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तिरस्कृत

दलित आत्मकथा 'तिरस्कृत'
डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ’तिरस्कृत’ दलित जीवन की सच्चाइयों को उद्घाटित करती है। समाज में व्याप्त जाति -आधारित ऊंच-नीच, भेदभाव, शोषण व तिरस्कार को उघाड़ती है। ब्राह्मणवाद ने किस तरह से दलितों का शोषण किया है उन प्रक्रियाओं को उद्घाटित करते हुए दलित जीवन का प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत किया है। व्यवस्था की अमानवीयता को उजागर किया है। दलितों के प्रति भेदभावपूर्ण दृष्टि से सिकुड़ती मानवता को उभारा है।
शिक्षा व ज्ञान किसी समाज व समुदाय के विकास में मुख्य कारक हैं। ज्ञान पर एकाधिकार करके व शूद्रों को ज्ञान से वंचित रखकर ही ब्राह्मणवाद अपना वर्चस्व स्थापित करने में कामयाब हुआ था। ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने के लिए ज्ञान व शिक्षा प्राप्त करना निहायत जरूरी है, इसलिए दलित चिंतकों चाहे जोतिबा फूले हों या फिर डा.भीमराव आम्बेडकर ने शूद्रों को ज्ञान व शिक्षा प्राप्त करने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया और शासन-सत्ता को इसकी व्यवस्था करने पर जोर दिया। वर्चस्वी वर्ग भी शिक्षा, ज्ञान व इससे पनपने वाली चेतना की शक्ति को भली-भांति समझता है, उसे यह अच्छी तरह से मालूम है कि दलितों को सेवक’ बनाए रखने के लिए उसका अशिक्षित एवं अज्ञानी होना पहली शर्त है, इसलिए वह दलितों को शिक्षा नहीं देना चाहता। सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों की दलितों के प्रति पूर्वाग्रह-ग्रसित मानसिकता व व्यवहार से यह प्रकट होता है। दलित वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले विद्यार्थियों को बेवजह प्रताड़ित करना व उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए हतोत्साहित करने की घटनाएं समाज में घट रही हैं और सूरजपाल चौहान के अनुभव भी इसे पुष्ट करते हैं। जातिगत संकीर्णता व पूर्वाग्रह से ग्रसित शिक्षकों के दिल में अपने विद्यार्थियों से समान रूप से व्यवहार करने की भावना ही पैदा नही होती, बल्कि उनके प्रति शत्रुवत व्यवहार किया जाता है।
जाति का पुछल्ला ब्रह्मराक्षस की तरह सदैव मेरे पीछे लगा रहा। संस्कृत विषय पढ़ाने वाले अध्यापक वेदपाल शर्मा मुझे समय-समय पर जाति का ओछापन याद दिलाते रहे। मैं तड़प उठता था उस द्रोणाचार्य की बातें सुनकर। एक दिन अपने साथी अध्यापकों से मेरी ओर संकेत कर उसने कहा था यदि देश के सारे चूहड़े-चमार पढ़-लिख गए तो गली-मौहल्लों की सफाई और जूते बनाने का कार्य कौन करेगा ? (पृ॰-16)
शहर के स्कूल का अध्यापक दलितों को ’सफाई व जूते बनाने’ के लिए अनपढ़ रखना चाहता है तो गांव का अध्यापक दलितों को खेतों में ’सीरी-साझी’ लगाने के लिए। अध्यापक की इस टिप्पणी से दलितों के प्रति ऐसा अमानवीय व्यवहार करने व उनको शिक्षा से वंचित रखने के कारणों को समझा जा सकता है। दलित जातियों के विद्यार्थियों के प्रति सवर्ण मानसिकता के रोगी अध्यापकों द्वारा कई रूपों में प्रताड़ना की जाती है, उनको अन्य विद्यार्थियों से दूर बैठा दिया जाता है जो उनमें हीन-भावना तो पैदा करता ही है साथ ही यह धारणा भी पैदा करता है कि शिक्षा उनके लिए नहीं है क्योंकि उन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता और व पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं तो तपाक से सिद्ध कर दिया जाता है कि असल में ज्ञान प्राप्त करना उनके बस की बात ही नहीं, जो दिमाग ’विद्या’ को प्राप्त करने के लिए चाहिए वे इनके पास है ही नहीं। इस तरह एक अघोषित साजिश की तरह दलितों की प्रतिभा व क्षमता की संभावनाओं को दबा दिया जाता है।
हम तीनों भंगी मौहल्ले के बालकों को गांव की पाठशाला में पढ़ रहे सभी बच्चों से दूर पीपल के नीचे बैठने को कहा जाता। वहीं पास में एक गंदी नाली थी, जिसमें गांव के सवर्ण लोगों के मौहल्ले की गंदगी बहती रहती। मैं, श्रीपाल और रामखिलाड़ी सारा-सारा दिन हाथों में तख्तियां लिए बैठे रहते। कभी किसी मास्टर का ध्यान आ जाता तो हमारी घोटा लगी तख्तियों पर पैंसिल से हरफ खींच जाता और हम उन हरपफों पर खड़िया पोत लिया करते थे। कई माह तक हम तीनों के परिवार के सदस्य इसे ही स्कूल जाना और पढ़ना समझते रहे।’(पृ॰-29)
तथाकथित उच्च जाति से संबंध रखने वाले सूरजपाल चौहान के सहपाठी तभी तक दोस्ती रखते हैं जब तक कि उनकी जाति का भान नहीं होता। जब यह मालूम हो जाता है कि वह दलित जाति से है तो उनके उनके दिमाग में घर किए पूर्वाग्रह को प्रैक्टिकल करके दिखा देते हैं और दोस्ती जैसा पवित्र रिश्ता जिसकी बुनियाद विश्वास व वैचारिक एकता पर आधारित है वह भी जातिगत संकीर्णता व पूर्वाग्रह का शिकार हो जाता है। पूर्वाग्रहों से ग्रसित इन तथाकथित उच्च जाति के लोगों को इसका अनुमान ही नहीं होता कि वह कितना घटिया व मानव-विरोधीी कार्य कर रहे हैं। इनके इस व्यवहार से स्कूलों-कालेजों में दी जा रही शिक्षा व ज्ञान पर प्रश्नचिह्न है कि उसमें कितनी वैज्ञानिकता, तार्किकता, आधुनिकता व मानवीय सार है तथा कितना पिछड़ापन, रूढ़िग्रस्तता व अमानवीयता है। अनुपम जैन इस आत्मकथा के लेखक का कालेज का सहपाठी व घनिष्ठ मित्र है, जिसके घर लेखक का खूब आना-जाना व पारिवारिक संबंध हैं। यह परिवार चौहान को राजपूत चौहान या उच्च जाति से संबंधित समझता है इसलिए दलितों के बारे में अपने पूर्वाग्रह भी मौके-बेमौके जाहिर करते रहते हैं, लेकिन ज्यों ही लेखक के दलित होने का पता चलता है तो दोस्ती व पारिवारिक संबंध टूटने में एक क्षण भी नहीं लगता और दलितों के प्रति नफरत व हिंसा उसके चेहरे पर, उसके शब्दों में तथा उसके व्यवहार में साफ-साफ उभर आती है।
सरकार से मिलने वाले वजीफे के लिए कालेज के सूचना-पट्ट पर दलित छात्रों की सूची लगी हुई थी। उसमें मेरा नाम भी था। मेरे नाम पर नजर पड़ते ही अनुपम जैन तुरन्त बोला- अरे चौहान, क्या तुम राजपूत नहीं हो--शड्यूल्ड कास्ट हो क्या? अनुपम के ये शब्द सुनकर मैं बुरी तरह झेंप गया था। मेरे मुंह से बोल नहीं निकले। मैं अचकचा कर रह गया था उस समय।
अबे, देखो चूहड़े भी ’ठाकुर’ व ’राजपूत’ बनने लगे।’
अनुपम मुंह बिचकाकर और बड़बड़ाता क्लास-रूम की ओर बढ़ गया।’ (पृ॰-17)
जब शिक्षा देने वाले अध्यापकों के मन में तथा साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे सहपाठियों के दिल में दलित शिष्यों व सहपाठियों के प्रति इतनी घृणा है तो वे इस अपमानजनक वातावरण में कितनी शिक्षा ग्रहण करेंगे और व्यक्तित्व का कितना विकास होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। दलित परिवारों के बच्चे स्कूल में दाखिला लेते हैं लेकिन जल्दी ही स्कूल छोड़ देते हैं इसके अन्य कारणों के साथ शिक्षा संस्थानों का ऐसा माहौल भी जिम्मेदार है।
जाति-प्रथा, व अछूत, सवर्ण-अवर्ण, किसी भगवान या दैवीय शक्ति ने नहीं बनाए, बल्कि समाज के स्वार्थी व शोषणकारी वर्गों के लोगों ने अपने शोषण को वैधतादेने व औचित्य ठहराने के लिए बनाया है। शासक-सत्ता सिर्फ ताकत के बल पर शासन नहीं कर सकती वह अपनी सत्ता की स्वीकार्यता के लिए तरह-तरह के प्रपंच प्रचार व ढोंग-पाखण्ड करती है। जाति-प्रथा ने सत्ता को टिकाए रखने व एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण को वैध् ठहराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है इसलिए जाति-प्रथा की वैधता के लिए कभी कर्मफल का सिद्धांत गढ़ा गया तो कभी अन्य कारण से इस व्यवस्था द्वारा किए जा रहे जुल्म व अत्याचार को उचित ठहराया गया। यदि कोई शासन-सत्ता सिर्फ डण्डे के जोर पर कायम रहना चाहे तो उसे हरेक व्यक्ति के पीछे एक सिपाही की जरूरत पड़ेगी और यह भी सर्वविदित है कि सेना व पुलिस में भी विद्रोह हो जाता है। सत्ता चाहे कितनी भी अत्याचारी वह जन-विरोधी हो, लेकिन वह समाज हितैषी होने का मुखौटा पहनती है और अपनी स्वीकार्यता का वैचारिक आधार तैयार करती है। दलितों पर शासन करने व उनका शोषण करने के लिए ब्राह्मणवादी उनके दिमाग में तरह-तरह से यह बात घुसेड़ देना चाहते हैं कि सेवा’ करना दलितों का धर्म व कर्तव्य है, क्योंकि सवर्ण वर्ग अच्छी तरह जानता है कि समाज में उसका वर्चस्व या चौधर तभी तक कायम है जब तक कि दलित वर्ग इसको मानता रहे। यदि दलित-वर्ग ने उनकी सामाजिक सर्वोच्चता को मानना बंद कर दिया और बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा करने लगे तो उनकी यह व्यवस्था एक पल भी नहीं चलने वाली, इसलिए इस व्यवस्था को तोड़ने वाले को दण्ड दिया जाता है, अप्राकृतिक व अमानवीय प्रथाओं को लागू करने व स्वीकार्यता लेने के लिए हिंसा व पशु बल का सहारा लिया जाता है। कहावत है कि भंगी पैदा नहीं होता, बल्कि पीट-पीटकर बनाया जाता है’ तथाकथित निम्न जाति का व्यक्ति खुद को नीच समझे और कथित उच्च जाति का व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ समझे इसके लिए बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चों पर चूंकि सामाजिक कायदों-बंधनों का उतना गहरा प्रभाव नहीं होता अतः उनका व्यवहार स्वाभाविक ही होता है वे स्वभावतः संकीर्ण व पक्षपाती नहीं होते, लेकिन संकीर्ण व पक्षपाती व्यवस्था को कायम रखने के लिए उनका ऐसा करना जरूरी है इसलिए उनको पीट-पीटकर ये कायदे सिखाए जाते हैं। गांव के हम-उम्र बच्चों के साथ खेलने पर लेखक की पिटाई का प्रसंग इस ओर संकेत करता है। मैं एक दिन अपने हम-उम्र बालकों के साथ कंचे खेल रहा था।
लोधों का बनवरिया, काछी का श्यामू और ठाकुर का बीरू। सबके सब खेलने में मग्न थे। ठाकुर प्रताप बड़ा परेशान था कि उसका बीरू भरी दुपहरी में कहाँ चला गया। वह उसे खोजता हुआ वहाँ आ धमका, जहां हम चारों कंचे खेल रहे थे।
ठाकुर प्रातप ने नीम के पेड़ से एक संटी तोड़कर चार-पांच अपने लड़के को जमा दी। बीरू को पिटते देख बनवरिया और श्यामू भाग खड़े हुए। उन दोनों को देख मैं जैसे ही वहां से भागने लगा कि तुरन्त ठाकुर ने मुझे आगे से आकर धर दबोचा। सटाक-सटाक संटियों की बरसात कर दी थी उसने मेरे ऊपर। मेरा कान ऐंठते हुए ठाकुर ने कहा - साले भंगिया के मेरे छोरा के संग खेलतु है ... ठौर मार दूंगा।’
ठाकुर अपने बेटे बीरू को घसीटते हुए कुएं की ओर ले गया। मैं दीवार के सहारे टिका डबडबाई आँखों से सब देख रहा था। ठाकुर ने कुएं से एक बाल्टी पानी खींचा और नीम की टहनी पानी में डुबोकर बीरू को छींट देने लगा। बीरू रोते-रोते कह रहा था- मो पै पानी क्यों डारि रहे हो?’
अरे! चुप नालायक, भंगिया के संग खेलकर अपने आप कू अपवित्र कर लीनों और फिर पूछत है कि पानी के छींटे क्यों डारि रहे हो?’ ठाकुर प्रताप ने बीरू के मुंह पर एक थप्पड़ लगाते हुए कहा था।’ (पृ॰-29)
बीरू को पिटने का समझ नहीं आ रहा, अपवित्र होने की भाषा समझ नहीं आ रही, लेकिन ठाकुर की पिटाई लेखक को और बीरू को दोनों को ही समझाने की कोशिश कर रही है कि उनमें समानता नहीं है। एक में श्रेष्ठता का तो दूसरे में हीनता का भाव पैदा करने की प्रयोगशाला की तरह है।
लाला गेंदालाल का सूरजपाल चौहान के प्रति किया गया व्यवहार भी यही व्यक्त करता है कि बचपन से दलितों को अहसास करवाया जाता है कि वे निम्न हैं और उनको किसी भी समय यह नहीं भूलना चाहिए, यदि किसी रौ में वे भूल भी जाते हैं तो सवर्णों की संटी’ उनको याद करवाने के लिए तैयार है। अचरज की बात है कि खेतों में तथा कारखानों में सारा काम दलित करते हैं। ढेर सारा अनाज उगाते हैं सारा उनके हाथों से होकर गुजरता है, लेकिन ज्यों ही वह खेत से घर में आ जाता है तो दलित के हाथ लगाने भर से अपवित्र हो जाता है। जमींदारों-सेठों के लिए दूध-घी व अन्य सामग्री का इन्तजाम दलित करते हैं लेकिन एक बार वह वस्तु सेठ की दुकान में या जमींदार के घर में दाखिल हो जाए तो फिर दलित उसको छू नहीं सकता। यहां तक कि सूरजपाल चौहान लाला गेंदालाल की दुकान के चबूतरे पर भी पैर नहीं रख सकते। एक धातु के बने बर्तन गेंदालाल का परिया’ व चौहान की कटोरी’ भी सवर्ण अवर्ण में विभाजित हो जाती है। चौहान द्वारा दी गई दुअन्नी को सीधे न लेकर पानी में धोकर और चिमटी से उठाना सवर्ण जाति का दंभ और अवर्णों के प्रति हिंसा व घृणा की कहानी स्वयं कह देता है। सूरजपाल चौहान का यह अनुभव आँखें खोल देने वाला है कि समाज की कितनी बड़ी आबादी किस तरह की अमानवीय स्थितियों में जीवन-यापन करती है। इस पूरे प्रसंग को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा है।
मैं एक हाथ में कटोरी और दूसरे हाथ में दुअन्नी दबाए बनिये की दुकान की ओर उछलता-कूदता अपनी धुन में बढ़ा जा रहा था। मैं गेंदा लाला की दुकान की चौंतरिया (देहरी के पास बना ऊँचा चबूतरा) पर जाकर खड़ा हुआ कि तभी लाला ने पास रखी अरहर की लौंद (संटी) मेरे पैरों पर जड़ दी। मैं तिलमिला कर रह गया था। मैं भौंचक्का-हैरान, थोड़ी देर तक मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मेरी समझ में कुछ आए, इससे पहले ही गेंदा लाला ने लाल-लाल आँखें दिखाते और भद्दी गाली देते हुए मुझसे कहा- बहन के टीटना, आँखें बंद किए हुए ऊपर चढ़ौ आ रहौ है।’
अब मैं समझ चुका था कि लाला ने मुझे संटी क्यों मारी? दो साल दिल्ली में रहकर मैं तो भूल ही गया था कि मैं नीच जाति का हूँ। मनु के विधान अनुसार मुझे तो लाला की दुकान की चौंतरिया के ऊपर तक नहीं चढ़ना चाहिए था और मैं था कि दुकान की चौखट तक पहुंच गया। अपने को संभालते हुए और आँखों से आँसू पोंछते हुए मैंने बनिए से कहा- मोय दो-आना कौ कडुओ तेल दे देयो।’
गेंदा लाला गली के भूरा कुत्ते की तरह गुर्राता हुआ बोला- भैंचो-भंगिया के, सीधे अररावत चलौ आ रहौ है ..., कटोरी धती पै धर।’
मैंने कटौरी जमीन पर रख दी थी। लाला दुकान के अन्दर से परिया भरकर सरसों का तेल लाया और उसने जमीन पर रखी कटोरी से ऊँचाई से तेल डालते हुए फिर कहा- भंगिया के ध्यान रखियो दुकान पै आवै से पहले चौंतरिया से नीचे ही खड़ौ रहै कै चीज के तांई आवाज लगाइयो।’
मैं लाला के हाथ में लगी तेल की परिया और जमीन पर रखी कटोरी को टुकुर-टुकुर देख रहा था। लाला कितनी दूरी से जमीन पर रखी कटोरी में तेल डाल रहा था -कहीं तेल से भरी परिया कटोरी से छू न जाए। ....
गेंदा लाला को मैंने तेल के बदले पैसे देने को हाथ बढ़ाया,तभी लाला ने पानी से भरे तसले की ओर संकेत करते हुए मुझसे कहा-देख, सामने पानी से भरो तसला रखो है, वा पे पैसा डारि दे।’ मैंने सहमते हुए दुअन्नी पानी से भरे तसले में डाल दी। लाला दुकान के अन्दर गया और चिमटी उठाकर लाया। उसने चिमटी से दुअन्नी पानी से भरे तसले से निकालकर अपनी गुल्लक में डाली और मैं तेल की कटोरी उठाकर चुपचाप घर की ओर चल दिया था।’(पृ. 33)
उच्च जाति का होने की ग्रंथि कथित सवर्ण समाज की मानवीयता को अन्दर ही अन्दर खोखला कर रही है इसका अहसास ही नहीं होता। सवर्ण समाज ने दलित समाज को तमाम नागरिक अधिकारों से वंचित किया ही है साथ ही प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित करने की कोशिश की है। प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाकर कोई भी आदमी पुण्य का काम समझता है,लेकिन दलितों के लिए यह भी स्वीकार नहीं है। कुओं-तालाबों में पशु-पक्षी पानी पी सकते हैं लेकिन दलित के छूने भर से कुएं-तालाबों का पानी भ्रष्ट होने का सवर्ण को अंदेशा रहता है। सूरजपाल चौहान अपने गांव में जा रहे थे तो बच्चे व पत्नी विमला को प्यास लगी। जमींदार से पानी पिलाने को कहा तो उसने कुएं से पानी खींचकर पीने को कहा लेकिन जब उसे सूरजपाल से मालूम हुआ कि वह निम्न जाति से ताल्लुक रखता है तो
बाल्टी छीन ली,खुद पानी पिलाने लगा। विमला ओक बनाकर जैसे ही पानी पीने को झुकी और एक कदम आगे रखा तो वह बूढ़ा जमींदार दाँत पीसता हुआ बोला-अरे भंगनिया,नेक पीछे कू हट के पानी पी, यह शहर ना है गाँव है, मारे लठिया के कमर तोड़ दई जाएगी....
