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समकालीन अन्तर्विरोध और ऐतिहासिक नाटक (तुगलक और आलमगीर का संदर्भ)

 समकालीन अन्तर्विरोध और ऐतिहासिक नाटक
(तुगलक और आलमगीर का संदर्भ)
  डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर,
 हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मानव के अतीत, वर्तमान और भविष्य से सरोकार रखने के कारण साहित्य और इतिहास में गहरा संबंध है। जब से इतिहास-अध्ययन में शासकों की क्रमिक-सूची के स्थान पर जनजीवन के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संघर्षों और अन्तर्विरोधों के अध्ययन ने प्रमुखता प्राप्त की है, तब से साहित्य और इतिहास के संबंधों में भी अन्तर आया है। साहित्य और इतिहास की दूरियां कम हुई हैं। पहले यही कहा जाता था कि इतिहास मनुष्य के बाहरी जगत से संबंध रखता है और साहित्य आन्तरिक जगत से। लेकिन उत्तर-आधुनिकता के दौर में इतिहास की समझ में बुनियादी फर्क आया है। इतिहास के एक दार्शनिक हैं- हेडेनवाईट। हेडेनवाईट ने सबसे पहले विस्तार से इसकी स्थापना की थी कि इतिहास भी एक नैरेटिव है, आख्यान है। उत्तर-आधुनिकता के कारण भी इतिहास में कई मोड़ आए जिसमें पहला महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है आख्यानपरक मोड़। उसी से जुड़ा हुआ है दूसरा लिंग्विस्टिक टर्न। इतिहास को देखने-लिखने और समझने में भाषा का जो महत्व व भूमिका है, उस पर ध्यान देना है। तीसरा जो है, वह है एस्थेटिक टर्न। मतलब यह है कि इतिहास भी एक तरह का एस्थेटिक प्लेजर या एस्थेटिक सेंस दे सकता है। चौथा मोड़ जो है, वह बाद के दिनों में और आया था, यह टेक्सचुअल टर्न है, मतलब पाठपरक मोड़। स्वयं देरिदा का प्रसिद्ध वाक्य है जिस पर बहुत बहस हुई है कि नथिंग इज़ बियोंड टेक्सट। देरिदा मानता था और कहता था कि सब कुछ इस दुनिया में जो कुछ घटनाएं हैं, स्थितियां हैं, वो सब टेक्सट हैं। उनकी उसी तरह से व्याख्या की जानी चाहिए जैसे लिटरेरी टेक्सट की व्याख्या की जाती है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि इतिहास कुल मिलाकर साहित्य के समान हो गया। साहित्य और इतिहास एक स्वभाव हो गए। क्योंकि यह जो चार-पाँच मोड़ हैं, वो पहले से ही साहित्य में मौजूद थे। साहित्य के प्रसंग में उनकी चर्चा की जाती रही थी।1
साहित्य और इतिहास के संबंधों को जानने में दो प्रसिद्ध वाक्यों पर विचार करना बेहद प्रासंगिक होगा। इन लिटरेचर ऐवरिथिंग इज़ ट्रू एक्सेप्ट नेम्स एंड डेज़, इन हिस्ट्री नथिंग इज़ ट्रू एक्सेप्ट नेम्स एंड डेज़(हेडसन) तथाऑल हिस्ट्री इज़ कंटेपंरेरी हिस्ट्री। इतिहासकारों में ने तथ्य और सत्य के संबंधों में सत्य के उद्घाटन को महत्व दिया है।      
किसी ऐतिहासिक घटना, चरित्र अथवा युग के तथ्यों के नाटकीय संयोजन मात्र से कोई कृति ऐतिहासिक कृति की श्रेणी में नहीं आ जाती। ऐतिहासिक रचनाकार अपने समय के अन्तर्विरोधों और संघर्षों को अभिव्यक्त करने के लिए इतिहास की किसी घटना, चरित्र अथवा युग का सहारा लेता है। जो ऐतिहासिक प्रसंग वर्तमान को समझने-समझाने में सहायक होगा, उसी में पाठकों-दर्शकों की रुचि होगी। समकालीन समाज के अन्तर्विरोधों, द्वन्द्वों, संघर्षों और तनावों से ही कोई ऐतिहासिक घटना-सामग्री जीवन्त रूप ग्रहण करती है। इतिहास और वर्तमान का संबंध द्वन्द्वात्मक होता है। अपने समय के अन्तर्विरोधों की पहचान करते हुए इतिहास को व्याख्यायित किया जा सकता है और इतिहास को व्याख्यायित करते हुए हम अपने समय के अन्तर्विरोधों को समझते हैं।
अपनी सृजनात्मक कल्पना का प्रयोग करके ही रचनाकार इतिहास और वर्तमान में जीवन्त संबंध स्थापित कर सकता है। कल्पना के सृजनात्मक प्रयोग पर ही किसी ऐतिहासिक कृति की सफलता का दारोमदार होता है। रचनाकार की सृजनात्मक कल्पना ही ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों को उनके देश-काल की सीमा से निकालकर वर्तमान से जोड़ती है। इतिहास के चरित्रों के लिए रचनाकार की सृजनात्मक कल्पना संजीवनी बूटी का काम करती है, जिसके स्पर्श से ये वर्तमान के जीते-जागते चरित्रों में तब्दील हो जाते हैं। इनके माध्यम से वर्तमान अभिव्यक्त होने लगता है।
किसी रचनाकार को इतिहास से अपने मनोनुकूल बने-बनाए चरित्र नहीं मिलते। कल्पना के प्रयोग से उनको अपने प्रयोग योग्य बनाता है। इतिहास के चरित्र पुतलों की तरह होते हैं, कल्पना के प्रयोग से ही रचनाकार उनमें प्राण फूंकता है। वर्तमान के सामाजिक अन्तर्विरोधों और संघर्षों को अभिव्यक्त करने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं, चरित्रों, प्रसंगों को पुनर्सृजित करता है, यहीं पर रचनाकार की सृजनात्मकता उद्घाटित होती है। जब साहित्य ऐतिहासिक विषयों को लेता है, तब भी वो वर्तमान को इंटरप्रेट करने के लिए उनका सहारा लेता है, वो उसमें जाता नहीं है। वह इतिहास होने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि उसको समकालीन बनाने की कोशिश करता है।­2 अपने समय की अभिव्यक्ति के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के पास विषयों की कोई कमी नहीं होती। इतिहास का सहारा लिए बिना भी रचनाकार अपने समय के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है, तो सवाल उठता है कि रचनाकार इतिहास से सामग्री क्यों लेते हैं। असल में किसी घटना, चरित्र अथवा युग के समग्र विश्लेषण के लिए उससे रागात्मक दूरी की आवश्यकता होती है। अपने काल से ऐसी दूरी कायम करना कठिन काम है। इतिहास से लगाव-जुड़ाव होते हुए भी दूरी स्वाभाविक है। इतिहास की घटना, चरित्र और युग के समस्त पहलू रचनाकार के समक्ष होते हैं, जिससे उनका समग्र विश्लेषण किया जा सकता है।
ऐतिहासिक विषय रचना को प्रामाणिकता प्रदान करता है, जो पाठक-दर्शक में विश्वसनीयता पैदा करता है। यद्यपि विश्वसनीयता का स्तर मात्रा रचनाकार के इतिहास के ज्ञान, वर्तमान के अन्तर्विरोधों की समझ के साथ-साथ उसकी सृजनात्मक कल्पना की सामर्थ्य पर निर्भर करता है। इतिहास और वर्तमान को एक साथ साधना दोधारी रस्सी पर भागने जैसा काम है। इतिहास को अनदेखा करता है तो विश्वसनीयता दाव पर है और वर्तमान के बिना अप्रासंगिक हो जाता है।
किसी ऐतिहासिक घटना, चरित्र अथवा युग आधारित रचना का बाहरी ढांचा-कंकाल बेशक इतिहास-प्रेरित हो, लेकिन यह भी सही है कि उसकी रगों में दौड़ने वाला खून, प्राण, चाल, जुबान कुल मिलाकर पूरी चेतना वर्तमान की होती है। ऐतिहासिक घटना, चरित्र अथवा युग रचनाकार को एक खाका देकर रचनाकार की मदद भी करता है, लेकिन इस खाके-ढांचे की सीमाएं होती हैं जो लेखक को पर्याप्त छूट नहीं देती। प्रेमचन्द ने कर्बला नाटक की भूमिका में लिखा ऐतिहासिक नाटकों में कल्पना के लिए बहुत संकुचित क्षेत्र रहता हैं। घटना जितनी ही प्रतिद्ध हो, उतनी ही कल्पना-क्षेत्र की संकीर्णता भी बढ जाती है।3रचनाकार ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को ध्यान में रखते हुए नवीन पात्रों अथवा परिस्थितियों की रचना करता है। हिन्दी के एतिहासिक नाटककार रामकुमार वर्मा ने लिखा है कि आधुनिक जीवन अत्यन्त अव्यवस्थित और अशान्त हो गया है। प्रत्येक परिस्थिति समस्या का रूप लेकर आती है। ऐसी स्थिति में यह और भी आवश्यक है कि जीवन की परिस्थिति को रंगमंच पर अत्यन्त स्पष्ट और सुलझे हुए रूप में रखा जाए। ऐतिहासिक नाटकों में कथावस्तु तो निश्चित-सी रहती है, परन्तु उसमें जीवन की प्रबल प्रतिष्ठा के लिए नवीन परिस्थितियों या पात्रों की सृष्टि करनी पड़ती है। ऐसी परिस्थितियों जीवन और उसके मनोविज्ञान के अध्ययन और अधिकार के बिना नहीं आ सकतीं। यदि ऐसा अधिकार हो जाए तो ऐतिहासिक नाटक कथावस्तु का एक ज्वलंत चित्र बन जाता है।4
असल में वर्तमान और भविष्य के प्रति संवेदनशील-प्रतिबद्ध रचनाकार ही ऐतिहासिक घटना, चरित्र अथवा युग आधारित नाटक की रचना कर सकने में समर्थ है। भविष्य-दृष्टि ही किसी लेखक को इतिहास में ले जाती है। भविष्य की तलाश का लेखक इतिहास की ओर पीठ नहीं फेर सकता। इतिहास को अपनी योजना में शामिल करना अपना फलक विस्तृत करना है। समर्थ ऐतिहासिक रचना इतिहास को पुनर्व्याख्यायित करके वर्तमान और भविष्य के साथ जोड़ती है। इतिहास अपनी कालगत सीमाओं का अतिक्रमण करके मूल्यगत और विचारगत सरणी बनाता है।
इतिहास में नाटककारों की विशेष दिलचस्पी रही है। इतिहास की घटना, चरित्र, युग को केन्द्रित करके अनेक सफल नाटकों की रचना हुई है। ऐतिहासिक नाटक में प्रस्तुत घटना, चरित्र अथवा युग की ऐतिहासिकता के साथ सृजनात्मक कल्पना के संयोजन से समकालीन द्वन्द्वों को अभिव्यक्त करने की शक्ति और संभावना पर विचार करके उसकी शक्ति को पहचाना जा सकता है।
स्वतन्त्रता के बाद की भारतीय राजनीति के बदलते चरित्र को और उसके केन्द्रीय अन्तर्विरोधों को गिरीश कारनाड़ रचित तुगलक (1964) और भीष्म साहनी रचितआलमगीर(दसवां दशक) ऐतिहासिक नाटकों से समझा जा सकता है। दोनों नाटकों के लेखकों ने अपने समय के अन्तर्विरोधों, संघर्षों, द्वन्द्वों को उद्घाटित करने ऐतिहासिक तथ्यों-घटनाओं का सृजनात्मक प्रयोग किया है। तुगलक नाटक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन और युग(1325-1351) पर आधारित है तथा आलमगीर मुगल शासक औरंगजेब(1605) के जीवन पर आधारित है। इन दोनों शासकों के बारे में इतिहासकारों के बीच भिन्न मत हैं। परस्पर विरोधी चारित्रिक खूबियों के कारण इनका अपना जीवन भी बड़ा दिलचस्प रहा है। तुगलक पढ़े-लिखे मूर्ख के तौर पर ख्यात है। औरंगजेब क्रूरता की समस्त सीमाएं लांघ जाता है, लेकिन उसका जीवन इतना सादगीपूर्ण है कि उसे महलों का फकीर कहा जाता है। हमेशा खुदा और दीन का नाम लेता है, लेकिन उसमें दया जैसा सहज मानवीय गुण भी नहीं है। ऐसे विरोधाभासी चरित्रों को लेकर वर्तमान राजनीति के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त करते हुए बृहत्तर अर्थवत्ता की घटनाओं में भाग लेने की चेतना को दर्शकों में जगाने5 का काम गिरीश करानाड और भीष्म साहनी जैसे समर्थ लेखक के लिए ही संभव था।
मध्यकालीन इतिहास में तुगलक का समय उत्थान का समय है, आलमगीर का समय पतन का समय है। मध्यकाल में इस अवस्था परिवर्तन में 250 वर्ष का समय लगा, जबकि नेहरू युग और उदारीकरण के युग में 25 वर्षों का ही अन्तर है। जिस तरह इतिहास में आलमगीर का समय काल की दृष्टि से तो तुगलक से आगे है, लेकिन मानवीय संवेदना, मूल्यों और सोच के मामले में काफी पीछे है। नेहरू युग और उदारीकरण के युग में भी यही दिखाई दे रहा है। तुगलक का उन्माद नेहरू युग की जन कल्याण की महत्वाकांक्षी नीतियों की असफलता का नतीजा है और जब राज्य ने सन् 1990 के बाद उदारीकाण की अपने कल्याणकारी दायित्व को तिलांजलि दी, जिसे नेहरू युग की अस्थियां बहाने के रूप में देखा गया, तो साम्प्रदायिक उन्माद की राजनीति उभार पाती है। उस उन्मादी राजनीति में उदारता-सहिष्णुता तथा संकीर्णता-कट्टरता की टकराहट दिखाई देती है। नेहरू युग विचारधारा के तौर पर बहुत प्रगतिगामी था, जबकि उदारीकरण घोर पुरातनपंथी है। आलमगीर की सोच भारतीय राजनीति में फासीवाद, तानाशाही की प्रवृतियों की उभार की ओर संकेत करती है। ऐसा लगता है कि आदमी के पैर तो आगे की ओर हैं, लेकिन उसका मुँह पीछे की ओर है।
