेवक चंवर झुलाते थे, जिनके सोने के लिए सेज भी सेवक बिछाते थे उनकी कब्रे भी दूर से ही नजर आ रही हैं।
फरीदा करन हकूमत दुनी दी, हाकिम नाओं धन ।
आगे धैल पिआदिआं पिच्छे कोत चलन ।।
चढ़ चल्लण सुख-आसनी, उप्पर चैर झुलन ।
सेज बिछावन पाहरू जित्थे जाइ सवन ।।
तिन्हां जनां दीआं ढेरीआं दूरों पइआं दिसन्न ।
आठों पहर दिन-रात बेशक पांव पसार कर सोओ, जप-तप कुछ न करो लेकिन अपने अंदर से अहंकार का त्याग कर दो। फरीद ने आचरण को सुधरने पर जोर दिया है।
फरीदा पांव पसार के, अठ पहर ही सौं ।
लेखा कोई न पुच्छई, जे विच्चों जावी हौं ।।
फरीद के काव्य का मुख्य विषय है - मानव और आध्यात्मिकता। घड़ी-पल उन्हें चिन्ता है तो मानव की, धरती पर उसके चार दिन की, उसके अनिश्चित जीवन और चिरदिन-व्यापी मृत्यु भय की, निर्वश जनसमूह के दुर्दिन और भूख की, उसे घेरे आयी निरंकुश अन्याय की, सत्ता और वैभव के चौंध-भरे सम्मोहन की, और अर्थहीन मायाचक्रों में समय के अनर्थकर विनाश की। फरीद ने सामाजिक और सदाचरण पर बल दिया, पर सभी धर्मों में तो यह समान रूप से विहित था।"
बाबा फरीद का जीवन और शिक्षाएं राष्ट्रीय एकता की कड़ी हैं। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों में एकता स्थापित करने की कोशिश की, दोनों सम्प्रदाय के लोगों को एक दूसरे के करीब लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। दोनों धर्मों के सार को पहचाना और उनकी आन्तरिक एकता को उद्घाटित किया। उनके जीवन से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। वे संतों के लिए भी आदर्श थे, वे कभी सत्ता के पास भी नहीं गए, वे सच्चे अर्थों में संत थे।

संदर्भ:
1- बाबा फरीद; बलवन्त सिंह; साहित्य अकादमी,नई दिल्ली; 2002; पृ.34
2- बाबा फरीद; बलवन्त सिंह; साहित्य अकादमी,नई दिल्ली; पृ. 37

मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकाल हिन्दी साहित्य के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण समय था। समाज में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हो रहे थे। उस समय में अमीर खुसरो, फरीद, कबीर, नानक, दादू, रैदास, जायसी, रहीम, रसखान आदि रचनाएं कर रहे थे। समय व क्षेत्र की दृष्टि से हिन्दी में भक्तिकाव्य से अभिहित किए जाने वाले साहित्य का फलक व्यापक है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का 'स्वर्ण युग' कहा है। इसकी उत्पति के कारणों को तलाशने की कोशिश की है। ''किसी ने उसे मुसलमानों के आक्रमण और अत्याचार की प्रतिक्रिया माना है, तो किसी ने ईसाइयत की देन, किसी को उसमें निराश और हतदर्प जाति की कुंठाग्रस्त और अन्तर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति दिखाई दी तो किसी को वह तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक असंतोष की उपज प्रतीत हुआ, किसी ने उसके मूल में यौगिक और तांत्रिक प्रवृतियों का प्रसार देखा और किसी ने लोकमत के शास्त्रीय आवरण की प्राप्ति।"1
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस विचार को हिन्दी में काफी मान्यता मिली कि भक्ति साहित्य की उत्पति का कारण मुसलमानों का हिन्दुओं पर अत्याचार था और भक्ति के माध्यम से हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए भक्ति को अपनाया। यद्यपि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के मत को अपने तर्कों से तथ्यहीन साबित किया। उन्होंने कहा कि भक्ति आन्दोलन की उत्पति मुसलमानों के अत्याचारों के कारण नहीं हुई, क्योंकि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत में हुआ और दक्षिण में न तो मुसलमानों के आक्रमण हुए थे और न ही तब तक मुसलमान दक्षिण तक गए थे। प्रसिद्घ है कि 'द्राविड़ भक्ति उपजी, लाए रामानन्द'। तथ्यहीन व तर्कपूर्ण न होने पर भी आचार्य शुक्ल का मत अधिकांश हिन्दी के शोधार्थियों व अध्यापकों की मानसिकता का हिस्सा बना रहा है। इसका कारण हिन्दी क्षेत्र में साम्प्रदायिक इतिहास चेतना है, जो वर्तमान राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इतिहास का साम्प्रदायिकरण करती रही है। अपने समय के छ:-सात सौ साल के बाद भी प्रासंगिक भक्तिकाल का जीवन्त साहित्य मात्र प्रतिक्रिया में नहीं रचा जा सकता और 'पराजित व निराश मन' की उपज तो कतई नहीं हो सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुसलमानों के आगमन को एक अनिवार्य बुराई की तरह से देखा, उनके आने से यहां के जीवन में क्या अन्तर आया, इसे देखने में वे चूक गए और परिस्थितियों पर समग्रता से विचार किये बिना बहुत सरलीकृत ढंग से भक्तिकाल के साहित्य की उत्पति को साम्प्रदायिक रंग दे दिया।
भारत में सम्प्रदाय के आधर पर हिन्दू और मुसलमान के बीच वैमनस्य व दंगे-फसाद अंग्रेजी शासन के दौरान आरम्भ हुए। अपने शासन को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासकों ने जनता में फूट डालने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसाना-भड़काना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने मध्यकाल इतिहास को तोड़-मरोड़कर हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के तौर पर पेश किया। इतिहास का काल-विभाजन व नामकरण धर्म के आधार पर 'हिन्दू काल' व 'मुस्लिम काल' के तौर पर किया, जबकि अपने शासन को ईसाई काल न कहकर अंग्रेजी शासन काल ही कहा। ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालने पर ऐसा कोई काल नजर नहीं आता, कि जिसमें किसी धर्म विशेष के लोगों का शासन हो और दूसरे धर्म के लोग उनके शासित हों। शासक अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के शासक हों, वे अपने धर्म के आधर पर शासन नहीं करते, लेकिन अंग्रेजी शासकों ने शासकों की लड़ाइयों को हिन्दू व मुसलमान की लड़ाई के तौर पर पेश किया, जबकि एक हिन्दू शासक दूसरे हिन्दू शासक ने लडऩे तथा मुसलमान शासकों के दूसरे मुसलमान शासकों से लडऩे तथा हिन्दू व मुसलमान शासकों के मिलकर किसी शासक से लडऩे के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।2
हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने बहु प्रचारित किया कि मुसलमानों ने हिन्दुओं के मंदिरों को ध्वस्त करके हिन्दुओं का अपमान किया। राजाओं की लड़ाइयों के कारण, धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक थे, उसी तरह धर्म-स्थलों के गिराने के कारण भी धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक व आर्थिक थे। महमूद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को लूटा तो उसका कारण धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक था।3
अंग्रेजों ने हिन्दुओं व मुसलमानों में विद्वेष पैदा करने के लिए धर्मान्तरण को भी तूल दिया और इस झूठ को जोर-शोर से प्रचारित किया कि तलवार के जोर पर इस्लाम का विस्तार हुआ, जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। इस्लाम के प्रसार का कारण मुसलमान शासकों के अत्याचार नहीं थे, बल्कि वर्ण-व्यवस्था थी, जिसमें समाज की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को मानव का दर्जा ही नहीं दिया गया। इस्लाम में इस तरह के भेदभाव नहीं थे, इसलिए अपनी मानवीय गरिमा को हासिल करने के लिए हिन्दू धर्म में निम्न कही जाने वाली जातियों ने धर्म परिवर्तन किया। धर्मपरिवर्तन में सूफियों के विचारों की भूमिका है, न कि मुस्लिम शासकों की क्रूरता व कट्टरता की।4
भक्तिकाव्य के प्रति साम्प्रदायिक रुख अख्तियार करने के कारण ही इसकी मत-मतान्तरिक, ब्रह्म, जीव, जगत, व माया के दार्शनिक-तात्विक पक्ष, भक्ति के तात्विक पक्ष, साधना के विविध पक्षों की व्याख्याएं की और मूल्यांकन में एकांगी रुख अपनाए जाने के कारण इस साहित्य के सामाजिक आधार की अनदेखी हुई।
मुसलमानों के यहां आने से समाज में हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों ने समाज को प्रभावित किया उसके सकारात्मक पक्षों का ही परिणाम है - भक्ति आन्दोलन का काव्य। ''तुर्क शासन के बाद भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आरम्भ हुए। सिंचाई में रहट का व्यापक रूप से प्रयोग आरम्भ हुआ जिससे नदियों के किनारे विशेष रूप से पंजाब और दोआब के क्षेत्र में कपास और अन्य फसलों की पैदावार में बहुत वृद्घि हुई। सूत कातने के लिए तकली के स्थान पर चरखे का व्यापक प्रयोग होने लगा। इसी तरह रुई धुनने में तांत का प्रयोग जन साधारण के लिए महत्त्वपूर्ण बन गया था। कपास ओटने में चरखी का भी प्रयोग शुरू हुआ। तेरहवीं सदी में करघा के प्रयोग से बुनकरों और वस्त्र उद्योग की स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। कपड़े की रंगाई और छपाई की भी इसी बीच व्यापक उन्नति हुई। मध्य एशिया के सीधे सम्पर्क के कारण भारत के व्यापार का भी बहुत प्रसार हुआ। इन नई परिस्थितियों ने व्यापारियों और कारीगरों का सीधा सम्बन्ध और गहरा करने में सहयोग दिया। वे व्यापारी कला और संस्कृति के आदान-प्रदान में भी महत्त्वपूर्ण संवाहक सिद्घ हुए।"5
मुसलमानों के आगमन से यहां के लोगों के जीवन में नई दृष्टि का संचार हुआ। नई नई वस्तुओं से वाकिफ हुए। खेती की व्यवस्था में परिवर्तन से जीवन में मूलभूत परिवर्तन हुआ। सड़कों व नहरों के निर्माण से सामाजिक जीवन में तुलनात्मक रूप से समृद्घि आई। विशेष तौर पर समाज के वे वर्ग अच्छी हालत में पहुंचे, जो कारीगर व श्रमिक थे। इसी वर्ग की आकांक्षाएं कबीर, नानक, रविदास व अन्य संतों की कविताओं में नजर आती हैं।
कबीर, नानक, रैदास, दादू आदि संतों का तेजस्वी काव्य सांस्कृतिक समन्वय की स्थितियों से उपजा काव्य है, न कि साम्प्रदायिक द्वेष व घृणा से, जैसा कि साम्राज्यवादी व साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करती है। भारत का समाज दूसरे समाज के सम्पर्क में आया, विचारों का आदान-प्रदान हुआ, व्यापार के नए क्षेत्र खुले, जिसने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित किया। भक्ति काल के संतों ने परम्परागत तौर पर प्रचलित संस्थागत हिन्दू धर्म और इस्लाम की संरचनाओं के स्थान पर नई प्रणालियों को विकसित किया। वे दोनों धर्मों के धार्मिक आडम्बरों और पाखण्डों का विरोध करते थे। वे धर्म के दायरे में रहते हुए भी उसको नई तरह से व्याख्यायित करने की जद्दोजहद की अभिव्यक्ति संत साहित्य में होती है।
जिन निम्न जातियों के लोगों को मुख्य सड़कों पर चलने का अधिकार भी नहीं था, शिक्षा का अधिकार नहीं था। उन वर्गों से संबंधित रचनाकार अब सरेआम वर्चस्वी वर्ग के लोगों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते हैं, आखिर इस तरह के आत्मविश्वास का कारण, इनका सामाजिक-सांस्कृतिक अभ्युदय और तत्कालीन समाज में इनकी हैसियत के अलावा और क्या हो सकता है। निम्न जातियों से इतने संतों का आना और कबीर-रैदास का आत्मविश्वास इन वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की ओर भी संकेत करता है। परम्परागत तौर पर प्रचलित वर्चस्वी विचारों को चुनौती पेश करने वाली सामाजिक शक्तियां जो नए विचारों व परिवेश का स्पर्श पाकर विकसित हो उठी थीं, उन्हीं की आंकाक्षाओं को संतों की कविताएं वाणी प्रदान करती हैं।
दिल्ली में तुर्क सल्तनत की स्थापना के समय से ही सुल्तानों ने अपना शासन शरीयत (धार्मिक कानून) के आधार पर नहीं चलाया। ''शरीयत की जगह राजनीतिक और सामरिक जरूरतों को ध्यान में रखा गया था। सुल्तान इल्तुमिश के बारे में यह प्रचलित है कि उसके लिए यह हर्गिज जरूरी नहीं था कि वह विश्वास को केन्द्र में रखे। उसके लिए इतना ही काफी था कि उसका अपना विश्वास बना रहे। बलबन के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वह एक कदम और आगे चला गया था। उसने सुल्तान से यह भी अपेक्षा नहीं की कि उसका कोई विश्वास हो ही और न ही उसे किसी धर्म या मत को संरक्षण देने की जरूरत है। उसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था कि वह न्यायकारी हो सके। अलाउद्दीन खिलजी ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण वक्तव्य दिया कि उसने कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसके निर्णय शरीयत के मुताबिक हैं या नहीं। उसने जो कुछ भी राज्य के हित में उचित समझा, उसी का पालन किया। मुहम्मद-बिन-तुगलक ने धर्म विशारदों और धार्मिक कानून के संरक्षकों को शासन के ऊपर हावी नहीं होने दिया, बल्कि वह हमेशा ही दार्शनिकों और तर्कशास्त्रियों की संगत पसंद करता था।"6 शासक अपने धार्मिक कानून के अनुसार राजनीतिक निर्णय नहीं लेते थे, बल्कि राजनीति के अनुसार वे अपने राज्य के फैसले करते थे। उलेमा और राजाओं के दृष्टिकोण में अन्तर था।
बाबर पहला मुगल सम्राट था, जिसने 1526 ई. में, पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी की सेना को हराकर मुगल शासन की नींव रखी थी। बाबर साहित्यिक और सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति था। वह हिन्दुस्तान को बहुत प्यार करने लगा था, उसकी आत्मकथा 'तुजके बाबरी' के अध्ययन से पता चलता है कि वह यहां स्थायी रूप से रहने के लिए नहीं आया था, लेकिन यहां की जलवायु तथा मौसम को देखकर उसने यहां रहने का निश्चय किया। उसके भारत आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। बाबर यहां अपनी मर्जी से नहीं आया था, बल्कि उसे यहां के चार राजाओं ने बुलाया था। दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हराने के लिए उसे यहां बुलाया गया था।
बाबर धार्मिक मामले में कट्टर नहीं था, इसका अनुमान बाबर और गुरुनानक के प्रसंग से लगाया जा सकता है। घूमते घूमते गुरुनानक और उनका शिष्य मरदाना सैदपुर पहुचे। इन्हीं दिनों बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की थी। बाबर के सैनिक भी जा पहुंचे। मुगल सिपाहियों ने शहर के अन्य लोगों के साथ गुरुनानक को भी कैद कर लिया और अन्य कैदियों की तरह इनको भी काम पर लगा दिया। गुरुनानक यहां मस्ती से ईश्वर के भजन गाते थे। जब बाबर के सेनापति मीरखान को इस बात का पता लगा तो उसने इस बात की सूचना बाबर को दी। बाबर ने ऐसे फकीर से मिलने की इच्छा जाहिर की। गुरुनानक को जब बाबर के सामने लाया गया तो बाबर का सिर झुक गया और क्षमा मांगते हुए कहा ''मेरे सिपाहियों ने अनजाने ही आप जैसे फकीर को दुख पहुचाया है। मैं शर्मिन्दा हूं। आप आजाद हैं।" गुरुनानक ने सभी कैदियों को छोडऩे के लिए कहा तो बाबर ने सारे कैदियों को रिहा कर दिया।7
यद्यपि बाबर ने अपने प्रारंभिक दिनों में तो यहां की अधिक तारीफ नहीं की, लेकिन जब उसने यहां के जन-जीवन को गहराई से देखा तो भारत की जलवायु व लोगों की तारीफ की। उसने यहां के लोगों की नब्ज को अच्छी तरह से जान लिया था। धार्मिक सहिष्णुता और अमनपसन्दी को जाना। इसीलिए उसने अपने बेटे हुमायूं को वसीयत में लिखा कि ''बेटा, इस हिन्दुस्तान में बहुत से धर्म हैं। यहां अपनी बादशाहत के लिए हम अल्लाह के शुक्रगुजार हैं। हमें अपने दिल से सभी तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहिए और हरेक समुदाय को उसके रिवाजों के अनुसार न्याय देना चाहिए। इस देश के लोगों को जीतने लिए गौ-हत्या से बचो और प्रशासन में लोगों को शामिल करो। हमारे राज्य की सीमाओं में स्थित इबादत की जगहों और मंदिरों को नुक्सान न पहुंचाओ। शासन का ऐसा तरीका ढूंढो जिससे लोग हुकूमत से खुश हों और बादशाह से लोग खुश हों। इस्लाम अच्छे कार्यों द्वारा फैल सकता है, दहशत से नहीं। शिया और सुन्नी के भेदों की उपेक्षा करो क्योंकि यह इस्लाम की कमजोरी है। विभिन्न रिवाजों को अपनाने वाले लोगों को एकजुट करके रखो ताकि इस बादशाहत का कोई हिस्सा बीमार न हो।"8 (राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे मूल का रूपान्तरण) बाबर की हुमायुं के नाम यह वसीयत भारत के राज्य की धर्मनिरपेक्ष परम्परा का ज्वलंत उदाहरण है।
बाबर के बाद उसका बेटा हुमायं भारत का शासक बना था। हुमायूं बहुत कम समय ही शासक रहा और उसका अधिकतर समय अपने राज्य को स्थापित करने में ही बीता, लेकिन उसके जीवन से जुड़ी हुई कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो हमारी साझा संस्कृति एवं जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गई हैं। हुमायूं की लड़ाई मुख्य रूप से शेरशाह सूरी से थी। हुमायूं शेरशाह के हमले से बचने के लिए भागा तो ब्रह्मजीत गौड़ उसका पीछा कर रहा था। उस समय अटेल के हिन्दू राजा वीरभान ने हुमायूं को नदी पार करवाकर उसकी जान बचाई थी।9
हुमायूं जब अमरकोट पहुंचा, तो वहां के राजपूतों व जाटों की सेना ने उसे भरपूर मदद पंहुचाई थी। हुमांयू जब अमरकोट पहुंचा तो उसकी बेगम हमीदा बानो गर्भवती थी और पूरे दिन से थी। इसलिए बेगम को उसने वहीं राजपूत स्त्रियों के पास छोड़ दिया। हुमायूं के जाने के तीन दिन बाद यहीं पर अकबर का जन्म हुआ था। अमरकोट के राजा ने हुमायूं की बेगम की अपनी बेटी की तरह देखभाल की थी। यह विशुद्घ मानवीय प्रेम था, जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अपेक्षा है, यहां कोई धार्मिक विद्वेष नहीं था। हिन्दुओं में रक्षा-बन्धन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है, इसमें भाई बहन की रक्षा का वचन देता है। रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजी थी।
अकबर ने मुगल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया। अकबर ने ऐसी नीतियां अपनायी जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग सामाजिक स्तर पर एक-दूसरे के करीब आए। अकबर सभी धर्मों की शिक्षाओं का आदर करता था। उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना बनवाया था, जिसमें वह सभी धर्मों के महापुरुषों से उपदेश सुनता था सभी धर्मों की अच्छाइयों को जानने के लिए वह धर्म सभाएं बुलाता था। इबादत खाने में पहले शिया, सुन्नी और सूफी लोग ही धर्म-विवेचन करते थे बाद में अन्य धर्मों के विद्वान भी अपने धर्म का विवेचन करते थे। हिन्दू पंडितों के व्याख्यानों को सुनकर अकबर पुनर्जन्म के सिद्घान्त को मानने लगा और उसका यह विश्वास हो गया कि संसार के प्रत्येक धर्म में पुनर्जन्म के सिद्घान्त को किसी न किसी रूप में माना जाता है। हरिविजय सूरी, विजयसेन सूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय उस समय के प्रसिद्घ जैन विद्वान थे। हरिविजय सूरि के सम्पर्क से अकबर ने विशेष दिनों पर जीवों का वध निषिद्घ कर दिया था और सिद्घान्त चन्द्र नामक जैन विद्वान से मिलने पर उसने जैनियों के लिए कई रियायतें जारी कर दी थीं और जैन तीर्थों पर कर लगाना बन्द कर दिया था। दस्तूर महदजी राणा पारसी विद्वान था। उससे पारसी धर्म का विवेचन सुनकर अकबर सूर्य और अग्नि की पूजा करने लगा। अकबर ने गोआ से ईसाई विद्वानों को आंमत्रित किया और उनके द्वारा ईसाई धर्मों के मूल सिद्घान्तों का परिचय प्राप्त किया। ईसाई विद्वानों में एक्वानिंवा और मोन्सिरेट विशेष उल्लेख के योग्य हैं। प्रत्येक धर्म की व्याख्या को अकबर ऐसी गम्भीरता से सुनता था कि व्याख्याताओं को यह भ्रम हुआ करता था कि उसने उसके धर्म को स्वीकार कर लिया। वास्तव में अकबर ने कोई धर्म स्वीकार नहीं किया। वह धर्मों में व्याप्त कट्टरता से परेशान था। धार्मिक कट्टरता को दूर करने के लिए अकबर ने 'दीन-ए-इलाहीÓ नामक नया धर्म चलाया। इसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं को शामिल किया गया था। यह ऐसा धर्म था जिसमें कोई भी शामिल हो सकता था। यह मिला जुला धर्म था, जिसमें सभी मतों के विश्वासों को शामिल किया गया था।
अकबर के मन में असाम्प्रदायिक राज्य की अवधारणा पूर्णत: स्पष्ट थी। वह राज कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। इससे संबंधित पत्र परशिया के शाह अब्बास फवी को लिखा ''विभिन्न धार्मिक समुदाय हमें ईश्वर द्वारा सौंपे गये दैवी खजाने हैं और हमें उसी तरह से उनसे प्रेम करना चाहिए। यह हमारा दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रत्येक धर्म उनके आशीर्वाद से है और हमारा सच्चा प्रयत्न यह होना चाहिए कि सार्वलौकिक सहनशीलता के सदा हरे रहने वाले उद्यान से स्वर्गीय सुख का आनंद प्राप्त करें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर सभी मनुष्यों पर बिना किसी भेदभाव के अपनी कृपा बरसाता है। राजाओं द्वारा जो ईश्वर की छाया है, यह सिद्घान्त कभी भी नहीं छोड़़ा जाना चाहिए।ÓÓ10
अकबर हिन्दू धर्म का अत्यधिक आदर करता था, इसके कई उदाहरण हैं। हिन्दू-प्रजा की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए अकबर ने अपने शासन काल में 'गौ-हत्याÓ पर पाबंदी लगाई थी। हिन्दू गंगा को पवित्र नदी मानते हैं। अकबर गंगा नदी का ही पानी पीता था, वह अपने लिए हरिद्वार से पानीे मंगाता था। अकबर के समय में महाभारत, रामायण और योग वसिष्ठ आदि पुुस्तकों का अरबी-फारसी में अनुवाद हुआ। तुलसीदास, सूरदास, नाभा जी, केशव, नंददास आदि हिन्दी कवियों ने अकबर के समय में ही उत्कृष्ट साहित्य की रचना की। अबुल फजल ने महाभारत की प्रस्तावना लिखी और पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद किया। अबुल फजल नीतिशास्त्र रचयिताओं की श्रेणी में आते हैं। आइने अकबरी नामक उनकी पुस्तक का विषय अकबर का जीवन या इतिहास नहीं, बल्कि उसमें राजा के गुणों व कार्यों का निरूपण है। राजा के कर्तव्यों के बारे में अबुल फजल ने जो लिखा है उससे तत्कालीन मुगलशासन के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। उन्होंने लिखा कि राजा को सभी मतभेदों से ऊपर रहना चाहिए और यह ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक निर्णय कर्तव्य के मार्ग में बाधक न बनें, जिसके लिए प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समुदाय के प्रति ऋणी है। उसकी आत्मीयता पूर्ण सहायता से प्रत्येक को सुख और शांति प्राप्त होनी चाहिए जिससे ईश्वर की छाया द्वारा प्रदत्त लाभ सार्वलौकिक बने। 11
अकबर के नवरत्नों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। बीरबल, टोडरमल, तानसेन, राजा मानसिंह नवरत्नों में थे। अकबर की सेना में बहुत संख्या में हिन्दू राजपूत थे, अकबर उन पर पूरा विश्वास करते थे, राजा मानसिंह अकबर की सेना के सेनापति थे।
मुगल सम्राट शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा दारा शिकोह (1613--1658) अरबी, फारसी और संस्कृत का विद्वान था, जिसमें धार्मिक कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी। दारा शिकोह ने बनारस में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डितों की सहायता से उपनिषदों का अध्ययन किया। दारा शिकोह ने 'मजमा-उल-बहरीनÓ यानि दो महासागरों का मिलन नामक पुस्तक लिखी, जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के मेल पर आधारित है। इस पुस्तक में लिखा कि बड़ी वेदना के साथ फकीर मुहम्मद दारा शिकोह कहता है कि हकीकतों की हकीकत जानने के बाद और सूफियों के आदर्शों की बारीकियों को समझने के बाद तथा इस अंतिम सत्य को प्राप्त कर लेने के बाद मुझे भारत के धार्मिक विचारकों के सिद्धांतों को जानने-समझने की जिज्ञासा हुई। भारत के विद्वानों के साथ निरंतर विचार-विमर्श और उनके सत्संग के बाद जिन्होंने धार्मिक विषयों में पूर्णता प्राप्त कर ली थी, धर्म की आत्मा तक जिनकी पहुंच हो गई थी और ईश्वर की सत्ता का रहस्य जान लिया था, मुझे दारा शिकोह शाब्दिक अंतर के अलावा सत्य से साक्षात्कार के उनके मार्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई दिया। इसलिए दोनों वादियों के विचारों को संगृहित करके और दोनों के नुक्तों को एकत्र करके, एक सत्य के जिज्ञासु के लिए जिनकी जानकारी बहुत जरूरी और उपयोगी है, मैने एक पुस्तक की रचना की और इसका नाम मजमा-उल-बहरीन रखा, क्योंकि ये दोनों समुदायों के ब्रह्मज्ञानियों के विचारों का सार-संग्रह है।12
