हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर,
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
हिन्दी साहित्य के
पठन-पाठन के दो केन्द्र हैं। एक तो औपचारिक ढांचा है, जिसमें उच्च शिक्षा के
संस्थान विश्वविद्यालय व महाविद्यालय तथा सरकारी अनुदान प्राप्त साहित्य अकादमियां
हैं। इनमें कार्यरत नामी-गिरामी प्रोफेसर हैं, निरीह-लाचार और तेजस्वी शोध-छात्र
हैं, सत्ता के कृपा-प्रार्थी जुगाड़ू साहित्यकार हैं। साहित्य से जुड़ाव-लगाव की
इनकी प्रेरणा मोटी-मोटी तनख्वाहें हैं, डिग्रियां हैं, पुरस्कार हैं, अनुदान हैं।
इनके ज्ञान-प्रक्षालन के लिए सरकारी खरीद पर मुटाते प्रकाशक हैं, विभागों की कथित
शोध पत्रिकाएं हैं, सरकारी पत्रिकाएं हैं, अभिनन्दन ग्रंथ हैं, रेडियो-दूरदर्शन
हैं। यहां विमर्श की एक खास संस्कृति है, जिसकी जड़ें हिन्दी के रीतिकाल के
साहित्यकारों तथा हिन्दी के आदिकाल के चारण-भाटों में हैं। यहां विमर्श खासा औपचारिक
और सुविधाजनक है। सरकारी प्रसाद का अधिक से अधिक स्वाद चखने की यहां कुछ होड़ भी
है, लेकिन कोई तीखे वैचारिक मतभेद नहीं हैं, कोई गरमा-गरम बहस की गुंजाइश भी यहां
नही है।
हिन्दी के पठन का
दूसरा केन्द्र अनौपचारिक ढांचा है। इसमें स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के लेखक
संगठन और सभाएं हैं, सामाजिक बदलाव के इच्छुक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।
इनकी प्रेरणा के स्रोत साहित्य द्वारा सामाजिक बदलाव है। इनके अपने मंच हैं,
लघु-पत्रिकाएं हैं। साहित्यिक विमर्श का माहौल खासा अनौपचारिक है, गम्भीर बहसें
हैं, सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक सवालों पर गहन संवाद हैं। विचारधारात्मक संघर्ष
हैं। साहित्यिक दृष्टियों में मतभेद हैं, अपने पसंदीदा व चहेते साहित्यकारों को प्रोजेक्ट
करने के चेलावादी-रुझानों के साथ दूसरों की टांग खिचाई भी है। इसी परिवेश में
नवलेखक का विकास होता है। हिन्दी साहित्य पठन-पाठन के इन दोनों केन्द्रों के
अन्तःसम्बन्धों का अजीब समाजशास्त्र है। इनमें दूरी भी है और निकटता भी। इनमें
सक्रिय व्यक्ति एक-दूसरे के क्षेत्रों में विचरण करते हैं।
औपनिवेशिकता
हिन्दी साहित्य का
बौद्धिक वर्ग प्रारंभ से ही औपनिवेशिक संस्कारों, विचारों और मानसिकता से ग्रस्त
रहा है। हिन्दी के समाज और इसके बौद्धिक वर्ग में चौड़ी खाई है। बौद्धिक-वर्ग का
अपने समाज से नाभि-नाल का संबंध नहीं है। उसकी जड़ें कहीं ओर हैं, वहीं से यह
बौद्धिक खुराक ग्रहण करता है। साफ तौर पर कहा जाए तो इसने स्वयं को औपनिवेशिक शासन
सत्ता के हितों के साथ जोड़ा और उसके विचार को ही आगे बढ़ाया।
भारत के प्रथम
स्वतंत्रता-संग्राम के प्रति तत्कालीन साहित्यकारों और चिन्तकों के रवैये से ही
इसकी पुष्टि व शुरुआत होनी शुरु हो जाती है। 1857 के जन-विद्रोह में किसान और
सिपाही औपनिवेशिक शासन-सत्ता से संघर्ष कर रहे थे, जबकि उच्चवर्गीय चरित्र व हितों
के कारण तत्कालीन साहित्यकार व बौद्धिक वर्ग अंग्रेजी सत्ता के साथ थे।1
हिन्दी साहित्य में 1857 के प्रति उदासीनता और चुप्पी इसी ओर संकेत करती है। 1857
के बलिदानियों के प्रति बौद्धिकों के रवैये से दुखी मन से रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
लिखा कि “उस दिन मैने 1857 के
