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धर्म और साम्प्रदायिकता

धर्म और साम्प्रदायिकता
सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
आधुनिक भारत पर साम्प्रदायिकता की काली छाया लगातार मंडराती रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है। साम्प्रदायिकता के साथ धर्म जुड़ा रहता है, जिस कारण साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान चाहने वाले लोग कई बार इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि साम्प्रदायिकता की जड़ धर्म में है। साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। इसलिए धर्म और साम्प्रदायिकता के अन्त:संबंधों को समझना निहायत जरूरी है।
धर्म का क्षेत्र और साम्प्रदायिकता का क्षेत्र बिल्कुल भिन्न है। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंध् होता है, धर्म में भैतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भैतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अध्कि करते हैं।
किसी समाज में विभिन्न ध्र्मों के होने मात्रा से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीे होती। साम्प्रदायिकता स्वत: स्फूर्त परिघटना नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक शक्तियां वातावरण का निर्माण करती हैं, एक-दूसरे समुदाय के बारे भ्रम फैलात हैं और एक-दूसरे के विरूद्ध नफरत फैलाते हैं। भारत में बहुत से ध्र्मों के लोग रहते हैं, भिन्न-भिन्न ध्र्मों के होना साम्प्रदायिकता नहीं है। लोगों के, समुदायों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनमें कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित ;सत्ता-व्यापारद्ध टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करनेे के लिए इस बात का ध्ुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न ध्र्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को पॅफैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं। चंूकि धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है, लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीध कर लेते हैं।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोध्ी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता, लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यध्कि ध्न जुटाएगा, कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से, धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध् करते हैे, जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोध्ी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू हिंसा करके धर्म की उदारता और सहिष्णुता को समाप्त करते हैं तो साम्प्रदायिक मुस्लिम इस्लाम यानि शान्ति के संदेश का अपमान करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्राुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है। कट्टर व साम्प्रदायिक लोगों की दोस्ती उसी तरह होती है जिस तरह कहावत है कि 'चोर-चोर मौसेरे भाईÓ इसलिए वे उदार लोगों के लिए अपमानजनक मुहावरे और वाक्य प्रयोग करते हैं जैसे-कायर, गद्दार, नपुसंक, धर्म-द्रोही आदि। सच्चा धार्मिक या सच्चे अर्थों में धर्म को मानने वाला कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर/खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर/खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा और समन समझेगा इसके विपरीत जिसकी धर्म में और धार्मिक विश्वासों में आस्था के विपरीत स्वार्थों में घिरा है तो वह सबको समान नहीं समझेगा और वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा, सबको समान नहीं समझेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक तरफ महात्मा गांध्ी थे जो स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे, 'रघुपति राघव राजा रामÓ की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं मं विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। लेकिन महात्मा गांध्ी साम्प्रदायिक नहीं थे, सभी ध्र्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। उन्होंनें धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध् किया। इस आदर्श के लिए उन्होंने अपनी जान भी दे दी। धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे, धर्म को व्यक्ति का निजी ;च्मतेवदंसद्ध मामला मानते थे। दूसरी तरफ इसके विपरीत वीर सावरकर थे जिनकी हिन्दू धर्म में, इसके रीति-रिवाजों, विश्वासों-मान्यताओं में आस्था नहीं थी बल्कि उनका ईश्वर में भी विश्वास नहीं था, लेकिन उनको धर्म के आधार पर 'हिन्दु-राष्ट्रÓ चाहिए था। धर्म के आधार पर 'हिन्दु महासभाÓ का गठन किया उनको धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र स्वीकार नहीं था जबकि धर्म से उनका कोई सरोकार नहीं था। इसी तरह मुसलमानों में देखा जा सकता है। एक तरफ मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखते थे, कुरान पर चार-भागों में टीका लिखी, जो पांचों समय नमाज पढ़ते थे और नियमित रूप से मस्जिद जाते थे लेकिन वे धर्म को निजी मामला समझते थे। धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विश्वास करते थे। धर्म के आधार पर 'पाकिस्तानÓ की मांग करने वालों का मुखर विरोध् किया।
अबुल कलाम मौलाना आजाद ने कहा कि ''मैं मुसलमान हंू, और गर्व के साथ अनुभव करता हंू कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपति हैं। मैं तैयार नहीं हूँ कि इसका कोई छोटे-से-छोटे हिस्से को भी होने दंू। इस्लाम की तालीम, इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पंूजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हंू और मैं बरदास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की 'रिएलिटीज़Ó यानि हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हंू कि मैं हिंदुस्तानी हंू। मैं हिंदुस्तान की अविभिन्न संयुक्त-राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हंू। मैं इस संयुक्त-राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हंू। उसका एक ऐसा टुकड़ा हंू जिसके बिना उसका महत्त्व अध्ूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हंू। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।ÓÓ
दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था। जिनका इस्लाम में, इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। मसलन शराब और सुअर का मांस इस्लाम में हराम माने गए हैं जबकि जिन्ना का नाश्ता सुअर के मांस और रात का भोजन शराब ;स्कॉचद्ध के बिना नहीें होता था। आचार-विचार से, वेश-भूषा से, विश्वास-व्यवहार से कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे, लेकिन धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की और फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांध्ी व अबुल कलाम मौलाना आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना व सावरकर का धर्म से व धार्मिकता से कोई वास्ता नहीं था। जिन्ना की मुस्लिम लीग और अबुल कलाम मौलाना आजाद में हमेशा छतीस का आंकड़ा रहा और महात्मा गांध्ी तो वीर सावरकर के राजनीतिक शिष्य की ही गोली का शिकार हुए। इसके विपरीत जिन्ना और सावरकर में गहरी समानताएं हैं जैसे दोस्तों में होती हैं। दोनों की विचारधारा, धर्म के मामले में एक जैसी थी, दोनों धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। दोनों 'द्वि-राष्ट्र े सि(ांत के समर्थक थे।
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म का प्रयोग करके ही साम्प्रदायिक शक्तियां फलती-फूलती हैं। धर्म के प्रतीकों का, धर्म के विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। स्व्तन्त्राता पूर्व समय में 1938 तक मुस्लिम लीग का आधार नहीं बढ़ा। जमींदारों और कुछ उच्च-मध्यवर्ग तक ही साम्प्रदायिक चेतना का प्रसार-प्रभाव था, लेकिन जब 1938 के बाद जिन्ना ने धार्मिक प्रतीकों का सहारा लिया, मुल्ला-मौलवियों का तथा धार्मिक स्थलों का सहारा लिया तो उसका आधार बढ़ा और अपने आक्रामक प्रचार से लोगों की चेतना में यह बात डाल दी कि पाकिस्तान या मुसलमानों के लिए अलग देश बने बिना न तो इस्लाम सुरक्षित है और न ही इस्लाम को मानने वाले।
इसी तरह आजादी के कुछ समय तक साम्प्रदायिकता हाशिये पर ही रही। जनसंघ को 'बनियोंÓ की पार्टी के तौर पर जाना गया और इसकी ताकत कम ही रही लेकिन ज्यों ही धार्मिक भावनाओं से जुड़े मुद्दे उठाए, धार्मिक प्रतीकों को उठाया तो इसका आकार तेजी से बढ़ता गया और एक राजनीतिक ताकत बनकर उभरी। गौ-रक्षा के बाद, राम-जन्म भूमि के विवाद को उठाया, अखाड़ों के महंतों, मंदिरों के पुजारियों, पौराणिक कथावाचकों का, धार्मिक स्थलों का सहारा लिया और इनको अपने प्रचार में जोड़ लिया तो एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में संकीर्णता, अंध्विश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं लेकिन ध्यान देने योग्य बात है कि साम्प्रदायिक लोग स्वयं धार्मिक रूढिय़ों को नहीं मानते, ठीक उसी तरह जिस तरह वे धर्म से जुड़े मानवीय मूल्यों और शिक्षाओं को नहीं मानते। साम्प्रदायिक शक्तियां अत्याध्ुनिक तरीकों व तकनीक का प्रयोग करती हैं। धार्मिक ग्रन्थों व शास्त्रों की दुहाई भी देते हैं और अपने उपदेशों, सभाओं, भाषणों में उनके पालन का आग्रह भी करते हैं। मसलन साम्प्रदायिक हिन्दू मनु द्वारा दी गई वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानता है। आश्रम-व्यवस्था के अनुसार न तो कोई सन्यास लेता है और न ही ब्रह्मचारी रहता है। इसी तरह साम्प्रदायिक मुसलमान का व्यवहार शरीअत के अनुसार नहीं होता। हां शास्त्रों की-ग्रन्थों की, रूढिय़ों-पुरातन विश्वासों को आम लोगों पर बदले की कार्रवाई की तरह प्रयोग किया जाता है। सभी धर्म की सेवा करने वाले उग्रपंथी चाहे सिक्ख हों, हिन्दू या मुसलमान सबसे पहले स्त्रिायों की आजादी छीनते हैं, उनकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को समाप्त करते हैं, उन पर आचार-संहिता थोंपते हैं। साम्प्रदायिकता शक्तियां स्वयं चाहें रूढि़वादी न हों लेकिन समाज को रूढिय़ों से जकडऩे की कोशिश करते हैं। इसका एक काफी दिलचस्प उदाहरण है 'शिव सेनाÓ ;राजनीतिक पार्टीद्ध स्वयं को हिन्दुओं के हितों की रक्षक घोषित करती है लेकिन इसकी कलई तभी खुल जाती जब कोई भी मुद्दा आता है जैसे कि रेलवे में भर्ती के लिए उन्होंने कहा कि यह र्फि महाराष्ट्र के लिए है और दूसरे प्रान्त के लोगों को शिव सेना के गुण्डों ने पीट-पीट कर भगा दिया यदि 'शिव सेनाÓ से पूछा जाए कि क्या महाराष्ट्र के बाहर के हिन्दुओं के प्रति उनका व्यवहार धार्मिक है। इसी तरह 'शिव सेनाÓ 'वेलेन्टाइन डेÓ पर लड़के-लड़कियों के जोड़ों के मुंह पर कालिख पोत देती है, स्त्रिायां के लिए 'ड्रेस कोड़Ó का आहवान करती है, लेकिन दूसरी तरफ माइकल जैक्शन को बुलाकर 'सांस्कृतिकÓ कार्यक्रम भी करवाती है। साम्प्रदायिक शक्तियों की जीत असल में इसी में होती है कि लोग वैसा ही मानते जाएं जैसा वे कहते जाएं। आजादी, उन्मुक्तता व बराबरी का रिश्ता-रिवाज उनकी सारी विचारधारा को खतरा नजर आता है।
आध्ुनिक भारत के चिन्तक व समाज सुधारक राजाराम मोहन राय ने धर्म के नाम पर किए जाने वाले कुकृत्यों को उचित ठहराने के बारे में सही ही कहा है कि ''इन धार्मिक नेताओं ने अध्कितर लोगों को अपने आकर्षण में इस तरह जकड़ लिया है कि ये असहाय लोग वस्तुत: बाध्यता और दासता के बंधन में हैं यह अपनी दृष्टि और अपना हृदय पूर्णरूपेण खो चुके हैं। इसीलिए इन नेताओं के आदेश का पालन करते समय वे अपने वास्तविक मंगल और पाप में भेद करना तक अपराध् समझते हैं। यद्यपि मनुष्य होने के नाते वे मूलत: एक ही वृक्ष की भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं तथापि केवल अपने मतवाद को स्थापित करने के लिए और साम्प्रदायिक भावना से प्रेरित होकर वे एक-दूसरे की हत्या करना अथवा अत्याचार करना एक विशेष पुण्य का कार्य मानते हैं। मिथ्याचार, चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि निकृष्टतम दुष्कार्य जो कि आत्मा के लिए अमंगलकारी एवं साधरण मानव के लिए भी अहितकारी हैं, ऐसे पापकर्मों से वे केवल इसलिए नहीं हिचकते कि उन्हें विश्वास है कि उनके धार्मिक नेता उन्हें पाप से मुक्ति दिला देंगे मनुष्य अपना अमूल्य समय ऐसी पुराण कथाओं के पाठ में व्यतीत करता है, जिन पर विश्वास करना असंभव लगता है। परंतु इन्हीं कथाओं से प्राचीन और नए धार्मिक नेताओं पर उनका विश्वास मानो और अध्कि दृढ़ होता है।ÓÓ
साम्प्रदायिकता न तो धार्मिक कारणों से पैदा होती है और न वह धार्मिक समस्याओं को उठाती है इसलिए साम्प्रदायिकता का समाधन धार्मिक आधार पर नहीं हो सकता। हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम साम्प्रदायिकता की लड़ाई हिन्दू-धर्म और इस्लाम-धर्म की लड़ाई नहीं है बल्कि यह कुछ वर्गों के राजनीतिक हितों की टकराहट है, इसलिए इसका समाधन भी राजनीतिक पहलकदमी में है। धर्म की आड़ में छुपी राजनीति और राजनीतिक हितों की कलई खोलकर ही इससे मुकाबला किया जा सकता है। स्वतन्त्रता से पहले मुस्लिम लीग साम्प्रदायिकता की राजनीति करती थी लेकिन उसकी एक भी मांग धार्मिक नहीं थी। लीग के 14 सूत्राी मांग-पत्रा का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं था। सारी मांगें राजनीतिक थी। इसी तरह स्वतन्त्रता के बाद आर.एस.एस. साम्प्रदायिकता का चैंपियन है। सारी राजनीति धर्म की आड़ लेकर की जाती है अपने संगठन का राजनीतिक चरित्रा भी छिपाया जाता है। लोगों में स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए सांस्कृतिक संगठन की छवि बनाई जाती है जबकि होती है शु( सता हथियाने की राजनीति। कोई संगठन अपने को सांस्कृतिक संगठन कैसे कह सकता है यदि उसका पहला मकसद ही राजनीतिक हों यानि हिन्दू राष्ट्र बनाना। यदि किसी राष्ट्र का चरित्रा निर्धारण करने के काम को भी अराजनीतिक श्रेणी में रखा जाएगा तो राजनीतिक कार्य किसको कहा जाएगा। 'विश्व हिन्दू परिषदÓ ने कभी भी मन्दिरों मं सुधरों के लिए कोई अभियान नहीं चलाया इसके नेता विष्णुहरि डालमिया, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडिय़ा न तो संत हैं और न ही उनकी कोई धार्मिक आस्था है बल्कि वे राजनीतिक व्यक्ति हैं जो विशेष वर्गों के राजनीतिक हितों को साध् रहे हैं
शहीदे आजम भगतसिंह ने 'धर्म और हमारा स्वतन्त्रता-संग्रामÓ लेख में धर्म और साम्प्रदायिकता पर विचार प्रकट करते हुए दोनों में स्पष्ट अन्तर किया है उन्होंने लिखा कि ''रूसी महात्मा टालस्टॉय ने अपनी पुस्तक ;म्ेेंल ंदक स्मजजमतेद्ध में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं-
1द्ध म्ेेमदजपंसे व ित्मसपहपंदए यानि धर्म की जरूरी बातें
अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता
करना, प्यार से रहना वगैरह।
2द्ध च्ीपसवेवचील व ित्मसपहपवद यानि जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म,
संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी
के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।
3द्ध त्पजनंसे व ित्मसपहपवद यानि रस्मो-रिवाज वगैरह। सो
यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ
अन्ध्विश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई
जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए यदि पहली
और दूसरी बात में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता
हो, तो धर्म मुबारक है।ÓÓ
इस तरह कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता की उत्पति का कारण धर्म नहीं है और न ही अनेक ध्र्मों के लोगों का साथ रहना बल्कि इसका कारण वर्ग विशेष के निहित स्वार्थ है यदि धर्म और धार्मिक आस्थाएं इसका कारण होती तो साम्प्रदायिकता की उत्पति आधुनिक युग में न होती बल्कि इसकी उत्पति काफी पहले हो गई होती क्योंकि आध्ुनिक युग के मुकाबले पहले लोगों की धार्मिक आस्थाएं अध्कि पुख्ता थी, जबकि आध्ुनिक काल में धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्नर्चि िंलगा है। दिलचस्प बात यह है कि साम्प्रदायिकता की शुरूआत भी आध्ुनिक काल में हुई और इसको आगे बढ़ाने वाले मंदिरों-मस्जिदों-गुरूद्वारों-गिरिजाघरों में बैठे पुजारी-महंत नहीं थे, बल्कि राजनीति के क्षेत्रा में काम करने वाले लोग थे। स्वतंत्राता पूर्व के काल में राजनीतिक लोगों ने साम्प्रदायिकता को धर्म की आड़ लेकर आगे बढ़ाया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विशेषकर 1980 के बाद राजनीतिक लोगों ने धार्मिक आड़म्बर का चोला धरण करके राजनीतिक लाभ उठाया। इस तरह स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक विचारधारा है जो सत्ताधरी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए काम करती है, लेकिन यह धर्म का आवरण ओढ़कर या धर्म की आड़ लेकर ऐसा करती है और लोगों की धार्मिक भावनाओं से इसमें ईंध्न का काम लिया जाता है।