भैंचो-भंगिया और चमट्टा के सहर (शहर) में जाकै नए-नए लत्ता (कपड़े) पहर (पहन) के गांव में आ जात हैं, कछु (कुछ) पतौ न चलतु कि जे भंगिया के है कि नाय (नाही)’ (पृ॰-31)
जाति-प्रथा व छूआछूत का जहर भारतीय समाज के खून में रम गया है। उपरोक्त प्रसंग एक मशीनी प्रतिक्रिया के तहत स्वतः ही घटित हो रहा है। बूढ़ा जमींदार कोई बहुत सोच-समझकर ऐसा व्यवहार नहीं कर रहा, बल्कि यह उसके संस्कार का हिस्सा बन गई है। उसे अपने व्यवहार में कुछ भी अजीब, अटपटा व अमानवीय नहीं लगता। सदियों से अछूतों के साथ ऐसा व्यवहार करते यह शारीरिक क्रिया की तरह बन गई है। किसी दलित के प्रति उसकी यही प्रतिक्रिया होगी, ठीक उसी तरह एक दलित की इस बूढ़े के व्यवहार के प्रति वही प्रतिक्रिया होगी जो सूरजपाल चौहान की है। चौहान को जमींदार के व्यवहार में कुछ भी अटपटा नहीं लगता इसलिए वह बिना किसी विरोध के चुपचाप उसकी बात सुन लेता है और सहमा-सहमा सा उनके पीछे चल’ पड़ता है। इसके विपरीत विमला को बूढ़े जमींदार का व्यवहार अपमानजनक लगता है और वह अपना आक्रोश व्यक्त करती है और चीखते हुए बोलती है
चलो, ये पानी नहीं जहर है, अपने घर जाकर पिएंगे ..., नहीं चाहिए इतना मीठा पानी।’ (पृ॰-31)
विमला का यह व्यवहार बूढ़े जमींदार व सूरजपाल दोनों के लिए सामान्य नहीं है। यदि यह संस्कार गहरे में घर नहीं कर गया होता तो सूरजपाल चौहान को पानी पीने के लिए बूढ़े जमींदार से पूछने की जरूरत नहीं थी। उसकी जगह यदि कोई सवर्ण जाति का व्यक्ति का होता तो वह सीध बाल्टी उठाता, पानी खींचकर पीता व चलता बनता। पानी की बूढ़े जमींदार से मांग ही उसके शक का कारण बनती है क्योंकि दलित व सवर्ण के बीच व्यवहार की भाषा भी विशेष ही है जिसमें दलित की ओर से हमेशा याचना ही रहती है और सवर्ण की ओर से गाली।
जाति-प्रथा व छुआछूत शोषण का जरिया रहा है और शोषण को वैध ठहराने व इसके विरूद्ध रोष को समाप्त करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जहां तक जातिगत भेदभाव शोषण करने का काम करती है वहां तक इसका प्रयोग किया जाता है और अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए जाति की व छूतछात की सीमा को भी लांघ जाते हैं जिन अछूतों के छूने भर से सवर्णों के बर्तन अपवित्र हो जाते हैं, घर-दुकान की दहलीज भ्रष्ट हो जाती है, व्यक्ति का शरीर अशुद्ध हो जाता है अपनी काम वासना व हवस मिटाने के लिए अछूत कही जाने वाली जातियों की औरतों के शरीर के लिए लालायित रहते हैं, इस दौरान उनकी छुआछूत का भाव पता नहीं कहां छूमंतर हो जाता है। जिस तरह सवर्ण जाति के मर्द दलित स्त्रियों से खिलवाड़ करते हैं उसी तरह सवर्ण जाति की औरतें भी अपनी काम-वासना की पूर्ति के लिए मर्दों से सहवास करने में कोई हिचकिचाहट नहीं करती। ऐसे एक प्रसंग का जिक्र करते हुए सूरजपाल चौहान ने लिखा
ठकुराइन भगवंती नवयौवना थी। उसका शरीर भी सुड़ौल और सुन्दर था। तीखे नैन-नक्श वाली थी वह। मेरे चाचा गुलफान से उसकी आंखें चार हो गई थीं। अवसर पाते ही ये दोनों एकांत में मिला करते थे। ठकुराइन भग्गो मुझसे और मेरी मां से बहुत छूत रखती थी। लेकिन चाचा से एकांत में खूब अठखेलियां करती। चाचा भी मौका पाकर उसे छेड़ बैठता था। मैं अपनी बाल-बुद्धि पर जोर डालता और सोचता - यह ठकुराइन मुझसे इतना छूत करती है, जरा-सा छू जाने पर अपने ऊपर पानी के छींटे डालती है ...। चाचा में ऐसा क्या है कि टीका की मड़ैया के पीछे अरहर के खेत में उसके साथ उलझी पड़ी रहती है’ (पृ॰-35)
भगवंती उसी ठाकुर प्रताप के परिवार से है जो अपने बेटे व सूरजपाल दोनों को साथ-साथ खेलने पर पीटता है और दलित के साथ खेलने पर अपने बेटे को अपवित्र होना मानकर उसकी शुद्धि करता है। इसी तरह लाला गेंदालाल जो सूरजपाल चौहान को अपनी दुकान के चबूतरे पर चढ़ने पर भी पीटता है, उसके हाथ से दुअन्नी भी पानी में धेकर चिमटी से उठाता है,उसका छोटा भाई भंगी मौहल्ले में पड़ा रहता है और वहीं रोटियां तोड़ता है, लेकिन इससे गेंदालाल अपने भाई की जायदाद हड़पने के लिए उसे पागल तक घोषित कर देता है। इस तरह कहा जा सकता है कि छुआछूत व जाति-प्रथा निम्न कही जाने वाली जातियों के शोषण में मदद पहुंचाती हैं। इसलिए सत्ताधरी शोषक इसे बनाए रखने के लिए लगातार कार्य करते रहते हैं।
जाति-प्रथा,छुआछूत और ऊंच-नीच का यह जहर केवल सवर्णों नहीं है, बल्कि दलितों में भी ब्राह्मणवाद की विष-बेल खूब पनपी हुई है। जातियों में बंटे हुए समाज की विशेषता है कि जातियां एक के ऊपर एक खड़ी हैं और हरेक जाति किसी दूसरी से अपने को श्रेष्ठ समझती हैं तथा अपने से नीची समझे जाने वाली जाति के प्रति नफरत व हिंसा का प्रदर्शन करती है। दलित समाज भी ब्राह्मणवाद की इस बुराई से अछूता नहीं है, इसी कारण दलितों में एकता स्थापित नहीं हो पाती। राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए कभी-कभी दलित समाज की विभिन्न जातियां एक मंच के नीचे एकत्रित हो जाती हैं, लेकिन सामाजिक स्तर पर वही भेदभाव बना रहता है। यानी वोट बैंक की एकता छिन्न-भिन्न हो जाती है। जब तक दलितों में सामाजिक एकता स्थापित नहीं होती व वर्ग के तौर पर चेतना नहीं पनपती तब तक दलित आन्दोलन का अपने मकसद में कामयाब होना असंभव ही है लेकिन विडम्बना ही है कि दलित आन्दोलन के झण्डाबरदार मौका मिलते ही जाति विशेष के उद्धारक’ व नेता’ बन जाते हैं और दलितों की अन्य जातियों के प्रति शत्रुवत व्यवहार करने लगते हैं। इस तरह के व्यवहार प्रकट होता है जब अधिक योग्य होते हुए भी भंगी जाति के व्यक्ति को ड्राईवर की नौकरी इसलिए नहीं मिलती क्योंकि चयन करने वाला दूसरी दलित जाति से है और उसका यह कहना कि
...तुम पागल हो क्या? भंगी जाति का आदमी कहीं भी झाडू लगाकर अपना पेट भर लेगा ..., यदि चमार को नौकरी नहीं मिली तो वह बेचारा कहाँ जायेगा...., नहीं रखना भंगी को ड्राईवर की नौकरी पर।’ (पृ॰-116)
बिल्कुल इसी तरह की प्रतिक्रिया है जिस तरह कोई सवर्ण जाति का व्यक्ति दलित के बारे में कहता है कि वह जूते गांठकर, फेरी लगाकर, झाडू लगाकर गुजारा कर लेगा यदि सवर्ण को नौकरी नहीं मिली तो वह क्या करेगा?
जातिगत चेतना से ऊपर उठकर वर्ग चेतना को अपनाए बिना दलितों में एकता कायम नहीं हो सकती। अपनी जाति की सहुलियतों के लिए लड़ने मात्र से विशेष उपलब्धि नहीं होगी बल्कि जाति उत्थान की यह झूठी होड़ दलित समाज में दरार पैदा करती है और ब्राह्मणवाद के आधार को मजबूत करती है। जाति के आधार पर भेदभाव एवं पक्षपात करके छोटे-छोटे स्वार्थों को पूरा करने की प्रवृति विशेषकर सरकारी नौकरी व सुविधाएं पाने के लिए पूरे दलित समाज को एक दृष्टि से न देखकर जातिगत आधार पर बन्दरबांट करना इसमें बाधक है।
जिस तरह सवर्ण-जातियों में अनेक उपजातियां हैं जिनमें ऊंच-नीच का भेद है उसी तरह दलित जातियों में भी ऊंच-नीच समझने वाली मानसिकता का गलबा है। जाति पर शोध करने वाले विद्वानों ने अमर-बेल की तरह फैली जाति की शाखाओं-प्रशाखाओं को गिनाया है। ब्राह्मणों में ही सैंकड़ों किस्म के ब्राह्मण हैं जिनका आपस में रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है। ब्राह्मणवाद के इस रोग को दलितों ने भी ग्रहण कर लिया है इस विषाणु की ओर संकेत करने वाले दो अनुभव बहुत ही रोचक हैं
जब मैंने उन्हें (ओ.पी.पंवार) अपने पड़ौस में रह रहे सोनकर जी के विषय में बताया और कहा कि वह भी आपके खटीक समुदाय के हैं, तो पंवार ने नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा था अरे, आप, भी अजीब बात करते हो- सोनकर और हमारी जाति में जमीन-आसमान का अन्तर ...., वह सुअर खटीक है और हम बकर खटीक।’ दलित होते हुए अपने को श्रेष्ठ समझना एक दंभ व भ्रम में जीना है जो ब्राह्मणवाद का समर्थन है और दलित दृष्टि का विरोध। छुआछूत का भूत दलित समाज में कितने गहरे तक व्याप्त है।
मेरे पड़ौस के एक जाटव मित्र की पत्नी खाली समय में मेरी श्रीमती के पास आकर बैठ जाया करती थी। वह घण्टों बातें बनाती। हमारे सवर्ण पड़ोसियों ने एक बार उस मित्र की पत्नी से पूछा- क्या आप भी शैड्यूल्ड कास्ट है?’
जाटव मित्र की पत्नी ने सीधे-सीधे उत्तर न देकर उस सवर्ण महिला से कहा था- बहन जी, हम शैड्यूल्ड कास्ट तो हैं पर ऊँची जाति वाले शैडयूल्ड कास्ट हैं।’ (पृ॰-105) जाटव जाति की महिला का जवाब दलितों में मौजूद ऊंच-नीच की कहानी स्वयं कह देता है।
सूरजपाल चौहान को शैडयूल्ड कास्ट एसोसिएशन’ नोएडा के कार्यकर्ताओं ने विचार-विमर्श के बाद अपनी संस्था का सदस्य बनाना चाहा जिसके लिए वह तैयार हो गए। संस्था का सदस्य बनने के लिए दिए फार्म में नाम, पिता का नाम, निवास स्थान के कालम के साथ-साथ उसमें एक कालम उपजाति’ का भी था’ लेखक ने जब उपजाति’ का कालम खाली छोड़ दिया तो यह कहकर कि मैट्रिमोनियल’ के कार्य में सुविधा होगी’ का तर्क देकर उपजाति’ लिखने के लिए कहा तो लेखक ने ज्यों ही अपनी उपजाति वाल्मीकि’ लिखी तो वहां मौजूद सभी पढ़े-लिखे दलित एक-दूसरे के चेहरों की ओर कुछ क्षणों तक अपलक देखते रहे। कोई कुछ बोल नहीं रहा था - सन्नाटा, एकदम से-पिन-ड्राप सायलैंस’। यह सन्नाटा और सायलैंस दलित समाज में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता व विचार को ही व्यक्त करता है जैसे कोई सवर्ण किसी दलित को अपने से उच्च या बराबर की स्थिति में सहन नहीं कर सकता वैसे ही दलितों में अपने को श्रेष्ठ समझने वाली जाति अपने से नीची माने जाने वाली जाति के व्यक्ति को सहन नहीं करती और यह सन्नाटा और चुप्पी टूटती है तो घोर ब्राह्मणवादी रुझान के साथ
तभी, संस्था के महासचिव डाक्टर रवीन्द्र ने मेरे कंधे पर हाथ रखते व हैरानी व्यक्त करते हुए कहा कि -अरे वाल्मीकि हो और प्रबन्ध्क के पद पर भी कार्य करते हो.....।’ लेखक इससे पहले कि कुछ कहता सामने वाली पंक्ति में बैठे वर्मा जी ने कहा-अरे, हम किसी भी तरह की छुआछूत नहीं मानते ..., हम अपने घर के आंगन में भंगिन तक को बैठा कर चाय व नाश्ता करवा देते हैं ..., तुम वाल्मीकि हो तो क्या हुआ (पृ॰.16)
यह उसी तरह की प्रतिक्रिया है जैसे किसी घोर ब्राह्मणवादी की होगी जो यह स्वीकार करता है कि नीची समझी जाने वाली जातियों में कोई व्यक्ति इतना योग्य नहीं हो सकता कि वह प्रबन्ध्क या अन्य किसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने लायक है और उसके साथ बात करने खाने-पीने को उसके ऊपर एहसान की तरह करता है न कि बराबरी के रिश्ते की तरह।
इसी तरह लेखक ने एक ओर घटना का जिक्र किया है, जब लेखक अपने परिवार के साथ तांगे में बैठकर अपने गांव में जा रहा था तो भूदेवा नामक व्यक्ति जो स्वयं दलित है, अपनी पत्नी के साथ पैदल जा रहा था। कड़ी दोपहरी को देखते हुए लेखक ने उन्हें तांगे में बैठा लिया, लेकिन ज्यों ही भूदेवा को लेखक की जाति का पता चलता है तो वह तांगे से कूद जाता है और उसकी पत्नी भी बुरा सा मुंह बनाती पीछे से उतर जाती है।’ (पु॰-65) भूदेवा को कड़ी दोपहरी में पैदल चलना मंजूर है, लेकिन कथित निम्न जाति के साथ तांगे में बैठकर जाना नहीं।
शोषक शक्तियां भली भांति इस बात को जानती-पहचानती हैं कि शोषण तभी तक किया जा सकता है जब तक कि दलितों में फूट है व एकता कायम नहीं है, इसलिए वे दलितों को आपस में लड़वाने का कोई भी मौका नहीं चूकते। दलितों में से ही किसी को फुसलाकर दलितों को नियंत्रित करने का खेल खेलते हैं और अपना वर्चस्व कायम रखते हैं। सूरजपाल चौहान दलितों की एकता को उनकी मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं वे दलितों की एकता तोड़ने वाली सवर्णों की साजिश का पर्दाफाश भी करते हैं और दलितों की एकता को रेखांकित भी करते हैं। ठाकुर लटूरी के खेत में बेगार करने के लिए समरू इसलिए नहीं जा पाता कि उसे अपनी बीमार पत्नी को दवाई दिलाने शहर जाना पड़ता है। तो ठाकुर पंचायत बुलाकर उसका अपमान करता है और खचेरा नामक दलित से उसको पंचायत में पिटवाता है। इस प्रसंग से न केवल दलितों को दलितों से दबाने की नीति उजागर होती है बल्कि कथित पंचायतों का सामन्ती चरित्र व न्याय के नाम पर निर्दोर्षों को सजा देने व दबाना भी रंखांकित होता है।
पंचायतों के इस तरह के अमानवीय फैसले आज कल अखबार की सुर्खियों में जगह पा रहे हैं। कहीं दलित महिला को नंगा करके घुमाया जाता है तो कहीं सामूहिक बलात्कार करने के फरमान सुना दिए जाते हैं। समरू का अपमान करने से उसकी जाति के लोग खचेरा को पीट देते हैं और मामला पुलिस तक जाता है तो ठाकुर लटूरी खचेरा के खिलाफ ही बयान देता है क्योंकि उसका काम हो चुका था और ठाकुर लटूरी जैसे शोषकों का सिद्धान्त है कि इस्तेमाल करो और फेंक दो।’ ठाकुर लटूरी के घर दूध का बेला’ पीकर व उसकी मीठी-मीठी बातों को सुनकर खचेरा समझ बैठा था कि वह ठाकुर के विश्वसनीय लोगों में है और उसके शोषण-अन्याय का औजार बन गया, लेकिन सूरजपाल ने संकेत किया खचेरा जैसे दलित सवर्णों के तभी तक काम के हैं जब तक कि उनका उल्लू सीधा हो, इस मामले में किसी को गलतफहमी न रहे। सवर्णों के शोषण-अन्याय से दलितों में उपजे रोष-आक्रोश को दबाने के लिए खचेरा जैसे लोगों को झूठी पदवियां’ भी दी जाती हैं, जिससे कि ऐसे लोग सवर्णों के कुत्सित अभियान का शिकार हो जाते हैं।
गांव के बसीठों ने (सवर्णों ने) ताऊ खचेरा को ऐसे ही घृणित व अपमानजनक कार्य कराने के लिए तैयार कर रखा था। तथाकथित सवर्ण ताऊ खचेरा से बिना किसी अपराध के दलितों को भरी पंचायत में मूँछ के बाल उखाड़ना, काला मुंह करना, मुंह पर थूकना व जूते लगवाने जैसे कार्य करवाते थे। ऐसे कार्य करने के बदले ही बलार’ होने की पदवी दे रखी थी गांव के बसीठों ने। मेरी ननिहाल नौगंवा में मेरे नाना गोकुल को भी लोग इसी नाम से पुकारते थे- गोकुला बलार या बलार भंगी।’ (पृ॰-38)
सूरजपाल चौहान ने इस बात को भी रंखांकित किया है कि दलितों में एकता की चेतना आ रही है और अब वे ठाकुर लटूरी जैसों की कुचालों को समझने लगे हैं। जब लेखक (सूरजपाल) अपने पिता के आग्रह पर गांव में पक्का मकान बनवाना शुरू करता है तो ठाकुरों की वही प्रतिक्रिया होती है जो दलितों की समृद्धि का कोई चिन्ह देखकर होती है। पक्का मकान बनने से रोकने के लिए दूसरे दलितों को भड़काकर लड़वा देना चाहता है।
उसी दिन सांय काल लटूरी ने जाटवों के मौहल्ले से प्रभु, कल्लन, लोटन, परसादी व सुमरू को अपने यहां बुलाया। ये सभी ठाकुर लटूरी के कहे अनुसार वहां पहुँच गए। ठाकुर प्रताप, गांव का लोध-राधे, लाला गेंदा, रोशन पहलवान व पंडित चन्द्रभान वहां पहले से ही मौजूद थे। ठाकुर प्रताप ने जाटवों को फटकारते हुए कहा था- तुम्हें शर्म आनी चाहिए, एक भंगिया कौ तुम्हारे सामने सीना ठोंक के पक्को मकान बनवा रहौ है और तुम..... जनखों की तरह हाथ पे हाथ धरे बैठे हो, तुम पे कुछु करौ जातु नाय।’