महान विप्लव के क्रान्तिकारी दृश्यों के बीच झांक कर देखा और ऐसे अनेक बहादुर लोगों
की कल्पना की जो पूरे जोश के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अराजकता के बीच
प्रयास करते हुए संघर्ष की कार्रवाई में उतरे थे। यह माना गया कि इस सिपाही-युद्ध के
दौरान कई नायकों ने अपनी ऊर्जा का उपयोग एक गैर जरूरी बहादुरी के बिन्दु तक किया। यदि
इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी यह जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि ये सिपाही वास्तव
में बहादुर थे। उनका नामोल्लेख विश्व के महानतम वीरों में किया जाना चाहिए। इस देश
का कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे वीरों के जीवन-वृतांत हमें विदेशियों द्वारा लिखे गए पक्षपाती
इतिहास के पन्नों से जुटाने पड़ते हैं। इस सिपाही विद्रोह काल में हम ऐसे अनेक वीर योद्धाओं
को चिह्नित कर सकते हैं जो यदि यूरोप में पैदा हुए होते तो उन्हें इतिहास के पन्नों
में ही नहीं, कवियों के गीतों, मार्बल की प्रतिमाओं और ऊँचे स्मारकों में अमर बनाने के प्रयास
अवश्य होते।’’2
बीसवीं शताब्दी के
तीसरे दशक में हिन्दी साहित्य का औपचारिक पठन-पाठन प्रारम्भ हुआ। इसके लिए सामग्री
तैयार की गई। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा गया, इसकी औपनिवेशिक दृष्टि थी। औपनिवेशिक
इतिहास बोध ने हिन्दी की परम्परा का मूल्याकंन अपने ढंग से किया और उसके जनपक्षीय
एवं विद्रोही स्वरों का अनुकूलन करने की कोशिश की। औपनिवेशिक दृष्टि ने मध्यकालीन
साहित्यिक परिवेश और उसकी साहित्य चेतना के मूल्याकंन को विकृत किया, जिसे हिन्दी
का औपचारिक पाठक अभी भी धारण किए हुए है। मध्यकाल के सूफी-संतों के अनुयायी हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायों-समुदायों तथा
समाज की विभिन्न श्रेणियों से आ रहे थे। भारत की बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुसंस्कृति
के चरित्र को उभारकर सांझी संस्कृति के निर्माण का महत्वपूर्ण काम कर रहे थे।
लेकिन औपनिवेशिक इतिहास बोध के शिकार हिन्दी के बुद्धिजीवी इसे अनदेखा करते हुए
इसे मुस्लिम अत्याचार की प्रतिक्रिया के रूप में परिभाषित कर रहे थे।3 यह विचार सूफी-संतों के अध्ययन से नहीं, बल्कि यह
औपनिवेशिक डिजाइन का हिस्सा था, जो भारतीय इतिहास को धार्मिक-साम्प्रदायिक
संघर्षों-विवादों में व्याख्यायित करके वर्तमान में भारतीय जनता का धार्मिक-साम्प्रदायिक
विभाजन करना चाहता था। मलिक मुहम्मद जायसी जैसे लोक-सांस्कृतिक कवि को एक सूफी मत
के कवि के तौर पर ही पढ़ा गया, जबकि विजयदेव नारायण साही ने ‘पद्मावत’ की तथ्यपरक शोध व विश्लेषणपरक व्याख्या करके
बताया कि जायसी का काव्य सूफी सिद्धातों का प्रतिपादन नहीं करता।4
मध्यकालीन
साहित्यकारों विशेषतौर पर कबीर, नानक, रैदास, दादू, मीरा, जायसी व अन्य सूफी-संत
तत्कालीन सांस्कृतिक संघर्ष की उपज थे। वे निम्न वर्गों के बुद्धिजीवी थे, जो अपने
ही ढंग से भारतीय परम्परा का मूल्यांकन कर रहे थे। धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता की
आलोचना करते हुए उदार समाज की स्थापना करना चाहते थे। इन्होंने हिन्दू और इस्लाम
दोनों धर्मों के कर्मकाण्डों की खिल्ली उड़ाते हुए सख्त आलोचना की तथा धर्म के