जूठन

दलित आत्मकथा : जूठन
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' ऐसा दस्तावेज है जो दलित-उत्पीडऩ की प्रक्रियाओं को उदघाटित करती है। सामाजिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं व कथित परम्पराओं में छिपे दलित-उत्पीडऩ की ब्राह्मणवादी मोर्चाबंदी से बचना व बचकर अपना रास्ता बनाना तथा इसके विरूद्ध संघर्ष करने का माद्दा, जज्बा और संकल्प का आधार भी तैयार करती है। ब्राह्मणवाद के तंतुओं को जो समाज में असमानता को वैध ठहराने का तथा श्रेष्ठता-नीच को मान्यता देने का आधार तैयार करते हैं, जो कभी वंश-गौत्र के रूप में आते हैं तो कभी कथित उच्च जाति के रूप में, ओमप्रकाश वाल्मीकि इनकी पहचान करते हैं। वे पूरे दलित वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि व वाहक बनते हैं। न कि अपने लिए सहुलियतें प्राप्त करके व जाति छुपाकर झूठी 'शान व सम्मान' के चक्कर में अपना जीवन बलि चढ़ाते हैं।
जाति प्रथा उच्च-जाति के व्यक्ति के दिल-दिमाग में उच्चता-श्रेष्ठता की ग्रंथि पैदा करती है तो कथित निम्न जातियों में हीनता-ग्रंथि पैदा करके समस्त समाज का असामान्य जीवन बनाती है और समाज के वर्गों को एक-दूसरे से दूर व एक-दूसरे के विरूद्ध करने का कुचक्र रचती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि में जाति को लेकर कोई हीनता का बोध नहीं है, कहीं यह अहसास नहीं है कि कथित निम्न जाति में पैदा होने से उनकी मानवता, सम्मान व गरिमा में कोई कमी आ गई है। हीनता बोध-ग्रंथि पर पार पाकर ही जातिगत पहचान के स्थान पर मानवीय पहचान व गरिमा की अपेक्षा करने का नैतिक साहस आता है और समस्त दलितों की पीड़ा व दलित-मुक्ति के लिए संघर्ष करने का आधार बनता है और साहस पैदा होता है जो समस्त दलित समाज व सवर्ण समाज को प्रभावित करता है। जिस तरह वाल्मीकि ने अपनी जाति को खुलेआम बताया है उससे उनको व्यक्तिगत नुकसान व पीड़ा अवश्य पहुंची है, लेकिन मानव-मुक्ति की लड़ाई में, सदियों से चली आ रही प्रथाओं को चुनौती देने वालों को, वर्चस्वी मान्यताओं पर ऊंगली उठाने वाले समाज-सुधारकों व क्रांतिकारियों को समाज के वर्चस्वी वर्गों की फटकार तो सहन करनी ही पड़ती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का आग्रह है कि उसे एक मानव के रूप में स्वीकार किया जाए, न कि जाति की पहचान पर। इस मानवीय गरिमा व पहचान पाने के आदर्श सिद्धांत से कभी समझौता नहीं किया इसके लिए अपने दोस्तों, व रिश्तेदारों से अपमान भी सहना पड़ा और उनको छोडऩा भी पड़ा। कितने ही लोगों से जाति न छुपाने के कारण वाल्मीकि के सम्बन्ध टूट गए, पर झूठ पर आधारित गैर-बराबरी युक्त संबंधों को कभी स्वीकार नहीं किया। अंबरनाथ में महाराष्ट्र की ब्राह्मण लड़की सविता का परिवार ओमप्रकाश वाल्मीकि को ब्राह्मण समझता है। ब्राह्मण मानकर उसको सम्मान भी देता है। अपने धार्मिक-पारिवारिक अनुष्ठान में भी महत्त्व प्रदान करता है। सविता ओमप्रकाश वाल्मीकि को चाहने भी लगी है लेकिन ज्यों ही वाल्मीकि को पता चलता है कि उसको ब्राह्मण समझकर ऐसा व्यवहार किया जा रहा है तो वे साफ-साफ बतला देते हैं कि वह ब्राह्मण नहीं बल्कि एस.सी. है।
'मैंने तुम्हारी राय पूछी थी।'
'अच्छे लगते हो।' उसने मेरी बांह पर अपने शरीर का भार डाल दिया था। मैंने उसे दूर हटाया और कहा, 'अच्छा, यदि मैं एस.सी. हूँ......तो भी....'
'तुम एस. सी. कैसे हो सकते हो?' उसने इठलाकर कहा।
'क्यों? यदि हुआ तो?' मैंने जोर दिया।
'तुम तो ब्राह्मण हो' उसने दृढ़ता से कहा।
'यह तुमसे किसने कहा?'
'बाबा ने।'
'गलत कहा मैं एस.सी. हूँ ... ' मैंने पूरी शक्ति से कहा था। मेरे भीतर जैसे कुछ जल रहा था।
'ऐसा क्यों कहते हो?' उसने गुस्सा दिखाया।
'मैं सच कह रहा हूं..... तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा। न मैंने कभी कहा कि मैं ब्राह्मण हूँ।' मैंने उसे समझाना चाहा।
वह आश्चर्य से मेरा मुंह ताक रही थी। उसे लग रहा था, 'जैसे मैं मजाक कर रहा हूँ .'
मैंने साफ शब्दों में कह दिया था कि मैंने उतर-प्रदेश के 'चूहड़ा' परिवार में जन्म लिया है।
सविता गंभीर हो गई थी। उसकी आँखें छलछला आई। उसने रूआँसी होकर कहा, झूठ बोल रहे हो न?'
'नही सवि... यह सच है ... जो तुम्हें जान लेना चाहिए ...' मैंने उसे यकीन दिलाया था।
वह रोने लगी थी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफी देर सुबकती रही। हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफरत हमारे दिलों में भर गई थी। एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।(पृ-19) इसके बाद इस परिवार से वाल्मीकि का नाता टूट जाता है। वाल्मीकि में कोई हीनता बोध नहीं है, कोई जातिगत ग्रंथि नहीं है, लेकिन सविता और उसके परिवार में श्रेष्ठता-बोध ग्रंथि है इसलिए इस घटना से वाल्मीकि तो बिल्कुल सहज व तनाव मुक्त' महसूस करते है जबकि सविता गम्भीर हो जाती है और वह अपने परिवार को तनाव से बचाने के लिए वाल्मीकि से प्रार्थना करती है कि अपनी जाति के बारे में उसके पिता को न बताए। वह कहती है 'घर आओ या न आओ लेकिन यदि यह सच है तो बाबा से मत कहना ...।' वह फिर रुआंसी हो गई थी। उसका गला भर गया था।
'लेकिन क्यों?' मैंने जानना चाहा था।
'नहीं कहोगे ... वादा करो ...' सविता की आँखों में अजीब-सी याचना थी।'( पृ-१२०)
एक ओर महत्त्वपूर्ण प्रसंग है जहां वाल्मीकि चाहते तो जाति छुपाकर कुछ समय के लिए प्रतिष्ठा पा सकते थे लेकिन वे बड़ी गहराई से इस बात को मानते हैं कि जाति छुपाकर दलित की मानवी गरिमा बहाल नहीं हो सकती । इसलिए जब भी ऐसी स्थिति आती है वे अपनी जाति को छुपाते नहीं, बल्कि बिना किसी हीनता बोध के जाहिर कर देते हैं और बदले में सवर्ण द्वारा किए अपमान को भी सहन करने के लिए तैयार हैं। वाल्मीकि अपने दोस्त भिक्खूराम के साथ अपने अध्यापक के गांव से गेहूँ लेने जाते हैं। मास्टर बृजपाल के परिवार के लोग उनको अच्छा खाना खिलाते हैं लेकिन जब वे खाना खाकर बाहर निकलते हैं। जैसे-तैसे खाना खाकर हम लोग बाहर आ गए थे। भिक्खूराम बुजुर्ग के एकदम पासवाली चारपाई पर बैठ गया था। मैं थोड़ा फासले से खड़ा था। इस बीच एक और व्यक्ति वहां आ गया था। बुजुर्ग ने हुक्के की नली उसकी ओर बढ़ा दी। हुक्के की नली से धुंआ खींचते हुए उस व्यक्ति ने हम दोनों के विषय में बुजुर्ग से पूछताछ शुरू कर दी। बरला से आए हैं, सुनते ही उसने सवाल दागा था, कौण जात है?'
उसके सवाल का उत्तर दिया 'मैंने, चूहड़ा जात है।'
उन दोनों के मुंह से निकला था, 'चूहड़ा?' बुजुर्ग ने चारपाई के नीचे से लाठी उठाकर तड़ से मार दी थी, भिक्खूराम की पीठ पर। हाथ तगड़ा था। भिक्खूराम बिलबिला गया था।
बुजुर्ग के मुंह से अश्लील गालियों की बौछार होने लगी थी। आँखें भयानक लग रही थी। दुबले-पतले शरीर में शैतान उतर आया था। उसके बर्तनों में आदर के साथ बैठकर खाना खाने, चारपाई पर बैठने का दु:साहस किया था, जो उनकी नजर में अपराध था। मैं सहमा हुआ चबूतरे से नीचे खड़ा था। बुजुर्ग चिल्ला रहा था जिसे सुनकर भीड़ जमा हो गई थी। कई लोगों की राय थी कि रस्सी से बांधकर दोनों को पेड़ पर लटका दो।"( पृ.-६६)
ओमप्रकाश वाल्मीकि में अपनी जाति को लेकर कोई हीनता-भाव नहीं है वे 'वाल्मीकि' सरनेम लगाते हैं, लेकिन बहुत से दलित अपनी जाति छुपाने के लिए सरनेम लगाते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की चिन्ता है कि दलित आन्दोलन से जुड़े रचनाकारों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं को अपने अंर्तद्वन्द्वों से लगातार जूझना पड़ रहा है। कितना भय छिपा हुआ है मन के अंधेरे कोनों में, जो हमें सहज जीवन जीने नहीं देता'( पृ-153 )। ओमप्रकाश वाल्मीकि की पत्नी चंदा भी वाल्मीकि की बजाय खैरवाल लिखना अधिक पसंद करती है और खुद भी नाटकों की पब्लिसिटी में वह अपना नाम चंदा खैरवाल ही प्रचारित करती थी। मुझ पर भी लगातर दबाव डालती थी कि मैं भी अपने नाम के साथ 'खैरवाल' ही लगाऊँ (पृ.-151 ) लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि अपना सरनेम नहीं बदलते, उनका मानना सही है कि ऐसा करने से व्यक्ति कुछ समय के लिए कथित सवर्णों से झूठी प्रतिष्ठा तो पा सकता है लेकिन उसमें मानवीय गरिमा नहीं आती। अपनी जाति छुपाकर पाई गई प्रतिष्ठा बालू के महल की तरह है जो जाति का उदघाटन होते ही पल भर में ढह जाती है और जाति का भेद न खुल जाए उसके लिए अपना जीवन असहज कर लेते हैं व जाति छुपाने के लिए मानवीय-संबंध भी त्याग देते हैं। देहरादून में भोलाराम खरे रहते थे, जो थे तो वाल्मीकि पर, खरे सरनेम लगाते थे। उनकी बेटी मंजू की शादी-विवाह का पूरा इन्तजाम ओमप्रकाश वाल्मीकि ने संभाल रखा था, लेकिन जिस दिन मंजू की शादी का कार्ड छपकर आया तो उससे वाल्मीकि का नाम गायब था। वाल्मीकि की पत्नी ने उस बारे में मंजू से पुछा तो उसने कहा कि भाभी, यहां कोई नहीं जानता कि हम वाल्मीकि हैं। सभी को यही पता है, खरे हैं। भैया का नाम छपते ही भेद खुल सकता था ...' ( पृ.154 )। इसी तरह ऐसा ही हादसा एक और रिश्तेदारी में हुआ था। चंदा की भतीजी की शादी के कार्ड पर भी सभी के नाम थे। मुझे उसमें भी छोड़ दिया गया था।'( पृ.-1 ) ओमप्रकाश वाल्मीकि की भतीजी सीमा वाल्मीकि को अपने चाचा होने से ही इनकार कर देती है वह भी झूठी इज्जत पाने के लिए और इस डर से कि कहीं उसकी जाति का भेद न खुल जाए। मेरी भतीजी सीमा बी.ए. कर रही थी। कथाकार डॉ. कुसुम-चतुर्वेदी हिन्दी विभागाध्यक्ष थीं। एक दिन बातचीत के दौरान, मैंने उनसे जिक्र किया कि मेरी भतीजी आपकी स्टूडेंट है। अगले रोज कक्षा में जाते ही डॉ. चतुर्वेदी ने सीमा से पूछ लिया कि ओमप्रकाश वाल्मीकि को जानती हो? सीमा ने कक्षा में एक नजर डाली और इन्कार कर दिया।
उसी दिन शाम को सीमा ने पूरा किस्सा सुनाते हुए अपनी फाई दे डाली थी सभी के सामने अगर मान लेती कि आप मेरे चाचा हैं तो सहपाठियों को मालूम हो जाता कि मैं वाल्मीकि' हूँ ... आप फेस कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकती ... गले में जाति'का ढोल बांधकर घूमना कहाँ की बुद्धिमानी है?' सीमा के तर्क समूची व्यवस्था की विद्रूप तस्वीर बनकर सामने खड़े थे।'( पृ.-153 ) ओमप्रकाश वाल्मीकि दलितों में विशेषकर पढ़े-लिखे दलितों में पनप रही इस प्रवृत्ति से चिन्तित हैं, उनकी चिन्ता बिल्कुल सही है क्योंकि इस हीन-गं्रथि से छूटकारा पाये बिना कोई व्यक्ति दलित-मुक्ति के संघर्ष में शामिल होने का साहस नहीं कर पाता। जाति छुपाकर वे ब्राह्मणवादी खोल में अपने लिए एक सुरक्षित कोना ढूंढ लेते हैं और ब्राह्मणवादी व्यवस्था भी चलती रहती है बल्कि अधिक मजबूत हो जाती है। सामान्य समझ में आने वाली बात है कि कथित निम्न जाति के उजागर होने से यदि किसी को असहज होना चाहिए तो उच्च जाति या सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति को, लेकिन असहज होता है दलित। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही संकेत किया है कि भारतीय समाज में 'जाति' एक महत्त्वपूर्ण घटक है। 'जाति'पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है। पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में नहीं होता। यदि होता तो मैं भंगी के घर क्यों होता? जो स्वयं को इस देश की महान सांस्कृतिक धरोहर के तथाकथित अलमबरदार कहते हैं, क्या वे अपनी मर्जी से उन घरों में पैदा हुए हैं? हाँ, इसे जस्टीफाई करने के लिए अनेक धर्मशास्त्रों का सहारा वे जरूर लेते हैं। वे धर्मशास्त्र जो समता, स्वतन्त्रता की हिमायत नहीं करते बल्कि सामंती प्रवृत्तियों को स्थापित करते हैं।' ( पृ.-158 ) इस बात को पहचानने की जरूरत है कि कथित उच्च या निम्न जाति में पैदा होना न तो पाप है और न पूर्वजन्म के कर्मों का फल, बल्कि यह शोषण करने के लिए की गई व्यवस्था है जिसे बचाने के लिए खुद को बदलने की जरूरत नहीं, बल्कि अपनी मानवी पहचान के आग्रह के साथ इस अमानवीय व्यवस्था से आँखों में आँखें डालकर टकराने की जरूरत है। ब्राह्मणवाद के कई हथकंड़े हैं जाति के साथ गौत्र भी है, एक को छोड़कर दूसरे को अपनाना उसका विरोध नहीं बल्कि उसमें खप जाना है, समा जाना है। जाति को तोडऩे के संघर्ष में तथा जातिविहिन समाज के निर्माण में ही मानवी पहचान संभव है जाति-गौत्र के खांचों में नहीं। जो लोग इसी में अपनी पहचान खोजना चाहते हैं वे ब्राह्मणवाद का ही शिकार हैं। जाति छुपाने की इस समस्या के कारणों को तलाशते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं दलितों में जो पढ़-लिख गए हैं, उनके सामने एक भयंकर संकट खड़ा हुआ है- पहचान का संकट, जिससे उबरने का वे तात्कालिक और सरल रास्ता ढूंढने लगे हैंै। अपने वंश गोत्र को थोड़े ही संशोधन के साथ अपने नाम के साथ जोडऩे लगे हैं। जैसे 'चिनालिए' से 'चंद्रिल' या 'चंचल,' 'सौदे' से 'सौदाई' या सूद लिखने लगे हैं। एक सज्जन ने 'पार्चा' को 'पार्थ' बना लिया है। मेरी मां का वंशगोत्र 'केसले' है जिसे कुछ लोग 'केसवाल' की तरह लिखने लगे हैं। यह उन्हें आसान लगता है। इन सबके पीछे 'पहचान' की तड़प है, जो 'जातिवाद' की घोर अमानवीयता के कारण प्रतिक्रिया स्वरूप उपजी है। दलित पढ़-लिखकर समाज की मुख्यधरा से जुडऩा चाहतें हैं, लेकिन सवर्ण उन्हें इस धारा से रोकता है। उनसे भेदभाव बरतता है। अपने से हीन मानता है। उसकी बुद्धिमत्ता, योग्यता, कार्य कुशलता पर संदेह व्यक्त किया जाता है। प्रताडि़त करने के तमाम हथकंडे अपनाए जाते हैं। इस पीड़ा को वही जानता है जिसने इसकी विभीषिका के नश्तर अपनी त्वचा पर सहे हैं। जिसने जिस्म को सिर्फ बाहर से ही घायल नहीं किया है अंदर से भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। अस्तित्व के इस संकटकाल में मुझ जैसा कोई जाति-बोध के सरनेम के साथ आता है तो वे तमाम लोग चौकन्ने हो जाते हैं। उन्हें लगता है जैसे कोई उनका भेद खोल रहा है, क्योंकि समस्या से पलायन उन्हें सहज और सरल लगता है जबकि सच यह है कि बदलाव पलायन से नहीं, संघर्ष और संवाद से आएगा"( पृ.-152)। यह बात बिल्कुल सही है कि अपनी जाति छुपाने के लिए पुराने गोत्रों का जीर्णोंद्धार करके अपने नाम के पीछे लगाया जा रहा है और वास्तविक समस्या से पलायन किया जा रहा है लेकिन यह भी सही है कि यह 'पहचान का संकट' नहीं है बल्कि अपनी पहचान विलीन करने का है। अपनी पहचान के लिए व्यक्ति जो संघर्ष करता है वह यहां है नहीं। अपनी मानवी पहचान के लिए किए जाने वाले संघर्ष से बचने के लिए तो यह सब किया जा रहा है। न ही यह जातिवाद की घोर अमानवीयता के कारण प्रतिक्रियास्वरूप उपजी है' बल्कि यह ब्राह्मणवाद की विकृति का समर्थन है अपने लिए ऊंची हैसियत की अपेक्षा व उसके लिए जरूरी पाखण्ड करना तो उसके अनुकूल ही है प्रतिकूल नहीं। समाज की 'मुख्यधारा' से जुडऩे का अर्थ है कि वर्चस्वी वर्ग की विचारधारा व संस्कार अपनाना और समाज में ब्राह्मणवादी विचारधारा का डंका बज ही रहा है वही कथित 'मुख्यधारा' है। ऐसे दलितों को 'पहचान के संकट' में फंसे नहीं कहा जा सकता, बल्कि अपने वर्ग के प्रति दायित्व को छोड़कर मात्र अपने लिए सहुलियतें एकत्रित करके अपनी स्वीकृति बनाने वाला घोर अवसरवादी व स्वार्थी वर्ग कहा जा सकता है जो दलित होने के तमाम लाभ उठाता है लेकिन अपनी तमाम उपलब्धियों को व्यक्तिगत मानता है उसकी उपलब्धियां व हैसियत दलित वर्ग की मुक्ति के संघर्ष को आगे नहीं बढ़ातीं बल्कि कमजोर करती हैं। दलित आन्दोलन में यह वर्ग सबसे बड़ी बाधा बनकर उभरा है जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को तो सबसे आगे रखता है व उनकी पूर्ति के लिए जाति के नाम पर संघ भी बनाता है लेकिन समस्त दलित समुदाय की सामाजिक स्थिति में बेहतरी के लिए कुछ भी नहीं करता, सामाजिक न्याय व बराबरी की लड़ाई तो इनको छू भी नहीं गई। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नाम पर कितनी ही दलित कल्याण समितियां, सभाएं व कर्मचारी संघ बने हुए हैं लेकिन सारा संघर्ष मात्र अपने-अपने लिए है और ' मुख्यधारा' में जुडऩे को बेताब हैं उसके लिए ब्राह्मणवादी कार्यनीतियां अपनाई जा रही हैं, उनको महिमामंडित करके उनकी स्वीकार्यता बढ़ाई जा रही है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कथित 'पहचान के संकट' पर 'जातिगत' हीनता-बोध पर विजय पाई है उन्होंने योग्यता, प्रतिभा, संघर्षशीलता से अपनी मानवी पहचान बनाई है, न कि वंशगोत्र में संस्कृतनिष्ठता का पुट डालकर या 'मुख्यधारा' के अन्य किसी पाखण्ड को अपनी पीठ पर लादकर। वाल्मीकि ने इस ब्राह्मणवादी मिथक-भ्रम को तोड़ा है कि निम्न जातियों में प्रतिभा नहीं होती,' शिक्षा-ज्ञान से उनका कोई वास्ता नहीं'। उन्होंने साबित किया है कि प्रतिभा जन्म-जात नहीं होती और न ही उस पर किसी विशेष जाति या वर्ण का एकाधिकार है। यदि सवर्ण निम्न वर्ग की प्रतिभा को न पनपने देने व कुचलने की साजिश न करे तो वे भी उसी तरह के काम कर सकते हैं और कर रहे हैं, जैसे कि कथित सवर्ण तथा परम्परागत विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग । जिस जाति को समाज में सबसे हेय और निम्न माना जाता है, जिसका कथित ज्ञान, साहित्य व कला से कोई वास्ता नहीं वह ऐसी रचनाएं लिखकर ब्राह्मणवादी विचारधारा को चुनौती दे रहा है। आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से प्रतिकूल परिस्थितियां होने पर भी वाल्मीकि की उपलब्धियों ने सवर्णों के जातिय अहं को तोड़ा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की उपलब्धियां समस्त समुदाय की उपलब्धियां बन जाती हैं, यदि वे अपनी जाति को छिपाने के ब्राह्मणवादी चंगुल में फंस जाते तो उनकी प्रतिभा, ज्ञान व उपलब्धियां दलित समाज की प्रतिष्ठा बढ़ाने में कोई काम नहीं आती।
जिन पूर्वाग्रहों और धारणाओं का सहारा लेकर सवर्ण समाज दलितों के प्रति हिंसा व घृणा को उचित ठहराता है उन पर भी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने प्रश्न चिह्न लगाया है। मुसलमानों, दलितों व अन्य कमजोर वर्गों के प्रति नफरत व हिंसा को उचित ठहराने के लिए ब्राह्मणवादी मानसिकता ने बहुत ही बेहूदा व अवैज्ञानिक तर्क गढ़ लिया है कि वे गंदे होते हैं', जबकि यह विकास के अवसरों पर तथा जीवन-स्थितियों पर निर्भर करता है कि कौन कितना साफ-सुथरा रहेगा। सवर्ण परिवारों में बार बार यह बात दोहराई जाती है और बच्चों में दलितों के प्रति पूर्वाग्रह गहरे में बैठा दिया जाता है। दलितों से नफरत सवर्ण के संस्कारों का हिस्सा ही बन जाती है उन्हें इसमें न कुछ अटपटा लगता है और न ही इसे अनुभव से देखने की जरूरत महसूस करते हैं। उनके प्रति बरते जा रहे भेदभाव को इसी आधार पर उचित ठहराया जाता है। महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार में मुसलमान व दलित के लिए अलग बर्तनों में चाय परोसने पर ओमप्रकाश वाल्मीकि उस परिवार की लड़की सविता से इस बारे में बात करते हैं। उसे चाय अलग बर्तनों में पिलाई थी? मैंने सख्त लहजे में पूछा।
'हाँ, घर में जितने भी एस।सी। और मुसलमान आते हैं, उन सबके लिए अलग बर्तन रखे हुए हैं।सविता ने सहज भाव से कहा।
'यह भेदभाव तुम्हें सही लगता है?' मैंने पूछा। मेरे शब्दों के तीखेपन को उसने महसूस कर लिया था।
अरे ... तुम नाराज क्यों होते हो?... उन्हें अपने बर्तनों में कैसे खिला सकते हैं? उसने प्रश्न किया।
क्यों नहीं खिला सकते?... होटल में... मैस में तो सब एक साथ खाते हैं। फिर घर में क्या तकलीफ है? मैंने तर्क दिया।
सविता इस भेदभाव को सही और संस्कृति का हिस्सा मान रही थी। उसके तर्क मुझे उत्तेजित कर रहे थे। फिर भी मैं काफी संयत था उस रोज। उसका कहना था, एस.सी. अनकल्चर्ड (असभ्य) होते हैं। गंदे रहते हैं।
मैंने उससे पूछा, तुम ऐसे कितने लोगों को करीब से जानती हो? इस विषय में तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं?' वह चुप हो गई थी। उसका परिचय ऐसे किसी व्यक्ति से नहीं था। फिर भी पारिवारिक पूर्वाग्रह उस पर हावी थे। उसका कहना था, आई (मां), बाबा (पिता) ने बताया। यानी बच्चों को यह सब घरों में सिखाया जाता है कि एस।सी। से घृणा करो' (पृ -18 )। समाज के जिन वर्गों को सबसे गंदे माने जाने वाले काम सौंप दिए गए हैं उनको गंदा कहकर उनसे नफरत करना निहायत अन्यायपूर्ण है, उन्होंने ये काम अपनी इच्छा से नहीं चुने बल्कि उनको मजबूरी में ये काम करने पड़ते हैं। जिस तरह की सामाजिक व्यवस्था है और उनमें जैसी जीवन-स्थितियां हैं उनमें रहकर कोई भी व्यक्ति साफ सुथरा नहीं रह सकता। मेहनतकश लोग जो सारा दिन खेतों व कारखानों में खटते हैं अपना पसीना बहाते हैं उनको गंदा कहना श्रम का अवमूल्यन करना तो है ही साथ ही उनसे चमचमाते व खुशबूदार इत्र लगाकर रहने की अपेक्षा करना उनसे ज्यादती करना नहीं तो क्या है? फिर यदि दलितों के गंदे होने की उनको वाकई चिन्ता है तो उनके प्रति इसको घृणा का बहाना न बनाकर उनको गन्दगी में रहने को मजबूर करने वाली परिस्थितियों को बदलने का प्रयास करना चाहिए। उनके रहने की गंदी जगहों को साफ करने में मदद करना चाहिए न कि उनके घरों के आस-पास गन्दगी फैलाकर उनसे घृणा करने में ही अपनी सफाई पसन्दगी दिखायें। जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गांव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, बड़ी-बूढ़ी यहां तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बोवाली के किनारे खुले में टट्टी फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अंधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली त्यागी महिलाएँ, घूँघट काढ़े, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृति पाती थीं। तमाम शर्म-लिहाज छोड़कर वे डब्बोवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं। इसी जगह गाँव भर के लड़ाई-झगड़े गोलमेज काफ्रेंस की शक्ल में चर्चित होते थे। चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में सांस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहनेवालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।'( पृ.-11 ) यह भी दिलचस्प है कि भारत के गांवों में दलितों की बस्तियां एक किनारे पर हैं जहां गांव भर के गंदगी के ढेर हैं। ऐसी जगहों पर रहने को मजबूर लोगों से गंदे' न होने की उम्मीद करना उनको दोहरी सजा देना है। गांव भर की सफाई करते करते उनका सत निकल जाता है। यह विडम्बना शोषणकारी व्यवस्था की ही देन है कि जो वर्ग पूरे समाज की गन्दगी साफ करके उसको साफ सुथरे रखने में मदद करता है वह उसी कारण घृणा का पात्र भी बनता है और गन्दगी में रहने के लिए भी विवश है।
दलितों से नफरत करने का दूसरा तर्क उनके द्वारा किए जाने वाले गंदे' काम का दिया जाता है। गंदे कहे जाने वाले दो काम हैं। एक तो सवर्णों के जानवरों-मवेशियों का गोबर उठाना व उनके घरों की फाई करना तथा दूसरा कथित गंदा' काम है मरे हुए जानवरों को उठाना और उनकी खाल उतारना। इन दोनों को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने 'जूठन' में स्थान दिया है। मेरी मां इन सब मेहनत-मजदूरियों के साथ-साथ आठ-दस तगाओं ( हिन्दू, मुसलमान) के घर तथा घेर (मर्दों का बैठकर खाना तथा मवेशियों को बांधने की जगह) में साफ-सफाई का काम करती थी। इस काम में मेरी बहन, बड़ी भाभी तथा जसबीर और जनेसर (दो भाई) मां का हाथ बंटाते थे। बड़ा भाई सुखबीर तगाओं के यहाँ वार्षिक-नौकर की तरह काम करता था।
प्रत्येक तगा के घेर में दस से पंद्रह मवेशी (गाय, भैंस और बैल) सामान्य बात थी। उनका गोबर उठाकर गांव से बाहर कुरडिय़ों पर या उपले बनाने की जगह डालना पड़ता था। प्रत्येक घेर से रोज पाँच-छह टोकरे गोबर निकलता था। सर्दी के महीनों में यह काम बहुत कष्टदायक होता था। गाय, भैंस और बैलों को सर्दी से बचाने के लिए बड़े-बड़े दालानों में बांध जाता था, जिसमें गन्ने की सूखी पाती या फूस बिछा होता था। रात भर जानवरों का गोबर और मूत्र पूरे दालान में फैल जाता था। दस-पंद्रह दिनों से एक बार पाती बदली जाती थी या उसके ऊपर सूखी पाती बिछा दी जाती थी। इन दिनों में दालानों में भरी दुर्गंध से गोबर ढूंढ-ढूंढके निकालना बहुत तकलीफ देह होता था, दुर्गंध से सिर भिन्ना जाता था।' (पृ.-18 ) यदि दलित सवर्णों के घेर से गोबर न उठाएं और उनको यह काम स्वयं करना पड़े तो उनकी सारी शानो-शौकत बिगड़ जाएगी। जिन सवर्णों के पास बहुत जमीन नहीं है और अपना काम स्वयं करते हैं उनके जीवन-स्तर व फाई आदि के मामले में वही हाल है जो दलितों का।
दूसरा कथित 'गंदा' काम जो दलित करते हैं वह है मरे हुए जानवरों को उठाने व उनकी खाल उतारने का। यद्यपि कथित सवर्ण पशुओं की खाल से बनी वस्तुओं का तो बड़े चाव से प्रयोग करते हैं, लेकिन उनको तैयार करने वालों से नफरत करते हैं। इस काम को दलित अपनी इच्छा से नहीं करते बल्कि उनको बेगार के रूप में यह करना पड़ता है जिस घर में वे काम करते हैं, उनके मरे जानवरों को उठाने का काम भी दलितों को ही करना पड़ता है, हालांकि खाल उतारकर उसे बाजार में बेचकर धन अवश्य मिल जाता है, लेकिन पशु उठाने की कोई मजदूरी नहीं दी जाती, जबकि यह काफी मेहनत का काम है। ब्रह्मदेव तगा का बैल मरने पर उसकी खाल उतारने के प्रसंग से समझा जा सकता है कि वे इसे मजबूरी में ही करते हैं। बैल की खाल की गठरी उठाकर आ रहे थे तो इस हालत में सहपाठी न देख लें, इसलिए वाल्मीकि लम्बा चक्कर काटते हैं और घर पहुंचते हैं तो उनकी भाभी की प्रतिक्रिया से तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि यह काम उन पर थोंपा हुआ है, यदि कोई अवसर इसे छोडऩे का मिले तो इसे एक झटके में छोड़ देना चाहते हैं। मुझे इस हाल में देखकर माँ रो पड़ी थी। मैं सिर से पाँव तक गंदगी से भरा हुआ था। कपड़ों पर खून के धब्बे साफ दिखाई पड़ रहे थे। बड़ी भाभी ने उस रोज मां से कहा था, इनसे ये ना कराओ ... भूखे रह लेंगे ... इन्हें इस गंदगी में ना घसीटो ...' भाभी के ये शब्द आज भी मेरे लिए अंधेरे में रोशनी बनकर चमकते हैं। मैं इस गंदगी से निकल आया हूं, लेकिन लाखों लोग आज भी उस घिनौनी जिन्दगी को जी रहे हैं।' (पृ.-४८) कितनी अजीब बात है कि सवर्ण किसान जिस बैल से सारी जिन्दगी मेहनत करवाता है, जिसकी कमाई से उसके परिवार के लिए जरूरी तथा आरामदायक चीजें मुहैया होती हैं, उस बैल के मरने के बाद उसकी मिट्टी ठिकाने लगाने के काम को भी गंदा समझकर नहीं करते, यह उसी तरह का करतब है जैसे कि वृद्धावस्था में लोग अपने मां-बाप को धर्म-स्थलों पर छोड़ देते हैं। जो व्यक्ति पशुओं को ठिकाने लगाता है वह घृणा का पात्र हो जाता है। यदि मरे हुए पशुओं को ठिकाने न लगाया जाए तो स्वच्छता का दंभ पालने वाला समाज कहां जाकर सांस लेगा और यदि इनकी खाल न उतारी जाए तो चमड़े के नर्म-नर्म पर्स, जूते व बैग कहाँ से आयेंगे। जिसकी बदौलत समाज स्वच्छ वातावरण में सांस लेता है उससे नफरत करना व उसे नीच समझना ब्राह्मणवादी विचारधारा का दिवालियापन ही कहा जाएगा और इस काम के बदले उसे उचित मेहनताना व सम्मान न देना अपराध है। कितना दोगलापन है कि जब स्कूल 'चमकाना' है तो मास्टर ओमप्रकाश वाल्मीकि के हाथ में झाडू पकड़ा देता है और जब शिक्षा की बारी आती है तो उसको अलग कर दिया जाता है, यह ठीक उसी तरह है जिस तरह खेत में फसल बोने, पालने व काटने के समय तो दलित समाज को सबसे आगे रखा जाता है, लेकिन जब उसको भोगने की बारी आती है तो उसको मिलती है केवल 'जूठन।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भू-स्वामी सवर्णों और श्रमिक दलितों के बीच मुख्य अन्तर्विरोध व संघर्ष को बिल्कुल सही पहचाना है। गांव का सारा कारोबार व संस्कृति खेती-आधारित है, जिस वर्ग के पास जमीन का मालिकाना हक है वही वहां मुख्य शक्ति है बाकी सब उन पर ही निर्भर है। दलितों को साल भर अपने जानवरों का पेट भरने के लिए चारा लेने तथा अपना पेट भरने के लिए भू-स्वामियों पर निर्भर रहना पड़ता है जिस कारण भू-स्वामी वर्ग की समस्त शर्तें भी माननी पड़ती हैं। जगजाहिर है कि वास्तविक सत्ता तो उसी के पास होती है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं उसी वर्ग के विचार-संस्कार समाज में मुख्य रूप से प्रचलित होते हैं, लेकिन इसके बावजूद श्रमिक दलित वर्ग अपने शोषण से छुटकारा पाने के लिए तथा अपनी जीवन स्थितियां सुधारने के लिए लगातार कसमसाता रहता है और मौका मिलने पर स्थितियां बदलने के लिए संघर्ष भी करता है, लेकिन पूर्णत: भू-स्वामियों पर निर्भर होने के कारण श्रमिक-दलित इसमें कम ही कामयाब होते हैं क्योंकि अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भू-स्वामी वर्ग भी नए-नए कुचक्र रचता रहता है। इस संघर्ष को रेखांकित करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा कि फसल कटाई को लेकर अक्सर खेतों में हुज्जत चलती रहती थी। मजदूरी देने में ज्यादातर तगा कंजूसी बरतते थे। काटनेवालों की मजबूरी थी। जो भी मिलता, थोड़ी-बहुत ना-नुकर के बाद लेकर घर लौट आते। घर आकर कुढ़ते रहते या तगाओं को कोसते रहते। लेकिन भूख के सामने विरोध दम तोड़ देता था। हर साल फसल-कटाई को लेकर मोहल्ले में बैठकें होती। सौलह पूली पर एक पूली मेहनताना लेने की कसमें खाई जातीं। लेकिन कटाई शुरू होते ही बैठकों के तमाम पफैसले कसमें हवा हो जाते थे। इक्कीस पूली पर एक पूली मजदूरी मिलती थी। एक पूली में एक किलो से भी कम गेहूँ निकलते थे। भारी से भारी पूली में एक किलो गेहूं निकलता था। यानि दिन भर की मजदूरी एक किलो गेहूँ से भी कम। कटाई के बाद बैलगाड़ी या झोटा बुग्गी (भैंसा बुग्गी) में लदाई अलग। उसका कोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था। देर-सवेर खलिहानों में बैल हांकने की बेगार सभी को करनी पड़ती थीं उन दिनों गेहूँ सफाई के थ्रेशर' नहीं हुआ करते थे। बैलों को गोलाई में घुमा-घुमाकर गेहूँ के पौधें को भूसे की शक्ल में बदला जाता था। फिर भूसे से गेहूं छाज से हवा में उड़ाकर अलग किए जाते थे। यह एक काफी लंबा और थका देने वाला काम था, जिसे अधिकतर चमार या चूहड़े ही करते थे' (पृ.