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हिन्दी आलोचना के ‘मेहतर’ - नामवर सिंह




डा.सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


नामवर सिंह ने हिन्दी आलोचना में जब से (57-58 वर्ष पहले) कदम रखा है तभी से वे इसके केन्द्रीय किरदार रहे हैं। इस दौरान साहित्यकारों की पीढी बदल गई। हिन्दी-साहित्य में कई आन्दोलन आए और गए। आलोचक व रचनाकार आए और गए,लेकिन इस मायने में नामवर सिंह एक अपवाद ही हैं कि इतने लम्बे समय बाद भी न तो आए-गयों की सूची में शामिल हुए और न ही पुराने पड़े। एक तो हिन्दी-आलोचना की यह विड़म्बना ही रही है कि आमतौर पर इसके महत्त्वपूर्ण आलोचक भी विशेष समय के बाद के साहित्य के भावबोध को सही-सही नहीं पहचान पाए और नये लेखन को पुराने विचारों व साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर पीटते रहे और खारिज करते रहे। दूसरी गौर करने की बात है कि हिन्दी के समर्थ आलोचक मूलत:कवि थे,कविता के क्षेत्र से वे आलोचना-कर्म में प्रवृत्त हुए इसलिए उनकी आलोचना-दृष्टि व आलोचना-कर्म पर कविता ही छाई रही। आलोचना में कविता से इतर गद्य की विधाओं की उस तरह विवेचना नहीं हुई,जिसकी वे अधिकारी थी। किसी प्रसंगवश,मजबूरीवश, जरूरतवश या लिहाजवश यदि किसी गद्य विधा का जिक्र हुआ भी तो केवल उपन्यास का ही। जब कहानी जैसी महत्त्वपूर्ण विधा भी उपेक्षित रही तो आत्मकथा, जीवनी आदि का तो जिक्र ही क्या करना। यद्यपि नामवर सिंह भी कविता से शुरू करके आलोचना-कर्म में दाखिल हुए, लेकिन वे सिर्फ कविता की आलोचना तक ही नहीं रूके और कहानी-आलोचना को भी नया फलक प्रदान किया। नामवर सिंह ने कविता से आलोचना में प्रवेश विशेष मकसद व कर्तव्यबोध से किया इस संबंध में उन्होंने कहा है कि ‘‘मैं सोचता था कि कविता के द्वारा सरस्वती की आराधना करूंगा लेकिन देखा कि भक्तों के कारण साहित्य का मन्दिर उनके पैरों की धूल से भर गया है और उसकी सफाई ज्यादा जरूरी है, पूजा से पहले! और झाड़ू उठा लिया, सफाई करने लगा, पैंतीस वर्षों से मैं केवल सफाई कर रहा हूं। आगे चलकर मुक्तिबोध के शब्दों में अपने इस कर्म को गौरव भी देने की कोशिश की है ‘जो है, उससे बेहतर चाहिए,सारी दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए’। मेहतर होना कोई बुरी बात नहीं है, इसीलिए कविता छोड़कर आलोचना का कर्म, जो बहुत कुछ फाई जैसा ही है, करने की कोशिश करता रहा’’।1 ‘सफाई’ का यह काम सीधा-सरल नहीं था, इसके कई मोड़-पड़ाव व संघर्ष हैं। विवाद हैं और आरोप-प्रत्यारोप हैं। अपने विचार को, मान्यता को स्थापित करने व मनवाने के लिए पूरी जद्दोजहद करनी पड़ी है। अपने विचारधारात्मक दोस्तों व दुश्मनों से लगातार लोहा लेना पड़ा है, परन्तु यह भी सच है कि संघर्ष की इसी आग में तपकर ही यह कुन्दन बना है। हिन्दी-साहित्य को बेहतर करने के लिए इस ‘मेहतर’का काम ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’(1952),‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ (1954), ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ (1956), ‘इतिहास और आलोचना’ (1957), ‘कहानी: नयी कहानी’(1964),‘कविता के नये प्रतिमान’(1968),‘दूसरी परम्परा की खोज’(1982),‘वाद विवाद संवाद’(1990)पुस्तकों के रूप में तथा अनेक वार्ताओं एवं भाषणों में हमारे सामने मौजूद है। इसके बावजूद इनका मानना है कि लोगों की उनसे जितनी अपेक्षाएं थी उसकी तुलना में उन्होंने कम लिखा, इसीलिए उन्हें ‘अपने आलोचना कर्म से घनघोर असंतोष है’। नामवर सिंह ने आलोचना को वैचारिक संघर्ष का प्रभावी साधन बनाया, अपने आलोचना-कर्म से असंतोष की यह भावना उनके दायित्व-बोध से ही निसृत है। नामवर सिंह के आलोचक के बारे में यह बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि उन्होंने जो काम अपने जिम्मे लिया था उसको बड़ी सिद्दत से किया। बहुत से कवियों-रचनाकारों और रचनाओं पर कलम चलाने की उनकी महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अभी पूरी तो क्या बेशक शुरू भी नहीं हुई हैं,लेकिन वे अपने अब तक के कर्म से भी संतुष्ट हो सकते हैं और उनकी अधूरी योजनाएं भी भावी ‘साहित्य-मेहतरों’ को शेष काम की ओर संकेत करने का महत्त्वपूर्ण काम करती हैं। नामवर सिंह के बारे में अपनी बात यदि कवि व कथाकार राजकुमार राकेश के शब्दों में कहूं तो वह कुछ इस तरह होगी ‘‘समग्र भारतीय वाड्.मय में कबीर के बाद नामवर सिंह एक ऐसे व्यक्तित्व नजर आते हैं, जो हर आने वाले काल में ही नहीं,एक असंभावित अपवाद की तरह अपनी हर रचना से बड़ा है। ‘‘गालिब की दिल्ली में आज भी बनाकर फकीरों का भेष तमाशाए अहले करम’’देखने वाले इस गंवई व्यक्तित्व के बारे में कोई यह नहीं जानना चाहता कि आज तक वे क्या लिख चुके हैं, आजकल क्या लिख रहे हैं और आगे क्या कुछ लिखने वाले हैं। उनका हर कहा-अनकहा शब्द उनके आलोचनात्मक तेवर और साहित्य की प्रतिनिधि रचना के रूप में स्वीकार्य हो जाता है। ‘वाचक साहित्य’की जो प्रवृत्ति कबीर में थी,वह आज इस व्यक्तित्व में चीन्हीं जा सकती है, जो अपने विचार के प्रति दृढ़ है, किंतु वह स्वयं विचार के पीछे नहीं,विचार उसके पीछे छाया की तरह चलता है। ठीक-ठीक यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, कि दो भिन्न समयों में,एक ही भाव को व्यक्त करते हुए, वे अपने पिछले विचार के तत्त्वार्थ की जमीन पर ही अटके हैं। या उसी विचार के नये रूपान्तरण की नयी जमीन को अपना चुकने के उपरांत उसे घुटने टिकवाकर अपने सामने नचवा रहे हैं। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है,जो भाषा और शैली इत्यादि के खिलंदरेपन को नामवर के विराट व्यक्तित्व का एक सहज व छोटा सा अंग बनाकर प्रस्तुत करती है। यह सहजता अपनी परतों की गहराई में इतनी विकट और विकराल है,जिसे कोई विरला ही अपने आजीवन श्रम, विश्वास और जीवन के बूते पर अर्जित कर पाता है। जबकि हिन्दी में तो यह तथ्य एक कायदे की तरह है कि उसे प्रशस्तियां मर जाने के बाद ही मिलेंगी। किंतु नामवर सिंह के व्यक्तित्व, रचनाधर्मिता और आलोचना के ‘लोक’ का मूल्यांकन उनके जीवनकाल में ही चौंकाने वाली हदों तक हुआ है। साहित्य की वाचक परंपरा में ऐसा सार्थक और अविस्मरणीय स्तंभ शायद ही कोई दूसरा हो’’।2
नामवर सिंह ने जब हिन्दी समीक्षा में पदार्पण किया तो वह समय न केवल हिन्दी रचना व आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण था,बल्कि दर्शन व साहित्य के क्षेत्र में पूरी दुनिया में गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई थी। नामवर सिंह को उस परम्परा में भी संघर्ष करना पड़ा,जिसको वे आगे बढ़ाना चाहते थे और इसके विरोधियों से तो टक्कर लेने के लिए वे मैदान में उतरे ही थे। प्रगतिवादी समीक्षक उस समय अपना ऐतिहासिक दायित्व न पहचानकर ‘इतिहास में अपना स्थान सुनिश्चित’ करने में जुटे हुए थे। उनके बीच कथित सिद्धातों की लड़ाई व्यक्तिगत छींटाकशी का मोड़ ले चुकी थी। हिन्दी की प्रगतिवादी आलोचना में रामविलास शर्मा और शिवदान सिंह चौहान के बीच छीछालेदर-काण्ड सम्पन्न हो चुका था। दूसरी ओर जैनेन्द्र और अज्ञेय के नेतृत्व में व्यक्ति-स्वातन्त्रय, रचना की विषयवस्तु पर कलात्मकता की प्रमुखता, विचारधारा से दूर विशुद्ध-साहित्य की वकालत,साहित्य को सामाजिक भूमिका से काटकर मात्र रसास्वादन तक सीमित करने का अभियान जारी था। इस अभियान में बड़ी चतुराई से साहित्य को राजनीति व विचारधारा से दूर रखने के लिए अनुभव व यथार्थ को विचारधारा के बरक्स रखने की कोशिश की गई तथा अनुभव की प्रामाणिकता को ही रचना की विश्वसनीयता का व प्रभावशीलता का मूल-मंत्र माना गया।
असल में इसके तार शीत युद्ध के दौरान की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद विश्व में वामपंथ की ओर बढते रूझान को कम करने के लिए पूंजीवाद के समर्थकों ने बर्लिन में ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ की स्थापना की, जिसमें कई देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सोवियत-यूनियन और समाजवाद के खिलाफ निरन्तर प्रचार करने के लिए यह कांग्रेस विभिन्न स्थानों से छ: पत्रिकाएं प्रकाशित करती थी। इनमें ‘एनकाऊन्टर’ सबसे प्रमुख थी। फ्रांस से Freuve, वियना से Forum, फ्रांस से ही स्पेनी भाषा में Euderno, लन्दन से Soveit survey तथा The China Quarterly प्रकाशित की जाती थी। इनके अलावा राष्ट्रीय स्तरों पर दस से अधिक पत्रिकाएं छपती थी। भारत में भी कई साहित्यकार इससे जुड़े हुए थे। मार्च 1951में इस कांग्रेस का पहला एशियाई सम्मेलन बम्बई में हुआ। हिन्दी के प्रख्यात लेखक अज्ञेय को ‘भारतीय कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’का सचिव नियुक्त किया गया। बम्बई से ‘क्वेस्ट’नामक त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित होती थी,जिसके सम्पादक अबु सईद अयूब तथा अम्लान दत्त। एक अन्य साप्ताहिक पत्र ‘थाट’ का सम्बन्ध भी ‘कांग्रेस’ से था और अज्ञेय इसके साहित्य-सम्पादक भी रहे।3
विचार-स्वतन्त्रता की यह कथित बहस असल में बुद्धिजीवियों में मार्क्सवाद के बढते प्रभाव को मन्द करने की योजना थी। भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन में रचनाकारों ने बढ़-चढ़कर सक्रिय भूमिका निभाई थी और इसी कारण साहित्य का राजनीति से भी गहरा ताल्लुक था। अपने राजनीतिक विचारों, कार्यों व रचनाओं में इनकी अभिव्यक्ति के लिए सजा भुगतने वाले लेखकों की सूची काफी लम्बी है। साहित्य को राजनीति से दूर रखने का मतलब था समाज की मुख्यधारा व समस्या से अलग-थलग पड़ जाना, जिसके अभाव में कोई भी साहित्य-रचना कालजयी तो क्या जीवन्त भी नहीं हो सकती,हिन्दी के अधिकांश साहित्यकारों ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया। शायद इसीलिए हिन्दी-जगत में उन साहित्यकारों का नाम आदर से नहीं लिया जाता, जिन्होंने कि अपनी रचनाओं में जन-भावना के इस रूप को वाणी नहीं दी, बल्कि वही रचनाएं ही लोगों में लोकप्रिय हुई, जिनमें राजनीतिक स्वर प्रखर रूप में था। इस पुख्ता परम्परा के बावजूद विचारधारा व राजनीति को साहित्य से दूर रखने का विचार इसी दौरान हिन्दी में लोकप्रिय हुआ। यद्यपि प्रगतिवादी-आलोचना में भी साहित्य के रूप और विषयवस्तु के अन्त:संबंधों पर, साहित्य की सामाजिक भूमिका को लेकर और साहित्य व विचारधारा के अन्त:सम्बन्धों पर बहस थी और लगातार इस पर विचार होता रहा है। लेकिन यहां बहस इस बात को लेकर थी कि साहित्य में विचारधारा किस रूप में हो, परन्तु ‘कल्चरल फ्रीडम’ के पैरोकारों ने राजनीति और विचारधारा को साहित्य के लिए अछूत ही घोषित कर दिया। इसके लिए उन्होंने मार्क्स की विचारधारा सम्बन्धी अवधारणा की विकृत व्याख्याएं करके विचारधारा को मात्र बौद्धिक विचारों तक सीमित कर दिया, जबकि मार्क्स की विचारधारा धारणा के अन्तर्गत मनुष्य के भाव, अनुभव व समूची चेतना शामिल थी।
नामवर सिंह ने उस समय की बहस में सक्रिय हिस्सेदारी करते हुए ‘कल्चरल फ्रीडमवादियों’ के विचारों में छुपी राजनीति को पहचाना और इसके जन-विरोधी व रचना-विरोधी तर्क को उद्घाटित किया। इस बहस के दौरान ही नामवर सिंह की आलोचक के रूप में पहचान बनी और इसी दौरान ही नामवर सिंह की आलोचना-पद्धति का विकास हुआ। उनके इस दौरान के लेख ‘इतिहास और आलोचना’पुस्तक में संकलित हैं। इसके तीसरे संस्करण की भूमिका में नामवर सिंह ने लिखा कि ‘‘यह पुस्तक छठे दशक के वैचारिक संघर्ष का एक दस्तावेज है। इस वैचारिक संघर्ष में प्रगति विरोधी विचारों का जबाब देने में इन निबन्धों ने भी एक भूमिका अदा की थी’’।4 साहित्य की सामाजिक भूमिका को नकारने और विचारधारा से दूर करने के लिए ‘अनुभूति’को तर्क के तौर पर इस तरह पेश किया जाता था मानो कि अनुभूति अपने आप में कोई स्वतन्त्र,शाश्वत,निरपेक्ष,अपरिवर्तनीय और निर्विवाद वस्तु है। नामवर सिंह ने ‘अनुभूति और वास्तविकता’ लेख में इसका जबाब दिया। उन्होंने लिखा कि ‘‘अनुभूति एक रचनात्मक क्रिया है। अपने जीवन और परिस्थितियों को बदलने के क्रम में हमारी अनुभूतियां भी बदलती चलती हैं- उनमें नवीनता आती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के द्वारा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के कारण मनुष्य के राग-बोध के अनेक नये पहलू प्रकट हुए। अपने देश की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए जिस राष्ट्रीय भावना की अनुभूति प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला आदि आधुनिक साहित्यकारों को हुई वह हिन्दी-साहित्य में सर्वथा नयी थी—जो लेखक अपने युग की ज्वलंत समस्याओं से तटस्थ रहकर केवल ‘अनुभूति’ की रट लगाया करते हैं वे अनुभूति के सामाजिक आधार का निषेध करते हैं। इसलिए उनकी सारी सदिच्छा सपना बनकर ही रह जाती है। अनुभूति वास्तविकता नहीं बल्कि वास्तविकता संबधी भावना है। इसीलिए वह वास्तविकता का एक अंश अथवा पहलू है। अनुभूति वास्तविकता की जगह नहीं ले सकती, उसकी सार्थकता इसी बात में है कि वह वास्तविकता को रचनात्मक रूप दे सके।
विषयवस्तु की अपेक्षा ‘अनुभूति’ पर जोर देने वाले वस्तुत: अपनी वैयक्तिक सीमाओं की वकालत करते हैं, वे अनुभूति के नहीं, ‘अनुभूति-विशेष’ के हिमायती हैं। अपनी अनुभूति के विस्तार की बात करते हुए भी वे अपने प्रयत्नों से उसे संकुचित बनाते हैं’’।5
इस दौरान बहस की एक विशेषता यह थी कि यह कोरे सिद्धातों पर केन्द्रित नहीं थी, बल्कि रचना का संदर्भ हमेशा साथ था। नामवर सिंह ने रचना के माध्यम से ही अपना पक्ष रखा,इसलिए उनकी आलोचना में कभी कोरा पाडित्य हावी नहीं हुआ। कोरे-सिद्धातों से उनकी आलोचना कोसों दूर है। रचना ही नामवर सिंह की आलोचना का आधार है, किसी बाहरी सिद्धांत को उन्होंने कभी रचना पर फिट करके मनोनुकूल निष्कर्ष नहीं निकाला। नामवर सिंह आलोचना में अपने विचारों या सिद्धांतों की बार-बार दुहाई देना जरूरी नहीं समझते इस बारे में उनका कहना है कि ‘‘आलोचना की वह पद्धति जिसमें बार-बार सिद्धांतों की दुहाई हो, रचना के मूल्याकंन, विश्लेषण से असम्बद्ध और अलग उनका उल्लेख हो, मुझे गलत लगती है। कुछ मार्क्सवादी आलोचक किसी कृति का मूल्याकंन करते समय मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन या माओ के प्रमाण पर सिद्धांत कथन करते हैं फिर उस कृति की जांच करते हैं। यह प्रणाली पुरानी शास्त्रीय आलोचना से भिन्न नहीं है। कोई भी बाबा वाक्य प्रमाण विश्लेषण की अक्षमता का पूरक नहीं हो सकता। मार्क्स या लेनिन का प्रमाण किसी आलोचना के प्रामाणिक होने की गारंटी नहीं है। उसी तरह जैसे किसी कविता में समाजवादी आस्था की घोषणा उस कविता के अच्छे होने की शर्त नहीं है।’’6
नामवर सिंह के साहित्य-संबधी सिद्धांत उनकी व्यावहारिक आलोचना के साथ ही विकसित हुए हैं। डा. मैनेजर पाण्डेय ने नामवर की आलोचना-दृष्टि पर विचार करते हुए लिखा कि ‘‘उनकी आलोचना में सिद्धांत और व्यवहार की ऐसी एकता है कि एक को दूसरे से अलग करना संभव नहीं है। उनके निबंधों या पुस्तकों के शीर्षक प्रायः सैद्धान्तिक लगते हैं,लेकिन उनके भीतर सिद्धांत-निर्माण से अधिक व्यावहारिक विवेचन का प्रयत्न दिखाई देता है। उनके निबंधों या पुस्तकों में सैद्धान्तिक चिंतन की प्रक्रिया यह है कि वे प्रारम्भ में किसी विचार को सूत्र रूप में रखते है। वह विचार अपना हो सकता है या दूसरों का भी, देशी हो सकता है या विदेशी भी। फिर वे उसकी व्याख्या करते हैं। व्याख्या के समर्थन में उदाहरण रखकर उसका विवेचन करते हैं। इस तरह विचार की सच्चाई की परख व्यवहार की कसौटी पर करते हैं और अन्त में निष्कर्ष के रूप में जो विचार प्रस्तुत करते हैं वे प्रायः उनके अपने सैद्धान्तिक निष्कर्ष होते हैं। वैचारिक स्थापना, विश्लेषण, उदाहरण, व्याख्या और निष्कर्ष की यह विचार-प्रक्रिया मूलतः आचार्य शुक्ल की है,जिसका उपयोग डा.नामवर सिंह ने किया है। कभी-कभी वे अत्यन्त साधारण, अति परिचित उदाहरण से अपनी बात शुरू करके क्रमश: गहरे चिन्तन में प्रवृत्त होते हैं और विश्लेषण तथा विवेचन के समय अपनी वैचारिक यात्र में पाठक को साथ लेकर चलते हैं और अन्ततः वे जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं,वह पाठक का अपना निष्कर्ष बन जाता है। लोकप्रिय लेखन की ये विशेषताएं ‘इतिहास और आलोचना’ में मौजूद हैं लेकिन ‘कविता के नये प्रतिमान’ में सपाटबयानी की जगह जटिलता आ गई है।’’7
रचना का वैचारिक आधार व रचनाशीलता के विश्लेषण की नामवर सिंह की निराली पद्धति में सपाटता व इकहरापन नहीं आता बल्कि रचना की जटिलता की विभिन्न परतों को वो खोलते हैं। उनकी आलोचना पद्धति की विशेष बात यह है कि वे रचना के रूप की व्याख्या-विश्लेषण तक सीमित करके आलोचना को न तो रूपवाद का शिकार होने देते है और न ही समाजशास्त्रीय व्याख्या तक सीमित करके उसके रूप की उपेक्षा करते हैं। वे रचना के रूप से आरम्भ करके उसका सामाजिक आधार खोजते हुए रचना के भाव-बोध व सामाजिक-सत्य तक पहुंचते हैं और विषयवस्तु से शुरू करके रचना-प्रक्रिया से गुजरते हुए रचना के रूप की विशिष्टता तक जा पहुंचते हैं। उनका यह अनूठा ढंग कहानी और कविता दोनों की आलोचना में देखा जा सकता है। अपनी पद्धति के बारे में उनका कहना है कि ‘‘आप मेरे आलोचनात्मक लेखों को ध्यान से देखें तो पायेंगे कि मैने रचना के विश्लेषण के दौरान रूप के स्तर पर जहां उसमें मौजूद अन्तर्विरोधों और दुर्बलताओं की ओर संकेत किया है वहीं उस रचना के समूचे नैतिक स्खलन की बात भी की है। यह नैतिक स्खलन रचना की जीवन-दृष्टि और विचारधारा से भी संबंधित है। निर्गुण और ऊषा प्रियम्वदा की कहानियों के मेरे विश्लेषण की यही पद्धति है। अज्ञेय की कविता ‘असाध्य वीणा’ का जो विश्लेषण मैने ‘कविता के नये प्रतिमान’ में किया है वह भी इसी पद्धति पर है। रूप-विश्लेषण से अन्तर्वस्तु के विश्लेषण की और अन्त में समग्रत: मूल्य निर्णय।’’8 उनका यह ढंग ही उन्हें अन्य प्रगतिवादी समीक्षकों से अलग व अधिक विश्वसनीय बनाता है। नामवर सिंह ने अपनी आलोचना को रचना पर ही केन्द्रित रखा और किसी रचनाकार के बारे में ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ जैसी कोई श्रेणी का निर्माण नहीं किया इसलिए ही शायद वे उस सार्वभौमिक आरोप से बचे रहे जो आलोचकों पर और प्रतिबद्ध आलोचकों पर विशेष रूप से चिपका दिया जाता है -अपनों की स्तुति व अन्यों की उपेक्षा अथवा बुराई। नामवर सिंह के आलोचक के पास दोस्त रचनाकारों की और दुश्मन रचनाकारों की कोई सूची नहीं है। मुक्तिबोध की रचनाओं का जिस तन्मयता व वैचारिक तैयारी से विश्लेषण करते हैं उसी तरह निर्मल वर्मा भी उनके पसंदीदा रचनाकार हैं।
रचना के सामाजिक आधार की पहचान और उसकी सामाजिक सार्थकता के संदर्भ में उसकी महत्ता का उद्घाटन नामवर सिंह की आलोचना का केन्द्रीय सूत्र है। उनकी व्यावहारिक आलोचना में साहित्य-सिद्धांतों के निरूपण की आधारभूमि यही है। साहित्य का कोई रूप हो,कोई विचार हो या साहित्य में प्रचलित कोई भ्रम या रूढि़ हो,वास्तविकता हो या कलात्मक-सौन्दर्य हो या कोई साहित्यिक प्रवृत्ति इनके सामाजिक आधार की तलाश में ही नामवर सिंह ने हिन्दी आलोचना और विशेषकर प्रगतिशील आलोचना के समक्ष चुनौती बनी कई समस्याओं को सुलझाया।
‘छायावाद’ की गुत्थी प्रगतिशील आलोचना के सामने चुनौती बनी हुई थी। नामवर सिंह की विश्लेषक बुद्धि व रचना के भीतर से उसकी पहचान करने की पद्धति ने इसे सुलझा दिया। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रचना के दार्शनिक आधार को खोजने के प्रयास से ही छायावाद पर पड़े रहस्यवाद के कोहरे के पार की सच्चाई दिख सकी। विशुद्ध-साहित्य से बाहर सामाजिक संदर्भ में देखने की कोशिश की तो नामवर को छायावाद की भाव-प्रवणता,कल्पनाशीलता,प्रकृति-चित्रण को व्यक्तिवाद की अभिव्यक्ति नजर आया। ‘‘छायावाद के बारे में प्राय: कहा जाता है कि इसका संबंध तत्कालीन राष्ट्रीय आन्दोलन से कतई न था। आलोचकों का बड़ा पुराना आरोप है कि जिस समय देश में स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष हो रहा था, छायावादी कवि कल्पना-लोक में बैठकर हृत्तन्त्री के तार बजाया करते थे। लेकिन ऐसा वही लोग कहते हैं जो साहित्य को समाज का अविकल अनुवाद समझते हैं। अच्छी तरह से देखने पर पता चलेगा कि छायावाद ने अपने युग को अत्यन्त भावात्मक रूप में अभिव्यक्त किया है।
वस्तुतः हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के दो मोर्चे थे। एक मोर्चा प्राचीन सामंती मर्यादाओं के विरूद्ध था और दूसरा अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध। छायावाद का व्यक्ति-स्वातन्त्रय सामंती मर्यादाओं के विरूद्ध बहुत बड़ा कदम था। -राजनीतिक और आर्थिक रूप में यही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य शोषित-कृषकों का पक्ष लेकर विपल्व के बादल का आह्वान करता था। -- छायावादी कवि ने नारी को अपमान के पंक और वासना के पर्यंक से उठाकर देवी और सहचरी के आसन पर प्रतिष्ठित किया। नैतिकता की पुरानी रूढियों को तोड़कर उसने मानव-विवेक पर आधारित प्रेम-सम्बन्धी नवीन नैतिक मूल्यों की स्थापना की,सूखे सुधारवाद की जगह छायावाद ने रागात्मक आत्म-संस्कार का बीजारोपण किया,मध्यवर्ग को व्यावसायिक प्रयोजनशीलता तथा अत्यन्त उपयोगितावादी दृष्टिकोण से मुक्त कर आदर्शवाद के उच्च आकाश में विचरण की प्रेरणा दी। ... जहां तक साम्राज्य-विरोधी मोर्चे का सवाल है, इस पर छायावादी कवि ने स्पष्ट रूप से अंग्रेजों का विरोध तो नहीं किया लेकिन परोक्ष रूप से साम्राज्यवाद के विरूद्ध देश-प्रेम,जागरण तथा आत्मगौरव का गान गाया।’’9
हिन्दी-समीक्षा में रहस्यवाद को एक प्रवृत्ति के रूप में इस तरह देखा जाता था मानो कि उसके स्वरूप पर परिस्थितियों के बदलने का कोई असर ही न पड़ा हो। नामवर सिंह विभिन्न युगों में रहस्यवाद के बदलते स्वरूप की पहचान करते हुए उसकी प्रगतिशील व प्रतिगामी भूमिका उद्घाटित करने में सफल हुए तो सामाजिक संदर्भ के साथ जोड़कर देखने के कारण।