नैतिक-मानवीय स्वरूप को स्थापित किया। मध्यकालीन आन्दोलन की सामाजिक व्याख्या से समाज का उच्च वर्ग घबराता था, इस
कारण संतो-सूफियों के आन्दोलन में सामाजिक-समानता, सामाजिक-स्वतंत्रता और सामाजिक
न्याय व मानव मुक्ति को नजरअंदाज करते हुए इसे भक्ति-अध्यात्म के पिंजरे में डाल
दिया।
संतों-सूफियों के
साहित्य को विभिन्न साधना पद्धतियों के रूप में ही व्याख्यायित किया, मानो कि ये
साहित्यकार नहीं, धर्म गुरू हों और कोई पंथ बनाने निकलें हों। साधना पद्धतियों और
विभिन्न मत-मतान्तरों के तात्विक रूप में इसे व्याख्यायित करने में औपनिवेशिक
इतिहास बोध व दृष्टि काम कर रही थी।5
औपनिवेशिक शासन
सत्ता से प्रभावित बुद्धिजीवियों ने भारतीय चिन्तन परम्परा को ‘दूसरे लोक के चिन्तन’ तक
सीमित-सुरक्षित कर देना चाहती थी, ताकि वास्तविक जगत की व्याख्या पर उनका एकाधिकार
रहे। वास्तविक जगत की अपने अनुकूल व्याख्या से ही उनकी लूट और उसकी वैधता जारी रह
सकती थी। जिसमें वे काफी हद तक कामयाब हुए। औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों ने भारत के
आध्यात्मिक चिन्तन को तो अतिरिक्त उभार दिया, जबकि भारतीय भौतिकवादी चिन्तन की
समृद्ध परम्परा को अनदेखा किया गया, जिसमें वैज्ञानिकता के विकास की अपार
संभावनाएं थीं या फिर उसकी विकृत व्याख्याएं करके आध्यात्मिक चिन्तन का रंग दे
दिया।
मध्यकालीन साहित्य
को अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद की श्रेणियों में
विभाजित करना तथा इनके जीवन-दर्शन की व्याख्या जीव, जगत, ब्रह्म, माया की बद्ध
श्रेणियों में की। इस श्रेणी-विभाजन से ही कबीर, रैदास, नानक, मीरा, दादू आदि के
साहित्य की क्रांतिकारी परिवर्तनधर्मी चेतना पर राख डाल दी गई। तत्कालीन शासन
सत्ताओं से इनका संघर्ष, स्थापित सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति इनका आक्रोश
विमर्श का मुद्दा ही नहीं बना। ये अपने समाज के बृहतर सवालों के साथ-साथ पूरी
परम्परा को भी परिभाषित करते हुए अपना पक्ष निर्मित कर रहे थे, जिसकी ओर
बुद्धिजीवी समाज ने कोई ध्यान ही नहीं दिया। मसलन् कबीर ने लिखा “संसकिरत भाषा कूप जल, भाखा बहता नीर” जो तत्कालीन विमर्श को उद्घाटित कर रहा है। “भाषा बनाम भाखा” का सवाल असल में
भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सांस्कृतिक संघर्षों की ओर संकेत करता है,
जिसे वर्चस्वशाली वर्ग कभी सतह पर नहीं आने देना चाहते।
हिन्दी साहित्य
लेखन और उसके औपचारिक पाठन में गहरी खाई है। हिन्दी साहित्य प्रारम्भ से ही
सत्ता-विरोध में पनपा। भारतीय समाज की वास्तविक जनता की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को
शासन-सत्ताओं से टकराकर हिन्दी लेखकों ने साहित्य में अभिव्यक्ति दी, लेकिन हिन्दी
के बौद्धिक वर्ग के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, बल्कि उसने सत्ता के साथ ही
गलबहियां करते हुए उसके हितों को आगे बढ़ाया।
स्वतंत्रता के बाद
भारतीय शासक वर्ग जनता को अराजनीतिक बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहा था। स्वतंत्रता
से पहले जो नेतृत्व विद्यार्थियों, अध्यापकों और साहित्यकारों से राजनीति में
सक्रिय होने की अपील कर रहा था, स्वतंत्रता के बाद वही नेतृत्व साहित्य को और
विश्वविद्यालय के शिक्षकों व विद्यार्थियों से राजनीति से दूर रहने की अपील कर रहा