उन्होंनेेेेेे दोनों धर्मों की तुलना की है और यह दर्शाने की कोशिश की है दोनों में काफी हद तक समानता है। 'तत्वों पर विमर्शÓ अध्याय (अनासीर) में वे कहते हैं कि 'पांच तत्व हैं और ये पाचों तत्व एक ही ईश्वर की रचना हैं--पहला, 'परम तत्वÓ (अंसूर-ए-आजम), जो मनुष्य की आस्था है , शर जिसे 'अरस-ए-अकबरÓ या 'महान आत्माÓ कहा जाता है दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौैथा जल और पांचवां मिट्टी।ÓÓ और भारतीय भाषाओं में इसे पंचभूत कहा जाता है इनके नाम हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इस तरह दारा शिकोह ने दो धर्मों की अवधारणाओं और शब्दावली में तुलना की।13
दारा शिकोह ने संस्कृत और फारसी-अरबी के ग्रन्थों के अध्ययन और चिंतन-मनन के बाद यह निष्कर्ष दिया कि कुरान शरीफ में जो गुप्त सूचक का उल्लेख है वह उपनिषद ही है। 'सिर्रे-अकबरÓ की भूमिका में दारा ने स्वयं स्पष्ट किया कि उपनिषद के अध्ययन से 'अज्ञातÓ ज्ञात हो गया ओर 'न समझा हुआÓ समझा हुआ हो गया। इस पुस्तक की भूमिका में उसने लिखा कि कुरान शरीफ से पता चलता है कि फव इममन उम्मतिन इल्ला खला फीहा नजीरून।Ó(:24)Ó लकद अर्सलना रुसुलजना बिल्बय्यिनाति व अन्जलना मअहुल-किताब वल्मीजान (:24) यानि कोई जाति ऐसी नहीं है जो निग्र्रन्थ और निर्दूत हो। महान परमेश्वर किसी जाति को दंडित नहीं करता जब तक उस जाति में अपना दूत वह नियुक्त नहीं कर देता। और कोई जाति ऐसी नहीं है जिसमें उसका दूत नियुक्त न हो। वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद का सार एक ही ईश्वर की भक्ति और साधना का निरूपण है। इस प्रकार दारा ने कुरान और वेद व उपनिषदों में समानता खोजी, दोनों के ज्ञान को ही ईश्वरीय ज्ञान माना और आदर किया।
दारा शिकोह हिन्दोस्तानी संस्कृति में इस तरह रच बस गए थे कि उनको हिन्दू व मुस्लिम में कोई अन्तर नजर नहीं आता था, इसका बहुत ही ज्वलंत उदाहरण है कि उनकी पुस्तक 'शिर्रे-अकबरÓ 'अेाम श्री गणेशाय नम:Ó से प्रारम्भ होती है। दारा ने अपने हाथ में एक अंगूठी पहन रखी थी जिस पर देवनागरी में 'प्रभुÓ अंकित था।14
दारा शिकोह अनेक तत्वज्ञानियों, ब्राह्मणों और संन्यासियों के पास गया। उसने धर्म के बाहरी आडम्बरों को परमात्मा की प्राप्ति बाधक माना,आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया। उन्होंनेेेेेे कहा कि:-
'बहिश्त आंजा कि मुल्ला-ए न बाशद
जि मुल्ला शोरो गोगा-ए न बाशदÓ
इसका अर्थ है कि स्वर्ग वहां है जहां मुल्ला नहीं होता, जहां मुल्ला का कोलाहल सुनाई नहीं पडता।
दारा शिकोह ने भारत के ज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना व जरूरी समझा। इसका अरबी में अनुवाद किया और वहां के लोगों को इससे परिचित करवाया।
अंग्रेज इतिहासकारों ने व साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को एक कट्टर, धर्मांंध मुसलमान के रूप में चित्रित किया है। उसे शुष्क हृदय बताते हुए कहा गया कि उसने अपने दरबार से संगीतकारों, कलाकारों, ज्योतिषियों और कवियों को निकाल दिया था।15 औरंगजेब न तो आदर्श मुसलमान था और न ही हिन्दू विरोधी था, न उसे किसी विशेष धर्म से लगाव था और न ही किसी धर्म से नफरत थी, वह सिर्फ एक शासक था अपनी राज गद्दी को सुरक्षित रखने के लिए तथा उसे विस्तार देने के लिए उसने हर काम किया, उसके शासन में जो भी बाधा बना उसने उसे उतनी ही मुस्तैदी से दूर किया, जितनी कि कोई भी राजा करता।
औरंगजेब एक शासक था, शासक का कोई धर्म नहीं होता, उसका धर्म केवल और केवल अपनी गद्दी होता है। वह वही फैसले लेता है जो उसके शासन सत्ता के अनुकूल हों। औरंगजेब शासकीय निर्णय लेते समय वह हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं करता था।
जब शाहजहां सम्राट था और औरंगजेब के पास कुछ सूबों का शासन होता था, तो उसके पास जो हिन्दू अधिकारी थे उसने उनके लिए उसने समय समय पर उन्नति तथा वेतन वृद्घि के लिए शाहजहां से सिफारिश की और उनको जागीरें भी दीं।16
1--औरंगजेब ने सूबा एजलपुर की दीवानी के लिए रायकरण राजपूत की सिफारिश बादशाह से की, किन्तु बादशाह ने इसे अस्वीकार कर दिया। औरंगजेब इससे काफी निराश हुआ, परन्तु उसने बादशाह की अनदेखी करते हुए उसकी उन्नति की ।
2--नरसिंह दास ,जो असीरगढ के किले का किलेदार था, उसकी सेवाओं की प्रशंसा की और उसके वेतन में वृद्घि की सिफारिश बादशाह से की ।
3--औरंगजेब जब स्वयं शासक हुआ तो उसने हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया और समय -समय पर उनकी पदोन्नति की। कुछ नाम ये हैं--राजा भीमसिंह, महाराणा जयसिंह का भाई, इन्द्रसिंह, (महाराणा जयसिंह का भाइ) राजा मानसिंह , राजा रूपसिंह का पुत्र इत्यादि ।
4--औरंगजेब के शासन काल में हिन्दू मनसबदारों (अफसर) की संख्या सबसे अधिक थी। अकबर के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या केवल 32 थी, जहांगीर के समय में यह 56 हो गई। औरंगजेब के समय में यह बढकर 104 हो गई। इससे स्पष्ट है कि वह प्रशासनिक कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि औरंगजेब के शासन में कुल मनसबदारों का 34 प्रतिशत हिन्दू थे, जो कि इससे पहले अधिक से अधिक 22 प्रतिशत थे और अकबर के समय में ये 12 प्रतिशत थे।
5--औरंगजेब की सेना का सेनापति जयसिंह था, जो शिवाजी के विरुद्घ लड़ा था। औरंगजेब ने राजा जयसिह को मिजा की उपाधि दी थी। औरंगजेब की सेना में हिन्दू सैनिकों की संख्या मुसलमानों से कहीं अधिक थी। औरंगजेब और शिवाजी की लड़ाई कभी भी हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं रही। यह मुगलों और मराठों की लड़ाई भी नहीं थी। बहुत से इज्जतदार मराठा सरदार हमेशा मुगलों की सेना में रहे। सिंद खेड के जाधव राव के अलावा कान्होजी शिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचंद्र और बहीर जी पंढेर आदि मराठा सरदार मुगलों के साथ रहे।
औरंगजेब ने राजनीतिक कारणों से न केवल मंदिरों का बल्कि मस्जिदों को भी गिरवाया।18 ध्यान देने की बात यह भी है कि औरगजेब ने राजनीतिक कारणों से मंदिरों को दान में जागीरें और जमीनें भी दीं।
औरगंजेब ने बनारस के गवर्नर के नाम एक फर्मान जारी किया था, जिस पर नजर डालने से दूसरे धर्मों के प्रति उसके रवैये का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है:
कई लोग गुमराही के रास्ते पर चलकर बनारस और उसके आस पड़ोस के कुछ मकानों में रहने वाले हिंदुओं के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार करते हैं और उस क्षेत्र के मंदिरों के सेवक और पुजारी ब्राह्मणों की गतिविधियों में रोड़े अटकाते हैं। जबकि इन मंदिरों और पुजारियों का इन देवालयों से बहुत पुराना संबंध चला आ रहा है। वे लोग चाहते हैं कि इन्हें देवालयों की सेवा के कार्यों से वंचित कर दें, जो सेवा यह पुरोहित वर्ग एक लंबे समय से करता आ रहा है। इस क्रूरता के कारण यह वर्ग काफी परेशान हो गया है। लिहाजा यह हुक्म दिया जाता है कि इस नेक फर्मान के पंहुचने के बाद यह बात सुनिश्चित कर दी जाए कि कोई भी आदमी इस क्षेत्र के बसने वाले ब्राह्मणों और हिंदुओं की दुख-तकलीफ का कारण नहीं बनेगा ताकि वे लोग प्राचीन विधि-विधान के अनुसार अपनी जगहों और ओहदों पर रहकर माबदौलत की मजहबी जि़दगी के लिए दुआएं करें और हम्द-ए-इलाही में मशगूल रहें। इस बारे में जमा-दी-उल-सानिया, 1059 हिजरी में यह फर्मान लिखा गया।19क
औरगंजेब ने उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट में बालाजी मंदिर, गुवाहटी में उमानन्द मंदिर, शत्रुंजय में जैन मंदिर और उत्तरी भारत में फैले गुरुद्वारों को अनुदान दिए। अहमदाबाद के जैन मंदिर के न्यासियों के पास आज भी औरंगजेब का रूक्का है, जो उस समय एक जैन मुनि को दिया गया था। इस मंदिर के निर्माण का श्रेय औरंगजेब को ही है। इलाहाबाद नगरपालिका में सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर के लिए जागीर और नकद उपहार दिए और साथ में यह हिदायत दी कि 'यह जागीर देवता की पूजा और भोग के लिए दी जा रही हैÓ।18
गौर करने की बात है कि औरंगजेब ने जो मंदिर तोड़े या गिराये उनमें से अधिकतर उसके राज्य की सीमा से बाहर थे। उसके अपने राज्य की सीमा में तोड़े जाने वाले मंदिरों की संख्या बहुत कम है। यदि औरंगजेब धार्मिक नफरत के कारण मंदिर तोड़ता तो उसके लिए सबसे आसान बात तो यही थी कि वह अपने राज्य में बिना किसी रोक टोक के मंदिर तोड़ सकता था। इससे साफपता चलता है कि मंदिर तोडऩे का कारण धार्मिक तो कतई नहीं था, और यह राजनीतिक था ।
असल में, मध्यकाल में विशेष पूजा स्थल सत्ता का चिन्ह था। जब कोई राजा दूसरे राजा पर हमला करता था तो वह उसकी सत्ता के सारे चिन्हों को मिटा देना चाहता था। अधिकतर पूजा स्थलों के टूटने की यही वजह है।19
साम्प्रदायिक लोग औरंगजेब के बारे में कहते हैं कि उसने धार्मिक घृणा के कारण मंदिरों को गिराया, जबकि ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही सच्चाई बताते हैं। वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर औरंगजेब ने क्यों गिराया इसके बारे में डा. पट्टाभि सीतारमैया ने दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर अपनी पुस्तक 'दि ्रफैदर्स एंड दि स्टोन्सÓ में इस तथ्य का वर्णन निम्न प्रकार से किया है:-
विश्वनाथ मंदिर के बारे में कहानी यह है कि एक बार जब औरंगजेब बंगाल जाने के लिए वाराणसी से गुजर रहा था तो उसके साथी हिन्दू राजाओं ने अनुरोध किया कि यदि वहां एक दिन विश्राम कर लिया जाए तो उनकी रानियां गंगा में स्नान करके भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर सकती हैं। रानियों ने पालकियों में यात्रा की। उन्होंनेेेेेे गंगा में स्नान किया और पूजा के लिए विश्वनाथ मंदिर गर्इं। पूजा के बाद सभी रानियां वापस लौट आर्इं, लेकिन कच्छ की रानी वापस नहीं आई। पूरे मंदिर में तलाश की गई लेकिन रानी कहीं नहीं मिली। जब औरंगजेब को इसका पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने रानी की खोज करने के लिए बड़े अधिकारियों को भेजा। अन्तत: उन्हें पता चला कि दीवार में जड़ी गणेश की मूर्ति को इधर उधर सरकाया जा सकता था। जब मूर्ति को हटाया गया तो उन्हें तहखाने जाने वाली सीढिय़ां मिलीं। वहां रानी को रोते हुए पाया उसकी इज्जत लूटी जा चुकी थी। तहखाना ठीक भगवान की मूर्ति के नीचे था। राजाओं ने इस जघन्य अपराध के लिए कड़ी सजा की मांग की। औरंगजेब ने आदेश दिया कि पवित्र स्थान को अपवित्र कर दिया गया है। भगवान विश्वनाथ को किसी दूसरे स्थान पर ले जाया जाए और महंत को गिरफ्तार करके सजा दी जाए।20
औरंगजेब बहुत सादा जीवन व्यतीत करता था वह अपने हाथों से टोपी सिलकर उसी की आमदनी से अपना खर्च चलाता था। वह मुख्यत: जौ की रोटी, शाक और मिठाई खाता था। 'रूक्कात-ए-आलमगीरÓ के नाम से औरंगजेब के पत्रों का संकलन हुआ है, जिसमें उसके व्यक्तित्व के दिलचस्प पहलुओं का पता चलता है। औरंगजेब भारतीय संस्कृति का प्रेमी था। उसने होली पर कविता लिखी, होली के त्यौहार को वह आदर की भावना से देखता था और होली खेलता था।21
अनगिन आनंद बसंत मुबारक, साहिनि साहि औरंगजेब जू
तुम ऐसे ही अनगिन बरस लौ, हम मंगल मुखिनि संग खेलो धमधार ।।
औरंगजेब कई भाषाओं का विद्वान था। अरबी, तुर्की के साथ हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञाता था। उसने हिन्दी में कविताएं भी लिखी हैं-
चरण धर- धर मेरे गृह लालन भए खाए आए मेरे।
तन के दुख सब दूर गए सुख आए मेरे नेरै।।
मृदंग बजावहु मंगल गाबहु भागन हो पाए
कर रही प्रथम ही जतन बहुतेरे।
साह औरंगजेब प्रीतम अब मैं धन जनम कर
मानत जब आखिन मन हेरे।
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पाक परवरदिगार, करीम रहीम बन्दे निवाज।
जित देखूं तू ही तू भर रहो, तेरी कुदरत को काउ न पावै राजौ नियाज
$$
आचार्य चतुरसेन ने औरंगजेब के साहित्य संरक्षण के बारे में लिखा है--''हिन्दी का वह प्रेमी था। उसने हिन्दी में काव्य रचना भी की तथा हिन्दी कवियों का सत्कार भी किया। वृंद कवि को औरंगजेब दस रुपया रोज देता था ।ÓÓ
शिवाजी की सेना में बहुत अधिक पठान मुसलमान थे। उनका व्यक्तिगत सचिव मौलवी हैदर अली खान था, जो कि औरंगजेब और मुगल अधिकारियों के साथ शिवाजी के गोपनीय पत्राचार को देखता था। शिवाजी का मुख्य तोपची भी इब्राहिम गर्दी खान था। शिवाजी के सेनापति दौलतखान और सिद्दीक मिसरी थे, दोनों मुसलमान थे। औरंगजेब ने जब शिवाजी को आगरा की जेल में कैद कर लिया था, तो उनको वहां से निकालने वाला व्यक्ति मदारी मेहतर नाम का मुसलमान था।22 हिन्दू और मुस्लिम राजा के बीच कलह था तो उसका कारण राजनीतिक था न कि धार्मिक। ''वे जब आगरा गए तो उनके साथ मदारी मेहतर नाम का मुसलमान युवक था। शिवाजी महाराज के अपने डेरे से निकल जाने के बाद अंत में वही उनके डेरे से बाहर निकला। अफजल खां से मिलने के समय महाराज के साथ इने गिने दस आदमियों में सिद्दी इब्राहीम था। महाराज का पहला सरनोबत अर्थात सेनापति नूरखां बेग था। ई. सन 1673 में जब बहलोलखां पर प्रतापराव गूजर ने हमला किया, उस समय सिद्दी हिलाल नामक सरदार अपने पांचों बेटों सहित बहलोल से लड़ रहा था। जंजिरे के सिद्दी को मार भगाने वाला दौलतखां महाराज के जहाजी बेड़े का सरदार था।ÓÓ23
शिवाजी दूसरे धर्म के लोगों का तथा दूसरे धर्म की शिक्षाओं, विश्वासों व पूजा पद्घतियों का सम्मान करते थे। शिवाजी ने अपने जगदीशपुर महल के सामने मस्जिद बनवाई थी, जिसमें वह हर रोज पूजा के लिए जाता था। शिवाजी दूसरे धर्मों के संतों और फकीरों का आदर करते थे। 'हजरत बाबा याकूत बहुत थोरवालेÓ को उन्होंनेेेेे जीवन पेंशन दे रखी थी। गुजरात के फादर एम्ब्रोस जिनका चर्च खतरे में था उनकी भी शिवाजी ने मदद की थी।
शिवाजी ने अपने सिपाहियों को सख्त आदेश दे रखे थे कि लड़ाई या लूट के माल में मस्जिद, कुरान और नारी का अपमान नहीं होना चाहिए।24 एक बार उन्होंनेेेेेे लूट के माल में कुरान की प्रति देखी तो वे अपने सिपाहियों पर नाराज हो गए। आखिरकार कुरान की प्रति उसके घर पहुंचा दी गई जिसके घर से लेकर आए थे। उनके मन में स्त्रियों के प्रति बहुत सम्मान था। एक बार उनके सिपाही कल्याण के सूबेदार का घर लूटकर, लूट के माल के साथ उसकी बेटी भी ले आए। शिवाजी को इस पर बहुत पछतावा हुआ और उस युवती को उन्होंने इज्जत के साथ डोली में बिठाकर उसके घर भेज दिया। जैसे एक भाई बहन की विदाई में उपहार देता है उसी तरह शिवाजी ने युवती को उपहार में दो गांव दिए।
शिवाजी ने समर्थ रामदास स्वामी को अपना गुरु धारण किया। स्वामी रामदास ने मराठी भाषा के प्रसिद्घ कवि व सूफी शेख मोहम्मद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा कि ''शेख मोहम्मद तुम महान हो। तुमने संसार के रहस्य को ऐसे ढंग से और ऐसी भाषा में उद्घाटित किया है जो कि सामान्य व्यक्ति की समझ से परे है। तुमने समस्त संसार की मूलभूत एकता और पहचान को सच्चे अर्थों में ग्रहण किया है। तुमने हमारे ऊपर अहसान किया है, हम आपके ऋणी हैं और इस ऋण को अपने शरीर और आत्मा को आपके चरणों में अर्पित करके भी नहीं चुका सकते। मैं आपके पैरों की पवित्र धूल अपने सिर पर लूं। शिवाजी के विचारों और जीवन पर ऐसे महान संत का प्रभाव था।
शिवाजी के पूर्वज सभी धर्मों के महान संतों का सम्मान करते थे। जिसका असर उनके जीवन पर था। प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा की पत्नी मौलीजी ने महाराष्ट्र के खुलदाबाद के सूफी संत शाह शरीफजी से आशीर्वाद लिया और उनके आश्रम में रही। यह भी प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा के कोई संतान नहीं थी, और शाह शरीफ जी के आशीर्वाद से उनको दो पुत्र हुए। कहा जाता है कि शाह शरीफ जी को सम्मान देने के लिए ही शिवाजी के पिता का नाम शाहजी रखा गया था।
सिक्ख धर्म के सिद्धांत व पूजा विधान साझी संस्कृति की अद्भुत मिसाल है। ''गुरु अर्जुन देव ने हरिमंदिर की नींव, जिसे बाद में स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा, लाहौर के एक मुसलमान फकीर मियां मीर के हाथों रखवाई।ÓÓ24क गुरु अर्जुनदेव ने सिक्खों की पवित्र-पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहब का संकलन किया, जिसमें उन्होंने बिना किसी भेदभाव के हिंदू और मुस्लिम संतों की वाणी को स्थान दिया। ''गुरु ग्रंथ साहब में संकलित वाणी सिख गुरुओं की ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों, जाति आदि के 36 अन्य संत-फकीरों की रचनाएं भी संग्रहीत हैं। इनमें बंगाल के जयदेव, अवध के गुरुदास, महाराष्ट्र के नामदेव, त्रिलोचन व परमानंद, उत्तरप्रदेश के बेनी, रामानंद, पीपा, सेन, कबीर, रविदास और भीखन, राजस्थान के धन्ना और पंजाब के जिला मुलतान से फरीद जी हैं। इतना ही नहीं, इनमें से कुछेक तथाकथित नीच जाति के थे। कबीर एक जुलाहा थे, नामदेव दर्जी, सदना कसाई, सेन नाई तथा रविदास चमार थे। ग्रंथ साहेब के संकलनकत्र्ता ने जाति अथवा धर्म को रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया। धन्ना एक जाट था। फरीद साहेब एक मुस्लिम फकीर थे तो भीका जी इस्लाम धर्म के विद्वान थे। जयदेव एक हिंदू रहस्यवादी कवि थे।
जिस समय एक सिक्ख गुरु ग्रंथ साहेब के सामने अपना सिर झुकाकर मार्गदर्शन की याचना करता है, वह सुप्रसिद्ध मुस्लिम सूफी संत फरीद और कृष्ण भक्त जयदेव के प्रति वैसी ही भक्ति भावना प्रकट कर रहा होता है।ÓÓ24ख
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने ही खालसा पंथ की नींव रखी। वे धार्मिक कट्टरता व अंधविश्वासों के विरुद्घ थे। सढौरा के सैयद बुधूशाह, जो अपने संत स्वभाव के कारण प्रसिद्घ थे, उन्होंनेेेेेे गुरु की सेवा के लिए पांच सौ पठानों को भी भेजा था, लेकिन वे धन के लालच में गुरु का साथ छोड़़ गए। जब बुधूशाह को इस बात का पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ और अपने चार बेटों, एक भाई और सात सौ सिपाहियों के साथ गुरु की सेवा में हाजिर हो गया। भंगानी नामक स्थान पर पहाड़ी राजाओं औैर गुरु गोबिन्द सिंह के बीच घमासान युद्घ हुआ। इस लड़ाई में बुधूशाह के रिश्तेदारों ने और सैनिकों ने बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। गुरु के रिश्ते का भाई संगाशाह और पीर बुधूशाह के दो पुत्र मारे गए। गुरु ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए पीर बुधूशाह को कृपाण, कंघा, अपने कुछ टूटे हुए केश और पगड़ी भेंट की। नाभा में ये वस्तुएं आज भी पवित्र स्मृति चिन्हों के रूप में संजो कर रखी हुई हैं।
गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन से जुड़ी हुई कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो साझा संस्कृति की अद्भुत मिसाल हंै। चमकौर की घमासान लड़ाई के बाद गुरु की जान बचाने के लिए उनके बचे हुए पांच शिष्यों ने आदेश दिया कि वे वहां से चल जाएं। भारी मन से इस बात को स्वीकार किया गया और रोपड़ और लुधियाना के बीच माछीवाड़ा के जंगल में वे पहुंच गये। पैदल चलने के कारण गुरु के पैरों में छाले पड़ गए थे, और उनसे चला नहीं जा रहा था। यहां पहले से निर्धारित योजना के तहत उन्हें तीन सिक्ख मिले। जहां वे ठहरे थे वहां उनकी मुलाकात दो पठानों से हुई, उनमें से एक के घर वे रुके। मुगल सेना गुरु की तलाश में वहां पहुची, सेना ने पूरे घर की तलाशी ली, मगर गुरु को नहीं पा सकी। इन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह को छिपा लिया था। वहां से सुरक्षित निकालने के लिए दो पठानों और तीन सिक्खों ने गुरु को चारपाई पर लिटाया और यह कहकर मुगल सेनाओं के बीच से निकाला कि यह हमारा पीर है, यह हाल ही में हज करके लौटे हैं और आज कल इनका व्रत चल रहा है।
गुरु गोबिन्द सिंह ने सभी धर्मों को समान समझा। वे धार्मिक आधार पर भेदभाव को अनुचित समझते थे। उन्होंनेेेेेे अपने अनुयायियों से कहा कि दूसरे धर्मोंं का आदर करो । सभी मनुष्यों को एक समान मानने के लिए कहा।
मानस की जाति सबै एक पहचानबो
गुरु गोबिन्द सिंह ने इशर््वर और अल्लाह में कोई अन्तर नहीं किया। उनका मानना है कि सभी धार्मिक ग्रन्थों में एक जैसी शिक्षाएं हैं चाहे वह कुरान हो जिसे मुसलमान पवित्र मानते हैं चाहे वह वेद या पुराण हों जिसे हिन्दू पूज्य मानते हैं। इनमें मूलभूत एकता है इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्मों के बीच व्याप्त एकता के सुत्रों को ढूंढा। उनका मानना था कि गंगा को पूज्य मानने वाले लोगों और मक्का को पवित्र मानने वाले लोगों में कोई्र अन्तर नहीं है।