गिरीश कारनाड का नाटक नेहरू युग की असफलता पर केन्द्रित है। आजादी के बाद के राजनीतिक नेतृत्व में स्वतंत्रता-आन्दोलन के सपनों को साकार करके राष्ट्र का विकास करने की प्रबल मंशा थी। इसके लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बनाई गई। आर्थिक-विकास के जो लक्ष्य रखे गये, उनका आधा भी हासिल नहीं हुआ। भूमि सुधार का कार्यक्रम ढकोसला साबित हुआ। जन साधारण की आकांक्षाओं पर जल्दी ही पानी फिर गया और मोहभंग होना शुरु हुआ। सन् 1962 में मोहभंग अपने चरम पर था। चीन युद्ध ने जनता के आत्मविश्वास को मिट्टी में मिला दिया, जिसके परिणाम आर्थिक बोझ के रूप में जनता को भुगतने पड़े। गिरीश कारनाड की सृजनात्मक दृष्टि नेहरू युग और तुगलक युग में गहरी साम्यता देखती है। इब्राहिम अलकाजी ने लिखा कि यह समझना कठिन नहीं है कि गिरीश कारनाड ने तुग़लक के चरित्र और काल को अपने नाटक के लिए क्यों चुना। एक कारण, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, कन्नड़ में ऐतिहासिक नाटकों का प्रायः अभाव-सा है। निश्चय ही केवल इसी से उन्हें प्रेरणा न मिली होगी। इस महान शासक के बृहद आदर्शों, स्वप्नों और आकाश को छूने वाली आकांक्षाओं में, तदनन्तर उसके आमूल पराभव में उन्हें भारतीय समसामयिक वस्तुस्थिति का बोध हुआ होगा। कुछ ही वर्षों में तुगलक की गगनचुम्बी योजनाएँ और स्वप्न धूल में मिट गये, अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा बनने वाले सभी व्यक्तियों को उसने मौत के घाट उतार दिया, और अन्त में उसने यही पाया कि अपने ही उलझन-भरे अस्तित्व की छायाओं से वह जिन्दगी-भर लड़ता रहा। निपट अकेला, शवों के झुंडों से और अपने ही हाथों किये सर्वनाश से घिरा हुआ वह उन्माद के छोर तक पहुँच गया।6
तुगलक शिक्षित-चिन्तनशील-बुद्धिमान था, धार्मिक मामलों में काफी उदार था, अपने साम्राज्य की मजबूती और जनता की भलाई चाहता था। विडम्बना यह है कि अपने इरादों को अंजाम देने के लिए उसने जो भी कदम उठाए वे सब औंधे मुंह गिरे। राज्य की मजबूती के लिए उसने अपनी राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद स्थानान्तरित किया, राज्य के विस्तार के लिए खुरासान को जीतने की योजना बनाई। युद्ध-खर्च पूरा करने के लिए लगान बढ़ा दिया, जिससे जनता में आक्रोश और विद्रोह फैला। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में चांदी की कमी होने के कारण तांबे के सिक्के चलाए। धर्म के क्षेत्र में पांचों वक्त की नमाज को जरूरी कर दिया। इन निर्णयों में न केवल बुरी तरह असफल हुआ, बल्कि उनको वापस करने पड़े।
उसकी घोर विफलता का कारण उसके मकसदों और उनको पूरा करने के तरीकों में विरोधाभास था। अपनी योजनाओं को जिन वर्गों के सहयोग से वह पूरा करना चाहता था, उनसे उनके वर्ग स्वार्थों टकराते थे, जिस कारण उन्होंने उसका साथ नहीं दिया। उसकी योजनाओं को अमीर-उमरा वर्ग ने कार्यरूप देना था, लेकिन उसने सहयोग तो क्या देना था, वे उसकी खिल्ली उड़ाते थे और उसके शासन को सामप्त करने के षड़यन्त्रों में संलिप्त थे।
उसकी तमाम नीतियों से निजी फायदा उठाने वाला ऐसा वर्ग पैदा हो गया था, जो उसके हर फैसले से लाभ उठाता था। अजीज ऐसे ही वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। तुगलक की सब धर्मों के प्रति न्यायशील नजर आने की नीति से वह ब्राह्मण बनकर जमीन हथिया लेता है। दिल्ली से दौलताबाद के सफर में वह धन कमाता है, चाँदी की जगह ताँबे के सिक्कों के चलन की नीति से वह नकली सिक्के बनाकर शाही खजाने को लूटता है। हजरत के संबंधी की जगह खुद ले लेता है। तुगलक की नीतियों-योजनाओं से वह चाँदी काटता है, जनता न केवल ठन ठन गोपाल रह जाती है, बल्कि कर-लगान बढने से उस पर इनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
तुगलक अपनी इन योजनाओं में तो सफल नहीं होता, लेकिन राजनीतिक-कूटनातिक तौर पर खूब होशियार है। अपने तमाम शत्रुओं को ठिकाने लगा देता है। अपने राज्य पर कोई आंच न आए, इसके लिए खूब सोच-विचार करता है, लेकिन जन-कल्याण की नीतियां उसका तुगलकी फरमान साबित होती हैं।
नाटक में तुगलक का चरित्र आरंभ में आदर्शवादी और स्वप्नद्रष्टा है, लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे उसे क्रूर और निरंकुश तानाशाह और अंत में एकाकी और उन्मादी व्यक्ति में तब्दील कर देती है।7 योजनाओं की असफलता तुगलक को उन्मादी बना देती हैं। असल में गिरीश कारनाड ने भावी भारतीय राजनीति की पदचाप सुन ली थी।
नेहरू युग के मोहभंग में उन्मादी राजनीति के बीज छुपे थे, जिनको बाद में अंकुरित होने की अनुकूल परिस्थितियां मिली, नौवें दशक में पल्लवित-विकसित हुई और वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के साथ दसवें दशक में इसकी फसल तैयार हो गई। भारतीय राजनीति का प्रमुख स्वर उभर कर आया। बाबरी-मस्जिद विध्वंस से लेकर गुजरात नरसंहार में कट्टर धार्मिक उन्माद की अभिव्यक्ति के सूत्र कहीं न कहीं शासन सत्ताओं की नीतिगत-विफलता का प्रतिफल है। तुगलक के जीवन के आखिरी समय में परिस्थितिजन्य उन्माद आलमगीर की मूल विचारधारा है। तुगलक बेशक असफल हो जाता है, लेकिन उसमें जनता की भलाई की आकांक्षा तो है, परन्तु आलमगीर में सिर्फ सत्ता हासिल करना और उसमें बने रहना ही मुख्य हो गया है। जनता में दहशत इसकी प्रमुख रणनीति है। तुगलक धार्मिक उदारता की परम्पराओं को अपनाता है, जबकि कट्टरता आलमगीर का प्रस्थान बिन्दू है। दारा शिकोह उदार-सहिष्णु परम्परा का प्रतिनिधि है, उसकी हार, अपमान और अन्ततः हत्या असल में राजनीति में कट्टर व संस्थागत धर्म के वर्चस्व को उजागर करता है। गिरीश कारनाड ने शासक तुगलक के चरित्र में दोनों प्रवृतियों का समावेश किया है, जो भीष्म साहनी के आलमगीर में औरंगजेब और दारा शिकोह के रूप में स्वतंत्र तौर पर विकसित होती हैं। एक-दूसरे से संघर्ष करती हैं और अन्ततः कट्टरता विजय प्राप्त करती है।
सन 1980 के बाद से भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार दिखाई देने लगता है। साम्प्रदायिक आधार पर लामबन्दियां जोर पकड़ती हैं। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिक्खों का नरसंहार हुआ। राम जन्मभूमिबाबरी मस्जिद विवाद ने तूल पकड़ा। जिससे समाज का अभूतपूर्व साम्प्रदायिक विभाजन हुआ। धीरे-धीरे साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे राजनीतिक पटल पर इस तरह से छा जाते हैं कि सरकारें इसके आधार पर बनने लगती हैं। आलमगीर नाटक में भीष्म साहनी ने मुगल सम्राट औरंगजेब के माध्यम से वर्तमान भारतीय राजनीति के साम्प्रदायिक चरित्र को पहचानने की कोशिश की है। औरंगजेब और दारा शिकोह धार्मिक कट्टरतावाद और उदारतावाद के प्रतिनिधि हैं। औरंगजेब और दारा शिकोह मात्र दो व्यक्तित्व नहीं, बल्कि दो जीवन-दृष्टियाँ हैं। एक में फासीवाद और तानाशाही की प्रवृतियां हैं, तो दूसरे में उदार लोकतांत्रिक-व्यवस्था की। राजनीति के धर्म से संबंधों पर तथा धर्म के संस्थागत रूप तथा धर्म के मानवीय के पहलुओं पर बहस शुरु होती है। साम्प्रदायिक-उन्मादी शक्तियां संस्थागत धर्म को अपनाती हैं तथा धर्म के मानवीय पहलुओं से उसका कोई सरोकार नहीं होता।
औरंगजेब संस्थागत धर्म के प्रतिनिधि है, जो धर्म के कर्मकाण्डों में विश्वास करता है, पंचनमाजी है। औरंगजेब तलवार की ताकत के जोर पर सत्ता हासिल करना चाहता है, साम्राज्य का विस्तार चाहता है, जनता की इच्छा के प्रति कोई सम्मान नहीं है। वह तानाशाह शासक की तरह से मरकज़ में मजबूत सरकार ... , एक मजबूत हुकूमत की, एक मजबूत हाकिम की8 वकालत करता है। उसका मानना है कि हाकिम एक घुड़सवार की मानिंद होता है। लगाम खींचकर रखेगा तो घोड़ा उसके काबू मे रहेगा। ढील देगा तो घोड़ा किसी भी वक्त उसे पटक देगा9 इसके विपरीत दारा शिकोह सत्ता को जनता की भलाई का जरिया मानता है कि हुकूमत की बागडोर हाथ में होगी तो मैं एक नए तरह के निज़ाम को फ़रोग दूँगा, शहंशाह अकबर के नक़्श-ए-क़दम पर चलूँगा। दिल्ली इल्म और ज़ौक का मरकज़ बनेगी, कि हुकूमत बहुत बड़ा ज़रिया है अपने इरादों को अमली जामा पहनाने का, ख़ल्क की ख़िदमत करने का।10
औरंगजेब संस्थागत धर्म का प्रतिनिधित्व करता है। दीन का शासन स्थापित करने की बात करता है, लेकिन इस्लाम के मूल्यों से उसका वास्ता नहीं। धार्मिक नकाब के नीचे सत्ता का क्रूर चेहरा छुपा हुआ है। धर्म उसकी सत्ता का सुरक्षा-कवच है। खुदा का नाम उसकी राजनीतिक आकांक्षापूर्ति की योजना का हिस्सा है, अपने हर अमानवीय कृत्य को खुदा के नाम पर वैध ठहराता है। औरंगजेब बार-बार कहता है कि खुदावंदताला की मुझ पर मेहर हुई है।... यह खुदावंदताला की बख़्शिश है।11  वह जनता की धार्मिक भावनाओं का दोहन-शोषण करता है। वह जानता है कि रियाया मजहबी अदालत के फैसले के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती12 औरंगजेब मजहब को सत्ता के लिए प्रयोग करता है। सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों और बेटों को मरवा देता है। उसके लिए रिश्ते-नाते, इंसानियत के सवाल सब समाप्त हो जाते हैं। सत्ता ही उसकी विचारधारा और तर्क बन जाती है। औरगंजेब के आचरण से मानवीय संवेदनाएं समाप्त हो गई हैं, उसमें एक अजीब ठंडापन है। दया, क्षमा जैसे मानवोचित मूल्य गायब हैं।
दारा शिकोह के लिए ईश्वर चर्चा आध्यात्मिक-दार्शनिक भूख शांत करने का जरिया है। दारा शिकोह धर्म के मानवीय पक्ष में विश्वास करता है। धर्म की उदार परम्पराओं को अपनाता है, जिसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं का सार तथा परम्पराओं को शामिल करता है। हिन्दू दर्शन और इस्लाम के साझे तत्वों की खोज करता है। इसके लिए मजमा उल बहराइन पुस्तक की रचना करता है। दारा शिकोह संस्कृति-कला को प्रश्रय देता है, दूर-दूर से रचनाकारों को अपने राज्य में बुलाता है।
औरंगजेब कला और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखता है। तानाशाही सत्ताएं स्वतंत्र अभिव्यक्ति को कभी बरदास्त नहीं करती। धर्म के नाम पर, नैतिकता के नाम पर कला-संस्कृति पर पाबंदी लगाती हैं। साम्प्रदायिक शक्तियों ने अनेक फिल्मी कलाकारों, नाटककारों को प्रताड़ित रकने की कोशिश की। धार्मिक-उन्माद का शिकार अनेक कलाकार हुए हैं। फिर चाहे तस्लीमा नसरीन हों, मकबूल फिदा हुसैन हों, सलमान रुस्दी हों, फ़ैज अहमद फ़ैज हों। कलाकारों को अपने वतन से निर्वासित होना पड़ा।
औरंगजेब की दीन और खुदा की सेवा के तरीके और दारा शिकोह के तरीके परस्पर विपरीत हैं। औरंगजेब दहशत से लोगों पर शासन करना चाहता है और दारा शिकोह का रास्ता प्रेम का रास्ता है। वह कहता है कि कुछ लमहे ऐसे होते हैं जो जिंदगी को देखने के लिए नई रोशनी देते हैं। मुझे लगा जैसे लोगों की महब्बत ने मेरी आँखें खोल दी हैं। महब्बत ही वह महामंत्र है जो दिल की गाँठें खोलता है, जो हमें दूसरे इन्सानों से जोड़ता है। महब्बत के रास्ते ही हम उनके दिल की धड़कन सुन पाते हैं, और महब्बत ही वह सुनहरी कड़ी है जो हमें अल्लाताला से भी जोड़ती है।13