कथा-आलोचक
नामवरसिंह मूलतः कविता के आलोचक हैं, लेकिन ‘कहानी: नयी कहानी’ में कहानी की समीक्षा में ‘अधिक व्यापक और समर्थ पाठकों के सहयोग से’ ‘कहानी-समीक्षा के संतुलित प्रतिमान तैयार’ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और कहानी को समाज के भाव-बोध व युग-सत्य को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित किया। चूंकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा आदि हिन्दी के प्रख्यात समीक्षक मुख्यत:कविता के आलोचक थे, आलोचना के केन्द्र में कहानी आई ही नहीं। इन्होंने यदि गद्य पर विचार किया भी तो उपन्यास के संदर्भ में। कहानी को चर्चा के केन्द्र में लाने में नामवर सिंह का अहं योगदान है। नामवर सिंह ने आलोचना की इस कमी पहचानते हुए लिखा कि ‘‘‘छोटे मुंह बड़ी बात’ कहने वाली कहानी के बारे में प्राय: ‘बड़े मुंह छोटी बात’ कही जाती है। कहानी का यह दुर्भाग्य है कि वह मनोरंजन के रूप में पढी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है। मनोरंजन उसकी सफलता है तो शिल्प उसकी सार्थकता!कहानी में अनेक आलोचकों की दिलचस्पी इतनी ही है कि वह साहित्य का एक ‘रूप’है। इसलिए कहानी की ओर ध्यान जाता है या तो इतिहास लिखते समय या फिर साहित्य-रूपों का शास्त्रीय-विवेचन करते समय। जहां साहित्य के मान और मूल्यों की चर्चा होती है,वहां कहानियों के हवाले नहीं मिलते। हवाले मिलते हैं प्राय:कविताओं के और कभी-कभी उपन्यासों के। यदि शास्त्रीय आलोचक कहानी को केवल साहित्य-रूप समझते हैं तो मूल्यवादी आलोचक उसे जीवन की सार्थक अनुभूतियों के लिए असमर्थ मानते हैं। संभवत: जीवन के लघु प्रसंगों पर लिखी जाने वाली कहानी स्वयं भी ‘लघु’ समझी जाती है। इसलिए ‘व्यापक जीवन’ पर दृष्टि रखने वाले स्वभावत: कहानी-जैसी छोटी चीज को नजर-अन्दाज कर जाते हैं। आलोचकों की कुछ ऐसी धारणा है कि केवल कहानियां लिखकर कोई लेखक महान नहीं हो सकता।’’10
नामवर सिंह वास्तव में हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने कहानी की समीक्षा को गम्भीरता से लिया और कहानी के रूप को उसके कहानीपन से जोड़ा और कहानी के रूप की विशिष्टता का महत्त्व समझा। नामवर सिंह के कहानी-आलोचना में प्रवेश से पहले कहानी तात्त्विक आलोचना ही मुख्य तौर पर स्थापित थी। कहानी विवेचन व पाठन फार्मूलाबद्ध था। फार्मूले को सही ढंग से लागू करना ही कहानीकार की सफलता थी। कहानी आलोचना में जो रिक्त-स्थान था उसे कहानीकार ही अपने वक्तव्यों से भर रहे थे और अपनी कहानियों को आदर्श रूप में किसी न किसी तरह स्थापित करने के जुगाड़ बनाते थे। अभी तक हिन्दी की कहानी संबंधी ‘सामान्य धारणा’ ने ‘कहानी की जीवनी शक्ति का अपहरण कर उसे निर्जीव ‘शिल्प’ही नहीं बनाया है बल्कि उस शिल्प को विभिन्न अवयवों में काटकर बांट दिया है। लिहाजा, हम कहानी को ‘कथानक’, ‘चरित्र’, ‘वातावरण’, ‘भावनात्मक प्रभाव’, ‘विषयवस्तु’ आदि के अलग-अलग ‘अवयवों’ के रूप में देखने के अभ्यस्त हो गये हैं।
कहानी के बारे में ‘‘इस धारणा का असर यह पड़ा कि लोगों ने कहानी में जीवन-सत्य तथा भाव-बोध को देखना छोड़कर उसे कहानी की पारिभाषिक संज्ञाओं के रूप में देखना शुरू कर दिया। ‘प्रभावान्विति’ और ‘एकान्विति’ की माला जपते हुए भी इस तरह के आलोचकों ने कहानी को अनुभूति की एक ‘इकाई’ के रूप में देखना छोड़ दिया। इस तरह उन्होंने कहानी के सत्य को ही नहीं,बल्कि कहानी के ‘कहानीपन’ की समझ भी खो दी।’’11नामवर सिंह ने कहानी के कहानीपन को इसके बरक्स रखा। यदि नामवर सिंह कहानीपन और उसकी प्रक्रिया पर इतना जोर न देते तो शायद कहानी-आलोचना अभी तक उसके ‘अवयवों’ की दोषपूर्ण समीक्षा तक ही सीमित रहती, जिसे विश्वविद्यालयों के हिन्दी-विभागों में ठस्स मानसिकता से ग्रस्त अध्यापक अभी तक भी चलाये जा रहे हैं। साहित्य के अध्ययन का यह तरीका उसमें रुचि पैदा नहीं करता, बल्कि उससे चिढ़ पैदा करता है। विद्यार्थिओं के लिए कहानी की उपयोगिता मात्र परीक्षा में एक प्रश्न के लिए उत्तर देने तक सीमित हो जाता है।
कहानी समीक्षा में उसके कहानीपन को स्थापित करना हिन्दी कहानी के अध्ययन में गुणात्मक परिवर्तन था। नामवर सिंह ने कहानीपन को मुख्य मानते हुए कहा कि ‘‘असल बात है कहानी का कहानीपन। यह आकस्मिक नहीं है कि कहानीपन की उपेक्षा करके केवल शिल्प के लिए लिखी हुई एक भी श्रेष्ठ कहानी नहीं बन सकी’...‘कहानी का यह कहानीपन समझने में कठिन होते हुए भी कोई ‘रहस्य’ नहीं है। कविता में जो स्थान लय का है, कहानी में वही स्थान कहानीपन का है। कविता चाहे जिस हद तक छंदमुक्त हो जाए, लेकिन वह लयमुक्त नहीं हो सकती। लयमुक्त रचना काव्य होते हुए भी कविता नहीं कहलायेगी। कहानीपन से रहित गद्य रचनाओं के बारे में भी यही बात लागू होती है। लय की तरह कहानी कहना मनुष्य की काफी पुरानी कलात्मक वृत्ति है और इसकी रक्षा अपने-आप में स्वयं भी एक सांस्कृतिक कार्य है और इतिहास से प्रमाणित होता है कि नीति, लोक-व्यवहार, धर्म, राजनीति आदि विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस कला का उपयोग करते हुए भी मानव-जाति ने आज तक इसकी रक्षा की है। नि:संदेह इस कला का चरम विकास आधुनिक युग में हुआ जब उद्देश्य और कहानीपन दोनों घुल-मिलकर इस तरह एक हो गए कि उद्देश्य से अलग कहानी के रूप की कल्पना कठिन हो गई।’’12
कहानी को मात्र शिल्प की दृष्टि से ‘अच्छी’ या ‘सफल’ कहने की बजाए जीवन-मूल्यों की कसौटी पर कसने तथा मनोरंजन की बजाए उसकी सामाजिक सार्थकता पर जोर दिया जिससे कहानी साहित्य की केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित हुई। ‘‘आज कहानी की ‘सफलता’ का अर्थ है, कहानी की सार्थकता! आज किसी कहानी का शिल्प की दृष्टि से सफल होना काफी नहीं है बल्कि वर्तमान के सम्मुख उसकी सार्थकता भी परखी जानी चाहिए। जीवन के जिन मूल्यों की कसौटी पर हम कविता, उपन्यास आदि के साहित्य-रूपों की परीक्षा करते हैं, उन्हीं पर कहानी की भी परीक्षा होनी चाहिए। इससे कहानी-समीक्षा का एक ढांचा तो तैयार होगा ही, साथ-साथ मानवीय मूल्यों के संबंध में हमारा ज्ञान भी बढेगा और सम्पूर्ण साहित्य के मानों की अपर्याप्तता भी क्रमश:कम होगी। आज साहित्य के क्षेत्र में अनेक एकांगी विचारधाराएं केवल इसलिए फैली हुई हैं कि वे केवल एक साहित्य-रूप-कविता पर आधारित हैं। बहुत सम्भव है कि कहानियों का सत्य इनमें से कुछ को एकदम गलत ठहरा दे, कुछ की अनावश्यक नोकें मार दे और कुछ में नये कौछें निकाल दे।’’13नामवर सिंह ने हर साहित्य-रूप की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए महत्त्वपूर्ण बात की ओर ध्यान आर्कषित किया कि हर युग सत्य अपने कलात्मक रूपों को अपने साथ लेकर आता है और रूप में अभिव्यक्त सत्य विशिष्ट होता है। महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है कि कोई रूप जीवन या समाज के किसी खंड विशेष पर केन्द्रित है या पूरे जीवन को अपने में समेटने का दावा करता है, बल्कि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोई रचना या कोई साहित्य-रूप समाज के मुख्य अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करने का निर्वाह कैसे करता है। यदि किसी रचना या किसी साहित्य-रूप में यह क्षमता है तो वह महान है और यदि यह क्षमता नहीं है तो जीवन की समग्रता में अभिव्यक्ति करने का दावा करने वाले महाकाव्य भी साहित्य में कोई योगदान नहीं दे पाते,सिवाय इसके कि उसके शब्दों व मात्राओं की गिनती करते रहने में विश्वविद्यालयों के हिन्दी-विभागों में उमड़ रही शोधार्थियों की फौज को कई वर्ष तक उलझाए रहें।
नामवर सिंह ने कहानी को जीवन का खण्डित सत्य या एक टुकड़ा सत्य व्यक्त करने की मान्य धारणा का खण्डन करते हुए कहा कि ‘‘लोगों की यह धारणा गलत है कि कहानी जीवन के एक टुकड़े को लेकर चलती है,इसलिए उसमें कोई बड़ी बात नहीं कही जा सकती। कहानी जीवन के टुकड़े में निहित ‘अन्तर्विरोध’, ‘द्वन्द्व’, ‘संक्रान्ति’ अथवा ‘क्राइसिस’ को पकडऩे की कोशिश करती है और ठीक ढंग से पकड़ में आ जाने पर यह खंडगत अन्तर्विरोध भी बृहद अन्तर्विरोधों के किसी-न-किसी पहलू का आभास दे जाता है।’’14
कहानी में सामाजिक सत्य का विशिष्ट रूप होगा, इसलिए किसी समाज के सामाजिक सत्य को पूर्ण रूप से जानने के लिए उसके विविध रूपों का अध्ययन जरूरी है। ‘‘साहित्य के रूप केवल रूप नहीं हैं बल्कि जीवन को समझने के विभिन्न माध्यम हैं। एक माध्यम चुकता दिखाई पड़ता है, तो दूसरे माध्यम का निर्माण किया जाता है। अपनी महान जय यात्रा में सत्य-सौन्दर्य-द्रष्टा मनुष्य ने इसी तरह समय-समय पर नये-नये कलारूपों की सृष्टि की ताकि वह नित्य विकासशील वास्तविकता को अधिक से अधिक समझ और समेट सके। हमारी इसी ऐतिहासिक आवश्यकता से एक समय कहानी भी उत्पन्न हुई और अपने रूप-सौन्दर्य के द्वारा इसने हमारे सत्य-सौन्दर्य-बोध को भी विकसित किया। कहानी की इसी ऐतिहासिक भूमिका की मांग है कि वर्तमान परिस्थिति में उसकी सार्थकता की परीक्षा व्यापक संदर्भ में की जा सकती है।’’15नामवर सिंह ने कहानी की आलोचना में उसकी रचना-प्रक्रिया पर जोर देते हुए नामवर सिंह ने तत्कालीन कहानियों की इस ढंग से व्याख्या की कि कहानी के अध्ययन में एक नई स्फूर्ति का संचार हुआ। यद्यपि यह भी सही है कि उनकी इस रचनात्मक हरकत से उस समय के बहु प्रतिष्ठित कहानीकारों के अहं को चोट पहुंची, जिसकी अभिव्यक्ति जब-तब लेखों में, भाषणों, गोष्ठियों-सेमीनारों और पत्रिकाओं के संपादकियों में होती रही है। अनुभव को ही प्रामाणिक मानकर रचित कहानियां जिस तरह मध्यवर्गीय कुंठा, निराशा, घुटन व पराजय-बोध की विकृतियों की शिकार हुई वह आज भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। नामवर सिंह का हिन्दी-कहानी पर अपनी कलम चलाना शुभ संकेत था जिसने हिन्दी कहानी को एक नई दिशा दी थी। हिन्दी में शायद ही कोई आलोचक हो जो रचना को इस तरह प्रभावित कर सका हो। लेकिन यह बात समझ में आने वाली नहीं है कि नामवर सिंह जैसा लड़ाका व प्रतिबद्ध आलोचक हिन्दी कहानी के स्वयंभू नेताओं की नाराजगी के भय से कहानी-आलोचना का मैदान छोड़कर क्योंकर अलग-थलग जा खड़ा हुआ और कहानी के बारे में न लिखने की पक्की कसम खा ली। यद्यपि नए कहानीकारों की नई जमीन तोडऩे वाली कहानियां इधर प्रकाशित हुई हैं, लेकिन कहानी की लम्बी परम्परा का अनुभव व समझ रखने वाले नामवर सिंह उनकी यदा-कदा मौखिक तारीफ करने के अलावा कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं।



