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लोक-रंग की आंच में पकाया हबीब ने अपना रंग-लोक

लोक-रंग की आंच में पकाया हबीब ने अपना रंग-लोकडा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर



हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


रंगमंच की दुनिया में हबीब तनवीर एक ऐसा नाम है जो पिछले साठ साल से कलाकारों में नई स्फूर्ति पैदा करता रहा है और रंगमंच को नई ऊंचाइयां प्रदान करता रहा है। छोटे से कस्बे से अपने कलाकार जीवन की शुरूआत करके बुलन्दियों को छूने वाला उनका व्यक्तित्व ऊर्जा-स्रोत है। हबीब तनवीर के जीवन-संघर्ष की जमीन पर उपलब्धियां भी कम नहीं हैं, जिस पर कोई भी कलाकार गर्व कर सकता है। सन् 1972 से 78 तक राज्य सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत हुए, 1983 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अंलकृत किया गया, 1982 में एडिनबरा में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में महोत्सव समाप्त होने से पहले ही निर्णायक समिति ने प्रथम पुरस्कार की घोषणा की, 2006 में भारत सरकार द्वारानैशलन प्रोफेसरके पद से सम्मानित किया। इसके अलावा अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं और राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला से विशिष्ट पहचान बनाई है। 8 जून, 2009 को इस महान कलाकार की आवाज हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गई, लेकिन कलात्मक मूल्यों के संघर्ष में हबीब तनवीर का सादगीपूर्ण जीवन कलाकारों को प्रेरणा देता रहेगा।
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर, 1923 को छतीस गढ़ की राजधानी रायपुर में हुआ। इनका नाम हबीब अहमद खान था, शायरी करते हुए इन्होंने अपना नाम हबीब तनवीर रख लिया। ये हाफिज़ मोहम्मद हयात खान के दूसरे बेटे थे। हबीब के पिता पेशावर से आकर रायपुर में बसे थे और हबीब की मां रायपुर की थी। परिवार के परिवेश का किसी भी व्यक्ति या कलाकार के व्यक्तित्व के विकास में खास योगदान होता है। इनके पिता कुरान और नमाज़ को सबसे अधिक अहमियत देने वाले पक्के मज़हबी व्यक्ति थे, जो नाटक, संगीत और नृत्य को बेकार की चीज ही नहीं, बल्कि मज़हब के खि़लाफ़ भी मानते थे। दूसरी तरफ इनके एक मामा तो शास्त्रीय संगीत के अच्छे गायक थे और दूसरे शायर। इनके बड़े भाई को नाटकों में अभिनय करने का शौक था और विशेष बात यह है कि वे स्त्रियों की भूमिकाएं करते थे। हबीब तनवीर ने अपनी आत्मकथा लाइफ इन थियेटरमें विस्तार से बताया है कि वे बचपन में चोरी छिपे नाटक, सिनेमा देखने जाते थे और पात्रों के दर्द-पीड़ा देखकर रोया करते थे। बचपन में ही दर्शक और अभिनेता की सहभागिता का रिश्ता पहचान रहे थे, जिसने बाद में उनको जरूर ही असर डाला होगा। स्कूल में नाटकों में भाग लिया।
रायपुर में उस समय तक कोई कालेज नहीं था। नागपुर के मोरिस कालेज से बी. . करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एम.. उर्दू में दाखिला ले लिया, लेकिन एम.. करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे फिल्मों में अपना कैरियर आजमाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने विभिन्न मुद्राओं में फोटो खिंचवा कर बम्बई के कई प्रोड्यूसरों को भिजवाए भी, लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिली।
एक सामान्य व्यक्ति की तरह वे अपने कैरियर के बारे में असमंजस में थे, रोजगार का संकट भी उनके सामने था। जलसेना अफसर की परीक्षा पास हो गई लेकिन अन्तिम परीक्षा में रह गए। असल में नदी पर पुल बनाने का सारा सामान देकर इनको निर्धरित समय में पुल पार करने के लिए कहा गया और इन्होंने वह समय सोचने में ही लगा दिया कि पुल कैसे बनाया जाये और वे जलसेना अफसर बनने से बच गए। हबीब तनवीर किसी भी काम में जल्दी नहीं करते थे, वे खूब सोच विचार करके ही कोई काम करते थे। उनके इस स्वभाव ने उनको जलसेना का अधिकारी होने में तो कोई मदद नहीं की, लेकिन एक नाटककार संस्कृतिकर्मी के तौर उनका यह धैर्य बहुत काम आया। जीवन में संकट के पलों में इसी वजह से टिक पाए। उनके इस धैर्य के कारण लोग उनको सनकी और जिद्दी कहते थे, लेकिन जो रचनात्मक और मौलिक काम उन्होंने किया शायद उसके लिए यह सुनना पड़ता है।
हबीब तनवीर जलसेना की परीक्षा देने गए तो वापस नहीं लौटे और बम्बई को ही अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। इसके लिए उनको कुछ कष्ट भी उठाने पड़े, लेकिन यह समय ज्यादा लम्बा नहीं था। उन्हें जल्दी ही फिल्मों में काम मिलने लगा। अंग्रेजी के उपन्यास पर बनी फिल्म की समीक्षा कर रहे थे तो उनकी सटीक और बेबाक टिप्पणी सुनकर किसी व्यक्ति ने फिल्मों में काम करने के लिए आंमत्रित किया। यद्यपि यह फिल्म कभी पर्दे पर नहीं आई, लेकिन हबीब को बम्बई में पैर रखने की जगह मिल गई थी। गोला-बारूद की फैक्टरी के मालिक मोहम्मद ताहिर से हबीब तनवीर की मुलाकात हुई। ताहिर साहब को शायरी का शौक था। उन्होंने हबीब तनवीर को मुशायरा करवाने के लिए सचिव के तौर पर रख लिया। हबीब तनवीर का दायरा बढऩे लगा, वे मुशायरों में जाने लगे और शायरी में उन्होंने अच्छा नाम कमाया।
इसी दौरान इनकी मुलाकात ऑल इण्डिया रेडियो, बम्बई के निदेशक जेड. . बुखारी से हुई, जो स्वयं नई नई प्रतिभाओं की तलाश में रहते थे। हबीब तनवीर की फिल्म समीक्षाओं ने उनको प्रसिद्धि दिला दी थी। फिल्म इण्डिया के संपादक बाबू राव पटेल ने इनकी सटीक बेबाक टिप्पणियों से प्रभावित होकर सीनियर एसिस्टेंट एडीटर के तौर पर रख लिया। फिल्म इण्डिया में रहते हुए कई फिल्मों में काम किया। ख्वाजा अहमद अब्बास कीराही’, ‘दिया जले सारी रात’, ‘आकाशशान्ताराम बेडेकर की फिल्मलोकमान्य तिलक’, जिया सरहदी कीफुटपाथ’, ‘एस. के. ओझा कीनाज’, ‘इजरा मीर कीबीते दिनमें प्रमुख भूमिकाओं में उतरे। इस तरह हबीब तनवीर का एक बहुआयामी व्यक्तित्व के तौर पर उभर रहे थे।
उन दिनों बम्बई शहर मजदूर आन्दोलन का बहुत बड़ा केन्द्र था। सांस्कृतिक आन्दोलन भी बम्बई में व्यापक तौर पर था, जो पूरे देश को दिशा दे रहा था। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा (इण्डियन पीपुल थियेटर एसोसियेसन) के माध्यम से देश के बेहतरीन कलाकार और संस्कृतिकर्मी आन्दोलन सक्रिय थे और अपनी कला को सामाजिक सरोकारों के लिए प्रयोग कर रहे थे। अली सरदार जाफरी, सज्जाद जहीर प्रगतिशील लेखक संघ में थे तो बलराज साहनी, दीना पाठक, मोहन सहगल इप्टा में थे। हबीब तनवीर ने इप्टा के नाटकों में काम किया।
हबीब तनवीर का नाटक के प्रति समर्पण लगाव कोइप्टाके दौरान घटी घटना से अनुमान लगाया जा सकता है। 1948 मेंइप्टाके इलाहाबाद सम्मेलन में जो नाटक प्रस्तुत होना था, उसमें हबीब तनवीर बुढ्ढे की भूमिका कर रहे थे। गोली लगने से बेटे के मर जाने पर विलाप करते हुए हबीब तनवीर की भूमिका से बलराज साहनी संतुष्ट नहीं थे। हबीब तनवीर ने उस घटना का जिक्र करते हुए बताया कि ‘‘रात दो बजे तक रिहर्सल होता रहा। बलराज मेरे पीछे पड़े थे कि मैं बुड्ढा ठीक से नहीं बन पा रहा था। खासतौर पर बेटे के मरने पर मेरा बहुत बनावटी लग रहा था। मुझसे हो ही नहीं रहा था कि बलराज ने मुझे जोर का एक तमाचा लगाया। गाल पर पांचों उंगलियां उभर आईं। बोले - ‘अब रोओ और बोलो रोना तो ही गया था, रोते रोते डायलाग बोला। डॉयलाग खत्म होने पर, उन्होंने मुझे लिपटा लिया और बोले - ‘अब तुम ठीक से रो सकोगे। वर्ना तुम्हारा रोना इस कदर बनावटी हो रहा था कि मेरे पास और कोई उपाय नहीं था। मैंने तुम्हें गुस्से में नहीं मारा था, जानबूझकर मारा था। तुम्हें रोना नहीं रहा था। तुम्हें एक ऐसे तजुर्बे की जरूरत थी, जिसे याद करके तुम रो सकते, उस तजुर्बे को हूबहू उतार सकते, रिप्रोड्यूस कर सकते। मैंने तुम्हें ये तजुर्बा कराया। स्तानिस्लाव्स्की ने याददाश्त के सिलसिले में मस्क्यूलर मैमोरी की बात कही है। मैं उन सब बातों पर बहुत विश्वास नहीं करता, लेकिन तुम्हारे साथ यह तरीका आजमाने के सिवा और कोई उपाय नहीं था।’’