शेख बुरहानुद्दीन और औरंगजेब के संवादों से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है।
औरंगजैबः मैं बहुत अकेला पड़ता जा रहा हूँ, शेख साहब, बहुत-से नाते-रिश्तेदार दग़ा दे गए।
शेख़ बुरहानुद्दीनः(मुस्कराकर) यह तो दुनिया का दस्तूर है, पर नाते-रिश्तेदारों की तुम्हारी नज़र में तो कभी कोई वुक़अत नहीं रही।
औरंगजैबः (गर्मजोशी से) हक़ की लड़ाई में मैं अपने बेटे को भी कुर्बान कर दूँगा।
शेख़ बुरहानुद्दीनः (हँसकर) हक़ की लड़ाई में या शक की लड़ाई में?... तुमने दहशत का रास्ता चुना, औरंगजे़ब। अगर ख़ल्क की ख़िदमत का रास्ता चुनते तो तुम्हें कामयाबी मिलती। सच्ची फ़तह का रास्ता दूसरों को तबाह करने का रास्ता नहीं है।
औरंगजेबः मैं दोस्ती का हाथ बढाऊँ, किसके लिए ? मुग़लिया सल्तनत के दुश्मनों के लिए ? दीन के दुश्मनों के लिए ?
शेख़ बुरहानुद्दीनः ख़ल्क की ख़िदमत का रास्ता ही दीन की ख़िदमत का रास्ता है ... चलूँगा।14