ठाकुर हम का करें? प्रभु ने सहजता से पूछा।
का करोगे, अरे भूल गए वा खचेरा भंगिया कूँ, जो बात-बात में तुम पे जूता चलावतौ ...। वाके ही भैया रोहना का मकान बन रहो है और तुम चुपचाप तमासौ देख रहे हो ..., अरे बिच्चैदो-कुछ करो, पीछे से हम तुम्हारी सपोट करेंगे।’ लटूरी ने उनको भड़काते हुए कहा।’ (पृ॰-42)
दलितों में फूट डालने व एक-दूसरे के विरूद्धलड़वाने के षड़यन्त्रों को तो दर्शाया ही है साथ ही दलितों में एकता का आधार व चेतना को भी रेखांकित किया है।
प्रभु, कल्लन, समरू, परसादी, लोटन और इतवारी सभी के सभी जाटव लट्ठ लेकर हमारे बनते घर के सामने खड़े थे उन्होंने एक स्वर में मेरे पिता का नाम लेकर आवाज लगाई। पिता साथ में बनी कच्ची कुठरिया से निकल आए। मैं चन्दू डोकर के नीम के तने का सहारा लिए खड़ा था। लटूरी गांव के बसीठों के साथ-साथ अपने घेर के पास रूक गया था जो हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर था। रोहन भैया, तु बना मकान, हम देखते हैं तुझे कौन ससुरा रोकता है मकान बनाने के लिए।’ प्रभु ने पिता के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- ठाकुर तुमने हमें क्या खचेरा समझ रखा है तुम खचेरा को ही तरह-तरह के लालच देकर बहका सकते थे, बहुत लड़ाया तुमने हमें आपस में। हम अपनी जिन्दगी जीना सीख गए हैं, अब हम तुम्हारी बातों में आने वाले नहीं ...., अपना भला चाहते हो तो चले जाओ यहां से, वरना ठीक न होगा।’ दलितों में बनी एकता को देखकर सवर्ण हतप्रभ रह गए और एक-एक कर वहां से खिसक गए।
दलितों को लड़वाकर ही सवर्णो का वर्चस्व कायम रह सकता है यदि वे न लड़ने की ठान लें, सवर्णों की साजिशों का शिकार न हों तो उनके मुक्ति के द्वार खुलने का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है।
दलितों की एकजुटता पर ही उनके शोषण व अन्याय से छूटकारा निर्भर करता है, जातियों में बंटे समाज में दलितों की मुक्ति व उत्थान किसी तरह संभव नहीं है। इसलिए जातिविहीन समाज के निर्माण के लिए उठाया गया कदम ही दलित-मुक्ति की दिशा को तय करता है, लेकिन दलित समाज का काफी बड़ा हिस्सा इस दिशा में कुछ न करके अपनी जाति को छुपाकर समाज से स्वीकृति व प्रतिष्ठा पाना चाहता है। ऐसे दलित असल में जाति को लेकर हीन-ग्रंथि का शिकार हैं इस ग्रंथि से उबरने के लिए वे जाति छुपा लेते हैं और सवर्ण होने का आडम्बर करने लगते हैं। जबकि जाति को लेकर हीन ग्रंथि का शिकार होना किसी भी तरह उचित नहीं है क्योंकि ना तो जातियां उन्होंने बनाई हैं और ना ही वे कथित निम्न जातियों में जान-बूझकर पैदा हुए हैं और न ही उससे उनकी मानवीय-गरिमा में कोई कमी आती है बल्कि शर्म तो उन्हें आनी चाहिए जो एक इन्सान में और दूसरे इन्सान में भेदभाव करने के लिए जाति का प्रयोग करते हैं। उच्च जाति होने का भ्रम पैदा करके प्रतिष्ठा पाना ब्राह्मणवाद की विचारधारा को ही स्थापित करना है। फिर इससे पूर समाज का तो कोई भला होता ही नहीं और मुक्ति या आजादी कभी एक व्यक्ति की नहीं होती बल्कि पूरे समाज की आजादी व मुक्ति में ही व्यक्ति की मुक्ति समाहित होती है। अपनी मानवीय पहचान का आग्रह ही दलित की प्रतिष्ठा की दिशा में उठाया जाने वाला ठोस कदम होगा। जाति को छिपाने से कुछ समय के लिए प्रतिष्ठा-सम्मान व स्वीकृति मिलने का आभास हो सकता है, लेकिन सच्चाई प्रकट होने पर अपमानित होना पड़ता है। सूरजपाल चौहान को जब तक अनुपम जैन व उसका परिवार सवर्ण समझता रहा, लेकिन ज्यों ही उसकी जाति का पता चला तो उसने लेखक का अपमान किया। जाति छुपाकर सवर्ण समाज मे अपनी जगह नहीं बनाई जा सकती बल्कि जाति-प्रथा के विरूद्व विचारधारात्मक लड़ाई लड़कर ही, जाति प्रथा के कारण सवर्णो में हो रहे मानवता के क्षरण का अहसास कराके ही ऐसा किया जा सकता है। ’जय’ भी अपने घर से भीमराव आम्बेडकर का चित्र हटाने को इसलिए कहता है ताकि एकदम पता न चले कि वे दलित हैं। जाति छुपाकर न तो सवर्णों की ब्राह्मणवादी मानसिकता पर कोई सवालिया निशान लगता है और न ही दलितों के सामाजिक सम्मान मे कोई गुणात्मक अन्तर आता है बल्कि वे अपने लिए एक दोहरी जिन्दगी जीने तथा अपने लिए अनावश्यक झंझट ही खडे करते है।
नोएडा (उ॰प्र॰) में ग्यारह वर्ष के निवास के दौरान ऐसे कई अच्छे पढ़े-लिखे कोठी-बंगले वाले दलित परिवारों से सम्पर्क हुआ जो अपने पड़ोस में अपनी जाति को छुपाकर रह रहे है। कोई राजस्थानी राजपूत तो कोई गौड़-ब्राह्मण। राजस्थानी बने राजपूत ने तो इस डर से कि कहीं उसके दलित होने की पोल न खुल जाये, अपनी बेटी की शादी नोएड़ा से दूर दिल्ली में गोल-डाकखाने के परिसर में जाकर की थी। ऐसा नहीं था कि नोएड़ा में रह रहे पड़ौसी उसकी जाति के विषय में जानते न हों। सभी जानते थे, लेकिन कोई अपने मुख से कुछ कहता न था। ऐसे पढ़े-लिखे लोगों में आत्म-सम्मान की कमी है।’ (पृ॰-105)
विचार करने की बात है कि जाति न छुपाने से इस राजस्थानी राजपूत’ का क्या बिगड़ जाता यदि उसकी जाति उजागर होने से किसी को परेशानी हो सकती थी तो उन्हीं को हो सकती थी जिनसे वह अपनी जाति छुपा रहा है और अपने लिए कठिनाइयां पैदा कर रहा है।
जाति छुपाने की बजाए जाति-विहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करने से दलितों को सम्मान मिल सकता है। भेदभाव व असमानता को पोषित करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही ऐसा किया जा सकता है, लेकिन चिन्ताजनक बात यह है कि शिक्षित दलित वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा इसी व्यवस्था का शिकार हो गया है। जय, मदन व किशनपाल आदि चरित्रों से इसे समझा जा सकता ह। असिस्टेंट सेनेट्री इंसपेक्टर के पद पर काम करने वाला किशनपाल अपना परिचय ए.एस.आई. के रूप में इसलिए करवाता है ताकि सामने वाला व्यक्ति उसे दिल्ली पुलिस का ए.एस.आई समझे। सत्ता व रौब-दाब वाली स्थिति का दिखावा करना एक खास किस्म की विकृति ही है और यह विकृति उसके व्यवहार में तथा उसके द्वारा जीए जा रही मूल्य व्यवस्था में भी समा गई है। अपनी पहली पत्नी तीन साल की बच्ची के साथ छोड़ दी। कारण, वह बेचारी गांव की और रंग में काली थी’ (पृ॰-89) भ्रष्टाचार की दलदल में वह धंस गया है और व्यवस्था-जन्य बुराइयां उसमें घर करती जा रही हैं, इसका परिणाम यह होता है कि जिनको इस अमानवीय व्यवस्था को बदलने का प्रयास करना चाहिए वे इसके संरक्षक बन जाते हैं। किशनपाल ने एम.सी.डी. में साधारण से पद, सहायक सेनेट्री निरीक्षक के पद पर मात्र तीन-चार वर्ष की नौकरी में ही उसने एक चेतक स्कूटर, फियट कार और जमुना पार दिल्ली में पांडव नगर में साढ़े चार लाख रूपए में मकान भी खरीद लिया है।’
जयप्रकाश या जय को ऊंची जाति वाले व कोठी-बंगले वाले लोगों में अपनी पहचान-सम्मान-प्रतिष्ठा के लिए एस.सी.कहलवाने में लज्जा आने लगी’ और पिता के सफाई कर्मचारी होने और मां रंग में काली व अनपढ़’ होना भी लज्जा की बात बन गई। कभी वह अंग्रेजी न समझने वालों से भी फर्राटेदार अंग्रेजी में बोलता है, अपनी पत्नी को अंग्रेजी बोलनी न आने पर अपने दोस्त-मित्रों के घर तो लेकर ही नहीं जाता बल्कि उसका तिरस्कार व अपमान’ भी करता है। जय बहुत ही लम्पट किस्म का चरित्र है जो अपने मां-बाप को भी नाम लेकर बुलाता है और उनके नाम बिगाड़कर सुनहरी’ से सुन्नू’ व फूलवती’ से फूल्लो’ कर देता है और लड़कियों से हाथ मिलाने के आधुनिक चलन की ओट लेकर उनका हाथ सहलाता है और अपनी कुंठाओं को निकालता है। वह आम्बेडकर के चित्र को भी घर से हटवाना चाहता है, जिसका कारण मात्र यह नहीं है कि वह जाति छुपाना चाहता है बल्कि यह भी है कि आम्बेडकर ने दलित मुक्ति के लिए जो संघर्ष की राह बताई थी और जो आदर्श स्थापित किए थे उससे मुंह मोड़ना भी है। मदन भी इसी तरह का शिक्षित दलित है जिसकी दलितों में तो एक पढ़े-लिखे बड़े आदमी की छवि है जिसका उसके परिवार व रिश्तेदारों में प्रभाव भी है, लेकिन वह नैतिकता से गिरा हुआ आदमी है जिसे कि अपने भाई के मरने पर उसके कफन के पैसों की शराब पीने में कोई शर्म नहीं आती और सूरजपाल चौहान जैसे प्रगतिशील विचारों वाले को वह सहन नहीं कर सकता, वह दलित समाज को उन्हीं पुरानी रूढ़ियों में जकड़े रखना चाहता है। इस तरह के उभरता हुआ शिक्षित वर्ग दलित-आन्दोलन के लिए चुनौती है क्योंकि ऐसे तत्त्वों को कोई भी राजनीतिक शक्ति बरगला व खरीद सकती है। यह पीढ़ी शोषणकारी व्यवस्था में समाकर इसका हथियार बन रही है। जयप्रकाश अपनी पत्नी को उसी तरह प्रताड़ित करता है, जिस तरह सवर्ण समाज दलित को प्रताड़ित करता है। इस अमानवीय विचार को ग्रहण करके अपने वर्ग व समाज से विश्वासघात कर रहा है, लेकिन सूरजपाल चौहान का जय को मानसिक रोगी’ मानकर उसे मनोरोग चिकित्सक’ को दिखाकर समस्या का समाधान निकालना अति सरलीकरण है। असल में वह मनोरोगी नहीं है, बल्कि व्यवस्थाजन्य विकृति है जो उसने ग्रहण कर ली है। इसका समाधान दलित-मुक्ति के लिए किए जाने वाले विचारात्मक संघर्ष में है, ब्राह्मणवाद की बुराइयों पितृसत्ता व वर्णव्यवस्था के अमानवीय पक्षों को उद्घाटित करने में है, न कि मनोरोग चिकित्सक के पास।
सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त साहित्यकारों-आलोचकों में दलित-साहित्य को लेकर कई तरह की शंकाओं को उठाया जाता है। दलित-साहित्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को लेकर, उसकी पाठकीयता को लेकर कई तरह के प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं, सूरजपाल चौहान ने अपने अनुभवों के माध्यम से दलित-साहित्य से जुड़े विभिन्न पहलुओं की ओर संकेत किया है। दलित-साहित्य के स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र धारा की पहचान को लेकर सबसे पहले सवाल उठाया जाता है। दलित साहित्य में अभिव्यक्त यथार्थ को सहन करने व स्वीकार करने के लिए बहुत बड़े कलेजे की जरूरत है, इस यथार्थ को देखकर इसके जिम्मेवार लोग व विचारधारा को भी जानना समझना होगा, जो किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है इसलिए इस अमानवीय यथार्थ व उसकी जिम्मेवार विचारधारा मनुवाद को सुरक्षित रखने व पर्दा डालने के लिए सबसे सरल व चालाकी पूर्ण ढंग यही है कि दलित साहित्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को नकार दिया जाए। बार-बार कहा जाए कि दलित साहित्य जैसा कोई साहित्य नहीं होता। दलित साहित्य को मान्यता न देना इसके अस्वीकर का लोकप्रिय ढंग है जबकि इसकी स्वतन्त्र पहचान स्थापित करना इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाना है। सूरजपाल चौहान ने इसे पहचानते हुए इसकी ओर संकेत किया है। एक कविता गोष्ठी में जब संचालक ने तिरस्कृत’ के लेखक का दलित रचनाकार के रूप में परिचय करवाते हुए कविता-पाठ करने के लिए आमंत्रित किया तो
वर्चस्वी वर्ग की विचारधारा को प्रसारित करने वाली नोएड़ा (उ॰प्र) साहित्यिक संस्था सूर्या-संस्था’ की संचालिका आशारानी ब्होरा ने तुरन्त ही तुनक कर कहा था- अरे, साहित्य भी कभी दलित होता है ..., साहित्य तो साहित्य है। मैं नहीं मानती कोई दलित साहित्य-वाहित्य ...।’ लेकिन जब लेखक ने कहा क्यों जब ललित साहित्य, संत साहित्य या ब्राह्मण साहित्य हो सकता है, तो दलित साहित्य क्यों नहीं हो सकता?’ और इस बात से चिढ़कर आशारानी व्होरा कविता सुने बिना ही कार्यक्रम के बीच से उठकर चली गई।
दलित साहित्य में व्यक्त सामाजिक यथार्थ से बचने के लिए तथा इसकी धार को कुंद करने के लिए इस पर संकीर्णता का आरोप लगाया जाता है, जो दलित साहित्य के विरोध का ही एक पैंतरा है। समाज को वर्गों के आधार पर न देखकर समस्त मानवों को एक मानना-देखना अन्ततः वर्गो के बीच संघर्ष व टकराहट को न पहचानना है। सर्वजन हिताय’ का संदेश देने वाली रचनाएं अन्ततः परिवर्तन को नकारती हैं और यथास्थिति को स्वीकारती हैं जो दलितों के शोषण को जारी रखने की स्वीकारोक्ति है। तिरस्कृत’ के लेखक व किशोर के बीच हुई बातचीत में इस ओर संकेत किया है।
किशोर-दबे स्वर में मुझसे दलित रचनाएं न लिखने का अनुरोध हमेशा करते थे। एक दिन आफिस से आते समय दिल्ली के बाराखम्बा रोड़ स्थित स्टेट्समेन बस स्टेंड’ पर कौशल’ ने मुझसे कहा था- सूरज जी, मैं तुम्हारा हितैषी हूँ, तुमने दलितों के विषय में बहुत कविताएं व कहानियां लिखी है। ... अब मैं चाहता हूँ कि आप अपनी संकुचित विचारधारा को त्यागकर साहित्य की मुख्यधारा में आ जाओ। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सदबुद्धि दें।’ (पृ॰-82)
संकीर्णता’ को यानी दलित समाज की हितैषी विचारधारा व दलित समाज की वास्तविकताओं को छोड़कर मुख्यधारा’ को अपनाने का एक ही अर्थ है सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से वर्चस्वी वर्ग की विचारधारा को अपनाना, अपने वर्ग के हितों के विरूद्धऔर शोषक वर्ग के हितों को पोषित करने वाली रचनाएं करना। साहित्य की मुख्य धरा का अर्थ है समाज की मुख्यधरा। यानि वर्चस्वी वर्ग का यशोगान करना, अपनी रचनाओं में उनकी उदारता, दयाध्र्मिता, मानवता का गुणगान करके ठकुरसुहाती करना और बदले में पुरस्कार’, सम्मान चिह्न,’ भव्य पदवियां’ व उपाध्यिां’ं हासिल करना और समाज की मुख्यधरा से बाहर यानि हाशिये पर ध्केल दिए गए दबे-कुचले, वंचित-पीड़ित-दलित लोगों की ओर से मुंह मोड़ लेना। दलित साहित्यकारों की स्वीकृति तभी तक है जब तक कि वह तथाकथित मुख्यधरा’ की विचारधारा को पोषित करने वाली रचनाएं प्रस्तुत करता है ज्यों ही उसने दलित समाज की सच्चाइयों को और उनके पीछे निहित कारणों व शक्तियों पर उंगली उठानी शुरू की तो उसकी रचनाएं स्वीकार्य नहीं होंगी और उसको अपमानित किया जाएगा, लेकिन दलित साहित्यकार के लिए दलित जीवन की जटिलताओं से किनारा करना साहित्यकार के रूप में उसकी मृत्यु का लक्षण होगा। सूरजपाल चौहान इसकी ओर संकेत करते हैं उनके अनुभवों से दलित-साहित्य व रचनाकारों के प्रति श्रेष्ठता-ग्रंथि के शिकार रचनाकारों का रवैया समझा जा सकता है।
सवर्ण साहित्यकारों के बीच में मेरे प्रति आदर और सत्कार तभी तक कायम रहा जब तक मैं उनके राग अलापता रहा। मेरी गैर दलित रचनाओं और भजनों, जिनमें शिव-स्तुति’ प्रमुख थी, सुन-सुनकर वे झूम उठते थे और खूब तालियां बजाते। धीरे-धीरे जब मेरा स्वर बदलने लगा तो इनके बीच में मुझे शक की नजरों से देखा जाने लगा। एक बार दिल्ली के मावलंकर हाल’ में एक कवि सम्मेलन के दौरान एटा-मैनपुरी से आये एक कवि ने मंच पर ही मेरी जाति मुझसे पूछ डाली। मैंने खीजते हुए उससे कहा-
मैं भंगी हूँ, क्या परेशानी है तुझे?’