दूसरी परम्परा के खोजी
‘‘जैसे रचना के क्षेत्र में हर सार्थक रचनाकार कहीं-न-कहीं अपने लिए एक परम्परा ढूंढता है, चिंतन के क्षेत्र में भी अपने लिए एक परम्परा ढूंढने की जरूरत आलोचक को महसूस होती है। हिन्दी में यह उल्लेखनीय बात है कि इस परम्परा को खोजने ढूंढने और उससे अपने आपको जोडऩे का काम गैर-मार्क्सवादी आलोचकों की अपेक्षा मार्क्सवादी आलोचकों ने ज्यादा किया है।’’16 विचारणीय बात यह है कि भारतीय परम्पराओं की समग्रता में पहचान क्योंकर नहीं हो पाई। परम्परा के नाम पर मात्र वर्चस्वशाली परम्परा का राग ही अलापा जाता रहा और उसके शोर व बोझ के तले दबी दूसरी परम्परा के महत्त्व को किसी ने उतनी गम्भीरता से नहीं पहचाना। इस परम्परा का यदि कहीं कोई जिक्र आया भी तो फुटकल खाते के रूप में। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बहाने से नामवर सिंह ने इसे एक मुकम्मल विचार के तौर पर पहचाना और स्थापित करने की कोशिश की। भारत के वर्ग-विभक्त समाज में संस्कृति भी स्वाभाविक तौर पर विभक्त रही है, बेशक उसकी अलग-अलग पहचान करना थोड़ा कठिन जरूर होता है। ‘जैसे काशी के भीतर दो काशी थीं -एक तो काशी के पंडित तुलसीदास थे और दूसरे उसी काशी का जुलाहा था।’जैसे काशी बंटी हुई थी वही स्थिति लगभग पूरे हिन्दुस्तान की थी। वर्चस्वशाली वर्गों की विचारधारा व संस्कृति जहां शास्त्रों के जोर पर तथा शासन सत्ताओं के जोर पर स्थापित रही है वहीं समाज के दबे-कुचले व शोषित-शासित लोगों की लोकचेतना व संघर्ष के जोर पर। इन संस्कृतियों में टकराहट भी रही है और संघर्ष भी। जो कभी खुले विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ है तो कभी समाज के विभिन्न प्रश्नों की व्याख्याओं के रूप में। परम्पराओं और मूल्यों को अपने पक्ष में भुनाने के लिए आचार्यों ने उनकी गड्डमड्ड व्याख्याएं भी कीं और उनके साफ-स्पष्ट मंतव्यों को उलझाने की भी कोशिशें लगातार होती रही हैं। इसीलिए शायद एक समय के बाद दूसरी परम्परा पहली परम्परा का ही हिस्सा दिखाई देती है। दूसरी परम्परा के विचारक अन्तत: उसी धारा में खड़े दिखाई देते हैं जिसके विरूद्ध वे खड़े हुए थे। परम्परा में व्याप्त संघर्ष छुप जाता है और ऐसे लगता है मानो कि सर्वसम्मति कायम हो। फिर महात्मा बुद्ध भी एक अवतार घोषित हो जाते हैं, कबीर, जायसी और नानक भी निर्गुण-ईश्वर की आराधना का संदेश उसी तरह देते नजर आते हैं जैसे कि तुलसीदास सगुण ईश्वर का। मीरा भी कृष्ण-भक्ति की आराधक उसी तरह नजर आने लगती है जैसे कि सूरदास। मर्यादाओं के नाम पर सामन्ती-मूल्यों व पितृसत्तात्मकता की स्त्री-जीवन पर जकड़बन्दी के खिलाफ उसका संघर्ष भक्ति के नीचे दब कर रह जाता है। आचार्यों को एक ही परम्परा निरन्तर नजर आई -भक्ति की। परम्पराओं की विभिन्नता को माना भी तो भक्ति के संदर्भ में ही। दूसरी परम्परा को सही न पहचान पाने का कारण शायद हिन्दी-प्रदेश के नवजागरण का आधार भी रहा। यहां नवजागरण अपनी तमाम ऊर्जा के बाद भी शास्त्रों की अनुमति लेकर ही चला। करणीय या त्याज्य परम्पराओं के लिए मानवीय तर्क को इतना महत्त्व नहीं दिया जितना कि शास्त्रों के अनुमोदन का। हिन्दी-प्रदेश में समाज-सुधार आन्दोलन का तर्क भी शास्त्र ही था। यही उचित-अनुचित के निर्णय का लिटमस टेस्ट था। शायद नवजागरण की इस कमजोरी को पहचानने की बजाए इसी संस्कार द्वारा परम्परा की पहचान की वजह से ही रामविलास शर्मा जैसे घोर मार्क्सवादी भी अन्तत: वेदों और शास्त्रों के आगे नतमस्तक हो जाते हैं और लोकधर्मी परम्परा की अनदेखी हो जाती है। ‘‘हिन्दी समाज में दूसरी परम्परा पर विचार का प्रेरणा स्रोत है नामवर सिंह की पुस्तक - ‘दूसरी परम्परा की खोज’। नामवर सिंह की पुस्तक में दूसरी परम्परा पहली से केवल भिन्न ही नहीं, बल्कि पहली के विरूद्ध विद्रोह करने वाली वैकल्पिक परम्परा के रूप में व्याख्यायित है। परम्परा की धारणा केवल साहित्य तक सीमित नहीं होती, उसका सम्बन्ध समाज और संस्कृति से भी होता है। भारतीय समाज और साहित्य के संदर्भ में पहली परम्परा मर्यादावादी शास्त्रोन्मुखी,यथास्थितिवादी और केन्द्रवादी है तो दूसरी परम्परा स्वाधीनता को महत्त्व देने वाली, लोकोन्मुखी,परिवर्तनवादी और हाशिये के लोगों की चिन्ताओं से जुड़ी है। नामवर सिंह की पुस्तक में पहली परम्परा के प्रतिनिधि है -तुलसीदास और उनके व्याख्याकार आलोचक रामचन्द्र शुक्ल तो दूसरी परम्परा के प्रतिनिधि हैं - कबीर और उनके व्याख्याकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी। भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य में पहली परम्परा वैदिक-पौराणिक धारा से जुड़ी है तो दूसरी बौद्ध धर्म और दर्शन से। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भक्तिकाल के प्रसंग में जिस लोकधर्म की चर्चा की है,उसके मूल में बौद्ध धर्म की उपस्थिति को देखा है और बौद्ध कवि तथा दार्शनिक अश्वघोष की जातिवाद विरोधी रचना ‘वज्रसूची’ का उल्लेख भी किया है। ‘वज्रसूची’ की चिन्तन-परम्परा सरहपाद से होती हुई कबीर की कविता में मौजूद दिखाई देती है। बौद्ध परम्परा का विवेकवाद अश्वघोष से सरहपाद और कबीर को जोड़ता है।’’17
नामवर सिंह ने परम्परा के संदर्भ में कथित ‘मुख्यधारा’ की ‘स्थापित परम्परा’ के समानान्तर सब कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर पैदा होने कबीर की परम्परा की अधिक सार्थकता का जो गम्भीर प्रश्न उठाया था उसका हश्र भी पण्डितों की सभा में वही हुआ जो दूसरी परम्परा के साथ होता आया है। प्रश्न पर तो उतना विचार नहीं हुआ जितना कि उसके उठाने वाले की मंशा के बारे में। प्रश्न की तह में न जाकर उसकी सतह पर ही पत्थर फेंके जाते रहे। व्यक्तियों को आमने-सामने करके उनके उखाड़-पछाड़ की कवायद में वही हुआ कि मुद्दा तो गुम हो गया। कुछ गर्द उठी जो दूसरी परम्परा पर जम गई। ‘‘हिन्दी में दूसरी परम्परा पर बहस की विडम्बना यह रही है कि वह बहस व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक संदर्भ को सामने रखने के बदले तुलसी बनाम कबीर,रामचन्द्र शुक्ल बनाम हजारीप्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा बनाम नामवर सिंह तक सीमित हो गई है।’’18
भाषा
नामवर को हिन्दी आलोचना में जो ख्याति प्राप्त हुई है उसका श्रेय उनकी आलोचना की रचनात्मक भाषा को भी जाता है। आलोचना की भाषा अक्सर या तो पांडित्य से बोझिल व नीरस हो जाती है या फिर आलोचक का एक तरफा वक्तव्य बनकर रह जाती है। नामवर सिंह की सृजनात्मक भाषा पाठकों के साथ संवाद करती है। नामवर की भाषा पाठक पर हथौड़े नहीं चलाती, बल्कि धीरे से उसकी चेतना में उतर जाती है। कथा साहित्य में जो भाषा प्रेमचन्द ने अपनाई और सीधे लोगों से संवाद करती हुई उनके दिलो-दिमाग में जगह बना ली वही काम नामवर सिंह की भाषा आलोचना में करती है। यह अपने पाठक के साथ जीवन्त संबंध बनाए रखती है और उसे अपने साथ लेकर चलने की क्षमता रखती है। व्यंग्य नामवर की भाषा का सहज गुण है। व्यंग्य के लिए उनको विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता वह शब्दों के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रखता है। कभी इस बात का आभास या अहसास नहीं होता कि किसी विशेष शब्द को किसी पर कटाक्ष करने के लिए विशेष रूप से चुना गया है। इसी से उनकी भाषा में एक रवानी आती है और पाठक के साथ संवाद का रिश्ता कायम करने में यह व्यंग्य मदद करता है। नामवर सिंह की भाषा का रूप वहां अधिक निखर कर आया जहां उनके सामने कोई विरोधी विचार हो और उन्हें उसके भीतर की विडम्बना या कमजोरी या बेईमानी को उद्घाटित करना हो। ऐसे मौके पर भाषा के व्यंग्य की मारक क्षमता और भी बढ जाती है। ‘व्यापकता और गहराई’ के प्रश्न की आड़ में व्यक्तिवादी रचनाकार जब प्रेमचन्द पर हमले कर रहे थे तो नामवर सिंह के उत्तर की भाषा देखने लायक है। ‘‘आज के बहुत से लेखक हैं जो वास्तविकता पर परदा डालने को ही गहराई समझते हैं। ये आज के शोषण और सामाजिक प्रगति पर रहस्य और दर्द के कुहासे का परदा डालते हैं। जो सत्य का उद्घाटन करने की ओर कदम नहीं बढाता उसकी गहराई कैसी?
सचाई यह है कि ‘गहराई’ के हिमायती अधिकांशत:अन्तर्मुखी हैं और अपने अन्दर निरन्तर सिमटते जाने को ही वे गहराई कहते हैं। परिस्थिति पर प्रहार करना तो दूर, वे उल्टे या पीछे भागते हैं, ‘यदा सहरते चायं कूर्मो$ड्.गानीव सर्वश:।’इसी को गुलेरीजी ने ‘कछुआ धर्म’कहा है। इस तरह ये लेखक जैसे-जैसे अपने भीतर सिमटते हैं, उसी क्रम से समाज से दूर होते जाते हैं। रत्नाकरजी की गोपियों की तरह उन्हें भी कहना चाहिए कि -
ज्यों-ज्यों बसे जात दूरि-दूरि प्रिय प्रान मूरि
त्यों-त्यों धंसे जात मन-मुकुर हमारे मैं।
फिर भी ये रणछोड़-बहादुर अपने को पलायनवादी नहीं मानते, गोया समाज से आसमान में भागना ही एक पलायन है। इस आन्तरिक पलायन को ये लेखक ‘आन्तरिक सामाजिकता’ कहते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि समाज विभिन्न व्यक्तियों के अन्दर रहता है। यदि ऐसी बात है तो व्यक्ति की सीमा से बाहर जो पारस्परिक सम्बन्ध है उनका नाम क्या होगा?’’19
नामवर सिंह की भाषा में संस्कृत, उर्दू, फारसी व अंग्रेजी के शब्द उसी सहज भाव से आते हैं जैसे कि लोकजीवन में प्रचलित मुहावरे व लोकोक्ति। मुहावरे-लोकोक्ति व लोकजीवन में प्रचलित किसी कहावत या मान्यता को गूढ चिन्तन से इस तरह जोड़ते हैं मानो कि आलोचना नहीं बतकही कर रहे हों। लोकोक्तियों और मुहावरों का ऐसा प्रयोग वही समर्थ लेखक कर सकता है जिसकी लोकजीवन पर गहरी पकड़ हो। मीर, गालिब, टैगोर व अंग्रेजी के किसी कवि की कविता की पंक्तियां आलोचना में सहज रूप से आ जाती हैं,जो नामवर सिंह के विशद् अध्ययन को दर्शाती हैं और कमाल की बात ये है कि ये किसी भारी भरकम उद्धरण के रूप में या पांडित्य के रूप में नहीं आती, बल्कि अपनी सृजनशील मिठास के साथ आलोचना को सरस करने के लिए आती हैं। अरविंद त्रिपाठी ने नामवर की भाषा पर विचार करते हुए लिखा कि ‘‘आज जब हम उनकी आलोचना पर विचार करने बैठते हैं तो हमें उनकी आलोचना-शक्ति का बीज-तत्त्व उनकी भाषा में दिखाई देता पड़ता है। उनकी आलोचना-दृष्टि में अगर तीक्ष्णता, बेलागपन और हाजिर-जबाबी के साथ हमेशा एक ताप दिखाई देता है, तो उसके पीछे उनकी आलोचना की भाषा का बहुत बड़ा हाथ छिपा हुआ दिखाई देता है। उनकी भाषा को पढते हुए कभी आचार्य शुक्ल की स्पष्टवादिता,तत्त्व चिंतन और हाजिर-जबाबी झलकती है तो कभी महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा शब्दानुशासन,तो कभी-कभी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसा मस्तमौलापन-फक्कड़पन और कबीर जैसी बेहिसाब ठाठ-फकीरी झलकती है। महाकवि निराला ने गद्य की भाषा को जीवन-संग्राम की भाषा जिन अर्थों में कहा था वह नामवर सिंह की आलोचनात्मक भाषा में देखा जा सकता है। लड़ाई के मोर्चे पर लड़ते हुए सैनिकों का तुमुल-उद्घोष,हाहाकार की ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। नामवर सिंह की आलोचना की भाषा के तरकश में ऐसे असंख्य तीर भरे पड़े हैं। चाहे वह मुक्तिबोध को लेकर नई कविता के रणक्षेत्र में उतरने का दौर हो, या फिर नई कहानी के मूल्याकंन क्रम में निर्मल वर्मा की वकालत का सवाल हो, या फिर इधर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को लेकर ‘दूसरी परम्परा की खोज’ की बात हो।’’20
कहा जा सकता है कि नामवर सिंह ने आलोचना की लम्बी-यात्रा में हिन्दी-साहित्य विमर्श में प्रचलित कई भ्रमों व गलत धारणाओं के कूड़े की सफाई की।