राजनीतिक परिस्थितियों के कारण तथाइप्टाका स्वतंत्र कार्यक्रम होने के कारण आन्दोलन बिखर गया तो इसमें काम करने वाले अधिकतर लोग फिल्मों में काम करने लगे। कोई अभिनेता बन गया, तो कोई गीत लिखने लगा, कोई पटकथा लिखने लगा, लेकिन हबीब तनवीर बम्बई छोड़कर दिल्ली गए। हबीब तनवीर फिल्मों में काम कर चुके थे और चाहते तो अच्छे जम सकते थे। नाटक के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ही थी जो उनको फिल्मी दुनिया का ग्लैमर सुविधाएं छोड़कर सामाजिक सरोकारों के रंगमंच में ले आई। अधिकाधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की क्षमता के कारण वे फिल्म माध्यम की ओर आर्कषित हुए थे, लेकिन व्यावसायिकता और तकनीक उनके सामाजिक सरोकारों में कोई मदद नहीं कर पाई। फिल्मों को छोडऩे एक कारण यह भी था कि फिल्म में श्रोताओं-दर्शकों से जीवन्त संबंध नहीं बनता, जो शायर तथा रंगमंच के कलाकार अपने दर्शकों और श्रोताओं से होता है। जिस कलाकार के सामाजिक सरोकार हों उसे दर्शकों-श्रोताओं की जीवन्त प्रतिक्रिया प्रोत्साहित करती है।
इप्टाके नाटकों में काम करने से हबीब तनवीर को एक दृष्टि मिली और अपने नाटक की मौलिक शैली निर्मित करने के सूत्र भी यहीं से मिले।इप्टाके नाटकों का मकसद सामाजिक जागृति थी, इसलिए संदेश की संप्रेषणीयता पर विशेष जोर रहता था और जनता से जुड़ाव के नए नए तरीके खोजे जाते थे। जनता से जुडऩे वाली कला जनता में मौजूद कला रूपों से मुंह नहीं मोड़ सकती।इप्टाके नाटकों की प्रभावशाली प्रस्तुति का कारण लोक रूपों का बहुत प्रयोग था। बम्बई में विभिन्न प्रदेशों के कलाकार थे और वे अपने अपने प्रदेशों की लोक शैलियों को प्रस्तुत करते थे। हबीब तनवीर को विभिन्न लोक शैलियों को सीखने जानने का मौका यहीं मिला। यहीं से भारतीय कला को विकसित करने का बीज अंकुरित हुआ, जिसे उन्होंने अपने ज्ञान, अनुभव, संघर्ष प्रतिबद्धता से एक मुकम्मल विचार की शक्ल दी।
नाटक की दुनिया में केवल सिद्धांत गढऩे से ही बात नहीं बनती, बल्कि उनको व्याहारिक तौर पर कार्यरूप देना होता है। हबीब तनवीर उनके सिद्धांत को नाटक की दुनिया में गम्भीरता से लिया जाने लगा जनकवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटकआगरा बाजारकी प्रस्तुति के बाद। इस प्रस्तुति ने केवल हबीब के आलोचकों को चुप करा दिया था, बल्कि हबीब तनवीर को भी अपने सिद्धांतों के प्रति आश्वस्त किया था। रंगमंच की रूढिय़ों को तोड़ते मंच के उन्मुक्त एवं सहज वातावरण ने दर्शक से सीधा संपर्क स्थापित किया। भारतीय नाट्यशास्त्र की जकड़बन्दी तथा पश्चिमी रंगमंच की नकल से दबे रंगमंच ने खुली सांस ली थी। नजीर अकबराबादी स्वयं मेले-ठेलों के जन कवि थे और उनकी सच्ची भावना को ऐसे ही प्रस्तुत किया जा सकता था।आगरा बाजारनाटक उन्होंने जामिया मिलिया के विद्यार्थियों के साथ शुरू किया था, लेकिन वे इससे संतुष्ट नहीं थे और इन्होंने ओखला गांव के बच्चों को इसमें कलाकार के तौर पर जोड़ा और तभी यह प्रस्तुति जीवन्त हुई थी।
हबीब तनवीर कीआगरा बाजारप्रस्तुति को देखकर आभिजात्य आदर्शवादी महिला कुदसिया जैदी बहुत प्रभावित हुई। वे स्वयं भी भारतीय रंगमंच के लिए कुछ मौलिक करना चाहती थी। उन्होंने हबीब तनवीर को अपनी संस्थाहिन्दुस्तानी थियेटरके निर्देशक के पद पर कार्य करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे हबीब तनवीर ने स्वीकार भी कर लिया। इसी दौरान ब्रिटिश कौंसिल की ओर से लंदन स्थितरॉयल अकेडमी ऑफ ड्रैमेटिक आर्टसमें अध्ययन के लिए स्कॉलरशिप मिली। दो वर्ष बाद निर्देशक पद संभालने के लिए श्रीमती जैदी ने प्रस्ताव रखा तो उन्होंने दो शर्तों के साथ स्वीकार किया। जिसमें पहली शर्त तो संस्कृत विदेशी भाषाओं के 12 नाटकों के अनुवाद थे औरहिन्दुस्तानी थियेटरके लिए एक लाख पचास हजार रुपए का इन्तजाम ताकि शुरूआती दौर में धन की कमी हो।1 दो साल के बाद भी हबीब तनवीर भारत नहीं आए तो श्रीमती जैदी ने मोनिका मिश्र को निर्देशक के तौर पर रख लिया। जो स्वयं काफी अच्छी निर्देशक थी और थियेटर की समझ रखती थी। कालिदास केशकुन्तलानाटक की प्रभावी प्रस्तुति भी की। हबीब तनवीर भारत आए तो श्रीमती जैदी उन्हें निर्देशक के पद पर रख लिया। अपनी नौकरी छूटने के कारण मोनिका मिश्र के मन में हबीब तनबीर के प्रति गुस्सा था। बाद में इन्हीं मोनिका मिश्र के साथ 1961 में हबीब तनवीर की शादी हुई। मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर ने मिलकरनया थियेटरनाम से नाटक करना आरम्भ किया। पैसे की तंगी के कारण हबीब तनवीर फिल्मों की समीक्षा अखबारों में लिखते थे, लेकिन नाटक को उन्होंने नहीं छोड़ा।नया थियेटरख्याति प्राप्त करने लगा तो मोनिका तनवीर ही सारा प्रबन्ध देखती थी।2
हबीब तनवीर के काम में विविधता व्यापकता थी। इन्होंने संस्कृत यूरोपीय भाषाओं के कालजयी नाटकों पर विभिन्न संस्थाओं के लिए काम किया, बच्चों के लिए भी काम किया। स्वयं छोटी-छोटी भूमिकाएं भी करते थे और नाटक के केन्द्रीय चरित्र भी। उन्होंने अपने जीवन में एक सौ पचास से ज्यादा नाटकों का निर्देशन-मंचन किया, जिनमेंआगरा बाजार’, ‘फांसी’, रुस्तम--सोहराब’, ‘मेरे बाद’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘गौरी-गौरा’, ‘गांव का नाम ससुराल मोर नाम दमाद’, ‘चरणदास चोर’, ‘शाजापुर की शांताबाई’, ‘बहादुर क्लारिन’, ‘लाला शोहरत राय’, ‘देख रहे हैं नैन’, ‘कामदेव का अपना वंसत ऋतु का सपना’, ‘सुन बहरी’, ‘मुद्राराक्षस’, ‘उत्तर रामचरित’, वेणी संहार’, ‘दुश्मन’, ‘जिस लाहौर नहिं वेख्या वो जम्या ही नहींप्रमुख हैं।
हबीब तनवीर समय की सच्चाई से जुड़े रहते हैं फिर कथा चाहे लोक से उठाई गई हो या इतिहास से, नाटक का संदर्भ चाहे देशी हो या विदेशी। नजीर अकबराबादी के जीवन पर केन्द्रितआगरा बाजारनजीर के जीवन व्यक्तित्व को तो उभारता ही है, साथ ही हमारे समय की मंदी को भी उभारता है कि बाजार में कुछ भी बिक नहीं रहा है। इसी तरह से रोमन सल्तनत के अस्कंदरिया प्रदेश की चौथी सदी के आखिर और पांचवी सदी के आरम्भ की घटनाओं को केन्द्रित करताएक औरत हिपेशिया भी थीनाटक भारत में पनप रहे फासीवादी रुझानों को रेखांकित करता है। कोई भी नाटक हो वर्तमान जगत के किसी विशेष पहलू को गहराई से विश्लेषित करता है। इनके नाटकों में एक जीवन्त बहस विद्यमान है, जो विभिन्न पक्षों के अन्तर्विरोधों को उजागर करती है।
हबीब तनवीर के हर नाटक की अपनी उपलब्धि रही है और प्रयोग किये हैं, लेकिन उनको ख्याति मिलीआगरा बाजार’, ‘मोर नाम दामाद, गांव का नाम ससुराल’, ‘चरणदास चोर’, ‘पोंगा पंडितसे। इन नाटकों की शक्ति लोक तत्त्व का प्रयोग ही है। हबीब तनवीर ने अपने नाटकों के लेखन प्रस्तुतिकरण में लोक कथाओं को वर्तमान स्थितियों में प्रासंगिक बनाया और लोक में प्रचलित कलाओं को रंगमंच पर प्रस्तुत किया। हबीब तनवीर को लोक जीवन का गहरा ज्ञान था, लोक में विभिन्न अवसरों पर गीत-नृत्य का प्रयोग होता है। चाहे वह कोई धार्मिक उत्सव हो या फिर सांस्कृतिक उत्सव। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के जितने भी सामूहिक कार्य हैं लय, संगीत, गीत के बिना पूरे नहीं होते। हबीब ने अपने रंग-दर्शन, निर्देशन लेखन में लोक जीवन की संगीत-नृत्यात्मक सहज अनौपचारिक प्रस्तुतियों की शक्ति का खूब प्रयोग किया। असल में यह विशिष्टता ही रंग-जगत में उनकी अलग पहचान बनाती है। संगीता गुंदेचा ने हबीब तनवीर के बारे में सही कहा है कि ‘‘पंडित कुमार गंधर्व की तरह ही हबीब तनवीर उन बिरले समकालीन कलाकारों में हैं, जिन्होंने भारतीय लोक और शास्त्रीय संस्कृतियों के बीच एक सहज नैरंतर्य को चरितार्थ किया।’’3