था। साहित्य और राजनीति के संबंधों को लेकर एक जबरदस्त बहस छिड़ गई थी। आधुनिक
समाज को नियंत्रित करने वाली राजनीति को ही यदि साहित्य से बहिष्कृत कर दिया जाए,
तो उसमें क्या बचेगा। स्त्री-पुरुष के संबंध, सेक्स, दृष्टिविहीन आक्रोश, कुंठा,
भड़ास, सर्वस्व नकार, प्रकृति का निरपेक्ष व एकांगी चित्रण आदि। ऐसा साहित्य भी
काफी मात्रा में लिखा गया, जो बहुत भव्यता-शालीनता और तटस्थता के साथ आया था,
लेकिन समय के साथ उसकी स्याही धुलनी ही थी। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों से यदि
राजनीति निकाल दी जाए तो उनका क्या स्वरूप होगा, इसका अनुमान लगाना कोई यक्ष-प्रश्न
नहीं है।
हिन्दी में औपचारिक
विमर्श और शिक्षा से हर परिवर्तनधर्मी आन्दोलन वे विमर्श को राजनीति कहकर खारिज
करने की कोशिश की गई। प्रगतिशील आन्दोलन के साथ भी यही हुआ। अभी कुछ वर्ष पहले
उभरे स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के साथ भी यही हो रहा है। असल में हिन्दी का
बौद्धिक वर्ग यथास्थितिवादी और सत्ता की दलाली करता है और परिवर्तनधर्मी आन्दोलनों
को वह विश्वविद्यालयों और अकादमियों के परिसरों में फटकने भी नहीं देता।
हिन्दी साहित्य के
विचारकों ने काव्यशास्त्र विकसित करने की दिशा में कोई निर्णायक तौर पर उल्लेखनीय
कार्य नहीं किया, बल्कि संस्कृत के काव्यशास्त्र के खाके में हिन्दी साहित्य को
कसना चाहा। संस्कृत का काव्यशास्त्र ‘रसज्ञता’ और ‘सहृदयता’ पर आधारित है, जो खास आभिजात्यता की
मांग करता है। उसकी कसौटी पर न तो मध्यकालीन सूफी-संत खरे उतरे थे, न प्रगतिशील
आन्दोलन के कवि और न ही दलित और स्त्री लेखिकाएं खरे उतरेंगे। हिन्दी साहित्य के
औपचारिक बौद्धिक ने अपने साहित्य की जमीन से खुराक लेकर कोई शास्त्र निर्मित नहीं
किया। वह तो इस साहित्य पर पश्चिम प्रभाव का राग अलापता रहा और रोमांटिसिज्म का
छायावाद, प्रोग्रेसिव का प्रगतिवाद और बाद में न्यू क्रिटिसिज्म की तर्ज पर नई
समीक्षा, शैली-विज्ञान, उत्तर-आधुनिकता पश्चिम के साहित्य चिन्तन की बौद्धिक
जुगाली भी करता रहा। पश्चिमी चिन्तन की नकल के मामले में हिन्दी के औपचारिक
बौद्धिक वर्ग की स्थिति उस चोर की थी, जो चोर ढूंढने वाली भीड़ में सबसे आगे और
सर्वाधिक मुखर था। हिन्दी साहित्य के
बौद्धिक वर्ग के कुशल अभिनेता मंचों पर सिद्धांतों का जाप ही करते रहे, साहित्य को
व्याख्यायित करने की जहमत ही नहीं उठाई। उत्तर आधुनिकता, विखण्डनवाद की सैद्धांतिकी
पर लम्बे-लम्बे व्याख्यानों से उनकी विद्वता की धाक तो जमती रही, लेकिन साहित्य का
कोई भला नहीं हुआ। प्रगतिशील साहित्य के लिए सौन्दर्यशास्त्र निर्मित करने की दिशा
में सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में
प्रेमचन्द ने यह कहते हुए शुरुआत जरूर की थी कि “''हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की
वस्तु नहीं समझते। हमारी
कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का
प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे,
सुलाये नहीं क्योंकि और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”6
हिन्दी साहित्य के
पठन-पाठन में कई स्तरों पर विभाजन दिखाई देते हैं। कृति के भाव-पक्ष और कला पक्ष
को, कथ्य और रूप को, व्यक्ति और समाज को प्रतिद्वन्द्वी की तरह देखा जाता है। जिस