अमीर-उमरा जिसे आज का मध्यवर्ग-ब्यूरोक्रेसी कहा जा सकता है। अमीर-उमरा वर्ग हमेशा सत्तासीन के साथ होता है। उन्हें किसी शासक विशेष से कोई मोह नहीं होता। उसकी निष्ठा सत्ता के प्रति है। दारा शिकोह सत्ता च्युत होता है, तो राजा जसवंत सिंह, अजमेर का राजा, मलिक जीवन जैसे उसके वफादार व सहयोगी अमीर-उमरा औरंगजेब के साथ हो जाते हैं। अमीर-उमरा का चरित्र नादिरा और दारा के संवादों से स्पष्ट हो जाता है। जिसका पलड़ा भारी होगा, उमरा उसी के साथ जा मिलेंगे।15 आधुनिक तंत्र में अमीर-उमरा का स्थान ब्यूरोक्रेसी ने लिया है। यह मुख्यतः मध्यवर्ग से आता है। जो वर्ग सत्ता में आता है, वह उसी का पल्ला पकड़ लेता है। भीष्म साहनी ने मध्यवर्ग के अवसरवादी चरित्र को उन्होंने गहराई से समझा है।
तुगलक और आलमगीर नाटक के लेखकों ने आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के अन्तर्विरोधों की जड़ों को तलाशने के लिए इतिहास का प्रयोग किया। गिरीश कारनाड ने तुगलक में तुगलक अपनी ऐतिहासिकता के साथ यहां मौजूद है। उसके जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं को नाटक की कथावस्तु निर्मित की है। अपने मूल ऐतिहासिक चरित्र के साथ ही तुगलक वर्तमान का बोध करवाता है। भीष्म साहनी ने आलमगीर में औरंगजेब से संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं को नाटक की विषयवस्तु बनाया। ऐतिहासिक औरंगजेब की चारित्रिक विशेषताओं को प्रस्तुत किया है। उसके जीवन के विभिन्न पहलुओं के यहां दर्शन होते हैं।
दोनों नाटक इतिहास की शक्तियों को खोलते हुए अपने-अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करने में सफल रहे हैं, लेकिन दोनों को मिलाकर पढ़ने से एक दिलचस्प तस्वीर उभरती है। भारतीय नेतृत्व नेहरु युग में ही जनता की आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतरा, लेकिन धीरे-धीरे राजनीति सत्ता का खेल मात्र बन कर रह गई। मूल्यविहीन-मुद्दाविहीन राजनीति के लिए दहशत और क्रूरता ही अपने स्थायित्व का अन्तिम सहारा है। जनविरोधी राजनीति अपने अस्तित्व और वैधता के लिए संस्थागत धर्म का दामन थामती है।