मेरी बात सुनकर वह बड़ी बेशर्मी से मुंह बिचकाता हुआ बोला था-
लो, अब भंगी भी कविताएं लिखने लगे।’ (पृ॰-123)
दलित साहित्य पर और दलित साहित्यकारों पर संकीर्णता’ का आरोप लगाने वालों को अपने अन्दर झांककर देखने की जरूरत है। संकीर्णता उनमें है जो दलित साहित्य पर संकीर्णता का आरोप लगाते हैं क्योंकि कोई रचनाकार अपने इर्द-गिर्द की व अपने समाज की सच्चाईयों-टकराहटों, अन्तर्विरोधों व विसंगतियों को ही अपनी रचनाओं में व्यक्त करता है और सही ढंग से उसी को कर भी सकता है। दलित साहित्यकारों से यह अपेक्षा करना कि वे अपने समाज की सच्चाईयों को व्यक्त न करके ऐसी दुनिया का निर्माण करें जिसका कि उनको अनुभव नहीं है किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। दलित रचनाकार अपने समाज की वास्तविकताओं को व्यक्त करें तो उन पर संकीर्णता का आरोप लगाकर उनका बहिष्कार करना, उनकी रचनाओं को न पढ़ना उनकी पुस्तकों को पुस्तकालयों में न रखना और दलित-पत्रिकाओं को न पढ़ना संकीर्णता के लक्षण व प्रमाण हैं। दलित साहित्यकार स्वतन्त्र विचारों के साथ स्वीकार्य नहीं हैं बल्कि उसकी स्वीकार्यता तब तक है जब तक कि वह उनके (सवर्णों) खांचे में फिट होने की गुंजाइश रखता है। हिन्दी-साहित्य’ के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व घोर ब्राह्मणवादियों के शिंकजे में कार्यरत सूर्या-संस्था, नोएड़ा (उ॰प्र) के अनुभव से सूरजपाल जी ने इस ओर संकेत किया है कि जब तक इनके मंचों पर इनके पसंद की या विचार की कविताएं सुनाते रहो याकि इनका प्रचार करते रहो तब तक इस सड़क छाप कवियों’ की मण्डली में आप का स्थान है यदि आपने यथार्थ की रचनाएं प्रस्तुत करनी शुरू दी तो यहां आपके लिए दरवाजे बंद हैं।
जब इनके मंचों से अपनी भावपूर्ण दलित रचनाएं पढ़नी शुरू कर दीं। मेरी रचनाओं को सुन-सुनकर ये सभी हैरान रहने लगे। इनमें से कई मुझे बहुत दिनों तक ऐसा सब मंचों से न पढ़ने के लिए मनाते रहे। काव्य-गोष्ठियों में मेरी रचनाएं सुनकर अब ये नाक-भौंह सिकोड़ने लगे। जब इन्होंने देखा कि मैं बदलने वाला नहीं, तो मुझे बुलाना ही बंद कर दिया, जिसकी मुझे पहले से ही सम्भावना थी।’ (पृ॰-108)
दलित रचनाकारों पर संकीर्णता का आरोप लगाने वाले असल में खुद संकीर्णता का शिकार हैं अपनी पसंद की रचनाएं न पाकर किसी साहित्यकार को संकीर्ण कहना उचित नहीं है उसकी रचनाओं में व्यक्त यथार्थ का विश्लेषण करके पूरे समाज के संदर्भ में उसको देखने पर ही किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है लेकिन दलित साहित्य व साहित्यकार के प्रति सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रचनाकार व पाठक इतने संकीर्ण व पूर्वाग्रही हैं कि बिना पढ़े ही इनके बारे में फतवे’ घोषित कर देते हैं। आशारानी व्होरा नाम की लेखिका दलित-पत्रिका शम्बूक’ के दो अंकों को तिरस्कृत’ के लेखक के पास भिजवा देती है न तो अपनी पुस्तकों में स्थान देती और न ही इनको पढ़ने की जहमत उठाती है। इसी तरह ब्राह्मणवादी सोच को धारण किए व्यक्ति पुस्तकालयों में दलित-साहित्य को नहीं आने देते। जब सूरजपाल चौहान ने अपने कार्यालय के पुस्तकालय के लिए दलित साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियां खरीदवा दीं तो उनको कोपभाजन तो बनना ही पड़ा। हिन्दी अधिकारी की टिप्पणी दलित साहित्य के प्रति नजरिये को स्पष्ट कर देती हैं।
पुस्तकें देखकर हिन्दी अधिकारी ने कहा यह - ये कूड़ा-कचरा क्यों खरीद लिया ..... कौन पढ़ेगा इन्हें।’ हिन्दी अधिकारी के पूर्वाग्रह प्रकट होने लगे थे।
मैंने कहा- आपने इनमें से कुछ पढ़ा है।’
वह तपाक से बोले- ऐसी वाहियात चीजें मैं नहीं पढ़ता’ (पृ॰-84)
बिना पढ़े ही दलित साहित्य को वाहियात’ मानना व रद्द कर देना सवर्ण-संकीर्णता व दलितों के प्रति घृणा को दर्शाता है। दलित साहित्य के प्रति पाठकीय संवेदना का घोर अभाव है जो पाठकीय तैयारी, संवेदना, व आलोचनात्मक विवेक दलित साहित्य को ग्रहण करने के लिए चाहिए वह लगभग सिरे से गायब है। ऐसी स्थिति में दलित साहित्य में उठाए गए गम्भीर सवालों पर चर्चा करने की बजाए, शोषण-उत्पीड़न की स्थितियों व कारणों को समझने की बजाए व मानवता के हो रहे क्षरण को समझने की बजाए दलित साहित्य को खारिज करने का ही भरसक प्रयास रहता है कभी जानकारियों के अभाव का, कभी सही तथ्यों का, कभी विश्वसनीयता, कभी सौन्दर्यबोध का, कभी संकीर्णता का तो कभी अश्लीलता का आरोप चस्पां कर दिया जाता है। दलित साहित्य में व्यक्त सच्चाईयों से मुंह मोड़ने व उसकी जिम्मेदार विचारधारा को बचाने का यही सबसे आसान व कारगर ढंग है और अक्सर ऐसा ही होता है। यदि कोई दलित रचनाकार को पढ़ता है या उसकी किसी रूप में मदद करता है तो इस तरह कि जैसे उस पर अहसान किया हो
वह (कौशल) लगभग चीखते हुए बोले- आपको पता है कि आपके बाल-कविता पाठ की रिकार्डिंग मेरे छोटे-भाई और मेरी पत्नी ने मिलकर की है, यह जानते हुए भी कि आप वाल्मीकि जाति के हैं।’ (पृ॰-83)
दलित साहित्य के प्रति अभी आलोचना-दृष्टि विकसित नहीं हुई दलित रचनाओं में मीन-मेख निकालना ही इनकी आलोचना पद्धति के तौर विकसित हुई है। प्रख्यात दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन’ पर बातचीत करते हुए कौशल छटांक, सेर, किलो’ का बहाना लेकर वही ऊट-पटांग सवाल करता है जिसका कि रचना के सौन्दर्य, रूप, कथ्य, आदि से कोई संबंध नहीं रखती।
दलित साहित्य की रचनाओं को और उनमें उठाए गए सवालों को नकारने का एक ओर पैंतरा लिया जाता है। दलित साहित्यकारों पर उसी तरह का आरोप लगाया जाता है जिस तरह दलित राजनेताओं पर। दलित साहित्यकारों पर समाज की शांति को भंग करने जैसा अनर्गल व बेहूदा आरोप लगाया जाता है, जाति को बढ़ावा देने वाला कहा जाता है या फिर इनके काम से समाज का कोई भला नहीं हो सकता ऐसा कहकर दलित साहित्य की महत्ता को ही नकारने का प्रयास किया जाता है। सूरजपाल चौहान के आफिस के सहयोगी, जो कविता भी लिखते हैं, किशोर कुमार कौशल’ के साथ हुई बातचीत से अनुमान लगाया जा सकता है कि दलित साहित्य के बारे क्या धारणा रखते हैं।
.... तुम या तुम्हारे दलित साहित्यकार अपने आपको साहित्यकार होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं ... तुम्हारे लिखने से दलितों का क्या भला हो रहा है? तुम लोग तो दलितों और सवर्णों के बीच की खाई को चौड़ा करने में लगे हो ..., तुम्हारे लिखने से क्या समाज बदल जाएगा ...। तुम या तुम्हारे दलित साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द, निराला या नागार्जुन से बड़े नहीं हो गए हो।’ (पृ॰-83)
दलित साहित्यकार किसे माना जाए, दलित जातियों में पैदा हुए साहित्यकार को या फिर दलितों के हितों को बढ़ावा देने वाले को - यह सवाल बहुत ही विवादास्पद रहा है। सूरजपाल चौहान व ओमप्रकाश वाल्मीकि की बातचीत से इस पर कोई राय बनाई जा सकती है। कृष्ण कुमार कौशल नाम का रचनाकार दलित हैं, लेकिन वह आर्यसमाजी विचारधारा का समर्थक है जो मूलतः वर्ण-व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानती है और मनु स्मृति को वेदों की तरह का जरूरी ग्रंथ। ओमप्रकाश वाल्मीकि तिरस्कृत’ के लेखक को कहते हैं कि उच्च वर्ण की विचारधारा ब्राह्मणवाद का समर्थक व्यक्ति दलित हितैषी व दलित साहित्यकार नहीं हो सकता चाहे उसने स्वयं दलित समुदाय में ही जन्म क्यों न लिया हो। बात बिल्कुल सही है कि व्यक्ति का व्यवहार उसके विचारों से परिचालित होता है और विचार से ही समाज बदलता है। दलित-दृष्टि व दलित-हित को अभिव्यक्त करने वाली रचनाओं को दलित-रचना व इनके लेखकों को दलित-रचनाकार कहा जा सकता है चाहे वह किसी भी जाति से संबंध रखता हो।
समाज में साम्प्रदायिकता की विचारधारा को प्रसारित करने के लिए साहित्य का सहारा लेने को तथा दलितों को इस कुत्सित अभियान में शामिल करने के आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल की योजना को भी उद्घाटित किया है। साहित्यकार होने की पहली शर्त है कि बिना किसी पूर्वाग्रह के मानवीय दृष्टि से समाज की सच्चाई को, अन्तर्विरोधों को व विसंगतियों को देखना और उनको मानवीय नजर से अपनी साहित्य-रचनाओं में अभिव्यक्त करना, जिसको अपनाए बिना कोई भी साहित्यकार नहीं हो सकता, हां प्रचारक अवश्य हो सकता है। सूरजपाल चौहान के अनुभवों से प्रचारकों को पहचानने की समझ विकसित होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए मनुस्मृति एक आदर्श ग्रन्थ है जिसकी व्यवस्था को लागू करने के लिए वह हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। हिन्दू राष्ट्र में दलितों का स्थान वही होगा जो मनु ने निर्धारित किया है। अपनी इस विचारधारा को प्रचारित करने में साहित्यकारों को जोड़ने के लिए बड़े-बड़े भव्य आयोजन करके, प्रशस्ति प्रमाण पत्र बांटकर, पुरस्कारों का लालच देकर व फूल मालाएं पहनाई जा रही हैं और इसमें कुछ हद तक सफल भी हुए हैं। अच्छी बात यह है कि हिन्दी का रचनाकार अभी तक कट्टरपंथी व नफरत फैलाने वाली विनाशकारी शक्तियों की गिरफ्त से बाहर है। मंचीय कवियों की बहुत बड़ी संख्या ही इस विचारधारा को महिमामंडित करती है चाहे स्त्री के संबंध में पितृसत्ता व पुरूष प्रधानता हो या उन्मादी राष्ट्रवाद हो या फिर युद्ध के संबंध में हो। वह अपनी चुटकुलेनुमा रचनाओं में इन प्रतिक्रियावादी शक्तियों की विचारधारा व तर्क ग्रहण करता है, लेकिन समाज में और साहित्य जगत में ऐसे भाण्डों को अभी तक मात्र हंसाने-गुदगुदाने वाला या मनोरंजन करने वाला ही माना जाता है। गम्भीर साहित्यकार के रूप में अभी तक न तो इनकी पहचान है और न मान। न तो इनको गम्भीरता से लिया जाता है न ही इन्हें समाज को दिशा देने वाला रचनाकार माना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित अ.भा. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वर्णन करते हुए सूरजपाल ने लिखाः
उद्घाटन सत्र में हरेक वक्ता ने भारत के मुस्लिम समाज को जी भरकर अपशब्द कहे। वातावरण इस प्रकार लगा कि मानो हम किसी राजनीतिक पार्टी या धर्म-सम्मेलन में आए हुए हों। उद्घाटन सत्र के दौरान हर हर महादेव’ के नारे गूंजते रहे। वहां पधारे हरेक व्यक्ति के सीने पर जय श्रीराम’ के बिल्ले लगाए जा रहे थे। मैंने जब इसका विरोध किया तो भाजपा व बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने गाली-गलौज से मेरा स्वागत किया। मैं अन्त तक अपने निश्चय पर डटा रहा। मैंने कहा कि मैं यहां हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आया हूँ, किसी धार्मिक सम्मेलन में नहीं । भला मैं क्यों लगाऊँ, जय श्रीराम का बिल्ला। बहुत समझाने-बुझाने पर किसी तरह बात टली। लेकिन मैं पूरे कार्यक्रम में कार्यकर्ताओं की आँखों में खटकता रहा। सभी मुझे घूर-घूर कर देख रहे थे।’ (पृ॰-66)
सूरजपाल चौहान ने ऐसे संकीर्ण मानसिकता के लोगों की असली मंशा को उजागर किया है, जिनका साहित्य से या साहित्यिक सरोकारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यदि कोई साहित्यकार साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए गम्भीर बातचीत करता है, रचनात्मक सुझाव देता है या साहित्य में संकीर्णता न अपनाने की बात करता है, जाति-प्रथा जैसे घृणित विचार को ध्वस्त करता है तो उसको तालियां बजाकर या फिर शोर मचाकर मंच से उतार दिया जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों के लिए जाति-प्रथा जैसी अमानवीय-प्रथा को समाप्त करना कोई मकसद नहीं है, बल्कि यह तो उसको पोषित करने वाली संस्था है। लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में जन समर्थन हासिल करके ही शासन हथियाया जा सकता है, इसलिए अपने राजनीतिक हित साधने के लिए अपने पीछे लगाने की रणनीति अपनाते हैं। दलितों के प्रति सदियों से अपनाई जा रही नफरत व हिंसा को समाप्त करने की बजाए दलितों में इस उत्पीड़न का अहसास न हो इसके लिए छोटे-मोटे उत्सवों के बहाने दलितों के साथ मेलजोल करने व बराबर समझने का ढोंग किया जाता है। सवर्ण व पुरूषवादी विचारधारा को पोषित करने वाला संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों को राजनीतिक हित साधने के लिए दलितों को अपने पीछे/साथ लगाना जरूरी है तो उन पर अपना वर्चस्व बनाए रखने व सामाजिक सत्ता बनाए रखने के लिए उनको निम्न/नीचा बनाए रखना भी जरूरी समझता है। राजनीतिक दृष्टि से हिन्दू समाज एक इकाई के रूप में तथा सामाजिक स्तर पर जातियों-उपजातियों में बंटा समाज व एक के ऊपर एक टिकी सामाजिक व्यवस्था जिसमें सवर्ण सबसे ऊपर है। ऐसी अन्तर्विरोधी समाज-व्यवस्था को बनाने के लिए नित नई-नई योजनाएं बनाना व लोगों और विशेषकर दलितों में ऐसा भ्रम पैदा करना कि वह समाज में एकता व बराबरी चाहता है संघ की कार्यप्रणाली का हिस्सा है। अपनी इस राजनीतिक व्यूह-रचना में संघ काफी हद तक कामयाब हुआ है। इसके तो स्पष्ट ही उदाहरण हैं कि वर्ण-व्यवस्था व मनुवाद को पोषित करने वाली संघ के राजनीतिक घटक व वर्ण-व्यवस्था व मनुवाद के विरूद्ध आग उगलने वाली, सबसे मुखर व दलित-हितैषी’ राजनीतिक दल ने कई बार इकट्ठे मिलकर सत्ता का स्वाद चखा है। यह रहस्य तो नहीं है कि परस्पर विरोधी सामाजिक दृष्टि रखने वाले राजनीतिक दलों में एकता कैसे हो जाती है क्योंकि राजनीतिक एकता का अर्थ है राजनीतिक स्वार्थों की एकता। सूरजपाल चौहान ने अपनी आत्मकथा में इस की ओर संकेत किया है व दलितों के आन्दोलन को भ्रमित करने व कुन्द करने की साजिश को उद्घाटित किया है।
संघ द्वारा आयोजित साहित्य सम्मेलन के समापन पर लेखक ने भाजपा व संघ के कार्यकर्ता से पूछा - आप दलितों को अपनी ओर करने हेतु क्या कर रहे हैं और भविष्य में क्या योजना है, जिससे कि इस देश की सत्ता हम सवर्णों के ही हाथों में रहे।’
इस पर संघ के उस कार्यकर्ता ने बताया कि अब पूरा ध्यान देश के दलितों को अपनी ओर करने में लगाया जा रहा है। उसने योजनाओं पर चर्चा करते हुए कहा- रक्षाबंधन जैसे त्यौहारों के अवसर पर हम अपने कार्यकर्ताओं के साथ चूहड़े-चमारों के घर जाते हैं और मिठाई तथा छोटे-मोटे उपहारों के साथ उनकी बहन-बेटियों से राखी बंधवाते हैं ऐसा करने से इन चूहड़े-चमारों पर हमारा अच्छा प्रभाव पड़ता है। ये छोटी जाति के लोग बड़े खुश होते हैं, जब हम इसके घर जाते हैं। भविष्य में ऐसी कई योजनाएं हैं।’(पृ॰-68)
सूरजपाल चौहान ने संघ द्वारा आयोजित किए जाने अन्तर्जातीय उत्सवों-कार्यक्रमों के पीछे की साजिश का पर्दाफाश तो किया ही है साथ ही दलितों व दलित नेताओं, दलित राजनीतिक दलों को इस राजनीति को समझने का आग्रह किया है।
कहा जा सकता है कि सूरजपाल चौहान ने अपनी आत्मकथा तिरस्कृत’ में अपने अनुभवों को आलोचनात्मक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत करके इन अनुभवों को समस्त दलित-पीड़ित लोगों के साथ इस तरह-जोड़ दिया है कि यह आत्मकथा अधिकांश दलित-पीड़ित आबादी की कथा बन जाती है। दलितों के प्रति हिंसा, घृणा, पूर्वाग्रहों को स्पष्ट रूप में रखते हुए उनकी स्वीकृति, सम्मान, पहचान व मानवीय गरिमा को महत्त्व दिया है। दलितों के बीच पनपे ब्राह्मणवाद को बहुत तीखे रूप में उठाया है जो दलितों की एकता व संगठित होने में मुख्य अवरोध है और दलित मुक्ति में सबसे बड़ी रूकावट हैं। दलित साहित्य की स्वतन्त्रा सत्ता, सौन्दर्य-बोध, पाठकीय चेतना-संवेदना आदि से जुड़े सवालों को भी महत्वपूर्ण ढंग से उठाया है जिससे कि दलित साहित्य के बारे में धारणा बनाने में मदद मिलती है। इस तरह तिरस्कृत’ बहुत जरूरी सवालों को उठाने वाली दलित मुक्ति के दस्तावेज की रचना है।

अक्करमाशीः समाजशास्त्रीय अध्ययन





अक्करमाशीः समाजशास्त्रीय अध्ययन






डा. सुभाष चन्द्र, एसोशिएट प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

शरणकुमार लिम्बाले रचित आत्मकथा अक्करमाशी’ दलित साहित्य की अनुपम कृति है, जो समाज की ऐसी सच्चाई को हमारे सामने रखती है कि समाज में व्याप्त भेदभाव व असमानता को कानूनी मान्यता देने वाली व्यवस्था की परत दर परत उघाड़ती जाती है।
मनुष्य के जीवन में शिक्षा को अनिवार्य मानते हुए कहा है कि शिक्षा से ही मनुष्य का विकास होता है, उसी के माध्यम से वह संस्कृति व सभ्यता की उपलब्धियों को प्राप्त करता है। लेकिन भारतीय समाज का एक दुखद व शर्मनाक अध्याय यह भी रहा है कि समाज के बहुत बड़े वर्ग को धर्म का वास्ता देकर इससे वंचित कर दिया। वर्ण-धर्म के पालन को मनुष्य के लिए मोक्ष प्राप्त करने का और समाज को सुचारु रूप से चलाने का आधार माना। और इस व्यवस्था का पालन करवाने के लिए शासकों से आग्रह किया गया। वर्ण-धर्म का अर्थ था जो चार वर्ण बनाए गए हैं वे श्रेष्ठता के क्रम में हैं और शूद्र वर्ण को तो ज्ञान प्राप्त करने से वंचित रखा गया, उसका धार्मिक कर्तव्य हो गया ज्ञान प्राप्त न करना। यदि किसी शूद्र ने ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश की तो उसको सजा दी गई। इस कथित आदर्श व्यवस्था ने अधिकांश आबादी को समाज की उपलब्धियों से दूर कर दिया। इस वर्ग को न केवल ज्ञान से वंचित किया, बल्कि गुजारा करने व जीने के सारे साधन भी इनसे छीन लिए और ये पूर्णरुपेण सवर्णों पर निर्भर हो गए।
घर की खस्ता हालात होने के कारण बच्चों को घर के कामों में मदद करनी पड़ती है। वे अपनी पढ़ाई को ठीक ढंग से नहीं कर पाते। यह समस्या केवल दलित या अछूत मानी जाने वाली जातियों की ही नहीं है, बल्कि तमाम मेहनतकश जनता की है। इस वर्ग की आर्थिक स्थिति में बच्चों का महत्वपूर्ण स्थान है, वे बड़ों की सहायता करते हैं या स्वतंत्र रूप से कुछ कमाते हैं जो इन परिवारों के अस्तित्व के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेखक का दोस्त संगू वन-भोजन के लिए स्कूल के बच्चों के साथ जाना चाहता है, लेकिन उसकी मां उसे जाने नहीं देती।
चटनी-रोटी बांधकर हम भी उन बच्चों में शामिल हुए जो शिक्षक के निर्देशानुसार कतार में खड़े थे। उसी समय जनामाय हाथ में छड़ी लेकर वहां आई। संगू को कतार से बाहर निकालते हुये पीटने लगी। संगू रोने लगा। वह हमारे साथ वन-भोजन के लिए जाना चाह रहा था। पर जनामाय उसे कतार से बाहर खींचने लगी। जनामाय किसी की सुन नहीं रही थी। उसे पीटते हुए कह रही थी, संग्या, चुपचाप मेरे साथ चल, नहीं तो लातों का परसाद दूंगी! तेरा बाप भूखा ही मजदूरी करने गया है। उसे रोटी पहुंचानी है। तू अगर नहीं जायेगा तो वह दिन भर भूखा रहेगा और जानता है, आगे क्या होगा? रात में वापसी पर वह सारा गुस्सा तुझपर निकालेगा, तेरी बोटियां काटेगा, इसलिए कह रही हूं चुपचाप चल।’(पृ.-35)
केवल दलितों से ही नहीं, बल्कि समाज के तो अन्य वर्गों के गरीब लोग भी हैं वे भी इसी तरह की स्थितियों में जी रहे हैं। परिवार का गुजारा चलाने के लिए बच्चे भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मेहनतकश जनता के बच्चों को बचपन जैसा कुछ मिलता ही नहीं, वे शोषण की चक्की में होश संभालते ही जोत दिए जाते हैं और मरने के साथ ही उनका इससे पीछा छूटता है। सिद्धांत के तौर पर सब इस बात को मानते हैं कि अपने बच्चों को पढाना चाहिए, इससे उनका जीवन सुधरेगा’ बनेगा’, लेकिन सामाजिक व आर्थिक स्थितियां इस तरह की है कि चाहते हुए भी मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते। वे बच्चों का भविष्य बनेगा, उज्ज्वल होगा, नरक की स्थितियों से मुक्ति मिलेगी , ऐसा सोचकर वे अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल तो करवाते हैं, लेकिन जल्दी ही उनका यह सपना चकनाचूर हो जाता है। परिवार की आर्थिक हालात उसकी पढ़ाई के रास्ते में दीवार बनकर खड़ी होती है। परिवार के सामने दो रास्ते हैं एक तो बच्चे को पढ़ाई करवाके भविष्य संवारने का और दूसरा घर के काम में हाथ बंटाकर वर्तमान को बचाने का। स्वाभाविक है कि इन स्थितियों में व्यक्ति वर्तमान को ही चुनता है। परिणाम के तौर पर वह बच्चे को स्कूल से उठा लेता है। सरकारी आंकड़े भी इस बात को रेखांकित करते हैं कि जितने बच्चे स्कूल में दाखिला लेते हैं उसके आधे ही प्राईमरी पास कर पाते हैं। इस बात पर तो काफी जोर दिया गया कि सभी बच्चे स्कूल में न जांए, लेकिन अभी यह प्रश्न अनछुए जैसा ही है कि जो बच्चे स्कूल में आ गए हैं उनको स्कूल छोड़ने से कैसे रोका जाए? असल में तो हर व्यवस्था का चरित्र होता है उसी के आधार पर वह काम करती है। श्रमिकों का शोषण पूंजीवादी-सामन्ती व्यवस्था के चरित्र की प्रमुख विशेषता है। इसके लिए जरूरी है कि श्रमिक काफी मात्रा में उपलब्ध रहें और वे यदि जागरूक न हों तो इस व्यवस्था के लिए वरदान ही है। शिक्षा नीति भी व्यवस्थाजन्य है। जिस वर्ग के पास शासन सत्ता होती है वह अपने अत्यधिक लाभ के लिए ही शिक्षा का प्रयोग करता है। पूंजीवादी-सामन्ती व्यवस्था में पूंजीवाद व सामन्तवाद के मूल्यों को बढ़ावा देने वाली शिक्षा का ही प्रसार होगा। समाज में जितने स्तर हैं शिक्षा के भी उतने ही स्तर हैं। जिस स्तर में व्यक्ति है उसे उसी स्तर तक ही शिक्षा देने की इच्छा व्यवस्था की रहती है। ये उसकी पारिवारिक स्थितियों पर निर्भर करता है कि वह कहां तक शिक्षा प्राप्त करेगा। चूंकि दलितों के पास जीवन जीने के कोई साधन नहीं हैं वे पूरी तरह से सर्वहारा हैं, जिनका इस व्यवस्था ने सर्वस्व शोषण कर लिया है इसलिए उसका शिकार वह सबसे पहले होता है। पूंजीवाद में शोषण तो सबका ही होता है, लेकिन यह भी उसके स्तर पर निर्भर करता है। जो सबसे नीचे की श्रेणी में है उसका सबसे अधिक शोषण होता है। शोषण का तीखा अहसास भी उसी को होता है। इसलिए दलितों में भी जिनके पास ’कुछ’ है वही पूंजीवादी ढांचे में विकास के ’कुछ’ अवसर पा सकता है, शेष तो मौल्या की तरह स्कूल से निकाल लिए जाते हैं। जो जितना गरीब है वह उतना ही जल्दी इस व्यवस्था की कड़क्की में आता है। मौल्या के परिवार का जो वर्णन लेखक ने किया है, उस हालत में इसके अतिरिक्त क्या निर्णय लिया जा सकता है।