संदर्भः1. सं. समीक्षा ठाकुर; कहना न होगा; वाणी प्रकाशन, दिल्ली पृ.-65
2. पल प्रतिपल; अप्रैल-जून, 2002; पृ.- 213
3. उतरार्द्ध; (अंक-22, जबरीमल पारख का लेख) ; पृ.- 50
4. नामवर सिंह; इतिहास और आलोचना; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; 1986; पृ.-7
5. नामवर सिंह; इतिहास और आलोचना; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; 1986; पृ.-53
6. कहना न होगा; पृ.- 63
7. मैनेजर पाण्डेय; आलोचना की सामाजिकता; वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005; पृ.-59
8. सं. समीक्षा ठाकुर; कहना न होगा; वाणी प्रकाशन, दिल्ली पृ.-62
9. नामवर सिंह; आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; 1977; पृ. - 43
10. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-18
11. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-21
12. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-23
13. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-19
14. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-25
15. नामवर सिंह; कहानीः नयी कहानी; लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद; 1989; पृ.-20
16. सं. समीक्षा ठाकुर; कहना न होगा; वाणी प्रकाशन, दिल्ली पृ.- 28
17. मैनेजर पाण्डेय; आलोचना की सामाजिकता; वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005; पृ.-69
18. मैनेजर पाण्डेय; आलोचना की सामाजिकता; वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005; पृ.-69
19. नामवर सिंह; इतिहास और आलोचना; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली; 1986; पृ.-18
20. अरविन्द त्रिपाठी;आलोचना की साखी;किताबघर प्रकाशन, दिल्ली; प्र.सं.2000; पृ.- 43





मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’: जीवन-परिचय




फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़्यादा
यही है इबादत यही दीन व ईमां
के काम आये दुनिया में इन्सां के इन्सां
मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। पानीपत शहर की ख्याति दो कारणों से रही है। एक तो यह तीन ऐसी लड़ाइयों का मैदान रहा है जिसने की हिन्दुस्तान की तकदीर बदली। दूसरे, इसलिए कि साझी संस्कृति के प्रतीक मशहूर सूफी कलन्दर व उत्तर भारत के नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ का संबंध इस शहर से था। हाली उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली को उर्दू तक सीमित न करके हिन्दुस्तानी का कवि व आलोचक कहना अधिक उपयुक्त है। हाली ने आम लोगों की भाषा यानी हिन्दुस्तानी भाषा में कविताओं की रचना की। उनकी कविताओं की भाषा से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘यदि हिन्दुस्तानी का कोई नमूना है तो वह हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ कविता की भाषा है।’
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
हाली का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए ये अरबी व फारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया। अपनी पारिवारिक स्थितियों को वे अपने अध्ययन के शौक को जारी रखने के अनुकूल नहीं पा रहे थे, तो 17 वर्ष की उम्र में घर से दिल्ली के लिए निकल पड़े, यद्यपि यहां भी वे अपने अध्ययन को व्यवस्थित ढंग से नहीं चला सके। इसके बारे में ‘हाली की कहानी हाली की जुबानी’ में बड़े पश्चाताप से लिखा कि ‘डेढ़ बरस दिल्ली में रहते हुए मैने कालिज को कभी आंख से देखा भी नहीं’। 1956 ई. में हाली दिल्ली से वापस पानीपत लौट आए। 1956 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा।
1963 में नवाब मुहमद मुस्तफा खां शेफ्ता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। 1869 ई. में नवाब शेफ्ता की मृत्यु हो गई। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
हाली ने अपनी शायरी के जरिये ताउम्र अपने वतन के लोगों के दुख तकलीफों को व्यक्त करके उनकी सेवा की। वे शिक्षा व ज्ञान को तरक्की की कुंजी मानते थे। उन्होंने अपने लोगों की तरक्की के लिए पानीपत में स्कूल तथा पुस्तकालय का निर्माण करवाया। इन संस्थाओं के लिए हाली ने अपने जान-पहचान के अमीरों से तथा अपने शहर के लोगों से चन्दा एकत्रित करके बनवाया। सरकार से भी सहायता ली। पानीपत में आज जो स्कूल आर्य सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के नाम से जाना जाता है पहले यह ‘हाली मुस्लिम हाई स्कूल’ था, जो देश के विभाजन के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को क्लेम में सौंप दिया गया था। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1907 में कराची में ‘आल इण्डिया मोहम्डन एजुकेशनल कांफ्रेंस’ में हाली को प्रधान चुना गया। हाली की विद्वता को देखते हुए 1904 ई. में ‘शमशुल-उलेमा’ की प्रतिष्ठित उपाधि दी गई, यह हजारों में से किसी एक को ही हासिल होती थी। आखिर के वर्षों में हाली की आंख में पानी उतर आया, जिसकी वजह से उनके लेखन-पाठन कार्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 31 दिसम्बर,1914 ई. को हाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। शाह कलन्दर की दरगाह में हाली को दफ्ना दिया गया।
हाली के दो बेटे और एक बेटी थी। हाली के लिए बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं था। उस समय इस तरह के विचार रखना व उन पर अमल करना क्रांतिकारी काम से कम नहीं था। इस दौर में मां-बाप अपनी औलाद का विवाह करके अपने दायित्व की पूर्ति मान लेते थे। खासकर बेटियों के लिए तो मां-बाप का यह ‘पवित्र कर्तव्य’ ही माना जाता था कि जवान होने से पहले ही उस ‘अमानत’ को अपने ‘रखवाले’ को सौंपकर निजात पाए। जिस समाज में हाली का जन्म हुआ था। वहां बेटियों के लिए शिक्षा का इतना ही प्रावधान था कि वह धार्मिक ग्रंथ को पढ़कर जीवन के कोल्हू में सारी उम्र जुती रहे। हाली ने इस विचार को मानने से इंकार किया। वे बेटियों की शादी अपने घर से ज्यादा दूर करने के पक्ष में नहीं थे। दूर विवाह करने को वे उसकी हत्या ही कहते थे।
साथ बेटी के मगर अब पिदरो मादर भी
ज़िन्दा दा गोर सदा रहते हैं और खस्ता जिगर
अपना और बेटियों का जब के ना सोचें अन्जाम
जाहलियत से कहीं है वह ज़ामाना बदतर
अल्ताफ हुसैन को ‘हाली’ इसलिए कहा जाता है कि वे अपनी रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे,इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए ‘हाली’तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुड़ने की इच्छा को तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके व्यक्तित्व की विनम्रता व उदारता को भी दर्शाता है। कोई भी साहित्यकार अमर हो जाना चाहता है, इतिहास में शाश्वत होने की लालसा भारतीय साहित्यकारों में तो विशेष तौर पर रही है। इसके लिए साहित्यकार क्या-क्या पापड़ नहीं बेलते? यदि कोई साहित्यकार अपनी रचनाओं के बल पर ऐसा कर सकने में कामयाब न भी हो तो कम-से-कम कोई शाश्वतता का आभास देने वाला तखल्लुस लगाकर तो वह संतुष्ट हो ही सकता है। हाली अमर होने के लिए इस तरह की तिकड़मों में नहीं पड़े। वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होंने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?इसका अनुमान लगाना किसी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए कठिन कार्य नहीं है।
‘हाली’ का अर्थ - हल या समाधान भी होता है। हाली ने अपने तखल्लुस के इस अर्थ को भी सिद्ध किया। हाली ने अपने समय की समस्याओं को न केवल पहचाना व अपनी रचनाओं में विश्वसनीयतापूर्ण ढंग से व्यक्त किया, बल्कि उनके माकूल हल की ओर भी संकेत किया। जीवन के छोटे-छोटे से दिखने-लगने वाले पक्षों पर उन्होंने कविताएं लिखीं और उनमें व्यावहारिक-नैतिक शिक्षा मौजूद है। मनुष्य के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं इस बात पर विचार करते हुए उन्होंने अपनी बेबाक राय दी है। फिर विषय चाहे साहित्य में छन्दों-अंलकारों के प्रयोग का हो या जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ा हो। ‘चण्डूबाजी के अंजाम’, ‘कर्ज लेकर हज को न जाने की जरूरत’, ‘बेटियों की निस्बत’, ‘बड़ों का हुक्म मानो’, ‘फलसफए तरक्की’, ‘हकूके औलाद’ आदि बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें हाली की सीख उन्हें अपने पाठक का सलाहकार दोस्त बना देती है।
‘हाली’ सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि एक मुकम्मल संस्था का नाम है। किसान जीवन में ‘हाली’ और ‘पाली’ दो शब्दों का बड़ा महत्त्व है। किसान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ इन्हीं शब्दों में है। हाली का कार्यक्षेत्र खेत है और पाली का पशु-पालन। किसान की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग होते हुए भी पशु पालन उसका सह-कार्य है। उसका मुख्य कार्य तो खेत में फसल पैदा करना है। खेत के काम में भी जमीन जोतना सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है,जिस पर किसान का पूरा कारोबार निर्भर करता है। हाली के काम से ही किसान का आगे काम चलता है। हाली ने अपनी कविताओं में किसान जीवन के जो विश्वसनीय चित्र दिए वे किसी अन्य साहित्यकार की रचनाओं में दूरबीन से ढूंढने पर भी नहीं मिलते। किसान का पूरा परिवार व कारोबार उनकी कविताओं में मौजूद है न उसके पालतू पशु छूटे हैं और न ही खेती में काम आने वाले औजार। मौसम की मार झेलता किसान भी यहां मौजूद है और झूले झूलती किसान-स्त्रियां भी यहां मौजूद हैं। किसान की ‘अन्नदाता’की रोमांटिक छवि के तले उसके जीवन के कष्ट अक्सर ओझल हो जाते रहे हैं। हाली ने किसान-जीवन की सी सरलता के साथ किसान जीवन से जुड़ी समस्याओं के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया, जिसे हाली जैसा किसान का सच्चा बेटा ही कर सकता था।
हाली ने 1857 का संग्राम अपनी आंखों से देखा। दिल्ली और उसके आस पास का इलाका इस संग्राम का केन्द्र था और हाली का इस क्षेत्र से गहरा ताल्लुक था। 1857के संग्राम की शुरूआत सिपाहियों ने की थीं, परन्तु असल में यह किसान-विद्रोह था। अंग्रेजों ने भूमि-व्यवस्था व कर-प्रणाली में जो बदलाव किए उससे किसान तबाह हो गए। दूसरी ओर अंग्रेजों ने यहां के उद्योगों को भी बरबाद किया था,जिसके परिणामस्वरूप इनमें काम करने वाले दस्तकार भी तबाह हो गए। किसानों और मजदूरों के पास अपने अस्तित्त्व को बचाए रखने के लिए उनकी फौज में भर्ती होने के अलावा कोई चारा नहीं था। सैनिकों की वर्दी में इन किसानों के मन में अंग्रेजी-शासन के प्रति रोष था जो एक मौका पाकर फूट पड़ा। सैनिकों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था, लेकिन जल्दी ही अंग्रेजों ने दिल्ली को जीतकर अपना शासन कायम कर लिया और शहर के नागरिकों पर कहर ढ़ाया। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों लोग उजड़े। मुसलमानों को विशेष तौर पर अंग्रेजों के कोप का भाजन बनना पड़ा। अंग्रेजों की वहशत से पूरी दिल्ली आंतकित थी। हाली ने ‘मर्सिया जनाब हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’में ‘देहलवी’के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करते हुए इस स्थिति को व्यक्त करता एक पद लिखा।
वो जमाना जब के था दिल्ली में एक महशर बपा
नफ़सी-नफ़सी का था जब चारों तरफ़ ग़ुल पड़ रहा
अपने-अपने हाल में छोटा बड़ा था मुबतला
बाप से फ़रजन्द और भाई से भाई था जुदा
मौजे-ज़ान था जब के दरचाए इताबे ज़ुलजलाल
बाग़ियों के ज़ुल्म का दुनिया पै नाज़िल था वबाल
अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह से खाली करवा लिया था। सारी आबादी शहर से बाहर खदेड़ दी थी। डेढ़-दो साल के बाद ही लोगों को शहर में आने की अनुमति दी। हाली ने ‘मरहूम-ए-दिल्ली’ में दिल्ली पर अंग्रेजी कहर का वर्णन किया है।
तज़ाकिरा देहली-ए-मरहूम का अय दोस्त न छेड़
न सुना जायेगा हम से यह फसाना हर्गिज़
मिट गये तेरे मिटाने के निशां भी अब तो
अय फलक इससे ज्यादा न मिटानां हर्गिज़
हाली का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं,बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृति से गुजर रहा था। अंग्रेजों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे वे मानते थे कि अंग्रेजों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेजों का शासन एक सच्चाई बन चुका था,जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृति को पहचाना। ‘देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो’कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह दी।
पेशा सीखें कोई फ़न सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलग़रज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें
दिल्ली निवास (1854-1856) के दौरान हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्जा गालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्जा गालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब गालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शे’र नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर गालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी कविता का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने साहित्य में भी बरकरार रखा। इसीलिए गालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व भाषा की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं। किसान व मेहनतकश गरीब जनता से गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि उनकी रचनाओं में उनके जीवन के चित्र भरे पड़े हैं। हाली ने राजाओं-सामन्तों के मनोरंजन के लिए कविताओं की रचनाएं नहीं की थी, बल्कि दलितों, पीडितों, वंचितों और समाज के कमजोर वर्गों के जीवन की वास्तविकताओं व इच्छाओं-आकांक्षाओं को अपनी कविताओं में पेश किया। हाली और गालिब के रिश्ते की तुलना प्रख्यात सूफी निजामुदीन औलिया व उनके लाडले शागिर्द अमीर खुसरो के रिश्ते से की जा सकती है। जहां गुरू राजाओं और राजदरबारों से दूर भागता था, उनसे मिलना पसन्द नहीं करता था, वहीं शिष्य उम्र भर राज दरबारों की शोभा बढ़ाता रहा। औलिया और खुसरो के मुकाबले हाली और गालिब के संबंध में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां शिष्य जनता के दुख तकलीफ बयान करता था तो गुरू की हाजिर-जबाबी, काव्य-प्रतिभा आभिजात्यों के काम आती थी।
हाली और मिर्जा गालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा गहरा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्जा गालिब ने शायद ही कभी नमाज पढ़ी हो। यह भी सही है कि दोनों आम व्यवहार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे। मिर्जा गालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। उनकी मृत्यु पर हाली ने ‘मर्सिया’लिखा। जिसमें हाली व गालिब के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।
बुलबुले दिल मर गया हेहात
जिस की थी बात बात में एक बात
नुक्ता दाँ, नुक्ता सन्ज, नुक्ता शनास
पाक दिल, पाक ज़ात, पाक सिफ़ात
मर्सिया उसका लिखते हैं अहबाब
किस से इसलाह लें किधर जाएँ
पस्त मज़्मू है नोहए उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुँचाएं
इस से मिलने को याँ हम आते थे
जाके दिल्ली से आएगा अब कौन
मर गया क़द्रदाने फ़हमे सुख़न
शेर हम को सुनाएगा अब कौन
मर गया तशनए मज़ाके कलाम
हम को घर बुलाएगा अब कौन
था बिसाते सुख़न में शातिर एक
हम को चालें बताएगा अब कौन

