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अछूत

अछूत
डा. सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

मराठी के प्रख्यात दलित लेखक दया पवार की आत्मकथा अछूत’ न केवल दलित साहित्य की, बल्कि भारतीय साहित्य की अद्भुत रचना है। यह रचना दलित लेखकों का प्रेरणा-स्रोत रही है। दया पवार ने अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से दलित जीवन की सच्चाइयों को उद्घाटित किया है। दलित जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपनी रचना में स्थान दिया। दलितों के सामाजिक शोषण के विविध रूपों को तथा आर्थिक शोषण के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए दलित आन्दोलन की सीमाओं और संभावनाओं को रंखांकित किया हे।
दलितों के साथ गुलामों का सा व्यवहार होता रहा है। उनके काम की कोई शर्तें तय नहीं थी और न ही मजदूरी। बेगारी के माध्यम से ही दलितों को अधीन बनाया गया। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया और वे पूरी तरह सवर्णों की दया पर ही निर्भर कर दिए गए। वर्ग-विभाजित समाज में शोषण को स्वीकार करवाने के लिए वर्चस्वी वर्गों ने ऐसी प्रथाएं आरम्भ की। सवर्णों पर पूर्णतः निर्भरता ने दलितों की सौदेबाजी करने की क्षमता को भी समाप्त कर दिया। सवर्णों का आदेश ही दलित के लिए आचार-संहिता व जीवन संहिता बन गई। सेवा’ करने का दिया गया अधिकार अन्ततः गुलामी में ही परिवर्तित हो गया। कुछ प्रथाएं इसकी याद दिलाती हैं।
वैसे महार के काम का कोई टाइम-टेबल न था। चौबीस घंटे का बंधा हुआ नौकर। इसे बेगार कहते। बेगारी का कुछ स्वरूप रहा होगा। ऐसा काम करने के लिए विशेष अनुभव या कला की जरूरत न होती। महार जाति के कुछ काम तो गलकर गिर गये। पर कुछ काम गरदन पर जूँ-से पड़े रहे। गांव का सारा लगान तालुके में पहुँचाना, गांव में आये बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, चारा-पानी देना, ढिंढोरा पीटना, गांव में कोई मर जाये तो उस मौत की सूचना गांव-गांव पहुँचाना, मरे ढोर खींचना, लकड़ियां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दुल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना आदि काम महारों के हिस्से आते। इसके बदले मिलता बलुत’।’(पृ.-58)दलितों को बलुत’ ऐसे दिया जाता जैसे कि कुत्ते-बिल्लियों को खाना दिया जाता है। उनके काम का सम्मान करते हुए उसकी महता को रेंखांकित करके नहीं, बल्कि अपनी शान के लिए और पुण्य कमाने के लिए। गांव में दलितों का न होना अपशकुन तो उनका होना गांव की शान क्यों माना जाता रहा है? इसीलिए कि इससे उनके अहंकार की तुष्टि होती है और उनका काम मुफ्त में करने के लिए हाजिर रहते हैं। एक और बात है कि दलित गांव में तभी तक शान बढ़ाते हैं जब तक कि सवर्णों की दया पर रहें। उनसे किसी भी रूप में ऊपर उठ जाएं यह कतई सहन नहीं होता। इसलिए दलितों के साफ -स्वच्छ कपड़े पहनने पर, बाल बनाने आदि पर भी झगड़ा होता रहा है और आर्थिक समृद्धि यह सब करती है। दया पंवार ने बलुत की परम्परा के बारे में बताया
एक साल महारों ने तय कर लिया कि इस बार बंटवारा नहीं किया जायेगा। चारों ओर के चालीस गांवों को भोज देने की उनकी योजना थी। निश्चित ही भोजन के लिए सिर्फ महार-मंडली ही होगी। गांव के पास ही महारों के बलुत का एक बड़ा ढेर लगाया गया। गांव के पटेल की भी इतनी बड़ी ढेरी नहीं थी। सब गांव वालों की आंखें चौंधिया गयीं। अपनी ही मेहनत पर ये महार मस्ती कर रहे हैं, इस प्रकार की प्रतिक्रिया उठने लगी। बस, इस घटना के बाद महारों को बलुत देना बंद कर दिया गया’ (पृ॰-60)आखिर यह कैसे संभव है कि दलित भी उसी तरह के भव्य आयोजन करें जैसे कि गांव के उच्च वर्ग के लोग करते हैं। जब दलित कोई भी ऐसा कार्य करते हैं तो उनको अपना वर्चस्व समाप्त होता दिखाई देता है और वे उसके आधार, आर्थिकता को ही छीन लेते हैं।
शोषण को मान्यता देने वाली व्यवस्था में काम करने वाले लोगों की हालत बुरी होती है। जो काम करता है वह भूखा मरता है और घृणा का शिकार भी होता है। दूसरी तरफ जो वर्ग काम नहीं करता और केवल संसाधनों का, उत्पादन के साधनों का मालिक होता है वह केवल ऐश्वर्य-विलास में डूबा रहता है। बहुसंख्यक जनता के हकों का शोषण करके ही चंद लोग ठाठ कर सकते हैं। श्रम का इस तरह अवमूल्यन किया जाता है कि उनके श्रम को, उनके काम को तुच्छ मानकर कोई अधिमान नहीं दिया जाता। मेहनतकश जनता द्वारा किए गए काम को तो हेय समझा जाता है। निकम्मे-निठल्ले परजीवी वर्ग के काम को अधिमान दिया जाता है। श्रम के प्रति घृणा और अवमूल्यन की अन्ततः श्रमिकों के प्रति घृणा व अवमूल्यन में ही परिणति होती है। मेहनतकश के श्रम के प्रति इस तरह के रवैये को उद्घाटित करने के लिए उनसे किया हर किस्म का व्यवहार भी ऐसा ही होता है।
येसकारी पारी (चौकीदारी) के बदले में दलितों को रोटियां दी जाती थी, औरतें या फिर बूढ़े मांगने जाते थे टोकरी में कभी भी ताजी रोटी न गिरती। हमेशा बासी रोटियां मिलती। कभी-कभी तो उस पर सफेद झिल्लियाँ भी चढ़ी होती। शायद महारिन के लिए आले में रात को ही रोटी संभालकर रख देते होंगे। एकाध उदार महिला अचार की फांक रख देती। तब सहज ही मुंह में पानी आ जाता। माँ दूर से ही दरवाजे से बड़ी दयनीय होकर कहती, रोटी दे मां, येसकरनि को’। पर तीज-त्योहारों में पुण्यपोली’ अवश्य मिलती।’ (पृ॰-71)गांवों में दलित पूर्णतः सवर्ण जमींदारों-किसानों पर निर्भर हैं। इसलिए गांव छोड़ देना दलितों की मुक्ति का रास्ता भी बहुत से विद्वानों-समाज चिन्तकों को नजर आया। स्वयं आम्बेडकर ने भी दलितों को शहरों में जाने को कहा था। यह बात सही है कि शहर में दलित गांव की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र हैं उसके शोषण के रूप में परिवर्तन आ जाता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि गांव से शहर में आ जाने मात्र से ही शोषण समाप्त नहीं होता। चूंकि शोषण एक व्यवस्था के तहत होता है। व्यवस्था हर जगह मौजूद रहती है सामन्ती व पूंजीवादी व्यवस्था का फैलाव सिर्फ गांव तक ही नहीं है बल्कि शहर भी उसकी पकड़ में है। यद्यपि गांव में इसका अहसास जरा तीखे रूप में होता है। शोषण, पूंजीवादी-व्यवस्था के चरित्र की खासियत है इस व्यवस्था के नाश में ही दलितों को व्यवस्था जन्य शोषण व सामाजिक-उत्पीड़न से छुटकारा मिल सकता है। गांवों के अभावों से व सामाजिक उत्पीड़न से छूटकारा पाने के लिए दलित शहरों की शरण लेते हैं। लेकिन शहर भी उनको कोई राहत प्रदान नहीं करते हैं, शहरी जीवन के अभाव, दबाव व तनाव भी उनके लिए कष्टकारी हैं।
शहर में जो दलित हैं वे भी कोई अच्छी हालत में नहीं हैं। शहर में जितना गंदा काम है वह सब दलितों के हिस्से में है। चाहे वह मैला ढ़ोने का काम हो या कूड़ा-कचरा जमा करने का। या फिर शहर के फैक्टरी-कारखानों में, गली-मुहल्लों में ऐसा काम ही इनके हिस्से आता है जिसको कि सवर्ण जातियों के लोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। हथगाड़ी खींचना, हमाली करना। शहरों की गंदी बस्तियों, झुग्गी-झोंपडियों में, रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे ही रहने की जगह मयस्सर होती है। ग्रामीण जीवन में व्याप्त अमानवीय प्रथाओं से पीछा छुड़ाने के लिए शहर में शरण लेने के लिए आए दलितों के लिए शहर में भी नारकीय जीवन ही नसीब होता है। दया पंवार की दादी गांव से बम्बई आई थी। उसके बम्बई आने की कहानी गांव की अमानवीय प्रथाओं को बताती है। (पृ॰-18)
वे सुरक्षा के लिए बम्बई आती है और गंदी बस्ती में रहते हैं दया पंवार ने बम्बई के दलितों की बस्ती के बारे में लिखा है। कि उनका धंधा सारे बंबई का कचरा जमा करने का था। ऐसी हालत में कचरा जमा करने वालों को फ्रलैट में भला कौन रहने देगा? परन्तु इस कारण उन्होंने नरक-से दिन काटे। बाद में मेरे जीवन के उत्साह-भरे दिन उसी गटर में बरबाद हो गये। बरसात में करीब-करीब सबके चूते। सारी छतें टपकती रहती। घमेले (तसला) पतीली जगह-जगह रखे जाते ... इस जलतरंग की आवाज में कब नींद आ जाती, पता भी न चलता।’ (पृ॰-16)रोजगार की तलाश में दलित शहर में आते हैं। इस परिस्थिति ने पूरी पारिवारिक-व्यवस्था को ही चौपट कर दिया है। रोजगार की तलाश में कार्य करने की क्षमता रखने वाले सभी युवक तो शहर में आ जाते हैं। गांव में रह जाते हैं बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां। जिनके अपने बच्चे और पत्नी आ जाती और मां-बाप नहीं आते। उन बूढ़ों की इतनी बुरी हालत होती है कि वे न तो भावनात्मक लगाव के कारण गांव को छोड़ पाते हैं। और न ही वहां उनके गुजारे लायक स्थितियां होती हैं। अकेलेपन, अलगाव व असुरक्षा का शिकार होकर जीते जी ही वे मर जाते हैं।
जावजी बुआ का लड़का बबन अपनी पत्नी व बच्चों समेत बम्बई आ जाता है, लेकिन उसके माता-पिता नहीं आते। उसकी मां भी मर जाती है और पिता अकेले रह जाते हैं, घर में कोई नहीं था। सुबह पानी देने जब पड़ोस की बाई आयी, तब बुढऊ मरा पड़ा दिखा। वैसे अब महारवाड़ा में कर्ता कोई नहीं बचा था। सब बंबई पेट भरने गए थे। बुढऊ मरा, तब महारवाड़ा में एक-दो बूढ़ी विध्वा औरतें। बाकी सब घर बंद। क्या करें वे? बुढऊ को करीब-करीब घसीटते हुए ले गये। गांव के मराठा लोग तमाशा देख रहे थे। महार की लाश को वे कैसे हाथ लगाते? नया कोरा कफन कहाँ था? पुराने बारदाने में ही बुढ़ऊ को लपेटा गया।’ (पृ॰-158)शोषणकारी व्यवस्था ने दलित आबादी को दो हिस्सों में बांट दिया है। एक वे जो काम करने लायक हैं। दूसरे वे जो आश्रित हैं जिसमें बच्चे, स्त्रियां, बूढ़े व विकलांग हैं। काम करने लायक लोगों को शहर अपनी ओर खींच लेता है तो आश्रित लोगों को अपने ही हाल पर छोड़ देता है। इस व्यवस्था में उनका दोहरा शोषण होता है। शहर में श्रम करने वाले अजनबी हैं। शहर उनको पराया समझता है। वे शहरी जीवन को पूरी तरह नहीं अपना पाते। दूसरी तरफ गांव में बची आश्रित आबादी अपनों से बिछुड़ने पर विवश है। उनका जीवन बिल्कुल नारकीय है। शहर में प्रवासी जीवन का अहसास लिए घुटन,असुरक्षा, अकेलेपन व अवसाद का जीवन जीते हुए आसानी से पूंजीवादी व्यवस्था की शहरी बुराईयों का शिकार हो जाते हैं। उनका जीवन नशे या अन्य बुराई की भेंट चढ़ जाता है। गांवों में निर्भरता किसी और पर है तो शहर में किसी और पर। लेकिन है तो पर-निर्भर ही। दया पंवार ने व्यवस्था के इस चरित्र को रेखांकित किया है कि वह दलितों के जीवन को किस तरह लील रही है।
बहुसंख्यक मेहनतकश जनता का शोषण पूंजीवादी व्यवस्था का विशिष्ट गुण है। इसके लिए वह समाज में तरह-तरह के भेदभाव,ऊँच-नीच तो पैदा करती ही है साथ ही मेहनतकश जनता में तरह-तरह की पूंजीवादी बुराईयां भी पैदा करती है। इन बुराईयों से ही उनको अपना गुलाम बना लेती है। चाहे जुआ-मटका हो,रंडीबाजी या फिर नशा खोरी। एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था इनके माध्यम से ही श्रमिक वर्ग में भी पूंजीवादी संस्कार डालती है। पूंजीवाद की बुराईयां पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रमिकों में संक्रमित होती रहती हैं। शोषण की चक्की चलती रहती है। दया पंवार के पिता ने भी स्पिरिट पीकर अपनी जान दे दी तो उनके चाचा ने भी। स्पिरिट के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों को अन्दर ही अन्दर चाटती रहती है। उनके मौत का सामान तैयार करती रहती है।
किसी समाज व समुदाय का रहन-सहन, खान-पान, उसके काम करने के तौर-तरीकों पर ही निर्भर करता है। दलित अन्ततः श्रमिक वर्ग ही है। उसकी संस्कृति भी श्रमिक संस्कृति है। जिसमें किसी प्रकार का दोगलापन नहीं है। मेहनतकश वर्ग की नैतिकता में, सोच और व्यवहार में कोई अन्तर नहीं होता। यदि वह समाज किसी बात को बुरा मानता है तो उस बुराई को भी नहीं छुपाता है। इसके विपरीत शोषकों की संस्कृति में,व्यवहार में,नैतिकता में दोगलापन विद्यमान होता है। यह दोगलापन उनके वर्गीय अस्तित्व की जरूरत भी है। चूंकि आम जीवन में शोषक वर्ग ऊपरी तौर पर मेहनतकश जनता का खैरख्वाह भी नजर आता है। इसके लिए तरह-तरह के प्रपंच करता है, ढोंग करता है। वास्तव में वह शोषक व जनता का दुश्मन होता है। इसलिए उसके हर पहलू में दोगलापन नज़र आता है।
ज्ञान से वंचित करके ही दलितों को गुलामों का सा जीवन जीने पर मजबूर किया गया। शूद्रों के लिए शिक्षा व ज्ञान का निषेध किया। यदि कोई शूद्र ऐसा करने की कोशिश करे तो उसके लिए दण्ड का प्रावधान करके ही मनु ने शूद्रों पर शिकंजा कसा। सदियों पुराने इन विचारों को शूद्रों ने भी अपने लिए फायदेमंद मान लिया। शिक्षा के अधिकार को ही छोड़ दिया। लेकिन ज्ञान प्राप्त करना इस विचारधारा को समाप्त करने के लिए निहायत जरूरी है। इसलिए डा.भीमराव आम्बेडकर ने दलितों को संदेश में शिक्षा प्राप्त करने को मुख्य माना। अपने नारे- शिक्षित बनो’ संगठित हों, संघर्ष करों’ में शिक्षा को प्राथमिकता दी है। शिक्षा के बाद ही शोषण,दमन-उत्पीड़न व अन्याय के दुष्चक्र को समझा जाता है। शिक्षा ही दिमागों में घुसे प्रतिक्रियावादी संस्कारों को बाहर निकालती है। शिक्षा को लेकर जहां डा. आम्बेडकर के आधुनिक विचारों को स्वीकार करने की ललक है, वहीं पुराने संस्कार भी जमे हुए हैं।
मुझे आगे पढ़ाया जाये या नहीं, शायद ये विचार मां के सामने रहे हों। महारवाड़ा के उमा दादा की मां को सलाह-सरजू, लड़के को क्यों स्कूल भेजती हो? हम क्या ब्राह्मण हैं? गली-कूचे घूमेगा और दाना-पानी कमा लेगा। नहीं तो जायेगा ढोर चराने। चार पैसे लायेगा। तुम्हारे नोन-तेल की व्यवस्था हो जायेगी।
मां ने उमा दादा की सलाह नहीं मानी। बच्चे को पढ़ाना है, उसे बड़ा साहब बनाना है, यह प्रेरणा उन दिनों उसे किसने दी होगी? बाबा साहब कहतेः महारिन के मन में अपने बेटे के लिए कौन-से सपने होते हैं? यही कि वह चपरासी हो या सिपाही। पर ब्राह्मणी की इच्छा होती है, उसका बेटा कलेक्टर बने! ऐसी इच्छाएं महार मां की क्यों नहीं होती?’ शायद इसी भाषण का मां पर अनजाने में कोई असर हो गया होगा। मैं ताल्लुके गांव के स्कूल में जाने लगा। सुबह-शाम तीन मील की परेड़ करने लगा।’ (पृ॰-54)ज्ञान, मानव की महानतम खोज है। दलितों को इस खोज से वंचित करके ही ब्राह्मणवाद स्थापित हो सका है। जिस तरह सम्पत्ति का कुछ लोगों तक सीमित करना ब्राह्मणवाद की मुख्य विशिष्टिता है। उसी तरह ज्ञान को भी कुछ लोगों तक सीमित करके रखना उसकी विशिष्टता है। ज्ञान व शिक्षा के प्रति विभिन्न वर्गों के दृष्टिकोण से तथा विभिन्न वर्गों की ज्ञान व शिक्षा तक पहुँच के स्तर से यह सहज ही उद्घाटित हो जाता है कि वर्ग-विभक्त समाज में शिक्षा व ज्ञान का चरित्र भी वर्गीय ही होता है। समस्त स्थितियों के प्रति अपेक्षा ही शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में झलकती है। श्रमिक वर्ग के दिमाग में यही बात घुसाई जाती है कि काम करना और गुजारे लायक चार पैसे कमाना ही उसकी जिन्दगी का अन्तिम लक्ष्य है। अतः उतना ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त है जितना कि काम करने लायक हो जाए। यही विचार शोषणकारी-व्यवस्था प्रकारान्तर से दलित जीवन-दर्शन का हिस्सा बना देना चाहती है।
सामाजिक स्थितियां व विचार परिवर्तनशील हैं। यथार्थ की गतिशीलता को पकड़ने वाला लेखक ही समाज की सही तस्वीर पेश कर सकने की क्षमता रखता है। वही समाज के भविष्य की दिशा की ओर संकेत कर सकता है। दया पंवार दलितों के बदलते जीवन-यथार्थ को देखते हैं। वे उनमें आ रही जागरूकता,चेतना व परिवर्तन को भी रेखांकित करते हैं। समाज-सुधार से प्रभावित हुए दलितों ने व्याप्त प्रथाओं को मानना बंद कर दिया। दलितों को पहले गुलामगिरी का अहसास नहीं था अब यह अहसास हो रहा था। मरे जानवरों का मांस खाना भी बंद कर रहे थे। और गांव का काम करना भी बंद कर दिया था, जो उनको बेगार में करना पड़ता था। मराठा दुल्हे की अब नगर द्वार पर आरती नहीं उतारी जाती। गांव के मेले में बजाना बन्द कर दिया गया। मरी-मां की गाड़ी एक गांव से दूसरे गांव ले जाना बन्द हो गया।’
दलितों को समाज की मुख्यधारा से बहिष्कृत-सा कर दिया गया है। प्राकृतिक संसाधनों व मानवीय उपलब्धियों का अंश भी भोगने नहीं दिया जाता। हर स्तर पर उनका जीवन घृणा की चीज बना दिया गया है। सवर्ण के पास उनके लिए मात्र घृणा है जो बार-बार नजर आती है। व्यवहार, संस्कार व विचार में। मनुष्य की अधिकाश उपलब्धियों और सभ्यता की निर्मितियों में दलितों-श्रमिकों का महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन शोषणकारी ब्राह्मणवादी-व्यवस्था ने उनको मानव-सभ्यता के विकास के फल चखने से वंचित ही रखा। उनको मात्र काम करने वाले हाड़-मांस के पुतलों में ही बदल दिया। जिनकी तमाम भावनाएं, आकांक्षाएं कुचल दी गई। उनके लिए हर जगह एक दीवार खींच दी गई। रहने तक की जगह भी अलग दी गई। विचार करने की बात है कि दलितों के बिना भी कोई गावं नहीं है। और वे गांव का हिस्सा भी नहीं। गांव में दूर हटकर दलित बस्ती का होना दलितों की हैसियत व स्थिति का सूचक है। भारत के छः लाख गांवों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसमें दलित न हों। ऐसा भी कोई गांव न होगा जिसके बीच में दलितों की हवेलियां हों। अपने गांव के बारे में दया पवार ने लिखा कि
गांव और महारवाड़ा से सीधेएक रास्ता जाता है। वही गांव और महारवाड़ा का बार्डर है। यह गांव की गोद-सा है। एक टीले पर महारवाड़ा। गांव के निचले हिस्से पर। ऐसा कहते हैं कि हवा और नदी का पानी उच्च जातियों को शुद्ध मिले,इसीलिए गांवों की रचना प्राचीन काल से इसी तरह की गई। सबके घरों के दरवाजे गांव के विरूद्ध दिशा में। बचपन में देखा महारवाड़ा याद आता है।’
गांव के सार्वजनिक उत्सवों-कार्यों में भी दलितों को शामिल नहीं किया जाता बोहड़ा’ में महार लोगों को शामिल नहीं किया जाता (पृ.-111)

कहने को तो उत्सव-त्यौहार गांव के कहे जाते लेकिन इन उत्सवों, त्यौहारों, दंगल-कुश्तियों आदि में महारों को शामिल नहीं होने दिया जाता। पांडवा’ के त्योहार के अवसर पर दस-बारह साल के लड़कों को सजा-ध्जा कर झांकियों की तरह कंधें पर उठाकर घुमाया जाता। इस उत्सव में महारों को बाजा बजाना होता था। वह भी बिल्कुल मुफ्त। लेकिन महारों के लड़कों को इस खेल की अनुमति न होती। वे दूर खड़े रहकर सिर्फ तमाशा ही देख सकते थे। किसी महार के लड़के के मन में लेझिम खेलने का जोश आता तो भी उसे हाथ में लेझिम देना पाप समझते। हम महारवाड़ा के लड़के उदास हो जाते। गांव के मेले में दंगल का हंगामा रहता। मांगों की डंकों की आवाज़ पर कुश्तियां होती। गांव-गांव के पहलवान जमा होते। छोटे बच्चों की कुश्तियों रेवड़ियों-मिठाइयों पर लगाई जातीं। बाद में पैसे,नोट, जरी की पगड़ी, चाँदी का कड़ा-ऐसे बढ़ते भाव से कुश्तियां होतीं। महार पहलवान कितना भी बलवान होता,उसे सवर्ण पहलवानों के साथ जोड़ करने की इजाजत नहीं थी। यदि कोई गलती से अखाड़े में उतर गया और बाद में बात खुल गई तो उसे मरते दम तक पीटते। इसलिए कोई भी महार इस झंझट में न पड़ता। महारों की कुश्ती सिर्फ उन्हीं के जाति वालों के साथ होती।’ (पृ॰-71)