संदर्भः
  1. अन्यथा (अंक-14), सं.कृष्णकिशोर, सेट एंथोनी, एम. एन. (यू.एस.ए.) (इतिहास और साहित्य के अंतर्संबध विषय पर बहस में मैनेजर पाण्डेय के विचार) पृ.-15
2. अन्यथा (अंक-14), सं.कृष्णकिशोर, सेट एंथोनी, एम. एन. (यू.एस.ए.) (इतिहास और साहित्य के अंतर्संबध विषय पर बहस में पंकज बिष्ट के विचार) पृ.-17
3. प्रेमचन्द, कर्बला, कला मनिदर, दिल्ली, पृ.-8
4. रामकुमार वर्मा, इतिहास के स्वर, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, 1986, पृ.- 6


  1. गिरीश कारनाड, तुगलक, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, 1977 (इब्राहिम अलकाजी द्वारा लिखित भूमिका से), पृ.-5
  2. गिरीश कारनाड, तुगलक, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, 1977 (इब्राहिम अलकाजी द्वारा लिखित भूमिका से) पृ.-6
  3. माधव हांड़ा,
  4. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-15
  5. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-16
  6. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-47
  7. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-38
  8. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-64
  9. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-65
  10. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-76
  11. भीष्म साहनी, आलमगीर, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ.-50

स्त्री-लेखन के प्रति हिन्दी-समीक्षा के रुझान

स्त्री-लेखन के प्रति हिन्दी-समीक्षा के रुझान

डा. सुभाष चन्द्र, प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

भारतीय मानस के निर्माण में ब्राह्मणवादी विचारधारा की दो बैशाखियों - पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था की विशेष भूमिका है। समाज की आधी आबादी को पितृसत्ता की विचारधारा के माध्यम से तथा शेष आबादी के अधिकांश हिस्से को वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से विकास के तमाम अवसरों से वंचित किया। ज्ञान, सत्ता और सम्पति को द्विज वर्गों तक सीमित करके स्त्री और शूद्र वर्ण के सामाजिक व आर्थिक शोषण को धार्मिक वैधता प्रदान की। इसके लिए अनेक ग्रंथों व कथाओं की रचना की। भारतीय समाज में इस शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह भी हुए। प्राचीन भारत में बौद्धों- जैनों का आन्दोलन, मध्यकाल में संतों का आन्दोलन तथा आधुनिक काल में जोतिबा फूले, पेरियार, आम्बेडकर के आन्दोलन को विशेषतौर पर रेखांकित किया जा सकता है।

पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था में गहरा अन्तःसंबंध है, इसे गीता के प्रथम अध्याय में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद से समझा जा सकता है। अर्जुन के विषाद का कारण युद्ध में पुरुषों के मारे जाने के बाद स्त्रियों की भ्रष्टता और फलस्वरूप वर्णसंकरता और कुल का नाश है। गीता के प्रथम अध्याय में वह अपना पक्ष रखते हुए कहता है कि ''युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है, पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए है।''1

भारतीय ज्ञान-मीमांसा में स्त्री को पुरुष के समकक्ष नहीं माना गया और न ही उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया। मनुस्मृति में उसे बचपन में पिता, जवानी में पति तथा बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहने की व्यवस्था दी गई है।2 गीता में उसे पापयोनि3 की संज्ञा तथा कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् में विवाह के बाद ससुराल जाते समय शकुन्तला को उसके पिता कण्व के उपदेश समाज में स्त्री की दोयम स्थिति की पुष्टि करते हैं।4 बौद्ध थेरी गाथाएं भी उसकी सामाजिक स्थिति का ब्यौरा प्रदान करती हैं तथा जातक कथाओं से भी स्त्री की सामाजिक हैसियत का अनुमान लगाया जा सकता है।


भारतीय परम्परा में पितृसत्ता के खिलाफ मूलगामी आन्दोलन नजर नहीं आता। वर्ण-व्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक शोषण के विरुद्ध जो जबरदस्त आन्दोलन हुए स्त्री के प्रति उनका भी नजरिया बहुत उदार नहीं था। प्राचीन काल में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों को अपने संघ में बड़ी हिचकिचाहट और शर्तों के साथ प्रवेश दिया था।5 मध्यकाल में संतो के आन्दोलन में  स्त्री के प्रति समतामूलक रुझान नहीं थे, उन्होंने स्त्री को नरक कुण्ड,माया,महाठगिनी आदि पितृसत्तात्मक संज्ञाएं दीं।6 तुलसीदास की ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी उक्ति हिन्दी क्षेत्र की आचार-संहिता का सूत्र बनी। रीतिकालीन दरबारी कवियों के लिए तो स्त्री देह मात्र थी, जिसकी बनावट व भाव-भंगिमाओं के स्थूल वर्णन से अपने अन्नदाताओं की कुंठाओं को तुष्ट करते थे। यद्यपि आधुनिक काल में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत जोतिबा फूले और डा. भीमराव आम्बेडकर ने अपने आन्दोलन में स्त्री-मुक्ति को केन्द्रीय सवाल के तौर पर रखा था, लेकिन इनके कथित अनुयायियों ने स्त्री-मुक्ति को लेकर वह संवेदनशीलता नहीं दिखाई।