शेर में नातमाम है ‘हाली’
ग़ज़ल उस की बनाएगा अब कौन
कम लना फ़ीहे मन बकी वो अवील
वएताबा मअल ज़माने तवील
देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।
हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं,जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं,जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। ‘मर्सिया हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा किः
सुनते हैं ‘हाली’ सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुख़नवर के लिए चारों तरफ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इश्क की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह ग़ज़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफ़िल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेड़ने पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा
हाली का संबंध साधारण परिवार से था। उनके सामने वे सब दिक्कतें थीं जो एक आम इंसान के साथ होती हैं। हाली समस्याओं को देखकर घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ हुसैन को वह ‘हाली’ बना सका है, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।
रोजगार के लिए हाली को अपने वतन से दूर रहना पड़ा। उस समय उन्हें वतन से बिछुड़ने का अहसास हुआ और प्रवासी जीवन के अपने दर्द को रचनाओं का विषय बनाया। हाली की इस पीड़ा में उन हजारों-लाखों की पीड़ा भी शामिल हो गई,जो किसी कारण से अपना वतन छोड़कर दूर रहते हैं। अपने दर्द से दूसरों का दर्द समझने और समाज के दर्द को अपना दर्द बनाने के इस ढंग ने ही हाली को जनता का चहेता कवि बना दिया। ‘हुब्बे वतन’ में हाली ने व्यक्त किया।
हम ही ग़ुरबत में हो गए कुछ ओर
या तुम्हारे ही कुछ बदल गए तौर
गौ वही हम हैं और वही दुनिया
पर नहीं हम को लुत्फ़ दुनिया का
हो गया याँ तो दो ही दिन में ये हाल
तुझ बिन एक-एक पल है एक-एक साल
तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले
लूं न हरगिज अगर बहिश्त मिले
जान जब तक न हो वतन से जुदा
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा
याद आता है अपना शहर कभी
लौ कभी अहले शहर की है लगी
नक्श है दिल पे कुच ओ बाजार
फिरते आँखों में है दरो दीवार
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया। जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी,समाज इनको सिर्फ इसलिए ढ़ोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ कविता जिस तरह लोकप्रिय हुई उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
1874 में हाली रोजगार के लिए लाहौर जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हाली में इसके बाद ही उर्दू साहित्य में बदलाव की क्षमता का विकास हुआ। लाहौर में हाली की मुलाकात कर्नल हौल राइट से हुई। कर्नल हौल राइट एक ऐसे व्यक्ति थे,जिनका हाली पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्नल हौल राइट का प्रभाव न केवल हाली पर बल्कि पूरे उर्दू साहित्य जगत पर पड़ा। अपने लाहौर निवास के दौरान कर्नल हौल राइट ने ऐसे मुशायरों की शुरूआत की जो किसी खास विषय पर आधारित होते थे। इस विषय से संबंधित कविताएं ही इनमें पढ़ी जाती थीं। इन मुशायरों का प्रभाव यह पड़ा कि उर्दू साहित्य ग़ज़ल विधा के दायरे से बाहर निकला और बहुत शानदार कविताओं की रचना उर्दू में होने लगी। उर्दू में अभी तक ग़ज़ल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा थी और इसके प्रति यहां तक मोह था कि ग़ज़ल को ही वास्तविक साहित्य माना जाता था। ग़ज़लकारों को जितने सम्मान से देखा जाता था अन्य साहित्यिक विधाओं को उतना मान प्राप्त नहीं था। 1874 में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरूआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह कविता इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक अखबारों में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी कविता में स्थान दिया। हाली की आवाज असल में अवाम की आवाज थी।
हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था,परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया है वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थी, समाज सुधारक भी, दुख दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
हाली मां-बाप की अपने बच्चों को सबसे बड़ी देन शिक्षा को समझते थे,जबकि अभी समाज में माता-पिता अपने बच्चों का विवाह करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। अपने कर्तव्य से जल्दी छुटकारा पाने के लिए मां-बाप अपने बच्चों की बचपन में ही शादी कर देते थे। हाली ने बाप को ‘बेटे का जवाब’ में इस पर विचार किया।
हम पे एहसां आप यां करते अगर
इल्म की दौलत से करते बहरा वर
खोल कर तालीम में दिल करते खर्च
होता कुछ होता अगर कामों में हर्ज
हाथ में होता अगर कुछ भी हुनर
रहते इज़्ज़्त से निकल जाते जिधर
हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं,कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं,बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आम तौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।
दीन कहते हैं जिसे वो ख़ैर ख्वाही का है नाम
है मुसलकानो! ये इरशादे रसूले इन्सो जाँ
हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
दीन का दावा और उम्मत की ख़बक लेते नहीं
चाहते हो तुम सनद और इम्तहाँ देते नहीं
उन से कह दों, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की ख़िदमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का
वो यही ख़िदमत, यही मनसब है जिसके वास्ते
आए हैं दुनिया से सब नौबत ब नौबत अम्बिया
हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही मौसम की मार पड़ती है,उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।
होंगें मजदूर और कमेरे उनके अब कायम मुक़ाम
फिरते हैं बेकार जिनके को दको पीरो जवाँ
हाली ‘दूसरे की सेवा’को या कि ‘खिदमत’को बुरा समझते थे। वे अपने कारोबार को इस मामले में अच्छा समझते थे क्योंकि इसमें आजादी है, लेकिन वे जमाने की चाल को समझ रहे थे कि लोग अपने धंधों को छोड़कर नौकरी करना अधिक पसन्द करते हैं।
उनको स्वयं भी अपने गुजारे के लिए नौकरी करनी पड़ी थी इसलिए वे आजादी की कीमत पहचानते थे। वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे । वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। ‘नंगे खिदमत’ कविता में हाली ने लिखा।
दर्रे मख़लूक़ को हम को रम मलजाओ मावा समझे
ता अते ख़ल्क़ को जायाज का तम्ग़ा समझे
पेश ओ हिरफ़ा को अजलाफ़ का शेवा समझे
नंगे ख़िदमत को शराफ़त का तक़ाज़ा समझे
ऐब लगने लगे नज्जारी ओ हद्दादी को
बेचते फिरने लगे जौहरे आज़ादी को
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गै़र के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आज़ाद से हम धो बैठे
एक दौलत भी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने
हाली की कविताएं बदलते समाज की ओर संकेत करती हैं। हाली ने समाज की सच्चाई को व्यक्त करने के लिए अपनी कला का प्रयोग किया।