खेलों में सवर्ण व दलित एक समान नहीं हो सकते। समाज में सवर्णों का सामाजिक-वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर स्तर पर यह भेदभाव जरूरी है। एक तो दलित कुश्ती के दौरान छू लेगा और जाति-प्रथा व अस्पृश्यता का अमानवीय किला भेदा जाएगा। दूसरी संभावना यह भी है कि यदि कथित उच्च जाति के पहलवान को कथित निम्न जाति का पहलवान कुश्ती में हरा दे तो जातिय दंभ का क्या होगा?उस कथित सर्वोच्चता को बनाए रखना तभी संभव है जबकि ऐसा कोई भी अवसर न आ पाए कि सवर्ण व दलित कुछ मिलकर करें। जाति-प्रथा ने समाज को इस तरह से खानों में बांटकर रखा है कि वे एक जगह होते हुए भी कई स्तरों में बंटे हैं। एक गांव के तौर पर वे एक ईकाई हैं। लेकिन एक ही गांव के होने के बावजूद तथा एक ही वर्ग के होने के बावजूद भी वे एक-दूसरे से अजनबी हैं। एक-दूसरे से मिल नहीं सकते, बल्कि शत्रुवत हैं। जाति प्रथा ने सामाजिक स्तर पर भेदभाव को स्थायी बनाकर भारतीय समाज के मेहनतकश वर्ग की एकता को भंग किया है।
दलितों के प्रति यह घृणा सदियों की है। ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के रचियता मनु ने शूद्रों के लिए ज्ञान, सत्ता व धन का तो अधिकार दिया ही नहीं। उनको ब्रह्म के पैरों से उत्पति मानकर समाज के तो सबसे निचले स्थान पर दर्जा दिया। उनको हर तरह से घृणित मानने का विधान दिया। कोई व्यक्ति सवर्ण है या अवर्ण इसकी पहचान के लिए भी कुछ चिह्न बनाए गए। उच्च वर्ग के गले में सफेद धागा जनेऊ’ डाला गया तो निम्न वर्ग के गले में काला धागा। यहां तक कि निम्न-वर्ग के लोगों को उस तरह की काट के वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं था,जिस तरह के सवर्ण समाज पहनता था। केवल छोटी धोती ही पहन सकते थे। यदि कोई दलित इस कथित सामाजिक आचार-संहिता का उल्लघंन करता तो उसको सजा मिलती थी। व्यक्ति की सबसे पहली पहचान उसका नाम है। दलितों व सवर्णों के नामों की भाषा,अर्थ में भी अन्तर है। उनके नाम तक से पता चल जाता है कि वह दलित श्रेणी से है।

शेक्सपियर कहता है- नाम में क्या रखा है?’ पर मेरे ही हिस्से यह दगड़ू’ नाम क्योंकर आये। धरती के जिस टुकड़े पर जन्म लिया, वहां सभी के इसी प्रकार के नाम हैं- कचरू, घोडंया, जबा ... सब इसी तरह। किसी मां ने बडे़ प्यार से गौतम नाम रखा कि उसका तत्काल गवत्या’हो जाता। यही परंपरा थी। मनुस्मृति’ में शूद्रों के नामों की सूची देखी-इसी प्रकार तुच्छतादर्शी। ब्राह्मणों के नाम विद्याधर, क्षत्रियों के बलराम,वैश्यों के लक्ष्मीकांत और शूद्रों के शूद्रक,मातंग। वही परंपरा बीसवीं सदी में भी जारी रही।’ (पृ॰-12)
जातिप्रथा जनित अस्पृश्यता दलितों के शोषण करने का औजार है। उनमें हीन-भावना पैदा करके दबाने का साधन है। वर्ण की पवित्रता खाना और पूजा में निहित है। भोजन की पवित्रता और धर्म-की पवित्रता का दिखावा करने के लिए दलितों की छाया से भी बचा जाता है। लेकिन सोचने की बात है कि उच्च वर्ण के लिए सारे ऐशो-आराम के साधन तो दलित ही पैदा करते हैं। उस अनाज को खाते हुए सवर्णों का न तो धर्म भ्रष्ट होता है और न ही छूत लगती है। लेकिन दलितों के छूने मात्र से ही वे अपवित्र होने का ढोंग करते हैं।
शोषण व सामाजिक-उत्पीड़न का तीखा अहसास दलितों को रहा है। इसको समाप्त करने के लिए यह अहसास ही विद्रोह का रूप भी धारण करता है। कभी मजदूरी को लेकर तो कभी पानी को लेकर या जीवन के लिए जरूरी अन्य सवालों को लेकर दलित-संघर्ष करते रहे हैं। इन संघर्षों में कामयाब नहीं भी हुए होंगे। जब कभी उनका संघर्ष जीत में बदला है तब इसको एक अविस्मरणीय घटना बनाई है। वे शोषण और सामाजिक-उत्पीड़न से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहे हैं।
सामाजिक-उत्पीड़न से मुक्ति की कामना की सघनता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है जब ईसाई तहसीलदार गांव आता है - गांव के चार-पांच अगुवा लोगों पर मुकद्दमा दायर किया गया। सबसे माफीनामा लिखवाया गया। भविष्य में ... सतायेंगे नहीं, उनका रास्ता बंद नहीं करेंगे, इस प्रकार का लिखित करारनामा अगुवा लोगों से लिखवा लिया गया। बहुत दिनों तक जावजी बुआ के पास टीन के चोगे (ट्रंक)में ये कागजात रहे। जावजी बुआ इसे प्राणों से लगाकर रखते। बाद में जब मैं पढ़-लिख गया, तब वे मुझे पढ़ने के लिए देते। मुझसे पढ़वा लेते। उसे वे मुचलका’ या ऐसा ही कुछ कहते। उसकी छाती गर्व से फूल जाती। जिस प्रकार सोने की मुहरों का खानदानी हंडा अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा जाता है, ठीक उसी प्रकार उन्होंने यह अपने बेटे को, मरते समय सुपुर्द कर दिया।’ (पृ॰-64)सवर्णों के जुल्मों-अत्याचारों को दलित चुपचाप सहन नहीं करते जाते बल्कि परिस्थितियों व अपनी शक्ति के अनुसार इसका विरोध भी करते हैं उसके तरीके अलग-अलग होते हैं। मसलन सवर्णों के जानवरों को जहर खिला देना। (पृ॰-61) गांव वालों के सामने अकड़ भी जाते हैं और बहुत आक्रामक भी होते हैं।
यदि गांव वाले बिगड़ें और थोड़ी तू-तू मैं-मैं हुई तो यह-मंडली अपना आपसी वैर भूल एक हो जाती। ढोर फाड़ने के चमकदार छुरे पंचायत के पास तरतीब से रखते। एक-एक की तोंद फाड़ देंगे। महारों का आक्रामक रूख होता। इस पर गांव वाले महारों का बहिष्कार करते। गांव बंद। रास्ता बंद। मेहनत-मजदूरी बंद। ऐसे समय गांव का एकाध चतुर आदमी समझौते की कोशिश करता।
ऐसी ही एक समझौते की घटना याद आ रही है। गांव और महारवाड़ा में बेहद तनाव फैल गया था। महारवाड़ा की सीमा पर ईंट-पत्थरों का ढेर लगा दिया गया। हरेक ढेर पर प्रत्येक घर की स्त्री कमर कस कर खड़ी थी। अब खून-खराबा होगा, इसलिए महारों को मंदिर में बुलाया जाता है। नंग-धडंग, फटे-पुराने कपड़ों में लोग कंधे पर चमचमाते छुरे लेकर मंदिर के सामने मैदान में खड़े हो गये। पटेल कुलकर्णी और गांव के प्रभावशाली लोग मंदिर में बैठे थे। वहीं से संवाद शुरू होता है।
अपने आप को समझते क्या हो ?
नौजवान, काला-कलूटा, हट्टे-चट्टे शरीर वाला काशावा बोलता है
-हम राजा हैं!’
किस के?’
हम अपने ही राजा हैं?’
इस तरह इस दिन समझौता न हो सका’ (पृ॰-62)

सवर्ण-दलित का यह संघर्ष असल में वर्ग-संघर्ष का ही रूप है। सवर्ण जमींदार सबसे पहले मेहनत-मजदूरी बंद करता है। संघर्ष का यह रूप जीवन की बुनियादी जरूरतों को लेकर ही अधिक होता है। जिसमें अनाज, पानी, जमीन आदि मुख्य हैं। दलितों-सवर्णें में पानी को लेकर अधिक संघर्ष हुए हैं।
ब्राह्मण का सुरक्षा कवच खान-पान की पवित्रता व कथित धर्म-स्थलों-देवों की पवित्रता है। इसलिए दलितों को उनके हीन होने का अहसास इन्हीं के माध्यम से ही कराया गया है। दोनों में अपनी स्थिति के लिए संघर्ष चलता रहता है। सवर्ण-हमेशा ही ऐसे मुद्दे उठाकर दलितों का शोषण करता रहा है और उनको बुनियादी व मानवीय अधिकारों से वंचित करता रहा है। और दलित इसके विरूद्ध संघर्ष करते रहे हैं। ऐसी घटना का जिक्र पंवार ने किया है
पानी लेने के लिए आते-जाते महार स्त्रियों की छाया हनुमान पर पड़ती। भगवान अपवित्र हो जाता है, इसलिए गांव वालों ने एक बार रास्ता बंद कर दिया। कुएँ पर यदि दूसरे रास्ते से जाना हो तो तालाब के किनारे-किनारे कीचड़-से लथपथ होकर जाना पड़ता, एक मील तक। यह रास्ता महारों के लिए खुल जाये, इसलिए महारों ने संघर्ष किया। कोर्ट-कचहरी हुई। हम अपनी राह नहीं छोड़ेंगे। यदि आप आवश्यक समझें तो हनुमान की स्थापना दूसरी ओर कीजिये।’ इस प्रकार का आक्रामक पैंतरा महारों का होता’ (63)
सवर्णों का जातीय अहंकार इससे संतुष्ट होता है कि दलितों की जीवन स्थितियां पशुओं की तरह की हों। यदि वे इस स्थिति को खुशी से स्वीकार कर लें तो अच्छा। यदि वे स्वीकार न करें और अपना हक मांगने के लिए संषर्ष करें तो भी कुछ इस तरह की गुंजाइश रख ली जाती है जो वास्तव में तो झूठी होती है। लेकिन दिखावे के तौर पर अपनी सर्वोच्चता बनाए रखता है। हालांकि यह बहुत ही हास्यास्पद भी लगता है। औरंगपुर में पानी की घटना का वर्णन किया है
महार लोग बरसात में नाले का ही पानी पीते। नाला भी आधे मील पर था। गर्मी में नाला सूख जाता। उस समय उनकी बड़ी दुर्दशा होती। महार-मांग स्त्रियां घंटों तक बाल्टी-भर पानी के लिए राह देखती रहती। किसी को दया आती तो एकाध बाल्टी डाल देता। वैसे कानून महारों के पक्ष में था। उन्होंने कोर्ट में आवेदन-निवेदन करके देखा, पर सरकार नहीं पिघली। अंत में सब संगठित हुए और अपनी बाल्टी कुएं में डाल दी। स्त्रियां कमर कसकर सबसे आगे। गांव में खलबली मची। संपूर्ण गांव के लिए एक अलग हौद की कल्पना सामने आयी। परन्तु हमें अलग नल नहीं चाहिए, हम गांव के ही कुएं पर पानी भरेंगे,’ यह जिद्द महार-मंडली ने नहीं छोड़ी। अंत में पंचायत बैठी। महार-मंडली को उसी कुएं में अलग घिरी लगाने की अनुमति दी गयी। है न अजीबो गरीब बात। नीचे कुएं में मराठों और महारों की बाल्टियां आपस में मिल जातीं परन्तु एक ही घिरी में रहने से उनकी जाति के अहंकार को ठेस लगती। आज भी आपको वहां अलग-अलग घिरी मिलेंगी।’ (पृ॰-110)
भारतीय समाज में जाति का भेदभाव इतना गहरा बैठा हुआ है कि दलितों में भी वह यूं का यूं रहा। ब्राह्मणवाद मात्र उच्चवर्ग में नहीं, बल्कि दलितों के सोच-विचार में भी इस तरह ढल गया मानो कि इन्हीं का दर्शन हो। दलित नेताओं व सुधारकों के ऐन नाक के तले ही जातिवाद पनपता रहा। जिसने अन्ततः दलित एकता को नहीं बनने दिया और घोर स्वार्थों के कारण पूरा दलित-आन्दोलन जातिवाद का शिकार होकर रह गया। बोर्डिंग में रहने के दौरान हुए अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करते हुए दया पंवार ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। जब पवार उस बोर्डिंग में गए तो
पहले ही दिन लड़के टोली बनाकर मुझे देखते हुए कुछ कानाफूसी करने लगे। जिस कमरे में मेरा नम्बर लगा, वहां ऊँची कक्षा का एक हट्टा-कट्टा लंगड़ा लड़का रहता था। उसे दाढ़ी-मूँछ भी आ चुकी थी। उसने मुझे अपने दबाव में धर दबोचा, तू हमारी पंगत में नहीं बैठ सकता। हाल के दरवाजे के पास ही बैठना पड़ेगा!’ बाकी लड़कों ने भी उसकी हां में हां मिलायी।... शिकायत का सवाल ही न उठता। बोर्डिंग का सुपरिटेंन्डेंट भी उन्हीं की जाति का था। अपना लोटा-बर्तन मांज-चमकाकर भोजन हाल की ओर गया। वहां उन्होंने ताकीद की, देखों तुम महार हो। आगे हाल में घुसे तो तेरा कीमा बना देंगे।’ मैं गुमसुम हाल के दरवाजे के पास बैठ जाता हूँ। थोड़ा अन्तर छोड़ना नहीं भूलता। मैं पंगत के लड़कों को देखता हूँ। मेरी ओर सभी आँखें तरेरते हैं’
छात्रवास में हर शनिवार को मारुति के श्लोक पढ़े जाते। साथ ही भजन भी, वैष्णव जन तो तेणे कहिये जो पीर परायी जाणे रे।’ गांधी जी का यह प्रिय भजन वहीं सुन पाया। वैसे मेरी आवाज अच्छी ही थी। एकांत में जब कभी होता, बहुत देर तक गाता। छात्रावास में भजन गाने में सबसे आगे होता, मछूआरे के लड़के मेरे बाद साथ देते हुए गाते। परन्तु प्रसाद बांटते समय नारियल की थाली मेरे हाथों में कभी नहीं दी जाती। मैं यह अपमान अपने गले के नीचे उतारता। ऐसे समय गांव के हरि का कुष्ठ रोगी बाप विशेष रूप से याद आ जाता। मैं अपने हाथों को निहारता। मेरे हाथों में कोढ़ तो नहीं फूट निकला? खूब जोर से चीखने की इच्छा होती। मुंह दबाकर मुक्कों की मार’ क्या इसी को कहते हैं? यदि गांव के ढोर चराता, ऐसे डंक तो न चुभते। सच? क्योंकर हुई पुस्तकों से पहचान? अच्छी भी नदी किनारे की गोशाला उन दिनों इसी तरह लगाता’ (पृ॰98-99)
जाति का कोढ हाथों में नहीं चिपटा, बल्कि दिमाग में चिपटा है। वह पुस्तकों से पहचान से पैदा नहीं हुआ, बल्कि पुस्तकों में तो इस भेदभाव के अहसास तीखा किया है। यह कोढ जोर से चीखने या कोसने से नहीं समाप्त होता बल्कि इसके लिए हिम्मत करके बराबरी के व्यवहार की मांग करने की जरूरत है। तुकाराम शिरकांडे की तरह व्यवहार में इसको तोड़ने की जरूरत है जिस तरह वह पहले ही दिन जब वह भोजन के लिए हाल में जाता है, तब मछुआरों के लड़कों के साथ सटकर आराम से बैठता है। बोर्डिंग में तहलका मच जाता है।’ (पृ॰-103) इस तरह दया पंवार ने सही ही दर्शाया है कि उनकी तरह दब्बूपन से, स्वयं को कोसने व परिस्थितियों के आगे झुक जाने व शारीरिक बल से डर जाने की बजाए तुकाराम शिरकांडे की तरह सीधे पंक्ति में सटकर बैठने की हिम्मत करने से ही बराबरी का व्यवहार मिल सकता है। अपनी जाति से हुक्का-पानी बंद कर देंगे, सामाजिक भाई चारा तोड़ लेंगे या लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे - इन सबसे घबराकर तो कुछ सुधार नहीं हो सकता। प्रगतिशील विचारों के ब्राह्मण अध्यापक देशपांडे की तरह अपने बेटे के लिए महार लड़की से शादी करने जैसे साहसी कदम उठाकर ही जातिय भेदभाव पर प्रहार किया जा सकता है। (पृ-150)
जातिप्रथा की ऊंच-नीच के रूप में ब्राह्मणवाद दलितों में भी गहरे में पैठा हुआ है। एक दलित-जाति दूसरी दलित-जाति को अपने से निम्न समझती है और अछूत समझती है। जातिवाद का यही व्यावहारिक रूप है कि कोई जाति समाज के जिस भी स्तर पर है, सोपान पर है वह अपने से ऊपर वाली जातियों से तो दया की भीख मांगती है, उसका सहयोग एवं बराबरी पाना चाहती है लेकिन अपने से नीचे के सोपान पर माने जाने वाली जाति से उसी तरह घृणा करती है व उसके प्रति उसी तरह का हिंसक व अमानवीय व्यवहार करती है जैसे कि उच्च कही जाने वाली जाति उसके प्रति करती है। विडंबना ही है अस्पृश्यता का दंश झेलती जाति दूसरी के प्रति वैसा ही व्यवहार करती है। पर चमार हमारे कुएं का पानी कभी न पीते। वे महार के पानी से छुआछूत मानते। चमार परिवारों की औरतें मराठों के कुओं पर एक घड़ा पानी के लिए भीख मांगती बैठी रहती। मन में बड़ी उथल-पुथल मचती।’ (पृ॰-62)
सभी उच्च जातियों के धार्मिक व शादी-विवाह के कर्मकाण्डों को प्रायः ब्राह्मण ही अंजाम देते हैं और ब्राह्मणों का दर्जा अन्य सभी जातियों से ऊपर है। लेकिन महाराष्ट्र के महारों के ये कर्मकाण्ड भाट महार करते हैं जिनको कि महार अपने से निम्न समझते हैं।
जिस प्रकार सवर्णों की सारी विधि ब्राह्मण पुरोहित करता है, वैसे ही उस जमाने में महारों की विधि भाट करता था। यह भाट तालुके में रहता बच्चों का नामकरण, शादी-ब्याह इत्यादि काम भाट ही करता था। वैसे ये भाट जाति से महार ही थे। परन्तु इन्हें महार लोग छोटा समझते। दरवाजे पर आने के बाद रावसाहेब, पुण्य महाराज’ इस तरह पुकारते।’ (पृ॰-33)
इसीप्रकार मनोरंजन के बारे में भी दया पंवार ने लिखा है
रायरंद’ का खेल। ये रायरंद ऊँट पर सवार हो साल में एक बार आते। उनकी विशेषता थी कि वे न गांव में ठहरते, न गांव वालों का मनोरंजन ही करते। वे केवल महारों का मनोरंजन करते। मुझे आज भी आश्चर्य होता है। जो महार गांव के अमीरों का मनोरंजन करते, उनका भी मनोरंजन करने वाला कोई होता है। भारतीय समाज व्यवस्था की उलझी हुई बुनावट देखकर मेरी विचार शक्ति शून्य हो जाती है। इस तरह सबका अनजाने में ऐ पाला हुआ अहंकार। शायरंद’ पंचायत में ही ठहरते।’ (पृ॰-72)
जिस तरह निम्न जाति के लोग उच्च जाति की दया पाने के लिए उनकी तारीफ करते हैं और प्रशस्तियां गाते हैं उसी तरह ये रायरंद’ भी महारों की तारीफ करते नाचते समय बड़े तन्मय होकर कहते- तुँबड़ी-भर दे दो न, वो बाजीराव नाना!’ अगुओं के सिर पर वे नारियल पटकते। गांव के अगुओं की वे तारीफ करते। उनकी भाषा में माधुर्य होता। शब्द-संपति की वे वर्षा करते।’ (पृ.-73)
पितृसत्ता ब्राह्मणवाद की मुख्य विशेषता है। इस व्यवस्था के जनक मनु ने जिस तरह दलितों को ज्ञान से, शक्ति से और अधिकारों से वंचित किया था उसी तरह अपनी कथित आदर्श-व्यवस्था में स्त्री को न वर्ण में स्थान दिया, और न उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया। जिस तरह दलित को अन्य वर्णों की सेवा करने का ही दायित्व सौंपा उसी तरह स्त्री को भी पुरूष की सेवा करने का ही दायित्व सौंपा। जिस तरह शूद्र पूरी तरह उच्च वर्णों की दया पर निर्भर था, उसी तरह स्त्री को भी पुरूष की दया पर छोड़ दिया। ब्राह्मणवाद का यह कोढ दलित समाज में भी फैला है। दलित समाज में भी पुरूषवाद उसी तरह फल-फूल रहा है जिस तरह उच्चवर्ग में। इस तरह स्त्री का दोहरा शोषण-उत्पीड़न है दलित होने के कारण और स्त्री होने के कारण। दया पंवार ने अछूत’ में दलित समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी व अमानवीय स्थिति को मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है।
दलित समाज चूंकि गरीब है, इसलिए परिवार के सभी सदस्यों को पुरूष-स्त्री, बूढ़े-बच्चे सभी को काम करना पड़ता है। तभी उनको किसी तरह पेट भरने लायक अनाज मिल पाता है। लेकिन पुरूषों को तो फिर भी कई तरह की छूट मिल जाती है परन्तु स्त्रियों को हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। घर की पूरी जिम्मेदारी उनकी होती है। इसलिए घर का पोषण करने का सबसे अधिक दबाव औरतों पर आता है। घर का चुल्हा-चौंका, व्यवस्था, बच्चों का पालन-पोषण, मेहमाननवाजी तथा पति की सेवा-सुश्रूषा की पूर्णरूपेण जिम्मेदारी औरतों की होती है। लेकिन घर की हालात खस्ता हाने के कारण वे साधन जुटाने के लिए भी काम करती है। घर और बाहर के काम के बीच वे पिसती हैं। परन्तु उनकी मेहनत की कोई गिनती नहीं है। काम करते हुए तो स्त्री होने के नाते तो उनको अपमान सहन करना पड़ता है पर इतना काम करने के बावजूद भी परिवार में उनको सम्मान नहीं मिलता।
दया पंवार ने इसे बहुत ही यथार्थपरक ढंग से व्यक्त किया है।
पुरूष हमाली (पुरूष) करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। स्त्रियों को कोई भी परदे में न रखता। उलटे पुरूषों की अपेक्षा वे ही अधिक खटती थीं। शराबी पति उन्हें कितना भी पीटें, वे उनकी सेवा करती। उनका शौक पूरा करतीं। सड़कों पर पड़ी चिंदियां, कागज, काँच के टुकड़े, लोहा-लंगर, बोतलें बीन कर लाना, उन्हें छांट-छांट कर अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धंधा था। वहीं पास ही मंगलदास मार्केट में कपड़े का व्यापार चलता था। उन दुकानों से पेंफके गये कागज आदि औरतें इकट्ठा करतीं। सब की अपनी-अपनी दुकानें तय थीं। कचरा उठाने के लिए झगड़े होते। वहाँ की दुकानों के नौकरों को छोटी-मोटी रिश्वत भी दी जाती। कुछ औरतें पास के ही वेश्यालय में वेश्याओं की साड़ियाँ धोतीं। कीमा-पाव से ऊबी वेश्याओं के लिए कुछ औरतें बाजरे की रोटियां और रायता पहुँचाती। शौकीन ग्राहक इन आयाओं की ही मांग कर बैठता। ऐसे समय कांच-सी इज्जत बचाने के लिए वे सिर पर पैर रखकर भागती।’ (पृ॰-14)
पुरूष-प्रधान समाज में स्त्री को मात्र भोग की वस्तु समझा जाता है, उसके साथ एक ही संबंध हो सकता है यौन का, सैक्स का। बाकी सब रिश्ते इसके आगे कमजोर पड़ जाते हैं। विडम्बना तो यह है कि यौन-संबंधों में स्त्री की इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। महारवाड़ा में घटी घटना स्त्री की समाज में हैसियत को उद्घाटित करती है।
एक स्त्री का पति बम्बई में नौकरी करता है और वहां मकान की तंगी के कारण उसे अपने साथ नहीं रख सका। उस स्त्री के ससुर आदि यानी लड़के के पिता विधुर थे। वह एक रात अपनी पुत्र-वधु के बिस्तर की ओर बढ़ता है लेकिन वह स्त्री विरोध करती है। स्त्री के मायके वालों को और उसके पति को बुलाया जाता है। पंचायत में उसका पति यह प्रश्न कुछ अलग ढंग से पेश करता है। वह कहता है,मैंने इसे अपनी औरत के रूप में अपनाया है। यह मेरे और बाप के साझे की है। मैं अपने बाप का दिल नहीं दुखा सकता। मेरा ससुर चाहे तो अपनी लड़की को ले जा सकता है।’ (पृ॰-92) इस पति के यह विचार सब कुछ स्वयं ही कह देते हैं कि एक औरत की क्या हैसियत है, उसके प्रति उत्तरदायित्व क्या है? और संबंधों में नैतिकता क्या है?