-18 ) ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भू-स्वामी व श्रमिक-दलित संघर्ष को बहुत यथार्थपरक ढंग से पहचाना व व्यक्त किया है। दलितों के संघर्ष को पहचानते हुए भी उसकी रोमांटिक तस्वीर पेश नहीं की बल्कि वह जिस रूप में वहां मौजूद है उसी रूप में चित्रित किया है क्योंकि ऐसा ही सामान्यत: होता है कि हर फसल कटाई से पहले श्रमिक-दलित अपनी मजदूरी बढ़ाने की योजना बनाते हैं, लेकिन जब वे इसको अमल में लाने के लिए दबाव बनाना शुरू करते हैं, कम मजदूरी पर काम न करने की बात करना शुरू करते हैं तो भू-स्वामियों की ओर से भी उन पर 'बन्दी' लगा दी जाती है जिसमें उनका एक तरह से बहिष्कार सा कर दिया जाता, न उनके पशुओं के चारे के लिए खेतों में घुसने दिया और न कोई अन्य वस्तु उनको उधर दी या बेची जाती है, यहां तक कि खेतों में टट्टी आदि जाने से मना करके उनके प्राकृतिक अधिकार भी छीन लिये जाते हैं तो इस आन्दोलन का वही हश्र होता है जो वाल्मीकि ने वर्णन किया। लेकिन इसके साथ ही इस तरह की घटनाओं के सकारात्मक प्रभाव अवश्य पड़ते हैं। भू-स्वामियों द्वारा उनको कम मजदूरी पर काम करने को मजबूर करने से जो 'कुढऩ' होती है वह कभी आक्रोश-रोष में भी तबदील हो सकती है। एक-एक घटना का असर पड़ता है ओम प्रकाश बाल्मीकि ने यथार्थ की गतिशीलता को रेखांकित किया है। फौजा सिंह त्यागी बाल्मीकि को अपने खेत मे जबरदस्ती बेगार करवाने के लिए खींच ले जाता है, जबकि अगले दिन उसका गणित का पेपर था। वहां उफख बोने की बेगार करने के लिए और भी लोग लाए गए थे, जिनसे बहुत ही बुरा व्यवहार किया जा रहा था। दोपहर को खाना खाने के लिए लोग पेड़ की छाया के नीचे बैठते है, लेकिन इन बेगारियों के लिए वह छाया भी नहीं बची थी और वे धूप मे बैठकर ही रोटी खा रहे थे, इनको दो-दो रोटी और अचार का टुकड़ा ऐसे दिया जा रहा था जैसे कोई भिखारी को भी नहीं देता। लेखक को जबरदस्ती बेगार के लिए जबरदस्ती लाने का तो रोष था ही इस दुव्र्यवहार से भी आक्रोश था, इसलिए वह खाना नहीं खा रहा था और उसके इस विरोध पर फौजा सिंह उसे गालियां दे रहा था उसके कहने से तो लेखक विरोध स्वरूप रोटी लेता ही नहीं, लेकिन फौजा सिंह की माँ के प्यार से बुलाने पर लेखक उसके पास चला जाता है पर उसने भी रोटियां मेरे हाथ पर ऊपर से छोड़ी थी। कहीं उनका हाथ मेरे हाथ को छू न जाए। यह तरीका मेरे लिए अपमानजनक था। मैने वे रोटियां सामने पेंफक दी और घर दौड़ पड़ा। फौजा मुझे मारने दौड़ा था। लेकिन पकड़ नहीं पाया था (पृ-७३)। इस विरोध का पूरे गांव के माहौल पर प्रभाव पड़ा था जिसको लेखक ने रेखांकित किया कि पूरी बस्ती में घटना का असर हुआ था। लोगों ने बेगार करने से मना करना शुरू कर दिया था। एक बदलाव की सुबुगाहट शुरू हो गई थी' (पृ-७३)।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ग्रामीण समाज के यथार्थ को आलोचनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए समस्या के सही समाधन की ओर संकेत किया है। जब तक भूमि-संबंध नहीं बदलते, तब तक स्थिति में ठोस बदलाव आना कठिन ही है। भूमि-संबंधें के बदलने का मतलब है कि जो लोग जमीन पर काम करते हैं, फसल बोते हैं जमीन पर मालिकाना हक भी उन्हीं का हो जबकि अब इसके विपरीत है जमीन तो किसी दूसरे की है, लेकिन उस पर मेहनत करने वाले दूसरे हैं और ये पूरी तरह इस भू-स्वामी पर ही निर्भर है। इसके लिए विशाल संगठन व विचारधारात्मक संघर्ष की जरूरत है। जिस वर्ग का उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार होता है यानि गांव के मामलों में जिसका जमीन पर अधिकार है तो उसी का हित करने वाली कहावतें, मुहावरे, नैतिकता, मान-मूल्यों के आधार पर सच और झूठ की तथा अच्छाई व बुराई की पहचान की जाती है। अपने शोषण को जारी रखने के लिए शोषितों के बीच से स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, उनके अपनी स्थितियों के प्रति रोष-आक्रोश को कम करने के लिए तथा उनके आक्रोश-रोष की दिशा को मोड़ देने के लिए वर्चस्वी भू-स्वामी वर्ग कई प्रकार के प्रपंच करता है जिनको समझना तथा दूर करना दलित मुक्ति के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए निहायत जरूरी है। 'बेकार से बेगार भली' 'काम प्यारा है चाम नहीं' आदि कहावतों का लाभ समाज के किस वर्ग को मिलता है तथा इनका नुक्सान किसको होता है। सोचने की बात है कि कर्मफल, पुनर्जन्म व ईश्वरवाद को बढ़ावा देने के लिए भू-स्वामी-पूंजीपति वर्ग इतना अधिक धन क्यों देते हैं और पिछड़े दलित वर्गों में इतने अधिक ईश्वर के भक्त-श्रद्धालु क्यों बन रहे हैं इन सब पर विचार करके विचारधारात्मक संघर्ष की जरूरत है। विचारधारा की ताकत के बल पर तथा सत्ता व कानून की ताकत के बल पर वर्चस्वी वर्ग श्रमिक-दलितों का शोषण जारी रखता है। दलितों का शोषण करने तथा उनके विरोध को दबाने के लिए वर्चस्वी भू-स्वामी वर्ग अपनी प्राईवेट 'लठैत' सेना का भी प्रयोग करते हैं तो कानून को लागू करने वाली तथा कमजोर की 'रक्षा' करने वाली पुलिस का भी।
अंग्रेजी शासन के दौरान ही भारतीय पुलिस ने गरीब-श्रमिक-दलित विरोधी चरित्र ग्रहण कर लिया था। वह गरीबों-पीडि़तों-वंचितों-दलितों के खिलाफ हथियार के रूप में प्रयोग होती रही है और हमेशा ताकतवर का साथ देती रही है। जमींदारों-सेठों के जुल्म-शोषण को जारी रखने के लिए मेहनतकश वर्ग को डराती रही है। अंग्रेजी शासन के दौरान ही गरीबों से बेगार करवाने की प्रथा ने कानूनी रूप धरण कर लिया था। जब अंग्रेजी सेना, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों का लश्कर धन उगाही करने या सैर-सपाटा करने निकलता था तो उनके घोड़ों के लिए घास आदि का प्रबन्ध करने की या अफसरों का सामान एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने या अन्य सेवा देने की जिम्मेवारी गांव के दलितों की ही थी। अंग्रेजी शासन के दौरान तक कुछ जातियों को 'जरायम पेशा' कहा जाता था तथा पैदाइशी अपराधी माना जाता था, डॉ? भीमराव अम्बेडकर ने इसके विरूद्ध लिखा और संघर्ष किया। भू-स्वामी श्रमिक-दलित के संघर्ष में पुलिस ने भू-स्वामी वर्ग का ही साथ दिया तथा श्रमिकों, दलितों पर भू-स्वामी वर्ग का दबदबा' बरकरार रखने में मदद की, यही आजादी के बाद भी मानसिकता बनी रही। सरकारी अधिकारी तो दलितों से बेगार को अपना अधिकार मानते ही रहे तथा गांव का भू-स्वामी वर्ग भी अपनी खुन्नस निकालने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते रहे। ऐसी ही घटना का जिक्र वाल्मीकि ने किया है। गांव में चकबन्दी चल रही थी। कोई बड़ा अफसर आनेवाला था। हमेशा की तरह भंगी-बस्ती में एक सरकारी कर्मचारी आया। साफ-सफाई के लिए कुछ लोगों की जरूरत थी जिसके बदले में कोई पैसा या मजदूरी मिलने की उम्मीद नहीं थी। बेगार थी यह हमेशा की तरह। कई-कई दिन तक भूखे-प्यासे लोग कोठी की साफ-सफाई में लगे रहते थे, बदले में गालियाँ अलग। पुलिस के सिपाही बस्ती के मुर्गे-मुर्गियां उठा ले जाते थे, जोर-जबरदस्ती से। कहीं कोई सुनवाई नहीं थी, इसके खिलाफऋ बल्कि कुछ तगा भी इसमें सहयोग देते थे। पुलिसवालों को देखते ही बस्ती की औरतें घरों में छिप जाती थी। (पृ-50) जब गांव के दलितों ने बेगार करने से इन्कार कर दिया तो पुलिस ने जो क्रूर रूप दिखाया और दलितों पर अत्याचार किया उसका वर्णन रोंगटे खड़े कर देने वाला है। पुलिस के व्यवहार में मात्र पुलिस का अत्याचार नहीं था, बल्कि उसकी आड़ में दलितों के प्रति घृणा व हिंसा निकल रही थी। पुलिस दलित बस्ती से दस लोगों को पकड़कर ले गई बस्ती से पकड़कर लाए लोगों को मुर्गा बनाकर लाठियों से पीटा जा रहा था। पीटने वाला सिपाही थक गया था। प्रत्येक प्रहार पर पिटनेवाला चीख उठता था।
खुलेआम यह शौर्य उत्सव मनाया जा रहा था, जिसमें लोग मूक बने तमाशा देख रहे थे। कहीं कोई विरोध या प्रतिरोध नहीं था। बस्ती की औरतें, बच्चे, गली में खड़े दहाड़ें मार-मारकर रो रहे थे। बिना किसी जुर्म के पुलिस उन्हें पकड़ लाई थी। औरतों और बच्चों को रोने के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा था। बस्ती के मुखिया किरपा और घिस्सा प्रधन के पास गए हुए थे। जो अभी तक लौटे नहीं थे। बाद में पता चला, प्रधन जी किसी जरूरी काम से शहर चले गए थे, ऐन वक्त पर।
बस्ती के किसी व्यक्ति में इतनी हिम्मत नहीं थी, जो दरोगा से पूछ सकता कि उन्हें पीटा क्यों जा रहा है? क्या कसूर है उनका ?
यह तमाशा घंटे भर चला था, दस के दस लोग दर्द से कराह रहे थे, उनकी चीखें सुनकर वृक्षों पर बैठे पक्षी उड़ गए थे लेकिन गाँव की संवेदना को लकवा मार गया था' (पृ-51) ग्रामीण समाज में दलित और सवर्ण का रिश्ता भू-स्वामी व खेतीहर मजदूर का है। दोनों वर्ग एक-दूसरे पर आश्रित भी हैं और दोनों के हित परस्पर विरोधी भी हैं। किसी मामले को लेकर इनके बीच विवाद हो जाता है तो पुलिस हमेशा दलितों को पकड़कर ले जाती है, उनकी पिटाई करती है और अपमान करती है और कानूनी कार्रवाई भी उन्हीं के खिलाफ करती है यदि किसी मामले में दलित दोषी होते हैं तो बदले की कार्रवाई के तहत बुरी तरह रगड़ दिए जाते हैं और जहां उनका कोई कसूर नहीं होता बल्कि वर्चस्वी वर्गों द्वारा पीडि़त होते हैं, वहां भी उनसे अपराधी की तरह पेश आती है, उन पर इतना दबाव बना दिया जाता है और इतनी बुरी तरह डरा दिया जाता है कि उनको अन्तत: समर्पण करना पड़ता है और न्याय की मांग छोडऩे में ही अपनी भलाई समझने लगते हैं। पिछले कुछ वर्षों में दलितों पर अत्याचार की दिल दहला देने वाली घटनाएं हुई हैं जिसमें पुलिस की सहानुभूति भी उत्पीड़कों के साथ ही रही है। वर्चस्वी वर्गों की पंचायतों ने दलित महिलाओं पर सामूहिक बलात्कार करने, नंगा करके पूरे गांव में घुमाने तथा दलित लड़कों जिन्होंने सवर्ण लड़की से प्रेम करने की 'हिमाकत' की उनको फांसी लटकाने की घटनाएं घटित हुईं लेकिन पुलिस ने अपना वही दलित-विरोधी सामन्ती चरित्र को चरितार्थ किया है। राज्य की तमाम संस्थाओं विशेषकर न्याय दिलाने वाली संस्थाएं दलित विरोधी रवैये के अनुसार ही कार्य करती रही हैं। राज्य के इसी चरित्र पर टिप्पणी करते हुए वाल्मीकि ने सही लिखा है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाले सरकारी मशीनरी का उपयोग, नसों में दौड़ते हुए लहू को ठंडा करने के लिए करते हैं, जैसे हम इस देश के नागरिक ही नहीं हैं। हजारों साल से इसी तरह दबाया गया कमजोर और बेबसों को। कितनी प्रतिभाएं छल और कपट का शिकार होकर मिट गई। कोई हिसाब नही।'(पृ.-५२)
गांव से शहरों की ओर दलितों के पलायन दो तरह से हो रहा है एक तो गांव में काम न मिलने के कारण शहर में छोटी-मोटी मजदूरी पाकर अपना गुजारा कर रहे हैं व शहर की स्लम बस्तियों में रह रहे हैं, जो विस्थापितों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अकेलेपन व अवसाद को जीवन जीने को मजबूर हैं।
दूसरे, गांव के भू-स्वामी वर्चस्वी वर्ग के अत्याचारों व उत्पीडऩ से तंग आकर पलायन कर रहे हैं जिसका संकेत ओमप्रकाश वाल्मीकि ने किया है कि जब पुलिस बिना किसी कारण के दलितों की पिटाई करती है तो कई परिवार शहर की पनाह लेते हैं। कहीं जमीन को लेकर विवाद होने से, कहीं किसी दलित लड़की और सवर्ण लड़के में प्रेम होने से या दलित लड़के व सवर्ण लड़की में प्रेम होने से, कभी किसी चुनाव आदि को लेकर दलितों और भू-स्वामी सवर्णों के बीच हुए झगड़े-विवाद में दलितों को गांव भी छोडऩा पड़ जाता है। ऐसी सैंकड़ों घटनाएं घटित हुई हैं जिनमें दलितों ने गांव छोड़कर ही अपनी जान बचाई है और जब जान बचाने के ही लाले पड़े हों तो बनाए गए घर-मकान, पशु या अन्य सम्पत्ति की सुध किसे रहती है। सब कुछ छोड़कर शहर की पनाह लेते हैं। स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरूरत है कि पलायन व उजडऩे की प्रक्रिया को भूमि-संबंध बदले बिना नहीं रोका जा सकता। गांव में जिस वर्ग के पास खेती के लिए जमीन है न तो वह गांव से उजड़ता है और न ही उसे उजाडऩे की किसी में हिम्मत है। जमीन एक प्राकृतिक संसाधन है जिस पर रहने वाले सभी लोगों का हक बनता है, किसी ने जमीन को पैदा नहीं किया बल्कि जमीनों पर मात्र कब्जे हैं। जमीन पर सभी रहने वाले व उस पर काम करने वालों को बराबर हक मिले। इस बिन्दु को दलित मुक्ति के संघर्ष का केन्द्रीय बिन्दु बनाकर ही कुछ ठोस परिणाम निकल सकते हैं। 'जूठन' खाने से तभी बचा जा सकता है जबकि पेट भरने के लिए सवर्णों की दया पर निर्भर न हों और यह तभी संभव है जब उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी हो। आत्मनिर्भर हुए बिना 'जूठन' से बचने यानि मानवीय गरिमा व आत्म सम्मान के साथ जीना लगभग असंभव है। वाल्मीकि ने सही संकेत किया है पेट भरने के बाद ही सांस्कृतिक विकास व चेतना आती है क्योंकि जहां रोटी ही नसीब न हो, वहां पढ़ाई की बात कोई कैसे सोच सकता है' (पृ-23) । शिक्षा और चेतना के बिना दलित मुक्ति के संघर्ष को फलता नहीं मिल सकती और इसके लिए विशाल संगठन व क्रांतिकारी चेतना की जरूरत है। परिवर्तनकामी चेतना के व संगठन के अभाव में ही अधिकांश आबादी गुलामों का सा जीवन जी रही हैं और चंद लोग उनकी मेहनत पर मौज-मस्ती कर रहे हैं और गुर्रा रहे हैं। संख्या व शारीरिक ताकत की कमी नहीं है सुखवीर जैसे लोग है जिसने सांड को गांव से बाहर सिर्पफ एक लाठी के भरोसे खदेड़ा था। उसके हौंसले और ताकत ने पूरे गांव में धक बैठा दी थी। बहुत दिनों तक गांव पर चर्चा होती रही थी'(पृ-22)जिस सांड को सवर्ण गांव से बाहर निकालने की हिम्मत नहीं कर सके और अपने घरों की छतों पर चढ़ गए थे। चेतना का अभाव ही है कि सांड को मात्र एक लाठी के सहारे खदेडऩे वाले शूरवीर सवर्णों के सामने भिग्गी बिल्ली बन जाते हैं। भूमि-संबंधें की परिवर्तन कामी चेतना से लैस योद्धा ही ब्राह्मणवाद के छुट्टे सॉड को गांव से बाहर कर सकते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलितों की मानवी-गरिमा को समाप्त करने वाले रिवाजों, प्रथाओं तथा परम्पराओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है तथा इन प्रथाओं में छिपी अमानवीयता को उजागर किया है। 'जूठन' खाने व उठाने की प्रथा का वर्णन करते हुए लिखा है शादी-ब्याह के मौकों पर जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाजों के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खाना खा चुकने पर झूठी पत्तलें उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जाकर वे 'जूठन' इकट्ठी कर लेते थे। पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एक आधा मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी-बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बाछें खिल जाती थी। जूठन चटखारे लेकर खाई जाती थी। जिस बारात की पत्तलों से जूठन कम उतरती थी कहा जाता था कि भुक्खड़ ;भूखेद्ध लोग आ गए है। बारात में जिन्हें कभी खाने को कुछ नहीं मिला। सारा चट कर गए। अक्सर ऐसे मौकों पर बड़े-बूढ़े ऐसी बारातों का जिक्र बहुत ही रोमांचक लहजे में सुनाया करते थे कि उस बारात से इतनी जूठन आई थी कि महीनों तक खाते रहे थे।'(-19) यह कितनी अमानवीय प्रथा है कि एक व्यक्ति दूसरे की जूठन खाए। इस व्यवस्था में बराबरी की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता बल्कि गैर बराबरी को संस्कारों का हिस्सा बना दिया। 'जूठन' उठाना व खाना दलितों के लिए एक मजबूरी होगी, लेकिन चटखारे लेकर' जूठन खाने से इसने दलितों में इतनी स्वीकार्यता ग्रहण कर ली कि 'जूठन' पर ही अपना अधिकार समझने लगे, उन्हें अमानवीयता व जूठन में छिपा अपमान नजर नहीं आता तो दूसरी और सवर्ण भी जूठन को अहसान करके देने लगे। इन परम्पराओं ने दलित व सवर्ण समाज से मानवीय-सार को सोख लिया है, लेकिन इस अपमानजनक प्रथा के प्रति दलितों में अस्वीकार को वाल्मीकि ने दर्शाया है। सुखदेव सिंह त्यागी की लड़की की शादी में लेखक के मां-बाप ने घर-बाहर के अनेक काम किए थे लेकिन सुखदेव सिंह एक मिठाई का टुकड़ा देने से इनकार करता है। दलितों से किए जाने वाले व्यवहार का एक उदाहरण है बारात खाना खा रही थी। माँ टोकरा लिए दरवाजे से बाहर बैठी थी। मैं और मेरी छोटी बहन माया माँ से सिमटे बैठे थे। इस उम्मीद में कि भीतर से जो मिठाई और पकवानों की महक आ रही है, वह हमें भी खाने को मिलेगी। जब सब लोग खाना खाकर चले गए तो मेरी मां सुखदेव सिंह त्यागी को दालान से बाहर आते देखकर कहा, चौधरी जी, ईब तो सब खाणा खा के चले गए .... म्हारे जाकतों (बच्चों) कू भी एक पत्तल पर ध्र के कुछ दे दो। वो बी तो इस दिन का इंतजार कर रे ते।'