सावित्रीबाई फूले, ताराबाई सिन्दे, पण्डिता रमा बाई आदि ने स्त्री-मुक्ति के सवालों को उठाया और आधुनिक भारत में स्त्री लेखन शुरुआत की थी। हिन्दी में महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान के बाद कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा जैसे सशक्त हस्ताक्षर हैं, परन्तु यहां तक स्त्रियों की उपस्थिति भर है, लेकिन अस्सी के बाद स्त्री लेखिकाओं की पूरी पीढ़ी सामने आई है । मृदुला गर्ग, मृणाल पाण्डे, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुदगल, कात्यायनी, नासिरा शर्मा, अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, रोहिणी अग्रवाल, अनामिका, गीतांजलिश्री, क्षमा शर्मा, जैसी सशक्त लेखिकाओं ने विभिन्न विधाओं में स्त्री-सत्य को अभिव्यक्त किया है।

उन पुरुष-प्रधान मानसिकता के समीक्षकों को विश्वसनीय और ईमानदारीपू्र्ण स्त्री-लेखन की शक्ति का अहसास कभी नहीं हो सकता, जो बिना पढ़े स्त्री-लेखन पर जड़ों से कटे होने के फतवे जारी करते हैं या अपने जड़ीभूत संस्कारों से ग्रस्त हैं। इसकी शक्ति का अहसास पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढांचों की शिकार युवतियों व शोध-छात्राओं को होता है, जो जीवन से निराश होकर आत्महत्या तक की सोच रही थी, लेकिन इस साहित्य से संपर्क ने उनमें जिजीविषा जगाई और जीवन का संचार किया।

साहित्य आन्तरिक जगत का प्रकटीकरण है। भारतीय समाज व परिवार के पितृसत्तात्मक ढांचे में परवरिश के कारण पुरुष के आन्तरिक-जगत और महिला के आन्तरिक-जगत के निर्माण में गहरा अन्तर है। फलतः विभिन्न सामाजिक सवालों पर पुरुष लेखक और स्त्री लेखक की रचनात्मक प्रतिक्रिया में अन्तर होता है। पुरुष लेखक और स्त्री लेखक की विचारधारा और दृष्टि की समानता के बावजूद अनुभव-जगत की भिन्नता के कारण उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति स्वाभाविक तौर पर भिन्न होगी।लेखन करते समय पुरुष लेखन की अनुभूतियां और संवेदनाएं वही नहीं हो सकती जो स्त्री लेखक की होंगी। पुरुष लेखन संभवतः नारी मुक्ति का राजनीतिक सूत्रीकरण तो कर सकता है, परन्तु रचनात्मक धरातल पर उसकी कृति, बोध या धारणाएं एक हद तक वह नहीं हो सकती जो स्त्री लेखिका की होंगी।7 महिला के आन्तरिक जगत के समाजशास्त्र की विशिष्टता की पहचान करके ही स्त्री-साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को गढ़ा जा सकता है।

आज लेखिकाएं स्त्री-संबंधी सवालों को उठाकर शोषण के सूक्ष्म रूपों की पहचान करवा रही हैं। स्त्रियों के लिए साहित्य-सृजन टाईम-काटू साधन नहीं, बल्कि अस्तित्व का संघर्ष और जिन्दगी प्राप्त करने का जरिया है। साहित्य स्त्रियों के लिए खुली खिड़की की तरह है, जहां से उनके जीवन में ताजगी आती है। स्त्रियों का रचनात्मक लेखन नारी मुक्ति और जागरण का एक माध्यम है, उनकी स्वतंत्रता की आकांक्षा और अभिव्यक्ति का साधन भी।8 साहित्य स्त्रियों के लिए कितना महत्वपूर्ण है इसका उद्घाटन करते हुए हिन्दी की प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथाएक कहानी यह भी में लिखा है कि आज लेखन की शक्ति के बारे में सोचती हूं तो आश्चर्य होता है। आदमी यदि निरन्तर लिखता रहे तो कितनी आपदाओं-विपदाओं को सहज ही दरकिनार कर सकता है। आप लिखते रहें और आपका लिखा बराबर चर्चित भी होता रहे तो कैसी ऊर्जा का संचार होता रहता है आपके भीतर, यह तो मैने खुद अनुभव किया है वरना निष्क्रिय मन के चलते तो छोटी-छोटी बातें भी आपके लिए असह्य हो जाती हैं। --- मैं ही अपनी दुखती रगों और खाली कोनों को अपने लेखन से पूरा करने की कोशिश करती रहती थी।9

स्त्री-जीवन की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं-संघर्षों-अन्तर्विरोधों को स्त्री-लेखिकाओं ने अभिव्यक्ति दी और ऐसी रचनाएं विपुल मात्रा में है। स्त्री-लेखन का संघर्ष परम्परावादी व स्त्री-विरोधी संस्कारों से है, जिसमें सतीत्वको ही स्त्रीत्व का पर्याय मान लिया गया है। इससे मुक्ति के लिए स्त्री को पदे-पदे संघर्ष करना पड़ता है। इसी संघर्ष में ही स्थापित मूल्यों-संस्कारों में छुपी सूक्ष्म अमानवीयताओं की पहचान करके वह वैकल्पिक जीवन-मूल्यों को अर्जित करती है। इन संस्कारों से संघर्ष का क्षेत्र सर्वाधिक कष्टदायक है, लेकिन यह भी सही है कि यहीं स्त्री-लेखन तेजस्विता ग्रहण करता है। लेकिन विडम्बना यह है कि स्त्री-लेखन साहित्य-विमर्श-समीक्षा में प्रमुखता नहीं पा सका। स्त्री-साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में भी हिन्दी आलोचना में गैर-अकादमिक एवं उपेक्षापूर्ण रवैया क्यों मौजूद है, इस पर विचार आवश्यक है।10

असल में वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी-वर्ग की ज्ञान-मीमांसा शोषित-वंचित वर्गों की ज्ञान-धाराओं की उपेक्षा, विकृत व्याख्या तथा अपने में समावेश करके उसके प्रभाव को कुंद करने की जुगतें लड़ाती रहती हैं। स्त्री-लेखन के साथ भी ऐसा ही सूलुक हुआ। उपेक्षा, विकृतिकरण और समावेशीकरण का प्रयास मध्यकालीन स्त्री-लेखिकाओं तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका शिकार आधुनिक लेखिकाएं भी हुईं। महिला-लेखन को स्वतंत्र तौर पर न देखकर पुरुष-लेखन के पूरक के तौर पर ही व्याख्यायित किया। मध्यकालीन संत कवियित्रियों मीरा, सहजोबाई, ललद्य आदि के साहित्य की विशिष्टता को पहचानने की कोशिशें भी नहीं हुईं। इनके साहित्य को धर्म, भक्ति, अध्यात्म की बद्ध प्रणालियों में ही व्याख्यायित किया। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी के साहित्य की समीक्षाओं में इन प्रवृतियों को देखा जा सकता है।

महादेवी वर्मा को रहस्यवादी-छायावादी कवियित्री को तौर पर ही पहचान मिली। एक चिन्तक के तौर पर उनको नहीं पहचाना। उन्होंने भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति के बारे में लिखा कि इस समय तो भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय और घोड़ा पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को पालता है तथा पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अधिकार समझता है। हमारे समाज के पुरुष के विवेकहीन जीवन का चित्र देखना हो तो, विवाह के समय गुलाब-सी खिली हुई, स्वस्थ बालिका को पांच वर्ष बाद देख लीजिए। उस समय असमय प्रौढ़ हुई दुर्बल संतानों की रोगिणी पीली माता में कौन-सी विवशता, कौन-सी रुला देने वाली करुणा न मिले।11