स्त्री की कोई हैसियत ही नहीं है। वह पूर्णरूपेण पुरूष की इच्छा पर गुजारा करती है। शादी के बाद उसे छोड़ने के लिए पुरूष को कोई विशेष कारण ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे पीटने के लिए किसी कारण या बहाने की जरूरत नहीं है। पुरूष उसे पीटना दुत्कारना व अपमानित करना तो अपना अधिकार ही समझता है। ऐसा करते वक्त न तो उसे नैतिकता कचोटती है और न ही कोई लोक-लज्जा वह दर्शाता है। बल्कि सरेआम स्त्री को पीटकर वह ज्यादा सम्मानित व गौरवान्वित महसूस करता। स्त्री के प्रति उसकी सहनशीलता, सहानुभूति, मानवीय करूणा जवाब दे जाती है। अपने चाचा तात्या के व्यवहार से दया पंवार ने इस पुरूष ग्रंथि को उद्घाटित किया है।
अगस्ती की यात्रा में हम सब गए थे। महारकुंड के पास हम सबने डेरा जमाया। इस समय एक काली-सांवली महिला जहां हम बैठे थे, वहां लगातार चक्कर लगा रही थी। मां उस औरत को पहचान लेती है। वह तात्या की पहली पत्नी थी जिसे उन्होंने छोड़ दिया था। तात्या को क्या महसूस हुआ होगा, पता नहीं। वे एक झटके के साथ उठते हैं। सामने गन्ने की गाड़ी थी। उस गाड़ी से एक लम्बा गन्ना खींचते हैं और उस महिला को ढोर-जानवर-सा पीटने लगते हैं। यात्रा में आये लोग उसे बचाते हैं। शायद तात्या के अहंकार पर उसने प्रहार किया हो। एक तो परित्यक्ता और फिर उनके साथ इस तरह पेश आये, शायद उन्हें इसी पर क्रोध आया हो। बाई को अच्छा सबक सिखाया, चारों ओर यही राय थी। मैं उस परित्यक्ता चाची के बारे में काफी देर तक सोचता हूं। चाची ने मेरे दिल का कोना अवश्य जीत लिया था। इतना अपनापन इस चाची के बारे में क्यों नहीं लगता?’(पृ.-113)
पुरूष द्वारा स्त्रियों को प्रताड़ित करने व सताने में सवर्ण व दलित समाज में कोई अन्तर नहीं है। पुरूषों का स्त्रियों को बिना बात के मार-पीट व तंग करना दोनों में समान रूप से है। बबन की बेटी वेणु के प्रसंग से इसे प्रस्तुत किया है।
वेणु की शादी गांव में खूब धूम धड़ाके से हुई थी। वेणु बहुत सुन्दर थी। नक्षत्रों-सी। मां-बाप से उजली थी। उसे जो घर मिला, वह धनवान। लड़के के पिताजी बम्बई में किसी कम्पनी में फोरमैन थे। लड़का दिखने में बड़ा ऊंचा-पूरा। घर में खेती-बाड़ी देखता। वेणू को पति द्वारा बहुत तकलीफ दिया जाना शुरू होता है। पति रात-रात उसे सोने न देता। उस पर संदेह भी करता। बाहर खेतों में जाता तो चाबी-ताले में बंद कर देता। स्कूल में जब था, तब मैंने भी एक-दो बार उसका छल कम करने की कोशिश की। पति छोटे-मोटे कारणें पर ही चिढ़ जाता। बैल-ढोरों सा पीटता। अंत में, बबन उसे त्यौहार-निमित घर लेकर आता है और लड़की वापस नहीं भेजनी है, यह अपना निर्णय सुना देता है। जंवाई पागलों-सा हो गया। हाथ में नंगा चाकू लेकर बबन के घर के सामने खड़ा हो गया। बबन वैसे गरीब आदमी, पर डगमगाया नहीं। बाद में तो वह रामोश्या की टोली लेकर भी आ गया। लड़की ने फौजदारी कचहरी में बयान दिया, साहब, मुझे सामने के नाले में धकेल दीजिये, प्राण निकल जायें, फिर भी मैं उसके साथ नहीं जा सकती’ उसे मुक्ति मिलती है। बाद में बहुत ही व्यस्क व्यक्ति से उसकी शादी होती है। इतना वैभव छोड़कर वेणु क्यों आयी? बूढ़ा पति क्यों बनाया? दुख-तकलीफों का कंटीला रास्ता उसने क्यों अपनाया, यह सवाल आज भी मुझे निरूत्तर कर देता है। आज बूढे पति की नौकरी छूट चुकी है। बंगलों में आया का काम कर, वह पति और बच्चों को पालती-पोसती है। वेणू की दुदर्शा बबन जिन्दगी-भर न भूल सका।’ (पृ॰-159)
वेणु का पति उसे बहुत सताता है, मारता-पीटता है, लेकिन जब वह उसे छोड़कर वापस अपने घर चली जाती है तो वह उसे वापस लाने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल भी करता है। यही पुरूष प्रधान समाज की मानसिकता है कि वह यह भी सहन नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली जाए। इसमें वह अपना अपमान समझता है। उसकी पुरूष ग्रंथि को, पुरूष होने के अहंकार को चोट लगती है। वह उसे रखना भी चाहता है और सम्मान नहीं देना चाहता। बल्कि उसके व्यवहार से लगता है कि जितना वह उसकी प्रताड़ना को स्वीकार करती है उतना ही वह शान महसूस करता है। वेणु उसकी सारी शानो-शौकत को छोड़कर कष्टपूर्ण जीवन को चुनती है। जवान पति की जगह बुढ़ा पति, अमीर की जगह गरीब पति उसे स्वीकार है। परन्तु अपमान भरी जिन्दगी नहीं। वह सामाजिक सम्मान चाहती है। इसलिए वह न्यायाधीश के सामने कहती है कि वह मरना पसन्द करेगी, पर उसके साथ जाना नहीं। अपना सम्मान, स्वतन्त्रा अस्तित्व, व स्वतन्त्रता स्त्री को पसन्द है। चाहे ये सब प्राप्त करने के लिए उसे कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें।
ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था जिस तरह शूद्रों को छूना भी पाप समझती है, उसी तरह कुछ विशेष समय पर ब्राह्मणवादी विचारधरा(पितृसत्ता) स्त्री की देह को अपवित्र मानती है,विशेषकर शिशु-जन्म के समय। ये विचार समाज के हर वर्ग में घर कर गए हैं। कितने ही रिवाज-प्रथाएं व प्रचलन हैं जब औरतें रसोई में नहीं जा सकती, खाना नहीं बना सकती, बर्तन नहीं छू सकती। माना जाता है कि ऐसा करने से भारी पाप हो जाएगा। कमाल की बात तो यह है कि छूतछात का यह विचार दलितों में भी है। जिन दलितों को सवर्ण समाज अछूत समझता है वही स्त्री को भी अछूत मानते हैं। पुरूष सत्ता इन्हीं में अपना वर्चस्व स्थापित करती है। स्त्री के अन्दर भी ये संस्कार इतना गहरा है कि वह इस अवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। दया पंवार की मां बोर्डिंग में खाना पकाने का काम करती है। उस समय घटित घटना का वर्णन करके लेखक ने इस मानसिकता का उद्घाटन किया है।
बात यूं हुई कि मां को बोर्डिंग में आये एक महीना भी नहीं हुआ था कि मां को मासिक-धर्म हुआ। उस पर वैसे पुराने संस्कार। इस अपवित्र’ अवस्था में पका भोजन लड़कों को कैसे खिलाये, यह उसके सामने दुविधा। मां अपनी उलझन सुपरिटेंडेंट को बताती है। क्या करें? वे भी सोचने लगे। बाहर से यदि चार दिन के लिए बरतन वाली बुलाई गई तो यह हर माह का सिरदर्द हो जायेगा। इससे क्या होता है!’ कहकर वे उस दिन खाना पकाने के लिए मजबूर करते हैं। माँ के लिए और रास्ता न था। यह खबर लड़कों तक कैसे पहुँची, भगवान जाने।
मैं थाली-लोटा लेकर भोजन-गृह की ओर बढ़ता हूँ तो सारे लड़के एक कोरस में गा रहे थे, पचका हो गया रे, पचका हो गया!’ कोई भी भोजन के लिए तैयार नहीं था। क्या हुआ, यह मुझे मालूम न था। ... मैं थाली से उठता हूँ और मां के साथ क्या हुआ है यह जानने के लिए आगे बढ़ता हूँ। माँ बात स्पष्ट करती है। ऐसा लगा कि धरती फट जाये और हम मां-बेटे को समा ले। समाज जिन लोगों को अपवित्र’ समझता था, वे ही लागे स्त्री-देह को अपवित्र समझें। पर यह सब समझने की उम्र न थी।’ (पृ॰-144-145)
पुरूष प्रधान मानसिकता स्त्री को हमेशा कमजोर मानती है। वह स्त्री को अकेला छोड़ने की सोच ही नहीं सकती। उसकी सोच में स्त्री को अकेला छोड़ना उचित नहीं है। ब्राह्मणवाद के जन्मदाता मनु ने स्त्री के लिए बचपन में पिता, जवानी में पति तथा बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में रहने की व्यवस्था की थी। यही सोच अब तक धारण किए हुए हैं। किसी कुंवारी स्त्री या अकेली स्त्री की भारतीय समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती किसी न किसी तरह यहां स्त्री को पुरूष का संरक्षण देने के लिए लोग पागल लड़की की भी शादी कर देते हैं। और स्त्री की इच्छा के खिलाफ भी। यदि किसी स्त्री का पति मर जाए तो उसकी इच्छा के खिलाफ भी उसका विवाह करने की सोच लेते हैं। जबकि श्रमिक-दलित वर्गों में स्त्री पुरूषों पर निर्भर नहीं है। परिवार के कार्यों का सुचारू रूप से चलाने के लिए वह हाड़तोड़ मेहनत करती है। लेकिन ब्राह्मणवादी पुरूष-प्रधान मानसिकता के चलते इन वर्गों में भी स्त्री के प्रति वही समझ है जो उच्चवर्गों की है। दया पंवार के पिता की मृत्यु के बाद स्थिति उद्घाटित करते है
मां का नैहर पास ही, दो मील पर। उनकी खेती-बाड़ी थी। चचेरे दादा भागे-दौड़े आये। माँ पुनः विवाह कर ले, उनकी यह जिद्द। कोई एक विधुर था। उसने माँ को देखा था। हम दो छोटे बच्चे। मैं तो बहुत ही छोटा। बहन सात-आठ साल की। महारवाड़ा कुछ ऐसा था कि किसी के काम न आता था और कभी भी इज्जत झट से मिट्टी में मिल जाये सो अलग। दादा इज्जत को सब-कुछ समझने वाले। दादा के कहने पर माँ पर ज्यों ही बिजली गिरी हो। एक तो ननिहाल के बारे में उसके मन में बचपन से ही नफरत-सी थी। उसे दादा की यह बात कसाई-सी लगी।
मैं आपके दरवाजे भीख नहीं माँग रही। मैं मेहनत-मजदूरी कर अपने बच्चों को पाल लूँगी’ दादा से साफ-साफ कह डाला।’ (पृ॰-48)
पुरूष और स्त्री की सोच में कितना अन्तर है इससे अनुमान लगाया जा सकता है। पंवार की मां को ननिहाल से नफ रत थी। उस परिवार का संचालन पुरूषवादी था। जिसमें स्त्री को प्रताड़ना के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होता।
जब माँ पैदा हुई, तब उसका बाप मर गया। बाप को मिट्टी दी और सद्य-प्रसूता का छल शुरू हुआ। लड़का नहीं हुआ, यह गुस्सा था ही। नानी को भूखा रखते। उससे ढोर-डंगर का काम लेते। आटा छानकर निकालने के बाद जो चोकर बचता, उसकी रोटी नानी को दी जाती। इस प्रकार छल शुरू हुआ। उन दिनों ससुराल की यंत्रणा जेल-सी जानलेवा थी। इन तकलीफों से तंग आकर नानी अपने ननिहाल चली गयी। मां बहुत छोटी थी। उसे नानी से अलग किया गया। मां बताती थी- तुम्हारी नानी एक बार ननिहाल गयी तो फिर वापस ही नहीं आयी। उसने दूसरा घर बसा लिया।’ (पृ॰-49)
दया पवार की मां और उसकी नानी जिस तरह से पितृसत्ता की संरचनाओं को ठुकराती है और अपना स्वतन्त्र रास्ता चुनती है, जबकि वह कष्टों भरा है इससे साफ है कि स्त्रियों में जीवट है, संकल्प है लेकिन पुरूष उसको कमज़ोर करने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव डालता है। पुरूष-प्रधान मानसिकता से परिचालित व्यक्ति पति के मन में पत्नी के प्रति नरमी, उदारता व आदर के भाव रख ही नहीं सकता और समानता का व्यवहार तो कतई भी नहीं। फिर चाहे स्त्री हो या पुरूष। यदि कोई ऐसा करता है तो उसका अपमान किया जाता है। उसे तरह-तरह से नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है कभी उसे जोरू का गुलाम’ कहा जाता है। दया पवार की मां और पत्नी के बीच का झगड़ा इस विचारधारा के प्रताड़क व प्रताड़ित के बीच के संबंधों को प्रदर्शित करता है।
मां को यह बात इतनी पसंद नहीं थी कि सई ने आकर उसके इकलौते बेटे का चार्ज ले लिया है। जब तक मैं घर में होता, सई बहुत मधुर व्यवहार करती परन्तु मेरे बाहर जाते ही सास-बहू के झगड़े शुरू हो जाते। मुझे इसका कोई उतर न मिलता कि मुझसे इतनी अच्छी रहनी वाली सई मेरी मां-बहन से क्यों झगड़ती है? शाम को घर आने पर माँ सई के व्यवहारों का पहाड़ा पढ़ती वैसे कोई बड़े अपराध न रहते। घर के कामकाज के बारे में ही शिकायत होती। मां का वह स्नेहिल स्वभाव बदलता गया। सब सुन सकें, इतनी ऊंची आवाज़ में वह मुझे बैल’ कहकर पुकारती। मैं पत्नी के वशीभूत हो रहा हूँ, मैं बैल हो गया हूँ, इस प्रकार वह मेरा अपमान करती और मेरी हालत इधर कुंआ उधर खाई जैसी थी।’ (पृ॰-197)
यदि गहराई से विचार किया जाए तो ये औरतों का झगड़ा नहीं है। असल में यह परिवार में वर्चस्व की लड़ाई है। शादी के बाद लड़का पत्नी से प्यार-प्रेम करता है, उसकी बात सुनता है तो परम्परागत रूप से वर्चस्व प्राप्त सदस्यों को अपना रौब-दाब, अपनी पकड़ ढीली होती नजर आती है। उसको बनाए रखने के लिए पुरूष-प्रधानता की असमान विचारधारा का सहारा लेती है। यदि कोई पुरूष अपनी पत्नी से बराबरी का व्यवहार करने लगे, उसका आदर करने लगे उससे नरमी से पेश आए तो उस पत्नी से गुलाम की तरह काम नहीं लिया जा सकता। पति उससे जैसा व्यवहार करता है उससे ही पत्नी की हैसियत निर्धारित होती है। इसलिए पत्नी को तो सिखाया जाता है कि पति को परमेश्वर, मालिक, रक्षक, भर्ता अपना सर्वस्व मान ले, उसकी पूजा करे, चरण वन्दना करे। पति को सिखाया जाता है कि वह अपनी पत्नी को पीटे, डांटे, दुत्कारे यानी किसी न किसी तरह काबू करके रखे। दोनों को इस सीख से ही पुरूष प्रधानता की व्यवस्था कायम रह सकती है। हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि यदि किसी एक ने अपना व्यवहार बदल दिया तो यह व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी इसलिए पति यदि पत्नी को बराबरी का दर्जा दे तो पत्नी उसे बराबरी न मानकर उसे परमेश्वर मानती रहे। यदि पत्नी इस स्थिति को स्वीकार न करे तो पति जबरदस्ती उससे यह व्यवस्था मनवा ले। वरन् तो दोनों को परस्पर विरोधी आदर्श रखने वाली पर एक ही परिणाम निकालने वाली विचारधारा का उपदेश क्यों दिया जाता। लेखक ने मां व पत्नी के बीच के झगड़े पर टिप्पणी की है।
वैसे बचपन से ही मां ने मुझे हथेली के घाव-सा संभाला था। कल की आयी इस गोरी-उजली सई ने उसके इकलौते बेटे को उससे छीन लिया है, यह मां का असली क्रोध था।
माँ की मानसिकता मैं कुछ समझ न पाता। शिक्षित होने के कारण या शायद अधिक वाचन के कारण अपनी पिछली पीढ़ी की अपेक्षा मैं पत्नी को अधिक सौजन्य तथा आदर रखता और इसी कारण घर मैं झगड़ों का ज्वालामुखी फूट पड़ा। पैर की चप्पल पैरों में ही रखनी चाहिए, यह चारों ओर की समझ थी। मां मुंह तोड़कर कहती, अरे, बीवी को सिर पर बिठायेगा तो कल को वह वहां हगने की कमी भी नहीं रखेगी।’ (पृ॰-197)
पुरूषवाद की कई तहें-परते हैं। कई रूपों में उसकी अभिव्यक्ति होती है। पुरूष होने का अहंकार-दंभ अपने कई-कई रूप में दर्शाता है कि वह औरत का मालिक है। वह स्त्री को बाजार से एक सामान की तरह खरीद सकता है। पुरूष सत्ता असल में सामन्तवाद के साथ आई। बड़े-बड़े सामन्त और राजाओं का शौक हुआ करता था, अपने महलों को रखैल’ रानी’ कहीं जाने वाली महिलाओं से भरकर रखना। यह भी प्रतिष्ठा की कसौटी समझी जाती थी कि किसके पास कितनी रानियां या रखैलें’ हैं और कितनी नाचने-गानेवाली। भारत के हर बड़े शहर में वेश्याओं के मौहल्ले-बाजार हैं वे इस पुरूषवाद के गवाह हैं। अपनी हैसियत के अनुसार पुरूष वेश्या-बाजार से स्त्री की सेवा’ लेता है और स्वयं को संतुष्ट करता है और शोषक वर्गों की यह प्रवृत्ति शोषितों ने भी अपना ली। दया पवार अपने पिता की रंडीबाजी’ की घटना का जिक्र करते हैं कि
जिस दिन पगार मिलती उस दिन वे किसी महिला के पास जाते हैं, बल्कि इसको अपनी शान समझा जाता है। इस पर टिप्पणी करते हुए इस मानसिकता को इस तरह उद्घाटित किया है - मैं घर आकर माँ को सारी घटना बताता हूँ। तब वह फीकी हँसी हँसती है। शायद उसे इस बात की जानकारी हो। पुरूष द्वारा की गई रंडीबाजी अर्थात्, छाती पर एकाध मेडल लटकाने जैसा वातावरण चारों ओर था। गर्व से देखा जाता था। वैसे पिताजी की रंडियां भी साधरण ही होती थीं- कोई बंगलों में काम करने वाली आया तो कोई लारी पर मिट्टी ढोने वाली। कितनी बदली होगी, कोई गिनती नहीं।’ (पृ॰-27)
वेश्या-बाजार किसी भी महानगर का स्थायी अंग है। इस धंधे को सेठ-साहुकार, सरकार-प्रशासन बंद करने की बजाए समर्थन ही देते हैं। शासन-सत्ता व उसके अंगों में पुरूष-प्रधान वृत्ति कूट-कूट कर भरी है। स्त्री की नजर से वे समाज को देख ही नहीं पाते वे हर चीज़ को पुरूष की नज़र से ही देखते हैं। इन बाजारों में पुरूष अपनी विलासता, ऐश्वर्य का प्रदर्शन तो करते ही हैं। इस बाजार के निर्माण में भी पुरूष प्रधान मानसिकता है। किसी स्त्री से बदला लेने के लिए या अपने स्वार्थ के कारण पुरूष सभी मानवीय व सामाजिक संबंधों को ताक पर रखकर अपनी बेटियों, बहनों, बहुओं यहां तक कि माओं को भी वेश्या बना देते हैं। अपनी मौसी जमना की वेश्या बनने की कथा को बताते हुए लेखक ने लिखा कि
मैं बाहर आता हूँ और सहादबा को खोद-खोदकर पूछता हूँ। वह बताता है, अरे, यह तेरी माँ की दूध-बहन’ अर्थात मां एक और बाप दो।’ फिर यह यहां कैसे,’ इसका उत्तर जब सहादबा देता है, तब मैं अन्तर्मुखी हो जाता हूँ। जमना पास के ही तंबू में पति के साथ रहती थी। उसके सौंदर्य से पति हमेशा ईर्ष्या करता। उसे पीटता। अंत में उसी ने इसे यहां लाकर बेच दिया। अपनी पत्नी भी लोग बेचते हैं, मुझे कुछ सच न लगता’ (पृ॰-125)
स्त्री इन स्थितियों को स्वीकार नहीं करती, पुरूषों ने अपनी हवस पूरी करने के लिए तरह-तरह के पाखंड़-प्रपंच रचे हैं। स्त्री के इस रूप को महिमामंडित करके उसको भोगने की कोशिश की है। स्त्री को यह सब मजबूरी में करना पड़ता है। ज्यों ही उसे इन स्थितियों को छोड़ने का मौका मिलता है तभी इनको छोड़ देती है। दया पवार ने वर्णन किया है
सन 1944 याद आ रहा है क्योंकि उस साल गोदी में बम-विस्फोट हुआ था। बांद्रा में दादी की ताईबाई-नाम की एक बहन थी। दादी की यह दूध-बहन’ थी, अर्थात मां एक और बाप दो। उसे बचपन से ही खंडोबा की देवदासी बना दिया गया था। परन्तु जैसे ही वह सब समझने लगी, उसने वह धंध छोड़ दिया। मजदूरों सा कष्ट उठाती। .... ननद को छेड़ने वाले एक मुसलमान को उसने पत्थर पर पछाड़ा था-ऐसा उसका उसका दबदबा था।’ (पृ॰-22)
स्त्री को पुरूष सिर्फ भोग्या ही समझता है। उसे देह की नज़र से ही देखता है। उसकी नजर में उसकी देह ही महत्वपूर्ण है। उसे भोगने की लालसा ही उसकी मुख्य लालसा है। वह किसी और रूप में, किसी संबंध में स्वीकार ही नहीं कर सकता। दया पवार की पत्नी सई को उसके दोस्त इसी नजर से देखते हैं। वह शिकायत करती हुई कहती है कि मेरे दोस्तों के बीच उसके सौंदर्य की चर्चा हुई होगी। एक बार उसने एक दोस्त के खिलाफ शिकायत की।