मौल्या मेरी ही तरह रोज स्कूल आता था, परंतु उसके पिता ने उसे स्कूल से निकाल लिया तथा पशुओं की देखभाल पर लगा दिया। अर्थात नौकरी पर लगा दिया। इतनी छोटी उम्र में ही मौल्या नौकरी कर रहा था। रोज दो बार भोजन तथा प्रतिवर्ष सौ रूपए - उसका वेतन था। उस वर्ष मौल्या की मां के पास पहनने के लिए धोती भी नहीं थी, घर में हमेशा भूखा सोना पड़ता था। उसकी इस नौकरी से उसके पेट का बोझ घरवालों पर से हट गया था। एक पेट की चिंता मिट गई थी। और फिर सालाना सौ रूपए मिलने वाले थे। उन पैसों से परिवारवालों के लिए कपड़े खरीदे जाने वाले थे। इस तरह मौल्या परिवार का आधार बन गया था।’ (पृ.-36)
अक्सर कहा जाता है कि दलितों के लिए स्कूलों में इतनी सुविधा है, उनके लिए सरकार ने छात्रवृति के प्रबन्ध कर रखे हैं इसके बावजूद भी यदि वे नहीं पढते तो उनमें पढ़ने की ललक-इच्छा और प्रतिभा ही नहीं है, लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। बच्चे मां-बाप पर बोझ नहीं, बल्कि उनके परिवार के लिए उनकी मेहनत की जरूरत है। शोषण आधारित समाज में उनका शोषण इतना अधिक है कि वे सिर्फ अपनी मेहनत से गुजारा नहीं कर सकते। दूसरी ओर शोषकों को इस स्थिति का दोगुना लाभ होता है उसे सस्ते दर पर श्रमिक मिल जाता है वह भी ऐसा कि किसी भी तरह के जुल्म-शोषण का विरोध करने की हालत में नहीं होता।
स्कूल कभी विठोवा अथवा कभी महादेव के मंदिर में लगा करता था। स्कूल के भीतर, मतलब मंदिर में ब्राह्मणों तथा वैश्यों के लड़के बैठते थे। पहली कतार में एक ओर लड़के, दूसरी ओर लड़कियां। उनके पीछे चमारों के लड़के और सबसे पीछे महार लोगों के, दरवाजे के निकट। मातंग जाति का अर्जु हमारे साथ नहीं बैठता था। हम महार जमात के थे, इसलिए प्रति शनिवार पूरे स्कूल की जमीन को गोबर से लीपने का काम हमें दिया जाता था। गोबर इकट्ठा करके पूरा स्कूल लीपने के बाद शिक्षक मेरी सराहना करते। घर पर मैं किसी भी प्रकार का काम नहीं करता था। पर स्कूल का यह काम मुझे चुपचाप करना पड़ता था।’ (पृ.-39)
असल में तो पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण की मार दलितों से विकास के तमाम अवसर छीन लेती है और रही-सही कसर निकाल देती है सामाजिक स्थिति। दलित चूंकि समाज के सबसे निचले पायदान पर है इस कारण तमाम सामाजिक निर्मितियां भी उसके खिलाफ हैं और उसके शोषण की जमीन तैयार करती हैं। गांवों में स्कूलों के लिए कोई व्यवस्था तो थी नहीं। सुविधा के हिसाब से स्कूल की जगह बदल जाती है वह या तो मंदिर है, चौपाल या फिर किसी सवर्ण सरपंच का या अन्य किसी दबदबे वाले और अमीर का घर-कोठी। इन सबमें परम्परागत तौर पर दलितों का जाना मना है। इसलिए इसका खामियाजा भी दलित को ही चुकाना पड़ता है। वरन् तो तेली के लड़के महाद्या की क्या हिम्मत थी कि वह लिम्बाले को देखते ही पीटने लगे और उसके पढ़ाई का सामान (स्लेट-पुस्तकें) फेंक दे और शिक्षक भी द्रोणाचार्य की परम्परा निभाते हुए अपना वर्ण-धर्म निभाते हुए न्याय सुना देते हैं। इस दृष्टि से किए गए न्याय में लिम्बाले को ’सबसे दूर दरवाजे के पास’ ही बैठना पड़ेगा, क्योंकि समाजार्थिक दृष्टि से उसकी समाज में उसकी हैसियत के अनुसार शिक्षकों को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता।
सावन के माह के कारण स्कूल तेली की कोठी में लगता था। मैं पहली बार उस कोठी में गया था। लड़कों में जाकर बैठ गया। उस कोठी के मालिक के लड़के महाद्या ने मुझे देख लिया। वह भागता हुआ आया। मेरी स्लेट तथा पुस्तकें छीन लीं और पूरी शक्ति से वह मुझे पीटने लगा। आंखों के सामने तारे चमकने लगे। सारे बच्चे मेरी ओर देख रहे थे। शिक्षक आए। उन्होंने उन सबसे दूर दरवाजे के पास बैठने के लिए मुझसे कहा। मैं उस स्थान पर अकेला बैठ गया। भीतर-ही-भीतर घुटते हुए, ध्रुव की तरह स्थिर।’(पृ.- 40)
जाति-प्रथा जन्य अस्पृश्यता ने दलित समाज को अलगाव की स्थिति में डाल दिया है। अस्पृश्यता का सहारा लेकर दलित समाज को नियंत्रित भी किया जाता है, अपमानित भी किया जाता है और वंचित व उत्पीड़ित भी किया जाता रहा है। वह ब्राह्मणवादी संस्कार की अन्यायपूर्ण दृष्टि का ही परिणाम है कि आधुनिक समाज की संरचनाओं स्कूल आदि में भी दलितों को पीछे रखा जाता है। समाज के उर्धोन्मुखी विकास क्रम में और समस्तर (होरीजंटल) में भी वह सबसे निचली सतह पर आता है। शोषक व्यवस्था के लिए यह स्तर निहायत जरूरी है और यह तभी कायम रह सकता है जबकि यह वर्ग भी अपनी इस स्थिति को दिल-दिमाग से स्वीकार कर ले। बराबरी की आकांक्षा ही उसमें जन्म न ले इसलिए उसको ऐसे शाक-ट्रीटमेंट देना शोषक वर्ग अपने अस्तित्व के लिए जरूरी समझता है। स्कूल में शिक्षकों व सवर्ण छात्रों द्वारा किया गया अमानवीय व क्रूर व्यवहार इसी मानसिकता का परिचायक है और इसी योजना का उद्घाटन है। गैर बराबरी को स्वीकार करने का संस्कार इतने गहरे तक बैठा दिया गया है कि दलित बालक सवर्णों की चप्पल तक छूने से भी घबराता है।
जब स्कूल मारवाड़ी की कोठी में लगता तो मैं बैठक के नीचे बैठता। लड़के-लड़कियां ऊपर बैठते। शिक्षक और ऊंची जगह पर बैठकर सवर्णों के लड़कों को गणित समझाते। हम नीचे जूतों की तरफ बैठे रहते। सभी ओर चप्पल और जूते। रत्ना नामक लड़की की चप्पल बड़ी खूबसूरत लगती। शिक्षक की चप्पलों को मैं छूता तक नहीं था। सोचता, चप्पलों को छूत लग जाएगी। गुरुजी की चप्पल मुझे राम की पादुकाओं की तरह लगती।’ (पृ.-40)
समाज में जाति के आधार पर जो स्पष्ट विभाजन है, वह स्कूल में भी साफ नजर आता है। दलित विद्यार्थियों के लिए बैठने का अलग स्थान तो सवर्ण के लिए अलग स्थान। समाज में दर्जा निम्न तो स्कूल में भी बैठने का स्थान निम्न। खेल भी अलग-अलग। स्कूल एक तरह की सामाजिक ईकाई, जो बृहतर समाज का प्रतिरूप। वही छुआछात का भेद-व्यवहार, वही ऊंच-नीच।
बनियों और ब्राह्मणों के लड़के कबड्डी खेल रहे थे। हम अछूत बच्चे उनसे अलग-थलग ही बैठे थे। माल्या, मारत्या, उंब-या, परश्या, चंदया आदि छूना-पानी खेल शुरू कर चुके थे। दलितों का खेल अलग, सवर्णों का खेल अलग। दो-दो खेल दो-दो आंधियों की तरह । थोड़ी देर बाद खाना शुरू हुआ।’(पृ.-36)
देश के चिन्तकों ने सोचा था कि ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होगा, उससे वैज्ञानिक चेतना पनपेगी वह अपने आप ही जाति के, अस्पृश्यता के भेद को मिटा देगी। यही सोचकर उन्होंने जाति-प्रथा जैसी अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ कोई विशेष अभियान नहीं चलाया और केवल राजनीतिक आजादी व लोकतंत्र अपनाने को ही पर्याप्त मान लिया। जिन शिक्षण-संस्थाओं ने इस सामाजिक विषमता को समाप्त करना था और बराबरी का अहसास पैदा करना था वहीं पर इस गैर-बराबरी और विषमता को फलने-फूलने का मौका मिला। वहां भी समाज का ढांचा यूं-का-यूं ही मौजूद रहा। दलितों की दुनिया अलग ही बनी रही। कोई ऐसा अवसर ही नहीं बन पाया कि दलित और सवर्ण मिलकर कोई ऐसा कार्य करते जिससे कि बराबरी का एहसास ही होता। जाति की पहचान ही मुख्य बनी रही।
बनिए, ब्राह्मण, मारवाड़ी-मुसलमान, सुनार, ठाकुर, जाट आदि जमात के सौ लड़के, शिक्षक और लड़कियां बरगद के विशाल पेड़ के नीचे खाने के लिए बैठ गए - गोलाकार में। और हम अछूत बच्चे एक अलग पेड़ के नीचे। श्लोक के साथ उन्होंने खाना शुरू किया। हम उस श्लोक का अर्थ भी नहीं जानते थे।
मारुति के पास रोटी बांध्ने के लिए कपड़ा नहीं था, इस कारण मेरे ही कपड़े में उसकी रोटी बंधी थी। उंब-या सूखी मछली ले आया था। मल्ल्या की रोटी पर केवल चटनी थी। हम सबने रोटियां निकालीं। लड़के-लड़कियां शिक्षकों को सब्जी-रोटी दे रहे थे। उनके पास तली हुई अच्छी चीजें थीं।’ (पृ.-36)
समाज का दो वर्गों में स्पष्ट विभाजन है। एक के पास खाने के लिए रूखा-सूखा एवं अपर्याप्त है तो दूसरे के पास अच्छे पकवान हैं। एक के पास अपना पेट भरने के लिए रोटी बांधने के लिए कोई कपड़े का टुकड़ा भी नहीं है। अभावग्रस्त समाज और दूसरी तरफ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग। एक को परम्परागत रूप से समस्त अधिकार प्राप्त तो दूसरे को परम्परागत रूप से मानव की पहचान भी नहीं। वंचित वर्ग को सब कुछ बचा-खुचा मिलता। वह हमेशा बचे-खुचे पर गुजारा करता। चाहे फिर पेड़ की छाया ही क्यों न हो। दलित वर्ग को वह भी उसकी सामाजिक हैसियत के अनुसार ही मिलती।
हमारा पेड़ भी छितराया हुआ था, हमारी ही तरह। हवा का झोंका आता कि धूप लगती। गरम हवा का अहसास होता। छितराई छांव में हम बैठे थे। उंब-या ने मुझे सूखी मछली की सब्जी दी। मैंने अपनी सब्जी उसे दी। इच्छा हुई कि अपनी सब्जी-रोटी शिक्षकों को दे आऊं। पर क्या मेरी रोटी शिक्षक खायेंगें? गांव के अन्य बच्चों की रोटियां ताजा थीं। मसालेदार सब्जियां थीं फिर तली हुई अन्य चीजें भी थीं। उनकी माताओं ने बड़े प्यार से उन्हें चीजें बनाकर दी थीं। दलितों के पास अलबत्ता बासी रोटियों के टुकड़े थे। वे भी इतने कि हमारे लिए ही पर्याप्त न हों।
पेट तो शमशान-भूमि की तरह है, कितने भी मुरदे जलाते रहो, उसे और मुरदे चाहिए। मां चिढ़कर कहती थीं, तेरा पेट है कि कुंआ! टोकरी क्यों नहीं बांध लेता मुंह पर?’
अधपेट ही उठ जाता था मैं यह सब सुनते सुनते। खानेवाला मैं अकेला थोड़े ही था! अकेला मैं पेट-भर खा लेता तो बाकी क्या खाएंगें? पर आज तो घर पर जो भी था, मैं बांध ले लाया था। गांव की लड़कियों ने हमें भी सब्जी-रोटी दी, पर ऊपर से। यह सोचकर कि हमारी रोटियों तथा मिर्च को उन्होंने देखा होगा, मुझे अपनी स्थिति पर शर्म भी आई। मैं चुपचाप खाने लगा। गांव के बच्चे तथा शिक्षक खा रहे थे। उनके निकट ही लड़कियां बैठी हुई थीं। उनमें गपशप चल रही थी। हम अछूत एकदम खामोश थे। सामने मरी मछली के टुकड़े थे। बहुत सहज और मुक्त होकर रहनेवाली उन लड़कियों के होंठ मैं मन ही मन चबा रहा था।’ (पृ.-37)
अभावग्रस्त जीवन एक हीनग्रंथि पैदा करती है, जो कभी संकोची तो कभी अन्तर्मुखी बना देती है। यह स्थिति बराबरी का अहसास ही पैदा नहीं होने देती। सारे संबंध एक तरफा बन जाते हैं। एक तरफ एक वर्ग हमेशा देने की मुद्रा में रहता है। वह हमेशा दया की भीख बांटता है तो एक हमेशा याचक की मुद्रा में रहता है। याचक की यह मुद्रा उसके विकास के सारे अवसर छीनकर आत्मकेद्रिंत कर देती है। वह सिर्फ मूक दर्शक बनकर रह जाता है, न कि सारी स्थितियों का भागीदार। वे किसी भी सामूहिक आयोजन से बाहर कर दिए जाते हैं और यह बात किसी को भी अजीब नहीं लगती। स्कूल के बच्चों का वन भोजन में भी वे अकेले ही रह जाते हैं। उनका अन्य बच्चों से संपर्क है तो केवल उस समय जब वे अपनी दया दर्शाते हुए उनको खाने के लिए कुछ देते हैं तो फिर जूठन को निबटाने वाले के रूप में। पेट भरने के लिए दलित वर्ग पूरी तरह सवर्णों पर निर्भर है। पेट की भूख मिटाने के लिए वे सवर्णों की जूठन खाने पर मजबूर हैं। भूख ने उनके मान-सम्मान की परिभाषा से जूठन खाने को निकाल ही दिया है। वे जूठन को इस तरह चटखारे लेकर लेकर खाते हैं कि जैसे उनको मोहन भोग मिल गया हो। जिस तरह दलित बच्चे इस जूठन पर टूटते हैं। वह स्थिति की सारी व्याख्या स्वयं कर देती है और जब लेखक की मां इस बात को सुनकर उस जूठन से कुछ घर के लिए बचा कर लाने की कहते हैं तो स्थिति की भयावहता और विडम्बना सामने आ जाती है।
खाना खत्म हुआ। सवर्णों की रोटियां और सब्जियां बच गई थीं। शिक्षकों ने बची हुई सारी जूठन इकट्ठी करके हमें देने के लिए कहा। मैं, मारुति, उंब-या व परेश्या बचे-खुचे अन्न की उस जूठन को लेकर अपने स्थान पर आने लगे। लड़के-लड़कियां मजा लेते हुए आगे निकल गए। पर हम सबके प्राण तो उस जूठन में अटक गए थे। मारुति उस जूठन को लेकर आगे बढ़ने लगा और हम चीलों की तरह उसके पीछे पीछे चलने लगे।
हम सब निंगप्पा के खेत में रुक गए। जूठन बंधे कागज खोलकर हमने उत्सुकता से देखा। उसमें गेहूं की नमकीन रोटियों, पराठों, लड्डूओं, गुझियों, चपातियों आदि के छोटे-बड़े टुकड़े थे। बेहतरीन गंध आ रही थी। हम सब गोलाकार में बैठ गए और जूठन पर टूट पड़े। कई दिनों बाद ऐसी चीजें मिली थीं। सभी भूखे थे। भिखारी की झोली की तरह हमारे पेट की स्थिति हो गई थी।
घर आने के बाद मैने मां से यह सब कहा। मां भूख-पीड़ितों की तरह कहने लगी, घर के लोगों के लिए उसमें से थोड़ा ले आता तो क्या बिगड़ता? बचा हुआ अन्न अमृत होता है।’ (पृ.-37-38)
बचे हुए अन्न को अमृत कहना भूखे आदमी की मजबूरी है। यहीं से दो वर्गों की संस्कृति के अन्तर समझ आने लगते हैं। जिस समाज के पास अभाव हैं वह उसी के अनुसार गुजारा करने की संस्कृति विकसित कर लेता है। और चाहे कुछ भी हो इस में शासक वर्ग की विचारधारा का प्रभुत्व शामिल होता है और उसके हित व स्वार्थ सुरक्षित होते हैं। शासक वर्ग उसी मूल्य को स्वीकृति देता है जिससे उसके हितों को कोई नुक्सान न पहुंचे। अब जूठन को अमृत मानने में शोषक वर्ग को क्या नुक्सान हो सकता है? उसको तकलीफ तो तब होती यदि वह अपना हिस्सा मांगता। जूठन देने में उसको कोई ऐतराज नहीं हैं। इससे तो उसके वर्चस्व को ही स्वीकृति मिलती है और भूखे को खिलाने का पुण्य भी वह प्राप्त करता है। शायद इसीलिए साधन संपन्न लोग अवश्य ही अपनी थाली में कुछ न कुछ जूठन छोड़ देते होंगें।
दलितों को सब कुछ जूठन के तौर पर ही मिलता है। तमाम प्राकृतिक व मानवीय उपलब्धियों पर शोषक वर्ग का ही प्रथम अधिकार है। पहला हक उसी का है। यह समाज में स्तर भेद बनाए रखती है और इससे शोषण की व्यवस्था को जारी रखना सरल हो जाता है। गांव की दिशा, नदी का घाट तक इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बांट लिए गए। यह केवल अलग-अलग घाट बनाने का व पवित्रता-अपवित्रता का ही मामला नहीं है, बल्कि यह सर्वोच्चता का भी मामला है। आखिर सभी वस्तुओं के पहले भोक्ता सवर्ण ही क्यों हैं? इसलिए कि इससे उनकी सर्वोच्चता की दावेदारी कायम रहती है।
स्कूल छूटने पर हम लोग नदी के किनारे खाना खाने जाते। रेत में बैठकर खाते। नदी में तैरते। नदी के निचले घाट पर सवर्ण पानी भरते। उनकी औरतें कपड़े धोतीं। नदी के निचले घाट पर धनगर व कुनबी पानी भरते, नहाते, कपड़े धोते, अपने जानवरों को नहलाते। उसके और निचले घाट से हम लोगों को पानी लेना पड़ता, नहाना तथा कपड़े धोने पड़ते। ऊपर के दोनों का गंदा पानी हमारे हिस्से में आता। हम उनके घाट पर जा नहीं सकते थे।
एक दिन मैं नदी के बीच, पानी में खड़े होकर पानी पी रहा था। किसी मां ने अपने छोटे बच्चे का मैले से भरा कपड़ा शायद धोया था। उसी मैले का सैलाब मेरे नजदीक आ रहा था। उबकियां आईं, पर कहूं किससे? और फिर जल से अधिक पवित्र कौन-सी वस्तु है? सवर्णों के घाट से आए गंदे पानी को हम लोग पचा रहे थे।’(पृ.-42)
दलितों की मेहनत से ही सवर्णों का अधिकांश कारोबार चलता है। उनके खेतों में अनाज उपजाते हैं। उनके लिए अन्य सुविधाएं व भोग का सामान तैयार करते हैं, तब उनसे कोई घृणा व अपवित्रता नहीं होती। लेकिन जब कोई सामान तैयार हो जाता है तो वह दलितों के प्रयोग करने से अपवित्र होने लगता है। सारे मंदिरों में मूर्तियां बनाने का काम अधिकांश दलित ही करते है, लेकिन एक बार वह मंदिर में स्थापित हो जाने के बाद दलितों के छूने भर से ही अपवित्र होने लगती है। नारायण पटेल का कुंआ दलित खोदतें हैं वहां वे ही पानी निकालते हैं, लेकिन एक बार कुंआ बनकर तैयार हो जाता है तो फिर दलितों के छूने से उसका पानी अपवित्र हो जाता है।
नारायण पटेल का कुंआ। पिछले वर्ष दलितों ने इसे बनाया है। घोडुप्पा, दत्तू, देवप्या, सिद्धया, त्रिमुक, कवष्णु, मसा, मनू, मल्या, शिवलिंग, नामदेव आदि ने इस कुंए का काम ठेके पर लिया था। यहां दलितों ने पसीना बहाया था। यहीं पर उन्होंने बारूद बिछाई थी। इस धरती को फोड़कर उन्होंने पानी निकाला। पर आज यह कुंआ दलितों के लिए खुला नहीं है। उसका पानी वे नहीं पी सकते।’ .... मैं माणक्या, तुलश्या कुंए के किनारे खड़े थे। पानी में हमारी छाया तैर रही थी। हम बेर खाने आए थे। प्यास लगी। मैं ऊपर खड़ा रहा। माणक्या व तुलश्या भीतर जाकर पहरा दे रहे थे कि कोई हमें देख तो नहीं रहा है। भयभीत होकर या चोरी से ही हमें अपनी प्यास बुझानी पड़ती थी। इस पानी पर भी बिरादरी का हक था। मेरी अंजुली के स्पर्श से पानी में अनेक लहरें उठीं। धरती के पेट में शायद खलबली मच गई। इस कुंए से अपनी प्यास बुझाते हुए हमें किसी ने देखा नहीं, यह हमारा भाग्य। अगर देख लेते तो बेतहाशा पीटे जाते। ऐसा क्या है हमारे स्पर्श में? हमारे स्पर्श से पानी अपवित्र हो जाता है, अन्न अपवित्र हो जाता है, कपड़े अपवित्र हो जाते हैं, पनघट अपवित्र हो जाता है, श्मशान भूमि अपवित्र हो जाती है, होटल-ढाबा अपवित्र हो जाता है। ईश्वर, धर्म और मनुष्य भी अपवित्र हो जाता है।’ (पृ.-131)
’पवित्रता’ की यह व्यवस्था ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जीवन-रेखा है और ऐसे क्रम में है कि हर स्तर पर अपनी उपस्थिति का अहसास करवाती है। न केवल यह सवर्णों और दलितों के बीच विभाजक रेखा खींचती है, बल्कि यह दलितों के बीच भी विभिन्न स्तर बनाकर रखती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जाति के ऊपर जाति खड़ी है। ऊपरवाली जाति अपने से नीचे की जाति से अपने से कमतर समझती है, घृणा करती है। इसी व्यवस्था के कारण तो समाज में दलित जातियों की एक वर्ग के रूप में पहचान नहीं बन पाती और ब्राह्मणवाद का शोषण जारी रहता है। समाज के सभी स्तरों पर इस विचारधारा को स्वीकृति मिल जाती है। स्वाभाविक है कि इसमें सबसे ज्यादा वही वर्ग पिसता है, जो कि समाज के सबसे निचले स्तर पर आता है। इस आत्मकथा के लेखक लिम्बाले व उनका दोस्त भीमू , जो कि एक अन्य दलित जाति से संबंधित है, जिसको कि लेखक की जाति अपने से निम्न मानती है, साथ-साथ खेलते हैं, पानी पीते हैं, एक घाट पर जाते हैं। तो उनके दोनों के परिवारों द्वारा इसका ऐतराज किया जाता है। न केवल मौखिक आपत्ति की जाती है, बल्कि जाति की दीवार को बनाए रखने वाले नियमों को तोड़ने पर दण्ड दिया जाता है।
गरमी के दिन थे। मैं तथा मातंग समाज का भीमू - हम दोनों इन दिनों रोज खेलते। उसकी मां हम दोनों पर स्नेह जतलातीं। खेलते हुए एक बार प्यास लगी। इस कारण हम दोनों घर आए। मैं पहले पानी पी गया। भीमू को पानी दे रहा था कि संतामाय चिल्ला उठीं, अरे मातंग को साथ लिये क्यों घूम रहा है? उसके साथ क्यों खेल रहा है? गांव जल गया क्या कि इसके साथ खेलने लगा? उसे लोटा मत दे। अपवित्र हो जाएगा।’ और भीमू को डांटते हुए कहने लगीं, चल ,यहां से निकल।’ (पृ.- 58)
भीमू को पानी पीने से मना करने के कारण मुझे काफी बुरा लगा। बिरादरी दोस्ती से भी बड़ी होती है क्या? प्यास से भी बिरादरी बड़ी होती है क्या? भीमू आदमी नहीं है क्या? फिर उसके स्पर्श से पानी अपवित्र कैसे हो जाएगा?