देहुरा मसीत सोइ,
पूजा और निमाज ओइ।
$$
करता करीम सोई
राजक रहीम ओई
दूसरो न भेद कोइ।
$$
पुरान और कुरान ओई।
$$
केते गंगबासी केते मदीना मका निवासी।
$$
बेद पुरान कतेब कुरान अभेद।
$$
हैदरअली के बाद टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष किया। टीपू सुल्तान को अकबर के बाद सबसे उदार शासक माना जाता है, जिसने जनता में धार्मिक भेदभाव मिटाने के लिए कदम उठाए। उन्होंनेेेेेे दक्षिण भारत के बहुत से मंदिरों को जागीरें दान दे रखी थी, ताकि उनका रख रखाव और देखभाल एवं पूजा आदि ठीक ढंग से हो सके। एक बार मराठा सेना ने टीपू सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया, परन्तु उनको हार का मुंह देखना पड़ा तो उन्होंनेेेेे वापस हटते हुए बस्तियों को तहस नहस किया और शहर के पास कावेरी नदी पर स्थित श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और उसको क्षति पहुचाई तो टीपू सुल्तान ने बिना किसी भेदभाव के उसकी मुरम्मत करवाई और उसका पुनर्निमाण करवाया।25
टीपू सुल्तान के मन में हिन्दू-धर्म के प्रति कितना आदर था तथा हिन्दुओं का टीपू सुल्तान पर कितना विश्वास था इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वह जब भी किसी अभियान पर निकलता था तो वह श्रृंगेरी में स्थित हिन्दुओं के मठ के शंकराचार्य से आशीर्वाद लेकर निकलता था। उसने इस मठ में शारदा की मूर्ति के निर्माण के लिए धन दिया। श्री रंगनाथ का प्रसिद्घ मंदिर उनके महल से केवल 100 गज की दूरी पर था।
बहादुर शाह जफर अन्तिम मुगल सम्राट थे। 1857 भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम इनके नेतृत्व में लड़ा गया। इस लड़ाई में हिन्दू और मुसलमानों ने मिलकर भाग लिया। बहादुरशाह जफर ने अपने जीवन के आखिरी दम तक में भारत देश के प्रति वफादारी दिखाई। उन्होंनेेेेेे अपनी रचना में लिखा
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्त लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की 26
वे भारत की मिट्टी से इतना प्यार करते थे कि जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों ने उनके जवान बेटों के सिर काट कर उनके सामने पेश किए तो उन्होंनेेेेेे उफ् तक नहीं की। उनको इस देश से कितना प्यार था उसका अन्दाजा इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है:--
कितना बदनसीब है जफर दफन के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कूए यार में
बहादुरशाह जफर हिन्दुस्तान में दफन होना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह भी नसीब नहीं हुआ। उनको रंगून जेल में भेज दिया गया था। बहादुर शाह जफर की रचनाओं में साम्प्रदायिक सद्भाव के दर्शन होते हैं। इनकी नजर में हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं था। हिन्दुओं के त्यौहारों को उतने ही उल्लास के साथ मनाते थे, जितने कि मुसलमानों के त्यौहारों को। इन्होंने दशहरा, होली और दीपावली को उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से इनकी होली नामक कविता अत्यंत स्वाभाविक तथा मनमोहक है:--
क्यों मोपर रंग की मारी पिचकारी देखो कुंवर जी दूंगी गारी।
''अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डालने से भी यह सच्चाई सामने आ जाती है कि भारत में अंग्रेजी राज के कायम होने से पहले मुसलमानों और हिंदुओं के मधुर संबंध थे और भावनात्मक एकता अपने चरम बिन्दु पर पहुंच चुकी थी। उनके जीवन के हर क्षेत्र में आत्मीयता, एकता, समता और भाईचारे की भावना दिखाई देती है। दोनों के सामाजिक आदर्शों में समझौते का भाव पाया जाता है और विभिन्न धार्मिक आस्थाओं में एक ऐसा मेल-जोल नजर आता है जो विगत शताब्दियों की स्वस्थ और पवित्र परंपराओं का एक मिला जुला नतीजा था।
हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता और समता पैदा करने के प्रयासों का परिणाम एक समन्वित संस्कृति के रूप में दिखाई दिया जो न तो विशुद्ध मुस्लिम संस्कृति थी और न उसे विशुद्ध हिन्दू संस्कृति ही कहा जा सकता है बल्कि यह मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम संस्कृति थी। दोनों जातियों के जीवन के हर क्षेत्र में यह संस्कृति बहुत गहरे में प्रवेश कर गई थी। हिंदू और मुसलमान कवियों और लेखकों के लिखने और कहने का ढंग एक जैसा ही था। हिंदू रचनाकार अपनी कृतियों को उसी ढंग से शुरू करते थे जिस तरह मुसलमान।ÓÓ27