वह दोस्त बातूनी था। यूनियन का कार्यकर्ता, प्रभावी वक्ता, हजारों की सभा में बोलने वाला। वह जब-जब घर आता है, तब-तब पानी मांगता है और जब मैं आपके दोस्त को पानी देती हूँ, वह हथेली पर चिकोटी काटता है।’ यह उसकी शिकायत थी।’ (पृ॰-196)
स्त्री यदि सुन्दर नहीं है तो वह पुरूष की घृणा का शिकार होती है और यदि वह सुन्दर हो तो वह उसकी वासनामय आसक्ति का शिकार होती है। दोनों ही स्थितियों में स्त्री के लिए प्रताड़ना व अत्याचार है।
दया पवार ने पुरूष-वर्चस्व की मानसिकता को रेखांकित कहते हुए समाज में स्त्री की स्थिति पर यथार्थपरक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि
औरतों को लेकर भारतीय पुरूष समाज बहुत ही शंकालु है। पुरूषों के बारे में, उनके लफड़ों के बारे में, किसी को कुछ नहीं लगता। परन्तु अपनी औरत के बारे में मात्र शंका भी हो जाये तो कितनी बड़ी रामायण’ घटित होती है। वह सबको मालूम है।’ (पृ॰-219)
लेखक अपनी पत्नी पर शक करने लग जाता है कि उसके किसी से अवैध सम्बन्ध हैं। वह इस बात की जासूसी करने लगता है।
सारी रात नींद नहीं आती। सई से पूछने की कोशिश करता हूँ। वह रोने लगती है। लड़की के नाम से कसमें खाने लगती है। क्या करूं, कुछ नहीं सूझता। रात-भर विचारों से माथा फटने जैसा हो गया। महबूब को लेकर एक ईरानी होटल में जाता हूँ। अब वह भी रोने लगा। कुरान की कसमें खाने लगा। वो मेरी बहन है ...’ वह बड़बड़ाने लगा था। क्या करूं? कुछ न सूझता। मैं उसे तत्काल बम्बई छोड़ने को कहता हूँ।
घर आकर देखता हूँ कि महबूब गांव जाने की तैयारी में था। उसके बाद वह कहीं नहीं मिला।
परन्तु मेरे भीतर का शैतान जाग चुका था। सच क्या है? यह जानने के लिए मैं सई को रात-रात भर छेड़ता रहता। पर वह कुछ भी कहने को तैयार न थी। उसने नहीं-नहीं’ की रट लगा रखी थी। आज तक मैंने कितनी ही किताबें पढी थी। रसेल का नीति शास्त्र’ पढ़ा था। परन्तु ऐसे समय कोई किताब उपयोगी नहीं थी।’ (पृ॰-222)
भारतीय पुरूष के संस्कार के सामने, स्त्री के प्रति उसके शक के सामने दुनिया का सारा नीतिशास्त्रा व ज्ञान असफल है। वह न तो अपनी बीवी की बात सुनता है, न अपने दोस्त पर विश्वास करता है। स्त्री-देह पर पूर्ण आधिपत्य तो वह चाहता ही है। यह भी वह स्त्री के व्यवहार से अपेक्षा करता है कि शक की गुंजाइश ही न हो। जाहिर है कि शक की गुंजाइश तो तभी समाप्त होगी जबकि वह अन्य किसी पुरूष से बात न करे। मिले ना। उसकी तरफ देखे भी नहीं। यह व्यवहार स्त्री को अन्ततः पर्दें में, घर की चार दिवारी तक सीमित कर देता है। शक की मानसिकता उसी सोच की उपज है कि यदि कोई स्त्री और पुरूष मिलते हैं तो उनके बीच में और कोई संबंध हो ही नहीं सकता। केवल यौन संबंध ही हो सकते हैं। यौन-शुचिता पर स्त्री के शरीर पर पुरूष अपना अधिकार समझता है। इस मानसिक रोग व विकृति ने परिवारों को, स्त्री-पुरूषों का, पति-पत्नियों के जीवन को नरक-कुंड में तब्दील कर दिया है। लेखक का जीवन भी असामान्य हो जाता है। यहां तक कि वह नपुसंकता की स्थिति तक पहुंच जाता है। अपनी निर्दोष पत्नी का जीवन भी अपनी इस संकीर्ण, अमानवीय व स्त्री-विरोधी सोच के कारण बर्बाद कर देता है। स्त्री के मामले में विशेषकर पत्नी के मामले में सारी उदारता, दयालुता, विनम्रता, प्रगतिशीलता, आधुनिकता समाप्त हो जाती है और केवल रूढ़ भारतीय मर्द’ बन जाता है। इतना डरपोक व्यक्ति जो सदा विरोध करने से कतराता रहा और सारे जुल्म-शोषण को सहन करता रहा, लेकिन पत्नी पर पूरी बहादुरी दर्शाता है।
दलित-आन्दोलन में भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव की संभावना थी। यह संघर्ष उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़कर ही पनप सकता था, जिसे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने धर्म बनाकर नकारा था। दलित-आन्दोलन ने आरम्भ से ही समाज के आमूल-चूल परिवर्तन को अपने आन्दोलन का केन्द्रीय पक्ष नहीं बनाया बल्कि उसी व्यवस्था में अपने लिए भी हिस्सेदारी की मांग की या अधिक से अधिक अपनी मानवीय अस्तित्व की स्वीकृति को ही उठाया, जबकि मानवीय स्थितियों की प्राप्ति से ही मानवीय अस्तित्व हासिल हो सकता था।
दया पवार ने दलित आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाले व दलित आन्दोलन के विकास की संभावनाओं के मुद्दे की ओर भी संकेत किया है। अधिकांश दलित गांवों में रहते हैं और गांवों का मुख्य आय स्रोत व उत्पादन का साधन जमीन है। लेकिन दलितों के पास जमीन का बहुत ही कम अंश है। गांव में मान-सम्मान की जिन्दगी जीने व अपने गुजारे के लिए जमीन ही मुख्य साधन है। जमीन न होने के कारण दलित जमींदारों पर ही निर्भर रहे हैं तथा उत्पादन का मुख्य अंग होते हुए भी उनको बदले में बहुत ही कम मिलता रहा है। नई व्यवस्था व तकनीक से पुराने संबंध भी बदले हैं।
परम्परागत धंधे तो बदल रहे हैं। परम्परागत व्यवस्था भी बदल रही है जिसमें ग्रामीण संबंध भी बदल रहे हैं। गांव में दलितों के गुजारे के लिए कोई साधन नहीं है इसलिए वे शहरों की ओर भाग रहे हैं। इसको ऐसे रेखांकित किया है
येसकर पारी गयी, बलुत गया। बिता-भर जमीन हड्डियां पोसने के काम आती थी, वह भी नाममात्र पैसों के लिए जमींदारों के पास गिरवी है। इस कारण महारवाड़ा उजड़ा पड़ा है। पेट का गड्ढा भरने के लिए सब शहर भाग रहे हैं, गन्नों के खेतों में पानी सींचने का काम करते हैं। यह है गांव का दृश्य’ (पृ॰-204)
इस पलायन व उजड़ने से बचने का एक ही रास्ता है कि जमीन में दलितों को हिस्सा मिले। गांव की जमीन का पुनर्वितरण हो। गांव के दलित इस बात को अच्छी तरह समझते हैं लेकिन मध्यवर्गीय मानसिकता के दलित नेता भूमि-सुधार या उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी को अपनी राजनीति का मुख्य सवाल नहीं बनाते जबकि गावं के जीवन का यह मुख्य मुद्दा है। जमीन को लेकर या इससे जुड़े विभिन्न सवालों पर ही सवर्ण-दलित संघर्ष जन्म लेता है। जमींदारों ने दलितों की जमीनें खरीद ली या हड़प ली उसे वापस लेने की दलितों की इच्छा व इसके लिए किये जाने वाले संघर्ष इसे ही दर्शाते हैं। इसकी ओर जिन दलित नेताओं ने संघर्ष किया है उनको बहुत ही समर्थन मिला है।
इसी समय जिले का एक विवाद अच्छी तरह याद है। जमींदारों ने शक्कर कारखानें के लिए नाममात्र का मुआवजा देकर 99 वर्षों के अनुबंध पर महारों की परंपरागत जमीन हड़प ली। यह जमीन वापस मिले, इसलिए दादा साहब, राम पवार आदि लोग जिले में आंदोलन करने लगे। उस जमीन पर धनवान किसानों ने काफी कुछ सुधार किया है। यदि यह उन्हें फिर वापस दी जाती है तो वे इस जमीन की दुदर्शा कर डालेंगे। महार लोगों ने कभी किसानी की भी है? उनका सवाल। बाद में यह आन्दोलन बालू में पानी सोखने-सा कहां गायब हो गया, पता नहीं।’ (पृ॰-205)
उत्पादन के साधनों में विशेषकर जमीन में दलितों को हिस्सा न देने के लिए इसी तरह के तर्क अक्सर दिए जाते हैं कि दलितों को खेती करनी नहीं आती’ वे जमीन को बंजर कर देंगे’। ये सब हिस्सेदारी नकारने के लिए दिए गए तर्क हैं। कई जगह जहां दलितों को वास्तव में जमीन आबंटित की भी गई है तो उनको खेती करने के लिए संसाधन मुहैया नहीं करवाए गए और अन्ततः इस जमीन का उनको कोई लाभ नहीं हुआ और गांव के धनी किसानों ने धन का लालच देकर उनसे जमीन वापस ले ली। भूमि-सुधार ही ऐसा मुद्दा, कार्यक्रम व आन्दोलन है जिस पर सभी दलित व अन्य गरीब लोग एकजुट हो सकते हैं। दलितों के अभिजात्य वर्ग ने भूमि की लड़ाई की खिल्ली उड़ाकर विरोध किया, लेकिन दलितों की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या को इस आन्दोलन का समर्थन मिला।
दादा साहब ने भूमिहीनों के लिए देशव्यापी सत्याग्रह किया तो उनके विरोधियों ने उनका मजाक उड़ाया। निश्चित ही उसमें मैं भी शामिल था। परन्तु धीरे-धीरे इस सत्याग्रह को अभूतपूर्व यश मिला। जेल भरो आंदोलन’ की राजनीति क्या होती है, उसके दर्शन अलग से हो रहे थे।
इस लड़ाई में केवल बौद्ध लोग ही शामिल नहीं थे बल्कि वह सारा कमजोर वर्ग था, जो जमीन के सवाल पर एकत्रित हो रहा था। सुधारवादियों की हंसी उड़ाना सबसे पहले उन्हीं को खला। नेताओं में मतभेद होने के बाद भी दादा साहब ने नगर-जिले में सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह की अनेक मजेदार बातें कानों में पड़ रही थी। शोलापुर के कुछ लोगों ने अचानक कलेक्टर के घर का कब्जा कर लिया। कलेक्टर के पलंग पर सोने का स्वप्न एक स्वयंसेवक ने सच कर दिखाया। उसके बारे में जो भी सजा थी उसने खुशी-खुशी स्वीकार की।’ (पृ॰-214)
डा. भीमराव आम्बेडकर की मृत्यु के बाद दलित-आन्दोलन बिखर कर रह गया। दलित नेताओं ने संघर्ष छोड़कर सत्ता का सुख भोगना शुरू हुआ, वे शासक वर्गों का ही हिस्सा बन गए। जब तक बाबा साहब जीवित थे, इस राजनीति में एक जीवित ऊष्मा थी। तप्त ज्वालामुखी-सा यह समाज उफनता रहा। खेत-काम मिलने का आंदोलन गांव-गांव सुलग रहा था। महारकी अर्थात गुलामगिरी। ये काम हम नहीं करेगें।’ स्वाभिमान की यह हवा महार लोगों के भीतर संचरित हो रही थी। पहाड़ों से टकराने की ध्मक इस आंदोलन में थी। परन्तु बाबा साहब की मृत्यु के बाद? एक खंबे का तंबू जैसे झंझावती तूफान के सामने धूल में मिल जाये, ठीक यही दुदर्शा इस आंदोलन की हुई। दूसरों के महलों में मत भटको। अपनी झोंपड़ी बचाओ,’ बाबा साहब का यह आदेश हवा में घुलने लगा। गुड़ से ज्यों मक्खी चिपके, वे सत्ता से चिपकने लगे। कांग्रेस-रिपब्लिकन समझौता तो आंदोलन को स्लो पायजनिंग-सा खत्म करने लगा।’ (पृ॰-205)
डा. आम्बेडकर के बाद दलित नेताओं में कोई सृजनात्मक चिंतन नहीं, बल्कि उनकी नकल करने लगे। और नकल भी उनके संघर्ष, चिंतन व जनता से सहानुभूति व जुड़ाव में नहीं बल्कि बाहरी रूप रचना में। उनके कपड़ों की, चलने के ढंग की, बातचीत के लहजे की। बाहरी स्वांग भरकर आम्बेडकर की बराबरी करना चाहते थे। डा. आम्बेडकर की तरह लोकप्रियता प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने आम्बेडकर की दृष्टि व संघर्ष दोनों को छोड़ दिया और मात्र उनके बाहरी रूप का, उनके बिम्ब को अपने ऊपर ओढ़कर चलने में ही सारी प्रतिभा व ऊर्जा लगाई। शायद इसी कारण आम्बेडकर के बाद उनका दर्शन विकास नहीं कर पाया और दलित-नेता मात्र आम्बेडकर के नाम की ही लीक पीटते रहे और उनका जो अपना स्वार्थ था, (सत्ता की राजनीति करके उसमें हिस्सेदारी प्राप्त करना) वह प्राप्त भी हो गया।
रिपब्लिकन नेताओं के करीबी दर्शन में कोई संतोषजनक बात न दिखती। इसमें से अधिकांश नेता बाबा साहब की हू-ब-हू नकल करते। बाबा साहब कुत्ता पालते तो ये भी कुत्ते पालते। बाबा साहब कीमती पेन रखते, ये भी रखने लगे। सूट पहनना आम बात हो गई थी। किसी शोकसभा या शवयात्रा में भी ये लोग सूट पहनकर आते। तब उन पर बड़ी दया आती। गांव-देहातों में इनकी सभाओं में इनका डीलडौल खुलकर दिखता। देहातों में जनता रास्तों पर धूल में पलकें बिछाकर लपसी (पतला हलुवा) खाती हैं और ये नेता अपने घरों में मुर्गी-शराब में मस्त। यह विसंगति बहुत खटकती। निश्चित ही इनके ये शौक लोगों के चंदों से पूरे होते’ (पृ॰-212)
जनता के दुख-तकलीफों उनकी स्थितियों से कटे हुए ये नेता हंसी के पात्र बन गए और दलित-आन्दोलन दलितों की मुक्ति के लिए संघर्ष न रहकर इन सत्ता-लोलुप स्वार्थी नेताओं की शान बघारने का आंदोलन बनकर रह गया। दलितों में मुक्ति के लिए उत्साह व विश्वास का संचार करती बाबा साहब की संघर्ष चेतना इन नेताओं में न आई, इसलिए ये जिस जनता का नेतृत्व करना था उसमें हंसी के पात्र बन गए और जन-मुक्ति के इस आन्दोलन का चरित्र उच्च मध्यवर्ग का अवसरवादी व स्वार्थी चरित्र बन गया। ऐसी एक घटना का जिक्र दया पवार ने किया है
एक बार ऐसे ही विरोधी नेता की सभा में गया। भाषण के पश्चात उन्होंने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आवाहन किया। बहुत देर तक मैं अपने व्यंग्यकार को दबा नहीं सका। मैंने प्रश्न पूछा, लोग कहते हैं कि फोर्ट में जो बाबा साहब का पुतला है, वह आप-सा दिखता है।’ सही बात तो यह थी कि प्रश्न का व्यंग्य-स्वरूप वे समझ गये थे, पर वे बहुत झल्लाये। कहने लगे, बाबा साहब की तरह मेरी नाक है, इसलिए क्या उसे काट डालूं, उनकी और मेरी ऊंचाई एक जैसी है, क्या उसे भी कम कर डालूँ?’ साहब के इस उत्तर से उस दिन सभा का बड़ा मनोरंजन हुआ।’ (पृ॰-212)
दलित-आन्दोलन का नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आ गया और वह किसी भी कीमत पर अपना वर्ग-चरित्र छोड़ने को तैयार नहीं था। वह अपनी सुविधाएं सबसे पहले प्राप्त करना चाहता था। उसकी जीवन-शैली व आम दलितों की जीवन-शैली में जमीन-आसमान का अंतर था। इस जीवन से उनको अन्दरूनी तौर पर घृणा थी। ऐसे में ये जनता का दिल कैसे जीत सकते थे। भोले-भाले लोग उनकी बातों में आकर उनको अपना नेता समझते थे लेकिन अन्ततः वे ठगे ही जाते थे। इस तरह इस आन्दोलन में बिखराव आया। लोग उदासीन हो गए। नेता को जनता का आदर्श तो क्या बनना अपनी कमजोरियों को भी दूर नहीं कर पाए। इसी तरह का जिक्र करते हुए दया पवार ने एक घटना का वर्णन किया है
एक नेता इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर आया था, वह कभी-कभार देहातों में सभाओं के लिए जाता, तब उसे खुले में नहाने में शर्म आती। साहब को इंग्लैंड के बंद बाथरूम की आदत! लोग बताते, जब साहब नहाने बैठते, तब चार कार्यकर्ता उनके चारों ओर धेती तानकर पर्दा कर देते। इस तरह उनका बाथ’ चलता।’ बाद में बैरिस्टर महोदय एक खाना बनाने वाली को लेकर भाग गए। इस कांड की समाज में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई और उन्हें पार्टी से छुट्टी दे दी गई।’ (पृ॰-216)
स्वार्थी नेताओं ने दलित-आन्दोलन को जन्म लेने से पहले ही दफन कर दिया। जिस जनता का उत्थान करने चले थे, जिसमें जागृति लाने चले थे उसी को धोखा देते रहे और समाज सुधार और क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए जिस तरह के त्याग, समझ व निष्ठा की जरूरत थी वह इन नेताओं में पनपी ही नहीं। ऐसी ही पुणे के एक नेता की बात बताते हैं।
ये कहीं भी सभा में जाते तो फुल सूट में। एक देहात में जयंती के उपलक्ष में इनकी सभा का आयोजन हुआ। साहब पेट-भर मुर्गा दबा चुके थे। वे खुले में सोने को तैयार न थे। अंत में साहब की सोने की व्यवस्था एक कमरे में की गई। कमरे के पास ही रसोईघर। जिस कार्यकर्ता का यह घर था, उनकी पत्नी ने जोरदार मटन बनाया थ। बाई चुल्हे के पास ही लेटी थी। रात में साहब की वासना जोर मारती है। साहब अंधेरे में ही बाई को टटोलने के लिए आगे सरकने लगते हैं। बेचारी गहरी नींद में थी। घर में सोया साहब इस कदर टटोल रहा है, यह जानकर बाई भयाकुल हो गई। वह जोर से चिल्लाती है। बाहर सोये पुरूष लोग जाग जाते हैं। सब साहब को मां-बहन की गाली देते हैं। साहब वैसे छंटा हुआ था। अंधेरे में अपना सूट काँख में दबाकर भाग निकला। पीछा करते कार्यकर्ताओं को साहब नहीं मिले। सुबह-सुबह ही कार्यकर्ता साहब की तलाश में शहर आ जाते हैं। जिसने यह नेता तय कर सभा के लिए गांव भोजा था, उसके घर जाते हैं। कहते हैं, साहब आपने बहुत अच्छा किया! बहुत अच्छा नेता भेजा, जो हमारी मां-बहनों को टटोलने निकला।’ आज भी यह नेता खुले-आम समाज में शान से रह रहा है। विशेष आश्चर्य की बात तो यह है कि विधायक चुना गया रक्षक ही भक्षक बन जाये तो शिकायत किससे करें? आम आदमी के सामने यही सवाल।’ (पृ॰-216-17)
डा. भीमराव आम्बेडकर ने इस बात को अच्छी तरह को पहचान लिया था कि जब तक दलितों में एकता नहीं होगी, जागृति-चेतना नहीं होगी और वे संगठित होकर अपने हकों के लिए संघर्ष नहीं करेंगे तब तक उनकी मुक्ति की कोई संभावना नहीं है। इसलिए उन्होंने शिक्षित बनो’, संगठित हो’ व संघर्ष करो’ का नारा दिया था। दलितों में व्यापक एकता के लिए ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित समस्त समुदायों व जातियों को एक दलित’ श्रेणी में संगठित करने की कोशिश की थी। कथित जरायम पेशा’ जातियों वे अछूत’ व अन्य शूद्र जातियों में व्यापक एकता व संगठन की बात की थी। उन्होंने इस बात को जाति प्रथा को इसमें सबसे बड़ी बाध बताया था इसलिए जाति को तोड़ने के लिए जन-जागरण की कल्पना की थी। वे राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ-साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे जो समाज में व्याप्त बुराईयों पर प्रहार करते थे। उनके सामने समाज की एक परिकल्पना मौजूद थी। लेकिन उनके बाद के दलित-आन्दोलन के नेताओं के पास समाज की कोई परिकल्पना नहीं थी। समाज-सुधार के काम को उन्होंने पूरी तरह छोड़ दिया था। अपने समाज में व्याप्त पिछड़ेपन, अंधविश्वास, ब्राह्मणवादी संस्कार व जाति-प्रथा को दूर करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाए। वे कोरे राजनीतिक कार्यकर्ता बनकर रह गए और बिना किसी आदर्श के अपने अनुयायियों की संख्या में बढ़ोतरी करने के लिए उनके पास समाज में व्याप्त परम्परागत निर्मितियां ही थीं और उनमें भी जाति-प्रथा। यह विडम्बना ही रही कि दलित-आन्दोलन स्वयं जाति के आन्दोलन में बदल गया। राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की होड़ में दलित-आन्दोलन फूट का शिकार हुआ और बिखर कर रह गया।
शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी बनी, लेकिन वह गुटबन्दी का और व्यक्तित्वों की टकराहट का शिकार होकर रह गई, कई गुट बन गए। पश्चिम महाराष्ट्र में जिलेवार गुट बन गये। उधर विदर्भ में महार जाति की उपजातियों पर आधरित गुट बने। बावणे, लाडावान और कोसरे-यह विदर्भ की उपजातियां। उधर पश्चिम महाराष्ट्र में सोमवंशीय। अपने बाबूजी संशोधन के आधार स्तम्भ। उनके पीछे विदर्भ के और उतने ही उनकी उपजाति के लोग थे। दूसरी ओर खोब्रागड़े की उपजाति बड़ी थी। भूमिहीन खेत-मजदूरों को रिपब्लिकन पार्टी का कोई भी गुट आकर्षित नहीं कर सका। कुल मिलाकर संशोधन वही। परन्तु बोर्ड बदल गया। उसमें भी बोर्ड के दो भाग। कुल मिलाकर यह हालत थी।’ (पृ॰-211)
दलित-आन्दोलन का चरित्र बदला तो उसके मुद्दे भी बदल गए। भूमि-सुधार जैसे ठोस बदलाव को छोड़कर भावनात्मक नारों पर लोगों को गोलबंद किया जाने लगा। दलित-आन्दोलन में मुक्ति और बदलाव की धार कुंद हो गई। वह बुर्जुआ पूंजीवादी राजनीति का ही अंग बन गया। दलित-आन्दोलन ने मात्र भावनात्मक व दलित-अस्मिता की लड़ाई का रूप ग्रहण कर लिया । उसने मूल बदलाव का संकल्प छोड़ दिया। वह मात्र अभिजात्य का आंदोलन बन गया। यही दलित-आन्दोलन की विडम्बना रही कि जिन वर्गों के खिलाफ इस आन्दोलन को लड़ाई लड़नी थी और जिससे विचारधारात्मक संघर्ष था, वही वर्ग इस वर्ग के नेतृत्व के शिखर पर काबिज हो गया था। दया पवार ने इस परिघटना को वर्णित किया है। एक लम्बा उद्धरण देना इसलिए जरूरी है।
सुधारवादी नेता लोग आर्कषक नारे देने में बड़े निपुण थे। पार्टी का हाथी चुनाव-चिह्न फिर वापस लाना’ एक ऐसी ही आकर्षक घोषणा थी। देश की संपूर्ण बुद्धगुफाएं हमारे अधिकार में हों’। सारा भारत बुद्धमय करना’। ऐसे स्फूर्तिदायक भाषणों से ये लोग सभा में रंग लाते। बाबा साहब की मृत्यु की गुप्त रिपोर्ट सरकार को प्रकाशित करनी चाहिए, हर छह साल बाद भी एक थ्रिल घोषणा होती। बाबा साहब की मृत्यु संशयात्मक परिस्थितियों में हुई हैं। उसमें सुधारवादियों के कुछ मान्यवर नेता और उनकी ब्राह्मण पत्नी का हाथ है, ऐसी विहस्परिंग पालिटिक्स खेल कर सारे वातावरण में असंतोष के वातावरण का निर्माण करते। जो बाबा साहब के लिए शोभायमान हों, ऐसा एक स्मारक खड़ा किया जाये। उनके नाम पर अलीगढ़ या हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी यूनिवर्सिटी हो, डा.आंबेडकर अध्ययन-केन्द्र स्थापित हो, ऐसी कल्पनाएं हमेशा सभाओं के सामने रखी जाती। इनके लिए लोगों को लाइन लगाकर बैंकों में पैसे भरने चाहिएं, ये आह्वान लोगों को मन से अच्छे लगे। नेताओं को दिए गये पैसे कहीं और हजम हो जाते हैं, अतः इस अनुभव के कारण यह बात सबको उचित लगी। सात-आठ दिनों में आंकड़ा 62 हजार तक पहुंच गया। नेताओं तक को इस आंकड़े पर विश्वास न होता। दूसरे सार्वजनिक चंदों का जो भविष्य होता है, वह इसका भी हुआ। नेताओं में खटपट हुई। सारी रकम फ्रीज कर दी गयी। चैत्यभूमि के स्तूप पर संगमरमर जड़ने की कल्पना भी लोगों ने इसीप्रकार पापुलर की थी। कहते हैं लोगों ने पैसों की वर्षा कर दी। परंतु अंत तक संगमरमर नहीं बैठाया गया। बाद में ये पैसे हवा हो गये। समाज को इन पैसों का कभी हिसाब नहीं मिला। कनिष्ठ-गांव-कामगारों ने भी सारे महाराष्ट्र से प्रत्येक गांव पीछे मनीआर्डर भिजवाया। महार के वतन खत्म हो गये, परन्तु वह सारा पैसा आज भी बैंक में सड़ रहा है। समाज के रचनात्मक कामों के लिए इन पैसों का उपयोग नहीं हो पाया।’
धीरे-धीरे समाज में उदासीनता फैलने लगी। सारे आंदोलन चूल्हे से ठंडे होने लगे। राजनीति की छाया समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाओं पर भी पड़ने लगीं। इतना ही क्यों, शादी-ब्याह, मरणोपरांत शवयात्रा- इस पर भी गुटबाजी का प्रभाव दिखने लगा। कोई सामान्य आदमी भी मर जाये तो शमशान घाट पर उसके गुणगान की प्रथा थी। वार्ड के कार्यकर्ताओं को इस सभा में बोलना मान-सम्मान की बात लगती। उस समय जिस गुट शव होता, उन्हीं को सभा में बोलने का मान मिलता। अध्यक्ष भी उसी गुट का। हम अपने गुट का आदमी मरने पर इसका बदला लेंगें, ऐसा दूसरे गुट वाला घर जाते-जाते बोल जाता’ (पृ॰-214-215)
उपरोक्त उद्धरण से तत्कालीन दलित राजनीति उद्घाटित होती है जो अपनी मुख्य दिशा से हट गई थी और भावनात्मक मुद्दों पर लोगों को एकत्रित करती थी। जिससे लोगों में किसी प्रकार की जागरुकता नहीं आती थी। दलितों में डा. भीमराव आम्बेडकर का दलित जनता में बहुत अधिक सम्मान था, उनके प्रति इस सम्मान को ही वे अपनी राजनीतिक स्वार्थों के लिए प्रयोग करना चाहते थे। इसलिए बाबा साहब का नाम लेना ही उन्होंने राजनीतिक रामबाण मान लिया था। मूलभूत परिवर्तनकामी चेतना को तो इस राजनीति ने तज दिया था, और मात्र चिह्नों की व बाबा साहब के नाम को ही भुनाना शुरू कर दिया। दलित-आन्दोलन बहुसंख्यक दलितों की मुक्ति के मकसद को छोड़कर चन्द आभिजात्य दलितों के उत्थान तक सीमित हो गया। केवल पढ़े-लिखे दलितों को सरकारी नौकरियों मे स्थान देने तक ही सिकुड़ गया।
दया पवार ने दलित-राजनीति के विभिन्न आयामों को भी उठाया है। कम्युनिस्ट-आंदोलन और दलितों की दूरी की ओर भी संकेत किया है। इसके दो कारणों की ओर संकेत किया है एक तो कम्युनिस्ट राजनीति की कमजोरी थी कि वे अछूतों की विशिष्ट समस्याओं को नहीं समझ पाए, और उनके सामाजिक संबंध भी उच्च वर्ग के साथ ही बन रहे। दलितों में वे घुल मिल नहीं पाए। इसलिए दलितों में कम्युनिस्ट राजनीति नहीं बढ़ पाई, उस समय के वामपंथियों को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि अस्पृश्यों की अपनी अलग समस्याएं हैं। एक समय तो जिले का बहुजन समाज कम्युनिस्ट था। किसी समय तो वह सत्यशोधक आंदोलन भी रहा होगा। परन्तु समाज की सांस्कृतिक मूल्य-कल्पना कभी भी जड़ से समाप्त नहीं हुई थी। जेड.पी., शक्कर के कारखाने और महाराष्ट्र की राजकीय सत्ता के हाथों में रहने के बाद भी अनजाने में इन्होंने ब्राह्मण-संस्कृति की तरफदारी की। उनकी शादियों में ब्राह्मण आते। इनका पिंडदान ब्राह्मणों द्वारा संम्पन्न किया जाता। गांव की यात्रा-पूजा, सत्यनारायण की कथा, श्रावण मास का अखंड-पाठ आदि के कारण इनकी मानसिकता पारंपरिक ही थी। गांव का धनवान आदमी, चाहे वह समाजवादी हो या कम्युनिस्ट, अस्पृश्यों की मजदूरी-समस्या की ओर पहले-सा ही मगरूर होकर देखता। गांव के परम्परागत कार्यों के लिए यदि अस्पृश्यों ने इनकार किया तो वे पहले जैसे ही बहिष्कृत होते। उनकी नाकेबंदी होती। गांव की यात्रा का चंदा नहीं दिया, पोले के दिन मंदिर में बैल पहले ले गये, बाजा बजाने नहीं आये आदि छोटी-मोटी बातों को लेकर युद्ध छिड़ जाता। इन समस्याओं को लेकर वामपंथियों ने कोई मोर्चा बनाया हो याद नहीं। एक ओर महार समाज अपनी पुरानी बातें छोड़ रहा है, केंचुली-छोडे सांप सा सनसनाता देवधर्म से इनकार करता है और दूसरी ओर गांव के उत्पादन के साधनों में उसका कोई हिस्सा नहीं’ (पृ॰-203-204)
वामपंथी राजनीति से दलितों के न जुड़ने के मुख्य कारण को दया पवार ने पकड़ा है। दलितों के प्रति सामाजिक-शोषण व सामाजिक-अन्याय को अपनी राजनीति का केन्द्रीय तत्व बनाकर और अछूतों का शोषण करने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति व सामाजिक प्रथाओं को छोड़कर ही वह दलितों को अपने साथ जोड़ सकती है। इस बात में गहरी सच्चाई है कि वामपंथ भी दलितों की समस्याओं को सर्वहारा की समस्या ही मानता रहा। उसका समाधान भी वह आर्थिक-शोषण से मुक्ति में तलाशता रहा। जबकि सामाजिक-सम्मान व आर्थिक-शोषण से मुक्ति का संघर्ष आपस में जुड़ा हुआ है। समाज में वर्गीय-एकता व वर्ग-चेतना पैदा करने के लिए जाति-प्रथा जैसी बुराईयों के खिलाफ अभियान चलाना निहायत जरूरी था। जिस तरह राष्ट्रवादी सोचते रहे कि आजादी के बाद अपने आप शिक्षा व विकास से ऐसी बुराइयां दूर हो जाएंगीं, उसी तरह वामपंथ ने भी क्रांति में ही इस समस्या का समाधान खोजा, जो दलितों को अधिक विश्वसनीय नहीं लगा। दलितों का असली समाधान वामपंथी राजनीति व विचारधारा के पास है। वह तभी संभव है, जब दलित उससे जुडें और इसके लिए जरूरी है कि जिस तरह साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में वामपंथ ने विश्वसनीयता हासिल की है उसी तरह जातिप्रथा के खिलाफ आन्दोलनात्मक और विचारधरात्मक संघर्ष करने की जरूरत है। भारत का दलित असली सर्वहारा है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह किसी ऐसे जबानी जमा-खर्च में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह ठोस कार्यक्रम ही उसे वामपंथ से जोड़ सकता है। वामपंथ से आशा की किरण दलितों को दिखाई देती है। पिछले कुछ दशकों में जाति-उत्पीड़न के खिलाफ जो संघर्ष वामपंथ ने किए हैं उससे दलितों में वामपंथ की एक साख बनी है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन अभी इस संघर्ष को और तीखा करने की जरूरत है। दलितों की सामाजिक स्थिति उनके आर्थिक शोषण को बढ़ावा देती है तो उनकी आर्थिक स्थिति उनके सामाजिक शोषण को बढावा देती है। सामाजिक-शोषण और आर्थिक-शोषण एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। एक को छोड़कर दूसरे के खिलाफ संघर्ष अधूरा है।

अपने अपने पिंजरे


अपने अपने पिंजरेडा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मोहनदास नैमिशराय दलित साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, जिन्होंनें दलित साहित्य के विभिन्न पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई है। अपनी आत्मकथा अपने अपने पिंजरे’ में अपने अनुभवों के माध्यम से दलितों के आर्थिक व सामाजिक शोषण के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया है। अक्सर माना जाता है कि शहर दलितों के शोषण को कम करता है,लेकिन नैमिशराय का जीवन मेरठ शहर में ही अधिक बीता है और उनके द्वारा वर्णित अनुभवों से लगता है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है। दलितों का शोषण शहर में भी उतना ही है,जितना कि गांव में। मोहनदास नैमिशराय ने दलित जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की है। वे समाज व देश के संदर्भ में दलितों की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करते हुए इस बात पर विचार करते हैं कि दलितों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार करने के पीछे कौन से कारण रहे हैं। उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे ऐसे समुदाय से ताल्लुक नहीं रखते जिसने कि शोषण किया,निर्दोषों को सताया और धर्म के नाम पर अमानवीय परम्पराओं को वैधता प्रदान की।
हम गरीब जरूर थे पर हमने न देश बेचा था न अपना जमीर। न हम डंडीमार थे और न ही सूदखोर। चोर लुटेरों की श्रेणी में हम नहीं आते थे। हमारे पुरखों ने घर बनाए, शहर बनाए पर न हमारे पास ढंग के घर थे और न बस्तियां। शहरों के भीतर बसने की कल्पना भी करना हमारे लिए मुश्किल थी। शहर-दर-शहर और उनके आसपास छितरे हमारी जात के लोगों की यही दास्तान थी। ... शहर के नाले/कूड़ाघरों/नदियों के कछारों/कब्रिस्तान के आसपास हम जहां-तहां पसरते रहे। पर सवर्णों की तरह हमने न मुगलों से समझौता किया न अंग्रेजों से सौदेबाजी की। और न शहर में बख्शीस में हवेलियां/कटरे/मंदिरों के नाम पर बड़े-बडे़ भूखंड स्वीकार किये। समूचे शहर में उनके बड़े-बड़े भवन, पक्के मकान और हाशिये पर हमारे घर। किसने ऐसी संरचना की होगी आखिर शहर को कौन बांट गया शहर की बस्तियों/गलियों/ मोहल्लों/ कटरों को जातियों के खानों में। हमारे माथे पर हमारी जातियों के नाम भी खुदते गये। जख्म दर जख्म जिनकी टीस हम झेलते रहे। सवाल हमारे लिए सलीब बने, उत्तर कहीं से न मिले।’(पृ.-15, भाग-2)सही है कि दलित कभी शोषक श्रेणी के साथ नहीं रहे, लेकिन यह भी सही है कि सभी सवर्ण न तो शोषक रहे हैं और न ही सभी को शहर के बीच में हवेलियां मिलीं और न ही जमीनें मिलीं, बल्कि बहुत से सवर्णों की हालत भी दलितों से बेहतर नहीं है। सामन्ती शासन में केवल उन्हीं के ठाठ होते थे जो कि शासकों के वफादार होते थे और उन्हीं पर राजाओं की कृपा दृष्टि होती थी जो उसकी लूट और शोषण को स्वीकृति देते थे। यह सर्वविदित है कि वे बहुत ही कम होते थे। अधिकांश लोग तो प्रजा का ही हिस्सा होते थे। शोषकों-शासकों की संख्या हमेशा ही कम रही है क्योंकि यह संभव नहीं है कि कुछ लोगों की मेहनत का शोषण करके अधिकांश ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जी सकें। इसके विपरीत अधिकांश की मेहनत का शोषण करके कुछ लोग ऐश्वर्य-विलास का जीवन जी सकते हैं। इन कुछ’ के सामने यह हमेशा समस्या रही है कि वे कौन सा तरीका अपनाए कि उनके ऐश्वर्यपूर्ण जीवन में कोई विघ्न न आए। इसके लिए एक तो लोगों को न केवल बांटकर रखा, बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ भी करके रखा। दूसरे, लोगों में चेतना व जागरूकता न आए इसके लिए एक मिथ्या चेतना फैलाने के लगातार प्रयास किए। इस कार्य के लिए ब्राह्मणवाद ने वर्ण-व्यवस्था व पितृसत्ता को ईजाद किया।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा का भारतीय समाज व्यवस्था पर गहरा प्रभाव है। मानव समाज जातियों में बंटा हुआ है। इन जातियों में ऊंच-नीच मौजूद है। एक जाति को दूसरी से नीचा माना जाता है, तो दूसरी को तीसरी से नीचा माना जाता है। ब्राह्मणवादी-व्यवस्था व विचारधारा का केन्द्रीय तत्त्व है जाति-व्यवस्था। जाति के आधार पर समाज में तीखा विभाजन करके ही यह अपना अस्तित्व कायम रख सकी है। इसलिए इसकी कोशिश रहती है कि समाज में व्यक्ति की अन्य पहचानों को पीछे करके जाति की पहचान को आगे करती है, जबकि एक ही समय में व्यक्ति की एक से अधिक पहचान होती हैं जैसे पेशे के आधार पर व्यक्ति की पहचान कर्मचारी, किसान, मजदूर, व्यापारी के रूप में भी होती है। जाति की पहचान को छोड़कर यदि व्यक्ति अपनी पहचान पेशे के आधार पर करने लगे तो समाज में वर्ग-चेतना का प्रसार होगा और ब्राह्मणवादी विचारधारा इस बात को अच्छी तरह जानती है कि समाज यदि वर्ग के आधार पर संगठित होने लगा तो सामाजिक शोषण आसान नहीं रहेगा। जातीय पहचान के माध्यम से ही ब्राह्मणवाद लोगों के जीवन का अंग बना रहा है। शोषणकारी शासन-सत्ताएं जनता को विभाजित करके ही शासन कर सकती हैं और जाति ने भारतीय समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर रखा है, इसलिए चाहे यहां मुगलों का शासन रहा हो या फिर अंग्रेजों का सब ने जाति-प्रथा को समर्थन दिया। जाति लोगों की चेतना का हमेशा हिस्सा रहे इसके लिए गली-मुहल्लों तक के नाम भी जाति के आधार पर रखे गए हैं। इसका सबसे अधिक नुक्सान होता है निम्न कही जाने वाली जातियों को, जिनमें अपने निवास का पता बताते हुए ही एक सामाजिक अपमान का बोध पैदा होने लगता है।
मेरठ में मराठे आये और मुगल भी। फिरंगी अपनी भाषा तथा संस्कृति का समूचा लश्कर लेकर आये। जाति और वर्गों के खाने में पहले से ही बस्तियां बंटी थीं। हर आने वाले हमलावर दस्ते ने उन्हें अलग-अलग नाम दिए। बस्तियों के चप्पे-चप्पे पर जातिगत नामों की छाप थी। कुछ बस्तियां वाड़ों और पाड़ों के नाम से जानी गयीं - जत्तीवाड़ा, पौड़ीवाड़ा, जटवाड़ा, छीपीवाड़ा, खटीकवाड़ा, ठटेरवाड़ा, बनियावाड़ा आदि आदि। गलियों पर भी कहीं कहीं वैसी ही छाप रही। नील की गली, पत्ते वाली गली, रोहतगी गली, सुनार गली, कसाइयों वाली गली। मेरे शहर के भीतर बने पुल तथा पुलियों पर भी जातियों की पहचान थी। लोद्धों वाला पुल, सैनी पुल, कसाइयों की पुलिया, धीवरों का पुल...। इससे अलग बेगम पुल, भुमिया का पुल तथा खूनी पुल भी था। शहर में गेट और दरवाजे भी थे। चमार गेट, दिल्ली गेट, शोहराब गेट, बुढ़ाना गेट और सराय भी जैसे बनी सराय।
हर जाति और वर्ग के लोग अपनी-अपनी पहचान में सिमटे हुए। शहर धड़कता था, पर अलग-अलग स्वर में। बस्तियां थिरकती-नाचती थी अलग-अलग बोलियों में। उन सबसे मिलकर बना था यह शहर।’(पृ.-12)
जाति को व्यक्ति की मुख्य पहचान बनाने से निम्न कही जाने वाली जातियां तो उच्च जातियों की घृणा का शिकार होती ही हैं जो उनमें हीन भावना पैदा करती है परन्तु ऊंची कही जाने वाली जातियां भी श्रेष्ठता व दंभ का शिकार हो जाती हैं। व्यक्ति की योग्यता व समस्त प्रतिभा पीछे पड़ जाती है और जाति मुख्य हो जाती है। जबकि यह भी सच है कि किसी व्यक्ति की इच्छा से उसकी जाति तय नहीं होती। समाज में व्यक्ति की हैसियत और दर्जा जाति से ही तय हो जाता है। सबसे पहले व्यक्ति की जाति के बारे में जानने की जिज्ञासा समाज में रहती है और यही तय कर देता है कि संवाद होगा या नहीं। जब सवर्ण को पता चल जाता है कि जिस व्यक्ति से वह संवाद कर रहा है वह निम्न श्रेणी का है तो वह संवाद ही नहीं करता। इस मामले में वह किसी किस्म का खतरा उठाना नहीं चाहता इसलिए वह पहले ही जाति पूछ लेना चाहता है। लेखक का परिवार व मौहल्ले के लोग बैलगाड़ी पर मेले में जा रहे हैं तो पास से गुजरने वाली एक अन्य गाड़ी के लोग लेखक की गाड़ीवालों से सबसे पहले उनकी जाति के बारे में पूछता है उसका एक सवाल सामाजिक संरचना को और उसमें व्याप्त दलितों के प्रति घृणा को उजागर कर देता है।
कुछ दूरी पर दो बैल-गाड़ियां और मिलीं। गाड़ीवान ने केवल दो सवाल तड़ से कर दिए थे। कहां से आरे हो?’ हममें से इतने उसका जवाब कोई देता, दूसरा सवाल साथ-साथ कर दिया था - कौन जात हो?’