ठस्स व कृत्रिम भाषा में हिन्दी का साहित्य पढ़ा-पढ़ाया जाता है और जिस जीवन्त व
ताजगी भरी भाषा को हिन्दी जनता बोलती है और साहित्य रचा जाता है, उसमें गहरा विभाजन है। यह विभाजन असल में हिन्दी
के आभिजात्य और लोक का है। हिन्दी के औपचारिक पठन-पाठन से जो आभिजात्य वर्ग जुड़ा,
उसने संस्कृतनिष्ठ भाषा को अपनाया तथा इसे मानक भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित किया।
इस वर्ग ने हिन्दी की बोलियों और सहयोगी भाषाओं के साथ सचेत तौर पर दूरी बनाकर
रखी। इसने साहित्य के अध्ययन को बहुत नुक्सान पहुंचाया। हमारे समय के प्रख्यात कवि
कुंवर नारायण ने सही लिखा है कि “ लिखित और बोलचाल
की भाषा में थोड़ा फासला तो सभी भाषाओं में रहता है पर इतना नहीं कि उसके कारण
साहित्य और पाठक के बीच सम्प्रेषण की दूरी (communication gap) इस तरह बन जाए कि उससे पाठक की
प्रतिक्रिया (reader response) गम्भीर रूप से प्रभावित
होने लगे और दोनों के बीच लेन-देन की एक सार्थक और अनुकूल परिस्थिति बनने में
कठिनाई हो। पाठक के साथ साहित्य के जीवंत संवाद की स्थिति का न बन पाना मानवीय
स्तर पर दोनों की शक्ति को विपरीत ढंग से प्रभावित करता है। मानव संस्कृति के एक
बहुत ही समर्थ स्रोत, यानी साहित्य से अधूरा सामना सामाजिक चेतना का अपनी भाषा के
एक अत्यन्त संवेदनशील प्रभाव से वंचित रह जाना है।”7 अंगेंजी-शासन ने अपने शासकीय हितों की पूर्ति के लिए अपनी
शिक्षा-प्रणाली के माध्यम से जिस मध्यवर्गीय वर्ग को पैदा किया, उसने देशज ज्ञान
से, लोक से भावनात्मक स्तर पर दूरी रखी। आधुनिक छापेखाने की तकनीक के आने के बाद
छपे हुए अक्षर को ही ज्ञान की श्रेणी में रखा गया, जबकि लोक में ज्ञान मौखिक
परम्पराओं में सुरक्षित था। अंग्रेजी शिक्षा के ढांचे से निम्न वर्ग बाहर ही रहा।
निम्न वर्गों में शिक्षा के लिए जोतिबा फूले के संघर्ष इसी ओर संकेत करते हैं। लोक
से दूर शासन-सत्ता के संरक्षण में जिस हिन्दी का विकास हुआ, उसने अपना रिश्ता जन
भाषा से न जोड़कर आभिजात्य की भाषा से जोड़ा।
हिन्दी साहित्य के
औपचारिक पठन-पाठन में कविता अभी ज्ञान और आनन्द का बायस नहीं बनी। इसलिए विश्वविद्यालय
और महाविद्यालयों की शिक्षा में स्नातक तक हिन्दी अनिवार्य विषय होने के बावजूद
तथा हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर और डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने पर भी विद्यार्थी
साहित्य के गम्भीर पाठक नहीं बन पाते। औपचारिक ढांचे से जुड़े अधिकांश विद्यार्थियों
और अध्यापकों के लिए साहित्य का पठन-पाठन दाल-रोटी के साथ मलाई के सवाल से आगे
नहीं बढ़ा। कविता के बहाने से अशोक वाजपेयी ने संकेत किया है। कि “पर विडम्बना यह है कि कविता के प्रति समाज की विमुखता या उदासीनता भी शायद
अभूतपूर्व है। हिन्दी अंचलों में हर वर्ष लाखों छात्र-छात्राएं अपनी कक्षाओं और
पाठ्य पुस्तकों में कविताएं पढ़ते हैं और उनमें से एक प्रतिशत
भी कविता में रुचि या उसका रस लेने के क्षेत्र में थम नहीं पाते। जिसे हम
महत्वपूर्ण और विचारणीय कविता कहते हैं उसके पाठकों या श्रोताओं की संख्या हिन्दी
भाषी जनसंख्या के मान से लगभग नगण्य है क्योंकि पुस्तकें वे भी कविता की,
खरीदनेवालों की संख्या लज्जाजनक रुप से इतनी कम है कि उसे संख्या मानने में भी