रंगमंच की दुनिया में हबीब तनवीर की पहचान ऐसे सख्स की है, जिसने आंचलिक शैलियों को, विषयों को, कलाकारों को प्रमुखता दी। उनका मानना था कि वर्तमान शिक्षा पद्धति मनुष्य की स्वाभाविक कला को समाप्त करती है। भारतीय कला की जड़ें गांव-देहातों और कस्बों में हैं, जिसे विकसित किया जाना चाहिए। उनका ये विचार रंगमंच के अनुभव से निरन्तर पक्का होता गया। वे अपने रंगमंच के अनुभव को बताते हुए अपने भाषणों और बातचीत में अक्सर कहा करते थे कि कलाकारों को चुनते वक्त वे उनको सबसे उपयुक्त पाते हैं, जो महानगरों से दूर और आधुनिक शिक्षा पद्धति से दूर हैं। उनकी मंडली में गांव-देहातों के आदिवासी और आम लोग थे, जिन्होंने किसी उच्च संस्थानों से प्रशिक्षण नहीं लिया था।
हबीब तनवीर गांव-देहात के कम-पढ़े लिखे लोगों को कलाकारों के साथ सफल प्रस्तुतियां रंगमंच की आभिजात्यता को चिढ़ाती थी। हबीब तनवीर को आभिजात्य रंगमंच की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा और इनका जबाव देते हुए ही उन्होंने एक रंगकर्मी के तौर पर अपना स्थान बनाया। आभिजात्यता ने हिन्दी रंगमंच का गला घोंट रखा था। एक ओर तो संस्कृत नाट्य शास्त्र की जकड़बन्दी का पक्षधर वर्ग था, जो शास्त्रीय नियमों और पद्धति यों में बदलाव को केवल नाट्यशास्त्र से छेड़छाड़ समझता था, बल्कि इसे भारतीय संस्कृति की विरोधी भी मानता था। दूसरी तरफ यह पाश्चात्य नाट्य-सिद्धातों की नकल अंधानुकरण था। ये दोनों देखने में परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन दोनों ही आभिजात्यता वैधता प्रदान करके लोक कलाओं और नए प्रयोगों के प्रति शंकालु थे। हबीब तनवीर का दोनों तरफ से ही विरोध हुआ। कभी उनके सिद्धातों को अव्यवहारिक करार दिया गया तो कभी उसकी सीमित उपयोगिता कहकर खारिज करने की कोशिश की। हबीब तनवीर ने आंचलिकता में ही अपने मौलिक मुहावरे को तलाशने की कोशिश की। उन्होंने लिखा कि ‘‘मैं मुद्दतों पहले यकीन की हद तक इस नतीजे पर पहुंच गया था कि थिएटर में अगर किसी और कल्चर की नकल की झलक है, तो वह असली थिएटर नहीं है। थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर है, थिएटर के सारे लवाजमात तत्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मजा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन हम ऐसा थिएटर खुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे। यानी थिएटर में इलाकाइयत(आंचलिकता) का दामन छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुंचना कामयाब थिएटर की कुंजी है।’’4
हबीब तनवीर का सिद्धांत असल में रंगमंच की दुनिया में कस्बाई-देहाती और महानगरीय अभिरुचियों और मान्यताओं की टकराहट के बीच से विकसित हुआ है। महानगरों में आंचलिक शैलियों के नाटक करने के औचित्य बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘इन आंचलिक मुहावरे के नाटकों को दिल्ली जैसी जगहों में प्रस्तुत करने का एक मकसद तो यह है कि मैं इस तथाकथित सभ्य समाज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूं। उन्हें एक ऐसे अहसास से परिचित कराना चाहता हूं जो अत्यन्त खरा, अधिक ऊर्जावान और जीवन्त है। उन्हें खुलकर हंसने के लिए मैं गुदगुदाना चाहता हूं, रुलाना चाहता हूं। जिसके वे अभ्यस्त नहीं हैं। उनका एक ऐसी अभिन्न पद्धति से साक्षात्कार कराना चाहता हूं जो पूरी तरह से अनौपचारिक है। अभिनय के सौन्दर्य-शास्त्र के अन्तर्गत सीमाबद्ध रहकर ऐसे हास्य से अभिमुख कराना चाहता हूं, जो असीम है।’’5
हबीब तनवीर ने अपने विचारों पर दृढ़ रहे और अपने स्वभाव के अनुसार लगातार जूझते रहे। ऐसा नहीं है कि उनके सामने कोई दिक्कत नहीं आई, बल्कि इन दिक्कतों से उन्होंने लगातार सीखा। अभिनेता की पृष्ठभूमि नाटक के प्रस्तुतिकरण को गहरे से प्रभावित करती है। उन्होंने पाया कि महानगरीय जीवन में रचा-बसा इस जीवन की मान्यताओं-धारणाओं को सहेजने वाला कलाकार सुदूर आदिवासी, दलितों की पीड़ा को प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है। आदिवासी जीवन पर आधारित नाटकहिरमा की अमर कहानीनाटक में उन्होंने महसूस किया। महानगरीय कलाकार आदिवासी संस्कृति को पिछड़ा समझता है, इसलिए वह उसके सकारात्मक पक्षों को, उसके जीवन के खुलेपन को व्यक्त ही नहीं कर पाता। दूसरी ओर उन्मुक्त जीवन के अभ्यस्त आदिवासी कलाकार बंधे-बंधाए महानगरीय जीवन को स्टेज पर प्रस्तुत करने में असमर्थ पाते हैं।
हबीब तनवीर का मानना था कि देहाती वंचित, शोषित लोगों के जीवन को उसी अंचल के कलाकार इसीलिए कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें व्यावसायिक कला रूपों ने प्रभावित नहीं किया होता। उनकी यह बात एक हद सही थी, लेकिन अब जिस तरह से मीडिया का विस्तार हुआ है और संस्कृति एक उद्योग का रूप धारण कर रही है जिसका कला रूपों पर प्रभाव पड़ रहा है। लोक कलाओं को व्यावसायिक हितों के लिए प्रयोग करके उसके रूप को विकृत किया जा रहा है। ऐसे कलाकारों का मिलना शायद ही संभव हो जो कि मीडिया से अप्रभावित रहे हों।
लोक कला कोफैशनके तौर पर प्रयोग करना बिल्कुल अलग बात है और उसेपैशनके रूप में अपनाना बिल्कुल दूसरी। फैशन के लिए किसी खोजबीन मेहनत की विशेष आवश्यकता नहीं है, लेकिन पैशन के लिए स्वयं को खपाना पड़ता है। अपने मुहावरे को विकसित करने और उसकी शक्ति को सिद्ध करने के लिए हबीब तनवीर ने भवभूति, शूद्रक, विशाखादत्त, कालिदास आदि संस्कृत महान नाटककारों के नाटकों को अपनी शैली में प्रस्तुत किया, तो मौलियर, शेक्सपीयर, ब्रेख्त आदि विदेशी नाटककारों के नाटकों की सफल प्रस्तुतियां की। वे शास्त्रीय रंगमंच और लोक रंगमंच में विरोध नहीं, बल्कि नैरंतर्य देखते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं सन् अट्ठाावन से चीख-चीखकर कह रहा हूं कि इन दोनों( शास्त्रीय और लोक रंगमंच) में कोई अन्तर नहीं है। चुनांचे हमारे नाटकों की लोकप्रथा में तमाम वे ही बुनियादी चीजें हैं, जिन्हें हम शास्त्रीय कहते हैं। शास्त्रीय का विशाल ढांचा तो एक अलग चीज है, लेकिन जो दार्शनिक अन्तर्दृष्टि है, रंगाकाश के बारे में या अहंकार के बारे में, वो दोनों में मौजूद है। तो नैरंतर्य तो है इसीलिए हम लोक कलाकारों के साथ शास्त्रीय नाटक कर सके और लोककथाओं पर आधारित लोकप्रधान नाटक भी।
नागरिक कलाकार और लोक कलाकारों में फर्क यही है कि लोक कलाकार बहुआयामी होता है। वो छोटे से छोटा रोल कर लेता है। मसलन् ठाकुरराम और मदनलाल चांडाल, पुलिस, कोतवाल की भूमिका निभाते हुए मंच पर आकर दृश्य लूट लेते थे। स्तानिस्लाव्हस्की कहता है किभूमिकाएं छोटी नहीं होती, अभिनेता छोटे हो सकते हैंस्तानिस्लाव्हस्की को पढ़े बगैर ये लोग इन बातों को जानते हैं। ब्रेख्त का नाम तक पता नहीं। स्तानिस्लाव्हस्की या ब्रेख्त का अभिनय की कला के विश्लेषण का जो तरीका है वो इन चीजों को स्वाभाविक रूप से जानता है, उसको एलिएनेशन थ्योरी पढऩे की जरूरत नहीं होती।’’6