आगे पूरन की गाड़ी खड़ी थी। वह कुछ देर चुप रहा। बा ने झटाक से उत्तर दे दिया था - चमार दरवज्जे से!’
बा का जवाब सुनते ही गाड़ीवान ने तिक-तिक-तिक करते हुए गाड़ी आगे बढा ली थी। जैसे उससे हमारी गाड़ी छू न जाए।’ (पृ.-63)
सवर्ण जाति की दलितों के प्रति घृणा दो तरह से प्रकट होती है या तो वे बिना किसी संवाद के नकार कर चले जाते हैं या फिर उनके लिए गालियां उनके मुंह से फूटने लगती हैं। इस अपमान से बचने के लिए दलित अपनी जाति को छुपाने की कोशिश करते हैं।
अपने मामा की बारात में जाते हुए लेखक के नाना से रास्ते में लोग जब पूछते कौन जात हो?’ तो वे अपनी जाति न बताकर कभी जाट बता देते तो कभी सैनी बता देते। ऐसा करने का रहस्य नाना ने बाद में बतलाया था - रास्ते में कोई भी जात बतलाओ, पर अपनी जात बिल्कुल नहीं। हमारी जात का तो नाम सुनकर लोग आग बबुला हो जाते थे ।’ (पृ.-23,भाग-2)
दलितों को गालियां देने के लिए किसी कारण या कसूर की जरूरत नहीं है, इसके लिए उनका दलित होना ही काफी है। सवर्ण समाज में दलितों के प्रति जमी सदियों की नफरत व तिरस्कार एकदम उजागर हो जाती है, इसको सवर्ण समाज दबाने या छुपाने की कोशिश नहीं करता बल्कि बड़े अधिकारपूर्वक इसको व्यक्त करता है क्योंकि दलितों को नीचा दिखाने में वह अपनी शान व सम्मान महसूस करता है।
हिन्दू समाज में आदमी की कीमत उसकी जात से ही आंकी जाती थी। हमें विशेष तौर पर चमार-चूड़े के नाम से संबोधित किया जाता था। पर उनके संबोधन के तौर तरीके और भी घृणास्पद हुआ करते थे। उनके द्वारा कहे गए एक-एक शब्द हमारे शरीर को छीलते थे। बीच-बीच में वे गालियां भी देते थे। हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की अमानवीय परंपरा से जुड़ी अजीबो गरीब अश्लील गालियां। जिन्हें हमें सुनना ही पड़ता।’ (पृ.- 22, भाग-2)
अस्पृश्यता ब्राह्मणवादी विचारधारा का सबसे घृणित आविष्कार है। सदियों से समाज में इसके व्यवहार और ब्राह्मणवादी ग्रन्थों द्वारा इसको वैधता प्रदान करने के कारण इसमें छुपी अमानवीयता का अहसास ही नहीं होता कि वे कितना घृणित कार्य कर रहे हैं। जोतिबा फूले और आंबेडकर ने इसके विरुद्ध संघर्ष किया, लेकिन सवर्ण समाज सुधारकों की ओर से इस मामले में बहुत कम पहलकदमियां हुई जिस कारण इस समाज ने इसे सामाजिक बुराई के तौर पर पहचाना ही नहीं और दलितों के प्रति वे ऐसा व्यवहार करते रहे कि प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाने में उनकी जाति आड़े आ जाती है,एक ही रास्तों पर चलने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है। लेखक का अनुभव रोंगटे खडे़ कर देने वाला है, जब लेखक अपने बड़े भाई के साथ बहन को लिवा लाने के लिए जाता है तो उसको प्यास लग जाती है,वे एक सवर्ण के घर के आगे पानी पीने की आशा में रूकते हैं।
प्यास से मेरा दम ही निकले जा रहा था। वे दोनों ही हमारी तरफ गौर से देखे जा रहे थे। पानी तक न पूछा था उन्होंनें हमसे। मेरा प्यासा मन पानी पानी चिल्ला रहा था। थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने पूछा -कित गांव जाओगे?’
निठारी गांव’ भइया ने उत्तर दिया था।
किसके हिंया’ अब दूसरे ने सवाल किया था।
सुजान के हिंया’ भइया ने कहा।
उनमें से एक ने पूछा - जो चमार है?’
हां’,भइया के मुंह से निकला था।
अचानक दोनों के तेवर बदल गये थे।
तो म्हारे घर के अग्गे कियों खड़े हो? जाओ सिद्धे-सिद्धे, आगे चमारों के घर पड़ेंगें पैले।’ वे सांप की तरह पफुंफकारे थे।
हमें पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है’ भइया के स्वर में गिड़गिड़ाहट के भाव थे।
म्हारे घर चमारों की खात्तर पानी ना है।’ उन्होंनें इनकार कर दिया था।
अग्गे झोड़ है, वईं मिल जागा पानी-वानी तमै।’ हमारी तरफ हिकारत से देखते हुए कहा था उन्होंने।
मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था । पानी पीकर हम पांच मील भी आगे चल सकते थे। पर प्यासे गले से तो पांच कदम भी आगे न बढा जा रहा था। उन दोनों ने पानी से मना कर हमारी आधी जान ले ली थी। कितनी आस से हम रुके थे उनके घर के आगे। हम वहां प्यासे ही रुके थे और प्यासे ही आगे बढ गए थे।’ (पृ.-68)
लेखक को जोहड़ का गंदा और बदबू भरा पानी पीना पड़ा, जिसको कि जानवर भी मजबूरी में ही पीते हैं। ऐसा व्यवहार करते हुए सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति जरा भी असहज महसूस नहीं करते। उनकी सामान्य चेतना में दलितों के प्रति घृणा इतनी गहरे पैठी है कि वे बिल्कुल स्वाभाविक ढंग से ऐसा व्यवहार करते जाते हैं, अपनी सोच में उनको कोई खोट ही नजर नही आता। दलितों से व्यवहार करते हुए उनकी इन्सानी दृष्टि, मानवीय करूणा, सहानुभूति सब समाप्त हो जाती है। दलितों की हैसियत सवर्ण की नजरों में पशु से अधिक नहीं है इसलिए वह उसको पशुओं जैसी जीवन स्थितियों में रखना चाहता है। वह ऐसा व्यवहार अपमान व ठेस पहुंचाने के लिए बहुत सचेत स्तर पर नहीं करता, बल्कि उसके व्यक्तित्व व सोच का अभिन्न हिस्सा बन गया है। होमगार्डस शिविर के दौरान का अनुभव इसी ओर संकेत करता है।
शिविर में पहले ही दिन एक घटना हो गई। हम दो-तीन साथी रसोई में चले गए। और वहां क्या बना था, कैसा बना था, इसकी जांच-पड़ताल करने लगे। बनी हुई सब्जी के बडे़-बड़े बर्तन रखे थे। दो आदमी रोटियां बेल रहे थे और एक आदमी चुल्हे पर वहीं रोटियां सेंक रहा था। मैने एक टब को उघाड़कर जैसे ही भीतर रखी सब्जी देखनी चाही रसोइये ने इसका एतराज उठाते हुए गुस्से में कह दिया, न जाने तुम लोग कहां से आए हो, कौन हो। सब्जी का बर्तन ही छू दिया।’ हमें भी गुस्सा आ गया। मिने लगभग चिल्लाते हुए कहा,हम चमार हैं और इसी शहर से ही आए हैं।’
तब तो और भी गड़बड़ हो गया।’ रसोइया उफनते हुय बोला।
क्या गड़बड़ हो गया?’ हमने भी उफनते हुए पूछा।
यही कि सब्जी खराब हो गयी।’ वह तत्काल बोला।
कैसे खराब हो गयी?’ हमारे स्वर गर्म थे।
राम, राम, राम --- ,सब भरस्ट हो गया। हमें क्या मालूम था कि...।’ (पृ.-56, भाग-2)
अस्पृश्यता ने दलितों को तमाम मानवीय और प्राकृतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। असल में यह शोषण का माध्यम रही है, चूंकि सामाजिक रूप से कमजोर व्यक्ति और वर्ग का शोषण आसानी से किया जा सकता है और उसके विरोध को भी आसानी से दबाया जा सकता है। सामाजिक हैसियत और आर्थिक शोषण का बहुत ही गहरा रिश्ता है। बेगार की तमाम प्रथाएं सामाजिक दृष्टि से निम्न माने जाने वालों के ही हिस्से में आई हैं। सामन्ती-व्यवस्था में शोषण इस हद तक होता है कि व्यक्ति का अपने शरीर तक पर भी अधिकार नहीं रहता। काम के मामले में व्यक्ति की पसन्द-नापसन्द व इच्छा-अनिच्छा तो कोई मायने ही नहीं रखती। इस शोषण के लिए उनको मानसिक रूप से तैयार करने के लिए ब्राह्मणवादी विचारधारा का सहारा लिया गया। अधिकतर वही जातियां अस्पृश्य हैं जो दस्तकार हैं या फिर श्रमिक हैं, जिनका कि उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व नही है। इस शोषण को वैध ठहराने के लिए ही ब्राह्मणवाद के समाज चिंतक व संहिता लेखक मनु ने शूद्रों-श्रमिकों को संपति, ज्ञान व शस्त्रों से वंचित करके मात्र उच्च वर्णों की सेवा का अधिकार दिया और इसको धर्म का रूप दिया। शोषक वर्गों को अधिकार दिया कि वे कथित शूद्रों से जबरदस्ती काम करवाएं। ब्राह्मणवाद की इसी पद्धति से समाज का कार्य-व्यापार चलता रहा है।
हमारी जात के मर्द-औरतों को चैबीस घन्टे उनकी सेवा करने को तत्पर रहना पड़ता था। दिन का कोई समय हो, रात कितनी भी गहरी हो गई हो। सवर्णों का मूलमंत्र भी तो यही था। दलितों की पुरानी पीढी के साथ नई पीढी को गुलाम बनाकर रखना। हमारा काम था सेवा करना। हम सेवादार थे और वे हमारे मालिक। उनके हाथ में हंटर होते, चाकू होते, लाठी-बल्लम होते। वे इनके साथ धर्म, भाग्य और भगवान के हथियार भी इस्तेमाल करते। यही तो हमारा भाग्य है। ऐसा हमें बार-बार याद दिलाया जाता।’(पृ.-11,भाग-2)
शोषण को बनाए रखने के लिए एक तरफ तो बल का प्रयोग किया जाता है, दूसरी तरफ धर्म, भाग्यवाद का सहारा लिया जाता है। कर्म-सिद्धांत के आविष्कार का यही कारण रहा है कि एक तरफ तो यह समझाया जाता है कि व्यक्ति की जैसी स्थिति है वह किसी और के कारण नहीं बल्कि उसके अपने कर्मों का ही फल है, दूसरी और यह भी समझाया जाता है कि यदि वह कर्म’ में लीन रहे तो अपनी स्थिति को सुधर भी सकता है। इसी तरह के हथकण्डे अपनाकर ही दलितों की चेतना को नियंत्रित करने का काम किया जाता है। वह अपनी स्थिति के वास्तविक कारणों को जान ही नहीं पाते, बल्कि शोषण को भी बिना किसी विरोध के सहन करते जाते हैं, और अपनी हालत को सुधारने’ के लिए ज्यादा काम करते हैं और फलस्वरूप ज्यादा शोषण का शिकार होते हैं। अपने शोषण करने वालों को ही अपना अन्नदाता, रक्षक, हितैषी मान लेते हैं।
पूंजीवादी शोषण ने दलित जीवन को गरीबी की दलदल में डाल दिया है और सामाजिक शोषण के साथ मिलकर यह उसे बदतर बना देता है। पूजीवादी-व्यवस्था में पूंजी को प्रधानता दी जाती है न कि श्रम को, और दलित श्रमिक हैं न कि पूंजी के मालिक। श्रमिकों का शोषण करने के लिए पूंजी तरह तरह के खेल करती है। उनके काम में तरह-तरह के मीन-मेख निकालती है, श्रमिकों-कारीगरों के काम को वह कम करके आंकती है और श्रमिकों की सामाजिक हैसियत व कमजोर माली हालत उसके सौदेबाजी की क्षमता को कम करती है। पूंजीपति श्रमिकों का श्रम अपनी शर्तों पर खरीदते-बेचते हैं। पूंजीवाद की विशेषता है मार्किट। मार्किट पर पूंजी की प्रधानता के कारण श्रमिकों-कारीगरों के श्रम का मूल्य भी व्यापारी ही तय करता है।
दुकानदारों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। वे टोकरे में से चप्पल निकाल-निकालकर देखते। उनमें ढूंढकर नुक्स निकालते। ऐसे समय पर हमें बहुत बुरा लगता। इतनी मेहनत से बा चप्पल बनाता था। फिर भी वे उसमें कोई न कोई कमी निकाल ही देते थे। असल में कमियां निकालने का कारण भी होता था। चप्पलों में दो चार कमियां निकालकर वे दाम कम कर देते थे। एक बार घर से टोकरा भरकर माल ले गए थे तो उसे वापस न लाते थे। भले ही कम पैसे मिलें। जैसे तैसे भाव पर माल बेच दिया जाता था।’(पृ.80)
इस शोषण से बचने का कोई उपाय श्रमिक के पास नहीं है, कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि वह अपने माल का उचित दाम पा सके ।
शोषण के कारण चौबीस घण्टे काम करने के बाद भी मेहनती व्यक्ति कंगाली की हद तक पहुंच जाता है और दूसरी तरफ उसकी मेहनत का शोषण करने वालों की साल-दर-साल संपति-पूंजी में वृद्धि होती जाती है व साधनों, बाजार व पूंजी पर उसका एकाधिकार बढता जाता है।
दलित जाति के दस्तकार बड़ी लगन और मेहनत से फैंसी (सजावट वाली) चप्पल/सैंडिल बनाया करते थे। बाजार में इनकी खूब मांग थी। इन्हीं को बेच-बेचकर न जाने कितने लाला/बनिए करोड़पति बन गए थे। पर दस्तकारों में उस समय लखपति भी कोई नहीं बन सका था। इन दस्तकारों को फी एक जोड़ी चप्पल पर एक रूपया ही मिलता था, सैंडिल पर डेढ़ या दो रूपये मिल जाते थे। जबकि दुकानदार इन्हीं पर पांच-दस रूपये कमाते थे। रोज शाम होते-होते टोकरे भर भर करोलबाग के बाजार में ये दस्तकार ले जाते थे। पर दुकानदार इन्हें कभी भी पूरे पैसे नहीं देते थे। वे थोड़े पैसे देकर पर्ची थमा देते थे। उस पर्ची को दिखलाकर ये दुकान से चमड़ा आदि खरीदते थे। ये दुकानें भी किसी लाला/किसी बनिए/या किसी पंजाबी की हुआ करती थीं। वे उस पर्ची को देखकर अधिक दामों पर सामान दिया करते थे। इस तरह दलित की हर जगह कटौती होती थी। उसके द्वारा बनाए माल पर कम मुनाफा मिलता था दूसरे राॅ मैटेरियल के दाम उसे अधिक देने पड़ते थे। उसे खटना ही पड़ता था। अधिकांश दलित शराब के नशे में अपने पास की जमा पूंजी गंवाते थे। पैसा जब पास नहीं होता तब उन्हीं दुकानदारों के सामने हाथ फैलाते थे। जो उनका भरपूर शोषण करते थे।’(पृ.-60, भाग-2)
पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिको-दस्तकारों का दोनों तरफ से शोषण किया जाता है उसका श्रम खरीदते समय भी और उसको कच्चा माल बेचते समय भी।
मोहनदास नैमिशराय ने दलित-श्रमिक व कारीगर के शोषण का बिल्कुल सही वर्णन किया है, लेकिन उनकी दृष्टि इसको पूंजीवादी-शोषण के रूप में न पहचान कर जातीय रंग देती है। जैसे उनके अनुभव ही बताते हैं कि दुकानदार चाहे हिन्दू हो या मुसलमान वह श्रमिकों से एक ही तरह से पेश आता है और इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि यदि दुकानदार दलित भी हो तो वह भी श्रमिकों-कारीगरों से उसी तरह ही पेश आयेगा जिस तरह लेखक ने सवर्ण लाला को दर्शाया है। व्यापारी की कोई जाति नहीं होती, उसकी एक ही जाति है अधिकतम मुनाफा। वह किसी की जाति देखकर अपना मुनाफा नहीं छोड़ता। किसी सेठ या पूंजीपति को केवल जाति बनिया/पंजाबी तक सीमित कर देना व्यवस्था के शोषणकारी रूप को सीमित कर देना है। पूंजीवादी व्यवस्था की प्रकृति है श्रम का अधिक से अधिक शोषण करके पूंजी को अधिक से अधिक लाभ देना, इसीलिए तो श्रमिक को फी जोड़ी डेढ या दो रूपए मिलते हैं और व्यापारी को फी जोड़ी पांच-दस रूपए। इस व्यवस्था में यदि कोई दलित जाति से संबंध रखने वाला व्यापारी भी हो तो वह भी उसी तरह चांदी कूटते हैं जैसे कि सवर्ण। यदि जाति देखकर शोषण में कुछ छूट होती तो एक सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाला अपनी ही जाति का शोषण न करता, इस मामले में यह व्यवस्था सबसे समान रूप से पेश आती है। दलित-श्रमिक-कारीगर की तरह ही किसान का भी शोषण इस हद तक होता है कि अपने खेतों में इतना अनाज पैदा करने के बाद भी उसको साल के आखिरी दिनों में अपना पेट भरने के लिए तथा खेतों में बोने के लिए उन्हीं व्यापारियों से मंहगें दामों में अनाज खरीदना पड़ता है, जिन्होंने किसान से बहुत कम कीमत पर ही खरीदा था। मण्डी के व्यापारी-आढती के ऐश्वर्य-विलास में जितनी वृद्धि होती जाती है, किसान के कर्जे में भी उतनी ही वृद्धि होती जाती है। किसान के कर्जे और शोषक व्यापारी के ठाठ बढाने में भी उसी तरह की पर्ची’ की भूमिका है जो श्रमिक को कंगाल बनाती है। आढती भी किसान को उसकी फसल के नकद दाम देने के बजाए पर्ची थमा देता है। खेती के लिए जरूरत का सामान बीज, खाद, तेल, दवाई आदि सब पर्ची के माध्यम से ही खरीद पाता है। इस पर्ची ने किसान को बंधुआ क्रेता और बंधुआ विक्रेता बना दिया है। पर्ची के माध्यम से आढती उसका फाईनेंसर है इसलिए वह अपना उत्पाद भी बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं है और उसको अपने उत्पाद का सही मूल्य भी उसे नहीं मिलता। उसके हाथ में न तो खरीदते वक्त मोल भाव करने की शक्ति रहती है और न ही गुणवत्ता के आधार पर अस्वीकार करने की। उसे घटिया सामान भी उफंचे दाम पर मिलता है। पूंजीवादी-सामन्ती शोषण की दोहरी मार ने अन्नदाता कहलाने वाले किसान को पैसे-पैसे का मोहताज बना दिया है। पूंजीवादी शोषण ने मेहनतकश लोगों का जीवन इस तरह अभावग्रस्त बना दिया है कि जिस बस्ती में घर घर चप्पलें बनती थी लेकिन मेरे पांव में बरसों तक ढंग की कोई चप्पल नहीं आई।’(पृ.-77) पूंजीवादी व्यवस्था में सारा उत्पादन बाजार के लिए होता है और बाजार में अपनी हैसियत को सुधारने के लिए श्रमिक अपना सर्वोत्तम बाजार में पहुंचाता है। उसके अवचेतन का ही हिस्सा बन गया है कि वह अपना बढिया उत्पाद तो मण्डी में लेकर जाता है। अपने उपभोग के लिए रखता भी है तो बचा-खुचा व ऐसा जिसकी कीमत बाजार में कम है। किसान भी अपना बढिया-से-बढिया माल मण्डी में लेकर जाता है और बचा हुआ अपने परिवार के काम के लिए। समस्त मेहनतकश के प्रति इस व्यवस्था का यही रवैया है, कारीगर जो आलीशान बंगले बनाते है वे बहुत गंदे घरों में रहते हैं, जुलाहे हर मौसम के लिए रंग-बिरंगे व डिजाइनदार वस्त्र बनाते है, लेकिन उनके व उनके परिवार को बदन ढकने के लिए कपड़ा नसीब नहीं होता, जो गांव-शहर की सफाई करता है उसे रहने के लिए साफ-सुथरी जगह नहीं मिलती। सभी मेहनत करने वाले लोगों की हालत लगभग एक जैसी है चाहे वह किसी भी जाति से या धर्म से क्यों न संबंध रखता हो, पूंजीवादी शोषण की चक्की में सब श्रमिक बराबर पिसते हैं। लेकिन यह बात भी सही है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर होने के कारण दलितों का शोषण करना ज्यादा आसान है, बेगार आदि के माध्यम से इस वर्ग का शोषण को वैधता सी मिली है। दलितों को न चाहते हुए भी यह स्वीकार करनी पड़ती है। आर्थिक अभाव के कारण समय पर मकान का किराया नहीं दे पाते तो जिस नबाब के किराएदार हैं वह अपने जुते चप्पल मुरम्मत करवाता है, लेकिन वह इसके बदले में मजदूरी नहीं देता।
पर नवाब साहब चप्पल मरम्मत का पैसा न देता था। ऐसा ही होता था। वह बेगार थी, पर हमारी जात के लोगों की मजबूरी थी। बेगार न करें तो जिन्दगी मुसीबतों, मुश्किलों से घिर जाती थीं। एक-एक कर अड़चनें आती थीं। जिनका सामना करना हमारी जात के लोगों के बस का नहीं था। हमारा बोझ दोहरा था। एक गरीबी का और दूसरा जात-पात का।’(पृ.-40)
पूंजीवादी शोषण ने समस्त श्रमिक वर्ग को कर्ज के बोझ से दबा लिया है। श्रम के दाम पूरे न मिल पाने के कारण परिवारों का गुजारा ही ढंग से नहीं होता, लेकिन प्राकृतिक संकट से उबरने के लिए लिया गया कर्ज तो तमाम पारिवारिक ढांचे को ही समाप्त कर देता है। लेखक की पूरी बस्ती ही काशो नाम के साहूकार के कर्ज के तले दबी है। बरसात के कारण मोहनदास का मकान गिर जाता है उसकी मुरम्मत करवाने के लिए लेखक का परिवार काशो से पांच हजार रूपए कर्ज ले लेता है लेकिन उस कर्ज को वापस नहीं कर पाते तो घर में कलह व तनाव शुरू होता है और पारिवारिक जीवन से सारी खुशियां छीन लेता है।
आर्थिक रूप से जितना हम उबरने के लिए प्रयास करते उतना ही गरीबी की दलदल में और धंसते जा रहे थे। आजकल बा, पिता और चाचा में वैसे भी पटती न थी। जरा-जरा सी बात पर वे बिदकते थे। पांच हजार रूपया उन्होंने मिलकर कर्ज तो लिया था, लेकिन कर्ज को उतारने के नाम पर एक न थे। फलस्वरूप कर्ज पर ब्याज बढ़ता ही जा रहा था। और जैसे-जैसे ब्याज बढता था फिर उस पर चक्रवर्ती ब्याज भी लगने लगा था। ब्याज-पर-ब्याज, जैसे लकड़ी को दीमक चाटती लगती है वैसे ही बा को कर्ज पर ब्याज की चिंता रात दिन सताने लगी थी। बा का शरीर चिंता का गठरी बन गया था। वह अपने - आपमें सिमटने लगा था। चिचिड़ाहट बढ गई थी। ... मां से अक्सर झगड़ा हो जाता। दोनों एक दूसरे को बुरा-भला कहते। मैं, भइया चुपचाप सुनते। जिस दिन झगड़ा होता उस दिन रोटी देर से बनती।’ (पृ.-94)
पूंजीवादी शोषण का सबसे भद्दा चेहरा है कर्ज, जिसके कारण देश भर में हजारों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। शोषण और मानव-अस्तित्व एक दूसरे के आमने-सामने खडे़ हैं जहां या तो जीवन रहेगा या फिर कर्ज। मजबूर श्रमिक व किसान का कर्ज को उतारने पर तो कोई वश नहीं चलता, लेकिन वह अपना जीवन समाप्त कर लेता है। साम्राज्यवादी, पूंजीवादी व सामन्ती-शोषण मजदूरों-किसानों के जीवन से सारा रस सोखकर गरीबी-दरिद्रता की गर्त में धकेल रहा है।
सामाजिक सम्मान व मानवीय गरिमा के संघर्ष को दरिद्रता को दूर करने वाले संघर्ष के साथ जोड़ने से ही सामाजिक व आर्थिक रूप से शोषितों, पीड़ितों, वंचितों का बड़ा मोर्चा बनाया जा सकता है। विभिन्न वर्गों में एकता के सूत्र खोजना व संगठित संघर्ष करने से ही कोई मूल बदलाव संभव है। इसके विपरीत जनता की एकता को तोड़कर जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के संकीर्ण आधार पर उनको संगठित करने वाले नेता व राजनीतिक दल दलित-श्रमिक मुक्ति के शत्रु हैं। व्यापक जन-आन्दोलन के लिए विभिन्न वर्गों की भागीदारी व सभी वर्गों के विकास के अवसर देने वाले व शोषण से मुक्ति की आंकाक्षाओं को अभिव्यक्ति देने वाले व्यापक परिप्रेक्ष्य की जरूरत है, जो जातिविहीन व शोषण रहित व्यवस्था की स्थापना के संकल्प में ही संभव है।
दुर्भाग्य की बात तो यह है कि ब्राह्मणवाद का कोढ जाति-प्रथा दलितों में भी इस तरह अपनी जड़ जमाए है कि अन्य वर्गों के साथ साझा संघर्ष तो दूर की बात है दलितों को भी यह विभाजित करती है। जो जातियां स्वयं उच्च-वर्ण की घृणा का शिकार हैं वे स्वयं अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के प्रति घृणा करती हैं।
दलितों में ही जाटव और वाल्मीकि जातियों के बीच संवाद का अभाव तो था साथ ही आपस में घृणा और तनाव का वातावरण भी रहता था। कभी-कभी तो मारपीट भी हो जाती थी। ...