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

डा.सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


नुक्कड़ नाटक आज जीवन्त विधा के रूप में समाज में विस्तार पा रहा है। जन-सामान्य की समस्याओं व संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए छोटे-बड़े शहरों में अनेक नुक्कड़-नाटक मण्डलियां कार्य कर रही हैं। दिल्ली में ‘जन नाट्य मंच’, ‘निशान्त नाट्य मंच’, ‘दिशाःजन सांस्कृतिक मंच’, ‘एक्ट वन’, चण्डीगढ में ‘जनवादी रंगमंच’, बीकानेर में ‘रंग भारती’, आगरा में ‘रंगकर्मी’, रायपुर में ‘हस्ताक्षर’, ‘अंवतिका’, ‘रचना’, ‘सिलसिला’, जबलपुर में ‘विवेचना’, पटना में ‘जन नाट्य संघ’, ‘अनागत’, ‘सर्जना’, ‘जनवादी कला एवं विचार मंच’,‘कला संगम’ तथा रांची में ‘रंगमंच’1 आदि अनेक नाटक मण्डलियां नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जनता की समस्याओं को अभिव्यक्त कर रही हैं और उनको दूर करने के लिए जन-संघर्ष को दिशा भी दे रहीं हैं और मजबूती भी प्रदान कर रही हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नुक्कड़ नाटक भी एक आन्दोलन की तरह से विस्तार पा रहा है। नुक्कड़ नाटक का कितना महत्व एवं विस्तार का अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया है कि आन्ध्रप्रदेश में ‘प्रजा नाट्य मण्ड़ली’की ग्यारह सौ से अधिक ईकाइयां हैं जिसमें लगभग सत्रह हजार से अधिक कलाकार शामिल हैं। हरियाणा जैसे राज्य में जहां न तो नाटकों की कोई समृद्ध परम्परा रही है और न ही जन-आन्दोलन ही इतने प्रखर रहे हैं वहां भी विभिन्न शहरों में ‘जन नाटय मंच’, ‘जतन नाटक मंच’ ‘शहीद उधम सिंह नाटक मंच’ आदि नुक्कड़ नाटक के समूह लगभग हर जिले में मौजूद हैं। जो ‘हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति’के मार्गदर्शन में नव-जागरण के लिए नाटकों का बहुत सराहनीय ढंग से प्रयोग कर रहे हैं। हरियाणा में,नुक्कड़ नाटकों में स्थानीय समस्याओं और उनके लिए किए जा रहे संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए काम करने वाले कलाकारों की संख्या भी पांच सौ से कम नहीं है।
यद्यपि भारत में चालीस के दशक में जब साम्राज्यवादी अंग्रेजों की लूट और शोषण से मुक्ति पाने का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंचा तो ‘इप्टा’के क्रान्तिकारी आन्दोलन के माध्यम से नुक्कड़ नाटक का जन्म हुआ। बलराज साहनी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी जैसे जनता के प्रति प्रतिब कलाकार इसमें जुड़े। हालांकि यह आन्दोलन बम्बई और कलकत्ता जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित था, लेकिन यह तो बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि नुक्कड़ नाटक तो जनवादी मूल्यों और विचारधारा का बच्चा है। स्वतन्त्रता के बाद ज्यों-ज्यों जन-आन्दोलनों का विस्तार हुआ त्यों-त्यों नुक्कड़ नाटक की मण्डलियां भी एक शहर से दूसरे शहर में पनपती गई।
असल में नुक्कड़ नाटक का जन्म व उभार पूरी दुनिया में समाज में जनवादी-आन्दोलनों के साथ एक राजनीतिक जरूरत के तहत हुआ है। यदि विश्व में नुक्कड़ नाटक के जन्म पर नजर डालें तो पता चलेगा कि रूस में समाजवादी स्थापना के बाद सांस्कृतिक-आन्दोलन के लिए रंगमंच के प्रयोग के दौरान और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजीवाद और फासीवाद के विरूद्ध सेना को तैयार करने के लिए इसका प्रयोग किया गया। चीन में क्रांति के लिए किसानों को तैयार करने के लिए तीसरे दशक में इसका जन्म हुआ तो स्पेन में गृहयुद्ध के दौरान, वियतनाम में जापानी, फ्रांसीसी और अमेरिकी हमलावरों के विरूद्ध युद्ध के दौरान, क्यूबा में क्रांन्ति के तुरन्त बाद और पूरे लैटिन अमेरिका व अफ्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के दौरान और अमेरिका में मैक्सिकी,खेत मजदूरों और नीग्रो के बीच संघर्ष और संगठन के साधन के रूप में लोकप्रिय हुआ।2
भारत में यद्यपि रामलीला व रासलीला आदि की लोक-प्रस्तुतियों में नाटक के इस रूप के पैदा होने की संभावना मौजूद थी,परम्परागत तौर पर इस तरह के प्रहसन या तो राजाओं की खिल्ली उड़ाकर उनके प्रति अपने रोष को जताने का माध्यम थी या फिर धार्मिक भूख को शान्त करने का जरिया। इन दो तत्त्वों की अधिकता के कारण यह एक मनोरंजन प्रधान विधा ही बनकर रही,इसमें कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ। इसलिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अंग्रेजी शासन की पोल खोलने की सोची तो उनको यह सशक्त माध्यम तो नजर आया,पर वे इसकी सीमा को नहीं लांघ सके। उनके नाटकों के कथ्य बेशक अंग्रेजी शासन की नीतियों के बारे में जनता को आगाह करते थे,लेकिन उनमें हास्य की अधिकता होने के कारण वे मनोरंजन करने तक ही सीमित रहे और अंग्रेजी शासन की असलियत बताने और उसके विरूद्ध आन्दोलनकारी चेतना निर्माण करने में आंशिक रूप से ही सफल हुए। राजनीतिक स्पष्टता और जनता के प्रति नाटककार की प्रतिबद्धता के कारण नुक्कड़ नाटक की जिस तरह की पहचान बनी उस दृष्टि से भारतेन्दु के नाटकों को नुक्कड़ नाटकों की श्रेणी में तो बेशक नहीं रखा जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि जब कलाकारों ने अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए नुक्कड़ नाटक को चुना तो उनको नाटक के इस परम्परागत रूप ने बहुत मदद की,बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने इस रूप की मनोरंजन-प्रधानता को दूर करके इसका राजनीतिक संस्कार किया। जनता तक पहुंच को देखते हुए कभी सरकारों ने भी अपने प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहा तो कभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने भी लेकिन नुक्कड़ नाटक के रूप में ही कुछ बात है कि वे अपने मकसद के लिए इसका प्रयोग नहीं कर सके। नुक्कड़ नाटक पूरी तरह जनता के जीवन की बेहतरी का साथी बना इसीलिए यह उसी तरह उपेक्षित भी रहा, जैसे कि जनता रही।
मध्यवर्ग की मानसिकता से ग्रस्त विद्वानों ने लम्बे समय तक नुक्कड़ नाटक को विधा के तौर पर स्वीकार नहीं किया और साहित्यिक हल्कों में इसके रूप पर चर्चा ही नहीं की। नुक्कड़ नाटक में शुरू से ही बड़े कलाकारों की समृद्ध परम्परा होते हुए भी इसके कलाकारों को असल में तो कलाकार का दर्जा ही नहीं मिला और यदि कलाकार माना भी तो दूसरे दर्जे का। उसकी जन पक्षधरता को तो सराहा, लेकिन कला-पक्ष की घोर उपेक्षा की गई। लेकिन नुक्कड़ नाटक के कलाकारों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के ऐतिहासिक दायित्व को निभाते हुए अविस्मरणीय पहचान बनाई है। सफदर हाशमी तो अपने इस दायित्व के लिए शहीद ही हो गए,जबकि गुरशरण सिंह, माला हाशमी, शमशुल इस्लाम जैसे कलाकार लगातार जनवाद के आड़े आने वाली हर समस्या से अपने नाटकों के माध्यम से जूझ रहे हैं। जनवाद के प्रति यह गहरी निष्ठा ही है कि पंजाब में आतंकवाद के दौरान आतंकवादियों की धमकियों की परवाह न करते हुए गुरशरण सिंह ने पूरे पंजाब में इसके खिलाफ नाटक किए। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान शान्ति के लिए तथा मेहनतकश जनता के संघर्षों में शामिल होने के लिए ये कलाकार अपना नाटक लेकर संघर्षरत जनता के बीच पहुंच जाते हैं फिर चाहे वह विश्वविद्यालय के शिक्षकों की हड़ताल हो या कारखानों में काम करने वाले दिहाड़ीदार मजदूरों की। इस दौरान इन कलाकारों को कई तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ता है। कितनी ही ऐसी घटनाएं है जबकि नाटक करने से पहले ही पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और कितनी ही बार नाटक के कलाकारों को पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी।
स्वतन्त्रता के बाद भारत के शासक वर्ग ने विकास का पूंजीवादी रास्ता अपनाया जो जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाया। मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं विकराल रूप धारण करती गई और असमान विकास के चलते अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं ने जनता की एकता को तार-तार करना शुरू किया। इस स्थिति को देखते हुए जनता के संघर्षशील व जुझारू तबकों ने विरोध करना शुरू किया। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, विद्यार्थियों के छोटे-छोटे आन्दोलनों को नुक्कड़-नाटक ने इसे अभिव्यक्ति दी,जबकि महानगरों तक ही सीमित मुख्यधारा का नाटक जनता से नाता तोड़कर अभिजात्य वर्ग की रुचियों को ही अभिव्यक्त करता था। नाटक में नए-नए प्रयोग तो हो रहे थे लेकिन उनका लोगों से कोई संपर्क नहीं था। ऐसे वक्त में नुक्कड़ नाटक ने जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति दी।
समाज जब अमीर-गरीब, शोषक-शोषित दो श्रेणियों में बंटा है तो फिर यह भी सच है कि इसमें दो तरह की कलाएं हैं,और उसके दो तरह के मूल्य हैं। एक वे जो ‘कला को मात्र कला के रूप में ही स्थापित करते हैं’और दूसरे वे जो ‘कला को जीवन के लिए’और समाज को बेहतर बनाने में उसकी कुछ उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। वर्ग-विभक्त समाज में कला-साहित्य की भूमिका भी वर्गीय होती है। रचना के मूल्य समाज के किस वर्ग के हित में खड़े होते हैं इसके आधार पर ही किसी रचना को जनवाद के पक्ष में या उसके विरोध में कहा जा सकता है। ‘अन्त्यज का हित ही किसी विचार या कार्य के सही, उचित, नैतिक और करणीय होने की कसौटी’ मानने का संदेश देता गांधी जी का जन्तर जनवाद की भी कसौटी कहा जा सकता है। जनवाद का सार ‘स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारे’ में निहित है और इन मूल्यों को बढ़ावा देने वाली रचना को जनवाद को पोषित करने वाली श्रेणी में रखा जा सकता है।
किसी भी साहित्यिक रचना की विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण स्वयं करती है,लेकिन रूप और विषयवस्तु का यह रिश्ता द्वन्द्वात्मक होता है जहां विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण करता है वहीं रूप भी विषयवस्तु को प्रभावित करता है। नुक्कड़ नाटक असल में विषयवस्तु प्रधान विधा है। इसमें जोर ही इस बात पर है कि कलाकार के पास कहने के लिए कोई बात है, जिसे वह जनता तक ले जाना चाहता है। इसकी कथ्य-प्रधानता ने नाटक का भी जनवादीकरण किया है। सामूहिक तौर पर भी नाटक लिखे गए और सबसे बड़ी बात यह कि नाटक-विधा को भी उसके शास्त्रीय खोल से बाहर निकाल कर मुक्त कर दिया। नाटक में जिस तरह कथानक, पात्र-योजना, संवाद, देश-काल-स्थान की एकता, मंचीय-विधान पर बल दिया जाता था उसे नुक्कड़ नाटक ने एक झटके में तोड़ दिया। नुक्कड़ नाटक सार्सी के कथन कि ‘दर्शक के बिना नाटक नहीं’ तथा ब्रेख्त के सिद्धांत पर चलता है।3 नाटक का जनता से संपर्क एवं संबंध हो और बात जनता तक जाए इसीलिए नुक्कड़ नाटक का यह स्वरूप बना है कि कलाकार किसी बड़े ताम-झाम व नाट्य-सेट को लेकर नहीं चलते बल्कि कम से कम सामान के साथ और बिना किसी चमक-दमक के मंच पर होता है। क्योंकि भारी भरकम सामान को उठाना खर्चीला और असुविधाजनक काम तो है ही साथ ही इसमें दर्शक को अपने अन्दर उलझा लेने की गुंजाइश भी रहती है जिससे नाटक की बात दबने की संभावना बन सकती है। मंच के जो नाटक विभिन्न किस्म की साम्रगी प्रयोग करके चमत्कार पैदा करते हैं वे अपने कथ्य को संप्रेषित करने में पूरी तरह सफल ही होते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य जनवाद के मूल्यों को प्रसारित करना है इसलिए वे दर्शक को जागरूक करते हैं। और उसे जागरूक करने के लिए वास्तविकता का आभास देने की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई का आभास देने वाली नाट्य टेकनीक में क्षतिपूर्ति की संभावना बनी रहती है। दर्शक को सहलाना, फुसलाना या मात्र सच्चाई बतलाना नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य नहीं है,बल्कि उसे जागरूक करना है जो तभी संभव है कि जब दर्शक को हमेशा यह अहसास रहे कि वह एक नाटक देख रहा है। यद्यपि दर्शक की तरफ से तो कोई भी नाटक बेपरवाह नहीं हो सकता, लेकिन नुक्कड़ नाटक के केन्द्र में तो दर्शक ही है। इसीलिए वह यह इन्तजार नहीं कर सकता कि दर्शक उसके पास आयेगा बल्कि वह दर्शक के पास स्वयं ही जाता है। दर्शक तक पहुंचने और उसकी तकलीफ में शामिल होने की प्रबल आकांक्षा ही इसके जनवाद समर्थक कथ्य और रूप को एक विशेष शक्ल देती है। नुक्कड़ नाटक के लिए दर्शक मुख्य है इसलिए दर्शक की भाषा, उसकी मनोरंजन पद्धति, उसका कला बोध नाटक को प्रभावित करता है। वैसे तो नाटक एक ऐसी विधा है जो समसामयिक हुए बिना जिन्दा नहीं रह सकती,लेकिन नुक्कड़ नाटक की तो यह मूलभूत शर्त है। नुक्कड़ नाटक एक ज्वलंत समस्या पर केन्द्रित होकर ही कामयाब हो सकता है। जनता का कोई भी सवाल जो एकदम उठ खड़ा हुआ है वह नुक्कड़ नाटक का विषय बनता है।
नुक्कड़ नाटक की राजनीतिक प्रखरता एवं प्रतिबद्धता की वजह से इसे राजनीतिक प्रोपगण्डा का नाटक होने का आरोप बेशक लगाते रहे हैं,वैसे तो प्रत्येक युग में राजनीति समाज के केन्द्र में रही है और जनजीवन को नियंत्रित व संचालित करने वाली शक्ति रही है,लेकिन वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति समाज की चर्चा का केन्द्रीय सवाल है। कोई जागरूक रचनाकार और नागरिक राजनीति से अछूता नही रह सकता। मानव समाज के सामने प्रस्तुत अधिकांश समस्याएं राजनीति की देन हैं और निःसंदेह उनका समाधान भी राजनीति में ही है। कालजयी रचनाएं वही बन सकी हैं जिनमें तत्कालीन राजनीति के मुख्य सवालों व संघर्ष को उजागर करने की क्षमता थी। विमर्श के केन्द्र में सर्वाधिक रहने वाले महाकाव्य रामायण और महाभारत से यदि राजनीति निकाल दी जाए तो इनमें शायद ही कुछ मनुष्य के काम का बचे। भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान वही रचनाएं लोकप्रिय हुई जिनमें तत्कालीन राजनीति को विषय बनाया।
वर्ग-विभक्त समाज में राजनीति के भी दो स्वरूप हैं एक शोषक वर्ग की राजनीति तो दूसरी शोषित-पीड़ित वर्ग की राजनीति। यह राजनीति बिल्कुल अलग-अलग और अछूती नहीं है बल्कि इनमें तीखी टकराहट भी है। शासक वर्ग जनता पर शासन करने के लिए उसकी एकता को तोड़ने के लिए उसमें कई तरह के भ्रम व मिथ्या चेतना का प्रचार-प्रसार करता है। उनमें जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के नाम पर कई तरह की संकीर्णताएं पैदा करता है और एक समुदाय और वर्ग को दूसरे के विरूद्ध इस तरह प्रस्तुत करता है कि वे एक-दूसरे के शत्रु हों। जैसे बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर सारे ठाठ लेता है वही शासक वर्ग करता है। जनता के जीवन की बेहतरी के लिए जरूरी है निरन्तर और जुझारू संघर्ष जो उसकी व्यापक एकता में ही संभव है। शासक वर्ग जनता के संगठन की शक्ति को पहचानता है,इसलिए इसे कमजोर करने के लिए भरपूर कोशिश करता है। नुक्कड़ नाटकों में जनता के भाईचारे को तोड़कर उसकी मुक्ति की लड़ाई को कमजोर करने वाली शासक वर्गीय राजनीति को मुख्य विषय बनाया गया है। शोषक शक्तियों ने साम्प्रदायिकता को जन-एकता को तोड़ने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। आजादी से पहले अंग्रेजों ने और आजादी के बाद अंग्रेजों के वारिसों ने इसको अपने आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग किया। साम्प्रदायिकता की राजनीति अन्ततः फासीवाद तक जाती है, जिसमें जनता के तमाम जनवादी अधिकारों का खात्मा हो जाता है। फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में नुक्कड़ नाटक हमेशा सशक्त माध्यम रहा है। जर्मनी के बर्टोल्ट ब्रेख्त ने फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में ही नाटक का नया शास्त्र तैयार किया। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को जनता के सामने उद्घाटित किया है। असगर वजाहत का ‘सबसे सस्ता गोश्त’स्वार्थी नेताओं की टुच्ची राजनीति को सामने रखता है जिनके लिए मात्र सत्ता में बने रहना ही चिन्ता का विषय है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन्सान की जान की उनके लिए कोई कीमत नहीं है। कितनी विडम्बना है कि गाय या सुअर का मांस उनके लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे सर्वश्रेष्ठ प्राणी माने जाने वाले मनुष्य को मार सकते हैं वो भी धर्म के नाम पर। कितना हास्यास्पद है कि पशु की रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या। जन नाट्य मंच का ‘हत्यारे’नाटक में साम्प्रदायिक दंगों के पीछे काम कर रहे आर्थिक स्वार्थ को दर्शाया गया है। औद्योगिक शहरों में छोटे कारीगरों के रोजगार को समाप्त करने के लिए बड़े उद्योगपति साम्प्रदायिक दंगें करवाते हैं। इस नाटक का उद्योगपति कहता है कि ‘‘चीजों को गौर से देखो। इन कारखानों के रहते हमारे माल की सेल कभी नहीं बढ़ सकती। जब तक बाजार में अलीगढ़ का ताला रहेगा, हमारी इंडस्ट्री पनप नहीं सकती।’’4 अलीगढ, मुरादाबाद, जबलपुर, आदि के दंगों के पीछे यही मुख्य कारण रहा है,धार्मिक भावनाओं को तो इसी के लिए भड़काया गया और उद्योगपतियों ने साम्प्रदायिक दंगें आयोजित करवाए। इससे उन्हें एक तो कुशल श्रमिक सस्ती दर पर मिल गए दूसरे बाजार पर उनका एकाधिकार हो गया। राजनीतिक नेता और पूंजीपतियों के अलावा साम्राज्यवादी शक्तियां भी कथित धार्मिक नेताओं से मिलकर दंगें करवाते हैं। सफदर हाशमी का नाटक ‘अपहरण भाईचारे का’ नाटक दंगों के पीछे की शक्तियों की पहचान करने को कहता है। मदारी-जमूरा के संवाद में जमूरा कहता है कि ‘‘तो मेहरबानों,कदरदानों,अपने दुश्मन को पहचानो। बता दो कि विदेशी पैसा कहां से आ के कहां जाता है,अमरीकन अंबैसी में रोज डिनर कौन खाता है,आग लगवाने वाले पोस्टर कौन छपवाता है, गली-मुहल्लों में त्रिशूल कौन बंटवाता है, अल्ला-ईश्वर के नाम पर सेनाएं कौन बनवाता है, कौन खालिस्तान का नारा लगवाता है।’’5 लोगों में साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया जाता है मानों कि दो धार्मिक समुदाय हमेशा लड़ते रहे हैं और वे कभी साथ-साथ शान्तिपूर्ण ढंग से रहे ही नहीं। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है विभिन्न समुदाय न केवल मिलकर रहे हैं बल्कि एक दूसरे से सीखते हुए साझी संस्कृति का निर्माण किया है। ‘मत बांटो इन्सान को’ नाटक इसकी ओर संकेत करता है। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान हत्या, हिंसा और बर्बरता एवं अमानवीयता के भावुकतापूर्ण चित्र नहीं, बल्कि साम्प्रदायिकता की राजनीति के षडयन्त्रों को उद्घाटित करते हुए इसके वर्गीय स्वरूप को दर्शाया है। बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतांत्रिक व्यवस्था संभव ही नहीं है। साम्प्रदायिकता मूलतः जनविरोधी है और इसकी उत्पति ही अंग्रेजी-शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’की नीति के तहत हुआ था। स्वयं को ‘सांस्कृतिक पुरूष’ और ‘शुद्ध संस्कार’ डालने और ‘चरित्र-निर्माण’ करने का ढोंग रचकर आम लोगों को धोखा देते हुए उनमें जो धर्मोंन्माद, रूढियों, अतीतमोह, दूसरे धर्म के लोगों के प्रति घृणा एवं अविश्वास पैदा करने वाले, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर देश की शान्ति भंग करने वालों ने बेशक धार्मिक चोला व धार्मिक वाग्जाल अपना रखा हो, नुक्कड़ नाटक बताते हैं कि असल में न तो ये धार्मिक हैं और न ही देश-भक्त। बात भी सही है कि देश तो तभी तरक्की कर सकता है जब इसके निवासियों में आपसी प्रेम,सद्भाव, विश्वास और भाईचारे की भावना मजबूत हो। लेकिन यह इतिहास का तथ्य है कि शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाते हैं और इसे वैध या स्वीकृति के लिए इस तरह पेश करते हैं मानो कि यह दैवीय-ईश्वरीय या प्राकृतिक व्यवस्था हो। चूंकि शासक वर्ग इस बात से भी भलीभांति परिचित है कि मात्र दमन-तंत्र से शासन नहीं किया जा सकता इसलिए वह अपने वर्गीय हितों को सबके हित के तौर पर प्रस्तुत करता है। पूंजीवादी राजनीति के दोगलेपन को प्रमुखता से विषय बनाया गया है। पूंजीवादी शासकों की विडम्बना यह है कि उन्हें स्वयं को दिखाना तो पड़ता है जनता के सबसे बड़े हितैषी। लेकिन वास्तव में वे करते हैं पूंजीप्रधान लोगों की सेवा। इसलिए उनकी राजनीति दो भागों में बंट जाती है। एक जनता को रिझाने के लिए उनकी लोकप्रिय मगर थोथी घोषणाएं दूसरी नीतियों के माध्यम से पूंजी को अधिकाधिक शोषण करने की छूट। नुक्कड़ नाटकों में सत्ता-लोलुप नेताओं,पूंजीपतियों,साम्राज्यवादी शक्तियों और कथित धार्मिक नेताओं के गठजोड़ को उद्घाटित किया गया है। पूंजीवादी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए धनी लोगों से ‘दान’ के रूप में भारी धन लेते हैं और सत्ता हासिल करने के बाद ऐसी नीतियों को लागू करते हैं जिससे जनता के हिस्सा इनकी तिजोरियों में स्वतः ही पहुंच जाता है। जनता के वोट प्राप्त करने के बाद सत्ता में आए कथित ‘जनसेवक’ जनता से दूरी कायम कर लेते हैं। नुक्कड़ नाटकों में राजनीति के दोनों रूपों को साथ-साथ रखते हुए इस राजनीति की असलियत दिखाई है। जनविरोधी राजनीति के रूप को ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई’, ‘काला कानून’, ‘कैसी जनता’ में प्रमुखता उठाया है।
जनता ने जो अधिकार संघर्ष करके प्राप्त किए हैं चाहे वह अभिव्यक्ति का अधिकार हो,शिक्षा का अधिकार हो,शासन सत्ताएं अपने हितों के लिए इनका हनन करती हैं तो जनवाद को स्थापित करने का संघर्ष भी कमजोर पड़ता है। आखिर तो इन अधिकारों के माध्यम से ही जनवाद की स्थापना हो सकती है। नुक्कड़ नाटकों में इसे विषय बनाया है। आपात काल के दौरान कलाकारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगी तो इसके विरोध में कई सशक्त नुक्कड़ नाटक आए। जब तत्कालीन तानाशाही शासकों ने घोषणा की कि वही राष्ट्र व देश है तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ। शिवराम का नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ में इस स्थिति की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति की और यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि इतने बरसों बाद भी जब किसी जगह इस तरह की स्थिति आती है तो थोड़ा-बहुत फेर बदल करके इसे प्रस्तुत किया जा सकता है।
जब तक समाज में बराबरी स्थापित नहीं होगी तब तक न तो जनवाद की कल्पना की जा सकती है और न ही शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध समाज का ही निर्माण हो सकता है। फिर चाहे असमानता सामाजिक स्तर पर हो या लैंगिक आधार पर हो या फिर आर्थिक ही क्यों न हो। शोषण इस असमानता को बढावा देता है। इसलिए शोषण का विरोध किए बगैर जनवाद संभव नहीं है। नुक्कड़ नाटकों में शोषण के चित्र ही नहीं खींचे गए हैं बल्कि इनके कारण का खुलासा करते हुए इसके निदान की ओर भी संकेत किया गया है। नुक्कड़ नाटक में समस्या चाहे कोई भी उठाई गई हो लेकिन उसका समाधान व्यवस्था परिवर्तन में ही दिखाई देता है। ‘जंगीराम की हवेली’ नाटक में हवेली शोषणकारी व्यवस्था का प्रतीक है, जो इसमें रहने वाले अधिकांश लोगों को आश्रय नहीं दे सकती। हवेली का मालिक यानी शासक वर्ग जब जनता की आंकाक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तो वे इसे गिराकर नई हवेली यानी नई व्यवस्था बनाने की बात करते हैं। मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था का विध्वंस करके ही नई व्यवस्था का निर्माण संभव है। इस व्यवस्था में गरीबी,बेरोजगारी व मंहगाई का कोई समाधान नहीं है,बल्कि सच तो यह है कि ये इस व्यवस्था की अनिवार्य परिणतियां हैं। यदि लोग गरीब व बेरोजगार नहीं होंगें जो शासक वर्गों को सस्ते श्रमिक कहां से मिलेंगें और मंहगाई के बिना उनको अधिक लाभ कैसे मिलेगा।
पूंजी-प्रधान व्यवस्था का जनवाद के साथ मूल विरोध है। इसमें समस्त अधिकार वही भोग सकता है जिसके पास धन है,प्रकृति व समाज निर्मित समस्त नियामतें और सुविधाएं उसी के हिस्से में है जबकि अधिकांश लोगों के पास तो पेट भर गुजारा करने के लिए भी साधन नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि पूंजीवादी-व्यवस्था में वस्तुओं की कमी है। वस्तुओं के गोदाम भरे पड़े हैं, लेकिन जनता की उन तक पहुंच नहीं है। अनाज का इतना उत्पादन होता है कि उसे रखने के लिए गोदाम कम पड़ गए हैं, लेकिन लोग भूख से मर रहे हैं। कपड़े की कोई कमी नहीं,मकान बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले सामान की कोई कमी नहीं। फिर भी लोग इनके लिए तरसते हैं। हां यह बात जरूर है कि इस व्यवस्था की अमानवीयता को छुपाने के लिए इसके अभाव में मरने वालों के लिए पूंजीपतियों के अखबार इनकी मौत को लू या सर्दी से होने वाली मौत बता देते हैं। नुक्कड़ नाटकों में वस्तुओं की जमाखोरी से कृत्रिम अभाव पैदा करके लाभ कमाने नहीं बल्कि लूट मचाने के लिए महाजनों द्वारा की गई कार्रवाइयों को दर्शाया है। यह उसी तरह का घृणित काम है जैसे कि अंग्रेजों द्वारा कृत्रिम अकाल पैदा करके लोगों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। धन एकत्रित करने की हवस में खाद्य-पदार्थों में मिलावट करने जैसे अमानवीय कार्य में कुछ भी अनुचित नजर न आने वाले लोगों को वर्तमान व्यवस्था राजनीतिक प्रश्रय देती है। तमाम प्रशासनिक मशीनरी इसे अनदेखा करती है। ‘मशीन’, ‘गांव से शहर तक’, ‘राजा का बाजा’, ‘जंग के खतरे’आदि नुक्कड़ नाटकों में मौजूदा-व्यवस्था के राजनीतिक-अर्थशास्त्र को विश्लेषित करके समझाया है कि यह मूलतः जन विरोधी है।
भारतीय समाज में वर्चस्वी वर्गों की विचारधारा पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से लोगों के विचार व व्यवहार को नियंत्रित करती है। समाज की लगभग दो तिहाई आबादी के शोषण को यह विचारधारा वैध ठहरा देती है। स्त्रियों और दलितों को इन्सानी व बराबरी का दर्जा मिले बगैर जनवादी व न्यायपूर्ण समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्त्री का आर्थिक व दैहिक शोषण तथा विकास के उचित अवसरों से वंचित करने के चित्र दर्शाये हैं और स्त्री का समाज के विकास में योगदान को प्रस्तुत किया है। नुक्कड़ नाटकों में स्त्री-शोषण के तीन रूपों को व्यक्त किया है। दलितों को सामाजिक तौर पर जो उत्पीड़न सहन करना पड़ता है तथा समाज की नफरत व घृणा का शिकार होना पड़ता है। यदि दलित इसका विरोध करें तो उनको इसकी सजा भुगतनी पड़ती है। प्रेमचन्द की कहानियों के आधार पर बने ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुंआ’ नाटक के अलावा भी कई महत्वपूर्ण नाटक आए हैं। समाज में बहुत से शोषित समुदाय एवं वर्ग हैं जिनको कि शोषण से मुक्ति चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि शोषण से मुक्ति किसी को अकेले-अकेले नहीं मिलेगी। मुक्ति मिलेगी तो समस्त शोषित समाज को एक साथ। यह भी सही है कि मुक्ति तोहफे में नहीं बल्कि संघर्ष से मिलेगी। इसलिए मुक्तिकामी वर्गों और समुदायों में बृहत्तर भाईचारे व एकता निर्माण के लिए नुक्कड़ नाटक एक जोड़ने वाले विचार-सूत्र का काम करता है। जन नाटय मंच इस समझदारी से काम करता है कि ‘‘समाज का कोई भी शोषित तबका केवल अपनी समस्याओं को लेकर अलग-अलग संघर्ष कर सफल नहीं हो सकता। जनता के सभी शोषित तबकों को एक साथ मिलकर, संगठित होकर बढ़ते जुल्मो-सितम का मुकाबला करना होगा। गरीब औरतों,मरदों, किसानों, छात्रों, कर्मचारियों को भाईचारे की भावना के साथ मिलकर लड़ना होगा। जनवाद और प्रजातन्त्र की जड़ें मजबूत करनी होगी।’’6
शासक-वर्ग का शोषित पर दमन उसके पुलिस-तन्त्र की क्रूरता व बर्बर कार्रवाइयों सर्वाधिक प्रखर रूप में दिखाई देता है। कहने के लिए तो पुलिस कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए होती है, लेकिन असल में वह वर्चस्वशाली वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा अधिक करती है। कानून तोड़ने वाले भ्रष्ट पूंजीपति, बदमाश और छुटभैये नेता तो पुलिस के साथ गलबहियां करते हैं और कानून तोड़ने से पीड़ित शोषित वर्ग पर उसके अत्याचार का डण्डा चलता है। पुलिस के इस वर्गीय चरित्र को ‘पुलिस-चरित्रम्’ व ‘इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर’ नाटक में दर्शाया गया है।
आधुनिक समाज में जनवाद की अवधारणा ने कलाओं और साहित्य को प्रभावित किया है। जनवाद की चेतना शोषित-दलित-पीड़ित-वंचित वर्गों को शोषणपरक व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष की प्रेरणा देती है जो साहित्य के विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। समाज में शासक वर्गों द्वारा फैलाई जा रही मिथ्या-चेतना को दूर करने व संघर्ष चेतना को प्रखर करने में नुक्कड़ नाटक अपनी भूमिका निभा रहा है। जनता के जनवादी संघर्षों के स्वरों ने जहां नुक्कड़ नाटक के विकास में योगदान दिया है वहीं नुक्कड़ नाटक ने भी जनवाद के पक्ष में उठे स्वरों की अभिव्यक्ति करके व इन्हें सूत्रबद्ध करके मजबूती प्रदान की।