भीमू और मैं नदी पर चले गए। पैर जल रहे थे। नदी पर भी महारों का अलग घाट था और मातंगों का अलग। अब हम किस घाट का पानी पिएं? यहां पानी ही पानी का वैरी बन चुका है। हमारा मन अब दो घाटों में बंट चुका था।
मैं और भीमू मातंगों के घाट पर जाकर पानी पीने लगे। घर जाने के बाद संतामाय ने मुझे इसलिए पीटा कि मैंने मातंगों के घाट पा का पानी पिया था। उन्होंने मुझसे कहा, आगे कभी मातंग लड़के के साथ खेलेगा तो याद रख, रोटी बंद कर दूंगी। फिर जा मातंगों की बस्ती में। मातंगों की संगत क्यों पकड़ रहे हो? आजकल क्या बुरे दिन आए हैं तुझे? राजा का बेटा है तू, राजा की शान से जी। पटेल का है रे तू!
संतामाय अनाप-शनाप बक रही थीं। और उधर अनसा मां ने भी भीमू को पीटा था। मुझे साथ में लेकर उसने मातंगों का घाट अपवित्र किया था इसलिए।’ (पृ.-59)
शरण कुमार लिम्बाले ने ठीक ही पहचाना है कि दलितों का शोषण उनकी साधनहीनता के कारण है। वे अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह सवर्णों पर निर्भर हैं। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने उनको सम्पति के अधिकार से वंचित करके सिर्फ ’सेवा’ का अधिकार दिया। यदि साफ-साफ शब्दों में कहा जाए तो यह था अपने शोषण को वैध्, उचित, धार्मिक व ईश्वरीय मानने को राजी होना। अन्य सभी प्रकार के रोजगार से उसको वंचित कर दिया गया। यही उसके दयनीय जीवन का रहस्य है। अपने पेट की भूख मिटाने के लिए उसको तरह तरह के शोषण-उत्पीड़न सहन करना पड़ा है। औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ हुआ है तो भूख मिटाने के लिए और उसको सहन किया गया है तो पेट की भूख मिटाने के लिए। यदि उत्पादन के साधनों में उसकी हिस्सेदारी होती तो शायद उसकी इतनी दुर्गति न होती। परनिर्भरता ही उसके सारे दुखों की जड़ है।
जिनके पास वर्णश्रेष्ठत्व से प्राप्त सत्ता तथा वंश-परम्परा से प्राप्त संपति रही है उन्होंने यहां की दलित स्त्रियों को सतत भोगा है। देहात-देहात के जमींदारों, पटेलों ने खेतों में काम करनेवाली दलित स्त्रियों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया है। रंडियों की तरह उन्होंने इनका उपभोग किया है। दलितों की लड़कियां इनकी वासना का शिकार होती हैं। इनके द्वारा किए गए स्वैराचार से संतति जन्म लेती रहती है। जमींदार के इशारे पर जीनेवाला घर हर गांव में होता है। पूरा गांव इस घर को पटेल की रंडी का घर’ कहता रहता है। इस स्त्री की संतति की पहचान पटेल की रंडी के बच्चों के रूप में ही बनती है। पटेल की दया पर, खुश होकर ही जीने में उनके जीवन की सार्थकता होती है। यों बदले में उन्हें मिलता ही क्या है?’ (पृ.-80)
भूख मिटाने के लिए दलितों को समस्त शोषण सहन करना पड़ता है। ऐसी अमानवीय स्थितियों से गुजरना पड़ता है कि सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शरण कुमार लिम्बाले ने भूख के इर्द-गिर्द ही दलित समस्या को देखा है। कई अनुभव ऐसे बताते है कि दलित जीवन की त्रासदी उद्घाटित होती है। एक बार किसी का आटा रास्ते में गिर गया । ऊपर से तो वह उठाकर ले गए लेकिन जो नीचे बच गया, जिसमें मिट्टी भी मिल गई थी। उसे लिम्बाले घर लेकर गए तो इस काम के लिए उसकी सराहना की गई। यदि खाने के लिए उनके पास पर्याप्त मात्र में अनाज हो तो वे किसी भी कीमत पर इस काम के लिए उसकी सराहना न करते। अपनी भूख मिटाने के लिए शरण की बहन जब केले के छिलके खाती है तो वह उसे पीटता है। वह छिलके खाने को बुरा समझता है, विडम्बना देखो कि वह स्वयं कुछ समय बाद छिलके धोकर खाने लगता है। पेट भरने के लिए छिलके खाना दलित जीवन की त्रासदी है। और पेट की भूख मिटाने के लिए ही वे मरे हुए जानवरों का मांस खाते हैं। मरे जानवरों का मांस खाना दलितों की मजबूरी है न कि उनका शौक। और ब्राह्मणवादी विचारधारा इसी कारण उनसे घृणा करती है। इसी को आधार बनाकर उनको ’गंदा’, ’अपवित्र’ साबित करती है।
पेट की आग बुझाने के लिए हम लोग नदी-नालों के किनारे घूमते। केकड़े पकड़ते। मधुमक्खियों के छते निकालते। बगुलों को पकड़ते। खरगोशों का शिकार करते। गोह निकालते। गिलोल से चीलों को गिराते। गिलहरियां भूनकर खाते। बीरदेव के बाग में जाकर खेलते। मूंगफलियों की चोरी करते। चोरी की हुई मूंगफलियां बेचते। बालाण्या के कुंए में तैरते। मशा, मैं, परश्या इन कामों लग जाते। मजा आता। जंगली खजूर का जवान पेड़ काटते, पेट के लिए। किसानों से डरते भी थे। ... पुजारी के खेत के निकट जामुन का पेड़ है। उसके नीचे आकर हम पेड़ को चीरते। उसके भीतर का हिस्सा नारियल की तरह सपेफद होता है। खाने के लिए बेहतरीन। खूब खाते। इसी जामून के पेड़ के नीचे सूअरों को भी भूनकर खाते।’ (पृ.-112)
पेट की भूख मिटाने के लिए पेड़ों की छाल खाना उनके स्वाद के कारण नहीं है, बल्कि इस शोषणकारी व्यवस्था ने उनके लिए ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अपनी पूरी मेहनत के बाद वे अपना पेट भी भर नहीं पाते उनकी सारी मेहनत की कमाई को शोषक वर्ग शोषित कर लेता है। इससे खराब बात क्या होगी कि सारा दिन काम करने के बाद भी व्यक्ति को अपना पेट भरने के लिए जानवरों के गोबर से दाने निकाल कर खाने पड़ें। यह छुपा हुआ नहीं है कि उत्तरप्रदेश में दलितों को उनकी मेहनत के लिए ’गोबरहा’ दिया जाता रहा है। गोबरहा का अर्थ है कि अनाज निकालते हुए जानवर कुछ ज्यादा खा जाते थे। जिसकारण उनको पूरा तो पचता नहीं था, इसलिए कुछ दाने साबुत दाने उनके गोबर में निकल आते थे। गोबर को धोकर निकाले गए दानों को ही गोबरहा कहा जाता था। लिम्बाले की नानी संतामाय गोबर इकट्ठा करके उसके उपले बनाकर बेचती है उससे अपना गुजारा करती है, लेकिन वह उस गोबर को अलग रख लेती, जिसमें कि दाने नजर आते। उसको धोकर व सुखाकर वह पीस लेती और भूख मिटाने के लिए उसकी रोटी बनाकर खाती। उस रोटी का स्वाद कैसा था? इस बारे में लिम्बाले ने अपना अनुभव बताया है कि
जब उसने संतामाय की अलग किस्म की रोटी देखी तो उसे खाने की जिद्द की। उसकी जिद्द उसे रोटी का एक टुकड़ा दे देती है। अरे, यह क्या? रोटी में तो गोबर की दुर्गंध थी! इतनी कि मानो मैं गोबर की ही रोटी चबा रहा था। मैं उसे सहजता से भीतर धकेल नहीं सका। बड़ी मुश्किल से उसे भीतर धकेल पाया और बचे टुकड़े को मैने लौटा दिया। ... आश्चर्य कि संतामाय उस रोटी को सहजता से खा रही थीं। मुझे आश्चर्य होता कि संतामाय को उबकाई क्यों नहीं आती? गोबर की दुर्गंध उन्हें क्यों नहीं महसूस होती? हाथ का निवाला मुंह में जाता, पेट में उतरता और लुप्त हो जाता।’ (पृ.-48)
लिम्बाले मूलभूत प्रश्न उठाते हैं कि जाति-बिरादरी जैसी संस्थाएं असल में दलितों का शोषण करने के लिए ही बनाई गई हैं। तमाम मानवीय और प्राकृतिक उपलब्धियों को कुछ लोग भोग सकें इसकी व्यवस्था करने के लिए ही ऐसे विचारों का ईजाद किया गया। जीने के सारे उपादान छीनकर दलितों को असहाय बना दिया और जब उसने अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कुछ इन्तजाम किया तो उसे चोरी कहा गया उसके लिए दण्ड निर्धारित किए गए और उनको प्रताड़ित किया गया। मनुष्य जन्म से ही जाति-बिरादरी लेकर कैसे आता है? जन्म से वह शूद्र कैसे हो जाता है? जन्म से वह गुनहगार कैसे हो सकता है? कहते हैं कि ब्रह्मा ने अपने पैरों के भीतर से एक विराट् शूद्र समाज को जन्म दिया है। उस समाज ने शूद्रों का जीवन जीया है। भूख मिटाने के लिए किसी ने चोरी की, किसी ने जोगवा मांगा तो किसी ने मृत जानवरों को खींचा। हजारों वर्षों से जिनकी रोटी छीन ली गई है, वे अगर रोटी के लिए चोरी करते हों तो वह अपराध् कैसे हो सकता है? अगर वे तृप्त होते तो क्यों करते चोरियां? क्यों सहते क्रूर पुलिस के अत्याचार।’ (पृ.-134)
उस दिन से आदमी इस पेट की तृप्ति में लगा है। अब उसे इस पेट को भी भरना मुश्किल हो गया है। वह अब अधपेट रहने लगा है। भूख के कारण खुद को बेचने लगा है। भूख के कारण ही औरत वेश्या बनने लगी और पुरुष चोरी करने लगा है। भूख आदमी से सभी प्रकार के काम करवा लेती है। वह मैला निकालने और ढोने लगा है। अब उसे महसूस होने लगा कि ईश्वर ने पेट देकर गलती की है। मुझे भी हमेशा ऐसा ही लगता।’ (पृ.-44)
शिक्षा के प्रसार से तथा चेतना के विस्तार से दलितों में स्वाभिमान व आत्मसम्मान का भाव जग रहा है। वह एक तरफ तो अपने समाज में व्याप्त बुराइयों को छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहा है, दूसरी ओर बराबरी के व्यवहार का दावा पेश कर रहा है।
धीरे-धीरे मुझे मृत जानवर से घृणा होने लगी। मृत जानवर का मांस खानेवालों पर भी गुस्सा आने लगा। मेरी आयु के सभी सहयोगियों में गुस्सा छूत के रोग की तरह फैलने लगा। चमड़ा उतारे हुए जानवर के मांस पर हम पेशाब करते। गोबर या मिट्टी फेंकते। पर गंगा मां ऐसे मांस को भी ले जातीं। धोतीं, पकातीं। हम साथियों को उन पर गुस्सा भी आता और बुरा भी लगता। मृत जानवर का मांस कोई खाए ही नहीं - ऐसा लगता।’ (पृ.-57)
लिम्बाले और उसका दोस्त चायवाले से बराबरी के व्यवहार के लिए उसकी पुलिस थाने में रिपोर्ट करते हैं, यद्यपि इस बारे में वे अधिक स्पष्ट नहीं थे। उनके अन्दर उठी यह इच्छा ही महत्वपूर्ण है। परन्तु पुरानी पीढी के लोग किसी प्रकार का विवाद नहीं करना चाहते। इस मामले में भी बस्ती के लोग और सवर्णों के एक जैसे विचार थे तो एक अन्य घटना में भी ऐसे ही प्रतिक्रिया करते हैं, लेकिन यह कहना तो कतई उचित नहीं होगा कि पिछली पीढी के लोग बराबरी का व्यवहार नहीं चाहते थे। वे बिल्कुल बराबरी का व्यवहार चाहते थे, लेकिन वे इसके लिए इतनी हिम्मत नहीं कर पाते थे। उनको स्थितियां भी इतनी इजाजत नहीं देती थी, जितनी कि नई पीढी को। जब चंदया का पिता उसको मंदिर में जाने पर पीटता है जो उसका यह अर्थ नहीं है कि उसकी मंदिर में जाने के अधिकार को प्राप्त नहीं करना चाहता। उसकी पीड़ा इस बात में झलकती है जब वह कहता है कि उसे गांव में रहना है। उसको डर है कि यदि उसने गांव की मर्यादा यानी कि सवर्णों के प्रभुत्व को चुनौती दी तो उसका गांव में जीना दूभर हो जाएगा।
श्रावण के महीने में ही विट्ठल तथा महादेव के मंदिर में रोज पोथी पढ़ी जाती थी। सारा गांव पोथी सुनने इकट्ठा होता। मेरे मन में क्या आएगा, पता नहीं चलता था। उस दिन मैं, मलक्या तथा चंदया नीचे विटठल मंदिर में घुस गए। हमने भगवान के पैर छुए। घर आए। चंदया का पिता मंदिर की सीढी के पास पोथी सुनता रहा था। उसे हमारा मंदिर-प्रवेश भाया नहीं। चंदया को उसने पीटा। हमारी ओर इशारा करके कहने लगा, इनके साथ खेल मत। मुझे इस गांव में रहना है। तुझे यह क्या सूझी है? मेरा मुंह काला करेगा क्या? आज तक मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा है। पैर काटूंगा तेरे,’ चंदया का बाप चिल्ला रहा था। मतलब हमारा मंदिर-प्रवेश अपराध् था। हमें अपनी मरजाद से जीना चाहिए। यहां अछूतों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है।
ईश्वर मनुष्य-मनुष्य में भेद करता है। एक को अमीर, दूसरे को गरीब। एक सवर्ण, दूसरे को अछूत। मनुष्य-मनुष्य में द्वेष फैलानेवाला यह कैसा ईश्वर है? सभी ईश्वर के पुत्र हैं ना? फिर हम अस्पृश्य कैसे ? हमें गांव के बाहर खदेड़नेवाला ईश्वर, धर्म या देश हमें मान्य नहीं है।
क्यों रखा गया हमें गांव के बाहर? क्यों रखा गया हमें मनुष्यों से दूर? क्यों रखा गया हमें हमारे ही लोगों से बाहर? मनुष्य मनुष्य में अन्तर क्यों? सभी का खून लाल है ना!’ (पृ.- 107-108)
लिम्बाले का यह प्रश्न उचित ही है कि जब सब इन्सान एक ही ईश्वर की संतान हैं और सबका खून एक जैसा है तो फिर यह भेदभाव क्यों है? वे ऐसे किसी विचार व सत्ता को नहीं मानने वाले जो उनकी मानवीय गरिमा को, उनके सामाजिक सम्मान को और उनके साथ भेदभाव को मान्यता देता हो। अस्पृश्यता ने दलितों के प्रति भेदभाव व अपमान की स्थितियां पैदा की हैं। वह किसी भी समय अपने को इन्सान के रूप में नहीं देख पाता। वह हमेशा अछूत ही बना रहता है। यदि उसे किसी से सहायता की जरूरत हो तो उसे वह सहायता नहीं मिलेगी और यदि वह किसी की सहायता कर दे तो उसको इस बात की सजा मिलेगी। उसका सार्वजनिक जीवन से स्थायी तौर पर बहिष्कार है। उसे किसी कार्य में शामिल ही नहीं किया जाता। इस लेखक अनुभव इस बात को स्पष्ट करता है। अपने दोस्तों के साथ लेखक गांव जाता है तो वह अपने दोस्तों से नाराज होकर अलग हो जाता है और तभी की एक घटना दलितों के प्रति घोर अपमान को प्रदर्शित करने वाली अस्पृश्यता के व्यवहार से होता है।
शिवाप्पा खेत में काम कर रहा था। उसकी पत्नी रोटी लेकर आई थी। उसके सिर पर रोटी की टोकरी थी, बगल में बच्चा था। सिर पर रखी टोकरी उतारने में सहायता के लिए उसने मेरी ओर देखा। दूसरों की सहायता करना मेरा फर्ज था। मैने सहायता की। यह देखकर वह कोसने लगा। शिवप्पा की पत्नी मेरा पक्ष लेने लगी। मैने उसकी सहायता की थी। शिवप्पा और चिढ़ गया, अछूत है यह, अछूत। अछूत संता का पोता!’