हबीब तनवीर ने अपने नाटकों रंगकर्म में लोक-शैलियों लोक-भाषा का बहुत प्रयोग किया, लेकिन उनको लोक-चेतना का कलाकार नहीं कहा जा सकता। अपनी परम्परा और लोक के प्रति उनका आलोचनात्मक रुख था। लोक परम्परा के प्रति अतिरिक्त सचेत थे, इसीलिए उनके नाटक लोक-नाटकों की सीमाओं से ग्रस्त नहीं हैं। केवल टाइम-काटू मनोरंजन उनका मकसद नहीं हैं। लोक के पक्षधर होते हुए भी लोकवाद को उन्होंने कभी महिमामंडित नहीं किया। लोक तत्त्वों का अतिरिक्त सावधानीपूर्वक प्रयोग उनके नाटकों के गीतों में सर्वाधिक मुखर है।चरन दास चोरकेएक चोर ने रंग जमाया...चोरी ही उसका नसीब था, पैसे वाला था गरीब थागीत में लोक-सुलभ भाग्यवाद का लेश मात्र भी नहीं है। चेतना के स्तर पर नाटक आधुनिक प्रगतिशील हैं, उन्हें लोक चेतना के संवाहक नहीं कहा जा सकता। यह चेतना का सूत्र ही है, जिसके जरिये देश-विदेश लोग इनके नाटकों से जुड़ाव महसूस करते हैं।
हबीब तनवीर नाटकों की प्रस्तुति और लेखन में अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने हंसी को अपने नाटकों की प्रस्तुति का मुख्य सूत्र बनाया। आमतौर पर सामाजिक सरोकारों के नाटकों से हंसी या गायब होती है या फिर उसे सिर्फ एक फार्मूले के तौर पर डाला जाता है। हास्य यहां सैद्धांतिक सवाल के तौर पर नहीं आती। नाटक की बुनावट में नहीं होती और नाटक दर्शक के लिए सजा बन जाते हैं। हबीब तनवीर के नाटकों में हास्य उसके केन्द्र में है। हास्य और गम्भीरता दोनों को वे साथ साथ साधते हैं। उनके नाटकों में तो दर्शक बोरियत महसूस करता है और ही बौद्धिक आतंक से दबता है। बड़ी सहजता से जीवन के अंग के तौर पर नाटक आता है और नाटक का प्रभाव स्थायी होता है। जैसे अनौपचारिक रंगमंच की उन्होंने कल्पना की, उसमें हास्य महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हास्य की दर्शक का उन्मुक्त करता है। यदि दर्शक में उन्मुक्तता का भाव पैदा करना है तो सबसे पहले मंच को, पात्रों को रूढिय़ों से उन्मुक्त करना होगा। इनके नाटकों में चार्ली चैप्लिन की सी सहजता है और चरित्रों के वर्गीय विशेषताओं को उजागर करते हुए उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होती है। हास्य मानव की विशेषता है, जो उसमें आन्तरिक शक्ति जगाकर आत्मविश्वास पैदा करती है और इसी से राजसत्ताएं खौफ खाती हैं। कथित जातिगत-धार्मिक श्रेष्ठता के दावों के खोखलेपन को हास्य उजागर कर देता है।
हबीब तनवीर के नाटक दर्शक को केन्द्र में रखते हैं। दर्शकों के प्रति वे बेपरवाह नहीं हैं। दर्शकों की रुचियों में विविधता होती है। सफल नाटककार-रंगकर्मी वही है, जिसके कार्य में विविध रुचियों को संतुष्ट करने की गुंजाइश हो। हबीब तनवीर अपने नाटकों में पूरा ख्याल रखते थे। इसीलिए उनके नाटकों में गीत-संगीत नृत्य का बहुत प्रयोग मिलता है। दर्शकों से जीवन्त रिश्ता बनाने के तरीके वे किताबों के साथ साथ अपने अनुभव से सीखते थे, सीखने के लिए वे किसी से भी तैयार रहते थे। ‘‘हरियाणा की स्वांग वर्कशाप में एक गांव के आदमी ने मुझसे एक बहुत पते की बात कही थी। उसने कहा था ‘‘साब! दर्शक तीन प्रकार के होते हैं : सुर-मस्त, ताल-मस्त और हाल-मस्त। सुर-मस्त वह जो गाना सुनने आते हैं, और गाने वाला चाहे बेताला हो, अगर सुरीला है तो वह जमे रहेंगे। ताल-मस्त वह, जो ताल पर झूमते हैं, गाने वाला चाहे कितना ही बेसुरा हो, कनसुरा हो, लेकिन अगर ताल में है तो टलेंगे नहीं, सुनते रहेंगे। तीसरा हाल-मस्त! ऐसा आदमी नशे में झूमता हुआ आता है, और चाहता है कि रात भर कुछ--कुछ हंगामा होता रहे। उसे इससे मतलब नहीं कि गवैया बेसुरा है या बेताला है। उसे महफिल चाहिए जो जमी रहे। वह जब तक जमी रहे, वह भी जमा है। वह उखड़ी, तो वह भी उखड़ा।’’7
हबीब तनवीर पर बे्रख्त के प्रभाव को बताया जाता है। हबीब तनवीर ने दुनिया में रंगमंच की जितनी पद्धतियां थी उन सब का अध्ययन किया था और उनका प्रभाव भी उन पर स्वाभाविक है, लेकिन उन्होंने विशुद्ध भारतीय मुहावरा विकसित किया। वे बे्रख्त से प्रभावित थे, उनके कई नाटक भी उन्होंने किए। वे अक्सर बताते थे कि वे ब्रेख्त से मिलने के लिए जर्मनी गए तो बर्लिन में ही उनके पैसे खत्म हो गए। उन्होंने अपनी छतीसगढ़ी कला का प्रदर्शन करके कुछ धन जमा किया और ब्रेख्त के ठिकाने पर पहुंचे तो वे दुनिया से हमेशा के लिए चले गए थे। ब्रेख्त और हबीब तनवीर के रंग दर्शन में काफी समानताएं हैं। ब्रेख्त ने भी नाटक में राजनीति से परहेज नहीं किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नाजी सत्ता का विरोध किया तो हबीब तनवीर ने भी साम्प्रदायिक फासीवाद की विचारधारा का लगातार विरोध किया। नाटक की कला को बचाए रखते हुए राजनीतिक सवालों को नाटक में उठाया।
हबीब तनवीर संप्रेषण के लिए लगातार संघर्ष करते थे। ‘‘लेखक का यही संघर्ष रहता है कि वह भाषा का किस तरह इस्तेमाल करे कि उसके वही मायने निकले जो वह कहना चाहता है ताकि संप्रेषण एक हद तक सही रहे। यह एक अलग प्रश्न है कि इसके बावजूद श्रोता और दर्शक अपनी कल्पना से उसमें कोई मानी-मतलब ढूंढ लें। जैसा कि चित्र में भी होता है और कविता में भी। यह सब ठीक है लेकिन सर्जक की कोशिश यही होती है कि मानी को जकड़े ... मेरे ख्याल से सब अच्छे कलाकारों की कोशिश यह होती है कि बहुत साफ तरीके से बात की जाए। कलाकार का सारा संघर्ष इस बात के लिए होता है कि ज्यादा-से-ज्यादा सफाई के साथ वह अपनी चीज को पेश कर सके। साफ का अर्थ यह नहीं कि आपने अपने दर्शकों को सब कुछ तश्तरी में रखकर पेश कर दिया कि आइए खा लीजिए। सफाई का अर्थ यह है कि कोई उलझाव, गुंजलक किस्म का, कोहरे जैसा रह जाए। कुछ लोग शायद सोचते होंगे कि ये कला है लेकिन सफाई से कहने का यह अर्थ नहीं है कि बात का कोई पहलू हो, उसकी अनुगूंजें हों।’’8
मंच की सादगी सामूहिकता कार्यकलापों में हबीब तनवीर के नाटकों की सफलता का रहस्य छुपा है। मंच पर पूरी गहमा-गहमी, चहल-पहल का उत्सवनुमा माहौल इनके नाटकों में होता है। वे ऐसे दृश्य रचते हैं, जिनमें चहल-पहल की गुंजाइश हो। मसलन् बाजार का दृश्य उनका पंसदीदा दृश्य है। किसी--किसी बहाने से वे इसे यहां ले आते हैं। एक साथ विभिन्न किस्म के कार्यकलाप चलते रह सकते हैं और लटके-झटकों की भी पूरी संभावना है, जो दर्शक को बांधने के लिए रामबाण होते हैं। शायद ही किसी नाटक में कोई पात्र मंच पर अकेला हो और आभिजात्य नाटकों के पात्रों की तरह अकेला ही लम्बे-लम्बे संवाद बोलकर अपने मन के असमंजस, द्वन्द्व नैतिक संकट को दर्शकों के समक्ष खोलता हो। निहायत व्यक्तिगत किस्म की भावनाओं विचारों को उजागर करने के लिए भी वे विमर्श की टेक्नीक अपनाते हैं। परस्पर विरोधी भावों को प्रस्तुत करने के लिए भी इसका सहारा लेते हैं।
हबीब तनवीर एक खोजी नाटककार हैं, जो दूर-दराज के उपेक्षित चरित्रों घटनाओं पर नाटकों की रचना करते हैं। नाटक का यह कथ्य दर्शकों-पाठकों की दृष्टि ज्ञान में विस्तार तो करता ही है, उनमें जिज्ञासा भी बनाए रखता है। ऐसे अपरिचित संसार से संपर्क दर्शक-पाठक को चमत्कृत भी करता है। कल्पनाशील फिल्मकार राजकपूर की तरह हबीब तनवीर ने समाज की घृणा पूर्वाग्रहों से ग्रसित चरित्रों के जीवन के ऐसे मार्मिक मानवीय पक्षों को प्रस्तुत किया है कि वे सहानुभूति संवेदना प्राप्त करते हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि एक चोर इतना सच्चा इमानदार हो सकता है और सच्चाई के लिए सत्ता के समस्त ऐश्वर्यों को ठुकरा सकता है या शराब बेचने वालीक्लारिनअपनी ममता नैतिकता में से नैतिकता को तरजीह देगी।
हबीब तनवीर अपने उम्र के आखिरी पड़ाव तक नाटक की दुनिया में सक्रिय थे। उनकी आवाज उतनी ही कड़क और असरदार थी जितनी कि पचास वर्ष पहले थी। भारतीय रंगमंच को ऐसे समय पर आक्सीजन दी जब वह आभिजात्य अभिरुचियों में कदमताल कर रहा था। हबीब तनवीर को रंगमंच में योगदान के लिए हमेशा हमेशा के लिए याद किया जाएगा। देहात-कस्बों की कला और कलाकार उनके कार्य और जीवन से प्रेरणा लेते रहेंगें।