हिन्दी समीक्षा ने साहित्य को सांस्कृतिक समग्रता में व्याख्यायित नहीं किया। राजनीतिक क्षेत्र में ही उसका समीक्षा बोध निर्मित हुआ। स्वतन्त्रता, समानता, विकास, सुरक्षा, मानव मुक्ति आदि सवालों को राजनीतिक एकांगिता में ही समझने की कोशिश की। इन व्यापक सवालों के विविध आयाम हैं और समाज के हर स्तर पर इन सवालों की विविध अनुगूंजें हैं। स्त्री साहित्य में स्वतन्त्रता, समानता, विकास, सुरक्षा, मानव मुक्ति आदि के सवाल का रूप अलग है।

भारतीय समाज में स्त्री का अनुभव क्षेत्र मुख्यतः परिवार है। पारिवारिक संरचानाओं के साथ उसका संघर्ष है। मीरा का संघर्ष भी परिवार से आरम्भ होकर पूरे समाज और उसकी परम्परा से था। स्त्री के लिए स्वतंत्रता का अर्थ सामाजिक वर्जनाओं से मुक्ति है, समानता का अर्थ अवसरों की समानता से है, जबकि पुरुष के लिए परिवार संघर्ष का क्षेत्र नहीं है। पारिवारिक संरचानाओं में उसको विशेषाधिकार प्राप्त हैं। परिवार नामक संस्था में शोषण शब्द को पितृसत्तात्मक पुरुष स्वीकार नहीं करते। स्त्री का यहां दम घुटता है और इस स्तर पर संघर्ष काफी कठिन है, क्योंकि वह अपनों से तथा हितैषियों से है। वह परिवार नामक संस्था का जनतांत्रिकरण चाहती है, जबकि पुरुष इसे महिमामंडित करता है, वह इसमें बदलाव की जरूरत ही महसूस नहीं करता।

स्त्री की लडाई बहुत जटिल है। उसकी जद्दोजहद में निजी नहीं सामाजिक संदर्भ शामिल हैं। समाज की पहली इकाई परिवार है। परिवार के मसले को पुरुष लेखकों ने इतना नहीं खोला, जितना स्त्रियों ने। अभिव्यक्ति और पहचान के स्तर पर परिवार पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी है शिक्षा की और तीसरी सीढ़ी है राजनीति की। पुरुष का लेखन पहली दो सीढियों पर नहीं शुरु होता है। पुरुष का लेखन शुरु होता है तीसरी पीढ़ी से। पुरुष का लेखन सीधे-सीधे राजनीतिक विमर्श तैयार करता है, जबकि परिवार और शिक्षा से स्त्री लेखन का सिलसिला तैयार होता है।12  परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं की सत्ता संरचना को जिस तरह से स्त्री लेखन ने उद्घाटित किया है, वैसा पुरुष साहित्यकार नहीं कर पाए। स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के विकास और स्वतंत्र पहचान के लिए इन संस्थाओं से संघर्ष करना पड़ा है।

सुभद्रा कुमारी चौहान, मन्नू भंडारी के साहित्य को सुविधावादी तरीके से ही पढ़ा गया। उनके साहित्य में सामान्य विमर्श को ही उभारा गया, जाने-अनजाने उन पक्षों को छोड़ दिया, जो स्त्री-विमर्श के सवालों को उठाते थे। रचनाकारों के व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली पंक्ति भी तत्कालीन सामान्य विमर्श की ही उपज थी। मसलन सुभद्राकुमारी चौहान को राष्ट्रीय वसंत की प्रथम कोकिला कहा गया और केवल देश-प्रेम और राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रकट करने वाली कवयित्री के रूप में ही देखा जाने लगा।13  सुभद्रा कुमारी चौहान के स्त्री संबंधी पक्षों को अनदेखा कर दिया गया, जबकिअपनी कहानियों में सुभद्राकुमारी चौहान ने अपने समाज में उभरते नए सवालों को पूरी स्पष्टता से देखा है, उन्हें जांचने की कोशिश की है। मसलन्, वे पाती हैं कि पुरानी पारिवारिक संरचनाएं आधुनिक विचारशील नारी के लिए अनावश्यक बाधा प्रस्तुत करती हैं। अनेक स्थितियों में नारी की सक्रियता उसे एक ओर ले जाती है, और पुरुष-प्रधान समाज की पारंपरिक नियमावली उसे दूसरी ओर खींचती है। अपनी कथा में इस मसले को सुभद्रा कुमारी चौहान वास्तविक तथा नैतिक शैली में एक साथ परखती हैं। ध्यान देने की बात यह है कि उनका बल निरंतर नारी की साहसिकता और ईमानदारी पर रहता है।14

स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व और अस्मिता साहित्य-विमर्श का हिस्सा ही नहीं बना। इस पीड़ा को मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा एक कहानी यह भीमें उठाया।  ‘आपका बंटी उपन्यास में बंटी के बहाने से आधुनिक समाज में खण्डित-बचपन और बच्चे के पालन-पोषण के आर्थिक-मनोवैज्ञानिक पहलू तो चर्चा-विमर्श का हिस्सा बने, लेकिन उसकी महत्वपूर्ण चरित्र शकुन तो एक तरह से हाशिए में जा पड़ी। उसे अपेक्षित महत्व मिला ही नहीं।15 मातृत्व और व्यक्तित्व के द्वन्द्व में शकुन के मातृत्व पक्ष की तो चर्चा हुई, लेकिन उसके व्यक्तित्व पक्ष की उपेक्षा हुई। जब उसका मातृत्व-पक्ष प्रबल होता है तो उसका अतृप्त-उपेक्षित व्यक्ति-पक्ष प्रश्नवाचक बनकर उसे मथने लगता है और जब उसका व्यक्ति पक्ष प्रबल होता है तो उसका मातृत्व तिलमिलाने लगता है। पर शकुन के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि व्यक्तित्व और मातृत्व के इस द्वन्द्व में न देह पूरी तरह व्यक्ति (शकुन) बनकर जी सकी --- न पूरी तरह मां।16

भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र में प्रेम का विशिष्ट स्थान है। लोक और दरबारी संरक्षण में रचित अधिकांश साहित्य का केन्द्रीय विषय प्रेम है। सुखद वैयक्तिक व सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य होते हुए भी समाज में आसानी से इसे स्वीकृति शायद इसीलिए नहीं मिलती कि, यह सांमती मूल्यों की उच्चता-निम्नता की श्रेणियों को तोड़कर समानता स्थापित करता है। साहित्य में स्त्री की प्रेमाभिव्यक्ति को सहजता से स्वीकृति कतई नहीं मिलती। स्त्री द्वारा अभिव्यक्त प्रेम पर पुरुष-प्रधानी नैतिकता की टकसाल में ढला श्लीलता-अश्लीलता का सवाल चस्पां कर दिया जाता रहा है। स्त्री लेखिका के साहित्य की प्रेमाभिव्यक्ति को भक्तिपरक, रहस्यवादी, आध्यात्मिक दायरे में व्याख्यायित किया जाता है, न कि मानवीय आकांक्षा के रूप में। मीरा और महादेवी वर्मा के साहित्य के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यही है। स्त्री-लेखन में ज्यों ही प्रेम की मानवीय अभिव्यक्ति होती है, आचार्यों की भृकुटि तन जाती है। इस मानव-सुलभ आकांक्षा का विश्लेषण करने की अपेक्षा इसे बोल्ड लेखन कह कर विमर्श से बाहर कर दिया जाता है। पात्रों की स्थितियों, मनःस्थितियों का अध्ययन करने की बजाए उन्हें रचनाकार के जीवन पर आरोपण करने की प्रवृति भी दिखाई दी है। आत्मपरक अभिव्यक्ति में जो खतरा होता है, उसे उठाकर भी स्त्री-लेखिकाओं ने परिवार-संरचना, सामाजिक-संबंधों तथा सत्ता प्रतिष्ठानों में छिपे शोषण के सूक्ष्म-रूपों को उद्घाटित किया। ऐसी बेबाक अभिव्यक्ति के लिए उनकी पीठ ठोकी जानी चाहिए थी, लेकिन उनको छिनाल का खिताब देकरपुरस्कृत किया गया।17      