संदर्भः
1. जयदेव तनेजा, हिन्दी रंगकर्मः दशा और दिशा, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, 1988, पृ.-143
2. सफदर हाशमी, सफदर (नुक्कड़ नाटक के आरम्भिक दस वर्ष) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1989, पृ.- 43
3. सं. चन्द्रेश, नुक्कड़ नाटक, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985, पृ.-13
4. जन नाटय मंच, चौक-चौक पर गली-गली में (भाग-2), सफदर हाशमी मैमोरियल ट्रस्ट,नई दिल्ली, 1991, पृ.-3
5. सफदर हाशमी, सफदर, पृ.-158
6. कथन (जुलाई-अगस्त)80, पृ.-53

महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकता

महात्मा गांधीः धर्म और साम्प्रदायिकताडा. सुभाष चन्द्र,एसोशिएट प्रोफेसर,
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र


आधुनिक भारत पर साम्प्रदायिकता की काली छाया लगातार मंडराती रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं,लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है।
महात्मा गांधी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान निरन्तर साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे। वे साम्प्रदायिकता के घातक परिणामों को जानते थे। उनका मानना था कि यदि हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी झगड़ा रहा, वे एक दूसरे पर अविश्वास और संदेह करते रहे तो न तो भारत को कभी गुलामी से ही मुक्ति मिल पाएगी और न ही भारत एक सुखी और समृद्ध समाज बन पाएगा, इसलिए वे हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता के सूत्र हमेशा खोजते रहे। हिन्दू मुस्लिम एकता एकता की चिन्ता उनके चिन्तन का जरूरी पहलू है। पुनः पुनः उन्होंने इस पर विचार किया है ‘‘हिन्दू और मुस्लिम एकता किस बात में निहित है और उसको बढाने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? उतर सीधा-सादा। वह इस बात में निहित है कि हमारा एक समान उद्देश्य हो,एक समान लक्ष्य हो,और समान सुख-दुख हों।और इस समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक-दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना, इस एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है।’’(यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
महात्मा गांधी स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति थे जो स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। लेकिन महात्मा गांधी साम्प्रदायिक नहीं थे, सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे,धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए गांधी जी ने अपनी जान तक दे दी। साम्प्रदायिक कट्टर व्यक्ति एवं संगठन द्वारा उनकी हत्या के कारण व्यक्तिगत नहीं थे, बल्कि भारतीय इतिहास व संस्कृति में निहित मूलभूत धार्मिक सहिष्णुता,साम्प्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र जैसे सांस्कृतिक-राजनीतिक मूल्य थे, जिनके प्रति गांधी जी दृढता से मैदान में डटे थे।
साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने भारत की शासन सत्ता संभाली तो राजनीति और आर्थिक व्यवस्था प्रतिस्पर्धत्मक हो गई। अंग्रेजी शासन में हिन्दुओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के कारण ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता और धार्मिक व्यक्ति कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे धार्मिक थे जो अपने अपने धर्मों में,उनकी मान्यताओं,पूजा पद्धतियों,परम्पराओं व मान्यताओं में विश्वास रखते थे और साथ ही धर्म को व्यक्ति निजी मामला समझते थे, दूसरे धर्मों का आदर करते थे, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र व मूल्यों में विश्वास करते थे और इन्हें स्थापित करने के लिए जी जान से संघर्ष करते थे। दूसरी ओर इसके विपरीत हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक नेता थे जो खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार व, विश्वास-व्यवहार कहीं से भी धार्मिक नहीं थे,उनका धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था और उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट बनाने के लिए लाखों लोगों को हिंसा का शिकार बनाया।
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का मूल कारण नहीं है, हां धर्म का सहारा जरूर लिया जाता है। चूंकि धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंध्ति होता है, धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं। महात्मा गांधी का कहना था कि ‘‘मैं किसी भी हिन्दू या मुसलमान से अपने धार्मिक सिद्धांत को रंच-मात्र भी छोड़ने को नहीं कहता,बशर्ते उसे इस बात का इत्मीनान हो कि जिसे वह धार्मिक सिद्धांत कह रहा है वह सचमुच धार्मिक सिद्धांत ही है। लेकिन यह तो मैं हर हिन्दू और मुसलमान से कहता हूं कि वह भौतिक लाभ के लिए आपस में न लड़े। ’’ (यंग इण्डिया, 25-9-1924, अंग्रेजी से)
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंधविश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं।
भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नही होती। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार)टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।
साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से,धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। गांधी का मानना था कि धर्म की पहचान इन बाहरी ढकोसलों में नहीं होती ‘‘सच्चे हिन्दू की पहचान तिलक नहीं है, मंत्रों का सही उच्चारण नहीं है, तीर्थाटन नहीं है और न जाति-पाति के नियमों को बन्धनों का सूक्ष्म पालन ही।’’ (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से)
गांधी जी धर्म की रक्षा के नाम पर गुण्डागर्दी के खिलाफ थे,उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘‘यदि संगठन का मतलब अखाड़े खोलना और अखाड़ों के द्वारा हिन्दू गुण्डों को तैयार करना हो तो यह हाल मुझे तो दयाजनक ही मालूम होता है। गुण्डों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी, अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ।’’(यंग इण्डिया, 14-9-1924, अंग्रेजी से) साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं,जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। गोरक्षा के माध्यम से महात्मा गांधी ने कहा कि हमें अपने धर्म की रक्षा आत्मत्याग से करें न कि उसके नाम पर मानवता पर चोट करके,उन्होंने कहा कि ‘‘गोरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना। गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिन्दू धर्म और अहिंसा धर्म के विमुख होना है। हिन्दुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्म-शुद्धि द्वारा और आत्महुति द्वारा गोरक्षा का विधान है लेकिन आजकल की गोरक्षा का विधान बिगड़ गया है। उसके नाम पर हम बराबर मुसलमानों के साथ झगड़ा-फसाद करते रहते हैं,जबकि गोरक्षा का मतलब है मुसलमानों को अपने प्यार से जीतना। (यंग इण्डिया, 6-10-1921, अंग्रेजी से) कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।
यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में सच्चा विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। सहिष्णुता को गांधी जी समाज की शांति के लिए आवश्यक मानते थे ‘‘यदि मुसलमानों की ईश्वर-पूजा की पद्धति को,उनके तौर-तरीकों और रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगें या अगर हिन्दुओं की मूर्ति पूजा और गो-भक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखायेंगें तो हम शांति से नहीं रह सकते। सहिष्णुता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं जो कुछ सहन करता हूं उसे पसन्द भी करूं। मैं शराब पीना, मांस खाना और तम्बाकू पीना बहुत नापसन्द करता हूं, किन्तु मैं हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों सभी के बीच इन्हें सहन करता हूं - वैसे ही जैसे उनसे अपेक्षा रखता हूं कि इन चीजों से मेरा परहेज रखना उन्हें भले ही पसन्द न हो,लेकिन वे इसे सहन अवश्य करें। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सारे झगड़े की जड़ यही बात है कि दोनों एक दूसरे पर अपने विचार लादना चाहते हैं’’ (यंग इण्डिया, 25-2-1920) अंग्रेजी से)
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते।
धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मो के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालो से साथ-साथ रह रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में,राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है,बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। इस संबंध में गांधी जी का कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां- स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं,भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।
साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया।
धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है, धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार, आत्मा-परमात्मा, परलोक, पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।
संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं।
यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का,भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का,भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन,न भाषा-बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में। इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।
एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।
भाषा संस्कृति का महत्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं। भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते -रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रूचियों -स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी,इसका अनुमान लगाया जा सकता है। गांधी जी उस भाषा को अपनाने के हिमायती थे,जिसमें जनता अपने भावों-विचारों की तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करती थी। इसलिए न तो उन्होंने फारसी निष्ठ उर्दू को और न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को, बल्कि जन सामान्य की भाषा यानी ‘हिन्दुस्तानी’को आदर्श भाषा कहा। भाषा का यह रूप धर्मोन्मुखी नहीं, बल्कि जनोन्मुखी थी और यह लोगों में भेद पैदा करने वाली नहीं, बल्कि एकता पैदा करने वाली थी।
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है,जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले,अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं,विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है,जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है। गांधी जी पूरे जीवन धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता व साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्षरत रहे। उनका जीवन आदर्शों व विचारों को अपनाकर भारत को साम्प्रदायिक वैमनस्य के विष से मुक्ति मिल सकती है।

धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां

धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में, राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है, बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। धर्मनिरपेक्षता पर विचार करते हुए डॉक्टर सर्वपल्ली राधकृष्णन् ने कहा है कि ‘‘जब भारतीयों के धर्मनिरपेक्षता ग्रहण करने की बात कही जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे अधार्मिकता या भौतिकवाद का समर्थन करते हैं। वे सब धर्मों के प्रति यह सम्मान रखते हैं और सब पैगम्बरों का आदर करते हैं। सहिष्णुता का अर्थ अपने निज के धर्म के प्रति उदासीनता नहीं हैं, सहिष्णुता हमें आध्यात्मिक दृष्टि देती है, जो कट्टरता से उतनी ही दूर है जितना उत्तरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव से है। धर्म का वास्तविक ज्ञान, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय, मजहब-मजहब के बीच की दीवारों को तोड़ देता है। दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता के आचरण से हमें अपने धर्म का ज्यादा सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा’’
धर्म की निरपेक्षता पर विचार करते हुए प्रख्यात इतिहासकार विपन चन्द्रा ने लिखा कि ‘‘दूसरी जगहों की तरह भारत मे भी धर्म निरपेक्षता की चार तरह से व्याख्या की गई है। पहलीः धर्म को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। धर्म राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा तथा सामाजिक जीवन और संस्कृति के बड़े क्षेत्रों से अलग रहना चाहिए। धर्म व्यक्ति का निजी या व्यक्तिगत मामला समझा जाना चाहिए। इसे अस्वीकार करने वाली धर्मनिरपेक्षता की तथाकथित भारतीय परिभाषा की बात करना धर्मनिरपेक्षता का निषेध है। साथ ही धर्मनिरपेक्षता का मतलब जीवन से धर्म को निकालना या धर्म का विरोध नहीं है। धर्म निरपेक्ष शासन का अर्थ धर्म को हतोत्साहित करने वाला शासन नहीं है।
दूसरीः किसी बहुधर्म समाज में धर्म निरपेक्षता का यह भी मतलब है कि शासन सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे या जैसा कि बहुत से धार्मिक व्यक्ति कहते हैं निरीश्वरवाद सहित सभी धर्मों को बराबर सामान दें।
तीसरीः धर्मनिरपेक्षता का आगे मतलब है कि शासन सभी नागरिकों को बराबर समझे और उनके धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव न करें।
चौथीः भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की और विशेषता है। भारत में धर्मनिरपेक्षता उपनिवेशवाद के खिलाफ सभी भारतियों को इक्ट्ठा करने और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के हिस्से की तरह एक विचारधारा के रूप में आई। इसके साथ-साथ सांप्रदायिकता एक अत्यध्कि विभाजक सामाजिक और राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्षता का मतलब सांप्रदायिकता का स्पष्ट विरोध शासन शामिल है। इस विजन और उसके लिए प्रतिबद्धता के कारण ही स्वतन्त्र भारत विभाजन और विभाजन दंगों के बावजूद धर्मनिरपेक्ष संविधान तैयार कर सका और धर्मनिरपेक्ष शासन की आधारशिला रख सका।’’1
धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तो संविधान में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचा अपनाया। यद्यपि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को 42वें संशोधन में अपनाया गया, लेकिन धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के आधार शुरू से प्रभावी रहे हैं। अनुच्छेद 25, 26, 30(1)(2) के अंतर्गत धर्म की व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता की सुरक्षा, अनुच्छेद 15 के अंतर्गत राज्य द्वारा धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न करना और अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत अवसर की समानता का अधिकार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की पुष्टि करते हैं।

साम्प्रदायिकता
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है। साम्प्रदायिकता ‘‘मूलतः राज्य-व्यवस्था में एक प्राथमिक एवं निर्णयात्मक समूह के रूप में किसी के प्रति राजनीतिक निष्ठा की एक विचारधारा है। सम्प्रदायवाद किसी खास धार्मिक समुदाय को ही एकमात्र अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा एवं गतिविधि िका समष्टि रूप एवं आधार समझता है। सम्प्रदायवाद एक राज्य-व्यवस्था तथा एक राष्ट्र के अन्दर अन्य धार्मिक समुदायों को प्रत्यक्षतः प्रतिकूल हस्ती के रूप में चित्रित करता है, जिसके फलस्वरूप एक दूसरे के प्रति अमैत्रीपूर्ण, वैमनस्यता तथा दुश्मनागत की भावना संगठित करता है। सम्प्रदायवाद एक राजनीतिक अभिमुखता है जो अपनी राजनीतिक निष्ठा की मंजिल धार्मिक समुदाय को ही समझता है, न कि राष्ट्र या राज्य को। सम्प्रदायवाद एक ऐसी राजनीतिक निष्ठा, एक ऐसी राजनीति है, जो बहुजातीय एवं बहुधार्मिक समुदाय से युक्त राष्ट्रवाद के विरू( होती हैं’’2
साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है। अंग्रेजों के आने के पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सता हथियाई जाती थी और जो भी सता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे,चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक रखता हो। राजा के प्रति वफादारी ही शासन-व्यवस्था में पद पाने का साधन थी। आम तौर पर अपनी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन किया जाता था, बाजार में बेचने के लिए नहीं। इसलिए अर्थव्यवस्था में भी प्रतिस्पर्धा नहीं थी। अंग्रेजों ने जब भारत की शासन सता संभाली तो इस व्यवस्था में भारी फेरबदल हुआ। उत्पादन भी प्रतिस्पर्धात्मक हो गया और अपनी स्थानीय जरुरतों के अलावा बाजार में बेचे जाने के लिए होने लगा। इस नई व्यवस्था में हिन्दूओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के चलते अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ।
साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इक्ट्ठा नहीं रह सकते।
साम्प्रदायिकता दो तरह की होती है -एक को नर्म या उदार साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है दूसरी फासिस्ट या कट्टर साम्प्रदायिकता। नर्म या उदार साम्प्रदायिक लोगों का मानना है कि एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित विशिष्ट भी होते हैं, जिनको हासिल करने के लिए बातचीत से या दबाव से जैसे भी हो पूरा करना चाहिए लेकिन साथ ही उदार या नर्म साम्प्रदायिक यह भी मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों के सांझे हित हैं और इस साझेपन के कारण ही वे राष्ट्र बनते हैं इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास के संघर्ष में साथ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय या धर्म के प्रति उदार रूख के कारण ही इसको उदार सम्प्रदायिकता कहा जाता है। जो अपने सम्प्रदाय के हितों की पूर्ति के लिए जोर रखती है और इसके लिए अन्य सम्प्रदायों या धर्मों से सौदेबाजी भी करती है।
फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा और हिंसा पर आधरित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायियों के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़ी आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है,दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते।

धर्म और साम्प्रदायिकता
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंधित होता है,धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं।
किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती। धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। साम्प्रदायिकता स्वतः स्फूर्त परिघटना नहीं होती,बल्कि साम्प्रदायिक-उन्माद पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक-शक्तियां वातावरण का निर्माण करती हैं,एक-दूसरे समुदाय के बारे भ्रम फैलाते हैं और एक-दूसरे के विरूद्ध नफरत फैलाते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा अचानक नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक-शक्तियों की पूर्व-योजना का परिणाम होती हैं,बिना साम्प्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साम्प्रदायिक हिंसा नहीं पनप सकती। साम्प्रदायिक हिसां व दंगे साम्प्रदायिकता का कारण नहीं बल्कि परिणाम होते हैं। भीष्म साहनी का मानना है कि ‘‘ जब सत्ता ग्रहण कर पाने की होड (में हम धर्म की आड) लेते हैं, तब हम एक ओर धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करते हैं, उसकी मानवीयता, उसके सद्उपदेश, सहिष्णुता आदि को ताक पर रख देते हैं, दूसरी ओर उन तत्त्वों को प्राथमिकता देने लगते हैं जो एक जाति को दूसरी जाति से अलग करते हैं, जैसे पूजा-पाठ की विधियों, धर्माचार, व्रत-उपवास, आदि आदि। इस तरह हम अपनी जाति की अलग पहचान बनाना चाहते हैं, तब एक व्यक्ति इंसान न रहकर, एक हिन्दू, एक मुसलमान, एक सिक्ख आदि में बदल जाता है। सत्ता की होड़ इस जातीयता की भावना को उग्र और आक्रामक बनाती है। तब, धर्म के नाम पर हमारे सभी कुकर्म, हिंसा, बर्बरता, घृणा, द्वेष सभी यथोचित ठहराये जाने लगते हैं। इस तरह साम्प्रदायिकता का विकराल रूप सामने आने लगता है।’’3
भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार) टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।
धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से, धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।
स्वामी विवेकानन्द ने धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता के बारे में लिखा कि ‘‘संकीर्णतावाद, कट्टरतावाद और उसके वीभत्स उत्तराधिकारी धर्मोंन्माद ने इस सुंदर धरती पर बहुत दिनों तक राज किया है। उसने इस धरती को हिंसा से भर दिया है, उसे बार-बार मानव रक्त से नहलाता रहा है, सभ्यता को नष्ट कर दिया है तथा पूरे देश को निराशा के गर्त में ढकेल दिया है। यदि ये भयावह दानव नहीं होते, तो मानव समाज ने जितनी प्रगति की है, उससे अधिक प्रगति की होती, पर उनका समय आ गया है और मैं यह पूरी आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटनाद हुआ, वह सभी तरह की धर्मांधता, तलवार या कलम से किये जाने वाले सभी तरह के उत्पीड़नों,व्यक्तियों के बीच सभी विद्वेषपूर्ण भावनाओं को जो उन्हें एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं मौत का सबब साबित होगा।’’
यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंध्विश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं। भीष्म साहनी के अनुसार ‘‘संस्थागत धर्म साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पोषक है। धार्मिक विचार, धर्मोंपदेश, धर्मग्रंथ साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देते,पर संस्थागत धर्म जरूर देता है क्योंकि वह नागरिकों को धर्म के आधार पर बांट देता है। संस्थागत धर्म अपने विधि- निषेध, धर्माचार आदि के आधार पर धर्म के मानने वालों को एक स्वरूप, एक अलग अस्तित्व देता है। फिर, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए वह धन संपति अर्जित करता है, प्रशासन के साथ मेल-जोल बढाता है, और दूसरी ओर विधि-निषेध पर बल देते हुए धर्म संस्थाएं जनसाधारण को आतंकित करती रही हैं। आज के जमाने में जब लोगों का विश्वास धार्मिक विधि-निषेध पर शिथिल पड़ने लगा है,और लोग धर्माचार से दूर होने लगे हैं तो राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय लोग, इस संस्थागत धर्म के साथ जुड़कर, जनसाधारण पर इसके प्रभाव का लाभ उठाते हुए, अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति करने की कोशिश करते हैं।’’4
सच्चा धार्मिक या सच्चे अर्थों में धर्म को मानने वाला कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक तरफ महात्मा गांधी धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। उन्होंनें धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। गांधी जी स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की ‘शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’5मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखते थे, कुरान पर चार-भागों में टीका लिखी, जो पांचों समय नमाज पढ़ते थे और नियमित रूप से मस्जिद जाते थे लेकिन वे धर्म को निजी मामला समझते थे। धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं मुसलमान हूँ, और गर्व के साथ अनुभव करता हूंू कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपति हैं। मैं तैयार नहीं हूँ कि इसका कोई छोटे-से-छोटे हिस्से को भी होने दूं। इस्लाम की तालीम, इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पूंजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हूं और मैं बरदास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की ‘रिएलिटीज़’ यानि हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूं कि मैं हिंदुस्तानी हूं। मैं हिंदुस्तान की अविभिन्न संयुक्त-राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हूं। मैं इस संयुक्त-राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हूं। उसका एक ऐसा टुकड़ा हूं जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूं। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।’’
दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था। जिनका इस्लाम में, इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा,आचार-विचार व विश्वास-व्यवहार कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे। लेकिन उन्होंनें धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की,जिसके फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी व अबुल कलाम मौलाना आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना व अन्य साम्प्रदायिकों का धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था।
आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। शहीद भगतसिंह और उसके संगठन के क्रांतिकारी साथियों ने भी धर्म को राजनीति के क्षेत्र से बाहर रखने का विचार रखा। भगतसिंह ने ‘साम्प्रदायिक दंगें और उनका इलाज’लेख में अपना मत स्पष्ट किया कि ‘‘1914-15के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे,जिनमें सिक्ख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।’’6
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता दोनों राजनीतिक शब्द हैं और लगभग एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिए साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा हमला धर्मनिरपेक्षता पर ही होता है। कभी वह धर्मनिरपेक्षता की खिल्ली उड़ाकर इसको कमज़ोर करते हैं तो कभी धर्मनिरपेक्ष लोगों को छद्म धर्मनिरपेक्ष कहकर इसकी स्वीकार्यता पर प्रहार करते हैं। धर्मनिरपेक्षता को अपनाए बिना किसी देश में लोकतंत्र नहीं रह सकता और साम्प्रदायिकता मूलतः लोकतंत्र के खिलाफ है। साम्प्रदायिक लोग इस बात को अच्छी तरह जानते है कि वे लोकतंत्र का सीधे-सीधे विरोध नहीं कर सकते लेकिन धर्म की आड़ लेकर और धर्मनिरपेक्षता के बारे मे गलतफहमी पैदा करके, धर्मनिरपेक्षता को ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ कहकर लोकतंत्र को कमजोर कर सकते हैं। साम्प्रदायिकता समाज के सभी समुदाय को समान नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। वह समाज मे एक समुदाय का दूसरे समुदाय पर और एक समुदाय के विशिष्ट वर्ग का दूसरे वर्गो पर वर्चस्व स्थापित करना चाहती है,जबकि धर्मनिरपेक्षता इस बात को सुनिश्चित करती है कि समाज के सभी लोगों को समान नागरिक अधिकार मिलें चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। साम्प्रदायिकता धर्म को नागरिक अधिकारों के ऊपर रखती है, जबकि धर्मनिरपेक्ष-लोकतन्त्र में नागरिक अधिकार अधिक महत्वपूर्ण होते है।

साम्प्रदायिकता और संस्कृति
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां-स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है, चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं, भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।
साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’लेख में इस पर गहराई से विचार करते हुए लिखा है कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है,इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है,मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम-संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक-संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है,लेकिन ईसाई-संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक है,तो क्या मुसलमान कब्र पूजक और स्थानपूजक नहीं है, ताजिए को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है? अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े-से-बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है,तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धरा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहां तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दीखता।’’7 धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है, जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्त्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है,धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार,आत्मा-परमात्मा,परलोक,पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।
संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं ।
यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का, भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का, भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन, न भाषा -बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में । इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।
एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।
भाषा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं।भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते-रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रुचियों-स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता के लिए शहीद हुए क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘राष्ट्रीयता’ पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि ‘‘राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं। राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएं हैं प्राकृतिक विशेषता और विभिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बांध्ती है।’’8 साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद की व्याख्या भी धर्म की आड़ लेकर करती है। धार्मिक मुददों का साम्प्रदायिकरण करके उसे इस तरह प्रस्तुत करती है, जैसे कि वह राष्ट्रीय सवाल हो। साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के साथ राष्ट्र को जोड़कर देखती हैं और दूसरे धर्मों-सम्प्रदायों के प्रति अपनी अमानवीय घृणा को राष्ट्रीय भावनाएं बताती हैं। धर्म को जिन राष्ट्रों ने सर्वोच्चता दी है उनमें कट्टरता व पिछड़ापन मौजूद है, जैसे पाकिस्तान, बंगलादेश और अरब देश । इन देशों के शासक अपनी जनता के साथ कैसा सलूक करते हैं और उनका शासन कितना ‘धार्मिक राष्ट्रवादी’ होता है उसके लिए अफगानिस्तान के तालिबानों और पाकिस्तान के पफौजी-मुल्ला गठजोड़ शासन से लगाया जा सकता है। धर्म के आधार बने राष्ट्र में सभी लोगों के लिए समानता की भावना नहीं होती।
जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां हमेंशा युद्ध का और युद्वोन्माद का समर्थन करती हैं,सेना और परमाणु विस्फोट समेत आधुनिक हथियारों के भंडारण की वकालत करती है और पडोसी देश पर हमला करने के लिए अखबारों, समाचार पत्रों में बयान व टिप्पणी देते हैं जिससे वे जनता की नजरों में बड़े राष्ट्रवादी बन जाते हैं।
धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है।

संदर्भः
1 गांधीः एक पुनर्विचार ( विपन चन्द्रा के लेख) गांधी जी, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता से,पृ. 49, सहमत, नई दिल्ली, 2004
2 विश्वामित्र चौधरी, भारत में साम्प्रदायिकता, पृ. 11
3 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 27
4 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 28
5 महात्मा गांधी, उफ. ए. मदान द्वारा उद्धृत ज्ण्ैण्प्ण् टवसण् 3ण् श्रंदण्97ण् च्ंहम 4
6 मेरी कलम से; भगतसिंह के दस्तावेज, डॉ. सुभाष चन्द्र (सं.) पृ. 10, शहीद भगतसिंह अध्ययन केन्द्र, नरवाना, 2005
7 जातियता, जातिवाद और साम्प्रदायिकता, वासुदेव शर्मा (सं.), पृ.-45, लोकजतन प्रकाशन, भोपाल, 2004
8 सामाजिक क्रांति के दस्तावेज ( भाग-1), शंभुनाथ (सं.), पृ. 620, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004