संदर्भ:
1 भारतरत्न भार्गव; रंग हबीब: हबीब तनवीर की रंग यात्रा; राष्ट्रीय विद्यालय, नई दिल्ली; प्र.सं. 2006; पृ.-103
2 रंग-प्रसंग; जुलाई-सितम्बर, 2005(भारतरत्न भार्गव का लेखनेपथ्य में थिरकनसे); पृ.175
3 रंग प्रसंग; जुलाई-दिसम्बर, 2002; पृ.-114
4 हबीब तनवीर; चरन दास चोर; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्र.सं. 2004; पृ.-23
5 भारतरत्न भार्गव; रंग हबीब: हबीब तनवीर की रंग यात्रा; राष्ट्रीय विद्यालय, नई दिल्ली;प्र.सं. 2006;पृ. 83
6 रंग प्रसंग; जुलाई-दिसम्बर, 2002 (हबीब तनवीर की संगीता गुंदेचा से बातचीत); पृ.-127
7 हबीब तनवीर; चरन दास चोर; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्र.सं. 2004; पृ.-10
8 रंग प्रसंग; जनवरी-जून,2003; हबीब तनवीर से संगीता गुंदेचा की बातचीत; पृ.- 240 से 243







रविन्द्रनाथ टैगोरः विराट भारतीय आत्मा


रविन्द्रनाथ टैगोरः विराट भारतीय आत्मा

रवीन्द्र नाथ मूलतः बंगला के कवि हैं, लेकिन वे भारत के और विश्व के कवि हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ। कलकत्ता में 7 मई,1861 में हुआ। रविन्द्रनाथ को एक समृद्ध विरासत मिली थी। रविन्द्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ ने जहां उत्पादन को बढ़ावा देने में अपनी ऊर्जा लगाई, वहीं इनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज में सक्रियता से कार्य किया।
रविन्द्रनाथ का संबंध जमींदार घराने से था, उनके दादा द्वारकानाथ ठाकुर राजा कहलाते थे, लेकिन रविन्द्रनाथ का बचपन साधारण तरीके से ही बीता। उन्होंने लिखा कि “हमारे बचपन में भोग-विलास का सरंजाम नहीं था, इतना कहना काफी होगा। ...हम लोग नौकरों के शासन में थे। अपने काम को आसान करने के लिए उन लोगों ने हमारा हिलना-डुलना एक तरह से बन्द कर दिया था। ...हमारे खान-पान में शौकीनी की गंध भी न थी। कपड़े-लत्ते इतने साधारण थे कि आज के लड़कों के सामने उनकी फेहरिस्त रखने से इज्जत जाने का डर है। दस साल की उम्र होने से पहले कभी किसी दिन किसी कारण से मौजा मैने नहीं पहना। जाड़े के दिनों में एक सादे कपड़े के ऊपर और भी एक सादा कपड़ा ही काफी था। इसके लिए मैने किसी दिन भाग्य को बुरा-भला नहीं कहा। हां, हमारे घर का दर्जी नियामत खलीफा उपेक्षा के भाव से जब हमारे कुर्ते में जेब लगाना आवश्यक समझता तो इसका हमें दु:ख होता - क्योंकि ऐसा कोई लड़का तो किसी भिखारी के घर भी पैदा नहीं होता जिसके पास अपनी जेब में रखने के लिए कुछ-न-कुछ चल-अचल संपति न हो। ... छोटी से छोटी चीजें भी हमारे लिए दुर्लभ थीं, बड़े होने पर कभी मिलेंगी इसी आशा में उन सबको दूर भविष्यत् के हाथों में समर्पित करके हम बैठे हुए थे। उसका फल यह हुआ था कि उन दिनों जो कुछ भी हमें मिल जाता उसका रस पूरा-पूरा गार लेते थे, छिलके से लेकर गुठली तक कुछ भी फेंका न जाता।”
वे अपने पिता की तेहरवीं संतान थे। रविन्द्रनाथ के भाई और उम्र में बड़े भानजे को स्कूल में जाते देख स्कूल जाने की जिद्द की तो निरुत्साहित करने के लिए “हम लोगों के जो शिक्षक थे उन्होंने मेरा मोह भंग करने के लिए एक जोरदार तमाचे की तरह यह सारगर्भ बात कही थी, तुम अभी स्कूल जाने के लिए जिस तरह रो रहे हो, न जाने के लिए इससे कहीं ज्यादा तुम्हें रोना पड़ेगा।” असल में शिक्षा प्रणाली का यह सच ही था। 8 मार्च, 1874 को लगभग 12-13 साल की उम्र में उनकी मां का देहांत हो गया। रविन्द्रनाथ कवि तथा नाटक के अभिनेता के तौर पर प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे थे, सत्रह साल की उम्र में अंग्रेज़ी की पढ़ाई के लिए 1878 में इंगलैंड भेजे वे अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही बुला लिये गए। 9 दिसम्बर 1883 को बाईस साल की उम्र में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह कर दिया गया। उनके पांच संतानें हुईं। इनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की। इनकी पत्नी के देहांत के बाद बच्चों को पिता के साथ-साथ मां का प्यार भी दिया। बाल मनोविज्ञान को जानने का अवसर मिला और बेहतरीन बाल साहित्य की रचना की। इनकी बेटी तथा एक बेटे की मृत्यु ने गहरा आघात पहुंचा। उन्होंने 1901 में विश्वभारती स्कूल की स्थापना की। जिसमें अंग्रेजी शिक्षा के विकल्प के तौर पर शुरु की थी। आज यह शान्तिनिकेतन विश्वविद्यालय के तौर पर फल-फूल रहा है।
1911 में भारत का राष्ट्रगान ‘ष्जन गण मण’ लिखा और उसी साल उन्होंने ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोध प्रकाशिका‘ में इसे ‘भारत विधाता‘ शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस पत्रिका का सम्पादन गुरुदेव ही करते थे।1911 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिसंबर को इसे गाया गया।शुरु में इस पर आरोप लगाया जाता रहा कि यह जार्ज पंचम की अभ्यर्थना में लिखा गया है। कहा तो यहां तक गया कि गीत में जार्ज पंचम को ही भारत भाग्य विधाता कहा गया है।यह संयोग ही था कि जिस अधिवेशन में यह गाया गया उसी अधिवेशन में जार्ज पंचम का अभिनंदन करने का निर्णय लिया गया था। अभिनंदन करने का कारण था कि उन्होंने बंगभंग के फैसले को रद्द करने का ऐलान किया था।
गुरुदेव ने इन विवादों का ज़ोरदार विरोध किया और कहा कि ‘भारत भाग्य विधाता‘ और ‘जय हे‘ का भारत के जनगण के लिए ही व्यवहार किया गया है। यह गीत देश के जनगण के लिए समर्पित है। गुरुदेव ने स्वयं 1905 में बंगभंग के ख़िलाफ़ कलकत्ता में निकले ऐतिहासिक जुलूस का नेतृत्व किया था। उसी दौरान उन्होंने ‘बंगलार माटि बंगलार जल‘ शीर्षक गीत लिखा था। रविन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा शास्त्री, दार्शनिक, कवि, चित्रकार के तौर पर प्रसिद्ध हुए। 15 साल की उम्र में उन्होंने कविता पाठ किया। उनकी कविताएं उनके मित्र की मासिक पत्रिका में प्रकाशित होती थी और उनके नाटकों में मुख्य भूमिका निभाने के कारण कलकत्ता के आस पास के क्षेत्र में जाने जाने लगे थे। 51 साल तक उनका दायरा सीमित ही रहा। 1912 में उनकी प्रसिद्धि हुई। उन्होंने अपनी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। अपनी डायरी को भूल गए और वह चित्रकार रोथेन्स्टाइन के हाथ लग गई। इस चित्रकार ने अपने दोस्त प्रख्यात कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स को दिखाया। उन्हें ये कविताएं बेहद पसन्द आईं और उसकी भूमिका लिख दी जो 1912 में लंदन गीतांजलि नाम से प्रकाशित हुई। और एक साल के भीतर नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। और रविन्द्रनाथ पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गए। इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले पहले गैर पश्चिमी व्यक्ति थे। रविन्द्रनाथ टैगोर मूलत: बंगला भाषा के कवि हैं, लेकिन गीतांजलि की सफलता के बाद उन्होंने अपनी रचनाओं को अंग्रेजी में अनुवाद किया।1913 में गीतांजलि की कविताओं पर नोबेल पुरस्कार मिला और इससे एक लाख बीस हजार रुपए मिले जो शान्तिनिकेतन आश्रम के कामों में लगा दिए। 1915 में अंग्रेजी सरकार ने सर की उपाधि दी। 1919 में जलियांवाला बाग के बर्बर नरसंहार से दुखी होकर रोष स्वरूप इसे वापिस लौटा दिया। और बहुत ही तीखा पत्र लिखा जिसे साहसी कार्रवाई माना गया।
रविन्द्रनाथ ने 11 बार विदेश की यात्राएं कीं। पूरा यूरोप, रूस, अमेरिका के दोनों महाद्वीप, चीन, जापान, मलाया, जावा, ईरान आदि देशों की यात्रा की। कई विद्वानों से परिचय हुआ। विलियम रोथेन्स्टाइन, कवि यीट्स, एच जी वेल्स, आईंस्टाइन से मुलाकात हुई। प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोस से उनकी गहरी मित्रता थी। अपने जमाने के हर क्षेत्र के यशस्वी लोगों से टैगोर के संबंध थे। 7 अगस्त 1941 को रविन्द्रनाथ की मृत्यु हो गई।
उन्होंने एक हजार से अधिक कविताएं, आठ कहानी संग्रह, दो दर्जन नाटक, आठ उपन्यासों के अलावा धर्म, दर्शन, संस्कृति,शिक्षा आदि विषयों पर सैंकड़ों निबन्धों उनके विचार हैं। साहित्य लेखन के अलावा वे संगीतकार थे। उन्होंने लगभग दो हजार गीतों को संगीत दिया। 1929 में उन्होंने चित्रकारी शुरु की।
भारत के भविष्य का स्पष्ट नक्शा उनके जेहन में था, जो उनके साहित्यिक-रचनाओं में परिलक्षित होता है।’प्रार्थना’ और ’त्राण’ कविता में जो संकल्प है, वह रवीन्द्रनाथ के जीवन और साहित्य के लक्ष्यों व प्रतिबद्धताओं के साथ भारतीय समाज में व्याप्त समस्याओं की ओर भी संकेत करती है।
चित्त जहाँ शून्य, शीश जहाँ उच्च है
ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह-प्राचीरों ने
वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में
छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर बन्दी नहीं किया है
जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता
जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्रविधि चरितार्थता में
देश-देश और दिशा-दिशा में प्रवाहित होता है
जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल
विचार के स्रोत पथ को सोखकर
पौरुष को विकीर्ण नहीं करता
सर्व कर्म चिन्ता और आनन्दों के नेता
जहाँ तुम विराज रहे हो
हे पिता, अपने हाथ से निर्दय आघात करके
भारत को उसी स्वर्ग में जागृत करो!