मुसलमान व हिन्दू कवियों के मिले-जुले स्वर को देखकर ही आधुुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है:
अलीखान पठान सुता सह ब्रज रसवारे।
सेख नबी रसखान मीर अहमद हरि प्यारे।।
निरमल दास कबीर ताज खां बेगम बारी।
तानसेन कृष्णदास बिजापुर नृपति दुलारी।
पिरजादी बीबी रास्तो पदरज नित सिर धरिए।
इन मुसलमान हरिजन पै कोटिन हिन्दुन वारिए।।

संदर्भ:
1- कुंवरपाल सिंह; भक्ति आन्दोलन:इतिहास और संस्कृति भक्ति आन्दोलन: प्रेरणा स्रोत एवं वैशिष्ट्य, वासुदेव सिंह का लेख; पृ.185
2- भारत में बाबर आया तो वह मुस्लिम शासक इब्राहिम लोधी से लड़ा, हुंमायू और शेरशाह सूरी के बीच घमासान लड़ाई हुई और दोनों मुसलमान थे। महाराणा प्रताप और अकबर की लड़ाई में अकबर का सेनापति हिन्दू राजपूत मानसिंह था, तो महाराणा प्रताप का सेनापति मुसलमान पठान हकीम सूर खान था। गुरु गोबिन्द सिंह की मुगल शासक औरंगजेब के साथ लड़ाई थी तो उनका कितने ही मुसलमानों ने साथ दिया था। शासकों की इन लड़ाइयों के कारण राजनीतिक थे, लेकिन अंग्रेजों ने इनको धार्मिक लड़ाइयों की तरह से प्रस्तुत किया।
3-यदि वह धार्मिक कारण से ऐसा करता तो उसके हजारों मील के सफर में सैंकड़ों मन्दिर आए, लेकिन उसने किसी को भी नहीं छुआ। गौर करने की बात यह है कि उसकी सेना में बहुत बड़ी संख्या हिन्दू सिपाहियों की थी, उसके बारह सेनापतियों में पांच हिन्दू थे।
4-जिन क्षेत्रों में मुस्लिम शासकों की राजधानी थी, वहां धर्मान्तरण कम हुआ आज भी दिल्ली व आगरा के आसपास मुसलमानों की संख्या दस प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, लेकिन जो आज पाकिस्तान है वहां जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा मुसलमान बना था, जबकि मुस्लिम सत्ता का केन्द्र दिल्ली-आगरा रहा। विख्यात पाकिस्तानी इतिहासकार एस.एम. इकराम ने टिप्पणी की है: ''अगर मुसलमानों की आबादी के फैलाव के लिए मुसलमान सुल्तानों की ताकतें ज्यादा जिम्मेदार हैं तो फिर यह अपेक्षा बनती है कि मुसलमानों की अधिकतम आबादी, उन क्षेत्रों में होनी चाहिए, जो मुस्लिम राजनीतिक शक्ति के केन्द्र रहे हैं। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद, अहमदनगर और बीजापुर, यहां तक कि मैसूर में भी, जहां कि कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने जबरन लोगों को इस्लाम में धर्मान्तरित करवाया, मुसलमानों का प्रतिशत बहुत कम है। राजकीय धर्मान्तरण के परिणामों को इसी तथ्य से नापा जा सकता है कि मैसूर राज्य में मुसलमान बमुश्किल पूरी आबादी पांच प्रतिशत हैं। दूसरी ओर, जबकि मालाबार में इस्लाम कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं रहा, लेकिन आज भी मुसलमान कुल आबादी के करीब तीस प्रतिशत हैं। उन दो प्रदेशों में जहां मुसलमानों की सघनतम आबादी है - यानी आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान मेें - इस बात के साफ-स्पष्ट सबूत हैं कि धर्मान्तरण उन रहस्यवादी सूफी सन्तों की वजह से हुआ जो सल्तनत के दौरान हिन्दुस्तान आते रहे। पश्चिमी क्षेत्र में तेहरवीं सदी में यह प्रक्रिया उन हजारों धर्मवेत्ताओं, सन्तों, धर्म प्रचारकों की वजह से ज्यादा सुकर बनी जो मंगोलों के आतंक से पलायन कर भारत आए।ÓÓ
5- कुंवर पाल सिंह; पृ. 269 प्रो. नूरुल हसन का लेख भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता से
6-
7-डा. महीप सिंह; गुरुनानक; सरस्वती विहार,दिल्ली; 1989; पृ.39
8- डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़14
9-
10- एस.आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृृ. 81
11-एस आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृ. 81
12-मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ. 15
13- असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया: ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ. 19,
14- रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ. 346
15- हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के बारे फैलाया कि वह हर रोज लाखों हिन्दुओं के जनेऊ काटकर दोपहर का खाना खाता था, उसने इस्लाम को प्रचारित करने के लिए तलवार का सहारा लिया, वह हिन्दू धर्म से इतनी नफरत करता था कि उसने हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिए मंदिरों को तोड़ा और मूर्तियों को नष्ट किया। दूसरी और मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे कि वह इस्लाम को प्रसारित करने के लिए अवतार हुआ हो और उसने सारे काम शरीयत के अनुसार किए। दोनों सम्प्रदायों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के व्यक्तित्व को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया बल्कि अपने राजनीतिक हितों के लिए उसे तोड़ा मरोड़ा । दोनों धर्मों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए औरंगजेब का इस्तेमाल किया। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायिक तत्वों ने हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने के लिए इसका प्रयोग किया, तो मुसलमान साम्प्रदायिक शक्तियों ने इसके चरित्र को महिमा मंडित किया, उसे इस्लाम के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करके उसे आदर्श मुस्लिम शासक ठहराया।
16- डॉ इकबाल; अहमद सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली; 1993; पृ. 15
17 गोलकुण्डा के विख्यात तानाशाह ने राज्य की जनता से कर वसूल लिया, लेकिन उसने दिल्ली का हिस्सा नहीं दिया। उसने खजाने को धरती में गाड़ दिया और उस पर मस्जिद बना दी। जब औरंगजेब को इस बात का पता चला तो उसने मस्जिद को गिराने का हुक्म दिया।
18-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली; 1995; पृ. 12
19- इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें हिन्दू राजाओं ने दूसरे राजा की सीमा में आने वाले मंदिरों को तोड़ा। परमार राजा हिन्दू धर्म से संबंधित थे, लेकिन उन्होंनेेेेेे जैन मंदिरों को तोड़ा। कश्मीर के राजा हर्षदेव ने मूर्तियों को मंदिरों से हटाया, उसने तो मूर्तियां हटाने के लिए 'देवोतपत्नायकÓ नामक अधिकारी नियुक्त कर दिया था। मराठों ने टीपू सुल्तान के राज्य में पडऩे वाले श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और नष्ट किया, और टीपू सुल्तान ने उसकी मुरम्मत करवाई। अंग्रेज शासकों ने भारत की जनता की एकता को तोडऩे के लिए इतिहास को इस ढंग से प्रस्तुत किया था और उन्हीं का सहयोग करने वाली तथा लोगों के भाईचारे व एकता को तोडऩे वाली साम्प्रदायिक शक्तियों ने हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए इसे प्रयोग किया, जबकि यह मध्यकाल के शासकों की सामान्य विशेषता है। सभी शासक चाहे वह हिन्दू था या मुसलमान पूजा स्थलों को तोड़ते थे।
19क- मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ.10
20-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ.-14
21- डॉ इकबाल अहमद; सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली;1993; पृ.16
22-गो.प.नेने;छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस,दिल्ली;1974; पृ.41
23-गो.प.नेने; छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस, दिल्ली; पृ.93
24-रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.346
24क-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.15
24ख-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.39
25 डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़39
26 के.एल.जौहर; स्वतन्त्रता संग्राम के अमर शहीद; स्नेह प्रकाशन,नोयडा; पृ. 113
27-मुहम्मद उमर, भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1996, पृ.13



बाबू बालमुकुन्द गुप्त

बाबू बालमुकुन्द गुप्त

हरियाणा के झज्जर जिले के गुडिय़ानी नामक गांव में 1965 में लाला पूरणमल के घर में बाबू बालमुकुन्द गुप्त का जन्म हुआ। ''गुप्त के आरंभिक काल में इस गांव की आबादी थोड़ी ही थी। गांव में दो प्रमुख जातियों के लोग रहते थे। बहुसंख्यक तो पठान थे जो घोड़ों का व्यापार करते थे और अल्पसंख्यक महाजन लोग थे जो वाणिज्य और सूद का ध्ंाधा करते थे। पठान व्यापारी अपने बच्चों को उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए मक़तब भेजते, परन्तु महाजन लोगों में शिक्षा का प्रचार नहीं था। बालमुकुन्द गुप्त गांव में अपनी जाति के पहले बालक थे जिनकी शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई।"1
बालमुकुन्द गुप्त की ''प्रारंभिक शिक्षा तत्कालीन मामूली से मदरसे में हुई थी, जिसको गुप्त जी के शब्दों में 'नीम मकतब' कहा जा सकता है। ऐसे स्कूलों में न कोई पुस्तक होती थी, न उर्दू का कायदा उपलब्ध होता था। अध्यापक के बताने पर तख्तियों पर बच्चे उर्दू की वर्णमाला लिख लिया करते थे। पठन-पाठन की भाषा उर्दू के कायदे का काम चलाती थी। उस समय तक उर्दू की पहली, दूसरी तथा तीसरी किताब लिखी तो जा चुकी थी, पर दूरस्थ ग्राम मदरसों तक पहुंच न पायी थी।"2
बालमुकुन्द गुप्त का जीवन संघर्षपूर्ण था। वे पढ़ाई में बहुत होशियार थे। उनके पिता उनको शिक्षा दिलवाना चाहते थे। ''इससे पहले कि पूरणमल अपने लड़के के भविष्य के बारे में कुछ सोचते, वे चौंतीस वर्ष की आयु में चल बसे। यही नहीं, उनके निधन से पूरणमल के पिता को ऐसा धक्का लगा कि एक सप्ताह में उनका भी स्वर्गवास हो गया। तब परिवार में सबसे बड़े चौदह वर्षीय बालमुकुन्द को अपने पैतृक व्यवसाय के हिसाब-किताब को समझने, बकाया वसूल करने और लेन-देन के झगड़े निपटाने के काम में जुट जाना पड़ा। अगले ही वर्ष सन् 1880 में उनका विवाह भी कर दिया गया। वधू अनार देवी रेवाड़ी के एक व्यापारी की पुत्री थी। अब बालमुकुन्द को घर-गृहस्थी और छोटे भाइयों और बहनों की इेखरेख भी करनी पड़ी। शिक्षा के स्वप्न हवा हुए। जब पांच वर्षों की अवधि में उनके भाई काम संभालने की स्थिति में हुए तब बालमुकुन्द निर्णय कर सके कि आगे पढ़ाई की जाए। उन्होंने घर बैठकर स्वयं अध्ययन किया और 1886 में दिल्ली जाकर वहां से मिडिल की परीक्षा पास की।"3
बालमुकुन्द गुप्त जी ने उर्दू पत्रकारिता से शुरूआत की, उन्होंने 'अखबार-ए-चुनार', 'कोहिनूर' का सम्पादन किया और अपनी लेखनी से ख्याति अर्जित की। हिन्दी-पत्रकारिता में 'हिन्दी बंगवासी', 'भारत मित्र' को बुलन्दियों पर लेकर गए। कलकत्ता की जलवायु तथा काम की अधिकता के कारण गुप्त जी का स्वास्थ्य खराब हो गया। जलवायु बदलने के लिए वे बिहार में वैद्यनाथ धाम भी गए, परन्तु मन न लगने व स्वास्थ्य में सुधार न होने के कारण वे गुडिय़ानी के लिए रवाना हुए। दिल्ली पहुंचने पर उनके सम्बन्धियों ने इलाज के लिए रोक लिया। कई वैद्यों ने इलाज के प्रयास किए लेकिन गुप्त जी के स्वास्थ्य में कोई लाभ नहीं हुआ। 18 सितम्बर, 1907 को उनका छोटी सी उम्र में देहान्त हो गया।
गुप्त जी ने अपनी थोड़ी सी उम्र में ही हिन्दी साहित्य को बहुत कुछ दिया। उनके व्यक्तित्व के बारे में डा. नत्थन सिंह ने सही लिखा है कि ''बचपन से ही गुप्त जी प्रतिभावान एवं कर्मठ छात्र थे। गणित के जिस प्रश्न को अध्यापक हल करने में विफल रहे थे, उसको आपने हल कर दिया था। पिता तथा पितामह के संरक्षण से वंचित होकर भी आपने कौटुम्बिक व्यवसाय का संवर्धन तथा अध्ययन का उत्कर्ष किया था। समुचित साधनों के अभाव में विद्या का अर्जन, निस्पृह लेखन, वैष्णव संस्कृति का पोषण, साहित्य की प्रगतिशील राष्ट्रवादी परम्परा का संवर्धन, भाषा तथा लिपि के सहज तथा लोकोन्मुख रूप की रक्षा के लिए महारथियों के साथ संघर्ष, व्यग्य एवं विनोदपरक शैली के माध्यम से प्रखर आलोचना का प्रवर्तन, ज्ञान एवं मानवता के रक्षक, देशी-विदेशी विद्वानों का सम्मान करना आदि उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण थे।
उनको उर्दू, फारसी, हिन्दी तथा बंगला आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। संस्कृत तथा अंग्रेजी का जमकर अध्ययन किया था। विद्यार्जन में रुचि, निर्भीक एवं स्पष्ट कथन और भारतीयता उनके व्यक्तित्व की त्रिवेणी थी। वह अपने युग के अप्रतिम लेखक थे।"4
''गुप्त जी के कवि और लेखक का श्रीगणेश उर्दू कविता तथा गद्य से होता है। प्रारम्भिक शिक्षार्जन के पश्चात् उनका सम्पर्क झज्जर की संस्था 'रिफाहे आम सोसाइटी' के साथ हुआ। यह संस्था समस्यापूर्ति का केन्द्र स्थल थी। गुप्त जी भी समस्यापूर्ति करने लगे और शनै: शनै: उर्दू में काव्य रचना की ओर बढ़े। उनके अध्यापक मौलवी बरकतअली और मुंशी वजीर मुहम्मद साहब उनकी उर्दू कविता का संशोधन कर दिया करते थे। उनका उर्दू काव्य परम्परागत अध्कि है, किन्तु हिन्दी-काव्य परम्परा से एक कदम आगे की चीज है। इतने पर भी कविता के कलापरक निकष पर परखने पर निराशा हाथ लग सकती है, कारण केवल यह है कि कला की निरपेक्ष साधना उनका अभिप्रेत न था। यह काव्य के माध्यम से अपनी समाज-सापेक्ष विचारधारा को वाणी देने के पक्षधर थे।
गुप्त जी का यह अभिप्रेत उनके उर्दू-काव्य से भी व्यक्त होता है और हिन्दी कविता से भी। उर्दू कविता अधिकाशंत: शराब, साकी, मयखाना तक सीमित रहती है। गुप्त जी का मार्ग इससे कुछ भिन्न था। इश्क के विषय में उनकी धरणा एक शेर से प्रकट होती है -
अजायब है ए शाद! नैरंगे इश्क, लिखी खूब हैरत ने यह जंगे इश्क।
मजामीन ताजाब सरगूद है। खयालात पाकीजा और खूब है।5
गुप्त जी ने उर्दू साहित्य की नई धरा से अपने को जोड़ा वे अपनी कविताओं से समाज की बुराइयों दूर करने व व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता व सदाचार को अपनाने के लिए प्रेरित करते थे। अल्ताफ हुसैन हाली ने उर्दू में जिस नए दौर की शुरूआत की थी, गुप्त जी ने उसे अपनाया।
समझ इस बात को नादां जो तुम में कुछ भी गैरत हो,
न कर उस काम को हरगिज कि जिसमें तुझको जिल्लत हो।
बुरे अफआल में पड़कर न हरगिज अपनी बुकअत खो,
बस वह काम कर जिसमें कि तेरे दिल को राहत हो।
अगर है साहिबे इसबाल आपे से न हो बेरंग,
कि आमद हो न पानी की तो सूखे चश्मये जेजूं।6
बालमुकुन्द गुप्त की कविता के बारे में डा. नत्थन सिंह ने सही ही लिखा है कि ''गुप्त जी का उर्दू-काव्य, उर्दू शायरी के परम्परागत रूप का एक सीमित मात्रा में स्पर्श करते हुए भी उससे अलग है। उसमें न मयखाने की बहुतायत है, न साकीवाला की, न उसमें माशूक की शोखियों का चित्रण है, न आशिक के शिकवे-शिकायत का बाहुल्य, उसमें न दजला-फरात तथा कोहकाफ की प्राकृतिक सुषमा का अंकन है, न युग यथार्थ से पलायन। उसमें प्रकृति के बिम्ब हैं और मानव की अनुभूति की अभिव्यंजना भी। वह न कोरी कल्पना का महल खड़ा करती है और न कला के उपयोगितावादी पक्ष से बचती है। वह नीति, संयम और विवेक के उपदेश भी देती है और राष्ट्र की प्रगति के साथ इन्सान को जोडऩा चाहती है।"7
कविता ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। तत्कालीन घटनाएं कविताओं में मौजूद हैं। साहित्य को सीधे पर तौर पर अपने समय से जोडऩा अपने आप में ऐतिहासिक काम है। अभी तक कविता आभिजात्य के मनोरंजन, मन बहलाव का विषय थी। अपने समय की समस्याओं को सीधे तौर पर इसमें संबोधित किया जा सकता है इस विचार को स्थापित करने वाले साहित्यकारों में बालमुकुन्द गुप्त का नाम अग्रगण्य है। अंग्रेजों ने बंगाल को दो टुकड़ों में बांटकर जनता को आपस में बांटने की चाल चली थी। लोगों ने इसका कड़ा विरोध किया था और उस विरोध के कारण ही बंगाल फिर से एक हो गया था। इस व्यापक स्तर पर इस आन्दोलन को अपनी कविता का विषय बनाया।8
बालमुकुन्द गुप्त जी ने अपनी कविताओं में तत्कालीन राजनीतिक सवालों को उठाया। वर्ग विभाजित समाज में कोई महान रचनाकार व रचना अपने युग की राजनीति से कटकर नहीं रह सकती। बात सिर्फ इतनी है कि वह शासक वर्गों की राजनीति की पक्षधर है या शोषित-वंचित वर्गों की। बालमुकुन्द गुप्त जहां राजनीतिक तौर पर आम जनता के पक्षधर थे। जनता के आन्दोलन व संघर्ष, जनता की आकांक्षा उनके साहित्य का आधार है। यहीं से उनका साहित्य अपने लिए विषय जुटाता है और जनता का पक्ष निर्माण करता है। उनके काव्य से यदि राजनीतिक सवालों को निकाल दिया जाए, तो उनमें कुछ नहीं बचेगा। आम लोगों के जीवन की वास्तविक स्थितियों व शोषक राजनीति को उदघाटन उनकी कविताओं का प्रधान व शक्तिशाली स्वर है। जनता के पक्ष निर्माण करने वाला कवि ही जनवादी कवि होता है। प्रगतिशील आन्दोलन 'कला के लिए कला' नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' का सुव्यवस्थित दर्शन लेकर साहित्य के केन्द्र में उभरा था, जिसने किसानों-मजदूरों के सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों को अपने साहित्य के केन्द्र में रखा। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं को उसका पूर्व संस्करण कहा जा सकता है। जिन्हें कविता के छन्दों की मात्राओं को गिनने की फुरसत है, जो कविता में अंलकारों की सूची बनाने निकले हैं, कोमलकान्त पदावली में ही कलात्मकता ढूंढने निकले हैं, उन कलावादियों को गुप्त जी कविताओं में निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। जिनके लिए कविता का जीवन से जुड़ाव है, वे यहां से मोती प्राप्त करेंगें। गुप्त जी को कलावादियों से दाद की अपेक्षा नहीं थी, बल्कि वे दबे-कुचले, पीडि़त-वंचित-शोषित संघर्षरत लोगों के खुरदरे यथार्थ को व्यक्त करते थे।
बालमुकुन्द गुप्त की कविताएं कलावादियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, शायद इसीकारण निर्भीक पत्रकार और गद्य निर्माता के तौर पर तो उनके योगदान को रेखांकित किया गया, लेकिन उनकी कविताओं ने हिन्दी साहित्य में जिस नई धारा का सूत्रपात किया व उससे जो काव्य-मूल्य विकसित हुए उस पर घोर चुप्पी साध ली गई। यह बाबू बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि जिस साहित्यकार की रचनाओं में जनता के हित सिर चढ़कर बोलते हैं, उनके साथ ऐसा होता रहा है। महाकवि कबीर की कविता को कविता की श्रेणी से निकालने के लिए कितना शोर-शराबा हुआ है, लेकिन जनता की भावनाओं को व्यक्त करने वाले साहित्य को किसी कलावादी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती। रामप्रसाद बिस्मिल की गजलें बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं, उनको किसी काव्यशास्त्री की सम्मति की आवश्यकता नहीं है। हाली की रचनाओं को भी ऐसे ही बेहूदे तर्क देकर नकारने की कोशिश हुई थी। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में तत्कालीन सामाजिक शक्तियों की टकराहट है और गुप्त जी इसमें प्रगतिशील शक्तियों की ओर हैं, ऐसा रचनाकार अपन समय की सीमाआं को लांघकर हमेशा प्रासंगिक रहता है।
बाबू बालमुकुन्द गुप्त के पास राष्ट्रवादी-जनवादी पत्रकार की पैनी दृष्टि थी और कवि का संवेदनशील हृदय। जिस कारण वे जनता के दु:ख-तकलीफों को महसूस कर सके और निर्भीकता से व्यक्त कर किया। तत्कालीन अंग्रेजी साम्राज्यवाद अपने विरोधी स्वरों को बड़ी क्रूरता से दमन करता था, विद्रोह की आशंका से भय से इतनी बड़ी संख्या में साहित्य की जब्ती इसे बताता है। ऐसी विपरीत स्थितियों में जन पक्षधरता के लिए जिस जीवट व दृष्टि की आवश्यकता थी, वह उनके पास थी।
बालमुकुन्द गुप्त के समय में भारत का क्रांतिकारी और राष्ट्रीय आन्दोलन की दिशा व रूप ग्रहण नहीं कर पाया था, बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में भावी आन्दोलनों की आहट सुना जा सकता है। साम्राज्यवाद के घोर शोषण ने जनता के लिए अस्तित्व का ही संकट पैदा कर दिया था। अंग्रेजों द्वारा जनता की अधिकाधिक लूट के लिए कृत्रिम अकाल का प्रायोजित किए। बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने कविताओं में अकाल से त्रस्त दीन जनता का मार्मिक चित्र खींचा है। 'हे राम' कविता में लिखा
केहि कारन पावत नाहिं आधे पेटहु नाज,
कौन पाप-सौं बसन बिन ढकन न पावहि लाज।
सीत सतावत सीत महं अरु ग्रीसम महं घाम,
भीजत ही पावस कटत कौन पाप सौ राम?
केते बालक दूध के बिन्ना अन्न के कौर,
रोय रोय जी देत हैं कहा सुनावैं और।
कौन पाप ते नाथ यह जनमत हम घर आये,
दूध गयौ पै अन्नहू मिलत न तिन कहं हाय।
केते बालक डोलते माता बिना विहीन,
एक कौर के फेर महं घर घर आये दीन।
मरी मात की देह को गीध रहे बहु खाय,
ताही सौं यक दूध को सिसू रह्यो लपटाय।
जहं तहं नर-कंकाल के लागे दीखत ढेर,
नरन पसुन के हाड़-सों भूम छई चहुं फेर।
हरे राम केहि पाप ते भारत भूमि मझार,
हाडऩ की चक्की चलैं हाडऩ को व्यापार।
अब या सुखमय भूमि महं नाहीं सुख को लेस,
हाड़ चाम पूरित भयो अन्न दूध को देस।
बार बार मारी परत बारहिं बार अकाल,
काल फिरत नित सीप पै खोले गाल कराल।9
बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने किसान की दशा का जो वर्णन किया है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि साम्राज्यवादी लूट कितनी ज्यादा थी। किसान को लगान देना पड़ता था, वह उसकी फसल से भी अधिक होता था। लगान वसूल करने के लिए जो अत्याचार व दमन किया जाता था उसका वर्णन करके अंग्रेजी राज की क्रूरता को अभिव्यक्त किया है। अंग्रेजी शासन दमन का सहारा लेता था। जिस सूक्ष्मता व समग्रता से किसान जीवन का वर्णन किया है, किसान के जानवरों को भी कुछ खाने के लिए नहीं मिलता। सारे समाज का पेट भरने वाला किसान ही भूखा है। 'सर सैयद अहमद का बुढ़ापा' कविता में किसानों के शोषण की प्रक्रियाओं का वर्णन किया, उसके दर्शन महान कथाकार प्रेमचन्द के कथा साहित्य में होते हैं। जब वे कहते हैं कि 'जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा है' तो उनकी किसानों के प्रति प्रतिबद्धता प्रकट होती है।
जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा है।
जिनके कारण सब सुख पावें जिनका बोया सब जन खावें,
हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लावें।
हाय जो सब को गेहूं देते वह ज्वार बाजरा खाते हैं,
वह भी जब नहिं मिलता तब वृक्षों की छाल चबाते हैं।
उपजाते हैं अन्न सदा सहकर जाड़ा गरमी बरसात,
कठिन परिश्रम करते हैं बैलों के संग लगे दिन रात।
जेठ की दुपहर में वह करते हैं एकत्र अन्न का ढेर,
जिसमें हिरन होंय काले चीलें देती हैं अंडा गेर।
काल सर्प की सी फुफकारें लुयें भयानक चलती हैं,
धरती की सातों परतें जिसमें आवा सी जलती हैं।
तभी खुले मैदानों में वह कठिन किसानी करते हैं,
नंगे तन बालक नर नारी पित्ता पानी करते हैं।
जिस अवसर पर अमीर सारे तहखाने सजवाते हैं,
छोटे बड़े लाट साहब शिमले में चैन उड़ाते हैं।
उस अवसर में मर खपकर दुखिया अनाज उपजाते हैं,
हाय विधता उसको भी सुख से नहिं खाने पाते हैं।
जम के दूत उसे खेतों ही से उठवा ले जाते हैं,
यह बेचारे उनके मुंह को तकते ही रह जाते हैं।
अहा बेचारे दु:ख के मारे निस दिन पचपच मरें किसान,
जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवाय ले जाय लगान।
यह लगान पापी सारा ही अन्न हड़प कर जाता है,
कभी कभी सब का सब भक्षण कर भी नहीं अघाता है।
जिन बेचारों के तन पर कपड़ा छप्पर पर फूंस नहीं,
खाने को दो-सेर अन्न नहीं बैलों को तृण तूस नहीं।
नग्न शरीरों पर उन बेचारों के कोड़े पड़ते हैं,
माल माल कह कर चपरासी भाग की भांति बिगड़ते हैं।
सुनी दशा कुछ उनकी बाबा! जो अनाज उपजाते हैं,
जिनके श्रम का फल खा खाकर सभी लोग सुख पाते हैं।10
बालमुकुन्द गुप्त ने किसानों की दुर्दशा का जो वर्णन किया, वह आज भी काला हांडी के किसानों की याद दिला जाता है। गुप्त जी कविता में किसान वृक्षों की छाल चबाकर पेट भरने को विवश हैं, तो आज के किसानों कच्ची गुठलियां खाकर बीमार होने को विवश हैं। साम्राज्यवादी-पंूजीवादी शोषण के कारण एक लाख अस्सी हजार से अधिक किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। यह कोई प्राकृतिक विपदा के कारण नहीं है, बल्कि पूंजीपरस्त सरकारी नीतियों व योजनाओं के कारण हैं। आजादी प्राप्त करने के बाद भी किसान की हालत बहुत नहीं बदली है। अंग्रेजी साम्राज्यवादी शासन किसानों के अनाज को खलिहान से उठा ले जाता था, लेकिन आज की शोषक नीतियां फसल पकने से पहले ही खाद-तेल-दवाई-बीज के माध्यम से पहले ही लूट लेती हैं। किसान के श्रम का शोषण ही है, जिसके कारण उसकी ऐसी दयनीय हालत है, वरन् वह न तो कामचोरी करता है और न ही फिजूलखर्ची।
गुप्त जी ने केवल अंग्रेजों के शोषण व दमन को ही व्यक्त नहीं किया, बल्कि महाजनों-सेठों के शोषण को भी उजागर किया है। अकाल में पीडि़त लोगों से मुंह मोड़ लेना संवेदनशून्यता को दर्शाता है। गुप्त जी ने इसकी खबर ली है। गुप्त जी स्वतंत्रता-आन्दोलन में विभिन्न वर्गों की भूमिका को देख रहे थे। सेठ-महाजन, व्यापारी,जमींदार-सामन्तों को अपने ऐश्वर्य-विलास से ही फुरसत नहीं थी, वे अपना मुनाफा कमाने में ही व्यस्त हैं। 'ताऊ और हाऊ' कविता में उनकी इस मनोवृति को व्यक्त किया है:
लोग देश के भूखौ मरैं, उनके लिए कहो क्या करैं?
ताऊ कहै सुनो रे पूत, किन बहकाओ दोरौ ऊत?
जल्दी से घर के मूँद किवार, अपना अपना झौंको भार।
घर में बैठे चैन से खाओ, देस भेष चूल्हे में जाओ।

