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महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकता

महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकताडा. सुभाष चन्द्र,एसोशिएट प्रोफेसर,
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र


आधुनिक भारत पर साम्प्रदायिकता की काली छाया लगातार मंडराती रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं,लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है।
महात्मा गांधी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान निरन्तर साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे। वे साम्प्रदायिकता के घातक परिणामों को जानते थे। उनका मानना था कि यदि हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी झगड़ा रहा, वे एक दूसरे पर अविश्वास और संदेह करते रहे तो न तो भारत को कभी गुलामी से ही मुक्ति मिल पाएगी और न ही भारत एक सुखी और समृद्ध समाज बन पाएगा, इसलिए वे हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता के सूत्र हमेशा खोजते रहे। हिन्दू मुस्लिम एकता एकता की चिन्ता उनके चिन्तन का जरूरी पहलू है। पुनः पुनः उन्होंने इस पर विचार किया है ‘‘हिन्दू और मुस्लिम एकता किस बात में निहित है और उसको बढाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? उतर सीधा-सादा। वह इस बात में निहित है कि हमारा एक समान उद्देश्य हो,एक समान लक्ष्य हो,और समान सुख-दुख हों।और इस समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक-दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना, इस एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है।’’(यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
महात्मा गांधी स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति थे जो स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। लेकिन महात्मा गांधी साम्प्रदायिक नहीं थे, सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे,धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए गांधी जी ने अपनी जान तक दे दी। साम्प्रदायिक कट्टर व्यक्ति एवं संगठन द्वारा उनकी हत्या के कारण व्यक्तिगत नहीं थे, बल्कि भारतीय इतिहास व संस्कृति में निहित मूलभूत धार्मिक सहिष्णुता,साम्प्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र जैसे सांस्कृतिक-राजनीतिक मूल्य थे, जिनके प्रति गांधी जी दृढता से मैदान में डटे थे।
साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने भारत की शासन सत्ता संभाली तो राजनीति और आर्थिक व्यवस्था प्रतिस्पर्धत्मक हो गई। अंग्रेजी शासन में हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के कारण ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता और धार्मिक व्यक्ति कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे धार्मिक थे जो अपने अपने धर्मों में,उनकी मान्यताओं,पूजा पद्धतियों,परम्पराओं व मान्यताओं में विश्वास रखते थे और साथ ही धर्म को व्यक्ति निजी मामला समझते थे, दूसरे धर्मों का आदर करते थे, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र व मूल्यों में विश्वास करते थे और इन्हें स्थापित करने के लिए जी जान से संघर्ष करते थे। दूसरी ओर इसके विपरीत हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक नेता थे जो खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार व, विश्वास-व्यवहार कहीं से भी धार्मिक नहीं थे,उनका धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था और उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट बनाने के लिए लाखों लोगों को हिंसा का शिकार बनाया।
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का मूल कारण नहीं है, हां धर्म का सहारा जरूर लिया जाता है। चूंकि धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंध्ति होता है, धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं। महात्मा गांधी का कहना था कि ‘‘मैं किसी भी हिन्दू या मुसलमान से अपने धार्मिक सिद्धांत को रंच-मात्र भी छोड़ने को नहीं कहता,बशर्ते उसे इस बात का इत्मीनान हो कि जिसे वह धार्मिक सिद्धांत कह रहा है वह सचमुच धार्मिक सिद्धांत ही है। लेकिन यह तो मैं हर हिन्दू और मुसलमान से कहता हूं कि वह भौतिक लाभ के लिए आपस में न लड़े। ’’ (यंग इण्डिया, 25-9-1924, अंग्रेजी से)
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंधविश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं।
भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नही होती। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार)टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।
साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से,धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। गांधी का मानना था कि धर्म की पहचान इन बाहरी ढकोसलों में नहीं होती ‘‘सच्चे हिन्दू की पहचान तिलक नहीं है, मंत्रों का सही उच्चारण नहीं है, तीर्थाटन नहीं है और न जाति-पाति के नियमों को बन्धनों का सूक्ष्म पालन ही।’’ (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से)
गांधी जी धर्म की रक्षा के नाम पर गुण्डागर्दी के खिलाफ थे,उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘‘यदि संगठन का मतलब अखाड़े खोलना और अखाड़ों के द्वारा हिन्दू गुण्डों को तैयार करना हो तो यह हाल मुझे तो दयाजनक ही मालूम होता है। गुण्डों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी, अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ।’’(यंग इण्डिया, 14-9-1924, अंग्रेजी से) साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं,जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। गोरक्षा के माध्यम से महात्मा गांधी ने कहा कि हमें अपने धर्म की रक्षा आत्मत्याग से करें न कि उसके नाम पर मानवता पर चोट करके,उन्होंने कहा कि ‘‘गोरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना। गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिन्दू धर्म और अहिंसा धर्म के विमुख होना है। हिन्दुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्म-शुद्धि द्वारा और आत्महुति द्वारा गोरक्षा का विधान है लेकिन आजकल की गोरक्षा का विधान बिगड़ गया है। उसके नाम पर हम बराबर मुसलमानों के साथ झगड़ा-फसाद करते रहते हैं,जबकि गोरक्षा का मतलब है मुसलमानों को अपने प्यार से जीतना। (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से) कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।
यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में सच्चा विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। सहिष्णुता को गांधी जी समाज की शांति के लिए आवश्यक मानते थे ‘‘यदि मुसलमानों की ईश्वर-पूजा की पद्धति को,उनके तौर-तरीकों और रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगें या अगर हिन्दुओं की मूर्ति पूजा और गो-भक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखायेंगें तो हम शांति से नहीं रह सकते। सहिष्णुता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं जो कुछ सहन करता हूं उसे पसन्द भी करूं। मैं शराब पीना, मांस खाना और तम्बाकू पीना बहुत नापसन्द करता हूं, किन्तु मैं हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों सभी के बीच इन्हें सहन करता हूं - वैसे ही जैसे उनसे अपेक्षा रखता हूं कि इन चीजों से मेरा परहेज रखना उन्हें भले ही पसन्द न हो,लेकिन वे इसे सहन अवश्य करें। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सारे झगड़े की जड़ यही बात है कि दोनों एक दूसरे पर अपने विचार लादना चाहते हैं’’ (यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते।
धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालो से साथ-साथ रह रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में,राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है,बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। इस संबंध में गांधी जी का कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां- स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं,भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।
साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया।
धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है, धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार, आत्मा-परमात्मा, परलोक, पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।
संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं।
यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का,भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का,भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन,न भाषा-बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में। इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।
एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।
भाषा संस्कृति का महत्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं। भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते -रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रूचियों -स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी,इसका अनुमान लगाया जा सकता है। गांधी जी उस भाषा को अपनाने के हिमायती थे,जिसमें जनता अपने भावों-विचारों की तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करती थी। इसलिए न तो उन्होंने फारसी निष्ठ उर्दू को और न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को, बल्कि जन सामान्य की भाषा यानी ‘हिन्दुस्तानी’को आदर्श भाषा कहा। भाषा का यह रूप धर्मोन्मुखी नहीं, बल्कि जनोन्मुखी थी और यह लोगों में भेद पैदा करने वाली नहीं, बल्कि एकता पैदा करने वाली थी।
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है,जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले,अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं,विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है,जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है। गांधी जी पूरे जीवन धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता व साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्षरत रहे। उनका जीवन आदर्शों व विचारों को अपनाकर भारत को साम्प्रदायिक वैमनस्य के विष से मुक्ति मिल सकती है।

धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां

धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में, राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है, बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। धर्मनिरपेक्षता पर विचार करते हुए डॉक्टर सर्वपल्ली राधकृष्णन् ने कहा है कि ‘‘जब भारतीयों के धर्मनिरपेक्षता ग्रहण करने की बात कही जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे अधार्मिकता या भौतिकवाद का समर्थन करते हैं। वे सब धर्मों के प्रति यह सम्मान रखते हैं और सब पैगम्बरों का आदर करते हैं। सहिष्णुता का अर्थ अपने निज के धर्म के प्रति उदासीनता नहीं हैं, सहिष्णुता हमें आध्यात्मिक दृष्टि देती है, जो कट्टरता से उतनी ही दूर है जितना उत्तरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव से है। धर्म का वास्तविक ज्ञान, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय, मजहब-मजहब के बीच की दीवारों को तोड़ देता है। दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता के आचरण से हमें अपने धर्म का ज्यादा सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा’’
धर्म की निरपेक्षता पर विचार करते हुए प्रख्यात इतिहासकार विपन चन्द्रा ने लिखा कि ‘‘दूसरी जगहों की तरह भारत मे भी धर्म निरपेक्षता की चार तरह से व्याख्या की गई है। पहलीः धर्म को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। धर्म राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा तथा सामाजिक जीवन और संस्कृति के बड़े क्षेत्रों से अलग रहना चाहिए। धर्म व्यक्ति का निजी या व्यक्तिगत मामला समझा जाना चाहिए। इसे अस्वीकार करने वाली धर्मनिरपेक्षता की तथाकथित भारतीय परिभाषा की बात करना धर्मनिरपेक्षता का निषेध है। साथ ही धर्मनिरपेक्षता का मतलब जीवन से धर्म को निकालना या धर्म का विरोध नहीं है। धर्म निरपेक्ष शासन का अर्थ धर्म को हतोत्साहित करने वाला शासन नहीं है।
दूसरीः किसी बहुधर्म समाज में धर्म निरपेक्षता का यह भी मतलब है कि शासन सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे या जैसा कि बहुत से धार्मिक व्यक्ति कहते हैं निरीश्वरवाद सहित सभी धर्मों को बराबर सामान दें।
तीसरीः धर्मनिरपेक्षता का आगे मतलब है कि शासन सभी नागरिकों को बराबर समझे और उनके धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव न करें।
चौथीः भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की और विशेषता है। भारत में धर्मनिरपेक्षता उपनिवेशवाद के खिलाफ सभी भारतियों को इक्ट्ठा करने और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के हिस्से की तरह एक विचारधारा के रूप में आई। इसके साथ-साथ सांप्रदायिकता एक अत्यध्कि विभाजक सामाजिक और राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्षता का मतलब सांप्रदायिकता का स्पष्ट विरोध शासन शामिल है। इस विजन और उसके लिए प्रतिबद्धता के कारण ही स्वतन्त्र भारत विभाजन और विभाजन दंगों के बावजूद धर्मनिरपेक्ष संविधान तैयार कर सका और धर्मनिरपेक्ष शासन की आधारशिला रख सका।’’1
धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तो संविधान में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचा अपनाया। यद्यपि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को 42वें संशोधन में अपनाया गया, लेकिन धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के आधार शुरू से प्रभावी रहे हैं। अनुच्छेद 25, 26, 30(1)(2) के अंतर्गत धर्म की व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता की सुरक्षा, अनुच्छेद 15 के अंतर्गत राज्य द्वारा धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न करना और अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत अवसर की समानता का अधिकार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की पुष्टि करते हैं।

साम्प्रदायिकता
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है। साम्प्रदायिकता ‘‘मूलतः राज्य-व्यवस्था में एक प्राथमिक एवं निर्णयात्मक समूह के रूप में किसी के प्रति राजनीतिक निष्ठा की एक विचारधारा है। सम्प्रदायवाद किसी खास धार्मिक समुदाय को ही एकमात्र अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा एवं गतिविधि िका समष्टि रूप एवं आधार समझता है। सम्प्रदायवाद एक राज्य-व्यवस्था तथा एक राष्ट्र के अन्दर अन्य धार्मिक समुदायों को प्रत्यक्षतः प्रतिकूल हस्ती के रूप में चित्रित करता है, जिसके फलस्वरूप एक दूसरे के प्रति अमैत्रीपूर्ण, वैमनस्यता तथा दुश्मनागत की भावना संगठित करता है। सम्प्रदायवाद एक राजनीतिक अभिमुखता है जो अपनी राजनीतिक निष्ठा की मंजिल धार्मिक समुदाय को ही समझता है, न कि राष्ट्र या राज्य को। सम्प्रदायवाद एक ऐसी राजनीतिक निष्ठा, एक ऐसी राजनीति है, जो बहुजातीय एवं बहुधार्मिक समुदाय से युक्त राष्ट्रवाद के विरू( होती हैं’’2
साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है। अंग्रेजों के आने के पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सता हथियाई जाती थी और जो भी सता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे,चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक रखता हो। राजा के प्रति वफादारी ही शासन-व्यवस्था में पद पाने का साधन थी। आम तौर पर अपनी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन किया जाता था, बाजार में बेचने के लिए नहीं। इसलिए अर्थव्यवस्था में भी प्रतिस्पर्धा नहीं थी। अंग्रेजों ने जब भारत की शासन सता संभाली तो इस व्यवस्था में भारी फेरबदल हुआ। उत्पादन भी प्रतिस्पर्धात्मक हो गया और अपनी स्थानीय जरुरतों के अलावा बाजार में बेचे जाने के लिए होने लगा। इस नई व्यवस्था में हिन्दूओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के चलते अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ।
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इक्ट्ठा नहीं रह सकते।
साम्प्रदायिकता दो तरह की होती है -एक को नर्म या उदार साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है दूसरी फासिस्ट या कट्टर साम्प्रदायिकता। नर्म या उदार साम्प्रदायिक लोगों का मानना है कि एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित विशिष्ट भी होते हैं, जिनको हासिल करने के लिए बातचीत से या दबाव से जैसे भी हो पूरा करना चाहिए लेकिन साथ ही उदार या नर्म साम्प्रदायिक यह भी मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों के सांझे हित हैं और इस साझेपन के कारण ही वे राष्ट्र बनते हैं इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास के संघर्ष में साथ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय या धर्म के प्रति उदार रूख के कारण ही इसको उदार सम्प्रदायिकता कहा जाता है। जो अपने सम्प्रदाय के हितों की पूर्ति के लिए जोर रखती है और इसके लिए अन्य सम्प्रदायों या धर्मों से सौदेबाजी भी करती है।
फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा और हिंसा पर आधरित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायियों के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़ी आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है,दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते।

धर्म और साम्प्रदायिकता
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंधित होता है,धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं।
किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती। धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। साम्प्रदायिकता स्वतः स्फूर्त परिघटना नहीं होती,बल्कि साम्प्रदायिक-उन्माद पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक-शक्तियां वातावरण का निर्माण करती हैं,एक-दूसरे समुदाय के बारे भ्रम फैलाते हैं और एक-दूसरे के विरूद्ध नफरत फैलाते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा अचानक नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक-शक्तियों की पूर्व-योजना का परिणाम होती हैं,बिना साम्प्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साम्प्रदायिक हिंसा नहीं पनप सकती। साम्प्रदायिक हिसां व दंगे साम्प्रदायिकता का कारण नहीं बल्कि परिणाम होते हैं। भीष्म साहनी का मानना है कि ‘‘ जब सत्ता ग्रहण कर पाने की होड (में हम धर्म की आड) लेते हैं, तब हम एक ओर धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करते हैं, उसकी मानवीयता, उसके सद्उपदेश, सहिष्णुता आदि को ताक पर रख देते हैं, दूसरी ओर उन तत्त्वों को प्राथमिकता देने लगते हैं जो एक जाति को दूसरी जाति से अलग करते हैं, जैसे पूजा-पाठ की विधियों, धर्माचार, व्रत-उपवास, आदि आदि। इस तरह हम अपनी जाति की अलग पहचान बनाना चाहते हैं, तब एक व्यक्ति इंसान न रहकर, एक हिन्दू, एक मुसलमान, एक सिक्ख आदि में बदल जाता है। सत्ता की होड़ इस जातीयता की भावना को उग्र और आक्रामक बनाती है। तब, धर्म के नाम पर हमारे सभी कुकर्म, हिंसा, बर्बरता, घृणा, द्वेष सभी यथोचित ठहराये जाने लगते हैं। इस तरह साम्प्रदायिकता का विकराल रूप सामने आने लगता है।’’3
भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार) टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से, धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।
स्वामी विवेकानन्द ने धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता के बारे में लिखा कि ‘‘संकीर्णतावाद, कट्टरतावाद और उसके वीभत्स उत्तराधिकारी धर्मोंन्माद ने इस सुंदर धरती पर बहुत दिनों तक राज किया है। उसने इस धरती को हिंसा से भर दिया है, उसे बार-बार मानव रक्त से नहलाता रहा है, सभ्यता को नष्ट कर दिया है तथा पूरे देश को निराशा के गर्त में ढकेल दिया है। यदि ये भयावह दानव नहीं होते, तो मानव समाज ने जितनी प्रगति की है, उससे अधिक प्रगति की होती, पर उनका समय आ गया है और मैं यह पूरी आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटनाद हुआ, वह सभी तरह की धर्मांधता, तलवार या कलम से किये जाने वाले सभी तरह के उत्पीड़नों,व्यक्तियों के बीच सभी विद्वेषपूर्ण भावनाओं को जो उन्हें एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं मौत का सबब साबित होगा।’’
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंध्विश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं। भीष्म साहनी के अनुसार ‘‘संस्थागत धर्म साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पोषक है। धार्मिक विचार, धर्मोंपदेश, धर्मग्रंथ साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देते,पर संस्थागत धर्म जरूर देता है क्योंकि वह नागरिकों को धर्म के आधार पर बांट देता है। संस्थागत धर्म अपने विधि- निषेध, धर्माचार आदि के आधार पर धर्म के मानने वालों को एक स्वरूप, एक अलग अस्तित्व देता है। फिर, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए वह धन संपति अर्जित करता है, प्रशासन के साथ मेल-जोल बढाता है, और दूसरी ओर विधि-निषेध पर बल देते हुए धर्म संस्थाएं जनसाधारण को आतंकित करती रही हैं। आज के जमाने में जब लोगों का विश्वास धार्मिक विधि-निषेध पर शिथिल पड़ने लगा है,और लोग धर्माचार से दूर होने लगे हैं तो राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय लोग, इस संस्थागत धर्म के साथ जुड़कर, जनसाधारण पर इसके प्रभाव का लाभ उठाते हुए, अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति करने की कोशिश करते हैं।’’4
सच्चा धार्मिक या सच्चे अर्थों में धर्म को मानने वाला कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक तरफ महात्मा गांधी धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। उन्होंनें धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। गांधी जी स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की ‘शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’5मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखते थे, कुरान पर चार-भागों में टीका लिखी, जो पांचों समय नमाज पढ़ते थे और नियमित रूप से मस्जिद जाते थे लेकिन वे धर्म को निजी मामला समझते थे। धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं मुसलमान हूँ, और गर्व के साथ अनुभव करता हूंू कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपति हैं। मैं तैयार नहीं हूँ कि इसका कोई छोटे-से-छोटे हिस्से को भी होने दूं। इस्लाम की तालीम, इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पूंजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हूं और मैं बरदास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की ‘रिएलिटीज़’ यानि हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूं कि मैं हिंदुस्तानी हूं। मैं हिंदुस्तान की अविभिन्न संयुक्त-राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हूं। मैं इस संयुक्त-राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हूं। उसका एक ऐसा टुकड़ा हूं जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूं। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।’’
दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था। जिनका इस्लाम में, इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा,आचार-विचार व विश्वास-व्यवहार कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे। लेकिन उन्होंनें धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की,जिसके फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी व अबुल कलाम मौलाना आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना व अन्य साम्प्रदायिकों का धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था।
आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। शहीद भगतसिंह और उसके संगठन के क्रांतिकारी साथियों ने भी धर्म को राजनीति के क्षेत्र से बाहर रखने का विचार रखा। भगतसिंह ने ‘साम्प्रदायिक दंगें और उनका इलाज’लेख में अपना मत स्पष्ट किया कि ‘‘1914-15के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे,जिनमें सिक्ख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।’’6
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता दोनों राजनीतिक शब्द हैं और लगभग एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिए साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा हमला धर्मनिरपेक्षता पर ही होता है। कभी वह धर्मनिरपेक्षता की खिल्ली उड़ाकर इसको कमज़ोर करते हैं तो कभी धर्मनिरपेक्ष लोगों को छद्म धर्मनिरपेक्ष कहकर इसकी स्वीकार्यता पर प्रहार करते हैं। धर्मनिरपेक्षता को अपनाए बिना किसी देश में लोकतंत्र नहीं रह सकता और साम्प्रदायिकता मूलतः लोकतंत्र के खिलाफ है। साम्प्रदायिक लोग इस बात को अच्छी तरह जानते है कि वे लोकतंत्र का सीधे-सीधे विरोध नहीं कर सकते लेकिन धर्म की आड़ लेकर और धर्मनिरपेक्षता के बारे मे गलतफहमी पैदा करके, धर्मनिरपेक्षता को ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ कहकर लोकतंत्र को कमजोर कर सकते हैं। साम्प्रदायिकता समाज के सभी समुदाय को समान नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। वह समाज मे एक समुदाय का दूसरे समुदाय पर और एक समुदाय के विशिष्ट वर्ग का दूसरे वर्गो पर वर्चस्व स्थापित करना चाहती है,जबकि धर्मनिरपेक्षता इस बात को सुनिश्चित करती है कि समाज के सभी लोगों को समान नागरिक अधिकार मिलें चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। साम्प्रदायिकता धर्म को नागरिक अधिकारों के ऊपर रखती है, जबकि धर्मनिरपेक्ष-लोकतन्त्र में नागरिक अधिकार अधिक महत्वपूर्ण होते है।

साम्प्रदायिकता और संस्कृति
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां-स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है, चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं, भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।
साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’लेख में इस पर गहराई से विचार करते हुए लिखा है कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है,इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है,मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम-संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक-संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है,लेकिन ईसाई-संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक है,तो क्या मुसलमान कब्र पूजक और स्थानपूजक नहीं है, ताजिए को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है? अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े-से-बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है,तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धरा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहां तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दीखता।’’7 धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है, जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्त्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है,धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार,आत्मा-परमात्मा,परलोक,पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।
संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं ।
यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का, भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का, भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन, न भाषा -बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में । इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।
एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।
भाषा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं।भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते-रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रुचियों-स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता के लिए शहीद हुए क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘राष्ट्रीयता’ पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि ‘‘राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं। राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएं हैं प्राकृतिक विशेषता और विभिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बांध्ती है।’’8 साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद की व्याख्या भी धर्म की आड़ लेकर करती है। धार्मिक मुददों का साम्प्रदायिकरण करके उसे इस तरह प्रस्तुत करती है, जैसे कि वह राष्ट्रीय सवाल हो। साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के साथ राष्ट्र को जोड़कर देखती हैं और दूसरे धर्मों-सम्प्रदायों के प्रति अपनी अमानवीय घृणा को राष्ट्रीय भावनाएं बताती हैं। धर्म को जिन राष्ट्रों ने सर्वोच्चता दी है उनमें कट्टरता व पिछड़ापन मौजूद है, जैसे पाकिस्तान, बंगलादेश और अरब देश । इन देशों के शासक अपनी जनता के साथ कैसा सलूक करते हैं और उनका शासन कितना ‘धार्मिक राष्ट्रवादी’ होता है उसके लिए अफगानिस्तान के तालिबानों और पाकिस्तान के पफौजी-मुल्ला गठजोड़ शासन से लगाया जा सकता है। धर्म के आधार बने राष्ट्र में सभी लोगों के लिए समानता की भावना नहीं होती।
जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां हमेंशा युद्ध का और युद्वोन्माद का समर्थन करती हैं,सेना और परमाणु विस्फोट समेत आधुनिक हथियारों के भंडारण की वकालत करती है और पडोसी देश पर हमला करने के लिए अखबारों, समाचार पत्रों में बयान व टिप्पणी देते हैं जिससे वे जनता की नजरों में बड़े राष्ट्रवादी बन जाते हैं।
धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है।

संदर्भः
1 गांधीः एक पुनर्विचार ( विपन चन्द्रा के लेख) गांधी जी, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता से,पृ. 49, सहमत, नई दिल्ली, 2004
2 विश्वामित्र चौधरी, भारत में साम्प्रदायिकता, पृ. 11
3 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 27
4 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 28
5 महात्मा गांधी, उफ. ए. मदान द्वारा उद्धृत ज्ण्ैण्प्ण् टवसण् 3ण् श्रंदण्97ण् च्ंहम 4
6 मेरी कलम से; भगतसिंह के दस्तावेज, डॉ. सुभाष चन्द्र (सं.) पृ. 10, शहीद भगतसिंह अध्ययन केन्द्र, नरवाना, 2005
7 जातियता, जातिवाद और साम्प्रदायिकता, वासुदेव शर्मा (सं.), पृ.-45, लोकजतन प्रकाशन, भोपाल, 2004
8 सामाजिक क्रांति के दस्तावेज ( भाग-1), शंभुनाथ (सं.), पृ. 620, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004

अछूत

अछूत
डा. सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

मराठी के प्रख्यात दलित लेखक दया पवार की आत्मकथा अछूत’ न केवल दलित साहित्य की, बल्कि भारतीय साहित्य की अद्भुत रचना है। यह रचना दलित लेखकों का प्रेरणा-स्रोत रही है। दया पवार ने अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से दलित जीवन की सच्चाइयों को उद्घाटित किया है। दलित जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपनी रचना में स्थान दिया। दलितों के सामाजिक शोषण के विविध रूपों को तथा आर्थिक शोषण के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए दलित आन्दोलन की सीमाओं और संभावनाओं को रंखांकित किया हे।
दलितों के साथ गुलामों का सा व्यवहार होता रहा है। उनके काम की कोई शर्तें तय नहीं थी और न ही मजदूरी। बेगारी के माध्यम से ही दलितों को अधीन बनाया गया। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया और वे पूरी तरह सवर्णों की दया पर ही निर्भर कर दिए गए। वर्ग-विभाजित समाज में शोषण को स्वीकार करवाने के लिए वर्चस्वी वर्गों ने ऐसी प्रथाएं आरम्भ की। सवर्णों पर पूर्णतः निर्भरता ने दलितों की सौदेबाजी करने की क्षमता को भी समाप्त कर दिया। सवर्णों का आदेश ही दलित के लिए आचार-संहिता व जीवन संहिता बन गई। सेवा’ करने का दिया गया अधिकार अन्ततः गुलामी में ही परिवर्तित हो गया। कुछ प्रथाएं इसकी याद दिलाती हैं।
वैसे महार के काम का कोई टाइम-टेबल न था। चौबीस घंटे का बंधा हुआ नौकर। इसे बेगार कहते। बेगारी का कुछ स्वरूप रहा होगा। ऐसा काम करने के लिए विशेष अनुभव या कला की जरूरत न होती। महार जाति के कुछ काम तो गलकर गिर गये। पर कुछ काम गरदन पर जूँ-से पड़े रहे। गांव का सारा लगान तालुके में पहुँचाना, गांव में आये बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, चारा-पानी देना, ढिंढोरा पीटना, गांव में कोई मर जाये तो उस मौत की सूचना गांव-गांव पहुँचाना, मरे ढोर खींचना, लकड़ियां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दुल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना आदि काम महारों के हिस्से आते। इसके बदले मिलता बलुत’।’(पृ.-58)दलितों को बलुत’ ऐसे दिया जाता जैसे कि कुत्ते-बिल्लियों को खाना दिया जाता है। उनके काम का सम्मान करते हुए उसकी महता को रेंखांकित करके नहीं, बल्कि अपनी शान के लिए और पुण्य कमाने के लिए। गांव में दलितों का न होना अपशकुन तो उनका होना गांव की शान क्यों माना जाता रहा है? इसीलिए कि इससे उनके अहंकार की तुष्टि होती है और उनका काम मुफ्त में करने के लिए हाजिर रहते हैं। एक और बात है कि दलित गांव में तभी तक शान बढ़ाते हैं जब तक कि सवर्णों की दया पर रहें। उनसे किसी भी रूप में ऊपर उठ जाएं यह कतई सहन नहीं होता। इसलिए दलितों के साफ -स्वच्छ कपड़े पहनने पर, बाल बनाने आदि पर भी झगड़ा होता रहा है और आर्थिक समृद्धि यह सब करती है। दया पंवार ने बलुत की परम्परा के बारे में बताया
एक साल महारों ने तय कर लिया कि इस बार बंटवारा नहीं किया जायेगा। चारों ओर के चालीस गांवों को भोज देने की उनकी योजना थी। निश्चित ही भोजन के लिए सिर्फ महार-मंडली ही होगी। गांव के पास ही महारों के बलुत का एक बड़ा ढेर लगाया गया। गांव के पटेल की भी इतनी बड़ी ढेरी नहीं थी। सब गांव वालों की आंखें चौंधिया गयीं। अपनी ही मेहनत पर ये महार मस्ती कर रहे हैं, इस प्रकार की प्रतिक्रिया उठने लगी। बस, इस घटना के बाद महारों को बलुत देना बंद कर दिया गया’ (पृ॰-60)आखिर यह कैसे संभव है कि दलित भी उसी तरह के भव्य आयोजन करें जैसे कि गांव के उच्च वर्ग के लोग करते हैं। जब दलित कोई भी ऐसा कार्य करते हैं तो उनको अपना वर्चस्व समाप्त होता दिखाई देता है और वे उसके आधार, आर्थिकता को ही छीन लेते हैं।
शोषण को मान्यता देने वाली व्यवस्था में काम करने वाले लोगों की हालत बुरी होती है। जो काम करता है वह भूखा मरता है और घृणा का शिकार भी होता है। दूसरी तरफ जो वर्ग काम नहीं करता और केवल संसाधनों का, उत्पादन के साधनों का मालिक होता है वह केवल ऐश्वर्य-विलास में डूबा रहता है। बहुसंख्यक जनता के हकों का शोषण करके ही चंद लोग ठाठ कर सकते हैं। श्रम का इस तरह अवमूल्यन किया जाता है कि उनके श्रम को, उनके काम को तुच्छ मानकर कोई अधिमान नहीं दिया जाता। मेहनतकश जनता द्वारा किए गए काम को तो हेय समझा जाता है। निकम्मे-निठल्ले परजीवी वर्ग के काम को अधिमान दिया जाता है। श्रम के प्रति घृणा और अवमूल्यन की अन्ततः श्रमिकों के प्रति घृणा व अवमूल्यन में ही परिणति होती है। मेहनतकश के श्रम के प्रति इस तरह के रवैये को उद्घाटित करने के लिए उनसे किया हर किस्म का व्यवहार भी ऐसा ही होता है।
येसकारी पारी (चौकीदारी) के बदले में दलितों को रोटियां दी जाती थी, औरतें या फिर बूढ़े मांगने जाते थे टोकरी में कभी भी ताजी रोटी न गिरती। हमेशा बासी रोटियां मिलती। कभी-कभी तो उस पर सफेद झिल्लियाँ भी चढ़ी होती। शायद महारिन के लिए आले में रात को ही रोटी संभालकर रख देते होंगे। एकाध उदार महिला अचार की फांक रख देती। तब सहज ही मुंह में पानी आ जाता। माँ दूर से ही दरवाजे से बड़ी दयनीय होकर कहती, रोटी दे मां, येसकरनि को’। पर तीज-त्योहारों में पुण्यपोली’ अवश्य मिलती।’ (पृ॰-71)गांवों में दलित पूर्णतः सवर्ण जमींदारों-किसानों पर निर्भर हैं। इसलिए गांव छोड़ देना दलितों की मुक्ति का रास्ता भी बहुत से विद्वानों-समाज चिन्तकों को नजर आया। स्वयं आम्बेडकर ने भी दलितों को शहरों में जाने को कहा था। यह बात सही है कि शहर में दलित गांव की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र हैं उसके शोषण के रूप में परिवर्तन आ जाता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि गांव से शहर में आ जाने मात्र से ही शोषण समाप्त नहीं होता। चूंकि शोषण एक व्यवस्था के तहत होता है। व्यवस्था हर जगह मौजूद रहती है सामन्ती व पूंजीवादी व्यवस्था का फैलाव सिर्फ गांव तक ही नहीं है बल्कि शहर भी उसकी पकड़ में है। यद्यपि गांव में इसका अहसास जरा तीखे रूप में होता है। शोषण, पूंजीवादी-व्यवस्था के चरित्र की खासियत है इस व्यवस्था के नाश में ही दलितों को व्यवस्था जन्य शोषण व सामाजिक-उत्पीड़न से छुटकारा मिल सकता है। गांवों के अभावों से व सामाजिक उत्पीड़न से छूटकारा पाने के लिए दलित शहरों की शरण लेते हैं। लेकिन शहर भी उनको कोई राहत प्रदान नहीं करते हैं, शहरी जीवन के अभाव, दबाव व तनाव भी उनके लिए कष्टकारी हैं।
शहर में जो दलित हैं वे भी कोई अच्छी हालत में नहीं हैं। शहर में जितना गंदा काम है वह सब दलितों के हिस्से में है। चाहे वह मैला ढ़ोने का काम हो या कूड़ा-कचरा जमा करने का। या फिर शहर के फैक्टरी-कारखानों में, गली-मुहल्लों में ऐसा काम ही इनके हिस्से आता है जिसको कि सवर्ण जातियों के लोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। हथगाड़ी खींचना, हमाली करना। शहरों की गंदी बस्तियों, झुग्गी-झोंपडियों में, रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे ही रहने की जगह मयस्सर होती है। ग्रामीण जीवन में व्याप्त अमानवीय प्रथाओं से पीछा छुड़ाने के लिए शहर में शरण लेने के लिए आए दलितों के लिए शहर में भी नारकीय जीवन ही नसीब होता है। दया पंवार की दादी गांव से बम्बई आई थी। उसके बम्बई आने की कहानी गांव की अमानवीय प्रथाओं को बताती है। (पृ॰-18)
वे सुरक्षा के लिए बम्बई आती है और गंदी बस्ती में रहते हैं दया पंवार ने बम्बई के दलितों की बस्ती के बारे में लिखा है। कि उनका धंधा सारे बंबई का कचरा जमा करने का था। ऐसी हालत में कचरा जमा करने वालों को फ्रलैट में भला कौन रहने देगा? परन्तु इस कारण उन्होंने नरक-से दिन काटे। बाद में मेरे जीवन के उत्साह-भरे दिन उसी गटर में बरबाद हो गये। बरसात में करीब-करीब सबके चूते। सारी छतें टपकती रहती। घमेले (तसला) पतीली जगह-जगह रखे जाते ... इस जलतरंग की आवाज में कब नींद आ जाती, पता भी न चलता।’ (पृ॰-16)रोजगार की तलाश में दलित शहर में आते हैं। इस परिस्थिति ने पूरी पारिवारिक-व्यवस्था को ही चौपट कर दिया है। रोजगार की तलाश में कार्य करने की क्षमता रखने वाले सभी युवक तो शहर में आ जाते हैं। गांव में रह जाते हैं बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां। जिनके अपने बच्चे और पत्नी आ जाती और मां-बाप नहीं आते। उन बूढ़ों की इतनी बुरी हालत होती है कि वे न तो भावनात्मक लगाव के कारण गांव को छोड़ पाते हैं। और न ही वहां उनके गुजारे लायक स्थितियां होती हैं। अकेलेपन, अलगाव व असुरक्षा का शिकार होकर जीते जी ही वे मर जाते हैं।
जावजी बुआ का लड़का बबन अपनी पत्नी व बच्चों समेत बम्बई आ जाता है, लेकिन उसके माता-पिता नहीं आते। उसकी मां भी मर जाती है और पिता अकेले रह जाते हैं, घर में कोई नहीं था। सुबह पानी देने जब पड़ोस की बाई आयी, तब बुढऊ मरा पड़ा दिखा। वैसे अब महारवाड़ा में कर्ता कोई नहीं बचा था। सब बंबई पेट भरने गए थे। बुढऊ मरा, तब महारवाड़ा में एक-दो बूढ़ी विध्वा औरतें। बाकी सब घर बंद। क्या करें वे? बुढऊ को करीब-करीब घसीटते हुए ले गये। गांव के मराठा लोग तमाशा देख रहे थे। महार की लाश को वे कैसे हाथ लगाते? नया कोरा कफन कहाँ था? पुराने बारदाने में ही बुढ़ऊ को लपेटा गया।’ (पृ॰-158)शोषणकारी व्यवस्था ने दलित आबादी को दो हिस्सों में बांट दिया है। एक वे जो काम करने लायक हैं। दूसरे वे जो आश्रित हैं जिसमें बच्चे, स्त्रियां, बूढ़े व विकलांग हैं। काम करने लायक लोगों को शहर अपनी ओर खींच लेता है तो आश्रित लोगों को अपने ही हाल पर छोड़ देता है। इस व्यवस्था में उनका दोहरा शोषण होता है। शहर में श्रम करने वाले अजनबी हैं। शहर उनको पराया समझता है। वे शहरी जीवन को पूरी तरह नहीं अपना पाते। दूसरी तरफ गांव में बची आश्रित आबादी अपनों से बिछुड़ने पर विवश है। उनका जीवन बिल्कुल नारकीय है। शहर में प्रवासी जीवन का अहसास लिए घुटन,असुरक्षा, अकेलेपन व अवसाद का जीवन जीते हुए आसानी से पूंजीवादी व्यवस्था की शहरी बुराईयों का शिकार हो जाते हैं। उनका जीवन नशे या अन्य बुराई की भेंट चढ़ जाता है। गांवों में निर्भरता किसी और पर है तो शहर में किसी और पर। लेकिन है तो पर-निर्भर ही। दया पंवार ने व्यवस्था के इस चरित्र को रेखांकित किया है कि वह दलितों के जीवन को किस तरह लील रही है।
बहुसंख्यक मेहनतकश जनता का शोषण पूंजीवादी व्यवस्था का विशिष्ट गुण है। इसके लिए वह समाज में तरह-तरह के भेदभाव,ऊँच-नीच तो पैदा करती ही है साथ ही मेहनतकश जनता में तरह-तरह की पूंजीवादी बुराईयां भी पैदा करती है। इन बुराईयों से ही उनको अपना गुलाम बना लेती है। चाहे जुआ-मटका हो,रंडीबाजी या फिर नशा खोरी। एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था इनके माध्यम से ही श्रमिक वर्ग में भी पूंजीवादी संस्कार डालती है। पूंजीवाद की बुराईयां पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रमिकों में संक्रमित होती रहती हैं। शोषण की चक्की चलती रहती है। दया पंवार के पिता ने भी स्पिरिट पीकर अपनी जान दे दी तो उनके चाचा ने भी। स्पिरिट के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों को अन्दर ही अन्दर चाटती रहती है। उनके मौत का सामान तैयार करती रहती है।