रवीन्द्र नाथ टैगोर ’त्राण’ कविता में व्यक्त चरित्र के नैतिक-उत्थान, आत्मिक-विकास की बात करते हैं, वही बार-बार उनकी रचनाओं का विषय बना है।
हे मंगलमय, इस अभागे देश से
सर्व तुच्छ भय दूर कर दो।
लोक-भय, राज-भय और मृत्यु भय
प्राण से दीन और बल से हीन का यह असभ्य भार
यह नित्य पिसते रहने की यन्त्रणा
नित्य धूलि-तल में पतन
पल-पल पर आत्मा का अपमान
भीतर-बाहर दासत्व के बन्धन
हजारों के पैरों के नीचे बार-बार त्रस्त और नतशिर होकर
मनुष्य की मर्यादा गौरव का अपहरण परिहरण
मंगलमय अपने चरण के आघात से
इस विपुल लज्जा-राशि को
चूर्ण करके दूर कर दो
अनन्त आकाश उदार आलोक
उन्मुक्त वातास से भरे हुए मंगल प्रभात में
सिर ऊँचा करने दो।
रवीन्द्र नाथ की कविता में काम करते हुए साधारण जन आते हैं।आम साधारण लोगों की मेहनत को रेखांकित करते हैं। उनके प्रति रवीन्द्र नाथ के मन में बड़ा आदर है।आम किसानों-मजदूरों को वे वास्तविक देवता के मानते हैं।साहित्य में आमजन को इससे पहले ऐसी प्रतिष्ठा शायद ही मिली हो। रवीन्द्र नाथ के साहित्य में आम जन के विश्वसनीय चित्रों के पीछे उनका लगाव है। रवीन्द्र नाथ को उनके बीच रहने का मौका मिला, उन्होंने उस जीवन को समझा। आमजन से सच्ची सहानुभूति के बिना ऐसा लेखन संभव नहीं है।

''धुलि-मंदिर'' कविता में
देवता तो वहाँ गए हैं,
जहाँ माटी गोड़कर खेतिहर खेती करते हैं -
पत्थर काटकर राह बना रहे हैं,
बारहों महीने खट रहे हैं।
क्या धूप, क्या वर्षा, हर हालत में सबके साथ हैं
उनके दोनों हाथों में धूल लगी हुई है
अरे, तू भी उन्हीं के समान स्वच्छ कपड़े बदलकर धूल पर जा।

रवीन्द्र नाथ की कविताओं में ब्राह्मणवाद के शिकार दलितों की पीड़ा को समझा और कविताओं में अभिव्यक्त किया।
''ब्राह्मण'' कविता में ''अपमानित'' कविता में
ऐ मेरे देश, तुमने जिनका अपमान किया है
अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।
जिन्हें तुमने मनुष्य के अधिकार से वंचित किया है
सामने खड़ा रखा और तो भी गोद में जगह न दी
अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।

देख नहीं पाते, मृत्यु-दूत द्वार पर खड़ा है
उसने तुम्हारी जाति के अंहकार पर अभिशाप आँक दिया है
अब भी अगर सबको नहीं बुलाते, दूर खड़े रहते हो
चारों ओर अभिमान से अपने को बाँधे रखते हो
तो फिर मौत से चिता की भस्म में सबके समान होगे।

प्रेम रवीन्द्रनाथ की कविताओं का प्रमुख विषय है, जो प्रकृति, मानव से होता हुआ समस्त पृथ्वी तक जाता है। बांगला साहित्य का इतिहासकार सुकुमार सेन ने सही लिखा है कि ''जीवन के प्रति रवीन्द्र नाथ का दृष्टिकोण स्वीकृति, प्रशंसा और कृतज्ञता का था, क्षोभ और शिकायत का नहीं।'' रवीन्द्रनाथ टैगोर हिन्दी के निराला व बांगला के नजरूल इस्लाम की तरह विद्रोही नहीं थे, लेकिन मुक्ति की चाह उनकी रचनाओं के केन्द्र में है। बार-बार विभिन्न विधाओं में इसे व्यक्त करते हैं। ''दो पंछी'' कविता में पिंजरे में बंद पंछी और जंगल के पंछी के बीच संवादों के जरिये ऐश्वर्य़पूर्ण गुलामी के प्रति हेय तथा कष्टपूर्ण आजादी के प्रति मोह रवीन्द्रनाथ के मंतव्य को उद्घाटित करने के लिए काफी है।

वन के पंछी ने कहा, 'भई पिंजरे के पंछी हम मिलकर वन में चलें।'
पिंजरे का पंछी बोला, 'भाई वनपाखी, आओ
हम आराम से पिंजरे में रहें।'
वन के पंछी ने कहा, 'नहीं
मैं अपने-आपको बांधने नहीं दूँगा।'
पिंजरे के पंछी ने पूछा,
'मगर मैं बाहर कैसे निकलूँ? '

वन का पंछी कहता है,
'भाई पिंजरे के पंछी, तनिक वन का गान तो गाओ।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'तुम पिंजरे का संगीत सीख लो।'
वन का पंछी कहता है,
'ना, मैं सिखाए-पढ़ाए गीत नहीं गाना चाहता।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूँ? '
वन का पंछी कहता है,
'आकाश गहरा नीला है,
उसमें कहीं कोई बाधा नहीं है।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'पिंजरे की परिपाटी
कैसी घिरी हुई है चारों तरफ से!'
वन का पंछी कहता है,
'अपने-आपको
बादलों के हवाले कर दो।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'सीमित करो, अपने को सुख से भरे हुए एकान्त में।'
वन का पंछी कहता है,
'नहीं, मैं वहाँ उडूंगा कैसे? '
पिंजरे का पंछी कहता है,
'हाय, बादलों में बैठने का ठौर कहाँ हैं? '