कपड़े की बिक्री नहीं होती, बिके न चादर बिके न धोती।
दोनों ओर देखके छूछा हाऊ ने ताऊ से पूछा।
कहिये ताऊ अब क्या करैं, कैसे अपनी पाकेट भरें?
बिकती नहीं एक भी गांठ, सब गाहक बन बैठे ठांठ।
दिये बहुत लोगों को झांसे, फंसता नहीं कोई भी फांसे।
ताऊ कहैं सुनो जी हाऊ, तुम निकले केवल गुड़ खाऊ।
फंसे उसी को खूब फंसाओ, नहीं फंसे तो चुप हो जाओ।
देश-वेश चुल्हे में जाय, 'सांसों म्हारी करै बलाय'।
खाओ-पीओ मौज उड़ाओ, अकड़ अकड़ के शान दिखाओ।11
भारत में अपनी जडें जमाने के लिए अंग्रेजी शासन ने यहां के जमींदारों-सामन्तों को अपना साथी बनाया। अंग्रेजों ने उनकी मदद लेने के लिए उनको पदवियां व जमीनें दी। इनको अपनी वफादारी साबित करनी पड़ती थी। जो अंग्रेजों से वफादारी नहीं करते थे, उन्हें उत्पीडऩ व दमन सहन करना पड़ता था। 'पंजाब में लायल्टी' कविता में बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने बड़ी स्पष्टता व निडरता से व्यक्त किया है। उस समय में इस तरह कि कविताएं लिखना वास्तव में बहादुरी का काम था। इसके लिए घनीभूत प्रतिबद्धता की आवश्यकता थी। इस तरह की तुकबंदियों का स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान होता था, जनता की भावनाओं को ये शब्द प्रदान करती थी और देशभक्तों में नई ऊर्जा का संचार करती थी।
केवल दो डिसलायल थे वां एक लाजपत, एक अजीत,
दोनों गये निकाले उनसे नहीं किसी को है प्रीत।
हां, कुछ डिसलायल थे रावलपिंडी के पंडित लाले,
वह सब पकड़, किये फाटक में, बाहर लगा दिये ताले।
फिर एक मिला था डिसलायल का बच्चा पिंडीदास,
सोते उसे उठाकर घर से फाटक में करवाया बास।
और दिखाई दिया एक डिसलायल लाला दीनानाथ,
उसको भी एक जुर्म लगाकर पिण्डी के करवाया साथ।12

अंग्रेज अधिकारी यहां पूरे सामन्ती ठाठ का निर्वाह करते थे। सामन्ती फिजूलखर्ची व प्रदर्शन को गुप्त जी पसन्द नहीं करते थे। उन्हें इस बात से तकलीफ थी कि जनता तो दाने दाने को तरस रही है, लेकिन शासक अपनी शान बघारने के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर रहे हैं। दिल्ली दरबार प्रसिद्ध है।
देखा सुना न जो कुछ कभी, दिल्ली में वह होगा सभी।
भर भर बीयर चले संदूकें, बीस हजार चले बन्दूकें।
मार धड़ाधड़ तोप चलें, दिल सब नामर्दों के हलें।
बिजली करैं रोशनी जाकर, भरे हाजिरी बनकर चाकर।
ऐसा आन पड़ा है जोत, दुनिया भर के आवैं लोग।
बादशाह के भाई आवैं, साथ-साथ कितनों को लावें।
बड़े लाठ की माता आवें, साथ में उनके भ्राता आवें।
अमरीका से साली सास, चलकर आवें हिये हुलास।
खूब बने श्री कर्जन लाट, होय निराला उनका ठाठ।
ऐसी हो उनकी पोशाक, सब को लगे उधर ही ताक।13
बालमुकुन्द गुप्त जनतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करना चाहते थे। वे सत्ता पर जनता का नियंत्रण चाहते थे, उनका मानना था कि जनता द्वारा चुने हुए ही सच्चे मायनों में जनता के प्रतिनिधि हो सकते हैं। वे ही उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं। नोमीनेशन से जनतंत्र व सत्ता में भागीदारी के ढोंग करने से जनता कोई भला नहीं होने वाला है। चुनावों का सैयद अहमद खान ने विरोध किया था। बालमुकुन्द गुप्त ने चुनावों की हिमायत की।
जारी न हो इलेक्टिव सिस्टम तब तक यह नहिं होना है,
परन्तु इसके लिये आपका अजब अनोखा रोना है।