किसी समाज व समुदाय का रहन-सहन, खान-पान, उसके काम करने के तौर-तरीकों पर ही निर्भर करता है। दलित अन्ततः श्रमिक वर्ग ही है। उसकी संस्कृति भी श्रमिक संस्कृति है। जिसमें किसी प्रकार का दोगलापन नहीं है। मेहनतकश वर्ग की नैतिकता में, सोच और व्यवहार में कोई अन्तर नहीं होता। यदि वह समाज किसी बात को बुरा मानता है तो उस बुराई को भी नहीं छुपाता है। इसके विपरीत शोषकों की संस्कृति में,व्यवहार में,नैतिकता में दोगलापन विद्यमान होता है। यह दोगलापन उनके वर्गीय अस्तित्व की जरूरत भी है। चूंकि आम जीवन में शोषक वर्ग ऊपरी तौर पर मेहनतकश जनता का खैरख्वाह भी नजर आता है। इसके लिए तरह-तरह के प्रपंच करता है, ढोंग करता है। वास्तव में वह शोषक व जनता का दुश्मन होता है। इसलिए उसके हर पहलू में दोगलापन नज़र आता है।
ज्ञान से वंचित करके ही दलितों को गुलामों का सा जीवन जीने पर मजबूर किया गया। शूद्रों के लिए शिक्षा व ज्ञान का निषेध किया। यदि कोई शूद्र ऐसा करने की कोशिश करे तो उसके लिए दण्ड का प्रावधान करके ही मनु ने शूद्रों पर शिकंजा कसा। सदियों पुराने इन विचारों को शूद्रों ने भी अपने लिए फायदेमंद मान लिया। शिक्षा के अधिकार को ही छोड़ दिया। लेकिन ज्ञान प्राप्त करना इस विचारधारा को समाप्त करने के लिए निहायत जरूरी है। इसलिए डा.भीमराव आम्बेडकर ने दलितों को संदेश में शिक्षा प्राप्त करने को मुख्य माना। अपने नारे- शिक्षित बनो’ संगठित हों, संघर्ष करों’ में शिक्षा को प्राथमिकता दी है। शिक्षा के बाद ही शोषण,दमन-उत्पीड़न व अन्याय के दुष्चक्र को समझा जाता है। शिक्षा ही दिमागों में घुसे प्रतिक्रियावादी संस्कारों को बाहर निकालती है। शिक्षा को लेकर जहां डा. आम्बेडकर के आधुनिक विचारों को स्वीकार करने की ललक है, वहीं पुराने संस्कार भी जमे हुए हैं।
मुझे आगे पढ़ाया जाये या नहीं, शायद ये विचार मां के सामने रहे हों। महारवाड़ा के उमा दादा की मां को सलाह-सरजू, लड़के को क्यों स्कूल भेजती हो? हम क्या ब्राह्मण हैं? गली-कूचे घूमेगा और दाना-पानी कमा लेगा। नहीं तो जायेगा ढोर चराने। चार पैसे लायेगा। तुम्हारे नोन-तेल की व्यवस्था हो जायेगी।
मां ने उमा दादा की सलाह नहीं मानी। बच्चे को पढ़ाना है, उसे बड़ा साहब बनाना है, यह प्रेरणा उन दिनों उसे किसने दी होगी? बाबा साहब कहतेः महारिन के मन में अपने बेटे के लिए कौन-से सपने होते हैं? यही कि वह चपरासी हो या सिपाही। पर ब्राह्मणी की इच्छा होती है, उसका बेटा कलेक्टर बने! ऐसी इच्छाएं महार मां की क्यों नहीं होती?’ शायद इसी भाषण का मां पर अनजाने में कोई असर हो गया होगा। मैं ताल्लुके गांव के स्कूल में जाने लगा। सुबह-शाम तीन मील की परेड़ करने लगा।’ (पृ॰-54)ज्ञान, मानव की महानतम खोज है। दलितों को इस खोज से वंचित करके ही ब्राह्मणवाद स्थापित हो सका है। जिस तरह सम्पत्ति का कुछ लोगों तक सीमित करना ब्राह्मणवाद की मुख्य विशिष्टिता है। उसी तरह ज्ञान को भी कुछ लोगों तक सीमित करके रखना उसकी विशिष्टता है। ज्ञान व शिक्षा के प्रति विभिन्न वर्गों के दृष्टिकोण से तथा विभिन्न वर्गों की ज्ञान व शिक्षा तक पहुँच के स्तर से यह सहज ही उद्घाटित हो जाता है कि वर्ग-विभक्त समाज में शिक्षा व ज्ञान का चरित्र भी वर्गीय ही होता है। समस्त स्थितियों के प्रति अपेक्षा ही शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में झलकती है। श्रमिक वर्ग के दिमाग में यही बात घुसाई जाती है कि काम करना और गुजारे लायक चार पैसे कमाना ही उसकी जिन्दगी का अन्तिम लक्ष्य है। अतः उतना ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त है जितना कि काम करने लायक हो जाए। यही विचार शोषणकारी-व्यवस्था प्रकारान्तर से दलित जीवन-दर्शन का हिस्सा बना देना चाहती है।
सामाजिक स्थितियां व विचार परिवर्तनशील हैं। यथार्थ की गतिशीलता को पकड़ने वाला लेखक ही समाज की सही तस्वीर पेश कर सकने की क्षमता रखता है। वही समाज के भविष्य की दिशा की ओर संकेत कर सकता है। दया पंवार दलितों के बदलते जीवन-यथार्थ को देखते हैं। वे उनमें आ रही जागरूकता,चेतना व परिवर्तन को भी रेखांकित करते हैं। समाज-सुधार से प्रभावित हुए दलितों ने व्याप्त प्रथाओं को मानना बंद कर दिया। दलितों को पहले गुलामगिरी का अहसास नहीं था अब यह अहसास हो रहा था। मरे जानवरों का मांस खाना भी बंद कर रहे थे। और गांव का काम करना भी बंद कर दिया था, जो उनको बेगार में करना पड़ता था। मराठा दुल्हे की अब नगर द्वार पर आरती नहीं उतारी जाती। गांव के मेले में बजाना बन्द कर दिया गया। मरी-मां की गाड़ी एक गांव से दूसरे गांव ले जाना बन्द हो गया।’
दलितों को समाज की मुख्यधारा से बहिष्कृत-सा कर दिया गया है। प्राकृतिक संसाधनों व मानवीय उपलब्धियों का अंश भी भोगने नहीं दिया जाता। हर स्तर पर उनका जीवन घृणा की चीज बना दिया गया है। सवर्ण के पास उनके लिए मात्र घृणा है जो बार-बार नजर आती है। व्यवहार, संस्कार व विचार में। मनुष्य की अधिकाश उपलब्धियों और सभ्यता की निर्मितियों में दलितों-श्रमिकों का महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन शोषणकारी ब्राह्मणवादी-व्यवस्था ने उनको मानव-सभ्यता के विकास के फल चखने से वंचित ही रखा। उनको मात्र काम करने वाले हाड़-मांस के पुतलों में ही बदल दिया। जिनकी तमाम भावनाएं, आकांक्षाएं कुचल दी गई। उनके लिए हर जगह एक दीवार खींच दी गई। रहने तक की जगह भी अलग दी गई। विचार करने की बात है कि दलितों के बिना भी कोई गावं नहीं है। और वे गांव का हिस्सा भी नहीं। गांव में दूर हटकर दलित बस्ती का होना दलितों की हैसियत व स्थिति का सूचक है। भारत के छः लाख गांवों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसमें दलित न हों। ऐसा भी कोई गांव न होगा जिसके बीच में दलितों की हवेलियां हों। अपने गांव के बारे में दया पवार ने लिखा कि
गांव और महारवाड़ा से सीधेएक रास्ता जाता है। वही गांव और महारवाड़ा का बार्डर है। यह गांव की गोद-सा है। एक टीले पर महारवाड़ा। गांव के निचले हिस्से पर। ऐसा कहते हैं कि हवा और नदी का पानी उच्च जातियों को शुद्ध मिले,इसीलिए गांवों की रचना प्राचीन काल से इसी तरह की गई। सबके घरों के दरवाजे गांव के विरूद्ध दिशा में। बचपन में देखा महारवाड़ा याद आता है।’
गांव के सार्वजनिक उत्सवों-कार्यों में भी दलितों को शामिल नहीं किया जाता बोहड़ा’ में महार लोगों को शामिल नहीं किया जाता (पृ.-111)

कहने को तो उत्सव-त्यौहार गांव के कहे जाते लेकिन इन उत्सवों, त्यौहारों, दंगल-कुश्तियों आदि में महारों को शामिल नहीं होने दिया जाता। पांडवा’ के त्योहार के अवसर पर दस-बारह साल के लड़कों को सजा-ध्जा कर झांकियों की तरह कंधें पर उठाकर घुमाया जाता। इस उत्सव में महारों को बाजा बजाना होता था। वह भी बिल्कुल मुफ्त। लेकिन महारों के लड़कों को इस खेल की अनुमति न होती। वे दूर खड़े रहकर सिर्फ तमाशा ही देख सकते थे। किसी महार के लड़के के मन में लेझिम खेलने का जोश आता तो भी उसे हाथ में लेझिम देना पाप समझते। हम महारवाड़ा के लड़के उदास हो जाते। गांव के मेले में दंगल का हंगामा रहता। मांगों की डंकों की आवाज़ पर कुश्तियां होती। गांव-गांव के पहलवान जमा होते। छोटे बच्चों की कुश्तियों रेवड़ियों-मिठाइयों पर लगाई जातीं। बाद में पैसे,नोट, जरी की पगड़ी, चाँदी का कड़ा-ऐसे बढ़ते भाव से कुश्तियां होतीं। महार पहलवान कितना भी बलवान होता,उसे सवर्ण पहलवानों के साथ जोड़ करने की इजाजत नहीं थी। यदि कोई गलती से अखाड़े में उतर गया और बाद में बात खुल गई तो उसे मरते दम तक पीटते। इसलिए कोई भी महार इस झंझट में न पड़ता। महारों की कुश्ती सिर्फ उन्हीं के जाति वालों के साथ होती।’ (पृ॰-71)
खेलों में सवर्ण व दलित एक समान नहीं हो सकते। समाज में सवर्णों का सामाजिक-वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर स्तर पर यह भेदभाव जरूरी है। एक तो दलित कुश्ती के दौरान छू लेगा और जाति-प्रथा व अस्पृश्यता का अमानवीय किला भेदा जाएगा। दूसरी संभावना यह भी है कि यदि कथित उच्च जाति के पहलवान को कथित निम्न जाति का पहलवान कुश्ती में हरा दे तो जातिय दंभ का क्या होगा?उस कथित सर्वोच्चता को बनाए रखना तभी संभव है जबकि ऐसा कोई भी अवसर न आ पाए कि सवर्ण व दलित कुछ मिलकर करें। जाति-प्रथा ने समाज को इस तरह से खानों में बांटकर रखा है कि वे एक जगह होते हुए भी कई स्तरों में बंटे हैं। एक गांव के तौर पर वे एक ईकाई हैं। लेकिन एक ही गांव के होने के बावजूद तथा एक ही वर्ग के होने के बावजूद भी वे एक-दूसरे से अजनबी हैं। एक-दूसरे से मिल नहीं सकते, बल्कि शत्रुवत हैं। जाति प्रथा ने सामाजिक स्तर पर भेदभाव को स्थायी बनाकर भारतीय समाज के मेहनतकश वर्ग की एकता को भंग किया है।
दलितों के प्रति यह घृणा सदियों की है। ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के रचियता मनु ने शूद्रों के लिए ज्ञान, सत्ता व धन का तो अधिकार दिया ही नहीं। उनको ब्रह्म के पैरों से उत्पति मानकर समाज के तो सबसे निचले स्थान पर दर्जा दिया। उनको हर तरह से घृणित मानने का विधान दिया। कोई व्यक्ति सवर्ण है या अवर्ण इसकी पहचान के लिए भी कुछ चिह्न बनाए गए। उच्च वर्ग के गले में सफेद धागा जनेऊ’ डाला गया तो निम्न वर्ग के गले में काला धागा। यहां तक कि निम्न-वर्ग के लोगों को उस तरह की काट के वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं था,जिस तरह के सवर्ण समाज पहनता था। केवल छोटी धोती ही पहन सकते थे। यदि कोई दलित इस कथित सामाजिक आचार-संहिता का उल्लघंन करता तो उसको सजा मिलती थी। व्यक्ति की सबसे पहली पहचान उसका नाम है। दलितों व सवर्णों के नामों की भाषा,अर्थ में भी अन्तर है। उनके नाम तक से पता चल जाता है कि वह दलित श्रेणी से है।

शेक्सपियर कहता है- नाम में क्या रखा है?’ पर मेरे ही हिस्से यह दगड़ू’ नाम क्योंकर आये। धरती के जिस टुकड़े पर जन्म लिया, वहां सभी के इसी प्रकार के नाम हैं- कचरू, घोडंया, जबा ... सब इसी तरह। किसी मां ने बडे़ प्यार से गौतम नाम रखा कि उसका तत्काल गवत्या’हो जाता। यही परंपरा थी। मनुस्मृति’ में शूद्रों के नामों की सूची देखी-इसी प्रकार तुच्छतादर्शी। ब्राह्मणों के नाम विद्याधर, क्षत्रियों के बलराम,वैश्यों के लक्ष्मीकांत और शूद्रों के शूद्रक,मातंग। वही परंपरा बीसवीं सदी में भी जारी रही।’ (पृ॰-12)
जातिप्रथा जनित अस्पृश्यता दलितों के शोषण करने का औजार है। उनमें हीन-भावना पैदा करके दबाने का साधन है। वर्ण की पवित्रता खाना और पूजा में निहित है। भोजन की पवित्रता और धर्म-की पवित्रता का दिखावा करने के लिए दलितों की छाया से भी बचा जाता है। लेकिन सोचने की बात है कि उच्च वर्ण के लिए सारे ऐशो-आराम के साधन तो दलित ही पैदा करते हैं। उस अनाज को खाते हुए सवर्णों का न तो धर्म भ्रष्ट होता है और न ही छूत लगती है। लेकिन दलितों के छूने मात्र से ही वे अपवित्र होने का ढोंग करते हैं।
शोषण व सामाजिक-उत्पीड़न का तीखा अहसास दलितों को रहा है। इसको समाप्त करने के लिए यह अहसास ही विद्रोह का रूप भी धारण करता है। कभी मजदूरी को लेकर तो कभी पानी को लेकर या जीवन के लिए जरूरी अन्य सवालों को लेकर दलित-संघर्ष करते रहे हैं। इन संघर्षों में कामयाब नहीं भी हुए होंगे। जब कभी उनका संघर्ष जीत में बदला है तब इसको एक अविस्मरणीय घटना बनाई है। वे शोषण और सामाजिक-उत्पीड़न से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहे हैं।
सामाजिक-उत्पीड़न से मुक्ति की कामना की सघनता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है जब ईसाई तहसीलदार गांव आता है - गांव के चार-पांच अगुवा लोगों पर मुकद्दमा दायर किया गया। सबसे माफीनामा लिखवाया गया। भविष्य में ... सतायेंगे नहीं, उनका रास्ता बंद नहीं करेंगे, इस प्रकार का लिखित करारनामा अगुवा लोगों से लिखवा लिया गया। बहुत दिनों तक जावजी बुआ के पास टीन के चोगे (ट्रंक)में ये कागजात रहे। जावजी बुआ इसे प्राणों से लगाकर रखते। बाद में जब मैं पढ़-लिख गया, तब वे मुझे पढ़ने के लिए देते। मुझसे पढ़वा लेते। उसे वे मुचलका’ या ऐसा ही कुछ कहते। उसकी छाती गर्व से फूल जाती। जिस प्रकार सोने की मुहरों का खानदानी हंडा अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा जाता है, ठीक उसी प्रकार उन्होंने यह अपने बेटे को, मरते समय सुपुर्द कर दिया।’ (पृ॰-64)सवर्णों के जुल्मों-अत्याचारों को दलित चुपचाप सहन नहीं करते जाते बल्कि परिस्थितियों व अपनी शक्ति के अनुसार इसका विरोध भी करते हैं उसके तरीके अलग-अलग होते हैं। मसलन सवर्णों के जानवरों को जहर खिला देना। (पृ॰-61) गांव वालों के सामने अकड़ भी जाते हैं और बहुत आक्रामक भी होते हैं।
यदि गांव वाले बिगड़ें और थोड़ी तू-तू मैं-मैं हुई तो यह-मंडली अपना आपसी वैर भूल एक हो जाती। ढोर फाड़ने के चमकदार छुरे पंचायत के पास तरतीब से रखते। एक-एक की तोंद फाड़ देंगे। महारों का आक्रामक रूख होता। इस पर गांव वाले महारों का बहिष्कार करते। गांव बंद। रास्ता बंद। मेहनत-मजदूरी बंद। ऐसे समय गांव का एकाध चतुर आदमी समझौते की कोशिश करता।
ऐसी ही एक समझौते की घटना याद आ रही है। गांव और महारवाड़ा में बेहद तनाव फैल गया था। महारवाड़ा की सीमा पर ईंट-पत्थरों का ढेर लगा दिया गया। हरेक ढेर पर प्रत्येक घर की स्त्री कमर कस कर खड़ी थी। अब खून-खराबा होगा, इसलिए महारों को मंदिर में बुलाया जाता है। नंग-धडंग, फटे-पुराने कपड़ों में लोग कंधे पर चमचमाते छुरे लेकर मंदिर के सामने मैदान में खड़े हो गये। पटेल कुलकर्णी और गांव के प्रभावशाली लोग मंदिर में बैठे थे। वहीं से संवाद शुरू होता है।
अपने आप को समझते क्या हो ?
नौजवान, काला-कलूटा, हट्टे-चट्टे शरीर वाला काशावा बोलता है
-हम राजा हैं!’
किस के?’
हम अपने ही राजा हैं?’
इस तरह इस दिन समझौता न हो सका’ (पृ॰-62)

सवर्ण-दलित का यह संघर्ष असल में वर्ग-संघर्ष का ही रूप है। सवर्ण जमींदार सबसे पहले मेहनत-मजदूरी बंद करता है। संघर्ष का यह रूप जीवन की बुनियादी जरूरतों को लेकर ही अधिक होता है। जिसमें अनाज, पानी, जमीन आदि मुख्य हैं। दलितों-सवर्णें में पानी को लेकर अधिक संघर्ष हुए हैं।