रवीन्द्रनाथ के जीवन-अनुभवों और अन्तर्दृष्टि ने पहचान लिया था कि आजादी प्राप्त करने के संघर्ष में सबसे पहले खुद से संघर्ष करना पड़ता है। आजादी कभी खैरात में नहीं मिलती, उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। ऐश्वर्य और सुविधापरस्त समाज की आजादी की चाह आत्मछलना है।
रविन्द्रनाथ के महात्मा गांधी जैसे राजनीतिक लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध थे, लेकिन वे राजनीति में कभी सक्रिय नहीं हुए। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रविन्द्रनाथ के राष्ट्रगान नामक निबंध में लिखा कि “यह युग भारतवर्ष में राजनैतिक जागरण का युग है। रवीन्द्रनाथ ने किसी जमाने में राजनैतिक आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया था, परंतु बहुत शीघ्र ही उन्होंने देखा कि जिन लोगों के साथ उन्हें काम करना पड़ रहा है, उनकी प्रकृति के साथ उनका मेल नहीं है। रवीन्द्रनाथ अंतर्मुख-साधक थे। हल्ला-गुल्ला करके, ढोल पीट के, गला फाड़ के, लेक्चरबाजी करके जो आंदोलन किया जाता है, वह उचित नहीं जंचता था। देश में करोड़ों की संख्या में दलित, अपमानित, निरन्न, निर्वस्त्र लोग हैं, उनकी सेवा करने का रास्ता ठीक वही रास्ता नहीं है जिस पर वाग्वीर लोग शासक-वर्ग को धमकाकर चला करते हैं। शौकिया ग्रामोद्धार करने वालों के साथ उनकी प्रकृति का एकदम मेल नहीं था। जो लोग सेवा करना चाहते हैं उन्हें चुपचाप सेवा में लग जाना चाहिए। सेवा का विज्ञापन करना सेवा भावना का विरोधी है।”

रविन्द्रनाथ का समय भारतीय इतिहास में क्रांतिकारियों तथा राष्ट्रवादियों के उत्थान का समय है। समाज को हिला देनेवाली घटनाएं उस दौरान हुईं। लेकिन रविन्द्रनाथ का इनके प्रति उदासीनता व तटस्थ भाव एक नई उलझन पैदा करता है। यद्यपि 1857 के मंतव्यों और शहीदों के अप्रतिम साहस को सही परिप्रेक्ष्य देकर अपने समय के साहित्यकारों से अलग रुख अपनाया था। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रति साहित्यकारों के इस रुख को पहचानकर ही रविन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े दुखी मन से लिखा कि ‘‘उस दिन मैने 1857 के महान विप्लव के क्रान्तिकारी दृश्यों के बीच झांक कर देखा और ऐसे अनेक बहादुर लोगों की कल्पना की जो पूरे जोश के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अराजकता के बीच प्रयास करते हुए संघर्ष की कार्रवाई में उतरे थे। यह माना गया कि इस सिपाही-युद्ध के दौरान कई नायकों ने अपनी ऊर्जा का उपयोग एक गैर जरूरी बहादुरी के बिन्दु तक किया। यदि इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी यह जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि ये सिपाही वास्तव में बहादुर थे। उनका नामोल्लेख विश्व के महानतम वीरों में किया जाना चाहिए। इस देश का कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे वीरों के जीवन-वृतांत हमें विदेशियों द्वारा लिखे गए पक्षपाती इतिहास के पन्नों से जुटाने पड़ते हैं। इस सिपाही विद्रोह काल में हम ऐसे अनेक वीर योद्धाओं को चिह्नित कर सकते हैं जो यदि यूरोप में पैदा हुए होते तो उन्हें इतिहास के पन्नों में ही नहीं, कवियों के गीतों, मार्बल की प्रतिमाओं और ऊँचे स्मारकों में अमर बनाने के प्रयास अवश्य होते।’’
रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन को ही अपनी पाठशाला बनाया। अपने जीवन के प्रयोगों से ही उनके सिद्धांत निकले। शिक्षा के क्षेत्र में जो वो मौलिक व वैकल्पिक प्रणाली दे पाए, वह उनके अनुभव की उपज थी। वे स्कूल में गए, लेकिन जल्दी ही छूट गया और अपने घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त की। बेरिस्टर की उपाधि के लिए लंदन में गए, लेकिन बीच में ही छोड़ कर आ गए। शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय बनाने तथा उसकी शिक्षण-पद्धति के निर्मित होने में शिक्षण संस्थाओं में उनके अनुभवों का सर्वाधिक योगदान है। अपनी कविता-कहानियों-नाटकों तथा शिक्षा-संबंधी लेखों में इस संबंध में विचार प्रस्तुत किए हैं।
उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था-प्रणाली-पद्धति तथा उसके मंतव्यों पर गंभीरता से विचार किया है। स्कूली-शिक्षा पर विशेष तौर से। उनके सामने एक स्पष्ट लक्ष्य था, बेहतर समाज के निर्माण का। शिक्षा को वे मनुष्यता के विकास-उत्थान का साधन मानते थे। शिक्षा को विशेषाधिकार नहीं, बल्कि अधिकार के रूप में चाहते थे। शिक्षा के ढांचे की जकड़ विद्यार्थी को भींचकर ही मार देती है। उन्होंने शिक्षा-ज्ञान के चरित्र के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया।उन्होंने लिखा कि “शिक्षा का सबसे बड़ा अंग समझा देना नहीं है, मन पर चोट लगाना है। इस आघात के भीतर से जो चीज बज उठती है उसकी व्याख्या करने के लिए अगर किसी लड़के को कहा जाए तो वह बिल्कुल बच्चों -जैसी कोई बात होगी। लेकिन वह मुंह से जो कुछ कह पा रहा है उससे कहीं अधिक उसके मन में बज रहा है जो लोग विद्यालय से शिक्षार्जन करके केवल परीक्षा के द्वारा फल का निर्णय करना चाहते हैं कि उन्हें इस चीज की कोई खबर नहीं होती। मुझे याद आता है, बचपन में मैं बहुत सी चीजें नहीं समझता था, लेकिन उनसे मेरे मन में बड़ी हलचल सी पैदा हो जाती थी। ”
आज उनके विचारों का महत्तव अधिक हो गया है। वैश्वीकरण व उदारीकरण की नीतियों के कारण शिक्षा का अर्थ पूर्णरूपेण बदल गया है। शासन-सत्ताओं, नीति-निर्माताओं तथा शिक्षकों व विद्यार्थियों शिक्षा के समस्त घटकों में शिक्षा के अर्थ बदल गए हैं। शिक्षा व्यापार की वस्तु के रूप में बदल दी गई है। रवीन्द्र नाथ की तोते की कहानी वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली का गहन विश्लेषण करती है। उसके समस्त पक्षों को छूते हुए शिक्षा की वैकल्पिक प्रणाली के सूत्र इसमें निहित हैं। तोते की शिक्षा का जिम्मा अपने भांजे को देता है, जिसका शिक्षा से कोई लेन-देन नहीं है। वह भव्य इमारतें, अत्यधिक पुस्तकें व शिक्षकों की व्यवस्था तो करता है और खूब अमीर हो जाता है। लेकिन तोते की शिक्षा देने के लिए उसकी कोई समझ नहीं है, वह उसे कागज़ खिलाता है। तोते की शिक्षा की व्यवस्था में जुटे लोग तो मालामाल होते जाते हैं और तोता धीरे-धीरे मरने की ओर अग्रसर होता जाता है, अन्ततः वह मर जाता है। आज शिक्षा में सबसे उपेक्षित विद्यार्थी है। उसका घोर शोषण हो रहा है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने शिक्षा पर गहन जोर दिया।
भविष्य के प्रति जो चिंतित है, वह बच्चों पर जोर देता है। रवीन्द्र नाथ ने बच्चों के लिए जितनी गंभीरता से और जितनी मात्रा में साहित्य की रचना की है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि वे बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उनके मानसिक विकास के लिए कार्यरत थे।
भारतीय नवजागरण के सवालों में स्त्री-मुक्ति का सवाल प्रमुख सवाल था, जिसके इर्द-गिर्द परिवार नामक संस्था का जनतांत्रिकरण, स्त्री-पुरुष समानता, स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह आदि समस्याओं को संबोधित करता था। यद्यपि इसमें उत्तराधिकार व संपति के अधिकार शामिल नहीं थे, लेकिन तत्कालीन संदर्भ में यह काफी क्रांतिकारी था। इसका स्वरूप बेशक संरक्षणवादी था, लेकिन इससे जो चिंगारी निकली, उसी से स्त्री-मुक्ति के स्वतंत्र स्वर मुखरित हुए।
रविन्द्र नाथ ने भारतीय समाज व परिवार में स्त्री की स्थिति का वर्णन करते हुए उसकी मुक्ति के लिए आवाज उठाई। भारतीय रूढ़िवादी समाज में स्त्री की दशा दयनीय थी। रवीन्द्र नाथ ने घर में ही ऐसा देखा और उसे अपने साहित्य में स्थान दिया। पत्नी का पत्र आदि कहानियों तथा घर बाहर, ठकुरानी बहु आदि उपन्यासों में विशेष तौर पर इसे विषयवस्तु बनाया।
रविन्द्र नाथ पश्चिम के आधुनिक ज्ञान और भारत की परम्पराओं के सांमजस्य बिठाने वाले वे व्यक्ति थे। उनको पश्चिम के साहित्य और विज्ञान की गहरी समझ थी तथा भारतीय इतिहास और संस्कृति की नस नस से वे पूर्णत: वाकिफ थे। रविन्द्रनाथ ने अपनी परम्परा का मूल्यांकन तार्किक ढंग से किया। संस्कृत-साहित्य की समृद्ध परम्परा को आत्मसात किया। महाभारत, रामायण के अलावा कालिदास को समझा। बुद्ध, जैन, लोकायतों के चिन्तन-दर्शन को समझा। भक्तिकाव्य की संत व सूफी काव्य का गहराई से अध्ययन किया। भारतीय इतिहास की विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं को समझा। इस सबके तार्किक दृष्टि अपनाने से उदार मानवीय दृष्टि विकसित हुई, जिससे वे भारतीय साहित्य व इतिहास का अद्भुत विश्लेषण कर पाए। गांधारी, कर्ण, जैसे चरित्रों पर कलम चलाकर उन्हें युगानुरूप व्याख्यायित किया। कबीर से वे अत्यधिक प्रभावित थे, कबीर को उन्होंने जिस तरह से समझा, पूरे विमर्श को ही बदल दिया। उनका यह प्रभाव हिन्दी में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के माध्यम से पड़ा।
भारत की बहु-संस्कृति, बहुधर्मी की शक्ति को रविन्द्रनाथ ने पहचाना। विभिन्न क्षेत्रों से आए विभिन्न संस्कृतियों के लोगों के परस्पर आदान-प्रदान से जिस सांझी संस्कृति का निर्माण हुआ, उसे रविन्द्र नाथ ने रेखांकित किया। वे भारत को संस्कृतियों का महा-समुद्र कहते थे। भारत-तीर्थ कविता में इस विचार को अभिव्यक्ति दी। कई लेख इस संबंध में लिखे। उनके इन विचारों का प्रभाव जवाहर लाल नेहरु पर, रामधारी सिंह दिनकर आदि पर दिखाई देता है, जिन्होंने इस विषय पर विस्तृत शोध किया।
कोई नहीं जानता, किसके आह्वान पर
कितने लोगों की दुर्वार धारा कहाँ से आई, और
इस सागर में खो गई।
आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल
सब यहाँ एक देह में लीन हो गए।
आज पश्चिम ने द्वार खोला है, वहाँ से सब भेंट ला रहे हैं
ये देंगे और लेंगे, मिलाएँगे और मिलेंगे, लौटकर नहीं जाएँगे -