सुखदेव सिंह ने जूठी पत्तलों से भरे टोकरे की तरफ इशारा करके कहा टोकरा भर तो जूठन ले जा री है ... ऊप्पर से जाकतों के लिए खाणा माँग री है? अपणी औकात में रह चूहड़ी । उठा टोकरा दरवाजे से और चलती बन।' सुखदेव सिंह त्यागी के वे शब्द मेरे सीने में चाकू की तरह उतर गए थे, जो आज भी अपनी जलन से मुझे झुलसा रहे हैं।
उस रोज मेरी माँ की आँखों में दुर्गा उतर आई थी। माँ का वैसा रूप मैंने पहली बार देखा था। माँ ने टोकरा वहीं बिखेर दिया था। सुखदेव सिंह से कहा था, इसे ठाके अपने घर में धले। कल तड़के बारातियों को नाश्ते में खिला देणा....'
हम दोनों भाई-बहनों का हाथ पकड़ के तीर की तरह उठकर चल दी थी। सुखदेव सिंह माँ पर हाथ उठाने के लिए झपटा था, लेकिन मेरी ने माँ शेरनी की तरह सामना किया था, बिना डरे।
उसके बाद माँ कभी उसके दरवाजे पर नहीं गई और जूठन का सिलसिला भी उस घटना के साथ बंद हो गया था'। (पृ-२१)
'सलाम' की प्रथा भी इसी तरह की प्रथा है, शादी-विवाह के समय दुल्हा उन घरों के दरवाजे पर जाता है जिन घरों में दुल्हन की माँ काम करती है इसी तरह दुल्हन उन घरों के दरवाजे पर जाती है जिन घरों पर दुल्हे की माँ काम करती है। इस प्रथा के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा है सदियों से चली आ रही इस प्रथा के पाश्र्व में जातीय अहम की पराकाष्ठा है। समाज में जो गहरी खाई है, उसे प्रथा और गहरा बनाती है। एक साजिश है हीनता के भंवर में फंसा देने की।
कितनी ही बार दुल्हों को ही नहीं, दुल्हनों को भी बेइंतहा अपमान सहना पड़ता है। गरीब परिवार की अनपढ़ लड़की अजनबियों के बीच जाकर वैसे ही गूंगी बनी रहती है। ऊपर से उसे दरवाजे-दरवाजे लेकर घूमने पर रही-सही कसर भी पूरी हो जाती है।'(पृ-45) 'सलाम' की प्रथा का मतलब था कि दुल्हा-दुल्हन सवर्णों के घरों में सलाम करते और बदले में वे कुछ न कुछ दे देते, लेकिन इसके साथ जो अपमान मिलता है वह शादी का सारा स्वाद ही कसैला कर देता है। अपने मित्र हिरन सिंह की शादी में लेखक उसे सलामी के लिए न जाने की सलाह देता है लेकिन वे उसे रोकने में तो कामयाब नहीं होते पर इस प्रथा को तोडऩे के लिए अपने पिता से बात करते हैं और यह प्रथा तोड़ी भी जाती है। हिरम सिंह की सलामी के बाद गम्भीर मुद्रा में बैठे देखकर ओमप्रकाश वाल्मीकि के पिता उनसे पूछते हैं ऐसे क्यूँ बैठे हो मुंशी जी?'
मैंने पिताजी के सवाल का उत्तर देने की बजाय, एक सवाल तेजी से दागा, 'ये सलाम के लिए जाना क्या ठीक है?'
पिताजी ने मेरी ओर ऐसे घूरा जैसे मुझे पहली बार देख रहे हों। उन्हें चुपचाप देखकर मेरे मन की उथल-पुथल बाहर आने लगी, अपनी ही शादी में दुल्हा घर-घर घूमे ... बुरी बात है ... बड़ी जातवालों के दुल्हे तो ऐसे कहीं नहीं जाते ... ये दुल्हन बरला जाकर ऐसे ही घर-घर जाएगी सलाम करने ...।'
पिताजी खामोशी से मेरी बात सुन रहे थे, मुंशीजी, बस, तुझे स्कूल भेजना सफल हो गिया है ... म्हारी समझ में बी आ गिया है ... ईब इस रीत कू तोड़ेंगे।'
पिता जी ने सचमुच इस रीत को अपने ही घर से तोड़ा था। मेरे भाई जनेसर की बारात लक्सर के पास रजोपुर गई थी। पिताजी ने साफ मना कर दिया था, मेरा बेटा सलाम करने नहीं जाएगा।'
बहन की शादी में भी हमने अपने बहनोई को 'सलाम' पर नहीं जाने दिया था। साफ-साफ कह दिया था, जिसे जो भी देना है यहां देकर जाए' (पृ-४४) इस तरह दलित समाज में बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा बढ़ रही है और ऐसी प्रथाओं को तिलांजलि दे रहे हैं जो उनकी मानवी-गरिमा को कम करती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जड़ता व अज्ञानता पर प्रश्नचिह्न लगाया है। अंधविश्वासों ने दलितों की चेतना को जकड़ रखा है जो वैज्ञानिक सोच व चिन्तन को जीवन में आने ही नहीं देता। धार्मिक अनुष्ठानों के साथ मिलकर अंधविश्वास ऐसी शक्ति बन जाती है। जो जीवन को नियंत्रित करती है, दलितों में व्याप्त गरीबी इसको स्वमेव बढ़ावा देती है और अंधविश्वास गरीबी के कारणों की पहचान नहीं होने देते, ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सही पहचाना है कि इस दुष्चक्र को तोड़े बिना दलितों में परिवर्तनकामी चेतना का संचार नहीं हो सकता जो ब्राह्मणवाद के चंगुल से मुक्ति पाने के लिए निहायत जरूरी है। दलितों में व्याप्त अंध्विश्वास का वर्णन करते हुए लिखा है कि बस्ती में जब भी कोई बीमार पड़ जाता, दवा-दारू करने के बजाए भूत-प्रेत की छाया से छुटकारा पाने के कार्य, झाड़-फूँक, टोने-टोटके, तावीज, गंडे, भभूत आदि की आजमाइश शुरू हो जाती थी। ये तमाम काम रात में किए जाते थे। जब बीमारी लंबी खिंच जाती थी या गंभीर रूप ले लेती तो किसी भगत को बुलाकर 'पुच्छा' की जाती थी। ऐसे समय में भगत के साथ एक ढोलक बजाने वाला, दो-तीन गाने वाले होत थे। जो ढोलक की खास ताल पर एक ही सुर में गाना गाते थे। गाने में देवता का आह्वान होता था, जिसे भगत के शरीर में प्रविष्ट होकर झूमना है। लय-ताल-सुर से ऐसा माहौल बना दिया जाता था कि अच्छा खासा व्यक्ति झूमने लगे। गाने में अशिष्ट शब्दों की भरमार होती थी, जो देवता के प्रति आत्मीयता दिखाने की अभिव्यक्ति थी।' (पृ-५२) ओमप्रकाश वाल्मीकि इस पाखण्ड-ढोंग का विरोध करते हैं जब उनके रिश्ते का जीजा वाल्मीकि का बुखार उतारने के लिए कोड़े मारने लगा तो उन्होंने उसका विरोध किया और जब उनका परिवार कोई इस तरह का अनुष्ठान करता तो वे उसमें शामिल नहीं होते। यहां तक कि शादी के समय उनके पिता ने एक शर्त रख दी थी, जिसको मानने से इन्कार कर दिया देवता के लिए सूअर की पूजा शादी से पहले जरूरी है।'
मैंने साफ मना कर दिया था। मैं किसी देवता की पूजा में विश्वास नहीं करता, पिताजी नाराज हो गए थे। मेरा अविश्वास उनकी आस्था पर चोट था जिसके लिए वे मुझे माफ करने को तैयार नहीं थे। अभी तक शायद मेरे पूजा-पाठ में शामिल न होने को मेरा बचपना मानकर, कुछ विशेष जोर नहीं डालते थे लेकिन शादी-विवाह जैसे मौके पर भी मेरा विरोध देखकर वे क्रोधित हो उठे थे। यह नाराजगी अन्त तक रही। इस बात के लिए मैं कतई तैयार नहीं था।' (पृ-१२५) सिर्फ अंधविश्वासों तक की बात नहीं है बल्कि ईश्वर की मूर्तियों, धार्मिक अनुष्ठानों व कर्मकाण्डों के माध्यम से ही तो ब्राह्मणवाद जीवन में प्रवेश करता है। पूजा-विधनों के साथ ही ब्राह्मणवादी विचारधारा अपनी स्वीकार्यता बढ़ाती है और चेतना का व संस्कार का हिस्सा बनकर अपने ही वर्ग के खिलाफ कर देती हैं।
असमानता व शोषण की व्यवस्था को टिकाने में ईश्वरवाद का तथा धार्मिक अनुष्ठानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। ईश्वर का नाम लेकर ही राजा अपनी सत्ता चलाते रहे हैं, लूट को उचित ठहराते रहे हैं, एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण को ईश्वरीय व शाश्वत व्यवस्था कही जाती रही है। इसलिए इतिहास में चाहे कोई राजा कितना ही क्रूर रहा हो उसने धर्म-स्थलों के निर्माण के लिए तथा उनके पुजारियों के ऐश्वर्य-विलास के लिए खूब ध्न लुटाया है। आज भी भू-स्वामी-पूंजीपति वर्ग धर्म स्थलों को भव्य बनाने, कथावाचकों को धार्मिक कथाएं सुनाने तथा कांवड लेकर आने वालों को हलवा-पूरी खिलाने के लिए 'दान' के रूप में अथाह धन इसलिए देते हैं क्योंकि ये संस्थान उनके दान को महिमामंडित करते हुए शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करते हैं। लोगों की चेतना को नियंत्रित करने का काम करते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि इस ब्राह्मणवादी जाल में न खुद फंसे और न ही दलितों को पंफसने देना चाहते हैं। इसलिए दलितों में मौजूद बुराइयों को उजागर करते हैं और अपना पक्ष भी रखते हैं। सविता जब पूछती है कि आप मंदिर क्यों नहीं जाते?
'इन पत्थर की मूर्तियों में मेरी कोई आस्था नहीं है' मैंने अपने मन की बात कह दी थी।'(पृ-११३)
ब्राह्मणवाद अपनी शोषण की विचारधारा को बनाए रखने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाता है वह ग्रन्थों में दिए गए दर्शन के विपरीत भी उसकी व्याख्याएं करता है, मेले-ठेले आयोजित करके लोगों के जीवन का जरूरी हिस्सा बन जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इन सबकी ओर संकेत किया है जिस पर प्रकाश डालना उचित रहेगा। गोरखपुर प्रेस की गीता में कर्म करने और फल की इच्छा न रखने का दार्शनिक विवेचन स्थापित कर रहे हैं। ज्ञान की इस पुस्तक के प्रत्येक अध्याय के बाद एक माहात्म्य दिया हुआ था जिसमें उस अध्याय के पठन-पाठन के बाद प्राप्त होन ेवाले फल की कहानी थी। यानी गीता-दर्शन के ठीक विपरीत फल की लालसा के लिए पाठकों, श्रद्धालुओं और आस्थावानों को उकसाया जा रहा था। यह बेचैनी मेरे मन में एक नई चेतना पैदा कर रही थी यानि कर्मकाण्ड को स्थापित किया जा रहा था' (पृ-77) ब्राह्मणवादी विचारधारा के मानने वालों को अच्छी तरह मालूम है कि ये विचार उनके शोषण को जारी रखने में मददगार हैं। उन्हें ग्रन्थों की पवित्रता, उनके दार्शनिक उपदेश, धार्मिक निष्ठा से कोई सरोकार नहीं हैं यदि कोई ग्रन्थ उनके लूट-शोषण को जारी रखने में मदद करता है तो वह उनके एकदम काम का है और यदि कोई ऐसा नहीं करता तो उसमें अपने आप फेर बदल कर लेना या उसकी अपने लाभ के अनुसार व्याख्याएं करके लोगों में प्रचारित करना उनके कुत्सित अभियान का हिस्सा है और इस तरह धर्म के नाम पर अपने हितों की रक्षा करने वाले विचार लोगों की चेतना में ठूंस दिए जाते हैं। इन ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए आलोचनात्मक विवेक की निहायत आवश्यकता है तभी ब्राह्मणवादी शिकंजे से बचा जा सकता है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने उद्घाटित-किया है कि बलि व पूजा आदि के कर्मकाण्डों के साथ आर्थिक स्वार्थ भी जुड़े हैं जिससे इस पाखण्ड को बढ़ावा मिलता है। मंदिरों में जब मेला लगता है या किसी विशेष दिन पूजा होती है तो लेाग वहां अपनी मनौतियां मानने के लिए चढ़ावा चढ़ाते हैं, दान देते हैं और जिन लोगों को यह दान-चढ़ावा मिलता है वे इस तरह के आयोजनों को बढ़ावा देकर लोगों की अज्ञानता, श्रद्धा व अंध्विश्वास का लाभ उठाकर अपनी ऐश-विलास की सामग्री प्राप्त कर लेते हैं। बढ़ रहे पाखण्ड का यही रहस्य है मंदिर तथा पूजा विशेष के माहातम्य को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया जाता है ताकि अधिक से अधिक भीड़ एकत्रित हो। शायद ही कोई दिन होगा जो दान के लिए शुभ न माना गया हो। इस पाखण्ड से आमदनी का अधिकांश लाभ तो समाज के वर्चस्वी वर्गों के लोगों को ही होता है क्योंकि पूजा-स्थलों का प्रबन्ध्न उन्हीं के हाथों में है, लेकिन इसमें से कुछ अवसरों पर कथित निम्न वर्ण को भी कुछ हिस्सा देकर शामिल कर लिया जाता है। पूजा से जुड़े कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने से जुड़े आर्थिक हित का जिक्र करते हुए बताया कि माता की इस पूजा का बस्ती में एक और महत्त्व था। माता के नाम पर सुअर के बच्चे, मुर्गे और बकरे चढ़ाने की भी परम्परा थी। बस्ती के प्रत्येक घर में इस अवसर के लिए मुर्गे और सूअर के बच्चे पाले जाते थे जिनसे थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती थी। जर्जर हालत में थोड़ा सहारा मिल जाता था।' (पृ-57) आर्थिक हित के साथ-साथ पूजा के उत्सव का, मेले का रूप दे देने, व सामूहिक भोज व आनन्द के साथ जोडऩे से भी इसकी स्वीकार्यता बढ़ती है। जब भी पूजा या ईश्वर भक्ति व्यक्तिगत आस्था से बाहर निकलकर सामूहिक आयोजन बनता है तो लोग उसे सांस्कृतिक उत्सव की तरह मनाने लगते हैं इसलिए आजकल जगरातों व कीर्तनों की भरमार है। कीर्तन व जगराता मंडलियां एक प्रोपफेशन के तौर पर काम करने लगी हैं।
भारतीय समाज विशेषकर ग्रामीण समाज बंद समाज है जिसमें स्त्रियों, लड़कियों व बच्चों को घर से बाहर निकलने व खरीददारी करने के अवसर न के बराबर मिलते हैं,ये मेले-उत्सव इनको बाहर निकलने का बहाना दे देते हैं, और उनके जीवन में थोड़ी सी आजादी ला देते हैं। इसी के साथ ब्राह्मणवाद की जड़ता अंध्विश्वास, धर्मभीरूता व पाखण्ड अपनी जड़ें जमा लेता है और ब्राह्मणवादी विचारधारा इसी से खुराक पाकर जिन्दा रहती है।
ऐसे ही मेले का वर्णन वाल्मीकि ने किया है। दशहरे के दिन इस मैदान में विशेष चहल-पहल रहती थी। हजारों की भीड़ थी मैदान में। भीड़ के बीच एक छोटा-सा गड्डा था जिसके एक किनारे बड़ी सी मजबूत बल्ली के साथ एक खूब मोटा-तगड़ा भैंसा बंध हुआ था। उसके पास ही सेना की सशस्त्र टुकड़ी खड़ी थी। एक ओर टैंट लगा हुआ था। जहाँ कुर्सियों पर कुछ विशिष्ट लोग और उनके परिवारजन बैठे हुए थे।
एक किनारे बैंड बज रहा था, जहाँ कुछ लोग बैंड की dhun पर नाचने की कोशिश कर रहे थे। पूरा माहौल उत्सव और उमंग से भरा हुआ था। इसी बीच भीड़ को चीरता हुआ एक बलिष्ठ व्यक्ति मैदान में दाखिल हुआ। उसके जिस्म पर मात्र एक जाँघिया था लाल रंग का। सिर पर पगड़ी थी। गले में गेंदे के फूलों की माला। माथे पर लाल टीका। वह एक कसरती बदन का पहलवान जैसे था। हाथों में एक विशाल खुखरी उठाए वह भैंसे के पास आकर रूक गया था।
उसके पीछे-पीछे एक ब्राह्मण पुजारी हाथ में पूजा का थाल लिए हुए चल रहा था। भैंसे के पास पहुंचकर पुजारी ने भैंसे के ऊपर सिंदूर, चावल, हल्दी पेफंके, उसके सींगों पर भी हल्दी लगाई। इस बीच वह लगातार ऊँची आवाज में संस्कृत के श्लोक दोहरा रहा था।
पूजा समाप्त होते ही सेना अधिकारी ने टुकड़ी को 'अटेंशन' का आदेश दिया। उसके दूसरे आदेश पर हवाई फायर होने लगे। साथ ही उस बलिष्ठ व्यक्ति ने दोनों हाथों से खुखरी ऊपर उठाई और पलक झपकते ही भैंसे की गर्दन पर वार किया। देखते ही देखते भैंसे का ध्ड़ और सिर अलग-अलग हो गए थे। भैंसे के शरीर से लाल-लाल रक्त के फव्वारे फूट पड़े थे। रक्त गड्डे में जमा हो गया था। धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर तथा अपनी मनौतियां पूर्ण करने की अभिलाषा में आयोजित परंपरागत मेले में जिला प्रशासन की ओर से जिला अधिकारी, जन-प्रतिनिधि बड़े-बड़े अधिकारी उपस्थित होते हैं, उनकी मौजूदगी में भैंसों, भेड़ों की बलि दी जाती है।'(पृ-९८)
प्रशासन का चरित्र भी इनसे स्पष्ट होता है जिस तरह सेना की टुकड़ी बलि के भैंसे को शाही सलामी' देती है उससे उस पर गुस्सा नहीं बल्कि तरस किया जा सकता है। पाखण्ड को, कर्मकाण्ड को, संस्थागत रूप दिया जाना ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देना है। असमानता को वैध ठहराने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा इन्हीं पाखण्डों व कर्मकाण्डों के पैरों पर चलकर हमारी चेतना में घुसती है। धार्मिक कहे जाने वाले अनुष्ठानों व पाखण्डों की जूठन न खाने का संकल्प लेने की जरूरत है।