हमारी जात के घरों में भी सफाई करने वाली/सफाई करने वाली आती थीं, जिन्हें अन्य की तरह हम भी अबे ओ भंगी के, अरी ओ भंगन ... आदि नामों से पुकारने में अपना बड़प्पन समझते थे। उन्हें बात-बात पर गालियां भी देते थे। हमारे घरों में जब किसी की मृत्यु हो जाती तो मृतक के अन्य कपड़े, सामान आदि उन्हें दिए जाते थे। शादी विवाहों के अवसरों पर उनकी स्थिति दीनहीनता से भरपूर और भी विचित्र बन जाती थी। जब सभी लोगों का भोजन समाप्त हो जाता था तब तक टोकरा, सिलवर की परात, गिलास आदि लिए वे भिखमंगे की तरह इंतजार करते थे। बीच में उनकी औरतें चिरौरी करतीं और हमें सेठ जी, चौधरी, माइ-बाप, हजूर आदि आदि नामों से अंलकृत करतीं। दूसरी तरफ मर्द उन्हें डांटे-फटकारे बिना न रहते। कभी-कभी गालियां भी दे देते। वे विवश, भूखे पेट लिए घर बैठे बच्चों को जल्द-से-जल्द जूठन खिलाने के लिए सब कुछ सहन करतीं। ...उस समय तक हमारी जात के विवाह आदि में कोई भी वाल्मीकि समाज का व्यक्ति पंगत में हमारे साथ बैठने की हिम्मत नहीं कर करता था। और न ही हमारे बीच से ही कोई उन्हें बुलाने का साहस करता था। दलित जातियों में भी परस्पर समरसता का अभाव था। एक-दूसरे के प्रति घृणा तथा ईर्ष्या अधिक थी।’(पृ.-67, भाग-2)
दलित जातियों में समानता का न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है असल में असमानता व्यवस्था का चरित्र है, जो जातियों की ऊंच-नीच में वह प्रकट होता है और अपने से नीचे मानी जाने वाली जाति के प्रति तिरस्कार इसका अनिवार्य पहलू है। यह व्यवस्था टिकी ही इसके सहारे पर है यदि विभिन्न स्तरों पर भेदभाव न होता तो यह एक दिन भी न टिक पाती। असल में तो यह श्रमिक वर्ग के विभाजन का ढंग है इसलिए श्रमिकों में जाति की जडें ज्यादा गहरी हैं। उच्च वर्ग में तो जाति के बावजूद एकता नजर भी आ जाती है। शायद ही कोई जाति ऐसी होगी जो उच्चता के क्रम में कुछ जातियों को नीचा न समझती होगी।
जातियों-उपजातियों में बंटे दलित समाज को जातिवाद की जकड़ से निकालना व जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष में शामिल करने से ही दलित-आन्दोलन कुछ सकारात्मक कर सकता है, लेकिन विडम्बनापूर्ण है कि स्वयं दलित-नेतृत्व जाति के आधार पर लोगों को एकत्रित करके उनमें फूट पैदा कर रहा है और ब्राह्मणवाद को वैधता प्रदान कर रहा है। जातियों के आधार पर पनपा दलित-नेतृत्व आपस में लड़ने व एक दूसरे को गरियाने में व्यस्त है। शासक वर्ग की अन्य पार्टियां राजनीतिक चेतना व जागरूकता पैदा किए बिना लोगों की भीड़ एकत्रित करके उसको वोट-बैंक में तब्दील करने पर लगी हैं उसी कार्य प्रणाली का शिकार दलित नेतृत्व भी है। बिना सामाजिक सुधार के एजेंडे के राजनीतिक-आन्दोलन इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। सिर्फ वोट के लिए लोगों को इकठ्ठा करना ही राजनीति मान लिया गया है न कि राजनीति के माध्यम से समाज-परिवर्तन को। अधिकांश दलित नेताओं को तो जाति की इन रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। सच यह भी है कि रेखांए रहेंगी तो उनकी राजनीति चलेगी, वरना फिर उन्हें कौन पूछेगा। इसलिए वैसे नेता समाज से जाति भेद के खत्म होने की बात नहीं सोचते। इसके विपरीत वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वे रेखांए उभरें इस बारे में वे प्रयास करेंगें। जगह-जगह जाकर दलितों के बीच जाति भेद पर भाषण देंगें। हमें कम मिला उन्हें ज्यादा क्यों मिला, इस पर तूफान खड़ा कर देंगें। जिन जातियों को कम मिला उन्हें बरगलायेंगें तथा अपने भाषणों से मंत्रमुग्ध कर उनकी वोटों से सौदा कर संसद और विधान सभाओं में पहुंचेंगे। यही है उनकी राजनीति।’(पृ.-65,भाग-2)
महज सत्ता प्राप्त करने की राजनीति करने के कारण दलित-नेतृत्व घोर अवसरवाद का शिकार है। राजनीति के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाना मकसद न होकर मात्र सत्ता हासिल करना है इसीलिए न तो घोर ब्राह्मणवादी व मनुवाद को आदर्श मानने वाले राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सत्ता प्राप्त करने में कोई हिचकिचाहट है और न ही अन्यायकारी व उत्पीड़नकारी शक्तियों का साथ देने में कोई संकोच है। दलितों के नाम पर चुनकर आए सांसद व विधायक दलित-उत्पीड़न व दमन के मामलों पर भी मूकदर्शक बने रहते हैं और दलित पक्ष को मजबूत करने के लिए आवाज नहीं उठाते। असल में यह नेतृत्व सामाजिक संघर्ष की उपज नहीं है इसीलिए तो इसके व्यवहार में सामन्ती प्रवृतियां देखने को मिलती हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर की विचारधारा और संघर्ष चेतना को तो इस नेतृत्व ने त्याग दिया है, लेकिन उनका नाम इनके काम का है, इसलिए उसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं। आम्बेडकर द्वारा उठाए गए शोषण के सवाल, भूमि के सवाल, उत्पीड़न के सवाल, दलितों में एकता पैदा करने के सवाल, दलितों में शिक्षा व वैज्ञानिक चेतना प्रसार के सवालों को छोड़कर भावनात्मक सवालों को उठा लिया है जैसे कि मार्गों का नाम व पार्कों का नाम आम्बेडकर के नाम पर रखना, चौंक पर उनकी मूर्ति स्थापित करने को लेकर लोगों को आन्दोलित करना। दलित-आन्दोलन किसी मूल बदलाव के लिए संघर्ष न होकर मात्र पहचान व अस्मिता का व कुछ सुविधांए प्राप्त करने के लिए दबाव की राजनीति तक सिकुड़कर रह गया है। दलित आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में समस्त दलित-समाज के उत्थान की बात न रहकर कुछ दलितों को सत्ता में हिस्सेदारी ही रह गई है और सत्ता के खेल में लिप्त नेता सुविधावाद व भ्रष्टाचार में धंसे है। असल में दलित समाज में भी बहुत कम लोग ऐसे थे जिन्हें दलित अस्मिता तथा आंदोलन की समझ थी। वरना अधिकांश तो बाबा साहेब डा.आम्बेडकर के नाम पर खाते-पीते और मौज-मस्ती करते थे। दलितों के पास भी जैसे-तैसे पैसा आ रहा था वे सुविधाओं से संभोग के पक्षधर थे।’ (पृ.-149, भाग-2) इस मानसिकता के चलते एक ऐसा वर्ग भी उभरा है जिसका दलितों की मुक्ति से तो कुछ लेना नहीं लेकिन इसकी आड़ में अपना उल्लू जरूर सीधा कर रहे हैं।
दलित-आन्दोलन का नेतृत्व मध्यवर्ग का ही शिकार हो गया है। इसके कार्य व मुद्दे तो बदल ही गए हैं आन्दोलन में मध्यवर्ग के सवाल प्रमुखता पा रहे हैं और गरीब लोगों के सवाल पीछे पड़ते जा रहे हैं। दलित-आन्दोलन चन्द शिक्षित लोगों के अधिकारों की तो बात करता है, लेकिन अधिकांश जनता के हितों की परवाह नहीं मानता, इसीलिए वह सरकारी नौकरियों में आरक्षण की तो बात करता है, लेकिन भूमि सुधार या कारखानों में काम करने वाले व खेतीहर-मजदूर, व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश दलितों की ओर से आंख बन्द कर लेता है। दलितों में जो मध्यवर्ग पनपा है उसकी रोजी-रोटी की समस्या तो दूर हो गई है इसलिए वह केवल सम्मान की लड़ाई व स्वीकृति के लिए संघर्ष करना चाहता है। गरीब लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल रोजगार व रोटी का है, जबकि मध्यवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त आन्दोलन मात्र स्वाभिमान के या अस्मिता को मुख्य मानता है।श्रमिक दलित के लिए रोजगार-रोटी व सम्मान के मुद्दे अलग नहीं हैं इसलिए वह इस आन्दोलन का हिस्सा ही नहीं बन पाता। मोहनदास नैमिशराय का अनुभव बताता है कि दलित समाज की वस्तु-स्थिति को समझकर व उनके सही सवालों को उठाने से ही उसमें लोगों की भागीदारी संभव है। ऐसे ही आन्दोलन का जिक्र किया है।
कई बार बस्ती में यह सवाल उठा था कि औरतों का जंगल जाना बंद कर देना चाहिए। उन दिनों मेरठ शहर तथा आसपास के गांवों में सामाजिक सुधार की हवा बहने लगी थी। गांव-गांव में मुर्दारी न खाने पर जोर दिया जा रहा था। हमारी जात के लोग बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे। उनमें उजले कपड़े पहनने की लालसा उगने लगी थी। फिर बदलाव की आंधी से हमारी बस्ती कैसे अछूती रह पाती? वह तो शहर के बीच में थी। पर जंगल जाने वाली औरतें इस बदलाव में न थी। इसलिए कि जंगल उन्हें रोटी देता था। कोल्ड-स्टोरेज से मिली मजदूरी से वे अपने बच्चों का पालन पोषण करती थीं। गोबर के उपले बेचने से उन्हें चन्द पैसे मिलते थे। उनमें से अधिकांश के साथ शोषण द्वारा जिस्म की भूख मिटाने की अकसर घटनाएं रहती थीं। जंगल, खेत, खलिहान, कोल्ड स्टोरेज, बाग, बगीचे, काश्तकारों के बड़े-बड़े मकान इन सबके चश्मदीद मूक गवाह थे।’(पृ.-83)
इससे स्पष्ट है कि जब तक दलित पूर्ण रूप से उच्च वर्ग पर निर्भर हैं तब तक वे शोषण से मुक्त होने के संघर्ष में शामिल नहीं हो सकते। उत्पादन के साधनों में हिस्सेदारी को दलित आन्दोलन का मुख्य सवाल बनाकर ही इसे प्रभावी आन्दोलन बनाया जा सकता है।
दलित-आन्दोलन पर मध्यवर्ग के मुद्दे ही हावी नहीं हैं, बल्कि दलित-जीवन को देखने के मामले में भी उसकी नैतिकता व शिष्टाचार की दृष्टि मध्यवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त है। मोहनदास नैमिशराय का दृष्टिकोण भी इस सीमा को नहीं लांघ सका। जब तब इसके दर्शन हो ही जाते हैं। वे दलित जीवन का बड़ा ही यथार्थपरक वर्णन करते हैं, लेकिन जब इस बारे में अपने विचार प्रकट करते हैं तो मध्यवर्ग का संस्कार स्पष्ट हो जाता है।दलित बस्ती से सवर्ण औरतें गुजरती हैं उसके वर्णन करते समय यह सीमा एकदम स्पष्ट हो जाती है।
बस्ती से गुजरते हुए औरतें हमारे घरों के भीतर कंगाली के मानचित्र को देखकर उपहास करतीं। उनकी बातों में जाति सूचक संबोधन होते। बस्ती की औरतें उन्हें देखतीं और वे बस्ती की औरतों को। हमारी बस्ती में गलियां या बक्खल भी थीं। सड़क के दोनों तरफ वैसे अधिकतर पंक्तिवार कच्चे घर थे। वे घर खुले होते थे। जैसे घरों के भीतर-बाहर खुलापन था वैसे ही उन घरों में रहनेवालों के खुलेपन की कोई सीमा न होती थी। एक आदमी किसी एक कोने से किसी को आवाज देता था तो बस्ती के दूसरे कोने पर उसकी आवाज सुनाई देती थी। लोग फुसफुसाकर बातें कम करते थे और तेज आवाज में अधिक बोलते थे। वे शालीनता में विश्वास नहीं करते थे। आदतन चीखते-चिल्लाते थे। फिर वे चाहे महिलाएं ही क्यों न हों।’(पृ.-35,भाग-2)
खुलेपन का वर्णन तो सही है, लेकिन जब लेखक इसे फूहड़ता की श्रेणी में रख देता है और शालीनता’ को धीरे-धीरे आवाज में खोजने लगता है और उनका बात करना चीखने-चिल्लाने’ के रूप में परिभाषित करने में मध्यवर्गीय संस्कार ही दिखाई देता है।
गरीबी, अस्पृश्यता व सामाजिक शोषण के सम्बन्धों को समझकर इनके खिलाफ संयुक्त संघर्ष करके ही दलित आन्दोलन फल-फूल सकता है और उसी से दलितों की स्थिति में कोई मूल बदलाव संभव है। आर्थिक-शोषण व सामाजिक-शोषण पूंजीवादी-सामन्ती शोषण के दो रूप हैं, जिनके खिलाफ अलग-अलग संघर्ष से कुछ विशेष हासिल नहीं होगा। सरकारी-सेवाओं में दलितों के लिए आरक्षण का आन्दोलन है वह भी हिस्सेदारी व प्रतिनिधित्व का ही आन्दोलन है, जिसको कि धर्म व कानून बनाकर दलितों को वंचित किया गया है। केवल सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण से सबको हिस्सेदारी नहीं मिल सकती, जबकि दलित नेतृत्व अधिक-से-अधिक इसी बात को उठाता है। यद्यपि वर्चस्ववादी-सवर्ण वर्ग सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी देने के लिए भी तैयार नहीं है, इसलिए आरक्षण के खिलाफ वह लगातार सक्रिय रहता है। कभी योग्यता का सवाल उठाता है तो कभी गुणवत्ता का। जहां मौका मिलता है वहां इससे इनकार भी करता है। दलितों के प्रति भेदभाव के रवैये को शिक्षा भी नहीं बदल पाई है, क्योंकि शिक्षा भी समाज के वर्चस्वी वर्गों के हितों को पूरा करती है। उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी दलितों के प्रति वही दृष्टि रखता है जो कि आम नागरिक रखता है। शोषण आधारित व्यवस्था में शिक्षा का मुख्य काम बन जाता है वर्गों की हैसियत और स्थिति के अनुसार लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करना, इसलिए शिक्षा के बावजूद पुरातन संस्कारों से उनका न केवल व्यक्तिगत जीवन चलता है, बल्कि राज्य-तंत्र को भी कानून की बजाए अपनी धारणाओं के अनुसार चलाते हैं। कानून तो जाति, धर्म, भाषा के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव की अनुमति नहीं देता, लेकिन ऐसा वहीं पर होता है जिन्होंने इस कानून को लागू करना है। थानेदार की भर्ती के दौरान हुए लेखक का अनुभव इसी ओर संकेत करता है।
सबके बीच में आया था वही एस. एच. ओ. जिसने पैरेड़ ग्राऊंड़ में खड़े लड़कों को दो भागों में बांट दिया था। एक भाग सवर्णों का, दूसरा दलितों का। मैं दलितों वाले भाग में सिमट गया था। मेरी देखा-देखी दूसरे भी एक-दूसरे के पीछे सिमट गए थे। सच कहा जाए तो उस दिन भरी दोपहरी में हमारे व्यक्तित्व बौने हो गए थे। हम बौने हो गए थे। हमारी प्रतिभाएं जैसे कुंद-सी हो गई थीं।
एस.एच.ओ. ने ऊंची आवाज में कहा था - जो सुडलकास्ट लड़के हैं वे एक तरफ हो जाएं हमें फाइनल लिस्ट बनानी है।’ कैसे चाबुक से लगे थे उसके शब्द हमारे शरीर और मन पर।’(पृ.-86,भाग-2)
शिक्षा ही नहीं वर्ग विभक्त समाज में नैतिकता और शिष्टाचार पर भी वर्गीय छाप होती है। एक वर्ग के लिए जो शिष्टता है दूसरे के लिए वही धृष्टता की श्रेणी में आ जाती है।
बा का बस्ती और शहर में बड़ा मान था। तो भी उन्हें वैसे ही पुकारा जाता था - कहां गया है रामप्रसाद। बडे़ तो बड़े, छोटे भी सुभान अल्लाह, उनके बेटे-बेटियां यहां तक कि बच्चे भी इसी तेवर में बोलते थे - रामप्रसाद आ जाये तो उसको बोल देना, हमारी चप्पल की मरम्मत कर दे। घर में हम सभी को बहुत बुरा लगता था। पर कर भी क्या सकते थे।’(पृ.-18)
जिस समाज में हर स्तर पर भेद हों उसमें बराबरी की भाषा नहीं पनप सकती। भाषा के माध्यम से ही तो सारा कार्य-व्यापार चलता है, इसलिए एक वर्ग का दूसरे के प्रति रवैया सम्मान-अपमान व समाज में उसकी हैसियत भी भाषा से ही उजागर होती है। बराबरी के समाज में ही बराबरी की भाषा ही अपेक्षा की जा सकती है। वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वी वर्ग दलित-श्रमिक वर्ग के प्रति घृणा का न भी कहें तो अनादर व तिरस्कार का भाव तो रखता ही है। व्यापारी चाहे हिन्दू हो या मुसलमान मेहनतकश के प्रति उसका रवैया एक सा ही होता है।
बैली बाजार में उन दिनों चप्पल-जूतों की दो दुकानें थीं। एक हिन्दू की तथा एक मुसलमान की। हिन्दू दुकानदार का नाम पिश्योरीलाल था जो मूलतः पंजाबी था। दूसरे दुकानदार नाम रहमत अली था। दोनों बा की उम्र के थे, लेकिन बातें ऐसे लहजे में करते जैसे वे बा से बीस साल बड़े हों।’(पृ.-81)
चूंकि नैतिकता व शिष्टाचार को न तो कोई एक व्यक्ति तय करता है और न ही कोई एक उसे बदल सकता है, यह समाज की निर्मिति है। समाज पर जिस वर्ग का आधिपत्य होता है उसी को अधिमान देने वाला शिष्टाचार व नैतिक मान्यताएं स्वीकृति पाती हैं। यदि कोई दलित बालक किसी सवर्ण बुजुर्ग से इस तरह पेश आए तो हंगामा खड़ा हो सकता है, वह इस व्यवहार को कतई स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन दलित इसको आसानी से स्वीकार कर लेता है। दलितों की माली हालत में सुधार हो रहा है और उसके साथ ही राजनीतिक चेतना भी आ रही है जिसकारण अब बराबरी के व्यवहार व सम्मान की मांग उठने लगी है।