ब्राह्मण का सुरक्षा कवच खान-पान की पवित्रता व कथित धर्म-स्थलों-देवों की पवित्रता है। इसलिए दलितों को उनके हीन होने का अहसास इन्हीं के माध्यम से ही कराया गया है। दोनों में अपनी स्थिति के लिए संघर्ष चलता रहता है। सवर्ण-हमेशा ही ऐसे मुद्दे उठाकर दलितों का शोषण करता रहा है और उनको बुनियादी व मानवीय अधिकारों से वंचित करता रहा है। और दलित इसके विरूद्ध संघर्ष करते रहे हैं। ऐसी घटना का जिक्र पंवार ने किया है
पानी लेने के लिए आते-जाते महार स्त्रियों की छाया हनुमान पर पड़ती। भगवान अपवित्र हो जाता है, इसलिए गांव वालों ने एक बार रास्ता बंद कर दिया। कुएँ पर यदि दूसरे रास्ते से जाना हो तो तालाब के किनारे-किनारे कीचड़-से लथपथ होकर जाना पड़ता, एक मील तक। यह रास्ता महारों के लिए खुल जाये, इसलिए महारों ने संघर्ष किया। कोर्ट-कचहरी हुई। हम अपनी राह नहीं छोड़ेंगे। यदि आप आवश्यक समझें तो हनुमान की स्थापना दूसरी ओर कीजिये।’ इस प्रकार का आक्रामक पैंतरा महारों का होता’ (63)
सवर्णों का जातीय अहंकार इससे संतुष्ट होता है कि दलितों की जीवन स्थितियां पशुओं की तरह की हों। यदि वे इस स्थिति को खुशी से स्वीकार कर लें तो अच्छा। यदि वे स्वीकार न करें और अपना हक मांगने के लिए संषर्ष करें तो भी कुछ इस तरह की गुंजाइश रख ली जाती है जो वास्तव में तो झूठी होती है। लेकिन दिखावे के तौर पर अपनी सर्वोच्चता बनाए रखता है। हालांकि यह बहुत ही हास्यास्पद भी लगता है। औरंगपुर में पानी की घटना का वर्णन किया है
महार लोग बरसात में नाले का ही पानी पीते। नाला भी आधे मील पर था। गर्मी में नाला सूख जाता। उस समय उनकी बड़ी दुर्दशा होती। महार-मांग स्त्रियां घंटों तक बाल्टी-भर पानी के लिए राह देखती रहती। किसी को दया आती तो एकाध बाल्टी डाल देता। वैसे कानून महारों के पक्ष में था। उन्होंने कोर्ट में आवेदन-निवेदन करके देखा, पर सरकार नहीं पिघली। अंत में सब संगठित हुए और अपनी बाल्टी कुएं में डाल दी। स्त्रियां कमर कसकर सबसे आगे। गांव में खलबली मची। संपूर्ण गांव के लिए एक अलग हौद की कल्पना सामने आयी। परन्तु हमें अलग नल नहीं चाहिए, हम गांव के ही कुएं पर पानी भरेंगे,’ यह जिद्द महार-मंडली ने नहीं छोड़ी। अंत में पंचायत बैठी। महार-मंडली को उसी कुएं में अलग घिरी लगाने की अनुमति दी गयी। है न अजीबो गरीब बात। नीचे कुएं में मराठों और महारों की बाल्टियां आपस में मिल जातीं परन्तु एक ही घिरी में रहने से उनकी जाति के अहंकार को ठेस लगती। आज भी आपको वहां अलग-अलग घिरी मिलेंगी।’ (पृ॰-110)
भारतीय समाज में जाति का भेदभाव इतना गहरा बैठा हुआ है कि दलितों में भी वह यूं का यूं रहा। ब्राह्मणवाद मात्र उच्चवर्ग में नहीं, बल्कि दलितों के सोच-विचार में भी इस तरह ढल गया मानो कि इन्हीं का दर्शन हो। दलित नेताओं व सुधारकों के ऐन नाक के तले ही जातिवाद पनपता रहा। जिसने अन्ततः दलित एकता को नहीं बनने दिया और घोर स्वार्थों के कारण पूरा दलित-आन्दोलन जातिवाद का शिकार होकर रह गया। बोर्डिंग में रहने के दौरान हुए अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करते हुए दया पंवार ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। जब पवार उस बोर्डिंग में गए तो
पहले ही दिन लड़के टोली बनाकर मुझे देखते हुए कुछ कानाफूसी करने लगे। जिस कमरे में मेरा नम्बर लगा, वहां ऊँची कक्षा का एक हट्टा-कट्टा लंगड़ा लड़का रहता था। उसे दाढ़ी-मूँछ भी आ चुकी थी। उसने मुझे अपने दबाव में धर दबोचा, तू हमारी पंगत में नहीं बैठ सकता। हाल के दरवाजे के पास ही बैठना पड़ेगा!’ बाकी लड़कों ने भी उसकी हां में हां मिलायी।... शिकायत का सवाल ही न उठता। बोर्डिंग का सुपरिटेंन्डेंट भी उन्हीं की जाति का था। अपना लोटा-बर्तन मांज-चमकाकर भोजन हाल की ओर गया। वहां उन्होंने ताकीद की, देखों तुम महार हो। आगे हाल में घुसे तो तेरा कीमा बना देंगे।’ मैं गुमसुम हाल के दरवाजे के पास बैठ जाता हूँ। थोड़ा अन्तर छोड़ना नहीं भूलता। मैं पंगत के लड़कों को देखता हूँ। मेरी ओर सभी आँखें तरेरते हैं’
छात्रवास में हर शनिवार को मारुति के श्लोक पढ़े जाते। साथ ही भजन भी, वैष्णव जन तो तेणे कहिये जो पीर परायी जाणे रे।’ गांधी जी का यह प्रिय भजन वहीं सुन पाया। वैसे मेरी आवाज अच्छी ही थी। एकांत में जब कभी होता, बहुत देर तक गाता। छात्रावास में भजन गाने में सबसे आगे होता, मछूआरे के लड़के मेरे बाद साथ देते हुए गाते। परन्तु प्रसाद बांटते समय नारियल की थाली मेरे हाथों में कभी नहीं दी जाती। मैं यह अपमान अपने गले के नीचे उतारता। ऐसे समय गांव के हरि का कुष्ठ रोगी बाप विशेष रूप से याद आ जाता। मैं अपने हाथों को निहारता। मेरे हाथों में कोढ़ तो नहीं फूट निकला? खूब जोर से चीखने की इच्छा होती। मुंह दबाकर मुक्कों की मार’ क्या इसी को कहते हैं? यदि गांव के ढोर चराता, ऐसे डंक तो न चुभते। सच? क्योंकर हुई पुस्तकों से पहचान? अच्छी भी नदी किनारे की गोशाला उन दिनों इसी तरह लगाता’ (पृ॰98-99)
जाति का कोढ हाथों में नहीं चिपटा, बल्कि दिमाग में चिपटा है। वह पुस्तकों से पहचान से पैदा नहीं हुआ, बल्कि पुस्तकों में तो इस भेदभाव के अहसास तीखा किया है। यह कोढ जोर से चीखने या कोसने से नहीं समाप्त होता बल्कि इसके लिए हिम्मत करके बराबरी के व्यवहार की मांग करने की जरूरत है। तुकाराम शिरकांडे की तरह व्यवहार में इसको तोड़ने की जरूरत है जिस तरह वह पहले ही दिन जब वह भोजन के लिए हाल में जाता है, तब मछुआरों के लड़कों के साथ सटकर आराम से बैठता है। बोर्डिंग में तहलका मच जाता है।’ (पृ॰-103) इस तरह दया पंवार ने सही ही दर्शाया है कि उनकी तरह दब्बूपन से, स्वयं को कोसने व परिस्थितियों के आगे झुक जाने व शारीरिक बल से डर जाने की बजाए तुकाराम शिरकांडे की तरह सीधे पंक्ति में सटकर बैठने की हिम्मत करने से ही बराबरी का व्यवहार मिल सकता है। अपनी जाति से हुक्का-पानी बंद कर देंगे, सामाजिक भाई चारा तोड़ लेंगे या लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे - इन सबसे घबराकर तो कुछ सुधार नहीं हो सकता। प्रगतिशील विचारों के ब्राह्मण अध्यापक देशपांडे की तरह अपने बेटे के लिए महार लड़की से शादी करने जैसे साहसी कदम उठाकर ही जातिय भेदभाव पर प्रहार किया जा सकता है। (पृ-150)
जातिप्रथा की ऊंच-नीच के रूप में ब्राह्मणवाद दलितों में भी गहरे में पैठा हुआ है। एक दलित-जाति दूसरी दलित-जाति को अपने से निम्न समझती है और अछूत समझती है। जातिवाद का यही व्यावहारिक रूप है कि कोई जाति समाज के जिस भी स्तर पर है, सोपान पर है वह अपने से ऊपर वाली जातियों से तो दया की भीख मांगती है, उसका सहयोग एवं बराबरी पाना चाहती है लेकिन अपने से नीचे के सोपान पर माने जाने वाली जाति से उसी तरह घृणा करती है व उसके प्रति उसी तरह का हिंसक व अमानवीय व्यवहार करती है जैसे कि उच्च कही जाने वाली जाति उसके प्रति करती है। विडंबना ही है अस्पृश्यता का दंश झेलती जाति दूसरी के प्रति वैसा ही व्यवहार करती है। पर चमार हमारे कुएं का पानी कभी न पीते। वे महार के पानी से छुआछूत मानते। चमार परिवारों की औरतें मराठों के कुओं पर एक घड़ा पानी के लिए भीख मांगती बैठी रहती। मन में बड़ी उथल-पुथल मचती।’ (पृ॰-62)
सभी उच्च जातियों के धार्मिक व शादी-विवाह के कर्मकाण्डों को प्रायः ब्राह्मण ही अंजाम देते हैं और ब्राह्मणों का दर्जा अन्य सभी जातियों से ऊपर है। लेकिन महाराष्ट्र के महारों के ये कर्मकाण्ड भाट महार करते हैं जिनको कि महार अपने से निम्न समझते हैं।
जिस प्रकार सवर्णों की सारी विधि ब्राह्मण पुरोहित करता है, वैसे ही उस जमाने में महारों की विधि भाट करता था। यह भाट तालुके में रहता बच्चों का नामकरण, शादी-ब्याह इत्यादि काम भाट ही करता था। वैसे ये भाट जाति से महार ही थे। परन्तु इन्हें महार लोग छोटा समझते। दरवाजे पर आने के बाद रावसाहेब, पुण्य महाराज’ इस तरह पुकारते।’ (पृ॰-33)
इसीप्रकार मनोरंजन के बारे में भी दया पंवार ने लिखा है
रायरंद’ का खेल। ये रायरंद ऊँट पर सवार हो साल में एक बार आते। उनकी विशेषता थी कि वे न गांव में ठहरते, न गांव वालों का मनोरंजन ही करते। वे केवल महारों का मनोरंजन करते। मुझे आज भी आश्चर्य होता है। जो महार गांव के अमीरों का मनोरंजन करते, उनका भी मनोरंजन करने वाला कोई होता है। भारतीय समाज व्यवस्था की उलझी हुई बुनावट देखकर मेरी विचार शक्ति शून्य हो जाती है। इस तरह सबका अनजाने में ऐ पाला हुआ अहंकार। शायरंद’ पंचायत में ही ठहरते।’ (पृ॰-72)
जिस तरह निम्न जाति के लोग उच्च जाति की दया पाने के लिए उनकी तारीफ करते हैं और प्रशस्तियां गाते हैं उसी तरह ये रायरंद’ भी महारों की तारीफ करते नाचते समय बड़े तन्मय होकर कहते- तुँबड़ी-भर दे दो न, वो बाजीराव नाना!’ अगुओं के सिर पर वे नारियल पटकते। गांव के अगुओं की वे तारीफ करते। उनकी भाषा में माधुर्य होता। शब्द-संपति की वे वर्षा करते।’ (पृ.-73)
पितृसत्ता ब्राह्मणवाद की मुख्य विशेषता है। इस व्यवस्था के जनक मनु ने जिस तरह दलितों को ज्ञान से, शक्ति से और अधिकारों से वंचित किया था उसी तरह अपनी कथित आदर्श-व्यवस्था में स्त्री को न वर्ण में स्थान दिया, और न उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया। जिस तरह दलित को अन्य वर्णों की सेवा करने का ही दायित्व सौंपा उसी तरह स्त्री को भी पुरूष की सेवा करने का ही दायित्व सौंपा। जिस तरह शूद्र पूरी तरह उच्च वर्णों की दया पर निर्भर था, उसी तरह स्त्री को भी पुरूष की दया पर छोड़ दिया। ब्राह्मणवाद का यह कोढ दलित समाज में भी फैला है। दलित समाज में भी पुरूषवाद उसी तरह फल-फूल रहा है जिस तरह उच्चवर्ग में। इस तरह स्त्री का दोहरा शोषण-उत्पीड़न है दलित होने के कारण और स्त्री होने के कारण। दया पंवार ने अछूत’ में दलित समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी व अमानवीय स्थिति को मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है।
दलित समाज चूंकि गरीब है, इसलिए परिवार के सभी सदस्यों को पुरूष-स्त्री, बूढ़े-बच्चे सभी को काम करना पड़ता है। तभी उनको किसी तरह पेट भरने लायक अनाज मिल पाता है। लेकिन पुरूषों को तो फिर भी कई तरह की छूट मिल जाती है परन्तु स्त्रियों को हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। घर की पूरी जिम्मेदारी उनकी होती है। इसलिए घर का पोषण करने का सबसे अधिक दबाव औरतों पर आता है। घर का चुल्हा-चौंका, व्यवस्था, बच्चों का पालन-पोषण, मेहमाननवाजी तथा पति की सेवा-सुश्रूषा की पूर्णरूपेण जिम्मेदारी औरतों की होती है। लेकिन घर की हालात खस्ता हाने के कारण वे साधन जुटाने के लिए भी काम करती है। घर और बाहर के काम के बीच वे पिसती हैं। परन्तु उनकी मेहनत की कोई गिनती नहीं है। काम करते हुए तो स्त्री होने के नाते तो उनको अपमान सहन करना पड़ता है पर इतना काम करने के बावजूद भी परिवार में उनको सम्मान नहीं मिलता।
दया पंवार ने इसे बहुत ही यथार्थपरक ढंग से व्यक्त किया है।
पुरूष हमाली (पुरूष) करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। स्त्रियों को कोई भी परदे में न रखता। उलटे पुरूषों की अपेक्षा वे ही अधिक खटती थीं। शराबी पति उन्हें कितना भी पीटें, वे उनकी सेवा करती। उनका शौक पूरा करतीं। सड़कों पर पड़ी चिंदियां, कागज, काँच के टुकड़े, लोहा-लंगर, बोतलें बीन कर लाना, उन्हें छांट-छांट कर अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धंधा था। वहीं पास ही मंगलदास मार्केट में कपड़े का व्यापार चलता था। उन दुकानों से पेंफके गये कागज आदि औरतें इकट्ठा करतीं। सब की अपनी-अपनी दुकानें तय थीं। कचरा उठाने के लिए झगड़े होते। वहाँ की दुकानों के नौकरों को छोटी-मोटी रिश्वत भी दी जाती। कुछ औरतें पास के ही वेश्यालय में वेश्याओं की साड़ियाँ धोतीं। कीमा-पाव से ऊबी वेश्याओं के लिए कुछ औरतें बाजरे की रोटियां और रायता पहुँचाती। शौकीन ग्राहक इन आयाओं की ही मांग कर बैठता। ऐसे समय कांच-सी इज्जत बचाने के लिए वे सिर पर पैर रखकर भागती।’ (पृ॰-14)
पुरूष-प्रधान समाज में स्त्री को मात्र भोग की वस्तु समझा जाता है, उसके साथ एक ही संबंध हो सकता है यौन का, सैक्स का। बाकी सब रिश्ते इसके आगे कमजोर पड़ जाते हैं। विडम्बना तो यह है कि यौन-संबंधों में स्त्री की इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। महारवाड़ा में घटी घटना स्त्री की समाज में हैसियत को उद्घाटित करती है।
एक स्त्री का पति बम्बई में नौकरी करता है और वहां मकान की तंगी के कारण उसे अपने साथ नहीं रख सका। उस स्त्री के ससुर आदि यानी लड़के के पिता विधुर थे। वह एक रात अपनी पुत्र-वधु के बिस्तर की ओर बढ़ता है लेकिन वह स्त्री विरोध करती है। स्त्री के मायके वालों को और उसके पति को बुलाया जाता है। पंचायत में उसका पति यह प्रश्न कुछ अलग ढंग से पेश करता है। वह कहता है,मैंने इसे अपनी औरत के रूप में अपनाया है। यह मेरे और बाप के साझे की है। मैं अपने बाप का दिल नहीं दुखा सकता। मेरा ससुर चाहे तो अपनी लड़की को ले जा सकता है।’ (पृ॰-92) इस पति के यह विचार सब कुछ स्वयं ही कह देते हैं कि एक औरत की क्या हैसियत है, उसके प्रति उत्तरदायित्व क्या है? और संबंधों में नैतिकता क्या है?
स्त्री की कोई हैसियत ही नहीं है। वह पूर्णरूपेण पुरूष की इच्छा पर गुजारा करती है। शादी के बाद उसे छोड़ने के लिए पुरूष को कोई विशेष कारण ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे पीटने के लिए किसी कारण या बहाने की जरूरत नहीं है। पुरूष उसे पीटना दुत्कारना व अपमानित करना तो अपना अधिकार ही समझता है। ऐसा करते वक्त न तो उसे नैतिकता कचोटती है और न ही कोई लोक-लज्जा वह दर्शाता है। बल्कि सरेआम स्त्री को पीटकर वह ज्यादा सम्मानित व गौरवान्वित महसूस करता। स्त्री के प्रति उसकी सहनशीलता, सहानुभूति, मानवीय करूणा जवाब दे जाती है। अपने चाचा तात्या के व्यवहार से दया पंवार ने इस पुरूष ग्रंथि को उद्घाटित किया है।