शिवप्पा की पत्नी को इसका पता नहीं था। सुनकर उसका चेहरा फीका पड़ गया। वह रुआंसी-सी हो गई। आंखों में पानी आ गया। मेरे स्पर्श से रोटियां अपवित्र हो गई थीं, वह अपवित्र हो गई थी, उसका बच्चा भी अपवित्र हो गया था। मुझे गालियां देने लगी। शिवप्पा और अधिक बिगड़ गया। पैर का जूता निकालकर उसने मेरी ओर फेंका। मैं गांव की दिशा में भाग निकला।’ (पृ.-132)
सिर्फ गांव का जमींदार ही दलितों के प्रति अवमानना का व्यवहार नहीं करते, बल्कि इसके अलावा जो अन्य सहायक पेशा करने वाली जातियां हैं जैसे लोहार, बढई व नाई आदि भी उससे इसी तरह पेश आते हैं। वे भी दलितों के प्रति उसी तरह का रवैया रखते हैं, जिस तरह का जमींदार रखते हैं। लेखक जब स्कूल-कालेज में जाने लगता है तो उसकी इच्छा भी सवर्णों की तरह अच्छे ढंग के बाल कटवाने की होती है। लेकिन नाई उसके बाल काटने से इन्कार कर देता है।
नाई ने मुझे देखा। मेरे सिर की ओर देखा, तू यहां क्यों खड़ा है? मैं तेरे बाल नहीं काटूगां।’
मैं हिम्मत से बोला, मेरे पास पैसे हैं।’
उस समय दूसरे गांव का एक आदमी अपने बाल कटवा रहा था।
उसे मुझ पर दया आई। उसने कहा, बैठो’, तो वह नाई भड़क गया। कहने लगा, अरे, यह तो महार है, इसे जाने दो।’
गांव के भैसों के भी बाल साफ करने वाले उस नाई के लिए पता नहीं मैं क्यों अपवित्र था?’ (पृ.-62)
सवाल उठता है कि जब दलित पैसे देने के लिए तैयार है तब भी नाई उसके बाल क्यों नहीं काटता? क्या इसके पीछे मात्र पवित्रता-अपवित्रता की धारणा ही काम करती है? ऐसी बात नहीं है कि नाई सिर्फ अपवित्र होने से बचने के लिए ही उसके बाल नहीं काटता? सिर्फ अपवित्रता के कारण तो कोई सवर्ण भी अपना आर्थिक अहित नहीं करता। जमींदार को सहायता करने वाले तो फिर ऐसा क्यों करने लगे। इस व्यवहार का रहस्य है कि गांव की व्यवस्था जमींदार-सवर्ण द्वारा चालित है वहां वही कायदे चलते हैं जिनको कि वह मान्यता प्रदान करता है। सवर्ण को अपनी सेवाएं देने वाला नाई या लुहार यदि दलित को भी सेवाएं प्रदान करेगा तो इससे उसकी सर्वोच्चता को ठेस लगती है और इसे वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता। इसलिए वह इस बात को सहन नहीं कर सकता कि सहायक कारीगर किसी ऐसे कार्य को करें जिससे कि उनकी शान में फर्क पड़ता हो। वह पूरी तरह से सवर्ण पर निर्भर है। यदि वह उसकी इस बात को नजरंदाज करता है तो वह भी रोजगार व अन्य जरूरी चीजों से वंचित हो जाएगा। अपने वजूद को सुरक्षित रखने के लिए वह दलित के प्रति उसी तरह की उपेक्षा करता है, जिस तरह की सवर्ण करता है। एक तो इसमें जाति-प्रथा की प्रकृति है जिसमें ऊंची माने जाने वाली जाति अपने से नीचे मानी जाने वाली जाति के प्रति वैसा ही व्यवहार करती हैं जैसा कि ऊंची जाति उसके प्रति करती है। वह इस बात को अच्छी तरह पहचानता है कि व्यवस्था का संचालन उसके पास नहीं है। उसे तो सामाजिक नियमों का पालन करना है और इन नियमों को बनाता है सवर्ण वर्चस्वी वर्ग। जब चायवाला लिम्बाले व उसको दोस्त को दूसरे कपों में चाय देता है और उसके प्रति भेदभाव करने की रिपोर्ट लिखवाने के लिए वे थाने में जाते हैं तो जो चायवाला उनको ढाबे में अलग बर्तनों में चाय देता है वह उनको अपने घर आने पर अपने बर्तनों में चाय पिलाने की बात कहता है। उसका यह कहना मात्र डर के कारण नहीं कि उस पर कानूनी कार्रवाही हो सकती है, बल्कि इसके पीछे उसके धंधे की मजबूरी भी है, उसे पता है कि यदि वह दलितों को उसी बर्तन में परोसेगा, जिसमें कि सवर्णों को परोसता है तो उसकी दुकान से कोई सवर्ण चाय नहीं पियेगा। इसलिए वह यदि स्वयं छुआछात को, ऊंच-नीच को न भी मानता हो भी उसे ऐसा व्यवहार करना ही पड़ता है।
ऊपरी तौर पर देखने में ऐसा लग सकता है, सवर्ण उच्च जातियों की अपेक्षा पिछड़ी कही जाने वाली या जमींदारों की सहायक जातियां दलितों से अधिक क्रूरता से पेश आती हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। पिछड़ी कही जाने वाली जातियां भी असल में साधन-सम्पन्न सवर्णों पर ही निर्भर हैं। उनकी कृपापात्र और विश्वासपात्र बने रहने के लिए वे ऐसा व्यवहार करते हैं जिससे कि वे उनके सबसे बड़े भक्त नजर आयें। उनकी इच्छा का ख्याल रखने वाले और उनके आदेशों को मानने वाले दिखाई दें। इसी कारण वे सवर्णों के वफादार दिखने के लिए सवर्णों से भी अधिक ब्राह्मणवादी नजर आते हैं। लेकिन यह सच है कि दोनों ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शोषित हैं और शिकार हैं। असल में यह उसी तरह का मामला है जैसा कि रामायण में शम्बूक की हत्या का। राजा राम के पास ब्राह्मण शिकायत लेकर जाते है कि एक शूद्र भक्ति-तपस्या कर रहा है और इस कारण एक ब्राह्मण बालक की मृत्यु हो गई है। अब राजा का कर्तव्य है कि वह व्यवस्था बनाए और शम्बूक को इसका दण्ड दे। इस बात को मानते हुए राजा राम शम्बूक की हत्या कर देते हैं। अब इसमें सबसे बड़ा दोषी किसे माना जाए - क्षत्रिय राम को या ब्राह्मण ऋषि को?
दलित औरतों का यौन-शोषण करना कोई भी जमींदार अपना अधिकार ही समझता है। इसकी जड़ में भी उसकी साधनहीनता ही मुख्य है। चूंकि जमीन ही समस्त जीवन का आधार रही है। अपना तथा अपने जानवरों के गुजारे के लिए खेत में जाना निहायत जरूरी था और खेत दलितों के पास थे नहीं। इसलिए वे खेत मालिक के शोषण का शिकार होती ही थी। लेखक संतामाय की बातें सुनकर भीतर ही भीतर कसमसाता।
अत्याचारों के कारणों का पता ही नहीं चलता।संतामाय की बातें बेचैन करतीं। लगता, यह एक ऐसी मार है, जिसके खिलाफ बोलना भी मना है। किसान हमें खेत की सीमा पर भी नहीं घुसने देते। बकरियां चराने हेतु जवान दलित औरतें जंगल में गईं कि किसान चिढ़ते। कहते, हमारे खेतों की ओर न जाओ। हमारे जानवरों को घास की जरूरत होती है। तुम चोर हो। तुम खेत पर मत आओ। तुम्हारी बकरियां हमारी फसलें नष्ट करती हैं।’ और किसान दलित स्त्रियों का अपमान करते। गंदी गालियां बकते। पीटते। कभी कभार किसी का आंचल खिसका देते और कभी किसी को खड़ी फसल में खींच ले जाते।’(पृ.-129)
लेखक स्वयं इस शोषण का उदाहरण है। जमींदार अपनी काम वासना पूरी करने के लिए उन पर आश्रित लोगों की विवशता का लाभ उठाते हैं। वे इस हद तक चले जाते हैं कि उनका जीवन ही बरबाद कर देते हैं। विट्ठल कांबले के दाम्पत्य जीवन को उजाड़कर खेत मालिक उसकी पत्नी को अपनी रखैल बना लेता है। और यह कोई अकेली घटना नहीं है, बल्कि इस आत्मकथा में ही इसके संकेत हैं कि प्रत्येक गांवों में ऐसी घटनाएं हैं। इन अवैध संबंधों के चलते यदि कोई बच्चा पैदा हो जाए तो ये जमींदार उसको अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। इसकी बदनामी और बोझ ढोना पड़ता है गरीब और मजबूर औरत को।
विट्ठल कांबले एक खेत के मालिक के यहां साल-भर की शर्त पर मजदूर था। वार्षिक सात-आठ सौ का वेतन। रात-दिन मालिक के घर या खेत पर काम करता। खेत के अनेक जानवरों में एक और जानवर। अपने दुःखों और हड्डियों के ढांचे को देखते रहना, यही उसकी नियति थी। पेट और पीठ एक हो जातें जानवरों के गोठ की तरह उसकी भी जिंदगी थी। आंसुओं को कितना कुछ रोक सकता था? भूख की कितनी जुगाली वह कर सकता था? कोल्हू के बैल की तरह वह अपने जीवन से जोता गया था। नहर से बहनेवाला कल-कल पानी पेट में क्षुब्ध पसीने की बूंद बनकर बहता था।
विट्ठल कांबले किसी हणमंता लिंबाले नामक पटेल के खेत में मजदूर था। बुरे समय में पटेल सहायता भी करता। इस सहायता से एक पूरा परिवार असहाय होता जा रहा था। पटेल के हाथ किसी भरे-पूरे संसार को ध्वस्त कर रहे थे।’ .... हणमंता लिंबाले इसी टोह में था। उसने मसाई से संपर्क किया और उसे अक्कलकोट में किराए के एक कमरे में रख दिया। मां ने भी मजबूरन हणमंता का हाथ पकड़ लिया। जिस व्यक्ति को लेकर उसे बदनाम किया गया था, जिंदगी से उठा दिया गया था, उसी के साथ रहना उसने तय किया। हणमंता ने मसाई के दाम्पत्य जीवन को तोड़ दिया और अपने नियंत्रण में रख लिया। जैसे कोई शौक से कबूतर पालता हो। दोनों मजे में रहने लगे। मसाई गर्भवती हुई। लड़का हुआ। लड़के का बाप कौन? हणमंता को मसाई चाहिए थी। उसका शरीर चाहिए था। पर संतति? मसाई के उस लड़के के नाम के साथ अगर हणमंता का नाम लग जाता तो उसकी बदनामी होती। लड़का बड़ा होकर खेती में हिस्सा मांगे तो? मसाई कोर्ट में गई तो? हणमंता यह सब नहीं चाहता था। पर प्राप्त संतति को कैसे टाला जा सकता था?’(पृ.-76)
लिम्बाले ने ब्राह्मणवाद की अनिवार्य विशेषता पितृसत्ता का उद्घाटन किया है। पितृसत्ता के कारण भी दलित स्त्रियों को शोषण का शिकार होना पड़ा है। पितृसत्ता औरत को स्वतंत्र नहीं समझती वह उसको हमेशा पुरुष के अधीन रखना चाहती है। उसका अपने शरीर पर भी कोई अधिकार नहीं है। वह अपनी इच्छा से संतान भी उत्पन्न नहीं कर सकती। यदि वह ऐसा कर लेती है तो समाज में उसको किसी प्रकार की मान्यता नहीं मिलती। बिना विवाह के संतान पैदा करना स्त्री के लिए एक कंलक बन जाता है। इसलिए उस पर तरह-तरह के जुल्म व यौन-शोषण होता है। शरणकुमार लिम्बाले अपने अनुभव के माध्यम से इसे दर्शातें हैं। वे स्वयं इस व्यवस्था के प्रताड़ित हैं। बार-बार उनसे उनके पिता के बारे में पूछा जाता है। जब स्कूल में जाते हैं तब भी और अन्य अवसरों पर भी। बिना बाप की संतान को कमतर माना जाता है उसे अक्करमाशी यानि ग्यारहमाशी कहा जाता है बारहमाशी नहीं। बिना विवाह के हुआ बालक पूरा मनुष्य नहीं, इसी मान्यता के कारण बार बार अपमानित होना पड़ता है। पहचान के एक बाप का होना जरूरी है। यह व्यक्ति को वंश से, खानदान से, जाति से पहचानने को बढ़ावा देती है, जिससे मनुष्य के रूप में व्यक्ति की पहचान धूमिल पड़ती है।
मैं मनुष्य था। सिवा मनुष्य शरीर के मेरे पास था ही क्या? यहां इस देश में मनुष्य जाति-बिरादरी और धर्म से पहचाना जाता है। बाप से पहचाना जाता है। मेरे पास बाप का नाम नहीं, धर्म और जाति नहीं है, न मैं किसी बाप का उत्तराधिकारी हूं।’ (पृ.-105)
पितृसत्ता की विचारधारा के कारण स्त्री का और विशेषकर दलित स्त्री का अत्यधिक शोषण हुआ है।पितृसत्ता की विचारधारा को स्त्रियों के अन्दर इस तरह घुसा दिया गया है कि वे बिना पुरुष के अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकती। चाहे उनके पति उनको कितना ही सताएं, कितना ही प्रताड़ित करें वे उसकी पूजा ही करती हैं। उनके पति उनको छोड़ भी दें, उनके प्रति कोई कर्तव्य न निभाएं तो भी वे उनके प्रति वफादार ही बनी रहती हैं। संतामाय वर्षों से अपने पति से अलग रहती है वह उसको त्याग देता है वह बहुत कष्टपूर्ण जीवन बिताती है, लेकिन जब उसको अपने पति के मरने की खबर मिलती है तो उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।
संतामाय का पति जब गुजर गया तब मैं खाना खा रहा था। किसी ने खबर दी। संतामाय जोर-जोर से रोने लगीं। संतति नहीं हो रही थी,इसलिए पति ने उन्हें छोड़ दिया था और दूसरा विवाह कर लिया था। बच्चे हुए। संतामाय झोंपड़ी में रहने लगीं। आज पति की मृत्यु की खबर सुनकर वह रोने लगीं। इस बीच मसा मां भी आईं। दोनों रोने लगीं। नागी, निरमी भी रोने लगीं।’ (पृ.-102)
पितृसत्ता की शिकार स्त्रियों के दुखों से अक्करमाशी भरी पड़ी है, लेकिन देवकी व धनव्वा का दुख विशेष है। देवकी स्वयं पितृसत्ता का शिकार है और वह स्त्रियों के गर्भ गिराने का काम करती है। पितृसत्ता के कारण उस औरत का कोई सम्मान नहीं है जिसके बिना पति के बच्चा पैदा होता है। अपनी इज्जत बचाने के लिए वह देवकी की तरह क्रूर हो जाने पर मजबूर है जो अपने ही बच्चे की बेदर्दी से हत्या करने लगती है। धनव्वा का यौन शोषण उसका बाप ही करता है। स्त्रियों को अपने शरीर पर, अपनी इच्छाओं पर और अपने बारे में निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।
देवकी अकेली थी। रामाप्पा के बाग में काम करती थी। शादी नहीं हुई थी। दरिद्र अवस्था। अन्य स्त्रियों के वह गर्भ गिराती। संकटग्रस्त औरतें देवकी के यहां आतीं। गर्भ निकाल फेंकती। इज्जत जिंदगी से बड़ी होती है। गर्भवती स्त्री को वह पेट के बल सुलाती। उसकी कमर पर खड़ी होकर धीरे-धीरे रौंदती। कुछ विशेष वनस्पतियां खाने के लिए देती।
एक बार स्थिति यह हुई कि देवकी को ही गर्भ रह गया। तड़के में बच्चा हुआ। सवेरा होने के पूर्व ही उसने उस बच्चे को घूरे में गाड़ दिया। अपने ही पिल्ले को खानेवाली सूअरी और देवकी में अंतर ही क्या था? देवकी के पास गांव की धनव्वा अकसर आती। धनव्वा देवाप्पा की जवान लड़की। धनव्वा का पति पिछले वर्ष बिजली गिरने से गुजर गया। धनव्वा पिता के घर ही रहती। पिता बहुत विचित्र व्यक्ति था। धनव्वा को गर्भ रह गया। और वह देवकी के यहां चक्कर काटने लगी।
धनव्वा देवाप्पा की बड़ी लड़की। अब उसका पुनर्विवाह होना मुश्किल ही था। उसे पिता से ही गर्भ रह गया। धनव्वा देवकी के हाथ-पैर जोड़ती। दिन अधिक बीत गए थे। देवाप्पा बेशर्मी से कह रहा था कि पेड़ लगाया, फल क्यों न खांऊं ?’ (पृ.-114)
पितृसत्ता की बनावट इतनी महीन है कि उसके संस्कार उस व्यक्ति के दिमाग का भी हिस्सा बन जाते हैं जो स्वयं उसका शिकार है। शोषण की व्यवस्था के सूत्र तो पकड़ में आ जाते है लेकिन पितृसत्ता को पहचानना उतना आसान नहीं है। शरणकुमार लिम्बाले इस बात को अच्छी तरह व्याख्यायित करते हैं कि दलितों के सम्मान और श्रम दोनों का शोषण किया गया है। इसकी वजह भी स्पष्ट है कि वे पूरी तरह से सवर्णों पर निर्भर थे, क्योंकि उत्पादन के सारे साधन उनके हाथों में सिमटे थे। दलितों के पास उत्पादन के साधन नहीं थे। उनकी भूख मिटाने के लिए यानी कि जिन्दा रहने के लिए सवर्णों पर निर्भर थे इसीलिए उनकी शर्तों पर ही जीवन जीने पर मजबूर हुए। लिम्बाले को लगता है कि शोषण का सबसे घिनौना रूप है - स्त्री को रखैल बनाना। वह अपनी बहनों के प्रति चिन्ता करते हैं कि समाज उनको स्वीकार नहीं करेगा , लेकिन वे साथ ही इस की संभावना भी व्यक्त करते है कि वह तो पुरुष होने के कारण किसी रखैल के साथ जी’ लेगें। विचार करने की बात है कि जब पुरुष को रखैल चाहिए तो वह कोई न कोई औरत ही होगी। यदि स्त्री के लिए अलग और पुरुष के लिए अलग नैतिकता के मानदण्ड होंगें तो पितृसत्ता की सार्थकता बनी रहती है।
रोटी भी सवर्णों के हाथों में थी और बस्ती की इज्जत भी। एक हाथ से उन्होंने इस बस्ती की भूख को मिटाया तो दूसरे हाथ से इनको भोगा। सवर्णों के दो हाथों के बीच कसमसाती मसा मां को मैं देख नहीं पाता। सीता को अशोक वन से छुडाया गया, पर मेरी मां का छुटकारा कौन करेगा? पटेल की रखैल कहलाते कहलाते वह पटेल के खेत में क्षण-क्षण रीतते हुए मर जाएगी। पर हम बच्चों का क्या होगा? नागी, निरमी, वनी, सुनी, पमी - इनके साथ शादी कौन करेगा? मैं तो पुरुष हूं, किसी रखैल के साथ जी लूंगा, पर इन बहनों का क्या होगा? क्या इनके विवाह होंगें? मनुष्यों की बस्ती में क्या हमें स्वीकार किया जाएगा? हमारी मौत पर क्या दलित बस्ती इकट्ठी होगी? क्या बहनें ऐसी ही सड़ जाएंगी?’ (पृ.-111)
व्यक्ति में अन्याय के प्रति लड़ने के लिए जो संवेदना चाहिए वह किसी न किसी रूप में उसे अपने समाज से, अपने जीवन से मिलती है। जब वह समाज की पीड़ा के साथ अपनी पीड़ा को मिलाकर देखता है और सबकी पीड़ा को समाप्त करना चाहता है तभी वह समाज परिवर्तन की बात सोच सकता है। न कभी अकेले-अकेले आदमी के दुख दूर होते हैं और यदि केवल अपने दुख के लिए व्यक्ति लड़ता है तो वह सिर्फ बदले की भावना की कार्रवाही बनकर रह जाती है।
जीजाबाई ने जैसे शिवाजी को वीरकथाएं सुनाई होंगी वैसे ही संतामाय मुझे अन्याय की कहानियां सुनातीं। उनकी आंखों से टपकने वाले आंसू मुझे महाकाव्य की तरह लगते। उनकी एक एक कहानी मुझे महायुद्ध की चिनगारी का एहसास दिलाती। जिस भूतकाल को हम जी चुके हैं, वह कितना भयावह है, इसका अहसास मुझे होने लगा। मेरी व्यथा मुझ तक सीमित नहीं है। वह व्यथा आज की नहीं है। इस अन्याय की जड़ें हजारों वर्षों के इतिहास में फंसी हुई है। मेरा दुख बुद्ध द्वारा देखा गया दुख है। मैं आज उसी दुख को झेल रहा हूं। इसके बावजूद मेरे भीतर का बुद्ध जाग क्यों नहीं रहा है।’ (पृ.-129)
ये बात सही है कि दलितों पर सवर्णों ने अत्याचार किया है और घोर अपमान किया है। औरतों का यौन शोषण किया है। इस शोषण की स्थिति को दलितों ने अपनी नियति मानकर स्वीकार किया होगा। यह कोई यांत्रिक ढंग से दास बनाये गए सेवक नहीं, बल्कि विचारधारात्मक आधार पर उन पर काम किया गया। ब्राह्मणवाद ने अपने वर्ण-धर्म और पुनर्जन्म आदि के माध्यम से इस घनी आबादी के मन में यह बात बिठाई कि इस शोषण को सहन करने में ही उसकी भलाई व मुक्ति है। इसीलिए शायद वे हिम्मत नहीं कर सके कि वे अपने ’मालिक’ द्वारा दिए गए काम के विपरीत कुछ कदम उठाते।
मेरे नाना, दादा, पड़दादा इस कोठी की रक्षा करते रहे हैं। पटेल जब तहसील जाते तो इस कोठी की रक्षा वे रात-भर करते रहते। पर उन बेवकूफों के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आया कि कोठी में खाट पर सोई पटेल की पत्नी का चेहरा भी कभी देख लें। इसके उलट उन्होंने अपनी बहू-बेटियों को रात के अंधेरे में इन कोठियों के अधीन कर दिया। इन कोठियों के निर्माण में अपनी ही बलि दे दी। उनकी जूठन पर जीने में ही अपनी जिंदगी को सार्थक मानते रहे। मेरा यह इतिहास! मैं बाल शिवाजी की तरह बेचैन हो जाता।’ (पृ.-129)
पूंजीवाद-सामन्तवाद की नींव शोषण पर टिकी है। इसका सबसे तीखा अहसास उस समय होता है जब कि कोई बेबस साहूकार-महाजन के पास ऋण लेने जाता है। लिम्बाले अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं, लेकिन उसके पास इसके लिए पैसे नहीं हैं इसके लिए वे साहूकार के पास जाते हैं तो उस समय का अनुभव बताते हैं
किसी दिन मैं और संतामाय साहूकार के यहां गए, रुपयों के लिए। साहूकार अपनी धुन में था। मैं और संतामाय दूर खड़े थे। संतामाय की चोली फटी हुई थी और उसके स्तन दिखलाई दे रहे थे। साहूकार की नजर वहां थी। पैसों के लिए उसने मजबूरी व्यक्त की। परंतु उसकी आंखें मेरे कलेजे में विष की तरह धंस रही थी। इस सेठ-साहूकार की मां-बहन की साड़ी-चोली ऐसे ही नाजुक स्थानों से फट जानी चाहिए और मैं ताकता रहूं,’ मेरे जलते मन ने कहा। गरीबी से घृणा हुई। ऐसे अपमानों से मैं छटपटाता, चिढता।’ (पृ.-132)
पूंजीवादी-सामन्ती व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज की संरचना में साहुकार का यह व्यवहार कुछ भी आश्चर्य में डालने वाला नहीं है, लेकिन जब लेखक की इच्छा भी वैसा ही करने की होती है तो बहुत चिन्ता की बात है। एक बड़ा सवाल हमारे सामने खड़ा होता है कि क्या दलित-उत्पीड़न का बदला इस तरह से चुकाया जाएगा। जैसे लाला संतामाय की ओर कामुक नजरों से देख रहा था और उसके फटे वस्त्र यानी उसकी गरीबी नाजायज फायदा उठा रहा था तो क्या इसका इलाज यही है कि जिस तरह लाला करता है वैसे ही उसके साथ किया जाए? क्या इतिहास में हुए तमाम उत्पीड़न का बदला उतना ही उत्पीड़न करना होगा? असल में लेखक भी उसी पुरुष-प्रधान सामन्ती मानसिकता का ही शिकार है जो इस समस्या का ऐसा समाधान सोचता है। बदले की भाषा की बजाए, उत्पीड़न के बदले उत्पीड़न में समाधन नहीं है, बल्कि ऐसी व्यवस्था की स्थापना करने में समाधन निहित है, जिसमें किसी का शोषण संभव न हो सके।
पूंजीवादी व्यवस्था में दो वर्ग हैं एक शोषक तथा दूसरा शोषित। शोषक वर्ग केवल भोक्ता है और श्रमिक वर्ग कर्ता। दोनों की स्थिति का अनुमान शेवंता की स्थिति से लगाया जा सकता है। एक तरफ शेवंता है जो काम की अधिकता एवं खुराक की कमी के कारण जवानी में ही बुढ़ा गई है, दूसरी तरफ बंगले की मालकिन है जो पचास साल की उम्र में भी जवान लगती है। पूंजीवादी शोषण ने शेवंता के जीवन से तेज व प्रसन्नता’ छीन ली है।
शेवंता की ससुराल शोलापुर में थी। अभावग्रस्त झोंपड़पट्टियां और फटेहाल लोग। इन झोपड़ियों के पड़ोस में स्थित बंगलों में शेवंता बरतन मांजती। जवान उम्र की यह शेवंता बुढ़िया हो गई थी। उस बंगले की पचास वर्ष की बुढ़िया जवान और प्रसन्न लगती। शेवंता के चेहरे की मुसकराहट, उसका तेज किसने छीना है? इस सूरजमुखी फूल की प्रसन्नता को किसने चुराया है?’ (पृ.-134)