ब्राह्मणवाद दलितों को शिक्षा व ज्ञान से वंचित करके ही उनकी मानवीय गरिमा व पहचान समाप्त करने में कामयाब हुआ है। ज्ञान व शिक्षा पाने की ललक दलितों में थोड़ी-बहुत हमेशा ही रही है, लेकिन बीसवीं शताब्दी के दलित आन्दोलन ने तो शिक्षा प्राप्त करने को केन्द्रीय मुद्दा बना दिया। दलितों को ब्राह्मणवाद के शिंकजे से तथा नारकीय जीवन स्थितियों से छुटकारा दिलाने में शिक्षा व ज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के पिता उसे शिक्षा पाने के लिए बार-बार प्रेरित करते हैं कि 'पढ़-लिख कर जाति सुधारनी' है। 'जाति सुधारने' का उनके लिए सीध सा अर्थ है कि अपमान की जिन्दगी से छुटकारा पाना, शोषण व बेगार से मुक्ति। इस बात को सवर्ण समाज भी अच्छी तरह जानता है कि दलितों का शोषण तभी तक किया जा सकता है, जब तक कि वह अज्ञानी, अशिक्षित व अचेत है, इसलिए वह दलितों को शिक्षा नहीं देना चाहता। जब कोई दलित शिक्षा ग्रहण करने का विचार लाता है तो हेडमास्टर का यह प्रतिनिधि वाक्य कि ले जा इसे यहां से .... चूहड़ा होके पढ़ाने चला है ... जा चला जा' (पृ-१६) का सामना करना पड़ता है। सवर्णों में इस पर सर्वसम्मति है कि दलितों को शिक्षा-प्राप्त करने का न तो अधिकार है और न ही आवश्यकता है। जब स्कूल का हेडमास्टर वाल्मीकि के पिता को ध्मकी देता है और अपने बच्चे को स्कूल से ले जाने की बात करता है तो उसके पिता गांव वालों से इस बारे में हस्तक्षेप करने की अपेक्षा रखते हैं लेकिन गांव के सवर्ण हेडमास्टर के विचार से ही सहमति प्रकट करते हैं। पिता जी को विश्वास था, गांव के त्यागी मास्टर कलीराम की इस हरकत पर उसे शर्मिन्दा करेंगे लेकिन हुआ ठीक उल्टा,जिसका दरवाजा खटखटाया यही उत्तर मिला, 'क्या करोगे स्कूल भेजके' या 'कौवा बी कबी हंस बण सके,' तुम अनपढ़ गंवार लोग क्या जाणों, विद्या ऐसे हासिल ना होती।', अरे! चूहड़े के जाकत कू झाडू लगाने कू कह दिया तो कोण-सा जुल्म हो गया,' या फिर झाडू ही तो लगवाई है, द्रोणाचार्य की तरियों गुरू-दक्षिणा में अंगूठा तो नहीं मांगा'आदि आदि।'(पृ-16)
दलितों और सवर्णों के बीच शिक्षा के मुद्दे पर टकराहट असल में वर्ग-संघर्ष का ही एक पक्ष है। शिक्षा से जो हिम्मत व चेतना आती है उसके बाद शोषण करना उतना सरल नहीं रहता इसलिए शिक्षा से वंचित रखना ही दलितों के शोषण की गारंटी है। शिक्षा से विकास के व नए विकास में नए पेशे चुनने की स्वतन्त्रता बढ़ती है, पेशा चुनने की स्वतन्त्रता से ही सामन्ती शोषण की जकड़ ढीली पड़ जाती है। शिक्षा पर आरम्भ से ही उच्च वर्ण का वर्चस्व रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षकों में इस वर्ग के लोगों की संख्या अत्यध्कि है और अपने वर्ण-वर्ग को हित पहुंचाने वाली विचारधारा को ही शिक्षा के रूप में प्रस्तुत किया है। स्कूलों में सवर्ण शिक्षक दलित छात्रों के प्रति शत्रुवत व्यवहार करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने टिप्पणी की है कि अध्यापको का जो आदर्श रूप मैंने देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरू की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो मां-बहन की गालियां देते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे और अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे।' (पृ-१४)। ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त स्कूली-शिक्षक के मन में दलितों के प्रति उसी तरह के पूर्वाग्रह, पूर्वधारणाएं हिंसा व घृणा मौजूद है जिस तरह सामान्य सवर्ण में है। उसने जो शिक्षा प्राप्त की है उससे उसकी ब्राह्मणवादी सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया, यह पूरी शिक्षा पद्धति व शिक्षा सामग्री पर ही प्रश्नचिह्न लगाती है। गुरू और शिष्य के पवित्र रिश्ते की महिमामंडित अवधारणा ध्री की ध्री रह जाती है जब किसी गुरू को अपनी कक्षा में दलित शिष्य नजर आता है उसे अपना सारा ज्ञान व पूरी परम्परा ही भ्रष्ट होती दिखाई देती है और वह इसे 'शुद्ध' रखने के लिए दलितों पर कहर ढाना शुरू कर देता है। गांव के सवर्णों को एक दलित विद्यार्थी से झाडू लगवाने में कुछ गलत ही नहीं लगता क्योंकि उसकी कॉमन सेंस में यही बात जगह बनाए हुए है कि वाल्मीकि का मतलब - झाडू लगाने वाला। स्कूल में विद्यार्थी के रूप में उसकी उपस्थिति उसको स्वीकार्य नहीं, हां झाडू लगाने व स्कूल चमकाने के लिए वह एकदम उपयुक्त है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जब स्कूल में दाखिला लिया तो हेडमास्टर कलीराम का उनके प्रति व्यवहार सवर्ण शिक्षक ज्ञान व दलित शिक्षार्थी के संबंधें की कहानी स्वयं कह देता है।
एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, 'क्या नाम है बे तेरा?'
'ओमप्रकाश,' मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में नाम बताया।
हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी।
'चूहड़े का है?' हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला।
'जी'
'ठीक है........ वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़के झाडू बना ले। पत्तों वाली झाडू बणाना और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यो खानदानी काम है। जा ..... फटाफट लग जा काम पे।'(पृ-१५) दो तीन दिन लगातार स्कूल का विद्यार्थी स्कूल में झाडू लगाता रहा और स्कूल के प्रधनाचार्य को न तो इसमें कुछ अटपटा लगा और न ही उसे उस विद्यार्थी पर तरस आया । हेडमास्टर की उससे केवल स्कूल साफ करवाने की मंशा नहीं थी बल्कि स्कूल की फाई तो एक हथियार था उसको पढ़ाई से दूर रखने का । यदि मात्र फाई ही मकसद होता तो उसको दो दिन स्कूल की फाई के बाद कक्षा में बैठने दिया जाता, बल्कि जो विद्यार्थी स्कूल के काम में हाथ बटाता है उसको तो शिक्षक उत्साहित करते हैं, लेकिन यहां दो दिन पूरा स्कूल 'चमकाने' के बाद भी ओमप्रकाश वाल्मीकि को मिलती हैं गालियां व डांट-फटकार। तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसकी दहाड़ सुनाई पड़ी 'अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया ... अपनी माँ ...' उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा,' मास्साब, वो बैठा है कोणे में'
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेडिय़ा बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, जा लगा पूरे मैदान में झाडू ... नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ दूंगा।'( पृ-15) जब स्कूल का हेडमास्टर अपने विद्यार्थी को विद्यार्थी न समझकर दलित समझता हो और उसको देखते ही उसके संस्कार में पैठी सदियों की घृणा व हिंसा फूट पड़े तो शिष्य को किस तरह की विद्या मिलेगी। इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इसी व्यवहार की वजह से स्कूलों में जितने विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। स्कूली शिक्षा पूरी होते-होते उनका एक चैथाई ही रह जाता है। कथित गुरू की बेंत-लात-घूंसे से जब दलित शिष्य की पीठ पर पड़ते हैं तो कबीर की सीख व गुरू की भूमिका भी फुर्र हो जाती है। 'गुरू कुम्हार शिष कुम्भ है। गढि़-गढि़ काढ़ै खोट, अंतर हाथ सहार दै बाहर-बाहर चोट' कबीर ने शिष्य को अन्दर से मजबूत करने के लिए, उसके व्यक्तित्व को निखारने के लिए बाहर से चोट करने को तो जिस्टफाई किया था, लेकिन सवर्ण गुरूओं की स्थिति तो एकदम उलट है वे तो 'शिष्य' को अंदर से तोडऩे के लिए बाहर प्रहार करते हैं। पी।टी. मास्टर फूलसिंह त्यागी दलित लड़के सुरजन सिंह को बेरहमी से पीटते हैं। उनके इस वहशी व्यवहार से उनके मन में बैठी घृणा की सघनता का अनुमान लगाया जा सकता है। वे सुरजन सिंह को बेरहमी से पीट रहे थे। लगता था कोई जालिम गुंडा किसी निर्दोष को पीट रहा है। सुरजन सिंह जमीन पर गिर पड़े थे। वे लगातार घूँसे और लात चला रहे थे।
'अबे, साले, चूहड़े की औलाद जब मर जाएगा, बता देना। बहुत हीरो बणे हैं, आज काढूँगा (निकालूंगा) तेरी जुल्फों से तेल।'
मास्टर फूल सिंह थक गए थे सुरजन सिंह को पीटते-पीटते। सुरजन सिंह जमीन पर पड़ा था। उसके चेहरे पर गूमड़ उभर आए थे। शरीर नीले निशानों से भर गया था। सभी विद्यार्थी सुन्न खड़े थे। अध्यापक खामोशी से तमाशा देख रहे थे। प्रिंसीपल यशवीर सिंह त्यागी निरपेक्ष भाव से चुपचाप खड़े थे। कहीं कोई विरोध या प्रतिकार की भावना नहीं थी।' (पृ-61) सवर्ण शिक्षकों मे दलित विद्यार्थियों के प्रति ऐसे व्यवहार की सर्वसम्मति है जो कहीं तो प्रिंसीपल यशवीर सिंह त्यागी की तरह मूक रहकर प्रकट कर दी जाती है तो कहीं मुखर होकर। शिक्षकों के इस व्यवहार ने पूरे ज्ञान शास्त्र, गुरू-शिष्य संबंधें तथा शिक्षण संस्थाओं में मौजूद दलित-विरोधी सामन्ती प्रवृत्तियों को उजागर किया है। दलितों के प्रति बरती जा रही 'थर्ड डिग्री' को बयान करती एक घटना सुक्खन सिंह की पिटाई की है। सुक्खन सिंह के पेट पर पसलियों के ठीक ऊपर एक फोड़ा हो गया था, जिससे हर वक्त पीप बहती रहती थी। कक्षा में वह अपनी कमीज ऊपर की तरफ इस तरह मोड़कर रखता था, ताकि फोड़ा खुला रहे। एक तो कमीज पर पीप लगने का डर था, दूसरे मास्टर की पिटाई के समय फोड़े को बचाया जा सकता था।
एक दिन मास्टर ने सुक्खन सिंह को पीटते समय उस फोड़े पर ही एक घूंसा जड़ दिया। सुक्खन की दर्दनाक चीख निकली। फोड़ा फूट गया था। उसे तड़पता देखकर मुझे भी रोना आ गया थ। मास्टर हम लोगों को रोता देखकर लगातार गालियां बक रहा था। ऐसी गालियां जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दूँ तो हिन्दी की अभिजात्यता पर धब्बा लगा जाएगा।' (पृ-१४)। दलित विद्यार्थियों से बेगार तो करवाई जाती है,शिक्षकों द्वारा उनसे घर काम भी खूब लिया जाता है लेकिन जब शिक्षा देने की बारी आती है तो उनको टाल दिया जाता है। मास्टर बृजपाल के पड़ौस के गांव से गेहूँ लेकर आते हैं। वाल्मीकि, स्टॉफ रूम में अध्ययन सम्बन्धी समस्या को दूर करना चाहते हैं तो उनको घर बुलाकर आटा पिसवाने भेज देते हैं और जब आटा पिसवाकर घर पहुंचते हैं तो पहले ही मास्टर जी खिसक जाते हैं। (पृ-71) बारहवीं कक्षा में रसायन के अध्यापक बृजपाल सिंह प्रैक्टिकल के पीरीयड़ में किसी न किसी बहाने से बाहर भेज देते हैं, अपमानित भी करते हैं इस बारे में प्रिंसीपल से बात करते हैं तो समस्या का समाधन करने का आश्वासन देते हैं लेकिन हुआ ठीक उलटा। बारहवीं कक्षा में, मैं प्रैक्टिकल नहीं कर पाया था, पूरे वर्ष। बोर्ड की परीक्षा में मेरा मात्र प्रैक्टिकल ही खराब नहीं हुआ, बल्कि मौखिक साक्षात्कार में भी मुझे कम अंक मिले थे जबकि मैंने परीक्षक के सभी प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर दिए थे।
जब परिणाम घोषित हुआ, मैं बारहवीं में पफेल था। रसायन शास्त्र के अलावा सभी विषयों में अच्छे अंक मिले थे। प्रैक्टिकल में फेल था। (पृ-81) इसके बावजूद यदि कोई दलित शिक्षा ग्रहण कर भी लेता है तो सवर्ण उसको मान्यता नहीं देते। बार-बार एहसास कराते हैं कि शिक्षा से भी उसकी सामाजिक स्थिति में कोई असर नहीं पड़ेगा। उसकी सारी शिक्षा, ज्ञान, प्रतिभा व उत्साह मात्र एक वाक्य कहकर रद्द कर दिया जाता है कि कितना बी पढ़ लो .... रहोगे तो चूहड़े ही।' (पृ-43)हिरम सिंह के विवाह की सलामी के दौरान सवर्ण स्त्रियों के ये 'सहज' वाक्य सब कुछ कह देते हैं। सवर्ण मानसिकता हर संभव कोशिश करती है कि दलित शिक्षा प्राप्त न कर सकें यदि किसी तरह कर भी लें तो उससे चेतना व संघर्ष की हिम्मत न आए। सूरजभान तगा के बेटे बृजेश का स्कूल जाते ओमप्रकाश वाल्मीकि से किया व्यवहार स्पष्ट करता है। मुझे देखते ही उसने बड़बड़ाना शुरू किया। मैं अनसुना करके चलता रहा। कोठी (नहर विभाग का निरीक्षण भवन) के पास पहुंचते ही, उसने आवाज दी। स्कूल थोड़ी-सी दूर रह गया था, अबे चूहड़े के, रूक जा।' मैंने मुड़कर उसकी ओर देखा, उसके चेहरे पर शैतानी झलक रही थी। मेरे करीब आकर वह बोला, चूहड़े के, तेरे तो सचमुच सींग निकल आए हैं। तू तो बड़ी शेखी में रहता है। तेरी तो चाल ही बदल गई है।' बिना उत्तर दिए मैं जाने लगा तो उसने आगे बढ़कर मेरा रास्ता रोक लिया। डाँटते हुए बोला, 'सुणा है, तू पढऩे में हुशियार है।' उसने लाठी का एक सिरा मेरे पेट में गाड़ दिया था, करके हमें भी तो दिखा तू कितना हुशियार है।' वह झगड़े पर उतारू था। मैं झगड़े से बचना चाहता था। मुझे चुप देखकर वह फिर गुर्राया, कितना भी पढ़ लियो, रहेगा तो चूहड़ा ही......' उसने मुझे लाठी से धिकाया। मैं गिरते-गिरते बचा, लेकिन मेरा झोला जमीन पर गिर पड़ा था। उसने उस झोले को लाठी में फंसाकर उफपर उठा लिया और गोल-गोल घुमाने लगा। मैं उसके आगे गिड़गिड़ा रहा था।' मेरी किताबें बिखर जाएंगी ... मेरा झोला दे दो ... कापियाँ फट जाएँगी ...' वह नहीं माना और जोर से घुमाकर उसने झोला दूर पेफंक दिया। मैं उठाने के लिए दौड़ा तो वह कहकहे लगाकर हँसने लगा। मेरा झोला सड़क के किनारे खाई में गिर गया था, जहां पानी और कीचड़ भरा हुआ था। झोला निकालने में मेरे कपड़े भीग गए थे। पाँव कीचड़ में सन गए थे, झोले में किताबें और कापियाँ भीग गई थीं, जिन्हें देखकर मुझे रोना आ गया था।' (पृ- ४०) बृजेश की लाठी है ब्राह्मणवादी सत्ता व विचारधारा का प्रतीक, जिसके आगे दलित की विद्या की होशियारी काम नहीं करेगी। इस लाठी के सहारे ही वे उसकी विद्या को पफेंक देंगे। ब्राह्मणवादी विचारधारा में छिपे शोषण के समर्थन व इस शोषण से मुक्ति पाने की दलितों की यह छटपटाहट वर्ग-संघर्ष ही तो है। शोषण के इस रूप को पहचान कर ही इससे लड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित मुक्ति संघर्ष में शिक्षा की भूमिका को तो पहचाने ही हैं, साथ ही शिक्षा की सीमाओं को भी रंखांकित करते हैं कि मात्र शिक्षा ग्रहण करने से ही समाज से जाति प्रथा मिटने वाली नहीं है इसके लिए वैज्ञानिक व मानवीय दृष्टि की आवश्यकता है। शिक्षा में भी ब्राह्मणवादी विचारों व कुतर्कों ने अपनी जगह बना ली है। आजादी के बाद भारत के निर्माताओं ने सोचा था कि शिक्षा के प्रसार से ही जाति-वर्ण आदि की बुराइयां समाज से स्वत: ही मिट जाएंगी, लेकिन उनका यह मानना गलत ही साबित हुआ क्योंकि शिक्षा के समस्त कारोबार पर ब्राह्मणवादियों का ही आध्पित्य रहा। इसलिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी और विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी जाति, वर्ण, लिंग, समुदाय, सम्बन्धी पूर्व धारणाएं, रूढिय़ां, अंधविश्वास व अतार्किकता कायम रही। नरेन्द्र कुमार त्यागी गणित के शिक्षक थे वे ओमप्रकाश वाल्मीकि से मटकों से पानी मंगाते हैं लेकिन वे वापस आ जाते हैं और कहते हैं मास्साब, मैं उन मटकों को छू भी नहीं सकता, किसी और को भेज दीजिए ...'
मास्टर साहब ने आश्चर्य से पूछा,' क्यों?'
मैंने सहज भाव से कहा, 'मेरी जाति चूहड़ा है।'
वह फटी-फटी आँखों से मेरी ओर देखने लगा। उसे इस तरह अपनी ओर देखते हुए पाकर मैंने कहा, 'इसके बावजूद भी आप कहते हैं तो मैं लेकर आता हूँ ...' वह जैसे नींद से जागा, 'नहीं ... बैठ जाओ ...' और स्वयं ही पानी पीने चला गया।
मुझे लगा, गणित में मास्टर डिग्री लेकर भी यह मास्टर कितना बौना है। जिसमें इतना भी साहस नहीं है कि मेरे हाथ का पानी पी सके।' (पृ-८०)
'जूठन' सदियों से दबी कुचली आबादी को हीनता बोध से उबारने की कोशिश करती है। धार्मिक पाखण्ड व ईश्वरवाद में छिपी ब्राह्मणवादी विचारधारा की पहचान करवाती है तथा भूमि-संबंधों के बदलने में छुपे दलित मुक्ति के बीज को पहचानती है, जो संघर्ष के रास्ते को खोलती है। सवर्ण मानसिकता में दलितों के प्रति हिंसा, नफरत व पूर्वाग्रहों को उदघाटित करती है।