अगस्ती की यात्रा में हम सब गए थे। महारकुंड के पास हम सबने डेरा जमाया। इस समय एक काली-सांवली महिला जहां हम बैठे थे, वहां लगातार चक्कर लगा रही थी। मां उस औरत को पहचान लेती है। वह तात्या की पहली पत्नी थी जिसे उन्होंने छोड़ दिया था। तात्या को क्या महसूस हुआ होगा, पता नहीं। वे एक झटके के साथ उठते हैं। सामने गन्ने की गाड़ी थी। उस गाड़ी से एक लम्बा गन्ना खींचते हैं और उस महिला को ढोर-जानवर-सा पीटने लगते हैं। यात्रा में आये लोग उसे बचाते हैं। शायद तात्या के अहंकार पर उसने प्रहार किया हो। एक तो परित्यक्ता और फिर उनके साथ इस तरह पेश आये, शायद उन्हें इसी पर क्रोध आया हो। बाई को अच्छा सबक सिखाया, चारों ओर यही राय थी। मैं उस परित्यक्ता चाची के बारे में काफी देर तक सोचता हूं। चाची ने मेरे दिल का कोना अवश्य जीत लिया था। इतना अपनापन इस चाची के बारे में क्यों नहीं लगता?’(पृ.-113)
पुरूष द्वारा स्त्रियों को प्रताड़ित करने व सताने में सवर्ण व दलित समाज में कोई अन्तर नहीं है। पुरूषों का स्त्रियों को बिना बात के मार-पीट व तंग करना दोनों में समान रूप से है। बबन की बेटी वेणु के प्रसंग से इसे प्रस्तुत किया है।
वेणु की शादी गांव में खूब धूम धड़ाके से हुई थी। वेणु बहुत सुन्दर थी। नक्षत्रों-सी। मां-बाप से उजली थी। उसे जो घर मिला, वह धनवान। लड़के के पिताजी बम्बई में किसी कम्पनी में फोरमैन थे। लड़का दिखने में बड़ा ऊंचा-पूरा। घर में खेती-बाड़ी देखता। वेणू को पति द्वारा बहुत तकलीफ दिया जाना शुरू होता है। पति रात-रात उसे सोने न देता। उस पर संदेह भी करता। बाहर खेतों में जाता तो चाबी-ताले में बंद कर देता। स्कूल में जब था, तब मैंने भी एक-दो बार उसका छल कम करने की कोशिश की। पति छोटे-मोटे कारणें पर ही चिढ़ जाता। बैल-ढोरों सा पीटता। अंत में, बबन उसे त्यौहार-निमित घर लेकर आता है और लड़की वापस नहीं भेजनी है, यह अपना निर्णय सुना देता है। जंवाई पागलों-सा हो गया। हाथ में नंगा चाकू लेकर बबन के घर के सामने खड़ा हो गया। बबन वैसे गरीब आदमी, पर डगमगाया नहीं। बाद में तो वह रामोश्या की टोली लेकर भी आ गया। लड़की ने फौजदारी कचहरी में बयान दिया, साहब, मुझे सामने के नाले में धकेल दीजिये, प्राण निकल जायें, फिर भी मैं उसके साथ नहीं जा सकती’ उसे मुक्ति मिलती है। बाद में बहुत ही व्यस्क व्यक्ति से उसकी शादी होती है। इतना वैभव छोड़कर वेणु क्यों आयी? बूढ़ा पति क्यों बनाया? दुख-तकलीफों का कंटीला रास्ता उसने क्यों अपनाया, यह सवाल आज भी मुझे निरूत्तर कर देता है। आज बूढे पति की नौकरी छूट चुकी है। बंगलों में आया का काम कर, वह पति और बच्चों को पालती-पोसती है। वेणू की दुदर्शा बबन जिन्दगी-भर न भूल सका।’ (पृ॰-159)
वेणु का पति उसे बहुत सताता है, मारता-पीटता है, लेकिन जब वह उसे छोड़कर वापस अपने घर चली जाती है तो वह उसे वापस लाने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल भी करता है। यही पुरूष प्रधान समाज की मानसिकता है कि वह यह भी सहन नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली जाए। इसमें वह अपना अपमान समझता है। उसकी पुरूष ग्रंथि को, पुरूष होने के अहंकार को चोट लगती है। वह उसे रखना भी चाहता है और सम्मान नहीं देना चाहता। बल्कि उसके व्यवहार से लगता है कि जितना वह उसकी प्रताड़ना को स्वीकार करती है उतना ही वह शान महसूस करता है। वेणु उसकी सारी शानो-शौकत को छोड़कर कष्टपूर्ण जीवन को चुनती है। जवान पति की जगह बुढ़ा पति, अमीर की जगह गरीब पति उसे स्वीकार है। परन्तु अपमान भरी जिन्दगी नहीं। वह सामाजिक सम्मान चाहती है। इसलिए वह न्यायाधीश के सामने कहती है कि वह मरना पसन्द करेगी, पर उसके साथ जाना नहीं। अपना सम्मान, स्वतन्त्रा अस्तित्व, व स्वतन्त्रता स्त्री को पसन्द है। चाहे ये सब प्राप्त करने के लिए उसे कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें।
ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था जिस तरह शूद्रों को छूना भी पाप समझती है, उसी तरह कुछ विशेष समय पर ब्राह्मणवादी विचारधरा(पितृसत्ता) स्त्री की देह को अपवित्र मानती है,विशेषकर शिशु-जन्म के समय। ये विचार समाज के हर वर्ग में घर कर गए हैं। कितने ही रिवाज-प्रथाएं व प्रचलन हैं जब औरतें रसोई में नहीं जा सकती, खाना नहीं बना सकती, बर्तन नहीं छू सकती। माना जाता है कि ऐसा करने से भारी पाप हो जाएगा। कमाल की बात तो यह है कि छूतछात का यह विचार दलितों में भी है। जिन दलितों को सवर्ण समाज अछूत समझता है वही स्त्री को भी अछूत मानते हैं। पुरूष सत्ता इन्हीं में अपना वर्चस्व स्थापित करती है। स्त्री के अन्दर भी ये संस्कार इतना गहरा है कि वह इस अवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। दया पंवार की मां बोर्डिंग में खाना पकाने का काम करती है। उस समय घटित घटना का वर्णन करके लेखक ने इस मानसिकता का उद्घाटन किया है।
बात यूं हुई कि मां को बोर्डिंग में आये एक महीना भी नहीं हुआ था कि मां को मासिक-धर्म हुआ। उस पर वैसे पुराने संस्कार। इस अपवित्र’ अवस्था में पका भोजन लड़कों को कैसे खिलाये, यह उसके सामने दुविधा। मां अपनी उलझन सुपरिटेंडेंट को बताती है। क्या करें? वे भी सोचने लगे। बाहर से यदि चार दिन के लिए बरतन वाली बुलाई गई तो यह हर माह का सिरदर्द हो जायेगा। इससे क्या होता है!’ कहकर वे उस दिन खाना पकाने के लिए मजबूर करते हैं। माँ के लिए और रास्ता न था। यह खबर लड़कों तक कैसे पहुँची, भगवान जाने।
मैं थाली-लोटा लेकर भोजन-गृह की ओर बढ़ता हूँ तो सारे लड़के एक कोरस में गा रहे थे, पचका हो गया रे, पचका हो गया!’ कोई भी भोजन के लिए तैयार नहीं था। क्या हुआ, यह मुझे मालूम न था। ... मैं थाली से उठता हूँ और मां के साथ क्या हुआ है यह जानने के लिए आगे बढ़ता हूँ। माँ बात स्पष्ट करती है। ऐसा लगा कि धरती फट जाये और हम मां-बेटे को समा ले। समाज जिन लोगों को अपवित्र’ समझता था, वे ही लागे स्त्री-देह को अपवित्र समझें। पर यह सब समझने की उम्र न थी।’ (पृ॰-144-145)
पुरूष प्रधान मानसिकता स्त्री को हमेशा कमजोर मानती है। वह स्त्री को अकेला छोड़ने की सोच ही नहीं सकती। उसकी सोच में स्त्री को अकेला छोड़ना उचित नहीं है। ब्राह्मणवाद के जन्मदाता मनु ने स्त्री के लिए बचपन में पिता, जवानी में पति तथा बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में रहने की व्यवस्था की थी। यही सोच अब तक धारण किए हुए हैं। किसी कुंवारी स्त्री या अकेली स्त्री की भारतीय समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती किसी न किसी तरह यहां स्त्री को पुरूष का संरक्षण देने के लिए लोग पागल लड़की की भी शादी कर देते हैं। और स्त्री की इच्छा के खिलाफ भी। यदि किसी स्त्री का पति मर जाए तो उसकी इच्छा के खिलाफ भी उसका विवाह करने की सोच लेते हैं। जबकि श्रमिक-दलित वर्गों में स्त्री पुरूषों पर निर्भर नहीं है। परिवार के कार्यों का सुचारू रूप से चलाने के लिए वह हाड़तोड़ मेहनत करती है। लेकिन ब्राह्मणवादी पुरूष-प्रधान मानसिकता के चलते इन वर्गों में भी स्त्री के प्रति वही समझ है जो उच्चवर्गों की है। दया पंवार के पिता की मृत्यु के बाद स्थिति उद्घाटित करते है
मां का नैहर पास ही, दो मील पर। उनकी खेती-बाड़ी थी। चचेरे दादा भागे-दौड़े आये। माँ पुनः विवाह कर ले, उनकी यह जिद्द। कोई एक विधुर था। उसने माँ को देखा था। हम दो छोटे बच्चे। मैं तो बहुत ही छोटा। बहन सात-आठ साल की। महारवाड़ा कुछ ऐसा था कि किसी के काम न आता था और कभी भी इज्जत झट से मिट्टी में मिल जाये सो अलग। दादा इज्जत को सब-कुछ समझने वाले। दादा के कहने पर माँ पर ज्यों ही बिजली गिरी हो। एक तो ननिहाल के बारे में उसके मन में बचपन से ही नफरत-सी थी। उसे दादा की यह बात कसाई-सी लगी।
मैं आपके दरवाजे भीख नहीं माँग रही। मैं मेहनत-मजदूरी कर अपने बच्चों को पाल लूँगी’ दादा से साफ-साफ कह डाला।’ (पृ॰-48)
पुरूष और स्त्री की सोच में कितना अन्तर है इससे अनुमान लगाया जा सकता है। पंवार की मां को ननिहाल से नफ रत थी। उस परिवार का संचालन पुरूषवादी था। जिसमें स्त्री को प्रताड़ना के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होता।
जब माँ पैदा हुई, तब उसका बाप मर गया। बाप को मिट्टी दी और सद्य-प्रसूता का छल शुरू हुआ। लड़का नहीं हुआ, यह गुस्सा था ही। नानी को भूखा रखते। उससे ढोर-डंगर का काम लेते। आटा छानकर निकालने के बाद जो चोकर बचता, उसकी रोटी नानी को दी जाती। इस प्रकार छल शुरू हुआ। उन दिनों ससुराल की यंत्रणा जेल-सी जानलेवा थी। इन तकलीफों से तंग आकर नानी अपने ननिहाल चली गयी। मां बहुत छोटी थी। उसे नानी से अलग किया गया। मां बताती थी- तुम्हारी नानी एक बार ननिहाल गयी तो फिर वापस ही नहीं आयी। उसने दूसरा घर बसा लिया।’ (पृ॰-49)
दया पवार की मां और उसकी नानी जिस तरह से पितृसत्ता की संरचनाओं को ठुकराती है और अपना स्वतन्त्र रास्ता चुनती है, जबकि वह कष्टों भरा है इससे साफ है कि स्त्रियों में जीवट है, संकल्प है लेकिन पुरूष उसको कमज़ोर करने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव डालता है। पुरूष-प्रधान मानसिकता से परिचालित व्यक्ति पति के मन में पत्नी के प्रति नरमी, उदारता व आदर के भाव रख ही नहीं सकता और समानता का व्यवहार तो कतई भी नहीं। फिर चाहे स्त्री हो या पुरूष। यदि कोई ऐसा करता है तो उसका अपमान किया जाता है। उसे तरह-तरह से नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है कभी उसे जोरू का गुलाम’ कहा जाता है। दया पवार की मां और पत्नी के बीच का झगड़ा इस विचारधारा के प्रताड़क व प्रताड़ित के बीच के संबंधों को प्रदर्शित करता है।
मां को यह बात इतनी पसंद नहीं थी कि सई ने आकर उसके इकलौते बेटे का चार्ज ले लिया है। जब तक मैं घर में होता, सई बहुत मधुर व्यवहार करती परन्तु मेरे बाहर जाते ही सास-बहू के झगड़े शुरू हो जाते। मुझे इसका कोई उतर न मिलता कि मुझसे इतनी अच्छी रहनी वाली सई मेरी मां-बहन से क्यों झगड़ती है? शाम को घर आने पर माँ सई के व्यवहारों का पहाड़ा पढ़ती वैसे कोई बड़े अपराध न रहते। घर के कामकाज के बारे में ही शिकायत होती। मां का वह स्नेहिल स्वभाव बदलता गया। सब सुन सकें, इतनी ऊंची आवाज़ में वह मुझे बैल’ कहकर पुकारती। मैं पत्नी के वशीभूत हो रहा हूँ, मैं बैल हो गया हूँ, इस प्रकार वह मेरा अपमान करती और मेरी हालत इधर कुंआ उधर खाई जैसी थी।’ (पृ॰-197)
यदि गहराई से विचार किया जाए तो ये औरतों का झगड़ा नहीं है। असल में यह परिवार में वर्चस्व की लड़ाई है। शादी के बाद लड़का पत्नी से प्यार-प्रेम करता है, उसकी बात सुनता है तो परम्परागत रूप से वर्चस्व प्राप्त सदस्यों को अपना रौब-दाब, अपनी पकड़ ढीली होती नजर आती है। उसको बनाए रखने के लिए पुरूष-प्रधानता की असमान विचारधारा का सहारा लेती है। यदि कोई पुरूष अपनी पत्नी से बराबरी का व्यवहार करने लगे, उसका आदर करने लगे उससे नरमी से पेश आए तो उस पत्नी से गुलाम की तरह काम नहीं लिया जा सकता। पति उससे जैसा व्यवहार करता है उससे ही पत्नी की हैसियत निर्धारित होती है। इसलिए पत्नी को तो सिखाया जाता है कि पति को परमेश्वर, मालिक, रक्षक, भर्ता अपना सर्वस्व मान ले, उसकी पूजा करे, चरण वन्दना करे। पति को सिखाया जाता है कि वह अपनी पत्नी को पीटे, डांटे, दुत्कारे यानी किसी न किसी तरह काबू करके रखे। दोनों को इस सीख से ही पुरूष प्रधानता की व्यवस्था कायम रह सकती है। हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि यदि किसी एक ने अपना व्यवहार बदल दिया तो यह व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी इसलिए पति यदि पत्नी को बराबरी का दर्जा दे तो पत्नी उसे बराबरी न मानकर उसे परमेश्वर मानती रहे। यदि पत्नी इस स्थिति को स्वीकार न करे तो पति जबरदस्ती उससे यह व्यवस्था मनवा ले। वरन् तो दोनों को परस्पर विरोधी आदर्श रखने वाली पर एक ही परिणाम निकालने वाली विचारधारा का उपदेश क्यों दिया जाता। लेखक ने मां व पत्नी के बीच के झगड़े पर टिप्पणी की है।
वैसे बचपन से ही मां ने मुझे हथेली के घाव-सा संभाला था। कल की आयी इस गोरी-उजली सई ने उसके इकलौते बेटे को उससे छीन लिया है, यह मां का असली क्रोध था।
माँ की मानसिकता मैं कुछ समझ न पाता। शिक्षित होने के कारण या शायद अधिक वाचन के कारण अपनी पिछली पीढ़ी की अपेक्षा मैं पत्नी को अधिक सौजन्य तथा आदर रखता और इसी कारण घर मैं झगड़ों का ज्वालामुखी फूट पड़ा। पैर की चप्पल पैरों में ही रखनी चाहिए, यह चारों ओर की समझ थी। मां मुंह तोड़कर कहती, अरे, बीवी को सिर पर बिठायेगा तो कल को वह वहां हगने की कमी भी नहीं रखेगी।’ (पृ॰-197)
पुरूषवाद की कई तहें-परते हैं। कई रूपों में उसकी अभिव्यक्ति होती है। पुरूष होने का अहंकार-दंभ अपने कई-कई रूप में दर्शाता है कि वह औरत का मालिक है। वह स्त्री को बाजार से एक सामान की तरह खरीद सकता है। पुरूष सत्ता असल में सामन्तवाद के साथ आई। बड़े-बड़े सामन्त और राजाओं का शौक हुआ करता था, अपने महलों को रखैल’ रानी’ कहीं जाने वाली महिलाओं से भरकर रखना। यह भी प्रतिष्ठा की कसौटी समझी जाती थी कि किसके पास कितनी रानियां या रखैलें’ हैं और कितनी नाचने-गानेवाली। भारत के हर बड़े शहर में वेश्याओं के मौहल्ले-बाजार हैं वे इस पुरूषवाद के गवाह हैं। अपनी हैसियत के अनुसार पुरूष वेश्या-बाजार से स्त्री की सेवा’ लेता है और स्वयं को संतुष्ट करता है और शोषक वर्गों की यह प्रवृत्ति शोषितों ने भी अपना ली। दया पवार अपने पिता की रंडीबाजी’ की घटना का जिक्र करते हैं कि
जिस दिन पगार मिलती उस दिन वे किसी महिला के पास जाते हैं, बल्कि इसको अपनी शान समझा जाता है। इस पर टिप्पणी करते हुए इस मानसिकता को इस तरह उद्घाटित किया है - मैं घर आकर माँ को सारी घटना बताता हूँ। तब वह फीकी हँसी हँसती है। शायद उसे इस बात की जानकारी हो। पुरूष द्वारा की गई रंडीबाजी अर्थात्, छाती पर एकाध मेडल लटकाने जैसा वातावरण चारों ओर था। गर्व से देखा जाता था। वैसे पिताजी की रंडियां भी साधरण ही होती थीं- कोई बंगलों में काम करने वाली आया तो कोई लारी पर मिट्टी ढोने वाली। कितनी बदली होगी, कोई गिनती नहीं।’ (पृ॰-27)