गरीबी एक अभिशाप है और अभिशाप का कारण है शोषणकारी-व्यवस्था। अभाव व गरीबी व्यक्ति के जीवन मे कई तरह के कष्ट और तकलीफें लेकर आती हैं। रोजगार की असुरक्षा व स्थायी अभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास को रोकते हैं। गरीबी के कारण उसे विकास के अनुकूल अवसर नहीं मिलते। लेखक ने गरीबी को दुखों की जननी तो माना, लेकिन वह गरीबी को महिमामंड़ित भी करता है। गरीबी को दृढ़ता के साथ जोड़ना एक भाववादी पैंतरा ही है। गरीबी मनुष्य की मनुष्यता को समाप्त करती है। गरीबी के कारण वह ऐसे काम करने के लिए तैयार हो जाता है जो कि वह अन्यथा न करता। गरीबी न तो कोई प्राकृतिक व दैवीय वरदान-अभिशाप है न वह ऐसी कोई सत्ता है कि जिससे बचा नहीं जा सकता। वह व्यवस्था का गुण है और व्यवस्था मनुष्य निर्मित है जो बदली जा सकती है। गरीबी की कोई सार्वभौमिक व वैश्विक परिभाषा नहीं है यह एक सापेक्ष स्थिति है। किसी के मुकाबले में कोई अमीर है, लेकिन किसी दूसरे के मुकाबले में वह गरीब हो जाता है। असमानता को मापने का ही तरीका है गरीबी। यदि समस्त संसाधनों को मानवों की जरूरत के हिसाब से वितरित कर दिया जाए तो यह स्थिति नहीं होगी। जिस समाज में सबके लिए समान अवसर हों उस समाज में चरित्र ज्यादा दृढ़ होंगें।
कालेज की दुनिया में हमारी गरीबी फबती नहीं थी। गरीबी का दुख बड़ा गहरा होता है। यह दुख आदमी को अमर्याद बनाता है। दुख मनुष्य को मनुष्य के रूप में खड़ा कर देता है। जिसके दुख की जड़ें जितनी गहरी होती हैं वह मनुष्य उतने ही दृढ़ चरित्र का होता है। दुख और दरिद्रता को झेलते हुए हम शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
जेब में चाय को भी पैसे नहीं होते। परिस्थिति के कारण हम अंर्तमुख हो जाते। मेरे जैसे अनेक दलित मित्र हैं, यह दुख मेरा अकेले का नहीं है’ यह अहसास बढ़ता।’ (पृ.-134)
गरीबी का यह दुख सिर्फ दलित नहीं झेल रहे, बल्कि बहुत बड़ी आबादी है जो ऐसी स्थितियों में जी रही है। वे सब शोषण के शिकार हैं और इस शोषण से छूटकारा पाने के लिए दलितों के साथ संघर्ष में भी आ सकते हैं। लिम्बाले ने एक बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है जो चिन्ताजनक भी है और दलित समाज के सामने चुनौती भी है। पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति ज्यों ही कुछ विकास के अवसर पाकर विकास करता है या किसी के विकास करने की संभावना बनती है तो वह अपने वर्ग से कट जाता है। वह स्वयं को इस वर्ग से अलग कर लेता है। जिस का नतीजा होता है कि व्यक्ति उच्चवर्ग की संस्कृति को, सोच-विचार को व मूल्य-मान्यताओं को इस तरह स्वीकार कर लेता है कि उसे अपने वर्ग से ही नहीं, बल्कि अपने रिश्तेदारों व संबंधियों से भी रिश्ता रखने में शर्म महसूस होने लगती है। उसकी जागरूकता का, विकास का व सचेतता का उस वर्ग को कोई लाभ नहीं होता, जिसमें वह पैदा होता है। उनकी हालत तो क्या सुधरनी वह स्वयं दोहरा जीवन जीने लगता है। उसकी पारिवारिक स्थिति व ऐतिहासिक स्थिति उसके लिए एक ग्रंथि बन जाती है। वह इस अतीत के अभिशाप को बदलने की बजाए उससे पीछा छुड़ाने गता है। पीछा छुड़ाने के तरीके क्या हैं कि वह उस पहचान को अपनाता है, जो उसकी है नहीं और उसको छुपाता है जो उसकी पहचान है। यह एक सरल व आसान रास्ता है, लेकिन दलित समाज व आन्दोलन को इसका कोई लाभ नहीं होता। मराठवाड़ा आन्दोलन के दौरान लेखक अपनी जाति छुपाकर रहने लगता है। तो वह अपने को पालने-पोसने वाली संतामाय से इसलिए दूरी बनाने लगता है कि वह काली है और उसके पास बेहतरीन कपड़े नहीं हैं।
संतामाय बुढी स्त्री। हमेशा तंबाकू खानेवाली। साड़ी-चोली हमेशा फटी हुई। संतामाय को हास्टल के कमरे में कैसे ले जाऊं! संतामाय अगर गोरी, बेहतरीन कपड़ों में होतीं तो मैं कमरे पर ले जाता। मुझे संतामाय की लाज आ रही थी। सामने से जब कालेज के दोस्त दिखते जो मैं संतामाय से दूरी रखकर चलता, जैसे कि यह दरिद्र स्त्री मेरी कोई लगती ही न हो। संतामाय मुझसे पूछताछ कर रही थीं, मैं बोल नहीं रहा था। संतामाय थाली होती तो मैं उन्हें अपने भीतर छिपा लेता।’ (पृ.-141)
इस तरह की प्रवृति अन्ततः उसको अपने ही वर्ग के विरूद्ध खड़ा कर देती है। वह जल्दी से अपनों से पीछा छुड़ाना चाहता है। वह स्वयं को अमीर और समृद्ध देखना चाहता है, अपनी पहचान वह उच्चवर्ग से करने की लालसा उसे उसी वर्ग का हिस्सा बना देती है।
बस के यात्री मेरी तथा दादा की ओर देखते रहते। मुझे शर्म आती। हमाल के नाती के रूप में लोग मुझे पहचानते। कंडक्टर जल्दी सीटी दे दे, बस निकले, ऐसा लगता। फटेहाल अवस्था में खड़ी संतामाय, निरमी, वनी बस के हिलने की प्रतीक्षा में होतीं। अवरुद्ध कंठ के कारण आंखें भर आतीं। कंडक्टर सीटी देता। बस निकलती।’ (पृ.-143) किसी व्यक्ति के लिए किसी वर्ग के लिए सुधार के लिए सबसे पहली शर्त है उस वर्ग से गहरा जुड़ाव व सहानुभूति।

सर्वोच्च न्यायालय का खाप-पंचायत संबंधी फैसला

REPORTABLE

IN THE SUPREME COURT OF INDIA
CRIMINAL APPELLATE JURISDICTION
CRIMINAL APPEAL NO._958__of 2011
[Arising out of SLP(Criminal) No. 8084 of 2009]

Arumugam Servai .. Appellant (s)
-versus- State of Tamil Nadu .. Respondent
WITH
CRIMINAL APPEAL NO. 959 of 2011
[Arising out of SLP (Criminal) No. 8428 of 2009]

Ajit Kumar and others .. Appellant (s)
-versus-
State of Tamil Nadu .. Respondent
J U D G M E N T
MARKANDEY KATJU, J.
"Har zarre par ek qaifiyat-e-neemshabi hai
Ai saaki-e-dauraan yeh gunahon ki ghadi hai"
- Firaq Gorakhpuri

"We hold these truths to be self-evident, that all men are created equal, that they are endowed by their creator by certain inalienable rights, that among these are life, liberty, and the pursuit of happiness"
- American Declaration of Independence, 1776
1. Over two centuries have passed since Thomas Jefferson wrote those memorable words, which are still ringing in history, but a large section of Indian society still regard a section of their own countrymen as inferior. This mental attitude is simply unacceptable in the modern age, and it is one of the main causes holding up the country's progress.
2. Leave granted.
3. These appeals have been filed against the common judgment and order of the Madras High Court dated 25.1.2008 in Criminal Appeal Nos. 536-37 of 2001 upholding the judgment of the Leaned 4th Additional District and Sessions Judge, Madurai.
4. The allegation against the appellants is that on 1.7.1999, there was an altercation between the appellants and the complainants PW1 Panneerselvam and PW2 Mahamani in a Temple Festival regarding the method of tying bullocks in the Jallikattu. The appellant Arumugam Servai then insulted PW1 by saying "you are a pallapayal and eating deadly cow beef". Then accused 1, 7 and 9 attacked PW1 with sticks causing him injuries on his left shoulder. When PW2 Mahamani intervened he was attacked by the accused with sticks, and he sustained a fracture on his head, on which there was a lacerated wound.
5. Apart from the two injured eye-witnesses, there are 3 other eye-witnesses tothe occurrence. The doctor has testified to the injuries. The head fracture onMahamani indicates the deadly intent of the accused.
6. Both the Courts below have believed the prosecution case, and we see noreason to differ. We have carefully perused the testimony of the witnesses, and we see no reason to disbelieve them.
7. The accused belong to the `servai' caste which is a backward caste, whereas the complainants belong to the `pallan' caste which is a Scheduled Caste in Tamilnadu.
8. The word `pallan' no doubt denotes a specific caste, but it is also a word used in a derogatory sense to insult someone (just as in North India the word `chamar' denotes a specific caste, but it is also used in a derogatory sense to insult someone).
Even calling a person a `pallan', if used with intent to insult a member of the Scheduled Caste, is, in our opinion, an offence under Section 3(1)(x) of the Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities Act), 1989 (hereinafter referred to as the `SC/ST Act'). To call a person as a `pallapayal' in Tamilnadu is even more insulting, and hence is even more an offence.
9. Similarly, in Tamilnadu there is a caste called `parayan' but the word `parayan' is also used in a derogatory sense. The word `paraparayan' is even more derogatory.
10. In our opinion uses of the words `pallan', `pallapayal' `parayan' or `paraparayan' with intent to insult is highly objectionable and is also an offence under the SC/ST Act. It is just unacceptable in the modern age, just as the words `Nigger' or `Negro' are unacceptable for African-Americans today (even if they were acceptable 50 years ago).
11. In the present case, it is obvious that the word `pallapayal' was used by accused No. 1 to insult Paneerselvam. Hence, it was clearly an offence under the SC/ST Act.
12. In the modern age nobody's feelings should be hurt. In particular in a country like India with so much diversity (see in this connection the decision of this Court in Kailas vs. State of Maharashtra in Crl. Appeal No. 11/2011 decided on 5.1.2011) we must take care not to insult anyone's feelings on account of his caste, religion, tribe, language, etc. Only then can we keep our country united and strong.
13. In Swaran Singh & Ors. vs. State thr' Standing Counsel & Anr. (2008) 12 SCR 132, this Court observed (vide paras 21 to 24) as under:
"21. Today the word `Chamar' is often used by people belonging to the so- called upper castes or even by OBCs as a word of insult, abuse and derision. Calling a person `Chamar' today is nowadays an abusive language and is highly offensive. In fact, the word `Chamar' when used today is not normally used to denote a caste but to intentionally insult and humiliate someone.
22. It may be mentioned that when we interpret section 3(1)(x) of the Act we have to see the purpose for which the Act was enacted. It was obviously made to prevent indignities, humiliation and harassment to the members of SC/ST community, as is evident from the Statement of Objects & Reasons of the Act. Hence, while interpreting section 3(1)(x) of the Act, we have to take into account the popular meaning of the word `Chamar' which it has acquired by usage, and not the etymological meaning. If we go by the etymological meaning, we may frustrate the very object of the Act, and hence that would not be a correct manner of interpretation.
23. This is the age of democracy and equality. No people or community should be today insulted or looked down upon, and nobody's feelings should be hurt. This is also the spirit of our Constitution and is part of its basic features. Hence, in our opinion, the so-called upper castes and OBCs should not use the word `Chamar' when addressing a member of the Scheduled Caste, even if that person in fact belongs to the `Chamar' caste, because use of such a word will hurt his feelings. In such a country like ours with so much diversity - so many religions, castes, ethnic and lingual groups, etc. - all communities and groups must be treated with respect, and no one should be looked down upon as an inferior. That is the only way we can keep our country united.
24. In our opinion, calling a member of the Scheduled Caste `Chamar' with intent to insult or humiliate him in a place within public view is certainly an offence under section 3(1)(x) of the Act. Whether there was intent to insult or humiliate by using the word `Chamar' will of course depend on the context in which it was used".
14. We would also like to mention the highly objectionable two tumbler system prevalent in many parts of Tamilnadu. This system is that in many tea shops and restaurants there are separate tumblers for serving tea or other drinks to Scheduled Caste persons and non-Scheduled Caste persons. In our opinion, this is highly objectionable, and is an offence under the SC/ST Act, and hence those practicing it must be criminally proceeded against and given harsh punishment if found guilty. All administrative and police officers will be accountable and departmentally proceeded against if, despite having knowledge of any such practice in the area under their jurisdiction they do not launch criminal proceedings against the culprits.
15. In Lata Singh vs. State of U .P. & Anr (2006) 5 SCC 475, this Court observed (vide paras 14 to 18) as under:
"14. This case reveals a shocking state of affairs. There is no dispute that the petitioner is a major and was at all relevant times a major. Hence she is free to marry anyone she likes or live with anyone she likes. There is no bar to an inter-caste marriage under the Hindu Marriage Act or any other law. Hence, we cannot see what offence was committed by the petitioner, her husband or her husband's relatives.
15. We are of the opinion that no offence was committed by any of the accused (the couple who had an inter caste marriage) and the whole criminal case in question is an abuse of the process of the Court as well as of the administrative machinery at the instance of the petitioner's brothers who were only furious because the petitioner married outside her caste. We are distressed to note that instead of taking action against the petitioner's brothers for their unlawful and high-handed acts (details of which have been set out above) the police has instead proceeded against the petitioner's husband and his relatives.
16. Since several such instances are coming to our knowledge of harassment, threats and violence against young men and women who marry outside their caste, we feel it necessary to make some general comments on the matter. The nation is passing through a crucial transitional period in our history, and this Court cannot remain silent in matters of great public concern, such as the present one.
17. The caste system is a curse on the nation and the sooner it is destroyed the better. In fact, it is dividing the nation at a time when we have to be united to face the challenges before the nation unitedly. Hence, inter-caste marriages are in fact in the national interest as they will result in destroying the caste system. However, disturbing news are coming from several parts of the country that young men and women who undergo inter-caste marriage, are threatened with violence, or violence is actually committed on them. In our opinion, such acts of violence or threats or harassment are wholly illegal and those who commit them must be severely punished. This is a free and democratic country, and once a person becomes a major he or she can marry whosoever he/she likes. If the parents of the boy or girl do not approve of such inter-caste or inter-religious marriage the maximum they can do is that they can cut off social relations with the son or the daughter, but they cannot give threats or commit or instigate acts of violence and cannot harass the person who undergoes such inter-caste or inter- religious marriage. We, therefore, direct that the administration/police authorities throughout the country will see to it that if any boy or girl who is a major undergoes inter-caste or inter-religious marriage with a woman or man who is a major, the couple are not harassed by any one nor subjected to threats or acts of violence, and any one who gives such threats or harasses or commits acts of violence either himself or at his instigation, is taken to task by instituting criminal proceedings by the police against such persons and further stern action is taken against such persons as provided by law.
18. We sometimes hear of `honour' killings of such persons who undergo inter-caste or inter-religious marriage of their own free will. There is nothing honourable in such killings, and in fact they are nothing but barbaric and shameful acts of murder committed by brutal, feudal minded persons who deserve harsh punishment. Only in this way can we stamp out such acts of barbarism".
16. We have in recent years heard of `Khap Panchayats' (known as katta panchayats in Tamil Nadu) which often decree or encourage honour killings or other atrocities in an institutionalized way on boys and girls of different castes and religion, who wish to get married or have been married, or interfere with the personal lives of people. We are of the opinion that this is wholly illegal and has to be ruthlessly stamped out. As already stated in Lata Singh's case (supra), there is nothing honourable in honour killing or other atrocities and, in fact, it is nothing but barbaric and shameful murder. Other atrocities in respect of personal lives of people committed by brutal, feudal minded persons deserve harsh punishment. Only in this way can we stamp out such acts of barbarism and feudal mentality. Moreover, these acts take the law into their own hands, and amount to kangaroo courts, which are wholly illegal.
17. Hence, we direct the administrative and police officials to take strong measures to prevent such atrocious acts. If any such incidents happen, apart from instituting criminal proceedings against those responsible for such atrocities, the State Government is directed to immediately suspend the District Magistrate/Collector and SSP/SPs of the district as well as other officials concerned and chargesheet them and proceed against them departmentally if they do not (1) prevent the incident if it has not already occurred but they have knowledge of it in advance, or (2) if it has occurred, they do not promptly apprehend the culprits and others involved and institute criminal proceedings against them, as in our opinion they will be deemed to be directly or indirectly accountable in this connection.
18. The appellants in the present case have behaved like uncivilized savages, and hence deserve no mercy. With these observations the appeals are dismissed.
19. Copy of this judgment shall be sent to all Chief Secretaries, Home Secretaries and Director Generals of Police in all States and Union Territories of India with the direction that it should be circulated to all officers up to the level of District Magistrates and S.S.P./S.P. for strict compliance. Copy will also be sent to the Registrar Generals/Registrars of all High Courts who will circulate it to all Hon'ble
Judges of the Court. .
...... ............................J. (Markandey Katju) ....................................J. (Gyan Sudha Misra)

New Delhi; 19 th April, 2011