एक्ट पास हो गया है ऋन का आफत आने वाली है।
अय! नामीनेशन के लोलुप, इधर तुम्हारा ध्यान भी है,
कब यह नियम चला कब हुआ उपस्थित इसका ज्ञान भी है।
किस किस ने इस बिल को रोका किसने वाद-विवाद किया,
किसने किया विरोध और किस किस ने इसका पक्ष लिया।
आप किया प्रस्ताव समर्थन आप ही उसको पास किया,
हां हुजूर वालों में देकर वोट खरा उपहास किया।
चुने हुए मेंबर होते तो ऐसा कब होने पाता,
इस प्रकार कौंसिल में कब नानी जी का घर बन जाता?14
बाबू बालमुकुन्द गुप्त चाटुकारिता के खिलाफ थे। सर सैयद अहमद खान पर तीखा प्रहार करते हुए लिखा ''अहा! चाटुकारों को खोके चाटुकार तुम बनते हो, अपने हाथ स्वतंत्रता लय को रच के आप ही खनते हो।" अंग्रेजी शासन से पुरस्कार पाने के लिए तत्कालीन शिक्षित मध्यवर्ग लालायित रहता था, लेकिन बालमुकुन्द गुप्त इसके खिलाफ थे।
चाटुकारिता ने बाबा तुम को औंधी बुद्धि सिखाई है,
स्वार्थान्धता पकड़ तुम्हें उलटे रस्ते पर लाई है।
जाति का अपने नामीनेशन से यह लाभ कमाओगे,
सबका एक साथ ही अपने हाथों नाम मिटाओगे।15
आधुनिक समय में कोई शासन सत्ता चाहे अपनी प्रकृति में चाहे वह कितनी भी क्रूर व तानाशाह ही क्यों न हो मध्यकालीन शासकों की तरह जनमत को नजरंदाज करके शासन नहीं कर सकते। अपने शासन का औचित्य ठहराने व जनता में अपनी साख बनाए रखने के लिए जन कल्याणकारी होने का नाटक-पाखण्ड रचती हैं। शासन सता भलिभांति जानती हैं कि इसी नैतिक सता से ही शासन किया जा सकता है। अंग्रेजी शासन भी अपने जनतांत्रिक होने का ढिंढोरा पीटता था, लेकिन वास्तव में प्रकृति से साम्राज्यवादी था और शोषण करना उसका उद्देश्य था। अंग्रेजी शासन भी कानूनों व नियमों पर आधरित नहीं था, बल्कि व नौकरशाहों की मर्जी व इच्छा पर आधारित था। अपनी शोषक नीतियों को जारी रखने के लिए वे हर तरह के हथकण्डे अपनाते थे। बालमुकुन्द गुप्त ने शासन सत्ता की असलियत को उद्घाटित किया।
बड़े लाट के जी में आई, दिखलावै अपनी सच्चाई।
सभा जोड़ तब यह फरमाया, जुग जुग रहे हमारा साया।
हम ही भारत का कल्याण, करके दंगे पद निरवान।
कल जो कुछ कौंसिल में किया, वह तो तुम ने सब सुन लिया।
है कानून जबान हमारी, जो नहीं समझते वही अनारी।
हम जो कहैं वही कानून, तुम तो हो कोरे पतलून।
हम से सच की सुनो कहानी, जिससे मरे झूठ की नानी।
सच है सभ्य देश की चीज, तुमको उसकी कहां तमीज।
औरों को झूठा बतलाना, अपने सच की डींग उड़ाना।
ये ही पक्का सच्चापन है, सच कहना तो कच्चापन है।
बोले और करे कुछ और यही सत्य है करलो गौर।
झूठ को जो सच कर दिखलावैं, सोई सच्चा साधु कहावै।
मुंह जिसका हो सके न बन्द, समझो उसे सच्चिदानन्द।16

आत्मनिर्भरता को देश के विकास के लिए अनिवार्य समझते थे। इसलिए आर्थिक आत्मनिर्भरता पर बार बार जोर देते हैं।
टेसू आये लो आसीस, भारत जीवे कोटि बरीस।
कभी न उसमें पड़े अकाल, सदा वृद्धि से रहे निहाल।
अपना बोया आप ही खावे, अपना कपड़ा आप बनावें।
बढ़े सदा अपना व्यापार, चारों दिस हो मौज बहार।
माल विदेशी दूर भगावें, अपना चरखा आप चलावें।
कभी न भारत हो मुंहताज, सदा रहे टेसु का राज।

भोग विलास सभी दो छोड़, बाबूपन से मुंह लो मोड़।
छोड़ो सभी विदेशी माल, अपने घर का करो ख्याल।
अपनी चीजें आप बचाओ, उनसे अपना अंग सजाओ।17
बालमुकुन्द गुप्त ने हिन्दू देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर कविताओं की रचना की है। उनकी धार्मिक आस्था थी, लेकिन उनकी कविताओं को भक्ति की कविताएं नहीं कहा जा सकता। उनके सामने कोई परलोक की दुनिया नहीं है, जिसको सुधारने के लिए उन्होंने ईश-प्रार्थना की हो। उनकी भक्ति विषयक कविताएं 'राम भरोसा' 'जय रामचन्द्र', 'दुर्गा स्तुति', 'प्रार्थना', 'जय लक्ष्मी', 'लक्ष्मी स्त्रोत' कोई भी कविता हो, उनमें भक्ति काव्य की तरह मोक्ष-प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से आराधना नहीं है। भक्ति काव्य में जो वैयक्तिक 'सुधार' की कामना होती है उससे ये कविताएं मुक्त हैं। इनकी कविताओं में दीन-हीन समाज के सुधार का निवेदन है। यहां भक्त का कारूणिक प्रलाप नहीं है, दास्य बोध नहीं है और न ही ईश्वर व भक्त के सोपानिक संबंध हैं। अपने इष्ट की महिमा का भी यहां अतिश्य वर्णन नहीं है, न विशेष इष्ट की आराधना की ओर भक्तों को पे्ररित करती हैं। बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में भक्ति के फल का प्रसाद पाने को महिमामंडित नहीं किया गया। यहां सामाजिक दुर्दशा का विश्वसनीय चित्र खींचते हुए उसे सुधारने पर जोर है।
सिंहासन अरु राजपाट को नाहि उरहनों,
ना हम चाहत अस्त्र-वस्त्र सुन्दर पट गहनों।
पै हाथ जोरि हम आज यह,
रोय रोय विनतीं करैं,
या भूखे पेट पापी पेट कहं,
मात कहो कैसे भरैं?18

बारेक नयन उघारि देखि जननी निज भारत,
साक अन्न बिन चहुं दिसि डौलै हाथ पसारन।
फाटै चिथरन जोरि देह की लाज निवारैं,
जब सोऊ नहिं मिलै विवश ह्वै फिरै उधरे।
सूखे कर पद, फूले उदर,
दीन, हीनबल, मलिन मुख।
अब मात बेगि करुना करो,
मेटहु मेटहु दुसह दुख।19

चाहै चंवर न छत्र राज भूषण गजबाजी,
अन्न दूध भर पेट मिलैं वाही मैं राजी।
मोटो मोटो वस्त्र मिलैं तन ढाकन कारन,
केवल चाहत सीत धूप को कष्ट निवारन।20

धनबल, जनबल, बाहुबल बुद्धि विवेक विचार,
मान तान मरजाद को बैठे जूओ हार।
हमरे जाति न बर्न है नहीं अर्थ नहिं काम,
कहा दुरावै आप से, हमरी जाति गुलाम।
बहु बीते राम प्रभु! खोये अपनो देस,
खोवत है अब बैठि के भाषा भोजन भेस।
नहीं गांव में झूंपड़ो नहिं जंगल में खेत,
घर ही बैठे हम कियो अपनो कन्चन रेत।
पसु समान विडरत रहैं पेट भरन के काज,
याही में दिन जात हैं सुनिये रघुकुल राज।
दो दो मूठी अन्न हित ताकत पर मुख ओर,
घर ही मैं हम पारधी घर ही मैं चोर।21

अब तुमसों बिनती यहै राम गरीब निवाज,
इन दुखिया अंखियान महं बसै आपको राज।
जहं मारी को डर नहीं अरु अकाल को त्रास,
जहां करै सुख सम्पदा बारह मास निवास।
जहं प्रबल को बल नहिं अरु निबलन की हाय,
एक बार सो दृश्य पुनि आंखिन देहु दिखाय।
करहिं दसहरो आपको दु:ख ताप सब भूल,
पुनि भारत सुखमय करौं होहु राम अनुकूल।22
बालमुकुन्द 'हिन्दू मर्यादा, 'हिन्दूपन' की बात करते हैं, लेकिन उनका 'हिन्दूपन' कर्मकाण्डी व पूजा-पाठी नहीं है। उनके लिए हिन्दूपन नैतिकता में है, व्यवहार व आचरण में है। वे मध्यकालीन संतों की तरह धार्मिक शिक्षाओं को महत्व देते हैं, न कि उसके कर्मकाण्डी स्वरूप को। हिन्दूपन के हवाले से नैतिकबोध व सामाजिक दायित्व का अहसास पैदा करते हैं, न कि दूसरे धर्म के लोगों के प्रति घृणा नफरत पैदा करते हैं, उनके हिन्दूपन में अपने धर्म को श्रेष्ठ तथा अन्य को निकृष्ट साबित करने का भाव भी नहीं है।
मेटे वेद पुरान न्याय निष्ठा सब खोई।
हिन्दू कुल-मरजाद आज हम सबहि डुबोई।
पेट भरन हित फिरें हाय कूकर से दर दर।
चाटहिं ताके पैर लपकि मारहिं जो ठोकर।23