वेश्या-बाजार किसी भी महानगर का स्थायी अंग है। इस धंधे को सेठ-साहुकार, सरकार-प्रशासन बंद करने की बजाए समर्थन ही देते हैं। शासन-सत्ता व उसके अंगों में पुरूष-प्रधान वृत्ति कूट-कूट कर भरी है। स्त्री की नजर से वे समाज को देख ही नहीं पाते वे हर चीज़ को पुरूष की नज़र से ही देखते हैं। इन बाजारों में पुरूष अपनी विलासता, ऐश्वर्य का प्रदर्शन तो करते ही हैं। इस बाजार के निर्माण में भी पुरूष प्रधान मानसिकता है। किसी स्त्री से बदला लेने के लिए या अपने स्वार्थ के कारण पुरूष सभी मानवीय व सामाजिक संबंधों को ताक पर रखकर अपनी बेटियों, बहनों, बहुओं यहां तक कि माओं को भी वेश्या बना देते हैं। अपनी मौसी जमना की वेश्या बनने की कथा को बताते हुए लेखक ने लिखा कि
मैं बाहर आता हूँ और सहादबा को खोद-खोदकर पूछता हूँ। वह बताता है, अरे, यह तेरी माँ की दूध-बहन’ अर्थात मां एक और बाप दो।’ फिर यह यहां कैसे,’ इसका उत्तर जब सहादबा देता है, तब मैं अन्तर्मुखी हो जाता हूँ। जमना पास के ही तंबू में पति के साथ रहती थी। उसके सौंदर्य से पति हमेशा ईर्ष्या करता। उसे पीटता। अंत में उसी ने इसे यहां लाकर बेच दिया। अपनी पत्नी भी लोग बेचते हैं, मुझे कुछ सच न लगता’ (पृ॰-125)
स्त्री इन स्थितियों को स्वीकार नहीं करती, पुरूषों ने अपनी हवस पूरी करने के लिए तरह-तरह के पाखंड़-प्रपंच रचे हैं। स्त्री के इस रूप को महिमामंडित करके उसको भोगने की कोशिश की है। स्त्री को यह सब मजबूरी में करना पड़ता है। ज्यों ही उसे इन स्थितियों को छोड़ने का मौका मिलता है तभी इनको छोड़ देती है। दया पवार ने वर्णन किया है
सन 1944 याद आ रहा है क्योंकि उस साल गोदी में बम-विस्फोट हुआ था। बांद्रा में दादी की ताईबाई-नाम की एक बहन थी। दादी की यह दूध-बहन’ थी, अर्थात मां एक और बाप दो। उसे बचपन से ही खंडोबा की देवदासी बना दिया गया था। परन्तु जैसे ही वह सब समझने लगी, उसने वह धंध छोड़ दिया। मजदूरों सा कष्ट उठाती। .... ननद को छेड़ने वाले एक मुसलमान को उसने पत्थर पर पछाड़ा था-ऐसा उसका उसका दबदबा था।’ (पृ॰-22)
स्त्री को पुरूष सिर्फ भोग्या ही समझता है। उसे देह की नज़र से ही देखता है। उसकी नजर में उसकी देह ही महत्वपूर्ण है। उसे भोगने की लालसा ही उसकी मुख्य लालसा है। वह किसी और रूप में, किसी संबंध में स्वीकार ही नहीं कर सकता। दया पवार की पत्नी सई को उसके दोस्त इसी नजर से देखते हैं। वह शिकायत करती हुई कहती है कि मेरे दोस्तों के बीच उसके सौंदर्य की चर्चा हुई होगी। एक बार उसने एक दोस्त के खिलाफ शिकायत की।
वह दोस्त बातूनी था। यूनियन का कार्यकर्ता, प्रभावी वक्ता, हजारों की सभा में बोलने वाला। वह जब-जब घर आता है, तब-तब पानी मांगता है और जब मैं आपके दोस्त को पानी देती हूँ, वह हथेली पर चिकोटी काटता है।’ यह उसकी शिकायत थी।’ (पृ॰-196)
स्त्री यदि सुन्दर नहीं है तो वह पुरूष की घृणा का शिकार होती है और यदि वह सुन्दर हो तो वह उसकी वासनामय आसक्ति का शिकार होती है। दोनों ही स्थितियों में स्त्री के लिए प्रताड़ना व अत्याचार है।
दया पवार ने पुरूष-वर्चस्व की मानसिकता को रेखांकित कहते हुए समाज में स्त्री की स्थिति पर यथार्थपरक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि
औरतों को लेकर भारतीय पुरूष समाज बहुत ही शंकालु है। पुरूषों के बारे में, उनके लफड़ों के बारे में, किसी को कुछ नहीं लगता। परन्तु अपनी औरत के बारे में मात्र शंका भी हो जाये तो कितनी बड़ी रामायण’ घटित होती है। वह सबको मालूम है।’ (पृ॰-219)
लेखक अपनी पत्नी पर शक करने लग जाता है कि उसके किसी से अवैध सम्बन्ध हैं। वह इस बात की जासूसी करने लगता है।
सारी रात नींद नहीं आती। सई से पूछने की कोशिश करता हूँ। वह रोने लगती है। लड़की के नाम से कसमें खाने लगती है। क्या करूं, कुछ नहीं सूझता। रात-भर विचारों से माथा फटने जैसा हो गया। महबूब को लेकर एक ईरानी होटल में जाता हूँ। अब वह भी रोने लगा। कुरान की कसमें खाने लगा। वो मेरी बहन है ...’ वह बड़बड़ाने लगा था। क्या करूं? कुछ न सूझता। मैं उसे तत्काल बम्बई छोड़ने को कहता हूँ।
घर आकर देखता हूँ कि महबूब गांव जाने की तैयारी में था। उसके बाद वह कहीं नहीं मिला।
परन्तु मेरे भीतर का शैतान जाग चुका था। सच क्या है? यह जानने के लिए मैं सई को रात-रात भर छेड़ता रहता। पर वह कुछ भी कहने को तैयार न थी। उसने नहीं-नहीं’ की रट लगा रखी थी। आज तक मैंने कितनी ही किताबें पढी थी। रसेल का नीति शास्त्र’ पढ़ा था। परन्तु ऐसे समय कोई किताब उपयोगी नहीं थी।’ (पृ॰-222)
भारतीय पुरूष के संस्कार के सामने, स्त्री के प्रति उसके शक के सामने दुनिया का सारा नीतिशास्त्रा व ज्ञान असफल है। वह न तो अपनी बीवी की बात सुनता है, न अपने दोस्त पर विश्वास करता है। स्त्री-देह पर पूर्ण आधिपत्य तो वह चाहता ही है। यह भी वह स्त्री के व्यवहार से अपेक्षा करता है कि शक की गुंजाइश ही न हो। जाहिर है कि शक की गुंजाइश तो तभी समाप्त होगी जबकि वह अन्य किसी पुरूष से बात न करे। मिले ना। उसकी तरफ देखे भी नहीं। यह व्यवहार स्त्री को अन्ततः पर्दें में, घर की चार दिवारी तक सीमित कर देता है। शक की मानसिकता उसी सोच की उपज है कि यदि कोई स्त्री और पुरूष मिलते हैं तो उनके बीच में और कोई संबंध हो ही नहीं सकता। केवल यौन संबंध ही हो सकते हैं। यौन-शुचिता पर स्त्री के शरीर पर पुरूष अपना अधिकार समझता है। इस मानसिक रोग व विकृति ने परिवारों को, स्त्री-पुरूषों का, पति-पत्नियों के जीवन को नरक-कुंड में तब्दील कर दिया है। लेखक का जीवन भी असामान्य हो जाता है। यहां तक कि वह नपुसंकता की स्थिति तक पहुंच जाता है। अपनी निर्दोष पत्नी का जीवन भी अपनी इस संकीर्ण, अमानवीय व स्त्री-विरोधी सोच के कारण बर्बाद कर देता है। स्त्री के मामले में विशेषकर पत्नी के मामले में सारी उदारता, दयालुता, विनम्रता, प्रगतिशीलता, आधुनिकता समाप्त हो जाती है और केवल रूढ़ भारतीय मर्द’ बन जाता है। इतना डरपोक व्यक्ति जो सदा विरोध करने से कतराता रहा और सारे जुल्म-शोषण को सहन करता रहा, लेकिन पत्नी पर पूरी बहादुरी दर्शाता है।
दलित-आन्दोलन में भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव की संभावना थी। यह संघर्ष उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़कर ही पनप सकता था, जिसे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने धर्म बनाकर नकारा था। दलित-आन्दोलन ने आरम्भ से ही समाज के आमूल-चूल परिवर्तन को अपने आन्दोलन का केन्द्रीय पक्ष नहीं बनाया बल्कि उसी व्यवस्था में अपने लिए भी हिस्सेदारी की मांग की या अधिक से अधिक अपनी मानवीय अस्तित्व की स्वीकृति को ही उठाया, जबकि मानवीय स्थितियों की प्राप्ति से ही मानवीय अस्तित्व हासिल हो सकता था।
दया पवार ने दलित आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले व दलित आन्दोलन के विकास की संभावनाओं के मुद्दे की ओर भी संकेत किया है। अधिकांश दलित गांवों में रहते हैं और गांवों का मुख्य आय स्रोत व उत्पादन का साधन जमीन है। लेकिन दलितों के पास जमीन का बहुत ही कम अंश है। गांव में मान-सम्मान की जिन्दगी जीने व अपने गुजारे के लिए जमीन ही मुख्य साधन है। जमीन न होने के कारण दलित जमींदारों पर ही निर्भर रहे हैं तथा उत्पादन का मुख्य अंग होते हुए भी उनको बदले में बहुत ही कम मिलता रहा है। नई व्यवस्था व तकनीक से पुराने संबंध भी बदले हैं।
परम्परागत धंधे तो बदल रहे हैं। परम्परागत व्यवस्था भी बदल रही है जिसमें ग्रामीण संबंध भी बदल रहे हैं। गांव में दलितों के गुजारे के लिए कोई साधन नहीं है इसलिए वे शहरों की ओर भाग रहे हैं। इसको ऐसे रेखांकित किया है
येसकर पारी गयी, बलुत गया। बिता-भर जमीन हड्डियां पोसने के काम आती थी, वह भी नाममात्र पैसों के लिए जमींदारों के पास गिरवी है। इस कारण महारवाड़ा उजड़ा पड़ा है। पेट का गड्ढा भरने के लिए सब शहर भाग रहे हैं, गन्नों के खेतों में पानी सींचने का काम करते हैं। यह है गांव का दृश्य’ (पृ॰-204)
इस पलायन व उजड़ने से बचने का एक ही रास्ता है कि जमीन में दलितों को हिस्सा मिले। गांव की जमीन का पुनर्वितरण हो। गांव के दलित इस बात को अच्छी तरह समझते हैं लेकिन मध्यवर्गीय मानसिकता के दलित नेता भूमि-सुधार या उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी को अपनी राजनीति का मुख्य सवाल नहीं बनाते जबकि गावं के जीवन का यह मुख्य मुद्दा है। जमीन को लेकर या इससे जुड़े विभिन्न सवालों पर ही सवर्ण-दलित संघर्ष जन्म लेता है। जमींदारों ने दलितों की जमीनें खरीद ली या हड़प ली उसे वापस लेने की दलितों की इच्छा व इसके लिए किये जाने वाले संघर्ष इसे ही दर्शाते हैं। इसकी ओर जिन दलित नेताओं ने संघर्ष किया है उनको बहुत ही समर्थन मिला है।
इसी समय जिले का एक विवाद अच्छी तरह याद है। जमींदारों ने शक्कर कारखानें के लिए नाममात्र का मुआवजा देकर 99 वर्षों के अनुबंध पर महारों की परंपरागत जमीन हड़प ली। यह जमीन वापस मिले, इसलिए दादा साहब, राम पवार आदि लोग जिले में आंदोलन करने लगे। उस जमीन पर धनवान किसानों ने काफी कुछ सुधार किया है। यदि यह उन्हें फिर वापस दी जाती है तो वे इस जमीन की दुदर्शा कर डालेंगे। महार लोगों ने कभी किसानी की भी है? उनका सवाल। बाद में यह आन्दोलन बालू में पानी सोखने-सा कहां गायब हो गया, पता नहीं।’ (पृ॰-205)
उत्पादन के साधनों में विशेषकर जमीन में दलितों को हिस्सा न देने के लिए इसी तरह के तर्क अक्सर दिए जाते हैं कि दलितों को खेती करनी नहीं आती’ वे जमीन को बंजर कर देंगे’। ये सब हिस्सेदारी नकारने के लिए दिए गए तर्क हैं। कई जगह जहां दलितों को वास्तव में जमीन आबंटित की भी गई है तो उनको खेती करने के लिए संसाधन मुहैया नहीं करवाए गए और अन्ततः इस जमीन का उनको कोई लाभ नहीं हुआ और गांव के धनी किसानों ने धन का लालच देकर उनसे जमीन वापस ले ली। भूमि-सुधार ही ऐसा मुद्दा, कार्यक्रम व आन्दोलन है जिस पर सभी दलित व अन्य गरीब लोग एकजुट हो सकते हैं। दलितों के अभिजात्य वर्ग ने भूमि की लड़ाई की खिल्ली उड़ाकर विरोध किया, लेकिन दलितों की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या को इस आन्दोलन का समर्थन मिला।
दादा साहब ने भूमिहीनों के लिए देशव्यापी सत्याग्रह किया तो उनके विरोधियों ने उनका मजाक उड़ाया। निश्चित ही उसमें मैं भी शामिल था। परन्तु धीरे-धीरे इस सत्याग्रह को अभूतपूर्व यश मिला। जेल भरो आंदोलन’ की राजनीति क्या होती है, उसके दर्शन अलग से हो रहे थे।
इस लड़ाई में केवल बौद्ध लोग ही शामिल नहीं थे बल्कि वह सारा कमजोर वर्ग था, जो जमीन के सवाल पर एकत्रित हो रहा था। सुधारवादियों की हंसी उड़ाना सबसे पहले उन्हीं को खला। नेताओं में मतभेद होने के बाद भी दादा साहब ने नगर-जिले में सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह की अनेक मजेदार बातें कानों में पड़ रही थी। शोलापुर के कुछ लोगों ने अचानक कलेक्टर के घर का कब्जा कर लिया। कलेक्टर के पलंग पर सोने का स्वप्न एक स्वयंसेवक ने सच कर दिखाया। उसके बारे में जो भी सजा थी उसने खुशी-खुशी स्वीकार की।’ (पृ॰-214)
डा. भीमराव आम्बेडकर की मृत्यु के बाद दलित-आन्दोलन बिखर कर रह गया। दलित नेताओं ने संघर्ष छोड़कर सत्ता का सुख भोगना शुरू हुआ, वे शासक वर्गों का ही हिस्सा बन गए। जब तक बाबा साहब जीवित थे, इस राजनीति में एक जीवित ऊष्मा थी। तप्त ज्वालामुखी-सा यह समाज उफनता रहा। खेत-काम मिलने का आंदोलन गांव-गांव सुलग रहा था। महारकी अर्थात गुलामगिरी। ये काम हम नहीं करेगें।’ स्वाभिमान की यह हवा महार लोगों के भीतर संचरित हो रही थी। पहाड़ों से टकराने की ध्मक इस आंदोलन में थी। परन्तु बाबा साहब की मृत्यु के बाद? एक खंबे का तंबू जैसे झंझावती तूफान के सामने धूल में मिल जाये, ठीक यही दुदर्शा इस आंदोलन की हुई। दूसरों के महलों में मत भटको। अपनी झोंपड़ी बचाओ,’ बाबा साहब का यह आदेश हवा में घुलने लगा। गुड़ से ज्यों मक्खी चिपके, वे सत्ता से चिपकने लगे। कांग्रेस-रिपब्लिकन समझौता तो आंदोलन को स्लो पायजनिंग-सा खत्म करने लगा।’ (पृ॰-205)
डा. आम्बेडकर के बाद दलित नेताओं में कोई सृजनात्मक चिंतन नहीं, बल्कि उनकी नकल करने लगे। और नकल भी उनके संघर्ष, चिंतन व जनता से सहानुभूति व जुड़ाव में नहीं बल्कि बाहरी रूप रचना में। उनके कपड़ों की, चलने के ढंग की, बातचीत के लहजे की। बाहरी स्वांग भरकर आम्बेडकर की बराबरी करना चाहते थे। डा. आम्बेडकर की तरह लोकप्रियता प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने आम्बेडकर की दृष्टि व संघर्ष दोनों को छोड़ दिया और मात्र उनके बाहरी रूप का, उनके बिम्ब को अपने ऊपर ओढ़कर चलने में ही सारी प्रतिभा व ऊर्जा लगाई। शायद इसी कारण आम्बेडकर के बाद उनका दर्शन विकास नहीं कर पाया और दलित-नेता मात्र आम्बेडकर के नाम की ही लीक पीटते रहे और उनका जो अपना स्वार्थ था, (सत्ता की राजनीति करके उसमें हिस्सेदारी प्राप्त करना) वह प्राप्त भी हो गया।
रिपब्लिकन नेताओं के करीबी दर्शन में कोई संतोषजनक बात न दिखती। इसमें से अधिकांश नेता बाबा साहब की हू-ब-हू नकल करते। बाबा साहब कुत्ता पालते तो ये भी कुत्ते पालते। बाबा साहब कीमती पेन रखते, ये भी रखने लगे। सूट पहनना आम बात हो गई थी। किसी शोकसभा या शवयात्रा में भी ये लोग सूट पहनकर आते। तब उन पर बड़ी दया आती। गांव-देहातों में इनकी सभाओं में इनका डीलडौल खुलकर दिखता। देहातों में जनता रास्तों पर धूल में पलकें बिछाकर लपसी (पतला हलुवा) खाती हैं और ये नेता अपने घरों में मुर्गी-शराब में मस्त। यह विसंगति बहुत खटकती। निश्चित ही इनके ये शौक लोगों के चंदों से पूरे होते’ (पृ॰-212)
जनता के दुख-तकलीफों उनकी स्थितियों से कटे हुए ये नेता हंसी के पात्र बन गए और दलित-आन्दोलन दलितों की मुक्ति के लिए संघर्ष न रहकर इन सत्ता-लोलुप स्वार्थी नेताओं की शान बघारने का आंदोलन बनकर रह गया। दलितों में मुक्ति के लिए उत्साह व विश्वास का संचार करती बाबा साहब की संघर्ष चेतना इन नेताओं में न आई, इसलिए ये जिस जनता का नेतृत्व करना था उसमें हंसी के पात्र बन गए और जन-मुक्ति के इस आन्दोलन का चरित्र उच्च मध्यवर्ग का अवसरवादी व स्वार्थी चरित्र बन गया। ऐसी एक घटना का जिक्र दया पवार ने किया है
एक बार ऐसे ही विरोधी नेता की सभा में गया। भाषण के पश्चात उन्होंने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आवाहन किया। बहुत देर तक मैं अपने व्यंग्यकार को दबा नहीं सका। मैंने प्रश्न पूछा, लोग कहते हैं कि फोर्ट में जो बाबा साहब का पुतला है, वह आप-सा दिखता है।’ सही बात तो यह थी कि प्रश्न का व्यंग्य-स्वरूप वे समझ गये थे, पर वे बहुत झल्लाये। कहने लगे, बाबा साहब की तरह मेरी नाक है, इसलिए क्या उसे काट डालूं, उनकी और मेरी ऊंचाई एक जैसी है, क्या उसे भी कम कर डालूँ?’ साहब के इस उत्तर से उस दिन सभा का बड़ा मनोरंजन हुआ।’ (पृ॰-212)