संकोच होता है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किस तरह के कविता विमुख और पुस्तक
उदासीन समाज में हिन्दी कविता लिखी जा रही है।”8
हिन्दी की बौद्धिकता का दिवालियापन ही कहा जायेगा कि जब
विश्व और भारत की दूसरी भाषाओं में पठन-पाठन के नए औजार विकसित हो रहे हैं,
विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम बनाने वाले सरकारी चोटीधारी
आचार्य अभी उसी लीक को पीटने में लगे हैं।
गुरु के आशीर्वाद को ही अपनी ज्ञान-पूंजी के रूप में सहेजने वाले शिक्षक कक्षाओं
में कविताओं को मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में देखते हैं। हर कविता की आत्मा
का परमात्मा से मिलन के रूप में व्याख्या करते हैं और कविता का धार्मिक भजनों की
तरह रट रहे हैं। हिन्दी का यह दकियानूसी शिक्षक शुद्ध-भौतिक कविता को भी
आध्यात्मिक दायरे में घसीटने के लिए ऐडी-चोटी की ताकत लगाता है। अर्थ का अनर्थ
करने को उपलब्धि मानकर अपनी पीठ ठोकता है, यदि मनोवांछित अर्थ निकालने की गुंजाइश
न हो तो कवि को गरियाता है और कविता को खारिज करता है। कविता यहां संसार को समझने
का उपक्रम न रहकर उससे पलायन का साधन बन जाती है। कविताओं में समाज के
अन्तर्विरोधों, मानव जीवन के संघर्षों की तलाश नहीं है, जीवन की पहेली को सुलझाने
में साहित्य की जद्दोजहद का जिक्र नहीं है, सांस्कृतिक आन्दोलनों की पहचान के लिए
बौद्धिक मशक्कत नहीं है। अपनी परम्परा से कोई संवाद नहीं है, बल्कि यहां उपदेशक का
सा सरलीकरण है।
सिद्धान्तों-विमर्शों,
विचारधाराओं से दूरी और दृष्टिविहिन-सिद्धांतविहिन पठन-पाठन साहित्य को
उच्चारण-अभ्यास तक सीमित कर देता है। साहित्य के पठन-पाठन में सांस्कृतिक आन्दोलन
जो ताजगी और जीवन्तता भरते हैं, उससे हिन्दी का औपचारिक पठन-पाठन वंचित है। पिछले
दस-पन्द्रह वर्षों से बौद्धिक क्षेत्रों में दलित और स्त्री साहित्य एवं विमर्श की
चर्चा बड़े जोरों से हो रही है। विश्वविद्यालयों के हिन्दी-विभाग तथा अकादमियां
इनकी ओर पीठ किए हुए हैं। इस साहित्य को अभी पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने में
हिचकिचाहट है।
सांस्कृतिक
विमर्शों का व्यापक फलक ज्ञान के किसी एक अनुशासन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका
चरित्र अन्तरज्ञानानुशासनात्मक होता है। बीसवीं शाताब्दी के प्रारम्भ में
भाषा-विज्ञान, मानव-विज्ञान, इतिहास, मनोविज्ञान, मिथक, मार्क्सवाद ने साहित्य के
अध्ययन को विस्तार दिया था। दलित साहित्य और स्त्री साहित्य ने भारतीय नैतिक चेतना
के नियामक दो स्तम्भों – पितृसत्ता और
वर्ण-व्यवस्था – की संरचना के अभिशापों को उद्घाटित
किया। दलित और स्त्री आन्दोलन न केवल सत्ता की भागीदारी की मांग करते हैं, बल्कि
परम्परागत सत्ता संरचनाओं में छुपी सूक्ष्म अमानवीयताओं को भी उद्घाटित करते हैं।
हिन्दी-चिन्तन में इनका प्रयोग बृहतर सांस्कृतिक संदर्भों में न होकर आर्थिक और
राजनीतिक के सीमित संदर्भों में ही होता रहा है। इसलिए इन साहित्यिक आन्दोलनों और
विमर्शों को खारिज करने के लिए इसके सार अथवा कथ्य पर कोई विमर्श न करके इसे पटकनी
देने के लिए अपना पुराना दांव खेला यानी इसके सौन्दर्य-शास्त्र और रचना-कौशल पर
प्रश्न चिह्न लगाया।
सामाजिक वास्तविकता
के बदलने पर ही समाज में नए विमर्शों की उत्पति और स्वीकृति बनती है। सामाजिक