सदा रखें दृढ़ हिय महं निज सांचो हिन्दुपन।
घोर विपदहू परैं डिगै नहिं आन ओर मन।24
धर्म के नाम पर हिन्दू व मुसलमान को बांटने व साम्प्रदायिकता पैदा करने के अंग्रेजी साम्राज्यवाद के षडय़न्त्र को समझते थे और इसके खतरों का भी उनको अहसास था। अंग्रेजी शासन ने अदालतों की भाषा बदलकर हिन्दू व मुसलमानों में वैमनस्य पैदा करने की कोशिश की थी, जिसमें वे कुछ हद तक कामयाब भी हुए थे। साम्प्रदायिकता का हमेशा उच्च वर्ग के लोगों के हितों को पोषित करती है, साम्प्रदायिकता का आम जनता के हितों से कोई वास्ता नहीं होता। साम्प्रदायिकता की उत्पति भी उच्च वर्गों के हितों के टकराहट से ही हुई है, इस बात को बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने समझ लिया था। लिपि के सवाल पर लिखा कि ''नागरी प्रचारिणी की थोड़ी-सी सफलता पर भी हमको बड़ा हर्ष है। हम उसके उद्योगी मेम्बरों के दृढ़ता से नागरी आन्दोलन करने की प्रशंसा करते हैं और उनको बधाई देते हैं। परन्तु इस विषय को लेकर जो आन्दोलन खड़ा हुआ है उसकी हड़बंगू में फंसने से उनको रोकते भी हैं। हम देख रहे हैं कि एक तरफ तो देवनागरी प्रचारिणी वाले इससे इतने प्रसन्न हुए हैं कि अपने को आप ही धन्यवाद दे रहे हैं। दूसरी ओर मुसलमानों ने यह समझ लिया है कि उनके साथ मानो बड़ा वज्र अन्याय हुआ है। इस समय उनका कर्तव्य है कि मुसलमानों को शान्त करें। उनको समझाएं कि वह कुछ लुट नहीं गए हैं और न उनका हक छीनकर हिन्दुओं को दे दिया गया है। देवनागरी को केवल अदालत तक आने की आज्ञा मिली है। जब फारसी अक्षरों के जानने वालों से देवनागरी जानने वाले कई गुना अधिक हैं तो क्या उनका कुछ भी लिहाज नहीं होना चाहिए। .... मुसलमानों के जितने अखबार हैं, सब इस विषय को मजहबी रंग में रंगकर इसे उर्दू-हिन्दी की लड़ाई बता रहे हैं। यदि इस विषय को केवल हिन्दू-मुसलमान के मेल में कुछ झमेल पड़े तो अच्छी बात नहीं। नागरी प्रचारिणी सभा वालों को चाहिए कि जब तक यह बखेड़ा शान्त नहीं हो जाये तब तक खूब शान्ति से काम करें। झूठमूठ के आनन्द में उन्मत होने की कोई जरूरत नहीं है। मुसलमानों को यह जानना चाहिए कि जिस भाषा को वह उर्दू कह रहे हैं, वह हिन्दी से अलग नहीं है। उर्दू के आदि कवियों ने उस भाषा को हिन्दवी कह कर पुकारा है"25
बाबू बालुमुकुन्द गुप्त 'देवनागरी' का समर्थन किया, लेकिन वे उर्दू के खिलाफ नहीं थे। वे उर्दू की आलोचना साम्प्रदायिक कारणों से नहीं करते, बल्कि उसकी सीमाओं की ओर संकेत करते हैं। उन्होंने उर्दू के माध्यम से ही शिक्षा ग्रहण की थी और उर्दू पत्रकारिता से ही हिन्दी की ओर आए थे, तथा ऐसे क्षेत्र से ताल्लुक रखते थे, जहां उर्दू का बोलबाला था। वे भाषायी संकीर्णता के कायल नहीं थे, जो अन्तत: साम्प्रदायिक चेतना में तब्दील होती है।
बालमुकुन्द गुप्त ने सर सैयद अहमद खान को भी लताड़ लगाई कि वे चुनाव प्रणाली का विरोध करके साम्प्रदायिक आधार पर नोमीनेशन की वकालत कर रहे हैं। सर सैयद ने साम्प्रदायिक सद्भाव की वकालत की थी, 'सर सैयद अहमद का बुढ़ापा' कविता में उसको भी याद करवाया।
बोलो तो बूड्ढे बाबा क्या उस सनेह का हुआ निचोड़,
भूल गये पंजाब-यात्रा में तुम आंख रहे थे अपनी फोड़।
हिन्दू और मुसलमानों को एक हिसा बतलाते थे,
आंख फोडऩे को अपने झटपट प्रस्तुत हो जाते थे।26
बाबू बालमुकुन्द गुप्त के समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के समक्ष एक तरफ तो साम्राज्यवादी वैचारिक हमले की चुनौती थी, जो भारतीय समाज को पिछड़ा, अवैज्ञानिक तथा कोरे अध्यात्मिक व पारलौकिक जगत के मनीषी साबित करते थे। दूसरी ओर भारतीय मिथकीय-परम्परा को महिमामंडन से बचने की चुनौती थी। ये दोनों ही भारत की दार्शनिक-वैज्ञानिक उपलब्धियों को नकारती थी। बालमुकुन्द गुप्त भारत के बहुलतापूर्ण समाज की बनावट को पहचानते थे। साम्प्रदायिक दृष्टि के आलोचक थे, भारत की साझी संस्कृति को उजागर करने वाली कविताओं की रचना की है। हिन्दू व मुसलमान भारत में सदियों से साथ साथ रहते आए हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जनता की एकता को बनाए रखने के लिए 'हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई भाई' का नारा खूब लगाया जाता था। उसी तरह की एकता की ओर बालमुकुन्द गुप्त ने संकेत किया है।
'अल्ला गाड अरु निराकार में भेद न जानो भाई रे।
इन तीनों को जी में अपने अपने जानो भाई-भाई रे।
तहमद और पतलून एक भये एक कोट मिरजाई रे।
चोटी डाढ़ी क्रोस जनेऊ गड्डम-गड्ड मचाई रे।।27
हिन्दी भाषा के निर्माण में बाबू जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने हिन्दी के उत्थान में विशेष योगदान दिया। वे जनभाषा के पक्षधर थे। वे न तो पण्डिताऊ हिन्दी को चाहते थे और न ही फारसी बहुल उर्दू को। जन भाषा को साहित्य में अपनाने पर जोर दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से भी इस मामले में भिड़ गए। उन्होंने लिखा कि ''भाषा का एक दोष जटिल लिखना भी है। द्विवेदी जी मानो इस समय इसके आचार्य हैं। दास आत्माराम 77 बालमुकुन्द गुप्त जी ने इसी नाम से लिखा था 88 को यही बात समझाते-समझाते कई सप्ताह लग गये। जिस वाक्य में अर्थात् की जरूरत पड़ती है, उसको सरल-स्वच्छ भाषा लिखने वाले कभी पसन्द नहीं करते। पर द्विवेदी जी का काम बिना अर्थात् के चलता ही नहीं है।"28
बालमुकुन्द गुप्त का भाषा के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं था, वे आम बोलचाल की भाषा में साहित्य रचना करते थे। लोगों की भाषा में ही लोगों से संवाद हो सकता है। जनता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही उनकी भाषा की वकालत की। आमजन के व्यवहार की भाषा का यही रूप बाद की जनवादी-प्रगतिशील साहित्य की भाषा बनी। प्रेमचन्द ने इसे ठोस आधार प्रदान किया।
इसी कारण से उनकी कविताओं में विभिन्न भाषाओं के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग होते हैं। उनका ध्यान भाषा की सजावट पर उतना नहीं था, जितना कि संप्रेषण पर। संप्रेषण ही उनकी भाषा की कसौटी थी। इसी से अंग्रेजी के, फारसी, उर्दू व अन्य बोलियों के शब्द भी उनकी कविताओं में हैं। वे स्वयं उर्दू पत्रकारिता से ही हिन्दी में आए थे, उर्दू विरोध की मानसिकता उनकी नहीं थी। वे हिन्दी व उर्दू मूलत: एक ही भाषा मानते थे। अंग्रेजी के शब्दों स भी उनको परहेज नहीं था।
जारी करें सरकुलर लायन,
और एमरसन ठोकें फायन,
हाकिम पुलिस हुए कम्पाइन,
पर यह समय बड़ा है डाइन,
छोड़ चले शाइस्ता-खानी।29
ग्रामीण मुहावरों के प्रयोग ने भाषा को बहुत प्रभावी बना दिया है। हरियाणा क्षेत्रा के कितने ही शब्द उनकी कविता के माध्यम से हिन्दी साहित्य में स्थायी हो गए। 'खेवा', 'पचपच', 'तत्ता', 'कचाई', 'घाऊघप्प', 'उलझेड़ा', 'निटेड़ा', 'तप्पर टाटा', 'रिण के तूदे', , 'चिकने बर्तन पर', 'चोखी', 'ऐनक चपकनदार', 'इलेक्टिव सिस्टम', 'वोट', 'लायल्टी', 'बागड़बिल्लापन', 'नानी जी का घर' 'भारत की रग मैने पाई', 'मार दुहत्थड़ सिर कूटा','पीटो पेट बजाओ बाजा', 'वही ढाक के तीनों पात', 'लाल बुझक्कड़ काले टेसू', 'ऊंट चढ़े को कुत्ता खाय', 'कोई लो तुक्का कोई लो तीर', 'एक रंग सब से पचरंगा, जल गई धेती रह गये नंगा', ऐरा गैरा नत्थू खैरा','हृदय और मस्तक दोनों की फूट गई', 'देखें घर फूक तमाशा', 'तुम तो हो कोरे पतलून'।
बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने जिस भाषा को अपनाया था वही भावी कविता का आधार बनी। कविता जब भी जनता के दुख तकलीफों से दूर हटकर आभिजात्य के गलियारों में भटकी, तो गुप्त जी की भाषा ने उसे उसकी सही जगह बताया। गुप्त जी ने जन जीवन के चित्र अपनी कविताओं में खूब उकेरे हैं। किसान जीवन की वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए उसी की शब्दावली प्रयोग की है, जिससे ये चित्र वास्तविक व विश्वसनीय बन पड़े हैं। वर्षा, वसन्त, मेघ, वसन्तोत्सव आदि प्रकृति संबंधी कविताओं में केवल प्रकृति की छटा का ही वर्णन नहीं है, बल्कि लोक जीवन के चित्र दे जाती हैं। 'वसन्तोत्सव' कविता में ग्रामीण जीवन के चित्र सजीव हो उठे हैं।
आस पास पालों के वट वृक्षों का झूमर,
जिसके नीचे वह गायों भैसों का पोखर,
ग्वाल बाल सब जिनके नीचे खेल मचाते,
बूट चने के लाते होले करते खाते।
पशुगण जिनके तले बैठ के आनन्द मनाते,
पानी पीते पगुराते स्वछन्द विचरते।
पास चने के खेतों में बालक कुछ जाते,
दौड़ दौड़ के सुरुचि साग खाते घर लाते।
आपस में सब करते जाते खिल्ली ठट्ठा ,
वहीं खोलकर खाते मक्खन रोटी मट्ठा
बातें करते कभी बैठ के बांधे पाली,
साथ साथ खेतों की करते रखवाली।30
बालमुकुन्द गुप्त ने लोक शैली में कविता रचना की, टेसू और जोगीड़ा लोकगीतों को विशेषतौर। ''टेसू लोकगीत शैली हरियाणा के हिसार और रोहतक जिलों में, उत्तरप्रदेश के आगरा, मथुरा, मेरठ, मुजफफरनगर, एटा और इटावा आदि जिलों और पूर्वी राजस्थान के भागों में प्रचलित है। वहां छोटे-छोटे बच्चे आश्विन महीने में मिट्टी और लकड़ी के पुतलों को घर-घर लेकर जाते हैं वहां गीत गाते हैं तथा पैसे और गन्ना मांगते हैं। पुतलों को तथा गीतों को टेसू भी कहा जाता है। इसमें हास्य और व्यग्ंय रहता है। शासकों तथा राजनीतिक नेताओं और उनकी करतूतों के बारे में व्यग्ंय और प्रहसन के लिए टेसू का खूब प्रयोग किया। लार्ड कर्जन और गवर्नर फुलर को तो आड़े हाथों लिया ही, दिल्ली दरबार का वैभव, भारतीय सैनिकों का अफ्रीका में दुरुपयोग, भारत की निर्धनता, यहां के अकाल तथा रोग का व्यग्ंयात्मक शैली में चित्रण किया:
बन के सच्चों के सरदार, करके खूब सत्य परचार।
धन्यवाद सुनते थे कर्जन, उतरी एक स्वर्ग से दर्जिन।
उसने लेकर धगा सुई, जादू की खोदी एक कुई।
उससे निकली फौजी बात, चली तबेले में तब लात।
भिड़ गए जंगी मुल्की लाट, चक्की से चक्की का पाट।
गुत्थम गुत्था धींगा मुश्ती, खूब हुई दोनों में कश्ती।
ऊपर किचनर नीचे कर्जन, खड़ी तमाशा देखे दर्जिन। (मल्लयुध्द्ध)

जोगीड़ा लोकगीतों में व्यग्ंय रहता है परन्तु इसमें श्रृंगार-रस प्रधान होता है। गुप्त जी ने जोगीड़ा का प्रयोग धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों, साधुओं और उनके चेलों तथा पाश्चात्य रहन-सहन के समर्थकों की खिल्ली उड़ाने के लिए किया। जैसे बाबा जी वचनम में:
हां सदाशिव गोरख जागे-सदाशिव गोरख जागे
लण्डन जागे पेरिस जागे, अमरीका भी जागे
ऐसा नाद करूं भारत में सोता उठकर भागे।
मन्तर मारूं, जन्तर मारूं, भूत मसान जगाऊं
सब भारत वालों की अक्किल चुटकी मार उड़ाऊं।
अक्कड़ तोडूं, कंकड़ तोड़ूं, तोड़ूं पत्थर रोड़े
सारे बाबू पकड़ बनाऊं बिना पूंछ के घोड़े।
सदाशिव गोरख जागे।"31
बालमुकुन्द गुप्त जी सामाजिक वास्तविकताओं को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए नई नई शैलियों का प्रयोग करते थे। मौजूदा यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए कभी फैंटेसी, कभी पैरोड़ी तो कभी उलटबांसियों का सहारा लेते हैं। इन शैलियों से वे पाठक के सामने मौजूदा यथार्थ की सीमाओं को उजागर भी करते जाते हैं और वैकल्पिक यथार्थ की रचना भी करते जाते हैं। भारतीय समाज में स्त्री की सोचनीय दशा की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए 'जोरूदास' कविता दर्शनीय है।
सैंया हमारे सांचे कन्धैया,
नित राखें कान्धे पै लेवे बलैया।
सारी उठाय पिया साया पहिनावें।
मेमन में हमका नचावें ताथैया।
सास मोरी पीसे ससुर भरे पानी,
हम भैलें कुरसी के नाविल पढ़ैया।
आपै सिखाब सैंया लेक्चर दिवावैं,
जलसनमां हमरी करावैं बडैय़ा।
ग्रामीण बालगीतों की तर्ज पर बालमुकुन्द ने कविताओं की रचना की। जनता से जुडऩा ही उनका मकसद था, इसीलिए उन्होंने लोक प्रचलित मुहावरे को ही अपनी कविता का मुहावरा बनाया।
अमली की जड़ से निकली पतंग, तिसमें निकला शाह मलंग।
शाह मलंग चलावै सौटी, उसमें निकली लम्बी चोटी।
लम्बी चोटी चिन्दक चिन्दू तिसमें निकले पक्के हिन्दू।
पक्के हिन्दू भवन बनाया, तिस पर कब्बा बैठा पाया।
कब्बे ने की काली बीट, तिसमें निकला चूना ईंट।
चूने ईंट से निकला हाल, उसमें निकला आटा दाल।
आटा-दाल से निकली रोटी, कोई पतली कोई मोटी।
रोटी खाई छुटी अंघाई, गंगा किरिया रामदुहाई।
तब बैठे पंचायत जोर, कहत कहानी हो गई भोर।
सेख सलीम ने कही कहानी, चैमासे भर भया न पानी।32
व्यग्य बाबू बालमुकुन्द गुप्त की प्रभावी शैली का अनिवार्य अंग है। अपने निबन्धों में बड़ी निर्भीकता से उन्होंने इसका प्रयोग करते हुए पत्रकारिता के आदर्श की नींव रखी ही, इनकी कविता भी व्यंग्य लिए हुए है। यद्यपि इनका व्यंग्य बहुत महीन नहीं, स्थूल है।
गुप्त जी की कविताओं में जितनी वैचारिक स्पष्टता है, वह उस समय के शायद ही किसी कवि में हो। उनसे पहले राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति के बीच साहित्य झूल रहा था। इसलिए साहित्यकार अंग्रेजी साम्राज्य के शोषक रूप का वर्णन करते थे, तो साथ ही उसकी प्रशंसा भी कर देते थे। भारत के समाज में अंग्रेजी शासन की सकारात्मक भूमिका देखने वालों की संख्या काफी थी, लेकिन बालमुकुन्द गुप्त इस मामले में स्पष्ट थे, वे साम्राज्यवाद को भारत की प्रगति में बाधक मानते थे, उन्हें अंग्रेजी शासन से कोई सकारात्मक अपेक्षा नहीं थी। इसीलिए उनके साहित्य में उनकी प्रशंसा नहीं मिलती। वे साम्राज्यवादी पार्टियों में भी कोई भेद नहीं करते थे। बहुत से लोग समझते थे कि इग्लैंड में शासन परिवर्तन होने से भारत को राहत मिल सकती है, लेकिन गुप्त जी का मानना था कि भारत के लिए 'लिबरल और टोरी' में कोई अन्तर नहीं है।
नहीं कोई लिबरल नङ्क्षह कोई टोरी, जो परनाला सोई मोरी
दोनों का है पंथ अघोरी, होली है भाई होली है।
करते फुलर विदेशी वर्जन, सब गोरे करते हैं गर्जन,
जैसे मिन्टो वैसे कर्जन, हाली है भाई होली है।33
बालमुकुन्द गुप्त ने हिन्दी कविता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और जनता की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए कविता की भूमिका को रेखांकित किया। साहित्य को अपने समाज के संघर्षों से जोडऩे व तत्कालीन संघर्षों को कविता में सीधे तौर पर अभिव्यक्त करना उस समय की जरूरत थी। बालमुकुन्द जी की कविताओं में एक अनगढ़ व खुरदरा यथार्थ है, जो अपने मौलिक रूप में वहां मौजूद है। बालमुकुन्द की कविताओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी कविताओं की भावभूमि व भाषा नए युग के सूत्रपात का आभास हैं। उनकी कविताएं समसामयिक सवालों पर टिप्पणियों व राजनीतिक विचारों को सीधे तौर पर व्यक्त करती हैं। इन नए विषयों के लिए कविता के परम्परागत ढर्रे को तोडऩे की आवश्यकता थी, इसे तोड़कर उन्होंने नए ढंग से कविताएं लिखनी शुरू की। छंद का अनुशासन तोडऩा कविता में क्रांति की तरह का काम था। छंद समसामयिक अभिव्यक्ति में बाधा बनकर खड़ा था। बाद के समय में कविता लेखन का जो ढंग सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक हुआ उसकी नींव बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने रख दी थी। कविता को विलास की चीज समझने की बजाए उसे समाज से जोडऩे का ऐतिहासिक काम किया।

संदर्भ
1 मदन गोपाल; बालमुकुन्द गुप्त; साहित्य अकादमी, दिल्ली;1990; पृ.-7
2 नत्थन सिंह; बालमुकुन्द गुप्त ग्रन्थावली; हरियाणा साहित्य अकादमी,पंचकूला; द्वितीय सं. 2008; पृ.-12
3 मदन गोपाल; बालमुकुन्द गुप्त;पृ.-8
4 नत्थन सिंह; बालमुकुन्द गुप्त ग्रन्थावली; पृ.-26
5 वही, पृ.-309 6 वही, पृ.-
315 7 वही, पृ.-109 8
9 वही, पृ.-174-175 10 वही, पृ.-194-195
11 वही, पृ.-207 12 वही, पृ.-213
13 वही, पृ.-205 14 वही, पृ.197
15 वही, पृ.-192 16 वही, पृ.-205
17 वही, पृ।-207 18 वही, पृ।-170
19 वही, पृ।-172 20 वही, पृ।-173
21 वही, पृ।-179 22 वही, पृ.-176
23 वही, पृ.-163 24 वही, पृ.-167
25 वही, पृ।-4-5 26 वही, पृ.-191
27 वही, पृ.-199 28 वही, पृ.-60
29 वही, पृ.-212 30 वही, पृ.-170
31 मदनगोपाल, पृ.-64 32 नत्थन सिंह, पृ.-203
33 वही, पृ.-200