दलित-आन्दोलन का नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आ गया और वह किसी भी कीमत पर अपना वर्ग-चरित्र छोड़ने को तैयार नहीं था। वह अपनी सुविधाएं सबसे पहले प्राप्त करना चाहता था। उसकी जीवन-शैली व आम दलितों की जीवन-शैली में जमीन-आसमान का अंतर था। इस जीवन से उनको अन्दरूनी तौर पर घृणा थी। ऐसे में ये जनता का दिल कैसे जीत सकते थे। भोले-भाले लोग उनकी बातों में आकर उनको अपना नेता समझते थे लेकिन अन्ततः वे ठगे ही जाते थे। इस तरह इस आन्दोलन में बिखराव आया। लोग उदासीन हो गए। नेता को जनता का आदर्श तो क्या बनना अपनी कमजोरियों को भी दूर नहीं कर पाए। इसी तरह का जिक्र करते हुए दया पवार ने एक घटना का वर्णन किया है
एक नेता इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर आया था, वह कभी-कभार देहातों में सभाओं के लिए जाता, तब उसे खुले में नहाने में शर्म आती। साहब को इंग्लैंड के बंद बाथरूम की आदत! लोग बताते, जब साहब नहाने बैठते, तब चार कार्यकर्ता उनके चारों ओर धेती तानकर पर्दा कर देते। इस तरह उनका बाथ’ चलता।’ बाद में बैरिस्टर महोदय एक खाना बनाने वाली को लेकर भाग गए। इस कांड की समाज में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई और उन्हें पार्टी से छुट्टी दे दी गई।’ (पृ॰-216)
स्वार्थी नेताओं ने दलित-आन्दोलन को जन्म लेने से पहले ही दफन कर दिया। जिस जनता का उत्थान करने चले थे, जिसमें जागृति लाने चले थे उसी को धोखा देते रहे और समाज सुधार और क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए जिस तरह के त्याग, समझ व निष्ठा की जरूरत थी वह इन नेताओं में पनपी ही नहीं। ऐसी ही पुणे के एक नेता की बात बताते हैं।
ये कहीं भी सभा में जाते तो फुल सूट में। एक देहात में जयंती के उपलक्ष में इनकी सभा का आयोजन हुआ। साहब पेट-भर मुर्गा दबा चुके थे। वे खुले में सोने को तैयार न थे। अंत में साहब की सोने की व्यवस्था एक कमरे में की गई। कमरे के पास ही रसोईघर। जिस कार्यकर्ता का यह घर था, उनकी पत्नी ने जोरदार मटन बनाया थ। बाई चुल्हे के पास ही लेटी थी। रात में साहब की वासना जोर मारती है। साहब अंधेरे में ही बाई को टटोलने के लिए आगे सरकने लगते हैं। बेचारी गहरी नींद में थी। घर में सोया साहब इस कदर टटोल रहा है, यह जानकर बाई भयाकुल हो गई। वह जोर से चिल्लाती है। बाहर सोये पुरूष लोग जाग जाते हैं। सब साहब को मां-बहन की गाली देते हैं। साहब वैसे छंटा हुआ था। अंधेरे में अपना सूट काँख में दबाकर भाग निकला। पीछा करते कार्यकर्ताओं को साहब नहीं मिले। सुबह-सुबह ही कार्यकर्ता साहब की तलाश में शहर आ जाते हैं। जिसने यह नेता तय कर सभा के लिए गांव भोजा था, उसके घर जाते हैं। कहते हैं, साहब आपने बहुत अच्छा किया! बहुत अच्छा नेता भेजा, जो हमारी मां-बहनों को टटोलने निकला।’ आज भी यह नेता खुले-आम समाज में शान से रह रहा है। विशेष आश्चर्य की बात तो यह है कि विधायक चुना गया रक्षक ही भक्षक बन जाये तो शिकायत किससे करें? आम आदमी के सामने यही सवाल।’ (पृ॰-216-17)
डा. भीमराव आम्बेडकर ने इस बात को अच्छी तरह को पहचान लिया था कि जब तक दलितों में एकता नहीं होगी, जागृति-चेतना नहीं होगी और वे संगठित होकर अपने हकों के लिए संघर्ष नहीं करेंगे तब तक उनकी मुक्ति की कोई संभावना नहीं है। इसलिए उन्होंने शिक्षित बनो’, संगठित हो’ व संघर्ष करो’ का नारा दिया था। दलितों में व्यापक एकता के लिए ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित समस्त समुदायों व जातियों को एक दलित’ श्रेणी में संगठित करने की कोशिश की थी। कथित जरायम पेशा’ जातियों वे अछूत’ व अन्य शूद्र जातियों में व्यापक एकता व संगठन की बात की थी। उन्होंने इस बात को जाति प्रथा को इसमें सबसे बड़ी बाध बताया था इसलिए जाति को तोड़ने के लिए जन-जागरण की कल्पना की थी। वे राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ-साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे जो समाज में व्याप्त बुराईयों पर प्रहार करते थे। उनके सामने समाज की एक परिकल्पना मौजूद थी। लेकिन उनके बाद के दलित-आन्दोलन के नेताओं के पास समाज की कोई परिकल्पना नहीं थी। समाज-सुधार के काम को उन्होंने पूरी तरह छोड़ दिया था। अपने समाज में व्याप्त पिछड़ेपन, अंधविश्वास, ब्राह्मणवादी संस्कार व जाति-प्रथा को दूर करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाए। वे कोरे राजनीतिक कार्यकर्ता बनकर रह गए और बिना किसी आदर्श के अपने अनुयायियों की संख्या में बढ़ोतरी करने के लिए उनके पास समाज में व्याप्त परम्परागत निर्मितियां ही थीं और उनमें भी जाति-प्रथा। यह विडम्बना ही रही कि दलित-आन्दोलन स्वयं जाति के आन्दोलन में बदल गया। राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की होड़ में दलित-आन्दोलन फूट का शिकार हुआ और बिखर कर रह गया।
शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी बनी, लेकिन वह गुटबन्दी का और व्यक्तित्वों की टकराहट का शिकार होकर रह गई, कई गुट बन गए। पश्चिम महाराष्ट्र में जिलेवार गुट बन गये। उधर विदर्भ में महार जाति की उपजातियों पर आधरित गुट बने। बावणे, लाडावान और कोसरे-यह विदर्भ की उपजातियां। उधर पश्चिम महाराष्ट्र में सोमवंशीय। अपने बाबूजी संशोधन के आधार स्तम्भ। उनके पीछे विदर्भ के और उतने ही उनकी उपजाति के लोग थे। दूसरी ओर खोब्रागड़े की उपजाति बड़ी थी। भूमिहीन खेत-मजदूरों को रिपब्लिकन पार्टी का कोई भी गुट आकर्षित नहीं कर सका। कुल मिलाकर संशोधन वही। परन्तु बोर्ड बदल गया। उसमें भी बोर्ड के दो भाग। कुल मिलाकर यह हालत थी।’ (पृ॰-211)
दलित-आन्दोलन का चरित्र बदला तो उसके मुद्दे भी बदल गए। भूमि-सुधार जैसे ठोस बदलाव को छोड़कर भावनात्मक नारों पर लोगों को गोलबंद किया जाने लगा। दलित-आन्दोलन में मुक्ति और बदलाव की धार कुंद हो गई। वह बुर्जुआ पूंजीवादी राजनीति का ही अंग बन गया। दलित-आन्दोलन ने मात्र भावनात्मक व दलित-अस्मिता की लड़ाई का रूप ग्रहण कर लिया । उसने मूल बदलाव का संकल्प छोड़ दिया। वह मात्र अभिजात्य का आंदोलन बन गया। यही दलित-आन्दोलन की विडम्बना रही कि जिन वर्गों के खिलाफ इस आन्दोलन को लड़ाई लड़नी थी और जिससे विचारधारात्मक संघर्ष था, वही वर्ग इस वर्ग के नेतृत्व के शिखर पर काबिज हो गया था। दया पवार ने इस परिघटना को वर्णित किया है। एक लम्बा उद्धरण देना इसलिए जरूरी है।
सुधारवादी नेता लोग आर्कषक नारे देने में बड़े निपुण थे। पार्टी का हाथी चुनाव-चिह्न फिर वापस लाना’ एक ऐसी ही आकर्षक घोषणा थी। देश की संपूर्ण बुद्धगुफाएं हमारे अधिकार में हों’। सारा भारत बुद्धमय करना’। ऐसे स्फूर्तिदायक भाषणों से ये लोग सभा में रंग लाते। बाबा साहब की मृत्यु की गुप्त रिपोर्ट सरकार को प्रकाशित करनी चाहिए, हर छह साल बाद भी एक थ्रिल घोषणा होती। बाबा साहब की मृत्यु संशयात्मक परिस्थितियों में हुई हैं। उसमें सुधारवादियों के कुछ मान्यवर नेता और उनकी ब्राह्मण पत्नी का हाथ है, ऐसी विहस्परिंग पालिटिक्स खेल कर सारे वातावरण में असंतोष के वातावरण का निर्माण करते। जो बाबा साहब के लिए शोभायमान हों, ऐसा एक स्मारक खड़ा किया जाये। उनके नाम पर अलीगढ़ या हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी यूनिवर्सिटी हो, डा.आंबेडकर अध्ययन-केन्द्र स्थापित हो, ऐसी कल्पनाएं हमेशा सभाओं के सामने रखी जाती। इनके लिए लोगों को लाइन लगाकर बैंकों में पैसे भरने चाहिएं, ये आह्वान लोगों को मन से अच्छे लगे। नेताओं को दिए गये पैसे कहीं और हजम हो जाते हैं, अतः इस अनुभव के कारण यह बात सबको उचित लगी। सात-आठ दिनों में आंकड़ा 62 हजार तक पहुंच गया। नेताओं तक को इस आंकड़े पर विश्वास न होता। दूसरे सार्वजनिक चंदों का जो भविष्य होता है, वह इसका भी हुआ। नेताओं में खटपट हुई। सारी रकम फ्रीज कर दी गयी। चैत्यभूमि के स्तूप पर संगमरमर जड़ने की कल्पना भी लोगों ने इसीप्रकार पापुलर की थी। कहते हैं लोगों ने पैसों की वर्षा कर दी। परंतु अंत तक संगमरमर नहीं बैठाया गया। बाद में ये पैसे हवा हो गये। समाज को इन पैसों का कभी हिसाब नहीं मिला। कनिष्ठ-गांव-कामगारों ने भी सारे महाराष्ट्र से प्रत्येक गांव पीछे मनीआर्डर भिजवाया। महार के वतन खत्म हो गये, परन्तु वह सारा पैसा आज भी बैंक में सड़ रहा है। समाज के रचनात्मक कामों के लिए इन पैसों का उपयोग नहीं हो पाया।’
धीरे-धीरे समाज में उदासीनता फैलने लगी। सारे आंदोलन चूल्हे से ठंडे होने लगे। राजनीति की छाया समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाओं पर भी पड़ने लगीं। इतना ही क्यों, शादी-ब्याह, मरणोपरांत शवयात्रा- इस पर भी गुटबाजी का प्रभाव दिखने लगा। कोई सामान्य आदमी भी मर जाये तो शमशान घाट पर उसके गुणगान की प्रथा थी। वार्ड के कार्यकर्ताओं को इस सभा में बोलना मान-सम्मान की बात लगती। उस समय जिस गुट शव होता, उन्हीं को सभा में बोलने का मान मिलता। अध्यक्ष भी उसी गुट का। हम अपने गुट का आदमी मरने पर इसका बदला लेंगें, ऐसा दूसरे गुट वाला घर जाते-जाते बोल जाता’ (पृ॰-214-215)
उपरोक्त उद्धरण से तत्कालीन दलित राजनीति उद्घाटित होती है जो अपनी मुख्य दिशा से हट गई थी और भावनात्मक मुद्दों पर लोगों को एकत्रित करती थी। जिससे लोगों में किसी प्रकार की जागरुकता नहीं आती थी। दलितों में डा. भीमराव आम्बेडकर का दलित जनता में बहुत अधिक सम्मान था, उनके प्रति इस सम्मान को ही वे अपनी राजनीतिक स्वार्थों के लिए प्रयोग करना चाहते थे। इसलिए बाबा साहब का नाम लेना ही उन्होंने राजनीतिक रामबाण मान लिया था। मूलभूत परिवर्तनकामी चेतना को तो इस राजनीति ने तज दिया था, और मात्र चिह्नों की व बाबा साहब के नाम को ही भुनाना शुरू कर दिया। दलित-आन्दोलन बहुसंख्यक दलितों की मुक्ति के मकसद को छोड़कर चन्द आभिजात्य दलितों के उत्थान तक सीमित हो गया। केवल पढ़े-लिखे दलितों को सरकारी नौकरियों मे स्थान देने तक ही सिकुड़ गया।
दया पवार ने दलित-राजनीति के विभिन्न आयामों को भी उठाया है। कम्युनिस्ट-आंदोलन और दलितों की दूरी की ओर भी संकेत किया है। इसके दो कारणों की ओर संकेत किया है एक तो कम्युनिस्ट राजनीति की कमजोरी थी कि वे अछूतों की विशिष्ट समस्याओं को नहीं समझ पाए, और उनके सामाजिक संबंध भी उच्च वर्ग के साथ ही बन रहे। दलितों में वे घुल मिल नहीं पाए। इसलिए दलितों में कम्युनिस्ट राजनीति नहीं बढ़ पाई, उस समय के वामपंथियों को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि अस्पृश्यों की अपनी अलग समस्याएं हैं। एक समय तो जिले का बहुजन समाज कम्युनिस्ट था। किसी समय तो वह सत्यशोधक आंदोलन भी रहा होगा। परन्तु समाज की सांस्कृतिक मूल्य-कल्पना कभी भी जड़ से समाप्त नहीं हुई थी। जेड.पी., शक्कर के कारखाने और महाराष्ट्र की राजकीय सत्ता के हाथों में रहने के बाद भी अनजाने में इन्होंने ब्राह्मण-संस्कृति की तरफदारी की। उनकी शादियों में ब्राह्मण आते। इनका पिंडदान ब्राह्मणों द्वारा संम्पन्न किया जाता। गांव की यात्रा-पूजा, सत्यनारायण की कथा, श्रावण मास का अखंड-पाठ आदि के कारण इनकी मानसिकता पारंपरिक ही थी। गांव का धनवान आदमी, चाहे वह समाजवादी हो या कम्युनिस्ट, अस्पृश्यों की मजदूरी-समस्या की ओर पहले-सा ही मगरूर होकर देखता। गांव के परम्परागत कार्यों के लिए यदि अस्पृश्यों ने इनकार किया तो वे पहले जैसे ही बहिष्कृत होते। उनकी नाकेबंदी होती। गांव की यात्रा का चंदा नहीं दिया, पोले के दिन मंदिर में बैल पहले ले गये, बाजा बजाने नहीं आये आदि छोटी-मोटी बातों को लेकर युद्ध छिड़ जाता। इन समस्याओं को लेकर वामपंथियों ने कोई मोर्चा बनाया हो याद नहीं। एक ओर महार समाज अपनी पुरानी बातें छोड़ रहा है, केंचुली-छोडे सांप सा सनसनाता देवधर्म से इनकार करता है और दूसरी ओर गांव के उत्पादन के साधनों में उसका कोई हिस्सा नहीं’ (पृ॰-203-204)
वामपंथी राजनीति से दलितों के न जुड़ने के मुख्य कारण को दया पवार ने पकड़ा है। दलितों के प्रति सामाजिक-शोषण व सामाजिक-अन्याय को अपनी राजनीति का केन्द्रीय तत्व बनाकर और अछूतों का शोषण करने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति व सामाजिक प्रथाओं को छोड़कर ही वह दलितों को अपने साथ जोड़ सकती है। इस बात में गहरी सच्चाई है कि वामपंथ भी दलितों की समस्याओं को सर्वहारा की समस्या ही मानता रहा। उसका समाधान भी वह आर्थिक-शोषण से मुक्ति में तलाशता रहा। जबकि सामाजिक-सम्मान व आर्थिक-शोषण से मुक्ति का संघर्ष आपस में जुड़ा हुआ है। समाज में वर्गीय-एकता व वर्ग-चेतना पैदा करने के लिए जाति-प्रथा जैसी बुराईयों के खिलाफ अभियान चलाना निहायत जरूरी था। जिस तरह राष्ट्रवादी सोचते रहे कि आजादी के बाद अपने आप शिक्षा व विकास से ऐसी बुराइयां दूर हो जाएंगीं, उसी तरह वामपंथ ने भी क्रांति में ही इस समस्या का समाधान खोजा, जो दलितों को अधिक विश्वसनीय नहीं लगा। दलितों का असली समाधान वामपंथी राजनीति व विचारधारा के पास है। वह तभी संभव है, जब दलित उससे जुडें और इसके लिए जरूरी है कि जिस तरह साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में वामपंथ ने विश्वसनीयता हासिल की है उसी तरह जातिप्रथा के खिलाफ आन्दोलनात्मक और विचारधरात्मक संघर्ष करने की जरूरत है। भारत का दलित असली सर्वहारा है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह किसी ऐसे जबानी जमा-खर्च में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह ठोस कार्यक्रम ही उसे वामपंथ से जोड़ सकता है। वामपंथ से आशा की किरण दलितों को दिखाई देती है। पिछले कुछ दशकों में जाति-उत्पीड़न के खिलाफ जो संघर्ष वामपंथ ने किए हैं उससे दलितों में वामपंथ की एक साख बनी है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन अभी इस संघर्ष को और तीखा करने की जरूरत है। दलितों की सामाजिक स्थिति उनके आर्थिक शोषण को बढ़ावा देती है तो उनकी आर्थिक स्थिति उनके सामाजिक शोषण को बढावा देती है। सामाजिक-शोषण और आर्थिक-शोषण एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। एक को छोड़कर दूसरे के खिलाफ संघर्ष अधूरा है।