शिक्षा के साथ जागरूकता व चेतना का प्रसार होता है और फलस्वरूप वर्चस्वी वर्गों के आधिपत्य को चुनौती मिलती है, जो उनको स्वीकार नहीं है, इसलिए वे शिक्षा से ही दलितों को वंचित कर देना चाहते हैं। शिक्षा से बराबरी की भावना तो पैदा होती ही है साथ ही यह धारणा भी समाप्त होती है कि प्रतिभा जन्म जात होती है और वह केवल उच्च वर्ग के पास ही होती है। विड़म्बना ही है कि एक तरफ तो शास्त्रों में बिना शिक्षा प्राप्त किए व्यक्ति को बिना सींग-पूछ के जानवर की संज्ञा दी गई थी दूसरी तरफ दलित समाज को ज्ञान से वंचित करने के लिए नियम बनाए थे। इसका सीध सा अर्थ है कि दलित को पशुवत जीवन जीने के लिए जानबूझकर रखा जाता है। ज्ञान को सार्वजनिक न करके उसे कुछ वर्गों तक ही सीमित करके ब्राह्मणवाद फूला-फला है। जब कोई सवर्ण दलित को पढते हुए देखता है तो उसको ऐसा लगता है जैसे वह कोई अपराध कर रहा है। चप्पल ठीक कराने आए एक व्यक्ति से हुए संवाद के माध्यम से सवर्ण मानसिकता उद्घाटित होती है।
बा बरात में गांव गया था। मैं दुकान में बैठा हुआ पढ़ रहा था। तभी एक ग्राहक आ गया। मैने उसे पहचानने की कोशिश की। वह दूसरी बस्ती में रहता था। जात से बनिया था। हमारी दुकान से चप्पल ले जाता था। आते ही उसने कपड़े के थैले से जनानी चप्पल का एक पांव उलट दिया। चप्पल को उसने छुआ भी न था मैने देखा उसकी पट्टी दोनों तरफ से उखड़ी हुई थी।
एक महीना हुआ, यहीं से खरीदी थी चप्पल और इत्ती जल्दी टूट गई।’ ग्राहक का स्वर उखड़ा हुआ था।
पर बा तो गांव गया है।’ मैने उसका आशय समझकर कहा था।
कब आएगा वह?’ उसने पूछा।
कल’। मैने उत्तर दिया।
पर कल मैं कैसे आऊंगा। अभी भौत मुश्किल से टैम मिला है। तू ही ठीक कर दे।’ उसके स्वर में अभी उखड़ापन था।
पर मैं तो पढ़ रहा हूं। कल मेरी परीक्षा है।’ मैने अपनी मजबूरी बताई। वैसे मुझे पट्टी लगानी आती न थी। पर उसने न मेरी मजबूरी समझी और न मेरा नौसिखियापन। मेरे मुंह से परीक्षा’ की बात सुनकर वह चिढ़ गया। जैसे मैने उसके सामने पढ़ने की बात कहकर कोई अपराध कर दिया हो।’ अरे पढ़-लिखकर क्या तू लाट-गवन्नर बन जागा। गांठेगा तो येई लीतरें।’ नाराजगी के साथ उसके स्वर में व्यग्य था - चल उठ, मुझे वापसी में काम पर जाना।’ वह फिर अधिकार जताते हुए बोला।’ (पृ.-78)
गरीबी और सामाजिक शोषण दोनों मिलकर दलित समाज के लिए ऐसी स्थितियां पैदा करती हैं कि वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। गरीब होने के बावजूद भी शिक्षा ग्रहण करने की कोशिश करने के लिए उसे उत्साह नहीं मिलता, बल्कि अभावों के कारण अपने शिक्षकों की घृणा का ही शिकार होता है। लेखक व अन्य दलित विद्यार्थियों के पास स्कूल की वर्दी बनवाने के लिए भी साधन नहीं हैं, वे दो-दो साल के पुराने व छोटे पड़ गए कपड़ों में ही स्कूल जाते हैं।
सुबह की प्रार्थना में ही सभी की ड्रेस का मुआयना पी.टी. इंस्ट्रक्टर किया करता था। नाम था उसका शिव कुमार शर्मा। जो छात्र ड्रेस में नहीं होते उन सभी को बहुत कुछ सुनना पड़ता था। बार-बार हमें कहा जाता - अबे तुमसे पढ़ने के लिए कौन कहता है। बस जूते-चप्पल बनाओ और आराम से रहो। चले आते हैं ससुरे न जाने कहां-कहां से!’(पृ.-76)
इससे अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि जिस गुरु के मन में अपने शिष्य के प्रति सहानुभूति और स्नेह नहीं है वे उनको कितना ज्ञान दे सकते हैं। पढ़ाई पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देने के अन्य कारण भी होंगें, पर शिक्षकों का छात्रों के प्रति ऐसा रवैया भी मुख्य कारक है। सारा ज्ञानशास्त्र व शिक्षा संबंधी खोज यही बताती है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिक्षक व विद्यार्थी में आपसी विश्वास व मैत्रीपूर्ण संबंधों का होना जरूरी है। यह भी कहा जाता है कि शिक्षक विद्यार्थी का आदर्श होते हैं। शिक्षक के जीवन का उस पर गहरा असर पड़ता है। शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो शिक्षा दे उसको अपने जीवन में उतारकर उदाहरण प्रस्तुत करे, लेकिन शिक्षा का वर्गीय चरित्र व सामन्ती-संस्कार के कारण न केवल इससे भिन्न बल्कि विपरीत होता है।
वे (शिक्षक) कहते कुछ और करते कुछ। सुबह बच्चों को पढ़ाते - हमें अहिंसा में विश्वास रखना चाहिए, किसी को बुरा या कड़वा नहीं बोलना चाहिए और थोड़ी देर बाद में ही लात, घूंसे, थप्पड़ तथा डंडों से बच्चों की धुनाई भी कर डालते। उन्हें न जाने क्या-क्या बोलते। दोपहर होने से पहले बच्चों को समता, बराबरी का पाठ पढ़ाते और दोपहर बाद जब उन्हें प्यास लगती तो चुपके से अपना गिलास निकाल कर नल पर जाकर पानी पी आते। बच्चों के लिए पानी है या नहीं, इसकी चिंता उन्हें नहीं होती थी।’(पृ.-34)
वर्ग आधारित समाज में ज्ञान की श्रेणी में उसे ही शामिल किया जाता है जो कि वर्चस्वी वर्ग के काम का है और जो उसके वर्चस्व को बनाए रखने में मदद करता है। दलितों-श्रमिकों के कौशल को ज्ञान की श्रेणी से बाहर ही रखा जाता है। यद्यपि समाज के लिए इनका बहुत महत्व है, लेकिन इसके बावजूद उसे ज्ञान की संज्ञा नहीं दी जाती। दलित वर्ग से किसी व्यक्ति के किए गए काम को भी उतना महत्त्व नहीं मिलता, जितना कि उसका योगदान होता है। डा. भीमराव आम्बेडकर के बारे में ऐसा ही हुआ है। स्कूल, कालेज की शिक्षा पूरी तरह सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त है, उच्च वर्ण के शिक्षकों और बुद्धिजीवियों ने डा. आम्बेडकर का एक किस्म से बहिष्कार सा कर रखा है। इसलिए लेखक की तरह अन्य लोग भी स्कूलों-कालेजों के माध्यम से उनके विचारों को नहीं जान पाते।
मुझे भी बाबा साहेब के बारे में अधिक मालूम न था। स्कूल में गांधी, नेहरू के बारे में कई बार सुना था। अध्यापक बाबा साहेब का जिक्र तक न करते थे।’(पृ.-40)
यदि आम्बेडकर का जिक्र होता भी है तो उनको राष्ट्र-नायक व राष्ट्र-चिंतक के रूप में नहीं अधिक से अधिक उनको दलितों का मसीहा तक सीमित कर दिया जाता है। यदि आम्बेडकर जैसा प्रखर चिन्तक, संघर्ष चेता सवर्ण समाज से संबंधित होता तो शायद उतनी उपेक्षा न की जाती। यदि वे उच्च वर्ग से ताल्लुक रखते तो उनके विचारों को पाठ्यक्रमों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाता, उनके योगदान को महिमा मंडित किया जाता, और जो लोग अब उनका नाम लेना भी पाप समझते हैं वे उनको आदर्श के तौर पर अपनाने और अपना प्रेरणा-स्रोत बनाने का उपदेश देते न थकते। यद्यपि दलित आन्दोलन के कारण अब उनको पाठ्यक्रमों का तो हिस्सा बनाया जाने लगा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके प्रति श्रद्धा जाग गई है, बल्कि एक राजनीतिक विवशता के कारण ऐसा हुआ है।
ब्राह्मणवाद की विचारधारा ने जहां दलितों के शोषण को मान्यता प्रदान की, वहीं स्त्री को उसके स्वतन्त्र अस्तित्व से वंचित कर दिया। उसको पुरूष की दासी व सेविका का ही दर्जा दिया, तथा उसको पुरूष का अनुशासन मामने वाली के रूप में आदर्शीकृत किया गया। मनु ने उसे बचपन में पिता, जवानी में पति व बुढापे में बेटे का अनुशासन स्वीकार करने की व्यवस्था दी। पुरूष के मुकाबले उसे दोयम दर्जे की नागरिक माना, इसलिए परिवारों में उसके प्रति इस तरह से व्यवहार हुआ कि वह मात्र पुरूष की सहायिका बन कर रह गई। चूंकि शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्रता का अहसास व बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा पैदा कर सकती है अतः उसे ज्ञान से ही वंचित कर दिया गया। ब्राह्मणवाद की इस बुराई से दलित समाज भी अछूता नहीं है, दलितों के लिए ब्राह्मणवाद ने ज्ञान पर प्रतिबन्ध लगाया और दलितों ने स्त्री के लिए ज्ञान पर रोक लगा दी।
जब दलितों के मुहल्ले में स्कूल खुलने लगे व दलितों के बच्चे स्कूलों में जाने लगे तो लड़कियों को स्कूलों में नहीं भेजा गया। वे घरों में सहायता करती थी। उस समय दलितों की बस्ती में स्कूल होना भी बड़ी बात थी। लोग स्कूल को शिक्षा का सूरज मानते थे। बस्ती में जैसे-जैसे उगेगा-बढ़ेगा वैसे-वैसे अशिक्षा के साथ कुरीतियां तथा कुप्रथाएं दूर होंगी। बस्ती के लोग अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में रूचि लेने लगे थे। पर लड़कियों को स्कूल में न भेजा जाता था। उनका स्कूल भेजना खराब माना जाता था। वे घर पर ही रहती थीं और अपनी मांओं, चाचिओं, भाभिओं के साथ घर के काम करती थीं। पोतड़े धोने से बच्चों को गोद में उठाए-उठाए खिलाने का कार्य अधिकतर उन्हें सौंपा जाता।’(पृ.-34)
पुरूष प्रधान समाज में स्त्री को सारी समस्याओं की जड़ माना जाता है। उसका पैदा होने को अपशकुन की तरह समझा जाता है।
कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती थी। ब्याह से पहले लड़कियों का बाहर निकलना अच्छा न माना जाता था। यही नहीं उनके प्रति कड़ाई भी बरती जाती थी। वैसे भी बस्ती में औरतों, लड़कियों की संख्या पुरूषों से कम थी। उनमें भी दादियों, मांओं, भाभिओं और चाचिओं की संख्या अधिक थी। बेटियों का प्रतिशत बस्ती में कम था। जिस घर में बेटी पैदा हो जाती, उसका बाप अपना माथा पकड़कर बैठ जाता था। और मां गुम-सुम सी होकर रह जाती थी। लड़कियां, दुख, कलह, अभाव, लड़ाई-झगड़ों का प्रतीक मानी जाती थी।’(पृ.-37)
पूंजीवादी शोषणकारी व्यवस्था में दलित स्त्री का तिहरा शोषण होता है। एक गरीब के रूप में, दूसरा दलित के रूप में और तीसरा स्त्री के रूप में।
समाज बदल रहा है दलितों में चेतना पनप रही है तो शोषणकारी व्यवस्था की विचारधारा भी उनमें जगह बनाती जा रही है। पहले ब्राह्मणवाद ने दलितों को पूजा से, धर्म से, ईश्वर-उपासना से दूर करके शोषण किया तो अब अपने अन्दर समाहित करके दलितों का शोषण कर रही है। दलितों में शिक्षा से मुक्ति की चेतना पनपी है तो उसके असर को समाप्त करने के लिए उनमें पाखण्ड व अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही है। दलितों ने न केवल अपने देवी-देवताओं के मंदिर बनाने शुरू किए हैं, बल्कि ब्राह्मणवादी पाखण्डों में भी दलित बढ-चढकर भाग ले रहे हैं। दलित जातियों में हांलाकि शिक्षा आने लगी थी, पर वह सतही सिद्ध हो रही थी। लोग परंपराओं को छोड़ना न चाहकर उन्हें सीने से चिपटाए रखने में ही अधिक विश्वास करते थे। दलितों में कुल देवता और गौत्र देवता उभरने लगे थे। वे अपने बाप-दादाओं की छोड़ी हुई लकीरें पीटने लगे थे। उस लकीर को मिटाकर नई लकीर खींचने का साहस बहुत कम लोगों में था, जो संघर्षशील थे, कुछ नया करने के लिए जूझ रहे थे। पर दलित बस्तियों के आसपास कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे मंदिरों तथा पीरों की मजारें उन्हें पीछे धकेल रही थी।’(पृ.-46, भाग-2)
शिक्षित दलितों ने गुरू धारण कर लिए तो अधिकांश ने अपने घरों में ही पूजा घर बना लिए हैं और इनके माध्यम से पिछड़े व ब्राह्मणवादी विचार उनके जीवन में घुस रहे हैं। मनुवाद को स्थापित करने का संकल्प लेने वाली शक्तियों ने दलितों को अपने साम्प्रदायिक अभियान में जोड़ा है, दलितों को एक उग्र हिन्दू की छवि प्रदान की है और दलितों के रोष को अन्य धर्मों के गरीबों की ओर मोड़ दिया है। साम्प्रदायिक दंगों में दूसरे धर्म के गरीब लोगों के खिलाफ प्रयोग किए जा रहे हैं।
दलित और गरीब मुसलमान दोनों में एक स्वाभाविक समानता है। यूं भी कहा जा सकता है कि मुसलमान कुछ समय पहले के दलित हैं, इसलिए मुसलमानों की बस्तियां और दलितों की बस्तियां सटी हुई हैं और उनके रहन-सहन में भी काफी समानताएं है। दोनों ब्राह्मणवाद के सताये हुए हैं। यद्यपि लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि दलितों के प्रति मुसलमानों में भी उसी तरह की पूर्व धारणाएं व पूर्वाग्रह हैं, जैसे कि हिन्दू सवर्ण में हैं, लेकिन अधिकतर मुसलमानों का पेशा भी दस्तकारी है, कोई कपड़ा बुनता है, कोई सब्जी बेचता है, कोई गोश्त काटता-बेचता है, कोई तांगा-रिक्शा चलाता है, कोई कपड़े सिलता है, कोई लुहार का काम करता है और दोनों की हालत लगभग एक जैसी है और कभी कभी तो दलितों से भी अधिक सोचनीय हो जाती। पर वे सब कुछ सहने पर विवश होते।’(पृ.-51,भाग-2) दलित और मुसलमान दोनों ही उच्च वर्ण की घृणा के शिकार हैं। उनके जीवन में एक साझापन है। लेखक अपनी पड़ौसन बत्तो के माध्यम से यह व्यक्त करते है।
हमारे पड़ौस में रहती थी बत्तो। उसके खाविंद को नाम रहमत अली था। वह कपड़े सिलता था। उसका बड़ा बेटा तांगा चलाता था और छोटा सब्जी बेचा करता था। जब जब भी ईद आती, वह छत पर चढकर ताई मां को आवाजें लगाया करती। उनकी छत और हमारी छत मिली हुई थीं। बीच में केवल एक-डेढ़ गज का फासला था। पर हमारे और उनके दिल में एक सूत की भी दूरी न थी। मीठी ईद पर वह सईंये-सीरी बनाती। छत पर चढकर स्वयं बत्तो प्याले में सईयें ले आती। फिर वहीं से आवाज देती - मदन की अम्मी, अयं मदन की अम्मी!’ मदन बिचले भइया का नाम था। ताई मां ऊपर से आती बत्तो की आवाज सुनती तो आंगन में आकर पूछती -क्या बात है बी?’
ताई मां बत्तो को बी कहकर पुकारती थी।
लो, मदन की अम्मी पूछ रही है क्या बात है। अयं ईद सिरफ हमारी है क्या?’ बत्तो पलटकर जवाब देती।
नई बी, ईद तो सबकी है।’ ताई मां कह उठती थी।
अल्ला-ताला तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को सई-सलामत रक्खे।’ छत पर खड़ी बत्तो के स्वर में सईयें-सीरी जैसी मिठास घुल जाती, अब जरा ऊपर आओ।’
ताई मां के छत पर जाते ही वह सईयों से भरा प्याला पकड़ते हुए कहती - देख खुदा की नियामत है सईयें, मना मत करना।’
और सचमुच ताई मां सईयें लेने से मना नहीं कर पाती। वह खुशी-खुशी सईयों से भरा प्याला संभालते हुए ले आती। ताई मां कटोरी में बराबर-बराबर सईयें डालकर हमें देती जिसे सब मिलकर खाते थे। पर बा नहीं खाता था। वह हमें सईयें खाने से रोकता भी न था। मीठी ईद की सईयें बहुत स्वादिष्ट होती थीं। सईयें खत्म होने के बाद हम अपने-अपने बर्तन को, अंगुलियों से उसकी बची हुई मिठास को चाटते।’ (पृ.-19)
साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी यह भाईचारा नहीं टूटता। तीसरे दिन छत से गनी की आवाज सुनाई पड़ी थी - ओ रामप्रसाद कर्फ्यू लग गया तो क्या बात तक भी नहीं करेगा।’ हमारी हिम्मत बढ़ी। गली में यादराम पहले निकला, फिर म्हाऊ। तब तक बा’ भी बाहर आ गया था। औरतें अभी भी मुंडेर पर खड़ी थीं। तीनों को बाहर आये देख गनी और खुला। वह छत की मुंडेर पर था। उसके पीछे उसका बेटा सज्जाद भी था। उसकी आंखों में अनगिनत सवाल थे। तभी गनी का पोता भी आ गया था। कुछ देर में औरतें भी डरी-सहमी सी बाहर निकल आई थीं। सामने से बत्तो भी छत पर आ गई थी। उसके पीछे उसका बेटा मट्टो भी। गली में अधिकांश छतें बिना मुंडेर की थीं। ताई मां डर के मारे ऊपर न आई थी। वह गली में नीचे ही खड़ी थी। जबकि बत्तो छत पर थी। सामने गली थी। सभी के चेहरो पर अफसोस था। ताई मां के पीछे मैं खड़ा था। मैने ऊपर जाने को पूछा। ताई मां ने झट मना कर दिया - तुझे दिखाई नहीं देता कर्फ्यू लगा है’ मैं चुप रह गया। तभी बत्तो की आवाज ऊपर से आई थी -आयं मौन की अम्मी, हमारा-तुम्हारा भला कर्फ्यू से क्या वास्ता। हम तुम तो पड़ौसी हैं। खुदा गारत करे दंगे फसाद कराने वालों को।’ और ताई मां नीचे से ही हूं हां करती रही।’(पृ.-45)