वास्तविकता में बदलाव ही साहित्य को पुनर्व्याख्यायित करने का अवसर प्रदान करता
है। बदले संदर्भों में न कृति विशेष का फोकस भी बदल जाता है, बल्कि साहित्यिक
विधाओं के तात्विक स्वरूप में भी परिवर्तन स्वाभाविक है। बीसवीं शताब्दी के अन्त
और इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बौद्धिक जगत में नए विमर्श आ रहे हैं, लेकिन
हिन्दी का औपचारिक बौद्धिक वर्ग अपनी बौद्धिक सीमाओं के चलते इसे अपना नहीं पा
रहा। हिन्दी की ज्ञान-मीमांसा अपने कानों में पुरातन धुन का इयर फोन लगाकर दुनिया
में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर उसी ढर्रे पर घिसटती चली जा रही है। इतिहास के
सवालों में पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता-अप्रमाणिकता का 70 साल पुराना राग अलापा
जा रहा है, जबकि इतिहास लेखन और पठन की पद्धतियों में आमूल परिवर्तन हो रहे हैं। कबीरदास,
तुलसीदास, सूरदास, मलिक मुहम्मद जायसी, बिहारी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचन्द,
जयशंकर प्रसाद और निराला के बारे में वही प्रश्न हैं, जो साठ के दशक की परीक्षाओं
में थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आचार्यों के पीले पड़े पुराने नोट्स अभी
विश्वविद्यालयों के विभागों में अप्रासंगिक नहीं हुए और हिन्दी-साहित्य पठन-पाठन
के औपचारिक ढांचों में साहित्य-अध्ययन के गुणात्मक विस्तार में रोड़ा बने हुए हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों से गहरे जुड़ाव से ही मौलिक चिन्तन पनपने की संभावना
बनेगी। समाज में रचनात्मक भूमिका के लिए हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन को सांस्कृतिक
कर्म में परिवर्तित होना होगा।
संदर्भः
1. राजा शिवप्रसाद
‘सितारेहिन्द’ ने ‘1857 का बलवा इतिहास तिमिरनाशक, दूसरा खंड’ में गदर में शामिल
लोगों को बदमाश करार दिया और महारानी विक्टोरिया
के शासन के कसीदे पढे़।
वीर भारत तलवार सं.; राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द’:प्रतिनिधि संकलन; नेशनल बुक टस्ट इण्डिया, दिल्ली; पृ.41
बदरीनारायन चौधरी ‘प्रेमघन’ ने कविताओं में इस
विद्रोह को अराजक तत्वों की करतूत मानते हुए नकारात्मक संकेत दिये हैं।
पूरब मय में डूबा था, आदमी आंतक ग्रस्त थे,
जो यह सोचते थे कि
जाति और ध्र्म संकट में हैं
उन लोगों ने कुछ मूर्ख
सिपाहियों को और शैतान लोगों को
अपने साथ किया और भारी
तबाही मचाई।
अपनी ही बर्बादी के
बीज बोये।’’
उदभावना, पृ. 460
प्रतापनारायण मिश्र
लिखते हैं - ‘जब 1857 में सेना के एक हिस्से ने विद्रोह किया तब आम जन मजबूती से सता के पक्ष थे/रहे।
)
2. उद्भावना (वर्ष-23, अंक-75); अप्रैल-जून, 2007; अजेय कुमार (सं.); पृ.-2
3. रामचन्द्र
शुक्ल; हिन्दी साहित्य का इतिहास; पृ.-
4. यह कहना कि
पद्मावत सूफी ग्रंथ है, एक बात है। यह कहना कि पद्मावत में सूफी मत या सूफी मतों
के तत्व हैं और ये तत्व कथा के प्रधान अंश हैं, दूसरी बात है। यह कहना क् पद्मावत
में सूफी तत्व हैं, लेकिन वे कथा के प्रधान अंश नहीं हैं, तीसरी बात है। पदमावत के
बारे में अधिकांश आलोचकों और विद्वानों की राय पहले प्रकार की है। यह राय इतनी बार
दुहराई गयी है कि लगभग उसी तरह स्वयंसिद्ध मान ली गई है जिस तरह यह धारणा कि जायसी