लड़ाई के स्रोत में विजय के उन्मत गीत गाते हुए
मरुभूमि और पहाड़-पर्वतों को पार करके जो लोग आए थे
वे सब-के-सब मुझमें विराज रहे हैं, कोई भी दूर नहीं है
मेरे लहू में उनका विचित्र सुर ध्वनित है
आर्य रुद्रवीणा, बजो, बजो, बजो
घृणा से आज भी दूर खड़े हैं जो
बन्धन तोड़ेंगे - वे भी आएँगे, घेरकर खड़े होंगे
इस भारत के महामानव के सागर के सागर-तट पर।

किसी दिन यहाँ महा ओंकार की अविराम ध्वनि
हृदय के तार में ऐक्य के मन्त्र से झंकृत हुई थी।
तप के बल से 'एक' के अनल में 'बहु' की आहुति दे
भेद-भाव भुलाकर एक विराट् हृदय को जगाया था।
उसी साधना, उस आराधना की
यज्ञशाला का द्वार आज खुला है
सबको यहाँ सिर झुकाकर मिलना होगा-
इस भारत के महामानव के सागर-तट पर।

न तो उन्होंने परम्परा का अंधानुकरण किया और न ही आधुनिकता का। परम्परा के मामले में मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास का कथन ही उनका आदर्श था।
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।।
परम्परा के प्रति ऐसे विवेकपूर्ण रवैये के कारण ही वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की सीमाओं व खतरों को समझते थे। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के परस्पर संबंध को वे समझते थे। परम्परा के भार से दबे हुए नहीं थे। निर्भीक आलोचना उनके चिन्तन को विश्वसनीयता प्रदान करता है। वर्तमान जीवन से परम्परा को तथा परम्परा से वर्तमान जीवन को समझने की अद्भुत टेक्नीक विकसित की। भारतीय दर्शन की अद्भुत कृति गीता पर टिप्पणी इसे समझा जा सकता है।
1932 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ईरान के शाही निमन्त्रण पर वायुमार्ग से ईरान गए थे। इस हवाई यात्रा का वर्णन उन्होंने अपनी फारस में नामक छोटी सी पुस्तिका में किया है। उन्होंने लिखा कि वह पृथ्वी जिसे मैं उसकी विविधता और निश्चयात्मकता वाली वस्तुओं का संज्ञान कराने वाली के रूप में जानता हूँ, अस्पष्ट सी होने लगी और इसका त्रिआयामी स्वरूप सिमटकर द्विआयामी यानी चित्र की तरह प्रतीत होने लगा। ...मुझे ऐसा लगने लगता है कि उस स्थिति में जब मनुष्य इतनी ऊंचाई से सैंकड़ों विनाशकारी शस्त्रों को बरसाता है वह कितना नृशंस हो सकता है। वह इस अपराध की भयानकता से किंचित भी विचलित नहीं होता जो उसके उठे हुए हाथ को संकोच से कंपा सकती और रोक सकती थी, अगर वह मारे जाने वालों की वास्तविक संख्या को जान सकता लेकिन वे तो उसके सामने आ ही नहीं पाते। लेकिन जब वह यथार्थ जिससे मनुष्य का घनिष्ठ संबंध रहता है, धुंधला हो जाता है तो उस घनिष्ठता का आधान भी तिरोहित हो जाता है। गीता में प्रस्तुत उपदेश और दर्शन इसी तरह का एक ऐरोप्लेन है - अर्जुन की चेतना को जो कि करुणा से पूर्ण थी उसे ऐसी ही ऊंचाई पर ले जाया गया, जहां कोई यह नहीं पहचान सकता था कि कौन वधिक है और कौन वध्य। कौन सगा संबंधी है और कौन अजनबी। मनुष्य के आयुधागार में ऐसे कितने ही ऐरोप्लेन भरे पड़े हैं जो दर्शनों से निर्मित हैं जो सामाजिक धार्मिक सिद्धांतों के रूप में उस यथार्थ को ढँक लेते हैं जो साम्राज्यवाद या विस्तारवाद की नीतियों से पैदा होता है। इसमें उसके लिए केवल यही संतोष बचा रहता है, जब भी उस पर विनाश फट पड़ेगा - न हन्यते हन्यमाने शरीरे। ।।

राजनीतिक वैचारिक तौर पर वे सैन्यवाद और राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। वे बहु-संस्कृति, विविधता और सहनशीलता के पक्षधर और विश्वबंधुत्व के समर्थक थे। संकीर्ण राष्ट्रवाद की उनके चिन्तन में कोई जगह नहीं थी। साम्राज्यवाद का सबसे क्रूर और स्पष्ट चेहरा युद्ध में नजर आता है। रवीन्द्र नाथ ने दो-दो विश्वयुद्धों से उत्पन्न त्रासदी को महसूस किया। युद्ध का दौर उनके लिए सर्वाधिक पीड़ादायी था। वे युद्ध के खिलाफ किसी राजनीतिक नफे-नुक्सान की गणना करके नहीं थे, बल्कि युद्ध को वे मानव-संस्कृति के विनाशक के तौर पर देखते थे। ‘जे युद्धे भाई के मारे भाई’ कविता जिसका मूल बांग्ला से हिन्दी अनुवाद मोहनदास करमचंद गांधी ने किया महत्तवपूर्ण है।
वह लड़ाई ईश्वर के खिलाफ लड़ाई है ,
जिसमें भाई भाई को मारता है ।

जो धर्म के नाम पर दुश्मनी पालता है ,
वह भगवान को अर्घ्य से वंचित करता है ।
जिस अंधेरे में भाई-भाई को नहीं देख सकता ,
उस अंधेरे का अंधा तो
स्वयं अपने को नहीं देखता ।
जिस उजाले में भाई भाई को देख सकता है ,
उसमें ही ईश्वर का हँसता हुआ
चेहरा दिखाई पड़ सकता है ।
जब भाई के प्रेम में दिल भीग जाता है ,
तब अपने आप ईश्वर को
प्रणाम करने के लिए हाथ जुड़ जाते हैं।

रवीन्द्रनाथ की मृत्यु पर गांधी जी ने कहा था कि “गुरुदेव की देह खाक में मिल चुकी है, लेकिन उनके अंदर जो जोत थी, जो उजाला था, वह तो सूरज की तरह था, जो तब तक बना रहेगा, जब तक धरती पर जानदार रहेंगे। गुरुदेव ने जो रोशनी फैलाई वह आत्मा के लिए थी। सूरज की रोशनी जैसे हमारे शरीर को फायदा पँहुचाती है, वैसे गुरुदेव की दी हुई रोशनी ने हमारी आत्मा को ऊपर उठाया है।... वे तो बस गुरुदेव ही नहीं थे, वे तो ऋषि थे।”
आज हमारा समाज साम्प्रदायिकता, धार्मिक पाखण्ड, जातिगत कट्टरता, साम्राज्यवादी शोषण, मानवीय मूल्यों के पतन, चारित्रिक पतन के संकटों से जूझ रहा है। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए रवीन्द्रनाथ के साहित्य में मौजूद चेतना को जन जीवन का हिस्सा बनाने की आवश्यकता