साहित्यकार अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से ही करता है। अपने अभिप्रेत अर्थ के लिए वह न केवल शब्दों का चयन करता है, बल्कि उनका निर्माण भी करता है। कृष्णा सोबती की भाषा को लेकर जिस तरह की चर्चा हुई वह भी गौर करने लायक है। एक स्त्री से करुणा विगलित, दया की भीख मांगती, दास्य-भाव वाली भाषा की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन उससे मर्दों वाली भाषा की उम्मीद नहीं की जाती। भाषा की जनाना-मर्दाना सरणियां बनाने की कोशिशें पुरुष-प्रधान समीक्षा ही है। कृष्णा सोबती ने मित्रो मरजानी और दिलो दानिश में स्त्री-आंकाक्षाओं को जिस विश्वसनीयता और साहस के साथ उजागर किया था उससे हिन्दी समीक्षा को काठ मार गया। स्त्री की दृष्टि से जैसे ही यौनिक-सुखों की व्याख्या की जाती है, तो समस्त परम्परा खतरे में आ जाती है, सौंदर्यशास्त्री और रूपवादी समीक्षक भी घोर वस्तुवादी होकर नैतिक फतवे जारी करने लगते हैं। यह सही है कि स्त्री-लेखन में उच्च-मध्यवर्गीय स्त्रियों का दखल अधिक रहा है और इसी वर्ग की समस्याएं भी प्रमुखता से अभिव्यक्त हुई हैं, लेकिन यहां भी स्त्री की देह या यौन-स्वतंत्रता ही एक मात्र मुद्दा नहीं है, बल्कि स्त्री की अस्मिता, मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता तथा श्रमजीवी-स्त्री के बहुविध-शोषण के चित्र भी प्रमुखता से अभिव्यक्त हुए हैं। परन्तु समीक्षा में देह-स्वतंत्रता को देहवाद के समकक्ष रखकर इस तरह से पेश किया मानो स्त्री लेखन में यही एक स्वर था और इसकी गर्दों-गुबार में दूसरे सवाल ओझल ही हो गए।    

समीक्षा का कार्य न केवल रचना के मर्म को उद्घाटित करना है, बल्कि रचना को उसकी परम्परा में स्थापित करना भी है। कबीर और तुलसी, निराला और प्रेमचन्द की परम्परा की पहचान की गई है, लेकिन मीरा, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान की परम्परा की पहचान अभी नहीं हुई। हिन्दी-समीक्षा पर पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है, यह एक वाजिब सवाल है कि उसने स्त्री-लेखन की परम्परा की पहचान क्यों नहीं की। स्त्री-लेखन हिन्दी की ही नहीं, पूरे संसार की सच्चाई है, जो आज के समय को व्याख्यायित कर रहा है। इसके माध्यम से ही ज्ञान का जनतांत्रिकरण हो रहा है। अपने जड़ीभूत व बद्धमूल संस्कार बदले बिना हिन्दी समीक्षा अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकती। सुखद बात यह भी है कि समीक्षा के क्षेत्र में भी स्त्रियां आ रही हैं और इस जीवन्त साहित्य को सही परिप्रक्ष्य में व्याख्यायित कर रही हैं।



संदर्भः

1.      तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्?
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ॥37
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्? 38
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम्?
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर: ॥41
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ॥42
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै: ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥43
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44

2         गौतम धर्मसूत्र, 18-1, वसिष्ठ धर्मसूत्र 5-13, मनुस्मृति 5-146-148

3.     मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येSपि स्युः पापयोनयः।
       स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेSपि यान्ति परां गतम्। (9-32)
( हे पृथानन्दन जो भी पापयोनियों वाले हों स्त्रियां वैश्य और शूद्र वे भी सर्वथा मेरे शरण में होकर निःसंदेह परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।)

4.     शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृतिं सपत्नीजने
       पत्युर्विप्रकृताSपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
       भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजनेभाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।।
(पति के घर के सभी बड़े-बूढ़ों की सेवा करना। अपनी सौतों के साथ सखियों जैसा प्रेम करना। पति कदाचित निरादर भी करे तो क्रोध करके झगड़ा मत करना। अपने दास-दासियों को प्यार से रखना और अपने सौभाग्य पर इतराना नहीं। जो स्त्रियां घर में इस प्रकार व्यवहार करती हैं, वे ही सच्ची गृहणी होती हैं और जो इससे विपरीत काम करती हैं, वे खोटी स्त्रियां तो अपने कुल की व्याधि होती हैं।)(अभिज्ञानशाकुंतलम् के चतुर्थ अंक के चतुर्थ श्लोक में)
डा. ब्रह्मानंद त्रिपाठी (सं.); कालिदास ग्रंथावली; चौखम्भा सुभारती प्रकाशन, वाराणसी; प्रथम सं. 1996 ई. ; पृ.-406

5      महात्मा बुद्ध स्त्रियों को संघों में शामिल नहीं करना चाहते थे, अपने शिष्य आनन्द के आग्रह पर उन्होंने शामिल भी किया, लेकिन बौद्ध संघों में स्त्रियों के लिए तथा पुरुषों के लिए अलग-अलग नियमावली थी। 

6.     नारी कुण्ड नरक का, बिरला थमै बाग।
       कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग।।
       एक कनक अरु कामनी, दोऊ अगनि की झाल।
       देखे ही तन प्रजलै, परस्या ह्वै पैमाल।।
       नारी सेती नेह, बुधि बमेक सब ही हरै।
काइ गमावै देह, कारिज कोई ना सरै।।
       एक करक अरु कामनी, विष फल कीये उपाय।
देखै ही थै विष चढ़ै, खाये सू मरि जाइ।।
नारि नसावै तीन सुख, जा नर पासै होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकै कोइ।।

पुरुषोतम अग्रवाल; कबीरः साखी और सबद; नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, दिल्ली; पहला सं. 2007; पृ.- 190-191  

7. युग परिबोध; दिसम्बर 2011; अनन्द प्रकाश (सं.) ; सैद्धांतिक एवं साहित्यिक स्त्री-विमर्श के द्वन्द्व लेख से; पृ.-7
8. चन्द्रा सदायत (सं.) ; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-बारह
9. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-67 
10. युग परिबोध; दिसम्बर 2011; अनन्द प्रकाश(सं.) ; सैद्धांतिक एवं साहित्यिक स्त्री-विमर्श के द्वन्द्व लेख से; पृ.-5  
11. महादेवी वर्मा; श्रृंखला की कड़ियां; पृ.-102
12. सुधा सिंह (सं.) ; स्त्री कथा 1907-1947; अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.)लि., दिल्ली; सं.2005; पृ.-11  
13. चन्द्रा सदायत; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कविताएं; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006; पृ.-दस
14. आनन्द प्रकाश; सुभद्रा कुमारी चौहान की श्रेष्ठ कहानियां; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2005
15. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-118
16. मन्नू भंडारी; एक कहानी यह भी; पृ.-119

17. नया ज्ञानोदय  (अंक-90, अगस्त,2010) ; रवीन्द्र कालिया (सं.);   विभूतिनारायण राय का साक्षात्कार, पृ.- 32