स्वयं एक सूफी सिद्ध थे। इस राय के आरम्भ कर्ता ग्रियर्सन थे और आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने भी कुल मिलाकर इस राय पर महर लगाई, यद्यपि सुक्लजी की जायसी-संबंधी
प्रसिद्ध ‘भूमिका’ में उनकी आलोचक-दृष्टि नागमती के विरह-वर्णन
में ही रमी है जिसका कोई सीधा सम्बन्ध तसव्वुफ़ से नहीं बनता। पुराने लोगों में
तीसरी राय के , कि पद्मावत के सूफी तत्वों को प्रधानता नहीं देनी चाहिए, पदमावत के
परवर्ती अनुवादकर्ता श्री शिरेफ़ हैं। लेकिन श्री शिरेफ़ की राय को हिन्दी आलोचना
और शोध में कोई महत्व नहीं दिया गया।”
परमानन्द श्रावास्तव
(सं.); समकालीन हिन्दी आलोचना, विजयदेव नारायण साही का लेख- कबि कै बोल खरग
हिरवानी); साहित्य अकादमी,
दिल्ली; प्र. सं. 1998; पृ.-112
5. आचार्य परशुराम
चतुर्वेदी; संत काव्य परम्परा;
6. प्रेमचन्द, कुछ
विचार, पृ.-
7. कुंवर नारायण; साहित्य के कुछ अन्तर्विषयक सन्दर्भ; साहित्य अकादमी, दिल्ली; 2011, पृ.-42
8. परमानन्द
श्रावास्तव (सं.); समकालीन हिन्दी आलोचना( कविता के देश में- अशोक वाजपेयी का लेख); साहित्य अकादमी, दिल्ली; प्र. सं. 1998; पृ.-398
- राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ ने लिखा कि ‘‘ देखो, प्लासी की लड़ाई से इस सौ बरस के अन्दर सर्कार कंपनी बहादुर ने क्या क्या काम
कर दिखलाए और हमारे हिन्दुस्तान के मुल्क को कहां से कहां पहुंचा दिया! जिस जमीन
में लोग गाय भी नहीं चराते थे वहां अब सुन्दर खेतियां होती हैं, जहां जमींदार
नित बाकी मालगुजारी की इल्लत में पकड़े बांध्े जाते थे वहां अब पक्के बन्दोबस्त
की बदौलत किस्त ब किस्त मालगुजारी अदा कर के पांव फैलाये सोते हैं, जिन रास्तों में
बकरी का गुजर न था वहां बग्गियां दौड़ती हैं, जहां अशरपिफयों को बहली मयस्सर न थी वहां आनों पर रेलगाड़ियां
हाजिर हैं, जहां कासिद नहीं चल सकता था वहां तार की डाक लग गई, जहां कापिफलों
की हिम्मत नहीं पड़ती थी वहां अब एक बुढ़िया सोना उछालती चली जाती है, जहां हजारों की
तिजारत होती थी वहां करोड़ों की नौबत पंहुच गई, जिन्हें दिन भर मजदूरी करने पर भी पाव भर सतू या चना मिलना
कठिन था उनकी उजरत अब चार आने आठ आने रोज से कम नहीं, जिन किसानों की
कमर में लंगोटी दिखलाई नहीं देती थी उन की घरवालियां गहने झमकाती पिफरती हैं। क्या पुल और क्या नहर, क्या मुसापिफरखाने
और क्या दारूशिपग, क्या पुलिस और क्या कचहरी, क्या इंसापफ और क्या कानून, क्या इल्म और क्या हुनर, क्या जिन्दगानी का जरूरी असबाब और क्या ऐश का सामान, जो कुछ इस कंपनी
के राज में देखा गया, न पहले किसी के ख्याल में आया था न आज तक कहीं सुना गया, मानो जंगल पहाड़
झाड़ झंखाड़ से इस देश को बाग हमेशः बहार बना दिया। क्या महिमा है अपरम्पार सर्वशक्तिमान
जगदीशवर की कि इंगलिस्तान के जिन सौदागरों ने और दुकानदारों ने कंपनी बनकर अपने
बादशाह के हिन्दुस्तान में तिजारत करने की सनद हासिल की, आज उन्होंनें
इस सारे हिन्दुस्तान ‘‘जन्नत निशान’’ खुलासे जहान की निष्कंटक सल्तनत अपने बादशाह श्रीमती इंगलैंडश्वरी क्वीन विक्टोरिया
को ;ईश्वर दिन दिन बढावे प्रताप उसकाद्ध नजर की। ..... हे पाठक जनों! ईश्वर से
यही प्रार्थना करो कि हमारी मलिकः क्वीन विक्टोरिया का राज चिरस्थायी हो, सदा ईश्वर ऐसी
प्रजापालक मलिकः को हम लोगों के सिर पर बना रहे।’’