मीरा

मीरा
सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय , कुरुक्षेत्र

पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के स्तम्भों पर टिकी ब्राह्मणवादी सोच भारतीय समाज में असमानता और भेदभाव को वैधता देकर प्रश्रय देती रही है। जहां पितृसत्ता ने समाज की आधी आबादी यानी कि औरतों के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारकर मानवीय गरिमा से वंचित किया वहीं वर्ण-व्यवस्था ने शेष आधी आबादी यानी शूद्रों को ज्ञान, शक्ति और सम्पति के अधिकार से वंचित करके 'सेवा' के अधिकार के नाम पर उनको गुलामों का सा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया। इस सामाजिक भेदभाव को वैधता प्रदान करने के लिए व जन मानस की चेतना का हिस्सा बनाने के लिए ब्राह्मणवादियों ने सैंकड़ों कहानियां गढ़ी, जिनमें ईश्वर व देवताओं को नायक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए पितृसत्तात्मक व वर्ण-धर्म आधारित मान्यताओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। यह भी सही है कि ब्राह्मणवादी विचारों से पीडि़त जन समुदाय किसी न किसी रूप में इनके विरुद्घ आवाज उठाता रहा है। मानव की प्रगति व मानवता का विकास चाहने वालों की सहज बुद्घि ने इस बात को पहचान लिया था कि भेदभाव को मान्यता देने वाली संस्थाओं व मूल्यों को जड़ से समाप्त किए बिना मानवता का आदर्श स्थापित नहीं हो सकता। इसलिए यह संघर्ष समाज में लगातार चलता रहा और चाहे लोकायत हों या फिर महात्मा बुद्घ व महावीर जैन के आन्दोलन हों सबने समाज की लगभग तीन-चैथाई आबादी को नारकीय जीवन जीने पर बाध्य करने वाली सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाया। कबीर, नानक, रविदास व मीरा जैसे समाज सुधारक व चिन्तक कवियों ने ब्राह्मणवाद की तथाकथित शाश्वतता, पवित्रता व सार्वभौमिकता पर उंगली उठाकर जन्म आधारित श्रेष्ठता और उच्चता को चुनौती दी। आलोचनात्मक दृष्टि अपनाकर ज्ञान, सम्पति, ईश्वर, गुरु व साधु की प्रचलित अवधरणाओं पर सवालिया निशान लगाया और इन्हें जन-दृष्टि से पुनर्परिभाषित किया। शास्त्रों के खोखले ज्ञान व खाने की शुचिता पर आधारित श्रेष्ठता के मुकाबले लोक-ज्ञान व व्यवहारिक-जीवन के आचरण की पवित्रता व शुद्घता को प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया। संत-कवियों ने लोगों की चेतना पर जमी ब्राह्मणवाद की काई को साफ करने के लिए तर्क-विवेक को आधार बनाया तो अपने जीवन में इन प्रचलित मान्यताओं से संघर्ष करके लोगों के प्रेरणा स्रोत बने।
मीरा का जन्म सन् 1512 ई. में मेड़ता के राठौर वंश में रत्नसिंह के घर हुआ। मीरा के दादा दूदा के पांच पुत्र थे - वीरमदेव, रायसल, पंचायणा, रत्नसिंह तथा रायमल। दूदाजी ने मीरा के पिता रत्नसिंह को खर्च के लिए बारह गांव दिए हुए थे। कुड़की नामक गांव उनका केन्द्र था। कुड़की में पहाड़ी पर बसे छोटे-से दुर्ग में मीरा का जन्म हुआ। कुड़की मेड़ता से अठारह मील दूर है।
मीराबाई ने अपने जीवन व अपनी रचनाओं में पितृसत्ता को चुनौती दी, जिसने समस्त समाज को प्रभावित किया। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उसको किसी पुरुष के साये की जरूरत है। बचपन में पिता का, जवानी में पति का और बुढ़ापे में बेटे का अनुशासन स्वीकार करना होगा। स्त्री की कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है वह किसी की मां है, बेटी है, बहन है, पत्नी है। परिवारों में उसको शायद ही अपने नाम से पुकारा जाता हो उसकी उपस्थिति इन सम्बन्धों में ही है। पुरुष के बिना स्त्री की स्वतंत्र पहचान को मान्यता नहीं थी इसीलिए बांझ व विधवा को सामाजिक बहिष्कार के अपमान व प्रताडऩा से गुजरना पड़ता था। बिना भाई की बहन की लड़की की शादी होने में कुछ सालों पहले तक भी दिक्कत आती रही है।
मीरा ने स्त्री की स्वतंत्र पहचान मिटाने वाली व्यवस्था को मानने से इनकार कर दिया और इसके लिए लड़ी कि बेटी, मां या पत्नी से पहले स्त्री एक इन्सान भी है। विवाह के बाद स्त्री की पहचान उसके पति से होती है,पति ही उसकी पहचान है,पति के आराध्य ही उसके इष्ट हो जाते हैं, पति की मर्यादा ही उसकी मर्यादा है। आज भी पति का गोत्र ही उसकी पत्नी का गोत्र हो जाता है। कुल बात यह है कि स्त्री को अपनी पहचान मिटा कर पति की पहचान धारण करनी पड़ती है। मीरा को यह बात मंजूर नहीं थी। मीरा राठौर की रहने वाली थी वह अपने ससुराल मेवाड़ में भी मीरा राठौड़ी के नाम से जानी गई। विवाह के बाद मीरा जब ससुराल गई तो ससुराल के देवी देवताओं की पूजा अर्चना के लिए कहा गया, लेकिन उसने इनकार कर दिया, क्योंकि मीरा के मायके वैष्णव थे और ससुराल के शैव थे।
मीरा के पति की मृत्यु हो गई तो तत्कालीन परम्परा के अनुसार मीरा को इस अंधविश्वास को मानते हुए अपने पति के साथ जलकर मर जाना चाहिए था कि पुरुष की अर्धांगिनी के रूप में उसका आधा शरीर यानी उसकी पत्नी जब तक जिन्दा है तब तक उसके पति को स्वर्ग में प्रवेश का गेट पास नहीं मिलेगा और उसकी आत्मा स्वर्ग में अप्सराओं के साथ मस्ती करने व ऐश्वर्य आदि अन्य साधनों से वंचित रह जायेगा। स्त्री की मौत पर पुरुष को मुक्ति दिलाने वाली अमानवीय विचारधारा का मीरा ने विरोध किया। मीरा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता को मानते हुए सती होने से इनकार कर दिया।

गिरधर गास्यां सती न होस्यां,
मन मोह्यो धन नामी।
जेठ बहू नहीं राणा जी,
मैं सेवक हूं स्वामी।
चोरी करां नहीं जीव सतावां,
कांई करेगो म्हारो कोई।
राज सूं उतरि गधे नहीं चढस्यां,
या तो बात न होई।
चूड़ो तिलक दोवड़ो अरुमाला, सील बरत सिणगार।
और वस्तु रति नहीं मोहै कोई निन्दो,
म्हों तो गोबिन्द जी का गास्यां।
जिण मारण वे सन्त गया छै,
उण मारण म्हें जास्यां।

साज सिंगार बांध पग घुंघर, लोक-लाज तज नाची।
गयां कुमत लयां साधं संगत, श्याम प्रीत जग सांची।
श्याम बिणा जग खारां लागां, जगरी बातां कांची।
जब मीरा अपने पति के साथ जलकर नहीं मरी तो उसके सामने शादी का प्रस्ताव पेश कर दिया, क्योंकि पुरुष प्रधान विचारधारा में स्त्री को अकेली यानी स्वतंत्र छोड़ऩा इस पूरी व्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है। आज भी लोक प्रचलित है कि 'रांड सांड हो जाती है'। वह सांड न हो जाए और कोल्हू का बैल ही बनी रहे इसके लिए जरूरी है उसको नाथना। लेकिन मीरा ने शादी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और निर्णय सुना दिया कि वह बिना शादी के अकेले ही अपना जीवन व्यतीत करेगी।
लेकिन मीरा का यह फैसला धृष्टता लगी और उससे जबरदस्ती विवाह करने की ठान ली। 'कुल मर्यादा' व 'खानदान की इज्जत' व मीरा की यानी एक स्त्री की 'मर्यादा व इज्जत' फिर आमने सामने हो गए। मीरा ने खानदान व कुल की झूठी इज्जत से अधिक महत्त्व दिया स्त्री के सम्मान को। जब मीरा को किसी भी तरह नहीं दबाया जा सका। तो कभी जहर देकर तो कभी जहरीले सांप से डसवा कर उसकी हत्या करने की योजनाएं बनाइं गर्यीं, जिसमें उनको कामयाबी नहीं मिली।

मैं गोबिन्द के गुण गाणा।
राजा रूठे नगरी त्यांगां।
हरि रूठे कहां जाणा।
राणे भेज्या विष रो प्याला
अमृत समझ पी जाणा।
डबिया में भेज्या जी भुंजगम,
सालिगराम पिछाणा।
मीरा री प्रेम दिवाणी
मैं सांवरिया वर पाणा।।

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
छांडि़ दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।।
सन्तन ढिंग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोई।।
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेलि बोई।।
अब तो बेल फैल गई, आणन्द फल होई।।
खानदान की इज्जत के नाम पर आज के समाज में भी औरतों को मौत के घाट उतार दिया जाता है पाकिस्तान में कई घटनाएं हो चुकी हैं और अपने यहां हरियाणा में भी 'ऑनर किलिंग' या 'प्राइड डेथ' पिछले दिनों काफी चर्चित रहे हैं। और मीरा ने जब देखा कि सामन्ती परिवार व्यवस्था में उसका निबाह नहीं हो सकता तो उसने इसको ठोकर मार दी और स्वछन्द जीवन बिताने लगी। लोक लाज और कुल मर्यादा सामन्ती समाज के ऐसे हथियार हैं जिनको बनाते तो हैं पुरुष लेकिन निभाना पड़ता है औरतों को। 'कुल की कान' सामन्ती मूल्य है, जिसकी अनुपालना के लिए स्त्री को अपनी स्वतंत्रता व अस्तित्व की बलि देनी पड़ती है।

आली मोसों हरि बिन रह्यो न जाय।
सास लड़ै मेरी नन्द खिजावै, राणा रह्या रिसाय।
पहरो भी राख्यो चैकी बिठार्यो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाय।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, अवरू न आवै म्हांरी दाय।

मीरा ने पुरुष-प्रधान पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री को बंधक बनाए जाने वाली प्रक्रियाओं की पहचान कर ली थी और पाया था कि चाहे परिवार पीहर का हो या फिर ससुराल का दोनों में स्त्री की बराबरी के लिए कोई जगह नहीं है अत: दोनों का त्याग करके ही वह स्वतंत्रता हासिल कर सकती है इसलिए मीरा ने दोनों को ही छोड़ दिया।
राणा जी! अब न रहूंगी तोरी हटकी।
साध संग मोहि प्यारा लागै, लाज गई घूंघट की।
पीहर मेडता छोड़़ा आपण, सुरत निरत दोऊ चटकी।
हार सिंगार सभी ल्यो अपना, चूरा कर की पट की।
महल किला राणा मोहि न चाहिए, सारी रेसम पट की।
हुई दीवानी मीरा डौले, केस लट सब छिटकी।
मीरा ने 'राजा रूठे नगरी त्यागां कहकर स्त्री का मान-मर्दन करने वाली पुरुष प्रधान सामन्ती सत्ता को सीधी चुनौती देकर स्त्री स्वतंत्रता के रास्ते खोले। अपने भजनों में अपनी पसन्द के संबंध और संगति अपनाने की निजी स्वतंत्रता की जोरदार वकालत की गई। वे ईश्वर के साथ संबंध हों या समाज के साथ हों, अछूत कहे जाने वाले लोगों के साथ हों या संतों के साथ हों। सामन्ती समाज में चुनाव की छूट नहीं होती और पुरुष प्रधन समाज में स्त्री के लिए तो इसकी बहुत कम गुंजाइश थी।
मीरा ने स्वामी भक्ति के मूल्यों को चुनौती दी, जिसे कि सामन्ती व्यवस्था ने बगावत समझा इसलिए राजस्थान के राजपूतों में मीरा का नाम गिरी हुई औरतों के लिए एक गाली की तरह उपयोग किया जाता है, मीरा ने राजपूतों की 'इज्जत' को मिट्टी में मिलाने की कोशिश की थी उसका नाम लेना जले पर नमक छिड़कना था तो लोग मीरा को खुलेआम कैसे गा सकते थे या पूज सकते थे। लेकिन दलित समाज में मीरा जरूर गाई जाती रही हैं।
सामन्ती समाज में प्रेम वर्जित है, क्योंकि प्रेम में बराबरी होती है जिसे सामन्ती सत्ता किसी कीमत पर सहन नहीं करती। संतों ने इसीलिए प्रेम को अपने काव्य का केन्द्रीय तत्त्व बनाया था। प्रेम में व्यक्ति स्वयं चुनता है और सामन्ती व्यवस्था इसकी छूट नहीं दे सकती। मीरा ने अपने प्रेम को सार्वजनिक किया और इसे भावुकता या अनजाने में उठाया कदम नहीं बल्कि बहुत सुविचारित कहा।
माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल।
कोई कहै हलको, कोई कहै भारो, मैं तो लियो है तराजू तोल।
कोई कहै सोगो, कोई कहै मैगो, मैं तो लियो है अमोलख मोल।
कोई कहै छानै, कोई कहै चैड़े, मैं तो लियो है,बजन्ता ढोल।
कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, मैं तो लियो है अंखिया खोल।

राणा जी म्हांने या बदनामी लागे मीठी।
कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अनूठी।
सांकली गली में सतगुरु मिलिया, क्यूंकर फिरूं अपूठी।
सतगुरु जी सूं बांता करता, दुरजन लोगां ने दीठी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, दुरजन जलो जा अंगीठी।
रचनाकार अपने समाज को अभिव्यक्त करने के लिए किसी न किसी को माध्यम के रूप में या प्रतीक के रूप में प्रयोग करता है। मध्यकालीन संतों ने ईश्वर के विभिन्न रूपों के अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया।
हरि तुम हरो जन की पीर।
द्रौपदी की लाज राखी, तुरत बढायौ चीर।
भक्त कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।
हिरण्यकुश मारि लीन्हो, धर्यो नाहिन धीर।
बूड़तो गजराज राख्यौ, कियो बाहर नीर।
दासि 'मीरा' लाज गिरधर, चरण कंवल पर सीर।
मीरा के पदों में श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ प्रेम-क्रीड़ा का वर्णन या उसके जीवन के अन्य प्रसंगों का वर्णन नहीं मिलता,जबकि श्रीकृष्ण के अनेक रूप प्रचलित थे। मीरा में सुरक्षा की गारंटी देने वाला सिर्फ वीर श्रीकृष्ण ही आता है। मीरा का श्रीकृष्ण गिरधर है, ताकतवर श्रीकृष्ण जो कि अपने विरोधी का अहंकार भी तोड़ सकता है और अपने भक्त या प्रेमी की रक्षा भी कर सकता है। ऐसे आराध्य की मीरा को स्वयं भी जरूरत थी। मीरा ने कृष्ण को वास्तव में ही पति मान लिया था और वह उस कल्पित प्रेम को पाने के लिए लड़ी, यह बात कुछ जचती नहीं यह मीरा को एक अविश्वसनीय बना देता है। असल में मीरा का यह श्रीकृष्ण को पति के रूप में मानना और उसको सार्वजनिक करना उसका बचाव पक्ष है। अपना बचाव वह विधवा रहकर नहीं कर सकी तो उसने दिखावे के लिए एक पति बना लिया। श्रीकृष्ण का मीरा ने सिर्फ इतना ही उपयोग किया है। अब समाज की नजरों में वह विधवा नहीं है और सुहागिन की तरह से ही श्रृंगार करती है।

हरियाणा का साहित्यिक परिवेश में कविता के जनवादी स्वर

हरियाणा का साहित्यिक परिवेश में कविता के जनवादी स्वर
पुस्तक की भूमिका
डा. सुभाष चन्द्र,  हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

जनता के हितों को परिभाषित व कार्यान्वित करने वाला दर्शन, चिन्तन या विचारधारा ही 'जनवाद' है। वर्ग-विभक्त समाज में शासक व शाषित तथा शोषक व शोषित वर्गों में निरन्तर विचारधारात्मक संघर्ष रहता है। इस संघर्ष में जहां एक ओर शोषक-शासक वर्ग के साधनों पर अपने स्वामित्व, सामाजिक वर्चस्व तथा राजनीतिक सत्ता का औचित्य ठहराने के लिए विभिन्न तर्क रचता है, तो दूसरी ओर जन-सामान्य शोषण से मुक्ति व जीवन की बेहतरी के लिए अपने हितों को परिभाषित करता है। जनता की शोषण से मुक्ति, साधनों पर स्वामित्व तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का औचित्य ठहराने वाला दर्शन ही जनवाद है।
जनवाद के लिए 'जनतंत्र', 'प्रजातंत्र', 'लोकतंत्र' आदि शब्द भी प्रयोग किए जाते हैं। जनवाद एक व्यापक शब्द है, जो जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक हितों को समाहित करता है, जबकि ये शब्द शासन-सत्ता व राजनीतिक संदर्भ तक ही सीमित रहते हैं।
'जनवाद' शब्द में 'जन' शब्द काफी महत्वपूर्ण है, जिसे आमतौर पर तो मानव मात्र के लिए प्रयोग किया जाता है, लेकिन जब इसके साथ 'वाद' लगाया जाता है तो इसका प्रयोग समाज के दलित, शोषित, वंचित, किसान, श्रमिक, नौकरीपेशा लोगों के लिए किया जाता है। शोषणपरक व्यवस्थाओं में समाज के सभी स्तरों पर शोषण होता है, लेकिन जो वर्ग सबसे निम्न स्तर पर होते हैं उनका सर्वाधिक शोषण होता है। सर्वाधिक शोषितों के हितों को परिभाषित करने वाला दर्शन जनवाद है।
जनवाद और माक्र्सवाद में प्रवृतिगत समानता है, लेकिन पर्यायवाची नहीं हैं, जैसा कि आमतौर पर मान लिया जाता है। जनवादी होने के लिए माक्र्सवादी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है, लेकिन माक्र्सवादी के लिए जनवादी होना अनिवार्य है। माक्र्सवादी दृष्टि जनता के हितों को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित व परिभाषित करने में सहायता करता है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, नस्ल, लिंग आदि के आधर पर भेदभाव के बिना सबको विकास के समान अवसर प्राप्त करना तथा 'समता, स्वतंत्रता और भाईचारा' जनवाद का संकल्प है। माक्र्सवाद इन मूल्यों को अपनाता है, इसलिए माक्र्सवादी साहित्य जनवादी मूल्य अपनाने व उनको प्राप्त करने के लिए चेतना का विकास और संघर्ष करने का साहस पैदा करता है।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म, नस्ल, क्षेत्र की संकीर्णता आधारित पहचान व सामन्ती संरचनाएं जनवादी चेतना के विकास में बाधक हैं। पहचान के संकीर्ण दायरों को तोड़कर ही वर्गीय पहचान संभव है, जो जनवादी चेतना के लिए अनिवार्य है। मानव को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग, नस्ल की संकीर्णताओं से बाहर निकालकर मानवीय पहचान देना जनवादी सरोकारों में प्रमुख है। मानवीय पहचान व गरिमा के लिए संघर्ष करना इसकी अगली कड़ी है।
संकीर्णताओं को त्यागकर मानवीय पहचान के लिए तथा जनवाद की दिशा में साहित्य ने हमेशा ही प्रयास किया है, लेकिन इसके लिए संगठित व योजनाबद्ध प्रयास की शुरूआत सन् 1936 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से हुई। इस अवसर पर प्रेमचन्द ने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य की कसौटी बदलने की बात कहकर इसे परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।" इसके बाद से साहित्य में जनवादी मूल्यों को प्रमुखता से स्थान दिया। जनता के हितों व संघर्षों को साहित्य में अभिव्यक्ति मिली, जिससे जनता के संघर्षों में भी नई जान आई। साहित्य में प्रगतिवाद नामक आन्दोलन उभरा, जिसने मजदूरों, किसानों, वंचितों, पीडि़तों, शोषितों की स्थिति को प्रमुखता से अभिव्यक्ति दी। साहित्य-संस्कृतिकर्मियों ने जनता के तकलीफों में शामिल होकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जनवादी चेतना ' इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोश्यिेशन) के आन्दोलन ने बंगाल के अकाल के दौरान जनता की मदद की थी।
जनता के पक्षधर्र साहित्य के स्वरूप को लेकर निरन्तर चर्चा रही है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस पक्ष पर गहराई से विचार करते हुए लिखा कि "जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है।" मुक्तिबोध ने जनता के साहित्य की पहचान, जनवादी साहित्य के सरोकारों को सही परिभाषित किया है। उन्होंने जनवादी सौंदर्य के तत्वों को भी व्याख्यायित किया है, जो जनवादी साहित्य के मूल्यांकन की आधर बने हैं। उन्होंने ''जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से क्रांति-पथ पर मोडऩे वाला साहित्य, मानवीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला, स्वातन्त्रय और मुक्ति के गीतों को गाने वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा व स्नेह के सुकुमार दृश्यों" वाले साहित्य को जनवादी सरोकारों के साहित्य में सम्मिलित किया है।
जनवादी साहित्य 'कला के लिए कला' में नहीं, बल्कि 'जीवन के लिए कला' में विश्वास करता है, इसलिए जीवन को बेहतर बनाने वाले समस्त तत्वों का कलात्मक समर्थन तथा जीवन को विकृत करने वाले तत्वों का विरोध इसकी स्वाभाविक प्रवृति है। शोषक-शासक राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण करके ही जनता का शोषण करता है, इसलिए शोषक वर्ग के राजनीतिक मंतव्यों का उद्घाटन तथा उसकी सत्ता की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिए जनवादी रचनाकार राजनीतिक विषयों पर रचना करने से परहेज नहीं करते। साहित्य में जनपक्षीय राजनीति व विचारधारा नारों के रूप में नहीं, बल्कि दृष्टि के तौर पर निहित रहती है। सर्वमान्य विचार है कि जो साहित्यकार अपने वर्ग की राजनीति को अन्य मूल्यों के साथ जितना संबद्ध् करके प्रस्तुत करता है, वह उतना ही अपने मंतव्य में सफल कहा जाता है। महाभारत और रामायण में राजनीति के प्रस्तुतिकरण को आदर्श माना जा सकता है। यहां राजनीति को एक बड़े सवाल के साथ प्रस्तुत किया गया है अत: उसमें सीधे सत्ता संघर्ष होते हुए भी राजनीति अखरती नहीं है।
समाज में जनवादी आन्दोलन ने साहित्य को प्रभावित किया है, जिस क्षेत्र में जनवादी आन्दोलन का रूप तीखा रहा है, वहां के साहित्य में जनवादी मूल्य भी उतनी प्रखरता के साथ आए हैं। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन का उदाहरण हमारे सामने है, वहां जोतिबा पूफले और डा. भीमराव आम्बेडकर के आन्दोलन बहुत ही प्रखर रहे हैं, तो दलित-साहित्य भी वहीं पनपा और अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। किसी क्षेत्र या समाज का साहित्यिक परिदृश्य असल में उसके व्यापक परिदृश्य का ही अंश होता है। समाज के व्यापक परिदृश्य में उसके साहित्यिक परिदृश्य का आकलन एवं विश्लेषण किया जा सकता है।
हरियाणा क्षेत्र में स्वतंत्रता-आन्दोलन कमजोर था। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान आधुनिक मूल्यों की स्थापना समाज में हुई वह भी यहां लगभग नदारद ही रही। स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दौरान कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति भी हरियाणा में जातिगत व क्षेत्रीय संकीर्णताओं के दायरे में ही सिमटी रही। धर्मनिरपेक्ष व जनवादी परम्पराएं ठोस जगह यहां नहीं बना पाईं। यहां के समाज में आधुनिक राजनीति व संस्थाएं परम्परागत ढांचों में ही आई। आधुनिक संरचनाओं में परम्परागत विचारधारा ही अपनी जडें जमाए रही, जबकि साहित्य का फूल हमेशा नवीनता की जद्दोजहद में ही खिलता है। हरियाणा के राजनीतिक-सांस्कृतिक विचारधारात्मक पिछड़ेपन के कारण यहां का साहित्य भी पिछड़ा ही रहा, पिछड़ेपन की यह परम्परा अभी भी जारी है। मध्यकाल में दो-चार नाम बड़े साहित्यकारों के लिए जा सकते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में हरियाणा से था। आधुनिक काल में अल्ताफ हुसैन 'हालीÓ और बाबू बालमुकुन्द गुप्त के नाम लिए जा सकते हैं, जिन्होंने साहित्य को नई जमीन प्रदान की। इसके बावजूद हरियाणा में साहित्य की समृद्ध परम्परा नहीं रही। मध्यकाल में साहित्य लेखन व संरक्षण के केन्द्र या तो धार्मिक मठ थे या राजाओं-सामन्तों के दरबार। हरियाणा में इक्का-दुक्का स्थानों को छोड़कर ऐसा कोई साहित्यिक केन्द्र नहीं उभरकर आया, जिससे कि साहित्य लेखन व पठन-पाठन की संस्कृति विकसित होती।
हरियाणा के वर्तमान साहित्य पर नजर डाली जाए, तो यहां प्रगतिशील व जनवादी रचनाकार भी काफी बड़ी संख्या में हैं और जेनुइन साहित्यकार के तौर पर उनकी समाज में पहचान है। उनके साहित्यिक मूल्य व सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर नजर आ जाते हैं। इनके लिए साहित्य लेखन मात्र अपनी प्रतिष्ठा या कला-कौशल के प्रदर्शन का क्षेत्र नहीं है, बल्कि कुछ आदर्शों व मूल्यों को समाज में स्थापित करने का माध्यम है। साहित्य से उनकी सामाजिक अपेक्षाएं व सरोकार उनके विषयवस्तु के चयन व उसके प्रस्तुतिकरण को प्रभावित करते हैं। इन रचनाओं के केन्द्र में दलित, पीडि़त, वंचित वर्ग हैं, जीवन के लिए संघर्ष करते आम जन हैं, जिजीविषा लिए हुए जीते-जागते चरित्र हैं। समाज को बेहतर बनाने की छटपटाहट इनकी रचनाओं में साफ दिखाई देती है। समाज को बदलने व बेहतर करने का संकल्प ही यथार्थ को उसकी जटिलता में प्रस्तुत करने की ओर ले जाता है।
हरियाणा के समाज के विभिन्न वर्गों की आकांक्षाओं को, पीड़ाओं को, समस्याओं को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले साहित्यकारों में प्रमुख तौर पर तारा पांचाल, मनमोहन, विजय कुमार सिंघल, बलबीर सिंह राठी, ओमप्रकाश ग्रेवाल, आबिद आलमी, प्रदीप कासनी, ओमसिंह अशफाक, हरभगवान चावला, जयपाल, स्वदेश दीपक, ज्ञानप्रकाश विवेक, ललित कार्तिकेय, सही राम, भगवान दास मोरवाल, अमृतलाल मदान, रामकुमार आत्रोय, ब्रजेश कृष्ण, राणा गन्नौरी, पुरन मोदगिल, महेन्द्र प्रताप चांद आदि का नाम लिया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा के साहित्यकार की प्रभावी उपस्थिति के बावजूद हरियाणा के साहित्य-भण्डार में बोलबाला यथास्थितिवादी रचनाकारों का ही है, जो साहित्य की प्रतिबद्धता के सवाल पर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। तटस्थता की आड़ में 'कला के लिए कलाÓ के विचार का समर्थन करते हुए साहित्य की सामाजिक भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लगाते रहते हैं। सामाजिक दायित्व विहिन साहित्य में इकहरा यथार्थ रचनाओं की नियति बन जाता है। समाज में घटित किसी घटना को कलमबद्ध कर देने से कोई साहित्यकार न तो पाठकों पर प्रभाव छोड़ पाता है और न ही उनकी समझ को विकसित कर पाने में ही कोई मदद कर पाता है। रचनाकार को रचना में यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए जिस मेहनत की आवश्यकता होती है वहीं आकर रचनाकार का साहस चुक जाता है। अधिकांश रचनाकार बड़ी सहजता से कह देते हैं कि कविता का 'प्रस्फुटन' हुआ है। साहित्य-रचना उनके लिए 'दैवीय गुण' है, 'जन्मजात प्रतिभा' का नतीजा है, जिसमें वे कुछ खास नहीं कर सकते। साहित्य-सृजन का यह सैद्धान्तिक आग्रह व्यक्तिगतता तक सिकोड़ देता है। साहित्य उनके लिए समाज परिवर्तन का औजार नहीं रहता, बल्कि वह रसास्वादन का माध्यम बन जाता है। आत्ममुग्धता की स्थिति में रचनाकार अपने पर ही रिझा हुआ है और समाज हो रहे बड़े-बड़े आन्दोलन व परिवर्तन को न तो उनकी दृष्टि पहचान पाती है और न ही वे उनके साहित्य की रचनाओं का विषय ही बन पाती हैं।
यदि साहित्य-रचना की मात्र पर नजर डाली जाए तो बड़ी मात्र में साहित्य प्रकाशित हो रहा है। हरियाणा में साहित्य सृजन की मात्र तो निराश करने वाली नहीं है। हर वर्ष कितने ही कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह व अन्य साहित्यिक विधाओं में सृजनात्मक साहित्य के नाम पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। सैंकड़ों नाम लिये जा सकते हैं जो साहित्यकार के तौर पर समाज में प्रतिष्ठित हैं। इसी स्थिति ने हरियाणा के साहित्य और समाज में घटित हो रही घटनाओं का तथा साहित्य के यथार्थ का कोई सम्पर्क नहीं बन रहा है। समाज में कुछ घटित हो रहा है और साहित्य किसी दूसरी ही दुनिया का परिचय दे रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हरियाणा में अमानवीयता और बर्बरता की घटनाएं घटी हैं, लेकिन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति लगभग नदारद है। दलित उत्पीडऩ की भयावह घटनाएं तो घटनाओं पर तो चुप्पी जैसी स्थिति ही है और लड़कियों का हरियाणवी समाज से गायब होना जितनी चिन्ता का विषय समाजशास्त्रियों के लिए बना, उतना साहित्यकारों के लिए नहीं। पूरी परिस्थिति को उद्घाटित करती रचनाओं का घोर अकाल है, लेकिन इस विषय पर भावुक किस्म की रचनाएं अवश्य आई हैं।
हरियाणा के साहित्य पर नजर डालने पर एक चिन्ताजनक पक्ष - साहित्यकारों का वास्तविक हरियाणा के अपरिचय का है। साहित्यिक रचनाओं में हरियाणा का बहुत ही छोटे से वर्ग की समस्याएं नजर आती हैं। हरियाणा का अधिकांश समाज कृषि पर आधरित है और गांवों में रहता है, लेकिन साहित्य में शहरों रहने वाले मध्यवर्ग का छोटा सा हिस्सा ही छाया हुआ है। गांव यदि कहीं आया भी है, तो वह इतने सीधे सपाट ढंग से कि उसके अन्तर्विरोध प्रकट नहीं होते। शहरी जीवन से गायब सामुदायिकता और भाईचारे का स्थानापन्न की जगह के रूप में ही गांव मौजूद है। संवेदनशील मन का कल्पित गांव तो यहां दिखाई देता है, लेकिन वास्तविक गांव नहीं। गांव के बारे में बड़ी ही 'नास्टेलजिक' भावना है। नए विकास व बदलते संदर्भों में गांव का नया स्वरूप यहां नहीं है। 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?, क्यों न सबका मन ललचाए' वाली रोमानी छवि ही हावी है। अपने अस्तित्व मात्र के लिए लड़ती गांव की अधिकांश आबादी यहां से पूर्णत: गायब है।
समाज में परिवर्तनकामी वर्गों की चेतना धरण किए बिना व उनके संघर्षों में शामिल हुए बिना कोई रचनाकार हो रहे परिवर्तनों को बहुत विश्वसनीय ढंग से अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता। परिवर्तन के आन्दोलन से कटकर रचना करने वाले साहित्यकारों की स्थिति 'शतरंज के खिलाडिय़ों' जैसी ही होती है, जो अपने साहित्यिक शतरंज के खेल में इतने मस्त हैं कि सामाजिक परिवर्तन उनके पास से ही गुजर जाते हैं।
एक-दूसरे को सम्मानित करने का 'दोस्ती-धर्म' निभाने की परम्परा ने यहां साहित्य-विमर्श को उभरने नहीं दिया। इस माहौल में साहित्य की समीक्षा का स्तर लगभग ऐसा है जैसा कि शादी में 'सेहरा' पढ़ा जाता है। समीक्षा में रचनाशीलता की ताकत व कमजोरी को उद्घाटन करने की बजाए लेखक की 'आरती' गाई जाती है। इस महिमामंडन में लेखक भी आनन्दविभोर होता है और इसी में कथित समीक्षक अपनी 'शास्त्रीय' प्रतिभा का प्रर्दशन करता है। रचना के विकास में इस 'स्तुति-संस्कृति' ने बहुत नुक्सान किया है। आग में तपकर ही सोने में चमक आती है, उसी तरह साहित्यकार भी विचार-विमर्श की आंच में तपकर ही उतरोतर विकास करता है। रचना पर विचार-विमर्श के अभाव में जैसा वह लिखना शुरू करता है, वैसा ही लिखता रह सकता है। विचार-विमर्श के अभाव में दोहराव रचनाकार की ऐसी सीमा बन जाती है कि उसकी रचनाधिर्मता का असामयिक निधन हो जाता है और वह 'वरिष्ठ' साहित्यकार का दर्जा पाते ही उपदेशक की मुद्रा में आ जाता है। नए उभर रहे साहित्यकारों के लिए कुछ कहने को उसके पास नहीं होता तो वह उनको खारिज भी करने लगता है। इसलिए 'वरिष्ठ' साहित्यकारों को अक्सर शिकायत होती है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जा रहा। सही है कि अब 'वैसा' नहीं लिखा जाएगा। लेकिन जब वे 'वैसे' को ही आदर्श लेखन मान लें तो नए लेखन के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं। अक्सर नए साहित्य के बारे में निराशाजनक टिप्पणियां सुनने को मिल जाएंगी।
लगभग हर शहर और कस्बे में साहित्यिक संस्थाएं व सभाएं हैं, जो नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां व कार्यक्रम करती हैं, लेकिन अपनी नियमितता के बावजूद ये गोष्ठियां कोई साहित्यिक माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। इन गोष्ठियों की जबरदस्त सीमा यही है कि इनमें रचनाओं पर कोई बातचीत नहीं होती, कोई विचार-विमर्श नहीं होता। रचनाकारों को अपनी रचनाएं सुनाने में ही अधिक रुचि रहती है या फिर अधिक से अधिक एक दूसरे को सुनने का बारी-बट्टा और यही फार्मूला एक दूसरे की तारीफ करने में लागू किया जाता है। पुराने समय के मुशायरों के वाह-वाह की संस्कृति इन रचना-गोष्ठियों में हावी है। इसलिए रचनाकार का विकास कर पाने में ये कोई खास मदद नहीं कर पाती।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन और पाठकों से जुड़ाव भी साहित्यिक परिदृश्य का महत्वपूर्ण पक्ष है। पाठकों और लेखकों के बीच में पत्रिका ही वह पुल है जो एक दूसरे को जोड़ता है। हरियाणा में कुछ गिने-चुने नाम ही साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। हरियाणा में 'पल-प्रतिपल' ही एक ऐसी पत्रिका है, जो साहित्य को बड़ी गम्भीरता से प्रकाशित करती है। 'जतन' पत्रिका से भी हरियाणा के साहित्य पाठक परिचित हैं, लेकिन इसकी अनियमितता साहित्य के प्रसार व विकास में कोई निरन्तरता नहीं बना पाती।
साहित्य के गम्भीर प्रकाशन व प्रकाशन गृह भी प्रदेश में न के बराबर हैं। 'आधार प्रकाशन' ने एक समय में गम्भीर साहित्य प्रकाशित किया और नए रचनाकारों की रचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। हरियाणा के किसी शहर में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां से साहित्य उपलब्ध हो सके। पुस्तकों की दुकानें पूरी तरह से परीक्षा में उपयोगी पुस्तकों से भरी पड़ी हैं। कोई यदि साहित्य में रूचि ले भी तो साहित्य की अनुपलब्धता की भारी समस्या का सामना उसे करना पड़ता है। 'साहित्य उपक्रम, करनालÓ ने साहित्य के प्रकाशन व प्रसारण के लिए कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया। एक छोटी गाड़ी के माध्यम से गांव-गांव व शहर-शहर जाकर साहित्य पंहुचाने का प्रयास किया। कैथल की 'अक्षर धाम' संस्था ने शहर शहर पुस्तक-प्रर्दशनी व मेले लगाकर लोगों के बीच साहित्य पहुंचाने का प्रयास किया है, लेकिन साहित्य की जरूरत व प्रभाव को देखते हुए ये प्रयास सीमित ही कहे जा सकते हंै।
'हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, रोहतक' व 'राज्य संसाधन केन्द्र, रोहतक' ने भी अपनी विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से साहित्य के प्रसार को महत्व प्रदान किया। विशेष तौर पर साक्षरता आन्दोलन के दौरान हजारों की संख्या में साहित्य के नए पाठक बने हैं और इसी दौरान कितने ही नव लेखक उभरे हैं। साहित्य के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करने के लिए छटपटाहट दिखाई दी है। जिन वर्गों का साहित्य से कोई जुड़ाव नहीं था, न पाठक के तौर पर और न ही लेखक के तौर पर उनमें से ही साहित्यकार उभर कर आ रहे हैं। साहित्य इन वर्गों के लिए नया क्षेत्र है, लेकिन जिस तरह से इन्होंने साहित्य लेखन को नए अनुभव से जोड़कर नई ऊर्जा व ताजगी दी है, उससे जरूर शुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं।
'हाली' व बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने अपनी कविताओं में जनवादी सरोकारों को अभिव्यक्त करके हरियाणा की कविता की नींव डाल दी थी, लेकिन उनके बाद यह परम्परा कुछ मन्द पड़ी रही लेकिन अस्सी के दशक के बाद से कविता में जनवादी स्वर निरन्तर विद्यमान हैं। हरियाणा के जनवादी सरोकारों की कविताओं के पढऩे के बाद स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ये कविताएं हरियाणा के जीवन को वास्तव में व्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कविताएं हैं, जिनमें लफ्फाजी नहीं, बल्कि समाज की सच्चाई अपनी पूरी जटिलताओं के साथ मौजूद है। हर रचनाकार का विशिष्ट मुहावरा है, जो उसके विशिष्ट अनुभवों को प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है। विषय वस्तु की दृष्टि से विविधता इन कविताओं में अपनी बात को पाठक तक संप्रेषित करने का जबरदस्त कौशल देखने को मिलता है।
हरियाणा के कविता के जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली कविता को समझने के लिए समय समय पर लिखे गए लेख इस पुस्तक में शामिल हैं। जो अपने में स्वतंत्र लेख हैं, चूंकि एक जगह से कविता उगी है और एक दृष्टि है तो सबको एक साथ पढऩे पर हरियाणा की कविता का स्वरूप समझने में कुछ मदद मिलेगी, इसलिए इनको पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनी। श्री देश निर्मोही को हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला तो उन्होंने साहित्यिक सृजन को बढ़ावा देने के लिए कालेजों के विद्यार्थियों यानी नवोदित रचनाकारों की कविताओं को 'दस्तक' नाम से पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। 'दस्तक' भाग एक व दो की भूमिका के तौर पर संकलित लेखों को भी इसमें शामिल किया है। इन कविताओं को पढ़कर हरियाणा के साहित्य की दिशा के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
इस पुस्तक का श्रेय मैं श्री देश निर्मोही, पूर्व निदेशक साहित्य अकादमी हरियाणा को देता हूं, जिन्होंने सामाजिक विषयों में रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को कविता की ओर प्रेरित किया तथा कार्य के महत्त्व पर व कर्तव्य का वास्ता देकर ये लेख लिखवा लिए तथा प्रकाशित भी किया।
डा. सुभाष चन्द्र, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र